दूसरी बार: भाग 1

लेखिका- डा. उषा यादव

आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

ये भी पढ़ें- शादी के बाद

पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

ये भी पढ़ें- सिगरेट की लत

शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

ये भी पढ़ें- अफवाह के चक्कर में

बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

ये भी पढ़ें- आधा है चंद्रमा रात आधी

बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

ये भी पढ़ें- चक्रव्यूह: भाग 1

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

शादी के बाद

रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

ये भी पढ़ें- आधा है चंद्रमा रात आधी

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

ये भी पढ़ें- चक्रव्यूह: भाग 1

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

ये भी पढ़ें- अपनी धरती अपना देश

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

ये भी पढ़ें- सुसाइड: भाग 1

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

सिगरेट की लत

लेखक- मंजरी सक्सेना

उन की इस आदत से मैं वाकिफ हूं फिर भी पतिदेव की हुक्मउदूली नहीं कर सकती. खाना मेज पर रखेरखे ठंडा हो गया. अपनी आदत के अनुसार वह घंटे भर बाद वापस आए. चाहे कितना कुछ कहूं पर चिकने घड़े की तरह उन पर कुछ असर ही नहीं होता है. मेरा दिल तो शादी के बाद से ही पतिदेव को सिगरेट पीता देख कर सुलगना शुरू हो गया था. मैं जब भी उन के होंठों पर सौतन की तरह सिगरेट को चिपके देखती कसमसा कर रह जाती.

अब तो सिगरेट पीने की लत, शौक से जनून की हद तक बढ़ गई है और घर की तमाम कीमती चीजें फुंकनी शुरू हो गई हैं. कभी सोफे के कवर पर सिगरेट का जला निशान दिखाई देता है तो कभी कारपेट पर. सिगरेट पीने की कोई एक जगह तो बन नहीं सकती, इसलिए तकिए के कवर भी सिगरेट के वार से बच नहीं पाते. अखबार या पत्रिका पढ़तेपढ़ते हाथ में सिगरेट दबाए कब पतिदेव नींद में खर्राटे लेने लगते हैं, उन्हें खुद पता नहीं चलता है.

ये भी पढ़ें- आधा है चंद्रमा रात आधी

वह तो जब मैं काम खत्म कर सोने के लिए कमरे में आती हूं तो रजाई व गद्दे से उठते धुएं का रहस्य समझ में आता है. दुखी हो कर एक बार तो मैं ने पतिदेव को धमकी भी दे डाली थी, ‘‘या तो तुम सिगरेट पीना बंद कर दो, वरना मैं तुम से दोगुनी सिगरेट पीना शुरू कर दूंगी.’’ पतिदेव ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘यह शुभ काम तुम जितनी जल्दी चाहो शुरू कर लो.’’

पति को खुश देख कर सोचा कोई और चाल चलनी होगी, सो मैं ने ऐलान कर दिया, ‘‘आज से आप घर के अंदर सिगरेट नहीं पिएंगे.’’ ‘अंधा क्या चाहे दो आंखें.’ यह कहावत यहां बिलकुल सटीक बैठी. अब तो पान की दुकान पर देर रात तक मित्रमंडली में जमे रहने का उन्हें एक बहाना मिल गया. अब मैं पति के इंतजार में कुढ़ती रहती हूं. कुछ कह भी नहीं पाती.

मसूरी में हिमपात हुआ तो पति ने मुझे खुश करने के लिए स्नोफाल देखने का प्रोग्राम बना डाला. वहां पहुंचे तो स्नोफाल नहीं देख सके, क्योंकि दिल्ली की बरसात की तरह स्नोफाल रूपी बादल बरस चुके थे. हां, वहां पहुंच कर बर्फ पर पैर फिसलने का खतरा मुझे जरूर लग रहा था. नीचे से आते हुए लोगों पर वहां पहले पहुंचे लोग बर्फ का गोला बना कर फेंक रहे थे.

ये भी पढ़ें- चक्रव्यूह: भाग 1

मेरी कनपटी पर ऐसे ही एक बर्फ का गोला लगने से मैं स्वयं को संभाल नहीं पाई और फिसल गई. आखिर वही हुआ जिस के लिए मैं डर रही थी. हिम्मत कर के उठी तब तक दूसरा गोला सिर पर पड़ा और दोबारा गिर पड़ी. अब दर्द से कराहती हुई मैं वापस उतरने लगी. दूर से अपनी गाड़ी के पास भीड़ लगी देख कर मन में एकसाथ शंका के कई बुलबुले बनने व फूटने लगे.

आखिर में मेरी सोच सिगरेट पर जा कर अटक गई. मुझे लगा कि शायद गाड़ी चलाते समय पति के हाथ में सिगरेट जलती ही होगी और नींद का झोंका आया होगा और हाथ की जलती सिगरेट छूट कर नीचे गिर गई होगी. जब फर्श का कारपेट जल कर गाड़ी में धुआं भर गया होगा तो उसे देख कर लोगों ने शीशा तोड़ कर आग बुझाई होगी. पता नहीं क्या सोच कर मैं दुखी नहीं थी.

शायद मैं सोच रही थी कि आज के बाद पति हमेशा के लिए ही सिगरेट छोड़ देंगे, क्योंकि बहुत बड़ा नुकसान होतेहोते बच गया. रात को खाना खाने से पहले मैं ने पति को बाहर जाते देख कर पूछा, ‘‘कहां जा रहे हैं?’’ ‘‘सिगरेट खत्म हो गई है. बाहर पीने जा रहा हूं.’’ ‘‘क्या…आप ने अब भी सिगरेट छोड़ने का फैसला नहीं किया?’’ ‘‘तुम क्या समझती हो कि मेरी सिगरेट से गाड़ी जलने लगी थी?’’ ‘‘और क्या.

इस में कोई शक है क्या?’’ ‘‘मैडम, तुम्हारी पूजापाठ की वजह से आज गाड़ी में आग लग जाती. घर से कहीं जाओगी तो गाड़ी में अगरबत्ती जलाना नहीं भूलती हो. आगे से यह सब नहीं चलेगा, समझीं.’’ मैं आंखें फाड़े आश्चर्य से पति को देख रही थी.

ये भी पढ़ें- अपनी धरती अपना देश

अफवाह के चक्कर में

जैसे ही बड़े साहब के कमरे में छोटे साहब दाखिल हुए, बड़े साहब हत्थे से उखड़ पड़े, ‘‘इस दीवाली पर प्रदेश में 2 अरब की मिठाई बिक गई, आप लोगों ने व्यापार कर वसूलने की कोई व्यवस्था ही नहीं की. करोड़ों रुपए का राजस्व मारा गया और आप सोते ही रह गए. यह देखिए अखबार में क्या निकला?है? नुकसान हुआ सो हुआ ही, महकमे की बदनामी कितनी हुई? पता नहीं आप जैसे अफीमची अफसरों से इस मुल्क को कब छुटकारा मिलेगा?’’

