काठ की हांडी : क्या हुआ जब पति की पुरानी प्रेमिका से मिली सीमा

रितु ने दोपहर में फोन कर के मु झे शाम को अपने फ्लैट पर बुलाया था.

‘‘मेरा मन बहुत उचाट हो रहा है. औफिस से निकल कर सीधे मेरे यहां आ जाओ. कुछ देर. दोनों गपशप करेंगे,’’ फोन पर रितु की आवाज में मु झे हलकी सी बेचैनी के भाव महसूस हुए.

‘‘तुम वैभव को क्यों नहीं बुला लेती हो गपशप के लिए? तुम्हारा यह नया आशिक तो सिर के बल भागा चला आएगा,’’ मैं ने जानबू झ कर वैभव को बुलाने की बात उठाई.

‘‘इस वक्त मु झे किसी नए नहीं, बल्कि पुराने आशिक के साथ की जरूरत महसूस हो रही है,’’ उस ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘सीमा भी तुम से मिलने आने की बात कह रही थी. उसे साथ लेता आऊं?’’ मैं ने उस के मजाक को नजरअंदाज करते हुए पूछा.

‘‘क्या तुम्हें अकेले आने में कोई परेशानी है?’’ वह खीज उठी.

‘‘मु झे कोई परेशानी होनी चाहिए क्या?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अब ज्यादा भाव मत खाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ और उस ने  झटके से फोन काट दिया.

रितु अपने फ्लैट में अकेली रहती है. शाम को उस से मिलने जाने की बात मेरे मन को बेचैन कर रही थी. अपना काम रोक कर मैं कुछ देर के लिए पिछले महीनेभर की घटनाओं के बारे में सोचने लगा…

मेरी शादी होने के करीब 8 साल बाद रितु अचानक महीनाभर पहले मेरे घर मु झ से मिलने आई तो मैं हैरान होने के साथसाथ बहुत खुश भी हुआ था.

‘‘अभी भी किसी मौडल की तरह आकर्षक नजर आ रही रितु और मैं ने एमबीए साथसाथ किया था. सीमा, हमारी शादी होने से पहले ही यह मुंबई चली गई थी वरना बहुत पहले ही तुम से इस की मुलाकात हो जाती,’’ सहज अंदाज में अपनी पत्नी का रितु से परिचय कराते हुए मैं ने अपने मन की उथलपुथल को बड़ी कुशलता से छिपा लिया.

मेरे 5 साल के बेटे रोहित के लिए रितु ढेर सारी चौकलेट और रिमोट से चलने वाली कार लाई थी. सीमा और मेरे साथ बातें करते हुए वह लगातार रोहित के साथ खेल भी रही थी. बहुत कम समय में उस ने मेरे बेटे और उस की मम्मी का दिल जीत लिया.‘‘क्या चल रहा है तुम्हारी जिंदगी में? मयंक के क्या हालचाल हैं?’’ मेरे इन सवालों को सुन कर उस ने अचानक जोरदार ठहाका लगाया तो सीमा और मैं हैरानी से उस का मुंह ताकने लगे.

हंसी थम जाने के बाद उस ने रहस्यमयी मुसकान होंठों पर सजा कर हमें बताया, ‘‘मेरी जिंदगी में सब बढि़या चल रहा है, अरुण. बहुराष्ट्रीय बैंक में जौब कर रही हूं. मयंक मजे में है. वह 2 प्यारी बेटियों का पापा बन गया है.’’

‘‘अरे वाह, वैसे तुम्हें देख कर यह कोई नहीं कह सकता है कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो,’’ मेरे शब्दों में उस की तारीफ साफ नजर आ रही थी.

रितु पर एक बार फिर हंसने का दौरा सा पड़ा. सीमा और मैं बेचैनीभरे अंदाज में मुसकराते हुए उस के यों बेबात हंसने का कारण जानने की प्रतीक्षा करने लगे.

‘‘माई डियर अरुण, मु झे पता था कि तुम ऐसा गलत अंदाजा जरूर लगाओगे. यार, वह 2 बेटियों का पिता है पर मैं उस की पत्नी नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम दोनों ने शादी नहीं की है?’’

‘‘उस ने तो की पर मैं अभी तक शुद्ध अविवाहिता हूं, तलाकशुदा या विधवा नहीं. तुम्हारी नजर में मेरे लायक कोई सही रिश्ता हो तो जरूर बताना,’’ अपने इस मजाक पर उस ने फिर से जोरदार ठहाका लगाया.

‘‘मजाक की बात नहीं है यह, रितु बताओ न कि तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ मैं ने गंभीर लहजे में पूछा.

‘‘जब सही मौका सामने था किसी अच्छे इंसान के साथ जिंदगीभर को जुड़ने का तो मैं ने नासम झी दिखाई और वह मौका हाथ से निकल गया. लेकिन यह किस्सा फिर कभी सुनाऊंगी. अब तो मैं अपनी मस्ती में मस्त बहती धारा बनी रहना चाहती हूं… सच कहूं तो मु झे शादी का बंधन अब अरुचिकर प्रतीत होता है,’’ 33 साल की उम्र तक अविवाहित रह जाने का उसे कोई गम है, यह उस की आवाज से बिलकुल जाहिर नहीं हो रहा था.

मगर सीमा ने शादी न करने के मामले में अपनी राय उसे

उसी वक्त बता दी, ‘‘शादी नहीं करोगी तो बढ़ती उम्र के साथ अकेलेपन का एहसास लगातार बढ़ता जाएगा. अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. मेरी सम झ से तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, रितु.’’

‘‘तुम ढूंढ़ना न मेरे लिए कोई सही जीवनसाथी, सीमा,’’ रितु बड़े अपनेपन से सीमा का हाथ पकड़ कर दोस्ताना लहजे में मुसकराई तो मेरी पत्नी ने उसी पल से उसे अपनी अच्छी सहेली मान लिया.

उन दोनों को गपशप में लगा देख मैं उस दिन भी अतीत की यादों में खो गया…

एक समय था जब साथसाथ एमबीए करते हुए हम दोनों ने जीवनसाथी बनने के रंगीन सपने देखे थे. हमारा प्रेम करीब 2 साल चला और फिर उस का  झुकाव अचानक मयंक की तरफ होता चला गया.

वैसे मयंक रितु की एक सहेली निशा का बौयफ्रैंड था. इस इत्तफाक ने बड़ा गुल खिलाया कि मयंक रितु की कालोनी में ही रहता था. इस कारण निशा द्वारा परिचय करा दिए जाने के बाद मयंक और रितु की अकसर मुलाकातें होने लगीं.

ये मुलाकातें निशा और मेरे लिए बड़ी दुखदाई साबित हुईं. अचानक एक दिन रितु ने मु झ से और मयंक ने निशा से प्रेम संबंध समाप्त कर लिए.

‘‘रितु प्लीज, तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी. मेरा साथ मत छोड़ो,’’ मैं ने उस के सामने आंसू भी बहाए पर उस ने मु झ से दूर होने का अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘आई एम सौरी अरुण… मैं मयंक के साथ कहीं ज्यादा खुश हूं. तुम्हें मु झ से बेहतर लड़की मिलेगी, फिक्र न करो,’’ हमारी आखिरी मुलाकात के समय उस ने मेरा गाल प्यार से थपथपाया और मेरी जिंदगी से निकल गई.

मु झ से कहीं ज्यादा तेज  झटका उस की सहेली निशा को लगा था. उस ने तो नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश भी करी थी.

एमबीए करने के बाद वह मुंबई चली गई. मैं सोचता था कि उस ने मयंक से शादी कर ली होगी पर मेरा अंदाजा गलत निकला.

मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि रितु से जुड़ी यादों की पीड़ा को वह लगभग पूरी तरह भूल चुका है. मैं सीमा और रोहित के साथ बहुत खुश था. उस दिन रितु को सामने देख कर मु झे वैसी खुशी महसूस हुई थी जैसी किसी पुराने करीबी दोस्त के अचानक आ मिलने से होती है.

उस दिन सीमा ने अपनी नई सहेली रितु को खाना खिला कर भेजा. कुछ घंटों में ही उन दोनों के बीच दोस्ती के मजबूत संबंध की नींव पड़ गई.

रितु अकसर हमारे यहां शाम को आ जाती थी. उस की मु झ से कम और सीमा से ज्यादा बातें होतीं. रोहित भी उस के साथ खेल कर बहुत खुश होता.

रोहित के जन्मदिन की पार्टी में सीमा ने उस का परिचय अपनी सहेली वंदना के बड़े भाई वैभव से कराया. दोनों सहेलियों की मिलीभगत से यह मुलाकात संभव हो पाई थी.

वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था.

किसी को उम्मीद नहीं थी पर रितु के साथ हुई पहली मुलाकात में ही वैभव भाई उस के प्रशंसक बन गए थे. रितु भी उस दिन फ्लर्ट करने के पूरे मूड में थी. उन दोनों के बीच आपसी पसंद को लगातार बढ़ते देख सीमा बहुत खुश हुई थी.

रितु और वैभव ने 2 दिन बाद बड़े महंगे होटल में साथ डिनर किया है, वंदना से मिली इस खबर ने सीमा को खुश कर दिया.

‘‘वैसे यह बंदा तो ठीक है सीमा, पर मेरे सपनों के राजकुमार से बहुत ज्यादा नहीं मिलता है, लेकिन तुम्हारी मेहनत सफल करने के लिए

मैं दिल से कोशिश कर रही हूं कि हमारा तालमेल बैठ जाए,’’ अगले दिन शाम को रितु ने अपने मन की बात सीमा को और मु झे साफसाफ बता दी.

‘‘अपने सपनों के राजकुमार के गुणों से हमें भी परिचित कराओ, रितु,’’ सीमा की इस जिज्ञासा का रितु क्या जवाब देगी, उसे सुनने को मैं भी उत्सुक हो उठता था.

रितु ने सीमा की पकड़ में आए बिना पहले मेरी तरफ मुड़ कर शरारती अंदाज में मु झे आंख मारी और फिर उसे बताने लगी, ‘‘मेरे सपनों का राजकुमार उतना ही अच्छा होना चाहिए जितना अच्छा तुम्हारा जीवनसाथी, सीमा. मेरी खुशियों… मेरे सुखदुख का हमेशा ध्यान रखने वाला सीधासादा हंसमुख इंसान है मेरे सपनों का राजकुमार.’’

‘‘ऐसे सीधेसादे इंसान से तुम जैसी स्मार्ट, फैशनेबल, आधुनिक स्त्री की निभ जाएगी?’’ सीमा ने माथे में बल डाल कर सवाल किया.

‘‘सीमा, 2 इंसानों के बीच आपसी सम झ और तालमेल गहरे प्रेम का मजबूत आधार बनता है या नहीं?’’

‘‘बिलकुल बनता है. वैभव तुम्हें अगर नहीं भी जंचा तो फिक्र नहीं. तुम्हारी शादी मु झे करानी ही है और तुम्हारे सपनों के राजकुमार से मिलताजुलता आदमी मैं ढूंढ़ ही लाऊंगी,’’ जोश से भरी सीमा भावुक भी हो उठी थी.

‘‘जो सामने मौजूद है उसे ढूंढ़ने की बात कह रही थी मेरी सहेली,’’ कुछ देर बाद जब सीमा रसोई में थी तब रितु ने मजाकिया लहजे में इन शब्दों को मुंह से निकाला तो मेरे दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं.

मन में मच रही हलचल के चलते मु झ से कोई जवाब देते नहीं बना था. रितु ने हाथ बढ़ा कर अचानक मेरे बालों को शरारती अंदाज में खराब सा किया और फिर मुसकराती हुई रसोई में सीमा के पास चली गई.

उस दिन रितु की आंखों में मैं ने अपने लिए चाहत के भावों को साफ पहचाना था.

आगामी दिनों में उसे जब भी अकेले में मेरे साथ होने का मौका मिलता तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा कहती या करती जो उस की मेरे प्रति चाहत को रेखांकित कर जाता. मैं ने अपनी तरफ से उसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया था पर मु झ से छेड़छाड़ करने का उस का हौसला बढ़ता ही जा रहा था.

इन सब बातों को सोचते हुए मैं ने शाम तक का समय गुजारा. रितु के फ्लैट की तरफ अपनी कार से जाते हुए मैं खुद को काफी तनावग्रस्त महसूस कर रहा था, इस बात को मैं स्वीकार करता हूं.

अपने ड्राइंगरूम में रितु मेरी बगल में बैठते हुए शिकायती अंदाज में बोली, ‘‘तुम ने बहुत इंतजार कराया, अरुण.’’

‘‘नहीं तो… अभी 6 ही बजे हैं. औफिस खत्म होने के आधे घंटे बाद ही मैं हाजिर हो गया हूं. कहो, कैसे याद किया है?’’ अपने स्वर को हलकाफुलका रखते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘आज तुम से बहुत सारी बातें कहनेसुनने का दिल कर रहा है,’’ कहते हुए उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया.

‘‘तुम बेहिचक बोलना शुरू करो. मैं तुम्हारे मुंह से निकले हर शब्द को पूरे ध्यान से सुनूंगा.’’

मेरी आंखों में गहराई से  झांकते हुए उस ने भावुक लहजे में कहा, ‘‘अरुण, तुम्हारे प्यार को मैं कुछ दिनों से बहुत मिस कर रही हूं.’’

‘‘अरे, अब मेरे नहीं वैभव के प्यार को अपने दिल में जगह दो, रितु,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘मेरी जिंदगी में बहुत पुरुष आए हैं और आते रहेंगे, पर मेरे दिल में तुम्हारी जगह किसी को नहीं मिल सकेगी. तुम से दूर जा कर मैं ने अपने जीवन की सब से बड़ी भूल की है.’’

‘‘पुरानी बातों को याद कर के बेकार में अपना मन क्यों दुखी कर रही हो?’’

‘‘मेरी जिंदगी में खुशियों की बौछार तुम ही कर सकते हो, अरुण. अपने प्यार के लिए मु झे अब और तरसने मत दो, प्लीज,’’ और उस ने मेरे हाथ को कई बार चूम लिया.

‘‘मैं एक शादीशुदा इंसान हूं, रितु. मु झ से ऐसी चीज मत मांगो जिसे देना गलत होगा,’’ मैं ने उसे कोमल स्वर में सम झाया.

‘‘मैं सीमा का हक छीनने की कोशिश नहीं कर रही हूं. हम उसे कुछ पता नहीं लगने देंगे,’’ मेरे हाथ को अपने वक्षस्थल से चिपका कर उस ने विनती सी करी.

कुछ पलों तक उस के चेहरे को ध्यान से निहारने के बाद मैं ने ठहरे अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारे बदलते हावभावों को देख कर मु झे पिछले कुछ दिनों से ऐसा कुछ घटने का अंदेशा हो गया था, रितु. अब प्लीज तुम मेरी बातों को ध्यान से सुनो.

‘‘हमारा प्रेम संबंध उसी दिन समाप्त हो गया था जिस दिन तुम ने मु झे छोड़ कर मयंक के साथ जुड़ने का निर्णय लिया था. अब हमारे पास उस अतीत की यादें हैं, लेकिन उन यादों के बल पर दोबारा प्रेम का रिश्ता कायम करने की इच्छा रखना तुम्हारी नासम झी ही है.

‘‘ऐसे प्रेम संबंध को छिपा कर रखना संभव नहीं होता है, रितु. मु झे आज भी मयंक की प्रेमिका निशा याद है. तुम ने मयंक को उस से छीना तो उस ने खुदकुशी करने की कोशिश करी थी. तुम्हें मनाने के लिए मैं किसी छोटे बच्चे की तरह रोया था, शायद तुम्हें याद होगा. किसी बिलकुल अपने विश्वासपात्र के हाथों धोखा खाने की गहन पीड़ा कल को सीमा भोगे, ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहूंगा.

‘‘पिछली बार तुम ने निशा और मेरी खुशियों के संसार को अपनी खुशियों की खातिर तहसनहस कर दिया था. आज तुम सीमा, रोहित और मेरी खुशियोें और सुखशांति को अपने स्वार्थ की खातिर दांव पर लगाने को तैयार हो पर काठ की हांडी फिर से चूल्हे पर नहीं चढ़ती है.

‘‘देखो, आज तुम सीमा की बहुत अच्छी सहेली बनी हुई हो. हम तुम्हें अपने घर की सदस्य मानते हैं. मैं तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त और शुभचिंतक हूं. तुम नासम झी का शिकार बन कर हमारे साथ ऐसे सुखद रिश्ते को तोड़ने व बदनाम करने की मूर्खता क्यों करना चाहती हो?’’

‘‘तुम इतना ज्यादा क्यों डर रहे हो, स्वीटहार्ट?’’ मेरे सम झाने का उस पर खास असर नहीं हुआ और वह अपनी आंखों में मुझे प्रलोभित करने वाले नशीले भाव भर कर मेरी तरफ बढ़ी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई तो वह नाराजगीभरे अंदाज में मुड़ कर दरवाजा

खोलने चल पड़ी.

‘‘यह सीमा होगी,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों को सुन वह  झटके से मुड़ी और मु झे गुस्से से घूरने लगी.

‘‘तुम ने बुलाया है उसे यहां?’’ उस ने दांत पीसते हुए पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं अकेले यहां नहीं आना चाहता था.’’

‘‘अब उसे क्या बताओगे?’’

‘‘कह दूंगा कि तुम उस की सौत बनने की…’’

‘‘शटअप, अरुण. अगर तुम ने हमारे बीच हुई बात का उस से कभी जिक्र भी किया तो मैं तुम्हारा मर्डर कर दूंगी.’’ वह अब घबराई सी नजर आ रही थी.

‘‘क्या तुम्हें इस वक्त डर लग रहा है?’’ मैं ने उस के नजदीक जा कर कोमल स्वर में पूछा.

‘‘म… मु झे… मैं सीमा की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल यही इच्छा मेरे भी है, माई गुड फ्रैंड.’’

‘‘अब उस से क्या कहोगे?’’ दोबारा बजाई गई घंटी की आवाज सुन कर उस की हालत और पतली हो गई.

‘‘तुम्हें वैभव कैसा लगता है?’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘इस ठीक को हम सब मिल कर बहुत अच्छा बना लेंगे, रितु. तुम बहुत भटक चुकी हो. मेरी सलाह मान अब अपनी घरगृहस्थी बसाने का निर्णय ले डालो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि सीमा को हम यह बताएंगे कि हम ने उसे यहां महत्त्वपूर्ण सलाहमश्वरे के लिए बुलाया है, क्योंकि तुम आज वैभव को अपना जीवनसाथी बनाने के लिए किसी पक्के फैसले तक पहुंचना चाहती हो.’’

‘‘गुड आइडिया,’’ रितु की आंखों में राहत के भाव उभरे.

‘‘तब सुखद विवाहित जीवन के लिए मेरी अग्रिम शुभकामनाएं स्वीकार करो, रितु,’’ मैं ने उस से फटाफट हाथ मिलाया और फिर जल्दी से दरवाजा खोलने के लिए मजाकिया ढंग से धकेल सा दिया.

‘‘थैंक यू, अरुण.’’ उस ने कृतज्ञ भाव से मेरी आंखों में  झांका और फिर खुशी से भरी दरवाजा खोलने चली गई.

‘‘वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था…’’

हिंदी की दुकान : क्या पूरा हुआ सपना

मेरे रिटायरमेंट का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, एक ही चिंता सताए जा रही थी कि इतने वर्षों तक बेहद सक्रिय जीवन जीने के बाद घर में बैठ कर दिन गुजारना कितना कष्टप्रद होगा, इस का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इसी उधेड़बुन में कई महीने बीत गए. एक दिन अचानक याद आया कि चंदू चाचा कुछ दिन पहले ही रिटायर हुए हैं. उन से बात कर के देखा जा सकता है, शायद उन के पास कोई योजना हो जो मेरे भावी जीवन की गति निर्धारित कर सके.

यह सोच कर एक दिन फुरसत निकाल कर उन से मिला और अपनी समस्या उन के सामने रखी, ‘‘चाचा, मेरे रिटायरमेंट का दिन नजदीक आ रहा है. आप के दिमाग में कोई योजना हो तो मेरा मार्गदर्शन करें कि रिटायरमेंट के बाद मैं अपना समय कैसे बिताऊं?’’

मेरी बात सुनते ही चाचा अचानक चहक उठे, ‘‘अरे, तुम ने तो इतने दिन हिंदी की सेवा की है, अब रिटायरमेंट के बाद क्या चिंता करनी है. क्यों नहीं हिंदी की एक दुकान खोल लेते.’’

‘‘हिंदी की दुकान? चाचा, मैं समझा नहीं,’’ मैं ने अचरज से पूछा.

‘‘देखो, आजकल सभी केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिंदी सेल काम कर रहा है,’’ चाचा बोले, ‘‘सरकार की ओर से इन कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग करने और उसे बढ़ावा देने के लिए तरहतरह के प्रयास किए जा रहे हैं. कार्यालयों के आला अफसर भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. इन दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों को समयसमय पर प्रशिक्षण आदि की जरूरत तो पड़ती ही रहती है और जहां तक हिंदी का सवाल है, यह मामला वैसे ही संवेदनशील है. इसी का लाभ उठाते हुए हिंदी की दुकान खोली जा सकती है. मैं समझता हूं कि यह दुकानदारी अच्छी चलेगी.’’

‘‘तो मुझे इस के लिए क्या करना होगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘करना क्या होगा,’’ चाचा बोले, ‘‘हिंदी के नाम पर एक संस्था खोल लो, जिस में राजभाषा शब्द का प्रयोग हो. जैसे राजभाषा विकास निगम, राजभाषा उन्नयन परिषद, राजभाषा प्रचारप्रसार संगठन आदि.’’

‘‘संस्था का उद्देश्य क्या होगा?’’

‘‘संस्था का उद्देश्य होगा राजभाषा का प्रचारप्रसार, हिंदी का प्रगामी प्रयोग तथा कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं का समाधान. पर वास्तविक उद्देश्य होगा अपनी दुकान को ठीक ढंग से चलाना. इन सब के लिए विभिन्न प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन किया जा सकता है.’’

‘‘चाचा, इन कार्यशालाओं में किनकिन विषय पर चर्चाएं होंगी?’’

‘‘कार्यशालाओं में शामिल किए जाने वाले विषयों में हो सकते हैं :राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली कठिनाइयां और उन का समाधान, वर्तनी का मानकीकरण, अनुवाद के सिद्धांत, व्याकरण एवं भाषा, राजभाषा नीति और उस का संवैधानिक पहलू, संसदीय राजभाषा समिति की प्रश्नावली का भरना आदि.’’

‘‘कार्यशाला कितने दिन की होनी चाहिए?’’ मैं ने अपनी शंका का समाधान किया.

‘‘मेरे खयाल से 2 दिन की करना ठीक रहेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं में भाग कौन लोग लेंगे?’’

‘‘केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों तथा उपक्रमों के हिंदी अधिकारी, हिंदी अनुवादक, हिंदी सहायक तथा हिंदी अनुभाग से जुड़े तमाम कर्मचारी इन कार्यशालाओं में भाग लेने के पात्र होंगे. इन कार्यालयों के मुख्यालयों एवं निगमित कार्यालयों को परिपत्र भेज कर नामांकन आमंत्रित किए जा सकते हैं.’’

‘‘परंतु उन के वरिष्ठ अधिकारी इन कार्यशालाओं में उन्हें नामांकित करेंगे तब न?’’

‘‘क्यों नहीं करेंगे,’’ चाचा बोले, ‘‘इस के लिए इन कार्यशालाओं में तुम्हें कुछ आकर्षण पैदा करना होगा.’’

मैं आश्चर्य में भर कर बोला, ‘‘आकर्षण?’’

‘‘इन कार्यशालाओं को जहांतहां आयोजित न कर के चुनिंदा स्थानों पर आयोजित करना होगा, जो पर्यटन की दृष्टि से भी मशहूर हों. जैसे शिमला, मनाली, नैनीताल, श्रीनगर, ऊटी, जयपुर, हरिद्वार, मसूरी, गोआ, दार्जिलिंग, पुरी, अंडमान निकोबार आदि. इन स्थानों के भ्रमण का लोभ वरिष्ठ अधिकारी भी संवरण नहीं कर पाएंगे और अपने मातहत कर्मचारियों के साथसाथ वे अपना नाम भी नामांकित करेंगे. इस प्रकार सहभागियों की अच्छी संख्या मिल जाएगी.’’

‘‘इस प्रकार के पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कार्यशालाएं आयोजित करने पर खर्च भी तो आएगा?’’

‘‘खर्च की चिंता तुम्हें थोड़े ही करनी है. अधिकारी स्वयं ही खर्च का अनुमोदन करेंगे/कराएंगे… ऐसे स्थानों पर अच्छे होटलों में आयोजन से माहौल भी अच्छा रहेगा. लोग रुचि ले कर इन कार्यशालाओं में भाग लेंगे. बहुत से सहभागी तो अपने परिवार के साथ आएंगे, क्योंकि कम खर्च में परिवार को लाने का अच्छा मौका उन्हें मिलेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के लिए प्रतिव्यक्ति नामांकन के लिए कितना शुल्क निर्धारित किया जाना चाहिए?’’ मैं ने पूछा.

चाचा ने बताया, ‘‘2 दिन की आवासीय कार्यशालाओं का नामांकन शुल्क स्थान के अनुसार 9 से 10 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति ठीक रहेगा. जो सहभागी खुद रहने की व्यवस्था कर लेंगे उन्हें गैर आवासीय शुल्क के रूप में 7 से 8 हजार रुपए देने होंगे. जो सहभागी अपने परिवारों के साथ आएंगे उन के लिए 4 से 5 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति अदा करने होंगे. इस शुल्क में नाश्ता, चाय, दोपहर का भोजन, शाम की चाय, रात्रि भोजन, स्टेशनरी तथा भ्रमण खर्च शामिल होगा.’’

‘‘लेकिन चाचा, सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में इन कार्यशालाओं का औचित्य कैसे साबित करेंगे?’’

‘‘उस के लिए भी समुचित व्यवस्था करनी होगी,’’ चाचा ने समझाया, ‘‘कार्यशाला के अंत में प्रश्नावली का सत्र रखा जाएगा, जिस में प्रथम, द्वितीय, तृतीय के अलावा कम से कम 4-5 सांत्वना पुरस्कार विजेताओं को प्रदान किए जाएंगे. इस में ट्राफी तथा शील्ड भी पुरस्कार विजेताओं को दी जा सकती हैं. जब संबंधित कार्यालय पुरस्कार में मिली इन ट्राफियों को देखेंगे, तो कार्यशाला का औचित्य स्वयं सिद्ध हो जाएगा. विजेता सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में कार्यशाला की उपयोगिता एवं उस के औचित्य का गुणगान स्वयं ही करेंगे. इसे और उपयोगी साबित करने के लिए परिपत्र के माध्यम से कार्यशाला में प्रस्तुत किए जाने वाले उपयोगी लेख तथा पोस्टर व प्रचार सामग्री भी मंगाई जा सकती है.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के आयोजन की आवृत्ति क्या होगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वर्ष में कम से कम 2-3 कार्य-शालाएं आयोजित की जा सकती हैं.’’

‘‘कार्यशाला के अतिरिक्त क्या इस में और भी कोई गतिविधि शामिल की जा सकती है?’’

मेरे इस सवाल पर चाचा बताने लगे, ‘‘दुकान को थोड़ा और लाभप्रद बनाने के लिए हिंदी पुस्तकों की एजेंसी ली जा सकती है. आज प्राय: हर कार्यालय में हिंदी पुस्तकालय है. इन पुस्तकालयों को हिंदी पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. कार्यशाला में भाग लेने वाले सहभागियों अथवा परिपत्र के माध्यम से पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. आजकल पुस्तकों की कीमतें इतनी ज्यादा रखी जाती हैं कि डिस्काउंट देने के बाद भी अच्छी कमाई हो जाती है.’’

‘‘लेकिन चाचा, इस से हिंदी कार्यान्वयन को कितना लाभ मिलेगा?’’

‘‘हिंदी कार्यान्वयन को मारो गोली,’’ चाचा बोले, ‘‘तुम्हारी दुकान चलनी चाहिए. आज लगभग 60 साल का समय बीत गया हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले हुए. किस को चिंता है राजभाषा कार्यान्वयन की? जो कुछ भी हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है वह हिंदी सिनेमा व टेलीविजन की देन है.

‘‘उच्चाधिकारी भी इस दिशा में कहां ईमानदार हैं. जब संसदीय राजभाषा समिति का निरीक्षण होना होता है तब निरीक्षण तक जरूर ये निष्ठा दिखाते हैं, पर उस के बाद फिर वही ढाक के तीन पात. यह राजकाज है, ऐसे ही चलता रहेगा पर तुम्हें इस में मगजमारी करने की क्या जरूरत? अगर और भी 100 साल लगते हैं तो लगने दो. तुम्हारा ध्यान तो अपनी दुकानदारी की ओर होना चाहिए.’’

‘‘अच्छा तो चाचा, अब मैं चलता हूं,’’ मैं बोला, ‘‘आप से बहुत कुछ जानकारी मिली. मुझे उम्मीद है कि आप के अनुभवों का लाभ मैं उठा पाऊंगा. इतनी सारी जानकारियों के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

चंदू चाचा के घर से मैं निकल पड़ा. रास्ते में तरहतरह के विचार मन को उद्वेलित कर रहे थे. हिंदी की स्थिति पर तरस आ रहा था. सोच रहा था और कितने दिन लगेंगे हिंदी को अपनी प्रतिष्ठा व पद हासिल करने में? कितना भला होगा हिंदी का इस प्रकार की दुकानदारी से?

चरित्रहीन कौन: क्या उषा अपने पति को बचा पाई?

ऊषा का पति प्रकाश शादी के 3 महीने बाद ही नौकरी ढूंढ़ने मुंबई चला गया था. वह ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में मजदूरी कर रहा था. जो भी कमाई होती थी उस में से आधा हिस्सा वह ऊषा को भेजता था और आधे हिस्से में खुद गुजारा करता था.

दीवाली की छुट्टियां थीं तो प्रकाश एक साल बाद घर आ रहा था. मुंबई में खुद के रहने का कोई ठौरठिकाना नहीं था, ऐसे में वह ऊषा को कहां ले जाता.

ऊषा बिहार के एक छोटे से गांव में अकेली रहती थी. वह इस उम्मीद में पति की याद में दिन बिता रही थी कि कभी तो प्रकाश उसे मुंबई ले जाएगा.

प्रकाश के आते ही ऊषा मानो जी उठी. एक साल बाद पति से मिल कर वह ताजा गुलाब सी खिल गई.

प्रकाश महीनेभर की छुट्टी ले कर आया था, पर कुछ ही दिनों में उस की तबीयत बिगड़ने लगी. सरकारी अस्पताल में सारे टैस्ट कराने पर पता चला कि प्रकाश को एड्स है. इस खबर से दोनों पतिपत्नी पर मानो आसमान टूट पड़ा.

प्रकाश ने ऊषा से माफी मांगते हुए कहा, “मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुंबई में मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और 1-2 बार रैड लाइट एरिया की धंधे वालियों से मुलाकात का यह नतीजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

ऊषा के ऊपर दर्द का पहाड़ सा गिरा. नफरत, दुख और दर्द से उस का मन तड़प उठा, पर आखिर पति था, लिहाजा उसे माफ कर दिया. जो होना था, वह तो हो चुका, अब वह हालात को बदल तो नहीं सकती.

आहिस्ताआहिस्ता प्रकाश सूख कर कांटा हो गया. ऊषा ने बचाबचा कर जो थोड़ीबहुत पूंजी जमा की थी वह सारी प्रकाश के इलाज में लगा दी, लेकिन कोई दवा काम न आई और एक दिन प्रकाश ऊषा को इस दुनिया में अकेली छोड़ कर चल बसा.

इस बेरहम दुनिया में ऊषा अकेली रह गई. आज तक तो मांग का सिंदूर उस की हिफाजत करता था, पर अब उस की सूनी मांग मानो गांव में सब की जागीर हो गई. ऊपर से कमाने वाला भी चला गया. अब अकेली जान को भी दो वक्त की रोटी भी तो चाहिए, लिहाजा वह गांव के मुखिया के घर काम मांगने गई.

ऊषा को देख कर मुखिया की आंखों में हवस के सांप लोटने लगे और अबला, लाचार सी ऊषा के ऊपर वह किसी भेड़िए की तरह टूट पड़ा.

बेबस ऊषा यह जुल्म सह तो गई, पर आज मुखिया ने उस के मन में मर्द जात के प्रति नफरत का एक बीज बो दिया था. अब तो हर कोई उस की देह का पुजारी बन बैठा था. किसकिस से बचती वह…

ऊषा आसपास के शहर में बने बड़े बंगलों में जा कर झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम कर के अपना गुजारा करती थी, पर कुछ ही दिनों में प्रकाश से मिला प्यार का तोहफा ऊषा के शरीर को दीमक की तरह खोखला करने लगा, क्योंकि उसे भी एड्स की जानलेवा बीमारी हो गई थी.

अस्पताल में टैस्ट कराने पर इस बीमारी का पता चला, पर ऊषा खुश थी कि इस दरिंदगी भरी दुनिया से डरती, बिलखती वह जी तो रही थी, लेकिन सोच रही थी कि ऐसी जिंदगी से तो बेहतर है कि उसे मौत आ जाए.

एक दिन ऊषा काम से घर लौट रही थी कि रास्ते में 2 गुंडों ने उसे घेर लिया और पास के खंडहर में घसीटते हुए ले जा कर उस की इज्जत एक बार और तारतार कर दी.

अब ऊषा ने ठान लिया कि जब मर्दों की फितरत यही है तो यही सही, अब वह देह तो देगी, साथ में एकएक को यह बीमारी भी देगी.

अब ऊषा अपने जिस्म की दुकान खोल कर बैठ गई. हर रोज लाइन लगती थी जिस्म के भूखे दरिंदों की. ऊषा को पैसे भी मिलते थे और उस का मकसद भी पूरा होता था.

ऊषा की झोंपड़ी के सामने ही एक मंदिर था, जिस का पुजारी रोज ऊषा को नफरत या दया के भाव से देखता था, पर ऊषा हमेशा उस पुजारी को हाथ जोड़ कर नमस्ते करती थी.

इस इज्जत की वजह से वह पुजारी ऊषा की जवानी को पाने की ललक होते हुए भी पहल नहीं कर पाता था, पर एक दिन उस पुजारी का सब्र जवाब दे गया और उस ने आधी रात को ऊषा की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया.

ऊषा ने दरवाजा खोल कर पूछा, “पुजारीजी, आप यहां?”

पुजारी ने कहा, “पुजारी हूं तो क्या हुआ, हूं तो मैं भी इनसान ही न. तन की आग मुझे भी जलाती है. थोड़ी खुशी मुझे भी दे दो, बदले में जितना चाहे पैसा ले लो. पर गांव में किसी को पता न चले, आखिर लोगों की मेरे ऊपर श्रद्धा जो है.”

ऊषा के दिल में नफरत का सैलाब उठा. खुद ऊपर वाले का तथाकथित सेवक भी औरत देह का भूखा है और साथ ही यह भी चाहता है कि उस का पाप दबा रहे. पुजारी क्या ऊषा की देह को दागदार करता, ऊषा ने ही उसे बीमारी का तोहफा दे दिया.

कुछ ही दिनों में सब से पहले मुखिया के शरीर में एड्स कहर ढाने लगा. वह आगबबूला हो कर सीधा ऊषा की झोंपड़ी में घुस कर गालीगलौज करने लगा और चिल्लाचिल्ला कर कहने लगा, “सुनो गांव वालो, यह एक चरित्रहीन औरत है. इसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. यह गांव के लड़कों को खा जाएगी. अगर अपने बेटों की सलामती चाहते हो तो इस औरत को पत्थर मारमार कर गांव से बाहर निकाल दो.”

यह सुन कर सारा गांव वहां जमा हो गया और सब ऊषा की झोंपड़ी पर पत्थर मारने लगे. ऊषा भी अब रणचंडी बन कर घर में रखी कुल्हाड़ी ले कर बाहर निकली और दहाड़ते हुए बोली, “खबरदार, अगर किसी ने मेरी तरफ पत्थर फेंका तो चीर कर रख दूंगी.

“हां हूं मैं चरित्रहीन, पर मुझे चरित्रहीन बनाया किस ने? मुखिया, पहले तू अपने गरीबान में झांक कर देख. पहली बार मेरे तन को दाग तू ने ही तो लगाया था, तो मैं अकेली चरित्रहीन कैसे कहलाऊंगी? सब से बड़ा चरित्रहीन तो तू है.

“यहां पर जमा हुए बहुत से नामर्द भी चरित्रहीन हैं, तो मेरे साथ पूरा गांव भी तो चरित्रहीन कहलाएगा. और एक बात कान खोल कर सुन लो कि मुझे एड्स नाम का गुप्त रोग है और सब से पहले इस मुखिया को मैं ने दान दी यह बीमारी. इसी वजह से यह अब उछलउछल कर सब को भड़का रहा है.”

ऊषा की यह बात सुन कर पुजारी का दिल बैठ गया, फिर वह भी अपनी भड़ास निकालते हुए गांव वालों को भड़काने आगे आ गया और बोला, “सही कहा मुखियाजी ने, ऐसी औरतों को गांव में रहने का कोई हक नहीं है.”

ऊषा ने आंखें तरेरते हुए कहा, “पुजारीजी, इन अनपढ़, गंवारों की ओछी सोच तो समझ में आ सकती है, पर आप जैसे ज्ञानी और ऊपर वाले के सेवक ने भी मुझे इनसान न समझ कर एक भोगने की चीज ही समझा न?

“सुनो, इस पुजारी की असलियत. इस ने भी कई बार आधी रात को मेरा दरवाजा खटखटा कर अपना मुंह काला कराया है. सब से बड़ा चरित्रहीन तो यह पुजारी है, जिस ने खुद ऊपर वाले को भी धोखा दिया है.

“और हां, जिसजिस ने मेरे साथ जिस्मानी रिश्ता बनाया है, वे सब पहले अस्पताल पहुंचो, फिर इस चरित्रहीन औरत का हिसाब करने आना.”

इतना सुनते ही ज्यादातर मर्द वहां से भागे. ऊषा ने मुखिया और पुजारी से कहा, “कोई औरत अपनी मरजी से चरित्रहीन नहीं बनती, बल्कि उस के पीछे कहीं न कहीं किसी मर्द का ही हाथ होता है.

“बेबस, लाचार, अबला के सिर पर कोई पल्लू डालने की नहीं सोचता, हर एक को औरत के सीने के भीतर लटक रहा मांस का टुकड़ा ललचाता है. आज के बाद किसी अबला को रौंदने से पहले सौ बार सोचना.”

पुजारी और मुखिया दोनों शर्मिंदा थे. पुजारी ने कहा, “आज मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. डूब तो हम सब को मरना चाहिए. तुम ने बिलकुल सही कहा कि अगर मर्द जात अपनी हवस को काबू में रख कर अपनी हद में रहे तो कोई औरत कभी चरित्रहीन नहीं बनेगी.”

पुजारी के इतना कहते ही वहां जमा इक्कादुक्का लोग भी चले गए. ऊषा ने अपनी झोंपड़ी का दरवाजा बंद कर लिया और बक्से में से नींद की गोलियों की शीशी निकाल कर सारी की सारी गोलियां निगल गई.

अगली सुबह एक चरित्रहीन औरत की श्मशान यात्रा में पूरा गांव तो उमड़ा, पर सब से पहले मुखिया और पुजारी ने उस की अर्थी को कंधा दिया. उन नकारों के मुंह से ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज सुनते ही ऊषा के बेजान होंठ भी मानो हंस दिए.

राहें जुदा जुदा : संबंधों की अनसुलझी कहानी

‘‘निशा….’’ मयंक ने आवाज दी. निशा एक शौपिंग मौल के बाहर खड़ी थी, तभी मयंक की निगाह उस पर पड़ी. निशा ने शायद सुना नहीं था, वह उसी प्रकार बिना किसी प्रतिक्रिया के खड़ी रही. ‘निशा…’ अब मयंक निशा के एकदम ही निकट आ चुका था. निशा ने पलट कर देखा तो भौचक्की हो गई. वैसे भी बेंगलुरु में इस नाम से उसे कोई पुकारता भी नहीं था. यहां तो वह मिसेज निशा वशिष्ठ थी. तो क्या यह कोई पुराना जानने वाला है. वह सोचने को मजबूर हो गई. लेकिन फौरन ही उस ने पहचान लिया. अरे, यह तो मयंक है पर यहां कैसे?

‘मयंक, तुम?’ उस ने कहना चाहा पर स्तब्ध खड़ी ही रही, जबान तालू से चिपक गई थी. स्तब्ध तो मयंक भी था. वैसे भी, जब हम किसी प्रिय को बहुत वर्षों बाद अनापेक्षित देखते हैं तो स्तब्धता आ ही जाती है. दोनों एकदूसरे के आमनेसामने खड़े थे. उन के मध्य एक शून्य पसरा पड़ा था. उन के कानों में किसी की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पूरा ब्रह्मांड ही थम गया हो, धरती स्थिर हो गई हो. दोनों ही अपलक एकदूसरे को निहार रहे थे. तभी ‘एक्सक्यूज मी,’ कहते हुए एक व्यक्ति दोनों के बीच से उन्हें घूरता हुआ निकल गया. उन की निस्तब्धता भंग हो गई. दोनों ही वर्तमान में लौट आए.

‘‘क्यों, कैसी लग रही हूं?’’ निशा ने थोड़ा मुसकराते हुए नटखटपने से कहा.

अब मयंक थोड़ा सकुंचित हो गया. फिर अपने को संभाल कर बोला, ‘‘यहीं खड़ेखड़े सारी बातें करेंगे या कहीं बैठेंगे भी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, चलो इस मौल में एक रैस्टोरैंट है, वहीं चल कर बैठते हैं.’’ और मयंक को ले कर निशा अंदर चली गई. दोनों एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गए. धूमिल अंधेरा छाया हुआ था. मंदमंद संगीत बज रहा था. वेटर को मयंक ने 2 कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम का और्डर दिया.

‘‘तुम्हें अभी भी मेरी पसंदनापंसद याद है,’’ निशा ने तनिक मुसकराते हुए कहा.

‘‘याद की क्या बात है, याद तो उसे किया जाता है जिसे भूल जाया जाए. मैं अब भी वहीं खड़ा हूं निशा, जहां तुम मुझे छोड़ कर गई थीं,’’ मयंक का स्वर दिल की गहराइयों से आता प्रतीत हो रहा था. निशा ने उस स्वर की आर्द्रता को महसूस किया किंतु तुरंत संभल गई और एकदम ही वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों के चोले में आ गई.

‘‘और सुनाओ मयंक, कैसे हो? कितने वर्षों बाद हम मिल रहे हैं. तुम्हारा सैमिनार कब तक चलेगा. और हां, तुम्हारी पत्नी तथा बच्चे कैसे हैं?’’ निशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘उफ, निशा थोड़ी सांस तो ले लो, लगातार बोलने वाली तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं,’’ मयंक ने निशा को चुप कराते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा, अब कुछ नही बोलूंगी, अब तुम बोलोगे और मैं सुनूंगी,’’ निशा ने उसी नटखटपने से कहा.

मयंक देख रहा था आज 25 वर्षों बाद दोनों मिल रहे थे. उम्र बढ़ चली थी दोनों की पर 45 वर्ष की उम्र में भी निशा के चुलबुलेपन में कोई भी कमी नहीं आई थी जबकि मयंक पर अधेड़ होने की झलक स्पष्ट दिख रही थी. वह शांत दिखने का प्रयास कर रहा था किंतु उस के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह बहुतकुछ पूछना चाह रहा था. बहुतकुछ कहना चाह रहा था. पर जबान रुक सी गई थी.

शायद निशा ने उस के मनोभावों को पढ़ लिया था, संयत स्वर में बोली, ‘‘क्या हुआ मयंक, चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’

‘‘अ…हां,’’ मयंक जैसे सोते से जागा, ‘‘निशा, तुम बताओ क्या हालचाल हैं तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं? तुम खुश तो हो न?’’

निशा थोड़ी अनमनी सी हो गई, उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मयंक के प्रश्नों का क्या उत्तर दे. फिर अपने को स्थिर कर के बोली, ‘‘हां मयंक, मैं बहुत खुश हूं. आदित्य को पतिरूप में पा कर मैं धन्य हो गई. बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित, संपन्न परिवार के इकलौते पुत्र की वधू होने के कारण मेरी जिंदगी में चारचांद लग गए थे. मेरे ससुर का साउथ सिल्क की साडि़यों का एक्सपोर्ट का व्यवसाय था. कांजीवरम, साउथ सिल्क, साउथ कौटन, बेंगलौरी सिल्क मुख्य थे. एमबीए कर के आदित्य भी उसी व्यवसाय को संभालने लगे. जब मैं ससुराल में आई तो बड़ा ही लाड़दुलार मिला. सासससुर की इकलौती बहू थी, उन की आंखों का तारा थी.’

‘‘विवाह के 15 दिनों बाद मुझे थोड़ाथोड़ा चक्कर आने लगा था और जब मुझे पहली उलटी हुई तो मेरी सासूमां ने मुझे डाक्टर को दिखाया. कुछ परीक्षणों के बाद डाक्टर ने कहा, ‘खुशखबरी है मांजी, आप दादी बनने वाली हैं. पूरे घर में उत्सव का सा माहौल छा गया था. सासूमां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. बस, आदित्य ही थोड़े चुपचुप से थे. रात्रि में मुझ से बोले,’ ‘निशा, मैं तुम्हारा हृदय से आभारी हूं.’

‘क्यों.’ मैं चौंक उठी.

‘क्योंकि तुम ने मेरी इज्जत रख ली. अब मैं भी पिता बन सकूंगा. कोई मुझे भी पापा कहेगा,’ आदित्य ने शांत स्वर में कहा.

‘‘मैं अपराधबोध से दबी जा रही थी क्योंकि यह बच्चा तुम्हारा ही था. आदित्य का इस में कोई भी अंश नहीं था. फिर भी मैं चुप रही. आदित्य ने तनिक रुंधी हुई आवाज में कहा, ‘निशा, मैं एक अधूरा पुरुष हूं. जब 20 साल का था तो पता चला मैं संतानोत्पत्ति में अक्षम हूं, जब दोस्त लोग लड़की के पास ले गए, अवसर तो मिला था पर उस से वहां पर कुछ ज्यादा नहीं हो सका. नहीं समझ पाता हूं कि नियति ने मेरे साथ यह गंदा मजाक क्यों किया? मांपापा को यदि यह बात पता चलती तो वे लोग जीतेजी मर जाते और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था. मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ने लगा और मैं कुछ भी कह सकने में असमर्थ था. सोचता था, मेरी पत्नी के प्रति यह मेरा अन्याय होगा और मैं निरंतर हीनता का शिकार हो रहा था.

‘मैं ने निर्णय ले लिया था कि मैं विवाह नहीं करूंगा किंतु मातापिता पर पंडेपुजारी दबाव डाल रहे थे. उन्हें क्या पता था कि उन का बेटा उन की मनोकामना पूर्र्ण करने में असमर्थ है. और फिर मैं ने उन की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कर दी. सोचा था कि घरवालों का तो मुंह बंद हो जाएगा. अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. यदि उसे मुझ से नफरत होगी तो उसे मैं आजाद कर दूंगा. जब तुम पत्नी बन कर आई तब मुझे बहुत अच्छी लगी. तुम्हारे रूप और भोलेपन पर मैं मर मिटा.

‘हिम्मत जुटा रहा था कि तुम्हें इस कटु सत्य से अवगत करा दूं किंतु मौका ही न मिला और जब मुझे पता चला कि तुम गर्भवती हो तो मैं समझ गया कि यह शिशु विवाह के कुछ ही समय पूर्व तुम्हारे गर्भ में आया है. अवश्य ही तुम्हारा किसी अन्य से संबंध रहा होगा. जो भी रहा हो, यह बच्चा मुझे स्वीकार्य है.’ कह कर आदित्य चुप हो गए और मैं यह सोचने पर बाध्य हो गई कि मैं आदित्य की अपराधिनी हूं या उन की खुशियों का स्रोत हूं. ये किस प्रकार के इंसान हैं जिन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया. किसी परपुरुष के बच्चे को सहर्ष अपनाने को तैयार हैं. शायद क्षणिक आवेग में किए गए मेरे पाप की यह सजा थी जो मुझे अनायास ही विधाता ने दे दी थी और मेरा सिर उन के समक्ष श्रद्धा से झुक गया.

‘‘9 माह बाद प्रसून का जन्म हुआ. आदित्य ने ही प्रसून नाम रखा था. ठीक भी था, सूर्य की किरणें पड़ते ही फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार आदित्य को देखते ही प्रसून खिल उठता था. हर समय वे उसे अपने सीने से लगाए रखते थे. रात्रि में यदि मैं सो जाती थी तो भी वे प्रसून की एक आहट पर जाग जाते थे. उस की नैपी बदलते थे. मुझ से कहते थे, ‘मैं प्रसून को एयरफोर्स में भेजूंगा, मेरा बेटा बहुत नाम कमाएगा.’

‘‘मेरे दिल में आदित्य के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, देखतेदखते 15 वर्ष बीत चुके थे. मैं खुश थी जो आदित्य मुझे पतिरूप में मिले. लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था. अकस्मात एक दिन एक ट्रक से उन की गाड़ी टकराई और उन की मौके पर ही मौत हो गई. तब प्रसून 14 वर्ष का था.’’

मयंक निशब्द निशा की जीवनगाथा सुन रहा था. कुछ बोलने या पूछने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी. क्षणिक मौन के बाद निशा फिर बोली, ‘‘आज मैं अपने बेटे के साथ अपने ससुर का व्यवसाय संभाल रही हूं. प्रसून एयरफोर्स में जाना नहीं चाहता था, अब वह 25 वर्ष का होने वाला है. उस ने एमबीए किया और अपने पुश्तैनी व्यवसाय में मेरा हाथ बंटा रहा है या यों कहो कि अब सबकुछ वही संभाल रहा है.’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मयंक ने मुंह खोला, ‘‘निशा, तुम्हें अतीत की कोई बात याद है?’’

‘‘हां, मयंक, सबकुछ याद है जब तुम ने मेरे नाम का मतलब पूछा था और मैं ने अपने नाम का अर्थ तुम्हें बताया, ‘निशा का अर्र्थ है रात्रि.’ तुम मेरे नाम का मजाक बनाने लगे तब मैं ने तुम से पूछा, ‘आप को अपने नाम का अर्थ पता है?’

‘‘तुम ने बड़े गर्व से कहा, ‘हांहां, क्यों नहीं, मेरा नाम मयंक है जिस का अर्थ है चंद्रमा, जिस की चांदनी सब को शीतलता प्रदान करती है’ बोलो याद है न?’’ निशा ने भी मयंक से प्रश्न किया.

मयंक थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘और तुम ने कहा था, ‘मयंक जी, निशा है तभी तो चंद्रमा का अस्तित्व है, वरना चांद नजर ही कहां आएगा.’ अच्छा निशा, तुम्हें वह रात याद है जब मैं तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे घर आया था. हमारे बीच संयम की सब दीवारें टूट चुकी थीं.’’ मयंक निशा को अतीत में भटका रहा था.

‘‘हां,’’ तभी निशा बोल पड़ी, ‘‘प्रसून उस रात्रि का ही प्रतीक है. लेकिन मयंक, अब इन बातों का क्या फायदा? इस से तो मेरी 25 वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी. और वैसे भी, अतीत को वर्तमान में बदलने का प्रयास न ही करो तो बेहतर होगा क्योंकि तब हम न वर्तमान के होंगे, न अतीत के, एक त्रिशंकु बन कर रह जाएंगे. मैं उस अतीत को अब याद भी नहीं करना चाहती हूं जिस से हमारा आज और हमारे अपनों का जीवन प्रभावित हो. और हां मयंक, अब मुझ से दोबारा मिलने का प्रयास मत करना.’’

‘‘क्यों निशा, ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मयंक विचलित हो उठा.

‘‘क्योंकि तुम अपने परिवार के प्रति ही समर्पित रहो, तभी ठीक होगा. मुझे नहीं पता तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है पर इतना जरूर समझती हूं कि तुम्हें पा कर तुम्हारी पत्नी बहुत खुश होगी,’’ कह कर निशा उठ खड़ी हुई.

मयंक उठते हुए बोला, ‘‘मैं एक बार अपने बेटे को देखना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारा बेटा? नहीं मयंक, वह आदित्य का बेटा है. यही सत्य है, और प्रसून अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता है. वह तुम्हारा ही प्रतिरूप है, यह एक कटु सत्य है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता किंतु मातृत्व के जिस बीज का रोपण तुम ने किया उस को पल्लवित तथा पुष्पित तो आदित्य ने ही किया. यदि वे मुझे मां नहीं बना सकते थे, तो क्या हुआ, यद्यपि वे खुद को एक अधूरा पुरुष मानते थे पर मेरे लिए तो वे परिपूर्ण थे. एक आदर्श पति की जीवनसंगिनी बन कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं. मेरे अपराध को उन्होंने अपराध नहीं माना, इसलिए वे मेरी दृष्टि में सचमुच ही महान हैं.

‘‘प्रसून तुम्हारा अंश है, यह बात हम दोनों ही भूल जाएं तो ही अच्छा रहेगा. तुम्हें देख कर वह टूट जाएगा, मुझे कलंकिनी समझेगा. हजारों प्रश्न करेगा जिन का कोई भी उत्तर शायद मैं न दे सकूंगी. अपने पिता को अधूरा इंसान समझेगा. युवा है, हो  सकता है कोई गलत कदम ही उठा ले. हमारा हंसताखेलता संसार बिखर जाएगा और मैं भी कलंक के इस विष को नहीं पी सकूंगी. तुम्हें वह गीत याद है न ‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए…’

‘‘भूल जाओ कि कभी हम दो जिस्म एक जान थे, एक साथ जीनेमरने का वादा किया था. उन सब के अब कोई माने नहीं है. आज से हमारी तुम्हारी राहें जुदाजुदा हैं. हमारा आज का मिलना एक इत्तफाक है किंतु अब यह इत्तफाक दोबारा नहीं होना चाहिए,’’ कह कर उस ने अपना पर्स उठाया और रैस्टोरैंट के गेट की ओर बढ़ चली. तभी मयंक बोल उठा, ‘‘निशा…एक बात और सुनती जाओ.’’ निशा ठिठक गई.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया है, यह जीवन तुम्हारे ही नाम कर रखा है.’’ और वह रैस्टोरैंट से बाहर आ गया. निशा थोड़ी देर चुप खड़ी रही, फिर किसी अपरिचित की भांति रैस्टोरैंट से बाहर आ गई और दोनों 2 विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गए.

चलतेचलते निशा ने अंत में कहा, ‘‘मयंक, इतने जज्बाती न बनो. अगर कोई मिले तो विवाह कर लेना, मुझे शादी का कार्ड भेज देना ताकि मैं सुकून से जी सकूं.’’

टूटी लड़ियां: क्या फिर से जुड़ पाईं सना की जिंदगी की लड़ियां

सना की अम्मी कमरे से सूटकेस उठा लाईं और उस में रखा सामान बाहर निकालने लगीं. ये रहे सातों सूट, यह रहा लहंगा, यह कुरती, यह चुन्नी, यह रहा बुरका, यह मेकअप का सामान और यह रहा नेकलेस…

नेकलेस का केस हाथ में आना था कि उन्हें गुस्सा आ गया और बोलीं, ‘‘कंजूस मक्खीचूस, कितना हलका नेकलेस है. एक तोले से भी कम वजन का होगा.’’

सना के अब्बू बोल पड़े, ‘‘सना की अम्मी, वे लोग कंजूस नहीं हैं, बड़े चालाक किस्म के इनसान हैं. यह सोने का हार सना के मेहर में होता न और मेहर पर सिर्फ लड़की का हक होता है, इसलिए इतना हलका बनवा कर लाए. जिन की नीयत में खोट होता है, वे ही ऐसा करते हैं… इसलिए कि कोई अनबन हो जाए, मंगनी टूट जाए या फिर तलाक हो जाए, तो ज्यादा नुकसान नहीं होता. हार वापस मिला तो मिला, न मिला तो न सही…’’

सना के अब्बू ने थोड़ा दम लिया, फिर अपने दोस्त अबरार से बोले, ‘‘अबरार भाई, यह सारा सामान उठा कर ले जाइए और उन के यहां पटक आइए…’’

अबरार सोचविचार में गुम थे. कहां तो उन्हें हज पर जाने का मौका मिलने वाला था, अब कहां वे पचड़े में पड़ गए. शादी कराना कोई आसान काम है? नेकियां भी मिलती हैं, जिल्लत भी. निबट जाए तो अच्छा, नहीं तो बड़ी फजीहत.

सना के अब्बू दोबारा बोले, ‘‘अबरार भाई, कहां खो गए? सामान उठाइए और ले जाइए.’’

अबरार चौंक पड़े, फिर सामान सूटकेस में रखने लगे.

सना के अब्बू कुछ याद करते हुए फिर बोले, ‘‘और हां, उन्होंने यह जो 10 हजार रुपए भिजवाए हैं, इन्हें भी लेते जाइए, उन के मुंह पर मार देना. बड़े गैरतमंद बनते हैं. हमें मुआवजा दे रहे हैं… 10 हजार रुपए ही खर्च हुए हैं हमारे… मंगनी में कमोबेश 50 हजार रुपए खर्च हुए हैं.’’

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘मंगनी में पूरे 50 लोग आए थे. मंगनी क्या पूरी बरात थी. आप तो थे ही… आप ने सबकुछ देखा है… हम ने कोई कोरकसर रख छोड़ी थी भला? ऐसा क्या था, जो हम ने न बनवाया हो? बिरयानी, कोरमा, कबाब, खीर और शीरमाल भी. ऊपर से सागसब्जी सो अलग…’’

कमरे का दरवाजा पकड़े खड़ी सना सिसक पड़ी. उस के गुलाबी मखमली गालों पर आंसू मोतियों की तरह लुढ़क आए. मंगनी के दिन कितनी धूमधाम थी. उस की होने वाली सास और जेठानी आई थीं और ननद भी.

सभी को उस की ससुराल से आया सामान दिखाया गया. कुछ ने तारीफ की, तो कुछ ने मुंह बिचका दिया. इतने नाम वाले बनते हैं और इतना कम सामान. कम से कम 11 सूट तो होते ही. खाली हार उठा लाए. न झुमके हैं, न नथ और न ही अंगूठी.

सना की ननद ने उसे लहंगाकुरती पहनाई थी. चुन्नी सिर पर डाली थी. सब ने मिलजुल कर उसे सजायासंवारा था. माथे पर टीका, गले में नेकलेस, कानों में झुमके और नाक में एक छोटी सी नथ पहनाई थी. नथ, टीका और झुमके सना की अम्मी ने उस के लिए जबतब बनवाए थे, ताकि शादी में गहनों की कमी न रहे.

सना की नजर सामने रखे सिंगारदान पर पड़ गई. आईने में अपना अक्स देख कर उसे शर्म आ गई थी. वह किसी शहजादी से कम नहीं लग रही थी. उस की अम्मी उस की बलाएं लेने लगी थीं. सास और ननद को अपनी पसंद पर गर्व होने लगा था, पर जेठानी जलभुन गई थी. उस का बस चले तो वह यह रिश्ता होने ही न दे.

वह घर में अपने से ज्यादा खूबसूरत औरत नहीं चाहती थी. उस का मान जो कम हो जाएगा. सभी लोग देवरानी की तारीफ करेंगे और फिर यह पढ़ीलिखी भी तो है. उस की तरह अंगूठाटेक तो नहीं है.

उस दिन से सना बहुत खिलीखिली सी रहने लगी थी. सुबहशाम सजनेसंवरने लगी थी, मंगनी में आए सूट पहनपहन कर देखने लगी थी कि किस सूट में वह कैसी लगती है. हार भी पहन कर देखती थी, फिर खुद शरमा जाती थी.

सना सपने देखने लगी कि उस की बरात गाजेबाजे के साथ बड़ी ही धूमधाम से आ रही है. वह दुलहन बनी बैठी है. बड़े सलीके से उस का सिंगार किया गया है. हाथपैरों में मेहंदी तो एक दिन पहले ही लगा दी गई थी. लहंगा, कुरती और चुन्नी में वह किसी हूर से कम नहीं लग रही है.

कभी सना सोचती, कैसा है उस का हमसफर? मोबाइल फोन की वीडियो क्लिप में तो बिलकुल फिल्मी हीरो जैसा लगता है. खूबसूरत तो बहुत है, उस की सीरत कैसी है? पढ़ालिखा है. सरकारी नौकरी करता है, तो उस की सोच भी अच्छी ही होगी.

यह वीडियो क्लिप सना का छोटा भाई बना कर लाया था. वह इसी वीडियो क्लिप को देखा करती थी और तरहतरह की बातें सोचा करती थी.

उधर सना के मंगेतर आफताब का हाल भी कुछ अलग न था. मंगनी वाले दिन जब सना का बनावसिंगार किया गया था, तो उस की ननद ने भी उस की वीडियो क्लिप बना ली थी और जब से आफताब ने इस क्लिप को देखा था, वह बेताब हो उठा था. सना से बातें करने की कोशिश करने लगा था, पर सना को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

अलबत्ता, जब सास और ननद के फोन आते, तो सना सलामदुआ कर लिया करती थी, पर आफताब से नहीं. उसे बहुत अजीब सा लग रहा था.

एक दिन जब सना अपनी ननद से बातें कर रही थी, तो बातें करतेकरते उस की ननद ने मोबाइल फोन आफताब को पकड़ा दिया था.

कुछ देर सना यों ही बातें करती रही. सास और जेठानी की खैरियत पूछती रही, फिर उसे लगा कि उधर उस की ननद नहीं कोई और है. उस ने फोन काटना चाहा, पर आफताब बोल पड़ा, ‘सना, प्लीज फोन मत काटना, तुम्हें मेरी कसम है…’

इतना सुनना था कि सना का रोमरोम जैसे खिल उठा. वह बेसुध सी हो गई. फिर आफताब ने क्या कहा, क्या उस ने जवाब दिया, उसे कुछ पता नहीं.

फिर उस दिन से यह सिलसिला ऐसा चला कि दिन हो या रात, सुबह हो या शाम दोनों एकदूसरे से बातें करते नहीं थकते थे. बातें भी क्या… एकदूसरे की पसंदनापसंद की. कौनकौन से हीरोहीरोइन पसंद हैं? फिल्में कैसी अच्छी लगती हैं? टैलीविजन सीरियल कौनकौन से देखते हैं? सहेलियां कितनी हैं और बौयफ्रैंड कितने हैं?

बौयफ्रैंड का नाम पूछने पर सना नाराज हो जाती और गुस्से में कहती, ‘‘7 बौयफ्रैंड्स हैं मेरे. शादी करनी है तो करो, वरना रास्ता पकड़ो…’’

यह सुन कर आफताब को मजा आ जाता. वह लोटपोट हो जाता. फिर सना को मनाने लगता. प्यारमुहब्बत का इजहार और वादे होने लगते.

इस तरह बहुत ही हंसीखुशी से दिन गुजर रहे थे. अब तो बस शादी का इंतजार था. शादी भी ज्यादा दूर न थी. कमोबेश 2 महीने रह गए थे. शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं.

एक दिन अबरार सना के घर आए. वे कुछ परेशान से थे. सना की अम्मी ने पूछा, ‘‘क्या बात है अबरार भाई? आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?’’

‘‘परेशानी वाली बात ही है भाभी,’’ असरार बोले.

‘‘क्या बात है? बताइए भी.’’

अबरार ने धीरे से कहा, ‘‘लड़के ने मोटरसाइकिल की मांग की है.’’

यह सुन कर सना की अम्मी को हंसी आ गई, ‘‘बड़ा नादान लड़का है. यह भी कोई कहने की बात है… क्या हम इतने गएगुजरे हैं कि मोटरसाइकिल भी नहीं देंगे.’’

शाम को जब सना के अब्बू घर आए और उन्हें यह बात पता चली, तो उन्हें बड़ा अफसोस हुआ. वे बोले, ‘‘सना की अम्मी, लड़के वाले बहुत लालची किस्म के लग रहे हैं.’’

बात आईगई हो गई. धीरेधीरे समय गुजरता रहा. इधर एक बात और हुई. आफताब का फोन आना बंद हो गया. सना को चिंता हुई. क्या वह बीमार है? बीमार होता, तो पता चलता. कहीं बाहर गया है? बाहर कहां जाएगा. वैसे तो दिन हो या रात, दम ही नहीं लेता था. पर अब. अब उसे चैन कैसे पड़ रहा है. आज कितने दिन हो गए हैं उस से बातें किए हुए?

आखिरकार सना ने उस का फोन नंबर मिलाया. उधर से काल रिसीव नहीं की गई. उस ने दोबारा फोन मिलाया. फिर नहीं रिसीव की गई. इस के बाद फोन बिजी बताने लगा.

सना पर उदासी छा गई. वह बारबार मोबाइल फोन की ओर हसरत भरी नजरों से देखती. शायद अब आफताब का फोन आए. शायद अब. कभीकभी जब किसी और का या फिर कंपनी का फोन आता, वह खुश हो कर दौड़ पड़ती, अगले ही पल निराश हो जाती.

आखिर में उस ने एक एसएमएस टाइप किया, ‘प्लीज, आफताब बात करो. इतना मत सताओ. तुम्हें मेरी कसम.’ कई दिन गुजर गए, उधर से न तो एसएमएस आया और न ही काल हुई.

इसी बीच एक दिन अबरार का आना हुआ. आज फिर वे कुछ परेशान से थे. पूछने पर वे बोले, ‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि लड़के वालों की मरजी क्या है?’’

यह सुनते ही सना के अब्बूअम्मी डर गए. अबरार ने बताया, ‘‘लड़के की मां कह रही थीं कि उन के बेटे के रिश्ते अब भी आ रहे हैं. एक लड़की वाले तो कार देने को तैयार हैं…’’

इतना सुनना था कि सना के अब्बू उठ खड़े हुए. वे गुस्से से कांपने लगे, ‘‘अबरार भाई, मैं उन के हथकडि़यां लगवा दूंगा… उन का लालच दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. अरे, उन का लड़का सरकारी नौकरी करता है… बैंक में मुलाजिम है… तो हमारी लड़की भी कोई जाहिल नहीं है.’’

अबरार भाई सकते में आ गए. वे उठ खड़े हुए और सना के अब्बू को समझाने लगे, ‘‘गफ्फार भाई, ऐसा मत बोलिए, ठंडे दिमाग से काम लीजिए. गुस्से में सब बिगड़ जाता है.’’

‘‘क्या खाक ठंडे दिमाग से काम लें… क्या आप को नहीं लगता कि सबकुछ बिगड़ रहा है… वे मंगनी तोड़ने के मूड में हैं. उन्हें हम से बड़ी मुरगी मिल गई है.’’

‘‘आप ठीक फरमा रहे हैं. शायद उन्हें हम से ऊंची पार्टी मिल गई है.’’

‘‘तो क्या ऐसी हालत में मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा… जेल भिजवा दूंगा उन्हें… समझ क्या रखा है?’’

‘‘गफ्फार भाई, जरा सोचिए, अगर आप ने ऐसा किया, तो बड़ी बदनामी होगी…’’

‘‘बदनामी, किस की बदनामी?’’

‘‘आप की, लोग कहेंगे कि लड़की का बाप हो कर लड़के वालों को हथकड़ी लगवाता है… जेल भिजवाता है… सना बिटिया के लिए रिश्ते आने बंद हो जाएंगे. लड़की वालों को बड़े सब्र से काम लेना पड़ता है.’’

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘इस से पहले कि वे मंगनी तोड़ें, हम उन के रिश्ते को लात मार देते हैं… इस से वे बदनाम हो जाएंगे कि दहेज में गाड़ी मांग रहे थे. उन्हें रिश्ता ढूंढ़े नहीं मिलेगा. हमारी सना बेटी के लिए हजारों रिश्ते आएंगे. आखिर उस में क्या कमी है? खूबसूरत है और खूब सीरत भी. अभी उस की उम्र ही क्या हुई है.’’

फिर एक दिन लड़के वालों की तरफ से 3-4 लोग आए. इन लोगों में उन के यहां की मसजिद के इमाम साहब भी थे और अबरार भी. बैठ कर तय हुआ कि दोनों पक्ष एकदूसरे का सामान वापस कर दें और लड़की वाले का मंगनी के खानेपीने में जो खर्च हुआ है, उस का मुआवजा लड़के वाले दें.

सना की अम्मी कमरे के अंदर से बोलीं, ‘‘दिखाई में हम लोग लड़के को सोने की अंगूठी पहना आए थे और 5 हजार रुपए नकद भी दिए थे. मिठाई और फल भी ले गए थे, सो अलग…’’

‘‘यही कहा जा रहा है कि जो भी दियालिया है, वह एकदूसरे को वापस कर दें. मिठाई और फल तो लड़के वाले भी लाए होंगे?’’ इमाम साहब बोले.

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘वे ठहरे लड़के वाले, वे भला क्यों लाने लगे मिठाई और फल. बिटिया को सिर्फ 251 रुपल्ली पकड़ा गए थे, बस…’’

आज अबरार मंगनी का वह सारा सामान जो लड़के के यहां से आया था, लेने आए थे और साथ में 15 हजार रुपए भी लाए थे. 10 हजार रुपए मुआवजे के और 5 हजार रुपए जो लड़की वाले लड़के को दे आए थे. सोने की अंगूठी भी ले कर आए थे.

अबरार जब सूटकेस उठा कर चलने लगे, तो सना बोली, ‘‘अंकल, एक चीज रह गई है, वह भी लेते जाइए.’’

‘‘वह क्या है बेटी? जल्दी से ले आइए,’’ वे बोले.

‘‘अंकल, आप सूटकेस मुझे दे दीजिए, मैं इसी में रख दूंगी,’’ सना ने उन से सूटकेस लेते हुए कहा.

सना कमरे के अंदर गई. सूटकेस बिस्तर पर रखा और कैंची उठाई. शाम को जब सूटकेस आफताब के घर पहुंचा, तो उस के घर की औरतें उसे खोल कर देखने लगीं कि सारे कपड़े, मेकअप का सामान और नेकलेस है भी या नहीं.

सूट तो सारे दिखाई पड़ रहे हैं. बुरका भी है, लहंगा, कुरती और चुन्नी भी. बचाखुचा मेकअप का सामान भी है.

‘‘यह क्या…’’ आफताब की भाभी चीख पड़ीं, ‘‘यह लहंगा तो कई जगह से कटा हुआ है.’’

दोबारा देखा, लहंगा चाकचाक था. कुरती उठा कर देखी, वह भी कई जगह से कटीफटी थी. सारे के सारे सूट उठाउठा कर देख डाले. सब के सब तारतार निकले. नकाब का भी यही हाल था. जल्द से नेकलेस उठा कर देखा. उस की भी लड़ियां टूटी हुई थीं.

थप्पड़: मामू ने अदीबा के साथ क्या किया?

शाम ढलने को थी. इक्कादुक्का दुकानों में बिजली के बल्ब रोशन होने लगे थे. ऊन का आखिरी सिरा हाथ में आते ही अदीबा को धक्का सा लगा कि पता नहीं अब इस रंग की ऊन का गोला मिलेगा कि नहीं.

अदीबा ने कमरे की बत्ती जलाई और अपनी अम्मी को बता कर झटपट ऊन का गोला खरीदने निकल पड़ी.

जातेजाते अदीबा बोली, “अम्मी, ऊन खत्म हो गई है, लाने जा रही हूं, कहीं दुकान बंद न हो जाए.”

अम्मी ने कहा, “अच्छा, जा, पर जल्दी लौट आना, रात होने वाली है.”

लेकिन यह क्या. जहां सिर्फ दुकान जाने में ही आधा घंटा लगता है, वहां से ऊन खरीद कर आधा घंटा से पहले ही अदीबा वापस आ गई… यह कैसे?

मां ने बेटी के चेहरे को गौर से देखा. बेटी का चेहरा धुआंधुआं सा था और उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं.

“क्या हुआ अदीबा, ऊन नहीं लाई?”

अदीबा ने रोते हुए अपनी अम्मी को जो आपबीती सुनाई तो अम्मी के होश उड़ गए.

अदीबा की आपबीती सुन कर अम्मी गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उस नामुराद आदमी को तरहतरह की गालियां देने लगीं.

कुछ देर बाद जब अम्मी का गुस्सा ठंडा हुआ, तो उन्होंने कहना शुरू किया, “अब तुझे क्या बताऊं बेटी, यह मर्द जात होती ही ऐसी है. उन की नजरों में औरत का जिस्म बस मर्द की प्यास बुझाने का जरीया होता है.

“मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. वह भी एक दफा नहीं, बल्कि कईकई दफा,”
इतना कह कर अम्मी अपने पुराने दिनों के काले पन्ने पलटने लगीं…

अम्मी ने अदीबा को बताया, “जब मैं 5वीं जमात में थी, तब एक दिन मदरसे के मौलवी साहब ने मुझे अपने पास बुलाया और अपनी गोद में बिठा कर वे मेरे सीने पर हाथ फेरने लगे. वे अपना हाथ चलाते रहे और मुझे बहलाते रहे.

“मैं मासूम थी, इसलिए उन की इस गंदी हरकत को समझ न सकी. उन की इस गलत हरकत की वजह से मेरा सीना दर्द करने लगा था…”

हैरान अदीबा ने पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

“उस जमाने में गलत और सही छूने का पता तो बड़े लोगों को भी ज्यादा नही था, मैं तो भला बच्ची थी. बहरहाल, छुट्टी मिलते ही मैं रोते हुए घर गई और अपनी अम्मी से सबकुछ साफसाफ बता दिया.

“फिर क्या था… अब्बू ने न सिर्फ मौलवी साहब की जबरदस्त पिटाई की, बल्कि उन्हें मदरसे से बाहर भी निकलवा दिया.

“इसी तरह एक बार, एक दिन मेरे दूर के रिश्ते के मामू अपनी 5 साल की बेटी के साथ हमारे घर मेहमान बन कर आए. वे तोहफे में ढेर सारी मिठाइयां और फल लाए थे.

“अपने रिश्ते के भाई की खातिरदारी में मेरी अम्मी ने मटन बिरयानी और चिकन कोरमा बनाया था. सब ने खुश हो कर खाया.

“अरसे बाद मिले भाईबहन अपने पुराने दिनों को याद करते रहे और मैं मामू की बेटी के साथ देर रात तक उछलकूद करती रही…”

यह बतातेबताते जब अदीबा की अम्मी सांस लेने के लिए ठहरीं, तो अदीबा ने बेसब्री से पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

अम्मी ने कहना जारी रखा, “जैसे कि हर बच्चा आने वाले मेहमान के बच्चों के साथ सोना पसंद करता है, वैसा ही मैं ने भी किया और अपनी हमउम्र दोस्त के साथ मामू के बिस्तर पर ही सो गई.

“रात के किसी पहर में मेरी नींद तब खुली, जब मुझे एहसास हुआ कि मेरे तथाकथित मामू मेरी सलवार की डोरी खोल रहे हैं.

“मेरा हाथ फौरन सलवार की डोरी पर चला गया. डोरी खुल चुकी थी. मेरा हाथ अपने हाथ से टकराते ही तथाकथित मामू ने अपना हाथ तेजी से खींच लिया. मैं डर गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

“यह चिल्लाना सुन कर मेरी अम्मी अपने कमरे से भागीभागी आईं और दरवाजा पीटने लगीं.

“तथाकथित मामू ने उठ कर दरवाजा खोला और अम्मी को देखते ही कहा, ‘अदीबा सपने में बड़बड़ा रही है…’

“अम्मी फौरन हालात की नजाकत भांप गईं और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ले चलीं. एक हाथ से सलवार पकड़े मैं थरथर कांपती उन के साथ चल पड़ी. इस बीच उन मामू की बेटी भी जाग चुकी थी और सारा तमाशा हैरत से देख रही थी.

“उस हादसे के बाद से हमेशाहमेशा के लिए उन तथाकथित मामू से हमारे परिवार का रिश्ता खत्म हो गया.”

अदीबा ने जोश में कहा, “अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ. ऐसे गंदे लोग रिश्तेदार के नाम पर बदनुमा दाग होते हैं.”

अम्मी जब यादों के झरोखों से वापस लौटीं, तो फिर कहने लगीं, “छोड़ो, अब इस किस्से को यहीं दफन करो वरना जितने मुंह उतनी बातें होंगी. लड़कियां सफेद चादर की तरह होती हैं, जिन पर दाग बहुत जल्दी लग जाते हैं, जो छुड़ाने से भी नहीं छूटते, इसलिए भूल कर भी किसी से इस बात का जिक्र मत करना.”

दरअसल, ऊन खरीदने के लिए जाते समय रास्ते में अदीबा को दूर के एक रिश्तेदार मिल गए थे. वे बातें करते हुए साथसाथ चलने लगे और चंद मिनटों में ही कुछ ज्यादा ही करीब होने की कोशिश करने लगे. अदीबा फासला बढ़ा कर चलना चाहती और वे फासला घटा कर चलना चाहते.

पहले तो वे अदीबा के साथ सलीके से बातचीत करते रहे, लेकिन जैसे ही गली में अंधेरा मिला, तो वे अपनी असलियत पर उतर आए.

उन का हाथ बारबार किसी न किसी बहाने अदीबा के सीने को छूने लगा. अदीबा उन की नीयत भांप गई, फिर बिना लिहाज के एक जोरदार थप्पड़ उन के चेहरे पर रसीद कर दिया कि वे बिलबिला उठे.

इस के बाद अदीबा ऊन का गोला खरीदने का इरादा छोड़ कर बीच रास्ते से ही घर वापस लौट आई.

बड़े मियां इस अचानक होने वाले हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उन के कानों में अचानक सीटियां सी बजने लगीं और आंखों के सामने गोलगोल तारे नाचने लगे. उन्होंने बिना इधरउधर देखे सामने वाली पतली गली से निकलना मुनासिब समझा.

यही वजह थी कि अदीबा जब घर में दाखिल हुई, तो उस का चेहरा धुआंधुआं था और सांसें तेजतेज चल रही थीं.

बहरहाल, इस तरह मांबेटी की बातचीत में कई परतें और कई गांठें खुलती चली गईं.

अमेरिकन बेटा : कुछ ऐसा ही था डेविड

रीता एक दिन अपनी अमेरिकन दोस्त ईवा से मिलने उस के घर गई थी. रीता भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक थी. वह अमेरिका के टैक्सास राज्य के ह्यूस्टन शहर में रहती थी. रीता का जन्म अमेरिका में ही हुआ था. जब वह कालेज में थी, उस की मां का देहांत हो गया था. उस के पिता कुछ दिनों के लिए भारत आए थे, उसी बीच हार्ट अटैक से उन की मौत हो गई थी.

रीता और ईवा दोनों बचपन की सहेलियां थीं. दोनों की स्कूल और कालेज की पढ़ाई साथ हुई थी. रीता की शादी अभी तक नहीं हुई थी जबकि ईवा शादीशुदा थी. उस का 3 साल का एक बेटा था डेविड. ईवा का पति रिचर्ड अमेरिकन आर्मी में था और उस समय अफगानिस्तान युद्ध में गया था.

शाम का समय था. ईवा ने ही फोन कर रीता को बुलाया था. शनिवार छुट्टी का दिन था. रीता भी अकेले बोर ही हो रही थी. दोनों सखियां गप मार रही थीं. तभी दरवाजे पर बूटों की आवाज हुई और कौलबैल बजी.

अमेरिकन आर्मी के 2 औफिसर्स उस के घर आए थे. ईवा उन को देखते ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि घर पर फुल यूनिफौर्म में आर्मी वालों का आना अकसर वीरगति प्राप्त सैनिकों की सूचना ही लाता है. वे रिचर्ड की मृत्यु का संदेश ले कर आए थे और यह भी कि शहीद रिचर्ड का शव कल दोपहर तक ईवा के घर पहुंच जाएगा.

ईवा को काटो तो खून नहीं. उस का रोतेरोते बुरा हाल था. अचानक ऐसी घटना की कल्पना उस ने नहीं की थी. रीता ने ईवा को काफी देर तक गले से लगाए रखा. उसे ढांढ़स बंधाया, उस के आंसू पोंछे.

इस बीच ईवा का बेटा डेविड, जो कुछ देर पहले कार्टून देख रहा था, भी पास आ गया. रीता ने उसे भी अपनी गोद में ले लिया. ईवा और रिचर्ड दोनों के मातापिता नहीं थे. उन के भाईबहन थे. समाचार सुन कर वे भी आए थे, पर अंतिम क्रिया निबटा कर चले गए. उन्होंने जाते समय ईवा से कहा कि किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो बताओ, पर उस ने फिलहाल मना कर दिया था.

ईवा जौब में थी. वह औफिस जाते समय बेटे को डे केयर में छोड़ जाती और दोपहर बाद उसे वापस लौटते वक्त पिक कर लेती थी. इधर, रीता ईवा के यहां अब ज्यादा समय बिताती थी, अकसर रात में उसी के यहां रुक जाती. डेविड को वह बहुत प्यार करती थी, वह भी ईवा से काफी घुलमिल गया था. इस तरह 2 साल बीत गए.

इस बीच रीता की जिंदगी में प्रदीप आया, दोनों ने कुछ महीने डेटिंग पर बिताए, फिर शादी का फैसला किया. प्रदीप भी भारतीय मूल का अमेरिकन था और एक आईटी कंपनी में काम करता था. रीता और प्रदीप दोनों ही ईवा के घर अकसर जाते थे.

कुछ महीनों बाद ईवा बीमार रहने लगी थी. उसे अकसर सिर में जोर का दर्द, चक्कर, कमजोरी और उलटी होती थी. डाक्टर्स को ब्रेन ट्यूमर का शक था. कुछ टैस्ट किए गए. टैस्ट रिपोर्ट लेने के लिए ईवा के साथ रीता और प्रदीप दोनों गए थे. डाक्टर ने बताया कि ईवा का ब्रेन ट्यूमर लास्ट स्टेज पर है और वह अब चंद महीनों की मेहमान है. यह सुन कर ईवा टूट चुकी थी, उस ने रीता से कहा, ‘‘मेरी मृत्यु के बाद मेरा बेटा डेविड अनाथ हो जाएगा. मुझे अपने किसी रिश्तेदार पर भरोसा नहीं है. क्या तुम डेविड के बड़ा होने तक उस की जिम्मेदारी ले सकती हो?’’

रीता और प्रदीप दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगे. उन्होंने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. तभी ईवा बोली, ‘‘देखो रीता, वैसे कोई हक तो नहीं है तुम पर कि डेविड की देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हें दूं पर 25 वर्षों से हम एकदूसरे को भलीभांति जानते हैं. एकदूसरे के सुखदुख में साथ रहे हैं, इसीलिए तुम से रिक्वैस्ट की.’’

दरअसल, रीता प्रदीप से डेटिंग के बाद प्रैग्नैंट हो गई थी और दोनों जल्दी ही शादी करने जा रहे थे. इसलिए इस जिम्मेदारी को लेने में वे थोड़ा झिझक रहे थे.

तभी प्रदीप बोला, ‘‘ईवा, डोंट वरी. हम लोग मैनेज कर लेंगे.’’

ईवा ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘थैंक्स डियर. रीता, क्या तुम एक प्रौमिस करोगी?’’

रीता ने स्वीकृति में सिर हिलाया और ईवा से गले लगते हुए कहा, ‘‘तुम अब डेविड की चिंता छोड़ दो. अब वह मेरी और प्रदीप की जिम्मेदारी है.’’

ईवा बोली, ‘‘थैंक्स, बोथ औफ यू. मैं अपनी प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स की पावर औफ अटौर्नी तुम दोनों के नाम कर दूंगी. डेविड के एडल्ट होने तक इस की देखभाल तुम लोग करोगे. तुम्हें डेविड के लिए पैसों की चिंता नहीं करनी होगी, प्रौमिस?’’

रीता और प्रदीप ने प्रौमिस किया. और फिर रीता ने अपनी प्रैग्नैंसी की बात बताते हुए कहा, ‘‘हम लोग इसीलिए थोड़ा चिंतित थे. शादी, प्रैग्नैंसी और डेविड सब एकसाथ.’’

ईवा बोली, ‘‘मुबारक हो तुम दोनों को. यह अच्छा ही है डेविड को एक भाई या बहन मिल जाएगी.’’

2 सप्ताह बाद रीता और प्रदीप ने शादी कर ली. डेविड तो पहले से ही रीता से काफी घुलमिल चुका था. अब प्रदीप भी उसे काफी प्यार करने लगा था. ईवा ने छोटे से डेविड को समझाना शुरू कर दिया था कि वह अगर बहुत दूर चली जाए, जहां से वह लौट कर न आ सके, तो रीता और प्रदीप के साथ रहना और उन्हें परेशान मत करना.

पता नहीं डेविड ईवा की बातों को कितना समझ रहा था, पर अपना सिर बारबार हिला कर हां करता और मां के सीने से चिपक जाता था.

3 महीने के अंदर ही ईवा का निधन हो गया. रीता ने ईवा के घर को रैंट पर दे कर डेविड को अपने घर में शिफ्ट करा लिया. शुरू के कुछ दिनों तक तो डेविड उदास रहता था, पर रीता और प्रदीप दोनों का प्यार पा कर धीरेधीरे नौर्मल हो गया.

रीता ने एक बच्चे को जन्म दिया. उस का नाम अनुज रखा गया. अनुज के जन्म के कुछ दिनों बाद तक ईवा उसी के साथ व्यस्त रही थी. डेविड कुछ अकेला और उदास दिखता था.

रीता ने उसे अपने पास बुला कर प्यार किया और कहा, ‘‘तुम्हारे लिए छोटा भाई लाई हूं. कुछ ही महीनों में तुम इस के साथ बात कर सकोगे और फिर बाद में इस के साथ खेल भी सकते हो.’’

रीता और प्रदीप ने डेविड की देखभाल में कोई कमी नहीं की थी. अनुज भी अब चलने लगा था. घर में वह डेविड के पीछेपीछे लगा रहता था. डेविड के खानपान व रहनसहन पर भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप थी. शुरू में तो वह रीता को रीता आंटी कहता था, पर बाद में अनुज को मम्मी कहते देख वह भी मम्मी ही कहने लगा था. शुरू के कुछ महीनों तक डेविड की मामी और चाचा उस से मिलने आते थे, पर बाद में उन्होंने आना बंद कर दिया था.

डेविड अब बड़ा हो गया था और कालेज में पढ़ रहा था. रीता ने उस से कहा कि वह अपना बैंक अकाउंट खुद औपरेट किया करे, लेकिन डेविड ने मना कर दिया और कहा कि आप की बहू आने तक आप को ही सबकुछ देखना होगा. रीता भी डेविड के जवाब से खुश हुई थी. अनुज कालेज के फाइनल ईयर में था. 3 वर्षों बाद डेविड को वैस्टकोस्ट, कैलिफोर्निया में नौकरी मिली. वह रीता से बोला, ‘‘मम्मी, कैलिफोर्निया तो दूसरे छोर पर है. 5 घंटे तो प्लेन से जाने में लग जाते हैं. आप से बहुत दूर चला जाऊंगा. आप कहें तो यह नौकरी जौइन ही न करूं. इधर टैक्सास में ही ट्राई करता हूं.’’

रीता ने कहा, ‘‘बेटे, अगर यह नौकरी तुम्हें पसंद है तो जरूर जाओ.’’

प्रदीप ने भी उसे यही सलाह दी. डेविड के जाते समय रीता बोली, ‘‘तुम अब अपना बैंक अकाउंट संभालो.’’

डेविड बोला ‘‘क्या मम्मी, कुछ दिन और तुम्हीं देखो यह सब. कम से कम मेरी शादी तक. वैसे भी आप का दिया क्रैडिट कार्ड तो है ही मेरे पास. मैं जानता हूं मुझे पैसों की कमी नहीं होगी.’’

रीता ने पूछा कि शादी कब करोगे तो वह बोला, ‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी कैलिफोर्निया की ही है. यहां ह्यूस्टन में राइस यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई थी. वह भी अब कैलिफोर्निया जा रही है.’’

रीता बोली, ‘‘अच्छा बच्चू, तो यह राज है तेरे कैलिफोर्निया जाने का?’’

डेविड बोला, ‘‘नो मम्मी, नौट ऐट औल. तुम ऐसा बोलोगी तो मैं नहीं जाऊंगा. वैसे, मैं तुम्हें सरप्राइज देने वाला था.’’

‘‘नहीं, तुम कैलिफोर्निया जाओ, मैं ने यों ही कहा था. वैसे, तुम क्या सरप्राइज देने वाले हो.’’

‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी इंडियन अमेरिकन है. मगर तुम उसे पसंद करोगी, तभी शादी की बात होगी.’’

रीता बोली, ‘‘तुम ने नापतोल कर ही पसंद किया होगा, मुझे पूरा भरोसा है.’’

इसी बीच अनुज भी वहां आया. वह बोला, ‘‘मैं ने देखा है भैया की गर्लफ्रैंड को. उस का नाम प्रिया है. डेविड और प्रिया दोनों को लाइब्रेरी में अनेक बार देर तक साथ देखा है. देखनेसुनने में बहुत अच्छी लगती है.’’

डेविड कैलिफोर्निया चला गया. उस के जाने के कुछ महीनों बाद ही प्रदीप का सीरियस रोड ऐक्सिडैंट हो गया था. उस की लोअर बौडी को लकवा मार गया था. वह अब बिस्तर पर ही था.

डेविड खबर मिलते ही तुरंत आया. एक सप्ताह रुक कर प्रदीप के लिए घर पर ही नर्स रख दी. नर्स दिनभर घर पर देखभाल करती थी और शाम के बाद रीता देखती थीं.

रीता को पहले से ही ब्लडप्रैशर की शिकायत थी. प्रदीप के अपंग होने के कारण वह अंदर ही अंदर बहुत दुखी और चिंतित रहती थी. उसे एक माइल्ड अटैक भी पड़ गया, तब डेविड और प्रिया दोनों मिलने आए थे. रीता और प्रदीप दोनों ने उन्हें जल्द ही शादी करने की सलाह दी. वे दोनों तो इस के लिए तैयार हो कर ही आए थे.

शादी के बाद रीता ने डेविड को उस की प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स के पेपर सौंप दिए. डेविड और प्रिया कुछ दिनों बाद लौट गए थे. इधर अनुज भी कालेज के फाइनल ईयर में था. पर रीता और प्रदीप दोनों ने महसूस किया कि डेविड उतनी दूर रह कर भी उन का हमेशा खयाल रखता है, जबकि उन का अपना बेटा, बस, औपचारिकता भर निभाता है.

इसी बीच रीता को दूसरा हार्ट अटैक पड़ा, डेविड इस बार अकेले मिलने आया था. प्रिया प्रैग्नैंसी के कारण नहीं आ सकी थी. रीता को 2 स्टेंट हार्ट के आर्टरी में लगाने पड़े थे, पर डाक्टर ने बताया था कि उस के हार्ट की मसल्स बहुत कमजोर हो गई हैं. सावधानी बरतनी होगी. किसी प्रकार की चिंता जानलेवा हो सकती है.

रीता ने डेविड से कहा, ‘‘मुझे तो प्रदीप की चिंता हो रही है. रातरात भर नींद नहीं आती है. मेरे बाद इन का क्या होगा? अनुज तो उतना ध्यान नहीं देता हमारी ओर.’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, अनुज की तुम बिलकुल चिंता न करो. तुम को भी कुछ नहीं होगा, बस, चिंता छोड़ दो. चिंता करना तुम्हारे लिए खतरनाक है. आप, आराम करो.’’

कुछ महीने बाद थैंक्सगिविंग की छुट्टियों में डेविड और प्रिया रीता के पास आए. साथ में उन का 4 महीने का बेटा भी आया. रीता और प्रदीप दोनों ही बहुत खुश थे.

इसी बीच रीता को मैसिव हार्ट अटैक हुआ. आईसीयू में भरती थी. डेविड, प्रिया और अनुज तीनों उस के पास थे. डाक्टर बोल गया कि रीता की हालत नाजुक है. डाक्टर ने मरीज से बातचीत न करने को भी कहा.

रीता ने डाक्टर से कहा, ‘‘अब अंतिम समय में तो अपने बच्चों से थोड़ी देर बात करने दो डाक्टर, प्लीज.’’

फिर रीता किसी तरह डेविड से बोल पाई, ‘‘मुझे अपनी चिंता नहीं है. पर प्रदीप का क्या होगा?’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, तुम चुप रहो. परेशान मत हो.’’

वहीं अनुज बोला, ‘‘मम्मा, यहां अच्छे ओल्डएज होम्स हैं. हम पापा को वहां शिफ्ट कर देंगे. हम लोग पापा से बीचबीच में मिलते रहेंगे.’’

ओल्डएज होम्स का नाम सुनते ही रीता की आंखों से आंसू गिरने लगे. उसे अपने बेटे से बाप के लिए ऐसी सोच की कतई उम्मीद नहीं थी. उस की सांसें और धड़कन काफी तेज हो गईं.

डेविड अनुज को डांट रहा था, प्रिया ने कहा, ‘‘मम्मी, जब से आप की तबीयत बिगड़ी है, हम लोग भी पापा को ले कर चिंतित हैं. हम लोगों ने आप को और पापा को कैलिफोर्निया में अपने साथ रखने का फैसला किया है. वहां आप लोगों की जरूरतों के लिए खास इंतजाम कर रखा है. बस, आप यहां से ठीक हो कर निकलें, बाकी आगे सब डेविड और मैं संभाल लेंगे.’’

रीता ने डेविड और प्रिया दोनों को अपने पास बुलाया, उन के हाथ पकड़ कर कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, उस की सांसें बहुत तेज हो गईं. अनुज दौड़ कर डाक्टर को बुलाने गया. इस बीच रीता किसी तरह टूटतीफूटती बोली में बोली, ‘‘अब मुझे कोई चिंता नहीं है. चैन से मर सकूंगी. मेरा प्यारा अमेरिकन बेटा.’’

इस के आगे वह कुछ नहीं बोल सकी. जब तक अनुज डाक्टर के साथ आया, रीता की सांसें रुक चुकी थीं. डाक्टर ने चैक कर रहा, ‘‘शी इज नो मोर.’’

झूठ बोले कौआ काटे : एक अदद घर की तलाश

प्रेम नेगी काफी चिंतित था. शहर में नौकरी तो मिल गई, मगर मकान नहीं मिल रहा था. कई जगह भटकता रहा. उसे कभी मकान पसंद आता, तो किराया ज्यादा लगता. कहीं किराया ठीक लगता, तो बस्ती और माहौल पसंद नहीं पड़ता था. कहीं किराया और मकान दोनों पसंद पड़ते, तो वह अपने कार्यस्थल से काफी दूर लगता. क्या किया जाए, समझ नहीं आ रहा था. आखिर कब तक होटल में रहता. उसे वह काफी महंगा पड़ रहा था.

यों ही एक महीना बीतने पर उस की चिंता और ज्यादा बढ़ गई. एक दोपहर लंच के समय उस ने अपने सीनियर सहकर्मचारियों से अपनी परेशानी कह दी. उस की परेशानी सुन कर वे हंस पड़े.

“बेचारा आशियाना ढूंढ़ रहा है,” एक बुजुर्ग बोल पड़े.

आखिर क्लर्क के ओहदे पर कार्यरत एक शख्स उस की मदद में आया. ओम तिवारी नाम था उस का. लंबा कद. घुंघराले बाल. मितभाषी. वह पिछले 6 साल से यहां कार्यरत था.

“शाम को मेरे साथ चलना,” वह बोला.

उस शाम ओम तिवारी उसे अपनी बाइक पर बिठा कर निकल पडा.  20 मिनट राइड करने के बाद दोनों एक भीड़भाड़ गली से गुजर कर संकरी गली में आए, जिस के दोनों ओर कचोरी, समोसे और गोलगप्पे लिए ठेले वाले खड़े थे और युवक, युवतियां और बच्चे खड़ेखड़े खाने में व्यस्त थे.

कुछ पल के बाद वे एक खुले से मैदान में आए, जहां कुछ मकान दिखाई पड़े. ट्रैफिक के शोरगुल से दूर वहां शांति थी. कुछ मकान को पार करते हुए वे एक डुप्लैक्स के सामने आ कर रुके. बरांडे का गेट खोल कर अंदर प्रवेश किया.

डोर बेल बजाते ही दरवाजा खुला और एक अधेड़ उम्र के आदमी ने उन्हें देखते ही स्वागत किया, “अरे ओम, तुम यहां…”

“चाचाजी, ये मेरे दोस्त हैं प्रेम नेगी,” उस ने तुरंत काम की बात कर डाली, “ये हाल ही में दफ्तर में कैशियर के ओहदे पर नियुक्त हुए हैं. इन्हें किराए पर मकान चाहिए. और मुझे याद आया कि आप का मकान खाली है,“ फिर प्रेम नेगी की तरफ मुड़ कर वह बोला, “ये मेरे चाचाजी हैं, कमल शर्मा. हाल ही में हाईकोर्ट में क्लर्क के ओहदे से रिटायर हुए हैं.“

चाचा कमल शर्मा ने उस छोरे को सिर से पांव तक निरखा और फिर अपने भतीजे की ओर देख कर बोला, “ठीक है, मगर एक शर्त है. आप शादीशुदा हैं तो ही मैं अपना मकान किराए पर दूंगा. वरना मेरा तजरबा है कि कई कुंवारे छोरे यहां बाजारू लड़कियों को लाना शुरू कर देते हैं.“

“लेकिन, मैं तो शादीशुदा हूं,” प्रेम नेगी तुरंत बोल पड़ा और फिर अपने दोस्त ओम तिवारी की तरफ देख कर बोला, “मैं मकान मिलते ही अपनी घरवाली को ले आऊंगा.”

“ठीक है, आइए और मकान देख लीजिए.”

मकान मालिक कमल शर्मा ने उठ कर उन्हें अपने साथ ले कर बगल में जो खाली मकान था, वह दिखा दिया. मकान में 2 कमरे, रसोई और आगे आलीशान बरांडा था. कमरों में अटैच टौयलेट बाथरूम भी थे. उसे मकान पसंद आया.

“किराया 5,000 रुपए प्रति माह,” मकान मालिक कमल शर्मा ने प्रेम नेगी को किराया बता दिया.

फिर चाचा ने अपने भतीजे की तरफ देख कर कहा, “वैसे तो 6 महीने का किराया एडवांस लेने का दस्तूर है, लेकिन क्योंकि तुम्हें मेरा भतीजा ले कर आया है, मैं तुम से सिर्फ 3 महीने का एडवांस लूंगा. बोलो, है मंजूर?”

“मंजूर है,“ प्रेम नेगी खुशी से बोल पडा.

वह अगले ही दिन किराए के मकान में रहने आ गया. उसे मकान तो मिल गया, लेकिन झूठ बोल कर. वह शादीशुदा नहीं था. मकान मालिक से उस ने झूठ बोला था. यहां तक कि ओम तिवारी भी समझ रहा था कि वह शादीशुदा था.

2 सप्ताह यों ही बीत गए, फिर एक रोज मकान मालिक कमल शर्मा ने उस से पूछ ही लिया, “कब ला रहे हो अपनी बीवी को?”

यह सुन कर वह चौंक गया. दिनरात उपाय सोचने लगा. क्या किया जाए? बीवी को कहां से लाए?

एक दोपहर लंच के समय वह खाना खा कर अपनी केबिन में आराम से कुरसी पर आंखें मूंदे बैठा था कि उसे एक लड़की की आवाज सुनाई पड़ी.

“क्या आप ही प्रेम नेगी हैं?” अपनी आंखें खोलते ही वह हैरान रह गया.

एक अत्यंत खूबसूरत लंबे कद वाली, गोल चेहरे पर बड़ी आंखें और कमर तक झुके हुए लंबे बाल, गुलाबी सलवार और हलके हरे कमीज पर सफेद दुपट्टा ओढ़े हुए लड़की उस के सामने थी.

“जी,” वह बोल पड़ा, “कहिए, क्या काम है?”

“मैं रितू कश्यप हूं. 2 दिन पहले ही औडिट सैक्शन में कंप्यूटर औपरेटर की हैसियत से ज्वौइन किया है. मैं ने सुना है कि आप ने हाल ही में अपने लिए मकान ढूंढ़ा है. क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं मकान ढूंढ़ने में?”

“जी,” वह एकदम से हड़बड़ा गया, ”आ… आप को मकान चाहिए?” इतना कह कर वह गहरी सोच में डूब गया.

उस के भीतर से आवाज आने लगी. यही मौका है, हां कर दे. इसे ही अपने साथ कमरे में रख ले झूठमूठ अपनी पत्नी बना कर. मगर क्या वह इस के लिए राजी होगी?

“शाम को दफ्तर से छूटते ही मुझे मिलना. मैं जरूर आप की मदद कर दूंगा,” उस ने लड़की को आश्वस्त करते हुए कहा.

शाम को दफ्तर से छूटते ही वह रितू को औटोरिकशा में अंबेडकर पार्क ले आया. दोनों एक बेंच पर बैठे. उस ने थोड़ी देर सोचा. बात कहां से शुरू की जाए. फिर वह बोला, “देखिए रितूजी, मैं आप से झूठ नहीं बोलूंगा. सच ही कहूंगा. मैं ने किराए का मकान झूठ बोल कर लिया है. सरासर झूठ…”

“कैसा झूठ…?“ रितू ने पूछा.

“यही कि मैं शादीशूदा हूं. वैसे, मैं अभी कुंवारा हूं.”

“लेकिन, इस से मुझे क्या…?” रितू ने पूछ लिया.

“यदि तुम्हें मेरे मकान का एक कमरा चाहिए, तो तुम्हें मेरी पत्नी बन कर रहना पड़ेगा, वरना मुझे भी वो मकान खाली करना पड़ेगा.”

“पत्नी बन कर…” वह आश्चर्यचकित रह गई. फिर लड़के को घूरती रही. दिखने में तो अच्छा है. भला भी लगता है. वह सोचने लगी. फिर कालेज में तो बहुत नाटक किए हैं. कई स्मार्ट लडकों को अपने पीछे लट्टू बना कर घुमाया है. एक और नाटक सही. देखते हैं कि कहां तक सफलता हासिल होती है.

“मंजूर है,” वह आत्मविश्वास के साथ बोली.

“क्या…?” वह हक्काबक्का सा रह गया. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई लड़की इतनी जल्दी इतना बड़ा निर्णय ले सकती है.

“क्या तुम भी मेरे साथ झूठ बोल कर रहोगी?”

“बिलकुल,” वह बोली, ”चलिए, मकान दिखाइए.”

“देखिए रितूजी, ये झूठ सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही रहेगा. हमारा मकान मालिक और दफ्तर का कोई भी इस राज को जान न पाए, ध्यान रहे… ये सिर्फ नाटक है,” उस ने चेतावनी दे कर कहा.

“आप बेफिक्र रहिए. चलिए, मकान देखते हैं.“

अगले दिन सवेरेसवेरे रितू अपना सूटकेस ले कर प्रेम के घर चली आई. उस ने मकान के कमरों का निरीक्षण किया. दोनों कमरे अलगअलग थे और दोनों में अटैच बाथरूम और टौयलेट देख कर वह हंस पड़ी.

“वाह, कमरे तो बिलकुल अलग हैं. हम दोनों आराम से अलगअलग रह सकते हैं.”

प्रेम ने मकान मालिक को बुला कर रितू का परिचय अपनी बीवी के तौर पर करवा दिया.

“रितू को यहां एक स्कूल में टीचर की नौकरी मिली है. उस का समय भी दफ्तर की तरह ही 11बजे से 5 बजे है. हम दोनों साथ ही काम पर जाएंगे और लौटेंगे.”

“ठीक ही हुआ. तुम जल्दी ही अपनी बीवी को ले आए,” मकान मालिक ने भी खुश होते हुए कहा.

और फिर नाटक शुरू हो गया.

प्रेम और रितू एकसाथ मकान में रहने लगे, मियांबीवी की तरह. दोनों का प्रवेश द्वार एक ही था, लेकिन बरांडा पार करते हुए दोनों अलगअलग कमरे में दाखिल हो जाते. दोनों साथसाथ दफ्तर जाते और छूटने के बाद बाजार में घूम कर रैस्टोरैंट में शाम का खाना खा कर ही घर लौटते. एकाध महीने बाद ही प्रेम अपने गांव से बाइक भी ले आया. फिर दोनों हमेशा बाइक पर एकसाथ नजर आने लगे. दफ्तर में किसी को जरा सा भी शक नहीं हुआ. यहां तक कि ओम तिवारी को भी नहीं.

दिन तो व्यस्तता में गुजर जाता, लेकिन रात को दोनों अलगअलग कमरे में बिस्तर में लेटे सोचने लगते. प्रेम सोचता, “क्या अजीब परिस्थिति है? कुंवारा होते हुए भी शादीशुदा होने का नाटक करना पड़ रहा है, वह भी एक खूबसूरत लड़की के साथ.”

रितू कभीकभार रात में कुछ आहट सुनते ही जाग उठती. कहीं वह बंदा मेरे कमरे में आने की कोशिश तो नहीं कर रहा? क्या भरोसा? मौका मिलते ही पतिपत्नी के नाटक को सही बना दे. वाह रितू, तू ने भी बड़ी हिम्मत की है. मर्द के साथ रात बिता रही है. यदि कोई अनहोनी हो गई तो…?

व्यस्त दुनिया में कोई क्या कर रहा है, कैसे जी रहा है, यह सोचने की किसी को तनिक भी फुरसत नहीं होती. लेकिन जहां किसी लड़केलड़की के संदिग्ध संबंधों की बात आती है, वहां झूठ ज्यादा देर तक छुपा नहीं रहता और सच सिर चढ़ कर बोलता है. भूख, बीमारी, गरीबी व गंदगी सहन करने वाला समाज यदि कोई अनैतिक संबंधों के बारे में पता चल जाए तो फिर उसे कतई सहन नहीं कर सकता. फिर यदि कुंवारे लड़कालड़की हों, तो फिर बात ही क्या है?

दफ्तर में ओम तिवारी को भी भनक लग गई.

“रितू को नकली बीवी बना कर बड़े मजे लूट रहे हो यार… कभीकभार हमें भी मौका दे दिया करो. आखिर मकान तो हम ने ही दिलवाया है. खाली भी करवा सकते हैं. समझे?“

यह सुन कर प्रेम नेगी के पांव तले जमीन सरक गई.

शाम को उस ने रितू से कहा, “हमारा झूठ पकड़ा गया है. ओम तिवारी को इस का पता चल गया है. वह हमारे मकान मालिक को जरूर बता देगा.”

रितू के चेहरे पर भी चिंता की रेखाएं उभर आईं.

उस रात प्रेम नेगी को नींद नहीं आई. उसे यकीन हो गया कि उस का झूठ अब ज्यादा चलने वाला नहीं था. फिर उसे डर था कि उस की इस मजबूरी का फायदा उठाते हुए कहीं ओम तिवारी उस के घर आ कर रितू के साथ जबरदस्ती न करने लगे. उस की नीयत ठीक नहीं थी. उसे रात भयानक लगने लगी थी. उस ने तय कर लिया कि सवेरे सबकुछ मकान मालिक को सहीसही बता देगा. उस ने अपने सेलफोन की घड़ी में देखा तो रात के साढ़े बारह बज चुके थे, तभी किसी ने उस का दरवाजा खटखटाया.

“नेगी… दरवाजा खोलो. मैं हूं शर्मा… मकान मालिक.”

“इतनी रात… मकान मालिक,“ वह हड़बड़ा गया.

कुछ पल वह सोचता रहा कि दरवाजा खोले या नहीं. खटखटाहट दोबारा हुई.

बिस्तर से उठ कर उस ने दरवाजा खोला.

“नेगीजी… बड़े मजे लूट रहे हो यार,” ओम तिवारी ने कुछ बहक कर कहा. उस ने शराब पी रखी थी और मकान मालिक कमल शर्मा मुसकरा रहा था. वह बोला, “आज की रात ओम यहीं सोएगा, तुम्हारे साथ.”

फिर वे दोनों बेझिझक अंदर घुस आए. ओम तिवारी के हाथ में शराब की बोतल थी और वह नशे में था. मकान मालिक कमल शर्मा के मुंह से भी बदबू आ रही थी. मेज पर बोतल रख कर ओम तिवारी सोफे पर बैठ गया और बहकी हुई आवाज में बोला, “कहां है तुम्हारी नकली बीवी? महबूबा… आज तो हमें उस से ही मिलना है.”

“ तिवारीजी….देखिए रितू बीमार है और अपने कमरे में सो रही है,” वह गिड़गिड़ाने लगा.

फिर उस ने मकान मालिक कमल शर्मा के सामने अत्यंत दीन हो कर कहा, “माफ कीजिए. मैं ने झूठ बोला था. रितू मेरी बीवी नहीं, बल्कि मेरे ही दफ्तर में कार्यरत है. उसे भी मकान की जरूरत थी, इसलिए मैं उसे यहां ले आया. गलती मेरी है. मैं ने झूठ बोला था. आप कहें तो हम कल ही मकान खाली कर देंगे.”

“छोड़ यार… मकान खाली करने को कौन कहता है?” ओम तिवारी नशे में बोल पड़ा, “मुझे तो सिर्फ रितू चाहिए. तुम अकेलेअकेले मजे लूटते हो. आज हमें भी उस का स्वाद चखने दो.”

ओम तिवारी लड़खड़ाता हुआ अंदर के किवाड़ की तरफ आगे बढ़ा, जहां पर रितू सोई हुई थी. उस ने जोर से धक्का दे कर दरवाजा खोलने की कोशिश की.

“दरवाजा खोल जानेमन, हम भी प्रेम के जिगरी दोस्त हैं.”

“नहीं तिवारी, तुम ऐसा नहीं कर सकते,” चीख कर प्रेम उस की ओर लपका और उसे धक्का दे कर दरवाजे से दूर धकेल दिया. मकान मालिक कमल शर्मा ने तभी उस की तरफ लपक कर उसे अपने दोनों हाथों से जकड़ लिया, फिर वहीं पर दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई.

प्रेम नेगी ने मकान मालिक कमल शर्मा को 2-3  घूंसे जड़ दिए. उधर ओम तिवारी ने जोर से दरवाजे पर लात मारी और दरवाजा खुल गया. कमरे में अंधेरा था. ओम तिवारी ने प्रवेश किया.

“ओह,” अंदर घुसते ही वह जोर से चीखा, जैसे उस पर किसी ने करारा वार किया हो. कमल शर्मा की गिरफ्त से छूटने की कोशिश करते हुए प्रेम चिल्लाया, “रितू, यहां से भाग निकल.” तभी कमरे में लाइट जली और हाथ में टूटा हूआ गुलदस्ता लिए रितू कमरे से बाहर आई.

“छोड़ दे बदमाश, वरना इसी गुलदस्ते से तेरा भी सिर फोड़ दूंगी.”

मकान मालिक कमल शर्मा की तरफ आंखें तरेर कर रितू ने  देखा. कमल शर्मा ने सहम कर देखा, कमरे में ओम तिवारी बेहोश पड़ा हुआ है. उस ने झट से प्रेम को छोड़ दिया.

“रितू, तुम ठीक तो हो,” प्रेम उस की ओर दौड़ आया.

तभी वहां आंगन में पुलिस की जीप आ कर रुकी और तुरंत 2 पुलिस वाले और एक महिला अफसर अंदर आ पहुंचे.

“रितू कश्यप आप हैं?” महिला अफसर ने रितू की तरफ देख कर पूछा.

“ जी मैडम, ये मेरे मकान मालिक हैं- कमल शर्मा और वो जो कमरे में शराब के नशे में धुत्त पड़ा है, वो ओम तिवारी मेरे ही दफ्तर में काम करता है. इन दोनों ने हमारे घर में घुस कर मेरे पति को पीटा और मुझ पर बलात्कार करने की कोशिश की. इन्हें गिरफ्तार कीजिए. कल सुबह हम दोनों थाने आ कर रिपोर्ट लिखवा देंगे.“

“मैं… मैं बेकुसूर हूं,”  बोलतेबोलते मकान मालिक कमल शर्मा की घिग्घी बंध गई. 2 पुलिस वाले बेहोश ओम तिवारी को उठा कर ले गए और महिला अफसर ने मकान मालिक कमल शर्मा को धक्का दे कर कमरे से बाहर धकेल किया.

पुलिस की जीप के जाते ही प्रेम और रितू ने एकदूसरे की ओर बड़े प्यार से देखा.

“रितू… ये पुलिस, तुम ने बुलाई थी?” वह आश्चर्यचकित हो उठा.

“बिलकुल…” रितू ने कहा, “खतरा भांप कर मैं ने ही महिला सुरक्षा हेल्पलाइन पर अपने मोबाइल से फोन कर दिया था.”

“तुम सचमुच बहादुर हो,” कह कर प्रेम ने उस का हाथ चूम लिया.

“तुम भी तो बड़े प्यारे हो, जो मेरी खातिर अपनी जान जोखिम में डाल उन बदमाशों से भिड़ गए,” रितू ने भी प्रेम के गालों पर हलकी सी चुम्मी ले ली.

“मगर, तुम ने झूठ क्यों बोला?” प्रेम ने मुसकरा कर पूछा, “हम पतिपत्नी तो हैं नहीं, फिर कल थाने में रिपोर्ट कैसे लिखवाएंगे?”

“कोई बात नहीं,” रितू खुशी से बोल पड़ी, “कल सुबह 11 बजे हम शादी पंजीकरण के लिए अदालत जाएंगे, फिर कानूनी तौर पर पतिपत्नी बन कर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाएंगे. आखिर कब तक झूठ बोलते रहेंगे? वह कहावत है न, झूठ बोले कौआ काटे. बोलो है मंजूर?”

“मंजूर है, मंजूर… बीवीजी,” प्रेम ने उसे आलिंगन में जकड़ लिया.

क्या वही प्यार था : दीदी बाबा का प्यार क्या रंग लाया

दादी और बाबा के कमरे से फिर जोरजोर से लड़ने की आवाजें आने लगी थीं. अम्मा ने मुझे इशारा किया, मैं समझ गई कि मुझे दादीबाबा के कमरे में जा कर उन्हें लड़ने से मना करना है. मैं ने दरवाजे पर खड़े हो कर इतना ही कहा कि दादी, चुप हो जाइए, अम्मा के पास नीचे गुप्ता आंटी बैठी हैं. अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई कि दादी भड़क गईं.

‘‘हांहां, मुझे ही कह तू भी, इसे कोई कुछ नहीं कहता. जो आता है मुझे ही चुप होने को कहता है.’’

दादी की आवाज और तेज हो गई थी और बदले में बाबा उन से भी जोर से बोलने लगे थे. इन दोनों से कुछ भी कहना बेकार था. मैं उन के कमरे का दरवाजा बंद कर के लौट आई.

दादीबाबा की ऐसी लड़ाई आज पहली बार नहीं हो रही थी. मैं ने जब से होश संभाला है तब से ही इन दोनों को इसी तरह लड़ते और गालीगलौज करते देखा है. इस तरह की तूतू मैंमैं इन दोनों की दिनचर्या का हिस्सा है. हर बार दोनों के लड़ने का कारण रहता है दादी का ताश और चौपड़ खेलना. हमारी कालोनी के लोग ही नहीं बल्कि दूसरे महल्लों के सेवानिवृत्त लोग, किशोर लड़के दादी के साथ ताश खेलने आते हैं. ताश खेलना दादी का जनून था. दादी खाना, नहाना छोड़ सकती थीं, मगर ताश खेलना नहीं.

दादी के साथ कोई बड़ा ही खेलने वाला हो, यह जरूरी नहीं. वे तो छोटे बच्चे के साथ भी बड़े आनंद के साथ ताश खेल लेती थीं. 1-2 घंटे नहीं बल्कि पूरेपूरे दिन. भरी दोपहरी हो, ठंडी रातें हों, दादी कभी भी ताश खेलने के लिए मना नहीं कर सकतीं. बाबा लड़ते समय दादी को जी भर कर गालियां देते परंतु दादी उन्हें सुनतीं और कोई प्रतिक्रिया दिए बगैर उसी तरह ताश में मगन रहतीं. कई बार बहुत अधिक गुस्सा आने पर बाबा, दादी के 1-2 छड़ी भी टिका देते. दादी बाबा से न नाराज होतीं न रोतीं. बस, 1-2 गालियां बाबा को सुनातीं और अपने ताश या चौपड़ में मस्त हो जातीं.

एक खास बात थी, वह यह कि दोनों अकसर लड़ते तो थे मगर एकदूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे. जब दोनों की लड़ाई हद से बढ़ जाती और दोनों ही चुप न होते तो दोनों को चुप कराने के लिए अम्मा इसी बात को हथियार बनातीं. वे इतना ही कहतीं, ‘‘आप दोनों में से किसी एक को देवरजी के पास भेजूंगी,’’ दोनों चुप हो जाते और तब दादी, बाबा से कहतीं, ‘‘करमजले, तू कहीं रहने लायक नहीं है और न मुझे कहीं रहने लायक छोड़ेगा,’’ और दोनों थोड़ी देर के लिए शांत हो जाते.

खैर, गुप्ता आंटी तो चली गई थीं मगर अम्मा को आज जरा ज्यादा ही गुस्सा आ गया था. सो, अम्मा ने दोनों से कहा, ‘‘बस, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती. अभी देवरजी को चिट्ठी लिखती हूं कि किसी एक को आ कर ले जाएं.’’

अम्मा का कहना था कि बाबा हाथ जोड़ कर हर बार की तरह गुहार करने लगे, ‘‘अरी बेटी, तू बिलकुल सच्ची है, तू हमें ऊपर बनी टपरी में डाल दे, हम वहीं रह लेंगे पर हमें अलगअलग न कर. अरी बेटी, आज के बाद मैं अपना मुंह सी लूंगा.’’

अभी बात चल ही रही थी कि संयोग से चाचा आ गए. चायनाश्ते के बाद अम्मा ने चाचा से कहा, ‘‘सुमेर, दोनों में से किसी एक को अपने साथ ले कर जाना. जब देखो दोनों लड़ते रहते हैं. न आएगए की शर्म न बच्चों का लिहाज.’’

चाचा लड़ने का कारण तो जानते ही थे इसलिए दादी को समझाते हुए बोले, ‘‘मां, जब पिताजी को तुम्हारा ताश और चौपड़ खेलना अच्छा नहीं लगता तो क्यों खेलती हैं, बंद कर दें. ताश खेलना छोड़ दें. पता नहीं इस ताश और चौपड़ के कारण तुम ने पिताजी की कितनी बेंत खाई होंगी.

‘‘भाभी ठीक कहती हैं. मां, तुम चलो मेरे साथ. मेरे पास ज्यादा बड़ा मकान नहीं है, पिताजी के लिए दिक्कत हो जाएगी. मां, तुम तो बच्चों के कमरे में मजे से रहना.’’

आज दादी भी गुस्से में थीं, एकदम बोलीं, ‘‘हां बेटा, ठीक है. मैं भी अब तंग आ गई हूं. कुछ दिन तो चैन से कटेंगे.’’

दादी ने अपना बोरियाबिस्तर बांध कर तैयारी कर ली. अपनी चौपड़ और ताश उठा लिए और जाने के लिए तैयार हो गईं.

यह बात बाबा को पता चली तो बाबा ने वही बातें कहनी शुरू कर दीं जो दादी से अलग होने पर अम्मा से किया करते थे, ‘‘अरी बेटी, मैं मर कर नरक में जाऊं जो तू मेरी आवाज फिर सुने.’’

अम्मा के कोई जवाब न देने पर वे दादी के सामने ही गिड़गिड़ाने लगे, ‘‘सुमेर की मां, आप मुझे जीतेजी क्यों मार रही हो. आप के बिना यह लाचार बुड्ढा कैसे जिएगा.’’

इतना सुनते ही दादी का मन पिघल गया और वे धीरे से बोलीं, ‘‘अच्छा, नहीं जाती,’’ दादी ने चाचा से कह दिया, ‘‘तेरे पिताजी ठीक ही तो कह रहे हैं न, मैं नहीं जाऊंगी,’’ और दादी ने अपना बंधा सामान, अपना बक्सा, ताश, चौपड़ सब कुछ उठा कर खुद ही अंदर रख दिया.

चाचा को उसी दिन लौटना था अत: वे चले गए. शाम को मैं चाय ले कर बाबा के पास गई तो बाबा ने कहा, ‘‘सिम्मी बच्ची, पहले अपनी दादी को दे,’’ और फिर खुद ही बोले, ‘‘सुमेर की मां, सिम्मी चाय लाई है, चाय पी लो.’’

दादी भी वाणी में मिठास घोल कर बड़े स्नेह से बोलीं, ‘‘अजी आप पियो, मेरे लिए और ले आएगी.’’

एक बात और बड़ी मजेदार थी, जब अलग होने की बात होती तो तूतड़ाक से बात करने वाले मेरे बाबा और दादी आपआप कर के बात करते थे जो हमारे लिए मनोरंजन का साधन बन जाती थी. लेकिन ऐसे क्षण कभीकभी ही आते थे, और दादीबाबा कभीकभी ही बिना लड़ेझगड़े साथ बैठते थे. आज भी ऐसा ही हुआ था. ये आपआप और धीमा स्वर थोड़ी ही देर चला क्योंकि पड़ोस के मेजर अंकल दादी के साथ ताश खेलने आ गए थे.

बाबा की तबीयत खराब हुए कई दिन हो गए थे. दादी को विशेष मतलब नहीं था उन की तबीयत से. एक दिन बाबा की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. बाबा कहने लगे, ‘‘आज मैं नहीं बचूंगा. अपनी दादी से कहो, मेरे पास आ कर बैठे, मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

दादी की ताश की महफिल जमी हुई थी. हम उन्हें बुलाने गए मगर दादी ने हांहूं, अच्छा आ रही हूं, कह कर टाल दिया. वह तो अम्मा डांटडपट कर दादी को ले आईं. दादी बेमन से आई थीं बाबा के पास.

दादी बाबा के पास आईं तो बाबा ने बस इतना ही कहा था, ‘‘सुमेर की मां, तू आ गई, मैं तो चला,’’ और दादी का जवाब सुने बिना ही बाबा हमेशा के लिए चल बसे.

तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार चले गए. शाम को दादी अपने कमरे में गईं. वे बिलकुल गुमसुम हो गई थीं हालांकि बाबा की मृत्यु होने पर न वे रोई थीं न ही चिल्लाई थीं. दादी ने खाना छोड़ दिया, वे किसी से बात नहीं करती थीं. ताश, चौपड़ को उन्होंने हाथ नहीं लगाया. जब कोई ताश खेलने आता तो दादी अंदर से मना करवा देतीं कि उन की तबीयत ठीक नहीं है. अम्मा या पापा दादी से बात करने का प्रयास करते तो दादी एक ही जवाब देतीं, ‘‘मेरा जी अच्छा नहीं है.’’

एक दिन अम्मा, दादी के पास गईं और बोलीं, ‘‘मांजी, कमरे से बाहर आओ, चलो ताश खेलते हैं, आप ने तो बात भी करना छोड़ दिया. दिनभर इस कमरे में पता नहीं क्या करती हो. चलो, आओ, लौबी में ताश खेलेंगे.’’

दादी के चिरपरिचित जवाब में अम्मा ने फिर कहा, ‘‘मांजी, ऐसी क्या नफरत हो गई आप को ताश से. इस ताश के पीछे आप ने सारी उम्र पिताजी की गालियां और बेंत खाए. जब पिताजी मना किया करते थे तो आप खेलने से रुकती नहीं थीं और अब वे मना करने के लिए नहीं हैं तो 3 महीने से आप ने ताश छुए भी नहीं. देखो, आप की चौपड़ पर कितनी धूल जम गई है.’’

अब दादी बोलीं, ‘‘परसों होंगे 3 महीने. मेरा उन के बिना जी नहीं लगता. सुमेर के पिताजी, मुझे भी अपने पास बुला लो. मुझे नहीं जीना अब.’’

दादी की मनोकामना पूरी हुई. बाबा के मरने के ठीक 3 महीने बाद उसी तिथि को दादी ने प्राण त्याग दिए. यानी दादी अपने कमरे में जो गईं तो 3 महीने बाद मर कर ही बाहर आईं.

दादीबाबा को हम ने कभी प्रेम से बैठ कर बातें करते नहीं देखा था, लेकिन दादी बाबा की मौत का गम नहीं सह पाईं और बाबा के पीछेपीछे ही चली गईं. उन के ताश, चौपड़ वैसे के वैसे ही रखे हुए हैं.

गोल्डन वुमन: फैशन मौडल कैसे बनी दुल्हन

दिल्ली के होटल ताज के बाहर काले रंग की एक चमचमाती कार आ कर रुकती है. लेटैस्ट मौडल की इस कार का दरवाजा खुलता है और उस में से हाई हील्स और स्टाइलिश पार्टीवियर ड्रैस में साधना बाहर निकलती है. उस के बालों में गोल्डन कलरिंग की हुई है. डायमंड जड़े सुनहरे पर्स और गौगल्स को संभालती साधना होटल के अंदर प्रवेश करती है.

रिसैप्शन एरिया में ही उस की सहेली निभा उस का इंतजार कर रही थी. साधना को गौर से देखते हुए उस ने कहा,”हाय साधना, न्यू हेयरस्टाइल. नाइस यार… तेरी तो ड्रैस भी नायाब है.”

“अरे निभा, तुझे याद नहीं पिछली दफा जब पार्टी के बाद मैं तन्वी के साथ बाजार गई थी, वहीं यह ड्रैस मुझे पसंद आ गई थी. जानती है इस के किनारों पर गोल्ड का काम है. इस ड्रैस के फ्रंट पर भी सीक्वैंस, स्टोंस, बीड्स और गोल्ड का काम किया हुआ है.”

“गौर्जियस यार. वैसे भी यू आर अ गोल्डन वूमन. गोल्ड बहुत पसंद हैं न तुझे. तेरी ज्यादातर ड्रैस में गोल्ड का काम जरूर होता है. वैसे कितने की है यह ड्रैस ?”

“ज्यादा की नहीं है यार. बस यही कोई ₹1 लाख की है. बट आई मस्ट से, इट्स वैरी कंफरटेबल. फील ही नहीं हो रहा कि कुछ पहना भी है,” कह कर साधना हंस पड़ी, फिर निभा की तरफ देखती हुई बोली,” वैसे तुम्हारी ड्रैस भी बहुत प्रिटी है यार.”इसी तरह बातें करतीं एकदूसरे का हाथ थामे दोनों आगे बढ़ गईं.

साधना अपनी 20-25 क्लोज फ्रैंड्स के साथ शाम तक शानदार पार्टी का मजा लेती रही. पार्टी साधना की तरफ से ही थी. दरअसल, साधना ने अपने बेटे अभिनव की 10वीं में बेहतरीन प्रदर्शन की खुशी में अपनी सहेलियों को दावत दी थी. दावत भी ऐसीवैसी नहीं थी. इस दावत में सर्व किए गए 1-1 प्लेट की कीमत हजारों रूपए थी.

सलाहकारों और सहयोगियों का हुजूम हमेशा उस के साथ चलता था. इधर कुछ दिनों से सुधाकर कुछ परेशान रहने लगा था. साधना समझती थी कि इस की वजह कारोबार में आ रही समस्याएं होंगी. सुधाकर कभी भी साधना से अपनी बिजनैस संबंधित समस्याएं शेयर नहीं करता था और साधना कभी उस के काम में कोई दखल देती भी नहीं थी.

साधना ने सुधाकर से लव मैरिज की थी. दरअसल, साधना एक मौडल थी और राजस्थानी परिवार से जुड़ी थी. वहीँ सुधाकर भी मूल रूप से राजस्थानी ही था. दोनों के ही परिवार वाले अब दिल्ली में बसे हुए थे. साधना का फैशन सैंस और स्टाइलिश लुक सुधाकर के मन में समा गया था.

एक फैशन शो ईवेंट के दौरान उस ने साधना से अपने दिल की बात पूरे राजस्थानी अंदाज में कही और वहीं दोनों ने एकदूसरे को जीवनसाथी के रूप में चुन लिया.

वैसे सुधाकर के घर वालों ने साधना को सहजता से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे एक मौडल को बहू बनाने के पक्ष में नहीं थे. मगर जब उन्होंने करीब से उस के मृदुल स्वभाव और परिपक्व सोच को परखा तो तुरंत तैयार हो गए.

दोनों अपनी गृहस्थी में बहुत खुश थे. साधना के 2 बच्चे थे. पहला बेटा अभिनव था जो 10वीं पास कर चुका था जबकि बेटी अभी छोटी थी.

साधना अपने पैशन को जिंदा रखना चाहती थी मगर शादी के बाद अपनी जिम्मेदारियां देखते हुए उस ने फैशन मौडल के बजाय फैशन इंफ्लुऐंसर और फैशन मोटीवेटर के रूप में घर से ही काम करना शुरू किया था.

पार्टी खत्म कर साधना ने अपनी सभी सहेलियों से विदा ली और अपने शानदार बंगले में कदम रखा तो यह देख कर दंग रह गई की ड्राइंगरूम में बहुत से लोग मौजूद हैं. पति सामने मुंह लटकाए एक अपराधी की तरह खड़े हैं. घर के सभी नौकरचाकर भी एक कोने में दुबके हुए हुए हैं.

घबराते हुए साधना अंदर दाखिल हुई और पति के पास जाती हुई बोली,”क्या हुआ सुधाकर और ये लोग कौन हैं? ”

सुधाकर टूट गया और साधना के कंधे पर सिर रख कर रोता हुआ बोला,”सब खत्म हो गया साधना. हम कंगाल हो गए. ये बैंक वाले हैं और अपनी लोन की रकम उगाहने के लिए आए हैं. ये हमारे मकान और गाड़ियों पर कब्जा लेने के लिए खड़े हैं.”

साधना सन्न रह गई मगर पति को दिलासा देती हुई बोली,”परेशान मत हो सुधाकर, सब ठीक हो जाएगा.”

“मैं भी अब तक यही तो सोचता रहा कि सब ठीक हो जाएगा. एक के बाद एक बिजनैस डूबते रहे मगर मैं लोन लेले कर नए सपने बुनता रहा. तुम्हें भी कभी एहसास नहीं होने दिया कि आजकल हमारी कंपनियां नफा देने के बजाय नुकसान दे रही हैं. मेरे बैंक लोन इतने ज्यादा बढ़ गए हैं कि अब मैं सब कुछ गंवा देने की हालत में पहुंच गया हूं. बस मुझे एक साइन करना है और फिर यह बंगलागाड़ी, यह शानोशौकत सबकुछ खत्म हो जाएगा.”

“तो क्या हुआ सुधाकर, अब हम एक सामान्य जीवन जी लेंगे. सालों शानोशौकत का अनुभव किया है तो कुछ समय साधारण जीवन का भी अनुभव होना चाहिए न और कौन जाने तुम बहुत जल्द ही सब कुछ वापस खड़ा कर लोगे. मुझे पूरा विश्वास है तुम पर. कर दो साइन सुधाकर ज्यादा मत सोचो.”

मनमसोस कर सुधाकर ने सबकुछ बैंक वालों को सौंप दिया और इस तरह एक झटके में अरबपति दंपत्ति का परिवार साधारण मध्यवर्गीय परिवार में तबदील हो गया. सुधाकर और साधना ने तो फिर भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया मगर असल मुसीबत बच्चों की थी जिन्होंने बचपन से एक लग्जीरियस लाइफ जी थी और अब अचानक आए इस बदलाव से वे हतप्रभ थे.

बेटी पायल तो इस छोटे से नए घर में आ कर फफकफफक कर रो पड़ी थी. बेटा अभिनव भी समान्य नहीं रह पाया. वह अपने दोस्तों से कतराने लगा क्योंकि वे लोग उस से हजारों सवाल करने लगे थे. साधना खुद भी अंदर से बहुत परेशान थी मगर उसे पति और बच्चों को इस सदमे से उबारना था. साधना ने पहले अपने मन को समझाया और फिर शांत मन से बच्चों को समझाने में जुट गई.

बेटी को अपने पास बैठा कर साधना ने पूछा,”आप क्यों रो रहे हो?”

“मम्मा हम गरीब हो गए. अब हमें बहुत कठिन दिन गुजारने होंगे न. हम अपने मन का कुछ नहीं कर पाएंगे…”

“ऐसा क्यों कह रही हो मेरी बच्ची? अमीरीगरीबी तो जिंदगी में लगी ही रहती है. यह जिंदगी का एक हिस्सा है, एक फेज की तरह है बिलकुल वैसे ही जैसे रोज सुबह होती है, शाम होती है फिर रात हो जाती है. अगला दिन आता है और फिर से सुबह हो जाती है. यह सब तो चलता रहता है. अब देखो न, कभी ठंड, कभी गरमी और कभी बारिश. मौसम बदलते रहते हैं न. जानते हो गरमी के बाद बारिश न आए तो फसलें सूख जाएंगी और हमें खाने की चीजें नहीं मिलेंगी. इसी तरह जिंदगी भी रंग बदलती है.”

“पर मम्मा, यह फेज अच्छा नहीं है न?”

“किस ने कहा बेटे? हर फेज अच्छा होता है. हमें कुछ सिखा कर जाता है. कोशिश करो तो जिंदगी के इस फेज से बहुत कुछ सीख सकते हो.”

“देखो बेटे, जीवन में कठिनाइयां आती हैं तभी इंसान उस से लड़ना सीखता है, मजबूत बनता है. जो लोग हमेशा अमीरी में जीते हैं उन के अंदर कठिन परिस्थितियों से निबटने की ताकत नहीं आ पाती. अमीर बच्चों को सब कुछ आसानी से मिल जाता है. इसलिए उन के अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं आती. मगर साधारण लोग सबकुछ अपनी मेहनत के बल पर हासिल करते हैं. इसी में असली खुशी है.”

पायल मां को देखती रही. वह कोशिश कर रही थी कि मां के तर्कों को मान ले मगर बच्ची के मन अंदर कुछ टूट गया था. अभिनव भी काफी गुमसुम रहने लगा था.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. बच्चे अभी भी इस नई जिंदगी में सामान्य नहीं थे.

एक दिन बेटा जब स्कूल से वापस लौटा तो साधना हैरान रह गई. उस के कपड़े कई जगह से फटे हुए थे. बाल बिखरे थे और कई जगह चोट भी लगी थी. उस के साथ आए लड़के ने बताया कि स्कूल में दूसरे लड़कों से मारपीट की वजह से यह हालत हुई है. उस लड़के के जाने के बाद साधना ने जल्दीजल्दी पहले तो बेटे को नहलाया और फिर उस की मरहमपट्टी की. सिर पर ठंडे पानी की फुहारें पड़ीं तो अभिनव थोड़ा सामान्य हुआ.

अब बेटे को पास बैठा कर और उस की आंखों में देखते हुए साधना ने पूछा,”यह सब क्या है अवि? अपने दोस्तों से लड़ने की वजह क्या थी? ऐसा क्या हो गया जो तुम ने मारपीट की?”

अभिनव अचानक रोता हुआ उस की गोद में सिर रख कर लेट गया और बोला,”मां, स्कूल का एक लड़का पापा को कंगाल और दिवालिया कह रहा था. उस ने मुझे कंगला का बेटा कहा. इसी बात पर मुझे गुस्सा आ गया. मैं सह नहीं सका और उस पर टूट पड़ा.”

“बेटे, ऐसा क्या गलत कह दिया था उस ने? और यदि गलत कहा भी तो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है जबकि बात ही गलत है? देखो बेटा, तुम्हारे पापा दिवालिया हुए थे. उन की संपत्ति जब्त कर ली गई थी. इस की खबर न्यूज चैनल और अखबारों में भी आई थी. ऐसे में संभव है कि उस लड़के के घर में भी इस बात पर चर्चा हुई होगी. वह लड़का किसी बात पर तुम से नाराज होगा इसलिए उस ने तुम्हें उकसाने के लिए इस बात को गलत तरीके से कहा और तुम सचमुच भड़क उठे.

 

“पर मौम, वह सब के सामने ऐसी बातें कर रहा था तो मैं भला क्या करता? चुपचाप आगे बढ़ जाता?”

“या तो चुपचाप आगे बढ़ जाते या फिर मुसकरा कर कहते कि डोंट वरी हम फिर से पहले जैसे बन जाएंगे,” साधना ने समझाया.

सुन कर अभिनव को हंसी आ गई. वह मां के हाथ चूमता हुआ बोला,”मौम यू आर ग्रेट. कहां से लाते हो आप इतना पैशेंस?”

साधना ने हंस कर कहा,” यह पैशेंस अब तुम्हें भी अपने अंदर पैदा करना है बेटे. तभी तुम जिंदगी की हर जंग जीत सकोगे.”

“ओके मौम मैं ऐसा कर के दिखाऊंगा.”

बेटे का माथा प्यार से सहलाते हुए साधना एक खुशनुमा भविष्य की उम्मीद में खो गई.

2-3 साल इसी तरह बीत गए. साधना अपने बच्चों को कम में जीने का प्रशिक्षण देती रहती. जब बेटा दोस्तों को पार्टी देने की बात कर रूपए मांगता तो वह अपने दोस्तों को घर पर बुला लेने की बात करती और अपने हाथों का बना खाना खिलाती. जब वह जिम जौइन करने की बात करता तो साधना उसे घर पर ही योगा और व्यायाम कर के फिट रहने के उपाय समझाती. उसे बेवजह के स्कूल टूअर या फंक्शन में शामिल होने के बजाय उस समय का उपयोग पढ़ाई करने और भविष्य संवारने में लगाने को कहती. वह अपनी बिटिया को भी पैसे बरबाद करने के बजाय बचत करने के तरीके समझाती.

उस दिन साधना की बेटी पायल का बर्थडे था. साधना के कहने पर पायल इस बार अपनी बर्थडे पार्टी साधारण तरीके से मनाने की बात तो मान गई मगर एक खूबसूरत नई ड्रैस के लिए अड़ गई. साधना ने उस का मन रखने के लिए ड्रैस खरीद दी. 3-4 दिन बाद ही पायल फिर से एक नई ड्रैस के लिए मिन्नतें करने लगी.

“मगर क्यों? अभी तो लाई थी मैं नई ड्रैस,” साधना ने पूछा तो वह बोली,”मम्मा, मेरी बैस्ट फ्रैंड का बर्थडे है. उस के बर्थडे पर मैं अपनी बर्थडे वाली ड्रैस रिपीट कैसे करूं? इस के अलावा कोई नई ड्रैस है भी नहीं मेरे पास.”

“ओके बेटा. परेशान न हो. आप शाम को स्कूल से आओगे तब तक आप की नई ड्रैस आ चुकी होगी.”

“थैंक यू मम्मा,” कह कर पायल हंसतीमुसकराती चली गई.

पायल के जाने के बाद साधना सोचने लगी कि बेटी के लिए एक नई पार्टीवियर ड्रैस का इंतजाम कैसे किया जाए. तभी उस के दिमाग में एक आईडिया आया. उस ने बेटी की एक पुरानी ड्रैस निकाली और उस पर अपने फैशन डिजाइनर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए सितारे, स्टोंस, बीड्स और नेट आदि का काम कर और स्टाइलिश कटिंग दे कर उस ड्रैस को एक खूबसूरत पार्टीवियर ड्रैस बना दिया. शाम को जब पायल लौटी और मम्मी के हाथों में प्यारी सी ड्रैस देखी तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

रात में जब साधना ने सुधाकर को सारी बात बताई तो साधना का हाथ पकड़ कर वह बोला,”मैं हमेशा कहता था न यू आर अ गोल्डन वूमन. आज तुम ने यह साबित कर दिया. तुम्हारे गोल्डन कलर्ड हेयर, गोल्डन ड्रैस, गोल्डन ऐक्सेसरीज ही तुम्हें गोल्डन नहीं बनाते बल्कि तुम्हारा दिल भी गोल्डन है. सच सोने का दिल रखती हो तुम. मेरी जिंदगी में इतनी तकलीफें आईं मगर तुम ने अपनी समझदारी और धैर्य से न केवल मुझे हिम्मत दी बल्कि बच्चों को भी हर हाल में खुश हो कर जीना सिखा दिया. थैंक्स साधना.”

साधना ने मुसकराते हुए कहा,”मैं तुम्हारी जीवनसाथी हूं. सुख हो या दुख हो, सम्पन्नता हो या परेशानी, मुझे तुम्हारे साथ हौसला बन कर चलना है. मैं न खुद टूटूंगी और न तुम्हें टूटने दूंगी.”

सुधाकर के चेहरे पर मुसकान और आंखों में प्यार झलक उठा था.

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