खोया हुआ सच : क्या वजह थी सीमा के दुख की

सीमा रसोई के दरवाजे से चिपकी खड़ी रही, लेकिन अपनेआप में खोए हुए उस के पति रमेश ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाएं हाथ में फाइलें दबाए वह चुपचाप दरवाजा ठेल कर बाहर निकल गया और धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो गया.

सीमा के मुंह से एक निश्वास सा निकला, आज चौथा दिन था कि रमेश उस से एक शब्द भी नहीं बोला था. आखिर उपेक्षाभरी इस कड़वी जिंदगी के जहरीले घूंट वह कब तक पिएगी?

अन्यमनस्क सी वह रसोई के कोने में बैठ गई कि तभी पड़ोस की खिड़की से छन कर आती खिलखिलाहट की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह दबेपांव खिड़की की ओर बढ़ गई और दरार से आंख लगा कर देखा, लीला का पति सूखे टोस्ट चाय में डुबोडुबो कर खा रहा था और लीला किसी बात पर खिलखिलाते हुए उस की कमीज में बटन टांक रही थी. चाय का आखिरी घूंट भर कर लीला का पति उठा और कमीज पहन कर बड़े प्यार से लीला का कंधा थपथपाता हुआ दफ्तर जाने के लिए बाहर निकल गया.

सीमा के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई. कितने खुश हैं ये दोनों… रूखासूखा खा कर भी हंसतेखेलते रहते हैं. लीला का पति कैसे दुलार से उसे देखता हुआ दफ्तर गया है. उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही लीला है, जो कुछ वर्षों पहले कालेज में भोंदू कहलाती थी. पढ़ने में फिसड्डी और महाबेवकूफ. न कपड़े पहनने की तमीज थी, न बात करने की. ढीलेढाले कपड़े पहने हर वक्त बेवकूफीभरी हरकतें करती रहती थी.

क्लासरूम से सौ गज दूर भी उसे कोई कुत्ता दिखाई पड़ जाता तो बेंत ले कर उसे मारने दौड़ती. लड़कियां हंस कर कहती थीं कि इस भोंदू से कौन शादी करेगा. तब सीमा ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन यही फूहड़ और भोंदू लीला शादी के बाद उस की पड़ोसिन बन कर आ जाएगी और वह खिड़की की दरार से चोर की तरह झांकती हुई, उसे अपने पति से असीम प्यार पाते हुए देखेगी.

दर्द की एक लहर सीमा के पूरे व्यक्त्तित्व में दौड़ गई और वह अन्यमनस्क सी वापस अपने कमरे में लौट आई.

‘‘सीमा, पानी…’’ तभी अंदर के कमरे से क्षीण सी आवाज आई.

वह उठने को हुई, लेकिन फिर ठिठक कर रुक गई. उस के नथुने फूल गए, ‘अब क्यों बुला रही हो सीमा को?’ वह बड़बड़ाई, ‘बुलाओ न अपने लाड़ले बेटे को, जो तुम्हारी वजह से हर दम मुझे दुत्कारता है और जराजरा सी बात में मुंह टेढ़ा कर लेता है, उंह.’

और प्रतिशोध की एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर आ गई. अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर वह तन कर रमेश की फोटो के सामने खड़ी हो गई, ‘‘ठीक है रमेश, तुम इसलिए मुझ से नाराज हो न, कि मैं ने तुम्हारी मां को टाइम पर खाना और दवाई नहीं दी और उस से जबान चलाई. तो लो यह सीमा का बदला, चौबीसों घंटे तो तुम अपनी मां की चौकीदारी नहीं कर सकते. सीमा सबकुछ सह सकती है, अपनी उपेक्षा नहीं. और धौंस के साथ वह तुम्हारी मां की चाकरी नहीं करेगी.’’

और उस के चेहरे की जहरीली मुसकान एकाएक एक क्रूर हंसी में बदल गई और वह खिलाखिला कर हंस पड़ी, फिर हंसतेहंसते रुक गई. यह अपनी हंसी की आवाज उसे कैसी अजीब सी, खोखली सी लग रही थी, यह उस के अंदर से रोतारोता कौन हंस रहा था? क्या यह उस के अंदर की उपेक्षित नारी अपनी उपेक्षा का बदला लेने की खुशी में हंस रही थी? पर इस बदले का बदला क्या होगा? और उस बदले का बदला…क्या उपेक्षा और बदले का यह क्रम जिंदगीभर चलता रहेगा?

आखिर कब तक वे दोनों एक ही घर की चारदीवारी में एकदूसरे के पास से अजनबियों की तरह गुजरते रहेंगे? कब तक एक ही पलंग की सीमाओं में फंसे वे दोनों, एक ही कालकोठरी में कैद 2 दुश्मन कैदियों की तरह एकदूसरे पर नफरत की फुंकारें फेंकते हुए अपनी अंधेरी रातों में जहर घोलते रहेंगे?

उसे लगा जैसे कमरे की दीवारें घूम रही हों. और वह विचलित सी हो कर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी.

थप…थप…थप…खिड़की थपथपाने की आवाज आई और सीमा चौंक कर उठ बैठी. उस के माथे पर बल पड़ गए. वह बड़बड़ाती हुई खिड़की की ओर बढ़ी.

‘‘क्या है?’’ उस ने खिड़की खोल कर रूखे स्वर में पूछा. सामने लीला खड़ी थी, भोंदू लीला, मोटा शरीर, मोटा थुलथुल चेहरा और चेहरे पर बच्चों सी अल्हड़ता.

‘‘दीदी, डेटौल है?’’ उस ने भोलेपन से पूछा, ‘‘बिल्लू को नहलाना है. अगर डेटौल हो तो थोड़ा सा दे दो.’’

‘‘बिल्लू को,’’ सीमा ने नाक सिकोड़ कर पूछा कि तभी उस का कुत्ता बिल्लू भौंभौं करता हुआ खिड़की तक आ गया.

सीमा पीछे को हट गई और बड़बड़ाई, ‘उंह, मरे को पता नहीं मुझ से क्या नफरत है कि देखते ही भूंकता हुआ चढ़ आता है. वैसे भी कितना गंदा रहता है, हर वक्त खुजलाता ही रहता है. और इस भोंदू लीला को क्या हो गया है, कालेज में तो कुत्ते को देखते ही बेंत ले कर दौड़ पड़ती थी, पर इसे ऐसे दुलार करती है जैसे उस का अपना बच्चा हो. बेअक्ल कहीं की.’

अन्यमनस्क सी वह अंदर आई और डेटौल की शीशी ला कर लीला के हाथ में पकड़ा दी. लीला शीशी ले कर बिल्लू को दुलारते हुए मुड़ गई और उस ने घृणा से मुंह फेर कर खिड़की बंद कर ली.

पर भोंदू लीला का चेहरा जैसे खिड़की चीर कर उस की आंखों के सामने नाचने लगा. ‘उंह, अब भी वैसी ही बेवकूफ है, जैसे कालेज में थी. पर एक बात समझ में नहीं आती, इतनी साधारण शक्लसूरत की बेवकूफ व फूहड़ महिला को भी उस का क्लर्क पति ऐसे रखता है जैसे वह बहुत नायाब चीज हो. उस के लिए आएदिन कोई न कोई गिफ्ट लाता रहता है. हर महीने तनख्वाह मिलते ही मूवी दिखाने या घुमाने ले जाता है.’

खिड़की के पार उन के ठहाके गूंजते, तो सीमा हैरान होती और मन ही मन उसे लीला के पति पर गुस्सा भी आता कि आखिर उस फूहड़ लीला में ऐसा क्या है जो वह उस पर दिलोजान से फिदा है. कई बार जब सीमा का पति कईकई दिन उस से नाराज रहता तो उसे उस लीला से रश्क सा होने लगता. एक तरफ वह है जो खूबसूरत और समझदार होते हुए भी पति से उपेक्षित है और दूसरी तरफ यह भोंदू है, जो बदसूरत और बेवकूफ होते हुए भी पति से बेपनाह प्यार पाती है. सीमा के मुंह से अकसर एक ठंडी सांस निकल जाती. अपनाअपना वक्त है. अचार के साथ रोटी खाते हुए भी लीला और उस का पति ठहाके लगाते हैं. जबकि दूसरी ओर उस के घर में सातसात पकवान बनते हैं और वे उन्हें ऐसे खाते हैं जैसे खाना खाना भी एक सजा हो. जब भी वह खिड़की खोलती, उस के अंदर खालीपन का एहसास और गहरा हो जाता और वह अपने दर्द की गहराइयों में डूबने लगती.

‘‘सीमा, दवाई…’’ दूसरे कमरे से क्षीण सी आवाज आई. बीमार सास दवाई मांग रही थी. वह बेखयाली में उठ बैठी, पर द्वेष की एक लहर फिर उस के मन में दौड़ गई. ‘क्या है इस घर में मेरा, जो मैं सब की चाकरी करती रहूं? इतने सालों के बाद भी मैं इस घर में पराई हूं, अजनबी हूं,’ और वह सास की आवाज अनसुनी कर के फिर लेट गई.

तभी खिड़की के पार लीला के जोरजोर से रोने और उस के कुत्ते के कातर स्वर में भूंकने की आवाज आई. उस ने झपट कर खिड़की खोली. लीला के घर के सामने नगरपलिका की गाड़ी खड़ी थी और एक कर्मचारी उस के बिल्लू को घसीट कर गाड़ी में ले जा रहा था.

‘‘इसे मत ले जाओ, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ लीला रोतेरोते कह रही थी.

लेकिन कर्मचारी ने कुत्ते को नहीं छोड़ा. ‘‘तुम्हारे कुत्ते को खाज है, बीमारी फैलेगी,’’ वह बोला.

‘‘प्लीज मेरे बिल्लू को मत ले जाओ. मैं डाक्टर को दिखा कर इसे ठीक करा दूंगी.’’

‘‘सुनो,’’ गाड़ी के पास खड़ा इंस्पैक्टर रोब से बोला, ‘‘इसे हम ऐसे नहीं छोड़ सकते. नगरपालिका पहुंच कर छुड़ा लाना. 2,000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.’’

‘‘रुको, रुको, मैं जुर्माना दे दूंगी,’’ कह कर वह पागलों की तरह सीमा के घर की ओर भागी और सीमा को खिड़की के पास खड़ी देख कर गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे बिल्लू को बचा लो. मुझे 2,000 रुपए उधार दे दो.’’

‘‘पागल हो गई हो क्या? इस गंदे और बीमार कुत्ते के लिए 2,000 रुपए देना चाहती हो? ले जाने दो, दूसरा कुत्ता पाल लेना,’’  सीमा बोली.

लीला ने एक बार असीम निराशा और वेदना के साथ सीमा की ओर देखा. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. सहसा उस की आंखें अपने हाथ में पड़ी सोने की पतली सी एकमात्र चूड़ी पर टिक गईं. उस की आंखों में एक चमक आ गई और वह चूड़ी उतारती हुई वापस कुत्ता गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी.

‘‘भैया, यह लो जुर्माना. मेरे बिल्लू को छोड़ दो,’’ वह चूड़ी इंस्पैक्टर की ओर बढ़ाती हुई बोली.

इंस्पैक्टर भौचक्का सा कभी उस के हाथ में पकड़ी सोने की चूड़ी की ओर और कभी उस कुत्ते की ओर देखने लगा. सहसा उस के चेहरे पर दया की एक भावना आ गई, ‘‘इस बार छोड़ देता हूं. अब बाहर मत निकलने देना,’’ उस ने कहा और कुत्ता गाड़ी आगे बढ़ गई.

लीला एकदम कुत्ते से लिपट गई, जैसे उसे अपना खोया हुआ कोई प्रियजन मिल गया हो और वह फूटफूट कर रोने लगी.

सीमा दरवाजा खोल कर उस के पास पहुंची और बोली, ‘‘चुप हो जाओ, लीला, पागल न बनो. अब तो तुम्हारा बिल्लू छूट गया, पर क्या कोई कुत्ते के लिए भी इतना परेशान होता है?’’

लीला ने सिर उठा कर कातर दृष्टि से उस की ओर देखा. उस के चेहरे से वेदना फूट पड़ी, ‘‘ऐसा न कहो, सीमा दीदी, ऐसा न कहो. यह बिल्लू है, मेरा प्यारा बिल्लू. जानती हो, यह इतना सा था जब मेरे पति ने इसे पाला था. उन्होंने खुद चाय पीनी छोड़ दी थी और दूध बचा कर इसे पिलाते थे, प्यार से इसे पुचकारते थे, दुलारते थे. और अब, अब मैं इसे दुत्कार कर छोड़ दूं, जल्लादों के हवाले कर दूं, इसलिए कि यह बूढ़ा हो गया है, बीमार है, इसे खुजली हो गई है. नहीं दीदी, नहीं, मैं इस की सेवा करूंगी, इस के जख्म धोऊंगी क्योंकि यह मेरे लिए साधारण कुत्ता नहीं है, यह बिल्लू है, मेरे पति का जान से भी प्यारा बिल्लू. और जो चीज मेरे पति को प्यारी है, वह मुझे भी प्यारी है, चाहे वह बीमार कुत्ता ही क्यों न हो.’’

सीमा ठगी सी खड़ी रह गई. आंसुओं के सागर में डूबी यह भोंदू क्या कह रही है. उसे लगा जैसे लीला के शब्द उस के कानों के परदों पर हथौड़ों की तरह पड़ रहे हों और उस का बिल्लू भौंभौं कर के उसे अपने घर से भगा देना चाहता हो.

अकस्मात ही उस की रुलाई फूट पड़ी और उस ने लीला का आंसुओंभरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया, ‘‘मत रो, मेरी लीला, आज तुम ने मेरी आंखों के जाले साफ कर दिए हैं. आज मैं समझ गई कि तुम्हारा पति तुम से इतना प्यार क्यों करता है. तुम उस जानवर को भी प्यार करती हो जो तुम्हारे पति को प्यारा है. और मैं, मैं उन इंसानों से प्यार करने की भी कीमत मांगती हूं, जो अटूट बंधनों से मेरे पति के मन के साथ बंधे हैं. तुम्हारे घर का जर्राजर्रा तुम्हारे प्यार का दीवाना है और मेरे घर की एकएक ईंट मुझे अजनबी समझती है. लेकिन अब नहीं, मेरी लीला, अब ऐसा नहीं होगा.’’

लीला ने हैरान हो कर सीमा को देखा. सीमा ने अपने घर की तरफ रुख कर लिया. अपनी गलतियों को सुधारने की प्रबल इच्छा उस की आंखों में दिख रही थी.

बस एक भूल : शादी की वह रात

जब बड़ी बेटी मधु की शादी में विद्यासागर के घर शहनाई बज रही थी, तो खुशी से उन की आंखें भर आईं.

उधर बरातियों के बीच बैठे राजेश के पिता की भी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उन के एकलौते बेटे की शादी मधु जैसी सुंदर व सुशील लड़की से हो रही थी.

लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह शादी उन के लिए सिरदर्द बनने वाली है. शादी को अभी 2 दिन भी नहीं हुए थे कि मधु राजेश को नामर्द बता कर मायके आ गई.

यह बात दोनों परिवारों के गांवों में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. सब अपनीअपनी कहानियां बनाने लगे. कोई कहता कि राजेश ज्यादा शराब पी कर नामर्द बन गया है, तो कोई कहता कि वह पैदाइशी नामर्द था. इस से दोनों परिवारों की इज्जत धूल में मिल गई.

राजेश जहां भी जाता, गांव वालों से यही सुनने को मिलता कि उन्हें तो पहले से ही मालूम था कि आजकल की लड़की उस जैसे गंवार के साथ नहीं रह सकती.

विद्यासागर के दुखों का तो कोई अंत ही नहीं था. वे बस एक ही बात कहते, ‘मैं अपनी बेटी को कैसी खाई में धकेल रहा था…’

मधु के घर में मातम पसरा हुआ था, पर जैसे उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

मधु की ससुराल वाले बस यही चाहते थे कि वे किसी तरह से मधु को अपने यहां ले आएं, क्योंकि गांव वाले उन को इतने ताने मार रहे थे कि उन का घर से निकलना मुश्किल हो गया था.

राजेश के पिता विद्यासागर से बात करना चाहते थे, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया था.

कुछ दिनों बाद मधु की ससुराल वाले कुछ गांव वालों के साथ मधु को लेने आए, तो मधु ने जाने से साफ इनकार कर दिया.

विद्यासागर ने भी मधु की ससुराल वालों की उन के गांव वालों के सामने जम कर बेइज्जती कर दी और धमकाते हुए कहा, ‘‘आज के बाद यहां आया, तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा.’’

यह सुन कर राजेश के पिता भी उन्हें धमकाने लगे, ‘‘अगर तुम अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं भेजोगे, तो मैं तुम पर केस कर दूंगा.’’

विद्यासागर ने कहा, ‘‘जो करना है कर ले, पर मैं अपनी बेटी को तेरे घर कभी नहीं भेजूंगा.’’

मामला कोर्ट में पहुंच गया. मधु तलाक चाहती थी, पर राजेश उसे रखना चाहता था.

कुछ दिनों तक केस चला, लेकिन दोनों परिवारों की माली हालत कमजोर होने की वजह से उन्होंने आपस में समझौता कर लिया व तलाक हो गया.

मधु बहुत खुश थी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी.

एक दिन जब मधु सुबहसवेरे दुकान पर जा रही थी, तो वहां उसे दीपक दिखाई दिया, जो उस के साथ पढ़ता था.

मधु ने दीपक को धीरे से कहा, ‘‘आज शाम को मैं तेरा इंतजार मंदिर में करूंगी. वहां आ जाना.’’

दीपक ने कुछ जवाब नहीं दिया. मधु मुसकरा कर चली गई.

जब शाम को वे दोनों मंदिर में मिले, तो मधु ने खुशी से कहा, ‘‘देख दीपक, मैं तेरे लिए सब छोड़ आई हूं. वह रिश्ता, वह नाता, सबकुछ.’’

‘‘मेरे लिए… तुम कहना क्या चाहती हो मधु?’’ दीपक ने थोड़ा चौंक कर उस से पूछा.

‘‘दीपक, मैं सिर्फ तुम से प्यार करती हूं और तुम से ही शादी करना चाहती हूं,’’ मधु ने थोड़ा बेचैन अंदाज में कहा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो मधु?’’ दीपक ने फिर पूछा.

मधु ने कहा, ‘‘मैं सच कह रही हूं दीपक. मैं तुम से प्यार करती हूं. कल यह समाज मेरे फैसले का विरोध करे, इस से पहले हम शादी कर लेते हैं.’’

‘‘मधु, तुम पागल तो नहीं हो गई हो. जब गांव वाले सुनेंगे, तो मुझे जान से मार देंगे और पता नहीं, मेरी मां मेरा क्या हाल करेंगी?’’ दीपक ने थोड़ा घबरा कर कहा.

‘‘क्या तुम गांव वालों और अपनी मां से डरते हो? क्या तुम ने मुझ से प्यार नहीं किया?’’

‘‘हां मधु, मैं ने तुम से ही प्यार किया है, पर तुम से शादी करूंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा.’’

मधु ने गुस्से में कहा ‘‘धोखेबाज, तू ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा, पर मैं सिर्फ तेरे बारे में ही सोचती रही. ऐसा न हो कि मैं कल किसी और की हो जाऊं. चल, शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने दीपक का हाथ पकड़ कर कहा.

‘‘नहीं मधु, मुझे अपनी मां से बहुत डर लगता है. अगर हम दोनों ने ऐसा किया, तो गांव में हम दोनों की बदनामी होगी,’’ दीपक ने समझाते हुए कहा.

मधु ने बोल्ड अंदाज में कहा, ‘‘तुम अपनी मां और गांव वालों से डरते होगे, पर मैं किसी से नहीं डरती. मैं करूंगी तुम्हारी मां से बात.’’

दीपक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर मधु ने अपनी जिद के आगे उस की एक न सुनी.

अगले दिन जब मधु दीपक की मां से बात करने गई, तो उस की मां ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी गिरी हुई लड़की हो. तुम ने इस नाजायज प्यार के लिए अपना ही घर उजाड़ दिया.’’

‘‘मैं अपना घर उजाड़ कर नहीं आई मांजी, बल्कि दीपक के लिए सब छोड़ आई हूं. मेरे लिए दीपक ही सबकुछ है. मुझे अपनी बहू बना लीजिए, वरना मैं मर जाऊंगी,’’ मधु ने गिड़गिड़ा कर कहा.

‘‘तो मर जा, लेकिन मुझे सैकंडहैंड बहू नहीं चाहिए,’’ दीपक की मां ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘मैं सैकंडहैंड नहीं हूं मांजी. मैं वैसी ही हूं, जैसी गई थी,’’ मधु ने कहा.

‘‘लगता है कि शादी के बाद तुझ में कोई शर्मलाज नहीं रही है. अंधे प्यार ने तुझे पागल बना दिया है. दीपक तेरे गांव का है… तेरा भाई लगेगा. मैं तेरे पापा को सब बताऊंगी,’’ दीपक की मां ने मधु को धमकाते हुए कहा.

इस के आगे मधु ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप वहां से चली गई.

दीपक की मां ने विद्यासागर से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी दीपक के प्यार के चलते ही अपनी ससुराल में न बस सकी. अपनी बेटी को बस में रखो, वरना एक दिन वह तुम्हारी नाक कटा देगी.’’

यह सुनते ही विद्यासागर का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

विद्यासागर ने घर जाते ही मधु से गुस्से में पूछा, ‘‘मधु, वह लड़का सच में नामर्द था या फिर तुम ने उसे नामर्द बना दिया?’’

‘‘वह मुझे पसंद नहीं था,’’ मधु ने बेखौफ हो कर कहा.

‘‘इसलिए तुम ने उसे नामर्द बना दिया,’’ विद्यासागर ने गुस्से में कहा.

‘‘हां,’’ मधु बोली.

‘‘मतलब, तुम ने पहले ही सोच लिया था कि यह रिश्ता तोड़ना है?’’

‘‘हां.’’

फिर विद्यासागर उसे बहुतकुछ सुनाने लगे, ‘‘जब तुम्हें रिश्ता तोड़ना ही था, तो यह रिश्ता जोड़ा ही क्यों? जब रिश्ते की बात हो रही थी, तो मैं ने बारबार पूछा था कि यह रिश्ता पसंद है न? हर बार तू ने हां कहा था. क्यों?

‘‘तेरी ससुराल वाले मुझ से बारबार एक ही बात कह रहे थे कि राजेश नामर्द नहीं है, पर मैं ने तुझ पर भरोसा कर के उन की एक न सुनी.

‘‘वह मेरी मजबूरी थी, क्योंकि आप से कहीं रिश्ता हो ही नहीं रहा था. बड़ी मुश्किल से आप ने मेरे लिए एक रिश्ता तय किया, तो मैं उसे कैसे नकार देती?’’ मधु ने शांत लहजे में कहा.

‘‘जानती हो कि तुम्हारे चलते मैं आज कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं. तेरी शादी का कर्ज अभी तक मेरे सिर पर है. सोचा था कि इस साल तेरी छोटी बहन की शादी कर देंगे, पर तुझ से छुटकारा मिले तब न.’’

मधु पिता की बात ऐसे सुन रही थी, जैसे उस ने कुछ गुनाह ही न किया हो.

‘‘जेब में एक पैसा नहीं है. तेरा छोटा भाई अभी 10 साल का है. उस से अभी क्या उम्मीद करूं? आसपास के लोग तो बस हम पर हंसते हैं.

‘‘पता नहीं, आजकल के बच्चों को हो क्या गया है. वे रिश्तों की अहमियत क्यों नहीं समझाते हैं. रिश्ता तोड़ना तो आजकल एक खेल सा बन गया है. इस से मांबाप की कितनी परेशानी बढ़ती है, यह आजकल के बच्चे समझे तब न.

‘‘वैसे भी लड़कियों को रिश्ता तोड़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया है कि लड़का पसंद न हो, तो उसे नामर्द बता दो. यह एक ऐसी बीमारी है, जिस का कोई इलाज ही नहीं है,’’ इस तरह एकतरफा गरज कर मधु के पिता बाहर चले गए.

यह बात धीरेधीरे पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले मधु के खिलाफ होने लगे. अब तो उस का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया.

दीपक भी अपनी मां के कहने पर नौकरी के लिए शहर चला गया.

विद्यासागर ने मधु की दूसरी शादी कराने की बहुत कोशिश की, पर कहीं बात नहीं बनी. वे जानते थे कि लड़की की एक बार शादी होने के बाद उस की दूसरी शादी कराना बड़ा ही मुश्किल होता है.

इस तरह एक साल गुजर गया. मधु को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. वह बारबार यही सोचती, ‘मैं ने क्यों अपना घर उजाड़ दिया? मेरे चलते ही परिवार वाले मुझ से नफरत करते हैं.’

फिर बड़ी मुश्किल से मधु के लिए एक रिश्ता मिला. उस आदमी की बीवी कुछ महीने पहले मर गई थी. वह विदेश में रह कर अच्छा पैसा कमाता था.

मधु की मां ने उस से पूछा, ‘‘सचसच बताना कि तुझे यह रिश्ता मंजूर है?’’

मधु ने धीरे से कहा, ‘‘हां.’’

मां ने कहा, ‘‘इस बार कुछ गड़बड़ की, तो अब इस घर में भी जगह नहीं मिलेगी.’’

मधु बोली, ‘‘ठीक है.’’

फिर मधु की शादी गांव से दूर एक शहर में कर दी गई. वह आदमी भी मधु को देख कर बहुत खुश था.

जब मधु एयरपोर्ट पर अपने पति के साथ विदेश जाने लगी, तो उस के परिवार वालों ने सबकुछ भुला कर उसे विदा किया. उस की मां ने नम आंखों से जातेजाते मधु से पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

मधु ने भी नम आंखों से कहा, ‘‘खुश हूं. एक गलती कर के पछता रही हूं. अब मैं भूल से भी ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.’’

विद्यासागर ने मधु से भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मधु, मैं ने गुस्से में तुम से जोकुछ भी कहा, उसे भूल जाना.’’

कुछ देर बाद पूरे परिवार ने नम आंखों से मधु को विदा कर दिया.

दबी हुई परतें : संजना दीदी ने कर दिया हैरान

हमारे संयुक्त परिवार में संजना दीदी सब से बड़ी थीं. बड़ी होने के साथसाथ लीडरशिप की भावना उन में कूटकूट कर भरी थी, इसीलिए हम सब भाईबहन उन के आगेपीछे घूमते रहते थे और वे निर्देश देतीं कि अब क्या करना है. वे जो कह दें, वही हम सब के लिए एक आदर्श वाक्य होता था.

सब से पहले उन्होंने साइकिल चलानी सीखी, फिर हम सब को एकएक कर के सिखाया. वैसे भी, चाहे खेल का मैदान हो या पढ़ाईलिखाई या स्कूल की अन्य गतिविधियां, दीदी सब में अव्वल ही रहती थीं. इसी वजह से हमेशा अपनी कक्षा की मौनीटर भी वही रहीं.

हां, घरेलू कामकाज जैसे खाना बनाना या सिलाईबुनाई में दीदी को जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, इसीलिए उन की मां यानी मेरी ताईजी की डांट उन पर अकसर पड़ती रहती थी. पर इस डांटडपट का कोई असर उन पर होता नहीं था.

मुझ से तो 8-10 साल बड़ी थीं वे, इसीलिए मैं तो एक प्रकार से उन की चमची ही थी. मुझ से वे लाड़ भी बहुत करती थीं. कभीकभी तो मेरा होमवर्क तक कर देती थीं, कहतीं, ‘चल तू थक गई होगी रितु, तेरा क्लासवर्क मैं कर देती हूं, फिर तू भी खेलने चलना.’

बस, मैं तो निहाल हो जाती. इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि स्कूल में दीदी की हैंडराइटिंग देख कर टीचर मुझे डांटेगीं. पर उस उम्र में इतनी समझ भी कहां थी.

हंसतेखेलते हम भाईबहन बड़े हो रहे थे. दीदी तब कालेज में बीए कर रही थीं कि ताऊजी को उन के विवाह की फिक्र होने लगी. ताऊजी व दादाजी की इच्छा थी कि सही उम्र में विवाह हो जाना चाहिए. लड़कियों को अधिक पढ़ाने से क्या फायदा, फिर अभी इस उम्र में तो सब लड़कियां अच्छी लगती ही हैं, इसलिए लड़का भी आसानी से मिल जाएगा. वैसे, दीदी थी तो स्मार्ट पर रंग थोड़ा दबा होने की वजह से 2 जगहों से रिश्ते वापस हो चुके थे.

दीदी का मन अभी आगे पढ़ने का था. पर बड़ों के आगे उन की एक न चली. एक अच्छा वर देख कर दादाजी ने उन का संबंध तय कर ही दिया. सुनील जीजाजी अच्छी सरकारी नौकरी में थे. संपन्न परिवार था. बस, ताऊजी और दादाजी को और क्या चाहिए था.

दीदी बीए का इम्तिहान भी नहीं दे पाई थीं कि उन का विवाह हो गया. घर में पहली शादी थी तो खूब धूमधाम रही. गानाबजाना, दावतें सब चलीं और आखिरकार दीदी विदा हो गईं.

सब से अधिक दुख दीदी से बिछुड़ने का मुझे था. मैं जैसे एकदम अकेली हो गई थी. फिर कुछ दिनों बाद चाचा के बेटे रोहित को विदेश में स्कौलरशिप मिली थी बाहर जा कर पढ़ाई करने की, तो घर में एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया. दीदी को भी ससुराल से लाने के लिए भैया को भेजा गया पर ससुराल वालों ने कह दिया कि ऐसे छोटेमोटे समारोह के लिए बहू को नहीं भेजेंगे और अभीअभी तो आई ही है.

हम लोग मायूस तो थे ही, ऊपर से भैया ने जो उन की ससुराल का वर्णन किया उस से और भी दुखी हो गए, “अरे, हमारी संजना दी को ताऊजी ने पता नहीं कैसे घर में ब्याह दिया. हमारी दी जो फर्राटे से शहरभर में स्कूटर पर घूम आती थीं, वे वहां घूंघट में कैद हैं. इतना बड़ा घर, ढेर सारे लोग, मैं तो खुल कर दीदी से बात भी नहीं कर पाया.”

अच्छा तो क्या सभी ससुरालें ऐसी ही होती हैं? मेरे सपनों को जैसे एक आघात लगा था. मैं तो सोच रही थी कि वहां ताईजी, मां जैसे डांटने वाले या टोकने वाले लोग तो होंगे नहीं, आराम से जीजाजी के साथ घूमतीफिरती होंगी. खूब मजे होंगे. मन हुआ कि जल्दी ही दीदी से मिलूं और पूछूं कि आप तो परदे, घूंघट सब के इतने खिलाफ थीं, इतने लैक्चर देती रहती थीं, अब क्या हुआ?

फिर कुछ ही दिनों बाद जीजाजी को किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में महीनेभर के लिए बैंगलुरु जाना था तो दीदी जिद कर के मायके आ गई थीं. मैं तो उन्हें देखते ही चौंक गई थी, इतनी दुबली और काली लगने लगी थीं.

मां ने तो कह भी दिया था, “अरे संजना बेटा, लड़कियां तो ससुराल जा कर अच्छी सेहत बना कर आती हैं. पर तुझे क्या हुआ?”

पर धीरेधीरे पता चला कि ससुराल वाले उन से खुश नहीं हैं. सास तो अकसर ताना देती रहती हैं कि पता नहीं कैसे मांबाप हैं इस के कि घर के कामकाज तक नहीं सिखाए, चार लोगों का खाना तक नहीं बना सकती ये बहू, अब इस की पढ़ाई को क्या हम चाटें.

“मां, मैं अब ससुराल नहीं जाऊंगी, मेरा वहां दम घुटता है. सास के साथ ये भी हरदम डांटते रहते हैं और मेरी कमियां निकालते हैं,” एक दिन रोते हुए वे ताईजी से कह रही थीं तो मैं ने भी सुन लिया. पर ताईजी ने उलटा उन्हें ही डांटा. “पागल हो गई है क्या? ससुराल छोड़ कर यहां रहेगी, समाज में हमारी थूथू कराने आई है. अरे, हमें अभी अपनी और लड़कियां भी ब्याहनी है, कौन ब्याहेगा फिर रंजना और वंदना को, बता?”

इधर मां ने भी दीदी को समझाया, “देख बेटा, हम तो पहले ही कहते थे कि घर के कामकाज सीख ले. ससुराल में सब से पहले यही देखा जाता है. पर कोई बात नहीं, अभी कौन सी उम्र निकल गई है. अब सिखाए देते हैं. अच्छा खाना बनाएगी, सलीके से घर रखेगी तो सास भी खुश होगी और हमारे जमाईजी भी.”

दीदी के नानुकुर करने पर भी मां उन्हें जबरन चौके में ले जातीं और तरहतरह के व्यंजन, अचार आदि बनाने की शिक्षा देतीं. हम लोग सोचते ही रह जाते कि कब दीदी को समय मिलेगा और हम लोगों के साथ हंसेगी, खेलेंगी, बोलेंगी.

एक महीना कब निकल गया, मालूम ही नहीं पड़ा था. जीजाजी आ कर दीदी को विदा करा के ले गए. मैं फिर सोचती कि पता नहीं हमारी दीदी के साथ ससुराल में कैसा सुलूक होता होगा. फिर पढ़ाई का बोझ दिनोंदिन बढ़ता गया और दीदी की यादें कुछ कम हो गईं.

2 वर्षों बाद भैया की शादी में दीदी और जीजाजी भी आए थे. पर अब दीदी का हुलिया ही बदल हुआ लगा. वैसे, सेहत पहले से बेहतर हो गई थी पर वे हर समय साड़ी में सिर ढके रहतीं?

‘‘दीदी, यह तुम्हारी ससुराल थोड़े ही है, जो चाहे, वह पहनो,’’ मुझ से रहा नहीं गया और कह दिया.

‘‘देख रितु, तेरे जीजाजी को जो पसंद है वही तो करना चाहिए न मुझे. अब अगर इन्हें पसंद है कि मैं साड़ी पहनूं, सिर ढक कर रहूं, तो वही सही.’’

‘‘अच्छा, इतनी आज्ञाकारिणी कब से हो गई हो?’’ मैं ने चिढ़ कर कहा.

‘‘होना पड़ता है बहना, घर की सुखशांति बनाए रखने के लिए अपनेआप को बदलना भी पड़ता है. ये सब बातें तुम तब समझोगी, जब तेरी शादी हो जाएगी,’’ कह कर दीदी ने बात बदल दी.

पर मैं देख रही थी कि दीदी हर समय जीजाजी के ही कामों में लगी रहतीं. उन के लिए अलग से चाय खुद बनातीं. खाना बनता तो गरम रोटी सिंकते ही पहले जीजाजी की थाली खुद ही लगा कर ले जातीं. कभी उन के लिए गरम नाश्ता बना रही होतीं तो कभी उन के कपड़े निकाल रही होतीं.

एक प्रकार से जैसे वे पति के प्रति पूर्ण समर्पित हो गई थीं. जीजाजी भी हर काम के लिए उन्हें ही आवाज देते.

‘‘संजू, मेरी फलां चीज कहां हैं, यह कहां है, वह कहां है.’’

मां, ताईजी तो बहुत खुश थीं कि हमारी संजना ने आखिरकार ससुराल में अपना स्थान बना ही लिया.

मैं अब अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गई थी. 2 वर्षों के लिए जिद कर के होस्टल में रहने चली गई थी. बीच में दीदी मायके आई होंगी पर मेरा उन से मिलना हो नहीं पाया.

एक बार फिर छुट्टियों में मैं उन की ससुराल जा कर ही उन से मिली थी. अब तो दीदी के दोनों जेठों ने अलग घर बना लिए थे. सास बड़े जेठ के पास रहती थीं. इतने बड़े घर में दीदी, जीजाजी और उन के दोनों बच्चे ही थे.

‘‘दीदी, अब तो आप आराम से अपने हिसाब से जी सकती हो और अपने शौक भी पूरे कर सकती हो,’’ मैं ने उन्हें इस बार भी हरदम सिर ढके देख कर कह ही दिया.

‘‘देख रितु, मैं अब अच्छी तरह समझ गई हूं कि अगर मुझे इस घर में शांति बनाए रखनी है तो मुझे तेरे जीजाजी के हिसाब से ही अपनेआप को ढालना होगा. तभी ये मुझे से खुश रह सकते हैं. ये एक परंपरागत परिवार से जुडे़ रहे हैं तो जाहिर है कि सोच भी उसी प्रकार की है.’’

यह सच भी था कि दीदी ने अपनेआप को जीजाजी की रुचि के अनुसार ढाल लिया था. वैसे, घर में काफी नौकरचाकर थे पर चूंकि जीजाजी किसी के हाथ का बना खाना खाते नहीं थे इसलिए दीदी स्वयं ही दोनों समय का खाना यहां तक कि नाश्ता तक स्वयं बनातीं. और तो और पूरा घर भी जीजाजी की रुचि के अनुसार ही सजा हुआ था. घर में ढेरों पुस्तकें, कई महापुरुषों के फोटो हर कमरे में थे. अब तो आसपास के लोग भी इस जोड़े को आदर्श जोड़े का नाम देने लगे थे.

शादी के बाद मैं पति के साथ अमेरिका चली गई. देश की धरती से दूर. साल 2 साल में कभी कुछ दिनों के लिए भारत आती तो भी दीदी से कभी 2-4 दिनों के लिए ही मिलना हुआ और कभी नहीं.

हां, यह अवश्य था कि अगर मैं कभी अपने पति सुभाष की कोई शिकायत मां से करती तो वे फौरन कहतीं, ‘अपनी संजना दीदी को देख, कैसे बदला है उस ने अपनेआप को. कैसे सुनीलजी लट्टू हैं उन पर. अरे, तुझे तो सारी सुविधाएं मिली हुई हैं, आजादी के माहौल में रह रही है, फिर भी शिकायतें.’

मैं सोचती कि भले ही मैं अमेरिका में हूं पर पुरुष मानसिकता जो भारत में है वही इन की अमेरिका में भी है. अब मैं कहां तक अपनेआप को बदलूं. आखिर इन्हें भी तो कुछ बदलना चाहिए.

बस, ऐसे ही खट्टीमीठी यादों के साथ जिंदगी चल रही थी. फिर अचानक ही दुखद समाचार मिला सुनील जीजाजी के निधन का. मैं तो हतप्रभ रह गई. दीदी की शक्ल जैसे मेरी आंखों के सामने से हट ही नहीं पा रही थी. कैसे संभाला होगा उन्होंने अपनेआप को. वे तो पूरी तरह से पति की अनुगामिनी बन चुकी थीं. भारत में होती तो अभी उन के पास पहुंच जाती. फिर किसी प्रकार 6 महीने बाद आने का प्रोग्राम बना. सोचा कि पहले कोलकाता जाऊंगी दीदी के पास. बाद में भोपाल अपनी ससुराल और फिर ग्वालियर अपने मायके.

दीदी को फोन पर मैं ने अपने आने की सूचना भी दे दी और कह भी दिया था कि आप चिंता न करें, मैं टैक्सी ले कर घर पहुंच जाऊंगी. अब अकेले आनेजाने का अच्छा अभ्यास है मुझे.

‘ठीक है रितु,’ दीदी ने कहा था.

पर रास्तेभर मैं यही सोचती रही कि दीदी का सामना कैसे करूंगी. सांत्वना के तो शब्द ही नहीं मिल रहे थे मुझे. वे तो इतनी अधिक पति के प्रति समर्पित रही हैं कि क्या उन के बिना जी पाएंगी. जितना मैं सोचती उतना ही मन बेचैन होता रहा था.

पर कोलकाता एयरपोर्ट पर पहुंच कर तो मैं चौंक ही गई. दीदी खड़ी थीं. सामने ड्राइवर हेमराज के साथ और उन का रूप इतना बदला हुआ था. कहां मैं कल्पना कर रही थी कि वे साड़ी से सिर ढके उदास सी मिलेंगी पर यहां तो आकर्षक सलवार सूट में थीं. बाल करीने से पीछे बंधे हुए थे. माथे पर छोटी सी बिंदी भी थी. उम्र से 10 साल छोटी लग रही थीं.

‘‘दीदी, आप? आप क्यों आईं, मैं पहुंच जाती.’’

मैं कह ही रही थी कि हेमराज ने टोक दिया, ‘‘अरे, ये तो अकेली आ रही थीं, कार चलाना जो सीख लिया है. मैं तो जिद कर के साथ आया कि लंबा रास्ता है और रात का टाइम है.’’

‘‘अच्छा.’’

मुझे तो लग रहा था कि जैसे मैं दीदी से पिछड़ गई हूं. इतने साल अमेरिका में रह कर भी मुझे अभी तक गाड़ी चलाने में झिझक होती है और दीदी हैं…लग भी कितनी स्मार्ट रही हैं. रास्तेभर वे हंसतीबोलती रहीं, यहां तक कि जीजाजी के बारे में कोई खास बात नहीं की उन्होंने. मैं ने ही 2-4 बार जिक्र किया तो टाल गई थीं.

घर पहुंच कर मैं ने देखा कि अब तो पूरा घर दीदी की रुचि के अनुसार ही सजा हुआ है. उन की पसंद की पुस्तकें सामने शीशे की अलमारी में नजर आ रही थीं. कई संस्थाओं के फोटो भी लगे हुए थे. पता चला कि अब चूंकि पर्याप्त समय था उन के पास, इसलिए अब कई सामाजिक संस्थाओं से भी वे जुड़ गई थीं और अपनी पसंद के कार्य कर रही थीं.

अब तो खाना बनाने के लिए भी एक अलग नौकर सूरज था उन के पास. सुबह ब्रैकफास्ट में भी पूरी टेबल सजी रहती. फलजूस और कोई गरम नाश्ता. लंच में भी पूरी डाइट रहती थी. भले ही उन का अकेले का खाना बना हो पर वे पूरी रुचि और सुघड़ता से ही सब कार्य करवाती थीं. ड्राइवर रोज शाम को आ जाता. अगर कहीं मिलने नहीं भी जाना हो, तो वे खुद ड्राइविंग करतीं लेकिन ड्राइवर साथ रहता.

कहने का मतलब यह है कि वे अपने सभी शौक पूरे कर रही थीं. फिर भी अकेलापन तो था ही, इसीलिए मैं ने कह ही दिया, ‘‘दीदी, यहां इतने बड़े मकान में, इस महानगर में अकेली रह रही हो, बेटे के पास जमशेदपुर…’’

‘‘नहीं रितु, अब कुछ साल मरजी से, अपनी खुशी के लिए. अभी तक तो सब के हिसाब से जीती रही, अब कुछ साल तो जिऊं अपने लिए, सिर्फ अपने लिए.’’

मैं अवाक हो कर उन का मुंह ताक रही थी.

मरियम : पिता को जहरीली खीर खिलाने वाली देशभक्त बेटी

जब वह छोटी थी, तो मां यह कह कर उसे बहला दिया करती थी कि पापा परदेश में नौकरी कर रहे हैं और उस के लिए ढेर सारा पैसा ले कर आएंगे. लेकिन मरियम अब बड़ी हो गई थी और स्कूल जाने लगी थी.

एक बार मरियम ने मां से कहा, ‘‘मम्मी, न तो पापा खुद आते हैं, न ही कभी उन का फोन आता है. क्या वे हम से नाराज हैं?’’

मरियम के इस सवाल पर फिरदौस कहतीं, ‘‘नहीं बेटी, तुम्हारे पापा तो दुनिया में सब से अच्छे पापा हैं. वे हम लोगों से बहुत प्यार करते हैं, लेकिन वे जहां नौकरी करते हैं, वहां छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए आ नहीं पाते हैं.’’

मां की बातों से मरियम को तसल्ली तो मिल जाती, लेकिन पिता की याद कम नहीं हो पाती थी. समय हवा के झोंके की तरह बीतता रहा. मरियम अब 5वीं जमात की एक समझदार बच्ची बन चुकी थी.

एक दिन स्कूल की छुट्टी के समय मरियम ने देखा कि उस के स्कूल की एक छात्रा सुमन ने दौड़ कर अपने पापा के गले से लिपट कर कहा कि आज हम पहले आइसक्रीम खाएंगे, उस के बाद घर जाएंगे.

यह देख कर मरियम को अपने पापा की याद बहुत आई. वह स्कूल से घर आई, तो बगैर कुछ खाएपीए सीधे अपने कमरे में जा कर लेट गई.

घर के काम निबटा कर फिरदौस मरियम के पास आ कर बैठ गईं और उस के काले खूबसूरत बालों में हाथ से कंघी करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज हमारी बेटी कुछ उदास लग रही है?’’

फिरदौस का इतना पूछना था कि मरियम फफक कर रो पड़ी, ‘‘मम्मी, आप मुझ से झठ बोलती हैं न कि पापा दुबई में नौकरी करते हैं? अगर वे दुबई में हैं, तो फोन पर हम लोगों से बात क्यों नहीं करते हैं?’’

अब फिरदौस के लिए सचाई को छिपा कर रख पाना बहुत मुश्किल हो गया.

‘‘अच्छा, पहले तुम खाना खा लो. आज मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बता दूंगी,’’ कहते हुए फिरदौस मरियम के लिए खाना लेने चली गईं.

जब फिरदौस खाना ले कर कमरे आईं, तो मरियम ने उन से कहा, ‘‘मम्मी, आप को पापा के बारे में जोकुछ बताना है, बताती जाइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा इंजीनियर थे और दुबई में नौकरी करते थे. मैं भी उन्हीं के साथ रहती थी.’’

‘‘मम्मी, आप बारबार ‘थे’ शब्द का क्यों इस्तेमाल कर रही हैं? क्या पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं?’’ इतना कह कर वह रोने लगी.

‘‘नहीं बेटी, पापा जिंदा हैं.’’ मरियम तुरंत आंसू पोंछ कर चुप हो गई. उसे डर था कि कहीं मम्मी सचाई बताए बगैर चली न जाएं.

फिरदौस ने बात का सिलसिला फिर से शुरू करते हुए कहा, ‘‘12 साल पहले की बात है, जब तुम्हारे पापा और मैं दुबई से भारत आए थे. हम दोनों ही बहुत खुश थे, लेकिन हमें क्या पता था कि इस के बाद हम सब एक ऐसी मुसीबत में पड़ जाएंगे, जिस से छुटकारा पाना नामुमकिन हो जाएगा.’’

‘‘शहर में दंगा हो गया. हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे.

‘‘जैसेतैसे कर के जब फसाद थोड़ा थमा, तो हम दुबई जाने के लिए तैयार हो गए. यह भी एक अजीब इत्तिफाक था कि जिस दिन हमारी फ्लाइट थी, उसी दिन शहर में बम धमाके हो गए. इस में काफी लोगों की जानें चली गईं.

‘‘हम लोग दुबई तो पहुंच गए, लेकिन भारत से आने वाली हर खबर बड़ी संगीन थी. बम धमाकों के अपराधियों में तुम्हारे पापा का नाम भी आ रहा था.

‘‘तुम्हारे पापा को यह बात नामंजूर थी कि उन्हें कोई देशद्रोही या आतंकवादी समझे. उन्होंने किसी तरह भारत में रहने वाले अपने घरपरिवार और दोस्तों के जरीए पुलिस तक यह बात पहुंचाई कि वे बेकुसूर हैं और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए भारत आना चाहते हैं. कुछ दिनों के बाद तुम्हारे पापा भारत आ गए.

‘‘फिर वही हुआ, जिस का डर था. पुलिस ने हाथ आए तुम्हारे बेगुनाह मासूम पापा को उन बम धमाकों का मास्टरमाइंड बना कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया.

‘‘पिछले 12 सालों से तुम्हारे पापा जेल में हैं,’’ इतना कह कर फिरदौस फूटफूट कर रोने लगीं.

मरियम ने किसी संजीदा शख्स की तरह पूछा, ‘‘क्या मैं अपने पापा से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां बेटी, जरूर मिल सकती हो,’’ फिरदौस ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर रविवार को तुम्हारे पापा से मिलने जेल जाती हूं. अब तुम भी मेरे साथ चल सकती हो.’’

12 साल की बेटी जब सामने आई, तो शहजाद ने अपना चेहरा छिपा लिया. अपनी बेटी के सामने वे एक अपराधी की तरह जेल की सलाखों के पीछे खड़े हो कर जमीन में धंसे जा रहे थे.

‘‘पापा, क्या आप सचमुच अपराधी हैं?’’ मरियम के इस सवाल पर शहजाद घबरा गए.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा बेकुसूर हैं. उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है. बस, हालात ने जेल की सलाखों के पीछे ला कर खड़ा कर दिया है,’’ इतना कह कर शहजाद बेटी की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप निश्चिंत हो जाइए. चाहे सारी दुनिया आप को अपराधी समझे, पर बेटी की नजर में आप एक ईमानदार नागरिक और देशभक्त रहेंगे.’’

अब मरियम हर रविवार को अपने पापा से मिलने जेल जाने लगी. वह जब भी पापा से मिलने जाती, तो उन की पसंद की खाने की कोई न कोई चीज बना कर ले जाती और अपने हाथों से खिलाती.

बापबेटी की इस मुलाकात को 10 साल और गुजर गए. 22 साल की मरियम अब स्कूल से निकल कर कालेज में जाने लगी थी. पिछले 10 सालों से जेल का पूरा स्टाफ पिता और बेटी का मुहब्बत भरा मेलमिलाप बड़े शौक से देखता चला आ रहा था.

शहजाद ने अपनी जिंदगी के 22 साल जेल में कुछ इस तरह बिता दिए कि दुश्मन भी दोस्त बन गए. अनपढ़ कैदियों को पढ़ाना, बीमार कैदियों की सेवा करना व जरूरतमंद कैदियों की मदद करने की आदत ने उन्हें जेल में मशहूर बना दिया था.

कानून अंधा होता है, यह सिर्फ कहावत ही नहीं, बल्कि सच भी है. वह उतना ही देखता है, जितना उसे दिखाया जाता है. कानून के रखवालों ने शहजाद को एक आतंकवादी बना कर पेश किया था. उन के खिलाफ जो तानाबाना बुना गया, वह इतना मजबूत था कि इस अपराध से छुटकारा पाना उन के लिए नामुमकिन हो गया.

वैसे भी जिस पर आतंकवाद का ठप्पा लग जाए, फिर उस की सुनता कौन है? शहजाद के साथ मुल्क के नामीगिरामी वकील थे, लेकिन सब मिल कर भी उन्हें बेगुनाह साबित करने में नाकाम रहे.

निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक ने मौत की सजा को बरकरार रखा. मरियम और फिरदौस की दया की अपील को राष्ट्रपति महोदय ने भी ठुकरा दिया. फांसी की तारीख तय हो गई.

सुबह 4 बजे शहजाद को फांसी दी जानी थी. मरियम और फिरदौस के साथ जेल के कैदी भी उदास थे.

फिरदौस और मरियम आखिरी दीदार के लिए शहजाद की कोठरी में भेजे गए. बेटी और बीवी को देख शहजाद की आंखों की वीरानी और बढ़ गई.

मरियम ने बाप की हालत देख कर कहा, ‘‘पापा, आप की मौत का हम लोग जश्न मनाएंगे. लीजिए, आखिरी बार बेटी के हाथ की बनी खीर खा लीजिए.’’

शहजाद एक फीकी मुसकराहट के साथ करीब आए, तो मरियम ने अपने हाथों से उन्हें खीर खिलाई.

2 चम्मच खीर खाने के बाद ही शहजाद का चेहरा जर्द पड़ने लगा. मुंह से खून की उलटी शुरू हो गई.

शहजाद को उलटी करते देख जहां फिरदौस घबरा गईं, वहीं मरियम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप की बेगुनाही तो साबित न करा सकी, लेकिन आप को फांसी से बचा लिया.

‘‘अब दुनिया यह न कह सकेगी कि आतंकवाद के अपराध में शहजाद को फांसी पर लटका दिया गया. आप को इज्जत की जिंदगी तो न मिल सकी, पर हां, इज्जत की मौत जरूर मिल गई.’’

फिरदौस की चीख सुन कर जब तक पहरेदार शहजाद की खबर लेते, तभी मरियम ने भी जहरीली खीर के 2 चम्मच खा लिए.

जेल की उस काल कोठरी में अब 2 लाशें पड़ी थीं. एक को अदालत ने आतंकवादी होने की उपाधि दी थी, तो दूसरी को समाज ने आतंकवादी की बेटी करार दिया था. दोनों ही समाज और दुनिया से अब आजाद हो चुके थे.

अपने घर में: सासबहू की बेमिसाल जोड़ी

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अबोध : गौरा का खतरनाक कदम

माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ.

माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया.

माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती.

जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.

अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था.

माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.

शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था.

गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए.

गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे.

उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई.

गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गौरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता.

जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था.

जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तु?ो कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’

गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबू?ा कर उस से ज्यादा काम कराती थीं.

बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात होते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.

एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था.

मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’

सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझाती.’’

गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी.

दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे.

अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.

माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.

घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं.

घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मु?ो अब तेरे ही पास रहना है.’’

मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.

‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’

गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.

रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी.

आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.

सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’

गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’

गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए.

हवा के हलके ?ोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.

यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे.

गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी.

थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.

गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया.

अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था.

थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था.

जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी.

एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को सम?ाता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.

आस पूरी हुई : धोती और चप्पल बनी इज्जत का सवाल

रमेश्वर आज अपनी पहली कमाई से सोमरू के लिए नई धोती और कजरी के लिए  चप्पल लाया था. अपनी मां को उस ने कई बार राजा ठाकुर के घर में नईनई लाललाल चप्पलों को ताकते देखा था. वह चाहता था कि उस के पिता भी बड़े लोगों की तरह घुटनों के नीचे तक साफ सफेद धोती पहन कर निकलें, पर कभी ऐसा हो न सका था.

कजरी ने धोती और चप्पल संभाल कर रख दी और बेटे को समझ दिया कि कभी शहर जाएंगे तो पहनेंगे. गांव में बड़े लोगों के सामने सदियों से हम छोटी जाति की औरतें चप्पल पहन कर नहीं निकलीं तो अब क्या निकलेंगी.

कजरी मन ही मन सोच रही थी कि इन्हीं चप्पलों की खातिर राजा ठाकुर के बेटे ने कैसे उस से भद्दा मजाक किया था और घुटनों से नीचे तक धोती पहनने के चलते भरी महफिल में सोमरू को नंगा किया गया था.

कजरी और सोमरू धौरहरा गांव में रहते थे. सोमरू यानी सोनाराम और कजरी उस की पत्नी.

सोमरू कहार था और अपने पिता के जमाने से राजा ठाकुरों यहां पानी भरना, बाहर से सामान लाना, खेतखलिहानों में काम करना जैसी बेगारी करता था.

राजा ठाकुरों की गालीगलौज, मारपीट  जैसे उस के लिए आम बात थी. कजरी भी उस के साथसाथ राजा ठाकुरों के घरों में काम करती थी.

कजरी थी सलीकेदार, खूबसूरत और फैशनेबल भी. काम ऐसा सलीके से करती थी कि राजा ठाकुरों की बहुएं भी उस के सामने पानी भरती थीं.

एक दिन आंगन लीपते समय कजरी घर की नई बहू की चमचमाती नईनई चप्पलें उठा कर रख रही थी कि राजा ठाकुर के बड़े बेटे की नजर उस पर पड़ गई. उस ने कहा, ‘‘कजरी, चप्पल पहनने का शौक हो रहा है क्या…? बोलो तो तुम्हारे लिए भी ला दें, लेकिन सोमरू को मत बताना. हमारीतुम्हारी आपस की बात रहेगी.

‘‘तुम्हारे नाजुक पैर चप्पल बिना अच्छे नहीं लगते. सब के सामने नहीं पहन सकती तो क्या हुआ… मेरा कमरा है न… रात को मेरे कमरे में पहन कर आ जाना. कोई नहीं देखेगा मेरे अलावा.’’

कजरी का मन हुआ कि चप्पल उस के मुंह पर मार दे, पर क्या करती… एक भद्दी सी गाली दे कर चुप रह गई. कजरी आंगन लीप कर हाथ धोने बाहर जा रही थी तभी देखा कि राजा साहब सोमरू को बुला रहे थे.

सोमरू घर के बाहर झाड़ू लगा रहा था. राजा ठाकुर भरी महफिल के सामने गरजे, ‘‘अबे सोमरू, बहुत चरबी चढ़ गई है तुझे. कई दिन से देख रहा हूं तेरी धोती घुटनों से नीची होती जा रही है. राजा बनने का इरादा है क्या?

‘‘जो काम तुम्हारे बापदादा ने नहीं किया, तुम करने की जुर्रत कर रहे हो? लगता है, जोरू कुछ ज्यादा ही घी पिला रही है…’’ और राजा साहब ने सब के सामने उस की धोती खोल कर फेंक दी.

भरी सभा में यह सब देख कर लोग जोरजोर से हंसने लगे. एक गरीब आदमी सब के सामने नंगा हो गया था. सोमरू को तो जैसे काठ मार गया.

सोमरू इधरउधर देख रहा था कि कहीं कजरी उसे देख तो नहीं रही. दरवाजे के पीछे खड़ी कजरी को उस ने खुद देख लिया. वह जमीन में गड़ गया.

कजरी दरवाजे की ओट से सब देख रही थी. शरीर जैसे जम सा गया था. वह जिंदा लाश की तरह खड़ी थी.

कजरी और सोमरू एकदूसरे से नजरें नहीं मिला पा रहे थे. आखिर क्या कहते? कैसे दिलासा देते? दोनों अंदर ही अंदर छटपटा रहे थे.

कजरी ने सोमरू की थाली जरूर लगाई, पर वह रातभर वैसी ही पड़ी रही. दोनों पानी पी कर लेट गए, पर नींद किस की आंखों में थी? उन का दर्द इतना साझा था कि बांटने की जरूरत न थी.

कजरी का दर्द पिघलपिघल कर उस की आंखों से बह रहा था, पर सोमरू… वह तो पत्थर की मानिंद पड़ा था. कजरी के सामने बारबार अपने पति का भरी सभा में बेइज्जत किया जाना कौंध जाता था और सोमरू को कजरी की डबडबाई आंखें नहीं भूल रही थीं.

कजरी और सोमरू की जिंदगी यों ही बीत रही थी. बेटे रमेश्वर को उन्होंने जीतोड़ मेहनतमजदूरी, कर्ज ले कर पढ़ायालिखाया था.

सोमरू चाहता था कि उस के बेटे को कम से कम ऐसी जलालत भरी जिंदगी न जीनी पड़े. जिंदा हो कर भी मुरदों जैसे दिन न काटने पड़ें.

रमेश्वर पढ़लिख कर एक स्कूल में टीचर हो गया था और शहर में ही रहने लगा था. सोमरू चाहता भी नहीं था कि वह गांव लौटे. उन का बुढ़ापा जैसेतैसे कट ही जाएगा, पर बेटा खुशी और इज्जत से तो रहेगा.

सोमरू की एक आस मन में ही दबी थी कि वह और कजरी साथ घूमने जाएं.  कजरी अपनी मनपसंद चप्पल पहन कर उस के साथ शहर की चिकनी सड़क पर चले, जो रमेश्वर उस के लिए लाया था.

सोमरू अपने मन की आस किसी के सामने कह भी नहीं सकता था और कजरी को तो बिलकुल भी नहीं बता सकता था. कहां खाने के लाले पड़े थे और वह घूमने के बारे में सोच रहा है.

जमुनिया ताल के किनारे कजरी एक दिन बरतन धो रही थी. सोमरू भी वहीं बैठा था. उस दिन सोमरू ने अपने मन की बात कजरी को बताई, ‘‘बुढ़ापा आ गया  कजरी, पर मन की एक हुलस आज तक पूरी न कर पाया. चाहता था कि कसबे में चल रहे मेले में दोनों जन घूम आएं.’’

सोमरू एक बार उसे चप्पल पहने देखना चाहता था, जैसे नई ठकुराइन अपने ब्याह में पहन कर आई थीं.

रमेश्वर कितने प्यार से लाया था अपनी पहली कमाई से, पर इस गांव में यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी. जिंदगी बीत गई. अब जाने कितने दिन बचे हैं. एक बार मेला भी देख लें. कितना सुना है उस के बारे में. यह इच्छा पूरी हो जाए, फिर चाहे मौत ही क्यों न आ जाए, शिकायत न होगी.

कजरी को लगा कि सोमरू का दिमाग खिसक गया है. यह कोई उम्र है चप्पल पहन कर घूमने की. सारी जिंदगी नंगे पैर बीत गई. जब उम्र थी तब तो कभी न कहा कि चलो घूम आएं. अब बुढ़ापे में घूमने जाएंगे. उस समय तो कजरी ने कुछ न कहा, पर कहीं न कहीं सोमरू ने उस की दबी इच्छा जगा दी थी.

रात में कजरी सोमरू को खाना खिलाते समय बोली, ‘‘कहते तो तुम ठीक ही हो. जिंदगीभर कमाया और इस पापी पेट के हवाले किया. कुछ पैसा जोड़ कर रखे थे कि बीमारी में काम आएगा, पर लगता है कि अब थोड़ा हम अपने लिए भी जी लें, खानाकमाना तो मरते दम तक चलता ही रहेगा. पेट ने कभी बैठने दिया है इनसान को भला?’’

दोनों ने अगले महीने ही गांव से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर ओरछा के मेले में जाने की योजना बनाई.

पूरे महीने दोनों तैयारी करते रहे. पैसा इकट्ठा किया. कपड़ेलत्ते संभाले. गांव वालों को बताया. बेटों को बताया. नातेरिश्तेदारों को खबर की कि कोई साथ में जाना चाहे तो उन के साथ चले. आखिर कोई संगीसाथी मिल जाएगा तो भला ही होगा. जाने का दिन भी आ गया, पर कोई तैयार न हुआ.

गांव से 4 किलोमीटर पैदल जा कर एक कसबा था, जहां से ओरछा के लिए सीधी ट्रेन जाती थी. दोनों बूढ़ाबूढ़ी भोर में ही गांव से पैदल चल दिए.

स्टेशन तक पहुंचतेपहुंचते सूरज भी सिर पर आ गया था. 11 बजे दोनों ट्रेन में खुशीखुशी बैठ गए. आखिर बरसों की साध पूरी होने जा रही थी.

कजरी घर से ही खाना बना कर लाई थी. दोनों ने खाया और बाहर का नजारा देखतेदेखते जाने कब सफर पूरा हो गया, पता ही न चला.

रात में दोनों एक धर्मशाला के बाहर ही सो गए. अगले दिन सुबह मेले में शामिल हुए. पूरा दिन वहीं गुजारा. कजरी ने एकसाथ इतनी दुकानें कभी न देखी थीं. हर दुकान के सामने खड़ी हो कर वह वहां रखे चमकते सामान को देखती और अपनी गांठ में बंधे रुपयों पर हाथ फेरती. दुकान में घुस कर दाम पूछने की हिम्मत न पड़ती.

एक दुकान में दुकानदार के बहुत बुलाने पर सोमरू और कजरी घुसे. कजरी वहां रखी धानी रंग की चुनरी देख कर पीछे न हट सकी.

सोमरू ने उस के लिए डेढ़ सौ

रुपए की वह चुनरी खरीद ली और दुकान से बाहर आ गए.

अब सोमरू के पास कुछ ही पैसे बचे थे. वह सोच रहा था कि कजरी के पास भी कुछ रुपए होंगे. उस ने पूछा तो कजरी ने हां में सिर हिला दिया.

कजरी ने जातबिरादरी में बांटने के लिए टिकुली, बिंदी, फीता, चिमटी के अलावा और भी बहुत सा सामान खरीदा. आखिर वह इतने बड़े मेले में आई थी. पासपड़ोसी, नातेरिश्तेदार सब को कुछ न कुछ देना था. खाली हाथ वापस कैसे जाती.

कजरी आज जब चप्पल पहन कर चल रही थी, सोमरू को रानी ठाकुराइन के गोरेगोरे महावर सजे पैर याद आ गए. कजरी के पैर आज भी गोरे थे और सुहागन होने के चलते महावर उस के पैरों में हमेशा लगा रहता था.

कजरी लाललाल चप्पल पहन कर जैसे आसमान में उड़ रही थी. आज उसे किसी के सामने चप्पल उतारने की जरूरत न थी. लोग उसे देख रहे थे और वह लोगों को.

सोमरू ने आज घुटनों तक धोती पहनी थी. वह आज इतना खुश था, जितना अपनी शादी में भी न हुआ था.

आज 70 बरस की कजरी उस के साथसाथ पक्की सड़क पर सब के सामने लाललाल चप्पल पहने, धानी रंग की चुनरी ओढ़े ठाट से चल रही थी, मानो किसी बड़े घर की नईनई बहू ससुराल से मायके आई हो.

सोमरू आज अपनेआप को दुनिया का सब से रईस आदमी सम?ा रहा था.

दोनों घर वापस जाने के लिए स्टेशन आ गए. रात स्टेशन पर ही बितानी थी. ट्रेन सवेरे 5 बजे की थी. दोनों ने पास में बंधा हुआ खाना खाया और वहीं स्टेशन पर आराम करने लगे.

सोमरू सुबह टिकट लेने के लिए उठा. कजरी से बोला, ‘‘पैसे निकाल. टिकट ले लिया जाए. ट्रेन के आने का समय भी हो रहा है.’’

दोनों ने अपनेअपने पैसे निकाले और गिनने लगे. टिकट के लिए 40 रुपयों की जरूरत थी और दोनों के पास कुलमिला कर 38 रुपए ही हुए. अब वे क्या करें?

दोनों बारबार कपड़े, ?ोले को ?ाड़ते, सामान ?ाड़?ाड़ कर देखते, कहीं से 2 रुपए निकल जाएं. पर पैसे होते तब न निकलते.

दोनों ऐसे भंवर में थे कि न डूब रहे थे, न निकल रहे थे. धीरेधीरे लोग उन के आसपास इकट्ठा होने लगे थे.

दरअसल, रात को सोमरू ने 2 रुपए का तंबाकू खरीदा था और अब टिकट के लिए पैसे कम पड़ रहे थे.

कजरी की आंखों से आग बरस रही थी. उस ने सोमरू को गुस्से में कहा, ‘‘अब क्या करोगे? टिकट के लिए पैसे कम पड़ गए. अब घर क्या उड़ कर जाएंगे? तुम्हारी तंबाकू की लत ने…’’

बेचारा सोमरू क्या करे. जिस दर्द को वह पूरी जिंदगी ढोता रहा, उस ने आज इतनी दूर आ कर भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था. कभी अपने आसपास लगी भीड़ को देखता, तो कभी अपनी बूढ़ी पत्नी को.

सोमरू का मन पछतावे से इस तरह छटपटा रहा था जैसे वह पूरे समाज के सामने चोरी करता पकड़ा गया हो. आज फिर 2 रुपयों ने सब के सामने उसे नंगा कर दिया था.

 

ढाल : रमजानी से हो गई थी कैसी भूल

अभी पहला पीरियड ही शुरू हुआ था कि चपरासिन आ गई. उस ने एक परची दी, जिसे पढ़ने के बाद अध्यापिकाजी ने एक छात्रा से कहा, ‘‘सलमा, खड़ी हो जाओ, तुम्हें मुख्याध्यापिकाजी से उन के कार्यालय में अभी मिलना है. तुम जा सकती हो.’’

सलमा का दिल धड़क उठा, ‘मुख्याध्यापिका ने मुझे क्यों बुलाया है? बहुत सख्त औरत है वह. लड़कियों के प्रति कभी भी नरम नहीं रही. बड़ी नकचढ़ी और मुंहफट है. जरूर कोई गंभीर बात है. वह जिसे तलब करती है, उस की शामत आई ही समझो.’

‘तब? कल दोपहर बाद मैं क्लास में नहीं थी, क्या उसे पता लग गया? कक्षाध्यापिका ने शिकायत कर दी होगी. मगर वह भी तो कल आकस्मिक छुट्टी पर थीं. फिर?’

सामने खड़ी सलमा को मुख्या- ध्यापिका ने गरदन उठा कर देखा. फिर चश्मा उतार कर उसे साड़ी के पल्लू से पोंछा और मेज पर बिछे शीशे पर रख दिया.

‘‘हूं, तुम कल कहां थीं? मेरा मतलब है कल दोपहर के बाद?’’ इस सवाल के साथ ही मुख्याध्यापिका का चेहरा तमतमा गया. बिना चश्मे के हमेशा लाल रहने वाली आंखें और लाल हो गईं. वह चश्मा लगा कर फिर से गुर्राईं, ‘‘बोलो, कहां थीं?’’

‘‘जी,’’ सलमा की घिग्घी बंध गई. वह चाह कर भी बोल न सकी.

‘‘तुम एक लड़के के साथ सिनेमा देखने गई थीं. कितने दिन हो गए

तुम्हें हमारी आंखों में यों धूल झोंकते हुए?’’

मुख्याध्यापिका ने कुरसी पर पहलू बदल कर जो डांट पिलाई तो सलमा की आंखों में आंसू भर आए. उस का सिर झुक गया. उसे लगा कि उस की टांगें बुरी तरह कांप रही हैं.

बेशक वह सिनेमा देखने गई थी. हबीब उसे बहका कर ले गया था, वरना वह कभी इधरउधर नहीं जाती थी. अम्मी से बिना पूछे वह जो भी काम करती है, उलटा हो जाता है. उन से सलाह कर के चली जाती तो क्या बिगड़ जाता? महीने, 2 महीने में वह फिल्म देख आए तो अम्मी इनकार नहीं करतीं. पर उस ने तो हबीब को अपना हमदर्द माना. अब हो रही है न छीछालेदर, गधा कहीं का. खुद तो इस वक्त अपनी कक्षा में आराम से पढ़ रहा होगा, जबकि उस की खिंचाई हो रही है. तौबा, अब आगे यह जाने क्या करेगी.

चलो, दोचार चांटे मार ले. मगर मारेगी नहीं. यह हर काम लिखित में करती है. हर गलती पर अभिभावकों को शिकायत भेज देती है. और अगर अब्बा को कुछ भेज दिया तो उस की पढ़ाई ही छूटी समझो. अब्बा का गुस्सा इस मुख्याध्यापिका से उन्नीस नहीं इक्कीस ही है.

‘‘तुम्हारी कक्षाध्यापिका ने तुम्हें कल सिनेमाघर में एक लड़के के साथ देखा था. इस छोटी सी उम्र में भी क्या कारनामे हैं तुम्हारे. मैं कतई माफ नहीं करूंगी. यह लो, ‘गोपनीय पत्र’ है. खोलना नहीं. अपने वालिद साहब को दे देना. जाओ,’’ मुख्याध्यापिका ने उसे लिफाफा थमा दिया.

सलमा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने उमड़ आए आंसुओं को पोंछा. फिर संभलते हुए उस गोपनीय पत्र को अपनी कापी में दबा जैसेतैसे बाहर निकल आई.

पूरे रास्ते सलमा के दिल में हलचल मची रही. यदि किसी लड़के के साथ सिनेमा जाना इतना बड़ा गुनाह है तो हबीब उसे ले कर ही क्यों गया? ये लड़के कैसे घुन्ने होते हैं, जो भावुक लड़कियों को मुसीबत में डाल देते हैं.

अब अब्बा जरूर तेजतेज बोलेंगे और कबीले वाली बड़ीबूढि़यां सुनेंगी तो तिल का ताड़ बनाएंगी. उन्हें किसी लड़की का ऊंची पढ़ाई पढ़ना कब गवारा है. बात फिर मसजिद तक भी जाएगी और फिर मौलवी खफा होगा.

जब उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था तो उसी बूढ़े मौलवी ने अब्बा पर ताने कसे थे. वह तो भला हो अम्मी का, जो बात संभाल ली थी. लेकिन अब अम्मी भी क्या करेंगी?

सलमा पछताने लगी कि अम्मी हर बार उस की गलती को संभालती हैं, जबकि वह फिर कोई न कोई भूल कर बैठती है. वह मांबेटी का व्यवहार निभने वाली बात तो नहीं है. सहयोग तो दोनों ओर से समान होना चाहिए. उसे अपने साथ बीती घटनाएं याद आने लगी थीं.

2 साल पहले एक दिन अब्बा ने छूटते ही कहा था, ‘सुनो, सल्लो अब 13 की हो गई, इस पर परदा लाजिम है.’

‘हां, हां, मैं ने इस के लिए नकाब बनवा लिया है,’ अम्मी ने एक बुरका ला कर अब्बा की गोद में डाल दिया था, ‘और सुनो, अब तो हमारी सल्लो नमाज भी पढ़ने लगी है.’

‘वाह भई, एकसाथ 2-2 बंदिशें हमारी बेटी पर न लादो,’ अब्बा बहुत खुश हो रहे थे.

‘देख लीजिए. फिर एक बंदिश रखनी है तो क्या रखें, क्या छोड़ें?’

‘नमाज, यह जरूरी है. परदा तो आंख का होता है?’

और अम्मी की चाल कामयाब रही थी. नमाज तो ‘दीनदार’ होने और दकियानूसी समाज में निभाने के लिए वैसे भी पढ़नी ही थी. उस का काम बन गया.

फिर उस का हाईस्कूल में आराम से दाखिला हो गया था. बातें बनाने वालियां देखती ही रह गई थीं. अब्बा ने किसी की कोई परवा नहीं की थी.

सलमा को दूसरी घटना याद आई. वह बड़ी ही खराब बात थी. एक लड़के ने उस के नाम पत्र भेज दिया था. यह एक प्रेमपत्र था. अम्मी की हिदायत थी, ‘हर बात मुझ से सलाह ले कर करना. मैं तुम्हारी हमदर्द हूं. बेशक बेटी का किरदार मां की शख्सियत से जुड़ा होता है.’

मैं ने खत को देखा तो पसीने छूटने लगे. फिर हिम्मत कर के वह पत्र मैं ने अम्मी के सामने रख दिया. अम्मी ने दिल खोल कर बातें कीं. मेरा दिल टटोला और फिर खत लिखने वाले महमूद को घर बुला कर वह खबर ली कि उसे तौबा करते ही बनी.

मां ने उस घटना के बाद कहा, ‘सलमा, मुसलिम समाज बड़ा तंगदिल और दकियानूसी है. पढ़ने वाली लड़की को खूब खबरदार रहना होता है.’

सलमा ने पूछा, ‘इतना खबरदार किस वास्ते, अम्मी?’

वह हंस दी थीं, ‘केवल इस वास्ते कि कठमुल्लाओं को कोई मौका न मिले. कहीं जरा भी कोई ऐसीवैसी अफवाह उड़ गई तो वे अफवाह उदाहरण देदे कर दूसरी तरक्की पसंद, जहीन और जरूरतमंद लड़कियों की राहों में रोड़े अटका सकते हैं.’

‘आप ठीक कहती हैं, अम्मी,’ और सलमा ने पहली बार महसूस किया कि उस पर कितनी जिम्मेदारियां हैं.

पर 2-3 साल बाद ही उस से वह भूल हो गई. अब उस अम्मी को, जो उस की परम सहेली भी थीं, वह क्या मुंह दिखाएगी? फिर अब्बा को तो समझाना ही मुश्किल होगा. इस बार किसी तरह अम्मी बात संभाल भी लेंगी तो वह आइंदा पूरी तरह सतर्क रहेगी.

सलमा ने अपनी अम्मी रमजानी को पूरी बात बता दी थी. सुन कर वह बहुत बिगड़ीं, ‘‘सुना, इस गोपनीय पत्र में क्या लिखा है?’’

सलमा ने लिफाफा खोल कर पढ़ सुनाया.

रमजानी बहुत बिगड़ीं, ‘‘अब तेरी आगे की पढ़ाई गई भाड़ में. तू ने खता की है, इस की तुझे सजा मिलेगी. जा, कोने में बैठ जा.’’

शाम हुई. अब्बा आए, कपड़े बदल कर उन्होंने चाय मांगी, फिर चौंक उठे, ‘‘यह इस वक्त सल्लो, यहां कोने में कैसे बैठी है?’’

‘‘यह मेरा हुक्म है. उस के लिए सजा तजवीज की है मैं ने.’’

‘‘बेटी के लिए सजा?’’

‘‘हां, हां, यह देखो…खर्रा,’’ सलमा की अम्मी गोपनीय पत्र देतेदेते रुक गईं, ‘‘लेकिन नहीं. इसे गोपनीय रहने दो. मैं ही बता देती हूं.’’

और सलमा का कलेजा गले में आ अटका था.

‘‘…वह बात यह है कि अपनी सल्लो की मुख्याध्यापिका नीम पागल औरत है,’’ अम्मी ने कहा था.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मसजिद के मौलवी से भी अधिक दकियानूसी और वहमी औरत.’’

‘‘बात क्या हो गई?’’

‘‘…वह बात यह है कि मैं ने सल्लो से कहा था, अच्छी फिल्म लगी है, जा कर दिन को देख आना. अकेली नहीं, हबीब को साथ ले जाना. उसे बड़ी मुश्किल से भेजा. और बेचारी गई तो उस की कक्षाध्यापिका ने, जो खुद वहां फिल्म देख रही थी, इस की शिकायत मुख्याध्यापिका से कर दी कि एक लड़के के साथ सलमा स्कूल के वक्त फिल्म देख रही थी.’’

‘‘लड़का? कौन लड़का?’’ अब्बा का पारा चढ़ने लगा.

रमजानी बेहद होशियार थीं. झट बात संभाल ली, ‘‘लड़का कैसा, वह मेरी खाला है न, उस का बेटा हबीब. गाजीपुर वाली खाला को आप नहीं जानते. मुझ पर बड़ी मेहरबान हैं,’’ अम्मी सरासर झूठ बोल रही थीं.

‘‘अच्छा, अच्छा, अब मर्द किस- किस को जानें,’’ अब्बा ने हथियार डाल दिए.

बात बनती दिखाई दी तो अम्मी, अब्बा पर हावी हो गईं, ‘‘अच्छा क्या खाक? उस फूहड़ ने हमारी सल्लो को गलत समझ कर यह ‘गोपनीय पत्र’ भेज दिया. बेचारी कितनी परेशान है. आप इसे पढ़ेंगे?’’

‘शाबाश, वाह मेरी अम्मी,’ सलमा सुखद आश्चर्य से झूम उठी. अम्मी बिगड़ी बात यों बना लेंगी, उसे सपने में भी उम्मीद न थी, ‘बहुत प्यारी हैं, अम्मी.’

सलमा ने मन ही मन अम्मी की प्रशंसा की, कमाल का भेजा पाया है अम्मी ने. खैर, अब आगे जो भी होगा, ठीक ही होगा. अम्मी ढाल बन कर जो खड़ी रहती हैं अपनी बेटी के लिए.

शायद अब्बा ने खत पढ़ना ही नहीं चाहा. बोले, ‘‘रमजानी, वह औरत सनकी नहीं है. दरअसल, मैं ने ही उन मास्टरनियों को कह रखा है कि सलमा का खयाल रखें. वैसे कल मैं उन से मिल लूंगा.’’

‘‘तौबा है. आप भी वहमी हैं, कैसे दकियानूसी. बेचारी सल्लो…’’

‘‘छोड़ो भी, उसे बुलाओ, चाय तो बने.’’

‘‘वह तो बहुत दुखी है. आई है जब से कोने में बैठी रो रही है. आप खुद ही जा कर मनाओ. कह रही थी, मुख्याध्यापिका ने शक ही क्यों किया?’’

‘‘मैं मनाता हूं.’’

और शेर मुहम्मद ने अपनी सयानी बेटी को उस दिन जिस स्नेह और दुलार से मनाया, उसे देख कर सलमा अम्मी की व्यवहारकुशलता की तारीफ करती हुई मन ही मन सोच रही थी, ‘आइंदा फिर कभी ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए.’

और सलमा यों अपने चारों ओर फैली दकियानूसी रिवायतों की धुंध से जूझती आगे बढ़ी तो अब वह कालिज की एक छात्रा है. उस के इर्दगिर्द उठी आंधियां, मांबेटी के व्यवहार के तालमेल के आगे कभी की शांत हो गईं.

शौर्टकट : क्या था सविता के मालामाल होने का राज

सविता के तकिए के नीचे एक महंगा मोबाइल फोन देख कर उस के पति श्यामलाल का माथा ठनक गया. उसे समझ में नहीं आया कि 6,000 रुपए महीना कमाने वाली उस की पत्नी के पास 50,000 रुपए का मोबाइल फोन कहां से आया.

सविता दूसरे घरों में झाड़ूपोंछे का काम करती थी, जबकि श्यामलाल दिहाड़ी मजदूर था. पत्नी के पास इतना महंगा मोबाइल देख कर उस के दिमाग में कई तरह के सवाल आने लगे.

इस सब के बावजूद श्यामलाल ने अपने दिल को मनाया तो जरूर, लेकिन रातभर उसे नींद नहीं आई. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘इस के पास इतना महंगा फोन कहां से आया? इसे जगा कर पूछ लेता हूं. नहीं, अभी सोने देता हूं, बेचारी थकी होगी. कल सुबह पूछ लूंगा.’

‘‘सविता, यह किस का मोबाइल है और तेरे पास कहां से आया? यह तो काफी महंगा है,’’ अगले दिन श्यामलाल ने पूछा.

पति के हाथ में अपना मोबाइल फोन देख कर सविता के चेहरे का रंग पीला पड़ गया. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले, क्या न बोले.

‘‘मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया सविता? यह फोन है किस का?’’ श्यामलाल ने जोर दे कर पूछा.

‘‘अरे, मालकिन का है. इस में कुछ दिक्कत आ रही थी, सो उन्होंने कहा था कि इसे ठीक करवा लाओ. यह अब ठीक हो गया है तो आज उन्हें दे दूंगी,’’ यह कह कर सविता ने मोबाइल अपने हाथ में लिया और काम पर निकल गई.

लेकिन उस दिन के बाद से सविता का पति कभी उस के पास नए सोने के झुमके देखता, तो कभी पायल, कभी महंगी साड़ी, तो कभी कुछ और. एक दिन वह बड़ा और महंगा टीवी ले कर घर आई तो श्यामलाल की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने टोकते हुए कहा, ‘‘क्या है यह सब?’’

‘‘टीवी है… दिख नहीं रहा है क्या?’’

‘‘वह तो दिख रहा है मुझे, लेकिन यह आया कहां से?’’

‘‘दुकान से आया है और कहां से आएगा.’’

‘‘देखो, ज्यादा बात को घुमाओ मत और सीधेसीधे बताओ कि इतना महंगा टीवी कहां से आया? तुम्हारी कोई लौटरी लगी है क्या? ये झुमके, पायल, साड़ी और टीवी, सब कहां से आ रहे हैं?’’

श्यामलाल की बातों को सुन कर सविता ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘यह सब मेरी नई मालकिन ने दिया है. वे मेरे काम से बहुत खुश हैं. वे मुझे गिफ्ट देती हैं.’’

‘‘कोई भी मालकिन इतना महंगा गिफ्ट नहीं देती है और वह भी अपने घर काम करने वाली को.’’

‘‘आप मुझ पर शक कर रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जो बात सच है, वही बता रहा हूं. हम दोनों जितना कमाते हैं, उस से ये सारी चीजें इस जनम में तो नहीं ही ली जा सकती हैं.’’

‘‘अब अगर कोई मुझे दे रहा है, तो आप को क्यों खुजली लग रही है? देखिए जी, मैं कोई गलत काम नहीं कर रही. आप चाहें तो मेरी मालकिन से जा कर पूछ सकते हैं,’’ श्यामलाल की बातों को सविता ने अपनी गोलमोल बातों में उलझा दिया.

श्यामलाल ने सविता की बातों को सुना तो जरूर, लेकिन वह चाह कर भी उस की बातों पर यकीन नहीं कर पा रहा था.

उधर सविता का अचानक बदला रंगढंग सभी के लिए चर्चा की बात बन गया था. उस के महल्ले वालों ने अब पीठ पीछे बातें बनानी शुरू कर दी थीं.

‘‘विमला, यह सविता ने घर पर नोट छापने की मशीन लगा रखी है क्या? कल ही नया टीवी लाई थी वह. आज देखा कि वशिंग मशीन भी. आएदिन उस के घर में एक नया सामान आ रहा है.’’

‘‘जानती हो, वे जो कान में नए झुमके पहनी थी, वे भी सोने के हैं.’’

‘‘वह तो लोगों को यही बता रही है कि उस की मालकिन उस पर मेहरबान है. भला इस तरह मालकिन लोग कब से मेहरबान होने लगी हैं हम लोगों पर? मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा है.’’

‘‘तुम ने तो मेरी मुंह की बात छीन ली. जरूर वह कोई गलत काम कर रही है.’’

सविता के साथ की काम करने वाली सहेलियां आपस में कानाफूसी कर रही थीं.

लोगों की बातें श्यामलाल के कानों तक भी जाती थीं. वह जब सविता से लोगों की बातें कहता, तो वह बोलती, ‘‘जलने दो. अरे, जलन नाम की भी कोई चीज होती है कि नहीं. उन की मालकिन उन के एक दिन न जाने पर पैसे काट लेती है और मेरी मालकिन मुझे गिफ्ट पर गिफ्ट दिए जा रही है. जब ऐसा होगा तो उन्हें नींद आएगी कभी? नहीं आएगी तो और वे कुछ न कुछ बातें बनाएंगी.

‘‘देखिए, अगर आप दूसरों की बातों पर भरोसा कीजिएगा, तो कभी खुश नहीं रह पाएंगे, इसीलिए कान में तेल डालिए और जिंदगी के मजे लीजिए.’’

जिस तरह से सविता ने अपने पति को यह बात कही, उसे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी. शक तो उसे भी अपनी पत्नी पर हो रहा था कि वह जरूर कोई गलत राह पर है, लेकिन जब तक वह उसे रंगे हाथों पकड़ नहीं लेता तो उसे क्या कहता.

‘जो मैं सोच रहा हूं, वैसा बिलकुल भी न हो. और जैसा सविता कह रही है, वैसा ही हो,’ श्यामलाल मन ही मन सोच रहा था.

एक दिन की बात है. रात के 9 बज गए थे. सविता अभी तक काम से लौटी नहीं थी. श्यामलाल उस के लिए बहुत परेशान हो रहा था.

श्यामलाल उसी समय राज अपार्टमैंट्स की तरफ निकल गया, जहां सविता काम करती थी. वह तेज चाल से अपार्टमैंट्स की ओर चला जा रहा था कि तभी उस की नजर एक पुलिस की जीप पर गई. उस ने देखा कि सविता उस जीप में बैठी हुई थी.

सविता को पुलिस जीप में बैठा देख कर श्यामलाल का दिमाग चक्कर खाने लगा. पुलिस सविता को कहां ले कर जा रही है?

‘‘सविता, सविता,’’ उस ने आवाज लगाई, लेकिन पुलिस की गाड़ी तेज रफ्तार में वहां से निकल गई.

श्यामलाल पुलिस की गाड़ी के पीछे भागने लगा. भागते हुए वह पुलिस स्टेशन पहुंचा तो देखा, सविता हवालात में थी.

‘‘क्या किया तू ने? पुलिस वाले तुझे यहां क्यों ले कर आए हैं? बता, क्या किया तू ने?’’

सविता खामोश थी. उस का चेहरा पीला पड़ा हुआ था.

तभी इंस्पैक्टर उस के पास आया और पूछा, ‘‘हां भाई, तुम इस के पति हो?’’

‘‘जी साहब, मैं इस का पति हूं.’’

‘‘क्या किया है इस ने? ऐसे पूछ रहा है, जैसे तुम को कुछ पता ही नहीं. जरूर तुम लोग मिल कर रैकेट चलाते हो. अभी रुक, तेरे को भी जेल में बंद करता हूं.’’

‘‘कौन सा रैकेट साहब? आप क्या कह रहे हैं?’’

सविता का मन हमेशा से अमीर बनने का था. वह बड़े साहब लोगों के यहां काम करती. उन की लाइफ स्टाइल को देखती. उन के कपड़ों और गाडि़यों को देखती तो उस के मन में हमेशा यही आता है कि उसे भी इन महंगी गाडि़यों में बैठना है. वह भी महंगे कपड़े पहने और इन के जैसी जिंदगी जिए. लेकिन दूसरों के यहां झाड़ूपोंछा कर के महंगे शौक पूरा करना मुमकिन नहीं था, इसलिए उस ने शौर्टकट रास्ता अपनाने का सोचा.

सविता देखने में खूबसूरत थी. उस ने सोचा, ‘मेरी खूबसूरती अगर मुझे अमीर नहीं बना सकी तो फिर यह किस काम की…’

लिहाजा, सविता जहांजहां काम करने जाती थी, उस घर के मालिक को अपनी अदा से घायल करने की कोशिश करती. लेकिन कोई भी उस के झांसे में नहीं आता था.

लेकिन एक बार विवेक नाम का एक शादीशुदा शख्स उस के जाल में फंस ही गया. हुआ यों कि विवेक की पत्नी कुछ दिनों के लिए मायके गई हुई थी. उस के जाने के अगले दिन की बात है.

‘‘अरे, कोई टैंशन नहीं है मेरे भाई. आज की रात एक बार फिर से जीते हैं बैचलर वाली लाइफ. पूरी रात मौजमस्ती होगी,’’ विवेक ने अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने का प्लान बनाया था. उस रोज उन सब ने जबरदस्त पार्टी की. जब विवेक घर लौटा, तो उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.

विवेक ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी. बस, घर पहुंच कर वह तुरंत बिस्तर पर जा कर सो गया. विवेक को घर पहुंचे अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की डोरबैल बजी. सविता खड़ी थी.

‘‘साहब, मेमसाब ने कहा था कि आप के लिए रात की रोटी बना दिया करूं,’’ सविता कमरे के अंदर आते हुए बोली.

‘‘रोटी… नहीं… तुम जाओ… मैं खा कर आया हूं.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसे कैसे चली जाऊं… मेमसाब गुस्सा होंगी मेरे ऊपर,’’ यह कह कर सविता किचन में चली गई.

विवेक सविता को रोकता रहा, लेकिन वह मानी नहीं. वैसे भी उस रोज नशा विवेक पर इतना हावी था कि वह क्या कह रहा था उसे खुद भी पता नहीं चल रहा था.

विवेक की यही हालत सविता के लिए लौटरी का टिकट बन गई. जब वह नशे की हालत में सोया था, तो वह उस के बगल में जा कर लेट गई और उस के साथ कुछ फोटो अपने मोबाइल पर खींच लिए. अगले दिन सवेरे ही सविता कहने लगी, ‘‘साहब, आप ने तो कल रात मेरी इज्जत लूट ली. मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. मोबाइल की तसवीर तो झूठ नहीं बोलेगी न.

‘‘अरे, मैं तो वापस जा रही थी, लेकिन आप ने मुझे खींच कर अंदर बुला लिया और फिर मेरे साथ वह सब किया कि मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही.’’

‘‘सविता, यह तुम क्या कह रही हो… यह माना कि मैं नशे में था, लेकिन मैं ने ऐसा तो कुछ नहीं किया,’’ विवेक ने कहा..

फिर विवेक के आसपास सविता ने ऐसा जाल बुना कि वह उस में फंस गया. सविता उसे ब्लैकमेल करने लगी और पैसे ऐंठना शुरू कर दिया. इन्हीं पैसों से वह रईसी करने लगी. यह सिलसिला चलता रहा,

लेकिन एक दिन विवेक की पत्नी शालिनी ने बैंक की पासबुक में देखा कि विवेक हर दूसरे दिन एक मोटी रकम खाते से निकाल रहा है, तो उसे कुछ शक हुआ. उस ने उस से पूछा, तो वह टालमटोल करने लगा. लेकिन जब उस ने अपने सिर की कसम दी, तो उस ने शालिनी को सारी बात बता दी.

‘‘मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. तेरे जाने के बाद एक दिन,’’ विवेक ने सारी कहानी शालिनी को बताई. लेकिन उस के लाख कहने पर भी उसे इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि उस के पति ने उस रोज कोई बदतमीजी सविता के साथ की होगी.

एक दिन जब फिर से सविता ने 50,000 रुपए विवेक से मांगे, तो विवेक और शालिनी ने पुलिस को बुला लिया. पुलिस को सामने देख सविता के चेहरे का रंग उड़ गया.

पुलिस ने जब अपने तरीके से सविता से पूछताछ की, तो उस ने सबकुछ उगल दिया.

‘‘साहब, गलती हो गई मुझ से. विवेक साहब बेकुसूर हैं. यह वीडियो तो मैं ने उन के नशे में होने का फायदा उठा कर बनाया था.’’

फिर क्या था, सविता पर मुकदमा चला. उसे 3 साल की सजा हो गई. जिंदगी में जल्दी कामयाब होने का शौर्टकट उस पर भारी पड़ गया.

तपस्या : शादी को लेकर शैली का प्रयास

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डे – गुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था. दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

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