बड़े साहब की दहाड़ सुन कर स्टेनो भी सहम गई. उस के हाथ टाइप करतेकरते एकाएक रुक गए. उस ने अपनी लटें संभालते हुए कनखियों से छोटे साहब के चेहरे की ओर देखा, वह पसीनेपसीने हुए जा रहे थे. बड़े साहब द्वारा फेंके गए अखबार को उठा कर बड़े सलीके से सहेजते हुए बोले, ‘‘वह…क्या है सर? हम लोग उस से बड़ी कमाई के चक्कर में पड़े हुए थे…’’

उन की बात अभी आधी ही हुई थी कि बड़े साहब ने फिर जोरदार डांट पिलाई, ‘‘मुल्क चाहे अमेरिका की तरह पाताल में चला जाए. आप से कोई मतलब नहीं. आप को सिर्फ अपनी जेबें और अपने घर भरने से मतलब है. अरे, मैं पूछता हूं यह घूसखोरी आप को कहां तक ले जाएगी? जिस सरकार का नमक खाते हैं उस के प्रति आप का, कोई फर्ज बनता है कि नहीं?’’

ये भी पढ़ें- आधा है चंद्रमा रात आधी

यह कहतेकहते वह स्टेनो की तरफ मुखातिब हो गए, ‘‘अरे, मैडम, आप इधर क्या सुनने लगीं, आप रिपोर्ट टाइप कीजिए, आज वह शासन को जानी है.’’

वह सहमी हुई फिर टाइप शुरू करना ही चाहती थी कि बिजली गुल हो गई. छोटे साहब और स्टेनो दोनों ने ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए राहत की कुछ सांसें ले डालीं. पर यह आराम बहुत छोटा सा ही निकला. बिजली वालों की गलती से इस बार बिजली तुरंत ही आ गई.

‘‘सर, बात ऐसी नहीं थी, जैसी आप सोच बैठे. बात यह थी…’’ छोटे साहब ने हकलाते हुए अपनी बात पूरी की.

‘‘फिर कैसी बात थी? बोलिए… बोलिए…’’ बड़े साहब ने गुस्से में आंखें मटकाईं. स्टेनो ने अपनी हंसी को रोकने के लिए दांतों से होंठ काट लिए, तब जा कर हंसी पर कंट्रोल कर पाई.

‘‘सर, हम लोग यह सोच रहे थे कि मिठाई की बिक्री तो 1-2 दिन की थी, जबकि फल और सब्जियों की बिक्री रोज होती है, पापी पेट भरने के लिए सब्जियां खरीदा जाना आम जनता की विवशता है. तो क्यों न उस पर…’’

इतना सुनना था कि बड़े साहब की आंखों में चमक आ गई, वह खुशी से उछल पडे़, ‘‘अरे, वाह, मेरे सोने के शेर. यह बात पहले क्यों नहीं बताई? अब आप बैठ जाइए, मेरी एक चाय पी कर ही यहां से जाएंगे,’’ कहतेकहते फिर स्टेनो की तरफ मुड़े, ‘‘मैडम, जो रिपोर्ट आप टाइप कर रही?थीं, उसे फाड़ दीजिए. अब नया डिक्टेशन देना पड़ेगा. ऐसा कीजिए, चाय का आर्डर दीजिए और आप भी हमारे साथ चाय पीएंगी.’’

ये भी पढ़ें- चक्रव्यूह: भाग 1

अगले दिन से शहर में सब्जियों पर कर लगाने की सूचना घोषित कर दी गई और उस के अगले दिन से धड़ाधड़ छापे पड़ने लगे. अमुक के फ्रिज से 9 किलो टमाटर निकले, अमुक के यहां 5 किलो भिंडियां बरामद हुईं. एक महिला 7 किलो शिमलामिर्च के साथ पकड़ी गई?थी, पर 2 किलो के बदले में उसे छोड़ दिया. जब आईजी से इस बाबत बात की गई तो पता चला कि वह सब्जी बेचने वाली थी, उस ने लाइसेंस के लिए केंद्रीय कार्यालय में अरजी दी हुई है. शहर में सब्जी वालों के कोहराम के बावजूद अच्छा राजस्व आने लगा. बड़े साहब फूले नहीं समा रहे थे.

एक दिन बड़े साहब सपरिवार आउटिंग पर थे. आफिस में सूचना भेज दी थी कि कोई पूछे तो मीटिंग में जाने की बात कह दी जाए. छोटे साहब और स्टेनो, दोनों की तो जैसे लाटरी लग गई. उस दिन सिवा चायनाश्ते के कोई काम ही नहीं करना पड़ा. अभी हंसीमजाक शुरू ही हुआ था कि चपरासी ने उन्हें यह कह कर डिस्टर्ब कर दिया कि कोई मिलने आया है.

छोटे साहब ने कहा, ‘‘मैं देख कर आता हूं,’’ बाहर देखा तो एक नौजवान अच्छे सूट और टाई में सलाम मारता मिला. उसे कोई अधिकारी जान छोटे साहब ने अंदर आने का निमंत्रण दे डाला. उस ने हिचकिचाते हुए अपना परिचय दिया, ‘‘मैं छोटामोटा सब्जी का आढ़ती हूं. इधर से गुजर रहा था तो सोचा क्यों न सलाम करता चलूं,’’ यह कहते हुए वह स्टेनो की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘मैडम, यह 1 किलो सोयामेथी आप के लिए?है और ये 6 गोभी के फूल और 2 गड्डी धनिया, छोटे साहब आप के लिए.’’

छोटे साहब ने इधरउधर देखा और पूछा, ‘‘बड़े साहब के लिए?’’

उस ने दबी जबान से बताया, ‘‘एक पेटी टमाटर उन के घर पहुंचा आया हूं.’’

बड़े साहब की रिपोर्ट शासन से होती हुई जब अमेरिका पहुंची तो वहां के नए राष्ट्रपति ने ऐलान किया कि अगर लोग हिंदुस्तान की सब्जी मार्किट में इनवेस्ट करना शुरू कर दें तो वहां के स्टाक मार्किट में आए भूचाल को समाप्त किया जा सकता है.

ये भी पढ़ें- अपनी धरती अपना देश

एक अखबार ने हिंदुस्तान की फुजूलखर्ची पर अफसोस जताते हुए खबर छापी, ‘‘अगर चंद्रयान के प्रक्षेपण पर खर्च किए धन को सब्जी मार्किट में लगा दिया जाता तो उस के फायदे से लेहमैन जैसी 100 कंपनियां खरीदी जा सकती थीं.’’

जैसे आयकर के छापे पड़ने से बड़े लोगों के सम्मान में चार चांद लगते हैं, बड़ेबड़े घोटालों के संदर्भ में छापे पड़ने से राजनीतिबाज गर्व का अनुभव करते हैं, आपराधिक मुकदमों की संख्या देख कर चुनावी टिकट मिलने की संभावना बढ़ती है वैसे ही सब्जी के संदर्भ में छापे पड़ने से सदियों से त्रस्त हम अल्पआय वालों को भी सम्मान मिल सकता है, यह सोच कर मैं ने भी अपने महल्ले में अफवाह उड़ा दी कि मेरे घर में 5 किलो कद्दू है.

छापे के इंतजार में कई दिन तक कहीं बाहर नहीं निकला. अपनी गली से निकलने वाले हर पुलिस वाले को देख कर ललचाता रहा कि शायद कोई आए. मेरा नाम भी अखबारों में छपे. 15 दिन की प्रतीक्षा के बाद जब मैं यह सोचने को विवश हो चुका था कि कहीं कद्दू को बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) में तो नहीं रख दिया गया? तभी एक पुलिस वाला आ धमका. मेरी आंखों में चमक आ गई. मैं ने बीवी को बुलाया, ‘‘सुनती हो, इन को कद्दू ला के दिखा दो.’’

बीवी मेरे द्वारा बताए गए दिशा- निर्देशों के अनुसार पूरे तौर पर सजसंवर कर…बड़े ही सलीके से 250 ग्राम कद्दू सामने रखती हुई बोली, ‘‘बाकी 15 दिन में खर्च हो गयाजी.’’

पुलिस वाले ने गौर से देखा कि न तो चायपानी की कोई व्यवस्था थी और न ही मेरी कोई मुट्ठी बंद थी. उस की मुद्रा बता रही थी कि वह मेरी बीवी के साजशृंगार और मेरे व्यवहार, दोनों ही से असंतुष्ट था. वह मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आप को अफवाह फैलाने के अपराध में दरोगाजी ने थाने पर बुलवाया है.’’

ये भी पढ़ें- सुसाइड: भाग 1

आधा है चंद्रमा रात आधी

‘‘मान्यवर, महंगाई के बारे में आप से कुछ बात करनी थी.’’

वह गुस्से से थर्रा उठे थे. कुरसी उन से टकराई थी या वह कुरसी से, मैं नहीं बता सकता.

‘‘इस के लिए आप ने कितनी बार लिख डाला? गिनती में आप बता सकते हैं?’’

‘‘जी, जितनी बार वामपंथियों ने समर्थन वापस लेने की धमकियां दे डालीं,’’ मैं ने विनम्रता से कहा.

‘‘इस मुद्दे पर आप हमारा कितना कीमती समय बरबाद कर चुके हैं, कुछ मालूम है. आप को तो मुल्क की कोई दूसरी समस्या ही नजर नहीं आती… पाकिस्तानी सीमा पर आएदिन गोलीबारी होती रहती है. चीनी सीमा अभी तक विवादित पड़ी है. हम देश की अस्मिता बचाने में परेशान हैं. हमारी आधी सेना उन से लोहा लेने में लगी हुई है…’’

ये भी पढ़ें- सुसाइड: भाग 1

उन के इस धाराप्रवाह उपदेश के दौरान ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘और बाकी आधी…’’

उन्होंने गुर्रा कर कहा, ‘‘मुल्क के तमाम हिस्सों में बोरवेलों में गिरने वाले बच्चों को निकालने में…कभी आप ने यह जानना नहीं चाहा कि अंदरूनी हालात भी कम खराब नहीं चल रहे हैं. मुंबई, बनारस, अक्षरधाम, हैदराबाद, बंगलौर, जयपुर के बाद अभी हाल में दिल्ली में आतंकवादी हमलों से देश कांप उठा है. हमारे आधे सुरक्षाबल तो उन्हीं से जूझ रहे हैं.’’

मैं ने प्रश्नवाचक मुंह बनाया, ‘‘बाकी आधे…’’

उन्होंने खट्टी डकार लेते हुए बताया, ‘‘वी.आई.पी. सुरक्षा में मालूम नहीं क्यों लोग अधिकारियों और मंत्रियों का घेराव करते रहते हैं. हमारे पास जादुई चिराग तो है नहीं. किसान कहते हैं अनाज की कीमतें बढ़ाइए, आप कहते हैं घटाइए. आप ही बताइए हम इसे कैसे संतुलित करें? हम तो बीच में कुछ अनाज धर्मकर्म पर या व्यवस्था के नाम पर ही तो लेते हैं. शेष का आधा आप लोगों की सेवा में ही लगाया जाता है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘और बाकी आधा…’’

वह बहुत जोर से झल्ला उठे, ‘‘बाकी आधा सरकारी गोदामों में सड़ जाता है. आप लोग यह जो नेतागीरी करते रहते हैं, हमें काम करने का समय ही नहीं मिल पाता. गोदाम से अनाज निकलवाने के लिए हमें सुप्रीम कोर्ट तक बेकार की दौड़ करनी पड़ती है. यह काम सुप्रीम कोर्ट का है कि दिल्ली की सड़कों की सफाई के लिए भी लोग वहां पहुंच जाते हैं. उस का आधा समय तो यों ही निकल जाता है.’’

‘‘और शेष आधा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आतंकवादियों के मुकदमे सुनने में, पुलिस वालों के मुकदमे सुनने में और सरकारी व संवैधानिक संकट के समय उन को सलाहमशविरा देने में.

‘‘हमारी तो दिली इच्छा है कि हम सरकारों या सियासी पार्टियों को इस दलदल से निकालें. पर ये दोनों ही जनता की आड़ ले कर निकलना ही नहीं चाहते. जो बच्चे बोरवेल से निकलना चाहते थे, निकल लिए. जिन कपड़ों को मौडलों के बदन से निकलना था, निकल लिए. जो आतंकवादी मुल्क से निकलना चाहते थे, निकल लिए. जो अपराधी जेल से निकलना चाहते थे, निकल लिए.

