जुल्म की सजा : कहानी एक पिछड़े गांव की

हमारे भारत देश को अंगरेजों की गुलामी से छुटकारा मिले हुए भले ही 65 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है, पर आज भी न जाने कितने ऐसे गांव हैं, जो आजादी के सुख से अनजान हैं. ऐसा ही एक गांव है पिरथीपुर.

उत्तर प्रदेश के बदायूं, शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिलों की सीमाओं को छूता, रामगंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ गांव पिरथीपुर यों तो बदायूं जिले का अंग है, पर जिले तक इस की पहुंच उतनी ही मुश्किल है, जितनी मुश्किल शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिला हैडक्वार्टर तक की है.

कभी इस गांव की दक्षिण दिशा में बहने वाली रामगंगा ने जब साल 1917 में कटान किया और नदी की धार पिरथीपुर के उत्तर जा पहुंची, तो पिरथीपुर बदायूं जिले से पूरी तरह कट गया. गांव के लोगों द्वारा नदी पार करने के लिए गांव के पूरब और पश्चिम में 10-10 कोस तक कोई पुल नहीं था, इसलिए उन की दुनिया पिरथीपुर और आसपास के गांवों तक ही सिमटी थी, जिस में 3 किलोमीटर पर एक प्राइमरी स्कूल, 5 किलोमीटर पर एक पुलिस चौकी और हफ्ते में 2 दिन लगने वाला बाजार था.

सड़क, बिजली और अस्पताल पिरथीपुर वालों के लिए दूसरी दुनिया के शब्द थे. सरकारी अमला भी इस गांव में सालों तक नहीं आता था.

देश और प्रदेश में चाहे जिस राजनीतिक पार्टी की सरकार हो, पर पिरथीपुर में तो समरथ सिंह का ही राज चलता था. आम चुनाव के दिनों में राजनीतिक पार्टियों के जो नुमाइंदे पिरथीपुर गांव तक पहुंचने की हिम्मत जुटा पाते थे, वे भी समरथ सिंह को ही अपनी पार्टी का झंडा दे कर और वोट दिलाने की अपील कर के लौट जाते थे, क्योंकि वे जानते थे कि पूरे गांव के वोट उसी को मिलेंगे, जिस की ओर ठाकुर समरथ सिंह इशारा कर देंगे.

पिरथीपुर गांव की ज्यादातर जमीन रेतीली और कम उपजाऊ थी. समरथ सिंह ने उपजाऊ जमीनें चकबंदी में अपने नाम करवा ली थीं. जो कम उपजाऊ जमीन दूसरे गांव वालों के नाम थी, उस का भी ज्यादातर भाग समरथ सिंह के पास गिरवी रखा था.

समरथ सिंह के पास साहूकारी का लाइसैंस था और गांव का कोई बाशिंदा ऐसा नहीं था, जिस ने सारे कागजात पर अपने दस्तखत कर के या अंगूठा लगा कर समरथ सिंह के हवाले न कर दिया हो. इस तरह सभी गांव वालों की गरदनें समरथ सिंह के मजबूत हाथों में थीं.

पिरथीपुर गांव में समरथ सिंह से आंख मिला कर बात करने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी. पासपड़ोस के ज्यादातर लोग भी समरथ सिंह के ही कर्जदार थे.

समरथ सिंह की पहुंच शासन तक थी. क्षेत्र के विधायक और सांसद से ले कर उपजिलाधिकारी तक पहुंच रखने वाले समरथ सिंह के खिलाफ जाने की हिम्मत पुलिस वाले भी नहीं करते थे.

समरथ सिंह के 3 बेटे थे. तीनों बेटों की शादी कर के उन्हें 10-10 एकड़ जमीन और रहने लायक अलग मकान दे कर समरथ सिंह ने उन्हें अपने राजपाट से दूर कर दिया था. उन की अपनी कोठी में पत्नी सीता देवी और बेटी गरिमा रहते थे.

गरिमा समरथ सिंह की आखिरी औलाद थी. वह अपने पिता की बहुत दुलारी थी. पूरे पिरथीपुर में ठाकुर समरथ सिंह से कोई बेखौफ था, तो वह गरिमा ही थी.

सीता देवी को समरथ सिंह ने उन के बैडरूम से ले कर रसोईघर तक सिमटा दिया था. घर में उन का दखल भी रसोई और बेटी तक ही था. इस के आगे की बात करना तो दूर, सोचना भी उन के लिए बैन था.

कोठी के पश्चिमी भाग के एक कमरे में समरथ सिंह सोते थे और उसी कमरे में वे जमींदारी, साहूकारी, नेतागीरी व दादागीरी के काम चलाते थे. वहां जाने की इजाजत सीता देवी को भी नहीं थी.

समरथ सरकार के नाम से पूरे पिरथीपुर में मशहूर समरथ सिंह की कोठी में बाहरी लोगों का आनाजाना पश्चिमी दरवाजे से ही होता था. इस दरवाजे से बरामदे में होते हुए उन के दफ्तर और बैडरूम तक पहुंचा जा सकता था.

कोठी के पश्चिमी भाग में दखल देना परिवार वालों के लिए ही नहीं, बल्कि नौकरचाकरों के लिए भी मना था.

अपने पिता की दुलारी गरिमा बचपन से ही कोठी के उस भाग में दौड़तीखेलती रही थी, इसलिए बहुत टोकाटाकी के बाद भी वह कभीकभार उधर चली ही जाती थी.

गांव की हर नई बहू को ‘समरथ सरकार’ से आशीर्वाद लेने जाने की प्रथा थी. कोठी के इसी पश्चिमी हिस्से में समरथ सिंह जितने दिन चाहते, उसे आशीर्वाद देते थे और जब उन का जी भर जाता था, तो उपहार के तौर पर गहने दे कर उसे पश्चिमी दरवाजे से निकाल कर उस के घर पहुंचा दिया जाता था.

आतेजाते हुए कभी गांव की किसी बहूबेटी पर समरथ सिंह की नजर पड़ जाती, तो उसे भी कोठी देखने का न्योता भिजवा देते, जिसे पा कर उसे कोठी में हर हाल में आना ही होता था.

समरथ सिंह की इमेज भले ही कठोर और बेरहम रहनुमा की थी, पर वे दयालु भी कम नहीं थे. खुशीखुशी आशीर्वाद लेने वालों पर उन की कृपा बरसती थी. अनेक औरतें जबतब उन का आशीर्वाद लेने के लिए कोठी का पश्चिमी दरवाजा खटखटाती रहती थीं, ताकि उन के

पति को फसल उपजाने के लिए अच्छी जमीन मिल सके, दवा व इलाज और शादीब्याह के खर्च वगैरह को पूरा करने हेतु नकद रुपए मिल सकें.

लेकिन बात न मानने से समरथ सिंह को सख्त चिढ़ थी. राधे ने अपनी बहू को आशीर्वाद लेने के लिए कोठी पर भेजने से मना कर दिया था. उस की बहू को समरथ के आदमी रात के अंधेरे में घर से उठा ले गए और तीसरे दिन उस की लाश कुएं में तैरती मिली थी.

अपनी नईनवेली पत्नी की लाश देख कर राधे का बेटा सुनील अपना आपा खो बैठा और पूरे गांव के सामने समरथ सिंह पर हत्या का आरोप लगाते हुए गालियां बकने लगा.

2 घंटे के अंदर पुलिस उसे गांव से उठा ले गई और पत्नी की हत्या के आरोप में जेल भेज दिया. बाद में ठाकुर के आदमियों की गवाही पर उसे उम्रकैद की सजा हो गई.

राधे की पत्नी अपने एकलौते बेटे की यह हालत बरदाश्त न कर सकी और पागल हो गई. इस घटना से घबरा कर कई इज्जतदार परिवार पिरथीपुर गांव से भाग गए.

समरथ सिंह ने भी बचेखुचे लोगों से साफसाफ कह दिया कि पिरथीपुर में समरथ सिंह की मरजी ही चलेगी. जिसे उन की मरजी के मुताबिक जीने में एतराज हो, वह गांव छोड़ कर चला जाए. इसी में उस की भलाई है.

समरथ सिंह की बेटी गरिमा जब थोड़ी बड़ी हुई, तो समरथ सिंह ने उस का स्कूल जाना बंद करा दिया. अब वह दिनरात घर में ही रहती थी.

गरमी के मौसम में एक दिन दोपहर में उसे नींद नहीं आ रही थी. वह लेटेलेटे ऊब गई, तो अपने कमरे से बाहर निकल कर छत पर चली गई और टहलने लगी.

अचानक उसे कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर कुछ आहट सुनाई दी. उस ने झांक कर देखा, तो दंग रह गई. समरथ सिंह का खास लठैत भरोसे एक औरत को ले कर आया था. कुछ देर बाद कोठी का पश्चिमी दरवाजा बंद हो गया और भरोसे दरवाजे के पास ही चारपाई डाल कर कोठी के बाहर सो गया.

गरिमा छत से उतर कर दबे पैर कोठी के बैन इलाके में चली गई. अपने पिता के बैडरूम की खिड़की के बंद दरवाजे के बीच से उस ने कमरे के अंदर झांका, तो दंग रह गई. उस के पिता नशे में धुत्त एक लड़की के कपड़े उतार रहे थे. वह लड़की सिसकते हुए कपड़े उतारे जाने का विरोध कर रही थी.

जबरन उस के सारे कपड़े उतार कर उन्होंने उस लड़की को किसी बच्चे की तरह अपनी बांहों में उठा कर चूमना शुरू कर दिया. फिर वे पलंग की ओर बढ़े और उसे पलंग पर लिटा कर किसी राक्षस की तरह उछल कर उस पर सवार हो गए.

गरिमा सांस रोके यह सब देखती रही और पिता का शरीर ढीला पड़ते ही दबे पैर वहां से निकल कर अपने कमरे में आ गई. उसे यह देख कर बहुत अच्छा लगा और बेचैनी भी महसूस हुई.

अब गरिमा दिनभर सोती और रात को अपने पिता की करतूत देखने के लिए बेचैन रहती.

अपने पिता की रासलीला देखदेख कर गरिमा भी काम की आग से भभक उठती थी.

एक दिन समरथ सिंह भरोसे को ले कर किसी काम से जिला हैडक्वार्टर गए हुए थे. दोपहर एकडेढ़ बजे उन का कारिंदा भूरे, जिस की उम्र तकरीबन 20 साल होगी, हलबैल ले कर आया.

बैलों को बांध कर वह पशुशाला के बाहर लगे नल पर नहाने लगा, तभी गरिमा की निगाह उस पर पड़ गई. वह देर तक उस की गठीली देह देखती रही.

जब भूरे कपड़े पहन कर अपने घर जाने लगा, तो गरिमा ने उसे बुलाया. भूरे कोठरी के दरवाजे पर आया, तो गरिमा ने उसे अपने साथ आने को कहा.

गरिमा को पता था कि उस की मां भोजन कर के आराम करने के लिए अपने कमरे में जा चुकी है.

गरिमा भूरे को ले कर कोठी के पश्चिमी दरवाजे की ओर बढ़ी, तो भूरे ठिठक कर खड़ा हो गया. गरिमा ने लपक कर उस का गरीबान पकड़ लिया और घसीटते हुए अपने पिता के कमरे की ओर ले जाने लगी.

भूरे कसाई के पीछेपीछे बूचड़खाने की ओर जाती हुई गाय के समान ही गरिमा के पीछेपीछे चल पड़ा.

पिता के कमरे में पहुंच कर गरिमा ने दरवाजा बंद कर लिया और भूरे को कपड़े उतारने का आदेश दिया. भूरे उस का आदेश सुन कर हैरान रह गया.

उसे चुप खड़ा देख कर गरिमा ने खूंटी पर टंगा हंटर उतार लिया और दांत पीसते हुए कहा, ‘‘अगर अपना भला चाहते हो, तो जैसा मैं कह रही हूं, वैसा ही चुपचाप करते जाओ.’’

भूरे ने अपने कपड़े उतार दिए, तो गरिमा ने अपने पिता की ही तरह उसे चूमनाचाटना शुरू कर दिया. फिर पलंग पर ढकेल कर अपने पिता की तरह उस पर सवार हो गई.

भूरे कहां तक खुद पर काबू रखता? वह गरिमा पर उसी तरह टूट पड़ा, जिस तरह समरथ सिंह अपने शिकार पर टूटते थे.

गरिमा ने कोठी के पश्चिमी दरवाजे से भूरे को इस हिदायत के साथ बाहर निकाल दिया कि कल फिर इसी समय कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर आ जाए. साथ ही, यह धमकी भी दी कि अगर वह समय पर नहीं आया, तो उसकी शिकायत समरथ सिंह तक पहुंच जाएगी कि उस ने उन की बेटी के साथ जबरदस्ती की है.

भूरे के लिए एक ओर कुआं था, तो दूसरी ओर खाई. उस ने सोचा कि अगर वह गरिमा के कहे मुताबिक दोपहर में कोठी के अंदर गया, तो वह फिर अगले दिन आने को कहेगी और एक न एक दिन यह राज समरथ सिंह पर खुल जाएगा और तब उस की जान पर बन आएगी. मगर वह गरिमा का आदेश नहीं मानेगा, तो वह भूखी शेरनी उसे सजा दिलाने के लिए उस पर झूठा आरोप लगाएगी और उस दशा में भी उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा.

मजबूरन भूरे न चाहते हुए भी अगले दिन तय समय पर कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर हाजिर हो गया, जहां गरिमा उस का इंतजार करती मिली.

अब यह खेल रोज खेला जाने लगा. 6 महीने बीततेबीतते गरिमा पेट से हो गई. भूरे को जिस दिन इस बात का पता चला. वह रात में ही अपना पूरा परिवार ले कर पिरथीपुर से गायब हो गया.

गरिमा 3-4 महीने से ज्यादा यह राज छिपाए न रख सकी और शक होने पर जब सीता देवी ने उस से कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने अपनी मां के सामने पेट से होना मान लिया. फिर भी उस ने भूरे का नाम नहीं लिया.

सीता देवी ने नौकरानी से समरथ सिंह को बुलवाया और उन्हें गरिमा के पेट से होने की जानकारी दी, तो वे पागल हो उठे और सीता देवी को ही पीटने लगे. जब वे उन्हें पीटपीट कर थक गए, तो गरिमा को आवाज दी.

2-3 बार आवाज देने पर गरिमा डरते हुए समरथ सिंह के सामने आई. उन्होंने रिवाल्वर निकाल कर गरिमा को गोली मार दी.

कुछ देर तक समरथ सिंह बेटी की लाश के पास बैठे रहे, फिर सीता देवी से पानी मांग कर पिया. तभी फायर की आवाज सुन कर उन के तीनों बेटे और लठैत भरोसे दौड़े हुए आए.

समरथ सिंह ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया, फिर जेब से रुपए निकाल कर बड़े बेटे को देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से जल्दी कफन का इंतजाम करो और 2 लोगों को लकड़ी ले कर नदी किनारे भेजो. खुद भी वहीं पहुंचो.’’

समरथ सिंह के बेटे पिता की बात सुन कर आंसू पोंछते हुए भरोसे के साथ बाहर निकल गए.

एक घंटे के अंदर लाश ले कर वे लोग नदी किनारे पहुंचे. चिता के ऊपर बेटी को लिटा कर समरथ सिंह जैसे ही आग लगाने के लिए बढ़े, तभी वहां पुलिस आ गई और दारोगा ने उन्हें चिता में आग लगाने से रोक दिया.

यह सुनते ही समरथ सिंह गुस्से से आगबबूला हो गए और तकरीबन चीखते हुए बोले, ‘‘तुम अपनी हद से आगे बढ़ रहे हो दारोगा.’’

‘‘नहीं, मैं अपना फर्ज निभा रहा हूं. राधे ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि आप ने अपनी बेटी की गोली मार कर हत्या कर दी है, इसलिए पोस्टमार्टम कराए बिना लाश को जलाया नहीं जा सकता.’’

समरथ सिंह ने दारोगा के पीछे खड़े राधे को जलती आंखों से देखा.

वे कुछ देर गंभीर चिंता में खड़े रहे, फिर रिवाल्वर से अपने सिर में गोली मार ली.

इस घटना को देख कर वहां मौजूद लोग सन्न रह गए, तभी पगली दौड़ती हुई आई और दम तोड़ रहे समरथ सिंह के पास घुटनों के बल बैठ कर ताली बजाते हुए बोली, ‘‘देखो ठाकुर, तेरे जुल्मों की सजा तेरे साथ तेरी औलाद को भी भोगनी पड़ी. खुद ही जला कर अपनी सोने की लंका राख कर ली.’’

जैसेजैसे समरथ सिंह की सांस धीमी पड़ रही थी, वहां मौजूद लोगों में गुलामी से छुटकारा पाने का एहसास तेज होता जा रहा था.

लेनदेन : पायल का क्या था प्लान

मनोहर की चाय की गुमटी रेंगरेंग कर चल रही थी. घर का खर्च भी चलाना मुश्किल था. उसी में 5 लोगों का पेट पालना था. अपने एक खास ग्राहक के कहने पर मनोहर ने गुमटी पर शराब के पाउच भी रखने शुरू कर दिए. 2-4 ग्राहकों को बता भी दिया. फिर क्या था. चाय के बहाने पाउचों की बिक्री बढ़ती चली गई.

थानेदार को यह बात पता चली, तो वह 2 हवलदारों को ले कर गुमटी पर आ धमका और रोज के 4 सौ रुपए कमीशन मांगने लगा.

मनोहर हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया, ‘‘साहब, मैं रोज 4 सौ रुपए नहीं दे पाऊंगा. हां, हर महीने इतने रुपए थाने में पहुंचा दिया करूंगा.’’ ‘‘तू मुझे 4 सौ रुपए की भीख देगा…’’ कह कर थानेदार ने उसे एक लात मारी और चिल्लाया, ‘‘खुलेआम दारू बेचता है और मुझे 4 सौ रुपए का थूक चाटने को कहता है.’’

मनोहर की पत्नी श्यामा ने दौड़ कर उसे उठाया और थानेदार से बोली, ‘‘हमें माफ कर दीजिए सरकार. हम दारू का धंधा ही छोड़ देंगे.’’ ‘‘तू दारू का धंधा छोड़ देगी, तो हमारी आमदनी कैसे होगी? तू दारू बेचेगी और रुपए के साथ सजसंवर कर मेरे पास आएगी,’’ कहते हुए थानेदार ने एक आंख दबाई.

तभी मनोहर की 15, 13 और 9 साल की 3 बेटियां स्कूल से छुट्टी होने के बाद बस्ता टांगे वहां आ गईं.

मनोहर की बड़ी बेटी पायल, जो 9वीं जमात में पढ़ रही थी, को समझते देर न लगी. वह बोली, ‘‘पापा, मैं ने मना किया था न कि दारू मत बेचो. देखो, आज पुलिस आ ही गई. हमारी इज्जत गई न…’’ कहतेकहते उस का गला भर आया.

‘‘ताजा गुलाब की तरह खिलीखिली है तेरी बेटी. आज रात इसे मेरे क्वार्टर पर 10 पाउच के साथ भेज देना,’’ कहते हुए थानेदार की आंखों में गुलाबी रंगत छा गई.

‘‘नहीं साहब, मैं इसे नहीं भेजूंगा,’’ मनोहर बोला. इतना सुनते ही थानेदार ने एक तमाचा मनोहर को रसीद कर दिया.

‘‘रात को 8 बजे तेरी बेटी थाने में पहुंच जानी चाहिए, नहीं तो समझ लेना कि कल मैं तेरा क्या हाल करूंगा,’’ कहते हुए उस ने दूसरा तमाचा उठाया, तभी एकाएक पायल बोली, ‘‘सर, मैं आने के लिए तैयार…’’ ‘‘बेटी, यह तू क्या कह रही है?’’ यह सुन कर मनोहर के होश उड़ गए.

‘‘पापा, आप डरिए मत. सर, कल से मेरे इम्तिहान शुरू हैं. मैं अगले हफ्ते आऊंगी. आप कहेंगे, तो मैं अपनी 2-4 सहेलियों को भी साथ लाऊंगी. वे सब तो मुझ से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’ थानेदार ने खुशी से झूमते हुए एक आंख दबाई, फिर वह मनोहर से बोला, ‘‘तेरी बेटी कितनी समझदार है.’’

इस के बाद थानेदार वहां से चला गया. ‘‘बेटी, तू ने उस नीच के साथ यह कैसा सौदा कर लिया? अपने साथ सहेलियों की भी जिंदगी बरबाद करेगी,’’ कहते हुए मां श्यामा बहुत डर गई थी.

‘‘आप लोग शांत रहिए. मुझे जैसा करना होगा, मैं करूंगी,’’ कह कर पायल बस्ता लिए घर चली गई. पायल ने इस बारे में अपनी सहेलियों से बात की, तो वे सभी राजी हो गईं.

वादे के मुताबिक अगले हफ्ते ही पायल दारू और 4 सौ रुपए ले कर थाने पहुंच गई. थानेदार ने पूछा, ‘‘तुम्हारी सहेलियां किधर हैं?’’

‘‘2-4 नहीं, बल्कि वे तो 8-10 हैं. वे सब टेकरी के पास हैं. किसी ने आप को इस थाने में इतनी सारी लड़कियों के साथ कुछ उलटासीधा करते देख लिया, तो आप की लुटिया ही डूब जाएगी, इसलिए मैं ने उन को यहां से कुछ दूर रखा है सर…’’ पायल थानेदार के कान में धीरे से फुसफुसाई, ‘‘हम कड़ैया गांव चलें. वहां पुराने बरगद के पास एक खंडहरनुमा मकान है. वहां ज्यादा ठीक रहेगा.’’ ‘‘हाय पायल, मैं तो खुशी के मारे

मर जाऊं,’’ कह कर थानेदार ने उस के गुलाबी गाल मसल दिए और बोला, ‘‘तू तो बड़ी होशियार है. चल, वहीं चलते हैं.’’

थानेदार एक हवलदार के भरोसे थाना छोड़ कर पायल के साथ अपनी जीप से कुछ दूरी पर टेकरी के पास गया. वहां पायल की ही उम्र की 8-10 लड़कियों को जींसटौप में खड़ी देख थानेदार की लार टपकने लगी.

‘‘ऐसे गुलाब के फूलों के सामने ये रुपए क्या चीज हैं,’’ उस ने जेब से रुपए निकाल कर पायल को लौटा दिए, ‘‘हां, दारू तो मैं जरूर पीऊंगा.’’ पायल ने कहा, तो सारी लड़कियां जीप में बैठने लगीं, तभी 14-15 लड़के वहां आ धमके.

यह नजारा देख एक लड़के ने पायल को घूरते हुए पूछा, ‘‘पायल, तुम सब थानेदार साहब के साथ कहां जा

रही हो?’’ ‘‘विशाल, हम कड़ैया गांव में ट्रेनिंग के लिए जा रहे हैं. आएदिन लड़कियों के साथ उलटीसीधी घटनाएं हो रही हैं, इसलिए थानेदार साहब ने कहा है कि वे हम सब को कराटे सिखाएंगे?’’

‘‘हांहां,’’ थानेदार झट से बोला, ताकि उस की चोरी पकड़ी न जाए. ‘‘पायल, आज तुम इस पीली ड्रैस में बहुत खूबसूरत दिख रही हो. मैं तुम्हारा फोटो खींच लूं?’’

‘‘हांहां, खींचो न.’’ विशाल ने पायल के साथ थानेदार और सारी लड़कियों के भी फोटो खींचे.

थानेदार गाड़ी स्टार्ट कर पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘मैं तो डर ही गया था. अच्छा हुआ कि तुम ने ऐन मौके पर ट्रेनिंग की बात कह दी, नहीं तो मैं काम से गया था.’’ थानेदार के बगल में बैठी पायल और बाकी लड़कियां मुसकरा दीं.

कड़ैया गांव 10 किलोमीटर दूर था. थानेदार घूंटघूंट दारू पीते हुए आगे टंगे आईने में लड़कियों को देख मदहोश हुआ जा रहा था. वह बहुत तेज गाड़ी चला रहा था, ताकि जल्दी कड़ैया गांव पहुंचे. ‘‘सर… सर, गाड़ी रोकिए,’’ पायल इतराते हुए बोली.

थानेदार ने झट से ब्रेक मारा और पूछा, ‘‘यहां गाड़ी क्यों रुकवाई?’’ फिर उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई. वह एकदम सुनसान जंगल था. दूरदूर तक बड़ेबड़े पेड़ दिखाई दे रहे थे. कड़ैया गांव अभी 4-5 किलोमीटर दूर था.

‘‘सर, आगे जाने से क्या फायदा? जो काम वहां हो सकता है, क्या वह यहां नहीं हो सकता?’’ पायल ने थानेदार की लाललाल आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘कितना मस्त मौसम है. हलकीहलकी धूप, ठंडीठंडी बहती हवा, घने पेड़, आप और हम सब तितलियां.’’ ‘‘मुझ से ज्यादा तुम बेकरार हो,’’ थानेदार ने सीना फुला कर कहा, ‘‘चलो, यहीं उतरते हैं.’’

सभी जीप से उतर गए. थानेदार के साथ चिकनीचुपड़ी बातें करते हुए सारी लड़कियां आगे बढ़ रही थीं. पायल थानेदार को एकएक पाउच दारू थमाते जा रही थी. वह पाउच के कोने को दांत से काट कर गटागट शराब पीता जा रहा था.

‘‘सर, अपने कपड़े उतार लीजिए,’’ जींस वाली एक लड़की ने इतना कह कर थानेदार के गाल सहला दिए. लड़कियों के नशे में अंधे थानेदार ने रिवाल्वर उसे थमा कर अपनी खाकी वरदी खोल कर हवा में उछाल दी.

पायल ने उसे एक पेड़ के सहारे खड़ा कर दिया, ‘‘सर, आप कितने खूबसूरत हैं. काश, आप जैसे से मेरी शादी होती…’’ वह खूब मीठीमीठी बातें बोलती गई. थानेदार के पूरे शरीर में रोमांच हो आया. लेकिन जब वह उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, तो उस के होश फाख्ता हो गए.

बाकी लड़कियों ने थानेदार को रस्सी से पेड़ के सहारे कस कर बांध दिया था. खुद को पेड़ से बंधा पा कर थानेदार का दारू और लड़की का नशा काफूर हो गया, ‘‘अरे लड़कियो, यह क्या मजाक है. मुझे छोड़ो. प्यार का वक्त निकला जा रहा है,’’ सिर्फ अंडरवियर पहने थानेदार बोला.

सारी लड़कियां खिलखिला पड़ीं. एक लड़की ने कहा, ‘‘थानेदारजी, आप अकेले इतनी लड़कियों से कैसे प्यार करेंगे? आप तो बस इस पेड़ से बंधे इसे ही प्यार कीजिए. हम तो चले.’’ ‘‘मुझे इस जंगल में छोड़ कर तुम सब जाओगी, तो पुलिस तुम लोगों को जिंदा नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘हमें कुछ नहीं होगा…’’ पायल बोली, ‘‘बल्कि तुम्हारा पूरा पुलिस महकमा बदनाम हो जाएगा कि तुम ने 8-10 लड़कियों को ट्रेनिंग देने के नाम पर उन के साथ गलत हरकत की. इस बात को साबित करने के लिए विशाल के कैमरे में तुम्हारे और हम सभी लड़कियों के फोटो मौजूद हैं.’’ थानेदार ने हड़बड़ा कर नजरें घुमाईं.

एक लड़की मुसकराते हुए थानेदार के हर एंगल से खटाखट फोटो खींचे जा रही थी. थानेदार अपना ही सिर खुद पेड़ पर मारने लगा, ‘‘अरे बाप रे, अब तो मेरी नौकरी गई…’’ फिर वह गरजा, ‘‘ऐ छोकरी, मेरे फोटो खींचना बंद कर.’’

पायल बोली, ‘‘थानेदार, तुम ने मुझ पर बुरी नजर डाली थी न, अब सब लेनदेन बराबर हो गया. मैं ने पापा को दारू बेचने से मना कर दिया और उन्होंने बेचनी भी बंद कर दी. ‘‘मगर फिर भी तुम ने उन को या दूसरे ठेले, गुमटी और रेहड़ी वालों को परेशान किया या उन की बीवीबेटी या मांबहन पर बुरी नजर डाली, तो तुम्हारी हवा में लहराती वरदी वाली और ये सब तसवीरें हर अखबार में छप जाएंगी.’’

थानेदार की तो हालत खराब हो गई कि जिस पायल के चक्कर में वह पड़ा था, उस ने तो उसे घनचक्कर बना दिया. थानेदार बोला, ‘‘मेरी मां, ऐसा गजब मत करना. मैं तुम्हारी हर बात मानूंगा. मेरी इज्जत बख्श दे. उलटे, मैं तुम्हें हर हफ्ते कमीशन दिया करूंगा, पर मेरा फोटो अखबार में मत छपवाना…’’

थानेदार को यों गिड़गिड़ाते हुए देख पायल के साथ आई सारी लड़कियां हंस पड़ीं और वहां से चली गईं.

नाइंसाफी : मां के हक के लिए लड़ती एक बेटी

बैठक में बैठी शिखा राहुल के खयालों में खोई थी. वह नहा कर तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते सूर्य की तरह था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी बिंदी, मांग में चमकता सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे. घर के सब लोग सो रहे थे, मगर शिखा को रात भर नींद नहीं आई. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी पैर फेरने और आज राहुल यानी उस का पति उसे वापस ले जाने आने वाला था. वह बहुत खुश थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आने लगा वह दिन जब वह बहुत छोटी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े सहमी सी दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपने बेटों और बहुओं की तरफ देखते हुए अपनी रोबदार आवाज में फैसला सुना रहे थे, ‘‘माला, अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ. यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का. यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था, क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद इस की ससुराल वालों ने इस के साथ बहुत अन्याय किया. उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर इस बेचारी का जीना हराम कर दिया. मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’’

फिर कुछ देर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतना सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं… मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे,’’ और फिर नानाजी ने बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बैठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी. घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थी. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी एवं नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. सब के गले में एक लौकेट में उन की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी जरूरी होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था. अत: वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन्हें मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठ कर पूजाध्यान करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती और गुरुजी से सिर्फ और सिर्फ एक ही दुआ मांगती कि गुरुजी, मुझे इतना बड़ा अफसर बना दो कि मैं अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सकूं जिन से वे वंचित रह गई हैं.

तभी खट की आवाज से शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा. तेज हवा के कारण खिड़की चौखट से टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने खिड़की का कुंडा लगा दिया. आंगन में झांका तो शांति ही थी. घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत में चला गया…

जब तक नानाजी जिंदा रहे उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों के हिस्से बहुत दिनों के लिए नहीं लिखा था. 1 वर्ष बीततेबीतते अचानक एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सब कुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा. अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर आश्रित हो गईं और हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा कर दिया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा के हाथों में थमा दी. अब घर में जो भी निर्णय होता वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही, पर उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश में जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं. सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं.

कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं, तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल अथवा समस्या का हल पूछे. मगर मां को काम से ही फुरसत नहीं होती और वह कापीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठा कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर उसे पढ़ातीं.

यदि वह कभी मामा या मामी के पास किसी प्रश्न का हल पूछने जाती तो वे हंस कर

उस की खिल्ली उड़ाते हुए कहते, ‘‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले. काम तो यही आएगा.’’

वह खीज कर वापस आ जाती. परंतु उन की ऐसी उपहास भरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.

मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से न ही मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं? और तो और जब भी घर में कोई बहुत स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को ज्यादा देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती.

सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से बोलतीं, ‘‘अरे बिटिया तू भी आ गई. आओआओ,’’ कह कर बचाखुचा कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं. तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उसे कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती, जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती. मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.

एकाध बार उस ने गुरुजी से परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गई कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं.

जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी, मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी एवं ज्यादा ही समझदार हो गई.

उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, ऐशोआराम अब सब कुछ उस के पास था.

उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई. वे सभी लोग, जो वर्षों से उसे और उस की मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ‘ससुराल से निकाली गई’, ‘मायके में आ कर पड़ी रहने वाली’ समझ कर शक भरी निगाहों से देखते थे और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज वही सब लोग उन दोनों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे. मामामामी ने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.

समय का चक्र मानो फिर से घूम गया था. अब मां व शिखा के प्रति मामामामी का रवैया बदलने लगा था. हर बात में मामी कहतीं, ‘‘अरे जीजी, बैठो न. आप बस हुकुम करो. बहुत काम कर लिया आप ने.’’

मामी के इस रूप का शिखा खूब आनंद लेती. इस दिन के लिए तो वह कितना तरसी थी.

जब सरकारी बंगले में जाने की बात आई, तो सब से पहले मामामामी ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. मगर नानी ने जाने से मना कर दिया, यह कह कर कि इस घर में नानाजी की यादें बसी हैं. वे इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. जो जाना चाहे, वह जा सकता है. मां नानी के दिल की हालत समझती थीं. अत: उन्होंने भी जाने से मना कर दिया. तब शिखा ने भी शिफ्ट होने का प्रोग्राम फिलहाल टाल दिया.

इसी बीच एक बहुत ही सुशील और हैंडसम अफसर, जिस का नाम राहुल था की तरफ से शिखा को शादी का प्रस्ताव आया. राहुल ने खुद आगे बढ़ कर शिखा को बताया कि वह उसे बहुत पसंद करता है और उस से शादी करना चाहता है. शिखा को भी राहुल पसंद था.

राहुल शिखा को अपने घर, अपनी मां से भी मिलाने ले गया था. राहुल ने उसे बताया कि किस प्रकार पिताजी के देहांत के बाद मां ने अपने संपूर्ण जीवन की आहुति सिर्फ और सिर्फ उस के पालनपोषण के लिए दे दी. घरघर काम कर के, रातरात भर सिलाईकढ़ाईबुनाई कर के उसे इस लायक बनाया कि आज वह इतना बड़ा अफसर बन पाया है. उस की मां के लिए वह और उस के लिए उस की मां दोनों की बस यही दुनिया थी. राहुल का कहना था कि अब उन की इस 2 छोरों वाली दुनिया का तीसरा छोर शिखा है, जिसे बाकी दोनों छोरों का सहारा भी बनना है एवं उन्हें मजबूती से बांधे भी रखना है.

यह सब सुन कर शिखा को महसूस हुआ था कि यह दुनिया कितनी छोटी है. वह समझती थी कि केवल एक वही दुखों की मारी है, मगर यहां तो राहुल भी कांटों पर चलतेचलते ही उस तक पहुंचा है. अब जब वे दोनों हमसफर बन गए हैं, तो उन की राहें भी एक हैं और मंजिल भी.

राहुल की मां शिखा से मिल कर बहुत खुश हुईं. उन की होने वाली बहू इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी तथा सुशील है, यह देख कर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. झट से उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतार कर शिखा के गले में पहना दी और फिर बड़े स्नेह से शिखा से बोलीं, ‘‘बस बेटी, अब तुम जल्दी से यहां मेरे पास आ जाओ और इस घर को घर बना दो.’’

मगर एक बार फिर शिखा के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े आ गए. राहुल दूसरी जाति का था और उस के यहां मीटमछली बड़े शौक से खाया जाता था जबकि शिखा का परिवार पूरी तरह से पंडित बिरादरी का था, जिन्हें मीटमछली तो दूर प्याजलहसुन से भी परहेज था.

घर पर सब राहुल के साथ उस की शादी के खिलाफ थे. जब शिखा की मां माला ने शिखा को इस शादी के लिए रोकना चाहा तो शिखा तड़प कर बोली, ‘‘मां, तुम भी चाहती हो कि इतिहास फिर से अपनेआप को दोहराए? फिर एक जिंदगी तिलतिल कर के इन धार्मिक आडंबरों और दुनियादारी के ढकोसलों की अग्नि में अपना जीवन स्वाहा कर दे? तुम भी मां…’’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.

शिखा के इस तर्क के आगे माला निरुत्तर हो गईं. वे धीरे से शिखा के पास आईं और उस का सिर सहलाते हुए रुंधी आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी बेटी. बढ़ती उम्र ने नजर ही नहीं, मेरी सोचनेसमझने की शक्ति को भी धुंधला दिया था. मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़ कर और कुछ भी नहीं… हम आज ही यह घर छोड़ देंगी.’’

जब मामामामी को पता लगा कि शिखा का इरादा पक्का है और माला भी उस के साथ है, तो सब का आक्रोश ठंडा पड़ गया. अचानक उन्हें गुरुजी का ध्यान आया कि शायद उन के कहने से शिखा अपना निर्णय बदल दे.

बात गुरुजी तक पहुंची तो वे बिफर उठे. जैसे ही उन्होंने शिखा को कुछ समझाना चाहा, शिखा ने अपने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने गले में पड़ा उन की तसवीर वाला लौकेट उतार कर उन के सामने फेंक दिया.

सब लोग गुस्से में कह उठे, ‘‘यह क्या पागलपन है शिखा?’’

गुरुजी भी आश्चर्यमिश्रित रोष से उसे देखने लगे.

इस पर शिखा दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘बहुत कर ली आप की पूजा और देख ली आप की शक्ति भी, जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. मेरा सर्वस्व अब मेरा होने वाला पति राहुल है, उस का घर ही मेरा मंदिर है, उस की सेवा आप के ढोंगी धर्म और भगवान से बढ़ कर है,’’ कहते हुए शिखा तेजी से उठ कर वहां से निकल गई.

शिखा के इस आत्मविश्वास के आगे सब ने समर्पण कर दिया और फिर खूब धूमधाम से राहुल के साथ उस का विवाह हो गया.

अचानक बादलों की गड़गड़ाहट से शिखा की आंख खुल गई. आंगन में लोगों की चहलकदमी शुरू हो गई थी. आंखें मलती हुई वह उठी और सोचने लगी, यहां दीवान पर लेटेलेटे उस की आंख क्या लगी वह तो अपना अतीत एक बार फिर से जी आई.

‘राहुल अब किसी भी वक्त उसे लेने पहुंचने ही वाला होगा,’ इस खयाल से शिखा के चेहरे पर एक लजीली मुसकान फैल गई.

हत्या या आत्महत्या: क्या हुआ था अनु के साथ?

अनु के विवाह समारोह से उस की विदाई होने के बाद रात को लगभग 2 बजे घर लौटी थी. थकान से सुबह 6 बजे गहरी नींद में थी कि अचानक अनु के घर से, जो मेरे घर के सामने ही था, जोरजोर से विलाप करने की आवाजों से मैं चौंक कर उठ गई. घबराई हुई बालकनी की ओर भागी. उस के घर के बाहर लोगों की भीड़ देख कर किसी अनहोनी की कल्पना कर के मैं स्तब्ध रह गई. रात के कपड़ों में ही मैं बदहवास उस के घर की ओर दौड़ी. ‘अनु… अनु…’ के नाम से मां को विलाप करते देख कर मैं सकते में आ गई.

किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मुझे वहां की स्थिति देख कर समझने में देर नहीं लगी. तो क्या अनु ने वही किया, जिस का मुझे डर था? लेकिन इतनी जल्दी ऐसा करेगी, इस का मुझे अंदेशा नहीं था. कैसे और कहां, यह प्रश्न अनुत्तरित था, लेकिन वास्तविकता तो यह कि अब वह इस दुनिया में नहीं रही. यह बहुत बड़ी त्रासदी थी. अभी उम्र ही क्या थी उस की…? मैं अवाक अपने मुंह पर हाथ रख कर गहन सोच में पड़ गई.

मेरा दिमाग जैसे फटने को हो रहा था. कल दुलहन के वेश में और आज… पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया. मैं मन ही मन बुदबुदाई. मेरी रूह अंदर तक कांप गई. वहां रुकने की हिम्मत नहीं हुई और क्यों कर रुकूं… यह घर मेरे लिए उस के बिना बेगाना है. एक वही तो थी, जिस के कारण मेरा इस घर में आनाजाना था, बाकी लोग तो मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते.

मैं घर आ कर तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. मां ने आ कर मुझे बहुत सांत्वना देने की कोशिश की तो मैं उन से लिपट कर बिलखते हुए बोली, ‘‘मां, सब की माएं आप जैसे क्यों नहीं होतीं? क्यों लोग अपने बच्चों से अधिक समाज को महत्त्व देते हैं? क्यों अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया का ध्यान रखते हैं? शादी जैसे व्यक्तिगत मामले में भी क्यों समाज की दखलंदाजी होती है? मांबाप का अपने बच्चों के प्रति यह कैसा प्यार है जो सदियों से चली आ रही मान्यताओं को ढोते रहने के लिए उन के जीवन को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते? कितना प्यार करती थी वह जैकब से? सिर्फ वह क्रिश्चियन है…? प्यार क्या धर्म और जाति देख कर होता है? फिर लड़की एक बार मन से जिस के साथ जुड़ जाती है, कैसे किसी दूसरे को पति के रूप में स्वीकार करे?’’ रोतेरोते मन का सारा आक्रोश अपनी मां के सामने उगल कर मैं थक कर उन के कंधे पर सिर रख कर थोड़ी देर के लिए मौन हो गई.

पड़ोसी फर्ज निभाने के लिए मैं अपनी मां के साथ अनु के घर गई. वहां लोगों की खुसरफुसर से ज्ञात हुआ कि विदा होने के बाद गाड़ी में बैठते ही अनु ने जहर खा लिया और एक ओर लुढ़क गई तो दूल्हे ने सोचा कि वह थक कर सो गई होगी. संकोचवश उस ने उसे उठाया नहीं और जब कार दूल्हे के घर के दरवाजे पर पहुंची तो सास तथा अन्य महिलाएं उस की आगवानी के लिए आगे बढ़ीं. जैसे ही सास ने उसे गाड़ी से उतारने के लिए उस का कंधा पकड़ा उन की चीख निकल गई. वहां दुलहन की जगह उस की अकड़ी हुई लाश थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

चीख सुन कर सभी लोग दौड़े आए और दुलहन को देख कर सन्न रह गए.

दहेज से लदा ट्रक भी साथसाथ पहुंचा. लेकिन वर पक्ष वाले भले मानस थे, उन्होंने सोचा कि जब बहू ही नहीं रही तो उस सामान का वे क्या करेंगे? इसलिए उसी समय ट्रक को अनु के घर वापस भेज दिया. उन के घर में खुशी की जगह मातम फैल गया. अनु के घर दुखद खबर भिजवा कर उस का अंतिम संस्कार अपने घर पर ही किया. अनु के मातापिता ने अपना सिर पीट लिया, लेकन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गई खेत.

एक बेटी समाज की आधारहीन परंपराओं के तहत तथा उन का अंधा अनुकरण करने वाले मातापिता की सोच के लिए बली चढ़ गई. जीवन हार गया, परंपराएं जीत गईं.

अनु मेरे बचपन की सहेली थी. एक साथ स्कूल और कालेज में पढ़ी, लेकिन जैसे ही उस के मातापिता को ज्ञात हुआ कि मैं किसी विजातीय लड़के से प्रेम विवाह करने वाली हूं, उन्होंने सख्ती से उस पर मेरे से मिलने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की, लेकिनउस ने मुझ से मिलनेजुलने पर मांबाप की पाबंदी को दृढ़ता से नकार दिया. उन्हें क्या पता था कि उन की बटी भी अपने सहपाठी, ईसाई लड़के जैकब को दिल दे बैठी है. उन के सच्चे प्यार की साक्षी मुझ से अधिक और कौन होगा? उसे अपने मातापिता की मानसिकता अच्छी तरह पता थी. अकसर कहती थी, ‘‘प्रांजलि, काश मेरी मां की सोच तुम्हारी मां जैसे होती. मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि मातापिता हमें अपनी सोच की जंजीरों में क्यों बांधना चाहते हैं. तो फिर हमें खुले आसमान में विचरने ही क्यों देते हैं? क्यों हमें ईसाई स्कूल में पढ़ाते हैं? क्यों नहीं पहले के जमाने के अनुसार हमारे पंख कतर कर घर में कैद कर लेते हैं? समय के अनुसार इन की सोच क्यों नहीं बदलती? ’’

मैं उस के तर्क सुन कर शब्दहीन हो जाती और सोचती काश मैं उस के मातापिता को समझा पाती कि उन की बेटी किसी अन्य पुरुष को वर के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाएगी, उन्हें बेटी चाहिए या सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन उन्होंने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया था.

अनु एक बहुत ही संवेदनशील और हठी लड़की थी. जैकब भी पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला युवक था. उस के मातापिता भी समझदार और धर्म के पाखंडों से दूर थे. वे अपने इकलौते बेटे को बहुत प्यार करते थे और उस की खुशी उन के लिए सर्वोपरि थी. मैं ने अनु को कई बार समझाया कि बालिग होने के बाद वह अपने मातापिता के विरुद्ध कोर्ट में जा कर भी रजिस्टर्ड विवाह कर सकती है, लेकिन उस का हमेशा एक ही उत्तर होता कि नहीं रे, तुझे पता नहीं हमारी बिरादरी का, मैं अपने लिए जैकब का जीवन खतरे में नहीं डाल सकती… इतना कह कर वह गहरी उदासी में डूब जाती.

मैं उस की कुछ भी मदद न करने में अपने को असहाय पा कर बहुत व्यथित होती. लेकिन मैं ने जैकब और उस के परिवार वालों से कहा कि उस के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाएं, शायद उन्हें समझ में आ जाए,

लेकिन इस में भी अनु के घर वालों को मेरे द्वारा रची गई साजिश की बू आई, इसलिए उन्होंने उन्हें बहुत अपमानित किया और उन के जाने के बाद अनु को मेरा नाम ले कर खूब प्रताडि़त किया. इस के बावजूद जैकब बारबार उस के घर गया और अपने प्यार की दुहाई दी. यहां तक कि उन के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाया भी, लेकिन उन का पत्थर दिल नहीं पिघला और उस की परिणति आज इतनी भयानक… एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई. मातापिता को तो उन के किए का दंड मिला, लेकिन मुझे अपनी प्यारी सखी को खोने का दंश बिना किसी गलती के जीवनभर झेलना पड़ेगा.

लोग अपने स्वार्थवश कि उन की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और दैहिक सुख के परिणामस्वरूप बच्चा पैदा करते हैं और पैदा होने के बाद उसे स्वअर्जित संपत्ति मान कर उस के जीवन के हर क्षेत्र के निर्णय की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं, जैसे कि वह हाड़मांस का न बना हो कर बेजान पुतली है. यह कैसी मानसिकता है उन की?

कैसी खोखली सोच है कि वे जो भी करते हैं, अपने बच्चों की भलाई के लिए करते हैं? ऐसी भलाई किस काम की, जो बच्चों के जीवन से खुशी ही छीन ले. वे उन की इस सोच से तालमेल नहीं बैठा पाते और बिना पतवार की नाव के समान अवसाद के भंवर में डूब कर जीवन ही नष्ट कर लेते हैं, जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, लेकिन इसे हत्या कहें तो अधिक सार्थक होगा. अनु की हत्या की थी, मातापिता और उन के खोखले समाज ने.

कौन चरित्रहीन – मांगी बच्चों की कस्टडी

उसके हाथों में कोर्ट का नोटिस फड़फड़ा रहा था. हत्प्रभ सी बैठी थी वह… उसे एकदम जड़वत बैठा देख कर उस के दोनों बच्चे उस से चिपक गए. उन के स्पर्श मात्र से उस की ममता का सैलाब उमड़ आया और आंसू बहने लगे. आंसुओं की धार उस के चेहरे को ही नहीं, उस के मन को भी भिगो रही थी. न जाने इस समय वह कितनी भावनाओं की लहरों पर चढ़उतर रही थी. घबराहट, दुख, डर, अपमान, असमंजस… और न जाने क्याक्या झेलना बाकी है अभी. संघर्षों का दौर है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. जब भी उसे लगता कि उस की जिंदगी में अब ठहराव आ गया है, सबकुछ सामान्य हो गया है कि फिर उथलपुथल शुरू हो जाती है.

दोनों बच्चों को अकेले पालने में जो उस ने मुसीबतें झेली थीं, उन के स्थितियों को समझने लायक बड़े होने के बाद उस ने सोचा था कि वे कम हो जाएंगी और ऐसा हुआ भी था. पल्लवी 11 साल की हो गई थी और पल्लव 9 साल का. दोनों अपनी मां की परेशानियों को न सिर्फ समझने लगे थे वरन सचाई से अवगत होने के बाद उन्होंने अपने पापा के बारे में पूछना भी छोड़ दिया था. पिता की कमी वे भी महसूस करते थे, पर नानी और मामा से उन के बारे में थोड़ाबहुत जानने के बाद वे दोनों एक तरह से मां की ढाल बन गए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के बच्चों को अपने पापा का पूरा सच मालूम हो, इसलिए कभी विस्तार से इस बारे में बात नहीं की थी. उसे अपनी ममता पर भरोसा था कि उस के बच्चे उसे गलत नहीं समझेंगे.

कागज पर लिखे शब्द मानो शोर बन कर उस के आसपास चक्कर लगा रहे थे, ‘चरित्रहीन, चरित्रहीन है यह… चरित्रहीन है इसलिए इसे बच्चों को अपने पास रखने का भी हक नहीं है. ऐसी स्त्री के पास बच्चे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं? उन्हें अच्छे संस्कार कैसे मिल सकते हैं? इसलिए बच्चों की कस्टडी मुझे मिलनी चाहिए… एक पिता होने के नाते मैं उन का ध्यान ज्यादा अच्छी तरह रख सकता हूं और उन का भविष्य भी सुरक्षित कर सकता हूं…’

चरित्रहीन शब्द किसी हथौड़े की तरह उस के अंतस पर प्रहार कर रहा था. मां को रोता देख पल्लवी ने कोर्ट का कागज मां के हाथों से ले लिया. ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आया. पर इतना अवश्य जान गई कि मां पर इलजाम लगाए जा रहे हैं.

‘‘पल्लव तू सोने जा,’’ पल्लवी ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं. सब जानता हूं. हमारे पापा ने नोटिस भेजा है और वे चाहते हैं कि हम उन के पास जा कर रहें. ऐसा कभी नहीं होगा. मम्मी आप चिंता न करें. मैं ने टीवी में एक सीरियल में देखा था कि कैसे कोर्ट में बच्चों को लेने के लिए लड़ाई होती है. मैं नहीं जाऊंगा पापा के पास. दीदी आप भी नहीं जाना.’’

पल्लव की बात सुन कर वह हैरान रह गई. सही कहते हैं लोग कि वक्त किसी को भी परिपक्व बना सकता है.

‘‘मैं भी नहीं जाऊंगी उन के पास और कोर्ट में जा कर कह दूंगी कि हमें मम्मी के पास ही रहना है. फिर कैसे ले जाएंगे वे हमें. मुझे तो उन की शक्ल तक याद नहीं. इतने सालों तक एक बार भी हम से मिलने नहीं आए. फिर अब क्यों ड्रामा कर रहे हैं?’’ पल्लवी के स्वर में रोष था.

कोई गलती न होने पर भी वह इस समय बच्चों से आंख नहीं मिला पा रही थी. छि: कितने गंदे शब्द लिखे हैं नोटिस में… किसी तरह उस ने उन दोनों को सुलाया.

रात की कालिमा परिवेश में पसर चुकी थी. उसे लगा कि अंधेरा जैसे धीरेधीरे उस की ओर बढ़ रहा है. इस बार यह अंधेरा उस के बच्चों को छीनने के लिए आ रहा है. भयभीत हो उस ने बच्चों की ओर देखा… नहीं, वह अपने बच्चों को अपने से दूर नहीं होने देगी… अपने जिगर के टुकड़ों को कैसे अलग कर सकती है वह?

तब कहां गया था पिता का अधिकार जब उसे बच्चों के साथ घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था? बच्चों की बगल में लेट कर उस ने उन के ऊपर हाथ रख दिया जैसे कोई सुरक्षाकवच डाल दिया हो.

उस के दिलोदिमाग में बारबार चरित्रहीन शब्द किसी पैने शीशे की तरह चुभ रहा था. कितनी आसानी से इस बार उस पर एक और आरोप लगा दिया गया है और विडंबना तो यह है कि उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया गया है जिसे कभी झल्ली, मूर्ख, बेअक्ल और गंवारकहा जाता था. आभा को लगा कि नरेश का स्वर इस कमरे में भी गूंज रहा है कि तुम चरित्रहीन हो… तुम चरित्रहीन हो… उस ने अपने कानों पर हाथ रख लिए. सिर में तेज दर्द होने लगा था.

समय के साथ शब्दों ने नया रूप ले लिया, पर शब्दों की व्यूह रचना तो बरसों पहले ही हो चुकी थी. अचानक ‘तुम गंवार हो… तुम गंवार हो…’ शब्द गूंजने लगे… आभा घिरी हुई रात के बीच अतीत के गलियारों में भटकने लगी…

‘‘मांबाप ने तुम जैसी गंवार मेरे पल्ले बांध मेरी जिंदगी खराब कर दी है. तुम्हारी जगह कोई पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बीवी होती तो मुझे कितनी मदद मिल जाती. एक की कमाई से घर कहां चलता है. तुम्हें तो लगता है कि घर संभाल रही हो तो यही तुम्हारी बहुत बड़ी क्वालिफिकेशन है. अरे घर का काम तो मेड भी कर सकती है, पर कमा कर तो बीवी ही दे सकती है,’’ नरेश हमेशा उस पर झल्लाता रहता.

आभा ज्यादातर चुप ही रहती थी. बहुत पढ़ीलिखी न सही पर ग्रैजुएट थी. बस आगे कोई प्रोफैशनल कोर्स करने का मौका ही नहीं मिला. कालेज खत्म होते ही शादी कर दी गई. सोचा था शादी के बाद पढ़ेगी, पर सासससुर, देवर, ननद और गृहस्थी के कामों में ऐसी उलझी कि अपने बारे में सोच ही नहीं पाई. टेलैंट उस में भी है. मूर्ख नहीं है. कई बार उस का मन करता कि चिल्ला कर एक बार नरेश को चुप ही करा दे, पर सासससुर की इज्जत का मान रखते हुए उस ने अपना मुंह ही सी लिया. घर में विवाद हो, यह वह नहीं चाहती थी.

मगर मन ही मन ठान जरूर लिया था कि वह पढ़ेगी और स्मार्ट बन कर दिखाएगी…

स्मार्ट यानी मौडर्न और वह भी कपड़ों से…

ऐसी नरेश की सोच थी… पर वह स्मार्टनैस सोच में लाने में विश्वास करती थी. जल्दीजल्दी 2 बच्चे हो गए, तो उस की कोशिशें फिर ठहर गईं. बच्चों की अच्छी परवरिश प्राथमिकता बन गई. मगर खर्चे बढ़े तो नरेश की झल्लाहट भी बढ़ गई. बहन की शादी पर लिया कर्ज, भाई की भी पढ़ाई और मांबाप की भी जिम्मेदारी… गलती उस की भी नहीं थी. वह समझ रही थी इसलिए उस ने सिलाई का काम करने का प्रस्ताव रखा, ट्यूशन पढ़ाने का प्रस्ताव रखा पर गालियां ही मिलीं.

‘‘कोई सौफिस्टिकेटेड जौब कर सकती हो तो करो… पर तुम जैसी गंवार को कौन नौकरी देगा. बाहर निकल कर उन वर्किंग वूमन को देखो… क्या बढि़या जिंदगी जीती हैं. पति का हाथ भी बंटाती हैं और उन की शान भी बढ़ाती हैं.’’

आभा सचमुच चाहती थी कि कुछ करे. मगर वह कुछ सोच पाती उस से पहले ही विस्फोट हो गया.

‘‘निकल जा मेरे घर से… और अपने इन बच्चों को भी ले जा. मुझे तेरी जैसी गंवार की जरूरत नहीं… मैं किसी नौकरीपेशा से शादी करूंगा. तेरी जैसी फूहड़ की मुझे कोई जरूरत नहीं.’’

सकते में आ गई थी वह. फूहड़ और गंवार मैं हूं कि नरेश… कह ही नहीं पाई वह.

सासससुर के समझाने पर भी नरेश नहीं माना. उस के खौफ से सभी डरते थे. उस के चेहरे पर उभरे एक राक्षस को देख उस समय वह भी डर गई थी. सोचा कुछ दिनों में जब उस का गुस्सा शांत हो जाएगा, वह वापस आ जाएगी. 2 साल की पल्लवी और 1 साल के पल्लव को ले कर जब उस ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा था तब उसे क्या पता था कि नरेश का गुस्सा कभी शांत होगा ही नहीं.

मायके में आ कर भाईभाभी की मदद व स्नेह पा कर उस ने ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमैंट की पढ़ाई की. फिर जब एक कंपनी में उसे नौकरी मिली तो लगा कि अब उस के सारे संघर्ष खत्म हो गए हैं. बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया. खुद का किराए पर घर ले लिया.

इतने सालों बाद फिर से यह झंझावात कहां से आ गया. यह सच है कि नरेश ने तलाक नहीं लिया था, पर सुनने में आया था कि किसी पैसे वाली औरत के साथ ऐसे ही रह रहा था. सासससुर गांव चले गए थे और देवर अपना घर बसा कर दूसरे शहर में चला गया था. फिर अब बच्चे क्यों चाहिए उसे…

वह इस बार हार नहीं मानेगी… वह लड़ेगी अपने हक के लिए. अपने बच्चों की खातिर. आखिर कब तक उसे नरेश के हिसाब से स्वयं को सांचे में ढालते रहना होगा. उसे अपने अस्तित्व की लड़ाई तो लड़नी ही होगी. आखिर कैसे वह जब चाहे जैसा मरजी इलजाम लगा सकता है और फिर किस हक से… अब वह तलाक लेगी नरेश से.

अदालत में जज के सामने खड़ी थी आभा. ‘‘मैं अपने बच्चों को किसी भी हालत में इसे नहीं सौंप सकती हूं. मेरे बच्चे सिर्फ मेरे हैं. पिता का कोई दायित्व कब निभाया है इस आदमी ने…’’

‘‘तुम्हारी जैसी महत्त्वाकांक्षी, रातों को देर तक बाहर रहने वाली, जरूरत से ज्यादा स्मार्ट और मौडर्न औरत के साथ बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? पुरुषों के साथ मीटिंग के बहाने बाहर जाती है, उन से हंसहंस कर बातें करती है… मैं ने इसे छोड़ दिया तो क्या यह अब किसी भी आदमी के साथ घूमने के लिए आजाद है? जज साहब, मैं इसे अभी भी माफ करने को तैयार हूं. यह चाहे तो वापस आ सकती है. मैं इसे अपना लूंगा.’’

‘‘नहीं. कभी नहीं. तुम इसलिए मुझे अपनाना चाहते हो न, क्योंकि मैं अब कमाती हूं. तुम्हें उस अमीर औरत ने बेइज्जत कर के बाहर निकाल दिया है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कमा कर खिलाऊं? नरेश मैं तुम्हारे हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं हूं और न ही तुम्हें बच्चों की कस्टडी दूंगी. हां, तुम से तलाक जरूर लूंगी.

‘‘जज साहब अगर बच्चों को अच्छी जिंदगी देने के लिए मेहनत कर पैसा कमाना चारित्रहीनता की निशानी है तो मैं चरित्रहीन हूं. जब मैं घर की देहरी के अंदर खुश थी तो मुझे गंवार कहा गया, जब मैं ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा तो मैं चरत्रिहीन हो गई. आखिर यह कैसी पुरुष मानसिकता है… अपने हिसाब से तोड़तीमरोड़ती रहती है औरत के अस्तित्व को, उस की भावनाओं को अपने दंभ के नीचे कुचलती रहती है… मुझे बताइए मैं चरित्रहीन हूं या नरेश जैसा पुरुष?’’ आभा के आंसू बांध तोड़ने को आतुर हो उठे थे. पर उस ने खुद को मजबूती से संभाला.

‘‘मैं तुम्हें तलाक देने को तैयार नहीं हूं. तुम भिजवा दो तलाक का नोटिस. चक्कर लगाती रहना फिर अदालत के बरसों तक,’’ नरेश फुफकारा था.

केस चलता जा रहा था. पल्लवी और पल्लव को आभा को न चाहते हुए भी केस में घसीटना पड़ा. जज ने कहा कि बच्चे इतने बड़े हैं कि उन से पूछना जरूरी है कि वे किस के साथ रहना चाहते हैं.

‘‘हम इस आदमी को जानते तक नहीं हैं. आज पहली बार देख रहे हैं. फिर इस के साथ कैसे जा सकते हैं? हम अपनी मां के साथ ही रहेंगे.’’

अदालत में 2 साल तक केस चलने के बाद जज साहब ने फैसला सुनाया, ‘‘नरेश को बच्चों की कस्टडी नहीं मिल सकती और आभा पर मानसिक रूप से अत्याचार करने व उस की इज्जत पर कीचड़ उछालने के जुर्म में उस पर मानहानि का मुकदमा चलाया जाए. ऐसी घृणित सोच वाले पुरुष ही औरत की अस्मिता को लहूलुहान करते हैं और समाज में उसे सम्मान दिलाने के बजाय उस के सम्मान को तारतार कर जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं. आभा को परेशान करने के एवज में नरेश को उन्हें क्व5 लाख का हरजाना भी देना होगा.’’

आभा ने नरेश के आगे तलाक के पेपर रख दिए. बुरी तरह से हारे हुए नरेश के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा था. दोनों बच्चों के लिए तो वह एक अजनबी ही था. कांपते हाथों से उस ने पेपर्स पर साइन कर दिए. अदालत से बाहर निकलते हुए आभा के कदमों में एक दृढ़ता थी. दोनों बच्चों ने उसे कस कर पकड़ा था.

जरा सी बात : प्रथा का द्वंद्व

प्रथानहीं जानती थी कि यों जरा सी बात का बतंगड़ बन जाएगा. हालांकि अपने क्षणिक आवेश का उसे भी बहुत दुख है, लेकिन अब तो बात उस के हाथ से जा चुकी है. वैसे भी विवाहित ननदों के तेवर सास से कम नहीं होते. फिर रजनी तो इस घर की लाडली छोटी बेटी थी. सब के स्नेह की इकलौती अधिकारी… उस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए ये जरा सी बात बहुत बड़ी बात थी.

‘हां, जरा सी बात ही तो थी… क्या हुआ जो आवेश में रजनी को एक थप्पड़ लग गया. उसे इतना तूल देने की क्या जरूरत थी. वैसे भी मैं ने किसी द्ववेष से तो उसे थप्पड़ नहीं मारा था. मैं तो रजनी को अपनी छोटी बहन मानती हूं. रजनी की जगह मेरी अपनी बहन होती तो क्या इसे पी नहीं जाती. लेकिन रजनी लाख बहन जैसी होगी, बहन तो नहीं है न. इसीलिए तांडव मचा रखा है,’ प्रथा जितना सोचती उतना ही उल झती जाती. मामले को सुल झाने का कोई सिरा उस के हाथ नहीं आ रहा था.

दूसरा कोई मसला होता तो प्रथा पति भावेश को अपनी बगल में खड़ा पाती, लेकिन यहां तो मामला उस की अपनी छोटी बहन का है, जिसे रजनी ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है. अब तो भावेश भी उस से नाराज है. किसकिस को मनाए… किसकिस को सफाई दे… प्रथा सम झ नहीं पा रही थी.

हालांकि ननद पर हाथ उठते ही प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. लेकिन वह जली हुई साड़ी बारबार उसे अपनी गलती नहीं मानने के लिए उकसा रही थी. दरअसल, प्रथा को अपनी सहेली की शादी की सालगिरह पार्टी में जाना था. भावेश पहले ही तैयार हो कर उसे देर करने का ताना मार रहा था ऊपर से जिस साड़ी को वह पहनने की सोच रही थी वह आयरन नहीं की हुई थी.

छुट्टियों में मायके आई हुई ननद ने लाड़ दिखाते हुए भाभी की साड़ी को आयरन करने की जिम्मेदारी ले ली. प्रथा ननद पर री झती हुई बाथरूम में घुस गई. इधर ननदोईजी का फोन आ गया और उधर रजनी बातों में डूब गई. बातों में व्यस्त रजनी आयरन को साड़ी पर से उठाना भूल गई और जब प्रथा बाथरूम से निकली तो अपनी साड़ी को जलते देख कर अपना होश खो बैठी. उस ने ननद को उस की गलती का एहसास करवाने के लिए गुस्से में उस से मोबाइल छीनने की कोशिश की, लेकिन खतरे से अनजान रजनी के अचानक मुंह घुमा लेने से प्रथा का हाथ उस के गाल पर लग गया जिसे उस ने ‘थप्पड़’ कह कर पूरे घर को सिर पर उठा लिया.

देखते ही देखते घर में भूचाल आ गया. घर भर की लाडली बहू अचानक किसी खलनायिका सी अप्रिय हो गई.

मनहूसियत के साए में भी भला कभी रूमानियत खिली है? प्रथा का पार्टी में जाना तो कैंसिल होना ही था. अब सासननद तो रसोई में घुसने से रही क्योंकि वह तो पीडि़त पक्ष था. लिहाजा प्रथा को ही रात के खाने में जुटना पड़ा.

खाने की मेज पर सब के मुंह चपातियों की तरह फूले हुए थे. ननद ने खाने की तरफ देखना तो दूर खाने की मेज पर आने तक से इनकार कर दिया. सास ने बहुत मनाया कि किसी तरह दो कौर हलक से नीचे उतार ले, लेकिन रूठी हुई रानियां भी भला बनवास से कम मानी हैं कभी?

रजनी की जिद थी कि भाभी उस से माफी मांगे. सिर्फ दिखावे भर की नहीं, बल्कि पश्चात्ताप के आंसुओं से तर माफी. उधर प्रथा इसे अपनी गलती ही नहीं मान रही थी तो माफी और पश्चात्ताप का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि वह तो चाह रही थी कि रजनी को उस की कीमती साड़ी जलाने का अफसोस करते हुए स्वयं उस से माफी मांगनी चाहिए.

जिस तरह से एक घर में 2 महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रह सकतीं उसी तरह से यहां भी यह जरा सी बात अब प्रतिष्ठा का सवाल बनने लगी थी. रजनी अब यहां एक पल रुकने को तैयार नहीं थी. वहीं सास को डर था कि बात समधियाने तक जाएगी तो बेकार ही धूल उड़ेगी. किसी तरह सास उसे मामला सुलटने तक रुकने के लिए मना सकी. एक उम्मीद भी थी कि हो सकता है 1-2 दिन में प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो जाए.

ससुरजी का कमरा और सास की अध्यक्षता… देर रात तक चारों की मीटिंग चलती रही. प्रथा इस मीटिंग से बहिष्कृत थी. अपने कमरे में विचारों में डूबी प्रथा के लिए पति को अपने पक्ष में करना कठिन नहीं था. पुरुष की नाराजगी भला होती ही कितनी देर तक है… कामिनी स्त्री की पहल जितनी ही न… एक रति शस्त्र में ही पुरुष घुटनों पर आ जाता है. लेकिन आज प्रथा इस अमोघ बाण को चलाने के मूड में भी तो नहीं थी. वह भी देखना चाहती थी कि इस ससुरजी के कमरे में होने वाले मंथन से उस के हिस्से में क्या आता है. जानती थी कि हलाहल ही होगा लेकिन बस आधिकारिक घोषणा का इंतजार कर रही थी.

ढलती रात भावेश ने कमरे में प्रवेश किया. प्रथा जागते हुए भी सोने का नाटक करती रही. भावेश ने उस की कमर के गिर्द घेरा डाल दिया. प्रथा ने कसमसा कर अपना मुंह उस की तरफ घुमाया.

‘‘प्रथा, तुम सुबह रजनी से माफी मांग लेना. बड़ी मुश्किल से उसे इस बात के लिए राजी कर पाए हैं कि वह इस बात को यहीं खत्म कर दे,’’ भावेश ने अपनी आवाज को यथासंभव धीरे रखा ताकि बात बैडरूम से बाहर न जाए.

उस का प्रस्ताव सुनते ही प्रथा के सीने में जलन होने लगी. बोली, ‘‘भावेश तुम भी… जिस ने गलती की उसी का पक्ष ले रहे हो?  एक तो तुम्हारी उस नकचढ़ी बहन ने मेरी इतनी कीमती साड़ी जला दी, ऊपर से तुम चाहते हो कि मैं नाराजगी जाहिर करने का अपना अधिकार भी खो दूं? गिर जाऊं उस के पैरों में? नहीं, मु झ से यह नहीं होगा… किसी सूरत में नहीं.’’

‘‘साड़ी ही तो थी न, जाने दो. मैं वैसी 5 नई ला दूंगा. तुम प्लीज उस से माफी मांग लो,’’ भावेश ने फिर खुशामद की. मगर प्रथा ने कोई जवाब नहीं दिया और पीठ फेर कर सो गई, जो उस के स्पष्ट इनकार का द्योतक था. भावेश ने उसे मजबूत बांह से पकड़ कर जबरदस्ती अपनी तरफ फेरा. प्रथा को उस की यह हरकत बहुत ही नागवार लगी.

‘‘एक थप्पड़ ही तो मारा था न… वह भी उस की गलती पर. यदि वह तुम्हारी

बहन न हो कर मेरी बहन होती तब भी क्या ऐसा ही बवाल मचता? नहीं न? बात आईगई हो जाती. तुम बहनभाई कभी आपस में नहीं लड़े क्या? क्या तुम ने या तुम्हारे मांपापा ने आज तक कभी उस पर हाथ नहीं उठाया? फिर आज ये महाभारत क्यों छिड़ गई?’’ प्रथा ने उस का हाथ  झटकते हुए कहा.

भावेश ने बात आगे न बढ़ाना ही उचित सम झा. उस रात शायद घर का कोई भी सदस्य नहीं सोया होगा. सब अपनेअपने मन को मथ रहे थे. विचारों की झड़ी लगी थी. रजनी अपनी मां के आंचल को भिगो रही थी तो प्रथा तकिए को.

सुबह प्रथा ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी सम झते हुए सब को चाय थमाई, लेकिन आज इस चाय में किसी को कोई मिठास महसूस नहीं हुई. रजनी और सास ने तो कप को छुआ तक नहीं. बस, घूरती रहीं. हरकोई बातचीत शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘भाई, तुम किसे ज्यादा प्यार करते हो मु झे या अपनी बीवी को?’’ अचानक रजनी का अटपटा प्रश्न सुन कर भावेश चौंक गया. उस ने अपनी मां की तरफ देखा. मां ने कन्नी काट ली. पिता ने अपना सिर अखबार में घुसा लिया. प्रथा की निगाहें भी भावेश के चेहरे पर टिक गई.

‘‘यह कैसा बेतुका प्रश्न है?’’ भावेश ने धर्मसंकट से बचना चाहा, लेकिन यह इतना आसान कहां था.

‘‘अटपटाचटपटा मैं नहीं जानती. आप जवाब दो कि यदि आप को बहन औैर बीवी में से एक को चुनना पड़े तो आप किसे चुनेंगे?’’ रजनी ने उसे रणछोड़ नहीं बनने दिया.

भावेश ने देखा कि प्रथा बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए बाथरूम में घुस गई. उस ने राहत की सांस ली. वह रजनी की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गया. भावेश ने स्नेह से बहन की गले में अपने हाथ डाल धीरे से गुनगुनाया, ‘‘फूलों का तारों का…सब कहना है…एक हजारों में… मेरी बहना है…’’

दृश्य देख कर मां मुसकराई. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. रजनी को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था.

‘‘भाई, यदि आप मु झे सचमुच प्यार करते हो तो भाभी को तलाक दे दो,’’ रजनी ने भाई के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा. उस की आंखें  झर रही थीं.

बहन की बात सुनते ही भावेश को सांप सूंघ गया. उस ने रजनी का मुंह अपने हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? जरा सी बात पर इतना बड़ा फैसला? तलाक का मतलब जानती हो न? एक बार फिर से सोच कर देखो. मेरे खयाल से प्रथा की गलती इतनी बड़ी तो नहीं है जितनी बड़ी तुम सजा तय कर रही हो,’’ भावेश ने रजनी को सम झाने की कोशिश की. फिर अपनी बात के समर्थन में उस ने मांपापा की तरफ देखा, लेकिन मां ने अनसुना कर दिया और पापा तो पहले से ही अखबार में घुसे हुए थे. भावेश निराश हो गया.

‘‘जरा सी बात? क्या बहन के स्वाभिमान पर चोट भाई के लिए जरा सी बात हो सकती है? हम बहनें इसी दिन के लिए राखियां बांधती हैं क्या?’’ रजनी ने गुस्से से कहा.

‘‘रजनी ठीक ही कहती है. वो 2 साल की ब्याही लड़की तुम्हें अपनी सगी बहन से ज्यादा प्यारी हो गई? आज उस ने रजनी से माफी मांगने से मना किया है कल को सासससुर की इज्जत को भी फूंक मार देगी,’’ बहनभाई की बहस को नतीजे पर पहुंचाने की मंशा से मां बोली.

‘‘मनरेगा में बरसात से पहले ही नदीनालों पर बांध बनवाए जा रहे हैं ताकि तबाही होने से रोकी जा सके. सरकार का यह फैसला प्रशंसनीय है,’’ पापा ने अखबार की खबर पढ़ कर सुनाई.

भावेश सम झ गया कि इन का पलड़ा भी बेटी की तरफ ही  झुका हुआ है. कहां तो भावेश सोच रहा था कि इस बार बहन के प्यार को रिश्तों के पलड़े पर रख कर मकान पर उस के हिस्से वाले आधे भाग को भी अपने नाम करवा लेगा, लेकिन यहां तो खुद उस का प्यार ही पलडे़ पर रखा जा रहा है. प्रथा का थप्पड़ उस के मंसूबों की लिखावट पर पानी फेर रहा है. उस ने वैभव ने प्रथा को शीशे में उतारना तय कर लिया. वह इस जरा सी बात के लिए अपना इतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता. फिर वैसे भी यदि वह नुकसान में होगा तो प्रथा भी कहां फायदे में रहेगी.

रजनी दिनभर अपने कमरे में पड़ी रही. सब ने कोशिश कर देख ली, लेकिन वह तो प्रथा को तलाक देने की बात पर अड़ ही गई. हालांकि सब को उस की यह जिद बचकानी ही लग रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भय भी सिर उठा रहा था कि इस बार की जीत कहीं प्रथा के सिर पर सींग न उगा दे. कहीं ऐसा न हो कि वह छोटेबड़े का लिहाज ही बिसरा दे…  झाडि़यों को बेतरतीब होने से पहले ही कतर देना ठीक रहता है. इसलिए प्रथा को एक सबक सिखाने के पक्ष में तो सभी थे.

‘‘प्रथा, सुनो न,’’ रात को सोने से पहले भावेश ने स्वर पर चाशनी चढ़ाई. प्रथा ने सिर्फ आंखों से पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘रजनी को सौरी बोल भी दो न. उस का बालहठ सम झ कर. जरा सोचो. यदि यह बात उस की ससुराल चली गई तो वे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे खासकर तुम्हारे बारे में? तुम जानती हो न कि रजनी के ससुरजी तुम्हें कितना मान देते हैं,’’ भावेश ने निशाना साध कर चोट की. निशाना लगा भी सही जगह पर प्रहार अधिक दमदार न होने के कारण अपने लक्ष्य को बेध नहीं सका.

‘‘इसे बालहठ नहीं इसे तिरिया हठ कहते हैं.’’ प्रथा ने ननद पर व्यंग्य कसते हुए पति के कमजोर ज्ञान पर तीर चला दिया.

भावेश को पत्नी की यह बात खली तो बहुत, लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए उस ने इसे खुशीखुशी सह लिया.

‘‘अरे हां, तुम तो साहित्य में मास्टर्स हो. वह कहावत सुनी ही होगी कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. सम झ लो कि आज अपनी जरूरत है और हमें रजनी को मनाना है,’’ भावेश ने आवेश में प्रथा के हाथ पकड़ लिए.

कहावत के अनुसार उस में रजनी के पात्र की कल्पना कर के अनायास प्रथा के चेहरे पर मुसकान आ गई. भावेश को लगा मानो अब उस के प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं. उस ने प्रथा को सारी बात बताते हुए उसे अपनी योजना में शामिल कर लिया.

रूठे हुए पतिपत्नी के मिलन के बीच एक प्यारभरी मनुहार की ही तो दूरी होती है. अभिसार के एक इसरार के साथ ही यह दूरी खत्म हो गई. शक्कर के दूध में घुलते ही उस की मिठास कई गुणा बढ़ जाती है.

अगली सुबह प्रथा को सब को गुनगुनाते हुए चाय बनाते देखा तो इस परिवर्तन पर किसी को यकीन नहीं हुआ. भावेश अवश्य राजभरी पुलक के साथ मेज पर हाथों से तबला बजा रहा था. मांपापा उठ कर कमरे से बाहर आ चुके थे. रजनी अभी भी भीतर ही थी. प्रथा ने 3 कप चाय बाहर रखे और 2 कप ले कर रजनी को उठाने चल दी. मांपापा की आंखें लगातार उस का पीछा कर रही थीं.

‘‘आई एम सौरी रजनी. मु झे इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. प्लीज, मु झे माफ कर दो,’’ प्रथा ने बिस्तर में गुमसुम बैठी ननद के पास बैठते हुए कहा.

रजनी को सुबहसुबह इस माफीनामे की उम्मीद नहीं थी. वह अचकचा गई.

‘‘कल तक मैं इसे जरा सी बात ही सम झ रही थी औैर तुम्हारी जिद को तुम्हारा बचपना, लेकिन कल रात जब से मैं ने ‘थप्पड़’, मूवी देखी है तब से तुम्हारे दर्द को बहुत नजदीक से महसूस कर पा रही हूं. मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि एक स्त्री हो कर मैं तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाई. मैं सचमुच तुम से माफी मांगती हूं… दिल से.’’

रजनी ने देखा प्रथा की पलकें सचमुच नम थी. उस ने एक पल सोचा और फिर भाभी के गले में बाहें डाल दीं. भावेश खुश था कि वह अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में कामयाब हुआ. मांपापा खुश थे, क्योंकि बेटी भी खुश थी और रजनी भी, क्योंकि एक स्त्री ने दूसरी स्त्री के स्वाभिमान को पोषित किया था.

Mother’s Day Special- उस की मम्मी मेरी अम्मा : दो मांओं की कहानी

दीक्षा की मम्मी उसे कार से मेरे घर छोड़ गईं. मैं संकोच के कारण उन्हें अंदर आने तक को न कह सकी. अंदर बुलाती तो उन्हें हींग, जीरे की दुर्गंध से सनी अम्मा से मिलवाना पड़ता. उस की मम्मी जातेजाते महंगे इत्र की भीनीभीनी खुशबू छोड़ गई थीं, जो काफी देर तक मेरे मन को सुगंधित किए रही.

मेरे न चाहते हुए भी दीक्षा सीधे रसोई की तरफ चली गई और बोली, ‘‘रसोई से मसालों की चटपटी सी सुगंध आ रही है. मौसी क्या बना रही हैं?’’

मैं ने मन ही मन कहा, ‘सुगंध या दुर्गंध?’ फिर झेंपते हुए बोली, ‘‘पतौड़े.’’

दीक्षा चहक कर बोली, ‘‘सच, 3-4 साल पहले दादीमां के गांव में खाए थे.’’

मैं ने दीक्षा को लताड़ा, ‘‘धत, पतौड़े भी कोई खास चीज होती है. तेरे घर उस दिन पेस्ट्री खाई थी, कितनी स्वादिष्ठ थी, मुंह में घुलती चली गई थी.’’

दीक्षा पतौड़ों की ओर देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी से कुछ भी बनाने को कहो तो बाजार से न जाने कबकब की सड़ी पेस्ट्री उठा लाएंगी, न खट्टे में, न ढंग से मीठे में. रसोई की दहलीज पार करते ही जैसे मेरी मम्मी के पैर जलने लगते हैं. कुंदन जो भी बना दे, हमारे लिए तो वही मोहनभोग है.’’

अम्मा ने दही, सौंठ डाल कर दीक्षा को एक प्लेट में पतौड़े दिए तो उस ने चटखारे लेले कर खाने शुरू कर दिए. मैं मन ही मन सोच रही थी, ‘कृष्ण सुदामा के तंबुल खा रहे हैं, वरना दीक्षा के घर तो कितनी ही तरह के बिस्कुट रखे रहते हैं. अम्मा से कुछ बाजार से मंगाने को कहो तो तुरंत घर पर बनाने बैठ जाएंगी. ऊपर से दस लैक्चर और थोक के भाव बताने लगेंगी, ताजी चीज खाया करो, बाजार में न जाने कैसाकैसा तो तेल डालते हैं.’

दीक्षा प्लेट को चाटचाट कर साफ कर रही थी और मैं उस की मम्मी, उस के घर के बारे में सोचे जा रही थी, ‘दीक्षा की मम्मी साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में मुसकराती हुई कितनी स्मार्ट लगती हैं. यदि वे क्लब चली जाती हैं तो कुंदन लौन में कुरसियां लगा देता है और अच्छेअच्छे बिस्कुटों व गुजराती चिवड़े से प्लेटें भरता जाता है. अम्मा तो बस कहीं आनेजाने में ही साड़ी पहनती हैं और उन के साथ लाल, काले, सफेद रूबिया के 3 साधारण ब्लाउजों से काम चला लेती हैं.’

प्लेट रखते हुए दीक्षा अम्मा से बोली, ‘‘मौसी, आप ने कितने स्वादिष्ठ पतौड़े बनाए हैं. दादी ने तो अरवी के पत्ते काट कर पतौड़े बनाए थे, पर उन में वह बात कहां जो आप के चटपटे पतौड़ों में है.’’

मैं और दीक्षा कैरम खेलने लगीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी आज कहां गई हैं?’’

दीक्षा ने उदासी से उत्तर दिया, ‘‘उन का महिला क्लब गरीब बच्चों के लिए चैरिटी शो कर रहा है, उसी में गई हैं.’’

मैं ने आश्चर्य से चहक कर कहा, ‘‘सच? मौसी घर के साथसाथ समाजसेवा भी खूब कर लेती हैं. एक मेरी अम्मा हैं कि कहीं निकलती ही नहीं. हमेशा समय का रोना रोती रहेंगी. कभी कहो कि अम्मा, मौल घुमा लाओ, तो पिताजी को साथ भेज देंगी. तुम्हारी मम्मी कितनी टिपटौप रहती हैं. अम्मा कभी हमारे साथ चलेंगी भी तो यों ही चल देंगी. दीक्षा, सच तो यह है कि मौसीजी तेरी मम्मी नहीं, वरन दीदी लगती हैं,’’ मैं मन ही मन अम्मा पर खीजी.

रसोई से अम्मा की खटरपटर की आवाज आ रही थी. वे मेरे और दीक्षा के लिए मोटेमोटे से 2 प्यालों में चाय ले आईं. दीक्षा उन से लगभग लिपटते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप भी कमाल हैं, बच्चों का कितना ध्यान रखती हैं. आइए, आप भी कैरम खेलिए.’’

अम्मा छिपी रुस्तम निकलीं. एकसाथ 2-2, 3-3 गोटियां निकाल कर स्ट्राइकर छोड़तीं. अचानक उन को जैसे कुछ याद आया. कैरम बीच में ही छोड़ कर कहते हुए उठ गईं, ‘‘मुझे मसाले कूट कर रखने हैं. तुम लोग खेलो.’’

अम्मा के जाने के बाद दीक्षा आश्चर्य से बोली, ‘‘तुम लोग बाजार से पैकेट वाले मसाले नहीं मंगाते?’’

मेरा सिर फिर शर्म से झुक गया. रसोई से इमामदस्ते की खटखट मेरे हृदय पर हथौड़े चलाने लगी, ‘‘कई बार मिक्सी के लिए बजट बना, पर हर बार पैसे किसी न किसी काम में आते रहे. अंत में हार कर अम्मा ने मिक्सी के विचार को मुक्ति दे दी कि इमामदस्ते और सिलबट्टे से ही काम चल जाएगा. मिक्सी बातबात में खराब होती रहती है और फिर बिजली भी तो झिंकाझिंका कर आती है. ऐसे में मिक्सी रानी तो बस अलमारी में ही सजी रहेंगी.’’

मुझे टैस्ट की तैयारी करनी थी, मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी चैरिटी शो से कब लौटेंगी? तेरे पापा भी तो औफिस से आने वाले हैं.’’

दीक्षा ने लंबी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘मम्मी का क्या पता, कब लौटें? और पापा को तो अपने टूर प्रोग्रामों से ही फुरसत नहीं रहती, महीने में 4-5 दिन ही घर पर रहते हैं.’’

अतृप्ति मेरे मन में कौंधी, ‘एक अपने पिताजी हैं, कभी टूर पर जाते ही नहीं. बस, औफिस से आते ही हम भाईबहनों को पढ़ाने बैठ जाएंगे. टूर प्रोग्राम तो टालते ही रहते हैं. दीक्षा के पापा उस के लिए बाहर से कितना सामान लाते होंगे.’

मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘सच दीक्षा, फिर तो तेरा सारा सामान भारत के कोनेकोने से आता होगा?’’

दीक्षा रोनी सूरत बना कर बोली, ‘‘घर पूरा अजायबघर बन गया है और फिर वहां रहता ही कौन है? बस, पापा का लाया हुआ सामान ही तो रहता है घर में. महल्ले की औरतें व्यंग्य से मम्मी को नगरनाइन कहती हैं, उन्हें समाज कल्याण से फुरसत जो नहीं रहती. होमवर्क तक समझने को तरस जाती हूं मैं. मम्मी आती हैं तो सिर पर कस कर रूमाल बांध कर सो जाती हैं.’’

पहली बार दीक्षा के प्रति मेरे हृदय की ईर्ष्या कुछ कम हुई. उस की जगह दया ने ले ली, ‘बेचारी दीक्षा, तभी तो इसे स्कूल में अकसर सजा मिलती है. इस का मतलब अभी यह जमेगी हमारे घर.’

अम्मा ने रसोई से आ कर प्यार से कहा, ‘‘चलो दीक्षा, सीमा, कल के लिए कुछ पढ़ लो. ये आएंगे तो सब साथसाथ खाना खा लेना. उस के बाद उन से पढ़ लेना. कल तुम लोगों के 2-2 टैस्ट हैं, बेटे.’’

दीक्षा ने अम्मा की ओर देखा और मेरे साथ ही इतिहास के टैस्ट की तैयारी करने लगी. उसे कुछ भी तो याद नहीं था. उस की रोनीसूरत देख कर अम्मा उसे पाठ याद करवाने लगीं. जैसेजैसे वह उसे सरल करकर के याद करवाती जा रही थीं, उस के चेहरे की चमक लौटती जा रही थी. आत्मविश्वास उस के चेहरे पर झलकने लगा था.

पिताजी औफिस से आए तो हम सब के साथ खाना खा कर उन्होंने मुझे तथा दीक्षा को गणित के टैस्ट की तैयारी के लिए बैठा दिया. दीक्षा को पहाडे़ भी ढंग से याद नहीं थे. जोड़जोड़ कर पहाड़े वाले सवाल कर रही थी. तभी दीक्षा की मम्मी कार ले कर उसे लेने आ गईं.

अम्मा सकुचाई सी बोलीं, ‘‘दीक्षा को मैं ने जबरदस्ती खाना खिला दिया है. जो कुछ भी बना है, आप भी खा लीजिए.’’

थोड़ी नानुकुर के बाद दीक्षा की मम्मी ने हमारे उलटेसीधे बरतनों में खाना खा लिया. मैं शर्र्म से पानीपानी हो गई. स्टूल और कुरसी से डाइनिंग टेबल का काम लिया. न सौस, न सलाद. सोचा, अम्मा को भी क्या सूझी? हां, उन्होंने उड़द की दाल के पापड़ घर पर बनाए थे. अचानक ध्यान आया तो मैं ने खाने के साथ उन्हें भून दिया. दीक्षा की मम्मी ने भी दीक्षा की ही तरह हमारे घर का खाना चटखारे लेले कर खाया. फिर मांबेटी चली गईं.

अब अकसर दीक्षा की मम्मी उसे हमारे घर कार से छोड़ जातीं और रात को ले जातीं. समाज कल्याण के कार्यों में वे पहले से भी अधिक उलझती जा रही थीं. शुरूशुरू में दीक्षा को संकोच हुआ, पर धीरेधीरे हम भाईबहनों के बीच उस का संकोच कच्चे रंग सा धुल गया. पिताजी औफिस से आ कर हम सब के साथ उसे भी पढ़ाते और गलती होने पर उस की खूब खबर लेते.

मैं ने दीक्षा से पूछा, ‘‘पिताजी तुझे डांटते हैं तो कितना बुरा लगता होगा? उन्हें तुझे डांटना नहीं चाहिए.’’

दीक्षा मुसकराई, ‘‘धत पगली, मुझे अच्छा लगता है. मेरे लिए उन के पास वक्त है. दवाई भी तो कड़वी होती है, पर वह हमें ठीक भी करती है. मेरे मम्मीपापा के पास तो मुझे डांटने के लिए भी समय नहीं है.’’

मुझे दीक्षा की बुद्धि पर तरस आने लगा, ‘अपने मम्मीपापा की तुलना मेरे मातापिता से कर रही है. मेरे पिताजी क्लर्क और उस के पापा बहुत बड़े अफसर. उस की मम्मी कई समाजसेवी संस्थाओं की सदस्या, मेरी अम्मा घरघुस्सू. उस के  पापा क्लबों, टूरों में समय बिताने वाले, मेरे पिताजी ट्यूशन का पैसा बचाने में माहिर. उस की मम्मी सुंदरता का पर्याय, मेरी अम्मा को आईना देखने तक की भी फुरसत मुश्किल से ही मिल पाती है.’

अचानक दीक्षा 1 और 2 जनवरी को विद्यालय नहीं आई. यदि वह 3 जनवरी को भी नहीं आती तो उस का नाम कट जाता. इसलिए मैं 3 जनवरी को विद्यालय जाने से पूर्व उस के घर जा पहुंची. काफी देर घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला.

मैं आश्चर्यचकित हो दीक्षा को देखे चली जा रही थी. वह एकदम मुरझाए हुए फूल जैसी लग रही थी. मैं ने उसे मीठी डांट पिलाते हुए कहा, ‘‘दीक्षा, तू बीमार है, मुझे मैसेज तो कर देती.’’

वह फीकी सी हंसी के साथ बोली, ‘‘मम्मी पास के गांवों में बच्चों को पोलियो की दवाई पिलवाने चली जाती हैं…’’

‘‘और कुंदन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘4-5 दिनों से गांव गया हुआ है. उस की बेटी बीमार है.’’

पहली बार मेरे मन में दीक्षा की मम्मी के लिए रोष के तीव्र स्वर उभरे, ‘‘और तू जो बीमार है तो तेरे लिए मौसीजी का समाजसेविका वाला रूप क्यों धुंधला जाता है. चैरिटी घर से ही शुरू होती है.’’ यह कह कर मैं ने उस को बिस्तर पर बैठाया.

दीक्षा ने बात पूरी की, ‘‘पर घर की  चैरिटी से मम्मी को प्रशंसा के पदक और प्रमाणपत्र तो नहीं मिलते. गवर्नर उन्हें भरी सभा में ‘कल्याणी’ की उपाधि तो नहीं प्रदान करता.’’

शो केस में सजे मौसी को मिले चमचमाते पदक, जो मुझे सदैव आकर्षित करते

थे, तब बेहद फीके से लगे. अचानक मुझे पिछली गरमी में खुद को हुए मलेरिया के बुखार का ध्यान आ गया. बोली, ‘‘दीक्षा, मुझे कहलवा दिया होता. मैं ही तेरे पास बैठी रहती. मुझे जब मलेरिया हुआ था तो मैं अम्मा को अपने पास से उठने तक नहीं देती थी. बस, मेरी आंख जरा लगती थी, तभी वे झटपट रसोई में कुछ बना आती थीं.’’

दीक्षा के सिरहाने बिस्कुट का पैकेट तथा थर्मस में गरम पानी रखा हुआ था. मैं ने उसे चाय बना कर दी. फिर स्कूल जा कर अपनी और दीक्षा की छुट्टी का प्रार्थनापत्र दे आई. लौटते हुए अम्मा को सब बताती भी आई.

पूरा दिन मैं दीक्षा के पास बैठी रही. थर्मस का पानी खत्म हो चुका था. मैं ने थर्मस गरम पानी से भर दिया. दीक्षा का मन लगाने के लिए उस के साथ वीडियो गेम्स खेलती रही.

शाम को मौसीजी लौटीं. उन की सुंदरता, जो मुझे सदैव आकर्षित करती थी, कहीं गहन वन की कंदरा में छिप गई थी. बालों में चांदी के तार चमक रहे थे. मुंह पर झुर्रियों की सिलवटें पड़ी थीं. उन में सुंदरता मुझे लाख ढूंढ़ने पर भी न मिली.

वे आते ही झल्लाईं, ‘‘यह पार्लर भी न जाने कब खुलेगा. रोज सुबहशाम चक्कर काटती हूं. आजकल मुझे न जाने कहांकहां जाना पड़ता है. कोई पहचान ही नहीं पाता. यदि पार्लर कल भी न खुला तो मैं घर पर ही बैठी रहूंगी. इस हाल में बाहर जाते हुए मुझे शर्म आती है. सभी आंखें फाड़फाड़ कर देखते हैं कि कहीं मैं बीमार तो नहीं.’’

मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, मौसी कल से दीक्षा के पास पार्लर न खुलने की ही मजबूरी में रहेंगी. उन की सुंदरता ब्यूटीपार्लर की देन है. क्रीम की न जाने कितनी परतें चढ़ती होंगी.

मन ही मन मेरा स्वर विद्रोही हो उठा, ‘मौसी, तब भी आप को अपनी बीमार बिटिया का ध्यान नहीं आता. कुंदन, ब्यूटीपार्लर…सभी तो बारीबारी से बीमार दीक्षा की ओर संकेत करते हैं. आप ने तो यह भी ध्यान नहीं किया कि स्कूल में 3 दिनों की अनुपस्थिति में दीक्षा का नाम कटतेकटते रह गया.

‘ओह, मेरी अम्मा कितनी अच्छी हैं. उन के बिना मैं घर की कल्पना ही नहीं कर सकती. वे हमारे घर की धुरी हैं, जो पूरे घर को चलाती हैं. आप से ज्यादा तो कुंदन आप के घर को चलाने वाला सदस्य है.

मेरी अम्मा की जो भी शक्लसूरत है, वह उन की अपनी है, किसी ब्यूटीपार्लर से उधार में मांगी हुई नहीं. यदि आप का ब्यूटीपार्लर 4 दिन भी न खुले तो आप की सुंदरता दम तोड़ देती है. अम्मा ने 2 कमरों के मकान को घर बनाया हुआ है, जबकि आप का लंबाचौड़ा बंगला, बस, शानदार मगर सुनसान स्मारक सा लगता है.

‘मौसी, आप कितनी स्वार्थी हैं कि अपने बच्चों को अपना समय नहीं दे सकतीं, जबकि हमारी अम्मा का हर पल हमारा है.’

मेरा मन भटके पक्षी सा अपने नीड़ में मां के पास जाने को व्याकुल होने लगा.

Mother’s Day Special- मोहपाश : बच्चों से एक मां का मोहभंग

जब से कुमार साहब ने औफिस से 2 महीने की छुट्टी ले कर नैनीताल जाने का मन बनाया था, तब से ही विभा परेशान थी. उस ने पति को टोका भी था, ‘‘अजी, पूरी जवानी तो हम ने घर में ही काट दी, अब भला बुढ़ापे में कहा घूमने जाएंगे.’’

‘‘अरे भई, यह किस डाक्टर ने कहा है कि जवानी में ही घूमना चाहिए, बुढ़ापे में नहीं,’’ कुमार साहब भी तपाक से बोले.

विभा के गिरते स्वास्थ्य को देख कर कुमार साहब बड़े चिंतित थे. उन्होंने कई डाक्टरों को भी दिखाया था. सभी ने एक ही बात कही थी कि दवा के साथसाथ उन्हें अधिक से अधिक आराम की भी जरूरत है.

काफी सोचविचार के बाद कुमार साहब ने 2 महीने नैनीताल में रहने का प्रोग्राम बनाया था कि इस बहाने कुछ समय के लिए ही सही, शहर के प्रदूषित वातावरण से मुक्ति मिलेगी और घर के झमेलों से दूर रह कर विभा को आराम भी मिलेगा.

कुमार साहब का कोई लंबाचौड़ा परिवार न था. 2 बेटे थे, दोनों ही इंजीनियर. बड़ी कंपनियों में कार्यरत थे. विवाह के बाद दोनों ने अपने अलगअलग आशियाने बना लिए थे. शायद यह घर उन्हें छोटा लगने लगा था. वैसे भी एक गली के पुराने घर में रहना उन के स्तर के अनुकूल न था.

जब से बेटे अलग हुए, तब से ही विभा का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता गया. विभा ने बच्चों को ले कर अनेक सुनहरे सपने बुन रखे थे, पर बच्चों के जीवन में शायद मां का कोईर् स्थान ही न था. विभा इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. बच्चों के व्यवहार ने विभा के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया था.

महीने में 1-2 बार बच्चे उन से मिलने आते थे और कुछ देर बैठ कर औपचारिक बातें कर के चले जाते थे. इसी तरह समय बीतता गया. बच्चों से मिलनाजुलना अब पहले से भी कम हो गया. इसी बीच वे 1 पोते व 1 पोती के दादादादी भी बन गए.

दोनों बहुएं पढ़ीलिखी थीं. उन्होंने भी अपने लिए नौकरी ढूंढ़ ली. अब पहली बार उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ कि उन्हें मांबाबूजी से अलग घर नहीं बसाना चाहिए था. मां घर में होतीं तो बच्चों को संभाल लेतीं.

बड़ी बहू नंदिता तो एक दिन बेटे गौतम को ले कर सास के पास पहुंच भी गई. बहू, पोते को देख कर विभा निहाल हो गई.

‘अमित नहीं आया?’ उस ने शिकायती लहजे में बहू से पूछा.

‘क्या करूं मांजी, उन्हें तो दिनभर औफिस के काम से ही फुरसत नहीं है. कितने दिन से कह रही थी कि मांबाबूजी से मिलने की बड़ी इच्छा है, औफिस से जल्दी आ जाना, पर आ ही नहीं पाते. आखिर परेशान हो कर मैं अकेली ही गौतम को ले कर आ गई.’

‘बहुत अच्छा किया बहू,’ गदगद स्वर में विभा बोली और गौतम को खिलाने लगीं.

‘मांजी, आप को यह जान कर खुशी होगी कि मैं ने नौकरी कर ली है.’

‘हां बेटी, बात तो खुशी की ही है. भला हर किसी को नौकरी थोड़े ही मिलती है? जो नौकरी लायक होता है, उसे ही नौकरी मिलती है. मेरी बहू इतनी काबिल है, तभी तो उसे नौकरी मिली,’ विभा ने खुश होते हुए कहा.

‘पर मांजी, एक समस्या है, अब गौतम को तो आप को ही संभालना पड़ेगा. मैं चाहती हूं कि आप और बाबूजी हमारे साथ रहें. इस घर को किराए पर दे देंगे.’

‘नहीं बेटी, यह तो संभव नहीं है. इस घर से मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हैं. इस घर में मैं ब्याह कर आई थी. इसी घर में मेरी गोद भरी थी. इस घर के कोनेकोने में मेरे अमित और विजय की किलकारियां गूंजती हैं. इसी घर में तुम और स्मिता आईं और यह घर खुशियों से भर गया. अकेली होने पर यही यादें मेरा सहारा बनती हैं. इस घर को मैं नहीं छोड़ सकती.’

विभा ने साफ मना किया तो नंदिता बोली, ‘ठीक है मांजी, फिर मैं औफिस जाते समय गौतम को यहां छोड़ जाया करूंगी और लौटते समय ले जाया करूंगी.’

‘यह ठीक रहेगा,’ विभा ने अपनी सहमति देते हुए कहा. हालांकि उन का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, पर वह अपने एकाकी जीवन से बहुत ऊब चुकी थी. अब दिन भर गौतम उस के साथ रहेगा. इस कल्पना मात्र से ही वह खुश थी.

जब कुमार साहब को इस बात पता चला कि दिनभर गौतम की देखभाल विभा करेगी तो उन्हें यह अच्छा न लगा. अतएव झुंझला कर बोले, ‘जिम्मेदारी लेने से पहले अपना स्वास्थ्य तो देखा होता. दिनभर एक बच्चे को संभालना कोई आसान काम है?’

‘अपने बच्चे हैं. अपने बच्चों के हम ही काम नहीं आएंगे तो कौन आएगा?’ विभा ने समझाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘गौतम यहां रहेगा तो क्या मुझे अच्छा नहीं लगेगा? मुझे भी अच्छा लगेगा, पर मुझे दुख तो इस बात का है कि तुम्हारे ये स्वार्थी बच्चे काम पड़ने पर तो अपने बन जाते हैं, पर काम निकलते ही पराए हो जाते हैं,’ कुमार साहब बोले तो विभा ने चुप रहने में ही भलाई समझी.

जैसे ही छोटी बहू स्मिता को पता चला कि गौतम दिनभर मांजी के पास रहा करेगा, वैसे ही उस ने भी अपनी बेटी ऋचा को वहां छोड़ने का निर्णय ले लिया.

2 दिनों बाद से ही गौतम और ऋचा पूरा दिन अपनी दादी के साथ बिताने लगे. विभा का पूरा दिन उन दोनों के छोटेछोटे कामों में कैसे निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था. कुछ महीने हंसीखुशी बीत गए, पर जैसेजैसे वे बड़े हो रहे थे, विभा के लिए समस्याएं बढ़ती जा रही थीं. अब बच्चे आपस में लड़तेझगड़ते तो थे ही, पूरे घर को भी अस्तव्यस्त कर देते थे, जिसे फिर से जमाने में विभा को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी.

विभा अपनी परेशानियों को कुमार साहब से छिपाने का लाख प्रयत्न करती, पर उन से कुछ छिपा न रहता था. एक दिन वे औफिस से लौटे तो देखा कि विभा के पैर में पट्टी बंधी थी.

‘क्या हुआ पैर में?’ कुछ परेशान होते हुए उन्होंने पूछा.

‘कुछ नहीं,’ विभा ने बात टालने का प्रयत्न किया, पर तभी पास खेलती ऋचा तुतलाती आवाज में बोली, ‘‘दादाजी, दौतम ने तांच ता दिलाछ तोल दिया. दादीमां तांच उथा लही थी. तबी इनते पैल में तांच लद दया. दादाजी, आप दौतम को दांतिए. वह भोत छलालती है. दादीमां को भोत तंग कलता है,’’ ऋचा गौतम की शिकायत लगाते हुए लाड़ से दादाजी के गले में झूल गई.

ऋचा की प्यारीप्यारी तुतलाती बातें सुन कर कुमार साहब मुसकरा दिए,  ‘और तू भी अपनी दादीमां को तंग करती है,’ उन्होंने कहा तो वह तुरंत गरदन हिलाते हुए बोली, ‘नहींनहीं, मैं तभी इन्हें पलेछान नहीं तलती. मैं तो हमेछा इनता ताम ही तरती हूं. बले ही पूछ लो दादीमां छे.’

अभी कुमार साहब और विभा ऋचा की प्यारीप्यारी बातों का आनंद उठा ही रहे थे कि तभी गौतम के चिल्लाने की आवाज आई.

‘अरे, क्या हुआ?’ कहती हुई विभा दूसरे कमरे में भागी. गौतम वहां आंखों में आंसू भरे अपने पैर को पकड़ कर बैठा था.

‘क्या हुआ बेटा?’ विभा ने उसे पुचकारते हुए पूछा.

‘दादीमां, मैं तो स्टूल पर चढ़ कर अलमारी की सफाई कर रहा था, पर पता नहीं स्टूल कैसे खिसक गया और मैं गिर पड़ा,’ गौतम ने सफाई देते हुए कहा.

‘पैर पकड़े क्यों बैठा है? क्या पैर में चोट लग गई?’

‘हां दादीमां, पैर मुड़ गया,’ पैर को और जोर से पकड़ते हुए वह बोला.

विभा ने गौतम को खड़ा कर के चलाने का प्रयास किया, पर दर्द काफी था, वह चल नहीं सका.

‘लगता है गौतम के पैर में मोच आ गई है,’ विभा ने कुमार साहब को बताया तो वे उसे ले कर तुरंत डाक्टर के पास पहुंचे.

मन ही मन वे झुंझला रहे थे कि अब बुढ़ापे में यही काम रह गया हमारा. सचमुच गौतम के पैर में मोच आ गई थी. रात को नंदिता गौतम को लेने के लिए पहुंची तो उस के पैर में मोच आई देख कर वह भी परेशान हो उठी.

कुमार साहब और विभा ने जब नंदिता को गौतम से यह पूछते हुए सुना कि तुम्हारी दादीमां क्या कर रही थीं जो तुम्हें चोट लग गई तो वे सन्न रह गए.

‘अभी भी तुम्हारा मोहभंग हुआ या नहीं?’ कुमार साहब ने उदास सी मुसकान बिखेरते हुए पूछा, पर विभा मौन थी मानो उसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया था. पर बहू का वह वाक्य  ‘तुम्हारी दादीमां क्या कर रही थीं जो तुम्हें चोट लग गई,’ उस के कानों में बारबार गूंज रहा था.

ममता की मारी विभा को बच्चों के मोहपाश ने बुरी तरह जकड़ रखा था. वह उस से निकलने का जितना प्रयास करती, उस की जकड़न उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती. स्थिति यहां तक पहुंची कि विभा ने बिस्तर ही पकड़ लिया.

पिछले कई दिनों से विभा को बुखार था. कुमार साहब ने अमित को फोन कर दिया, ‘बेटा अमित, तुम्हारी मां की तबीयत काफी खराब है. आज तुम गौतम को यहां मत भेजना, वह संभाल नहीं सकेगी. विजय को भी कह देना कि वह भी ऋचा को न भेजे.’

‘पर बाबूजी, ऐसे कैसे चलेगा? नंदिता की नईनई नौकरी है, उसे तो छुट्टी नहीं मिल सकती. मैं कोशिश करूंगा, यदि मुझे छुट्टी मिल गई तो आज मैं गौतम को रख लूंगा. विजय को भी मैं बता दूंगा.’

अगले दिन अमित और विजय के ड्राइवर आ कर दोनों बच्चों को विभा के पास छोड़ गए, साथ ही कह गए कि उन्हें छुट्टी नहीं मिली. मजबूर हो कर कुमार साहब ने छुट्टी ली और दोनों बच्चों की देखभाल की. दिनभर उन की शरारतों से वे परेशान हो गए.

शाम के समय जब विभा की तबीयत कुछ संभली, तब कुमार साहब ने उसे फिर समझाया, ‘देख लिया अपने बच्चों को? तुम उन के बच्चे पालने में दिनभर खटती रहती हो और तुम्हारी दोनों में से एक बहू से भी यह न हुआ कि 1 दिन की छुट्टी ले कर तुम्हारी देखभाल कर लेती.’

‘क्या करें, उन की भी कोई मजबूरी होगी,’ कह विभा ने करवट बदल ली.

रात को दोनों बेटे बच्चों को लेने आए. जितनी देर वे वहां बैठे, अपनी सफाईर् पेश करते रहे.

‘मां, नंदिता के औफिस में आज बाहर से कोई पार्टी आई हुई थी, इसलिए उसे छुट्टी नहीं मिली और मुझे भी जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी.’

अमित ने कहा तो विजय भी कैसे चुप रहता. बोला, ‘मां, स्मिता ने भी छुट्टी लेने की बहुत कोशिश की, पर उस के कालेज में आजकल परीक्षाएं चल रही हैं. और मैं तो अभी शाम को ही टूर से लौटा हूं.’

कुमार साहब यह अच्छी तरह समझ गए थे कि यहां रह कर विभा को आराम नहीं मिलेगा. उस के स्वार्थी बेटे और बहुएं उस की ममता का नाजायज फायदा उठाते रहेंगे. इसलिए उन्होंने कुछ समय के लिए घर से बाहर जाने की सोची थी.

विभा सोच रही थी कि यदि वे नैनीताल चले जाएंगे तो गौतम और ऋचा की देखभाल कौन करेगा. उस ने अपने मन की बात कुमार साहब से कही तो वह भड़क उठे,  ‘‘अरे, जिन के अपने शहर में नहीं रहते उन के बच्चे क्या नहीं पलते? तुम्हारे बेटेबहू इतना कमाते हैं, क्या बच्चों के लिए नौकर नहीं रख सकते? क्या इस शहर में शिशुगृहों की कमी है? तुम ने उन के बच्चों की जिम्मेदारी ले रखी है क्या? उन्हें अपनेआप संभालने दो अपने बच्चों को.’’

जब अमित और विजय को मालूम हुआ कि मां और बाबूजी नैनीताल जा रहे हैं तो वे परेशान हो उठे.

‘‘मांजी, 2 महीने बाद मेरे कालेज में छुट्यिं हो जाएंगी. आप तब चली जाना नैनीताल. यदि आप चली गईं तो बच्चों को कौन संभालेगा,’’ स्मिता ने अपनी परेशानी बताते हुए विभा से कहा.

विभा क्या उत्तर देती, वह तो स्वयं परेशान थी. तभी पास बैठे कुमार साहब बोले, ‘‘बेटी, यदि हम नैनीताल नहीं जाएंगे तब भी तुम्हारी सास की तबीयत ऐसी नहीं है कि वह 2-2 बच्चों को संभाल सके. यह भला किस का सहारा बनेगी, इसे तो स्वयं सहारे की जरूरत है.’’

बाबूजी की बात सुन कर सब चुप थे. पहली बार उन्हें एहसास हो रहा था कि  उन्हें मांबाबूजी कि कितनी जरूरत थी. कुमार साहब और विभा नैनीताल के लिए रवाना हो गए. विभा उदास थी. कुमार साहब भी खुश न थे. उन के सामने अपने बच्चों के परेशान चेहरे घूम रहे थे. कुमार साहब को उदास देख कर विभा ने पूछा, ‘‘आप उदास क्यों हैं? आप को खुश होना चाहिए, हम नैनीताल जा रहे हैं.’’

‘‘तुम क्या सोचती हो कि बच्चों को परेशान देख कर मुझे अच्छा लगता है? पर मैं यह नहीं चाहता कि बच्चे हमारे प्यार का गलत फायदा उठाएं. इस के लिए उन्हें सबक देना जरूरी है और इस के लिए कठोर भी होना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिए.’’

कुमार साहब की बात सुन कर विभा संतुष्ट थी. उस के चारों ओर घिरे उदासी के बादल छंटने लगे थे. वह समझ गई थी कि इस मोहपाश में जकड़ कर वह मां का कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएगी. आज पहली बार उसे अनुभव हुआ कि जिस मोहपाश में वह अब तक घिरी थी, उस की जकड़न स्वत: ही ढीली हो रही है.

Mother’s Day Special: ममता की मूरत

रात का लगभग 8 बजे का समय था. मैं औफिस से आ कर खाना बना रही थी और राकेश अपने लैपटौप पर अभी भी औफिस के ही काम में उलझे हुए थे. तभी फोन की घंटी बजी. किस का फोन है, यह उत्सुकता मुझे किचन से खींच लाई. मैं ने देखा राकेश फोन पर बात करते हुए बहुत परेशान हो उठे हैं.

‘प्लीज, आप उन्हें अस्पताल पहुंचा दीजिए. मैं फौरन निकल रहा हूं, फिर भी मुझे पहुंचने में 2-3  घंटे तो लग ही जाएंगे,’ इतना कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती उन्होंने हड़बड़ी में मुझे पूरी बात बताते हुए अपने कुछ कपड़े और जरूरी सामान बैग में रखना शुरू कर दिया.

राकेश की चाचीजी, जो मथुरा में रहती हैं अचानक बहुत बीमार हो गई थीं. उन की हालत को देखते हुए किसी पड़ोसी ने हमें फोन किया था. चाचीजी का हमारे सिवा इस दुनिया में और है ही कौन? उन की अपनी औलाद तो है नहीं और चाचाजी का कुछ वर्ष हुए देहांत हो चुका है.

हमारी शादी में चाचीजी ने ही मेरी सास की सारी रस्में की थीं. राकेश के मातापिता तो बहुत पहले एक कार ऐक्सीडैंट में मारे गए थे. तब राकेश की दीदी गरिमा तो अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश कर रही थीं, लेकिन राकेश स्कूल में पढ़ रहे थे. अपनी दीदी से 8 साल छोटे जो हैं. तब चाचाचाची ने ही दीदी की शादी की थी और राकेश को स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए होस्टल भेज दिया था. चाचाचाची ने दीदी को और मुझे अपनी औलाद की तरह प्यार दिया है, यह बात इन 2 वर्षों में राकेश मुझे कई बार बता चुके हैं.

पहले पूरा परिवार साथ ही रहता था लेकिन राकेश जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी इन के चाचाजी का तबादला मथुरा हो गया था. इस के बाद तो उन के तबादला कई और शहरों में भी होता रहा लेकिन मथुरा में उन्होंने अपना घर बना लिया था, इसलिए उन के देहांत के बाद चाचीजी मथुरा आ गई थीं. और वे जाती भी कहां?

मेरा चाचीजी से ज्यादा परिचय नहीं था. हमारी शादी के वक्त वे सिर्फ 5-6 दिन हमारे साथ रही थीं. दरअसल, हम दोनों बैंकाक घूमने जाना चाहते, इसलिए वे मथुरा लौट गई थीं. मैं क्याक्या सोचने लग गई थी. राकेश की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. वे कह रहे थे कि देखो जल्दी में मैं कहीं कुछ रखना तो नहीं भूल गया.

बैग पैक हो गया तो राकेश अकेले चाचीजी को कैसे संभालेंगे यह सोच कर मैं ने भी साथ चलने की बात की तो वे बोले कि पहले जा कर स्थिति देख लूं, जरूरत हुई तो तुम्हें भी बुला लूंगा. फिर वे मथुरा के लिए रवाना हो गए.

शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैं रात के समय घर में अकेली थी. अजीब सा डर व बेचैनी मुझे सोने नहीं दे रही थी. रात 2 बजे के लगभग राकेश से मेरी बात हुई. पता लगा चाचीजी बेहोश हैं. कई तरह के टैस्ट हो रहे हैं, अभी कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता. राकेश काफी परेशान लग रहे थे.

अगली सुबह 11 बजे राकेश का फोन आया कि वे चाचीजी के इलाज तथा डाक्टरों के रवैये से संतुष्ट नहीं हैं. वे उन्हें ले कर दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली के एक अस्पताल से बातचीत चल रही है.

शाम होतेहोते वे चाचीजी को ले कर दिल्ली पहुंच गए. नीम बेहोशी की हालत में चाचीजी बहुत ही कमजोर लग रही थीं. रंग भी पीला पड़ा हुआ था. उन के अस्पताल पहुंचने से पहले ही मैं वहां पहुंच गई. डाक्टरों ने तत्परता से इलाज शुरू कर दिया.

5 दिनों बाद चाचीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन डाक्टरों ने दवा के साथसाथ परहेज और आराम करने की सख्त हिदायत दी थी. हम उन्हें घर ले आए. बीमारी कोई विशेष नहीं थी. बढ़ती उम्र, अकेलापन, चिंता, काम की थकान, उस पर ठीक से समय पर न खाना बीमारी के कारण थे.

हम दोनों के लिए अब और छुट्टियां लेना मुश्किल था. उन के लिए किसी नौकर या नर्स का प्रबंध नहीं हो पा रहा था, इसलिए हम ने घर पर काम करने वाली बाई को ही दिन भर में 2-3 चक्कर लगा कर उन्हें दूध, चाय, नाश्ता आदि देते रहने के लिए कहा और औफिस जाना शुरू कर दिया था. हां, दिन में कई बार हम फोन पर चाचीजी से बात कर लेते थे. उन का हालचाल जान लेते थे. कोई परेशानी तो नहीं? पूछते रहते थे.

राकेश की तो पता नहीं हां, मेरी परेशानियां कुछ बढ़ गई थीं. आज तक जो घर सिर्फ हमारा था वह एकाएक मुझे मेरी ससुराल लगने लगा था. अब उठनेबैठने, पहननेओढ़ने में मैं कुछ बंदिशें महसूस करने लगी थी. हालांकि चाचीजी ने इस बारे कभी कुछ कहा नहीं था, लेकिन उन का घर पर होना ही मेरे लिए काफी था.

लेकिन मैं पूरे उत्साह से यह सब कर रही थी, क्योंकि चाचीजी आशा से कहीं जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं. 1 सप्ताह बाद ही उन्हें कामवाली की जरूरत नहीं रही. वे अपने छोटेछोटे काम स्वयं ही उठ कर करने लगी थीं. मैं खुश थी कि वे जल्दी ही ठीक हो कर मथुरा लौट जाएंगी. कुछ ही दिनों की तो बात है.

एक दिन राकेश बोले कि अब हम चाचीजी को वापस नहीं जाने देंगे. वे अब हमारे साथ ही रहेंगी. अब इस उम्र में उन का अकेले रहना मुश्किल है. फिर बीमार हो गईं तो? फिर हमारा भी तो उन के प्रति कोई कर्तव्य है. उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है. राकेश ने कुछ गलत तो नहीं कहा था लेकिन मेरा मन बेचैन हो उठा.

मुझे याद है जब मेरे लिए राकेश का रिश्ता आया तो मम्मीपापा ने मेरी राय पूछी थी. राकेश दिखने में कैसे हैं? पढ़ेलिखे कितना हैं? कमाते कितना हैं? यह सब जानने की मुझे जरूरत ही महसूस नहीं हुई थी क्योंकि लगा था कि मम्मीपापा और मामाजी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा. मेरे लायक ही होगा. मैं तो लड़के के परिवार के बारे में जानना चाहती थी. पूछा तो पता लगा कि घर में सासससुर नहीं हैं. बस एक बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है. मेरे लिए इतना ही जानना काफी था क्योंकि मेरे दिमाग में सास की छवि ऐसी थी जिस से बहू हमेशा डरीसहमी रहती है. मेरी सहेली जया, जिस की शादी कुछ ही महीने पहले हुई थी, उस से जब भी बात होती थी वह अपने पति के बारे में कम सास के बारे में बात ज्यादा करती थी. हमेशा परेशान रहती थी.

उस पर मेरी दीदी जबतब मायके आतीं तो कई दिनों तक लौटने का नाम नहीं लेती थीं. हमेशा मां ही उन्हें समझाबुझा कर वापस भेजती थीं. उन्हें भी पति या देवर से नहीं सास से ही ढेरों शिकायतें होती थीं.

लेकिन हमारे यहां तो राकेश की चाचीजी रहने वाली थीं. अपनी सास की तो चलो कोई 2 बात सुन भी ले, चचियासास की बातें, ताने, उलाहने भला कोई क्यों सुने? हालांकि ऐसा सोचना बड़ा ही गलत था, स्वार्थी सोच था, लेकिन मुझे बहुत परेशान करने लगा था.

एक शाम औफिस से घर पहुंची तो देखा चाचीजी ने मशीन लगा कर घर भर के मैले कपड़े इकट्ठा कर धो डाले थे. मैं तो इतवार को ही मशीन लगा कर सप्ताह भर के कपड़े धोती हूं. पिछले दिनों चाचीजी की बीमारी के चक्कर में यह काम रह ही गया था. इतने कपड़े एकसाथ धुले देख कर मैं हैरान रह गई, ‘‘यह क्या चाचीजी, आप ने यह सब क्यों किया? आप को तो अभी आराम करना चाहिए.’’

‘‘दिन भर आराम ही तो करती हूं सीमा, फिर आजकल मशीन में कपड़े धोना भी कोई काम है?’’ कहते हुए चाचीजी हंस दीं.

अब रात के खाने के वक्त गपशप का दौर चलने लगा था. चाचीजी राकेश के बचपन की आदतों, शरारतों के बारे में बतातीं. मुझे मेरी ससुराल के बारे में बहुत सी ऐसी बातें भी बतातीं, जिन्हें बताने वाला कोई नहीं था. राकेश की चिढ़, पसंदनापसंद के बारे में भी मुझे पता लग रहा था. अब मुझे उन्हें चिढ़ाने, छेड़ने में बड़ा मजा आ रहा था. ऐसे में चाचीजी भी हंसते हुए मेरा पूरा साथ देती थीं.

हम शाम को औफिस से लौटते तो चाचीजी बढि़या सा स्वादिष्ठ नाश्ता बना कर हमारा इंतजार कर रही होतीं. अब सुबहशाम मुझे सब्जी कटी हुई मिलती, सलाद तैयार और तरहतरह की चटनियां पिसी मिलतीं. वे अकसर आटा भी गूंध दिया करती थीं. यह सब देख कर यही लगता कि वे दिन भर पल भर को भी बैठती नहीं हैं.

अब घर में कोई हर चीज अपने ठिकाने पर करीने से रखी मिलती, जिन्हें पहले हम अकसर समय की कमी के कारण यहांवहां इस्तेमाल के बाद छोड़ दिया करते थे.

एक छुट्टी के दिन हम चाचीजी को मौल घुमाने ले जा रहे थे. उन्होंने रास्ते में एक जगह गाड़ी रोकने के लिए कहा तो हम हैरान रह गए. फिर भी राकेश ने तुरंत गाड़ी रोकी तो चाचीजी फौरन उतर कर पास के एटीएम की ओर बढ़ गईं. 2 ही मिनटों बाद वे नोट हाथ में ले कर लौटीं.

हमें हैरान देख कर वे बोलीं, ‘‘हैरान मत हो. अपनी हालत को देखते हुए यह कार्ड मैं ने अस्पताल के सामान के साथ रख लिया था. वहां अस्पताल में पैसों की जरूरत तो पड़नी ही थी न? पर मुझे क्या पता था मेरी हालत इतनी बिगड़ जाएगी कि पड़ोसी को फोन कर के तुम्हें बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘वह तो ठीक है  चाचीजी, लेकिन अब तो हम हैं. आप को पैसे निकलवाने की क्या जरूरत थी? वैसे क्षमा करना, आप को आए इतने दिन हो गए, खयाल ही नहीं आया मुझे. आप से पूछना चाहिए था आप की जरूरत के बारे में,’’ राकेश ने झेंपते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं बेटा मुझे भला पैसों का क्या करना है? लेकिन पहली बार अपने बेटेबहू के साथ बाजार जा रही हूं तो पैसे पास में होने ही चाहिए. चलोचलो देर हो रही है,’’ चाचीजी ने पूरे उत्साह से कहा.

मौल में पहुंचते ही चाचीजी रेडीमेड कपड़ों के शोरूम में चली गईं. हमें लगा वे बीमारी की हालत में इतनी जल्दी में अस्पताल आईं कि साथ में बहुत सी चीजें नहीं ला पाईं. उन्हें कपड़ों के लिए परेशानी होती होगी, इसलिए वहां गई हैं. लेकिन रेडीमेड शर्ट और जींस के काउंटर पर जा कर वे राकेश से कपड़े खरीदने के लिए कहने लगीं. राकेश ने बहुत मना किया लेकिन वे कब मानने वाली थीं.

राकेश जींस ट्राई कर रहे थे तब मुझ से बोलीं, ‘‘आजकल की सब लड़कियां जींस पहनती हैं. दफ्तर जाने वाली तो कहती हैं कि इस में उन्हें सुविधा रहती है. बहू, तुम नहीं पहनतीं?’’

उन की बात सुन कर मैं हैरान रह गई. पुरानी पीढ़ी की हो कर भी वे ऐसी बात कह रही हैं?

‘‘नहींनहीं चाचीजी मैं भी…’’ कहते हुए मैं रुक गई. लगा कहीं यों ही बातोंबातों में मुझ से कुछ उगलवाना तो नहीं चाह रहीं.

‘‘पहनती हो लेकिन मेरे कारण रोज साड़ी और सूट की बंदिशों में कैद हो गई हो. लेकिन मैं ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं,’’ चाचीजी बड़ी मासूमियत से बोलीं.

‘‘बहू, तुम भी अपने लिए एक जींस और एक बढि़या सी टौप खरीद लो. मैं भी तो देखूं मेरी बहू इन कपड़ों में कैसी लगती है,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे लिए कपड़े पसंद करने शुरू कर दिए. मैं हैरान सी खड़ी उन्हें देखती रह गई. अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था, लेकिन यह सब सच था सपना नहीं.

कपड़े खरीदते ही चाचीजी बोलीं, ‘‘भई, बहुत भूख लग रही है. वैसे भी मेरे ठीक होने की खुशी में एक बढि़या सी दावत होनी ही चाहिए.’’

रेस्टोरैंट में हमारे मना करने पर भी चाचीजी ने बहुत कुछ मंगवा लिया, उस पर आइसक्रीम भी. बाद में राकेश जब वहां पैसे देने लगे तो उन्होंने तुरंत नोट उन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘ये लो तुम ही दे दो. क्या फर्क पड़ता है.’’ इस पर हम तो हंस ही रहे थे, बिल लाने वाला वेटर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया.

घर आ कर राकेश ने कहा कि आप को इतने पैसे खर्च नहीं करने चाहिए थे तो वे बोलीं, ‘‘तुम्हारे चाचाजी के बाद अब मुझे पैंशन मिलती है. मैं अकेली जान अब इस उम्र में अपने पर कितना खर्च करूंगी?’’

वे जब से ठीक हुई हैं अकसर शाम को सैर करने चली जाती हैं. फल, सब्जियां, दूध और मिठाई न जाने क्याक्या ले कर ही लौटती हैं. खाली हाथ कभी नहीं आतीं.

सुबह हम औफिस के लिए तैयार हो रहे थे तो वे पास आ कर बोलीं, ‘‘बेटा राकेश, अब मैं बिलकुल ठीक हूं. अब मेरा वापसी का टिकट करवा दो.’’

सुनते ही हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘क्या हुआ चाचीजी, आप को यहां कोई परेशानी है क्या?’’ हम दोनों एकसाथ बोल उठे.

‘‘नहींनहीं बेटा, अपने घर में कैसी परेशानी. फिर भी लौटना तो होगा ही न.

2 महीने हो गए हैं, मैं कब तक तुम लोगों…’’

सुनते ही मैं परेशान हो उठी, ‘‘चाचीजी, आप से इतना तो मना करते हैं फिर भी आप अपनी मरजी से दिन भर काम में लगी रहती हैं.’’

‘‘नहींनहीं सीमा, मैं काम की बात नहीं कर रही. यह भी कोई काम है. बटन दबाया कपड़े धुल गए. बटन दबाया चटनी, मसाला पिस गया. घर की सफाई और बरतन का काम तो कामवाली कर जाती है. दिन भर में काम ही कितना होता है? लेकिन बेटा 2 महीने हो गए हैं, कब तक तुम लोगों पर बोझ बनी रहूंगी?’’

बोझ शब्द सुनते ही मेरी आंखें भर आईं. मैं उन से लिपट गई. ऐसी ममता की मूरत भला बोझ कैसे हो सकती है? कितनी गलत सोच थी मेरी सास के बारे में. मुझे चाचीजी से कोई शिकायत नहीं. कितनी परेशान हो गई थी मैं जब राकेश ने उन के यहीं रहने की बात की थी. लेकिन अब मैं उन के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर सकती थी. उन के प्यार, आशीर्वाद और उन की उपस्थिति के बिना हमारा जीवन, हमारा घरपरिवार कितना अधूरा रह जाएगा. कौन हर शाम घर पर हमारा इंतजार करेगा? कौन भूख न होने पर भी मनुहार कर के हमें खाना खिलाएगा? कौन बिना किसी स्वार्थ के हम पर इतना निश्छल स्नेह लुटाएगा?

हम दोनों ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया कि वे अब कहीं नहीं जाएंगी. अब इस उम्र में हमारे होते हुए वे अकेली नहीं रहेंगी. अब यह उन की मरजी है कि वे अपने मथुरा वाले घर पर ताला लगाना चाहती हैं या उसे किराए पर उठाना चाहती हैं. हमारी जिद और हमारे प्यार के आगे उन की एक नहीं चली.

चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘तुम इतना कहते हो तो तुम्हारे पास ही रह जाऊंगी, लेकिन मेरी एक शर्त है.’’

मैं समझ गई कि चाचीजी क्या कहना चाहती हैं. मैं झट से बोली, ‘‘आप एक बार मथुरा जा कर अपने कुछ कपड़े, कुछ जरूरी सामान लाना चाहती हैं न? इस में शर्त की क्या बात है, अगले ही वीक ऐंड पर हम दोनों आप को मथुरा ले चलेंगे.’’

‘‘वह तो मैं जाऊंगी ही पर मेरी शर्त तो कुछ और ही है.’’

चाचीजी के इतना कहते ही मैं कुछ परेशान हो गई. सोचा, पता नहीं वे क्या शर्त रखेंगी.

तभी राकेश बोल उठे, ‘‘चाचीजी, शर्त क्यों आप तो आदेश दीजिए क्या चाहिए?’’

हमारे परेशान चेहरे को देख कर चाचीजी की हंसी निकल गई. वे हंसते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, शर्त नहीं मेरा आदेश ही है कि यदि मुझे यहां रोकना है तो मुझे जल्दी से एक पोता देना होगा. 2 साल हो गए हैं शादी को, कब तक यों ही डोलते रहोगे?’’

सुनते ही हम दोनों शरमा गए. जिस प्यार और अधिकार से चाचीजी ने कहा है तो हमारे सोचने के लिए कुछ बचा ही कहां है. चाचीजी ने हमारे जीवन को नए माने दे दिए हैं. पता नहीं ममता की यह मूरत वर्षों बिना औलाद के कैसे रही होगी? चलो बीमारी के बहाने ही सही, वे हमारे पास अपनी ममता लुटाने तो आ गई हैं.

Mother’s Day Special: आनंदी – ममता के डौलर

पलंग पर चारों ओर डौलर बिखरे हुए थे. कमरे के सारे दरवाजे व खिड़कियां बंद थीं, केवल रोशनदान से छन कर आती धूप के टुकड़े यहांवहां छितराए हुए थे. डौलर के लंबेचौड़े घेरे के बीच आनंदी बैठी थीं. उन के हाथ में एक पत्र था. न जाने कितनी बार वे यह पत्र पढ़ चुकी थीं. हर बार उन्हें लगता कि जैसे पढ़ने में कोईर् चूक हो गई है, ऐसा कैसे हो सकता है. उन का बेटा ऐसे कैसे लिख सकता है. जरूर कोई मजबूरी रही होगी उस के सामने वरना उन्हें जीजान से चाहने वाला उन का बेटा ऐसी बातें उन्हें कभी लिख ही नहीं सकता. हो सकता है उस की पत्नी ने उसे इस के लिए मजबूर किया हो.

पर जो भी वजह रही हो, सुधाकर ने जिस तरह से सब बातें लिखी थीं, उस से तो लग रहा था कि बहुत सोचसमझ कर उस ने हर बात रखी है.

कितनी बार वे रो चुकी थीं. आंसू पत्र में भी घुलमिल गए थे. दुख की अगर कोई सीमा होती है तो वे उसे भी पार कर चुकी थीं.

ताउम्र संघर्षों का सामना चुनौती की तरह करने वाली आनंदी इस समय खुद को अकेला महसूस कर रही थीं. बड़ीबड़ी मुश्किलें भी उन्हें तोड़ नहीं सकी थीं, क्योंकि तब उन के पास विश्वास का संबल था पर आज मात्र शब्दों की गहरी स्याही ने उन के विश्वास को चकनाचूर कर दिया था. बहुत हारा हुआ महसूस कर रही थीं. यह उन को मिली दूसरी गहरी चोट थी और वह भी बिना किसी कुसूर के.

हां, उन का एक बहुत बड़ा कुसूर था कि उन्होंने एक खुशहाल परिवार का सपना देखा था. उन्होंने ख्वाबों के घोंसलों में नन्हेंनन्हें सपने रखे थे और मासूम सी अपनी खुशियों का झूला अपने आंगन में डाला था. उमंगों के बीज परिवारनुमा क्यारी में डाले थे और सरसों के फूलों की पीली चूनर के साथ ही प्यार की इंद्रधनुषी कोमल पत्तियां सजा दी थीं. पर धीरेधीरे उन के सपने, उन की खुशियां, उन की पत्तियां सब बिखरती चली गईं. खुशहाल परिवार की तसवीर सिर्फ उन के मन की दीवार पर ही टंग कर रह गई. अपनी मासूम सी खुशियों का झूला जो बहुत शौक से उन्होंने अपने आंगन में डाला था, उस पर कभी बैठ झूल ही नहीं पाईं वे. हिंडोला हिलता रहता और वे मनमसोस कर रह जातीं.

शादी एक समझौता है, यह बात उन की मां ने उन की शादी होने से बहुत पहले ही समझानी शुरू कर दी थी. पर वे हमेशा सोचती थीं कि समझौता करने का तो मतलब होता है कि चाहे पसंद हो या न हो, चाहे मन माने या न माने, जिंदगी को दूसरे के हिसाब से चलने दो. फिर प्यार, एहसास, एकदूसरे के लिए सम्मान और समपर्ण की भावना कैसे पनपेगी उस बंधन में.

आनंदी को यह सोच कर भी हैरानी होती कि जब शादी एक बंधन है तो उस में कोईर् खुल कर कैसे जी सकता है. एकदूसरे को अगर खुल कर जीने ही नहीं दिया जाएगा या एक साथी, जो हमेशा पति ही होता है, दूसरे पर अपने विचार, अपनी पसंदनापसंद थोपेगा तो वह खुश कैसे रह पाएगा.

मां डांटतीं कि बेकार की बातें मत सोचा कर. इतना मंथन करने से चीजें बिगड़ जाती हैं. मां को उन्होंने हमेशा खुश ही देखा. कभी लगा ही नहीं कि वे किसी तरह का समझौता कर रही हैं. पापामम्मी का रिश्ता उन्हें बहुत सहज लगता था. फिर बड़ी दीदी और उस के बाद मंझली दीदी की शादी हुई तो उन को देख कर कभी नहीं लगा कि वे दुखी हैं. आनंदी को तब यकीन हो गया था कि उन्हें भी ऐसा ही सहज जीवन जीने का मौका मिलेगा. सारे मंथन को विराम दे, वे रंजन के साथ विवाह कर उन के घर में आ गईर् थीं.

शुरुआती दिन घोंसले का निर्माण करने के लिए तिनके एकत्र करने में फुर्र से उड़ गए, खट्टेमीठे दिन, थोड़ीबहुत चुहलबाजी, दैहिक आकर्षण और उड़ती हुई रंगबिरंगी तितलियों से बुने सपनों के साथ. समय बीता तो आनंदी को एहसास होने लगा कि रंजन और वे बिलकुल अलग हैं. रंजन रिश्ते को सचमुच बंधन बनाने में यकीन रखते हैं. खुल कर सांस लेना मुश्किल हो गया उन के लिए.

दरवाजे पर खटखट हुई तो आनंदी सोच और डौलरों के घेरे से हिलीं. अंधेरा था कमरे में. दोपहर कब की शाम की बांहों में समा गई थी. लाइट जलानी ही पड़ी उन्हें.

‘‘मांजी दूध लाया हूं. आप डेयरी पर नहीं आईं तो मैं ही देने चला आया. एकदम ताजा निकाल कर लाया हूं.’’

चुपचाप दूध ले लिया उन्होंने. वरना अन्य दिनों की तरह कहतीं, ‘बहुत पानी मिलाने लगे हो आजकल.’ जब मेरा बेटा आएगा न, तब एकदम खालिस दूध लाना या तब ज्यादा दूध देना पड़ेगा तुझे. मेरे बेटे को दूध अच्छा लगता है. बड़े शौक से पीता है.

कमरे में आईं तो रोशनी आंखों को चुभने लगी. निराशा की परतें उन के चेहरे पर फैली हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि मात्र कुछ घंटों में ही वे 2 साल बूढ़ी हो गई हैं. उदास नजरों से उन्होंने एक बार फिर डौलरों को देखा. पलकें नम हो गईं. नहीं देखना चाहतीं वे इन डौलरों को. क्या करेंगी वे इन का. जीरो वाट का बल्ब जलाया उन्होंने. लेकिन धुंधले में भी डौलर चमक रहे थे. उन के भीतर जो पीड़ा की लपटें सुलग रही थीं, उन की रोशनी से खुद को बचाना उन के लिए ज्यादा मुश्किल था.

रंजन के साथ लड़ाई होना आम बात हो गई थी. वे कुछ फैसला लेतीं, उस से पहले ही उन्हें पता चला कि उन के अंदर एक अंकुर फूट गया है. सचमुच समझौता करने लगीं वे उस के बाद. उम्मीद भी थी कि रंजन घर में बच्चा आने के बाद सुधर जाएंगे. ऐयाशियां, दूसरी औरतों से संबंध रखना और शराब पीना शायद छोड़ दें, पर वे गलत थीं.

बच्चा आने के बाद रंजन और उग्र हो गए और बोलने लगे, बहुत कहती थी न कि चली जाएगी. अकेले बच्चे को पालना आसान नहीं. हां, वे जानती थीं इस बात को, इसलिए सहती रहीं रंजन की ज्यादतियों को.

तब मां ने समझाया, तू नौकरी करती है न, चाहे तो अलग हो जा रंजन से. हम सब तेरे साथ हैं. वह नहीं मानी. जिद थी कि समझौता करती रहेंगी. सुधाकर पर रंजन का बुरा असर न पड़े, यह सोच कर दिल पर पत्थर रख कर उसे होस्टल में डाल दिया.

उन की सारी आस, उम्मीद अब सुधाकर पर ही आ कर टिक गई थी. बस, वे चाहती थीं कि सुधाकर खूब पढे़ और रंजन के साए से दूर रहे. वैसे भी रंजन के सुधाकर को ले कर न कोई सपने थे न ही वे उस के कैरियर को ले कर परेशान थे. संभाल लेगा मेरा बिजनैस, बस वे यही कहते रहते. आनंदी नहीं चाहती थीं कि सुधाकर उन का बिजनैस संभाले जो लगभग बुरी हालत में था. उन का औफिस दोस्तों का अड्डा बन चुका था.

वे कभी समझ ही नहीं पाईं रंजन को. कोई अपने परिवार से ज्यादा दोस्तों को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई अपनी पत्नी व बेटे से बढ़ कर शराब को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई परिवार संभालने की कोशिश कैसे नहीं कर सकता. पर रंजन ऐसे ही थे. जिम्मेदारी से दूर भागते थे. कमिटमैंट तो जैसे उन के लिए शब्द बना ही नहीं था.

यह तो शुक्र था कि सुधाकर मेहनती निकला. लगातार आगे बढ़ता गया. रंजन उन दोनों को छोड़ कर किसी और औरत के पास रहने लगे. सुधाकर अकसर दुखी रहने लगा. बिखरे हुए परिवार में सपने दम न तोड़ दें, यह सोच कर आनंदी ने अपनी जमापूंजी की परवा न कर उसे विदेश भेज दिया. वे चाहती थीं कि बेटा विदेश जाए, खूब पैसा और नाम कमाए ताकि उन के जीवन की काली परछाइयों से दूर हो जाए. उसे उन के जीवन की कड़वाहट को न झेलना पड़े. पतिपत्नी के रिश्तों में आई दीवारों व अलगाव के दंश उसे न चुभें.

मां से अलग होना सुधाकर के लिए आसान न था. उस ने देखा था अपनी मां को अपने लिए तिलतिल मरते हुए, उस की खुशियों की खातिर त्याग करते हुए. वह नहीं जाना चाहता था विदेश, पर आनंदी पर जैसे जिद सवार हो गई थी. सब ने समझाया था कि ऐसा मत कर. बेटा विदेश गया तो पराया हो जाएगा. तू अकेली रह जाएगी. पर वे नहीं मानीं.

वे सुधाकर को कामयाब देखना चाहती थीं. वे उसे रंजन की परछाईं से दूर रखना चाहती थीं, मां की ममता तब शायद अंधी हो गईर् थी, इसीलिए देख ही नहीं पाईं कि बेटे को यह बात कचोट गई है.

पिता का प्यार जिसे न मिला हो और जो मां के आंचल में ही सुख तलाशता हो, जिस के मन के तार मां के मन के तारों से ही जुड़े हों, उस बेटे को अपने से दूर करने पर आनंदी खुद कितनी तड़पी थीं, यह वही जानती हैं. पर सुधाकर भी आहत हुआ था.

कितना कहा था उस ने, ‘मां, तुम मेरे बिना कैसे रहोगी. मैं यहीं पढ़ सकता हूं.’ पर वे नहीं मानीं और भेज दिया उसे आस्ट्रेलिया. फिर उसे वहीं जौब भी मिल गई. वह बारबार उन्हें बुलाता रहा कि मां अब तो आ जाओ. और वे कहती रहीं कि बस 2 साल और हैं नौकरी के, रिटायर होते ही आ जाऊंगी. वे जाने से पहले सारे लोन चुकाना चाहती थीं. बेटे पर कोई बोझ डालना तो जैसे आंनदी ने सीखा ही नहीं था. फिर विश्वास भी था कि बेटा तो उन्हीं का है. एक बार सैटल हो जाए तो कह देंगी कि आ कर सब संभाल ले. बुला लेंगी उसे वापस. कामयाबी की सीढि़यां तो चढ़ने ही लगा है वह.

नहीं आ पाया सुधाकर. जौब में उलझा तो खुद की जड़ें पराए देश में जमाने की जद्दोजेहद में लग गया. फिर उस की मुलाकात रोजलीना से हुई और उस से ही शादी भी कर ली. मां को सूचना भेज दी थी. पर इस बार आने का इसरार नहीं किया था. रोजलीना का साथ पा कर उस के बीते दिनों के जख्म भर गए थे. अपने परिवार को सींचने में वह मां के त्याग को याद रखना चाह कर भी नहीं रख पाया.

रोजलीना ने साफ कह दिया था कि वह किसी तरह की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं कर सकती. वैसे भी वह मानती थी कि इंडियन मदर अपने बेटों को ले कर बहुत पजैसिव होती हैं, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि आनंदी वहां उन के साथ आ कर रहें.

सुधाकर मां से यह सब नहीं कह सकता था. मां की तकलीफें अभी भी उसे कभीकभी टीस दे जाती थीं. पर अब उस की एक नई दुनिया बस गई थी और वह नहीं चाहता था कि मांपापा की तरह उस के वैवाहिक जीवन में भी कटुता की काली छाया पसरे.

रोजलीना को वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था. एक सुखद वैवाहिक जीवन की राह न जाने कब से उस के भीतर पलती आईर् थी. बहुत कठिन था उस के लिए मां और पत्नी में से एक को चुनना, पर मां के पास वह वापस लौट नहीं पा रहा था और पत्नी को छोड़ना नहीं चाहता था.

वैसे भी मां का उसे अपने से दूर करने की टीस भी उसे अकसर गहरी पीड़ा से भर जाती थी. पिता के प्यार से वंचित सुधाकर मां से दूर नहीं रहना चाहता था. भले ही मां ने उसे भविष्य संवारने के लिए अपने से उसे दूर किया था, पर फिर भी किया तो, अकसर वह यही सोचता. ऐसे में रोजलीना का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक ही था.

आनंदी को लगा जैसे उन का गला सूख रहा है, पर पानी के लिए वे उठीं नहीं. रात गहरा गईर् थी. वे समझ चुकी थीं कि सुधाकर को विदेश भेजने की उन की जिद ने उन के जीवन में भी इस रात की तरह अंधेरा भर दिया है. बेटे की खुशियां चाहना क्या सच में इतना बड़ा कुसूर हो सकता है या नियति की चाल ही ऐसी होती है. शायद अकेलापन ही उन के हिस्से में आना था. वे जान चुकी थीं कि वह जा चुका है कभी न लौटने के लिए. उन्होंने एक बार और पत्र पढ़ा.

लिखा था, ‘‘मां, आई एम सौरी. मैं आप से दूर नहीं जाना चाहता था पर मुझे जाना पड़ा और अब चाह कर भी मैं स्वदेश वापस लौटने में असमर्थ हूं. आप के त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता और इस बात की ग्लानि भी रहेगी कि मैं आप के प्रति कोई फर्ज न निभा सका. शायद पापा से विरासत में मुझे यह अवगुण मिला होगा. जिम्मेदारी नहीं निभा पाया, तभी तो डौलर भेज रहा हूं और आगे भी भेजता रहूंगा. पर मेरे लौटने की उम्मीद मत रखना. अब मैं इस दुनिया में बस गया हूं, यहां से बाहर आ कर फिर भारत में बसना मुमकिन नहीं है. आप भी ऐसा ही चाहती थीं न.’’

आनंदी ने डौलरों पर हाथ फेरा. पूरी ममता जिस बेटे पर लुटा दी थी, उस ने कागज के डौलर भेज उस ममता के कर्ज से मुक्ति पा ली थी.

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