तुम्हारा इंतजार था

अभय अपनी यूरोप यात्रा के दौरान वेनिस गया हुआ था. वेनिस में सड़कें पानी की होती हैं, मतलब एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए कार नहीं, लांच नावों से जाना पड़ता है. वह मुरानो ग्लास फैक्टरी देखने गया था. वे लोग लाइव शो दिखाते हैं यानी ग्लास को पिघला कर कैसे उसे विभिन्न शक्लों में ढाला जाता है. अभी शो शुरू होने में कुछ वक्त बाकी था, सो, वह बाहर एक पेड़ की छाया में बैठ कर वेनिस की सुंदरता देख रहा था. ग्रैंड कैनाल में सैलानी वेनिस की विशेष नाव ‘गोंडोला’ और अभय मन ही मन सोच रहा था कि वेनिस बनाने वाले के दिमाग की दाद देनी होगी.

जुलाई का महीना था, काफी गरमी थी. तभी एक इंडियन लड़की आ कर उस के बगल में बैठ गई.

उस ने अभय से कहा, ‘‘हाय, मुझे लग रहा है कि आप इंडिया से हैं?’’

‘‘हां, मैं इंडियन हूं,’’ बोल कर अभय ने उस लड़की को एक बार गौर से ऊपर से नीचे तक देखा. मन ही मन सोच रहा था श्यामल वर्ण में भी इतना आकर्षण.

‘‘मैं, एल्मा. मैं केरल से हूं. वेनिस घूमने आई हूं,’’ लड़की बोली.

‘‘और मैं, अभय. बनारस से हूं. मैं भी एक टूर पैकेज पर आया हूं.’’

फिर एल्मा ही ने हाथ बढ़ाया और हैंड शेक कर कहा, ‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई.’’

‘‘मुझे भी. पर न जाने क्यों लग रहा है कि आप को पहले भी कहीं देखा है.’’

तब तक शो का समय हो गया था और दोनों फैक्टरी के अंदर चले गए. इस के बाद दोनों साथसाथ ही फैक्टरी घूमे. फैक्टरी से निकल कर दोनों ने फैक्टरी से जुड़ा भव्य शोरूम देखा. एक से बढ़ कर एक शीशे की कलाकृतियां और घरेलू उपयोग के सामान थे. उन्हें वहां खरीदा जा सकता था या और्डर देने पर वे लोग दिए पते पर इंश्योर्ड पार्सल कर देते थे. पर दोनों में किसी ने भी कुछ नहीं खरीदा था.

अभय ने पूछा, ‘‘क्या तुम अकेले यहां आई हो?’’

‘‘नहीं, मेरी सहेली भी साथ में है. हम तो यहां 3 दिनों से हैं. आज उस की तबीयत ठीक नहीं है तो वह नहीं निकल सकी. अब मैं यहां से सीधे होटल जाऊंगी उसी के पास.’’  एल्मा ने जवाब दिया और ‘‘ओके, बाय’’ बोल कर चली गई.

अगले दिन को वह वैटिकन सिटी में था. यह अत्यंत छोटा सा शहर जिसे एक स्वतंत्र देश का दरजा प्राप्त है और विश्वविख्यात है. यह विश्व का सब से छोटा देश है. यहीं पोप का मुख्यालय भी है. यह रोम शहर के अंदर ही दीवारों से घिरा एन्क्लेव (अंत:क्षेत्र) है. एक आइसक्रीम की दुकान पर खड़ेखड़े आइसक्रीम खा रहा था, तभी एल्मा भी वहां आ गई थी.

अभय ने कहा, ‘‘हाय एल्मा, क्या सुखद आश्चर्य है. आज फिर हम मिल गए. पर तुम आज भी अकेली हो? तुम्हारी सहेली कहां रह गई?’’

‘‘तुम ने इंडिया की न्यूज सुनी? कल मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट हुए हैं.

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2 सौ से ज्यादा लोग मरे हैं और सैकड़ों घायल हैं. घायलों में मेरी सहेली का भाई भी था. वह रोम चली गई है. वहां से सीधे मुंबई जाएगी.’’

‘‘ओह, हाउ सैड. पता नहीं हमारे देश को किस की नजर लग गई है. खैर, तुम वैटिकन घूम चुकी हो?’’

‘‘नहीं, अभी सेंट पीटर बैसिलिक बाकी है.’’

‘‘ओह, तुम क्रिश्चियन हो?’’ अभय ने पूछा.

‘‘हां,’’ बोली एल्मा.

‘‘पर एल्मा, मुझे क्यों बारबार लग रहा है कि पहले भी तुम्हें देख चुका हूं. एक बार से ज्यादा ही. तुम केरल में कहां रहती हो?’’

‘‘केरल मेरा नेटिव स्टेट है. पर स्कूलिंग के बाद वहां नहीं रही. मैं हैदराबाद चली आई.’’

अभय चौंक कर बोला ‘‘हैदराबाद.’’

‘‘क्यों? इस में चौंकने वाली क्या बात है? मैं ने वहीं माधापुर के नैशनल फैशन इंस्टिट्यूट से फैशन टैक्नोलौजी का कोर्स किया है और वहीं रेडीमेड कपड़े बनाने वाली कंपनी में काम भी करती हूं.’’

‘‘तभी मुझे बारबार लग रहा है कि मैं ने तुम्हें देखा है. मैं भी वहीं माधापुर के साइबर टावर्स में स्थित ओरेकल कंपनी में काम करता हूं.’’

‘‘चलो, अच्छा है, कोई परदेस में बिलकुल अपने शहर का आदमी मिलता है तो बहुत खुशी होती है.’’

अभय को तब तक कुछ याद आया तो कहा, ‘‘अब मैं बता सकता हूं कि तुम्हें मैं ने पहले कहां देखा है. वहां कोंडापुर के एक रैस्टोरैंट में जो हर संडे को 99 रुपए में बुफे ब्रेकफास्ट देता है.’’

‘‘सही कहा है तुम ने. मैं तो कोशिश करती हूं हर संडे वहां जाने की और 99 रुपए में ब्रंच (नाश्ता और दोपहर का मिलाजुला भोजन) कर लेती हूं. नाश्ते के नाम पर जीभर के जितना खानापीना हो सिर्फ 99 रुपए में हो जाता है,’’ एल्मा बोली, और हंस कर आगे कहा, ‘‘लड़कों का काम ही यही है. जहां मौका मिला, नजरें चुरा कर लड़कियों को देखने लगते हैं. डोंट माइंड, मजाक कर रही थी.’’

‘‘वैटिकन के बाद तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘मैं तो यहां से इंगलैंड होते हुए इंडिया जा रही हूं. और तुम?’’

‘‘मैं तो यहां से सीधे वापस इंडिया जाऊंगा.’’

लेकिन एल्मा को अब बैसिलिक रोमन विशेषाधिकार प्राप्त चर्च देखने जाना था. वह जातेजाते बोली, ‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. जब दोनों हैदराबाद में ही हैं तो कभी मिल भी सकते हैं. अपना खयाल रखना.’’

‘‘एक मिनट रुको, हैदराबाद में मिलने के लिए यह रख लो,’’ बोलते हुए उस ने अपना कार्ड एल्मा को दे दिया. एल्मा ने भी पर्स से अपना एक कार्ड निकाल कर अभय को दे दिया. इस के बाद दोनों ने एकदूसरे को बाय किया.

कुछ दिनों के बाद दोनों हैदराबाद में थे. एक दिन अभय ने एल्मा से फोन कर के पूछा, ‘‘संडे को क्या प्रोग्राम है? रैस्टोरैंट में ब्रंच के लिए आ रही हो?’’

‘‘वह तो आना ही है. वरना 99 रुपए में भरपेट नाश्ता और खाना दोनों कहीं नहीं मिलेगा. वह भी क्वालिटी फूड.’’

‘‘चलो, तो फिर वहीं मिलते हैं.’’

संडे को दोनों उसी रैस्टोरैंट में मिले. दोनों अपनेअपने दोस्त व रूममेट के साथ गए थे. एल्मा ने अपनी सहेली निशा से दोनों का परिचय कराया. अभय ने भी अपने दोस्त का दोनों लड़कियों से परिचय कराया. चारों एक ही टेबल पर बैठे थे. बुफे था, चारों जम के पेटपूजा कर रहे थे, साथ में बातें भी हो रही थीं.

अपने दोस्त को इंगित करते हुए अभय बोला, ‘‘मैं कोंडापुर में इस के साथ अपार्टमैंट शेयर कर रहा हूं.  और तुम?’’

‘‘मैं भी निशा के साथ माधापुर में ही एक दोरूम का अपार्टमैंट शेयर करती हूं.’’

‘‘और आज क्या कर रही हो? मूवी चलोगी? बोलो तो मैं अपने मोबाइल से 4 टिकटें यहीं से बुक कर देता हूं.’’

एल्मा ने अपनी सहेली की ओर देखा तो उस ने कहा, ‘‘चलेगा.’’

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फिर अभय ने वहीं से दोपहर 2 बजे शो की टिकटें बुक कर दीं. इस के बाद चारों अपने अपार्टमैंट गए और फिर सही समय पर सिनेमाहौल पहुंच गए थे. मूवी देखने के बाद चारों ने कैफे में कौफी पी और फिर वे अपनेअपने अपार्टमैंट के लिए चल दिए.

इस के बाद अभय और एल्मा दोनों अब अकेले भी मिलने लगे थे. उन के साथ अब उन के रूममेट नहीं होते थे. छुट्टी के दिन वे दिनभर साथ रहते, घूमतेफिरते, होटलों में जाते और मूवी देखते थे. देखतेदेखते दोनों एकदूसरे को प्यार करने लगे थे. दोनों इस स्थिति को भी समझ रहे थे कि वे अलगअलग धर्मों के मानने वाले थे.

एक दिन अभय ने एल्मा को शादी के लिए प्रोपोज भी कर दिया था. एल्मा ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम से बेहद प्यार है और मैं पर्सनली तो इस के लिए तैयार हूं. पर हम लोगों को एकबार अपने मातापिता को भी बताना चाहिए. संभव हो वे हमारी शादी से खुश भी हों.’’

अभय बोला, ‘‘ठीक है, हम दोनों अगले संडे को उन लोगों को यहां बुला लेते हैं.’’

अगले रविवार दोनों के मातापिता हैदराबाद पहुंच गए थे. उसी दिन शाम को वे 6 लोग, अभय, एल्मा और उन के मातापिता शाम को हैदराबाद के केबीआर पार्क में मिले. दोनों के मातापिता के बीच बहस चल रही थी.

अभय के पिता ने कहा ‘‘ये अंगरेज सब से पहले केरल में ही आए थे. फिर वहां के गरीब, असहाय या पिछड़े लोगों को प्रलोभन दे कर या बहका कर धर्मपरिवर्तन करवाते थे. उन के आने के पहले तो वहां क्रिश्चियन नहीं थे. हम लोग तो सदियों से हिंदू हैं. हम को यह शादी स्वीकार है बशर्ते कि आप लोग हिंदू धर्म अपना लें. वरना हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं है.’’

एल्मा के पिता ने अपना तर्क देते हुए कहा, ‘‘हम तो दादा, परदादा के समय से ही क्रिश्चियन हैं. हम भी यही चाहते हैं कि अभय हमारा धर्म अपना ले. वैसे भी हिंदू धर्म तो बस इंडिया और नेपाल में ही है जबकि हमारा धर्म दुनिया के अनेक देशों में प्रचलित है. अभय के क्रिश्चियन बनने के बाद ही हम एल्मा की शादी की इजाजत दे सकते हैं. वरना हमें यह शादी मंजूर नहीं है.’’

अभय और एल्मा दोनों के मातापिता अपनीअपनी बात पर अड़े थे, कोई भी झुकने को तैयार न था. बल्कि बहस अब गरम हो चली थी. दोनों अपनेअपने धर्म को अच्छा साबित करने में लगे थे.

तभी अभय ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आप लोग बहुत बोल चुके हैं. अब कृपया शांत रहे. कुछ हम दोनों पर भी छोड़ दीजिए. आखिरी फैसला हम दोनों मिल कर करेंगे.’’

एल्मा बिलकुल खामोश थी बल्कि थोड़ी सहमी थी. सब लोग पार्क से निकल अपनेअपने घर चले गए. अगले दिन ही दोनों के मातापिता हैदराबाद से लौट गए थे.

इधर, अभय ने एल्मा से पूछा ‘‘हम दोनों के मातापिता को बिना धर्मपरिवर्तन किए यह शादी मंजूर नहीं है. मैं तो कोर्टमैरिज करने को तैयार हूं. तुम मेरा साथ दोगी?’’

‘‘मुझे तुम से प्यार है और शादी से कोई एतराज नहीं. पर बड़ी समस्या यह है कि मेरे मातापिता और मेरी छोटी बहन सभी मुझ पर आश्रित हैं. पिताजी ने काफी ख्ेत बंधक रखे हैं मेरी पढ़ाई के लिए. पिताजी ने कहा है कि अगर मैं ने अपनी मरजी से शादी की तो मुझ से उन का कोई रिश्ता नहीं रहेगा. अब मैं उन लोगों को कैसे छोड़ दूं? मेरी स्थिति समझ रहे हो न तुम?’’

‘‘तब मैं क्या समझूं? तुम्हारा फैसला?’’

‘‘मैं मजबूर हूं, मैं फिलहाल शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘तो क्या मैं तुम्हारा इंतजार करूं?’’

एल्मा बोली, ‘‘मैं तो यह भी नहीं कहूंगी कि तुम मेरे लिए अनिश्चितता की स्थिति में रहो. तुम अपना फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हो.’’

इस के बाद दोनों जुदा हो गए. मिलनाजुलना जानेअनजाने ही कभी हो पाता था, पर फोन पर संपर्क बना हुआ था. कुछ दिनों बाद अभय ने चंडीगढ़ के पास मोहाली में एक आईटी कंपनी जौइन कर ली थी. अब एल्मा से फोन पर भी संपर्क नहीं रहा था.

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इस बीच 3 साल बीत चुके थे. अभय शिमला घूमने गया था. दिसंबर का महीना था, बर्फ तो गिर ही रही थी ऊपर से मौसम भी खराब था. जोरों की बारिश हो रही थी. वह अपने होटल के कमरे में बैठा था. रात हो चुकी थी. तभी कौलबैल बजी, तो उस ने सोचा कि वेटर होगा और कहा, ‘‘खुला है, आ जाओ.’’

दरवाजा खुलने पर जो आकृति उसे नजर आई तो कुछ पल के लिए उसे लगा कि सपना देख रहा है. पर जब वह उस के और निकट आई तो वह आश्चर्य से कुछ देर तक उसे देखता ही रहा था. भीगे कपड़ों में एल्मा सामने खड़ी थी सूटकेस लिए.

अभय बोला ‘‘तुम अचानक यहां कैसे? यहां का पता तुम्हें किस ने दिया?’’

‘‘सब बताऊंगी. मैं भीग गई हूं. पहले मुझे चेंज करने दोगे?’’

‘‘ठीक है, बाथरूम में धुला टौवेल है. जाओ, चेंज कर लो.’’

थोड़ी देर में एल्मा चेंज कर निकली, तब तक अभय ने उस के लिए कौफी मंगा दी थी. उस ने कहा ‘‘कौफी गरम है, पी लो.’’

कौफी पीते हुए एल्मा ने कहा, ‘‘मैं ने हैदराबाद के तुम्हारे रूममेट से मोहाली का पता लिया. मोहाली गई तो वहां से तुम्हारे रूममेट ने मुझे यहां का पता दिया. मैं सब छोड़ तुम्हारे पास आई हूं. मुझे पता है तुम ने अभी तक शादी नहीं की है. क्या तुम मुझे अपनाने को तैयार हो? ’’

अभय बोला, ‘‘मैं तो पहले भी तैयार था, आज भी तैयार हूं, पर तुम्हारा धर्म, तुम्हारे मातापिता और बहन?’’

‘‘मैं तो प्यार को धर्म से बड़ा मानती हूं. हम दोनों धर्म बदले बिना भी अपना रिश्ता निभा सकते हैं.’’

‘‘मैं तो तैयार हूं पर तुम्हारा परिवार?’’ अभय बोला.

एल्मा बोली, ‘‘मेरी बहन नर्सिंग कर के दुबई में नर्स है. उस ने वहीं पर लवमैरिज कर ली है. उसी ने मुझे तुम्हारे पास आने की हिम्मत दी है. मातापिता को हम दोनों बहनें पैसे भेजती रहेंगी जिस से वे अपने खेत छुड़ा लेंगे. मैं भी चंडीगढ़ की गारमैंट कंपनी में जौब कर लूंगी.’’ थोड़ी देर की खामोशी के बाद एल्मा आगे बोली, ‘‘पर पहले यह बताओ, तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘शादी कैसे करता? तुम्हारा इंतजार था,’’  अभय बोला.

‘‘वह तो ठीक है, पर तुम्हें यकीन था कि मैं वापस तुम्हारे पास आऊंगी.’’

‘‘मुझे अपने प्यार पर यकीन था,’’ बोल कर अभय ने एल्मा को अपनी आगोश में ले लिया.

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मुट्ठी भर राख

मुट्ठी में जो था वह राख थी, दूसरों के लिए चमकते सितारे थे, झिलमिलाते, दमकते. पहले मन में कितनी साध थी कि दूर गगन में दमकते इन सितारों को झट से झपट कर मुट्ठी में भर लें. ज्यादा कोशिश न करनी पड़ी, न ही पंजों के बल ज्यादा उचकना पड़ा. आसमान ही इतना झुक आया कि हाथ भी न बढ़ाने पड़े और झोली सितारों से भर गई.

आंचल में आने को सितारे तैयार थे. बस, अपने ही पग मैं ने पीछे हटा लिए. एक उम्र होती है जिस में सितारों के सपने आते हैं. फूलों से लदी डालियां लचक- लचक कर हवाओं को खुशबू से भर देती हैं. ठीक इसी वक्त मुंहमांगी मुराद कुबूल होने के समय पांव अपनेआप पीछे हो गए.

बेटी के लिए वर तलाश करें तो गुणों की एक अदृश्य लंबी सूची साथ रहती है. पढ़ालिखा, बारोजगार, सुंदर, सुदर्शन, सुशील, अच्छे कुलखानदान का सभ्य, संभ्रांत. अपना मकान, छोटा परिवार. छोटा भी इतना कि न सास न ननद. लड़के की बहन कोई है ही नहीं और मां का 4 साल पहले इंतकाल हो गया. यह आखिरी वाक्य इस ठसक के साथ मुंह से बाहर आया कि यह गुणों का कोई बोनस है, सोने पर सुहागा है.

बापबेटे 2 जन ही हैं. दोनों कामकाजी हैं. मां की तसवीर पर माला लटक रही है, ड्राइंगरूम में ही. बस, लड़की तो पहले ही दिन से राज करेगी, राज. सासननदों की झिकझिक उस परिवार में नहीं है.

बताने वाली चहक रही थी, ‘‘क्या राजकुमार सा वर मिला है. लड़की तकदीर वाली है.’’

मां ने बेटी की आंखों में चमक देखी, ‘यही ठीक है.’

‘‘लड़का सुंदर है. दोनों ही परिवारों ने एकदूसरे को देख लिया है, पसंद कर लिया है. ऐसे लड़के को तो झट से घेर लेना चाहिए. देर करोगी तो रिश्ता हाथ से निकल जाएगा. अब सोच क्या रही हो?’’

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‘‘मैं सोच रही हूं कि लड़के की मां नहीं है…’’

‘‘यह तो और अच्छी बात है. फसाद की जड़ ही नहीं है,’’ बताने वाली को लड़के के गुण को कम कर के आंकने की जरूरत न समझ आई. बेटी की मां है, बेटी का हित नहीं देख पा रही. अरे, सास नहीं है. लड़की पहले ही दिन से राज करेगी. अपने घर को अपने हिसाब से चलाएगी. बापबेटे दोनों चाहते हैं कि जल्दी से रिश्ता पक्का हो, घर में रौनक आए.

मां की आंखों में रौनक की जगह उदासी का सागर दिखा. पहले दिन से होने वाला राज दिखा कि लाड़चाव करने, बोलनेबतियाने के लिए परिवार में कोई नहीं. लड़की जाते ही गृहस्थी का बोझ संभालेगी और बापबेटे हर घड़ी उस की तुलना अपनी पत्नी व मां से करेंगे. जिंदा मां धूरि बराबर और मरी मां देवी समान. हर घड़ी पूजित. मां ऐसा करती थीं, वैसा करती थीं. होतीं तो उन के साथ देखसुन कर लड़की गृहस्थी सीखसमझ लेती कि क्या करना है, कैसे करना है. अब ऐसे में तो तुलना मात्र ही शेष रहती है.

काम की तुलना, उठनेबैठने, चलने- फिरने की तुलना. बेटेबहू का सुख बाप से न सहा जाएगा. न हंसना न बोलना, न घूमना न फिरना. बेटे को पापा…पापा का राग रहेगा. पापा घर में अकेले हैं, पापा उदास हैं…पापा के दुख के सागर में गोते लगाता रहेगा.

जमाना जालिम होता रहेगा और ध्यानाकर्षण के लिए तरहतरह की बीमारियां, पापाजी को सिरदर्द, पापाजी को ब्लड प्रेशर…मां होती तो पापाजी की देखभाल करती रहती और बेटेबहू अपने में मगन रहते. दुखी आदमी के सामने सुखी होना भी तो मुसीबत ही है. ऐसे में परपीड़न का आनंद लेने वाला कैसे उसे बेटी समझेगा? मां होती तो यह आशंका शायद न होती.

मां का न होना कोई गुण नहीं बल्कि कमी है, ऐसा बेटी की मां को लग रहा था. परिवार एक ऐसे शीशे का सामान था जिस पर ‘हैंडिल विद केअर’ तो लगा ही होता है. यहां तो यह न केवल शीशे का था बल्कि चटका भी हुआ था. हाथ में लग जाए तो खून निकल आए.

सास नहीं है, यानी कि वर की मां नहीं है. इस बात पर हाथ आया रिश्ता छोड़ने वाली कन्या की मां को जिस ने कहा, मूर्ख ही कहा. बताइए सास नहीं है लड़ने को, इस बात पर प्रसन्न नहीं हो सकती. ज्यादा सोचनेसमझने की जरूरत नहीं होती, इस को कहते हैं भाग्य को ठोकर मारना.

कब से बेटी हंसीहंसी में कहती कि कितना अच्छा है. मांबाप फोटो वाले हों. मतलब फोटो माला पहन कर दीवार पर लटकी हो. सास की ‘नो किचकिच.’

किचकिच, झिकझिक नहीं किंतु इस का अर्थ स्नेह की कमी, नियंत्रण का अभाव. ननद नहीं है, लड़का अकेला है. मान लें कि वह शेयर करना जानता ही न होगा. स्वकेंद्रित होगा. बिना नियंत्रण के या तो उच्छृंखल होगा या दब्बू. पिता के स्नेह में सहानुभूति का अनुपात अधिक. जो कहो, सो मान लो. बच्चा कहीं उदास न हो. उस की आदत अपनी बात मनवाने की होगी बजाय मानने की.

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सास का न होना कोई बोनस नहीं हो सकता. न ही सोने पर सुहागा. दुख की छाया यों कि लड़की के तन पर गहने तक सास के पुराने होंगे. मोह के मारे तुड़वा कर फिर न गढ़वाए जाएंगे. मां होती तो यह फैसला मां का होता कि नए गढ़वाए जाएंगे कि पुरानों को बदला जाएगा. अब चूंकि है नहीं इसलिए मां को तो उन्हें पहनना नहीं है. सब बहू पहनेगी. वैसे के वैसे ही पहने तो अच्छा. अनुपस्थित होते हुए भी वह सदा उपस्थित रहेगी. इस में सुलहसंवाद की संभावना नहीं है.

बेटी की मां की रात करवटें बदलते बीती. ऐसे झंझटों में क्यों डालें बेटी को. परिवार ठीक है, अच्छा है लेकिन सामान्य नहीं है. खोज के पैरामीटर में एक शब्द और जुड़ा. परिवार छोटा और सामान्य और बेटा पढ़ालिखा, बारोजगार, सुंदर, सुदर्शन, सुशील, अच्छे कुलखानदान का, सभ्य, संभ्रांत. सास का न होना मुट्ठी की राख भर है, आसमान के चमकते सितारे नहीं, जिस की कोई साध करे.

गांठ खुल गई: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- 

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे समझाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मुझ से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

3 दिनों बाद इषिता आ भी गई. गौतम के घर गई तो वह गहरी सोच में था.

उस ने आवाज दी. पर उस की तंद्रा भंग नहीं हुई. तब उसे झंझोड़ा और कहा, ‘‘किस सोच में डूबे हुए हो?’’

‘‘श्रेया की यादों से अपनेआप को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ गौतम ने सच बता दिया.

इषिता गुस्से से उफन उठी, ‘‘इतना सबकुछ होने के बाद भी उसे याद करते हो? सचमुच तुम पागल हो गए हो?’’

‘‘तुम ने कभी किसी को प्यार नहीं किया है इषिता, मेरा दर्द कैसे समझ सकती हो.’’

‘‘कुछ घाव किसी को दिखते नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि उस शख्स ने चोट नहीं खाई होगी,’’ इषिता ने कहा.

गौतम ने इषिता को देखा तो पाया कि उस की आंखें नम थीं. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी आंखों में आंसू हैं. इस का मतलब यह है कि तुम ने भी प्यार में धोखा खाया है?’’

‘‘इसे तुम धोखा नहीं कह सकते. जिसे मैं प्यार करती थी उसे पता नहीं था.’’

‘‘यानी वन साइड लव था?’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझो.’’

‘‘लड़का कौन था. निश्चय ही वह कालेज का रहा होगा?’’

इषिता उसे उलझन में नहीं रखना चाहती थी, रहस्य पर से परदा हटाते हुए कह दिया, ‘‘वह कोई और नहीं, तुम हो.’’

गौतम ने चौंक कर उसे देखा तो वह बोली, ‘‘कालेज में पहली बार जिस दिन तुम से मिली थी उसी दिन तुम मेरे दिल में घर कर गए थे. दिल का हाल बताती, उस से पहले पता चला कि तुम श्रेया के दीवाने हो. फिर चुप रह जाने के सिवा मेरे पास रास्ता नहीं था.

‘‘जानती थी कि श्रेया अच्छी लड़की नहीं है. तुम से दिल भर जाएगा, तो झट से किसी दूसरे का दामन थाम लेगी. आगाह करती, तो तुम्हें लगता कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उस पर इलजाम लगा रही हूं. इसलिए तुम से दोस्ती कर ली पर दिल का हाल कभी नहीं बताया.

‘‘श्रेया के साथ तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, तो सोचा कि मौका देख कर अपनी मोहब्बत का इजहार करूंगी और तुम से शादी कर लूंगी. पर देख रही हूं कि आज भी तुम्हारे दिल में वह ही है.’’

दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी पसर गई. गौतम ने ही थोड़ी देर बार खामोशी दूर की, ‘‘उसे दिल से निकाल नहीं पा रहा हूं, इसीलिए कभी शादी न करने का फैसला किया है.’’

‘‘तुम्हें पाने के लिए मैं ने जो तपस्या की है उस का फल मुझे नहीं दोगे?’’ इषिता का स्वर वेदना से कांपने लगा था. आंखें भी डबडबा आई थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो इषिता. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम से विवाह करता तो मेरा जीवन सफल हो जाता. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. किसी से भी शादी नहीं कर सकता.’’

इषिता चली गई. उस की आंखों में उमड़ा वेदना का समंदर देख कर भी वह उसे रोक नहीं पाया. वह उसे कैसे समझाता कि श्रेया ने उस के साथ जो कुछ भी किया है, उस से समस्त औरत जाति से उसे नफरत हो गई है.

3 दिन बीत गए. इषिता ने न फोन किया न आई. गौतम सोचने लगा, ‘कहीं नाराज हो कर उस ने दोस्ती तोड़ने का मन तो नहीं बना लिया है?’

उसे फोन करने को सोच ही रहा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस समय शाम के 6 बज रहे थे. फोन किसी अनजान का था.

उस ने ‘‘हैलो’’ कहा तो उधर से किसी ने कहा, ‘‘इषिता का पापा बोल रहा हूं. तुम से मिलना चाहता हूं. क्या हमारी मुलाकात हो सकती है?’’

उस ने झट से कहा, ‘‘क्यों नहीं अंकल. कहिए, कहां आ जाऊं?’’

‘‘तुम्हें आने की जरूरत नहीं है बेटे. 7 बजे तक मैं ही तुम्हारे घर आ जाता हूं.’’

इषिता उसे 3-4 बार अपने घर ले गई थी. वह उस के मातापिता से मिल चुका था.

उस के पिता रेलवे में उच्च पद पर थे. बहुत सुलझे हुए इंसान थे. वह उन की इकलौती संतान थी. मां कालेज में अध्यापिका थीं. बहुत समझदार थीं. कभी भी उस के और इषिता के रिश्ते पर शक नहीं किया था.

इषिता के पापा समय से पहले ही आ गए. गौतम के साथसाथ उस की मां और बहन ने भी उन का भरपूर स्वागत किया.

उन्होंने मुद्दे पर आने में बहुत देर नहीं लगाई. पर उन चंद लमहों में ही अपने शालीन व्यक्तित्व की खुशबू से पूरे घर को महका दिया था. इतनी आत्मीयता उड़ेल दी थी वातावरण में कि उसे लगने लगा कि उन से जनमजनम का रिश्ता है.

कुछ देर बाद इषिता के पापा को गौतम के साथ कमरे में छोड़ कर मां और बहन चली गईं तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इषिता तुम्हें प्यार करती है और शादी करना चाहती है. उस ने श्रेया के बारे में भी सबकुछ बता दिया है.

‘‘श्रेया से तुम्हारा रिश्ता टूट चुका है तो इषिता से शादी क्यों नहीं करना चाहते? वैसे तो बिना कारण भी कोई किसी को नापसंद कर सकता है. यदि तुम्हारे पास इषिता से विवाह न करने का कारण है तो बताओ. मिलबैठ कर कारण को दूर करने की कोशिश करें.’’

उसे लगा जैसे अचानक उस के मन में कोई बड़ी सी शिला पिघलने लगी है. उस ने मन की बात बता देना ही उचित समझा.

‘‘इषिता में कोई कमी नहीं है अंकल. उस से जो भी शादी करेगा उस का जीवन सार्थक हो जाएगा. कमी मुझ में है. श्रेया से धोखा खाने के बाद लड़कियों से मेरा विश्वास उठ गया है.

‘‘लगता है कि जिस से भी शादी करूंगा वह भी मेरे साथ बेवफाई करेगी. ऐसा भी लगता है कि श्रेया को कभी भूल नहीं पाऊंगा और पत्नी को प्यार नहीं कर पाऊंगा,’’ गौतम ने दिल की बात रखते हुए बताया.

‘‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो? तुम मेरी परवरिश पर विश्वास रखो बेटा. तुम्हारी पत्नी बन कर इषिता तुम्हें इतना प्यार करेगी कि तुम्हारे मन में लड़कियों के प्रति जो गांठ पड़ गई है वह स्वयं खुल जाएगी.’’

वे बिना रुके कहते रहे, ‘‘प्यार या शादी के रिश्ते में मिलने वाली बेवफाई से हर इंसान दुखी होता है, पर यह दुख इतना बड़ा भी नहीं है कि जिंदगी एकदम से थम जाए.

‘‘किसी एक औरतमर्द या लड़कालड़की से धोखा खाने के बाद दुनिया के तमाम औरतमर्द या लड़केलड़की को एकजैसा समझना सही नहीं है.

‘‘यह जीवन का सब से बड़ा सच है कि कोई भी रिश्ता जिंदगी से बड़ा नहीं होता. यह भी सच है कि हर प्रेम संबंध का अंजाम शादी नहीं होता.

‘‘जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनने का अधिकार है. यह अलग बात है कि कोई सही रास्ता चुनता है कोई गलत.

‘‘श्रेया के मन में गलत विचार भरे पड़े थे. इसलिए चंद कदम तुम्हारे साथ चल कर अपना रास्ता बदल लिया. अब तुम भी उसे भूल कर जीने की सही राह पर आ जाओ. गिरते सब हैं पर जो उठ कर तुरंत अपनेआप को संभाल लेता है, सही माने में वही साहसी है.’’

थोड़ी देर बाद इषिता के पापा चले गए. गौतम ने मंत्रमुग्ध हो कर उन की बातें सुनी थीं.

श्रेया के कारण लड़कियों के प्रति मन में जो गांठ पड़ गई थी वह खुल गई.

अब देर करना उस ने मुनासिब नहीं समझा. इषिता के पापा को फोन किया, ‘‘अंकल, कल अपने घर वालों के साथ इषिता का हाथ मांगने आप के घर आना चाहता हूं.’’

उधर से इषिता के पापा ने कहा, ‘‘वैलकम बेटे. देर आए दुरुस्त आए. अब तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. तुम ने अपने भीतर के डर पर विजय जो प्राप्त कर ली है.’’

गांठ खुल गई: भाग 1

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

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श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझाने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझ से विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झूठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

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अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन वह फैसले से टस से मस नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

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लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झूठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

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‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

ग्रहण हट गया: भाग 1

लेखक- अभिजीत माथुर

मैं घर के कामों से फारिग हो कर सोने की सोच ही रही थी कि फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने बड़े बेमन से रिसीवर उठाया व थके स्वर से कहा, ‘‘हैलो.’’

उधर से अपनी सहेली अंजु की आवाज सुन कर मेरी खुशी की सीमा नहीं रही.

‘‘यह हैलोहैलो क्या कर रही है,’’ अंजु बोली, ‘‘मैं ने तो तुझे एक खुशखबरी देने के लिए फोन किया है. तेरे भैया शैलेंद्र की 24 जून की शादी पक्की हो गई है. कल ही शैलेंद्र भैया कार्ड दे कर गए हैं. तुझे भी शादी में आना है, तू आएगी न?’’

यह सुन कर मैं हड़बड़ा गई और झूठ ही कह दिया, ‘‘हां, क्यों नहीं आऊंगी, मैं जरूर आऊंगी. भाई की शादी में बहन नहीं आएगी तो कौन आएगा. मैं तेरे जीजाजी के साथ जरूर आऊंगी.’’

अंजु बोली, ‘‘ठीक है, तू जरूर आना, मैं तेरा इंतजार करूंगी,’’ यह कह कर अंजु ने फोन रख दिया.

फोन रखने के बाद मैं सोच में पड़ गई कि क्या मैं वाकई शादी में जा पाऊंगी? शायद नहीं. अगर मैं जाना भी चाहूं तो अखिल मुझे जाने नहीं देंगे. हमारी शादी के बाद अखिल ने जो कुछ झेला है वह उसे कैसे भूल सकते हैं.

मैं ने व अखिल ने 2 साल पहले घर वालों की इच्छा के खिलाफ कोर्ट में प्रेमविवाह किया था. मेरे घर वाले मेरे प्रेमविवाह करने पर काफी नाराज थे. उन्होंने मुझ से हमेशा के लिए रिश्ता ही तोड़ दिया था. वे अखिल को बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे. हम विवाह के बाद घर वालों का आशीर्वाद लेने गए थे, पर हमें वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया गया था. तब से ले कर आज तक मैं ने व अखिल ने उस घर की दहलीज पर पैर नहीं रखा है.

मैं धीरेधीरे अपने इस संसार में रमती गई और अखिल के प्यार में पुरानी कड़वी यादें भूलती गई पर आज अंजु के फोन ने मुझे फिर उन्हीं यादों के भंवर में ला कर खड़ा कर दिया, जहां से मैं हमेशा दूर भागना चाहती थी. मैं सोच रही थी कि आखिर मैं ने ऐसा क्या किया है जो मेरे घर वाले मुझ से इतने खफा हैं कि उन्होंने मुझे शैलेंद्र भैया की शादी की सूचना तक नहीं दी. क्या मैं ने अखिल से प्रेमविवाह कर इतनी भारी भूल की है कि मेरा उस घर से रिश्ता ही तोड़ दिया, जिस घर में मैं पली और बड़ी हुई. उस भाई से नाता ही टूट गया जिसे मैं सब से ज्यादा चाहती थी, जिस से मैं लड़ कर हक से चीज छीन लिया करती थी.

क्याक्या सपने संजोए थे मैं ने शैलेंद्र भैया की शादी के कि यह करूंगी, वह करूंगी, पर सारे सपने धराशायी हो गए. मैं भैया की शादी में जाना तो दूर, जाने की सोच भी नहीं सकती थी.

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मैं दिन भर इसी ऊहापोह में रही कि इस बारे में अखिल को कहूं या नहीं.

शाम को अखिल के आने के बाद मैं ने बड़ी हिम्मत जुटा कर उन से शैलेंद्र भैया की शादी के बारे में कहा तो अखिल ने आराम से मेरी बातें सुनीं फिर मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, वाह, मेरे साले की शादी है, तब तो हमें जरूर चलना चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘अखिल, कोई कार्ड या कोई संदेश नहीं आया है. यह तो मुझे अंजु ने फोन पर बताया है.’’

यह सुन अखिल कुछ सोच कर बोले, ‘‘तब तो हमारा न जाना ही ठीक है.’’

मैं अखिल के मुंह से यह सुन कर उदास हो गई और पूरी रात गुमसुम सी रही. अखिल कुछ कहते तो मैं केवल हूंहां में जवाब दे देती.

अगले दिन अखिल के आफिस जाने के बाद मेरा किसी काम में मन नहीं लगा और मैं घुटघुट कर रोए जा रही थी. बाहर से घंटी की आवाज सुन कर मैं दौड़ती हुई फाटक तक जाती कि शायद पोस्टमैन आया हो और शैलेंद्र भैया की शादी का कार्ड आया हो. फोन की घंटी बजने पर मैं सोचती, शायद ताऊजी या पापा का हो पर ऐसा कुछ नहीं था. मैं 3-4 दिन तक ऐसे ही रही थी. अखिल मेरा यह हाल रोज देखते और शायद परेशान होते.

एक रात अखिल मेरी उदासी से परेशान हो कर बोले, ‘‘बीना, क्या तुम शैलेंद्र भैया की शादी में शरीक होना चाहती हो?’’

मैं तो जैसे यह सुनने को तरस रही थी. बोली, ‘‘हां, अखिल, मैं अपने शैलेंद्र भैया को दूल्हा बने देखना चाहती हूं. मेरी यह दिली इच्छा थी कि मैं अपने भाई की शादी में खूब मौजमस्ती करूं. प्लीज, अखिल, शादी में चलो न. मैं एक बार भैया को दूल्हे के रूप में देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, फिर हम तुम्हारे शैलेंद्र भैया की शादी में जरूर शरीक होंगे,’’ अखिल बोले, ‘‘मैं तुम्हारी यह ख्वाहिश जरूर पूरी करूंगा. लेकिन बीना, मेरी एक शर्त है.’’

‘‘शैलेंद्र भैया की शादी में जाने के लिए मुझे हर शर्त मंजूर है,’’ मैं खुशी से पागल होते हुए बोली.

‘‘बीना, हम तुम्हारे घर पर नहीं बल्कि वहां किसी होटल में रुकेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

24 जून को मैं व अखिल जयपुर के लिए रवाना हो गए. मैं पूरे रास्ते सपने संजोती रही कि मैं वहां यह करूंगी, वह करूंगी. हमें देख सब खुश होंगे. खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चला कि रास्ता कैसे कटा.

जयपुर पहुंचते ही होटल के कमरे में सामान रखने के बाद मैं फटाफट तैयार होने लगी. अखिल मुझे यों उतावले हो कर तैयार होते पहली बार देख रहे थे. उन की आंखों में उस दिन पहली बार मैं ने दर्द देखा था. मैं इतनी जल्दी तैयार हो गई तो अखिल बोले, ‘‘हमेशा डेढ़ घंटे में तैयार होने वाली तुम आज पहली बार 10 मिनट में तैयार हुई हो, वाकई घर वालों से मिलने के लिए कितनी बेकरार हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘अब ज्यादा बातें मत करो, प्लीज, जल्दी टैक्सी ले आओ.’’

अखिल टैक्सी ले आए. मैं पूरे रास्ते घबराती रही कि पता नहीं वहां क्या होगा. मेरा दिल आने वाले हर पल के लिए घबरा रहा था.

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हम घर पहुंचे तो हमें आया देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए. शायद किसी को हमारे आने का गुमान नहीं था. सब हमें किसी अजनबी की तरह देख रहे थे. मैं 2 साल बाद अपने घर आई थी, पर वहां मुझे कुछ भी बदलाव नजर नहीं आया. सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं छोड़ कर गई थी. बस, बदले नजर आ रहे थे तो अपने लोग जो मुझे एक अजनबी की तरह देख रहे थे. हां, मेरे छोटे भाईबहन मुझे व अखिल को घेर कर खड़े थे. कोई कह रहा था, ‘‘दीदी, आप कहां चली गई थीं? आप व जीजाजी अब कहीं मत जाना.’’

मैं बच्चों से बातें करने में व्यस्त हो गई. अखिल मेरी तरफ देख चुपचाप एक कुरसी पर जा कर बैठ गए. मैं ने देखा वह डबडबाई आंखों से मुझे देखे जा रहे थे.

मैं ने बूआजी के लड़के राकेश को चुपचाप शैलेंद्र भैया को बुलाने भेजा. शैलेंद्र भैया 15-20 मिनट तक नहीं आए तो मैं ने सोचा शायद वह हम से मिलना नहीं चाहते हैं. मैं अपने को कोस रही थी कि क्यों मैं ने यहां आने की जिद की. मैं फालतू ही यहां अपनी व अखिल की बेइज्जती कराने आ गई. मैं तो कितना चाव ले कर यहां आई थी पर इन लोगों को हमारे आने की जरा भी खुशी नहीं है. मैं समझ गई कि यहां कोई हमारी इज्जत नहीं करेगा. मैं ने वहां से वापस जाने की सोची.

मैं हारी हुई लुटेपिटे कदमों से अखिल के पास जा ही रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘बीनू.’’

मैं ने पलट कर देखा तो राकेश के साथ शैलेंद्र भैया खड़े थे. मैं भैया के पांव छूने झुकी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मैं रोने लगी. भैया भी रोने लगे और बोले, ‘‘कैसी है री, तू? मुझे अभीअभी पता चला कि तू आ चुकी है. मैं सब की नजर बचा कर दौड़ादौड़ा तेरे पास चला आया. अच्छा हुआ, अंजु ने तुझे सही समय पर सूचित कर दिया, नहीं तो मैं सोच रहा था कि पता नहीं अंजु तुझे कहेगी भी या नहीं.’’

मैं बोली, ‘‘तो क्या आप ने अंजु को कहा था मुझे कहने के लिए?’’

भैया बोले, ‘‘हां…तू क्या सोचती है, तेरा भाई इतना निष्ठुर है कि अपनी प्यारी बहन को भूल जाए और अकेला जा कर शादी कर आए. अंजु को मैं ने ही कहा था कि वह तुझे जरूरजरूर किसी भी हालत में आने को कहे.’’

मैं बोली, ‘‘पर मुझे अंजु ने यह तो नहीं कहा था कि उसे आप ने बोला है मुझे आने के लिए.’’

भैया बोले, ‘‘उसे मैं ने ही मना किया था कि मेरा नाम नहीं ले क्योंकि मैं तुझे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. तेरे आने से मुझे तसल्ली है. तू मुझ से एक वादा कर, अब तुझे कोई कुछ भी कहे तू अपने भाई को छोड़ कर नहीं जाएगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है भैया, अब तो आप की खातिर सब सह लूंगी.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल कहां हैं…मुझे उन से मिला तो सही.’’

भैया को मैं ने अखिल से मिलवाया तो भैया हाथ जोड़ कर अखिल से बोले, ‘‘अखिल, आप ने अच्छा किया जो मेरी बहन को आज के दिन ले आए. मैं आप का आभारी हूं. आप को शायद मैं अच्छी तरह अटेंड न कर पाऊं पर प्लीज, आप कहीं मत जाना, चाहे परिवार का कोई कुछ भी कहे.’’

अखिल बोले, ‘‘भाई साहब, आज तो हम आए ही आप की खातिर हैं, जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल, मैं अभी आता हूं. आप लोग यहीं रुकें.’’

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फिर मैं व अखिल एकांत में कुरसी पर बैठ गए. मैं अखिल को अपने घर के बारे में, अपनी बचपन में की गई शरारतों के बारे में बताने लगी.

हमारे यहां रस्म है कि दोपहर में दूल्हे की एक आरती उस की बड़ी बहन करती है. वह रस्म जब होने जा रही थी तो मैं व अखिल चुपचाप कुरसी पर बैठे उसे देख रहे थे. मेरे पापा ने उस रस्म के लिए मेरी छोटी बहन शालिनी को आवाज लगाई तो शैलेंद्र भैया बोले, ‘‘पापा, बीना के यहां होते शालिनी कैसे आरती करेगी? क्या कभी शादीशुदा बहन के होते छोटी बहन आरती करती है? आरती तो बीना ही करेगी,’’ ऐसा कह कर भैया ने मुझे आवाज दी, ‘‘बीनू, यहां आओ, तुम्हें कसम है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

ग्रहण हट गया: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- ग्रहण हट गया: भाग 1

लेखक- अभिजीत माथुर

यह सुन कर मेरी एकदम रुलाई फूट गई. मुझे यों अपमानित होते देख अखिल मेरे पास आए और बोले, ‘‘चलो, बीना, चलो यहां से. मैं तुम्हारी और बेइज्जती होते नहीं देख सकता.’’

यह सुन कर पापा बोले, ‘‘हां, हां…चले जाओ यहां से. वैसे भी यहां तुम्हें बुलाया किस ने है?’’

अखिल बोले, ‘‘आप ने हमें नहीं बुलाया लेकिन हम यहां इसलिए आए हैं क्योंकि बीना अपने भाई को दूल्हा बने देखना चाहती थी और मैं यहां इस की वह इच्छा पूरी करने आया था, पर मुझे क्या पता था कि यहां इस की इतनी बेइज्जती होगी.

‘‘अरे, आप को बेइज्जती करनी थी तो मेरी की होती. गुस्सा निकालना था तो मुझ पर निकाला होता, दोषी तो मैं हूं. इस मासूम का क्या कुसूर है? आप लोगों के लिए पराया तो मैं हूं, यह तो आप लोगों की अपनी है. आप के घर की बेटी है, आप का खून है. क्या खून का रिश्ता इतनी जल्दी मिट जाता है कि अपनी जाई बेटी पराई हो जाती है?

‘‘मैं इस के लिए पराया हो कर भी इसे अपना सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इसे दुत्कार रहे हैं. मैं पराया हो कर भी इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर अपनी बेइज्जती कराने यहां आ सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इस की बेइज्जती कर रहे हैं. इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर थोड़ा सा समझौता नहीं कर सकते. यह बेचारी तो कितने सपने संजो कर यहां आई है. कितने अरमान होंगे इस के दिल में अपने भाई की शादी के, पर आप लोगों को इस से क्या? आप लोग तो अपनी झूठी इज्जत, मानमर्यादा के लिए उन सब का गला घोटना चाहते हैं.

‘‘मैं पराया हो कर भी इसे 2 साल में इतना प्यार दे सकता हूं और आप जिन्होंने इसे बचपन से अपने पास रखा उसे जरा सा प्यार नहीं दे सकते. इस का गुनाह क्या है? यही न कि इस ने आप लोगों की इच्छा से, आप की जाति के लड़के से शादी न कर मुझ जैसे दूसरी जाति के लड़के से शादी की. इस का यह गुनाह इतना बड़ा तो नहीं है कि इसे हर पल, हर घड़ी बेइज्जत किया जाए. इस ने जो कुछ अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया वह इतना बुरा तो नहीं है कि जिस के लिए बेइज्जत किया जाए और रिश्ता तोड़ दिया जाए.’’

मैं आज अखिल को ऐसे बेबाक बोलते पहली बार देख रही थी. मैं अखिल को अपलक देखे जा रही थी.

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अखिल फिर बोले, ‘‘आप शायद नहीं जानते कि यह आप लोगों को कितना प्यार करती है? आप लोग सोचते हैं कि इस ने आप की इच्छा के खिलाफ शादी की है तो यह आप लोगों की भूल है. यह आप लोगों को उतना नहीं, उस से भी कहीं ज्यादा प्यार करती है, जितना हमारी शादी से पहले करती थी.

‘‘यह पिछले 2 साल से मेरे साथ रह रही है. मैं इसे भरपूर प्यार देता हूं, कभी किसी बात की तकलीफ नहीं होने देता, फिर भी कभीकभी यह आप लोगों की याद में इतनी बेचैन हो जाती है कि रोने लग जाती है और खानापीना छोड़ कर खुद अपने को आप का गुनाहगार मानती है. कहने को यह आप लोगों से दूर है, पर इस का दिल, इस का मन तो आप लोगों के पास ही है.

‘‘मैं आप सभी से माफी चाहता हूं कि गुस्से व भावना में आ कर मैं आप लोगों को न जाने क्याक्या कह गया. पर मैं क्या करूं…मैं मजबूर था. मैं बीना की बेइज्जती होते नहीं देख सकता क्योंकि मैं बहुत प्यार करता हूं इसे, बहुत ज्यादा. अच्छा, हम चलते हैं…बिन बुलाए आए और आप की खुशियों में खलल डाला इस के लिए माफी चाहते हैं,’’ अखिल बोले और मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘चलो, बीना.’’

हम दोनों चलने के लिए मुड़े ही थे कि शैलेंद्र भैया, जो इतनी देर से चुपचाप अखिल को बोलते देखे जा रहे थे, बोले, ‘‘ठहरो,’’ फिर घर वालों की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘‘पापा, ताऊजी, मैं जानता हूं कि यह बीना का दोष है कि इस ने हमारी इच्छा के खिलाफ जा कर हमारी जाति से अलग जाति के लड़के से शादी की है, पर इस का दोष इतना बड़ा तो नहीं कि हम इसे मरा समझ लें. आखिर इस ने जो भी किया, अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया. इस ने अपने लिए जो लड़का पसंद किया है वैसा तो शायद आपहम भी नहीं ढूंढ़ सकते थे.

‘‘यह अपने घर वालों का…हम लोगों का प्यार पाने के लिए कितना तड़प रही है. यह हमारा प्यार पाने के लिए पति के साथ अपने मानसम्मान की परवा न करते हुए यहां आई है ताकि यह अपने भाई को दूल्हा बना देख सके. यह हमारा प्यार पाने के लिए भटक रही है और हम इसे गले लगा कर प्यार देने के बजाय दुत्कार रहे हैं, बेइज्जत कर रहे हैं. क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि हम इसे गले लगा कर अपने प्यार के आंचल में भींच लें. जब अखिल पराया हो कर इसे प्यार से रख सकता है, तो हम लोग इतने गएगुजरे तो नहीं हैं कि इस के अपने हो कर भी इसे प्यार नहीं दे सकते.

‘‘पापा, अगर इस ने नादानी में कोई भूल की है तो हम तो समझदार हैं, हमें इसे माफ कर के गले लगा लेना चाहिए. मैं ने तो इसे कभी का माफ कर दिया था. मैं शायद आप लोगों को यह सब कभी नहीं कह पाता, पर आज जब अखिल को बोलते देखा तो मैं ने सोचा कि जब यह आदमी अपनी पत्नी, जो मात्र 2 बरस से इस के साथ रह रही है, उस की बेइज्जती सहन नहीं कर पाया तो मैं अपनी बहन की बेइज्जती कैसे सहन कर रहा हूं, जो मेरे साथ 20 साल रही है. मैं चाहता हूं कि आप लोग भी बीना को माफ कर दें व इसे गले लगा लें.’’

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मैं ने देखा भैया की आंखें भर आई हैं. फिर मैं ने अपनी ताईताऊजी, मम्मीपापा की तरफ देखा, सभी के चेहरे बुझे हुए थे व सभी की आंखों में आंसू थे. शायद उन पर अखिल की बातों का असर हो गया था. ताईजी व मम्मी, ताऊजी व पापा की तरफ याचिकापूर्ण दृष्टि से देख रही थीं.

अचानक ताऊजी मेरे पास आए और हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हें समझने में भूल की है. मैं तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सका और अपनी ही शान में ऐंठा रहा, पर आज अखिल व शैलेंद्र की बातों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. इन की बातों ने मेरी झूठी शान की अकड़ को मिटा दिया है. हमारा जीवन तुम्हारा गुनाहगार है, हमें माफ कर दो.’’

मैं ताऊजी को यों रोते देख हतप्रभ सी हो गई और मेरे मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे. अखिल ताऊजी और पापा के सामने आए और बोले, ‘‘ताऊजी व पापाजी, आप कैसी बातें करते हैं? बड़े क्या कभी बच्चों से माफी मांगते हैं. माफी तो हमें मांगनी चाहिए आप लोगों से कि हम ने आप को कष्ट दिया. गलती तो हम से हुई है कि हम ने आप लोगों की इच्छा के विरुद्ध कार्य किया. आप तो हम से बड़े हैं, आप का हाथ तो हमें आशीर्वाद देने के लिए है, हमारे सामने हाथ जोड़ने के लिए  नहीं.’’

ताऊजी बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं ने तुम्हें समझने में बड़ी भूल की है. शैलेंद्र ने सही कहा कि बीनू ने तुम्हारे रूप में जो पति पसंद किया है वैसा तो शायद हम सब मिल कर भी नहीं ढूंढ़ पाते. तुम हमारी बेटी की खुशी, उस की ख्वाहिश के लिए अपने मानसम्मान की परवा किए बगैर यहां आ गए और हम ने तुम दोनों का आदरसत्कार करने के बजाय बेइज्जत किया. तुम्हारी भावनाओं को, तुम्हारे प्रेम को नहीं समझा बल्कि अपनी रौ में बह कर तुम्हें तवज्जुह नहीं दी. हमारा परिवार वाकई तुम दोनों का गुनाहगार है. हमें माफ कर दो. मैं व हरि दोनों अपने घर वालों की तरफ से तुम दोनों से क्षमा चाहते हैं.’’

तभी पापा बोले, ‘‘हां, अखिल बेटे, मेरी गलती को माफ कर दो और यहीं रुक जाओ. यह हमारे घरपरिवार की तरफ से प्रार्थना है. मैं तुम से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं.’’

फिर ताऊजी, पापा, ताईजी व मम्मी सभी मेरे व अखिल के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो कर क्षमा मांगते हुए हमें रोकने लगे. यह देख अखिल बोले, ‘‘अरे, यह आप सब लोग क्या कर रहे हैं? प्लीज, आप लोग अपने बच्चों के सामने हाथ जोड़ कर खड़े न हों. आप लोग हमारे बुजुर्ग हैं. आप लोगों के हाथ तो आशीर्वाद देने के लिए हैं. मैं और बीना कहीं नहीं जाएंगे बल्कि पूरी शादी में खूब मजे करने के लिए यहीं रुकेंगे. यह तो आप लोगों का बड़प्पन है कि आप हम से बिना किसी गलती के माफी मांग रहे हैं.’’

ताऊजी यह सुन कर मुझ से बोले, ‘‘बीनू, वाकई तू ने एक हीरा पसंद किया है. हम ने इसे पहचानने में भूल कर दी थी,’’ फिर वह मेरे पास आ कर बोले, ‘‘क्यों बीना, तू ने मुझे माफ कर दिया या कोई कसर रह गई है. अगर रह गई है तो बेटी, पूरी कर ले. मैं तेरे सामने ही खड़ा हूं.’’

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मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्या ताऊजी आप भी,’’ फिर मैं खुशी से ताऊजी के गले लग गई.

तभी पापा की आवाज आई, ‘‘अरे, बीना, जल्दी इधर आ और शैलेंद्र की आरती कर. देख, देर हो रही है. बाकी रस्में भी करनी हैं. फिर बरात ले कर तेरी भाभी को भी लेने जाना है.’’

मैं पापा की आवाज सुन कर खुशी से कूदती हुई शैलेंद्र भैया की आरती करने गई. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे ग्रहण का हिस्सा जो मेरी जिंदगी पर लग गया.

सुसाइड: भाग 4

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लेखक- सुकेश कुमार श्रीवास्तव

‘‘जी…?’’ रजनी ने हैरानी से कहा. वह कुछ समझ न पाई.

‘‘शरद की हालत इतनी खराब नहीं है. उन की हालत ठीक भी नहीं है. समझ लीजिए कि कैंसर ने अभी दस्तक दी है. अंदर नहीं आया है.’’

‘‘यानी, उन्हें कैंसर नहीं है?’’

‘‘कहना मुश्किल है, पर दवाओं ने असर किया है. मानिए, 5 फीसदी सुधार हुआ है.’’

‘‘तो अभी इन का टैस्ट नहीं होना है?’’

‘‘टैस्टवैस्ट नहीं करना है. वह मैं ने इन्हें डराने के लिए कहा था. ये डर भी गए हैं, अच्छा हुआ. इन्हें पान मसाला या गुटखा खाने से डर लगने लगा है. इस डर ने ही इन्हें गुटखे से 5 दिन दूर रखा है. अब मैं ने इन्हें 5 दिन की दवा और दी है. अगर ये 10 दिन तक गुटखे से दूर रहे, तो गुटखा इन से छूट सकता है.

‘‘यह स्टडी है कि टोबैको ऐडिक्ट अगर 10 दिन तक टोबैको से दूर रहे, और उस की विल पावर स्ट्रौंग हो तो टोबैको की आदत छूट सकती है.’’

‘‘पर, इन का मुंह तो पूरा नहीं खुल पा रहा है.’’

‘‘देखिए मिसेज शरद, हर गंभीर बीमारी अपने आने का संकेत देती है और संभलने का मौका भी देती है. माउथ कैंसर का भी यही हाल है. पहली दस्तक मुंह का न खुलना या कम खुलना है. उन की यह हालत 2-3 महीने से होगी. यह फर्स्ट स्टेज है.

‘‘फिर आता है, मुंह का छाला. एक या 2 छाले. ये छाले होने के 5 या 6 दिनों में अपनेआप ठीक हो जाते हैं. इन में कोई दर्द वगैरह भी नहीं होता. 10-15 दिनों के बाद एकाध छाला और होता है और ठीक हो जाता है. इसे आप सैकंड स्टेज समझिए. यहां तक लोग इस की सीरियसनैस नहीं समझते.

फिर आती है, थर्ड स्टेज. एकसाथ कई छाले होते हैं. ये सूखते नहीं हैं. इन में घाव हो जाते हैं और अंदर ही इन में पस पड़ जाती है.

‘‘इस के बाद आती है, लास्ट स्टेज. जब छाले का घाव गाल के दूसरी तरफ यानी बाहरी तरफ आ आता है. यह स्टेज बहुत तेजी से आती है और घाव व कैंसर सेल की ग्रोथ गाल से गले तक हो जाती है. यह लाइलाज है.’’

‘‘यानी, ये सैकंड स्टेज पर पहुंच गए थे.’’

‘‘कह सकते हैं. सैकंड स्टेज की प्राइमरी स्टेज पर.’’

‘‘इस का इलाज क्या है?’’

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‘‘सैकंड स्टेज तक ही इलाज किया जाता है. थर्ड स्टेज आने पर आपरेशन कभीकभी कामयाब होता है. फोर्थ स्टेज लाइलाज है. इस का एक ही इलाज है. पहली स्टेज होते ही तंबाकू से परहेज, खासकर पान मसाला या गुटखा से. 1, 2 या 5 रुपए के गुटखे में क्वालिटी की उम्मीद आप कैसे कर सकते हैं. यह सामान्य सी बात लोग क्यों नहीं समझते. फिर इस के बनाने वाले इसी 1-2 रुपए से करोड़पति हो जाते हैं और सरकारें हजारों करोड़ टैक्स से भी कमा लेती हैं. 2 रुपए के पाउच की क्वालिटी शायद 20 पैसे की भी नहीं होती.’’

‘‘जब ऐसा है, तो सरकार इसे रोक क्यों नहीं देती?’’

‘‘छोडि़ए. यह बड़ी बहस की बात है.’’

‘‘तो ये बच सकते हैं?’’

‘‘शरद बाबू बच जाएंगे, बशर्ते ये तंबाकू से दूर रहें.

रजनी से रहा न गया. उस ने सिर पर आंचल रख लिया और उठ कर डाक्टर साहब के पैर छू लिए.

‘‘अरे… यह आप क्या कर रही हैं. उठिए.’’

‘‘आप… आप डाक्टर नहीं हैं…’’ रजनी की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘बड़ी हत्यारी चीज है यह गुटखा मिसेज शरद…’’ डाक्टर साहब गमगीन हो गए. ‘‘मैं ने अपना बेटा खोया है. मैं… मैं उसे बचा नहीं पाया. उस का चेहरा देखने लायक नहीं रहा था.

‘‘हां बेटी, मेरा बेटा भी पान मसाला खाता था. एक दिन एकएक डब्बा खा जाता था. यह चीज ही ऐसी है, जो गरीबअमीर, ऊंचानीचा कुछ नहीं देखती है. बस इसलिए मैं अपने को रोक नहीं पाता हूं. आउट औफ द वे जा कर भी कोशिश करता हूं कि इस से किसी को बचा सकूं.’’

रजनी कुछ कह न सकी. बस एकटक डाक्टर को देखती रही, जो अब एक गमगीन पिता लग रहे थे.

‘‘अब तुम जाओ और वैसा ही करो, जैसा मैं ने कहा है. याद रखना, शरदजी को ठीक करने में जितनी मेरी कोशिश है, उतनी ही जिम्मेदारी तुम्हारी भी है. जाओ और अपनी गृहस्थी, अपने परिवार को बचाओ.’’

रजनी बाहर आ गई. शरद बेचैन हो रहा था.

‘‘क्या कह रहे थे डाक्टर साहब?’’ बाहर आते ही उस ने पूछा.

‘‘चलो, घर चल कर बात करते हैं,’’ रजनी ने गमगीन लहजे में कहा. वे रिकशा से ही आए थे, रिकशा से ही वापसी हुई.

‘‘अब तो बताओ. क्या डाक्टर साहब ने बता दिया है कि मेरे पास कितने दिन बचे हैं?’’

‘‘तुम कैंसर की सैकंड स्टेज पर पहुंच गए हो…’’ रजनी ने साफसाफ कह दिया, ‘‘अब अगर तुम गुटखा खाओगे, तो लास्ट स्टेज पर पहुंचोगे. फिर कोई इलाज नहीं होगा.’’

‘‘अरे, गुटखे का तो अब नाम न लो. अब तो मैं गुटखे की तरफ देखूंगा भी नहीं. अभी कोई इलाज है क्या?’’

‘‘अभी डाक्टर साहब ने साफसाफ नहीं बताया है. 10 दिन बाद बताएंगे. तुम्हें पूरा आराम करना होगा. तुम्हें छुट्टी बढ़ानी होगी.’’

‘‘मैं कल ही एक महीने की छुट्टी बढ़ा दूंगा.’’

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शरद ने एक महीने की छुट्टी बढ़ा दी, पर उसे 2 महीने लग गए.

शरद के औफिस जौइन करने से 2 दिन पहले औफिस के सभी कुलीग उस से मिलने घर आए. सभी खुश थे. तभी रजनी ने प्रस्ताव रखा कि शरद के ठीक होने की खुशी में कल यानी रविवार को सभी सपरिवार रात के खाने पर उन के यहां आएं. सभी ने तालियां बजा कर सहमति दी.

‘‘पर, भाभीजी हमारी एक शर्त है,’’ नीरज ने कहा.

‘‘बताइए नीरजजी?’’ रजनी ने मुसकरा कर कहा.

‘‘हमारी भी एक शर्त है…’’ नीरज ने नाटकीयता से कहा, ‘‘कि सभी अतिथितियों का स्वागत पान मसाले से किया जाए.’’

यह सुन कर वहां सन्नाटा पसर गया.

‘‘भाड़ में जाओ…’’ तभी शरद ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मेरे सामने कोई पान मसाले से स्वागत तो क्या कोई पान मसाले का नाम भी न ले. पार्टीवार्टी भी जाए भाड़ में.’’

‘‘अरे… अरे… गलती हो गई भाभीजी. पान मसाले से नहीं, बल्कि हमारी शर्त है कि अतिथियों का स्वागत शरबत के गिलासों से किया जाए.’’

‘‘मंजूर है,’’ रजनी ने कहा तो सभी की हंसी गूंज उठी. शरद की भी, क्योंकि अब उस का मुंह पूरा खुल रहा था.

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सुसाइड: भाग 1

बड़ी जिम्मेदारियां थीं शरद के ऊपर. अभी उस की उम्र ही क्या थी. महज 35 साल. रजनी सिर्फ 31 साल की थी और सोनू तो अभी 3 साल का ही था. उस ने जेब में हाथ डाल कर गुटखे के दोनों पाउच को सामने ही रखे बड़े से डस्टबिन में फेंक दिया.

‘देखिए, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता…’ शरद को लगा, जैसे डाक्टर का कहा उस के जेहन में गूंज रहा हो, ‘अगर दवाओं से आराम हो गया तो ठीक है, नहीं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. मुंह पूरा नहीं खुल पा रहा है. अगर आराम नहीं हुआ तो कुछ टैस्ट कराने पड़ेंगे. 5 दिन की दवा दे रहा हूं, उस के बाद दिखाइएगा.’

तब सोनू पैदा नहीं हुआ था. रजनी के मामा के लड़के की शादी थी. शरद की खुद की शादी को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था. शादी के बाद ससुराल में पहली शादी थी. उन्हें बड़े मन से बुलाया गया था.

रजनी के मामाजी का घर बिहार के एक कसबेनुमा शहर में था. रजनी के पिताजी, मां, भाई व बहन भी आ ही रहे थे. दफ्तर में छुट्टी की कोई समस्या नहीं थी, इसलिए शरद ने भी जाना तय कर लिया था. ट्रेन सीधे उस शहर को जाती थी. रात में चल कर सुबहसुबह वहां पहुंच जाती थी, पर ट्रेन लेट हो कर 10 बजे पहुंची.

स्टेशन से ही आवभगत शुरू हो गई. उन्हें 4 लोग लेने आए थे. उन्हीं में थे विनय भैया. थे तो वे शरद के साले, पर उम्र थी उन की 42 साल. खुद ही बताया था उन्होंने. वे रजनी के मामाजी के दूर के रिश्ते के भाई के लड़के थे.

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वे खुलते गेहुंए रंग के जरा नाटे, पर मजबूत बदन के थे. सिर के बाल घने व एकदम काले थे. उन की आंखें बड़ीबड़ी व गोल थीं. वे बड़े हंसमुख थे और मामाजी के करीबी थे.

‘आइए… आइए बाबू…’ उन्होंने शरद को अपनी कौली में भर लिया, ‘पहली बार आप हमारे यहां आ रहे हैं. स्वागत है. आप बिहार पहली बार आ रहे हैं या पहले भी आ चुके हैं?’

‘जी, मैं तो पहली बार ही आया हूं साहब,’ शरद ने भी गर्मजोशी से गले मिलते हुए अपना हाथ छुड़ाया.

‘अरे, हम साहब नहीं हैं जमाई बाबू…’ उन के मुंह में पान भरा था, ‘हम आप के साले हैं. नातेरिश्तेदारी में सब से बड़े साले. नाम है हमारा विनय बाबू. उमर है 42 साल. सहरसा में अध्यापक हैं, पर रहते यहीं हैं. कभीकभार वहां जाते हैं.’

‘आप अध्यापक हैं और स्कूल नहीं जाते?’ शरद ने हैरानी से कहा.

‘अरे, स्कूल नहीं कालेज जमाई बाबू…’ उन्होंने जोर से पान की पीक थूकी, ‘हां, नहीं जाते. ससुरे वेतन ही नहीं देते. चलिए, अब तो आप से खूब बातें होंगी. आइए, अब चलें.’

तब तक साथ आए लोगों ने प्रणाम कर शरद का सामान उठा लिया था. वे स्टेशन से बाहर की ओर चले.

‘आप किस विषय के अध्यापक हैं?’ शरद ने चलतेचलते पूछा.

‘हम अंगरेजी के अध्यापक हैं…’ उन्होंने गर्व से बताया, ‘हाईस्कूल की कक्षाएं लेता हूं जमाई बाबू.’

स्टेशन के बाहर आ कर सभी तांगे से घर पहुंचे. शरद का सभी रिश्तेदारों से परिचय हुआ.

तब शरद को पता चला कि विनय भैया नातेरिश्ते में होने वाले शादीब्याह के अभिन्न अंग हैं. वे हलवाई के पास बैठते थे. विनय भैया सुबह से शाम तक हलवाइयों के साथ लगे रहते थे.

दूसरे दिन विनय भैया आए.

‘आइए जमाई बाबू…’ विनय भैया बोले, ‘आप बोर हो गए होंगे. आइए, जरा आप को बाहर की हवा खिलाएं.’

सुबह का नाश्ता हो चुका था. शरद अपने कमरे में अकेला बैठा था. वह तुरंत उठ खड़ा हुआ. घर से बाहर निकलते ही विनय भैया ने नाली में पान थूका.

‘आप पान बहुत खाते हैं विनय भैया,’ शरद से रहा नहीं गया.

‘बस यही पान का तो सहारा है…’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘खाना चाहे एक बखत न मिले, पर पान जरूर मिलना चाहिए. आइए, पान खाते हैं.’

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वे उसे आगे मोड़ पर बनी पान की दुकान की ओर ले चले.

‘मगही पान लगाओ. चूना कम, भीगी सुपारी, इलायची और सादा पत्ती. ऊपर से तंबाकू,’ उन्होंने पान वाले से कहा.

‘आप कैसा पान खाएंगे जमाई बाबू?’ उन्होंने उस से पूछा.

‘मैं पान नहीं खाता,’ शरद बोला.

‘अरे, ऐसा कहीं होता है. पान खाने वाली चीज है, न खाने वाली नहीं जमाई बाबू.’

‘सच में मैं पान नहीं खाता, पर चलिए, मैं मीठा पान खा लूंगा.’

‘मीठा पान तो औरतें खाती हैं, बल्कि वे भी जर्दा ले लेती हैं.’

‘नहीं, मैं जर्दातंबाकू बिलकुल नहीं खाता.’

‘अच्छा भाई, जमाई बाबू के लिए जनाना पान लगाओ.’

पान वाले ने पान में मीठा डाल कर दिया.

वे वापस आ कर हलवाई के पास पड़ी कुरसियों पर बैठ गए और हलवाई से बातें करने लगे. आधा घंटा बीत गया.

तभी विनय भैया ने एक लड़के से कहा, ‘अबे चिथरू, जा के 2 बीड़ा पान लगवा लाओ. बोलना विनय बाबू मंगवाए हैं.’

वह लड़का दौड़ कर गया और पान लगवा लाया.

‘लीजिए जमाई बाबू, पान खाइए. अबे, जमाई बाबू वाला पान कौन सा है?’

‘आप पान खाइए…’ शरद ने कहा, ‘मेरी आदत नहीं है.’

‘चलो तंबाकू अलग से दिए हैं…’ विनय बाबू ने पान चैक किए, ‘लीजिए. यह तो सादा चूनाकत्था है. जरा सी सादा पत्ती डाल देते हैं.’

‘नहीं विनय भैया, मु झे बरदाश्त नहीं होगी.’

‘अरे, क्या कहते हैं जमाई बाबू? सादा पत्ती भी कोई तंबाकू होती है क्या. वैसे जर्दातंबाकू खाना तो मर्दानगी की निशानी है. सिगरेट आप पीते नहीं, दारू वगैरह को तो सुना है, आप हाथ भी नहीं लगाते. जर्दातंबाकू की मर्दानगी तो यहां बच्चों में भी होती है.’

तब तक विनय बाबू पान में एक चुटकी सादा पत्ती वाला तंबाकू डाल कर उस की तरफ बढ़ा चुके थे. शरद ने उन से पान ले कर मुंह में रख लिया. कुछ नहीं हुआ. मर्दानगी के पैमाने को उस ने पार कर लिया था.

शादी से लौट कर शरद ने पान खाना शुरू कर दिया. बहुत संभाल कर बहुत थोड़ी सी सादा पत्ती व तंबाकू लेने लगा. फिर तो वह कायदे से पान खाने लगा. कुछ नहीं हुआ. बस यह हुआ कि उस के खूबसूरत दांत बदसूरत हो गए.

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एक बार शरद को दफ्तर के काम से एक छोटी सी तहसील में जाना पड़ा. गाड़ी से उतर कर उस ने एक दुकान से पान खाया. पान एकदम रद्दी था. कत्था तो एकदम ही बेकार था. तुरंत मुंह कट गया.

‘बड़ा रद्दी पान लगाया है,’ शरद ने पान वाले से कहा.

‘यहां तो यही मिलता है बाबूजी.’

‘पूरा मुंह खराब कर दिया यार.’

‘यह लो बाबूजी, इस को दबा लो,’ उस ने एक पाउच बढ़ाया.

‘यह क्या है?’

‘यह गुटखा है. नया चला है. इस से मुंह कभी नहीं कटेगा. इस में सुपारी, कत्था, चूना, इलायची सब मिला है. पान से ज्यादा किक देता है बाबूजी.’

शरद ने गुटखे का पाउच फाड़ कर मुंह में डाल लिया.

अपने शहर में आ कर अपनी दुकान से शरद ने पान खाया. आज मजा नहीं आया. उस ने 4 गुटखे ले कर जेब में डाल लिए.

सोतेसोते तक में शरद चारों गुटखे खा गया. सुबह उठते ही ब्रश करते ही गुटखा ले आया. धीरेधीरे उस की पान खाने की आदत छूट गई. खड़े हो कर पान लगवाने की जगह गुटखा तुरंत मिल जाता था. रखने में भी आसानी थी. खाने में भी आसानी थी. परेशानी थोड़ी ही थी. मुंह का स्वाद खत्म हो गया. खाने में टेस्ट कम आता था.

रजनी परेशान हो गई. शरद की सारी कमीजों पर दाग पड़ गए, जो छूटते ही नहीं थे. सारी पैंटों की जेबों में भी दाग थे. उसे कब्ज रहने लगी. पहले उठते ही प्रैशर रहता था, जाना पड़ता था. अब उठ कर ब्रश कर के, चाय पी कर व फिर जब तक एक गुटखा न दबा ले, हाजत नहीं होती थी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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