ये भी पढ़ें- नमामि: भाग 1

जो नेता पार्टी से निकलना चाहते थे, निकल लिए जो ‘बड़े’ घोटालों से निकलना चाहते थे, निकल लिए. स्वाभाविक नींद सोने वालों को तो जगाया जा सकता है, पर जो बन के सो रहे हों, उन्हें कौन जगा सकता है? क्योंकि तेल कंपनियां मुसीबत से निकलना चाहती थीं, प्रधानमंत्री से अपना रोना रोईं, उन्होंने आश्वासन दिया कि वे उन को परेशान नहीं देखना चाहते, कुछ दाम तो बढ़ाने ही होंगे. इस के बाद ‘ब्रांडेड’ पेट्रोल और बढ़े हुए दामों पर आ गया, रसोई गैस के नए कनेक्शन मिलने बंद हो गए हैं, आप जानते हैं कि आप मिट्टी के तेल, रसोई गैस आदि के असली मूल्य का आधा ही चुकाते हैं.’’

‘‘और आधा…’’ मेरे मुंह से आदतानुसार निकल गया.

‘‘अभी तक हम चुका रहे थे, अब बंद कर देंगे. आप का समय ‘पूरा’ खत्म हो गया.’’

मैं बाहर निकलते समय सोच रहा था कि वह सचमुच कितनी कंजूसी से काम चलाते हैं. आधे सांसदों से भी कम खर्च कर के सरकार बना भी लेते हैं और चला भी लेते हैं. जो तनाव ले कर मैं उन से मिलने गया था, आधा कम हो चुका था. ‘आधा है चंद्रमा रात आधी…’ गीत गुनगुनाते हुए मैं लौट पड़ता हूं क्योंकि अच्छा संगीत तनाव को आधा कर देता है.

ये भी पढ़ें- चौथा चक्कर

चक्रव्यूह: भाग 1

सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

ये भी पढ़ें- सुसाइड: भाग 1

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

ये भी पढ़ें- नमामि: भाग 1

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

ये भी पढ़ें- चौथा चक्कर

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

ये भी पढ़ें- सुबह का भूला

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अपनी धरती अपना देश

‘‘कसम ऊपर वाले की, जो दोबारा कभी यूरोप गया. न तो वहां किसी में सिविक सेंस है और न ही नागरिक अधिकारों के बारे में कोई जागरुकता,’’ वह आज ही यूरोप की यात्रा से लौटे थे और पानी पीपी कर यूरोप को कोसे जा रहे थे.

‘‘लेकिन इन मामलों में तो अंगरेज अग्रदूत माने जाते हैं,’’ मैं ने टोका.

‘‘क्या खाक माने जाते हैं,’’ वह गरम तवे पर पानी की बूंद की तरह छनछना उठे, ‘‘यह बताइए कि सांस लेना और खानापीना मनुष्य का मौलिक अधिकार है या नहीं?’’

‘‘है,’’ मैं ने सिर हिलाया.

‘‘तो फिर उगलना और विसर्जन करना भी मौलिक अधिकार हुआ,’’ उन्होंने विजयी मुद्रा में घोषणा की फिर बोले, ‘‘एक अपना देश है जहां चाहो विसर्जन कर लो. आबादी हो या निर्जन, कहीं कोई प्रतिबंध नहीं, लेकिन वहां पेट भले फट जाए पर मकान व दुकान के सामने तो छोड़ो सड़क किनारे भी विसर्जन नहीं कर सकते.’’

‘‘लेकिन वहां सरकार ने जगहजगह साफसुथरे टायलेट बनवा रखे हैं, उन में जाइए,’’ मैं ने समझाया.

‘‘बनवा तो रखे हैं लेकिन अगर हाजत आप को चांदनी चौक में लगी हो और फारिग होने कनाट प्लेस जाना पड़े तो क्या बीतेगी?’’ उन्होंने आंखें तरेरीं फिर तमकते हुए बोले, ‘‘आप को कुछ पता तो है नहीं. घर से बाहर निकलिए, दुनिया देखिए तब अच्छेबुरे में फर्क करने की तमीज पैदा हो पाएगी. तब तक के लिए फुजूल में टांग घुसेड़ने की आदत छोड़ दीजिए.’’

ये भी पढ़ें- सुसाइड: भाग 1

मुझे डपटने के बाद शायद उन्हें कुछ रहम आया. अत: थोड़ा मधुर कंठ से बोले, ‘‘यह बताइए कि आप को जुकाम हो और नाक गंदे नाले की तरह बह रही हो तो क्या करेंगे?’’

‘‘जुकाम की दवा खाएंगे,’’ मैं ने तड़ से बताया.

वह पल भर के लिए हड़बड़ाए. शायद मनमाफिक उत्तर नहीं मिला था. अत: अपने प्रश्न को थोड़ा और संशोधित करते हुए बोले, ‘‘डाक्टर की दुकान में घुसने से पहले क्या करेंगे आप?’’

‘‘जेब टटोल कर देखेंगे कि बटुआ है कि नहीं,’’ मैं ने फिर तड़ से उत्तर दिया.

इस बार उन के सब्र का पैमाना छलक गया. वह हत्थे से उखड़ते हुए बोले, ‘‘क्या बेहूदों की तरह नाक बहाते भीतर घुस जाएंगे और सुपड़सुपड़ कर सब के सामने नाक सुड़किएगा?’’

‘‘जी, नहीं, पहले नाक छिनक कर साफ करूंगा फिर भीतर जाऊंगा,’’ मैं ने कबूला. उन का प्रश्न वाजिब था. पर मेरी ही समझ में कुछ विलंब से आया.

‘‘तो गोया कि आप पहले घर जाएंगे और राजा बेटा की तरह नाक साफ करेंगे फिर वापस आ कर डाक्टर की दुकान में जाएंगे,’’ वह रहस्यमय ढंग से मुसकराए.

‘‘खामखां मैं घर क्यों जाऊंगा? वहीं नाक साफ करूंगा फिर डाक्टर से दवा ले कर घर लौटूंगा,’’ इस बार उखड़ने की बारी मेरी थी.

‘‘यही तो…यही तो…मैं सुनना चाहता था आप की जबान से,’’ वह यों उछले जैसे बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो. फिर मेरे कंधों पर हाथ रख भावुक हो उठे, ‘‘वहां जुकाम हो तो सड़क पर नाक नहीं छिनक सकते. कहते हैं रूमाल में पोंछ कर जेब में रख लो. छि…छि…सोच कर भी घिन आती है. उसी रूमाल से मुंह पोंछो, उसी से नाक. दोनों हैं अगलबगल में पर कुदरत ने कुछ सोच कर ही दोनों के छेद अलगअलग बनाए हैं. वह फर्क तो बरकरार रखना चाहिए.’’

‘‘तो 2 रूमाल रख लीजिए,’’ मैं ने उन की भीषण समस्या का आसान सा हल सुझाया फिर समझाने लगा, ‘‘सड़क पर एक इनसान गंदगी करता है तो दूसरे को उस की गंदगी साफ करनी पड़ती है. कितनी गलत बात है यह.’’

ये भी पढ़ें- नमामि: भाग 1

‘‘बात गलत नहीं, बल्कि सोच गलत है तुम्हारी,’’ वह शोले से भड़के. फिर मेरी अज्ञानता पर तरस खा शांत स्वर में बोले, ‘‘वैसे देखा जाए तो गलती तुम्हारी नहीं है. गलती तुम्हारी उस शिक्षा की है जो अंगरेजों की देन है.’’

इतना कह कर वह पल भर के लिए ठहरे फिर सांस भरते हुए बोले, ‘‘हम भारतवासी सदा से दयालु रहे हैं. जितना खाते हैं उतना गिराते भी हैं ताकि कीड़ेमकोड़ों और पशुपक्षियों का भी पेट भर सके. लेकिन ये जालिम अंगरेज तो इनसानों का भी भला नहीं सोचते.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं.’’

उन्होंने मुझ पर तरस खाती दृष्टि डाली फिर समझाने की मुद्रा में बोले, ‘‘बरखुरदार, अपने देश में हम लोग परंपरापूर्वक मूंगफली और केला खा कर प्लेटफार्म पर फेंकते हैं, पूर्ण आस्था के साथ पान खा कर आफिस में थूकते हैं. श्रद्धापूर्वक बचाखुचा सामान पार्क में छोड़ देते हैं. इस से समाज का बहुत भला होता है.’’

‘‘समाज का भला?’’

‘‘हां, बहुत बड़ा भला,’’ वह अत्यंत शांत मुद्रा में मुसकराए फिर पूर्ण दार्शनिक भाव से बोले, ‘‘गंदगी मचाने से रोजगार का सृजन होता है क्योंकि अगर गंदगी न हो तो सफाई कर्मचारियों को काम नहीं मिलेगा. बेचारों के परिवार भूखे नहीं मर जाएंगे? लेकिन अंगरेजों को इस से क्या? वे तो हमेशा से मजदूरों के दुश्मन रहे हैं. इतिहास गवाह है कि जब भी किसी इनसान ने अधिकारों की मांग की है, अंगरेजों ने उसे बूटों तले कुचल डाला है.

ये भी पढ़ें- चौथा चक्कर

अब दूसरे मुल्कों में उन की हुकूमत तो रही नहीं, इसलिए अपने ही नागरिकों को गुलाम बना लिया. बेचारे अपने ही घर के सामने कूड़ा नहीं फेंक सकते, अपने ही महल्ले में सड़क घेर कर भजनकीर्तन नहीं कर सकते, सुविधानुसार गाड़ी पार्क नहीं कर सकते, अपने ही आफिस में पीक उगलने का आनंद नहीं ले सकते. जरूरत पड़ने पर इच्छानुसार विसर्जन नहीं कर सकते. काहे का लोकतंत्र जहां हर पसंदीदा चीज पर प्रतिबंध हो? सच्चा लोकतंत्र तो अपने यहां है. अपना देश, अपनी धरती. जहां चाहो थूको, जहां चाहो फेंको, जहां चाहो विसर्जन करो, कोई रोकटोक नहीं. इसीलिए तो कहते हैं, मेरा देश महान…’’

वह बोले जा रहे थे और मैं टकटकी बांधे देखे जा रहा था. लग रहा था कि शायद वह सही हैं.

नमामि: भाग 1

लेखिका- मधुलता पारे

अचानक डोरबैल बजी. दरवाजा खोला तो रामवती धड़धड़ाते हुए अंदर घुसी और कल्पना के कुछ बोलने से पहले ही शुरू हो गई, ‘‘क्या करूं बीबीजी, देर हो गई. सोनू का डब्बा जो बनाना था.’’

कल्पना ने पूछा, ‘‘यह सोनू कौन है? तुम्हारा बेटा?’’

रामवती की 2 बेटियां और एक बेटा है.

रामवती के हाथ तेजी से काम करते जा रहे थे. एक सैकंड के लिए हाथ रोक कर कल्पना की ओर देख कर वह बोली, ‘‘नहीं बीबीजी, मेरे बेटे को तो स्कूल में ही खाना मिलता है. सोनू मेरा दामाद है. यहां वह जींस सिलने के कारखाने में काम करता है. वहां उसे 9 बजे तक पहुंचना होता है.’’

कल्पना को देर हो रही थी. सोनू की पहेली में उल झती तो और देर हो जाती. उस ने रामवती से कहा, ‘‘देखो, मु झे देर हो रही है. अभी  झाड़ूपोंछा रहने दो. शाम को कर देना.’’

कल्पना ने जैसेतैसे टिफिन में कुछ नमकीन और बिसकुट रखे. रामवती के बाहर निकलते ही उस ने ताला लगाया और तेज कदमों से बस स्टौप की ओर बढ़ गई. गनीमत थी कि बस मिल गई. थोड़ा सुकून से बैठने को मिला. वह विचारों में खो गई.

ये भी पढ़ें- सुबह का भूला

छोटा सा परिवार था कल्पना का. पति राजेश, 2 बच्चे श्रेयस और श्रेया और मांजी. राजेश एक सैंटर सर्विस में काम करते थे. बेटा बैंगलुरु से इंजीनियरिंग कर रहा था और बेटी 12वीं जमात में पढ़ रही थी.

कल्पना स्टेट गवर्नमैंट के औफिस में काम करती थी. अचानक दूर इस शहर में उस का ट्रांसफर हो गया था. पहले तो मन हुआ कि नौकरी छोड़ दे, फिर बच्चों की पढ़ाई और उन के भविष्य की खातिर इस्तीफा देने का विचार छोड़ना पड़ा.

राजेश ने भी कल्पना को सम झाया था, ‘आज के हालात में 300 किलोमीटर की दूरी परिवहन के साधनों के चलते महज कुछ घंटों की रह गई है. छुट्टियों में कभी तुम आ जाना, कभी मैं ही चला आऊंगा. ऐसे ही समय निकल जाएगा.’

बड़ी दीदी ने भी इस गंभीर समस्या को सुल झाने में अपना पूरा सहयोग दिया. राजेश की शादी से ले कर दोनों बच्चों के जन्म के समय बाबूजी के न रहने पर एक दीदी ही थीं, जो हर समय रक्षा कवच बन कर खड़ी रहती थीं. उन के रहते राजेश को कभी किसी बात की चिंता नहीं रहती थी.

राजेश के घर से 2 किलोमीटर की दूरी पर दीदी अपने परिवार के साथ रहती थीं. 2 साल पहले राजेश के जीजाजी नहीं रहे थे. दीदी ने अपने परिवार को बखूबी अनुशासन में बांध कर रखा हुआ था. इस शहर में कल्पना के मकान की समस्या को उन्होंने चुटकी बजाते ही हल कर दिया था.

दरअसल, उन की छोटी बहू के पिताजी के इस शहर में 2 मकान थे. एक में वे रहते थे और एक किराए पर उठाया हुआ था. कुछ दिन पहले ही किराएदार ने मकान खाली किया था. उसी मकान में कल्पना आ गई थी.

अचानक बस रुकी. कल्पना का स्टौप आ गया था. वह जल्दी से उतर कर औफिस पहुंची और काम में लग गई.

शाम को घर पहुंच कर कल्पना पलंग पर निढाल सी लेटी ही थी कि रामवती आ गई.

रामवती सांवले रंग की भरेपूरे बदन की दबंग औरत थी.

‘‘पोंछा लगा दूं क्या?’’ रामवती ने कल्पना से पूछा.

कल्पना ने कहा, ‘‘हां, लगा दे पोंछा और फिर चाय बना देना.’’

कल्पना ने रामवती से पहले ही तय कर लिया था कि वह शाम को तकरीबन 6 बजे आएगी तो वह चाय बना देगी या जो भी काम होगा कर देगी.

चाय पीतेपीते अचानक कल्पना को ध्यान आया और उस ने रामवती से पूछ लिया, ‘‘जैसा कि तुम ने बताया था तुम्हारी बेटियां छोटी हैं, फिर यह दामाद कहां से आ गया?’’

ये भी पढ़ें- गर्व से कहो हम भारतीय हैं

‘‘अरे बीबीजी, नमामि से सोनू की सगाई की है, तो फिर वह दामाद ही हुआ न.’’

‘‘नमामि तुम्हारी बेटी का नाम है क्या? बड़ा अच्छा नाम है. किस ने रखा है?’’ यह सुन कर रामवती इतमीनान से शुरू हो गई, ‘‘बीबीजी, जब मैं दाखिले के लिए बेटी को स्कूल ले कर गई थी, तब मैडम ने उस का नाम पूछा था. मैं ने बता दिया था कि जरा दबे रंग की है न, तो हम ने उस का नाम काली रख दिया था.

‘‘मैडम ने काली नाम लिखने से मना कर दिया और कहा कि दूसरा नाम बताओ तो मैं ने कहा कि मैडमजी, आप ही कोई अच्छा सा नाम लिख दो.

‘‘मैडमजी ने नमामि नाम रखा और कहा कि इसे आज के बाद से काली नाम से मत बुलाना, तब से हम सब उसे नमामि ही बुलाते हैं.’’

कल्पना ने पूछा, ‘‘दूसरी बेटी का क्या नाम है?’’

रामवती ने कहा, ‘‘शिवानी.’’

‘‘तुम्हारे बेटे का क्या नाम है?’’

‘‘उस का स्कूल में दीपक नाम है और घर में हम राजा बुलाते हैं,’’ रामवती ने कहा.

‘‘नमामि तो अभी नाबालिग है… इतनी जल्दी सगाई कर दी. दामाद सोनू का ध्यान रखना, उस के लिए रोज खाना बनाना… क्या वह तुम्हारे घर में ही रहता है?’’ कल्पना ने पूछा.

कल्पना के सवालों को नजरअंदाज करते हुए रामवती ने बात जारी रखी, ‘‘बीबीजी, 17 साल की तो हो गई है नमामि. जल्दी ही 18 साल की हो जाएगी. उस का पढ़ाई में मन लगता नहीं है. 8वीं जमात के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया था. पिछले साल मेरी भतीजी की शादी थी. सोनू उसी का देवर है. मु झे देखते ही भा गया. एकदम गोराचिट्टा गबरू जवान है. मैं ने मन ही मन उसे नमामि के लिए पसंद कर लिया.

‘‘मैं ने अपने भाई और मां से बात की. उन को भी इस शादी से कोई एतराज नहीं था. फिर हम लोगों ने सोनू के घर वालों से बात की. उन लोगों को भी नमामि पसंद आ गई.

‘‘मैं ने उसी शादी में नमामि की सोनू से सगाई करा दी थी.’’

‘‘पर, तुम ने अभी से उसे अपने घर में क्यों रख लिया?’’ कल्पना ने सवाल दागा.

‘‘अरे बीबीजी, हमारा घर कोई ज्यादा बड़ा तो है नहीं. बस, एक कमरा है. दिनभर घर में कोई न कोई रहता है. एक तरफ किचन का प्लेटफार्म है, जिस पर गैस रखी है. दूसरी टेबल पर टैलीविजन रखा है. बाकी थोड़ी सी जगह है, जिस में हम सब रहते हैं.

‘‘बाहर छोटा सा बरामदा है, जिस में मेरे ससुर की खटिया लगी है. सोनू का कारखाना उस के खुद के घर से 8 किलोमीटर दूर है, पर मेरे घर से 2 किलोमीटर की दूरी पर है.

‘‘दूसरी बात, उसे मेरे हाथ का खाना बहुत पसंद है. जब अपना दामाद है तो उस का डब्बा बनाना मेरा फर्ज बनता है न.

ये भी पढ़ें- औक्टोपस कैद में

‘‘बीबीजी, मैं ने उस से कह दिया कि घर में रहना है तो कायदेकानून से रहना पड़ेगा. मेरा बड़ा लिहाज करता है वह.’’

रामवती की बात में दम था. खाना वह सच में बहुत अच्छा बनाती थी. कल्पना की सभी समस्याओं का समाधान हो चुका था. अब तक उस की थकान भी दूर हो चुकी है.

रामवती ने पूछा, ‘‘आप के लिए कुछ बनाऊं क्या?’’

आज कल्पना ने औफिस की कैंटीन में ही खाना खा लिया था. अभी भूख नहीं थी. उस ने सोचा कि भूख लगने पर दलियाखिचड़ी कुछ बना लेगी, इसलिए रामवती के सवाल के जवाब में ‘नहीं’ कहा. साथ ही, उसे दूसरे दिन सुबह 8 बजे आने की याद दिलाई.

रामवती ने ‘हां’ में अपनी सहमति जताई और वहां से चली गई.

कल्पना ने दरवाजा बंद किया और मोबाइल में नंबर डायल करने लगी. रोज शाम को एक बार राजेश से बात कर के मन को बड़ा सुकून मिलता था.

ये भी पढ़ें- शादी: भाग 3

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

चौथा चक्कर

लेखिका- डा. नरेंद्र चतुर्वेदी

रामजी एक सरकारी दफ्तर में बड़े साहब थे. सुबह टहलने जाते तो पूरी तरह तैयार हो कर जाते थे. पांव में चमकते स्पोर्ट्स शूज, सफेद पैंट, सफेद कमीज, हलकी सर्दी में जैकेट, सिर पर कैप, कभीकभी हाथ में छड़ी. पार्क में टहलने का शौक था, अत: घर से खुद कार चला कर पार्क में आते थे. वहां पर न जाने क्यों 3 चक्कर के बाद वह बैठ जाते. शायद ही कभी उन्होंने चौथा चक्कर लगाया हो.

