अनोखा संबंध: क्या विधवा औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती?

Romantic Story in Hindi : ‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘उस की ढेर सारी दौलत देख कर.’’

आगे की बात निर्मला न सुन सकी. जिस दुकान पर जाने के लिए वह सीढि़यां चढ़ रही थी, तभी ये दोनों औरतें सीढि़यां उतर रही थीं. उसे देख कर यह बात कही, तब वह रुक गई. उन दोनों औरतों की बातें सुनने के बाद दुकान के भीतर न जाते हुए वह उलटे पैर लौट कर फिर कार में बैठ गई.

ड्राइवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘मेम साहब, आप दुकान के भीतर क्यों नहीं गईं?’’

‘‘जल्दी चलो बंगले पर,’’ निर्मला ने अनसुना करते हुए आदेश दिया.

आगे ड्राइवर कुछ न बोल सका. उस ने चुपचाप गाड़ी स्टार्ट कर दी.

निर्मला की गोद में एक साल का बच्चा नींद में बेसुध था. मगर कार में बैठने के बाद भी उस का मन उन दोनों औरतों के तानों पर लगा रहा. उन औरतों ने जोकुछ कहा था, सच ही कहा था. निर्मला उदास हो गई.

निर्मला पवन सेठ की दूसरी ब्याहता है. पहली पत्नी आज से 3 साल पहले गुजर गई थी. यह भी सही है कि उस की गोद में जो लड़का है, वह रामलाल का है. रामलाल जवान और खूबसूरत है.

जब निर्मला ब्याह कर के पवन सेठ के घर में आई थी, तब पहली बार उस की नजर रामलाल पर पड़ी थी. तभी से उस का आकर्षण रामलाल के प्रति हो गया था. मगर वह तो पवन सेठ की ब्याहता थी, इसलिए उस के खूंटे से बंध गई थी.

यह भी सही है कि निर्मला विधवा है. अभी उस की उम्र का 34वां पड़ाव चल रहा है. जब वह 20 साल की थी, तब उस की शादी राजेश से कर दी गई थी. वह बेरोजगार था. नौकरी की तलाश जारी थी. मगर वह इधरउधर ट्यूशन कर के अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहा था.

निर्मला की सास झगड़ालू थी. हरदम वह उस पर अपना सासपना जताने की कोशिश करती, छोटीछोटी गलतियों पर बेवजह चिल्लाना उस का स्वभाव बना हुआ था. मगर वह दिन काल बन कर उस पर टूट पड़ा, जब एक कार वाला राजेश को रौंद कर चला गया. अभी उन की शादी हुए 7 महीने भी नहीं बीते थे और वह विधवा हो गई. समाज की जरूरी रस्मों के बाद निर्मला की सास ने उसे डायन बता दिया. यह कह कर उसे घर से निकाल दिया कि आते ही मेरे बेटे को खा गई.

ससुराल से जब विधवा निकाली जाती है, तब वह अपने मायके में आती है. निर्मला भी अपने मायके में चली आई और मांबाबूजी और भाई के लिए बो झ बन गई. बाद में एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन गई. तब उसे विधवा जिंदगी जीते हुए 14 साल से ऊपर हो गए.

समाज के पोंगापंथ के मुताबिक, विधवा की दोबारा शादी भी नहीं हो सकती है. उसे तो अब जिंदगीभर विधवा की जिंदगी जीनी है. ऐसे में वह कई बार सोचती है कि अभी मांबाप जिंदा हैं लेकिन कल वे नहीं रहेंगे, तब भाई कैसे रख पाएगा? यही दर्द उसे हरदम कचोटता रहता था.

निर्मला कई बार यह सोचती थी कि वह मांबाप से अलग रहे, मगर एक विधवा का अकेले रहना बड़ा मुश्किल होगा. मर्दों के दबदबे वाले समाज में कई भेडि़ए उसे नोचने को तैयार बैठे हैं. कई वहशी मर्दों की निगाहें अब भी उस पर गड़ी रहती हैं. मां और बाबूजी भी उसे देख कर चिंतित हैं. ऐसी कोई बात नहीं है कि सिर्फ  वही अपने बारे में सोचती है.

मां और बाबूजी भी सोचते हैं कि निर्मला की जिंदगी कैसे कटेगी? वे खुद भी चाहते थे कि निर्मला की दोबारा शादी हो जाए, मगर समाज की बेडि़यों से वे भी बंधे हुए थे.

इसी कशमकश में समाज के कुछ ठेकेदार पवन सेठ का रिश्ता ले कर निर्मला के बाबूजी के पास आ गए.

बाबूजी को मालूम था कि पवन सेठ बहुत पैसे वाला है. उस का बड़ा भाई मनोहर सेठ के नाम से मशहूर है. मगर दोनों भाइयों के बीच 30 साल पहले ही घर की जायदाद को ले कर रिश्ता खत्म हो गया था. आज तक दोनों के बीच बोलचाल बंद है.

बाबूजी यह भी जानते थे कि पवन सेठ 64 साल के ऊपर है. यह बेमेल गठबंधन कैसे होगा? तब समाज के ठेकेदारों ने एक ही बात बाबूजी को सम झाने की कोशिश की थी कि यह निर्मला की जिंदगी का सवाल है. पवन सेठ के साथ वह खुश रहेगी.

तब बाबूजी ने सवाल उठाया था कि पवन सेठ नदी किनारे खड़ा वह ठूंठ है कि कब बहाव में बह जाए. फिर निर्मला विधवा की विधवा रह जाएगी. तब समाज के ठेकेदारों ने बाबूजी को सम झाया कि देखो, वह विधवा जरूर हो जाएगी, मगर सेठ की जायदाद की मालकिन बन कर रहेगी.

तब बाबूजी ने निर्मला से पूछा था, ‘निर्मला तुम्हारे लिए रिश्ता आया है.’

वह सम झते हुए भी अनजान बनते हुए बोली, ‘रिश्ता और मेरे लिए?’

‘हां निर्मला, तुम्हारे लिए रिश्ता.’

‘मगर बाबूजी, मैं एक विधवा हूं और विधवा की दोबारा शादी नहीं हो सकती,’ अपने पिता को सम झाते हुए निर्मला बोली थी.

‘हां, नहीं हो सकती है, मैं जानता हूं. मगर जब सोचता हूं कि तुम यह लंबी उम्र कैसे काटोगी, तो डर जाता हूं.’

‘जैसे, कोई दूसरी विधवा काटती है, वैसे ही काटूंगी बाबूजी,’ निर्मला ने जब यह बात कही, तब बाबूजी सोचविचार में पड़ गए थे.

तब निर्मला खुद ही बोली थी, ‘मगर बाबूजी, मैं आप की भावनाओं को भी अच्छी तरह सम झती हूं. आप बूढ़े पवन सेठ के साथ मेरा ब्याह करना चाहते हैं.’

