Family Story: मैं चुप ही रहूंगा – आपसी कलह में पिसता गया सुधीर का परिवार

Family Story: ‘‘मां, कल रश्मि का बर्थडे है. उसे रात को 12 बजे केक काटने का बहुत शौक है, इसलिए आज आप को थोड़ा ऐडजस्ट करना पड़ेगा. मैं औफिस से आता हुआ केक ले आऊंगा, आप उसे फ्रिज में छिपा देना. आज शायद आप को सोने में थोड़ी देर हो जाए. उसे रात को सरप्राइज देंगे,’’ पवन की आवाज में जो उत्साह था, वह एक पल में ही खत्म हो गया जब माया ने कहा, ‘‘यह 12 बजे केक काटने का नाटक मुझे बिलकुल पसंद नहीं है. दिन में भी तो बर्थडे मना सकते हो. यह सब नहीं चलेगा. बेवजह मेरी नींद खराब होगी.’’

वहीं बैठे हुए सुधीर ने कहा, ‘‘माया, बहू का पहला बर्थडे है हमारे साथ, बच्चों को अच्छी तरह से जन्मदिन मनाने दो. एक दिन थोड़ी देर से सोएंगे, तो क्या हो जाएगा.’’ माया दहाड़ी, ‘‘तुम तो चुप ही रहो. खुद तो सो जाओगे, मेरी नींद डिस्टर्ब होती है. नहीं, यह सब शुरू ही मत करो वरना हर साल यह ड्रामा होगा.’’ पवन को बहुत बुरा लगा. वह बोला, ‘‘ठीक है मां, फिर मैं शाम को ही रश्मि को बाहर ले जाता हूं. बाहर ही डिनर कर के वहीं केक भी काट लेंगे. आप सो जाना अपने टाइम पर.’’

माया को झटका लगा, बोली, ‘‘साल भी नहीं हुआ शादी हुए, इतने गुलाम बन गए हो.’’ पवन को गुस्सा आ गया, ‘‘आप क्या समझेंगी पतिपत्नी की आपसी समझ को?’’

माया चिल्लाई, ‘‘क्यों नहीं समझूंगी, मैं क्या पत्नी नहीं हूं तुम्हारे पिता की, इतने सालों से मैं क्या झक मार रही हूं?’’

‘‘आप कैसी पत्नी हैं, आप अच्छी तरह जानती होंगी?’’

माया के गुस्से का ठिकाना नहीं था. पर बेटा कहीं हाथ से न निकल जाए, इस बात का ध्यान गुस्से में भी था. स्वर को संयत करते हुए बोली, ‘‘ठीक है, जैसी मरजी हो, कर लो, हम ने कभी घर में न यह सब नाटक किया, न देखा, इसलिए हमारे लिए थोड़ा नया ही है यह सब. खैर, ले आना केक.’’ सब डाइनिंग टेबल पर बैठे थे. रश्मि औफिस के लिए जल्दी निकलती थी. वह जा चुकी थी. सुधीर ने कहा, ‘‘पवन, रश्मि की पसंद का ‘ब्लू बेरी चीज’ केक लाओगे न? उसे यही फ्लेवर पसंद है.’’ पवन मुसकरा दिया, ‘‘वाह पापा, आप को याद है?’’

‘‘हां, मेरे बर्थडे पर वह यही लाई थी, तभी उस ने बताया था. बहुत प्यारी बच्ची है.’’

माया को बहू की तारीफ सुन कर गुस्सा आ गया, ‘‘तुम चुप नहीं रह सकते. चुपचाप नाश्ता करो. तुम से किसी ने उस की तारीफ का सर्टिफिकेट मांगा है क्या.’’ कर्कशा, मुंहफट पत्नी को देखते हुए सुधीर ने दुख से कहा, ‘‘चुप ही तो हूं सालों से.’’

‘‘पापा, अब मैं चलता हूं, बाय,’’ कह कर पवन भी औफिस के लिए निकल गया. सुधीर सब से बाद में निकलते थे. उन का औफिस घर के पास ही था. वे चुपचाप अपना बैग ले कर निकल रहे थे. माया का बड़बड़ाना उन के कानों में पड़ ही रहा था, ‘सालभर नहीं हुआ है घर में आए हुए, पता नहीं यह लड़की क्या जादू जानती है, पति को पहले दिन से ही गुलाम बना कर रखा है.’

सुधीर चले गए, सामान इधर से उधर रखती हुई माया गुस्से में तपी घूम रही थी. इकलौता बेटा है पवन, उस से उलझना भी नहीं चाहती. कहीं बहू को ले कर अलग हो गया तो क्या करेगी. बेटे को भी दूर नहीं होने देना है, बहू को भी दबा कर रखना है. क्या करे, यह लड़की तो हाथ ही नहीं आती. सुबह ही निकल जाती है, शाम को लगभग सुधीर के साथ ही आती है. पवन भी तभी आ जाता है. घर में काम के लिए कोई क्लेश न हो, यह सोच कर बहूरानी ने पहले दिन से कुक रख ली है. दलील दी थी, ‘मां, औफिस के काम के चक्कर में किचन में आप का हाथ ज्यादा नहीं बंटा पाऊंगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा कि आप पर ही सब काम रहे. यह लता अच्छी कुक है. दोनों टाइम जो खाना बनवाना हो, इस से बनवा लेना. आप को भी आराम मिलेगा.’ सुधीर और पवन ने भी इस बात का समर्थन किया था. माया जब अकेली पड़ गई तो तीनों के सामने क्या कहती. बात माननी पड़ी. सफाईबरतन का काम राधा कर ही जाती थी. अब बचा क्या जिसे ले कर रश्मि की क्लास ले. मौका ही नहीं देती. मांमां करती घर में घुसती है, सुबह मांमां करती निकल जाती है.

आज सुधीर भी औफिस में माया के बारे में ही सोच रहे थे. इतने सुशिक्षित, सभ्य इंसान हो कर भी कैसी कर्कशा, क्लेशप्रिया पत्नी मिली है उन्हें. नारी के हृदय की कोमलता तो उसे छू कर भी नहीं गुजरी कभी. यह उन के पिता ने कैसी लड़की उन के पल्ले बांध दी जिस के साथ निभातेनिभाते वे थक गए हैं. वह तो अब उन के घर में रश्मि बहू बन कर ताजी हवा के झोंके की तरह आई है, तो घर, घर लगने लगा है. कितनी अच्छी बच्ची है. कितनी पढ़ीलिखी, कितनी शालीन पर माया के स्वभाव के कारण किसी दिन बेटेबहू दूर न हो जाएं, यह बात उन के मन को अकसर उदास कर देती थी.

शाम को रश्मि औफिस से आई. पवन को आज आने में थोड़ा टाइम था. उसे रश्मि के बर्थडे के लिए केक और गिफ्ट लेना था. रश्मि ने पूछा, ‘‘पापा, डिनर लगा दूं?’’

‘‘पवन को आने दो.’’

‘‘उन्हें थोड़ी देर होगी, कहा है सब लोग खाना खा लेना.’’

सुधीर ने कहा, ‘‘ठीक है, फिर लगा दो.’’ रश्मि डिनर लगाने लगी, माया वहीं बैठी टैलीविजन देख रही थी. रश्मि ने खाना लगाते हुए कहा, ‘‘मां, आप ने फिर कोफ्ते बनवाए हैं? अभी तो बने थे.’’

‘‘हां, मुझे बहुत पसंद हैं, लता अच्छे बनाती है.’’

‘‘पर मां, पापा ने तो कल दाल और करेले बनवाने के लिए कहा था.’’

‘‘मेरा मन नहीं था वह सब खाने का.’’

‘‘ठीक है मां, पर कल जरा पापा की पसंद का खाना बनवा लेना.’’

सुधीर ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, जो बना है ठीक है.’’

माया ने फटकार लगाई, ‘‘तुम चुप रहो. ज्यादा शरीफ बन कर दिखाने की जरूरत नहीं है.’’ सुधीर के चेहरे का रंग अपमान से काला पड़ गया. वे पत्नी का मुंह देखते रह गए. क्या यह औरत कभी नहीं सुधरेगी. वह उन की शराफत, शालीनता का सारी उम्र फायदा उठाती रही है. अब बेटेबहू के सामने भी क्या उन का अपमान करती रहेगी? क्या वही अच्छा रहता कि इस की बदतमीजी पर एक थप्पड़ शुरू में ही लगा देता? क्या ऐसी औरतें तभी ठीक रहती हैं. क्या उन का अपने क्रोध पर संयम रखना ही उन की कमजोरी बन गया है? घर में, बेटे के जीवन में सुखशांति के लिए हमेशा चुप रहना ही क्या उन की नियति है? रश्मि ने सुधीर का उदास चेहरा देखा तो सब समझ गई. उसे बहुत दुख हुआ. वह बहुत ही समझदार लड़की थी. कई बार उस ने पवन से अकेले में मजाक भी किया था, ‘पुरानी ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्में ज्यादा तो नहीं देखीं पर जितनी भी देखी और सुनी हैं, मां को देख कर ललिता पवार याद आ जाती है.’ पवन ने घूरने के बाद फिर स्वीकारा था, ‘हां, रश्मि, पापा जितने शांत हैं, मां उतना ही गुस्से वाली. बेचारे पापा, मैं ने उन्हें ही हमेशा सामंजस्य बिठाते देखा है.’

रश्मि ने खूब उत्साह से 12 बजे केक काटा. पवन उस के लिए एक सुंदर साड़ी भी लाया था. सुधीर ने भी एक लिफाफा रश्मि को देते हुए सिर पर प्यारभरा हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, हमारी तरफ से अपनी पसंद का कुछ ले लेना कल.’’ इस पर माया चौंकी, पर बोली कुछ नहीं. रश्मि बहुत खुश हुई. पवन ने कहा, ‘‘मां, कल हम दोनों ने छुट्टी ली है. कल सब मूवी देखने चलेंगे.’’ सुधीर को फिल्मों का बहुत शौक था, उत्साह से पूछा, ‘‘हांहां, बिलकुल, कौनसी?’’

रश्मि ने कहा, ‘‘जो आप कहें, पापा.’’

माया ने कहा, ‘‘मेरा मन नहीं है, मुझे नहीं जाना.’’

सुधीर ने कहा, ‘‘चलो न माया, बच्चों के साथ तो कभी गए ही नहीं अब तक.’’

‘‘नहीं, मेरा मूड नहीं है.’’

पवन ने कहा, ‘‘मां, मूवी देखेंगे, डिनर करेंगे, कल खूब एंजौय करेंगे सब.’’

रश्मि तो बहुत ही उत्साहित थी, बोली, ‘‘हां मां, बर्थडे है मेरा, खूब मजा आएगा, चलिए न.’’

‘‘नहीं, अब मुझे नींद आ रही है. पहले ही इतनी देर हो गई सोने में,’’ कह कर माया बैडरूम में चली गई तो सुधीर भी एक ठंडी सांस ले कर ‘गुडनाइट’ कह कर सोने चले गए. रश्मि ने बैडरूम में पवन से कहा, ‘‘पवन, बुरा मत मानना, मुझे मां की कई बातें पसंद नहीं हैं.’’

‘‘हां, रश्मि, मां शुरू से ही ऐसी हैं. मुझे भी बहुत दुख होता है.’’

‘‘पर मैं मां का यह व्यवहार ज्यादा सहन नहीं करूंगी, अभी बता देती हूं.’’ पवन चुप ही रहा, वह तो बचपन से ही मां का जिद्दी, गुस्सैल स्वभाव देखता आ रहा था. सुबह जब रश्मि सो कर उठी तो देखा सुधीर ड्राइंगरूम में रखे दीवान पर सो रहे थे. आहट से उठे तो रश्मि ने पूछा, ‘‘पापा, आप यहां क्यों सोए?’’

‘‘सोने में माया को देर हो गई तो वह मेरे करवट बदलने से डिस्टर्ब हो रही थी, उसे परेशानी हो रही थी.’’

‘‘पर इस गद्दे पर सोने से आप को गरदन में दर्द होता है न.’’

‘‘हां, पर ठीक है, कोई बात नहीं.’’

‘‘कोई बात कैसे नहीं पापा, आप को तकलीफ होगी तो यह क्या अच्छी बात है?’’ सुधीर बिना कुछ बोले फ्रैश होने चले गए. सुधीर की इच्छा देखते हुए भी माया मूवी देखने नहीं गई. सुधीर ने ही पवन और रश्मि को भेजते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, हम तुम्हें डिनर पर जौइन करेंगे, बता देना, कहां आना है.’’ डिनर पर माया आराम से तैयार हो कर गई. चारों ने अच्छे मूड में डिनर किया और लौट आए. आज रश्मि मन ही मन बहुत सारी बातें सोच चुकी थी. घर आते ही सुधीर का मोबाइल बजा. बात करने के बाद उन्होंने बताया, ‘‘माया, अगले महीने मुग्धा आ रही है, संजीव भी साथ आएगा.’’

माया गुर्राई, ‘‘क्यों?’’

‘‘अरे, उस के भाई का घर है, एक ही तो बहन है मेरी, उस का रश्मि से मिलने का मन है.’’

रश्मि खुश हुई, ‘‘वाह, बूआजी आ रही हैं. मजा आएगा. विवाह के समय भी वे मुझे बहुत अच्छी लगी थीं.’’

‘‘हां, बहुत खुशमिजाज है मेरी बहन.’’

‘‘तुम तो चुप ही रहो,’’ माया चिढ़ गई, ‘‘क्या मजा आएगा. गरमी में किसी के आने पर कितनी परेशानी होती है, तुम्हें क्या पता.’’ रश्मि आज चुप नहीं रह पाई, बोली, ‘‘मां, पापा ही हमेशा क्यों चुप रहें. उन की बहन है, अपनी बहन के आने पर वे खुश क्यों न हों?’’

माया ने रश्मि को डांट दिया, ‘‘मुझ से बहस करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हो रही है?’’

‘‘मां, बहस कहां कर रही हूं. जब से आई हूं यही तो देख रही हूं कि पापा कुछ बोल ही नहीं सकते.’’

माया के गुस्से की सीमा नहीं थी, ‘‘पवन, देख रहा है? इस की इतनी हिम्मत?’’

रश्मि ने बहुत मधुर स्वर में कहा, ‘‘मां, मुझे अच्छा नहीं लगता आप पापा को बोलने ही नहीं देतीं. मैं ने अपने घर में अपने मम्मीपापा का एकदूसरे के लिए बहुत ही प्यार और आदरभरा रिश्ता देखा है और वैसे ही पवन के साथ रहने की इच्छा है. यहां मुझे और कोई कमी नहीं है, बस, आप का पापा के साथ जो रवैया है, वह खटकता है. पापा का स्वभाव कितना अच्छा है.’’ पवन ने रश्मि के कंधे पर हाथ रख कर उसे शांत रहने का इशारा किया तो माया ने तेज आवाज में कहा, ‘‘सुन रहा है इस की बातें?’’

‘‘मां, रश्मि ठीक ही तो कह रही है. मैं और पापा सालों से आप का जिद्दी और गुस्सैल स्वभाव सहते आ रहे हैं पर अपने घर का अच्छा माहौल देख कर आने वाली लड़की को तो आप का स्वभाव अजीब ही लगेगा.’’ माया को तो आज झटके पर झटके लग रहे थे. उस ने सुधीर से कहा, ‘‘मेरी शक्ल क्या देख रहे हो, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?’’ सुधीर का चेहरा तो बच्चों की बातें सुन कर अलग ही खुशी से चमक रहा था. हंसते हुए बोले, ‘‘भई, मैं तो आज भी चुप ही रहूंगा.’’ पवन और रश्मि ने भी खुल कर उन की उन्मुक्त हंसी में उन का साथ दिया तो माया का चेहरा देखने लायक था.

Family Story: कब जाओगे प्रिय – क्या कविता गलत संगत में पड़ गई थी?

Family Story: अपना बैग पैक करते हुए अजय ने कविता से बहुत ही प्यार से कहा, ‘‘उदास मत हो डार्लिंग, आज सोमवार है, शनिवार को आ ही जाऊंगा. फिर वैसे ही बच्चे तुम्हें कहां चैन लेने देते हैं. तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि मैं कब गया और कब आया.’’ कविता ने शांत, गंभीर आवाज में कहा, ‘‘बच्चे तो स्कूल, कोचिंग में बिजी रहते हैं… तुम्हारे बिना कहां मन लगता है.’’

‘‘सच मैं कितना खुशहाल हूं, जो मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिली. कौन यकीन करेगा इस बात पर कि शादी के 20 साल बाद भी तुम मुझे इतना प्यार करती हो… आज भी मेरे टूअर पर जाने पर उदास हो जाती हो… आई लव यू,’’ कहतेकहते अजय ने कविता को गले लगा लिया और फिर बैग उठा कर दरवाजे की तरफ बढ़ गया. कविता का उदास चेहरा देख कर फिर प्यार से बोला, ‘‘डौंट बी सैड, हम फोन पर तो टच में रहते ही हैं, बाय, टेक केयर,’’ कह कर अजय चला गया.

कविता दूसरी फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में जा कर जाते हुए अजय को देखने लगी. नीचे से अजय ने भी टैक्सी में बैठने से पहले सालों से चले आ रहे नियम का पालन करते हुए ऊपर देख कर कविता को हाथ हिलाया और फिर टैक्सी में बैठ गया. कविता ने अंदर आ कर घड़ी देखी. सुबह के 10 बज रहे थे. वह ड्रैसिंगटेबल के शीशे में खुद को देख कर मुसकरा उठी. फिर उस ने रुचि को फोन मिलाया, ‘‘रुचि, क्या कर रही हो?’’

रुचि हंसी, ‘‘गए क्या पति?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘फटाफट अपना काम निबटा, अंजलि से भी बात करती हूं, मूवी देखने चलेंगे, फिर लंच करेंगे.’’

‘‘तेरी मेड काम कर के गई क्या?’’

‘‘हां, मैं ने उसे आज 8 बजे ही बुला लिया था.’’

‘‘वाह, क्या प्लानिंग होती है तेरी.’’

‘‘और क्या भई, करनी पड़ती है.’’

रुचि ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आधे घंटे में मिलते हैं.’’

कविता ने बाकी सहेलियों अंजलि, नीलम और मनीषा से भी बात कर ली. इन सब की आपस में खूब जमती थी. पांचों हमउम्र थीं, सब के बच्चे भी हमउम्र ही थे. सब के बच्चे इतने बड़े तो थे ही कि अब उन्हें हर समय मां की मौजूदगी की जरूरत नहीं थी. कविता और रुचि के पति टूअर पर जाते रहते थे. पहले तो दोनों बहुत उदास और बोर होती थीं पर अब पतियों के टूअर पर जाने का जो समय पहले इन्हें खलता था अब दोनों को उन्हीं दिनों का इंतजार रहता था. कविता ने अपने दोनों बच्चों सौरभ और सौम्या को घर की 1-1 चाबी सुबह ही स्कूल जाते समय दे दी थी. आज का प्रोग्राम तो उस ने कल ही बना लिया था. नियत समय पर पांचों सहेलियां मिलीं. रुचि की कार से सब निकल गईं. फिर मूवी देखी. उस के बाद होटल में लंच करते हुए खूब हंसीमजाक हुआ. मनीषा ने आहें भरते हुए कहा, ‘‘काश, अनिल की भी टूरिंग जौब होती तो सुबहशाम की पतिसेवा से कुछ फुरसत मुझे भी मिलती और मैं भी तुम दोनों की तरह मौज करती.’’

रुचि ने छेड़ा, ‘‘कर तो रही है तू मौज अब भी… अनिल औफिस में ही हैं न इस समय?’’

‘‘हां यार, पर शाम को तो आ जाएंगे न… तुम दोनों की तो पूरी शाम, रात तुम्हारी होगी न.’’

कविता ने कहा, ‘‘हां भई, यह तो है. अब तो शनिवार तक आराम ही आराम.’’ मनीषा ने चिढ़ने की ऐक्टिंग करते हुए कहा, ‘‘बस कर, हमें जलाने की जरूरत नहीं है.’’ नीलम ने भी अपने दिल की बात कही, ‘‘यहां तो बिजनैस है, न घर आने का टाइम है न जाने का, पता ही नहीं होता कब अचानक आ जाएंगे. फोन कर के बताने की आदत नहीं है. न घर की चाबी ले जाते हैं. कहते हैं, तुम तो हो ही घर पर… इतना गुस्सा आता है न कभीकभी कि क्या बताऊं.’’

रुचि ने पूछा, ‘‘तो आज कैसे निकली?’’

‘‘सासूमां को कहानी सुनाई… एक फ्रैंड हौस्पिटल में ऐडमिट है. उस के पास रहना है. हर बार झूठ बोलना पड़ता है. मेरे घर में मेरा सहेलियों के साथ मूवी देखने और लंच पर जाना किसी को हजम नहीं होगा.’’

कविता हंसी, ‘‘जी तो बस हम रहे हैं न.’’

यह सुन तीनों ने पहले तो मुंह बनाया, फिर हंस दीं. बिल हमेशा की तरह सब ने शेयर किया और फिर अपनेअपने घर चली गईं. सौरभ और सौम्या स्कूल से आ कर कोचिंग जा चुके थे. जब आए तो पूछा, ‘‘मम्मी, कहां गई थीं?’’

‘‘बस, थोड़ा काम था घर का,’’ फिर जानबूझ कर पूछा, ‘‘आज डिनर में क्या बनाऊं?’’

बाहर के खाने के शौकीन सौरभ ने पूछा, ‘‘पापा तो शनिवार को आएंगे न?’’

‘‘हां.’’

‘‘आज पिज्जा मंगवा लें?’’ सौरभ की आंखें चमक उठीं.

सौम्या बोली, ‘‘नहीं, मुझे चाइनीज खाना है.’’

कविता ने गंभीर होने की ऐक्टिंग की, ‘‘नहीं बेटा, बाहर का खाना बारबार और्डर करना अच्छी आदत नहीं है.’’

‘‘मम्मी प्लीज… मम्मी प्लीज,’’ दोनों बच्चे कहने लगे, ‘‘पापा को घर का ही खाना पसंद है. आप हमेशा घर पर ही तो बनाती हैं… आज तो कुछ चेंज होने दो.’’

कविता ने बच्चों पर एहसान जताते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आज मंगवा लो पर रोजरोज जिद मत करना.’’ सौम्या बोली, ‘‘हां मम्मी, बस आज और कल, आज इस की पसंद से, कल मेरी पसंद से.’’

‘‘ठीक है, दे दो और्डर,’’ दोनों बच्चे चहकते हुए और्डर देने उठ गए.

कविता मन ही मन हंस रही थी कि उस का कौन सा मूड था खाना बनाने का, अजय को घर का ही खाना पसंद है, बच्चे कई बार कहते हैं पापा का तो टूअर पर चेंज हो जाता है, हमारा क्या… वह खुद बोर हो जाती है रोज खाना बनाबना कर. आज बच्चे अपनी पसंद का खा लेंगे. उस ने हैवी लंच किया था. वह कुछ हलका ही खाएगी. फिर वह सैर पर चली गई. सोचती रही अजय टूअर पर जाते हैं तो सैर काफी समय तक हो जाती है नहीं तो बहुत मुश्किल से 15 मिनट सैर कर के भागती हूं. अजय के औफिस से आने तक काफी काम निबटा कर रखना पड़ता है. शाम की सैर से संतुष्ट हो कर सहेलियों से गप्पें मार कर कविता आराम से लौटी. बच्चों का पिज्जा आ चुका था. उस ने कहा, ‘‘तुम लोग खाओ, मैं आज कौफी और सैंडविच लूंगी.’’

बच्चे पिज्जा का आनंद उठाने लगे. अजय से फोन पर बीचबीच में बातचीत होती रही थी. बच्चों के साथ कुछ समय बिता कर वह घर के काम निबटाने लगी. बच्चे पढ़ने बैठ गए. काम निबटा कर उस ने कपड़े बदले, गाउन पहना, अपने लिए कौफी और सैंडविच बनाए और बैडरूम में आ गई. अजय टूअर पर जाते हैं तो कविता को लगता है उसे कोई काम नहीं है. जो मन हो बनाओ, खाओ, न घर की देखरेख, न आज क्या स्पैशल बना है जैसा रोज का सवाल. गजब की आजादी, अंधेरा कमरा, हाथ में कौफी का मग और जगजीतचित्रा की मखमली आवाज के जादू से गूंजता बैडरूम.अजय को साफसुथरा, चमकता घर पसंद है. उन की नजरों में घर को साफसुथरा देख कर अपने लिए प्रशंसा देखने की चाह में ही वह दिनरात कमरतोड़ मेहनत करती रहती है. कभीकभी मन खिन्न भी हो जाता है  कि बस यही है क्या जीवन?

ऐसा नहीं है कि अजय से उसे कम प्यार है या वह अजय को याद नहीं करती, वह अजय को बहुत प्यार करती है. यह तो वह दिनरात घर के कामों में पिसते हुए अपने लिए कुछ पल निकाल लेती है, तो अपनी दोस्तों के साथ मस्ती भरा, चिंता से दूर, खिलखिलाहटों से भरा यह समय जीवनदायिनी दवा से कम नहीं लगता उसे. अजय के वापस आने पर तनमन से और ज्यादा उस के करीब महसूस करती है वह खुद को. उस ने बहुत सोचसमझ कर खुद को रिलैक्स करने की आदत डाली है. ये पल उसे अपनी कर्मस्थली में लौट कर फिर घरगृहस्थी में जुटने के लिए शक्ति देते हैं. अजय महीने में 7-8 दिन टूअर पर रहते हैं. कई बार जब टूअर रद्द हो जाता है तो ये कुछ पल सिर्फ अपने लिए जीने का मौका ढूंढ़ते हुए उस का दिमाग जब पूछता है, कब जाओगे प्रिय, तो उस का दिल इस शरारत भरे सवाल पर खुद ही मुसकरा उठता है.

Family Story: बस इतनी सी बात थी – आखिर कैसे बदल गई मौज

Family Story: ‘‘साहिल,मेरी किट्टी पार्टी 11 बजे की थी… मैं लेट हो गई. जाती हूं, तुम लंच कर लेना. सब तैयार है… ओके बाय जानू्,’’ कह मौज ने साहिल को फ्लाइंग किस किया और फिर तुरंत दरवाजा खोल चली गई.

‘‘एक दिन तो मुझे बड़ी मुश्किल से मिलता है… उस में भी यह कर लो वह कर लो… चैन से सोने भी नहीं देती यह और इस की किट्टी,’’ साहिल ने बड़बड़ाते हुए उठ कर दरवाजा बंद किया और फिर औंधे मुंह बिस्तर पर जा गिरा.

‘‘उफ यह तेज परफ्यूम,’’ उस ने पिलो को अपने चेहरे के नीचे दबा लिया. शादी के पहले जिस परफ्यूम ने उसे दीवाना बना रखा था आज वही सोने में बाधा बन रहा था.

शाम 5 बजे मौज लौटी तो अपनी ही मौज में थी. किट्टी में की गई मस्ती की ढेर सारी बातें वह जल्दीजल्दी साहिल से शेयर करना चाहती थी.

‘‘अरे सुनो न साहिल… तरहतरह के फ्लेवर्ड ड्रिंक पी कर आई हूं वहां से… कितनी रईस हैं राखी… कितनी तरह की डिशेज व स्नैक्स थे वहां… कितने गेम्स खेले हम ने तुम्हें पता है?’’

‘‘अरे यार मुझे कहां से पता होगा… तुम भी कमाल करती हो,’’ साहिल ने चुटकी ली.

‘‘हम सब ने रैंप वाक भी किया… मेरी स्टाइलिंग को बैस्ट प्राइज मिला.’’

‘‘अच्छा… उन के घर में रैंप भी बना हुआ है?’’ वह मुसकराया.

‘‘घर में कहां थी पार्टी… इंटरनैशनल क्लब में थी.’’

‘‘अरे तो इतनी दूर गाड़ी ले कर गई थीं? नईनई तो चलानी सीखी है… कहीं ठोंक आती तो?’’

‘‘माई डियर, अपनी गाड़ी से मैं सिर्फ राखी के घर तक ही गई थी. वहां से सब उन की औडी में गए थे. क्या गाड़ी है. मजा आ गया… काश, हम भी औडी ले सकते तो क्या शान होती हमारी भी… पर तुम्हारी क्व40-50 हजार की सैलरी में कहां संभव है,’’ मौज थोड़ी उदास हो गई.

उधर साहिल थोड़ा आहत. मौज जबतब, जानेअनजाने ऐसी बातों से साहिल का दिल दुखा दिया करती. वह हमेशा पैसों की चकाचौंध से बावली हो जाती है, साहिल यह अच्छी तरह जानने लगा था. कभीकभी वह कह भी देता है, ‘‘तुम्हें शादी करने से पहले अपने पापा से मेरी सैलरी पूछ ली होती तो आज यह अफसोस न करना पड़़ता.’’

‘‘सौरीसौरी साहिल मेरा यह मतलब बिलकुल नहीं था. तुम्हें तो मालूम ही है कि मैं हमेशा बिना सोचेसमझे उलटासीधा बोल जाती हूं… आगापीछा कुछ नहीं सोचती हूं… सौरी साहिल माफ कर दो,’’ कह वह आंखों में आंसू भर कान पकड़ कर उठकबैठक लगाने लगी तो साहिल को उस की मासूमियत पर हंसी आ गई. बोला, ‘‘अरे यार रोनाधोना बंद करो. तुम भी कमाल हो… दिलदिमाग से बच्ची ही हो अभी. जाओ अभी सपनों की दुनिया में थोड़ा आराम कर लो… मेरा मैच आने वाला है… शाम को ड्रैगन किंग में डिनर करने चलेंगे.’’

‘‘सच?’’ कह मौज ने आंसू पोंछ साहिल को अपनी बांहों में भर लिया.

साहिल ने मौज को ड्रैगन किंग में डिनर खिला दिया, पर मन ही मन सोचने लगा कि हर तीसरे दिन इसी तरह चलता रहा तो उस के लिए हर महीने घर चलाना मुश्किल हो जाएगा… क्या करूं किसी और तरीके से खुश भी तो नहीं होती… सिर्फ पैसा और कीमती चीजें ही उसे भाती हैं… साल भर भी तो नहीं हुआ शादी हुए… अकाउंट बैलेंस बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहा… एक ड्रैस खरीद लेती तो उस से मैचिंग के झुमके, कंगन, सैंडल, जूतियां सभी कुछ चाहिए उसे वरना उस की सब सहेलियां मजाक बनाएंगी… भला ऐसी कैसी सहेलियां जो दोस्त का ही मजाक बनाएं… तो उन से दोस्ती ही क्यों रखनी? कुछ समझ नहीं आता… इन औरतों का क्या दिमाग है… कामधाम कुछ नहीं खाली पतियों के पैसों पर मौजमस्ती. वह कैसे मौज को समझाए कि उन के पति ऊंची नौकरी वाले या फिर बिजनैसमैन हैं… वह कैसे पीछा छुड़वाए मौज का इन गौसिप वाली औरतों से… इसे भी बिगाड़ रही हैं… कुछ तो करना पड़ेगा…

‘‘अरे साहिल क्यों मुंह लटकाए बैठा है. अभी तो साल भर भी नहीं हुआ शादी को… घर आ कभी… मौज को नीलम भी याद कर रही थी,’’ कह कर मुसकराते हुए उस का सीनियर अमन कैंटीन में साहिल की बगल में बैठ गया और फिर पूछा, ‘‘कुछ और्डर किया क्या?’’

‘‘नहीं, बस किसी का फोन था,’’ कह साहिल, समोसों और चाय का और्डर दे दिया.

‘‘और बता मौज कैसी है? कहीं घुमानेफिराने भी ले जाता है या नहीं… छुट्टी ले कहीं घूम क्यों नहीं आता… दूर नहीं जयपुर या आगरा ही हो आ. मैं हफ्ता भर पहले गायब था न तो मैं और नीलम किसी शादी में जयपुर गए थे. वहां फिर 3 दिन रुक कर खूब घूमे… नीलम ने खूब ऐंजौय किया.’’

‘‘हां मैं भी सही सोच रहा हूं कि उस की बोरियत कैसे अपने बजट से दूर की जाए.’’

‘‘अरे यार, क्या बात कर रहा है… सस्तेमहंगे हर तरह के होटल हैं वहां… अबे इतनी कंजूसी भी कैसी… अभी तो तुम 2 ही हो… न बच्चा न उस की पढ़ाई का खर्च…’’

‘‘हां यह तो है पर…’’ तभी वेटर समोसे व चाय रख गया.

‘‘छोड़ परवर यह देख पिक्स पिंक सिटी की… कितनी बढि़या हैं… एक बार दिखा ला मौज को.’’

‘‘अमन यह बताओ, नीलम भाभी क्या इतनी सिंपल ही रहती हैं… ज्यादातर वही जूतेचप्पल, टीशर्ट, ट्राउजर… बाल कभी रबड़बैंड से बंधे तो कभी खुले… न गहरा मेकअप, न तरहतरह की ज्वैलरी…. मौज को तो भाभी से ट्रेनिंग लेनी चाहिए… उस की सोच का स्टैंडर्ड कुछ ज्यादा ही ऊंचा व खर्चीला हो गया है.’’

‘‘मतलब?’’ चाय का सिप लेते हुए अमन ने पूछा.

‘‘मतलब, जाएगी तो गोवा, सिंगापुर, बैंकौक इस से कम नहीं. हर तीसरे दिन नई ड्रैस के साथ सब कुछ मैचिंग चाहिए… उन के साथ जाने कौनकौन से मेकअप से लिपेपुते चेहरे में वह मेरी पत्नी कम शोकेस में सजी गुडि़या अधिक लगने लगी है अपनी कई रईस सहेलियों जैसी… वह सादगी भरी सुंदर सौम्य प्रतिमा जाने कहां खो गई… महीने में 5-6 बार तो उसे ड्रैगन किंग में खाना खाना है. अब आप समझ लो, यह सब से महंगा रैस्टोरैंट है. एक बार के खाने के क्व2-3 हजार से नीचे का तो बिल बनने से रहा… अब बताओ अब भी कंजूस कहोगे?’’

‘‘तो यार इतनी रईस सहेलियां कहां से बना लीं मौज ने?’’

‘‘बात समझो. मौज ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया हुआ है. अत: अपना ज्ञान जता कर इतराने का शौक है… बस वे चिपक जाती हैं. इस से फ्री में टिप्स मिल जाते हैं उन्हें. उस पर उसे गाने का भी शौक है. बस अपनी सुरीली आवाज से सब की जान बन चुकी है. उन के हर लेडीज संगीत, पार्टी का उसे आएदिन निमंत्रण मिल जाता है. अब हाई सोसायटी में जाना है तो उन्हीं के स्टैंडर्ड का दिखना भी है. अब तो गाड़ी भी औडी ही पसंद आ रही है… इसी सब में मेरी सारी सैलरी स्वाहा हो रही है.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है… अरे तो तू भी तो पागल ही है,’’ कह अमन हंसने लगा, ‘‘अरे अक्लमंद आदमी पहले मेरी बात सुन… मुझे तो लगता है मौज का स्किल जिस में है इस के लिए उसे खुद को तैयार हो कर रहना ही चाहिए… दूसरा मौज बाहर काम करना चाहती है… तूने काम करने को मना किया है क्या?’’

‘‘नहीं… उसे बस शौक है, ऐसा ही लगता है. फिर 2 व्यक्तियों के लिए अभी क्व40-50 हजार मुझे मिल रहे हैं… काफी नहीं हैं क्या? फिर कल को बेबी होगा तो उस की देखभाल कौन करेगा? मांपापा भी नहीं रहे.’’

‘‘कैसी नासमझों वाली बातें कर रहा है… बेबी होगा तो जानता नहीं उस के सौ खर्चे होंगे. आजकल अकेले की सैलरी कितनी भी बढ़ जाए कम ही रहती है… फिर कुछ सीखा है तो वह दूसरों तक पहुंचे तो भला ही है… खाली बैठने से दिमाग को खुश भी कैसे रखेगा कोई?

‘‘वैसे भी खाली दिमाग शैतान का घर सुना ही है तूने… तू तो सुबह 9 बजे घर से निकल शाम को 6-7 बजे घर पहुंचता है… सारा वक्त तो काम होता नहीं घर का फिर वह क्या करे, यह क्यों नहीं सोचता तू. खाली घर काटने को दौड़ता होगा… किसी से बात तो करना चाहेगी… आफ्टर आल मैन इज सोशल ऐनिमल…’’

‘‘मैं ने उसे मिलने को मना नहीं कर रखा है, पर उन का उलटीसीधी आदतें तो न अपनाए. असर तो न ले. बनावटी लोगों से नहीं सही लोगों से मिले.’’

‘‘अरे उसे शौक है तो उसे चार्ज करने की सलाह दे. जो उस के स्किल से वाकई फायदा उठाना चाहती हैं वे उस के लिए पे करेंगी… इस फील्ड में बहुत पैसा है समझे… नीलम भी कभीकभी कहती है कि काश, उस ने भी टीचिंग सैंटर की जगह ब्यूटीपार्लर खोल लिया होता तो बढि़या रहता.’’

‘‘अच्छा?’’

‘‘और क्या… अब तो वे दिन दूर नहीं, जब तुम दोनों जल्द ही अपनी औडी में हम दोस्तों के साथ ड्रैगन किंग में दावतें किया करोगे… और गोवा क्या सीधे बैंकौक जाएंगे,’’ कह अमन हंसते हुए उठ खड़ा हुआ.

‘‘मौज, आगे वाला कमरा मां के जाने के बाद से खाली पड़ा है. तुम उस में चाहो तो ब्यूटीपार्लर खोल सकती हो.’’

‘‘सच?’’ मौज खुशी से उछल पड़ी, ‘‘मैं भी कब से तुम से यही कहना चाहती थी, पर डरती थी तुम्हें बुरा लगेगा… आखिर मांबाबूजी की यादें बसी हैं उस में.’’

‘‘अच्छी यादें तो दिल में बसी हैं मौज. वे हमेशा हमारे साथ रहती हैं… छोड़ो ये सब तुम घर पर अपना शौक पूरा कर सकोगी और तुम्हारी इनकम भी होगी. सुंदर दिखने की शौकीन लड़कियां, औरतें चल कर खुद तुम्हारे पास आएंगी… बातें करने को कोई होगा तो खुश भी बहुत रहोगी. और तो और जल्दी आने वाले नन्हे मेहमान का भी ध्यान रख सकोगी… उस के साथ भी रह सकोगी… मुझे भी कोई चिंता नहीं होगी,’’ कह साहिल ने मौज के गाल को चूम लिया.

थोड़ी देर बाद साहिल फिर बोला, ‘‘तुम्हारी आसपास रईस महिलाओं से इतनी दोस्ती हो गई है… अपना शौक पूरा करने के लिए तुम्हें उन के पास नहीं उन्हें ही तुम्हारे पास आना होगा. खूब चलेगा तुम्हारा पार्लर… उन के काम से जाना भी हो तो विजिटिंग चार्ज लिया करना… तुम्हारा दिल भी लगेगा और इनकम भी होगी… यह समझो, थोड़ी मेहनत करोगी तो बस तुम्हारी भी औडी आ सकती है. तुम भी गोवा, बैंकौक घूमने जा सकती हो.’’

‘‘औडी, बैंकौक… सच में साहिल ऐसा होगा?’’ मौज आंखें फाड़े साहिल को देखने लगी.

जवाब में साहिल ने पलकें झपकाईं तो वह बेहोशी का नाटक करते हुए साहिल की बांहों में झूल कर मुसकरा उठी. आज साहिल को सादगी भरी सुंदर, सौम्य मौज दिखाई दे रही थी आठखेलियां करती बच्चों जैसी मासूम.

‘‘बस इतनी सी बात थी… क्यों नहीं यह पहले समझ आया,’’ उस ने अपने माथे पर हाथ मारा.

Family Story: अवगुण चित न धरो – कैसा था मयंक का अंतर्मन

Family Story: समुद्र के किनारे बैठ कर वह घंटों आकाश और सागर को निहारता रहता. मन के गलियारे में घुटन की आंधी सरसराती रहती. ऐसा बारबार क्यों होता है. वह चाहता तो नहीं है अपना नियंत्रण खोना पर जाने कौन से पल उस की यादों से बाहर निकल कर चुपके- चुपके मस्तिष्क की संकरी गली में मचलने लगते हैं. कदाचित इसीलिए उस से वह सब हो जाता है जो होना नहीं चाहिए.

सुबह से 5 बार उसे फोन कर चुका है पर फौरन काट देती है. 2 बार गेट तक गया पर गेटकीपर ने कहा कि छोटी मेम साहिबा ने मना किया है गेट खोलने को.

वह हताश हो समुद्र के किनारे चल पड़ा था. अपनी मंगेतर का ऐसा व्यवहार उसे तोड़ रहा था. घर पहुंच कर बड़बड़ाने लगा, ‘क्या समझती है अपनेआप को. जरा सी सुंदर है और बैंक में आफिसर बन गई है तो हवा में उड़ी जा रही है.’

मयंक के कारण ही अब उन का ऊंचे घराने से नाता जुड़ा था. जब विवाह तय हुआ था तब तो साक्षी ऐसी न थी. सीधीसादी सी हंसमुख साक्षी एकाएक इतनी बदल क्यों गई है?

मां ने मयंक की बड़बड़ाहट पर कुछ देर तो चुप्पी साधे रखी फिर उस के सामने चाय का प्याला रख कर कहा, ‘‘तुम हर बात को गलत ढंग से समझते हो.’’

‘‘आप क्या कहना चाह रही हैं,’’ वह झुंझला उठा था.

मम्मी उस के माथे पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘पिछले हफ्ते चिरंजीव के विवाह में तुम्हारे बुलाने पर साक्षी भी आई थी. जब तक वह तुम से चिपकी रही तुम बहुत खुश थे पर जैसे ही उस ने अपने कुछ दूसरे मित्रों से बात करना शुरू किया तुम उस पर फालतू में बिगड़ उठे. वह छोटी बच्ची नहीं है. तुम्हारा यह शक्की स्वभाव उसे दुखी कर गया होगा तभी वह बात नहीं कर रही है.’’

मयंक सोच में पड़ गया. क्या मम्मी ठीक कह रही हैं? क्या सचमुच मैं शक्की स्वभाव का हूं?

दफ्तर से निकल कर साक्षी धीरेधीरे गाड़ी चला रही थी. फरवरी की शाम ठंडी हो चली थी. वह इधरउधर देखने लगी. उस का मन बहुत बेचैन था. शायद मयंक को याद कर रहा था.

पापा ने कितने शौक से यह विवाह तय किया था. मयंक पढ़ालिखा नौजवान था. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर था. कंपनी ने उसे रहने के लिए बड़ा फ्लैट, गाड़ी आदि की सुविधा दे रखी थी. बहुत खुश थी साक्षी. पर घड़ीघड़ी उस का चिड़चिड़ापन, शक्की स्वभाव उस के मन को बहुत उद्वेलित कर रहा था. मयंक के अलगअलग स्वभाव के रंगों में कैसे घुलेमिले वह. लाल बत्ती पर कार रोकी तो इधरउधर देखती आंखें एक जगह जा कर ठहर गईं. ठंडी हवा से सिकुड़ते हुए एक वृद्ध को मयंक अपना कोट उतार कर पहना रहा था.

कुछ देर अपलक साक्षी उधर ही देखती रही. फिर अचानक ही मुसकरा उठी. अब इसे देख कर कौन कहेगा कि यह कितना चिड़चिड़ा और शक्की इनसान है. इस का क्रोध जाने किधर गायब हो गया. वह कार सड़क के किनारे पार्क कर के धीरेधीरे वहां जा पहुंची. मयंक जाने को मुड़ा तो उस ने अपने सामने साक्षी को खड़ा मुसकराता पाया. इस समय साक्षी को उस पर क्रोध नहीं बल्कि मीठा सा प्यार आ रहा था.

मयंक का हाथ पकड़ कर साक्षी बोली, ‘‘मैं ने सोचा फोन पर क्यों मनाना- रूठना, आमनेसामने ही दोनों काम कर डालते हैं.’’

पहले मनाने का कार्य मयंक कर रहा था पर अब साक्षी को देखते ही उस ने रूठने की ओढ़नी ओढ़ ली और बोला, ‘‘अभी से बातबेबात नाराज होने का इतना शौक है तो आगे क्या करोगी?’’

साक्षी मन को शांत रखते हुए बोली, ‘‘चलो, कहां ले जाना चाहते थे. 2 घंटे आप के साथ ही बिताने वाली हूं.’’

मयंक अकड़ कर चलते हुए अपनी कार तक पहुंचा और अंदर बैठ कर दरवाजा खोल साक्षी के आने की प्रतीक्षा करने लगा. साक्षी बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘वापसी में आप को मुझे यहीं छोड़ना होगा क्योंकि अपनी गाड़ी मैं ने यहीं पार्क की है. ’’

कार चलाते हुए मयंक ने पूछा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं अच्छा इनसान नहीं हूं?’’

‘‘ऐसा तो मैं ने कभी नहीं कहा.’’

‘‘पर तुम्हारी बेरुखी से मुझे ऐसा ही लगता है.’’

‘‘देखो मयंक,’’ साक्षी बोली, ‘‘हमें गलतफहमियों से दूर रहना चाहिए.’’

मयंक एक अस्पताल के सामने रुका तो साक्षी अचरज से उस के साथ चल दी. कुछ दूर जा कर पूछ बैठी, ‘‘क्या कोई अस्वस्थ है?’’

मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘नहीं,’’ और वह सीधा अस्पताल के इंचार्ज डाक्टर के कमरे में पहुंच गया. उन्होंने देखते ही प्यार से उसे बैठने को कहा. लगा जैसे वह मयंक को भलीभांति पहचानते हैं. मयंक ने एक चेक जेब से निकाल कर डाक्टर के सामने रख दिया.

‘‘आप लोगों की यह सहृदयता हमारे मरीजों के बहुत से दुख दूर करती है,’’ डाक्टर ने मयंक से कहा, ‘‘आप को देख कर कुछ और लोग भी हमारी सहायता को आगे आए हैं. बहुत जल्द हम कैंसर पीडि़तों के लिए एक नया और सुविधाजनक वार्ड आरंभ करने जा रहे हैं.’’

मयंक ने चलने की आज्ञा ली और साक्षी को चलने का संकेत किया. कार में बैठ कर बोला, ‘‘तुम परेशान हो कि मैं यहां क्यों आता हूं.’’

‘‘नहीं. एक नेक कार्य के लिए आते हो यह तुरंत समझ में आ गया,’’ साक्षी मुसकरा दी.

मयंक चुपचाप गाड़ी चलातेचलाते अचानक बोल पड़ा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें मैं शक्की स्वभाव का लगता हूं?’’

साक्षी चौंक कर सोच में पड़ गई कि यह व्यक्ति एक ही समय में विचारों के कितने गलियारे पार कर लेता है. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘क्या मैं ने कभी कहा?’’

‘‘यही तो बुरी बात है. कहती नहीं हो…बस, नाराज हो कर बैठ जाती हो.’’

‘‘ठीक है. अब नाराज होने से पहले तुम्हें बता दिया करूंगी.’’

‘‘मजाक कर रही हो.’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मुझे तुम्हारे रूठने से बहुत कष्ट होता है.’’

साक्षी को उस की गाड़ी तक छोड़ कर मयंक बोला, ‘‘क्लब जा रहा हूं, चलोगी?’’

‘‘आज नहीं, फिर कभी,’’ साक्षी बाय कर के चल दी.

विवाह की तारीख तय हो चुकी थी. दोनों तरफ विवाह की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. एक दिन साक्षी की सास का फोन आया कि नलिनी यानी साक्षी की होने वाली ननद ने अपने घर पर पार्टी रखी है और उसे भी वहां आना है. यह भी कहा कि मयंक उसे लेने आ जाएगा. उस दिन नलिनी के पति विराट की वर्षगांठ थी.

साक्षी खूब जतन से तैयार हुई. ननद की ससुराल जाना था अत: सजधज कर तो जाना ही था. मयंक ने देखा तो खुश हो कर बोला, ‘‘आज तो बिजली गिरा रही हो जानम.’’

पार्टी आरंभ हुई तो साक्षी को नलिनी ने सब से मिलवाया. बहुत से लोग उस की शालीनता और सौंदर्य से प्रभावित थे. विराट के एक मित्र ने उस से कहा, ‘‘बहुत अच्छी बहू ला रहे हो अपने साले की.’’

‘‘मेरा साला भी तो कुछ कम नहीं है,’’ विराट ने हंस कर कहा. मयंक ने दूर से सुना और मुसकरा दिया. मां ने कहा था कि पार्टी में कोई तमाशा न करना और उन की यह नसीहत उसे याद थी. इसलिए भी मयंक की कोशिश थी कि अधिक से अधिक वह साक्षी के निकट रहे.

डांस फ्लोर पर जैसे ही लोग थिरकने लगे तो मयंक ने झट से साक्षी को थाम लिया. साक्षी भी प्रसन्न थी. काफी समय से मयंक उसे खुश रखने के लिए कुछ न कुछ नया करता रहा था. कभी उपहार ला कर, कभी सिनेमा या क्लब ले जा कर. एक दिन साक्षी ने अपनी होने वाली सासू मां से कहा, ‘‘मम्मीजी, मयंक बचपन से ही ऐसे हैं क्या? एकदम मूडी?’’

मम्मी ने सुनते ही एक गहरी सांस भरी थी. कुछ पल अतीत में डूबतेउतराते व्यतीत कर दिए फिर बोलीं, ‘‘यह हमेशा से ऐसा नहीं था.’’

‘‘फिर?’’

‘‘क्या बताऊं साक्षी…सब को अपना मानने व प्यार करने के स्वभाव ने इसे ऐसा बना दिया.’’

साक्षी ने उत्सुकता से सासू मां को देखा…वह धीरेधीरे अतीत में पूरी तरह डूब गईं.

पहले वे लोग इतने बड़े घर व इतनी हाई सोसायटी वाली कालोनी में नहीं रहते थे. मयंक को शानदार घर मिला तो वे यहां आए.

उस कालोनी में हर प्रकार के लोग थे और आपस में सभी का बहुत गहरा प्यार था. मयंक बंगाली बाबू मकरंद राय के यहां बहुत खेलता था. उन का बेटा पवन और बेटी वैदेही पढ़ते भी इस के साथ ही थे. वैदेही कत्थक सीखा करती थी. कभीकभी मयंक भी उस का नृत्य देखता और खुश होता रहता.

उस दिन राय साहब ने वैदेही की वर्षगांठ की एक छोटी सी पार्टी रखी थी. आम घरेलू पार्टी जैसी थी. महल्ले की औरतों ने मिलजुल कर कुछ न कुछ बनाया था और बच्चों ने गुब्बारे टांग दिए थे. इतने में ही वहां खुशी की मधुर बयार फैल गई थी.

राय साहब बंगाली गीत गाने लगे तो माहौल बहुत मोहक हो गया. तभी किसी ने कहा, ‘वैदेही का डांस तो होना ही चाहिए. आज उस की वर्षगांठ है.’

सभी ने हां कही तो वैदेही भी तैयार हो गई. वह तुरंत चूड़ीदार पायजामा और फ्राक पहन कर आ गई. उसे देखते ही उस के चाचा के बच्चे मुंह पर हाथ रख कर हंसने लगे. मयंक बोला, ‘क्यों हंस रहे हो?’

‘कैसी दिख रही है बड़ी दीदी.’

‘इतनी प्यारी तो लग रही है,’ मयंक ने खुश हो कर कहा.

नृत्य आरंभ हुआ तो उस के बालों में गुंथे गजरे से फूल टूट कर बिखरने लगे. वे दोनों बच्चे फिर ताली बजाने लगे.

‘अभी वैदेही दीदी भी गिरेंगी.’

मयंक को उन का मजाक उड़ाना अच्छा नहीं लगा. इसीलिए वह दोनों बच्चों को बराबर चुप रहने को कह रहा था. अचानक वैदेही सचमुच फिसल कर गिर गई और उस के माथे पर चोट लग गई जिस में से खून बहने लगा था.

मयंक को पता नहीं क्या सूझा कि उठ कर उन दोनों बच्चों को पीट दिया.

‘तुम्हारे हंसने से वह गिर गई और उसे चोट लग गई.’

मयंक का यह कोहराम शायद कुछ लोगों को पसंद नहीं आया… खासकर वैदेही को. वह संभल कर उठी और मयंक को चांटा मार दिया. साथ में यह भी बोली, ‘क्यों मारा हमारे भाई को.’

सबकुछ इतनी तीव्रता से हुआ था कि सभी अचंभित से थे. वातावरण को शीघ्र संभालना आवश्यक था. अत: मैं ने ही मयंक से कहा, ‘माफी मांगो.’ मेरे कई बार कहने पर उस ने बुझे मन से माफी मांग ली पर शीघ्र ही वह चुपके से घर चला गया. हम बड़ों ने स्थिति संभाली तो पार्टी पूरी हो गई.

उस छोटी सी घटना ने मयंक को बहुत बदल दिया था पर वैदेही ने मित्रता को रिश्तेदारी के सामने नकार दिया था. शायद तब से ही मयंक का दृष्टिकोण भरोसे को ले कर टूट गया और वह शक्की…

‘‘मैं समझ गई, मम्मीजी,’’ साक्षी के बीच में बोलते ही मम्मी अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गईं.

विराट हमेशा बहुत बड़े पैमाने पर पार्टी देता था. उस दिन भी उस की काकटेल पार्टी जोरशोर से चल रही थी. साक्षी उस दिन पूरी तरह से सतर्क थी कि मयंक का मन किसी भी कारण से न दुखे.

जैसे ही शराब का दौर चला वह पार्टी से हट कर एक कोने में चली गई ताकि कोई उसे मजबूर न करे एक पैग लेने को. मयंक वहीं पहुंच गया और बोला, ‘‘क्या हुआ? यहां क्यों आ गईं?’’

‘‘कुछ नहीं, मयंक, शराब से मुझे घबराहट हो रही है.’’

‘‘ठीक है. कुछ देर आराम कर लो,’’ कह कर वह प्रसन्नचित्त पार्टी में सम्मिलित हो गया.

विराट के आफिस की एक महिला कर्मचारी के साथ वह फ्लोर पर नृत्य करने लगा. उस कर्मचारी का पति शराब का गिलास थाम कर साक्षी की बगल में आ बैठा और बोला, ‘‘आप डांस नहीं करतीं?’’

‘‘मुझे इस का खास शौक नहीं है,’’ साक्षी ने जवाब में कहा.

‘‘मेरी पत्नी तो ऐसी पार्टीज की बहुत शौकीन है. देखिए, कैसे वह मयंकजी के साथ डांस कर रही है.’’

प्रतिउत्तर में साक्षी केवल मुसकरा दी.

‘‘आप ने कुछ लिया नहीं. यह गिलास मैं आप के लिए ही लाया हूं.’’

‘‘अगर यह सब मुझे पसंद होता तो मयंक सब से पहले मेरा गिलास ले आते,’’ साक्षी को कुछ गुस्सा सा आने लगा.

‘‘लेकिन भाभीजी, यह तो काकटेल पार्टी का चलन है. यहां आ कर आप इन चीजों से बच नहीं सकतीं,’’ वह जबरन साक्षी को शराब पिलाने की कोशिश करने लगा.

साक्षी निरंतर बच रही थी. मयंक ने दूर से देख लिया और पलक झपकते ही उस व्यक्ति के गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया.

‘‘अरे, वाह, ऐसा क्या किया मैं ने. अकेली बैठी थीं आप की मंगेतर तो उन्हें कंपनी दे रहा था.’’

‘‘अगर उसे साथ चाहिए होगा तो वह स्वयं मेरे पास आ जाएगी,’’ मयंक क्रोध से बोला.

‘‘वाह साहब, खुद दूसरों की पत्नी के साथ डांस कर रहे हैं. मैं जरा पास में बैठ गया तो आप को इतना बुरा लग गया. कैसे दोगले इनसान हैं आप.’’

‘‘चुप रहिए श्रीमान,’’ अचानक साक्षी उठ कर चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरे मयंक को मुसीबतों से मुझे बचाना अच्छी तरह आता है और अपनी पत्नी से मेरी तुलना करने की कोशिश भी मत करिएगा.’’

वह तुरंत हौल से बाहर निकल गई. पार्टी में सन्नाटा छा गया था.

मयंक भी स्तब्ध हो उठा था. धीरेधीरे उसे खोजते हुए बाहर गया तो साक्षी गाड़ी में बैठी उस की प्रतीक्षा कर रही थी. वह चुपचाप उस की बगल में बैठ गया तो साक्षी ने उस के कंधे पर सिर टिका दिया. उस की हिचकी ने अचानक मयंक को बहुत द्रवित कर दिया था. उस का सिर थपकते हुए बोला, ‘‘चलें.’’

साक्षी ने आंसू पोंछ अपनी गरदन हिला दी. कार स्टार्ट करते मयंक ने सोचा, ‘शुक्र है, साक्षी मुझे समझ गई है.’

Family Story: वापसी – क्या पूनम ने दूसरी शादी की?

Family Story, लेखिका – निधि अमित पांडे

आंगन में तुलसी के चबूतरे पर लगी अगरबत्ती की खुशबू ने पूरे घर को महका दिया था. पूनम अभीअभी पूजा कर के रसोईघर में गई ही थी कि दादी मां ने रोज की तरह चिल्लाना शुरू कर दिया था, ‘‘अरी ओ पूनम, पूजापाठ का ढकोसला खत्म हो गया हो, तो चायवाय मिलेगी कि नहीं.

‘‘ऐसे भी कौन सा सुख दिया है ऊपर वाले ने… मेरे हंसतेखेलते परिवार की सारी खुशियां छीन लीं,’’ बोलते हुए दादी मां ने गुस्से से अपनी भंवें सिकोड़ ली थीं.

पूनम ने रसोईघर में से झांकते हुए कहा, ‘‘चाय बन गई है दादी मां, अभी लाती हूं.’’

दादी मां को चाय दे कर पूनम मुड़ी ही थी कि उन्होंने फुसफुसाना शुरू कर दिया, ‘‘आदमी का तो कुछ अतापता नहीं है… जिंदा है भी कि नहीं, फिर भी न जाने क्यों इतना बनसंवर कर रहती है…’’

पूनम ने सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर दिया था. और करती भी क्या, उस के दिन की शुरुआत रोज ऐसे ही दादी मां के तीखे शब्दों से होती थी.

दादी मां को चाय देने के बाद पूनम अपने ससुर को चाय देने के लिए उन के कमरे में जाने लगी, तो उन्होंने उसे आवाज दे कर कहा, ‘‘पूनम बेटा, मेरी चाय बाहर ही रख दे, मैं उधर ही आ कर पी लूंगा.’’

‘‘जी पापा,’’ बोल कर पूनम वापस चली आई थी.

पूनम के ससुर शशिकांतजी रिटायर्ड आर्मी अफसर थे. उन का बेटा मोहित

भी सेना में जवान था. पूनम मोहित की पत्नी थी.

3 साल पहले ही मोहित और पूनम का ब्याह हुआ था और ब्याह के

2-4 दिन बाद ही मोहित को किसी खुफिया मिशन पर जाने के लिए सेना में वापस बुला लिया गया था.

इस बात को 3 साल बीत चुके थे, पर अब तक मोहित वापस नहीं लौटा था और न ही उस की कोई खबर आई थी, इसलिए फौज की तरफ से उसे गुमशुदा करार दिया गया था.

मोहित के लापता होने की खबर से शशिकांतजी की पत्नी को गहरा सदमा लगा था, जिस के चलते वे कोमा में चली गई थीं. डाक्टर का कहना था कि मोहित की वापसी ही उन के लिए दवा का काम कर सकती है.

पूनम को यकीन था कि मोहित जिंदा है और एक दिन जरूर वापस आएगा. उस के इस यकीन को कायम रखने के लिए शशिकांतजी पूरा साथ देते थे. उन्हें पूनम का पहनओढ़ कर रहना पसंद था. मोहित के हिस्से का लाड़प्यार भी वे पूनम पर ही लुटाते थे.

पूनम ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया हुआ था. उस की शादी के कुछ समय बाद ही उस के ससुर ने एक बुटीक खुलवा दिया था.

तब दादी मां ने इस बात का भरपूर विरोध करते हुए कहा था कि समय काटने के लिए घर के काम कम होते हैं क्या, पर शशिकांतजी ने उन की एक न सुनी थी.

सास की बीमारी के बाद घर के कामकाज की पूरी जिम्मेदारी पूनम के कंधों पर आ गई थी. बुटीक के साथ वह घर भी बखूबी संभाल रही थी. पर दादी मां हमेशा उस से नाराज ही रहती थीं. उन्हें पूनम का साजसिंगार करना, गाड़ी चलाना, बुटीक जाना बिलकुल नहीं सुहाता था. वे पूनम को ताने मारने का एक भी मौका अपने हाथों से जाने नहीं देती थीं.

समय बीतता जा रहा था. मोहित की मां की तबीयत में कोई सुधार नहीं था. इस बीच पूनम के मातापिता कई बार उसे अपने साथ घर ले जाने के लिए आए, पर हर बार उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा.

पूनम का कहना था कि मोहित वापस आएगा तो उसे यहां न पा कर परेशान होगा और उस के परिवार की जिम्मेदारी भी अब मेरी है. अब ससुराल ही मेरा मायका है.

शशिकांतजी को पूनम की ऐसी सोच  और समझदारी पर बहुत गर्व होता था.

एक दिन शशिकांतजी के करीबी दोस्त कर्नल मोहन घर आए और बोले, ‘‘शशि, मैं एक प्रस्ताव ले कर तेरे पास आया हूं.’’

‘‘कैसा प्रस्ताव?’’ शशिकांतजी ने पूछा.

इस के बाद उन दोनों दोस्तों ने बहुत देर तक साथ में समय बिताया और बातें कीं, फिर कर्नल मोहन जातेजाते बोले, ‘‘मुझे तेरे जवाब का इंतजार रहेगा.’’

कर्नल मोहन के जाने के बाद शशिकांतजी काफी दिन तक किसी गहरी सोच में डूबे रहे.

पूनम ने कई बार पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने ‘चिंता की कोई बात नहीं’ बोल कर उसे टाल दिया. पर मन ही मन वे पूनम के लिए एक बड़ा फैसला ले चुके थे, जिस की चर्चा पूनम के मातापिता से करने के लिए आज वे उस के मायके जा रहे थे. पूनम इस बात से पूरी तरह बेखबर थी.

पूनम के बुटीक जाते ही शशिकांतजी घर से निकल गए थे. उन्हें अचानक यों देख कर पूनम के मातापिता थोड़े चिंतित हो उठे थे.

पूनम के पिताजी ने हाथ जोड़ कर शशिकांतजी से पूछा, ‘‘आप अचानक यहां? सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां, सब ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं…’’ शशिकांतजी बोले, ‘‘मैं ने पूनम के लिए एक फैसला लिया है, जिस में आप दोनों की राय लेना जरूरी था.’’

यह सुन कर पूनम के मातापिता एकदूसरे की तरफ हैरानी से देखने लगे.

पूनम की मां ने बड़े ही उतावलेपन से पूछा, ‘‘कैसा फैसला भाई साहब?’’

शशिकांतजी ने कहा, ‘‘पूनम के दूसरे ब्याह का फैसला.’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं… यह कैसे मुमकिन है…’’ पूनम के पिता ने हैरानी से कहा.

शशिकांतजी बोले, ‘‘क्यों मुमकिन नहीं है? मोहित की वापसी अब एक सपने जैसी है. चार दिन की शादी को निभाने के लिए पूनम अपनी पूरी जिंदगी अकेलेपन के हवाले कर दे, ऐसा मैं नहीं होने दे सकता. उस बच्ची के विश्वास पर अपने यकीन की मोहर अब और नहीं लगा सकता. बिना किसी कुसूर के वह एक अधूरेपन की सजा क्यों काटेगी…’’

‘‘पर भाई साहब…’’ पूनम की मां ने बीच में बोलना चाहा, तो शशिकांतजी ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिएगा, पर मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है.’’

इतना कह कर वे आगे बोले, ‘‘मैं अपने बेटे के मोह में पूनम के भविष्य की बलि नहीं चढ़ने दूंगा. आज मेरी जगह  मोहित भी होता तो पूनम के लिए इस तरह की अधूरी जिंदगी उसे कभी स्वीकार नहीं होती.

‘‘आप दोनों ने उसे जन्म दिया है. उस की जिंदगी का इतना बड़ा फैसला लेने के पहले आप को इस की सूचना देना मेरा फर्ज था, इसलिए चला आया वरना पूनम का कन्यादान करने का फैसला मैं ले चुका हूं. अब इजाजत चाहता हूं.’’

शशिकांतजी के जाने के बाद पूनम के मातापिता बहुत देर तक सोचते रहे कि वे अपनी बेटी के भविष्य के बारे में इतनी गहराई से नहीं सोच पाए, पर शशिकांतजी जैसे लोग बहू को बेटी की जगह रख कर अपनी सोच का लैवल कितना ऊपर उठाए हुए हैं. पूनम के दूसरे ब्याह के बारे में सोचते समय मोहित का चेहरा न जाने कितनी बार उन की आंखों के सामने घूमा होगा.

पूनम के मायके से लौटने के बाद शशिकांतजी अपने कमरे से बाहर नहीं आए थे. पूनम शाम की चाय ले कर उन के कमरे में ही चली गई थी.

चाय का कप टेबल पर रखते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ पापा? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘सब ठीक है बेटा,’’ उन्होंने जवाब दिया और कहा, ‘‘आ, थोड़ी देर मेरे पास बैठ. तुझ से कुछ बात करनी है.’’

‘‘जी पापा,’’ बोल कर पूनम उन के पास बैठ गई.

शशिकांतजी ने एक गहरी सांस ली और बोलना शुरू किया, ‘‘मोहित की गैरमौजूदगी में तू ने इस घर की जिम्मेदारियों के साथसाथ हम सब को भी बहुत अच्छे से संभाला है. अपने छोटेबड़े हर फर्ज को तू ने प्यार और अपनेपन से निभाया है.

‘‘इतना ही नहीं, अपनी दादी मां के रूखे बरताव के बाद भी तू कभी उन की सेवा करने से पीछे नहीं हटी. अगर मैं यह कहूं कि मोहित की कमी तू ने कभी महसूस ही नहीं होने दी, तो यह गलत नहीं होगा.

‘‘पर अब नहीं बेटा. मैं चाहता हूं कि  मोहित की चंद यादों का जो दायरा तू ने अपने आसपास बना रखा है, उसे तोड़ कर तू बाहर निकले और जिंदगी में आगे बढ़े…’’

पूनम ने कहा, ‘‘आज अचानक ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं आप? कुछ हुआ है क्या? मोहित की कोई खबर आई क्या? बोलिए न पापा, क्या हुआ है?’’ पूनम बेचैन हो उठी थी.

शशिकांतजी ने भरे हुए गले से कहा, ‘‘कोई खबर नहीं आई मोहित की और न ही आएगी. उस की वापसी की उम्मीद अब छोड़नी होगी हमें.’’

पूनम जोर से चिल्लाते हुए बोली, ‘‘नहीं पापा, ऐसा मत कहिए…’’

इतने सालों से पति के बिछड़ने का दर्द जो उस ने अपने अंदर दबा कर रखा था, वह आज आंसुओं की धार के साथ बहता जा रहा था.

शशिकांतजी ने पूनम के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘आज यह लाचार और बेबस पिता तुझ से कुछ मांगना चाहता है बेटा, मना मत करना. बहुत सोचसमझ कर मैं ने तेरा कन्यादान करने का फैसला लिया है.’’

पूनम ने चौंकते हुए कहा, ‘‘पापा, आप भी…’’ कमरे से बाहर जातेजाते वह रुकी और बोली, ‘‘आप गलत कह रहे हैं पापा, अगर मोहित की कमी मैं पूरी कर पाती तो मम्मी आज अस्पताल में कोमा में न होतीं, दादी मां को मुझ से इतनी नफरत न होती और आज आप मुझे इस घर से विदा करने की बात नहीं करते,’’ ऐसा बोल कर वह तेजी से कमरे से बाहर निकल गई.

पूनम के जाने के बाद शशिकांतजी सोच में पड़ गए थे कि ‘आप भी’ से पूनम का क्या मतलब था?

इस बात को 8 दिन बीत चुके थे. शशिकांतजी अपने फैसले पर अटल थे. उन के इस फैसले से दादी मां बहुत नाराज थीं और दादी मां ने उन से बात करना बंद कर दिया था, पर उन्होंने हार नहीं मानी थी.

शशिकांतजी एक बार फिर पूनम को समझाने की उम्मीद से उस के बुटीक पहुंच गए थे.

उन्हें देखते ही पूनम ने कहा, ‘‘अरे पापा, आप यहां कैसे?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, शाम की सैर के लिए निकला था…’’ शशिकांतजी बोले, ‘‘सोचा कि तुझे देख लेता हूं… तेरा काम खत्म हो गया होगा, तो साथ में घर चलेंगे.’’

पूनम ने कहा, ‘‘पापा, मुझे थोड़ा समय और लगेगा.’’

‘‘ठीक है…’’ शशिकांतजी बोले, ‘‘मैं बाहर तेरा इंतजार करता हूं, आ जाना.’’

थोड़ी देर बाद बुटीक बंद कर के पूनम अपनी कार ले कर बाहर आ गई. शशिकांतजी ने उस से कहा, ‘‘आज मैं गाड़ी चलाता हूं.’’

कार चलाते हुए शशिकांतजी ने फिर अपनी बात शुरू की और पूनम से कहा, ‘‘तू ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया बेटा… और उस दिन तू ने ‘आप भी’ ऐसा क्यों कहा था?’’

पूनम ने कहा, ‘‘मोहित ने मिशन पर जाने से पहले मुझे कसम दी थी कि अगर वह वापस नहीं लौटा तो मैं उस के इंतजार में अपनी पूरी जिंदगी नहीं निकालूंगी और एक नई शुरुआत करूंगी. उस दिन आप ने भी वही बात कह दी. आप ही की तरह शायद वह भी मुझे अपने से दूर करना चाहता था.’’

शशिकांतजी को इस बात की बहुत खुशी हो रही थी कि मोहित के बारे में उन की सोच गलत नहीं थी. वह भी पूनम के लिए इस तरह की अधूरी जिंदगी नहीं चाहता था.

शशिकांतजी अपने फैसले पर अब और ज्यादा मजबूत हो गए थे. उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुझे याद है, कुछ दिन पहले कर्नल मोहन अपने घर आए थे. वे अपने बेटे गौरव के लिए तेरा हाथ मांगने आए थे.

‘‘गौरव की पहली पत्नी की शादी के 4 महीने बाद ही मौत हो गई थी. वह अमेरिका में बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है. वह अभी यहीं है और कुछ दिन बाद वापस जाने वाला है, इसलिए उन्हें शादी की जल्दी है.

‘‘कर्नल मोहन को मैं बहुत सालों से जानता हूं. वे बेहद सुलझे और समझदार लोग हैं. तू बहुत खुश रहेगी… और तुझे तो गौरव के साथ अमेरिका में ही रहना होगा. इस रिश्ते के लिए हां कह दे बेटा,’’ शशिकांतजी ने जोर देते हुए पूनम से कहा.

पूनम ने जवाब दिया, ‘‘मुझे नहीं पता था पापा कि आप के लाड़प्यार का

कर्ज मुझे एक दिन आप से दूर जा कर चुकाना पड़ेगा.’’

शशिकांतजी ने पूनम और गौरव का रिश्ता तय कर दिया. पूनम के मातापिता को भी खबर कर दी गई.

शादी का दिन आ चुका था. बंगले की सजावट शशिकांतजी ने पूनम की पसंद के लाल गुलाब के फूलों से कराई थी.

बरात जैसे ही बंगले के सामने पहुंची, तो शशिकांतजी ने सभी का स्वागत किया. थोड़ी देर बाद पूनम की मां उसे मंडप में ले जाने के लिए आईं, तो पूनम ने कस कर अपनी मां के हाथों को पकड़ा और कहा, ‘‘मुझ से यह नहीं होगा मां. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. पता नहीं, क्यों बारबार ऐसा लग रहा है कि मोहित यहींकहीं आसपास है.

‘‘मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती. यह सब होने से रोक दो मां,’’ पूनम अपनी मां के सामने हाथ जोड़ कर रोते हुए बोली और बेसुध हो कर जमीन पर गिर पड़ी.

पूनम की मां उस के बेसुध होने की सूचना देने बाहर आईं, तो उन्होंने देखा कि फौज की एक गाड़ी बंगले के बाहर आ कर रुकी है. उस गाड़ी में से सेना के 2 जवान उतरे, फिर उन्होंने हाथ पकड़ कर काला चश्मा पहने एक शख्स को गाड़ी से नीचे उतारा.

विवाह समारोह में आए सभी लोगों  की नजरें बड़ी हैरानी से उस शख्स

को देख रही थीं. उसे देखते ही शशिकांतजी की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा.

‘‘मोहित… मेरे बेटे, तू ने बहुत इंतजार कराया,’’ बोलते हुए शशिकांतजी ने उसे अपने सीने से लगा कर बेटे की वापसी की तड़प को शांत कर दिया.

पूनम की मां खुशी से भागते हुए अंदर गईं और उन्होंने पूनम के ऊपर पानी के छींटे मारे, फिर जोर से उसे झकझोर कर बोलीं, ‘‘उठ बेटा, बाहर जा कर देख… तेरे विश्वास ने आज तेरे सुहाग की वापसी कर ही दी.’’

पूनम सभी मर्यादाओं को लांघ कर गिरतीपड़ती भागते हुए बाहर गई और मोहित से जा लिपटी. वह फूटफूट कर रोते हुए बोली, ‘‘आखिर आप ने मेरे यकीन की इज्जत रख ही ली मोहित.’’

शोरगुल की आवाज से दादी मां भी बाहर आ गई थीं और मोहित को देख कर अपने आंसुओं के बहाव को रोक नहीं पाई थीं.

मोहित ने पूनम से कहा, ‘‘मेरी वापसी एक अधूरेपन के साथ हुई है पूनम. लड़ाई में मैं अपनी दोनों आंखें गंवा चुका हूं. जिसे अब खुद हर समय सहारे की जरूरत पड़ेगी वह तुम्हारा सहारा क्या बनेगा.’’

पूनम ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘यह कैसी बात कर रहे हैं आप. हम पूरी जिंदगी के साथी हैं. हमें एकदूसरे के सहारे और हमदर्दी की नहीं, बल्कि साथ की जरूरत है…’’ इतना कह कर पूनम ने अपना हाथ मोहित के आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘आप देंगे न मेरा साथ?’’

गौरव इतनी देर से दूर खड़ा हो कर सब देख रहा था. उस ने मोहित का हाथ पकड़ कर अपने हाथों से पूनम के हाथ में दे दिया.

पूनम कर्नल मोहन के पास गई और हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए अंकल. इस घर और मोहित को छोड़ कर मैं कहीं नहीं जा सकती.’’

कर्नल मोहन ने पूनम के सिर पर अपना हाथ रख दिया.

Family Story: लक्ष्मण रेखा – मिसेज राजीव कैसे बन गई धैर्य का प्रतिबिंब

Family Story: मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था. कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती. डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं. उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था. शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं. ‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी. पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया. ‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था. ‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है? ‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही. ‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’ ‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई. आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था. शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता. ‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’ ‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’ ‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था. ‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी. बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’ पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है. सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

Family Story: झुनझुना – आखिर क्यों रिना को गुस्सा नहीं आता था

Family Story: आत्मनिर्भर बनने के भाषण ने नेताओं जैसे गुणों वाले मेरे घर के 3 तेज बुद्धि वालों को और सयाना बना दिया. भाषण का असर किसी पर हुआ हो या न, इन 3 सयानों के चेहरों की चमक देखने वाली थी.

मैं चुप रही. कोरोना टाइम में चौबीसों घंटे सब को झेलझेल कर इन की नसनस पहचानने लगी हूं. रातदिन देख रही हूं सब को. सरकार सा हो गया है घर मेरा. करनाधरना कम, शोर ज्यादा.

मुझे अपना अस्तित्व किसी मूर्ख, गरीब जनता जैसा लगता है. एक जरूरी काम बताती हूं, तो ये दस जगह ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं. कोशिश रहती है कि कोई जिम्मेदारी इन के ऊपर न आए. कोरोनाकाल में आजकल हाउसहैल्प नहीं है, तो इन सयानों को घर के कामों में कम से कम ही हाथ बंटाना पड़े.

मयंक कहने लगे, “रीना, वैसे सब काम मैनेज हो ही रहा है न, तो अब तुम पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई हो. अब तो तुम्हें आशाबाई की भी जरूरत नहीं लगती न, प्राउड औफ़ यू, डिअर.”

मैं फुंफकारी, ”उस के बिना हालत खराब है मेरी. चुपचाप काम किए जा रही हूं, तो इस का मतलब यह नहीं कि बहुत अच्छा लग रहा है. तुम तीनों तो किसी काम को हाथ तक नहीं लगाना चाहते. पता नहीं कैसे इतने सौलिड बहाने देते हो कि चुप ही हो जाती हूं.‘’

मलय को अचानक कुछ याद आया, ”मौम, आप को पता है कि विपिन की मौम घर पर ही पिज़्ज़ा बेस बना लेती हैं. कल इंस्टाग्राम पर विपिन ने पिक डाली, तो मैं ने उस से पूछा था कि सब शौप्स तो बंद हैं, तुम्हें पिज़्ज़ा बेस कहां से मिल गया? मौम, उस ने गर्व से बताया कि उस की मम्मी को पिज़्ज़ा बेस घर पर बनाना आता है.”

मैं ने उसे घूरा तो उस ने टौपिक बदलने में ही अपनी भलाई समझी. पर, उस ने मेरी दुखती रग तो छू ही दी थी. सो, मैं शुरू हो गई, ”तुम लोग हाथ मत बंटाना, बस, मुझे यह बता दिया करो कि और घरों में क्याक्या बन रहा है. मलय, उस से यह पूछा कि उन के घर में भी कोई घर के कामों में हैल्प कर रहा है या नहीं? बस, मां को ही आत्मनिर्भर बनाना है सब को?”

मौली कम सयानी थोड़े ही है, एक कुशल नेता की तरह मीठे स्वर में मौके की नजाकत देख कर कहा, ”मलय, मौम कितना काम कर रही हैं आजकल, देखते हो न. अब ऐसे में उन से पिज़्ज़ा बेस भी बनाने की ज़िद न करो. मेरे भाई, मौम जो बनाती हैं, ख़ुशीख़ुशी खा लो. उन के हाथ में तो इतना स्वाद है, जो भी बनाती हैं, अच्छा ही होता है. मौम, आप को जिस चीज में मेहनत कम लगे, वही बनाया करो. हम तो वर्क फ्रौम होम में फंस कर आप की हैल्प नहीं कर पाते. लव यू, मौम,” ‘कहतेकहते उस ने मेरे गाल चूम लिए. और मैं एक गरीब जनता की तरह फिर सब के झांसे में आ कर, सब भूल दुगने जोश से काम करने लगी.

मौली ने एक झुनझुना पकड़ा ही दिया था. लौकडाउन शुरू होने पर मेरे मूर्ख बनने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, वह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मैं बारबार इन सयानी बातों में फंसती हूं. तीनों ने मुझे काफी समझाया. एक भाषण काफी नहीं था आत्मनिर्भर बनने का, 3 और सुने.

मयंक उन में से हैं जो ऐसे भाषण को काफी गंभीरता से लेते हैं. जो कह दिया गया, बस, वही करेंगे. बुद्धि गई तेल लेने. कई बार सोचती हूं, इतना ध्यान अगर अपने पिताजी के भाषणों पर दिया होता, तो पता नहीं आज क्या बन गए होते. सेल्स की नौकरी में कमाखा तो अभी भी रहे हैं, पर पिताजी के भाषण तो बेकार गए न.

उन्हें तो मयंक को डाक्टर बनाना था. आज लगता है अगर टीवी पर भाषण में सुनते कि डाक्टर बनना है तो मेहनत शायद कर लेते, पर पिताजी की बात में टीवी के भाषण जैसा दम थोड़े ही था. मयंक अकसर कहते हैं, ‘मुझ पर ऐसे भाषणों का असर कहां होता है. मुझे तो रोज बढ़ती महंगाई में खींचतान कर घर का बजट देखना पड़ता है.’ मैं समझ गई कि मुझे आत्मनिर्भर बनाने के लिए तीनों एड़ीचोटी का जोर लगा देंगे.

मुझे कोई शौक नहीं आत्मनिर्भर बनने का. नहीं हो रहा है मुझ से अब अकेले घर का काम. मुझे आशाबाई भी चाहिए, इन लोगों की हैल्प भी चाहिए. घर में रहरह कर सब का हर समय कोई न कोई शौक जागा करता है जिसे पूरा मुझे करना होता है. एक दिन मलय ने कहा, मौम, चलो, घर की सैटिंग कुछ चेंज करते हैं, एक चीज एक तरह से देखदेख कर बोर हो गए.”

मैं ने कहा, ‘हां, क्यों नहीं. चलो, झाड़ू ले आओ. सामान इधरउधर हटेगा, तो नीचे की सफाई भी हो जाएगी, वरना सामान रोज तो हटता नहीं है.”

फौरन एक नेता की तरह पलटी मार दी महाशय ने, ”मौम, इस से तो आप का काम और बढ़ जाएगा. छोड़ो, फिर कभी करते हैं.”

”नहींनहीं, काम क्या बढ़ना, तुम हैल्प करवा रहे हो न!”

”मौम, कुछ काम याद आ गया अचानक, लैपटौप पर बैठना पड़ेगा, फिर कभी करते हैं. सैटिंग इतनी भी बुरी नहीं है.”

मौली को एक दिन कहा, ”आज तुम डिनर बना लेना. पता नहीं, मन नहीं हो रहा है कुकिंग का, बोर हो गई रातदिन खाना बनाबना कर.”

मौली ने अपनी मनमोहक मुसकान से कहा, “हां, मौम, बना लूंगी.” फिर उस ने मेरी कमर में बांहें डालीं और मेरे साथ ही लेट गई और बोली, ”लाओ मौम, आप की कमर दबा दूं?”

मैं झट से उलटी हो गई, ”हां, दबा दो.” यह मौका छोड़ दूं, इतनी भी मूर्ख नहीं हूं मैं. ऐसे दिन बारबार तो आते नहीं कि कोई कहे, आओ, कमर दबा दूं. कुछ ही सैकंड्स बीते होंगें, मैं सुखलोक में पहुंची ही थी कि मौली का मधुर स्वर सुनाई दिया, “मौम, जब आप को ठीक लगे, एक शार्ट कट मारोगी?”

”क्या, फिर से बोलो, बेटा?”

”किसी दिन सिर्फ मटर पुलाव बनाओगी? रायता मैं बना लूंगी. बहुत दिन हो गए, मलय तो आप को बनाने नहीं देता, पूरा खाना चाहिए होता है उसे तो.‘’

”हां, ठीक है, बना दूंगी”

बेटी इतने प्यार से अपना कामधाम छोड़ कर मेरे साथ लेटी थी, मैं तो वारीवारी जा रही थी उस पर मन ही मन. थोड़ी देर बाद वह अपने रूम में चली गई. उस की फ्रैंड का फोन था, जातेजाते बोली, “टेक रैस्ट, मौम.”

थोड़ी देर बाद मैं ने यों ही लेटेलेटे मौली को सरप्राइज देने का मन बना लिया, कि मैं आज ही मटरपुलाव बना लूंगी उस की पसंद का, खुश हो जाएगी वह. और मैं ने डिनर में सचमुच खुद ही सब बना लिया. बीचबीच में मौली आ कर हैल्प औफर करती रही, मैं मना करती रही थी.

डिनर टेबल पर सब को हंसतेमुसकराते देख मुझे अचानक याद आया कि अरे, आज तो मेरा कुकिंग का मूड ही नहीं था. मौली पर जिम्मेदारी सौंपी थी डिनर की. और मैं ही उस के लिए मटरपुलाव, रायता और मलय के लिए स्टफ्ड परांठे बनाने में जुट गई. ओह, मूर्ख जनता फिर ठगी गई. मुझे मीठीमीठी बातों में फिर फंसा लिया गया. मुझे गुस्सा आ गया, कहा, ”मैं तुम लोगों से बहुत नाराज हूं, कोई मेरी हैल्प नहीं करता. बस, सब से डायलौग मरवा लो. मर जाऊंगी काम करतेकरते, तुम लोग, बस, लाइफ एंजौय करो.”

मयंक ने मुझे रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”मेरी रीनू, हम लोगों से गुस्सा हो ही नहीं सकती. अभी तो यह टैस्टी पुलाव खाने दो. एक बार औफिस में कपिल पुलाव लाया था, इतना बेकार था, सारे चावल के दाने चिपके हुए थे. और एक आज तुम्हारा बनाया हुआ पुलाव, देखो, कैसे खिलाखिला है एकएक दाना. वाह, खाना बनाना कोई तुम से सीखे. सच बताऊं, जो भी बनाती हो, शानदार होता है. वाह, ऐक्सीलैंट.”

मैं, हूं तो एक नारी ही न, तारीफ़ सुन कर सब भूल गई. दिल किया, अपनी जान निसार कर दूं सब पर. इतराते हुए पूछ बैठी, “कल क्या खाओगे, क्या बनाऊं?”

मलय ने मौका नहीं छोड़ा, फरमाइश सब से पहले की, ”मौम,छोलेभठूरे.”

”ओके, बनाऊंगी.”

फिर मौली कह बैठी, ”मौम, मेरी हैल्प तो नहीं चाहिए होगी न? कल मेरी कई वर्कशौप्स हैं दिनभर.”

मेरा मुंह उतरा, तो एक सयाने ने संभाल लिया, मलय ने कहा, ”मैँ करवा सकता हूं हैल्प, पर लंचटाइम में, तब तक आप मेरी हैल्प का वेट कर पाओगी, मौम?”

मैं ने थोड़ा झींकते हुए कहा, “मुझे किसी से कोई उम्मीद ही नहीं है कि मुझे हैल्प मिलेगी. यह कोरोना टाइम मेरी जान ले कर ही रहेगा. कोरोना से भले ही बच जाऊं, ये काम मुझे मार डालेंगे. बस, तुम लोग सुबह लैपटौप खोल लिया करो, बीचबीच में सोशल मीडिया पर घूम लिया करो, दोस्तों से बातें कर लिया करो. बस, यही करते हो और यही करते रहो तुम लोग.”

इतने में दूसरे सयाने ने माहौल में बातों की जादू की छड़ी घुमाने की कोशिश की. मयंक बोले, ”तुम बहुत दिन से नई वाशिंग मशीन लेने के लिए कह रही थीं न, आजकल सेल चल रही है. मैं ने देख ली है. चलो, तुम्हें दिखाता हूं. आओ, लैपटौप लाता हूं.” यह कह कर मयंक उठे. बच्चे भी नौटंकी करने लगे, बोले, मौम, देखो, पापा कितना ध्यान रखते हैं, आप के लिए नई वाशिंग मशीन आ रही है.”

मैँ क्या कहती, मुझे तो ऐसे ही घुमा दिया जाता है जैसे कि आजकल जनता किसी भी बात पर अपना हक़ जताने की कोशिश करे और उसे कोई झुनझुना हर बार पकड़ा दिया जाए. मैँ आजकल इन्हीं झुनझुनों में घूमती रहती हूं. वाशिंग मशीन का और्डर दे दिया गया.

आजकल कहीं बाहर तो निकल ही नहीं रहे हैं, तो सबकुछ औनलाइन ही तो आ रहा है. बस, काम करते रहो, कहीं आनाजाना नहीं. मेरे फ़्रस्ट्रेशन की कोई सीमा नहीं है आजकल. कब आशाबाई आएगी, कब मैँ चैन की सांस लूंगी. गुस्सा तब और बढ़ जाता है जब मैँ कहती हूं कि आशाबाई को बुला लेते हैं, तीनों एकसुर में कहते हैं, कि अरे, बिलकुल सेफ नहीं है उसे बुलाना. तुम हमें बताओ, किस काम में उस की हैल्प चाहिए.

मैँ जब हैल्प के लिए बताती हूं तो सब गायब हो जाते हैं. यह है आजकल मेरी हालत. तभी मैं खुद को मूर्ख जनता की तरह पाती हूं. जैसे ही आवाज उठाती हूं, झुनझुने पकड़ा दिए जाते हैं मुझे. तीनो ऐसे सयाने हैं कि घर के काम नहीं करने, बस, मौली तो मुंह बिसूर कर कहती है, “मौम, कहां आदत है, इतने काम…”

काम न करने पड़ें, इस के लिए सारे पैतरे आजमाए जा रहे हैं. वाशिंग मशीन आ गई. सब को लगा कि मैँ अब कुछ दिन तो उस में लगी रहूंगी, खुश रहूंगी. पर कितने दिन… काम थोड़े ही कम हो गए मेरे. एक रात को मैं ने अत्यंत गंभीर स्वर में कहा, ”कल सुबह उठते ही मुझे तुम तीनों से जरूरी बात करनी है.”

मेरे स्वर की गंभीरता पर तीनों चौंके, क्या हुआ? अभी बता दो.”

”परेशान हो चुकी हूं, सुबह ही बात करेंगे. मैँ कोई नौकर थोड़े ही हूं कि दिनरात, बस, काम ही करती रहूं,” कह कर मैँ पैर पटकते हुए सोने चली गई. अभी 10 ही बजे थे, पर आज मैँ बहुत थक गई थी.

मुझे आहट मिली कि तीनों एक रूम में ही बैठ गए हैं. मैं ने सोच लिया था कि कल मैँ तीनों को कोई काम न करने पर बुरी तरह डांटूंगी, लड़ूंगी, चिल्लाऊंगी. हद होती है कामचोरी की. और मैँ फिर जल्दी सो भी गई. सुबह उठी, तो भी मुझे रात का अपना गुस्सा और शिकायतें याद थीं. बैड पर लेटेलेटे सोचा कि आज बताती हूं सब को, कोई हैल्प नहीं करेगा तो मैं अकेले भी नहीं करने वाली सारे काम. हद होती है, सैल्फिश लोग.

तीनों अभी सोये हुए थे. मैं ने जैसे ही लिविंगरूम में पैर रखा, मेरी नजर कौर्नर की शैल्फ पर रखी अपनी मां की फोटो पर पड़ी. मेरी आंखें चमक उठीं. पास में जा कर फोटो को निहारती रह गई. ओह, किस ने रखी यह मेरी प्यारी मां की इतनी सुंदर फोटो यहां पर. मैं फोटो देखती रही. यह इन लोगों ने लगाई है रात में. लेकिन यह फोटो तो मेरी अलमारी में रहती है. ये बेचारे वहां से कैसे निकाल कर लाए होंगे कि आहट से मेरी आंख भी न खुली.

मैं ने फ्रेश हो कर अपनी मां को फोन मिला दिया और बताया कि रात को उन की फोटो कैसे तीनों ने मुझे सरप्राइज देने के लिए लगा दी है. मां को बहुत ख़ुशी हुई, तीनों को खूब प्यार व आशीर्वाद कहती रहीं. मैं सब भूल, अब, मां से इन तीनों की तारीफ़ क्यों किए जा रही थी, मुझे एहसास ही नहीं हुआ. मैं चाय पी ही रही थी कि तीनों उठे. मैं ने उन्हें थैंक्स कहा. वे मुसकराते हुए फ्रेश हो कर अपने काम में बिजी हो गए.

ब्रेकफास्ट मैं ने उन तीनों की पसंद का ही बनाया. जिस में मुझे एक्स्ट्रा टाइम लगा तो मुझे फिर अपने पर गुस्सा आने लगा. मेरा ध्यान फिर इस बात पर गया कि फिर मुझे रात में नाराज देख कर मां की फोटो का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है. अभी बताती हूं सब को, चालाक लोग…कैसे मेरा गुस्सा शांत किया, कितने तेज हैं सब. बताती हूं अभी. मैं ने सीरियस आवाज़ में कहा, ”आओ सब, जरा बात करनी है मुझे.”

तीनों ने आते हुए एकदूसरे को देख कर इशारे किए. मेरी आंखों से छिपा न रहा. फिर मौली और मलय को मैं ने मयंक को कुछ इशारा करते हुए देखा. मुझे पता है कि मेरे गुस्से से बचते हैं तीनों. वैसे तो मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता, पर, जब आता है तो मैं काफी मूड खराब करती हूं. हम चारों बैठ गए. मैं ने रूखी आवाज में कहा, “सब सामने ही रखा है, खुद ले लो. मेहमान तो हो नहीं कोई, कि परोसपरोस कर सब की प्लेट लगाऊं. और मुझे, तुम लोगों से यह कहना है कि अब से…”

मयंक ने मेरी बात पूरी नहीं होने दी, बहुत भावुक हो कर बोला, ”नहीं, पहले मुझे बोलने दो, रीनू. हम तीनों ने सोचा है कि हम हर बार कुछ भी खाने से पहले इतनी मेहनत कर के हमें खिलाने वाले को, तुम्हे, थैंक्स कहा करेंगे, थैंक्यू, रीनू, कितना करती हो तुम हम सबके लिए. बिना किसी की हैल्प के, इतने काम करना आसान नहीं है. वी लव यू, रीनू.”

”थैंक्यू मौम.”

बच्चों ने भी इतने प्यार से कहा कि मैं रोतेरोते रुकी. मन में आया, मैं ही ओवररिऐक्ट तो नहीं कर रही थी. बेचारे खाने से पहले मुझे थैंक्स बोल रहे हैं. किस के घर में यह सब होता है. ओह, कितने प्यारे हैं तीनों. देखते ही देखते मैं उन सब को प्यार से हर चीज सर्व कर रही थी. मेरी जबान से शहद टपक रही थी. मुझे फिर लच्छेदार बातों का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया था, इस का एहसास मुझे बाद में फिर हुआ. मूर्ख जनता सी मैं एक बार फिर ठगी गई थी.

Family Story: पूर्णाहूति – क्यों सुरेखा घर छोड़ना चाहती थी?

Family Story, लेखिका- वंदना तिवारी

सुरेखा जल्दीजल्दी सूटकेस में सामान रखने में व्यस्त थी. समय और आवश्यकता के अनुसार चुनी गईं कुछ साङियां, ब्लाउज के सैट्स, सूट के साथ मैचिंग दुपट्टे. 2-3 चूड़ियों के सैट्स, कुछ रूमालें और रोजमर्रा की जरूरत की ऐसी चीजें जिन की उपस्थिति जीवन में अनिवार्य होती हैं, धीरेधीरे संभाल कर रख रही थी.

इन में भी सब से अधिक संभाल कर रखे गए उस के सारे सर्टिफिकैट्स, मार्कशीट्स और नौकरी के लिए आया कौल लेटर भी था.

इन व्यस्तताओं के बीच उस ने कई बार मणि की ओर बेपरवाही से देखा और फिर व्यस्त हो गई. सोफे पर स्थिर बैठा मणि उसे एकटक ऐसे देख रहा था मानों बहुत कुछ कहना चाह रहा हो, लेकिन उस के शब्द किसी अथाह सागर में डूबते जा रहे हों.

उधर सुरेखा थी कि उस की ओर स्थिर हो कर ताक भी नहीं रही थी मानों जताना चाह रही हो कि तुम ने मुझे कब सुना था, जो आज मैं तुम्हारी भावनाओं को समेट लूं?

जब मैं तुम्हें अपने पास रोकना चाहती थी, तब तुम हाथ छुड़ा कर चले जाते थे. जब मैं तुम से कुछ कहने का प्रयास करती, तब तुम ध्यान नहीं देते थे क्योंकि तुम्हारे अनुसार मैं बेमतलब की बातें ही तो करती थी. फिर एक अहंकारी पुरुष मेरी बातों में क्यों दिलचस्पी ले पाता?

ओह, मैं ने क्याक्या कहना चाहा था तुम से मणि. क्या एक पति का इतना भी कर्तव्य न था कि वह अर्धांगिनी कही जाने वाली अपनी पत्नी के मनोभावों को समझना तो दूर, सुन भी न सके?

मुझे आज भी याद है मणि, जब मैं ब्याह कर प्रथम दिवस तुम्हारे घर आई थी. ससुराल में पदार्पण करने के बाद नई दुलहन को देखने वालों के उत्साह ने मुझे क्षण भर भी आराम करने नहीं दिया था. हां, तुम ने आते ही सो कर अपनी थकान उतार ली थी, लेकिन मैं भारी बनारसी साड़ी के बोझ तले दुलहन बनी बैठी रही.

रात में जब सब सो गए तब मैं आधी रात कमरे में अकेली बैठी इंतजार करती रही थी. मेरे मन में कितने भाव आजा रहे थे. मैं चाहती थी कि अपने मन के सारे द्वार खोल दूं और तुम एक प्रेमाकुल भ्रमर के समान मेरे मन के कोष में बंद सारे भाव पढ़ लो. सारी नींद, सारी थकान भुला कर मैं तुम से रात भर बातें करती रहूं.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तुम ने आते ही कमरे के कपाट क्या बंद किए मेरे मन के द्वार पर मानो ताला लगा दिया. तुम ने आते ही मुझे जकङ लिया था और फिर ज्योंज्यों चूङियोंगहनों का बोझ कम होता गया त्योंत्यों मेरे व्याकुल हृदय का भार और बढ़ता चला गया. उस के बाद तो सपने, कल्पनाएं, भावनाएं न जाने क्याक्या मेरे भीतर ही भीतर टूटता रहा. मेरा तो जैसे संपूर्ण अस्तित्व अस्तव्यस्त हो गया, जिसे मैं आज तक नहीं समेट पाई.

मिलन की प्रथम रात्रि की मधुर बेला में तुम्हारे द्वारा पूछा गया वह क्रूर प्रश्न क्या मैं कभी भूल पाऊंगी मणि? तुम्हारे निर्दय शब्द आज भी मेरे मन को विचलित कर देते हैं.

तुम ने मेरी वर्जिनिटी पर सवाल उठाया था,”क्या इस के पहले तुम्हारा किसी से…?”

छिः मैं कैसे बोलूं तुम्हारे वे घृणित शब्द? मैं अवाक सी तुम्हें देखती रह गई थी.

तब तुम ने और दृढ़ता से कहा था,’’आजकल कालेज में पढ़ने वाले लड़केलड़कियों के लिए यह सामान्य सी बात है. मैं बुरा नहीं मानूंगा.‘‘

चरित्र पर उछाले गए उन छीटों से मैं आज भी स्वयं को कलुषित सा महसूस करती हूं मणि.

सुरेखा के सारे घाव हरे हो उठे थे. उस की डबडबाई आंखों से कुछ बूंदें छलक पड़ीं. तभी मणि ने उस का हाथ पकड़ लिया,’’रो रही हो? फिर क्यों जा रही हो? मुझे पता है तुम मेरे बिना नहीं रह पाओगी.”

“चलो आज तुम्हें मेरा रोना तो दिखाई दिया. पर उस के पीछे का कारण तुम आज भी नहीं समझ पाए,” कहते हुए सुरेखा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर व्यस्त हो गई.

तुम समझ भी कैसे सकते थे, मणि क्योंकि तुम ने तो मुझे कभी पत्नी का स्थान दिया ही नहीं. तुम्हारे लिए तो मैं मात्र एक उपभोग की वस्तु ही थी. इस के अतिरिक्त तो तुम ने मेरे अस्तित्व को किसी अन्य रूप में स्वीकारा ही नहीं. मैं ने बहुत चाहा था कि तुम्हारे साथ मैं कुछ क्षण शांति से बिता पाती. कुछ तुम अपने मन की कहते कुछ मैं कहती. मनुष्य एकदूसरे के भावों को तो तभी समझ सकता है जब वह उसे सुने और समझे. धरती तभी नम होती है जब जल की बूंदें उसे सिंचित करती हैं. जल के स्नेहिल स्पर्श से ही भाव पूरित हो धरा में प्रेममयी बीज अंकुरित होते हैं, अन्यथा कोई कितना ही उस पर हल चलाता रहे सब बेकार है.

ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं चाहते थे. जब तुम्हें एक स्त्री की आवश्यकता होती थी तब तुम मेरे पास ही आते थे. अपनी लालसा को तृप्त कर फिर मुझे अकेली छोड़ कर चले जाते थे. मेरे हृदय तक पहुंचने का प्रयास तो तुम ने कभी किया ही नहीं और मैं थी कि अब तक दरवाजे की ओर ही निहारती रह गई.

कई बार तो मैं तुम्हारे हाथ कस कर पकड़ लेती थी. तुम से अनुनयविनय करती कि कुछ क्षण मेरे निकट बैठ कर उस प्रेम को महसूस कर लेने दो जो मेरे हृदय को तुम्हारे साथ जोड़ सके. मगर तुम्हें मेरी भावनाओं से क्या मतलब था?

मेरे लिए प्रेम एक अमूर्त भाव था, एक ऐसी डोर जो 2 प्राणों को जनमजनम के लिए बांध लेते हैं. मगर तुम्हारे लिए प्रेम की परिभाषा कुछ और ही थी, तभी तो तुम निर्दयीभाव से मेरा हाथ छुड़ा कर चले जाया करते थे.

“आखिर तुम्हें किस बात ही कमी है यहां? क्या तुम्हें वास्तव में नौकरी की आवश्यकता है? वह भी इतनी दूर जा कर? अकेली रह पाओगी?”

मणि के शब्दों ने सुरेखा की तंद्रा तोड़ी थी. वह कुछ क्षणों के लिए मणि की ओर देखती रही, बिना कुछ कहे एकटक. सुरेखा मानों उन्हीं शब्दों की डोर थामे हुए कहीं डूबी चली जा रही थी.

यह तुम्हारे लिए मात्र एक नौकरी होगी, मणि. मेरे लिए तो तुम्हारे कारागार से मुक्त हो कर स्वच्छंद हवा में सांस लेने का एक माध्यम है. अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान को कुचल कर तुम्हारी दी हुई सुखसुविधाओं का भोग अब मेरे लिए सहन कर पाना असंभव हो गया है.

मैं कैसे भूल सकती हूं वह काला दिन जब तुम ने मेरी भावनाओं को खंडखंड कर डाला था.

मैं वह पल कैसे भूल सकती हूं, मणि? मेरा अपराध मात्र इतना था कि जब तुम मेरी कोई बात सुननेसमझने को तैयार न थे मैं ने अपनी भावनाओं को तुम तक पहुंचाने के लिए पत्र को माध्यम बनाया था. अपने भाव के मोती शब्दों की डोर में पिरो कर तुम्हें सौंप दिया था. यही मेरी भूल थी. सोचा था इसे पढ़ कर ही कदाचित किसी सीमा तक तुम मुझे समझ पाओगे. मगर नहीं, तुम तो पूरी तरह संवेदनाशून्य थे. इसीलिए तो तुम ने उस पत्र में लिखे 1-1 शब्द को सब के सामने बोल कर मेरा मजाक उड़ाया था.

घर में गूंजते ठहाकों से मेरा हृदय चीत्कार कर उठा था. उस दिन मैं टूट कर ऐसी बिखरी कि आजतक मैं स्वयं को समेटने का प्रयास ही कर रही हूं.

शायद राख के ढेर में कहीं एक चिनगारी शेष थी. बस, मन में एक निश्चय किया था,‘अब मुक्ति चाहिए…’ और इस के लिए मुझे स्वयं को स्थापित करना ही होगा.

एक नारी का हृदय जितना कोमल और विनम्र होता है, तिरस्कार और अपमान उसे उतना ही निष्ठुर और कठोर भी बना देता है.

मणि ने अपना अंतिम प्रयास किया. उस ने सुरेखा को कस कर भींच लिया,‘‘सोच लो, बस एक बार, मेरे लिए… इतना आसान नहीं होगा यह सब.’’

“आसान तो कुछ भी नहीं होता. अपने मातापिता और परिजनों को छोड़ कर किसी अजनबी को पति मान कर उस के साथ चल पड़ना कौन सा आसान होता है?’’ सुरेखा ने प्रश्नपूर्ण दृष्टि से मणि की ओर देखा था.

जीवन के एक नए सफर पर चल पड़ने की दृढ़ता उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी.

‘‘तो तुम नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘नहीं रुकोगी?’’

‘‘नहीं.”

“एक बार फिर सोच लो.’’

‘‘नहीं.”

सुरेखा ने अपने वैवाहिक जीवन की यज्ञवेदी में आज तक जितनी आहूतियां दी थीं, आज उस की पूर्णाहुति देने का समय था. सुरेखा इस के लिए पूरी तरह तैयार थी.

मणि के बाहुपाश से छूटते ही उस ने सूटकेस उठाया और दृढ़ता के साथ बाहर निकल गई.

Family Story: वह मेरे जैसी नहीं है – क्यों मां स्नेहा को आशीर्वाद देती थी?

Family Story: मैं ने तो यही सुना था कि बेटियां मां की तरह होती हैं या ‘जैसी मां वैसी बेटी’ लेकिन जब स्नेहा को देखती हूं तो इस बात पर मेरे मन में कुछ संशय सा आ जाता है. इस बात पर मेरा ध्यान तब गया जब वह 3 साल की थी. उसी समय अनुराग का जन्म हुआ था. मैं ने एक दिन स्नेहा से पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारा बेड अलग तैयार कर दूं, तुम अलग बेड पर सो पाओगी?’’ स्नेहा तुरंत चहकी थी, ‘‘हां, मम्मी बड़ा मजा आएगा. मैं अपने बेड पर अकेली सोऊंगी.’’

मुझे थोड़ा अजीब लगा कि जरा भी नहीं डरी, न ही उसे हमारे साथ न सोने का कोई दुख हुआ. विजय ने कहा भी, ‘‘अरे, वाह, हमारी बेटी तो बड़ी बहादुर है,’’ लेकिन मैं चुपचाप उस का मुंह ही देखती रही और स्नेहा तो फिर शाम से ही अपने बेड पर अपना तकिया और चादर रख कर सोने के लिए तैयार रहती.

स्नेहा का जब स्कूल में पहली बार एडमिशन हुआ तो मैं तो मानसिक रूप से तैयार थी कि वह पहले दिन तो बहुत रोएगी और सुबहसुबह नन्हे अनुराग के साथ उसे भी संभालना होगा लेकिन स्नेहा तो आराम से हम सब को किस कर के बायबाय कहती हुई रिकशे में बैठ गई. बनारस में स्कूल थोड़ी ही दूरी पर था. विजय के मित्र का बेटा राहुल भी उस के साथ रिकशे में था. राहुल का भी पहला दिन था. मैं ने विजय से कहा, ‘‘पीछेपीछे स्कूटर पर चले जाओ, रास्ते में रोएगी तो उसे स्कूटर पर बिठा लेना.’’ विजय ने ऐसा ही किया लेकिन घर आ कर जोरजोर से हंसते हुए बताया, ‘‘बहुत बढि़या सीन था, स्नेहा इधरउधर देखती हुई खुश थी और राहुल पूरे रास्ते जोरजोर से रोता हुआ गया है, स्नेहा तो आराम से रिकशा पकड़ कर बैठी थी.’’

मैं चुपचाप विजय की बात सुन रही थी, विजय थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘प्रीति, तुम्हारी मम्मी बताती हैं कि तुम कई दिन तक स्कूल रोरो कर जाया करती थीं. भई, तुम्हारी बेटी तो बिलकुल तुम पर नहीं गई.’’ मैं पहले थोड़ी शर्मिंदा सी हुई और फिर हंस दी.

स्नेहा थोड़ी बड़ी हुई तो उस की आदतें और स्वभाव देख कर मेरा कुढ़ना शुरू हो गया. स्नेहा किसी बात पर जवाब देती तो मैं बुरी तरह चिढ़ जाती और कहती, ‘‘मैं ने तो कभी बड़ों को जवाब नहीं दिया.’’ स्नेहा हंस कर कहती, ‘‘मम्मी, क्या अपने मन की बात कहना उलटा जवाब देना है?’’

अगर कोई मुझ से पूछे कि हम दोनों में क्या समानताएं हैं तो मुझे काफी सोचना पड़ेगा. मुझे घर में हर चीज साफ- सुथरी चाहिए, मुझे हर काम समय से करने की आदत है. बहुत ही व्यवस्थित जीवन है मेरा और स्नेहा के ढंग देख कर मैं अब हैरान भी होने लगी थी और परेशान भी. अजीब लापरवाह और मस्तमौला सा स्वभाव हो रहा था उस का. स्नेहा ने 10वीं कक्षा 95 प्रतिशत अंक ला कर पास की तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था. मैं ने परिचितों को पार्टी देने की सोची तो स्नेहा बोली, ‘‘नहीं मम्मी, यह दिखावा करने की जरूरत नहीं है.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह दिखावा नहीं, खुशी की बात है,’’ तो कहने लगी, ‘‘आजकल 95 प्रतिशत अंक कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, मैं ने कोई टौप नहीं किया है.’’ बस, उस ने कोई पार्टी नहीं करने दी, हां, मेरे जोर देने पर कुछ परिचितों के यहां मिठाई जरूर दे आई. अब तक हम मुंबई में शिफ्ट हो चुके थे. स्नेहा जब 5वीं कक्षा में थी, तब विजय का मुंबई ट्रांसफर हो गया था और अब हम काफी सालों से मुंबई में हैं.

10वीं की परीक्षाओं के तुरंत बाद स्नेहा के साथ पढ़ने वाली एक लड़की की अचानक आई बीमारी में मृत्यु हो गई. मेरा भी दिल दहल गया. मैं ने सोचा, अकेले इस का वहां जाना ठीक नहीं होगा, कहीं रोरो कर हालत न खराब कर ले. मैं ने कहा, ‘‘बेटी, मैं भी तुम्हारे साथ उस के घर चलती हूं,’’ अनुराग को स्कूल भेज कर हम लोग वहां गए. पूरी क्लास वहां थी, टीचर्स और कुछ बच्चों के मातापिता भी थे. मेरी नजरें स्नेहा पर जमी थीं. स्नेहा वहां जा कर चुपचाप कोने में खड़ी अपने आंसू पोंछ रही थी, लेकिन मृत बच्ची का चेहरा देख कर मेरी रुलाई फूट पड़ी और मैं अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाई. मुझे स्वयं को संभालना मुश्किल हो गया. स्नेहा की दिवंगत सहेली कई बार घर आई थी, काफी समय उस ने हमारे घर पर भी बिताया था.

स्नेहा फौरन मेरा हाथ पकड़ कर मुझे धीरेधीरे वहां से बाहर ले आई. मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. हम दोनों आटो से घर आए. कहां तो मैं उसे संभालने गई थी और कहां वह घर आ कर कभी मुझे ग्लूकोस पिला रही थी, कभी नीबूपानी. ऐसी ही है स्नेहा, मुझे कुछ हो जाए तो देखभाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ती और अगर मैं ठीक हूं तो कुछ करने को तैयार नहीं होगी. मैं कई बार उसे अपने साथ मार्निंग वाक पर चलने के लिए कहती हूं तो कहती है, ‘‘मम्मी, टहलने से अच्छा है आराम से लेट कर टीवी देखना,’’ मैं कहती रह जाती हूं लेकिन उस के कानों पर जूं नहीं रेंगती. कहां मैं प्रकृतिप्रेमी, समय मिलते ही सुबहशाम सैर करने वाली और स्नेहा, टीवी और नेट की शौकीन.

5वीं से 10वीं कक्षा तक साथ पढ़ने वाली उस की सब से प्रिय सहेली आरती के पिता का ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो मैं भी काफी उदास हुई क्योंकि आरती की मम्मी मेरी भी काफी अच्छी सहेली बन चुकी थीं. अब तक मुझे यही तसल्ली रही थी कि स्नेहा की एक अच्छी लड़की से दोस्ती है. आरती के जाने पर स्नेहा अकेली हो जाएगी, यह सोच कर मुझे काफी बुरा लग रहा था. आरती के जाने के समय स्नेहा ने उसे कई उपहार दिए और जब वह उसे छोड़ कर आई तो मैं उस का मुंह देखती रही. उस ने स्वीकार तो किया कि वह बहुत उदास हुई है, उसे रोना भी आया था, यह उस की आंखों का फैला काजल बता रहा था. लेकिन जिस तरह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर उस ने मुझ से बात की उस की मैं ने दिल ही दिल में प्रशंसा की. स्नेहा बोली, ‘‘अब तो फोन पर या औनलाइन बात होगी. चलो, कोई बात नहीं, चलता है.’’

ऐसा नहीं है कि वह कठोर दिल की है या उसे किसी से आंतरिक लगाव नहीं है. मैं जानती हूं कि वह बहुत प्यार करने वाली, दूसरों का बहुत ध्यान रखने वाली लड़की है. बस, उसे अपनी भावनाओं पर कमाल का नियंत्रण है और मैं बहुत ही भावुक हूं, दिन में कई बार कभी भी अपने दिवंगत पिता को या अपने किसी प्रियजन को याद कर के मेरी आंखें भरती रहती हैं. जैसेजैसे मैं उसे समझ रही हूं, मुझे उस पर गुस्सा कम आने लगा है. अब मैं इस बात पर कलपती नहीं हूं कि स्नेहा मेरी तरह नहीं है. उस का एक स्वतंत्र, आत्मविश्वास से भरा हुआ व्यक्तित्व है. डर नाम की चीज उस के शब्दकोश में नहीं है. अब वह बी.काम प्रथम वर्ष में है, साथ ही सी.पी.टी. पास कर के सी.ए. की तैयारी में जुट चुकी है. हमें मुंबई आए 9 साल हो चुके हैं. इन 9 सालों में 2-3 बार लोकल टे्रन में सफर किया है. लोकल टे्रन की भीड़ से मुझे घबराहट होती है. हाउसवाइफ हूं, जरूरत भी नहीं पड़ती और न टे्रन के धक्कों की हिम्मत है न शौक. मेरी एक सहेली तो अकसर लोकल टे्रन में शौकिया घूमने जाती है और मैं हमेशा यह सोचती रही हूं कि कैसे मेरे बच्चे इस भीड़ का हिस्सा बनेंगे, कैसे कालिज जाएंगे, आएंगे जबकि विजय हमेशा यही कहते हैं, ‘‘देखना, वे आज के बच्चे हैं, सब कर लेंगे.’’ और वही हुआ जब स्नेहा ने मुलुंड में बी.काम के लिए दाखिला लिया तो मैं बहुत परेशान थी कि वह कैसे जाएगी, लेकिन मैं हैरान रह गई. मुलुंड स्टेशन पर उतरते ही उस ने मुझे फोन किया, ‘‘मम्मी, मैं बिलकुल ठीक हूं, आप चिंता मत करना. भीड़ तो थी, गरमी भी बहुत लगी, एकदम लगा उलटी हो जाएगी लेकिन अब सब ठीक है, चलता है, मम्मी.’’

मैं उस के इस ‘चलता है’ वाले एटीट्यूड से कभीकभी चिढ़ जाती थी लेकिन मुझे उस पर उस दिन बहुत प्यार आया. मैं छुट्टियों में उसे घर के काम सिखा देती हूं. जबरदस्ती, कुकिंग में रुचि लेती है. अब सबकुछ बनाना आ गया है. एक दिन तेज बुखार के कारण मेरी तबीयत बहुत खराब थी. अनुराग खेलने गया हुआ था, विजय टूर पर थे. स्नेहा तुरंत अनुराग को घर बुला कर लाई, उसे मेरे पास बिठाया, मेरे डाक्टर के पास जा कर रात को 9 बजे दवा लाई और मुझे खिला- पिला कर सुला दिया. मुझे बुखार में कोई होश नहीं था. अगले दिन कुछ ठीक होने पर मैं ने उसे सीने से लगा कर बहुत प्यार किया. मुझे याद आ गया जब मैं अविवाहित थी, घर पर अकेली थी और मां की तबीयत खराब थी. मेरे हाथपांव फूल गए थे और मैं इतना रोई थी कि सब इकट्ठे हो गए थे और मुझे संभाल रहे थे. पिताजी थे नहीं, बस हम मांबेटी ही थे. आज स्नेहा ने जिस तरह सब संभाला, अच्छा लगा, वह मेरी तरह घबराई नहीं.

अब वह ड्राइविंग सीख चुकी है. बनारस में मैं ने भी सीखी थी लेकिन मुंबई की सड़कों पर स्टेयरिंग संभालने की मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई और अब मैं भूल भी चुकी हूं, लेकिन जब स्नेहा मुझे बिठा कर गाड़ी चलाती है, मैं दिल ही दिल में उस की नजर उतारती हूं, उसे चोरीचोरी देख कर ढेरों आशीर्वाद देती रहती हूं और यह सोचसोच कर खुश रहने लगी हूं, अच्छा है वह मेरी तरह नहीं है. वह तो आज की लड़की है, बेहद आत्मविश्वास से भरी हुई. हर स्थिति का सामना करने को तैयार. कितनी समझदार है आज की लड़की अपने फैसले लेने में सक्षम, अपने हकों के बारे में सचेत, सोच कर अच्छा लगता है.

Family Story: मेरी पहचान – 32 साल की उम्र में आदिती क्यों मेनोपौज की शिकार हुई थी

Family Story: आजपार्टी में सभी मेरे रंगरूप की तारीफ कर रहे थे. निकिता बोली, ‘‘दीदी, आप की उम्र तो रिवर्स गियर में चल पड़ी है. लगता ही नहीं आप की 4 वर्ष की बेटी भी है.’’

सोनल भी खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आप की त्वचा से आप की उम्र का पता ही नहीं चलता. यह है संतूर साबुन का कमाल,’’ और फिर एक सम्मिलित ठहाके से अनु दीदी का ड्राइंगरूम गूंज उठा.

मैं भी मंदमंद मुसकान के साथ सारी तारीफों का मजा ले रही थी. 32 वर्षीय औसत रंगरूप की महिला हूं तो जब से नौकरी आरंभ करी है तो हाथ थोड़ा खुल गया है. अपने रखरखाव पर थोड़ा अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया है. नतीजतन 2 वर्षों के भीतर ही खुद की ही छोटी बहन लगने लगी हूं.

मेरा नाम अदिति है और मैं एक प्राईवेट विद्यालय में प्राइमरी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाती हूं. शादी से पहले मैं डंडे की तरह पतली थी, पार्लर बस बाल कटाने ही जाती थी, क्योंकि उन दिनों लड़कियों का पार्लर अधिक जाना अच्छा नहीं समझा जाता था. घनी जुड़ी हुई भौंहें और होंठों के ऊपर रोयों की एक स्पष्ट छाप थी, फिर भी अच्छी लड़की के तमगे के कारण मैं ने कभी उन मूंछों या भौंहों को छुआ नहीं. कपड़े भी अपने से दोगुना बड़े पहनती थी ताकि मेरा पतलापन ढका रहे. अब ऐसे में 10 बार मेरे रिश्ते के लिए न हो चुकी थी पर फिर न जाने मेरे पति कपिल को इस रिश्ते के गणित में क्या नफा दिखा कि उन्होंने मुझे देखते ही पसंद कर लिया.

न न ऐसे मत सोचिए कि कपिल कोई हीरो थे. वे भी मेरी तरह औसत रंगरूप के ही स्वामी थे, पर इस देश में हर ठीकठाक कमाने वाले लड़के को ऐश्वर्य की दरकार होती है. मैं खुश थी और पहली बार फेशियल, ब्लीच, वैक्सिंग इत्यादि कराई और अपनी नाप के कपड़े भी सिलवाए. गलत नहीं होगा अगर मैं कहूं कि शादी में मैं बेहद खूबसूरत लग रही थी, कम से कम आईना और मेरी सहेलियां तो यही कह रही थीं.

शादी के बाद कपिल और उन के परिवार के प्यार और सम्मान ने मुझे आत्मविश्वास के पंख दे दिए और मैं आकाश में उड़ने लगी. कपिल एक सरकारी विभाग में क्लास टू ग्रेड के इंप्लोई थे पर फिर भी उन्होंने खर्चों पर जरा भी टोकाटाकी नहीं की. हर महीने पार्लर जाती हूं और जो भी नई डिजाइनर ड्रैस आती है उस की कौपी जरूर खरीद लेती हूं.

फिर 2 वर्ष के भीतर दीया ने मुझे मां बनने का सुख प्रदान किया पर सुख के साथ बढ़ गई जिम्मेदारियां और खर्चे भी. तब कपिल के कहने पर मैं ने नौकरी के लिए हाथपैर मारे और जल्द ही मुझे एक नामी विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी मिल गई. घर पर दीया की देखभाल के लिए उस के दादादादी थे.

एक नया अध्याय शुरू हुआ जिंदगी का, खुद को सही माने में आजाद महसूस करने

का, खुद के वजूद से रूबरू होने का. शुरू में हर काम में घबराहट होती थी. यहां स्कूल में हर काम लैपटौप पर करना होता था. बहुत पहले किया हुआ कंप्यूटर कोर्स काम आ गया. तनाव और नईनई चीजों को सीखने की कोशिश करते हुए 1 माह बीत गया और पहली सैलरी हाथ में आते ही तनाव और अनिश्चितता के बादल हट गए. नए लोगों से दोस्ती के साथ जीवन को एक नए नजरिए से देखना भी आरंभ कर दिया. सच पूछो तो सबकुछ एकदम सही चल रहा था. आज कपिल की दीदी के यहां हाउसवार्मिंग पार्टी में इन सब तारीफों का आनंद ले रही हूं और साथ ही कुदरत को धन्यवाद भी दे रही हूं मुझे इतना अच्छा घरपरिवार देने के लिए.

रात को बहुत थक कर जैसे ही सोने की कोशिश कर रही थी, कपिल नजदीक आने की मनुहार करने लगे पर मैं ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘यार मन नहीं है. 10 दिन ऊपर हो गए हैं, अब तक डेट नहीं आई.’’

कपिल चुहल करते हुए बोले, ‘‘मुबारक हो, लगता दीया के लिए छोटा भाई या बहन आने वाली है… मम्मीपापा की भी दिल की इच्छा पूरी हो जाएगी.’’

मैं ने कपिल के हाथ को झटकते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है न अभी मैं दूसरा बच्चा नहीं कर सकती, नहीं तो कन्फर्मेशन रुक जाएगी.’’

कपिल ने प्यार से सिर थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरे बाबा तनाव के कारण ये सब हो रहा है. लाओ सिर पर तेल की मालिश कर दूं.’’

ऐसे ही देखतेदेखते 10 दिन और बीत गए, फिर बाजार में उपलब्ध प्रैगनैंसी किट से टैस्ट किया पर नतीजा नैगेटिव था.

रविवार को कपिल और मैं डाक्टर के पास गए. डाक्टर ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और फिर कुछ टैस्ट कराने के लिए कहा. मंगलवार को रिपोर्ट आ गई और फिर से हम डाक्टर के सामने बैठे थे. रिपोर्ट पढ़ते हुए डाक्टर के चेहरे पर चिंता की रेखाएं थीं.

चश्मा निकाल कर डाक्टर बहुत स्नेहिल परंतु गंभीर स्वर में बोली, ‘‘ये सारी रिपोर्ट्स पैरिमेनोपौजल की तरफ इशारा कर रही हैं. आप को प्रीमैच्योर ओवेरियन फेल्योर है.’’

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्यों और कैसे यह तूफान मेरी जिंदगी में आ गया है. मैं अब तक एक पूर्ण स्त्री थी. अभी तक तो मैं ने अपने स्त्रीत्व को पूर्णरूप से भोगा भी नहीं था और मेरा शरीर मेनोपौज की तरफ जा रहा है और वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में. इस उम्र में तो बहुत बार लड़कियों की शादी होती है.

एक टूटा हुआ मन और अधूरा तन ले कर मैं कपिल के साथ घर आ गई. सासससुर बहुत आशा से कपिल की तरफ देख रहे थे, कोई खुशखबरी सुनने की आस में पर कपिल ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

मैं ने कपिल से कहा, ‘‘झूठ क्यों बोला? क्यों नहीं बताया मैं अब कभी चाह कर भी मां नहीं बन पाऊंगी?’’ और यह कहते हुए एक तीव्र दर्द की लहर मुझे भीतर तक हिला गई.

पहले मेरी मां बनने की कोई लालसा नहीं थी पर अब मैं दोबारा मां न बन पाने की लिए बिसूर रही थी. सब से ज्यादा साल रहा था एक खालीपन, मेरे स्त्री होने की पहचान मुझ से छूट रही थी वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में, मैं जब शाम को भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकली तो सासूमां अंदर आईं. उन्हें देख कर मैं सकपका गई. बहुत प्यार से उन्होंने सिर पर हाथ फेर कर पूछा तो मैं अपने को रोक नहीं पाई. रोते हुए उन्हें सब बता दिया. वे बिना कुछ बोले कमरे से बाहर निकल गईं. मुझे उन से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद थी. अब मैं उन्हें उन का दूसरा पोता या पोती नहीं दे पाऊंगी न, फिर वे क्यों परवाह करेंगी मेरी…ये सब सोचतेसोचते मुझे रोतेरोते सुबकियां आने लगीं.

अब मुझे सब समझ आ रहा था कि क्यों मुझे इतना पसीना आता था. क्यों हर समय मैं चिड़चिड़ी रहती थी. क्यों मुझे कपिल का संग अब थोड़ा तकलीफदेह लगने लगा था. मैं इन सारी चीजों को अपने रोजमर्रा के तनाव से जोड़ रही थी पर असली कारण तो पैरिमेनोपौज था.

अगले दिन मैं ने स्कूल में अपनी सब से अच्छी दोस्त से जब यह बात साझा

करी तो उस की आंखों में अपने लिए चिंता और दया के मिलेजुले भाव दिखे पर फिर वह हंसते हुए बोली, ‘‘चल अच्छा है तेरा हर महीने सैनिटरी पैड्स खरीदने का खर्चा बच जाएगा.’’

हर तरफ से बस सहानुभूति मिल रही थी, ‘‘बेचारी अभी उम्र ही क्या थी, अब पति को कैसे बांध कर रख पाएगी.’’

‘‘सुनो अदिति, जिम आरंभ कर लो… इस चरण में तेजी से वजन बढ़ता है.’’

‘‘देखो कहीं जोड़ों का दर्द अभी से आरंभ

न हो जाए, हारमोंस रिप्लेसमैंट थेरैपी करवा लो.’’

मेरा दिमाग चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा था. उधर रोज मेरे करीब आने की चाह रखने वाले मेरे प्यारे पति ने पिछले 15 दिनों से मेरे करीब आने की कोशिश नहीं करी. वजह मुझे पता है. उन्हें भी लगता है अब मैं उन्हें सुख नहीं दे पाऊंगी.

न जाने क्यों खिंचेखिंचे से रहते हैं. अगर कुछ बांटना चाहती हूं तो फौरन बोल देंगे, ‘‘अब रोनेबिसूरने से क्या होगा? जो है जैसा है उसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो.’’

कैसे समझाऊं उन्हें अपने दिल की बात, मुझे ऐसा लगता है जैसे हरियाली आने से पहले ही मैं बंजर हो गई हूं. यह स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा था कि मेरा यौवनाकाल कुछ ज्यादा ही तेज गति से चला है और जो गंतव्य 47-48 वर्ष के बाद आता है वह 17-18 वर्ष पहले ही मेरे जीवन में आ गया है.

मुझे लग रहा था शारीरिक से ज्यादा मैं मानसिक रूप से कमजोर हो गई हूं. उधर कपिल ने अपनेआप को एक दायरे में कैद कर लिया था. न जाने सारा दिन लैपटौप पर क्या करते रहते हैं. उधर सासूमां ने कहा तो कुछ नहीं पर ऐसा लगता है जैसे मुझ से खुश नहीं हैं या यह मेरा वहम है.

1 माह होने को आ गया और मैं ने अपने मन को समझा लिया था कि अब ये ही मेरी जिंदगी है. आईने को रोज घूरघूर कर देखती थी कि कहीं झुर्रियों ने अपना जाल तो नहीं बना लिया. तेज चलने से डरने लगी कि कहीं गिर कर हड्डी न टूट जाए. आखिर हड्डियां रजोनिवृत्ति के बाद तेजी से कमजोर होती हैं.

आज पूरे 1 महीने बाद ठीक से तैयार हो कर स्कूल के लिए निकली तो पुरुषों की निगाहों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे. खुद को अच्छा भी लगा कि अभी भी मैं सराहनीय हूं. आज कुछ मन ठीक था तो दीया को ले कर पार्क जाने लगी. सासूमां भी मुसकरा कर बोलीं, ‘‘ऐसे ही खुश रहा करो, पूरा घर चुप हो जाता है तुम्हारे चुप रहने से और बेटे उतारचढ़ाव का नाम ही तो जिंदगी है, मन को स्थिर रख कर समस्या का समाधान खोजो.’’

मैं ने बुझे मन से कहा, ‘‘पर मम्मी अगर कोई समाधान ही न हो…’’

वे मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘यानी कोई समस्या ही नहीं है.’’

रात के 10 बज गए थे पर कपिल का कुछ अतापता नहीं था. आज जब वे आए तो मैं ने आते ही आड़े हाथों लिया, ‘‘तुम्हें याद है कि तुम्हारा एक परिवार भी है?’’

कपिल व्यंग्य कसते हुए बोले, ‘‘हां, अच्छी तरह याद है एक परिवार है और एक रोतीबिसूरती कमजोर बीवी.’’

मैं खड़ीखड़ी कपिल को देखती रह गई… कहां गया यह प्यार और दुलार का… क्या औरत और मर्द का रिश्ता बस दैहिक स्तर तक ही सीमित है? खुद के ही शरीर से पसीने की गंध आ रही थी तो नहाने चली गई. आईने में फिर से खुद को पागलों की तरह देखने लगी. अभी तो शरीर में कसावट है पर शायद 2-3 वर्ष में शरीर ढीला पड़ जाएगा, जब ऐस्ट्रोजन हारमोंस बनना बंद हो जाएगा.

बाहर आई तो कपिल गहरी नींद में सोए थे, बहुत मन हुआ कहूं कि मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है, मुझे अकेला मत छोड़ो.

आज फिर कपिल देर से आए पर मैं ने बिना कुछ कहे खाना लगा दिया. खाना खाते हुए कपिल बोले, ‘‘मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है. कल का डिनर हम बाहर करेंगे.’’

मेरा दिल धकधक कर रहा था कि कहीं कपिल किसी और से तो नहीं जुड़ गए हैं. यदि हां तो मैं उन्हें रिहाई दे दूंगी, कोई हक नहीं है मुझे उन से कोई सुख छीनने का. पूरी रात इसी उधेड़बुन में बीत गई और सुबह मैं ने काफी हद तक अपनेआप को तैयार कर लिया था.

अगले दिन कपिल टाइम से घर आ गए थे और फिर हमारी कार एक बिल्डिंग के बाहर खड़ी थी. हम लोग लिफ्ट में ऊपर गए तो देखा वह काउंसलर का औफिस था. मैं कपिल को देखने लगी, कपिल मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गए. एक बेहद ही खूबसूरत और जहीन महिला थी. कपिल ने मेरा परिचय दिया और मुझ से बोले, ‘‘अदिति, तुम बात करो, मैं थोड़ी देर में आता हूं.’’

काउंसलर से मैं ने अपने मन की सारी बात कर दी. वह बिना कुछ बोले बहुत धैर्य से मेरी बात सुनती रही और फिर बोली, ‘‘अदिति, तुम स्त्री होने से भी पहले एक इंसान हो… तुम्हारी पहचान बस तुम्हारे स्त्रीत्व तक सीमित नहीं है.

‘‘यह जरूर है कि तुम्हें इस दौर का सामना थोड़ा जल्दी करना पड़ रहा है. पर खानपान में थोड़ा बदलाव, थोड़ा व्यायाम करने से तुम्हारी जिंदगी सही पटरी पर आ जाएगी… यह जिंदगी का एक नया अध्याय है. इसे समझो, स्वीकार करो और मुसकराते हुए आगे बढ़ो.’’

थोड़ी देर बाद कपिल आ गए और फिर

हम दोनों आज काफी दिनों बाद एकसाथ डिनर कर रहे थे. कपिल वर्षों बाद मुझे प्यार से देख रहे थे.

मैं ने भीगे स्वर में कहा, ‘‘कहो क्या कहना था?’’

कपिल बोले, ‘‘ध्यान से सुनना… बीच में मत टोकना. तुम मेरी जिंदगी का सब से महत्त्वपूर्ण पन्ना हो. तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं? इसलिए समाज ने हमें विवाह के बंधन में बांध दिया है पर तुम मेरे लिए एक स्त्री नहीं हो मेरा सबल भी हो. अगर मैं किसी समस्या से गुजर रहा हूंगा तो क्या तुम मुझे अकेला कर दोगी या मेरे साथ खड़ी रहोगी?

‘‘मैं तुम्हारे साथ खड़े रहना चाहता हूं पर तुम ने मुझे अपने से बहुत दूर कर दिया है, अपने इर्दगिर्द इतनी नकारात्मक ऊर्जा इकट्ठी कर ली है कि मैं तो क्या कोई और भी चाह कर तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता है.’’

मैं आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘‘पर तुम तो खुद मुझ से कटेकटे रहते हो?’’

कपिल हंसते हुए बोले, ‘‘पगली, तुम्हारे रोने की आदत के कारण से कटाकटा रहता हूं, तुम्हारे कारण नहीं? यह जिंदगी में एक मोड़ आया है, थोड़ा सा ज्यादा घुमावदार है तो क्या हुआ हम एकसाथ पार करेंगे… तुम एक शरीर नहीं हो, उस से भी ज्यादा तुम्हारी पहचान है.

‘‘स्पीडब्रेकर पर रुकना पड़ता है न पर संभल कर चलने से पार कर लेते हैं न?’’

कपिल की बातों से यह तो मुझे समझ आ गया था कि क्यों हुआ, कैसे हुआ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उस समस्या का समाधान कैसे कर सकते हैं.

आज इस बात को 3 वर्ष हो गए हैं.

अभी भी मैं रजोनिवृत्ति के दौर से गुजर रही हूं पर डाक्टर की सलाह और उचित खानपान से काफी हद तक समस्या सुलझ गई है.

अब मेरा वजन पहले से कम हो गया है और मेरी त्वचा भी दमकने लगी हैं, क्योंकि अपनेआप को मेनोपौज के लिए तैयार करने के लिए मैं ने पूरा खानपान ही बदल दिया है. जो है, जैसा है मैं स्वीकार करती हूं, यह सोच अपनाते ही सबकुछ बदल गया और बदल गई मेरी पहचान.

मेरी पहचान न आंकी जाए मेरे स्त्रीत्व से, यह है बस मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा, जिंदगी का बचा हुआ है अभी भी, एक और नया सकारात्मक किस्सा.

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