उस दिन पार्क में बहस छिड़ गई थी.

कयास लगाने वालों में एक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘अरे, बामन ने 3 पग में पृथ्वी नाप दी थी तो रामजी साहब 3 चक्कर में पार्क को नाप देते हैं.’’

कुछ दिन पहले पार्क के दक्षिण में हरी घास के मैदान पर सत्संगियों ने कब्जा कर लिया. वे अपने किसी गुरु को ले आए थे. छोटा वाला माइक और स्पीकर भी लगा लिया था. गुरुजी के लिए एक फोल्ंिडग कुरसी कोई शिष्य, जिस का मकान पार्क के पास था, ले आता था.

इस बीच घूमने वाले, अपने घूमने का समय कम कर वहां बैठ जाते थे और गुरुजी मोक्ष की चर्चा में सब को खींचने का प्रयास करते थे. वह बता रहे थे कि थोड़े से अभ्यास से ही तीसरी आंख खुल जाती है और वही सारी शक्तियों का घर है. हमारे गुरु पवित्र बाबा के आश्रम पर आप आइए, मात्र 7 दिन का सत्संग है.

ये भी पढ़ें- सुबह का भूला

पता नहीं क्यों, गुरुजी को रामजी साहब की सुंदर शख्सियत भा गई. उन के भीतर का विवेकानंद जग गया. अगर यह सुदर्शन मेरे सत्संग में आ जाए, तो फिर शायद पूरे पार्क के लोग आ जाएं. उन्होंने सावधानी से रामजी साहब की परिक्रमा के समय…जीवन की क्षणभंगुरता, नश्वर शरीर को ले कर, कबीर के 4 दोहे सुना दिए, पर रामजी का ध्यान उधर था ही नहीं.

‘‘खाली घूमने से कुछ नहीं होगा. प्राण शक्ति का जागरण ही योग है,’’ गुरु समझा रहे थे.

रामजी साहब ने अनसुना करते हुए भी सुन लिया…

उन के दूसरे चक्कर के समय, एक शिष्य उन के नजदीक आया और बोला, ‘‘गुरुजी, आप से कुछ बात करना चाहते हैं.’’

‘‘क्यों? मुझे तो फुरसत नहीं है.’’

‘‘फिर भी, आप मिल लें. वह सामने बैठे हैं.’’

‘‘पर वहां तो एक ही कुरसी है.’’

‘‘आप उधर बैंच पर आ जाएं, मैं उधर चलता हूं.’’

शिष्य को यह सब बुरा लगा. फिर भी वह अपने गुरुजी के पास यह संदेश ले गया.

गुरुजी मुसकराते हुए उठे, ‘‘नारायण, नारायण…’’

रामजी साहब ने गुरुजी को नमस्कार किया तो उन का हाथ, आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और बोले, ‘‘वत्स, आप का स्वास्थ्य कैसा है?’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

‘‘आप रोजाना इस पार्क में टहलने आते हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘पर मैं देखता हूं कि आप 3 ही चक्कर लगाते हैं, क्यों?’’

रामजी साहब हंसे, जैसे लाफिंग क्लब के सदस्य हंसते हैं. गुरुजी और शिष्य उन्हें इस तरह बेबाक हंसता देख अवाक् रह गए.

‘‘तो क्या आप मेरे चक्कर गिना करते हैं?’’ रामजी साहब ने पूछा.

‘‘नहीं, नहीं, ये भक्तगण इस बात की चर्चा करते हैं.’’

ये भी पढ़ें- गर्व से कहो हम भारतीय हैं

‘‘हां, पर आप ने तो सीधा ही चौथा चक्कर लगा लिया, क्या?’’

गुरुजी समझ नहीं पाए. वह अवाक् से रामजी साहब को देखते रह गए.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए रामजी साहब बोले, ‘‘महाराज, आप को इस कम उम्र में संन्यास की क्या आवश्यकता पड़ गई?’’

‘‘मेरी बचपन से रुचि थी, संसार के प्रति आकर्षण नहीं था.’’

‘‘तो अब भी बचपन की रुचि उतनी ही है या बढ़ गई?’’ रामजी ने पूछ लिया. सवाल तीखा और तीर की तरह चुभने वाला था.

‘‘महाराज एक जातिगत आरक्षण होता है,’’ गुरुजी के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए रामजी आगे बोले, ‘‘उस में कम योग्य भी अच्छा पद पा सकता है, क्योंकि पद आरक्षित है और उस पर बैठने वाले भी कम ही हैं. एक यह ‘धार्मिक’ आरक्षण है, यहां कोई बैठ जाए, उस का छोटामोटा पद सुरक्षित हो जाता है. आप शनि का मंदिर खोल लें. वहां लोग अपनेआप खिंचे चले आएंगे. टीवी पर देखें, सुकुमार संतसाध्वियों की फौज चली आई. फिर आप को इस आरक्षण की क्यों जरूरत हो गई? पार्क में मार्केटिंग की अब क्या जरूरत है?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है, महाराज तो इंजीनियरिंग गे्रजुएट हैं, वैराग्य ही आप को इधर ले आया,’’ एक भावुक शिष्य बोला.

‘‘महाराज, वही तो मैं कह रहा हूं कि बिना 3 चक्कर चले आप चौथे पर कैसे पहुंच गए?’’

‘‘नहीं, नहीं, मैं ने विद्याध्ययन किया है, स्वाध्याय किया है, गुरु आश्रम में दीक्षा ली है,’’ महाराज बोले.

‘‘पहला चक्कर तो पूरा ही नहीं हुआ और पहले से चौथे पर छलांग और महाराज, जो आप कह रहे थे कि चौथे चक्कर की जरूरत है, तो क्यों? अभी तो नौकरी की लाइन में लगना था?

‘‘बुद्ध के जमाने में दुख था, होगा. हमारे बादशाहों के महल में एक भी वातानुकूलित कमरा नहीं था. आज तो आम आदमी के पास भी अच्छा जीवन जीने का आधार है. घर में गैस है, फ्रिज है, गाड़ी है, घूमने के लिए स्कूटर है. उस की सुरक्षा है. उस के बच्चे स्कूल जाते हैं. घर है. महाराज, आज जीवन जीने लायक हो गया है. बताएं, सब छोड़ कर किस मुक्ति के लिए अब जंगल जाया जाए?’’

गुरुजी चुप रह गए थे.