‘हां बेटी, वहां तेरी जिंदगी अच्छी तरह कट जाएगी और विधवा की जिंदगी से छुटकारा भी मिल जाएगा,’ बोल कर बाबूजी ने अपने मन की सारी बात कह डाली थी. तब वह भी सहमति देते हुए बोली थी, ‘बाबूजी, आप किसी तरह की चिंता मत करें. मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं.’

यह सुन कर बाबूजी का चेहरा खिल गया था. फिर पवन सेठ के साथ निर्मला की बेमेल शादी हो गई.

निर्मला पवन सेठ के बंगले में आ गई थी. दुकान के नौकर अलग, घर के नौकर अलग थे. घर का नौकर रामलाल 20 साल का गबरू जवान था. बाकी तो वहां अधेड़ औरतें थीं.

जब पवन सेठ के साथ निर्मला हमबिस्तर होती थी, वह बहुत जल्दी ठंडा पड़ जाता था. राजेश के साथ जो रातें गुजारी थीं, पवन सेठ के साथ वैसा मजा नहीं मिलता था.

पवन सेठ ने कई बार उस से कहा था, ‘निर्मला, तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. उम्र में बेटी के बराबर हो. अगर मेरी पहली पत्नी से कोई औलाद होती, तब वह तुम्हारी उम्र के बराबर होती. मैं तु झ से औलाद की आस रखता हूं. तुम मु झे एक औलाद दे दो.’

‘औलाद देना मेरे अकेले के हाथ में नहीं है,’ निर्मला अपनी बात रखते हुए बोली, ‘मगर, मैं देख रही हूं…’

‘क्या देख रही हो?’ उसे रुकते देख पवन सेठ ने पूछा.

‘हमारी शादी के 6 महीने हो गए हैं, मगर जितना जोश पैदा होता, वह पलभर में खत्म हो जाता है.’

‘अब मैं उम्र की ढलान पर हूं, फिर भी औलाद चाहता हूं,’ पवन सेठ की आंखों का इशारा वह सम झ गई. तब उस ने नौकर रामलाल से बातचीत करना शुरू किया.

निर्मला उसे बारबार किसी बहाने अपने कमरे में बुलाती, आंखों में हवस लाती. कभी वह अपना आंचल गिराती, कभी ब्लाउज का ऊपरी बटन खोल देती, तो कभी पेटीकोट जांघों तक चढ़ा लेती. मर्द कैसा भी पत्थरदिल हो, आखिर एक दिन पिघल ही जाता है.

रामलाल ने कहा, ‘मेम साहब, आप का मु झे देख कर बारबार आंचल गिराना मु झे अच्छा नहीं लगता. आप क्यों ऐसा करती हैं?’

‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं समझता है,’ निर्मला मुसकरा कर बोली और उस के गाल को चूम लिया.

‘सम झता तो मैं सबकुछ हूं, मगर मालिक…’

‘मालिक कुछ भी नहीं कहेंगे,’ बीच में ही उस की बात काट कर निर्मला बोली, ‘मालिक से क्यों घबराता है?’

यह सुन कर रामलाल पहले तो हैरान हुआ, फिर धीरे से मुसकरा दिया. उस ने आव न देखा न ताव निर्मला को दबोच लिया और उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

निर्मला ने कुछ नहीं कहा. फिर क्या था, निर्मला की शह पा कर जब भी मौका मिलता, वे दोनों हमबिस्तर हो जाते. इस का फायदा यह हुआ कि निर्मला का जोश शांत होने लगा था और एक दिन वह पेट से हो गई.

पवन सेठ बहुत खुश हुआ और जब पहला ही लड़का पैदा हुआ, तब पवन सेठ की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा.

निर्मला और बच्चे की देखरेख के लिए एक आया रख ली गई. जब भी बाजार या कहीं दूसरी जगह जाना होता, निर्मला अपने बच्चे को आया के पास छोड़ जाती है. मगर आज उस की ममता जाग गई थी, इसलिए साथ ले गई थी.

‘‘मेम साहब, बंगला आ गया,’’ जब ड्राइवर ने यह कहा, तब निर्मला पुरानी यादों से लौटी. जब वह कार से उतरने लगी, तब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम साहब, जिस दुकान पर आप खरीदारी करने पहुंची थीं, वहां से बिना खरीदारी किए क्यों लौट आईं?’’

‘‘मेरा मूड बदल गया,’’ निर्मला ने जवाब दिया.

‘‘मूड तो नहीं बदला मेम साहब, मगर मैं सब समझ गया,’’ कह कर ड्राइवर मुसकराया.

‘‘क्या सम झे मानमल?’’ गुस्से से निर्मला बोली.

‘‘इस बच्चे को ले कर उन औरतों ने…’’

‘‘देखो मानमल, तुम अपनी औकात में रहो,’’ बीच में ही बात काट कर निर्मला बोली.

‘‘हां मेम साहब, मैं भूल गया था कि मैं आप का ड्राइवर हूं,’’ माफी मांगते हुए मानमल बोला, ‘‘मगर, सच बात तो होंठों पर आ ही जाती है.’’

‘‘क्या सच बात होंठों पर आ जाती है?’’ निर्मला ने पूछा.

‘‘यही मेम साहब कि उन दोनों औरतों ने बच्चे को देख कर कहा होगा कि यह बच्चा सेठजी का खून नहीं है, बल्कि उन के नौकर रामलाल का है,’’ मानमल ने साफसाफ कह दिया.

तब निर्मला गुस्से से बोली, ‘‘देखो मानमल, तुम हमारे नौकर हो और अपनी हद में रहो. औरों की तरह हमारे संबंधों को ले कर बात करने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर निर्मला कार से उतर गई.

अभी निर्मला दालान पार कर रही थी कि आया ने आ कर बच्चे को उस से ले लिया. मानमल फिर मुसकरा दिया.

शन्नो की हिम्मत: एक बेटी ने कैसे बदली अपने पिता की जिंदगी

Family Story in Hindi: शन्नो थी तो 10 साल की ही, पर उस का बाप फिरोज खान उस से सख्त नफरत करता था. वजह यह थी कि बेटा पैदा न करने के जुर्म में वह शन्नो की मां को अकसर मारतापीटता था, जिस की शन्नो जम कर खिलाफत करती थी. शन्नो की मां अनवरी मजबूरी के चलते पति के सितम चुपचाप सह लेती थी, लेकिन एक दिन शन्नो का सब्र जवाब दे गया और उस ने बाकरपुर थाने जा कर बाप की शिकायत कर डाली. थाना इंचार्ज एसआई पूनम यादव ने सूझबूझ से काम लेते हुए फिरोज खान को हिरासत में ले लिया.

लेकिन जब पुलिस वाले फिरोज खान की कमर पर रस्सा बांधने लगे, तो शन्नो यह देख कर तड़प उठी. वह एसआई पूनम यादव से रोते हुए बोली, ‘‘मैडमजी, पापा को माफ कर दीजिए. आप इन्हें सिर्फ समझा दीजिए कि अब दोबारा कभी अम्मी को नहीं सताएंगे.

‘‘मैं यह नहीं जानती थी कि पापा इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएंगे. प्लीज, पापा को छोड़ दीजिए,’’ कह कर वह उन से लिपट कर रोने लगी.

‘‘घबराओ नहीं बेटी, तुम्हारे पापा को कुछ नहीं होगा. हम इन्हें समझाबुझा कर जल्दी छोड़ देंगे,’’ एसआई पूनम यादव ने शन्नो को काफी समझाया, लेकिन वह रोतीबिलखती रही.

पापा के बगैर शन्नो थाने से बाहर नहीं आना चाहती थी. बड़ी मुश्किल से उसे घर पहुंचाया गया. इस वाकिए के बाद शन्नो हंसना ही भूल गई. पापा को उस की वजह से जेल जाना पड़ा था. इस बात का उसे बहुत अफसोस था. एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान की माली हालत के मद्देनजर उस पर बहुत कम जुर्माना लगाया, जिस से वह एकाध महीने में ही जेल से छूट गया.

एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान को जेल से बाहर आने के बाद समझाया, ‘‘देखो फिरोज, तुम ने बेटा पाने की चाहत में बेटियों की जो लाइन लगा रखी है, उस का बोझ तुम्हें अकेले ही उठाना पड़ेगा, इसलिए अब भी वक्त है कि तुम अपनी बेटियों को ही बेटा समझो. उन्हें प्यारदुलार दो.

‘‘अगर तुम्हारे घर बेटा पैदा नहीं हुआ, तो इस की जिम्मेदार तुम्हारी पत्नी नहीं है, बल्कि तुम खुद हो.

‘‘तुम्हारे घर में कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है, बल्कि तुम सब के दुश्मन हो और अपनी जिंदगी के साथ भी दुश्मनी कर रहे हो.

‘‘अब क्या तुम अपनी बेटी शन्नो से इस बात का बदला लोगे कि तुम्हारे द्वारा उस की मां पर ढाए जाने वाले जुल्म से घबरा कर वह थाने चली आई?’’

फिरोज खान सिर झुकाए चुपचाप एसआई पूनम यादव की बातें सुनता रहा.

‘‘खबरदार फिरोज, अब भूल से भी कोई ऐसीवैसी हरकत मत करना.’’

फिरोज खान ने एसआई पूनम यादव की बात को अनसुना कर दिया, क्योंकि उस के मन में शन्नो के लिए बदले की आग सुलग रही थी. घर में कदम रखते ही फिरोज ने शन्नो की पिटाई की.

बेटी को पिटता देख अनवरी बचाने आई, तो फिरोज ने उसे भी खूब मारापीटा, फिर दोनों मांबेटी को घर से निकाल दिया. इस दुखद मंजर को अड़ोसपड़ोस के लोग चुपचाप देखते रहे. किसी के लफड़े में पड़ने की क्या जरूरत है, इस सोच के चलते महल्ले वाले अपनेअपने जमीर को मुरदा बनाए हुए थे. कोई भी यह नहीं सोचना चाहता था कि कल उन के साथ भी ऐसा हो सकता है.

अनवरी शन्नो को साथ ले कर अपने मायके समस्तीपुर चली आई और अपनी बेवा मां से लिपट कर खूब रोई. सारा दुखड़ा सुनाने के बाद अनवरी बोली, ‘‘अम्मां, आज से शन्नो का जीनामरना आप को ही करना होगा.’’

सुबह होते ही अनवरी बस में सवार हो कर ससुराल लौट गई. इस बात को 10 साल बीत गए. शन्नो के ननिहाल वाले गरीब थे, इस के बावजूद मामूमौसी वगैरह ने मिलजुल कर शन्नो की परवरिश की. उसे अच्छी से अच्छी तालीम दे कर कुछ इस तरह निखारा कि अपनेपराए, सभी उस पर नाज करने लगे.

आज शन्नो 18-19 बरस की हो चली थी. इस दौरान फिरोज खान ने उस की कोई खोजखबर नहीं ली, क्योंकि वह उस से बहुत चिढ़ता था. उसी की वजह से उसे जेल जाना पड़ा था. शन्नो की मां अनवरी अकसर मायके आ कर बेटी को देख लेती थी.

इस बार अनवरी मायके आई, तो उस ने मायके के तमाम रिश्तेदारों को इकट्ठा किया और अपनी लाचारी बयान करते हुए शन्नो के हाथ पीले करने की गुहार लगाई. इस पर मायके वालों ने भरपूर हमदर्दी जताई.

शन्नो के बड़े मामू साबिर ने तो मीटिंग के दौरान ही अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराते हुए कहा, ‘‘देखिए, आप लोगों को ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं ने शन्नो के लिए एक अच्छा सा लड़का देख रखा है. वह शरीफ है, कम उम्र का है, पढ़ालिखा है और नौकरी भी बहुत अच्छी करता है.’’

लेकिन जब लड़के की असलियत पता की गई, तो मालूम हुआ कि वह किसी भी नजरिए से शन्नो के लायक नहीं था. वह 50 साल से ऊपर का था और 2 बीवियों को तलाक दे चुका था. नौकरी करने के नाम पर वह दिल्ली में रिकशा चलाता था.

साबिर द्वारा पेश किया गया ऐसा बेमेल रिश्ता किसी को पसंद नहीं आया. नतीजतन, उस रिश्ते को नकार दिया गया. इस पर साबिर ने नाराजगी जताई, तो उस की बड़ी बहन नरगिस बानो ने साबिर को तीखा जवाब दिया, ‘‘लड़का जब इतना ही अच्छा है, तो शन्नो को दरकिनार करो और उस से अपनी बेटी को ब्याह दो.’’

नरगिस बानो के इस फिकरे ने साबिर के होश ठिकाने लगा दिए. वह तिलमिला कर फौरन मीटिंग से उठ गया. शन्नो के लिए एक मुनासिब लड़के की तलाश जारी थी और जल्दी ही नरगिस बानो ने एक लायक लड़के को देख लिया, जो सब को पसंद आया. शादी की तारीख एक महीने के अंदर तय की गई. चंद ननिहाली रिश्तेदारों ने माली मदद में पहल की. इस में नरगिस बानो खासतौर से आगे रहीं.

लड़का पेशे से वकील होने के अलावा एक सच्चा समाजसेवी भी था. उस के स्वभाव में करुणा कूटकूट कर भरी थी. उस ने लड़की वालों से किसी चीज की मांग नहीं की थी.

शन्नो की बरात आने में 10 दिन बाकी रह गए थे. इसी बीच एक दिन शन्नो के होने वाले पति रिजवान ने नरगिस बानो को फोन कर शादी से इनकार करने का संकेत दिया. वजह पूछने पर उस ने बताया कि लड़की अपने बाप को जेल की हवा खिलवा चुकी है. इस वजह से कोई भी शरीफ लड़का ऐसी लड़की को अपना हमसफर बनाना पसंद नहीं करेगा.

शन्नो के ननिहाल वालों की आंखों में मायूसी का अंधेरा पसर गया. वे आपस में मिलबैठ कर सोचविचार कर रहे थे कि बिगड़ी बात कैसे बनाई जाए, तभी नरगिस बानो के मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. रिजवान का फोन था.

नरगिस बानो ने झट से फोन रिसीव किया और बोलीं, ‘‘तुम्हारे शुभचिंतकों ने हमारी शन्नो के खिलाफ और जो कुछ भी शिकायतें की हैं, तो वे भी हम से कह कर भड़ास निकाल लो.’’

‘ऐसी बात नहीं है, बल्कि मैं ने तो आप लोगों से माफी मांगने के लिए फोन किया है. मुझे माफ कर दीजिए प्लीज.’

नरगिस बानो ने मोबाइल फोन का स्पीकर औन कर दिया, ताकि लड़के की बात उन के अलावा घर के दूसरे लोग भी सुन सकें.

‘आप के ही कुछ सगेसंबंधी मेरे कान भर कर मुझे गुमराह करने पर तुले थे. लेकिन भला हो एसआई पूनम मैडम का, जिन्होंने आप के रिश्तेदारों द्वारा रची गई झूठी कहानी का परदाफाश कर मेरी आंखें खोल दीं.’

‘‘लेकिन, कौन पूनम मैडम?’’ नरगिस बानो ने चौंक कर पूछा.

‘जी, वे एक पुलिस वाली होने के अलावा समाजसेवी भी हैं. उन से मेरी अच्छी जानपहचान है. मैं ने उन से शन्नो और उस के अब्बू फिरोज खान साहब से संबंधित थानापुलिस वाली बात जब बताई, तो उन्हें वह सारा माजरा याद आ गया. तब उन की पोस्टिंग बाकरपुर थाने में थी. उन्होंने मुझे सबकुछ बता दिया है, जिस से सारी बात साफ हो गई और मेरा दिल साफ हो गया.’

शन्नो के ननिहाल वाले गौर से रिजवान की बातें सुन रहे थे. रिजवान ने आगे कहा, ‘बड़े अफसोस की बात है कि अपने लोग भी कितने दुश्मन होते हैं. ऐसे लोग अगर किसी मजबूर का भला नहीं कर सकते, तो कम से कम बुराई करने से परहेज करें.’

और फिर देखते ही देखते शन्नो की शादी रिजवान के साथ करा दी गई. शादी में एसआई पूनम यादव भी दूल्हे की तरफ से शरीक हुई थीं. विदाई के दौरान शन्नो की रोती हुई आंखें किसी को तलाश रही थीं. एसआई पूनम यादव उस की बेचैनी को समझ रही थीं. वे थोड़ी देर के लिए भीड़ से निकल गईं और जब लौटीं, तो उन के साथ शन्नो के अब्बू फिरोज खान थे. उस के हाथ में एक छोटी सी थैली थी.

अपने अब्बू को देखते ही शन्नो उन से लिपट गई और रोने लगी. फिरोज खान ने थैली शन्नो की तरफ बढ़ा दी. इसी बीच एसआई पूनम यादव शन्नो से मुखातिब हुईं, ‘‘तुम्हारे पापा ने कड़ी मेहनत और अरमान से तुम्हारे लिए ये गहने बनवाए हैं, इस की गवाह मैं हूं. मैं चाहे जहां भी रहूं, लेकिन ये कोई भी काम मुझ से मशवरा ले कर ही करते हैं.

‘‘तुम्हारे पापा अब बेटी को मुसीबत समझने की नासमझी से तोबा कर चुके हैं. तुम्हारी सारी बहनें अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं और खूब नाम रोशन कर रही हैं.’’

‘‘मैडमजी ठीक बोल रही हैं बेटी,’’ यह शन्नो की मां अनवरी बानो थीं.

एसआई पूनम यादव बोलीं, ‘‘बस यह समझो कि शन्नो बेटी के अच्छे दिन आ गए हैं. मुबारक हो.’’

शन्नो बोली, ‘‘आप की बड़ी मेहरबानी मैडमजी. आप ने मेरे घर वालों को बिखरने से बचा लिया,’’ इतना कह कर वह एसआई पूनम यादव से लिपट कर इस तरह रो पड़ी, जैसे वह बरसों पहले बाकरपुर थाने में उन से लिपट कर रोई थी.

और दीप जल उठे : कैंसर से जूझती एक मां

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.

कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

औक्टोपस कैद में : औरतों का शिकारी नेता

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई समझ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 2

दिन गुजरने के साथ जैसेजैसे उस के व्यक्तित्व का यह पहलू मेरे सामने आ रहा था वैसेवैसे उस के प्रति मेरा मोहभंग होता जा रहा था. जहां वह मानसिक रूप से दिन पर दिन मेरे करीब आती जा रही थी, वहीं मैं जानबूझ कर अपने को उस से दूर करता जा रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि उस के और मेरे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मुझे एहसास होता जा रहा था कि यदि हम ने शादी कर ली तो मैं उस के साथ कभी सुखी नहीं रह पाऊंगा. यह सोच कर मैं ने धीरेधीरे उस से मिलना कम कर दिया. लेकिन नेहा से मुझे पता चला कि मेरे इस रवैये से वह बहुत दुखी और परेशान रहने लगी थी, क्योंकि वह मुझ से भावनात्मक तौर पर जुड़ चुकी थी.

नेहा ने तो मुझे यह भी बताया कि अगर मैं खुशी से शादी नहीं करूंगा तो वह अपनी जान दे देगी, लेकिन किसी और लड़के से शादी नहीं करेगी. नेहा की इस बात से मैं परेशान हो गया था, और एक दिन खुशी को मैं ने अपने और उस के विरोधाभास के बारे में बताया कि हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर होने की वजह से वह कभी मेरे साथ सुखी नहीं रह पाएगी. इसलिए बेहतर यही होगा कि हम अपने रास्ते  अलग कर लें.

मेरी इस बात को सुन कर खुशी बहुत रोई थी और उस दिन घर जा कर उस ने अपने दोनों हाथों की नसें काट कर खुदकुशी करने का प्रयास किया था.

उस दिन खुशी के घर वालों को मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पता चल गया. अगले ही दिन उस के घर वाले उस की और मेरी शादी का प्रस्ताव ले कर मेरे मातापिता से मिले थे.

नेहा ने मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पहले ही मेरे मातापिता को सबकुछ बता दिया था, सो मेरे मातापिता ने मेरी राय बिना पूछे उस से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया था. बाद में मैं ने अपने मातापिता से इस रिश्ते को तोड़ने की लाख मिन्नतेंकीं लेकिन उन्होंने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया और आखिरकार मेरी शादी खुशी से हो गई.

विवाह के बाद खुशी ने मुझे वे सारी खुशियां दी थीं जिन की एक पति को अपने पत्नी से अपेक्षा होती है. शादी के बाद के पहले 2-3 वर्ष बहुत अच्छे बीते. वक्त के साथ मैं एक प्यारे से बेटे का पिता बन गया था. उस को गोद में उठा कर मैं बेपनाह खुशियों से भर जाता. उसे लाड़दुलार कर मुझे बहुत सुकून मिलता लेकिन लगभग 3 सालों के विवाहित जीवन के बाद हमारे दांपत्य जीवन में कुछ ठहराव सा आने लगा था. हमारे संबंधों में एकरसता और ऊब की शुष्कता पसरती जा रही थी.

मैं शुरू से ही रसिक स्वभाव का था. नईनई लड़कियों से दोस्ती करना मेरा प्रिय शगल था.

गुवाहाटी में मेरा काफी पुराना अच्छा- खासा साडि़यों का शोरूम था. मुझे व्यापार के लिए अधिक समय नहीं देना पड़ता था, पुराने कर्मचारी मेरी दुकान बहुत अच्छी तरह से संभाल रहे थे. गुवाहाटी के अलावा शिलांग में भी मेरा साडि़यों का एक बड़ा शोरूम था, सो मैं सप्ताह में एक बार शिलांग जरूर जाया करता था. वहां कई लड़कियां मेरी मित्र थीं. शिलांग में एक दोस्त के यहां मेरा परिचय फ्लोरेंस नाम की एक खासी जाति की लड़की से हुआ था. पहली ही नजर में वह लड़की मेरी निगाहों में चढ़ गई थी. उस से पहले मैं जितनी खासी लड़कियों के संपर्क में आया वे सब महज कागजी गुडि़याएं थीं, जिन के जीवन का उद्देश्य सिर्फ मौजमस्ती तथा सैरसपाटा हुआ करता था, लेकिन फ्लोरेंस बेहद जिंदादिल और बिंदास होने के साथसाथ मानसिक रूप से बहुत परिपक्व थी. वह कभी अर्थहीन बातें नहीं करती थी. उस का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था.

एक दिन बातों ही बातों में फ्लोरेंस ने मुझे बताया कि वह एक अच्छी नौकरी की तलाश में है, क्योंकि वह कंपनी, जिस में वह काम कर रही थी, उस की शिलांग की शाखा बंद होने वाली थी.

फ्लोरेंस ने जैसे ही मुझे यह बताया मैं ने उसे अपने शिलांग वाले साड़ी के शोरूम में मैनेजर के पद पर रख लिया था. अब जैसेजैसे मैं उस के संपर्क में आ रहा था, मेरा उस के प्रति खिंचाव बढ़ता ही जा रहा था. दूसरी लड़कियां जहां मेरी अमीरी और आकर्षक व्यक्तित्व की वजह से मेरे आसपास तितलियों की तरह मंडराया करती थीं वहीं फ्लोरेंस मुझ से पर्याप्त दूरी बनाए रखती, जिस की वजह से मैं उस की ओर शिद्दत से खिंचता जा रहा था.

इधर उस की ओर मेरे खिंचाव का एक कारण और था. फ्लोरेंस के नाम कई एकड़ जमीन थी. अगर मैं फ्लोरेंस से रिश्ता कायम कर लेता तो मैं उस की जमीन का मालिक बन जाता. सो जमीन के लालच में मैं उस से रिश्ता कायम करना चाहता था और एक दिन मुझे वह मौका मिल गया जिस की मुझे चाहत थी.

उस दिन फ्लोरेंस मेरे पास बहुत खराब मूड में आई और मेरे कुरेदने पर रो पड़ी. मुझ से बोली, ‘मेरे भाई बहुत जल्लाद हैं. हम खासियों में मां परिवार की मुखिया होती है. बेटियां वंश आगे चलाती हैं. बेटियों को ही मां की जमीनजायदाद मिलती है. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी हूं. इसलिए मां की सारी जमीन मुझे मिली है. मेरे दोनों भाइयों की निगाहें मेरी जमीन पर उगने वाले फलों से होने वाली आमदनी पर गड़ी हुई हैं.

‘मैं तो नौकरी पर आ जाती हूं तो मेरे भाई ही खेतों में मजदूरों से काम करवाते हैं. खेती से होने वाली आमदनी पर अपना नियंत्रण रखने के लिए मेरे भाई मेरी शादी एक निकम्मे, नाकारा खासी आदमी से कराने पर जोर दे रहे हैं.’

उसे इस तरह रोते देख मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उस से बोला, ‘अरे, मेरे होते हुए तुम क्यों चिंता करती हो? मैं तुम्हारे भाइयों से बातें करूंगा और उन्हें धमकाऊंगा. तुम बिलकुल भी मत डरो. मेरे होते हुए कोई तुम पर अपनी मरजी नहीं थोप सकेगा.’

यह कह कर मैं ने उसे चूमना शुरू कर दिया. तब फ्लोरेंस ने मेरे चंगुल से छूटने के लिए बहुत हाथपांव मारे लेकिन उस दिन मेरे ऊपर उस का नशा इस कदर हावी था कि मैं ने उस की एक न सुनी और आखिरकार कुछ प्यार और कुछ जोरजबरदस्ती करते हुए मैं ने उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया. उस दिन मैं ने महसूस किया कि मेरी इस जबरदस्ती से फ्लोरेंस बहुत अधिक नाराज नहीं थी. धीरेधीरे वह मुझे दिलोजान से चाहने लगी थी.

फ्लोरेंस के शोख बिंदास व्यक्तित्व के सामने खुशी का सीधासादा व्यक्तित्व मुझे नीरस लगने लगा था. फ्लोरेंस बातें करने में इतनी वाक्पटु थी कि मामूली बात को भी वजनदार और आकर्षक बना कर सामने रखती. मुझे उस से महज बातें करना बहुत अच्छा लगता था.

सफेद परदे के पीछे: भाग 2

एक बड़े से रसोईघर में कुछ महिलाएं आश्रम में मौजूद सभी लोगों के लिए खाना बनाने में जुटी थीं तो कुछ सेवादार जूठे बरतन मांज कर अपनेआप को धन्य महसूस कर रहे थे.

मिताली ने देखा कि वहां लोगों से किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं बरता जा रहा था. हर व्यक्ति को समान सुविधा उपलब्ध थी. शायद यही समभाव सब को जोड़े था और यही बाबा की लोकप्रियता का कारण था.

मिताली को दूर आश्रम के कोने में गुफा जैसा एक कमरा दिखाई दिया. सुमन ने बताया कि यह बाबा का विशेष कक्ष है. जब भी वे यहां आश्रम में आते हैं इसी कक्ष में ठहरते हैं… यहां किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है.

सुमन के साथ होने के कारण उन दोनों को किसी ने नहीं टोका. मिताली और सुदीप ने पूरा आश्रम घूम कर देखा. घूमतेघूमते दोनों आश्रम के दूसरे कोने तक पहुंच गए. यहां घने पेड़ों के झुरमुट में घासफूस से बनी कलात्मक झोंपडि़यां बेहद आकर्षक लग रही थीं. जगह के एकांत का फायदा उठा कर सुदीप ने उसे चूम भी लिया था.

मिताली को आश्रम की व्यवस्था ने बहुत प्रभावित किया. उस ने आगे भी यहां आते रहने का मन बना लिया.

‘और कुछ न सही, सुदीप के साथ एकांत में कुछ लमहे साथ बिताने को मिल जाएंगे… शहर में तो लोगों के देखे जाने का भय हमेशा दिमाग पर हावी रहता है… आधा ध्यान तो इसी में बंट जाता है… प्यारमुहब्बत की बातें क्या खाक करते हैं…’ सोच मिताली का दिमाग आगे की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कवायद में जुट गया. उस ने सुदीप को अपनी योजना के बारे में बताया.

‘‘यह आश्रम है कोई पिकनिक स्पौट नहीं कि जब जी चाहा टहलते हुए आ गए… देखा नहीं सुरक्षा व्यवस्था कितनी कड़ी थी…’’ सुदीप ने उस के प्रस्ताव को नकार दिया.

‘‘तुम ऐसा करो… सुमन भाभी के साथ बाबा के शिष्य बन जाओ… रोज न सही, कभीकभार तो आया ही जा सकता है… मिलने का मौका मिला तो ठीक वरना ताजा फलसब्जियां तो मिल ही जाएंगी…’’ मिताली ने उसे उकसाया.

बात सुदीप को भी जम गई और फिर एक दिन सुदीप विधिवत बाबा कृष्ण करीम का शिष्य बन गया.

मिताली और सुदीप कभी सुमन के साथ तो कभी अकेले ही आश्रम में

आने लगे. अकसर दोनों सब की नजरें बचा कर उन झोंपडि़यों की तरफ निकल जाया करते थे. कुछ देर एकांत में बिताने के बाद प्रफुल्लित से लौटते हुए फलसब्जियां खरीद ले जाते.

आश्रम में आनेजाने से उन्हें पता चला कि इस आश्रम की शाखाएं देश के हर बड़े शहर में फैली हैं. इतना ही नहीं, विदेशों में भी बाबा के अनुयायी हैं, जो उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं. इन आश्रमों से कई अन्य तरह की सामाजिक गतिविधियां भी संचालित होती हैं. कई हौस्पिटल और स्कूल हैं जो आश्रम की कमाई से चलते हैं.

मिताली ने महसूस किया कि जितना वे बाबा के बारे में जान रहे थे उतना ही सुदीप का झुकाव उन की तरफ होने लगा था. अब उन की बातों का केंद्र भी अकसर बाबा ही हुआ करते थे.

मुख्य सेवादार ने उस की निष्ठा देखते हुए उसे आश्रम से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंप दी थीं. इन सब का प्रभाव यह हुआ कि अब मिताली बेरोकटोक आश्रम के हर हिस्से में आनेजाने लगी थी.

देखते ही देखते उन का कालेज पूरा होने को आया. फाइनल ऐग्जाम का टाइमटेबल आ चुका था.

‘‘अब पढ़ाई में जुटना होगा… ऐग्जाम से पहले एक आखिरी बार आश्रम चलें?’’ मिताली ने अपनी बाईं आंख दबाते हुए इशारा किया.

‘‘हां कल चलते हैं… बाबा का आशीर्वाद भी तो लेना है,’’ सुदीप ने कहा.

‘‘हाउ अनरोमांटिक,’’ वह भुनभुनाई.

‘‘कल का दिन तुम्हारी जिंदगी का एक यादगार दिन होने वाला है,’’ सुदीप ने शरारत से मुसकराते हुए उस का गाल खींच दिया.

सफेद परदे के पीछे: भाग 1

‘‘देखीतुम ने अपने गुरू घंटाल की काली करतूतें? बाबा कृष्ण करीम… अरे, मुझे तो यह हमेशा ही योगी कम और भोगी ज्यादा लगता था… और लो, आज साबित भी हो गया… हर टीवी चैनल पर इस की रासलीला के चर्चे हो रहे हैं…’’ घर में घुसते ही देवेश ने पत्नी मिताली की तरफ कटाक्ष का तीर छोड़ा.

‘तुम्हें आज पता चला है… मैं तो वर्षों से यह राज जानती हूं… सिर्फ जानती ही नहीं, बल्कि भुक्तभोगी भी हूं…’ मन ही मन सोच कर मिताली को मितली सी आ गई. घिनौनी यादों के इस वमन में कितना सुकून था, यह देवेश महसूस नहीं कर पाया. उस ने फटाफट जूतेमोजे उतारे और टीवी औन कर के सोफे पर पसर गया.

‘‘एक और बाबा पर गिरी गाज… नाबालिग ने लगाया धार्मिक गुरु पर यौन दुराचार का आरोप… आरोपी फरार… पुलिस ने किया बाबा कृष्ण करीम का आश्रम सीज…’’ लगभग हर चैनल पर यही ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी. रसोई में चाय बनाती मिताली के कान उधर ही लगे हुए थे. देवेश को चाय का प्याला थमा वह बिस्तर पर लेट गई.

आज मिताली अपनेआप को बेहद हलका महसूस कर रही थी. एक बड़ा बोझ जिसे वह पिछले कई सालों से अपने दिलोदिमाग पर ढो रही थी वह अनायास उतर गया था. अब उसे यकीनन उस भयावह फोन कौल से आजादी मिल जाएगी जो उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ाए थी, जिस के चलते हर इनकमिंग फोन कौल पर उस का दिल उछल कर हलक में आ जाता था.

आंखें बंद होते ही मिताली की पलकों के पीछे एक दूसरी ही दुनिया सजीव हो उठी. चुपचाप से खड़े लमहे मिताली के इर्दगिर्द लिपट गए जैसे धुंध एकाएक आ कर पेड़ोंपहाड़ों से लिपट जाती है और वे वहां होते हुए भी अदृश्य हो जाते हैं. ठीक उसी तरह मिताली भी अपने आसपास की दुनिया से ओझल हो गई. परछाइयों की इस दुनिया में उस के साथ सुदीप है… बाबा का आश्रम… और सेवा के नाम पर जिस्म से होने वाला खिलवाड़ है…

सुदीप से उस की दोस्ती कालेज के समय से ही थी. इसे दोस्ती न कह कर प्यार कहें तो शायद ज्यादा उपयुक्त होगा. उन का कालेज शहर के बाहरी कोने पर था और कालेज से कुछ ही दूरी पर बाबा कृष्ण करीम का आश्रम था. हरेभरे पेड़ों से घिरा यह आश्रम देखने में बहुत ही रहस्यमय लगता था. दोनों अकसर एकांत की तलाश में उस तरफ निकल जाते थे. इस आश्रम का ऊंचा और भव्य मुख्यद्वार मिताली को सम्मोहित कर लेता था. वह इसे भीतर से देखना चाहती थी, लेकिन आश्रम में सिर्फ बाबा के भक्तों को ही प्रवेश की अनुमति थी.

मिताली अकसर सुदीप से अपने मन की बात कहती थी. एक दिन सुदीप ने उस से आश्रम के अंदर ले जाने का वादा किया जिसे बहुत जल्दी उस ने पूरा भी किया.

हुआ यों था कि रिश्ते में सुदीप की भाभी सुमन बाबा की भक्त थी और अकसर वहां आश्रम में सेवा के लिए जाती थी. उसी के साथ सुदीप मिताली को ले कर आश्रम गया.

आश्रम के दरवाजे पर सुरक्षा व्यवस्था बहुत सख्त थी. कई चरणों में जांच से गुजरने के बाद वे अब एक बड़े से चौगान में थे. मिताली हर तरफ आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. आश्रम के बहुत बड़े भाग में ताजा सब्जियां लगी थीं. एक हिस्से में फलदार पेड़ भी थे. बहुत से भक्त जिन्हें सेवादार कहा जाता है, वहां निष्काम सेवा में जुटे थे. कुछ लोग सब्जियां तोड़ कर ला रहे थे और कुछ उन्हें तोलतोल कर वजन के अनुसार अलगअलग पैक कर रहे थे. कुछ लोग फलों को भी इसी तरह से पैक कर रहे थे. सुमन ने बताया कि ये फल और सब्जियां बाबा के भक्त ही प्रसादस्वरूप खरीद कर ले जाते हैं. सुमन स्वयं भी अपने घर के लिए फलसब्जियां यहीं से खरीद कर ले जाती है.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 1

Family Story in Hindi: मेरे बेटे आकाश की आज शादी है. घर मेहमानों से भरा पड़ा है. हर तरफ शादी की तैयारियां चल रही हैं. यद्यपि मैं इस घर का मुखिया हूं, लेकिन अपने ही घर में मेरी हैसियत सिर्फ एक मूकदर्शक की बन कर रह गई है. आज मेरे पास न पैसा है न परिवार में कोई प्रतिष्ठा. चूंकि घर के नौकरों से ले कर रिश्तेदारों तक को इस बात की जानकारी है, इसलिए सभी मुझ से बहुत रूखे ढंग से पेश आते हैं. बहुत अपमानजनक है यह सब लेकिन मैं क्या करूं? अपने ही घर में उस अपमानजनक स्थिति के लिए मैं खुद ही तो जिम्मेदार हूं. फिर मैं किसे दोष दूं? क्या खुशी, मेरी पत्नी इस के लिए जिम्मेदार है? अंदर से एक हूक  सी उठी. और इसी के साथ मन ने कहा, ‘उस ने तो तुम्हें पति का पूरा सम्मान दिया, पूरा आदर दिया, लेकिन तुम शायद उस के प्यार, उस के समर्पण के हकदार नहीं थे.’

खुशी एक बहुत कुशल गृहिणी है जिस ने कई सालों तक मुझे पत्नी का निश्छल प्यार और समर्पण दिया. पर मैं ही नादान था जो उस की अच्छाइयां कभी समझ नहीं पाया. मैं हमेशा उस की आलोचना करता रहा. उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करता रहा. अपने प्रति उस के लगाव को हमेशा मैं ने ढोंग समझा.

मैं सारा जीवन मौजमस्ती करता रहा और वह मेरी ऐयाशियों को घुटघुट कर सहती रही, मेरे अपमान व अवमाननापूर्ण व्यवहार को सहती रही. वह एक सीधीसादी सुशील महिला थी और उस का संसार सिर्फ मैं और उस का बेटा आकाश थे. वह हम दोनों के चेहरों पर मुसकराहट देखने के लिए कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहती थी लेकिन मैं अपने प्रति उस की उस अटूट चाहत को कभी समझ न पाया.

मैं कब विगत दिनों की खट्टीमीठी यादों की लहरों में बहता चला गया. मुझे पता भी नहीं चला था.

उन दिनों मैं कालिज में नयानया आया था. वरिष्ठ छात्र रैगिंग कर रहे थे. एक दिन मैं कालिज में अभी घुसा ही था कि एक दूध की तरह गोरी, अति आकर्षक नैननक्श वाली लड़की कुछ घबराई और परेशान सी मेरे पास आई और सकुचाते हुए मुझ से बोली, ‘आप बी.ए. प्रथम वर्ष में हैं न, मैं भी बी.ए. प्रथम वर्ष में हूं. वह जो सामने छात्रों का झुंड बैठा है, उन लोगों ने मुझ से कहा है कि मैं आप का हाथ थामे इस मैदान का चक्कर लगाऊं. अब वे सीनियर हैं, उन की बात नहीं मानी तो नाहक मुझे परेशान करेंगे.’

‘हां, हां, मेरा हाथ आप शौक से थामिए, चाहें तो जिंदगी भर थामे रहिए. बंदे को कोई परेशानी नहीं होगी. तो चलें, चक्कर लगाएं.’

मेरी इस चुटकी पर शर्म से सिंदूरी होते उस कोमल चेहरे को मैं देखता रह गया था. मैं अब तक कई लड़कियों के संपर्क में आ चुका था लेकिन इतनी शर्माती, सकुचाती सुंदरता की प्रतिमूर्ति को मैं ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

उस के मुलायम हाथ को थामे मैं ने पूरे मैदान का चक्कर लगाया था और फिर ताली बजाते छात्रों के दल के सामने आ कर मैं ने उस का कांपता हाथ छोड़ दिया था कि तभी उस ने नजरें जमीन में गड़ा कर मुझ से कहा था, ‘आई लव यू’, और यह कहते ही वह सुबकसुबक कर रो पड़ी थी और मैं मुसकराता हुआ उसे छोड़ कर क्लास में चला गया था.

बाद में मुझे पता चला था कि उस सुंदर लड़की का नाम खुशी था और वह एक प्रतिष्ठित धनाढ्य परिवार की लड़की थी. उस दिन के बाद जब कभी भी मेरा उस से सामना होता, मुझ से नजरें मिलते ही वह घबरा कर अपनी पलकें झुका लेती और मेरे सामने से हट जाती. उस की इस अदा ने मुझे उस का दीवाना बना दिया था. मैं क्लास में कोशिश करता कि उस के ठीक सामने बैठूं. मैं उस का परिचय पाने और दोस्ती करने के लिए बेताब हो उठा था.

मेरे चाचाजी की लड़की नेहा, जो मेरी ही क्लास में थी, वह खुशी की बहुत अच्छी सहेली थी. मैं ने नेहा के सामने खुशी से दोस्ती करने की इच्छा जाहिर की और नेहा ने एक दिन मुझ से उस की दोस्ती करा दी थी. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बढ़ गई और खुशी मेरे बहुत करीब आ गई थी.

मैं जैसेजैसे खुशी के करीब आता जा रहा था, वैसेवैसे मुझे निराशा हाथ लगती जा रही थी. मैं स्वभाव से बेहद बातूनी, जिंदादिल, मस्तमौला किस्म का युवक था लेकिन खुशी अपने नाम के विपरीत एक बेहद भावुक किस्म की गंभीर लड़की थी.

कुछ ही समय में वह मेरे बहुत करीब आ चुकी थी और मैं उस की जिंदगी का आधारस्तंभ बन गया था, लेकिन मैं उस के नीरस स्वभाव से ऊबने लगा था. वह मितभाषी थी, जब भी मेरे पास रहती, होंठ सिले रहती. जहां मैं हर वक्त खुल कर हंसता रहता था, वहीं वह हर वक्त गंभीरता का आवरण ओढे़ रहती.

प्यार अपने से: जब प्यार ने तोड़ी मर्यादा- भाग 1

झारखंड राज्य का एक शहर है हजारीबाग. यह कुदरत की गोद में बसा छोटा सा, पर बहुत खूबसूरत शहर है. पहाड़ियों से घिरा, हरेभरे घने जंगल, झील, कोयले की खानें इस की खासीयत हैं. हजारीबाग के पास ही में डैम और नैशनल पार्क भी हैं. यह शहर अभी हाल में ही रेल मार्ग से जुड़ा है, पर अभी भी नाम के लिए 1-2 ट्रेनें ही इस लाइन पर चलती हैं. शायद इसी वजह से इस शहर ने अपने कुदरती खूबसूरती बरकरार रखी है.

सोमेन हजारीबाग में फौरैस्ट अफसर थे. उन दिनों हजारीबाग में उतनी सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए उन की बीवी संध्या अपने मायके कोलकाता में ही रहती थी.

दरअसल, शादी के बाद कुछ महीनों तक वे दोनों फौरैस्ट अफसर के शानदार बंगले में रहते थे. जब संध्या मां बनने वाली थी, सोमेन ने उसे कोलकाता भेज दिया था. उन्हें एक बेटी हुई थी. वह बहुत खूबसूरत थी, रिया नाम था उस का. सोमेन हजारीबाग में अकेले रहते थे. बीचबीच में वे कोलकाता जाते रहते थे.

हजारीबाग के बंगले के आउट हाउस में एक आदिवासी जोड़ा रहता था. लक्ष्मी सोमेन के घर का सारा काम करती थी. उन का खाना भी वही बनाती थी. उस का मर्द फूलन निकम्मा था. वह बंगले की बागबानी करता था और सारा दिन हंडि़या पी कर नशे में पड़ा रहता था.

एक दिन दोपहर बाद लक्ष्मी काम करने आई थी. वह रोज शाम तक सारा काम खत्म कर के रात को खाना टेबल पर सजा कर चली जाती थी.

उस दिन मौसम बहुत खराब था. घने बादल छाए हुए थे. मूसलाधार बारिश हो रही थी. दिन में ही रात जैसा अंधेरा हो गया था.

अपने आउट हाउस में बंगले तक दौड़ कर आने में ही लक्ष्मी भीग गई थी. सोमेन ने दरवाजा खोला. उस की गीली साड़ी और ब्लाउज के अंदर से उस के सुडौल उभार साफ दिख रहे थे.

सोमेन ने लक्ष्मी को एक पुराना तौलिया दे कर बदन सुखाने को कहा, फिर उसे बैडरूम में ही चाय लाने को कहा. बिजली तो गुल थी. उन्होंने लैंप जला रखा था.

थोड़ी देर में लक्ष्मी चाय ले कर आई. चाय टेबल पर रखने के लिए जब वह झुकी, तो उस का पल्लू सरक कर नीचे जा गिरा और उस के उभार और उजागर हो गए.

सोमेन की सांसें तेज हो गईं और उन्हें लगा कि कनपटी गरम हो रही है. लक्ष्मी अपना पल्लू संभाल चुकी थी. फिर भी सोमेन उसे लगातार देखे जा रहे थे.

यों देखे जाने से लक्ष्मी को लगा कि जैसे उस के कपड़े उतारे जा रहे हैं. इतने में सोमेन की ताकतवर बाजुओं ने उस की कमर को अपनी गिरफ्त में लेते हुए अपनी ओर खींचा.

लक्ष्मी भी रोमांचित हो उठी. उसे मरियल पियक्कड़ पति से ऐसा मजा नहीं मिला था. उस ने कोई विरोध नहीं किया और दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस घटना के कुछ महीने बाद सोमेन ने अपनी पत्नी और बेटी रिया को रांची बुला लिया. हजारीबाग से रांची अपनी गाड़ी से 2 ढाई घंटे में पहुंच जाते हैं.

सोमेन ने उन के लिए रांची में एक फ्लैट ले रखा था. उन के प्रमोशन की बात चल रही थी. प्रमोशन के बाद उन का ट्रांसफर रांची भी हो सकता है, ऐसा संकेत उन्हें डिपार्टमैंट से मिल चुका था.

इधर लक्ष्मी भी पेट से हो गई थी. इस के पहले उसे कोई औलाद न थी. लक्ष्मी के एक बेटा हुआ. नाकनक्श से तो साधारण ही था, पर रंग उस का गोरा था. आमतौर पर आदिवासियों के बच्चे ऐसे नहीं होते हैं.

अभी तक सोमेन हजारीबाग में ही थे. वे मन ही मन यह सोचते थे कि कहीं यह बेटा उन्हीं का तो नहीं है. उन्हें पता था कि लक्ष्मी की शादी हुए 6 साल हो चुके थे, पर वह पहली बार मां बनी थी.

सोमेन को तकरीबन डेढ़ साल बाद प्रमोशन और ट्रांसफर और्डर मिला. तब तक लक्ष्मी का बेटा गोपाल भी डेढ़ साल का हो चुका था.

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