इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.
ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मु झे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’
उस की विचारशृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़तेघुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को झेल भी रही थी. झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.
लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.
सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.
अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’
वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.
दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.
इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोईर् भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’
फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जूझ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’
तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.
उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.
इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.
जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.
लेखक : केशव राम वाड़दे