‘‘सात प्राणायाम, आंख मींचने की कला, गीता पर व्याख्यान, इस से ही काम चल जाए फिर कामधाम की क्या जरूरत है?’’

ये भी पढ़ें- औक्टोपस कैद में

रामजी साहब की बात सुन कर शिष्यगण सोच रहे थे, उन्हें क्यों पकड़ लाए.

‘‘फिर भी मानव जीवन का एक उद्देश्य है कि वह इस जीवन में शांति, प्रेम, आनंद को पाए. भारतीय संस्कृति जीवन जीने की कला सौंपती है, उस का भी तो प्रचार करना है,’’ महाराज बोले.

‘‘महाराज, उस के लिए घर छोड़ कर, आश्रम की क्या जरूरत है. आश्रम भी ईंटपत्थर का, यहां घर भी ईंटपत्थर का, भोजन की तो वहां भी जरूरत होती है, रहा सवाल ग्रंथ और पाठ का, तो वह घर पर भी कर सकते थे. आंख मींचना ही ध्यान है, तो आप कहीं भी ध्यान लगा सकते हैं, यह बात दूसरी है जब बेपढ़ेलिखे इस उद्योग में अच्छा कमा रहे हैं, तब पढ़ेलिखे तो बिजनेस चला ही लेंगे? आप ने मुझ से पूछा है, इसीलिए मैं ने भी आप से पूछ लिया, वरना इस चौथे चक्कर के पीछे मैं कभी नहीं पड़ता.’’

‘‘महाराज के गुरुजी के आश्रम तो दुनिया भर में हैं. आज शांति की जरूरत सब को है, जिसे आज पूरा विश्व चाहता है,’’ एक शिष्य बोला.

‘‘हां,’’ महाराज चहके, ‘‘यहां के लोगों में अज्ञान है, यहां विदेशों से लोग आते हैं और ज्ञान लेने में रुचि ले रहे हैं.’’

‘‘आप विदेश हो आए क्या?’’

‘‘अभी नहीं, महाराज का कार्यक्रम बन गया है. अगले माह जा रहे हैं,’’ दूसरा शिष्य चहका.

‘‘वहां क्यों? काम तो यहां अपने देश में बहुत है. गरीबी है, अज्ञान है, अशिक्षा है. महाराज, मुफ्त में विदेश यात्राएं, वहां की सुविधाएं, डालर की भेंट तो यहां नहीं है. पर महाराज यहां भी बाजार मंदा नहीं है.’’

शिष्यगण नाराज हो चले थे. सुबहसुबह जो पार्क में टहलने आए थे वे भी यह संवाद सुन कर रुक गए थे.

‘‘लगता है आप बहुत अशांत हैं,’’ महाराज बोले, ‘‘कसूर आप का नहीं है, कुछ तत्त्व हैं, वे हमेशा धर्म के खिलाफ ही जनभावना बनाते रहते हैं. पर उस से क्या फर्क पड़ा? दोचार पत्रपत्रिकाएं क्या प्रभाव डालेंगी? आज करोड़ों मनुष्य सुबह उठते ही धर्म से जुड़ना चाहते हैं. सारे चैनल हमारी बात कह रहे हैं. कहां क्या गलत है?’’

महाराज ने गर्व के साथ श्रोताओं की ओर देखा. शिष्यों ने तालियां बजा दी थीं.

‘‘आप सही कह रहे हैं, आजादी के समय न इतने बाबा थे, न इतना पाप बढ़ा था. जब आप कर्मफल को मानते हैं तब इन कर्मकांडी व्यापारों की क्या जरूरत है. क्या 10 मिनट को आंख मींचने से, मंदिर की घंटियां बजाने से, यज्ञ करने से, तीर्थयात्रा से कर्मफल कट सकता है? महाराज, शांति तो भांग पी कर भी आ जाती है. मुख्य बात मन का शांत होना होता है और वह होता है, अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने से, पलायन से नहीं.’’

ये भी पढ़ें- शादी: भाग 3

युवा संन्यासी का चेहरा उतर गया था.

उस ने उठने का संकेत किया.

‘‘महाराज, पहला चक्कर धर्म का था, वह तो पैदा होते ही मिल गया. शिक्षा ग्रहण की, बड़े हुए तो देश का कानून मिल गया, समाज का विधान मिल गया. धन का दूसरा चक्कर लगाया, 30 साल नौकरी की. तीसरा चक्कर गृहस्थी का अभी चल रहा है, चलेगा. इन तीनों चक्करों में महाराज खूब सुख मिला है, मिल रहा है, शांति है.

‘‘महाराज, यह चौथा चक्कर तो नीरस होता है. जब इतना सुख मिल रहा है तो मोक्ष पाने को चौथा चक्कर क्यों लगाएं.

‘‘मृत्यु के बाद आनंद कैसा, आज तक तो कोई बताने आया नहीं. सुख तो देह भोगती है, शांति मन भोगता है, पर महाराज, जब तन और मन दोनों ही नहीं होंगे, तब कौन भोगेगा और कौन बताएगा? जैसे साधारण आदमी की मौत होती है वैसे ही महात्मा रोगशोक से लड़ते हुए मरते हैं.

‘‘महाराज मान लें, इसी जीवन में मोक्ष मिल जाएगा तो महाराज उस की शर्त तो ‘कष्टवत’ हो जाना है, और बाद मरने के मोक्ष मिला तो. महाराज, कल आप कह रहे थे, बूंद समुद्र में मिल जाएगी तो समुद्र का पानी खारा होता है, पीने लायक ही नहीं, उस नीरस जीवन से तो यह सरस जीवन श्रेष्ठ है. हां, धंधे के लिहाज से ठीक है, आप इंजीनियर हैं, कंप्यूटर जानते हैं, इंटरनेट जानते हैं, अच्छी अंगरेजी आती है. कमाएं, पर मुझे बख्शें. हां, यह बात दूसरी है, आज जैसे बालाएं विज्ञापन में बिक रही हैं, बाबा भी बिक रहे हैं, उन का काम धन कमाना है. कोई सुने या न सुने अपनी बात कहने का हक तो है न.

‘‘आप लोग विचारें, मैं तो अपने इन 3 चक्करों में ही संतुष्ट हूं. क्यों अनावश्यक उस चौथे चक्कर के प्रपंच में पड़ कर अपने 3 चक्करों के सुख को खोऊं. सुख तो आप लोग खो रहे हो,’’ रामजी साहब ने भक्तों की ओर देखते हुए कहा.

भक्त लोग अवाक् थे, सोच रहे थे, क्या रामजी ने कुछ गलत कहा है, सोच तो वह भी यही रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे, क्यों?

ये भी पढ़ें- महावर की लीला

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें