शीलू हत्याकांड : अहमद ने कबूला जुर्म

श्रद्धा हत्याकांड को अभी कुछ ही दिन हुए थे कि लखनऊ के गोमती नगर में एक मल्टीनैशनल कंपनी की मैनेजर शीलू की हत्या से लोगों का गुस्सा उफान पर था. राजनीतिक पार्टियां इस मामले पर अपनअपनी रोटियां सेंकने में बिजी थीं.

खबरिया चैनलों के मुताबिक, अहमद (बदला हुआ नाम) गोमती नगर में अपनी लिवइन पार्टनर शीलू के मकान में पिछले 2 साल से रह रहा था. शीलू एक रियल ऐस्टेट कंपनी में मैनेजर थी, जबकि अहमद एक छोटी सी कंपनी में नौकरी करता था. शीलू किसी मजबूरी में अहमद को अपने साथ रखे हुए थी. अहमद रोज उसे तंग करता था.

अहमद ने शीलू को अपने प्रेमजाल में फंसाया और फिर उसे ब्लैकमेल करने लगा. आखिरकार अहमद ने अपने पालतू कुत्ते से कटवा कर शीलू का मर्डर कर दिया.

पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक, बुधवार रात 12 बजे पुलिस हैल्पलाइन पर अहमद का फोन आया कि उस के पालतू पिटबुल कुत्ते ने उस की दोस्त पर हमला कर दिया है.

पुलिस ने मौके पर पहुंच कर जब तक कुत्ते को मौत के घाट उतारा, वह शीलू के पेट की आंत फाड़ चुका था. पुलिस इसे कुत्ते का हमला मान कर चल रही थी, लेकिन कुत्ते की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसे कई दिन से भूखा होने, कुत्ते को खरीदने का महज 2 महीने पुराना बिल और कमरे में फैली इथोक्सीक्विन की गंध से पुलिस को अहमद पर शक हो गया.

पुलिस को दिए गए अपने बयान में अहमद ने बताया कि शीलू की हत्या के लिए ही उस ने पिटबुल कुत्ते को खरीदा था. 2 महीने में यह कुत्ता उस का अच्छा दोस्त बन गया था, जबकि शीलू को वह पहचानता तक नहीं था. शीलू को कुत्तों से नफरत थी और वह रोज उसे और उस के कुत्ते को घर से निकालने की धमकी दे रही थी.

घटना के 2 दिन पहले से उस ने अपने पालतू कुत्ते को भूखा रखना शुरू कर दिया. घटना की रात शीलू के सोते ही अहमद ने उस के ऊपर इथोक्सीक्विन का स्प्रे कर दिया. कुत्ते को कमरे में छोड़ दरवाजे को बाहर से बंद कर दिया.

इथोक्सीक्विन का इस्तेमाल कुत्तों के भोजन में प्रिजर्वर की तरह किया जाता है. पिटबुल कुत्ते ने गहरी नींद में सो रही शीलू को अपना भोजन समझ कर नोचना शुरू कर दिया. शीलू बहुत देर तक तड़पती, चिल्लाती और मदद मांगती रही.

शीलू के चीखने की आवाज कुछ कम होना शुरू हुई, तब अहमद ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस के आने से पहले उस ने कमरे का दरवाजा खोल कर शीलू को बचाने की कोशिश का नाटक करना शुरू किया था.

अहमद के कबूलनामे के बाद उस की फांसी की सजा तय थी. अहमद ने जेल के अपने साथियों को जो कहानी सुनाई, वह बहुत ही मनगढ़ंत, बेतुकी, लेकिन रोमांचक लग रही थी.

अहमद ने बताया कि उस ने 2 साल पहले शीलू की कंपनी में काम शुरू किया था. वह कंपनी के फाइनैंस सैक्शन में था. उस का काम कंपनी के स्टौक को गोपनीय रखना था. साथ ही, स्टौक के रखरखाव की जिम्मेदारी भी थी.

शीलू उस की बौस थी. जिस तरह से कालेज जाने वाले छात्रों को रैगिंग के लिए डराया जाता है, उसी तरह से मल्टीनैशनल कंपनी को जौइन करने से पहले उसे उस के दोस्तों ने बौस के नाम से डराया था कि कारपोरेट सैक्टर के बौस धरती के सब से ज्यादा खूंख्वार प्राणी हैं. वे अपने नीचे काम करने वालों के साथ गलत बरताव करते हैं, उन का फायदा उठाते हैं वगैरह.

अहमद ने आगे बताया, ‘‘मुझे दोस्तों की बातों से डरने की जरूरत नहीं थी. मेरी बौस एक अबला नारी थी. जरूरत पड़ने पर मैं ही उस के साथ सैक्स करने को तैयार बैठा था. मेरी सोच बहुत गलत थी. मैं अपनी लेडी बौस को कम आंक रहा था.

‘‘एक हफ्ते में ही शीलू ने मेरे काम में तरहतरह की गलती निकालते हुए मेरा बैंड बजाना और मुझे नीचा दिखाना शुरू कर दिया. पर मैं जानता था कि मेरी पहली ही कंपनी ने अगर मुझे इस तरह से काम से निकाल दिया, तो मेरा कैरियर बरबाद हो जाएगा और मुझे फिर कहीं भी कायदे की नौकरी नहीं मिलेगी.

‘‘औफिस में शीलू के सहयोगियों ने मुझे बताया कि अपनी नौकरी बचाने के लिए मुझे शीलू मैडम की मेहरबानी हासिल करनी होगी और अपनी नौकरी की खुशी में उन के लिए कोई गिफ्ट ले कर उन के घर जाना चाहिए.

‘‘मैं शाम को डरता हुआ उन के घर पहुंचा. शीलू मैडम, गोमती नगर में एक बंगले जैसे ड्यूप्लैक्स में अकेली रहती थीं. नौकरानी ने दरवाजा खोला, मुझे ऊपर से नीचे तक ललचाई नजरों से देखा और फिर खुशीखुशी अपनी मालकिन को मेरा ब्योरा दिया. उसी पल मुझे समझ जाना था कि मैं एक भारी मुसीबत में फंसने वाला हूं.

‘‘शीलू मैडम अपने लिविंगरूम में बहुत ही कम कपड़ों में थीं. उन्होंने केवल सफेद शर्ट पहनी हुई थी. वे कंप्यूटर पर किसी जरूरी काम में बिजी थीं. शायद उन्हें स्कर्ट पहनने और कुरसी पर बैठने का भी समय न था.

‘‘मैडम की दूधिया, मोम की तरह चिकनी और साफ जांघों को देख कर मेरा पसीना निकलने लगा. मैडम की ट्रांसपेरेंट शर्ट भी नाममात्र के लिए ही थी. काली ब्रा से ढके हुए उन के विशाल गुंबद साफ दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैडम के चिकने टखनों, पैर, घुटनों और जांघ को घूरतेघूरते जब तक मेरी नजरें मैडम की चितकबरी कौटन पैंटी तक पहुंचीं, तब तक मैडम मेरी नजरों को ताड़ चुकी थीं. उन्होंने गले लगा कर मेरा स्वागत किया.

‘‘किसी भारतीय मर्द की मति हरने के लिए इतना लालच काफी होता है. उन्होंने और उन की नौकरानी ने मेरी अच्छे से आवभगत की. हमारे बीच सिर्फ संबंध बनना ही बाकी रह गया था.

‘‘उस दिन से मैं शीलू मैडम का आशिक बन गया. मैं बेवकूफ लट्टू की तरह उन के चारों ओर गोलगोल घूमने लगा. औफिस तो औफिस, शीलू मैडम की कालोनी के लोग भी मुझे शीलू मैडम का चमचा और उन का निजी नौकर समझने लगे थे.

‘‘शीलू मैडम सैक्स के मामले में डोमिनैंट थीं. शुरू में उन की हरकतें मुझे बहुत अच्छी लगती थीं. उन का गुस्से में मुझे पलंग पर पटक देना, मेरे कपड़े फाड़ देना, जंगली बिल्ली की तरह उछल कर मेरे सीने पर सवार हो जाना, मेरे बम को अपने हंटर की मार से लाल कर देना वगैरह. उन्हें मेरे गले में कुत्तों का पट्टा पहना कर, घुटनों के बल, अपने पैरों के बीच बैठाना बहुत अच्छा लगता था.

‘‘मुझे कुरसी से बांधने के बाद जिस्मानी संबंध के लिए तरसाने में उन्हें मजा आता था. यह एक ऐसा माइंड गेम था कि मैं खुद भी अपनेआप को उन का पालतू कुत्ता समझ कर बरताव करने लगा था, उन के आगेपीछे दुम हिलाने लगा था.

‘‘शीलू मैडम के दो घड़ी के प्यार के बदले उन का नौकर बनना तो बहुत छोटी बात है, मैं उन के लिए अपनी गरदन कटाने को तैयार बैठा था. औफिस में हर कहीं वे मेरा इस्तेमाल कर रही थीं, मुझे उन के काम के लिए अपना इस्तेमाल कराने में कोई तकलीफ नहीं थी.

‘‘मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी, अपने सैक्सी बौस से अफेयर, एक भारतीय लड़के को इस से ज्यादा क्या चाहिए? मेरे सारे साथी मुझ से जलने लगे थे. शीलू मैडम के चक्कर में मैं ने अपनी पुरानी गर्लफ्रैंड को भी धोखा दे दिया, उसे छोड़ दिया था.

‘‘यह सही बात है कि शीलू मैडम ने मुझे अपने घर में शरण दी, लेकिन यह मुफ्त नहीं था. मकान के किराए के बदले शीलू मैडम मेरी आधी तनख्वाह अपने पास रख लेती थीं. इस के अलावा शीलू मैडम को खुश रखने के चक्कर में मेरी बाकी तनख्वाह भी खत्म हो जाती थी.

‘‘मेरी हालत उन के घर में नौकरों से भी बदतर थी. वह मुझ से अपने जूते चमकवाने से ले कर चड्डी धुलाने तक के काम करवाती थीं. शुरूशुरू में मैं राजीखुशी उन के सारे काम कर रहा था.

‘‘मैं सोचता था कि किसी को क्या पता चलेगा. सभी तो यही समझेंगे कि मैं लखनऊ शहर की सब से पसंदीदा महिला शीलू का बौयफ्रैंड हूं, उन का फायदा उठा रहा हूं. बस इसी ख्वाबों की दुनिया ने मुझे बरबाद कर दिया था.

‘‘शीलू मैडम ने मेरे घर की जमीन बिकवा कर अपने नाम लखनऊ में प्लौट खरीद लिया. मेरे पिता इस सदमे में मर गए, तब जा कर मेरी अक्ल पर पड़े पत्थर हटने शुरू हुए.

‘‘शीलू मैडम के कई दूसरे लड़कों से अफेयर के भी मुझे पुख्ता सुबूत मिलने लगे थे. शीलू मैडम मुझ से पहले भी अनेक मर्दों से यह स्वांग रच चुकी थीं.

‘‘शीलू मैडम की पैसों की भूख मैं पहचान चुका था, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी. उन्होंने हमारे सैक्स वाले फोटो वायरल करने, मुझ पर ‘सैक्सुअल हरैसमैंट’ का केस लगाने और मुझे ‘मी टू हैशटैग’ कैंपेन में फंसाने की धमकी दी, तो घबरा कर मुझे उन के आगे सरैंडर करना पड़ा.

‘‘उस दिन हम आखिरी बार बिस्तर पर मिले थे. शीलू मैडम किसी गुलाम की तरह वे सारे काम कर रही थीं, जो रोज मैं उन के लिए किया करता था.

‘‘उस दिन के बाद दिन ब दिन मेरी हालत उन के दरवाजे के चौखट से बंधे हुए कुत्ते से भी बदतर होती जा रही थी. शीलू मैडम मेरे सामने ही अपने दूसरे मर्दों के साथ अफेयर करने लगी थीं. मेरे सामने ही अपने दोस्तों से लिपटना, होंठ से होंठ सटा देना… और मैं बेबसी से बस उन्हें देख सकता था.

‘‘शीलू मैडम ने मेरे लैपटौप और मोबाइल के पासवर्ड ले लिए थे. अकसर वे उन्हें चैक करने के बहाने अपने कब्जे में रख लेती थीं.

‘‘इतना सब होने के बावजूद भी मैं शीलू मैडम की खिलाफत नहीं कर पा रहा था. एक ही छत के नीचे रहते हुए, जबतब मुझे बाथरूम से बाहर निकलती या पानी के छींटे उछालती शीलू मैडम के ताजमहल या नीलम घाटी के दर्शन हो जाते.

‘‘इतने से ही मेरी इच्छा पूरी हो जाती थी. मुझे लगता था कि एड़ा बन कर पेड़ा खाते रहने में भी क्या बुराई है. शीलू मैडम का लिवइन पार्टनर तो मैं ही कहलाऊंगा.

‘‘दौलत की लालची शीलू मैडम ने मेरे नाम से एक फर्जी डीमैट अकाउंट खोल कर कंपनी के शेयरों की इनसाइड ट्रेडिंग कर करोड़ों का घपला कर लिया और मुझे मुसीबत में डाल दिया.

कंपनी के औडिट में मुझे कुसूरवार समझ कर नौकरी से निकाल दिया. मेरी भविष्यनिधि जब्त कर ली. ‘‘शीलू मैडम ने चुपचाप मेरे कानों में कह दिया था, ‘चुप रहो, चिंता की बात नहीं है, मैं तुम्हें बचा लूंगी.’

‘‘धोखा… उन की कोई भी बात सही नहीं थी. मुझे उन की किसी बात पर यकीन नहीं करना चाहिए था.

‘‘पुरानी दोस्ती के नाम पर उन्होंने मुझे अपने घर में रहते रहने की इजाजत दे दी, लेकिन उन के बैडरूम में आने की अब मुझे इजाजत नहीं थी. मुझे घर का सारा काम निबटाना होता था, बदले में शीलू मैडम ने सिफारिश कर मुझे एक कुरियर कंपनी में छोटी सी नौकरी दिला दी थी.

‘‘इतना सब होने के बावजूद मैं ने शीलू मैडम से बदलना लेने के बारे में नहीं सोचा था. ‘‘पर, उस दिन मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया, जब शीलू मैडम देर रात अपने एक दोस्त के साथ घर आईं. आते ही उन्होंने मुझे ‘टौमी… टौमी…’ कह कर और ‘पुच… पुच…’ कर चिढ़ाना शुरू कर दिया.

‘‘शीलू मैडम नशे में चूर थीं और बारबार अपने दोस्त से चिपक रही थीं, उस की बांहों में झूल रही थीं. अगर उन के दोस्त ने न रोका होता, तो वे वहीं दरवाजे के सामने ही उस के साथ सैक्स करना शुरू कर देतीं.

‘‘शीलू मैडम का दोस्त मेरे सामने से ही उन्हें बैडरूम में खींच ले गया. शीलू मैडम ने मुझे अपनी दूध की फैक्टरी में से मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका था. बहुत देर तक उन के कमरे से सैक्सुअल फोरप्ले की आवाज आती रही. मेरी सोच पहले ही मर चुकी थी, उस दिन मेरा दिल भी जल कर राख हो गया. मुझे उस दिन रातभर नींद नहीं आई.

‘‘उसी दिन मैं ने अपनी प्यारी शीलू मैडम को ठिकाने लगाने का प्लान बना लिया था. आज भी उन की मौत का सब से ज्यादा दुख मुझे है.’’ अहमद की इस मनगढ़ंत कहानी पर किसी को यकीन नहीं है.

