वशीकरण मंत्र : रवि ने कैसे किया सुधा को काबू

रवि अपने दोस्त दिनेश के साथ पठान बस्ती की 2-3 गलियों को पार कर जब बंद गली के दाईं ओर के छोटे से मकान के सामने पहुंचा, तो वह उदास लहजे में बोला, ‘‘भाई, ऐसा लगता है, जैसे सालों से यह मकान खाली पड़ा है.’’

‘‘अरे, यह भी तो सोचो कि इस का किराया महज एक हजार रुपए महीना है. शहर की अच्छी कालोनियों में 3 हजार रुपए से कम में तो आजकल कमरा नहीं मिलेगा. यहां तो साथ में रसोई भी है.’’

‘‘हां, यह बात तो ठीक है. अभी यहीं रह लेते हैं, बाद में देख लेंगे.’’

दूसरे दिन शाम को थोड़ा सा सामान एक रिकशे पर लाद कर रवि वहां आ पहुंचा. ताला खोल कर कमरे में आया. उदास मन से फोल्डिंग चारपाई बिछा कर कमरे और रसोईघर में झाड़ू लगाई.

कुछ देर बाद रवि दरवाजे को ताला लगा कर गली के नुक्कड़ वाली चाय की दुकान की ओर जाने ही लगा था कि उस की नजर सामने वाले दोमंजिला मकान के बाहर टंगे बोर्ड की ओर उठी, जिस पर लिखा था : पंडित अवधकिशोर शास्त्री : 5 पुश्तों से ज्योतिष शास्त्र विशेषज्ञ : तंत्रमंत्र साधना द्वारा वशीकरण करवाना : रोग निवारण : बंधे कारोबार में उन्नति : प्रेम विवाह करवाने के लिए शीघ्र मिलें. फोन नं…

रवि ने अपने कदम आगे बढ़ाए ही थे कि तभी सामने वाला दरवाजा खुला. 24-25 साल की सांवले रंग की एक औरत ने बाहर झांका, तो रवि के मुरझाए चेहरे पर मुसकान उभर आई. वह बोला, ‘‘नमस्ते, मैं ने यह सामने वाला कमरा किराए पर लिया है.’’

‘‘नमस्ते,’’ वह औरत थोड़ा शरमाते हुए मुसकराई.

‘‘यह बोर्ड… यह नाम मैं ने कहीं और भी पढ़ा है,’’ रवि ने उस औरत के चेहरे पर नजरें टिकाते हुए पूछा.

‘‘जरूर पढ़ा होगा. मेरे पति का दफ्तर बसअड्डे के सामने है… ज्यादातर लोग उन से वहीं मिलते हैं,’’ कह कर वह औरत फिर मुसकराई, ‘‘क्या आप की भी कोई समस्या है? रात को या सुबह यहीं पंडितजी से बात कर लीजिएगा. वैसे, आप का नाम?’’

‘‘रवि… और आप का?’’

‘‘सुधा.’’

‘‘अच्छा, चलता हूं… फिर मिलेंगे,’’ कहता हुआ रवि आगे बढ़ गया.

नुक्कड़ की दुकान पर चाय पीते समय रवि की उदासी काफी हद तक दूर हो चुकी थी. अपने सामने वाले मकान की उस औरत को देखने के बाद वह काफी खुश नजर आ रहा था.

रात को रवि दरवाजे पर ताला लगा रहा था कि सामने वाले मकान के समीप एक मोटरसाइकिल आ कर रुकी, जिस से एक चोटीधारी, पंडितनुमा अधेड़ उम्र का शख्स नीचे उतरा. उसी समय 10-11 साल का एक लड़का और उस से 2-3 साल बड़ी एक लड़की बाहर निकल कर आई. दोनों एकसाथ बोल उठे, ‘पापाजी, नमस्ते.’

उस शख्स ने उन दोनों बच्चों के गाल थपथपाते हुए पीछे मुड़ कर रवि की ओर देखा, तो मुसकराते हुए बोला, ‘‘इस मकान में आप ही नए किराएदार आए हैं… इस के मालिक तेजपाल का मुझे फोन आया था. अच्छा हुआ, आप आ गए… काफी समय से यह घर खाली पड़ा था. आइए, भीतर बैठते हैं… सुधा, 2 कप चाय लाना.’’

बिना किसी नानुकर के रवि उस शख्स के पीछेपीछे भीतर जा पहुंचा. दोनों एक सजेधजे कमरे में जा कर बैठ गए.

रवि ने पूछा, ‘‘आप ही पंडित अवधकिशोरजी हैं?’’

‘‘हां…हां… वैसे, मेरा दफ्तर बसअड्डे के सामने है.’’

तभी सुधा चाय ले कर आ गई, तो पंडितजी ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी पत्नी सुधा है… और ये सामने वाले मकान में नए किराएदार आए हैं.’’

‘‘नमस्ते…’’ दोनों ने मुसकराते हुए एकदूसरे का अभिवादन किया.

सुधा के बाहर जाते ही पंडितजी ने पूछा, ‘‘आप का परिवार कहां रहता है?’’

‘‘जी… क्या कहूं… मांबाप बचपन में ही गुजर गए. चाचाचाची ने घरेलू नौकर बना कर पालापोसा. गांव में मेरे हिस्से की जो थोड़ी सी जमीन थी, वह भी उन्होंने हड़प ली. बस यही समझिए कि दरदर की ठोकरें खाता हुआ न जाने कैसे आप के शहर में आ पहुंचा हूं.’’

‘‘किसी फैक्टरी में नौकरी करते हो?’’ पंडितजी ने पूछा.

‘‘जी, भानु सैनेटरी उद्योग में.’’

‘‘देखो, इनसान को घर जरूर बसाना चाहिए. अकेले आदमी की जिंदगी भी भला कोई जिंदगी होती है.

‘‘अब मुझे देखो, 5-6 साल पहले पत्नी गुजर गई. दोनों बच्चों के पालने की समस्या मुंहबाए खड़ी थी. फिर घर की जिम्मेदारियां भी थीं और जीवनसाथी की जरूरत का एहसास भी था. सो, 42 साल की उम्र में दूसरी शादी कर ली… ढूंढ़ने पर गरीब घर की सुधा मिल गई, जो हर लिहाज से नेक पत्नी साबित हो रही है. वैसे, तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

‘‘27-28 साल होगी…’’ रवि उदास लहजे में बोला, ‘‘पहले मैं नूरां बस्ती में रहता था. वहां एक लड़की पसंद भी आई थी, पर वह किसी पढ़ेलिखे बाबू की पत्नी बनना चाहती थी. हालांकि उस का बाप हमारी फैक्टरी में ही नौकरी करता है, लेकिन उस  लड़की को अपनी खूबसूरती पर घमंड है.’’

‘‘अरे भाई, देखने में तो तुम भी हट्टेकट्टे और तंदुरुस्त नौजवान हो…’’ पंडितजी हंसते हुए बोले, ‘‘कहो तो उसी लड़की से तुम्हारे फेरे डलवा दें?’’

‘‘क्या… ऐसा मुमकिन है क्या?’’ रवि को तो जैसे मुंहमांगी मुरादमिल गई.

‘‘बेटा, मैं ज्योतिष का ही नहीं, तंत्रमंत्र का भी अच्छा माहिर हूं. ऐसा वशीकरण मंत्र दूंगा कि वह लड़की तुम्हारे कदमों में लिपटती नजर आएगी.’’

‘‘सच…?’’ रवि ने खुशी से झूमते हुए पूछा, ‘‘क्या आप आज यानी जल्दी ही वह वशीकरण मंत्र मुझे दे सकेंगे? कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाने पर वह किसी दूसरे शख्स की दुलहन बन जाए.’’

‘‘अरे, मैं ने तो अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा?’’ पंडितजी ने उस की ओर देखा.

‘‘जी… रवि.’’

‘‘बहुत अच्छा… अभी कहां जा रहे हो?’’

‘‘मैं ढाबे पर खाना खाने… घर पर खाना नहीं बना सकता मैं.’’

‘‘चलो, आज हमारे साथ ही खा लेना…’’ पंडितजी ने पत्नी सुधा को आवाज लगाई, ‘‘थोड़ी देर में भोजन की 2 थालियां ले आना. रवि भी मेरे साथ ही खाना खाएंगे.’’

‘‘पंडितजी, आप बेकार में तकलीफ कर रहे हैं… मुझे तो ढाबे पर खाने की आदत ही है. वैसे, आप ने जो वशीकरण मंत्र की बात कही है, उस की फीस कितनी होगी?’’

‘‘कल शाम को मेरे दफ्तर आ जाना, वहीं फीस की बात कर लेंगे… तुम तो अब हमारे पड़ोसी हो… काम हो जाने पर मुंहमांगा इनाम लेंगे.

‘‘भाई, तुम्हें मनपसंद पत्नी मिल जाए… यही हमारी फीस होगी. वैसे ज्यादा क्या, शगुन के तौर पर 11 सौ रुपए दे देना.’’

तभी सुधा भोजन की 2 थालियां ले कर आ गई. स्वादिष्ठ भोजन करने के बाद रवि को उस रात गहरी नींद आई.अगले दिन शाम के 6 बजे रवि पंडितजी के दफ्तर जा पहुंचा. उन्होंने उस के लिए फौरन चाय मंगवाई. बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. थोड़ी देर बाद कागज का एक टुकड़ा पंडितजी ने रवि के सामने रखा, ‘‘मैं ने वशीकरण मंत्र पहले ही लिख रखा था… इसे ठीक से पढ़ लो.’’

‘‘यह तो साधारण सा मंत्र है…’’ रवि ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘‘अब इस के जाप की विधि…?’’

‘‘हां…हां, वही बताने जा रहाहूं. इस खाली जगह पर उस लड़की का नाम लिख देना… वही बोलना है.’’

रवि ने मंत्र पढ़ना शुरू या और खाली जगह पर ‘मधु’ का नाम लिया, तो पंडितजी मुसकराए, ‘‘लड़की का नाम तो काफी अच्छा है. अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं… वैसे, तुम्हारी ड्यूटी तो शिफ्ट में होगी?’’

‘‘नहीं, आजकल मैं मैनेजर साहब के दफ्तर में चपरासी की ड्यूटी बजा रहा हूं… सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक… इस में कोई समस्या तो नहीं है?’’

‘‘नहीं… नहीं… अब ध्यान से सुनो. हर रोज रात को सोने से पहले एक माला फेरनी होगी. 40 दिनों तक इसी क्रम को दोहराना है. तुम ने क्या बताया था, वह लड़की नूरां बस्ती में रहती है?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘जब भी रात को माला फेरने बैठो, तो तुम्हारा चेहरा उस लड़की के घर की दिशा में ही होना चाहिए. दिशा का ठीकठीक अंदाजा है न?’’

‘‘जी हां…’’

‘‘बस, अब तुम एकदम बेफिक्र हो जाओ… हर दूसरेचौथे दिन मधु की गली के चक्कर लगाते रहना. तुम खुद अपनी आंखों से देखोगे कि तुम्हारे प्रति उस की चाहत किस कदर बढ़ती चली जा रही है. यह लो तावीज… जरा ठहरो… मैं इस पर गंगाजल छिड़क देता हूं.’’

पंडितजी ने कोई मंत्र बुदबुदाते हुए बोतल में से पानी के कुछ छींटे तावीज पर फेंके और फिर उसे रवि के बाएं बाजू पर बांध दिया, ‘‘जाओ, तुम्हारी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी.’’

रवि ने जेब से 11 सौ रुपए निकाल कर पंडितजी के हाथ पर रख दिए.

‘‘बेटा, 40 दिन के बाद पंडित अवधकिशोर का चमत्कार देखना. अच्छा, मुझे अभी एक यजमान के यहां जाना है…’’

रवि अपने कमरे का ताला खोल रहा था कि सामने से सुधा की आवाज सुनाई दी, ‘‘नमस्कार… पंडितजी ने सुबह मुझे सबकुछ बता दिया था. मंत्रजाप की विधि सीख ली और तावीज भी बंधवा लाए. कितने दे आए?’’

‘‘11 सौ रुपए,’’ रवि ने मुसराते हुए बताया.

‘‘गनीमत है कि 21 सौ या 31 सौ रुपए नहीं ऐंठ लिए…’’ सुधा ने मजाकिया लहजे में कहा, ‘‘अब तो पूरे 40 दिन बाद ही प्रेमिका आप के पीछेपीछे चल रही होगी. खैर, चाय पीएंगे आप?’’

‘‘रहने दो… बच्चे बेकार में शक करेंगे,’’ रवि ने सुधा की आंखों में झांका.

‘‘दोनों ट्यूशन पढ़ने गए हैं… घंटेभर बाद लौटेंगे.’’

उस दिन चाय पीते समय रवि ने महसूस किया कि सुधा उस की तरफ खिंच रही है. उस की हर अदा में छिपे न्योते को वह साफसाफ समझ रहा था.

हफ्तेभर बाद एक दिन रवि शाम को 5 बजे ही अपने कमरे पर लौट आया. दरवाजा खुलने की आवाज सुनते ही सुधा ने बाहर झांका. फिर बाहर सुनसान गली का मुआयना करने के बाद वह तेज कदमों से रवि के कमरे में आ पहुंची, ‘‘जल्दी से यहां आ जाओ. मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘चाय तो बाद में पी लेंगे… पहले जरा मुंह तो मीठा कराओ,’’ कहते हुए रवि ने सुधा को बांहों में कसते हुए उस के होंठों पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी.

‘‘अरेअरे, क्या करते हो… दरवाजा खुला है, कोई आ जाएगा,’’ सुधा ने नाटकीय अंदाज में खुद को छुड़ाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है, चलो… मैं अभी आता हूं,’’ रवि की बांहों से छूटते ही सुधा अपने कमरे में जा पहुंची.

उस दिन चाय पीते समय रवि और सुधा के बीच काफी बातें होती रहीं.

सुधा ने बताया कि उस के मातापिता भी जल्दी ही चल बसे थे. मौसामौसी ने नौकरानी की तरह उसे घर में रखा. विधुर पंडितजी ने उन्हीं के गांव के रहने वाले एक जानने वाले के जरीए शराबी मौसा पर अपने रुतबे और दौलत का चारा फेंका. 50 हजार रुपए में सौदा तय हुआ और फिर 20 साला सुधा अधेड़, विधुर के पल्ले बांध दी गई.

‘‘सुधा, अब जल्दी ही तुम्हारी सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा… चिंता मत करो,’’ रवि हौले से बोला.

‘‘क्या कह रहे हो? तुम तो खुद ही अपनी प्रेमिका की समस्या से परेशान हो… मेरे लिए तुम क्या कर पाओगे?’’

‘‘मेरी बात गौर से सुनो, पंडितजी के तंत्रमंत्र से कुछ होने वाला नहीं… ये सब तांत्रिकों के ठगी के तरीके मात्र हैं. अंधविश्वासी, आलसी और टोनेटोटकों के चक्कर में पड़ने वाले लोग ही आसानी से इन के शिकार होते हैं.

‘‘मैं ने तुम्हारे नजदीक आने के लिए ही पंडितजी के साथ एक चाल चली है. वे या बच्चे किसी तरह का शक न करें, इसलिए उन से मेलजोल बढ़ाने के लिए तुम्हारी खातिर 11 सौ रुपए देने पडे़.

‘‘सुनो, इस तरह बात करते हुए हम कभी भी पकड़े जा सकते हैं. जल्दी ही मैं तुम्हें एक चिट्ठी दूंगा, तुम भी चिट्ठी द्वारा ही जवाब देना,’’ कहते हुए रवि अपने कमरे की ओर चल दिया.

हालांकि रवि को जरा भी भरोसा नहीं था, पर फिर भी वह हर रोज मधु के नाम की एक माला का जाप जरूर करता था कि शायद इस बार पंडितजी का वशीकरण मंत्र कुछ काम कर जाए.

20-22 दिन बाद जब वह नूरां बस्ती में मधु का दीदार करने पहुंचा, तो एक परिचित ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कहो दोस्त, कहां भटक रहे हो? चिडि़या तो फुर्र हो गई… तुम्हारी मधु तो पिछले हफ्ते ही ब्याह रचा कर विदा हो गई.’’

‘‘सच कह रहे हो तुम?’’ रवि के दिल को धक्का लगा.

‘‘अरे भाई, मैं झूठ क्यों बोलूंगा. उस के घर वालों से जा कर पूछ लो,’’ उस आदमी ने कहा.

अब थकेहारे कदमों से उस गली से लौटने के अलावा रवि के पास कोई चारा ही न था.

एक दिन पंडितजी ने सुबहसुबह रवि का दरवाजा खटाखटाया, ‘‘क्या बात है, आजकल तुम नजर ही नहीं आ रहे? मेरे खयाल से वशीकरण मंत्र जाप के 40-50 दिन तो हो ही गए होंगे… तुम ने खुशखबरी नहीं सुनाई?’’ पंडितजी ने खड़ेखड़े ही पूछा.

‘‘जी हां…’’ रवि ने मुसकराते हुए  कहा, ‘‘आप के आशीर्वाद से मधु पूरी तरह मेरे वश में हो गई है. धन्य हैं आप और धन्य है आप का वशीकरण मंत्र.’’

‘‘बहुत अच्छे…’’ कहते हुए पंडितजी बाहर चले गए.

उसी दिन शाम को जब बच्चे ट्यूशन से लौटे, तो सुधा को घर में न पा कर उन्होंने पंडितजी को फोन किया. वह फौरन ही घर आ पहुंचे. उन्होंने सामने देखा कि रवि के कमरे के बाहर भी ताला लगा हुआ था.

4-5 पड़ोसियों से पूछा, पर सभी ने न में सिर हिला दिया.फिर एक वकील दोस्त को साथ ले कर नजदीकी थाने में पत्नी सुधा की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई और रवि की गैरमौजूदगी के कारण पत्नी के संग उस की मिलीभगत का शक भी जाहिर किया.

तकरीबन एक हफ्ते तक जगहजगह पूछताछ करने और ठोकरें खाने के बाद पंडितजी का शक पक्का हो गया कि रवि ही सुधा को भगा कर ले गया है.

इसी सिलसिले में पंडितजी अपने साथ वाले दफ्तर के बंगाली तांत्रिक से बातचीत कर रहे थे, तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘पंडितजी, आप खुद को ज्योतिष शास्त्र का माहिर कहते हो… क्या कभी आप ने अपनी पत्नी का भविष्यफल नहीं देखा, उस की हस्तरेखाएं नहीं देखीं कि वह किस शुभ घड़ी में, किस दिन, किस आशिक के संग भागने जा रही है?’’

‘‘चुप भी रहो यार, क्यों जले पर नमक छिड़कते हो,’’ पंडितजी गुस्से से बोले.

‘‘तुम ने उस नौजवान का क्या नाम बताया था, जिस के साथ उस ने भागने….?’’

‘‘रवि.’’

‘‘तुम ने जो उसे वशीकरण मंत्र दिया था, लगता है, उस ने उस का जाप अपनी प्रेमिका का नाम ले कर नहीं, तुम्हारी पत्नी सुधा का नाम ले कर किया होगा,’’ बंगाली तांत्रिक ने ठहाका लगाया, तो पंडितजी आगबबूला होते हुए बोले, ‘‘तुम्हारी ठग विद्या से भी मैं अच्छी तरह वाकिफ हूं. जबान संभाल कर बोलो… इस हमाम में हम सभी नंगे हैं…’’

गड़ा धन: क्या रमेश ने दी राजू की बलि

‘‘चल बे उठ… बहुत सो लिया… सिर पर सूरज चढ़ आया, पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही नहीं लेती,’’ राजू का बाप रमेश को झकझोरते हुए बोला.

‘‘अरे, अभी सोने दो. बेचारा कितना थकाहारा आता है. खड़ेखड़े पैर दुखने लगते हैं… और करता भी किस के लिए है… घर के लिए ही न… कुछ देर और सो लेने दो…’’ राजू की मां लक्ष्मी ने कहा.

‘‘अरे, करता है तो कौन सा एहसान करता है. खुद भी तो रोटी तोड़ता है चार टाइम,’’ कह कर बाप रमेश फिर से राजू को लतियाता है, ‘‘उठ बे… देर हो जाएगी, तो सेठ अलग से मारेगा…’’

लात लगने और चिल्लाने की आवाज से राजू की नींद तो खुल ही गई थी. आंखें मलता, दारूबाज बाप को घूरता हुआ वह गुसलखाने की ओर जाने लगा.

‘‘देखो तो कैसे आंखें निकाल रहा है, जैसे काट कर खा जाएगा मुझे.’’

‘‘अरे, क्यों सुबहसुबह जलीकटी बक रहे हो,’’ राजू की मां बोली.

‘‘अच्छा, मैं बक रहा हूं और जो तेरा लाड़ला घूर रहा है मुझे…’’ और एक लात राजू की मां को भी मिल गई.

राजू जल्दीजल्दी इस नरक से निकल जाने की फिराक में है और बाप रमेश सब को काम पर लगा कर बोतल में मुंह धोने की फिराक में. छोटी गलती पर सेठ की गालियां और कभीकभार मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को.

यहां राजू की मां लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई. वह भी घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के घरों में झाड़ूबरतन करती थी.

‘‘लक्ष्मी, तू उस बाबा के मजार पर गई थी क्या धागा बांधने?’’ मालकिन के घर कपड़े धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी.

माला अधेड़ उम्र की थी और लक्ष्मी की परेशानियों को जानती भी थी, इसलिए वह कुछ न कुछ उस की मदद करने को तैयार रहती.

‘‘हां गई थी उसे ले कर… नशे में धुत्त रहता है दिनरात… बड़ी मुकिश्ल से साथ चलने को राजी हुआ…’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया, ‘‘पर होगा क्या इस सब से… इतने साल तो हो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा का मजार… ये मंदिर… उस बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो कर के देख लिया, पर न ही कोख फलती है और न ही घर पनपता है. बस, आस के सहारे दिन कट रहे हैं,’’ कहतेकहते लक्ष्मी की आंखों से आंसू आ गए.

माला उसे हिम्मत बंधाते हुए बोली, ‘‘सब कर्मों के फल हैं री… और जो भोगना लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…’’ बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी.

‘‘सुन, एक बाबा और है. उस को देवता आते हैं. वह सब बताता है और उसी के अुनसार पूजा करने से बिगड़े काम बन जाते हैं,’’ माला ने बताया.

‘‘अच्छा, तुझे कैसे पता?’’ लक्ष्मी ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उस की लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई. मुझे तभी तेरा खयाल आया और उस बाबा का पताठिकाना पूछ कर ले आई. अब तू बोल कि कब चलना है?’’

‘‘उस से पूछ कर बताऊंगी… पता नहीं किस दिन होश में रहेगा.’’

‘‘हां, ठीक है. वह बाबा सिर्फ इतवार और बुधवार को ही बताता है. और कल बुधवार है, अगर तैयार हो जाए, तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही, फिर हम साथ चलेंगे… मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है,’’ माला बोली.

लक्ष्मी ने हां भरी और दोनों काम निबटा कर अपनेअपने रास्ते हो लीं.

लक्ष्मी माला की बात सुन कर खुश थी कि अगर सबकुछ सही रहा, तो जल्दी ही उस के घर की भी मनहूसियत दूर हो जाएगी. पर कहीं राजू का बाप न सुधरा तो… आने वाली औलाद के साथ भी उस ने यही किया तो… जैसे सवालों ने उस की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की, पर उस ने खुद को संभाल लिया.

सामने आम का ठेला देख कर लक्ष्मी को राजू की याद आ गई.

‘राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है. सुबहसुबह बेचारा राजू उदास हो कर घर से निकला था, आम के रस से रोटी खाएगा, तो खुश हो जाएगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूंगी,’ मन में ही सारे तानेबाने बुन कर लक्ष्मी रुकी और एक आम ले कर जल्दीजल्दी घर की ओर चल दी.

घर पहुंच कर दोनों को खाना खिला कर सारे कामों से फारिग हो लक्ष्मी राजू के बाप से बात करने लगी. शराब का नशा कम था शायद या आम के रस का नशा हो आया था, वह अगले ही दिन जाने को मान गया.

अगले दिन राजू, उस का बाप और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ ले कर बाबा के ठिकाने पर चल दिए.

बाबा के दरवाजे पर 8-10 लोग पहले से ही अपनीअपनी परेशानी को दूर कर सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे. एकएक कर के सब को अंदर बुलाया जाता. वे लोग भी जा कर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए.

सभी लोग अपनीअपनी परेशानी में खोए थे. यहां माला लक्ष्मी को बीचबीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा बरताव करना है और इतनी जोर से समझाती कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुंच जाती. एकदो बार तो रमेश को गुस्सा आया, पर लक्ष्मी ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाए रखा.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद उन की बारी आई, तब तक 5-6 परेशान लोग और आ चुके थे. खैर, अपनी बारी आने की खुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ झलक रही थी. यों लग रहा था, मानो यहां से वह बच्चा ले कर और घर की गरीबी यहीं छोड़ कर जाएगी.

चारों अंदर गए. बाबा ने उन की समस्या सुनी. फिर थोड़ी देर ध्यान लगा कर बैठ गया.

कुछ देर बाद बाबा ने जब आंखें खोलीं, तो आंखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं. अब लक्ष्मी को भरोसा हो गया था कि उस की समस्या का खात्मा हो ही जाएगा.

बाबा ने कहा, ‘‘कोई है, जिस की काली छाया तुम लोगों के घर पर पड़ रही है. वही तुम्हारे बच्चा न होने की वजह है और जहां तुम रहते हो, वहां गड़ा धन भी है, चाहो तो उसे निकलवा कर रातोंरात सेठ बन सकते हो…’’

रमेश और लक्ष्मी की आंखें चमक उठीं. उन दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर रमेश बाबा से बोला, ‘‘हम लोग खुद ही खुदाई कर के धन निकाल लेंगे और आप को चढ़ावा भी चढ़ा देंगे. आप तो जगह बता दो बस…’’

बाबा ने जोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यह सब इतना आसान नहीं…’’

‘‘तो फिर… क्या करना होगा,’’ रमेश उतावला हो उठा.

‘‘कर सकोगे?’’

‘‘आप बोलिए तो… इतने दुख सहे हैं, अब तो थोड़े से सुख के बदले भी कुछ भी कर जाऊंगा.’’

‘‘बलि लगेगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात. मैं बकरे का इंतजाम कर लूंगा.’’

‘‘बकरे की नहीं.’’

‘‘तो फिर…’’

‘‘नरबलि.’’

रमेश को काटो तो खून नहीं. लक्ष्मी और राजू भी सहम गए.

‘‘मतलब किसी इनसान की हत्या?’’ रमेश बोला.

‘‘तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को. जाओ, तुम लोगों से नहीं हो पाएगा,’’ बाबा तकरीबन चिल्ला उठा.

माला बीच में ही बोल उठी, ‘‘नहीं बाबा, नाराज मत हो. मैं समझाती हूं दोनों को,’’ और लक्ष्मी को अलग ले जा कर माला बोलने लगी, ‘‘एक जान की ही तो बात है. सोच, उस के बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी. बच्चापैसा सब… देदे बलि.’’

लक्ष्मी तो जैसे होश ही खो बैठी थी. तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘किस की बलि दे दें?’’

‘‘जिस का कोई नहीं उसी की. अपना खून अपना ही होता है. पराए और अपने में फर्क जानो,’’ माला बोली.

यह बात सुन कर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर तकरीबन झपटते हुए बोला, ‘‘किस की बात कर रही है बुढि़या… जबान संभाल… वह मेरा बेटा है. 2 साल का था, जब वह मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था. कलेजे का टुकड़ा है वह मेरा,’’ राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और आंखें फाड़फाड़ कर देखता रहा.

बाबा सब तमाशा देखसमझ चुका था कि ये लोग जाल में नहीं फंसेंगे और न ही कोई मोटी दक्षिणा का इंतजाम होगा, इसलिए शिष्य से कह कर उन चारों को वहां से बाहर निकलवा दिया.

राजू हैरान था. बाहर निकल कर राजू के मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘‘बाबा, मैं तेरा गड़ा धन बनूंगा.’’

यह सुन कर रमेश ने राजू को अपने सीने से लगा लिया. उस ने राजू से माफी मांगी और कसम खाई कि आज के बाद वह कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

न्याय: क्या उस बूढ़े आदमी को न्याय मिला?

लेखक- Dheeraj Pundir

राजीव अदालत के बाहर पड़ी लकड़ी की बेंच पर खामोश बैठा अपनी बारी का इंतजार करतेकरते ऊंघने लगा था. बड़ी संख्या में लोग आजा रहे थे. कुछ के हाथों में बेड़ियां थीं, जो कतई ये साबित नहीं करती थीं कि वे मुजरिम ही थे.

कुछ राजीव जैसे हालात के सताए गलियारे में बैठे ऊंघ रहे थे. उन में बहुत से चेहरे जानेपहचाने थे, जिन को अपनी वहां एक बरस की आवाजाही के दौरान वह देखता आ रहा था. इतना जरूर था कि कुछ चेहरे दिखाई देना बंद हो जाते और उन की जगह नए चेहरे शामिल हो जाते. ऐसा लगता जैसे कोई मेला था, जहां लोगों की आवाजाही कोई बड़ा मसला नहीं थी.

रहरह कर वादियों, प्रतिवादियों को पुकारा जाता और वे उम्मीद के अतिरेक में दौड़ कर अंदर जाते. उन में से जो  खुशनसीब होते, लौटते वक्त उन के चेहरे पर मुसकान होती, वरना अमूमन लोग मुंह लटकाए नाउम्मीद ही लौटते नजर आते.

बात बस इतनी सी थी कि एक साल पहले औफिस से घर लौटते वक्त रास्ते में पड़ी लावारिस लाश के बारे में उस ने थाने को इत्तिला दे दी थी. तब से वह निरंतर मानवता की अपनी बुरी आदत को कोसता अदालत की हाजिरी भर रहा था.

भीतर चक्कर लगा आने के लिए जैसे ही वह उठा, सामने से शरीर का भार अपनी लाठी पर लिए वह बूढ़ा आता दिखा, जिसे राजीव एक साल से लगातार देखता आ रहा था.

वक्त की मार से उस का शरीर झुकताझुकता 90 अंश के कोण पर आ टिका कथा. आंखें चेहरे के सांचे में धंस गई थीं और शरीर की त्वचा सिकुड़ कर झुर्रियों में तबदील हो गई थी.

बूढ़े को देख कर राजीव को हर बार यही ताज्जुब होता कि उस की सांसें आखिर कहां अटकी हुई हैं और क्या न्याय की अपुष्ट उम्मीद ही उस को इतनी शक्ति दे रही थी कि तकरीबन 100 बरस की उम्र के बावजूद वह बेसहारा इस कभी न खत्म होने वाले सिलसिले से जूझ रहा था. चर्चा थी कि बूढ़े की कोई औलाद और नजदीकी रिश्तेदार भी न था.

बूढ़ा लोगों की भीड़ के बीच से अपने शरीर का बोझ ढोता सा धीरेधीरे चला आ रहा था. लोग उस की बगल से ऐसे निकल जाते जैसे वह अदृश्य हो. किसी को उस पर तरस न आता कि जरा सा सहारा दे कर उसे उस की मंजिल तक पहुंचा दे. शायद हर कोई उस बूढ़े की तरह ही असहाय था. उन मुकदमों के कारण जो शायद अंतहीन थे. रोज की तरह सब विचार छोड़ कर राजीव ने बूढ़े को सहारा दे कर बैंच पर बैठा दिया.

राजीव उस बूढ़े और उस के मसले से खूब परिचित था.64 साल पहले दर्ज जमीन के जिस मुकदमे की पैरवी करने बरसों से लगातार आ रहा था उस का औचित्य क्या बचा था, राजीव की समझ से परे था.

हुआ यों था कि बूढ़े का एकलौता 12 बिस्से का जमीन का रकबा उस के पड़ोसी ने अपने खेत में मिला लिया था. तब वह जवान हुआ करता था. पहले तो उस ने लट्ठ के जोर से जमीन छुड़ाने की सोची, मगर कुछ समझदार लोगों ने कहा, “देश में गरीब मजलूम के लिए कानून है, अदालत है, वहां जाओ. क्यों आफत गले डालते हो. कहीं चोट लग गई तो जेल हो जाएगी और कामधंधे से जाओगे सो अलग.”

उसे बात कुछ तर्कसंगत लगी. उस ने मुकदमा दायर कर दिया. उम्मीद करते जवानी गुजर गई. वकील की फीस का पाईपाई का हिसाब पास था, वह भी जमीन की कीमत से ऊपर पहुंच गया. मगर बात न्याय की ठहरी, इसलिए हार नहीं मानी.

बूढ़े को इत्मीनान से वहीं बैठा छोड़ कर राजीव बूढ़े के वकील के पास पहुंचा, जो कि कहीं निकलने को ही था.

“वह बूढ़ा आया है. आप का क्लायंट,” राजीव ने बताया.

“इस बूढ़े की…” लोगों की बातों में मशगूल वकील शायद कोई कड़वी बात कहतेकहते अचानक चुप हुआ, फिर अपने सहायक से कहा, “आज उस का फैसला आ जाएगा. उसे थमा कर जान छुड़ा,” कह कर वकील लोगों से हाथ मिला कर बड़ी तेजी से निकल गया.

राजीव वापस उस बूढ़े के पास लौटा. बूढ़े के कान के पास मुंह कर के ऊंची आवाज में उस ने बूढ़े को बताया कि वकील को सूचित कर दिया है. तभी उस ने सुना कि हरकारा पेशी के लिए पुकार लगा रहा था, “राजीव कुमार वल्द हरिसिंह हाजिर हों…”

प्रतिदिन की तरह 50 रुपए अर्दली की भेंट कर वह जज साहब के समक्ष हाजिर हुआ. जज साहब ने बस चंद बोल कहे, “तुम बरी किए जाते हो और ताकीद रहे कि एक नेक शहरी का फर्ज निभाते हुए भविष्य में भी अगर ऐसा वाकिया पेश आए तो कानून को इत्तला जरूर करोगे.”

न चाहते हुए भी हामी भर कर राजीव चल पड़ा मन में सोचता हुआ कि कोई मरता है मरे कभी दरियादिली के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

तभी उसे जज साहब की आवाज सुनाई दी. वे कह रहे थेे, “बूढ़े की फाइल निकालो.”

अनायास ही राजीव के कदम जड़ हो गए. मन में घूम रहे सब विचार नेपथ्य में गुम हो गए. उसे वकील की कही बात याद थी, “आज उस का फैसला आ जाएगा.”

घर लौटने की इच्छा छोड़ कर वह एक तरफ दीवार के पास खड़ा हो गया.

जज साहब ने बूढ़े की फाइल पर सरसरी नजर डाली और पेशकार की तरफ देख कर पूछा, “वादी अदालत के समक्ष हाजिर है?”

“नहीं हुजूर, वादी बहुत बूढ़ा है. पांव पर खड़ा नहीं हो सकता, मगर वह बाहर बैंच पर लेटा है.”

सुन कर जज साहब के चेहरे पर दया के भाव आ गए, फिर संभाल कर पूछा,

“सब सुबूत दुरुस्त हैं?”

पेशकार ने हां में सिर हिलाया.

“तब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं. लिहाजा, अदालत फैसला सुनाती है कि जिस जमीन के टुकड़े पर बूढ़े ने अपना दावा पेश किया था, वह टुकड़ा उसी का है. प्रतिपक्ष को इस ताकीद के साथ कि बूढ़े को परेशान न किया जाए फैसला बूढ़े के हक में सुनाया जाता है… और साथ ही, पुलिस को आदेश जारी किया जाता है कि चूंकि वादी बूढ़ा हो चुका  है, इसलिए मौके पर जा कर उसे जमीन पर कब्जा दिलाया जाए.”

इतना कह कर जज साहब उठ कर चले गए.

राजीव को अपने बरी होने से कहीं ज्यादा बूढ़े के मुकदमे की खुशी थी. फिर यह सोच कर वह गंभीर हो गया कि फैसला मुफीद ही सही, मगर 64 बरस बाद क्या अब भी उस का औचित्य जस का तस है.

राजीव बाहर आया कि बूढ़े को खुशखबरी दे. उस ने देखा कि वह बैंच पर इत्मीनान से सो रहा है. सुकुन की नींद जैसे उसे फैसले के अपने पक्ष में आने का पूर्वाभास हो.

राजीव ने जमीन पर उकड़ू बैठ कर बूढ़े का कंधा पकड़ कर धीरे से हिलाया, तो पहले से बेजान शरीर एक तरफ लुढ़क गया. वह मर चुका था बिना यह जाने कि देश के कानून ने कितनी दरियादिली दिखा कर 64 साल बाद उस की जमीन का मालिकाना हक वापस लौटाया था.

पीछे हरकारा आवाज दे रहा था, “नेकीराम वल्द बिशनसिंह निवासी मोहनपुर हाजिर हो.”

इस बात से बेखबर कि  न्याय की बाट जोहते बूढ़े की हाजिरी का वक्त कहीं ओर मुकर्रर हो गया था.

विधवा रहू्ंगी पर दूसरी औरत नहीं बनूंगी

लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

यादगार: आखिर क्या हुआ कन्हैयालाल के मकान का?

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

वर्लपूल : कुछ ऐसी ही थी मेरी जिंदगी

गंदी बस्ती में रहने वाला मैं एक गरीब कवि था. रोज के 50-100 रुपए भी मिल जाएं तो मेरे लिए बहुत थे. उस के लिए मैं रेडियो केंद्र तक रेकौर्डिंग के लिए जाता था.

मैं कर्ज में डूबा हुआ था. मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे थे. यहां से कुछ ही दूरी पर समुद्र था, लेकिन मैं वहां कभी नहीं जा पाता था. पूरा दिन लेखन कर के मैं ऊब रहा था. बेरोजगारी तनमन में कांटे की तरह चुभ रही थी.

2 महीने का बिजली का बिल भरना बाकी था. अपना खाना तो मैं बना लूंगा, लेकिन उस के लिए गैस तो चाहिए, जो खत्म होने के कगार पर थी.

अच्छा है कि घरसंसार का बोझ नहीं है. अगर मर भी गया तो कोई बात नहीं है. जब भी आईने में खुद को देखता हूं, एक लाचार, बेढंगा और बुझा हुआ शख्स नजर आता है. किसी को मेरी जरूरत नहीं है और पैसों की इस दुनिया में रहने की मेरी कोई औकात नहीं है, इस बात का अब मुझे भरोसा हो गया है.

क्लासमेट हेमू मेरी गरीबी का पता लगाते हुए एक दिन अचानक से मेरे दरवाजे पर आ धमका. उस ने बड़ी तसल्ली से मेरा हालचाल पूछा. उस के शब्द सुन कर मुझे थोड़ी हिम्मत मिली.

हेमू को लगता था कि खानदानी जायदाद का क्या करोगे. आराम भी करोगे तो कितना? लेकिन मैं रोज रेडियो पर कार्यक्रम करता, फिर भी हेमू के गले में मोटी सोने की चेन जैसी चेन खरीदना मेरे लिए नामुमकिन था.

मुझे पता है कि हेमू औरतों के बजाय मर्दों की तरफ ज्यादा खिंचता है, इसलिए उस से थोड़ा डर भी लगता था. लेकिन मैं बदहाली में जी रहा हूं, यह जान कर वह आजकल बारिश में टपकने वाले घर में आने लगा था. उस की कार मेरे बदहाल घर के सामने बिलकुल शोभा नहीं देती थी.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो तुम? तबीयत ठीक नहीं है क्या? पैसों की जरूरत है क्या?’’ हेमू ने यह पूछ कर मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘है तो, लेकिन…’’

‘‘कितना चाहिए?’’ यह सवाल उस ने ऐसे पूछा कि एक कवि मांग कर भी कितना मांगेगा? बड़ी रकम मांगने की तुम्हारे पास हिम्मत नहीं है.

‘‘फिलहाल तो हजार रुपए से काम हो जाएगा. नौकरी लगने के बाद सौदो सौ कर के वापस कर दूंगा. सच बोल रहा हूं.’’

यह सुन कर हेमू जोरजोर से हंसने लगा. जैसे भालू शहद को देख कर ललचाता है, वैसे ही वह मेरी तरफ देखते हुए उस ने अपना इरादा बताया, ‘‘वापस क्यों करना, ये लो पैसे… अब मेरे लिए एक काम करो… थोड़ी देर… आंधा घंटे के लिए तुम मुझे अपनी पत्नी समझना. तुम मर्द हो, यही मेरे लिए काफी है…’’

मेरी धड़कनें बढ़ गईं. उस वक्त पैसा मेरी जरूरत थी, पर उस तरह का काम करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था.

तभी हेमू कड़क आवाज में बोला, ‘‘तुम मिडिल क्लास वाले केवल सोचते रहते हो. इतना सोचना छोड़ दे. यहां आ, मेरे पास…’’ इस के बाद उस ने मुझे कुछ बोलने नहीं दिया. वह मेरे बिलकुल पास आ चुका था. अब इस बात को मैं कैसे बताऊं? यह कोई प्यार नहीं, बल्कि मजबूरी थी.

हेम को जो करना था, उस ने किया. उस ने पैसे दिए और चला गया.

इस के बाद मैं रोने लगा. मेरे मांबाप की मौत काफी समय पहले हो चुकी है. मेरा कोई सगासंबंधी भी नहीं बचा था. हम जैसे लोग फुटपाथ पर सोते हैं, जहां कोई भी हमारा इस्तेमाल कर सकता है.

हालात किसी को कुछ भी करने को मजबूर कर सकते हैं, यह मुझे आज समझ आ गया. यह वर्लपूल बहुत भयानक हादसे की तरह है. नहाने के बाद भी मैं खुद को माफ नहीं कर पा रहा था.

बाद में मुझे पार्टटाइम नौकरी मिल गई और पैसे की तंगी कम हो गई. लेकिन इस देश में अमीर लोग बड़ी आसानी से हम जैसे गरीबों की मर्दानगी छीन सकते हैं और हम पर मुहर लग जाती है कि गरीब अपना पेट भरने के लिए यह सब करते हैं.

कुछ लोग इसे हमारे ऊपर दाग समझते हैं. इसे कलंक बताने के बजाय गरीबों की मजबूरी और लाचारी को समझना होगा..

स्नेहदान: क्या चित्रा अपने दिल की बात अनुराग से कह पायी

चित्रा बिस्तर पर लेट कर जगजीत सिंह की गजल ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ सुन रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह अपना दुपट्टा संभालती हुई उठी और दरवाजा खोल कर सामने देखा तो चौंक गई. उसे अपनी ही नजरों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस के सामने बचपन का दोस्त अनुराग खड़ा है.

चित्रा को देखते ही अनुराग हंसा और बोला, ‘‘मोटी, देखो तुम्हें ढूंढ़ लिया न. अब अंदर भी बुलाओगी या बाहर ही खड़ा रखोगी.’’

चित्रा मुसकराई और उसे आग्रह के साथ अंदर ले कर आ गई. अनुराग अंदर आ गया. उस ने देखा घर काफी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ है और घर का हर कोना मेहमान का स्वागत करता हुआ लग रहा है. उधर चित्रा अभी भी अनुराग को ही निहार रही थी. उसे याद ही नहीं रहा कि वह उसे बैठने के लिए भी कहे. वह तो यही देख रही थी कि कदकाठी में बड़ा होने के अलावा अनुराग में कोई अंतर नहीं आया है. जैसा वह भोला सा बचपन में था वैसा ही भोलापन आज भी उस के चेहरे पर है.

आखिर अनुराग ने ही कहा, ‘‘चित्रा, बैठने को भी कहोगी या मैं ऐसे ही घर से चला जाऊं.’’

चित्रा झेंपती हुई बोली, ‘‘सौरी, अनुराग, बैठो और अपनी बताओ, क्या हालचाल हैं. तुम्हें मेरा पता कहां से मिला? इस शहर में कैसे आना हुआ…’’

अनुराग चित्रा को बीच में टोक कर बोला, ‘‘तुम तो प्रश्नों की बौछार गोली की तरह कर रही हो. पहले एक गिलास पानी लूंगा फिर सब का उत्तर दूंगा.’’

चित्रा हंसी और उठ कर रसोई की तरफ चल दी. अनुराग ने देखा, चित्रा बढ़ती उम्र के साथ पहले से काफी खूबसूरत हो गई है.

पानी की जगह कोक के साथ चित्रा नाश्ते का कुछ सामान भी ले आई और अनुराग के सामने रख दिया अनुराग ने कोक से भरा गिलास उठा लिया और अपने बारे में बताने लगा कि उस की पत्नी का नाम दिव्या है, जो उस को पूरा प्यार व मानसम्मान देती है. सच पूछो तो वह मेरी जिंदगी है. 2 प्यारे बच्चे रेशू व राशि हैं. रेशू 4 साल का व राशि एक साल की है और उस की अपनी एक कपड़ा मिल भी है. वह अपनी मिल के काम से अहमदाबाद आया था. वैसे आजकल वह कानपुर में है.

अनुराग एक पल को रुका और चित्रा की ओर देख कर बोला, ‘‘रही बात तुम्हारे बारे में पता करने की तो यह कोई बड़ा काम नहीं है क्योंकि तुम एक जानीमानी लेखिका हो. तुम्हारे लेख व कहानियां मैं अकसर पत्रपत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूं.

‘‘मैं ने तो तुम्हें अपने बारे में सब बता दिया,’’ अनुराग बोला, ‘‘तुम सुनाओ कि तुम्हारा क्या हालचाल है?’’

इस बात पर चित्रा धीरे से मुसकराई और कहने लगी, ‘‘मेरी तो बहुत छोटी सी दुनिया है, अनुराग, जिस में मैं और मेरी कहानियां हैं और थोड़ीबहुत समाजसेवा. शादी करवाने वाले मातापिता रहे नहीं और करने के लिए अच्छा कोई मनमीत नहीं मिला.’’

अनुराग शरारत से हंसते हुए बोला, ‘‘मुझ से अच्छा तो इस दुनिया में और कोई है नहीं,’’ इस पर चित्रा बोली, ‘‘हां, यही तो मैं भी कह रही हूं,’’ और फिर चित्रा और अनुराग के बीच बचपन की बातें चलती रहीं.

बातों के इस सिलसिले में समय कितना जल्दी बीत गया इस का दोनों को खयाल ही न रहा. घड़ी पर नजर पड़ी तो अनुराग ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, रात होने को आई. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

चित्रा बोली, ‘‘तुम भी कमाल करते हो, अनुराग, आधुनिक पुरुष होते हुए भी बिलकुल पुरानी बातें करते हो. तुम मेरे मित्र हो और एक दोस्त दूसरे दोस्त के घर जरूर रुक सकता है.’’

अनुराग ने हाथ जोड़ कर शरारत से कहा, ‘‘देवी, आप मुझे माफ करें. मैं आधुनिक पुरुष जरूर हूं, हमारा समाज भी आधुनिक जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि यह समाज एक सुंदर सी, कमसिन सी, ख्यातिप्राप्त अकेली कुंआरी युवती के घर उस के पुरुष मित्र की रात बितानी पचा सके. इसलिए मुझे तो अब जाने ही दें. हां, सुबह का नाश्ता तुम्हारे घर पर तुम्हारे साथ ही करूंगा. अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना.’’

यह सुन कर चित्रा भी अपनी हंसी दबाती हुई बोली, ‘‘जाइए, आप को जाने दिया, लेकिन कल सुबह आप की दावत पक्की रही.’’

अनुराग को विदा कर के चित्रा उस के बारे में काफी देर तक सोचती रही और सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. सुबह जब आंख खुली तो काफी देर हो चुकी थी. उस ने फौरन नौकरानी को बुला कर नाश्ते के बारे में बताया और खुद तैयार होने चली गई.

आज चित्रा का मन कुछ विशेष तैयार होने को हो रहा था. उस ने प्लेन फिरोजी साड़ी पहनी. उस से मेलखाती माला, कानों के टाप्स और चूडि़यां पहनीं और एक छोटी सी बिंदी भी लगा ली. जब खुद को आईने में देखा तो देखती ही रह गई. उसी समय नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, अनुराग साहब आए हैं.’’

चित्रा फौरन नीचे उतर कर ड्राइंग रूम में आई तो देखा कि अनुराग फोन पर किसी से बात कर रहे हैं. अनुराग ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और फोन उस के हाथ में दे दिया. वह आश्चर्य से उस की ओर देखने लगी. अनुराग हंसते हुए बोला, ‘‘दिव्या का फोन है. वह तुम से बात करना चाहती है.’’

अचानक चित्रा की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले लेकिन उस ने उधर से दिव्या की प्यारी मीठी आवाज सुनी तो उस की झिझक भी दूर हो गई.

दिव्या को चित्रा के बारे में सब पता था. फोन पर बात करते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार एकदूसरे से बातें कर रही हैं. थोड़ी देर बाद अनुराग ने फोन ले लिया और दिव्या को हाय कर के फोन रख दिया.

‘‘चित्रा जल्दी नाश्ता कराओ. बहुत देर हो रही है. मुझे अभी प्लेन से आगरा जाना है. यहां मेरा काम भी खत्म हो गया और तुम से मुलाकात भी हो गई.’’

अनुराग बोला तो दोनों नाश्ते की मेज पर आ गए.

नाश्ता करते हुए अनुराग बारबार चित्रा को ही देखे जा रहा था. चित्रा ने महसूस किया कि उस के मन में कुछ उमड़घुमड़ रहा है. वह हंस कर बोली, ‘‘अनुराग, मन की बात अब कह भी दो.’’

अनुराग बोला, ‘‘भई, तुम्हारे नाश्ते व तुम को देख कर लग रहा है कि आज कोई बहुत बड़ी बात है. तुम बहुत अच्छी लग रही हो.’’

चित्रा को ऐसा लगा कि वह भी अनुराग के मुंह से यही सुनना चाह रही थी. हंस कर बोली, ‘‘हां, आज बड़ी बात ही तो है. आज मेरे बचपन का साथी जो आया है.’’

नाश्ता करने के बाद अनुराग ने उस से विदा ली और बढि़या सी साड़ी उसे उपहार में दी, साथ ही यह भी कहा कि एक दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए एक छोटी सी भेंट है. इसे बिना नानुकर के ले लेना. चित्रा ने भी बिना कुछ कहे उस के हाथ से वह साड़ी ले ली. अनुराग उस के सिर को हलका सा थपथपा कर चला गया.

चित्रा काफी देर तक ऐसे ही खड़ी रही फिर अचानक ध्यान आया कि उस ने तो अनुराग का पता व फोन नंबर कुछ भी नहीं लिया. उसे बड़ी छटपटाहट महसूस हुई लेकिन वह अब क्या कर सकती थी.

दिन गुजरने लगे. पहले वाली जीवनचर्या शुरू हो गई. अचानक 15 दिन बाद अनुराग का फोन आया. चित्रा के हैलो बोलते ही बोला, ‘‘कैसी हो? हो न अब भी बेवकूफ, उस दिन मेरा फोन नंबर व पता कुछ भी नहीं लिया. लो, फटाफट लिखो.’’

इस के बाद तो अनुराग और दिव्या से चित्रा की खूब सारी बातें हुईं. हफ्ते 2 हफ्ते में अनुराग व दिव्या से फोन पर बातें हो ही जाती थीं.

आज लगभग एक महीना होने को आया पर इधर अनुराग व दिव्या का कोई फोन नहीं आया था. चित्रा भी फुरसत न मिल पाने के कारण फोन नहीं कर सकी. एक दिन समय मिलने पर चित्रा ने अनुराग को फोन किया. उधर से अनुराग का बड़ा ही मायूसी भरा हैलो सुन कर उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने अनुराग से पूछा, ‘‘क्या बात है, अनुराग, सबकुछ ठीकठाक तो है. तुम ने तो तब से फोन भी नहीं किया.’’

इतना सुन कर अनुराग फूटफूट कर फोन पर ही रो पड़ा और बोला, ‘‘नहीं, कुछ ठीक नहीं है. दिव्या की तबीयत बहुत खराब है. उस की दोनों किडनी फेल हो गई हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है कि अगर एक सप्ताह में किडनी नहीं बदली गई तो दिव्या नहीं बच पाएगी… मैं हर तरह की कोशिश कर के हार गया हूं. कोईर् भी किडनी देने को तैयार नहीं है. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? मेरा व मेरे बच्चों का क्या होगा?’’

चित्रा बोली, ‘‘अनुराग, परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा. मैं आज ही तुम्हारे पास पहुंचती हूं.’’

शाम तक चित्रा आगरा पहुंच चुकी थी. अनुराग को देखते ही उसे रोना आ गया. वह इन कुछ दिनों में ही इतना कमजोर हो गया था कि लगता था कितने दिनों से बीमार है.

सेक्स का डबल मजा लेना चाहते हैं तो आज ही आजमाएं ‘डर्टी टौकिंग’

यों तो भारतीय समाज का एक बड़ा तबका सेक्स पर खुल कर बात नहीं पसंद करता व सेक्स आनंद की चीज है, यह तो पता होता है पर सिर्फ रात के अंधेरे में ही. कमरे की बत्तियों को बुझा कर सेक्स का लुत्फ उठाने वालों के लिए यह भले ही एक सामान्य प्रक्रिया लगती हो, पर विशेषज्ञों का मानना है कि सेक्स में नए नए प्रयोग शारीरिक सुख के साथ साथ मानसिक खुशी भी देती है.

लंबे सेक्स लाइफ के दौरान उब गए हों, कुछ नयापन चाहते हों, सेक्स संबंध के दौरान चुहूलबाजी कर उसे और भी मजेदार बनाना चाहते हों, तो डर्टी टौकिंग विद सेक्स संबंधों में गरमाहट ला देगी.

क्या है डर्टी टौकिंग

सेक्स के दौरान डर्टी टौकिंग न तो गाली है न ही ऐसी कोई बात कहनी होती है, जो सेक्स पार्टनर को बुरी लगे. सेक्स में डर्टी टौकिंग सेक्स क्रिया के दौरान साथी के अंगों को निहारना, सहलाना, हलकी छेड़छाड़ व खुल कर बातचीत करनी होती है.

कैसे बनाएं मजेदार

अगर आप को अपने प्यार भरे शब्दों के बाण से साथी को घायल करने में थोङी भी महारत हासिल है, तो डर्टी टौकिंग का कुछ इस तरह अंदाज गुदगुदी का एहसास कराएगी-

* सेक्स के दौरान कमरे की बत्तियों को जलने दें. संभव हो तो रंगीन बल्व जलाएं.

* हलका म्यूजिक चला दें. इस से मदहोशी का आलम बना रहेगा.

* एकदूसरे के अंगों को अपलक निहारें और उन की तारीफ करें.

* सेक्स के दौरान बातचीत उस पल को और हसीन बनाता है. आप चाहें तो तेज स्वर में भी बातचीत कर सकते हैं.

* अंगों का खुल कर नाम लें और बताएं कि वे आप को कितने पसंद हैं. सेक्स पार्टनर से भी ऐसा ही करने को कहें.

* इस दौरान सेक्स पार्टनर को अपनी आंखें खुली रखने के लिए बोलें.

* किचन में, बाथरूम में, बाथटब में बनाए सेक्स संबंधों को याद करें और खूब हंसें.

* कंडोम्स को ले कर भी खुल कर बात करें कि आप के सेक्स पार्टनर को कौन सी पसंद हैं.

* मार्केट में कई फ्लेवर्स व रंगों के कंडोम्स उपलब्ध हैं. उन पर खुल कर बात करिए और उन्हें आजमाइए भी.

यकीन मानिए, सेक्स की उपरोक्त क्रियाएं तनाव व भागदौड़ भरी जिंदगी से अलग ही सुकून देंगी और न सिर्फ रोमांचक लगेंगी, रिश्तों में नई जान व ताजगी का एहसास भी कराएंगी. याद रखिए कि सेक्स कुदरत का दिया एक अनमोल तोहफा है.

नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.

हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.

काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.

भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.

35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.

गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.

पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.

पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

बोझ : अपनो का बोझ भी क्या बोझ होता है

मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.

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