रिश्ता (अंतिम भाग): कैसे बिखर गई श्रावणी

पूर्व कथा

आकाश के बीमार होने की खबर अन्नू श्रावणी को देती है. वह नहीं चाहती कि उस के मायके में किसी को इस बात का पता चले. इसलिए वह कालिज के काम से लखनऊ जाने की बात अपने पापा से कहती है. ट्रेन में बैठते ही वह अतीत की यादों में खो जाती है.

कालिज के वार्षिक समारोह में अन्नू श्रावणी का परिचय अपने भैया आकाश से करवाती है. पहली ही मुलाकात में आकाश और श्रावणी एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगते हैं. दोनों शादी करने का फैसला करते हैं तो श्रावणी के पिता शादी में जल्दबाजी न करने की सलाह देते हैं पर वह नहीं मानती.

शादी की पहली रात को वह आकाश का बदला रूप देख कर चौंक जाती है. एक दिन पिक्चर हाल में आकाश छोटी सी बात पर हंगामा खड़ा कर देता है और घर आ कर सब के सामने उसे अपमानित करता है और अंतरंग क्षणों में उस से माफी मांगने लगता है. श्रावणी आकाश के इस दोहरे व्यवहार को समझ नहीं पाती. शादी के बाद वह आकाश के साथ पहली बार मायके जाती है तो घर के बाहर एक कार चालक से वह लड़ने लगता है.

समय बीतने लगता है. अन्नू की शादी तय हो जाती है और श्रावणी भी गर्भवती हो जाती है. आकाश उस पर गर्भपात कराने का दबाव बनाने लगता है. उस के इस व्यवहार से घर के सभी लोग दुखी हो जाते हैं. श्रावणी एक बेटे को जन्म देती है. उधर अन्नू की शादी की तारीख करीब आने लगती है लेकिन आकाश का तटस्थ व्यवहार देख सब परेशान होते हैं और शादी की सारी जिम्मेदारी श्रावणी को निभानी पड़ती है,

और अब आगे…

अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’

अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :

‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’

मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’

‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’

मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’

मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :

‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?

‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’

सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’

उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर  बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.

अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.

अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’

घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.

कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

‘मैं शुरू से ही जानता था. तुम्हें ऐसे ही लोग पसंद हैं जो औरतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं और खासकर के तुम्हारी जीहुजूरी करते हैं,’ फिर मां और पापा को संबोधित कर के बोले, ‘प्रमोद जैसा लड़का ढूंढ़ दीजिए अपनी बेटी को,’ और धड़धड़ाते हुए वह कमरे से बाहर निकल गए.

आकाश का ऐसा व्यवहार मैं कई बार देख चुकी थी. बरदाश्त भी कर चुकी थी. कई बार दिल में अलग होने का खयाल भी आया था लेकिन कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिस कर वह चूरचूर हो गया. आकाश के झूठ, दंभ और पशुता को मैं इसीलिए अपनी पीठ पर लादे रही कि समाज में मेरी इमेज, एक सुखी पत्नी की बनी रहे. लेकिन आकाश ने इन बातों को कभी नहीं समझा. वहां आए रिश्तेदारों के सामने, मां की मृत्यु के मौके पर वह मुझे इस तरह जलील करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे.

तेरहवीं के दिन, शाम के समय मां और पापा ने मुझे साथ चलने के लिए कहा तो, सभ्य रहने की दीवार जो मैं ने आज तक खींच रखी थी, धीरे से ढह गई. पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता था? चुपचाप चली आई थी मां के साथ.

इसे औरत की मजबूरी कहें या मोह- जाल में फंसने की आदत. बरसों तक त्रासदी और अवहेलना के दौर से गुजरने के बाद भी, उसी चिरपरिचित चेहरे को देखने का खयाल बारबार आता था. क्रोध से पागल हुआ आकाश, नफरत भरी दृष्टि से मुझे देखता आकाश, अम्मां को खरीखोटी सुनाता आकाश, अन्नू को दुत्कारता, प्रमोदजी का अनादर करता आकाश.

मां और पापा, सुबहशाम की सैर को निकल जाते तो मुझे तिनकेतिनके जोड़ कर बनाया अपना घरौंदा याद आता, एकांत और अकेलापन जब असहनीय हो उठता तो दौड़ कर अन्नू को फोन मिला देती. अन्नू एक ही उत्तर देती कि सागर में से मोती ढूंढ़ने की कोशिश मत करो श्रावणी. आकाश भैया अपनी एक सहकर्मी मालती के साथ रह कर, मुक्ति- पर्व मना रहे हैं. हर रात शराब  के गिलास खनकते हैं और वह दिल खोल कर तुम्हें बदनाम करते हैं.

बिट्टू के जन्म के समय भी आकाश की प्रतीक्षा करती रही थी. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर मेरी आंखों में चमक लौट आती. लेकिन आकाश नहीं आए. अन्नू प्रमोदजी के साथ आई थी. मेरी पसीने से भीगी हथेली को अपनी मजबूत हथेली के शिकंजे से, धीरेधीरे खिसकते देख बोली, ‘मृगतृष्णा में जी रही हो तुम श्रावणी. आकाश भैया नहीं आएंगे. न ही किसी प्रकार का संपर्क ही स्थापित करेंगे तुम से. जब तक तुम थीं तब तक कालिज तो जाते थे. परिवार के दायित्व चाहे न निभाए, अपनी देखभाल तो करते ही थे. आजकल तो नशे की लत लग गई है उन्हें.’

अन्नू चली गई. मां मेरी देखभाल करती रहीं. लोग मुबारक देते, साथ ही आकाश के बारे में प्रश्न करते तो मैं बुझ जाती. मां के कंधे पर सिर रख कर रोती, ‘बिट्टू के सिर से उस के पिता का साया छीन कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है, मां.’

‘जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके, वह समाज में रह कर भी समाज का अंग नहीं बन सकता, न ही किसी दृष्टि में सम्मानित बन सकता है,’ पापा की चिढ़, उन के शब्दों में मुखर हो उठती थी.

मां, पुराने विचारों की थीं, मुझे समझातीं, ‘बेटी, यह बात तो नहीं कि तू ने प्रयास नहीं किए, लेकिन जब इतने प्रयासों के बाद भी तुझे तेरे पति से मंजूरी नहीं मिली तो क्या करती? साए की ओट में दम घुटने लगे तो ऐसे साए को छोड़ खुली हवा में सांस लेने में ही समझदारी है.’

‘लेकिन जगहजगह उसे पिता के नाम की जरूरत पड़ेगी तब?’

‘अब वह जमाना नहीं रहा, जब जन्म देने वाली मां का नाम सिर्फ अस्पताल के रजिस्टर तक सीमित रहता था और स्कूल, नौकरी, विवाह के समय बच्चे की पहचान पिता के नाम से होती थी. आज कानूनन इन सभी जगहों पर मां का नाम ही पर्याप्त है.’

मां की मृत्यु पर भी आकाश नहीं दिखाई दिए थे. अन्नू और प्रमोदजी ही आए थे. मैं समझ गई, जिस व्यक्ति ने मुझ से संबंध विच्छेद कर लिया वह मेरी मां की मृत्यु पर क्यों आने लगा. जाते समय अन्नू ने धीरे से बतला दिया था, ‘आजकल आकाश भैया सुबह से ही बोतल खोल कर बैठ जाते हैं. मैं ने सौ बार समझाया और उन्होंने न पीने का वादा भी किया, लेकिन फिर शुरू हो जाते हैं,’ फिर एक सर्द आह  भर कर बोली, ‘लिवर खराब हो गया है पूरी तरह. प्रमोदजी काफी ध्यान रखते हैं उन का लेकिन कुछ परहेज तो भैया को भी रखना चाहिए.’

सोच के अपने बयावान में भटकती कब मैं झांसी पहुंची पता ही नहीं चला. तंद्रा तो मेरी तब टूटी जब किसी ने मुझे स्टेशन आने की सूचना दी. लोगों के साथ टे्रन से उतर कर मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंच गई. अन्नू पहले से ही मौजूद थी. प्रमोद डाक्टरों के साथ बातचीत में उलझे थे. मैं ने आकाश के पलंग के पास पड़े स्टूल पर ही रात काट दी. सच कहूं तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. मेरा मन सारी रात न जाने कहांकहां भटकता रहा.

सुबह अन्नू ने चाय पी कर मुझे जबर्दस्ती घर के लिए ठेल दिया. आकाश तब भी दवाओं के नशे में सोए हुए थे.

घर आ कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. पराएपन की गंध हर ओर से आ रही थी. नहाधो कर आराम करने का मन बना ही रही थी, पर अकेलापन मुझे काटने को दौड़ रहा था. घर से निकल कर अस्पताल पहुंची तो आकाश, नींद से जाग चुके थे. अन्नू के साथ बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देख कर भी कुछ नहीं बोले. मैं ने धीरे से पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन का जवाब ठंडे लोहे की तरह लगा. किसी के बारे में कुछ पूछताछ नहीं की. यहां तक कि बिट्टू के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. अन्नू ही कमरे में मौन तोड़ती रही. हम दोनों के बीच पुल बनाने का प्रयास करती रही. डाक्टरों की आवाजाही जारी थी. सारे दिन लोग, आकाश से मिलने आते रहे. मुझे देख कर हर आने वाला कहता, ‘अच्छा हुआ आप आ गईं,’ पर 3 दिन में, एक बार भी मेरे पति ने यह नहीं कहा, ‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा था मैं.’

आकाश की हालत काबू में नहीं आ रही थी. प्रमोदजी ने मुझ से धीरे से कहा, ‘‘भाभीजी, आकाश भैया की हालत अच्छी नहीं लग रही है. आप जिसे चाहें खबर कर दें.’’

मैं जब तक कुछ कहती या करती, आकाश ने दम तोड़ दिया. अन्नू फूटफूट कर रो रही थी. प्रमोदजी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे. मेरे तो जैसे आंसू ही सूख गए थे. इस पर क्या आंसू बहाऊं? जिस आदमी ने मुझे कभी अपना नहीं समझा…मेरे बेटे को अपना समझना तो दूर उस का चेहरा तक नहीं देखा, मैं कैसे उस आदमी के लिए रोऊं? यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

जाने कितने लोग, शोक प्रकट करने आ रहे थे. हर आदमी, इतनी कम उम्र में इन के चले जाने से दुखी था, पर मैं जैसे जड़ हो गई थी. इतने लोगों को रोते देख कर भी मैं पत्थर की हो गई थी. मेरे आंसू न जाने क्यों मौन हो गए थे? सब कह रहे थे, मुझे गहरा शौक लगा है. इन दिनों आकाश की सारी बुराइयां खत्म हो गई थीं. हर व्यक्ति को उन की अच्छाइयां याद आ रही थीं. मैं खामोश थी.

पापा का फोन मेरे मोबाइल पर कई बार आ चुका था. मैं उन्हें 1-2 दिन का काम और है बता कर फोन काट देती थी.

तेरहवीं के बाद सब ने अपनाअपना सामान बांध लिया. मेरी उत्सुक निगाहें मालती को ढूंढ़ रही थीं. अन्नू से ही पूछताछ की तो बोली, ‘‘आकाश भैया का सारा पैसा अपने नाम करवा कर वह तो कभी की चली गई झांसी छोड़ कर. कहां है, कैसी है हम नहीं जानते. भला ऐसी औरतें रिश्ता निभाती हैं?’’

झांसी से टे्रन के चलते ही मैं ने राहत की सांस ली. ऐसा लगा, जैसे मैं किसी कैद से बाहर आ गई हूं. झांसी की सीमा पार करते ही मुझे पहली बार एहसास हुआ कि झांसी से मेरा रिश्ता सचमुच टूट गया है. अब मैं यहां क्यों आऊंगी? रिश्तों के दरकने का मुझे पहली बार एहसास हुआ. मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

घर का भूला- भाग 3: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग

पूर्व कथा

पत्नी की दुर्घटना में मृत्यु से महेंद्र की जिंदगी उजड़ गई. अब गृहस्थी का भार उस के कंधों पर था. बेटी आभा बी.ए. और बेटा अमित एम.ए. फाइनल में पढ़ रहे थे. आभा ठीक से घर को संभालने की स्थिति में नहीं थी इसीलिए खाना बनाने के लिए सुघड़ महिला मालती को काम पर रख लिया. आभा महसूस कर रही थी कि मालती और पिता के बीच कुछ गलत चल रहा है. रोटी खिलाने के बहाने मालती पिता के आसपास ज्यादा न मंडराए इसलिए वह मालती को हिदायत देती है कि रात का खाना वह बना कर चली जाए. गरमगरम रोटियां वह पापा को खुद बना कर खिला देगी. महेंद्र को जब पता चलता है तो वह मालती का पक्ष लेते हुए आभा से कहते हैं कि वह रोटियां उसे ही बनाने दे.

अब आगे…

आभा किसी भी तरह मालती को काम से हटाना चाहती थी इसीलिए पापा के हर सवाल का जवाब पर जवाब दिए जा रही थी, ‘‘पापा, पसीने से तरबतर पता नहीं रोज नहाती भी है या नहीं, पास से निकलती है तो बदबू मारती है. अब तो मैं ने उसे मना कर ही दिया है. आप उस से कुछ न कहें, बल्कि मैं तो सोचती हूं बेकार में 1 हजार रुपए महीना क्यों जाए, मैं ही खाना बना लिया करूंगी. मुझे खाना बनाने का अभ्यास भी हो जाएगा.’’

‘‘अरे नहीं, लगी रहने दो उसे, वह बहुत अच्छा खाना बनाती है. बिलकुल तुम्हारी मम्मी जैसा.’’

‘‘बिलकुल झूठ पापा, मम्मी जैसा तो नानी भी नहीं बना पातीं. दादीमां भी कहा करती थीं कि माया जैसा खाना बिरली औरतें ही बना पाती हैं.’’

‘‘पर अब वह बनाने वाली हैं कहां?’’

‘‘पापा, अब मैं बनाऊंगी मम्मी जैसा खाना. कोशिश करूंगी तो सीख जाऊंगी, अब शाम का खाना मैं ही बनाऊंगी.’’

‘‘अरे आभा, उसे लगी रहने दे. उस ने हमारे घर के लिए कई घरों का काम छोड़ दिया है. उस के छोटेछोटे बच्चे हैं. उस का आदमी दारूबाज है, उस को मारतापीटता है. इतनी सुघड़ औरत की कदर नहीं करता.’’

‘‘पर पापा, आप ने सब का ठेका तो नहीं लिया. कल से शाम के खाने से उस की छुट्टी,’’ कह कर वह पापा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कमरे से बाहर निकल गई. पास खड़ा अमित भी सिर हिला कर मुसकरा रहा था.

इधर मालती के मुख पर उदासी का आवरण चढ़ गया. सुबह का खाना निबटा कर वह बोली, ‘‘बेबी, तो मैं जाऊं? पर साहब जाते समय कह गए थे कि शाम को नहा कर आया करूं . सुबह के कपड़ों से पसीने की बदबू आती है, इसलिए वह आप की मम्मी की ये 4 साडि़यां, ब्लाउज दे गए हैं. ये देखिए…’’

उस ने अपने झोले से कपड़े निकाल कर दिखाए तो आभा चकित रह गई. अमित भी पास खड़ा देख रहा था. गुस्से से बोला, ‘‘जब आभा ने कह दिया कि वह अब खाना बनाएगी तब तू पीछे क्योें पड़ी है. हम एक सा खातेखाते ऊब गए हैं. जब से मम्मी गई हैं तेरे हाथ का ही तो खा रहे हैं. अब शाम को नहीं आएगी तू, समझी.’’

‘‘भैयाजी, क्यों एक गरीब के पेट पर लात मार रहे हो. पगार कम मिलेगी तो 4 बच्चों का पेट मैं कैसे भरूंगी?’’

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‘‘बस मालती, तेरी गरीबी मिटाने को दुनिया में हम ही तो नहीं बचे हैं, और घर पकड़ ले जा कर,’’ वे दोनों एकसाथ चिल्लाए तो वह आंसू पोंछती बाहर निकल गई. तब दोनों में बहुत देर तक पापा की हरकतों पर चर्चा होती रही.

धीरेधीरे शाम को मालती को न देख कर पापा उदास रहने लगे. आभा शाम को उन की पसंद का ही खाना बनाती. 1-1 चपाती सेंक कर कमरे में दौड़दौड़ कर पहुंचाती परंतु वह चुपचाप ही रहते, कुछ न बोलते. मालती सुबह सब को बना कर खिलाती फिर स्वयं खा कर चुपचाप चली जाती. नित्य के इस नियम से दोनों खुश थे कि इस औरत के चंगुल से उन्होंने पापा को बचा लिया.

जब से मालती का शाम का आना बंद हुआ था पापा 7-8 बजे तक आफिस से घर लौटते. जब वे दोनों पूछते तो कह देते कि आफिस में काम बहुत था या किसी दोस्त का नाम लेते कि वहां चला गया था.

परंतु उस दिन जब अमित ने वह दृश्य देखा तो घबरा कर दौड़ा आया, ‘‘आभा, आज जो देखा उसे सुनोगी तो सिर थाम लोगी. आज पापा के साथ मालती कार में उन की बगल में बैठी थी. मम्मी के जेवर, कपड़े पहने हुए थी. पापा उसे होटल ले गए. वहां उन्होंने कमरा बुक करवाया.’’

‘‘अरे, यह क्या हो रहा है. पापा इतने गिर जाएंगे, कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था, अब हम क्या करें?’’ वह सिर पकड़ कर कुर्सी पर बैठ गई और फूटफूट कर रोने लगी.

‘‘घबरा मत, आभा, रोने से क्या होगा? कोई उपाय सोचो जिस से इस औरत से पापा को बचा सकें.’’

‘‘भैया, असली जेवर तो सब बैंक में हैं, यहां तो आर्टीफिशयल ही हैं. क्या वही दे दिए पापा ने. मैं अलमारी का लाकर देखती हूं,’’ वह आंसू पोंछती हुई दौड़ी, लाकर खोल कर देखा तो स्तब्ध रह गई. डब्बे खाली पडे़ थे, जेवर गायब थे.

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‘‘अच्छा किया, जो जेवर बैंक में रख आए, वरना सब चले जाते,’’ दोनों ने चैन की सांस ली.

‘‘भैया, पापा के दोनों खास दोस्तों से बात करें. संभव है, पापा उन की बात मान लें? नहीं तो मामामामी, नानी, बूआफूफाजी को फोन कर के सब हाल बता दें. बूआजी पापा से बड़ी हैं. पापा उन का लिहाज भी बहुत करते हैं.’’

पहला प्यार : कौन बना महीप का अगला शिकारी

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