कोविड डस सकता है पर डरा नहीं सकता

यह इस देश के आम लोगों की हिम्मत ही कही जाएगी कि हर तरह के कोविड के खतरे के बावजूद जैसे ही लौकडाउन खुलता है लोग सड़कों, बाजारों, चौराहों पर जमा होने लगते हैं मानो कुछ नहीं हो रहा है या हो सकता है. कोविड 19 के खूनी पंजों से जो बच गया वह अपने को बिलकुल पहलवान समझ लेता है और बिना मास्क लगाए सटसट कर चलने का हक इस्तेमाल करने लगता है. हर शहर, राज्य में पुलिस के लिए कोविड के सिस्टम को लागू करे रखना मुश्किल हो रहा है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने न तो चारधाम यात्रा होने दी, न कांवड़ यात्रा.

यह पक्का था कि अगर ये होतीं तो प्रसाद में सारे देश में कोविड खुलेआम बंटता और लाखों फिर मरते. यह जानते हुए भी कि एकदूसरे को छूने और एकदूसरे की सांस के पास आने से कोरोना वायरस एक से दूसरे पर जा सकता है, लोग अपनी हिम्मत का खुला दरसन कराते हैं और कहते हैं कि कोविड उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

वैसे भी इस देश की 80 फीसदी जनता हर कोविड जैसे खतरों में काम करती है. खेतों में सांपबिच्छू का डर रहता है. किसानों को हर समय बाढ़ व सूखे का डर रहता है. खेती के औजार खराब होने से मौतों का डर रहता है. पहाड़ों पर चढ़ते हुए फिसलने का डर रहता है. कुएं को खोदते हुए मिट्टी बहने का डर रहता है. मकान बनाते हुए दीवार गिरने या छत गिरने का डर रहता है.

गरीबों की रसोई भी बीमारियों से घिरी रहती है. खुले में खाना बनता है, खुले में रहता है. धूलमिट्टी तो होती है, पानी भी जो वे इस्तेमाल करते हैं, जहरीला हो सकता है. कपड़ों में बदबू रहती है. पैरों में चप्पल नाम की होती है. दस्ताने पहन कर काम करने का रिवाज हमारे यहां है ही नहीं. जहां पलपल मौत का सामना करने की आदत हो वहां आप चाहे जितने कागजी हंटर चला लें, कोई सुनेगा नहीं. तभी तो 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन अनाउंस होते ही लाखों मजदूर पैदल ही 1000-2000 किलोमीटर चलने लगे कि अपने गांव पहुंच जाएं. वे जानते थे कि कौन रास्ते में मर जाएगा क्या पता.

ये भी पढ़ें- हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा!

ऐसे लोगों को हाथ धोना, मास्क पहनना, दूरी बनाए रखना, भीड़ जमा न करना सिखाया ही नहीं जा सकता. जो जान को हर समय हथेली पर रख कर चलते हैं उन्हें कोविड डस सकता है पर डरा नहीं सकता.

गहरी पैठ

अगर देश में महामारी, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी के बावजूद लोग चुप हैं तो इसलिए कि सरकार का खुफिया तंत्र हर ऐसे जने पर नजर रख रहा है जो सच को सामने ला सकता है. इजरायल की एक कंपनी एनएसओ ने एक सौफ्टवेयर बनाया है जो सिर्फ एक ब्लैंक काल कर के किसी के टैलीफोन में डाला जा सकता है और फिर उस का कैमरा भी चालू हो जाएगा और मैसेज भी सौफ्टवेयर के जरीए उस इजरायली कंपनी के हाथों में होंगे.

भारत सरकार चाहे इनकार कर रही है पर विदेशी खोजी पत्रकारों ने पता लगाया है कि अजरबैजान, बहरीन, मैक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब, हंगरी, बंगलादेश, भारत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों ने इस सौफ्टवेयर को खरीदा है और भारत में 400 लोगों का फोन अब टैप हो रहा है. इस का आभास इन सब लोगों को है पर कोई सुबूत अब तक नहीं था और इसी एहसास की वजह से ये सरकार की पोलपट्टी खोल नहीं रहे थे कि अपने जैसे लोगों को कैसे ढूंढ़ें और कैसे जनता के दर्द की बात को जगजाहिर करें.

ये भी पढ़ें- हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा!

सरकार इस सौफ्टवेयर से राहुल गांधी, उन के साथियों, बहुत से पत्रकारों, अपने ही मंत्रियों की हरकतों पर नजर रख रही है और वे कुछ तैयारी करें उस से पहले गिरफ्तारी न करें तो भी कुछ न कुछ दबाव डाल देगी. जनता के दर्द की आवाज बंद हो कर रह जाती. टीवी और समाचारपत्रों में काम करने वालों को एहसास रहता है और वे इसलिए कोविड से पहले और उस के दौरान जनता के दर्द को छिपा गए.

यह जरूर है कि बहुत से लोग चुप इसलिए हैं कि वे जातिगत भेदभाव बनाए रखने वाली सैकड़ों सालों में बनी सरकार को टिकाए रखना चाहते हैं जो धर्म के धंधे को भी बढ़ावा देती है और जन्म से जिन्हें ऊंचा माना गया है, उन्हें ऊंचा रखने के नियमकानून बनाए जा रही है. वे पेगासस जैसे सौफ्टवेयर को तो पौराणिक दिव्य ज्ञान का सा मानते हैं और उस की तारीफ करते हैं.

लोकतंत्र में सरकार के खिलाफ मिलबैठ कर योजना बनाने का हक हरेक को है. इस तरह की भारत सरकार से किसी तरह की स्वीकारोक्ति की आशा तो नहीं है कि वह अपने ही नागरिकों को शक की निगाह से देखती है और उन पर विदेशी दुश्मनों की तरह की सी नजर रखती है पर यह काम विपक्ष का है कि वह इस बात को चुनावी मुद्दा बनाए. सरकार के पास हिंदूमुसलिम कार्ड का तुरुप का पत्ता है जो वह हर मौके पर इस्तेमाल करती है. पर यह कला विपक्ष को सीखनी होगी कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सरकार से रक्षा करने की जिम्मेदारी उसी की है.

ये भी पढ़ें- देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा!

देश का पैसा देश के नागरिकों की गुप्तचरी पर नहीं लगाया जा सकता. भारत सरकार, चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवादियों का अपनी गुप्तचरी से पिछले 50-60 साल में बिगाड़ नहीं पाई. असली देशद्रोह तो यह निकम्मापन है. जिन के हाथ में देश की कमान है वे अगर अपने नागरिकों को दुश्मन समझने लगें और असली दुश्मनों से लेनदेन करने लगें तो इसे देशभक्ति नहीं कहा जा सकता.

यह न भूलें कि पेगासस का सौफ्टवेयर यदि इतना कामयाब है कि वह किसी के भी मोबाइल में घुस सकता है तो और दुनिया के कितने ही प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों पर नजर रख रहा है तो भारत के नेता बचे होंगे, यह गलतफहमी न पालें. ऐसी कंपनी को पैसा देने वाला अपने खिलाफ भी गुप्तचरी को बढ़ावा दे रहा है, यह पक्का है.

हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा!

हमारे देश के शहरों के बाजारों में अगर बेहद भीड़ दिखती है तो वह ज्यादा ग्राहकों की वजह से तो है ही, असली वजह ज्यादा दुकानदार हैं. लगभग हर शहर और यहां तक कि बड़े गांवों में भी दुकानें तो अपना सामान दुकान के बाहर रखती हैं, उस के बाद पटरी दुकानदार अपनी रेहड़ी या कपड़ा या तख्त लगा कर सामान बेचने लगते हैं. बाजार में भीड़ ग्राहकों के साथ इन दुकानदारों और उन की पब्लिक की घेरी जगह होती है.

कोविड को फैलाने में जहां कुंभ जैसे धार्मिक और पश्चिम बंगाल व बिहार जैसे चुनाव जिम्मेदार हैं, ये बाजार भी जिम्मेदार हैं. इन बाजारों में यदि पटरी दुकानदार न हों और हर दुकानदार अपना सामान दुकान में अंदर रखे तो किसी भी बाजार में भीड़ नजर आएगी ही नहीं.

पटरी दुकानदारों को असल में लगता है कि पब्लिक की जमीन तो गरीब की जोरू है जो सब की साझी है. उन्हें और कुछ नहीं आता, कोई हुनर नहीं है, खेती की जगह बची नहीं हैं, कारखाने लग नहीं रहे, आटोमेशन बढ़ रहा है तो एक ही चीज को एक ही बाजार में बेचने वाले 10 पैदा हो जाते हैं जो पटरी पर दुकान जमा कर बैठ जाते हैं और ग्राहकों के लिए फुट भर की जगह नहीं छोड़ते.

ये भी पढ़ें- देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा!

यह सीधासादा हिसाब भारत में लोगों को समझ नहीं आता क्योंकि यहां लोगों में हुनर की कमी है और भेड़चाल ज्यादा है. एक ने देखा कि किसी के जामुन बिक रहे हैं तो 4 दिन में 20-25 दुकानदार उसी जामुन को बेचने लगेंगे. उन्हें कुछ और आता ही नहीं. 20-25 बेचने वालों का पेट ग्राहक पालते हैं, 20-25 दुकानदारों ने जो रिश्वत पुलिस या कमेटी वालों को दी, वह ग्राहक देता है और जो माल 20-25 जगह सड़ा या बिखरा वह ग्राहक से वसूला जाता है.

हमारे दुकानदार न केवल बेवकूफ हैं अब कोरोना के शाही घुड़सवार बन रहे हैं. उन की वजह से चौड़े बाजारों में ग्राहकों के लिए संकरी सी जगह चलने के लिए बच रही है. दिल्ली में कई मार्केटें बंद कर दी गईं क्योंकि लौकडाउन हटते ही पटरी दुकानदार आ गए और ग्राहकों को सटसट कर चलने को मजबूर करने लगे.

अब बेचारगी के नाम पर ढील नहीं दी जा सकती. गरीब दुकानदारों को कोई और हुनर ही सीखना होगा. भाजपा ने धर्म की दुकानें खोल रखी हैं, वहीं जाओ पर कोरोना तो वहां से भी फैलेगा.

ये भी पढ़ें- खराब सिस्टम और बहकता युवा

इन पटरी दुकानदारों को चाहे कितना बेचारा और गरीब कह लो पर अब इन की मौजूदगी पूरी जनता के लिए खतरनाक है. ग्राहकों को अब पूरा स्पेस चाहिए ताकि डिस्टैंस बना रहे. ग्राहक और दुकानदार दोनों के लिए यह जरूरी है. इस तरह के बाजार हमेशा से दुनियाभर में बनते हैं और चलते हैं पर अब समय आ गया है जब दुकानें पक्की ही हों, बड़ी हों और उन में ग्राहकों को चलने की अच्छी जगह मिले.

पब्लिक की सड़कों और बाजारों को अब बेचारे गरीब दुकानदारों के नाम पर कुरबान नहीं किया जा सकता, यह खतरनाक है. वैसे भी पटरी दुकानदार सस्ते पड़ते हैं, यह गलतफहमी है. वे बेकार में अपना समय खर्च करते हैं और इस समय की कीमत उस ग्राहक से वसूलते हैं जो उस सामान को खरीदना चाहता है. यदि एक चीज को खरीदने के लिए दिन में 100 ग्राहक बाजार आते हैं और 1-2 दुकानदारों से खरीदते हैं तो उन्हें काफी मुनाफा होगा और वे दाम कम रख सकेंगे. जब वही चीज 30-40 दुकानदार बेचेंगे तो दाम घटेंगे नहीं बढ़ेंगे क्योंकि हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा.

ये भी पढ़ें- खुले रैस्तराओं का समय

देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा!

नरेंद्र मोदी का नया बड़ा मंत्रिमंडल कोई नया भरोसा दिलाने वाला नहीं है. असल में भारतीय जनता पार्टी के पास काम करने वालों में सिर्फ भक्त बचे हैं. जो योग्य हैं, कुछ नया करना जानते हैं, कुछ देश या समाज के लिए करना चाहते हैं, वे आज दुबकेसिमटे पड़े हैं क्योंकि भीड़ तो उन की है जो जयजय की ललकार कर सकते हैं, यात्राओं में जा सकते हैं, मूर्तियों के आगे पसर सकते हैं, कीमती समय धागों को बांधने में या दीए जलाने में लगा सकते हैं.

आज योग्य वही है जो एक ही बात को दिन में हजार बार दोहरा सके, सिर्फ और सिर्फ एक किताब पढ़े, प्रवचन सुने और सवाल खड़े न करे. नरेंद्र मोदी ने जितनों को नया मंत्री बनाया है या जिन को तरक्की दी है उन की खासीयत यही है कि वे सब लकीर के फकीर हैं.

ये भी पढ़ें- खराब सिस्टम और बहकता युवा

आज देश के सामने सेहत का सवाल सब से बड़ा है पर नए स्वास्थ्य मंत्री अभी भी आयुर्वेद की बात करते हैं जिस में जड़ीबूटियों को बिना छाने, छांटे, कितनी खानी है आदि की सलाह दी गई है. अब जैसे वीर्य बढ़ाने के लिए बताया गया है शरशूल, गन्ने की जड़, कांटेड की जड़, सतावरी, क्षीर विदारी, कटेरी, जीवंती, जीवक आदि को छान लें और शहद आदि मिला कर खाएं. अब वीर्य की कमी है, यह कैसे पता चलेगा? यह तो आज स्पर्म काउंट से एलोपैथी से पता चलता है. फिर आयुर्वेद का गुणगान किस काम का जो नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया करते फिरते हैं?

नरेंद्र मोदी सरकार के सारे मंत्रियों के पास हिंदूमुसलिम तनाव, पाकिस्तान, राम मंदिर, टीका, तिलक, कलेवा और अब लंबी दाढ़ी देश को ढंग से चलाने का उपाय?है. इन नए और पहले के बचे पुराने मंत्रियों से कुछ नया होगा यह भूल जाइए.

ये भी पढ़ें- खुले रैस्तराओं का समय

हां, इतना जरूर है कि देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा. लोग अपनी जगह काम करेंगे, किसान खेती करेंगे, बसें चलेंगी, दुकानें खुलेंगी, कारखानों में काम होगा ही. सरकार खराब हो या अच्छी फर्क नहीं पड़ता. पेट शायद सब का भर जाए और भुखमरी की नौबत आएगी ऐसा लगता नहीं है. देश की जनता इस मंत्रिमंडल से ज्यादा मेहनती और अपनी फिक्र करने वाली है.

नरेंद्र मोदी के ‘दीदी ओ दीदी’ और ‘2 मई दीदी गई’ जैसे लटके बेकार गए, ताली, थाली और दीया काम के नहीं रहे, किसान कानून किसानों के आंदोलन के कारण पस्त हो रहे हैं, बालाकोट के बावजूद पाकिस्तान वहीं का वहीं और न राफेल से डरा सकता है और न राजपथ पर योगासनों से– या नए बन रहे सरकारी आलीशान भवनों से. उलटे पाकिस्तान का अब फिर चीन के साथ अफगानिस्तान में दखल बढ़ गया है और इसी अफगानिस्तान में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भारत का विमान अपहरण कर के ले जाया गया था. भारत अमेरिका के साथ?है पर अमेरिकी जनता, जिस ने जो बाइडेन को चुना है, भारत सरकार को नहीं चाहती और भारतीय मूल की कमला हैरिस भूल कर भी भारत की बात नहीं करतीं. विदेश मंत्री जिन्हें हटना चाहिए था, वहीं हैं, रक्षा मंत्री वहीं हैं. छोटे मंत्री हटा दिए गए जो महामहिम की चमचमाती मूर्ति पर सही पौलिश नहीं लगवा पा रहे थे.

ये भी पढ़ें- देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

यह मंत्रिमंडल का हेरफेर भाजपा की मजबूरी हो सकती है पर जनता के लिए किसी तरह से राहत की सांस नहीं है.

खराब सिस्टम और बहकता युवा

गुलामी के दिनों में भी लोग काम करते ही हैं. यह प्रकृति की जरूरत है कि हर जीव किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश करे चाहे उसे आजादी के साथ रहना नसीब हो, मनचाहे लोगों के बीच में रहने को मिले, जुल्म करने वालों की गुलामी सहते हुए रहना पड़े या जंगलों में लगभग अकेले हरदम खतरों के बीच रहना पड़े. यही वजह है कि लाखों नहीं, करोड़ों लड़कियां घरवालों की जबरदस्ती के कारण ऐसों से शादी कर लेती हैं जिन्हें शादी के पहले नापसंद करती थीं, फिर वर्षों उन के साथ निभाती हैं और बच्चे तक पैदा करती हैं.
आज की सरकार हूणों, शकों, तुर्कों, मुगलों, अंगरेजों से बेहतर हो या न हो, लोग काम तो करते ही रहेंगे. चाहे जितनी महंगाई हो, जितने पैट्रोल के दाम बढ़ें, जितनी नौकरियां छूटें या न मिलें, वे कुछ न कुछ जुगाड़ कर पेट भरते और तन ढकने के लायक पैसा जुटा ही लेते हैं. जब देश के 130 करोड़ लोग ऐसा करेंगे तो सरकार के हिसाब से देश में प्रोडक्शन भी होगा और बिजनैस भी चलेगा.

ये भी पढ़ें- बड़ी कंपनियां और टैक्स हैवन

यह मनचाहा है, इसे जानने का आज कोई तरीका नहीं है पर जब एक सरकारी नौकरी के लिए लाखों एप्लीकेशंस आ रही हों तो साफ है कि देश के युवा जिस तरह की सैलरी वाली नौकरी चाह रहे हैं, वह नहीं लग रही या नहीं मिल रही.
सरकार भले कहती रहे कि उस का जीएसटी का कलैक्शन बढ़ गया और इस का मतलब है कि देश में व्यापार व उत्पादन बढ़ा है.  असल में स्थिति इस के उलट है. 18वीं व 20वीं सदी में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था. एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के दौरान और दूसरी बार सीधे ब्रिटेन के शासन के अधीन. दोनों बार अंगरेज देश से बहुत ज्यादा पैसा ले गए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ज्यादा बोनस अपने शेयरहोल्डरों को दिया जबकि दूसरी बार ब्रिटेन ने हिटलर से लड़ाई में ज्यादा सेना झोंकी और भारत के लोग भूखे मरते रहे.
देश में आज पैसे की किल्लत कैसी है, यह गंगा में बहाए शवों से पता चला है. जब सरकार ज्यादा कर वसूलने के ढोल बजा रही थी तो खांसी और सांस की बीमारी से गांवों में लोग मर रहे थे. वे कोविड से नहीं मर रहे थे क्योंकि गांव में न कोविड टैस्ंिटग सैंटर हैं न औक्सीजन देने वाले अस्पताल.
बड़े अफसोस की बात है कि जैसे तुलसीदास मुगलों के शासन के दौरान रामभजन की वकालत करते रहे, तकरीबन वैसे ही हमारे युवा इन दिनों टिकटौक जैसे शौर्ट वीडियो बना कर फालतू में जंगली पौधों की तरह उग रहे एप्स पर डाल रहे थे. लोगों की सेवा करने के बजाय उन्हें फिक्र अपने लाइक्स और फौलोअर्स की रही. यह एक समाज के सड़ जाने की निशानी है जो सामूहिक परेशानी में भी केवल सैकड़ों रुपए के सुख के लिए कीमती समय, पैसा और तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है.

ये भी पढ़ें- देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

इस की दोषी सरकार नहीं, मातापिता हैं जो खुद हिंदूमुसलिम या पूजापाठ में मस्त हो गए हैं और उन की समझ नहीं रह गई कि कल को क्या अच्छा होगा, क्या गलत. युवाओं ने साबित कर दिया है कि देश का कल काला हो सकता है. भारत पहले ही चीन से रेस में पिछड़ चुका है, भूटान और बंगलादेश से भी पीछे है, वियतनाम, इंडोनेशिया, कंबोडिया से गरीब है. बस, अफ्रीका के कुछ देश भारत से पीछे हैं जहां गृहयुद्ध चल रहे हैं. वैसे, यहां भारत में भी गलीगली में गृहयुद्ध की ट्रेनिंग दी जा रही है. शक हो तो कहीं भी खड़े हो कर 4-5 युवाओं को सुन लो वे मरनेमारने की बात करेंगे, चीन की नहीं, अपने किसी पड़ोसी की.

बड़ी कंपनियां और टैक्स हैवन

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पद पाने के 100 दिनों में दुनियाभर की अमीर कंपनियों की नकेल कसने में सफलता पाने का पहला कदम उठा लिया. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जरमनी, कनाडा, इटली, जापान और यूरोपीय यूनियन ने तय किया है कि बड़ी कंपनियां अपना पैसा टैक्स हैवनों में ले जा कर छिपा नहीं पाएंगी. टैक्स हैवन माने जाने वाले वे देश हैं जो बहुत कम टैक्स चार्ज करते हैं. बहुत से देशों में काम करने वाली कंपनियां अपने हैडऔफिस इन देशों में खोल रही हैं ताकि दुनियाभर में कमाए पैसों पर वे नाममात्र का टैक्स दे कर सुरक्षित रख सकें.

अब फैसला हुआ है कि अगर किसी कंपनी का कारोबार तो एक देश में है पर टैक्स कम टैक्स चार्ज करने वाले देश में दिया जा रहा है तो वह देश अतिरिक्त कर लगाएगा. अब यह देखना है कि जहां मुनाफा कमाया जा रहा है वह इस बात का ऐसेस कैसे करता है. इस का मतलब है कि बड़ी कंपनियों को अपने लेखाजोखों में बड़ा परिवर्तन करना पड़ेगा.

ये भी पढ़ें- खुले रैस्तराओं का समय

दूसरे शब्दों में इस का मतलब यह है कि विश्वभर में फैली और विश्वभर में कमा रही कंपनियां खतरे में हैं. इन में टैक और फार्मा कंपनियां ज्यादा हैं और इन्हीं में युवाओं को मोटी सैलरी मिलती है. दुनियाभर का टैलेंट असल में इन कंपनियों में जमा हो रहा है और ये टैलेंट जहां नएनए टैक उत्पाद बना रहे हैंवहीं सरकारों की नाक के नीचे अमीरगरीब की खाई को चौड़ा कर रहे हैं. ये युवा ही ऐसे प्रोग्राम बनाते हैं जिन के बलबूते पर कंपनियां अपने राज को राज रख पाती हैं. इन युवाओं के कारण कंपनियों के राज तो गुप्त हैं पर किसी सरकार का कोई राज छिपा नहीं है.

ये भी पढ़ें- देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

ऐसी बहुत फिल्में बन चुकी हैं जिन में ये तेजतर्रार युवा ऐसे देश में बैठ कर काम कर रहे हैं जहां बड़े देशों के फौलादी हाथ नहीं पहुंच रहे पर टैक्नोलौजी के बल पर वे सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर रहे हैं. हर देश की सरकार इन युवाओं को अपने यहां बनाए रखना चाहती है पर बिना टैक्स दिए चल रही कंपनियां कई गुना अच्छा पैसा दे रही हैं. ये कंपनियां ऐसी माफिया हैं जो बिना बंदूकों के सरकारों का तख्ता पलट सकती हैं.

टैक्स हैवनों को भेदने का कदम अमीरगरीब के भेद की लड़ाई नहीं हैअभी तो यह बड़ी सरकारों की अपनी डिफैंस की लड़ाई है जो वे पैसे के बहाने से लड़ रही हैं.

खुले रैस्तराओं का समय

कोरोना के दिनों में वैसे तो रैस्तरां बंद ही रहे पर कईर् देशों में उन्हें खुले में चलाने की इजाजत दी गई और यह प्रयोग सफल रहा क्योंकि खुले में मेजें दूरदूर लगीं और वायरस के हवा से एकदूसरे तक पहुंचने के अवसर काफी कम हो गए. दुनियाभर के बहुत से देश अब गरमी हो या सर्दीईटिंग आउट को ही फैशन बना देना चाह रहे हैं ताकि लोगों को एयरकंडीशंड इलाकों के दमघोटू माहौल से बचाया जा सके.

शहरों में जगह की किल्लत है पर इतनी भी नहीं कि बाहर पटरियों पर हलका सा शेड और हवा का इंतजाम कर बैठने की जगह न बनाई जा सके. घरों में एयरकंडीशनर होने के बावजूद लोग आज भी बाग या नदी के किनारे बैठ कर सुस्ताना चाहते हैं. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने असल में लोगों को बिगाड़ दिया है. बंद जगह में शोर मचाने की छूट भी मिलने लगी और बहुत सी अनचाही हरकतें भी होने लगीं.

ये भी पढ़ें- क्या चिराग पासवान का राजनीतिक करियर समाप्त हो गया है?

अब जैसेजैसे भारत में लौकडाउन डरतेडरते अनलौक किया जा रहा हैखुले में रैस्तरां का प्रयोग ज्यादा किया जाना चाहिए ताकि युवाओं को ठंडक और गरमी सहने की आदत पड़नी शुरू हो जाए. आजकल कम अमीर देशों में मांबापों की चिंता बिजली के बिलों की ही होती है क्योंकि युवा हीटर और एयरकंडीशनर दोनों साथ चलाने लगें तो भी आश्चर्य की बात न होगी. घर में सुरक्षित टैंपरेचर में रहने की आदत उन्हें निकम्मा बना रही है. वैसेयही युवा ग्लोबल वार्मिंग पर बड़ेबड़े भाषण देते हैं और एनर्जी को बचाने का उपदेश देते हैं.

खुले रैस्तराओं में वर्गभेद व जातिभेद भी कम हो जाता है. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने हाल के सालों में इंटीरियर डैकोरेशन पर बेहद औब्सीन पैसा खर्च करना शुरू किया है. और यदि सब को बैठना बाहर तंबू के नीचे ही है  तो बहुत सा पैसा बचेगा. बाहर का वातावरण युवाओं को असलियत के ज्यादा  पास रखेगा. जो काम असल में छिप कर होने चाहिए वे फिर इन रैस्तराओं में तो नहीं हो पाएंगे. अगर शहर खाने को बाहर ही कंपलसरी कर दें तो बहुत भला होगा. खर्च भी कम होगा और भेदभाव भी कम.

ये भी पढ़ें- देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

क्या चिराग पासवान का राजनीतिक करियर समाप्त हो गया है?

महाभारत में क्या हुआ था. कौरवों और पांडवों को पहले आपस में लड़वा दिया और फिर सब को मरवा दिया, कुरु वंश को ही समाप्त करा दिया. यह बात दूसरी है कि आज जब तर्क और तथ्य सब को उपलब्ध हैं, अधिकतर हिंदू महाभारत को विशेष धर्मयुद्ध सम झते हैं जिस में कृष्ण ने हिचकिचाते अर्जुन को गीता का पाठ पढ़ा कर परस्पर विरोधी बातें कहते हुए उसे रणक्षेत्र में लड़ने को अंतत: राजी कर ही लिया.

2019 के संसदीय चुनावों में ऐसा सा महाभारत भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ही सहयोगी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के साथ रचा जब लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान को नीतीश कुमार के उम्मीदवारों के सामने खड़ा करवा कर नीतीश कुमार को कमजोर कर दिया और नीतीश कुमार अब भारतीय जनता पार्टी के मोहताज हैं.

ये भी पढ़ें- देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

22 जून को चिराग पासवान ने यह माना कि 2019 में उन्होंने जो भी किया वह भाजपा की रजामंदी से किया था. चिराग पासवान को यह रहस्य खोलना पड़ा क्योंकि जैसे पांडवों को हिमालय पर जा कर आत्महत्या करनी पड़ी थी, वैसे ही चिराग पासवान को करनी पड़ रही है क्योंकि उन के सांसद और विधायक छोड़ कर जा रहे हैं पर विपक्ष में नहीं, भारतीय जनता पार्टी या जनता दल (यू) में. चिराग को अनाथ कर के बड़ी चालबाजी से भारतीय जनता पार्टी ने दलित आंदोलन को बिहार में भी कुचल दिया और काफी बड़ी संख्या में होते हुए, वंचित होते हुए भी दलितों को अब किसी ऊंची जाति की जीहुजूरी में फिर से लगना पड़ेगा.

बातें बनाने में तेज और लच्छेदार लुभावने वादों के बलबूतों पर भाजपाई जैसे लोग सदियों से इस देश में राज करते आए हैं. राजनीतिक शासन किसी के हाथ में हो सामाजिक शासन हमेशा इन्हीं के हाथों में रहा है और जन्म से ले कर मृत्यु तक दलितों की तो छोडि़ए, शूद्रों, वैश्यों और क्षत्रियों तक की लगाम इन्हीं लोगों के पास रही. आज थोड़ाबहुत पढ़लिख कर इन्हें गरूर होने लगा था कि हम भी कुछ हैं पर पहले रामविलास पासवान को दलबदलू नंबर एक बना डाला गया और अब उन के पुत्र चिराग पासवान को दलबदल की आग में स्वाहा कर दिया गया है.

ये भी पढ़ें- भारतीय जनता पार्टी की हार: नहीं चला धार्मिक खेल

चिराग पासवान अब चाहे जो भी कहते रहें, उन का राजनीतिक कैरियर समाप्त ही है. कोई करिश्मा ही उन का उद्धार कर सकता है.

देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

देशभर में मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पढ़ेलिखे बेरोजगारों की गिनती हर साल बढ़ती जा रही है. कोराना के चक्कर में लाखों छोटे व्यापार व कारखाने बंद हुए हैं और उन की जगह विशाल कारखानों ने ले ली या बाहरी देशों के सामान ने ले ली है. इन में काम कर रहे औसत समझ के पढ़ेलिखे युवा अब बेकार हो गए हैं. ये ऐसे हैं जो अब खेतों में जा कर काम भी नहीं कर सकते.

खेतों में भी अब काम कम रह गया है. इन युवा बेरोजगारों को लूटने के लिए सैकड़ों वैबसाइटें बन गई हैं और धड़ाधड़ ह्वाट्सएप मैसेज भेजे जाते हैं कि साइट पर आओ, औनलाइन फार्म भरो. बहुत बार तो औनलाइन फार्म भरतेभरते बैंक अकाउंट का नंबर व पिन भी ले लिया जाता है, जो बचेखुचे पैसे होते हैं, वे हड़प लिए जाते हैं.

कुछ मामलों में युवाओं को सिक्योरिटी के नाम पर थोड़ा सा पैसा किसी अकाउंट में भेजने को कहा जाता है. इन को चलाने वाले शातिर कुछ दिन अपना सिम बंद रखते हैं और फिर दूसरे फोन में लगा कर इस्तेमाल करने लगते हैं. पुलिस के पास शिकायत करने वालों की सुनने की फुरसत नहीं होती.

ये भी पढ़ें- जनता की जान बचाने के लिए डंडाधारी पुलिस होना जरूरी है?

आज 20 से 25 साल का हर चौथा युवा यदि पढ़ नहीं रहा तो बेरोजगार है. जो काम कर भी रहे हैं वे आधाअधूराकाम कर रहे हैं. उन की योग्यता का लाभ उठाया नहीं जा रहा. मांबाप पर बोझ बने ये युवा आज की पढ़ाई का कमाल है कि अपने को फिर भी शहंशाह से कम नहीं समझते और स्मार्ट फोन लिए टिकटौक जैसे वीडियो बना कर सफल समझ रहे हैं.

यह समस्या बहुत खतरनाक हो सकती है. आज से पहले युवाओं को कहीं न कहीं कुछ काम मिल जाता था. किसी को सेना में, किसी को ट्रक में क्लीनर का, किसी को खेत पर. पढ़ने के बाद इन सब नौकरियों को अछूत माना जाने लगा है. यह और परेशानी की बात है. घर वालों से लड़झगड़ कर झटके पैसों को खर्च कर के आज काम चल रहा है पर कल जब मांबाप खुद रिटायर होने लगेंगे तब क्या होगा पता नहीं. आज जब बच्चे होते हैं तो पिता की आयु वैसे ही 25-30 की होती है और जब तक बच्चा बड़ा होता है, पिता 50 के आसपास हो जाता है और वह जो भी काम कर रहा होता है उस में आधाअधूरा रह जाता है. वह अपना और बच्चों का बोझ नहीं संभाल सकता.

बहुत मामलों में तो दकियानूसी मांबाप बेरोजगार बेटेबेटी की शादी भी कर देते हैं. कहीं से भी पैसों का जुगाड़ कर मोटा पैसा शादी में खर्च कर दिया जाता है और यदि कोई काम नहीं मिले तो रातदिन रोना ही रोना रहता है. मोदी सरकार ने 2-4 साल इस फौज को भगवा दुपट्टे पहना कर वसूली का अच्छा काम दिया था पर वह भी अब फीका पड़ने लगा है.

ये भी पढ़ें- क्या गर्लफ्रेंड रखना आसान काम है?

मंदिरों के बंद होने से तो एक बड़े अधपढ़े युवाओं के हिस्से में बेकारी छा गई है. औनलाइन व्यापार ने थोड़ी सी नौकरियां दी हैं पर उस में इतना कंपीटिशन है कि हर रोज आमदनी कम हो रही है और जोखिम बढ़ रहा है. दिक्कत यह है कि देश में ऐसे कारखाने न के बराबर लग रहे हैं जिन में बेरोजगारों की खपत हो. जो भी काम हो रहा है वह विदेशी मशीनों से हो रहा है जहां बेरोजगारी की परेशानी कम है. भारत सरकार जल्दी ही कुंभ जैसे और प्रोग्राम करवाए जहां लोगों को नंगे रह कर जीना सिखाया जाए क्योंकि अब बड़ी गिनती में पढ़ेलिखे नौजवानों और लड़कियों के लिए जानवरों की तरह ही रहना सीखना होगा.

जनता की जान बचाने के लिए डंडाधारी पुलिस होना जरूरी है?

इस देश की पुलिस पूरी तरह से कोरोना से लड़ने को तैयार है जैसे वह हर आपदा में तैयार रहती है. हर आपदा में पुलिस का पहला काम होता है कि निहत्थे, बेगुनाहों, बेचारों और गरीबों को कैसे मारापीटा जाए. चाहे नोटबंदी हो, चाहे जीएसटी हो, चाहे नागरिक कानून हों, हमारी पुलिस ने हमेशा सरकार का पूरा साथ दे कर बेगुनाह गरीबों पर जीभर के डंडे बरसाए हैं. किसान आंदोलन में भी लोगों ने देखा और उस से पहले लौकडाउन के समय सैकड़ों मील पैदल चल रहे गरीब मजदूरों की पिटाई भी देखी.

किसी भी बात पर पुलिस सरकार की हठधर्मी के लिए उस के साथ खड़ी होती है और जरूरत से ज्यादा बल दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ती. पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, तमिलनाडु में केंद्र के साथ पार्टियों की पुलिस 5 नहीं 50,000 से 5 लाख तक लोगों के गृह मंत्री या प्रधानमंत्री की चुनावी भीड़ को कोरोना के खिलाफ नहीं मान रही थी पर अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं, हर चौथे दिन एकदो घटनाएं सामने आ ही जाती हैं, जिन में लौकडाउन को लागू कराने के लिए धड़ाधड़ डंडे बरसाए जा रहे थे.

ये भी पढ़ें- भारतीय जनता पार्टी की हार: नहीं चला धार्मिक खेल

भारत की जनता अमेरिकी जनता की तरह नहीं जो पुलिस से 2-2 हाथ भी कर सकती है. यह तो वैसे ही डरीसहमी रहती है. बस भीड़ हो तो थोड़ी हिम्मत रहती है पर इस पर जो बेरहमी बरती जाती है वह अमेरिका के जार्ज फ्लायड की हत्या की याद दिलाती है. फर्क इतना है कि अमेरिका में दोषी पुलिसमैन को लंबी जेल की सजा दी गई. यहां 5-7 दिन लाइनहाजिर कर इज्जत से बुला लिया जाएगा.

अदालत में तो मामला चलाना ही बेकार है क्योंकि पुलिस वालों के अत्याचार, डंडों, मामलों में फंसा देने की धमकियों से गवाह आगे आते ही नहीं.  कोविड की तैयारी भी यहां पुलिस कर रही है, अस्पताल, डाक्टर, लैब या दवा कंपनियां नहीं. सरकार को मालूम है कि पुलिस हर मौके का पूरा नाजायज फायदा उठाएगी.  कोविड के लिए लौकडाउन में जो लोग सड़क पर चल रहे हैं या दुकान चला रहे हैं वे अपने लिए खुद जोखिम ले रहे हैं. वे नियम तोड़ रहे हैं पर दूसरों से ज्यादा नुकसान उन्हीं को है. सिर्फ इसलिए उन पर डंडे बरसाना कि आदेश को तोड़ा जा रहा है बेरहमी है. यह सिनेमाघर के आगे टिकट के लिए लगी लंबी लाइन पर आंसू गैस छोड़ने की तरह है क्योंकि इस से किसी और को नुकसान नहीं हो रहा है.

ये भी पढ़ें- क्या सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह है ?

पुलिस असल में मौका ढूंढ़ती है कि अपनी ताकत आम जनता को दिखा सके ताकि हर समय दहशत का माहौल बना रहे. यहां आमतौर पर शिकायत करने वालों को भी शक की निगाह से देखा जाता है. सिर्फ खेलेखाए लोग ही पुलिस की मिलीभगत से शिकायतें करने की हिम्मत करते हैं. गरीब आदमी तो दूसरों की मार भी खा लेता है पुलिस की भी.  उम्मीद थी कि कोरोना में लोग बाहर न निकलें, इसे समझाने के लिए सत्ता में बैठी पार्टियों के पेशेवर ग्राहक आगे आएंगे. लेकिन उन्हें तो वोट चाहिए, मंदिर चाहिए, सत्ता चाहिए, ठेके चाहिए. जनता की जान बचानी है तो डंडाधारी पुलिस ही है उन के पास. बस, यही इस देश की हालत है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें