Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 1

लेखक-  वीना टहिल्यानी

‘डैड इस समय घर में,’ यह सोच कर ही मिली का दिल बैठ गया. स्कूल से घर लौटने का सारा उत्साह जाता रहा. दिन के दूसरे पहर में, डैड का घर में होने का मतलब है वह बैठ कर पी रहे होंगे.

शराब पी लेने के बाद डैड और भी अजनबी हो जाते हैं. उन के मन के भाव उन की आंखों में उतर आते हैं. तब मिली को डैड से बहुत डर लगता है. सामने पड़ने में उलझन होती है.

मिली ने धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे की ओर डैड की पीठ थी. हाथ में गिलास थामे वह टेलीविजन देख रहे थे. दबेपांव मिली सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में पहुंच गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. बैग को कमरे में एक ओर पटका और औंधेमुंह बिस्तर पर जा पड़ी. कितनी देर तक मिली यों ही लस्तपस्त पड़ी रही.

अचानक मिली को हलका सा शोर सुनाई दिया तो वह चौंक कर उठ बैठी. शायद आंख लग गई थी. नीचे वैक्यूम क्लीनर के चलने की धीमी आवाज आ रही थी.

‘अरे हां,’ मिली के मुंह से अपनेआप बोल फूट पड़े, ‘आज तो फ्राइडे है… साप्ताहिक सफाई का दिन.’ उस ने खिड़की से नीचे झांका तो पोर्च  में मिसेज स्मिथ की छोटी कार खड़ी थी. डैड की गाड़ी गायब थी, शायद वह कहीं निकल गए थे.

मिली ने झटपट ब्लेजर हैंगर में टांगा. जूते रैक पर लगाए और गरम पानी के  बाथटब में जा बैठी.

नहाधो कर मिली नीचे पहुंची तो मिसेज स्मिथ डिशवाशर और वाशिंग मशीन लगा कर साफसफाई में लगी थी.

शुक्रवार को मिसेज स्मिथ के आने से मिली डिशवाशिंग से बच जाती है वरना स्कूल से लौट कर लंच के बाद डिशवाशर लगाना, बरतन पोंछना व सुखाना उसी का काम है.

मिली को बड़े जोर से भूख लग आई तो उस ने फ्रिज खोल कर अपनी प्लेट सजाई और माइक्रोवेव में उसे लगा कर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. सुरमई सांझ बिलकुल बेआवाज थी.

ऐसी खामोशी में मिली का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा और गुजरा समय कितना कुछ आंखों के आगे तिर आया.

बरसों बीत गए. मिली तब यही कोई 5 साल की रही होगी. सब समझते हैं कि मिली सबकुछ भूल चुकी है पर मिली कुछ भी तो नहीं भूल पाई है.

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वह देश, वह शहर और उस की गलियां व घर और इन सब के साथ फरीदा अम्मां की यादें जुड़ी हैं. और उस के ढेरों साथी, बालसखा, उस की यादों में आज भी बने हुए हैं.

तब वह मिली नहीं, मृणाल थी. उस के हुड़दंग करने पर फरीदा अम्मां उसे लंबेलंबे बालों से पकड़तीं और उस की पीठ पर धौल जड़ देतीं. बचपन की बातें सोचते ही मिली को पीठ पर दर्द का एहसास होने लगा और अनायास ही उस का हाथ अपने बौबकट बालों पर जा पड़ा. डाइनिंग टेबल पर मुंह में फिश-चिप्स का पहला टुकड़ा रखते ही मिली की जबान को माछेरझोल का स्वाद याद हो आया और याद आ गईं कोलकाता की छोटीछोटी शामें, बाल आश्रम के गलियारों में गुलगपाड़ा मचाते हमजोली, नाराज होती फरीदा अम्मां, नन्हेमुन्नों को पालने में झुलाती, सुलाती वेणु मौसी.

तब लंबेलंबे गलियारों व बरामदों वाला बाल आश्रम ही उस का घर था. पहली बार स्कूल गई तो घर और आश्रम में अंतर का भेद खुला. साथ ही उसे यह भी पता चला कि उस के मातापिता नहीं थे, वह अनाथ थी.

उस दिन स्कूल से लौट कर अबोध मिली ने पहला प्रश्न यही पूछा था, ‘फरीदा अम्मां, मेरी मां कहां हैं?’

फरीदा बरसों से अनाथाश्रम में काम कर रही थीं. एक नहीं अनेक बार वह इस सवाल का पहले भी सामना कर चुकी थीं. मिली के इस प्रश्न से वह एक बार फिर दुखी व बेचैन हो उठीं. उन के उस मौन पर मिली ने अपने सवाल को नए रूप में दोहराया, ‘फरीदा अम्मां, मेरा घर कहां है? मां मुझे यहां क्यों छोड़ गईं?’

नन्हे सुहेल को गोद में थपकी देते हुए फरीदा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी…’

‘यह मजबूरी क्या होती है, अम्मां?’ उलझन में पड़ी मिली ने एक और प्रश्न किया.

मिली के एक के बाद एक प्रश्नों से फरीदा अम्मां झल्ला पड़ीं. तभी सुहेल जाग कर जोरजोर से रोने लगा था. सहम कर मृणाल ने अपना मुंह फरीदा की गोद में छिपा लिया और सुबकने लगी.

फरीदा ने पहले तो सुहेल को चुप कराया फिर मिली को बहलाया और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘रो मत, बिटिया…मैं जो हूं तेरी मां…चलोचलो, अब हम दोनों मिल कर तुम्हारी किताब का नया पाठ पढ़ेंगे…’

मृणाल को अब खेलतेखाते उठते- बैठते बस एक ही इंतजार रहता कि मां आएगी…उसे दुलार कर गोद में बिठाएगी. स्कूल तक छोड़ने भी चलेगी-सोहम की मां जैसे. विदुला की मम्मी तो उस का बस्ता भी उठा कर लाती हैं…उस की भी मां होतीं तो यही सब करतीं न…पर…पर…वह मुझे छोड़ कर गईं ही क्यों?

फिर एक दिन लंदन से ब्र्र्राउन दंपती एक बच्चा गोद लेने आए और उन्हें मिली उर्फ मृणाल पसंद आ गई. सारी औपचारिकताएं पूरी होने पर काउंसलर उसे पास बैठा कर सबकुछ स्नेह से समझाती हैं:

‘मिली, तुम्हारे मौमडैड आए हैं. वह तुम्हें अपने साथ ले जाएंगे, खूब प्यार करेंगे. खेलने के लिए तुम्हें ढेरों खिलौने देंगे.’

मिली चौंक कर चुपचाप सबकुछ सुनती रही थी. फरीदा अम्मां भी यही सब दोहराती रहीं पर मिली खुश नहीं हो पाई. बाहर से देख कर लगता, मिली बहल गई है पर भीतर ही भीतर तो वह बहुत भयभीत है.

ऐसा पहले भी हो चुका है, कुछ लोग आ कर अपना मनपसंद बच्चा अपने साथ ले जाते हैं. अभी कुछ महीने पहले ही कुछ लोग नन्ही ईना को ले गए थे. ईना कितनी छोटी थी, बिलकुल जरा सी. वह हंसीखुशी उन की गोद में बैठ कर हाथ हिलाती चली गई थी पर मिली तो बड़ी है. सब समझती है कि उस का सबकुछ छूट रहा था. फरीदा अम्मां, घर, स्कूल संगीसाथी.

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मृणाल का रोना फरीदा अम्मां सह नहीं पातीं. आतेजाते अम्मां उसे बांहों में भर कर गले से लगाती हैं, फिर जोर से खिलखिलाती हैं. मिली भी उन का भरपूर साथ देती है, आतेजाते उन की गोद में छिपती है, उन के आंचल से लिपटती है.

जाने का दिन भी आ गया. सारी काररवाई  पूरी हो गई. अब तो बस, नए देश, नए नगर जाना था.

चलने से पहले अंतिम बार फरीदा ने मृणाल को गोद में बैठा कर गले से लगाया तो मिली फुसफुसाते, गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘फरीदा अम्मां, जब मेरी असली वाली मां आएंगी तो तुम उन्हें मेरा पता जरूर दे देना…’ इतना कहतेकहते मिली का गला रुंध गया था.

मिली का इतना कहना था कि फरीदा अम्मां का सब्र का बांध टूट गया और दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपट कर रो पड़ी थीं.

आखिर फरीदा ने ही धीरज धरा. अपनी पकड़ को शिथिल किया. फिर आंचल से आंसू पोंछे. भरे गले से बच्ची को समझाया, ‘जा बेटी, जा…बीती को भूल जा…अब यही तेरे मातापिता हैं… बिलकुल सच्चे…बिलकुल सगे. तू तो बड़ी तकदीर वाली है बिटिया जो तुझे इतना अच्छा घर मिला, अच्छा परिवार मिला… यहां क्या रखा है? वहां अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी, खूब पढ़ेगी और बड़ी हो कर अफसर बनेगी…मेरी बच्ची यश पाए, नाम कमाए, स्वस्थ रहे, सुखी रहे, सौ बरस जिए…जा बिटिया, जा…मुड़ कर न देख, अब निकल ही जा…’ कहतेकहते फरीदा ने उसे गोद से उतारा और मिली उर्फ मृणाल की उंगली मिसेज ब्राउन को पकड़ा दी.

नई मां की उंगली पकड़ कर मिली, मृणाल से मर्लिन बन गई. नया परिवार पा कर कितना कुछ पीछे छूट गया पर यादें हैं कि आज भी साथ चलती हैं. बातें हैं कि भूलती ही नहीं.

घर के लाल कालीन पर पैर रखते ही मिली को लाल फर्श वाले बाल आश्रम के लंबे गलियारे याद आ जाते जिन पर वह यों ही पड़ी रहती थी…बिना चादरचटाई के. उन गलियारों की स्निग्ध शीतलता आज भी उस के पोरपोर में रचीबसी है.

मिली को शुरुआत में लंदन बड़ा ही नीरव लगा था. सड़कों पर कोलकाता जैसी भीड़ नहीं थी और पेड़ भी वहां जो थे हरे भरे न थे. सबकुछ जैसे स्लेटी. मिली को कुछ भी अपना न दिखता. दिल हरदम देश और अपनों के छूटने के दर्द से भरा रहता. मन करता कि कुछ ऐसा हो जाए जो फिर वह वापस वहीं पहुंच जाए.

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मौम उस का भरसक ध्यान रखतीं. खूब दुलार करतीं. डैड कुछ गंभीर से थे. कुछकुछ विरक्त और तटस्थ भी. उसे गोद लेने का मौम का ही मन रहा होगा, ऐसा अब अनुमान लगाती है मिली.

यहां सब से भला उस का भाई जौन है. उस से 8 साल बड़ा. खूब लंबा, ऊंचा, गोराचिट्टा. मिली ने उसे देखा तो देखती ही रह गई.

Mother’s Day Special: मोह का बंधन- भाग 1

लेखक- वनश्री अग्रवाल

वह अपने बेटे सुशांत के पास पहली बार जा रही थीं. 3 महीने पहले ही सुशांत का विवाह अमृता से हुआ था. दोनों बंगलौर में नौकरी करते थे और शादी के बाद से ही मां को बुलाने की रट लगाए हुए थे. एक हफ्ते पहले सुशांत ने अपने प्रोमोशन की खबर देते हुए मां को हवाई टिकट भेजा और कहा कि मां, अब तो आ जाओ. इस पर बीना उस का आग्रह न टाल सकीं. विमान में पहुंचने पर एअर होस्टेस ने सीट तक जाने में बीना की मदद की और सीटबेल्ट लगाने का उन से आग्रह किया. नियत समय पर विमान ने उड़ान भरी तो नीचे का दृश्य बीना को अत्यंत मोहक लग रहा था. छोटेछोटे भवन, कहीं जंगल तो कहीं घुमावदार सड़क और इमारतें…सभी खिलौने जैसे दिख रहे थे. कुछ देर बाद विमान बादलों को चीरता हुआ बहुत ऊपर पहुंच गया.

थोड़ी देर तक तो बीना बाहर देखती रहीं, फिर ऊब कर एक पत्रिका उठा ली और उस के पन्ने पलटने लगीं. तभी उन की नजर एक विज्ञापन पर पड़ी जो उन के ही बैंक की आवासीय ऋण योजना का था. साथ ही उस में छपे एक खुशहाल परिवार का चित्र देख कर उन्हें अपने घरसंसार का खयाल आ गया.

उसे बैंक में नौकरी करते हुए अब 15 साल बीत चुके हैं. परिवार में वह और उस के 3 बेटे हैं और अब तो 2 बहुएं भी आ गई हैं. बड़ा बेटा प्रशांत अमेरिका में कंप्यूटर इंजीनियर है. मंझला सुशांत बंगलौर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है. निशांत सब से छोटा है और लखनऊ में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है.

आज जब वह बच्चों की सफलता के बारे में सोचती हैं तो उन्हें अपने पति आनंद की कमी सहसा महसूस हो उठती है. आज वह जिंदा होते तो कितने खुश होते, अकसर यही खयाल मन में आता है. हृदयाघात ने 12 साल पहले आनंद को उन से छीन लिया था. बैंक की नौकरी, बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारी के बीच पति आनंद की कमी बीना को हमेशा महसूस होती रही पर अब जब बच्चे सक्षम हो कर उन से दूर चले गए हैं तब अकेलेपन का एहसास उन्हें अधिक सालने लगा है.

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कुछ साल पहले तक बीना यही सोच कर आश्वस्त हो जाया करती थीं कि यह स्थिति हमेशा के लिए थोड़े ही रहने वाली है. आफिस के सहकर्मी, नातेरिश्तेदार सभी सलाह देते कि अब तो बेटों की शादियां कर के भरेपूरे परिवार का आनंद उठाएं. इच्छा तो बीना की भी यही होती थी पर उन्हीं लोगों के अनुभवों के कारण उन की सोच बदलने लगी.

आफिस के मेहताजी का उदाहरण बीना को भीतर तक हिला गया था. अपने बेटे की शादी तय होने पर पूरे आफिस में मिठाई बांटते हुए उन्होंने कहा था कि अब वह रिटायरमेंट ले कर गृहस्थी का सुख भोगेंगे. बड़े चाव से उन्होंने सब को शादी का न्योता दिया और महल्ले भर में दिल खोल कर मिठाई बांटी पर महीना बीततेबीतते मेहताजी के चेहरे की चमक जा चुकी थी. पता चला कि अपना मकान उन्होंने उपहारस्वरूप जिस बेटेबहू के नाम कर दिया था, उन्होेंने ही अपने मातापिता को घर से निकालने में ज्यादा समय नहीं लगाया था.

उन की अपनी ननद सरिता की कहानी भी कम दुखदायी नहीं थी. उन के बेटे अमन को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजते समय बीना ने ही अपने बैंक  से ऋण की व्यवस्था करवाई थी. अमन जो एक बार गया तो अपनी बहन अमिता की शादी पर भी न आ सका. अमिता ने अपने गहनों के शौक के आगे मातापिता की तंग आर्थिक स्थिति की बिलकुल परवा न की. बीना ने सरिता जीजी को चेताने की दबी हुई सी कोशिश की थी पर बेटी के मोह के कारण उन्होंने अपनी हैसियत से बढ़ कर शादी में खर्च किया.

2 महीने बाद जीजाजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी. जीजी ने बच्चों को बुलावा भेजा, अमन तो आफिस से छुट्टी नहीं ले पाया और अमिता ने अपने विदेश भ्रमण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जरूरी न समझा. बीमार पिता तो कुछ दिनों में ठीक होने लगे पर जीजी को जो आघात मोह के बंधन के टूटने से लगा, उस से वह कभी उबर न सकीं.

आएदिन रिश्तों में आती कड़वाहट के किस्सों के चलते बीना ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि चाहे जो हो जाए, वह मोह के बंधनों में नहीं बंधेंगी. न होगा बंधन, न रहेगा उस के टूटने का भय और उस के नतीजे में होने वाली वेदना. यद्यपि बीना जानती थीं कि उन के बेटे उन्हें बहुत प्यार करते हैं पर कल किस ने देखा है. एक अनजान भविष्य के अनचाहे डर ने धीरेधीरे उन्हें स्वयं में एक तटस्थ नीरवता लाना सिखला दिया.

पारिवारिक बिखराव का एहसास बीना को पहली बार तब हुआ जब प्रशांत के लिए दिल्ली के एक संभ्रांत परिवार का रिश्ता आया. बीना के मन में नई उमंगें जागने लगीं पर प्रशांत की न्यूयार्क जा कर पढ़ाई करने की जिद के आगे उन्होंने सिर झुका दिया. वह मान तो गईं पर मन में कुछ बुझ सा गया.

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पढ़ाई के बाद प्रशांत ने वहीं की एक फर्म में नौकरी का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया. आफिस में ही उस की मुलाकात जूही से हुई थी और उस ने विवाह करने का मन बना लिया. बीना ने भी स्वीकृति देने में देर नहीं की थी. शादी दिल्ली में हुई पर वीसा की बंदिशों के चलते 2 दिन बाद ही दोनों अमेरिका लौट गए. बीना के सारे अरमान उस के दिल में ही रह गए.

इस के साल भर बाद सुशांत ने एक दिन बताया कि उसे बंगलौर में नौकरी मिल गई है. सुन कर बीना थोड़ी अनमनी तो हुईं पर शीघ्र ही खुद को संयत कर के सुशांत को विदा कर दिया.

दीवाली पर सुशांत घर आया. बातोंबातों में उस ने अमृता का जिक्र किया कि दोनों ने मुंबई में एमबीए की पढ़ाई साथ में की थी और अब शादी करना चाहते हैं. बीना ने सहर्ष हामी भर दी.

Mother’s Day Special- बहू-बेटी: भाग 1

लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाडू बुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

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रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

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हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

Serial Story: बच्चों की भावना- भाग 1

‘‘अकी, बेटा उठो, सुबह हो गई, स्कूल जाना है,’’ अनुभव ने अपनी लाडली बेटी आकृति को जगाने के लिए आवाज लगानी शुरू की.

‘‘हूं,’’ कह कर अकी ने करवट बदली और रजाई को कानों तक खींच लिया.

‘‘अकी, यह क्या, रजाई में अब और ज्यादा दुबक गई हो, उठो, स्कूल को देर हो जाएगी.’’

‘‘अच्छा, पापा,’’ कह कर अकी और अधिक रजाई में छिप गई.

‘‘यह क्या, तुम अभी भी नहीं उठीं, लगता है, रजाई को हटाना पड़ेगा,’’ कह कर अनुभव ने अकी की रजाई को धीरे से हटाना शुरू किया.

‘‘नहीं, पापा, अभी उठती हूं,’’ बंद आंखों में ही अकी ने कहा.

‘‘नहीं, अकी, साढ़े 5 बज गए हैं, तुम्हें टौयलेट में भी काफी टाइम लग जाता है.’’

यह सुन कर अकी ने धीरे से आंखें खोलीं, ‘‘अभी तो पापा रात है, अभी उठती हूं.’’

अनुभव ने अकी को उठाया और हाथ में टूथब्रश दे कर वाशबेसन के आगे खड़ा कर दिया.

सर्दियों में रातें लंबी होने के कारण सुबह 7 बजे के बाद ही उजाला होना शुरू होता है और ऊपर से घने कोहरे के कारण लगता ही नहीं कि सुबह हो गई. आकृति की स्कूल बस साढ़े 6 बजे आ जाती है. वैसे तो स्कूल 8 बजे लगता है, लेकिन घर से स्कूल की दूरी 14 किलोमीटर तय करने में बस को पूरा सवा घंटा लग जाता है.

जैसेतैसे अकी स्कूल के लिए तैयार हुई. फ्लैट से बाहर निकलते हुए आकृति ने पापा से कहा, ‘‘अभी तो रात है, दिन भी नहीं निकला. मैं आज स्कूल जल्दी क्यों जा रही हूं.’’

‘‘आज कोहरा बहुत अधिक है, इसलिए उजाला नहीं हुआ, ऐसा लग रहा है कि अभी रात है, लेकिन अकी, घड़ी देखो, पूरे साढ़े 6 बज गए हैं. बस आती ही होगी.’’

कोहरा बहुत घना था. 7-8 फुट से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था. सड़क एकदम सुनसान थी. घने कोहरे के बीच सर्द हवा के झोंकों से आकृति के शरीर में झुरझुरी सी होती और इसी झुरझुराहट ने उस की नींद खोल दी. अपने बदन को बे्रक डांस जैसे हिलातेडुलाते वह बोली, ‘‘पापा, लगता है, आज बस नहीं आएगी.’’

‘‘आप को कैसे मालूम, अकी?’’

‘‘देखो पापा, आज स्टाप पर कोई बच्चा नहीं आया है, आप स्कूल फोन कर के मालूम करो, कहीं आज स्कूल में छुट्टी न हो.’’

‘‘आज छुट्टी किस बात की होगी?’’

‘‘ठंड की वजह से आज छुट्टी होगी. इसलिए आज कोई बच्चा नहीं आया. देखो पापा, इसलिए अभी तक बस भी नहीं आई है.’’

‘‘बस कोहरे की वजह से लेट हो गई होगी.’’

‘‘पापा, कल मोटी मैडम शकुंतला राधा मैडम से बात कर रही थीं कि ठंड और कोहरे के कारण सर्दियों की छुट्टियां जल्दी हो जाएंगी.’’

‘‘जब स्कूल की छुट्टी होगी तो सब को मालूम हो जाएगा.’’

‘‘आप ने टीवी में न्यूज सुनी, शायद आज से छुट्टियां कर दी हों.’’

आकृति ही क्या सारे बच्चे ठंड में यही चाहते हैं कि स्कूल बंद रहे, लेकिन स्कूल वाले इस बारे में कब सोचते हैं. चाहे ठंड पहले पड़े या बाद में, छुट्टियों की तारीखें पहले से तय कर लेते हैं. ठंड और कोहरे के कारण न तो छुट्टियां करते हैं न स्कूल का टाइम बदलते हैं. सुबह के बजाय दोपहर का समय कर दें, लेकिन हम बच्चों की कोई नहीं सुनता है. सुबहसुबह इतनी ठंड में बच्चे कैसे उठें. आकृति मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

तभी 3-4 बच्चे स्टाप पर आ गए. सभी ठंड में कांप रहे थे. बच्चे आपस में बात करने लगे कि मजा आ जाएगा यदि बस न आए. तभी एक बच्चे की मां अनुभव को संबोधित करते हुए बोलीं, ‘‘भाभीजी के क्या हाल हैं. अब तो डिलीवरी की तारीख नजदीक है. आप अकेले कैसे मैनेज कर पाएंगे. अकी की दादी या नानी को बुलवा लीजिए. वैसे कोई काम हो तो जरूर बताइए.’’

‘‘अकी की नानी आज दोपहर की टे्रन से आ रही हैं,’’ अनुभव ने उत्तर दिया.

तभी स्कूल बस ने हौर्न बजाया, कोहरे के कारण रेंगती रफ्तार से बस चल रही थी. किसी को पता ही नहीं चला कि बस आ गई. बच्चे बस में बैठ गए. सभी पेरेंट्स ने बस ड्राइवर को बस धीरे चलाने की हिदायत दी.

बस के रवाना होने के बाद अनुभव जल्दी से घर आया. स्नेह को लेबर पेन शुरू हो गया था, ‘‘अनु, डाक्टर को फोन करो. अब रहा नहीं जा रहा है,’’ स्नेह के कहते ही अनुभव ने डाक्टर से बात की. डाक्टर ने फौरन अस्पताल आने की सलाह दी.

अनुभव कार में स्नेह को नर्सिंग होम ले गया. डाक्टर ने चेकअप के बाद कहा, ‘‘मिस्टर अनुभव, आज ही आप को खुशखबरी मिल जाएगी.’’

अनुभव ने अपने बौस को फोन कर के स्थिति से अवगत कराया और आफिस से छुट्टी ले ली. अनुभव की चिंता अब रेलवे स्टेशन से आकृति की नानी को घर लाने की थी. वह सोच रहा था कि नर्सिंग होम में किस को स्नेह के पास छोड़े.

आज के समय एकल परिवार में ऐसे मौके पर यह एक गंभीर परेशानी रहती है कि अकेला व्यक्ति क्याक्या और कहांकहां करे. सुबह आकृति को तैयार कर के स्कूल भेजा और फिर स्नेह के साथ नर्सिंग होम. स्नेह को अकेला छोड़ नहीं सकता, मालूम नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए.

आकृति की नानी अकेले स्टेशन से कैसे घर आएंगी. घर में ताला लगा है. नर्सिंग होम के वेटिंगरूम में बैठ कर अनुभव का मस्तिष्क तेजी से चल रहा था कि कैसे सबकुछ मैनेज किया जाए. वर्माजी को फोन लगाया और स्थिति से अवगत कराया तो आधे घंटे में मिसेज वर्मा थर्मस में चाय, नाश्ता ले कर नर्सिंग होम आ गईं.

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 1

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

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‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

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घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 2

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

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अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

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‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

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‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 2

लेखिका- डा. शशि गोयल

‘‘चल री चल,’’ कह कर रानी काकी ने बच्चा ले लिया. वह तो पड़ोस की कांता का बच्चा था. वह बरतन करने जाती थी. कभीकभी वह रख लेती, ‘‘अरे, कहां लिए डोलेगी. छोड़ जा मेरे पास.’’

कांता को 2-3 घंटे लगते, तब तक वह चौराहे पर आ जाती. कभी देर हो जाती तो रानी काकी कांता से कह देती, ‘‘अरे, पार्क में ले गई थी. सब बच्चे खेल रहे थे.’’

आज की घटना से रानी काकी का दिल जोर से धड़क उठा. वह तो नक्षत्र सीधे थे, नहीं तो मर लेती. उसे अपने पास अफीम भी रखनी पड़ती थी, नहीं तो सारे दिन रिरियाते बच्चों को कहां तक संभाले. बच्चा सोता रहे. जरा सा हिलते ही जरा सी अफीम चटा दो… कई घंटे की हो गई छुट्टी.

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मगर, रानी काकी जब बच्चे को कंधे पर लगाएलगाए थक जाती है, तो श्यामा ताई की झोंपड़ी में ही सुस्ताने आ जाती है. वहीं सत्ते ने सुना कि क्वार्टर की मास्टरनी का बच्चा भी कभीकभी उस की नौकरानी दे देती है. मास्टरनी स्कूल में पढ़ाए और सारा दिन बच्चा रानी काकी की बहन के पास रहे. 1-2 दिन उसे भी रानी काकी लाई, पर उस का रंगरूप गरीबों का सा बनाना पड़ा. कुछ भी हो, इतने साफसुथरे रंगरूप का सलोना बच्चा ले कर पकड़ी जाती तो मैले कपड़े पहनाने, मिट्टी का लेप लगाना सब भारी पड़ता… और अब खुद का ही छठा महीना चल रहा है… बच्चा गोद ले कर चलने में उपदेश ज्यादा मिलते हैं, ‘‘एक पेट में, एक गोद में, भीख मांगती घूम रही है. शर्मलिहाज है कुछ… क्या भिखारी बनाएगी इन्हें भी…’’

अब पैसा देना हो तो दो, उपदेश चाहिए नहीं… सारा दिन हाड़ पेल के क्या दे दोगी 100 रुपए रोज, पर यहां तो 500 रुपए तक मिल जाते हैं. कपड़ेलत्ते अलग… सर्दी में कंबल, ऊनी कपड़े… ऐसी दयामाया तो रखती नहीं, उपदेश दे रही हैं.

एक बार तो श्यामा ताई फंस ही गई. सर्किल के मंदिर पर मकर संक्रांति पर एक के बाद एक दानदाता आ रहे थे. खिचड़ी की पोटली सरकाई कि फटने लगी. वह पीछे बैंच पर रख कर उन के नीचे कंबलकपड़े बांध कर सरका रही थी कि एक संस्था की बहनजी कंबल बांटती आईं और बोलीं, ‘‘अरे, यहां तो बहुत कंबल बंटे हैं. देखो, एकएक के पास कितने कंबल हैं.’

वे बहनजी मुंह फाड़े देख रही थीं. ‘कहांकहां’ कहते हुए श्यामा ताई ने ही बात संभाली, ‘‘अरे, सब के हैं. अकेले मेरे तो नहीं हैं. सब रखवा गए हैं…’’

श्यामा को एक बार में 5 कंबल मिल गए थे, जो एकदम दिख रहे थे. वे बहनजी तो चली गईं, पर सब भिखारी श्यामा पर पिल पड़े.

रात को श्यामा ताई का लड़का मोपेड पर आता था. जींस और टीशर्ट पहने हुए. सर्दी में जैकेट. उस की जेब में काला चश्मा रहता, जिसे कभीकभी सत्ते लगा कर देखता और झोंपड़ी में लटके आईने में अपनी शक्ल देखता. वह लड़का सारी चिल्लर और कपड़े ले जाता. खर्चे के लिए श्यामा ताई के पास कुछ पैसे छोड़ जाता. श्यामा देने में नानुकर करती, तो लड़का धमकाता कि कुटाई कर देगा और कई बार कर भी देता था और सब छीन कर ले जाता था.

सत्ते उस समय यही सोचता कि वह भी ऐसे कपड़े पहन कर घूमेगा. श्यामा ताई तो बूढ़ी हो जाएगी, इसलिए मन ही मन मनाता कि बूढ़ी के बेटे का ऐक्सिडैंट हो जाए तो हमारा पैसा हमारा होगा. कैसे वह मोपेड को तेजी से चलाता है. कभीकभी वह भी उस लड़के के साथ मोपेड पर घूम आता, पर अब फुरसत मुश्किल से मिलती है. कोई न कोई दिन रहता है देवीदेवताओं का तो श्यामा ताई शाम को भी सब को लाइन में बिठा देती?है. पहले बस मंगलवार को हनुमान के मंदिर जाते थे तो बूंदी से थैली भर जाती थी और बाकी दिन शाम 6 बजे के बाद नहाधो कर अच्छे कपड़े पहन कर सब पार्क में जाते थे और खेलते थे, पर अब तो हर दिन मंदिर में भीड़ रहती है.

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वीरवार को साईं बाबा की तसवीर तश्तरी पर लगा कर चौराहे पर भागते हैं. लोग हाथ तो जोड़ते ही हैं, श्रद्धा से पैसे भी चढ़ा देते हैं. सोमवार को शंकर या किसी देवी और बुधवार को गणेश के मंदिर में.

‘‘शनिवार को छोटीछोटी बालटी ले कर दौड़ते रहते हैं. तेल जमा करना होता है. श्यामा ताई थोड़ा तेल अपने पास रखती है, बाकी पास में ठेले पर समोसेकचौड़ी वाले को बेच आती है. पैसे उस ने गद्दे के नीचे जेब बना कर छिपाने शुरू कर दिए हैं.

रात को लड़का आ कर तेल मांगता तो श्यामा ताई थोड़े से तेल को दिखा देती, ‘‘अब क्या लोग तेल ले कर चलते हैं. वे तो मंदिर में चढ़ाते हैं. रखा है बालटी में.’’

भुनभुनाता लड़का बोतल में तेल डाल कर चिकनाए पैसे थैली में डाल कर चला जाता. पानी में डाल कर रखे सिक्कों को श्यामा ताई कपड़े से रगड़रगड़ कर पोंछ देती.

‘‘ताई, हलदीतेल देना,’’ कहते हुए सत्ते ने पैर की पट्टी खोली.

‘‘क्या हुआ?’’ श्यामा ताई ने कहते हुए हलदीतेल निकाल कर दिया, ‘किसी से टकरा गया क्या?’

Mother’s Day Special: सपने में आई मां

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 1

लेखिका- डा. शशि गोयल

सुबह 10 बजे के आसपास वे सब सड़क के नुक्कड़ के पेड़ के नीचे बनी तिरपाल वाली झोंपड़ी में आ जाते थे. वे उस के अंदर रखे फटे और गंदे कपड़े पहनते थे.

श्यामा ताई एक कटोरे में कोयला पीस कर मिलाई मिट्टी तैयार रखती थी. वे अपने हाथपैरों में मल कर सूखे कपड़े से पोंछ लेते तो संवलाया, मटमैला सा शरीर हो जाता और सभी अपनेअपने ठिकानों पर पहुंच जाते.

सत्ते के हाथ में गंदा सा फटा कपड़ा रहता. बड़ा चौराहा था. चौराहे पर जो बच्चों वाली गाड़ी दिखती, उस पर जाना उसे अच्छा लगता. गाड़ी पर कपड़ा फेरता, रिरियाती हुई आवाज निकालता, ‘‘देदे… मां कुछ पैसे… भैयाजी…’’

कोईकोई तो उसे झिड़क भी देता, ‘‘गाड़ी और गंदी कर देगा, भाग…’’ तो वह सारी दीनता चेहरे पर ला कर… गाड़ी में देखता जाता… उत्सुकता रहती कि बच्चे क्या कर रहे हैं, उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं.

ज्यादातर बच्चे मोबाइल फोन पर लगे होते. उस की ओर एक आंख देखते और फिर उन की उंगलियां तेजी से मोबाइल फोन पर चलने लगतीं.

सत्ते का हाथ बारबार माथे को छू कर उन्हें सलाम करता. कभीकभी बच्चों के हाथ में अधखाए चिप्स के पैकेट होते, जिन्हें खाखा कर वे अघाए होते तो उसे पकड़ा देते. कभीकभी बर्गर वगैरह भी मिल जाते, जिन्हें वह झाड़ी के पास बैठ कर खा जाता. श्यामा ताई न देख ले. सनी, जुगल, रुकमा उस के दोस्त थे, वे भी आ जाते.

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श्यामा ताई वहीं पेड़ के नीचे से उन पर निगाह रखती थी. कम से कम 50 गज की दूरी थी, पर वह देख लेती कि किस ने नोट दिया या सिक्के. पांचों लड़कों पर निगाह रखती, ‘‘टांग तोड़ दूंगी. अपाहिज बना कर बिठा दूंगी. कोशिश भी मत करना मुझे धोखा देने की.’’

श्यामा ताई जब चाहती, साहबों की सी बोली बोलने लगती और चाहे जब वह झोंपड़पट्टी की बोली बोलने लगती. उस में चुनचुन कर गालियां होतीं. साथ ही, सत्ते की मरी मां के लिए भी न जाने कितनी बद्दुआएं होतीं कि अपना बोझा उस के सिर छोड़ गई और बदले में उसे पालना पड़ रहा है.

सत्ते को नहीं याद कि वह कब और कैसे श्यामा ताई के पास आया और उस ने अपने को जुगल, नन्हे, सन्नी, रुकमा के साथ पाया. वे सब भी उसी झोंपड़ी में सोते थे.

नन्हे पता नहीं कहां चला गया. श्यामा ताई ने उस का चूल्हे की लकड़ी से हाथ जला दिया था. उस ने समझा, श्यामा ताई देख नहीं रही है और सच

में ताई कुछ देर झोंपड़ी में लेट गई थी, पर उसे पता नहीं था कि वह लेटी जरूर थी, पर बदकिस्मती थी नन्हे की या खुशकिस्मती कि उस ने 5 रुपए वाली स्टिक वाली आइसक्रीम खरीद कर वहीं झाड़ी के पीछे बैठ कर खाई थी. पर श्यामा ताई फटरफटर चप्पल सरकाती आ पहुंची और खींच कर ले गई झोंपड़ी में, ‘‘चमड़ी उधेड़ दूंगी… रोटी कौन खिलाएगा,’’ गुस्से में जलती लकड़ी नन्हे के हाथ पर धर दी, ‘‘काट डालूंगी… अगर आगे से ऐसा किया.’’

बिलबिला कर रहा गया नन्हे. उस की चीख सुन कर जुगल, सनी, रुकमा और सत्ते एकदूसरे से चिपक कर रो रहे थे. जब दोबारा उस की पीठ की ओर लकड़ी उठाई तो चारों श्यामा ताई से चिपक कर रोने लगे थे, ‘ताई नहीं, ताई नहीं, अब नहीं खाएगा.’

पर, दूसरे दिन नन्हे सुबह से ही नहीं दिखा. उस के बाद कभी नहीं दिखा. कभीकभी सत्ते उसे ढूंढ़ता गाडि़यों में झांकता रहता कि शायद कोई साहब या मेमसाहब उसे ले गई हों. वह साहब के बच्चों के साथ हो. कभी तो वह उसे ही साहब बना देखता. सपने तो अपने लिए भी कभीकभी वह देखता था. कभी मोटरसाइकिल का, कभी लंबी गाड़ी में बैठा श्यामा ताई को भीख देता.

रानी काकी पीछे बस्ती में से आती थी. ज्यादातर गोद में बच्चा होता. गंदे कपड़ों से ढके उस बच्चे के लिए वह पैसे मांगती. सत्ते हैरानी से देखता कि रानी काकी की गोद का बच्चा बदलता रहता था. एक दिन तो रुकमा को भी बच्चा दिया. रानी काकी ने बच्चे को ले कर भीख मांगना सिखाया… साहब, मेरा कोई नहीं है. हमारी मैया मर गई है. यह भूखा है. दूध के लिए पैसे चाहिए…’’

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सच में रुकमा को कई बार अपनी अम्मां याद आई. उसे अपने गांवघर की एक झलक याद है. उस के घर के सामने पीपली देवी का मंदिर था, बस इतना याद है. घर में कई लोग थे. बूआ थी, दादी थी, अम्मां लंबा घूंघट निकाले रहती थी. इतना ही याद है. बूआ और दादी के साथ पीपली देवी के मेले में झूला झूलतेझूलते कब वह श्यामा ताई की गोद में पहुंच गई, उसे याद नहीं… ‘अम्मांअम्मां’ चिल्लाती रह जाती. ज्यादा रोती तो श्यामा ताई दवा चटा कर सुला देती.

अब तो कई साल हो गए. उसे बस धुंधली सी याद है.

जिस दिन रुकमा बच्चे को ले कर घूमी, उस दिन उसे काफी पैसे मिल गए, पर साथ ही बड़ी मुश्किल हो गई. पता नहीं, एक बहनजी को रुकमा पर ज्यादा ही दया आ गई, ‘‘चल, नन्हे से बच्चे को कैसे पालेगी. चल, आश्रम में चल. वहां तेरा भी इंतजाम हो जाएगा और बच्चे का भी. बैठ गाड़ी में,’’ कहते हुए बहनजी ने गाड़ी किनारे कर ली.

रुकमा सिटपिटा गई. उस का मन हुआ कि बैठ जाए गाड़ी में. श्यामा ताई से तो अच्छी रहेगी, पर पता नहीं कब रानी काकी आ खड़ी हुई, ‘‘कौन तू? क्यों ले जा रही है छोरी को तू… मैं सब जानती हूं. अनाथ से धंधा कराएगी.’’

कहां बहनजी पुलिस को सूचना दे कर उसे ले जाना चाहती थी, कहां लेने के देने पड़ रहे थे. रानी काकी बहनजी को पुलिस में ले जाने लगी. बहनजी की दयामाया काफूर हो गई. वह चुपचाप गाड़ी में बैठ चली गई.

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