एहसान फरामोश : औलाद से मिली बेरुखी

अकीला ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस औलाद के लिए उस ने अपनी जवानी तबाह कर दी, अपनी आरजू का गला घोंट दिया, उन्हें काबिल बनाने के लिए अपना सबकुछ कुरबान कर दिया, वही औलाद काबिल बनते ही उसे तिलतिल कर मरने के लिए मजबूर छोड़ देगी. ऐसी एहसान फरामोश औलाद के होने से तो न होना ही अच्छा था. अकीला शादी के महज 7 साल बाद ही बेवा हो गई थी.

जिस समय अकीला के शौहर का इंतकाल हुआ था, तब अकीला की उम्र सिर्फ 26 साल थी और तब तक वह 3 बच्चों की मां बन चुकी थी, फिर भी उस की शादी के कई रिश्ते आ रहे थे और दूरदराज के ही नहीं, बल्कि आसपास के भी कई नौजवान उस से शादी करने के लिए बेकरार थे. रिश्ते आएं भी क्यों नहीं, अकीला थी ही ऐसी बला की खूबसूरत कि जो उसे एक बार देख ले, बस देखता ही रह जाए.

गदराया बदन, गोरा रंग, सुर्ख होंठ, लंबेकाले और घने बाल उस की खूबसूरती में चार चांद लगाए हुए थे. हुस्न की मलिका होने के बाद भी अकीला ने अपने इन 3 मासूम बच्चों की खातिर दूसरी शादी करना मुनासिब  नहीं समझा और उन के अच्छे भविष्य  के लिए दिनरात आसपड़ोस के कपड़े सिल कर उन की परवरिश में बिजी हो कर रह गई.

अकीला का एक ही सपना था कि वह अपने बच्चों को खूब पढ़ाएलिखाए, ताकि उन का भविष्य अच्छा बन सके और वे कामयाब इनसान बन जाएं, इसलिए उस ने दिनरात मेहनत की, ताकि बच्चों की परवरिश अच्छी से अच्छी  हो सके. अकीला की मेहनत रंग लाई. उस के तीनों बच्चे पढ़ने में काफी तेज थे और वे हर क्लास में फर्स्ट आया करते थे. इस तरह अच्छी पढ़ाई कर के उस का सब से बड़ा बेटा गुड़गांव में प्रोफैसर बन गया, दूसरा बेटा सरकारी डाक्टर बना और तीसरा बेटा इटावा में लैक्चरर बन गया.

अकीला खुश थी. भले ही उस की आंखों की रोशनी दिनरात काम करने  से कमजोर हो गई थी, जवानी अब ढल चुकी थी, लेकिन उस की औलाद कामयाब इनसान बन चुकी थी. सब से बड़े बेटे प्रोफैसर की शादी एक बहुत बड़े वकील की बेटी से हो गई थी, जो शादी के एक महीने बाद ही अपने शौहर के साथ गुड़गांव चली गई थी. दूसरा बेटा, जो मेरठ में डाक्टर था, की शादी एक बहुत बड़े बिजनैसमैन की बेटी से हुई, जो महज 2 हफ्ते बाद अपने शौहर के साथ मेरठ शिफ्ट हो गई.

एक दिन खबर मिली कि उस के सब से छोटे बेटे, जो इटावा में लैक्चरर था, ने भी वहीं शादी कर ली और अकीला घर में अकेली रहने के लिए मजबूर हो गई. अकीला की तबीयत खराब रहने लगी थी. जब उस की औलाद को यह पता चला तो समाज के डर से तीनों बेटे घर आए और यह तय किया कि वे तीनों 4-4 महीने अम्मी को अपने पास रखेंगे.

सब से पहले बड़े बेटे का नंबर  आया और वह अकीला को अपने साथ गुड़गांव ले गया. कुछ दिन तो सब ठीक चला, पर जल्द ही उस की बीवी ने घर में लड़ाई शुरू कर दी और एक दिन बोली, ‘‘मेरे बस की बात नहीं है इस बुढि़या की सेवा करना.’’ बेटे ने उसे समझाया, ‘‘4 महीने की तो बात है. बस तुम इन्हें यहां रहने दो और अपने साथ काम में लगाए रखो. तुम्हारी भी मदद हो जाएगी.’’

अब तो घर का सारा काम अकीला के जिम्मे हो गया. वह रातदिन घर  के काम में लगी रहती. उस की हालत नौकरानी से भी बदतर हो गई. खाना  भी उसे रूखासूखा दिया जाने लगा. जैसेतैसे अकीला ने 4 महीने वहां गुजारे. 4 महीने पूरे होने के बाद दूसरा बेटा वादे के मुताबिक अपनी मां को लेने आया और अपने साथ मेरठ ले गया.

वहां पर रहते हुए अभी 2 महीने ही गुजरे थे कि एक दिन उन के घर में पार्टी चल रही थी. मेहमानों का आनाजाना लगा था.  अकीला को अपने कमरे से बाहर न निकलने के लिए बोला गया था कि यहां पर बड़ेबड़े लोग आएंगे, कोई पूछ लेगा तो बेइज्जती होगी. पार्टी देर रात तक चलती रही. अकीला भूख से बेहाल हो चुकी थी. अब उस से बरदाश्त करना मुश्किल था.

उस ने अपने कमरे का दरवाजा खोला और कमरे के बाहर पड़े जूठे बरतनों में से खाना उठा कर खाने लगी. अकीला ने जैसेतैसे अपना पेट भरा. अभी वह पानी पीने के लिए किचन की तरफ जा ही रही थी कि उस की बहू, जो अपनी सहेलियों के साथ वहां से गुजर रही थी, की एक सहेली ने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ तभी अकीला का बेटा वहां आ गया और झट से बोला, ‘‘यह हमारी नई नौकरानी है.’’ ये अल्फाज जैसे ही अकीला के कानों में पड़े, तो उस के होश उड़ गए कि आज एक बेटा अपनी मां को मां कहने में भी शर्मिंदगी महसूस कर रहा है.

अब सब से छोटे बेटे का नंबर था. अकीला ने सोचा कि चलो, इसे भी देख लेते हैं. यह भी बेटा रहा या नहीं या फिर अमीरी ने इस की भी आंखों पर परदा डाल दिया है. कुछ दिन बाद अकीला अपने सब से छोटे बेटे के साथ इटावा चली गई. वहां गए हुए अभी एक ही दिन हुआ  था कि उस के बेटे ने साफसाफ बोल दिया, ‘‘मेरी बीवी को बच्चा होने वाला है.

तुम्हें यहां सब काम खुद करना पड़ेगा और अपनी बहू का भी ध्यान रखना पड़ेगा.’’ अकीला रोज सवेरे उठती, नाश्ता बनाती, कपड़े धोती, फिर दोपहर का खाना बनाने में जुट जाती. उस के बाद घर की साफसफाई का काम करना  होता था.  अकीला की बहू आराम से अपनी सहेली के साथ गपशप में मसरूफ रहती थी. बीचबीच में उन के लिए भी चायनाश्ते का इंतजाम करना पड़ता था. अभी एक महीना ही गुजरा था कि अकीला की तबीयत बहुत खराब हो गई.

उसे सरकारी अस्पताल में भरती कराया गया, जहां उस की देखभाल करने वाला कोई न था.  3-3 बेटेबहू होने के बावजूद अकीला एक लावारिस की तरह अपनी जिंदगी की बची सांसें ले रही थी और सोच रही थी कि उस की परवरिश में ऐसी कौन सी कमी रह गई थी, जो ऐसी एहसान फरामोश औलाद मिली. इसी कशमकश में अकीला ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली और इस दुनिया से विदा ले ली. उस के मरने के बाद भी कोई उसे देखने वाला न था.

1-2 दिन इंतजार करने के बाद अस्पताल के कुछ लोगों ने मिल कर उस का कफनदफन किया. कुछ दिनों बाद जब अकीला का बेटा अस्पताल में उसे देखने आया तो सब को बड़ा अचंभा हुआ, क्योंकि आज एक हफ्ते बाद उसे अकीला की याद आई थी. उस ने अपना मोबाइल नंबर भी गलत दिया था, जो पता लिखवाया  था वहां भी ताला लगा था, क्योंकि वह अपनी बीवी के साथ घूमने गया था.

बेटा अस्पताल से चुपचाप चला गया. हमारे समाज में अभी भी ऐसी एहसान फरामोश औलाद मौजूद हैं, जो कामयाब होने के बाद अपने मांबाप की उस मेहनत को भूल जाती हैं, जो उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए अपना सबकुछ कुरबान कर देते हैं. ऐसी निकम्मी औलादें उन्हें तिलतिल कर मरने के लिए छोड़ देती हैं.

कर्मयोगी : जैसा कर्म वैसा फल

धीरज को मैनेजर कुलकर्णी ने अपने केबिन में बुलाया. लिहाजा, मशीन रोक कर वह उसी ओर चल दिया. लेकिन अंदर चल रही बातचीत को सुन कर उस के कदम केबिन के बाहर ही ठिठक गए.

‘‘देख फकीरा…’’ मैनेजर कुलकर्णी अंदर बैठे हुए फकीरा को समझ रहे थे, ‘‘अगर तू ने ऐसा कर लिया, तो समझा ले कि 2 ही दिन में तेरी सारी गरीबी दूर हो जाएगी.’’

‘‘लेकिन साहब…’’ फकीरा हकलाने लगा, ‘‘यह तो धोखाधड़ी होगी.’’

‘‘युधिष्ठिर न बन फकीरा,’’ कुलकर्णी की आवाज में कुछ झंझालाहट थी, ‘‘कारोबार में यह सब चलता रहता है. सभी तो मिलावट किया करते हैं.’’

धीरज उलटे पांव अपनी मशीन के पास लौट आया. मैनेजर और फकीरा में आगे क्या बात हुई होगी, उस ने इस का अंदाजा लगा लिया. वह सोच में पड़ गया, ‘तो क्या कुलकर्णी मालिक की आंखों में धूल झोंकना चाहता है?’

धीरज फिर से मशीन पर काम करने लगा. मशीन के मुंह से लालपीले कैप्सूल उछलउछल कर नीचे रखी ट्रे में गिरते जा रहे थे.

ओखला में कपूर की उस लेबोरेटरी में जिंदगी को बचाने वाली बहुत सारी दवाएं बनती हैं. 60-70 मजदूरों की देखरेख मैनेजर कुलकर्णी करता है. कपूर साहब तो कभीकभार ही आते हैं. कारोबार के संबंध में वह ज्यादातर दिल्ली से बाहर ही रहते हैं. धीरज उन का बहुत ही भरोसेमंद मुलाजिम था.

2 साल पहले धीरज ओखला की किसी फैक्टरी में तालाबंदी होने से बेरोजगार हो गया था. उस दिन वह निजामुद्दीन के क्षेत्रीय रोजगार दफ्तर के बाहर खड़ा था, तभी सामने दौड़ती हुई कार के तेज रफ्तार में मुड़ने से एक फाइल सड़क पर आ गिरी.

धीरज ने फाइल उठा कर जोरजोर से आवाजें दीं, ‘साहबजीसाहबजी, आप के कागजात गिर गए हैं.’ आगे के चौराहे पर वह कार तेजी से रुक गई.

धीरज भागता हुआ वहीं पहुंचा. वह हांफने लगा था.

फाइल लेते हुए कपूर साहब ने उस से पूछा था, ‘क्या करते हो तुम?’

‘बस साहब, इन दिनों तो ऐसे ही सड़कें नाप रहा हूं,’ कह कर वह सिर खुजलाने लगा.

‘नौकरी करोगे?’ उन्होंने पूछा था.

‘मेहरबानी होगी साहबजी,’ उस ने हाथ जोड़ दिए.

‘आओ, गाड़ी में बैठो,’ उन्होंने गाड़ी का पिछला दरवाजा खोल दिया, तो धीरज कार में जा बैठा.

धीरज के बैठते ही कार तेजी से ओखला की तरफ दौड़ने लगी थी. बस, तभी से वह उन की लेबोरेटरी में काम कर रहा है.

पिछले महीने मजदूरों की एक मीटिंग हुई थी. उस में कई लोकल कामरेड आए हुए थे. वे लोग बोनस के मसले पर बात कर रहे थे. धीरज ने भी कुछ कहना चाहा था.

एक कामरेड उस की ओर देख कर बोला था, ‘आप शायद कुछ कहना चाहते हैं?’

‘बोनस का मामला आपसी बातचीत से ही सुलझाना ठीक रहेगा,’ धीरज ने अपना सु?ाव दिया था, ‘घेरावों और हड़तालों से अपने ही लोगों की हालत खराब होती है.’

‘ठीक कहते हो कामरेड,’ कह कर एक मजदूर नेता मुसकरा दिया.

‘हड़ताल तो हमारा आखिरी हथियार होता है. इस से तालाबंदी की नौबत तक आ जाती है,’ धीरज बोला था.

‘जानते हैं, अच्छी तरह से जानते हैं,’ सिर हिला कर कामरेड ने अपनी सहमति जताई थी.

खाली मशीन खड़खड़ की आवाज करने लगी थी. धीरज ने उस में दवा का पाउडर डाल दिया था. लालपीले कैप्सूल फिर से ट्रे में गिरने लगे.

‘‘अरे…’’ फकीरा ने धीरज के पास आ कर उस के कंधे पर हाथ रख

कर कहा, ‘‘तु?ो मैनेजर साहब याद कर रहे थे?’’

यह सुन कर धीरज मुसकरा दिया और पूछा, ‘‘क्यों?’’

फकीरा ने उस की मुसकान का राज जानना चाहा.

‘‘वह मु?ो भी चोर बनाना चाहते होंगे,’’ धीरज उसी तरह मुसकराते हुए बोला.

‘‘तो तू हमारी बातचीत सुन चुका है?’’ फकीरा चौंक गया.

‘‘हां…’’ धीरज ने गहरी सांस ली, ‘‘सुन कर मैं वापस चला आया था.’’

‘‘हमारे न करने से कुछ नहीं होता धीरज…’’ फकीरा उसे सम?ाने लगा, ‘‘हमारे यहां मिलावट का धंधा पिछले 2-3 साल से हो रहा है. घीसू, मातंबर, सांगा सभी तो मिलावट करते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत गलत किया जा रहा है,’’ धीरज गंभीर हो गया और उस के माथे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं, ‘‘ये लोग तो मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं.’’

‘‘ज्यादा न सोचा कर मेरे यार,’’ फकीरा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया, ‘‘हम मजदूरों को ज्यादा नहीं सोचना चाहिए. हम लोगों का काम केवल मजदूरी करना होता है.’’

‘‘नहीं फकीरा, यहां मैं तुम से सहमत नहीं हूं,’’ धीरज ने उस की बात काट दी, ‘‘मजदूर होने के साथसाथ हम इनसान भी तो हैं.’’

‘‘तो फिर सोचतेसोचते अपना शरीर सुखाता रह,’’ झंझाला कर फकीरा अपनी मशीन की तरफ चल दिया.

शाम को लेबोरेटरी में छुट्टी हो गई, तो सभी मजदूर घर जाने लगे. धीरज भी अपनी साइकिल उठा कर चल दिया. आगे चौराहे पर वह रुक गया. उस के मन में खलबली मच रही थी. वह तय नहीं कर पा रहा था कि किधर जाए?

अगले ही मिनट उस की साइकिल मेन रोड की ओर मुड़ गई.

पैडल मारता हुआ वह डिफैंस कालोनी की ओर चल दिया. आज वह मालिक को सबकुछ सचसच बता देना चाहता था.

कपूर साहब की कोठी आ गई. उस ने साइकिल कोठी के बाहर खड़ी कर दी. उस समय कपूर साहब क्यारी में पानी दे रहे थे. उसे देख कर वह मुसकरा कर बोले, ‘‘आओ धीरज, अंदर आ जाओ.’’

वह सिर खुजलाता हुआ बोला, ‘‘सर, मैं आज आप से जरूरी बात करने आया हूं.’’

‘‘शीला…’’ कपूर साहब ने अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘जरा 2 कप चाय तो भेजना.’’

धीरज संकोच से सिकुड़ता ही जा रहा था. आज तक उस ने जितनी भी नौकरियां कीं, कपूर साहब जैसा मालिक कहीं नहीं देखा.

‘‘वो सर,’’ धीरज ने कुछ कहना चाहा.

‘‘अच्छा, पहले यह बता कि तेरी बेटी कैसी है?’’ कपूर साहब ने उस की बात बीच में ही काट दी.

धीरज ठगा सा रह गया. उस की बेटी के बारे में उन्हें कैसे मालूम? तभी उसे याद हो आया कि पिछले महीने शरबती बेटी के बीमार होने पर उस ने एक हफ्ते की छुट्टी ली थी. हो सकता है कि उस की अरजी मालिक तक पहुंची हो. तभी उस ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘पहले से ठीक है, सर.’’

कपूर साहब की पत्नी लान में 2 कप चाय ले आईं. धीरज ने उठ कर उन्हें नमस्कार किया. कपूर साहब ने पत्नी को उस का परिचय दिया, ‘‘यह अपनी लेबोरेटरी में काम करता है.’’

मालकिन मुसकरा कर अंदर चली गईं. कपूर साहब ने चाय की चुसकी ले कर पूछा, ‘‘हां, तो धीरज अब बताओ कि कैसे आना हुआ?’’

‘‘लोगों की जान बचाइए मालिक,’’ कहते हुए धीरज ने सहीसही बात बता दी.

‘‘ठीक है धीरज…’’ कपूर साहब ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘इस बारे में मैं पूरी छानबीन करूंगा.’’

कपूर साहब को नमस्कार कर धीरज घर की ओर चल पड़ा. रास्तेभर वह उसी मामले पर सोचता रहा, ‘कहीं मैं ने मजदूरों के साथ गद्दारी तो नहीं की?’

उस के कानों में फकीरा के शब्द गूंजते जा रहे थे, ‘मजदूरों को ज्यादा नहीं सोचना चाहिए.’

धीरज दिमागी रूप से बहुत परेशान हो गया था. पत्नी ने कारण पूछा, तो उस ने सारी बात बता दी.

पत्नी हंस कर बोली, ‘‘शरबती के पापा, तुम ने जो भी किया है, अच्छा ही किया है. अपने सही काम पर पछतावा कैसा?’’

‘‘तो अच्छा ही किया, है न?’’ धीरज ने कहा.

‘‘तुम ने तो अपना फर्ज निभाया है,’’ पत्नी ने धीरज के कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा.

कपूर साहब को कुलकर्णी पर बहुत ज्यादा भरोसा था. उन्हें कुलकर्णी से इस तरह की उम्मीद नहीं थी. कपूर साहब ने लेबोरेटरी में बने कैप्सूलों व दूसरी दवाओं की किसी भरोसे की प्रयोगशाला से जांच कराई.

पता चला कि उन में 20 फीसदी मिलावट है. ऐसे में उन्हें सारी दुनिया घूमती नजर आने लगी. इस से उन्हें गहरा धक्का लगा.

एक दिन कपूर साहब ने कुलकर्णी को मैनेजर के पद से हटा दिया. उस की जगह पर वह खुद ही मैनेजर का काम देखने लगे. लेबोरेटरी में फिर से बिना मिलावट के दवाएं बनने लगीं. उन की बिगड़ी साख फिर से लौट आई.

एक दिन कपूर साहब ने धीरज को अपने केबिन में बुलाया. धीरज एक तरफ हाथ बांधे खड़ा हो कर बोला,

‘‘जी मालिक.’’

‘‘हम तुम्हारे बहुत आभारी हैं धीरज,’’ कपूर साहब आभार जताने लगे, ‘‘अगर तुम न होते, तो हम पूरी तरह से तबाह ही हो जाते. हमारी सारी साख मिट्टी में मिल जाती.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था मालिक,’’ धीरज ने कहा.

‘‘हर कोई तो फर्ज नहीं निभाता न,’’ कपूर साहब बोले. धीरज चुप रहा.

‘‘आज से तुम हमारी लेबोरेटरी के सुपरवाइजर बन गए हो,’’ कपूर साहब ने धीरज को उसी समय तरक्की दे दी.

‘‘ओह मालिक,’’ कह कर धीरज उन के पैरों पर गिर गया. कपूर साहब ने उसे दोनों हाथों से उठाया. वह उस की पीठ थपथपाने लगे और कहने लगे, ‘‘यह तरक्की मैं ने नहीं दी है, बल्कि यह तो तुम्हें तुम्हारी काबिलीयत से मिली है.’’

अब धीरज के रहनसहन में बदलाव आने लगा. इस बीच उस की बेटी शरबती भी ठीक हो गई. कपूर साहब की उस लेबोरेटरी में वह और भी लगन व ईमानदारी के साथ काम करने लगा था.

अंतहीन: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

Story in Hindi

अनोखा सबक : सिपाही टीकाचंद ने सीखा कैसा सबक

सिपाही टीकाचंद बड़ी बेचैनी से दारोगाजी का इंतजार कर रहा था. वह कभी अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखता, तो कभी थाने से बाहर आ कर दूर तक नजर दौड़ाता, लेकिन दारोगाजी का कहीं कोई अतापता न था. वे शाम के 6 बजे वापस आने की कह कर शहर में किसी सेठ की दावत में गए थे, लेकिन 7 बजने के बाद भी वापस नहीं आए थे.

‘शायद कहीं और बैठे अपना रंग जमा रहे होंगे,’ ऐसा सोच कर सिपाही टीकाचंद दारोगाजी की तरफ से निश्चिंत हो कर कुरसी पर आराम से बैठ गया.

आज टीकाचंद बहुत खुश था, क्योंकि उस के हाथ एक बहुत अच्छा ‘माल’ लगा था. उस दिन के मुकाबले आज उस की आमदनी यानी वसूली भी बहुत अच्छी हो गई थी.

आज उस ने सारा दिन रेहड़ी वालों, ट्रक वालों और खटारा बस वालों से हफ्ता वसूला था, जिस से उस के पास अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उन पैसों में से टीकाचंद आधे पैसे दारोगाजी को देता था और आधे खुद रखता था.

सिपाही टीकाचंद का रोज का यही काम था. ड्यूटी कम करना और वसूली करना… जनता की सेवा कम, जनता को परेशान ज्यादा करना.

सिपाही टीकाचंद सोच रहा था कि इस आमदनी में से वह दारोगाजी को आधा हिस्सा नहीं देगा, क्योंकि आज उस ने दारोगाजी को खुश करने के लिए अलग से शबाब का इंतजाम कर लिया है.

जिस दिन वह दारोगाजी के लिए शबाब का इंतजाम करता था, उस दिन दारोगाजी खुश हो कर उस से अपना आधा हिस्सा नहीं लेते थे, बल्कि उस दिन का पूरा हिस्सा उसे ही दे देते थे.

रात के तकरीबन 8 बजे तेज आवाज करती जीप थाने के बाहर आ कर रुकी. सिपाही टीकाचंद फौरन कुरसी छोड़ कर खड़ा हो गया और बाहर की तरफ भागा.

नशे में चूर दारोगाजी जीप से उतरे. उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. आंखें नशे से बु?ाबु?ा सी थीं. उन की हालत से तो ऐसा लग रहा था, जैसे उन्होंने शराब पी रखी हो, क्योंकि चलते समय उन के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. उन के होंठों पर पुरानी फिल्म का एक गाना था, जिसे वे बड़े रोमांटिक अंदाज में गुनगुना रहे थे.

दारोगाजी गुनगुनाते हुए अंदर आ कर कुरसी पर ऐसे धंसे, जैसे पता नहीं वे कितना लंबा सफर तय कर के आए हों.

सिपाही टीकाचंद ने चापलूसी करते हुए दारोगाजी के जूते उतारे. दारोगाजी ने सामने रखी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिए और फिर पैरों को ऐसे अंदाज में हिलाने लगे, जैसे वे थाने में नहीं, बल्कि अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे हों.

दारोगाजी ने अपनी पैंट की जेब में से एक महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला और फिल्मी अंदाज में सिगरेट को अपने होंठों के बीच दबाया, तो सिपाही टीकाचंद ने अपने लाइटर से दारोगाजी की सिगरेट जला दी.

‘‘साहबजी, आज आप ने बड़ी देर लगा दी?’’ सिपाही टीकाचंद अपनी जेब में लाइटर रखते हुए बोला.

दारोगाजी सिगरेट का लंबा कश खींच कर धुआं बाहर छोड़ते हुए बोले, ‘‘टीकाचंद, आज माहेश्वरी सेठ की दावत में मजा आ गया. दावत में शहर के बड़ेबड़े लोग आए थे. मेरा तो वहां से उठने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मजबूरी में आना पड़ा.

‘‘अच्छा, यह बता टीकाचंद, आज का काम कैसा रहा?’’ दारोगाजी ने बात का रुख बदलते हुए पूछा.

‘‘आज का काम तो बस ठीक ही रहा, लेकिन आज मैं ने आप को खुश करने का बहुत अच्छा इंतजाम किया है,’’ सिपाही टीकाचंद ने धीरे से मुसकराते हुए कहा, तो दारोगाजी के कान खड़े हो गए.

‘‘कैसा इंतजाम किया है आज?’’ दारोगाजी बोले.

‘‘साहबजी, आज मेरे हाथ बहुत अच्छा माल लगा है. माल का मतलब छोकरी से है साहबजी, छोकरी क्या है, बस ये सम?ा लीजिए एकदम पटाखा है, पटाखा. आप उसे देखोगे, तो बस देखते ही रह जाओगे. मु?ो तो वह छोकरी बिगड़ी हुई अमीरजादी लगती है,’’ सिपाही टीकाचंद ने कहा.

उस की बात सुन कर दारोगाजी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

‘‘टीकाचंद, तुम्हारे हाथ वह कहां से लग गई?’’ दारोगाजी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले.

दारोगाजी के पूछने पर सिपाही टीकाचंद ने बताया, ‘‘साहबजी, आज मैं दुर्गा चौक से गुजर रहा था. वहां मैं ने एक लड़की को अकेले खड़े देखा, तो मुझे उस पर कुछ शक हुआ.

‘‘जिस बस स्टैंड पर वह खड़ी थी, वहां कोई भला आदमी खड़ा होना भी पसंद नहीं करता है. वह पूरा इलाका चोरबदमाशों से भरा हुआ?है.

‘‘उस को देख कर मैं फौरन समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है. उस के आसपास 2-4 लफंगे किस्म के गुंडे भी मंडरा रहे थे.

‘‘मैं ने सोचा कि क्यों न आज आप को खुश करने के लिए उस को थाने ले चलूं. ऐसा सोच कर मैं फौरन उस के पास जा पहुंचा.

‘‘मुझे देख कर वहां मौजूद आवारा लड़के फौरन वहां से भाग लिए. मैं ने उस लड़की का गौर से मुआयना किया.

‘‘फिर मैं ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘कौन हो तुम? और यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह मुझे घूरते हुए बोली, ‘यहां अकेले खड़ा होना क्या जुर्म है?’

‘‘उस का यह जवाब सुन कर मैं समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है और आसानी से कब्जे में आने वाली नहीं.

‘‘मैं ने नाम पूछा, तो वह कहने लगी, ‘मेरे नाम वारंट है क्या?’

‘‘वह बड़ी निडर छोकरी है साहब. मैं जो भी बात कहता, उसे फौरन काट देती थी.

‘‘मैं ने उसे अपने जाल में फंसाना चाहा, लेकिन वह फंसने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘आसानी से बात न बनते देख उस पर मैं ने अपना पुलिसिया रोब झड़ना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से उस पर मेरे रोब का असर हुआ. मैं ने उस पर

2-4 उलटेसीधे आरोप लगा दिए और थाने चलने को कहा, लेकिन थाने चलने को वह तैयार ही नहीं हुई.

‘‘मैं ने कहा, ‘थाने तो तुम्हें जरूर चलना पड़ेगा. वहां तुम से पूछताछ की जाएगी. हो सकता है कि तुम अपने दोस्त के साथ घर से भाग कर यहां आई हो.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह बौखला गई और मुझे धमकी देते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे थाने ले जा कर तुम बहुत पछताओगे, मेरी पहुंच ऊपर तक है.’

‘‘छोकरी की इस धमकी का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसी धमकी सुनने की हमें आदत सी पड़ गई है…

‘‘पता नहीं, आजकल जनता पुलिस को क्या सम?ाती है? हर कोई पुलिस को अपनी ऊंची पहुंच की धमकी दे देता है, जबकि असल में उस की पहुंच एक चपरासी तक भी नहीं होती.

‘‘मैं धमकियों की परवाह किए बिना उसे थाने ले आया और यह कह कर लौकअप में बंद कर दिया कि थोड़ी देर में दारोगाजी आएंगे. पूछताछ के बाद तुम्हें छोड़ दिया जाएगा.

‘‘जाइए, उस से पूछताछ कीजिए, बेचारी बहुत देर से आप का इंतजार कर रही है,’’ सिपाही टीकाचंद ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

दारोगाजी के होंठों पर मुसकान तैर गई. उन की मुसकराहट में खोट भरा था. उन्होंने टीकाचंद को इशारा किया, तो वह तुरंत अलमारी से विदेशी शराब की बोतल निकाल लाया और पैग बना कर दारोगाजी को दे दिया.

दारोगाजी ने कई पैग अपने हलक से नीचे उतार दिए. ज्यादा शराब पीने से उन का चेहरा खूंख्वार हो गया था. उन की आंखें अंगारे की तरह लाल हो गईं.

वह लुंगीबनियान पहन लड़खड़ाते कदमों से लौकअप में चले गए. सिपाही टीकाचंद ने फुरती से दरवाजा बंद कर दिया और वह बैठ कर बोतल में बची हुई शराब खुद पीने लगा.

दारोगाजी को कमरे में घुसे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि उन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं.

सिपाही टीकाचंद ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो दारोगाजी उस के ऊपर गिर पड़े. उन का हुलिया बिगड़ा हुआ था.

थोड़ी देर पहले तक सहीसलामत दारोगाजी से अब अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. इस से पहले कि सिपाही टीकाचंद कुछ सम?ा पाता, उस के सामने वही लड़की आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘देख ली अपने दारोगाजी की हालत?’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को. सरकार तुम्हें यह वरदी जनता की हिफाजत करने के लिए देती है, लेकिन तुम लोग इस वरदी का नाजायज फायदा उठाते हो,’’ लड़की चिल्लाते हुए बोली.

लड़की एक पल के लिए रुकी और सिपाही टीकाचंद को घूरते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी बदतमीजी का मजा मैं तुम्हें वहीं चखा सकती थी, लेकिन उस समय तुम ने वरदी पहन रखी थी और मैं तुम पर हाथ उठा कर वरदी का अपमान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यह वरदी हमारे देश की शान है और हमें इस का अपमान करने का कोई हक नहीं. पता नहीं, क्यों सरकार तुम जैसों को यह वरदी पहना देती है?’’

लड़की की इस बात से सिपाही टीकाचंद कांप उठा.

‘‘जातेजाते मैं तुम्हें अपनी पहुंच के बारे में बता दूं, मैं यहां के विधायक की बेटी हूं,’’ कह कर लड़की तुरंत थाने से बाहर निकल गई.

सिपाही टीकाचंद आंखें फाड़े खड़ा लड़की को जाते हुए देखता रहा.

दारोगाजी जमीन पर बैठे दर्द से कराह रहे थे. उन्होंने लड़की को परखने में भूल की थी, क्योंकि वह जूडोकराटे में माहिर थी. उस ने दारोगाजी की जो धुनाई की थी, वह सबक दारोगाजी के लिए अनोखा था.

पटनिया: एडवैंचर आटोरिकशा ट्रिप

बचपन से ही मुझे एडवैंचर ट्रिप पर जाने का शौक रहा है. जान हथेली पर रख कर स्टंट द्वारा लाइफ के साथ लाइफ से खेलने या मजा लेने की इच्छाएं मेरे खून, दिल, गुरदे, फेफड़े वगैरह में उफान मारा करती थीं, लेकिन कमजोर दिल और कमजोर अर्थव्यवस्था के चलते अपने इस शौक को मैं डिस्कवरी चैनल, ऐक्शन हौलीवुड मूवी या रोहित शेट्टी की फिल्में देख कर पूरा कर लिया करता था.

कहते हैं कि जिस चीज की तमन्ना शिद्दत से की जाए तो सारी कायनात उसे मिलाने की साजिश करने लगती है. कुछ इसी तरह की घटना मेरे साथ भी हुई. कुदरत ने मेरी सुन ली और मुझे भी कम खर्च में नैचुरल एडवैंचर जर्नी का सुनहरा मौका मिल ही गया.

पहली बार बिहार की राजधानी पटना जाना हुआ. फिर क्या था, साधारण टिकट ले कर रेलवे के साधारण डब्बे में सेंध लगा कर घुस गया. सेंध लगाना मजबूरी थी, क्योंकि 103 सीट वाली अनारक्षित हर बोगी में तकरीबन 300 पैसेंजर भेड़बकरियों की तरह सीट, लगेज सीट, फर्श, टौयलैट और गेट पर बैठेखड़े, लटके या फिर टिके हुए थे.

मैं भी इमर्जैंसी विंडो के सहारे किसी तरह डब्बे में घुस कर अपने आयतन के अनुसार खड़ा रहने की जगह पर कब्जा कर बैठा. स्टेशनों पर चढ़नेउतरने वाले मुसाफिरों की धक्कामुक्की और गैरकानूनी वैंडरों की ठेलमठेल के बीच खुद को बैलेंस करते हुए 6 घंटे की रोमांचक यात्रा के बाद मैं आखिरकार पटना जंक्शन पहुंच ही गया.

इस के बाद मैं पटना जंक्शन से पटना सिटी के लिए आटोरिकशा की तलाश में बाहर निकला.पटना सिटी के लिए बड़ी आसानी आटोरिकशा मिल गया. ड्राइवर ने उस के पीछे वाली चौड़ी सीट पर 3 लोगों को बैठाया, जबकि आगे की ड्राइवर सीट वाली कम जगह पर अपने अलावा 3 दूसरे पैसेंजर को बड़ी ही कुशलता से एडजस्ट कर लिया.

कमोबेश सभी आटोरिकशा ड्राइवर तीनों पैसेंजर के साथ खुद को सैट कर  टेकऔफ करने के हालात में नजर आ रहे थे. कुछ ड्राइवर ड्राइविंग सीट पर बीच में बैठ कर तो कुछ साइड में शिफ्ट हो कर बैठे थे. समझ लो कि अपनी तशरीफ को 45 डिगरी के कोण पर सैट कर के आटोरिकशा हुड़हुड़ाने को तैयार था.

ड्राइवर समेत कुल 4 सीट वाले आटोरिकशा में 7 लोगों के सफर करने का हुनर देख कर मुझे समझते देर न लगी कि पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर बेहतरीन मैनेजर होते हैं. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस तरह का रोमांचक सीन आल इंडिया लैवल पर सिर्फ और सिर्फ पटना की सड़कों पर ही देखा जा सकता है.

पटना की सड़कों पर दोपहिया और चारपहिया के बीच तिपहिया की धूम के आगे रितिक रौशन और उदय चोपड़ा की ‘धूम’ भी फेल है.

पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर समय का पक्का होता है. बसस्टैंड से पैसेंजर को बैठाने के चक्कर में ड्राइवर ने भले ही जितनी देरी की हो, पर पैसेंजर सीट फुल होने के बाद वह बाएंदाएं, राइट साइड, रौंग साइड, आटोरिकशा की मैक्सिमम स्पीड और तेज शोर के साथ राकेट की रफ्तार से मंजिल की ओर कूच कर गया.

भले ही इन लोगों के चलते सड़क पर जाम लग जाए, पर लाइन में रह कर समय बरबाद करने मे ये आटोरिकशा वाले यकीन नहीं रखते और अमिताभ बच्चन की तरह अपनी लाइन खुद तैयार कर लेते हैं.

शायद आगे सड़क पर जाम था या पेपर चैकिंग मुहिम चल रही थी, पता नहीं, पर इस बात का ड्राइवर को जैसे ही अंदाजा हुआ, फिर क्या था… उस ने हम सब को पटना की ऐसी टेढ़ीमेढ़ी गलियों में गोलगोल घुमाया, जिन गलियों को ढूंढ़ पाना कोलंबस के वंशज के वश से बाहर था. मुझे समझते देर न लगी कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर आविष्कारक या खोजी सोच के होते हैं.

हम राकेट की रफ्तार से सफर का मजा ले ही रहे थे कि फ्लाईओवर पर पीछे से हुड़हुड़ाता हुआ एक आटोरिकशा काफी तेजी से हमारे आगे निकल गया. शायद सवारियों से ज्यादा मंजिल तक पहुंचने की जल्दी ड्राइवर को थी. इसी मकसद को पूरा करने के लिए वह तीखे मोड़ पर टर्न लेने के दौरान तेज रफ्तार से बिना ब्रेक लिए पलटीमार सीन का लाइव प्रसारण कर बैठा.

हमारे खुद के आटोरिकशा की बेहिसाब स्पीड और रेस में आगे निकल रहे दूसरे आटोरिकशा का हश्र देख कर मेरे कलेजे के अंदर डीजे बजने लगा. समझते देर न लगी कि पटनिया सड़कों पर ड्राइवर के रूप में यमराज के दूत भी मौजूद हैं, जो अपनी हवाहवाई स्पीड और रेस से सवारियों को परिवार या परिचित तक पहुंचाने के साथसाथ अस्पताल से ऊपर वाले के दर्शन तक कराने में भी मास्टर होते हैं.

ऐसा नहीं है कि बिना सैंसर बोर्ड वाले वाहियात भोजपुरी गीत इंडस्ट्री की तरह पटनिया परिवहन बिना ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम वाली है. सौ से सवा सौ मीटर पर यातायात पुलिस वाले मौजूद रहते हैं.

ये पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर की औकात से ज्यादा सवारी ढोने और जिगजैग ड्राइविंग जैसे साहसिक कारनामे के दौरान धृतराष्ट्र मोड में, जबकि हैलमैट, सीट बैल्ट, कागजात वगैरह चैक करने के दौरान संजय मोड में अपनी जिम्मेदारी पूरी करते नजर आते हैं.

बातोंबातों में एक बात बताना भूल ही गया कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर किराया मीटर या दूरी के बजाय पैसेंजर की मजबूरी के मुताबिक तय कर लेते हैं. घटतेबढ़ते पैट्रोल के कीमत की तरह समय, स्टैंड पर आटोरिकशा की तादाद और मुसाफिरों के मंजिल तक पहुंचने की जरूरत के हिसाब से ड्राइवर को किराया तय करते देख और सफर के दौरान ब्लूटूथ स्पीकर से सवारियों को भोंड़े भोजपुरी गीत सुनवाने की इन की आदत से मुझे समझते देर न लगी कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर कुशल अर्थशास्त्री और संगीत प्रेमी भी हैं.

अगर आप भी रोहित शेट्टी के प्रोग्राम ‘खतरों के खिलाड़ी’ में नहीं जा सके हों और महंगाई के आलम में जान हथेली पर वाले एडवैंचर ट्रिप के शौक को पूरा करने से चूक गए हैं, तो महज 10 से 20 रुपए में पटनिया टैंपू ट्रैवल एडवैंचर ट्रिप का मजा किसी भी सीजन में ले सकते हैं. मेरी गारंटी है कि इस शानदार ट्रिप में आप को हर पल यादगार रोमांच हासिल होगा.

आखिर कब तक : धर्म बना दीवार

रामरहमानपुर गांव सालों से गंगाजमुनी तहजीब की एक मिसाल था. इस गांव में हिंदुओं और मुसलिमों की आबादी तकरीबन बराबर थी. मंदिरमसजिद आसपास थे. होलीदीवाली, दशहरा और ईदबकरीद सब मिलजुल कर मनाते थे.

रामरहमानपुर गांव में 2 जमींदारों की हवेलियां आमनेसामने थीं. दोनों जमींदारों की हैसियत बराबर थी और आसपास के गांव में बड़ी इज्जत थी.

दोनों परिवारों में कई पीढि़यों से अच्छे संबंध बने हुए थे. त्योहारों में एकदसूरे के यहां आनाजाना, सुखदुख में हमेशा बराबर की सा  झेदारी रहती थी.

ब्रजनंदनलाल की एकलौती बेटी थी, जिस का नाम पुष्पा था. जैसा उस का नाम था, वैसे ही उस के गुण थे. जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. उस की उम्र नादान थी. रस्सी कूदना, पिट्ठू खेलना उस के शौक थे. गांव के बड़े   झूले पर ऊंचीऊंची पेंगे लेने के लिए वह मशहूर थी.

शौकत अली के एकलौते बेटे का नाम जावेद था. लड़कों की खूबसूरती की वह एक मिसाल था. बड़ों की इज्जत करना और सब से अदब से बात करना उस के खून में था. जावेद के चेहरे पर अभी दाढ़ीमूंछों का निशान तक नहीं था.

जावेद को क्रिकेट खेलने और पतंगबाजी करने का बहुत शौक था. जब कभी जावेद की गेंद या पतंग कट कर ब्रजनंदनलाल की हवेली में चली जाती थी, तो वह बिना  ि झ  झक दौड़ कर हवेली में चला जाता और अपनी पतंग या गेंद ढूंढ़ कर ले आता.

पुष्पा कभीकभी जावेद को चिढ़ाने के लिए गेंद या पतंग को छिपा देती थी. दोनों में खूब कहासुनी भी होती थी. आखिर में काफी मिन्नत के बाद ही जावेद को उस की गेंद या पतंग वापस मिल पाती थी. यह अल्हड़पन कुछ समय तक चलता रहा. बड़ेबुजुर्गों को इस खिलवाड़ पर कोई एतराज भी नहीं था.

समय तो किसी के रोकने से रुकता नहीं. पुष्पा अब सयानी हो चली थी और जावेद के चेहरे पर दाढ़ीमूंछ आने लगी थीं. अब जावेद गेंद या पतंग लेने हवेली के अंदर नहीं जाता था, बल्कि हवेली के बाहर से ही आवाज दे देता था.

पुष्पा भी अब बिना   झगड़ा किए नजर   झुका कर गेंद या पतंग वापस कर देती थी. यह   झुकी नजर कब उठी और जावेद के दिल में उतर गई, किसी को पता भी नहीं चला.

अब जावेद और पुष्पा दिल ही दिल में एकदूसरे को चाहने लगे थे. उन्हें अल्हड़ जवानी का प्यार हो गया था.

कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. गांव में दोनों के प्यार की बातें होने लगीं और बात बड़ेबुजुर्गों तक पहुंची.

मामला गांव के 2 इज्जतदार घरानों का था. इसलिए इस के पहले कि मामला तूल पकड़े, जावेद को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया गया. यह सोचा गया कि वक्त के साथ इस अल्हड़ प्यार का बुखार भी उतर जाएगा, पर हुआ इस का उलटा.

जावेद पर पुष्पा के प्यार का रंग पक्का हो गया था. वह सब से छिप कर रात के अंधेरे में पुष्पा से मिलने आने लगा. लुकाछिपी का यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका. उन की रासलीला की चर्चा आसपास के गांवों में भी होने लगी.

आसपास के गांवों की महापंचायत बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि गांव में अमनचैन और धार्मिक भाईचारा बनाए रखने के लिए दोनोंको उन की हवेलियों में नजरबंद कर दिया जाए.ब्रजनंदनलाल और शौकत अली को हिदायत दी गई कि बच्चों पर कड़ी नजर रखें, ताकि यह बात अब आगे न बढ़ने पाए. कड़ी सिक्योरिटी के लिए दोनों हवेलियों पर बंदूकधारी पहरेदार तैनात कर दिए गए.

अब पुष्पा और जावेद अपनी ही हवेलियों में अपने ही परिवार वालों की कैद में थे. कई दिन गुजर गए. दोनों ने खानापीना छोड़ दिया था. आखिरकार दोनों की मांओं का हित अपने बच्चों की हालत देख कर पसीज उठा. उन्होंने जातिधर्म के बंधनों से ऊपर उठ कर घर के बड़ेबुजुर्गों की नजर बचा कर गांव से दूर शहर में घर बसाने के लिए अपने बच्चों को कैद से आजाद कर दिया.

रात के अंधेरे में दोनों अपनी हवेलियों से बाहर निकल कर भागने लगे. ब्रजनंदनलाल और शौकत अली तनाव के कारण अपनी हवेलियों की छतों पर आधी रात बीतने के बाद भी टहल रहे थे. उन दोनों को रात के अंधेरे में 2 साए भागते दिखाई दिए. उन्हें चोर सम  झ कर दोनों जोर से चिल्लाए, पर वे दोनों साए और तेजी से भागने लगे.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली ने बिना देर किए चिल्लाते हुए आदेश दे दिया, ‘पहरेदारो, गोली चलाओ.’

‘धांयधांय’ गोलियां चल गईं और 2 चीखें एकसाथ सुनाई पड़ीं और फिर सन्नाटा छा गया.जब उन्होंने पास जा कर देखा, तो सब के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई. पुष्पा और जावेद एकदूसरे का हाथ पकड़े गोलियों से बिंधे पड़े थे. ताजा खून उन के शरीर से निकल कर एक नई प्रेमकहानी लिख रहा था.

आननफानन यह खबर दोनों हवेलियों तक पहुंच गई. पुष्पा और जावेद की मां दौड़ती हुई वहां पहुंच गईं. अपने जिगर के टुकड़ों को इस हाल में देख कर वे दोनों बेहोश हो गईं. होश में आने पर वे रोरो कर बोलीं, ‘अपने जिगर के टुकड़ों का यह हाल देख कर अब हमें भी मौत ही चाहिए.’

ऐसा कह कर उन दोनों ने पास खड़े पहरेदारों से बंदूक छीन कर अपनी छाती में गोली मार ली. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कोई उन को रोक भी नहीं पाया. यह खबर आग की तरह आसपास के गांवों में पहुंच गई. हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी. सवेरा हुआ, पुलिस आई और पंचनामा किया गया. एक हवेली से 2 जनाजे और दूसरी हवेली से 2 अर्थियां निकलीं और उन के पीछे हजारों की तादाद में भीड़.

अंतिम संस्कार के बाद दोनों परिवार वापस लौटे. दोनों हवेलियों के चिराग गुल हो चुके थे. अब ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की जिंदगी में बच्चों की यादों में घुलघुल कर मरना ही बाकी बचा था.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की निगाहें अचानक एकदसूरे से मिलीं, दोनों एक जगह पर ठिठक कर कुछ देर तक देखते रहे, फिर अचानक दौड़ कर एकदूसरे से लिपट कर रोने लगे.

गहरा दुख अपनों से मिल कर रोने से ही हलका होता है. बरसों का आपस का भाईचारा कब तक उन्हें दूर रख सकता था. शायद दोनों को एहसास हो रहा था कि पुरानी पीढ़ी की सोच में बदलाव की जरूरत है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें