शाम ढलने को थी. इक्कादुक्का दुकानों में बिजली के बल्ब रोशन होने लगे थे. ऊन का आखिरी सिरा हाथ में आते ही अदीबा को धक्का सा लगा कि पता नहीं अब इस रंग की ऊन का गोला मिलेगा कि नहीं.
अदीबा ने कमरे की बत्ती जलाई और अपनी अम्मी को बता कर झटपट ऊन का गोला खरीदने निकल पड़ी.
जातेजाते अदीबा बोली, "अम्मी, ऊन खत्म हो गई है, लाने जा रही हूं, कहीं दुकान बंद न हो जाए."
अम्मी ने कहा, "अच्छा, जा, पर जल्दी लौट आना, रात होने वाली है."
लेकिन यह क्या. जहां सिर्फ दुकान जाने में ही आधा घंटा लगता है, वहां से ऊन खरीद कर आधा घंटा से पहले ही अदीबा वापस आ गई... यह कैसे?
मां ने बेटी के चेहरे को गौर से देखा. बेटी का चेहरा धुआंधुआं सा था और उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं.
"क्या हुआ अदीबा, ऊन नहीं लाई?"
अदीबा ने रोते हुए अपनी अम्मी को जो आपबीती सुनाई तो अम्मी के होश उड़ गए.
अदीबा की आपबीती सुन कर अम्मी गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उस नामुराद आदमी को तरहतरह की गालियां देने लगीं.
कुछ देर बाद जब अम्मी का गुस्सा ठंडा हुआ, तो उन्होंने कहना शुरू किया, "अब तुझे क्या बताऊं बेटी, यह मर्द जात होती ही ऐसी है. उन की नजरों में औरत का जिस्म बस मर्द की प्यास बुझाने का जरीया होता है.
"मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. वह भी एक दफा नहीं, बल्कि कईकई दफा,"
इतना कह कर अम्मी अपने पुराने दिनों के काले पन्ने पलटने लगीं...
अम्मी ने अदीबा को बताया, "जब मैं 5वीं जमात में थी, तब एक दिन मदरसे के मौलवी साहब ने मुझे अपने पास बुलाया और अपनी गोद में बिठा कर वे मेरे सीने पर हाथ फेरने लगे. वे अपना हाथ चलाते रहे और मुझे बहलाते रहे.