नारमल डिलीवरी बस ढूंढ़ते रह जाओगे

‘‘बधाई हो भाई, मिठाई हो जाए,’’ मैं ने कहा तो जैसे हमारे शब्दों को बाजू में सरका कर कहने लगे, ‘‘किसी अच्छे अस्पताल में दिखाना है. गांव में तो सुविधाएं थीं नहीं. हां, पखवाड़े में एक बार हाजिरी भरने के लिए आने वाली डाक्टर साहिबा ने अभी तक सबकुछ नार्मल ही बताया था पर यहां तसल्ली करना जरूरी है क्योंकि श्रीमतीजी को सीजेरियन से बहुत डर लगता है.’’

हम ने भी अपने सामान्य ज्ञान पर इठलाते हुए नजदीकी एक अस्पताल का जिक्र किया एवं शाम को साथ चलने का वादा भी कर दिया.

शाम को कतार में खड़ेखड़े डाक्टर साहिबा पर नजर पड़ते ही हम अंदर तक कांप गए. यह तो वही हैं जिन्हें 10 साल पहले अपनी बहन को इन्हीं परिस्थितियों में दिखाने हम सरकारी अस्पताल में गए थे. उस समय यह डाक्टरनी बड़ी जोर से चिल्ला पड़ी थी, ‘अभी तक जहां दिखाया है वहीं दिखाओ, अब यहां क्या करने आए हो. मेरे पास समय नहीं है.’

डाक्टर साहिबा के इस धाराप्रवाह श्री वचनों के बीच हम बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाए थे कि यह हमारी बहन है और कल ही ससुराल से आई है.

अपनी बारी आने तक हम आगे की रणनीति बनाते रहे कि हमें क्या कहना है, पर यह क्या, बर्फ की तरह ठंडी डाक्टर साहिबा ने पूरा चेकअप कर के मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बाहर से ट्रांसफर हो कर आए हैं क्या? सब नार्मल है. चिंता की कोई बात नहीं है. हर 15 दिन पर नियमित चेकअप के लिए आते रहना.

डाक्टर साहिबा में आए इस क्रांतिकारी बदलाव को देख कर तो मानो हमारी सोचनेसमझने की क्षमता ही खत्म हो गई. आदमी इतना भी बदल सकता है? खैर, सब नार्मल है, सुन कर हम भी मित्र की खुशी में शामिल हो गए. लगेहाथ मित्र को अपने पूर्व अनुभव के आधार पर तसल्ली भी दे डाली कि इन डाक्टर साहिबा के 99 प्रतिशत केस नार्मल डिलीवरी के ही होते हैं.

निर्धारित समय के 2 दिन पहले डाक्टर साहिबा ने देख कर गंभीर आवाज में कह दिया कि भरती हो जाओ, आपरेशन करना पड़ेगा.

मित्र की आवाज, मुखमुद्रा और प्रश्नसूचक आंखों से निगाह चुराते हुए हम नर्स की शरण में पहुंचे तो वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनी की वरिष्ठ बिक्री अधिकारी की तरह समझाने लगी, ‘‘देखिए, यह एक प्रेस्टिजियस अस्पताल है, यहां हम अपने मरीज की बेस्ट पौसिबल केयर करते हैं. हम किसी प्रकार का रिस्क नहीं लेते हैं. हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हर डिलीवरी 100 प्रतिशत परफेक्ट हो और हर कस्टमर को पूरा सेटिस्फेक्शन मिले.

‘‘मैं खुद पिछले 3 सालों से यहां काम कर रही हूं पर औसतन 90-95 प्रतिशत डिलीवरी आपरेशन से होते देख रही हूं. इनफेक्ट, आजकल हमारी लाइफ स्टाइल, खानपान, रहनसहन, यहां तक कि ब्रीड ही ऐसी हो चुकी है कि नार्मल डिलीवरी में जान जाने का खतरा हमेशा बना रहता है.’’

‘‘यह बिलकुल सही कह रही हैं जनाब,’’ की आवाज के साथ एक भारी-भरकम हाथ हमारे कंधे पर आ पड़ा. मुड़ कर देखा तो वैज्ञानिक सोच वाले आधुनिक बुद्धिजीवी महाशय सामने खड़े मुसकरा रहे थे.

एक सेल्समैन की तरह पूरे आत्म-विश्वास के साथ वे पुन: बोले, ‘‘डरने की कोई बात नहीं है. इस अस्पताल में आधु-निक तकनीक का प्रयोग होता है तथा विश्व स्तर के सभी आधुनिक उपकरण यहां मौजूद हैं. रही बात खर्च की तो डाक्टर साहिबा बिल ही इस तरह से बनवा देंगी कि पूरा का पूरा आप के विभाग से आप को वापस मिल जाएगा. यह लोग इस मामले में एकदम ईमानदार हैं.’’

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‘‘लेकिन साहब, डिलीवरी नार्मल हो जाए तो इस का कोई मुकाबला ही नहीं होता है. अभी तक सबकुछ ठीक ही था. डाक्टर साहिबा कोशिश करें तो डिलीवरी नार्मल भी हो सकती है. हमारे परिवार वालों के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं,’’ हमारे मित्र कुछ घिघियाते से बोले थे.

बुद्धिजीवी बोले, ‘‘अमां यार, इस साइबर एज में भी आप बैलगाड़ी युग की बातें कर रहे हैं. मौडर्न टाइम है भाई. अभी पिछले सप्ताह ही मैं विदेश टूर कर के आया हूं. वहां तो नार्मल डिलीवरी का कंसेप्ट ही खत्म हो गया है. हजारों में शायद ही एकदो नार्मल डिलीवरी होती हैं. आदमी मंगल पर पहुंच रहा है और आप हैं कि अभी तक जमीन के अंदर धंसे हुए हैं.’’

मित्र फिर घिघियाए, ‘‘भाई साहब, हमारे पूरे खानदान में ही नहीं बल्कि श्रीमती के परिवार में भी आज तक सभी डिलीवरियां नार्मल ही हुई हैं. किसी में आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ी.’’

मित्र का मुंह लगभग दबाते हुए बुद्धिजीवी बोले, ‘‘यार, धीरे बोलो, अगर डाक्टर साहिबा ने सुन लिया कि आप ऐसे खानदान से आए हो तो आप का केस लेने से ही मना कर देंगी. अपने खानदान को कुछ तो प्रगतिशील बनाओ. जमाने के साथ चलना सीखो भाई. जिस कालोनी में आप रह रहे हैं वहां सभी ने इसी अस्पताल में डिलीवरी करवाई है, शायद ही कोई नार्मल डिलीवरी हुई हो. कम से कम अपने और अस्पताल के स्टेटस का तो खयाल करो,’’ वह एक पल को किसी मजे हुए नेता की तरह रुके फिर बोलना

शुरू किया, ‘‘यह कोई सरकारी खैराती अस्पताल तो है नहीं, एक हाइटेक अस्पताल है. अब तो इस क्षेत्र में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कूदने वाली हैं जिन के अस्पताल को देख कर आप की आंखें चुंधिया जाएंगी. फिर तो सीजेरियन डिलीवरी पूरी तरह से स्टेटस सिंबल बन जाएगी.

‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां’, ‘स्टेटस’ जैसे शब्द कान में पड़ने के साथ ही हम अपनी सोचनेविचारने की ‘मुंगेरी’ आदत के चलते विचारों के महासागर में गोते लगाने लगे. अगर वास्तव में बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस क्षेत्र में आ पहुंचीं तो विज्ञापनों की बाढ़ के दबाव से सीजेरियन करवाना हर आदमी की मजबूरी हो जाएगी और नार्मल डिलीवरी तो बस जिद्दी दाग की तरह ढूंढ़ते रह जाएंगे. टेलीविजन पर विज्ञापन आएगा, ‘जो बीवी से करे प्यार वह सीजेरियन से कैसे करे इंकार’ या फिर सरकार ही समाचारों से पहले दिखलाने लगे कि विमला का बेटा टेढ़ामेढ़ा इसलिए पैदा हुआ कि उस ने नार्मल डिलीवरी करवाई थी, अगर स्वस्थ सुंदर बच्चा चाहिए तो भाई साहब सीजेरियन ही करवानी चाहिए.

कंपनियां भी ऐसा टीका विकसित कर लेंगी कि नार्मल डिलीवरी हो ही नहीं पाए. देश भर के तथाकथित क्लब और संस्थाएं पोलियो खुराक की तरह पैदा होते ही हर संतान को यह टीका लगा देगी. एक बार जनमानस पर सीजेरियन स्टेटस के रूप में स्थापित हुआ नहीं कि सामाजिक संबंधों में भूचाल सा आ जाएगा.

शादीसंबंधों में सब से पहले पूछा जाएगा कि लड़का नार्मल है या सीजेरियन. बायोडाटा के कालम में एक लाइन यह भी होगी कि क्या संतान सीजेरियन है? उच्च कुल के लोग पूरे परिवार को गर्व के साथ सीजेरियन बताएंगे. अगर कोई संतान गलती से नार्मल हुई तो मांबाप खिसियाते हुए कहेंगे बाकी भाई और बहन तो सीजेरियन ही हैं, बस, यही गलती से…

गांव से शहर लाते समय यदि रास्ते में नार्मली कुछ हो गया तो इस दुर्घटना को मातापिता छिपाएंगे या अपने बच्चे के भविष्य को देखते हुए दूर पलायन कर जाएंगे. ऐसे बच्चे बड़े होने पर ताना मारेंगे, ‘‘हमारे लिए आप ने किया ही क्या है? नार्मल डिलीवरी से दुनिया में हमें ले आए. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

नार्मल डिलीवरी आर्थिक दिवालि-एपन या मानसिक पिछड़ेपन का प्रतीक बन कर रह जाएगी.

प्रतिक्रियास्वरूप कुछ नेता और सामाजिक संगठन इन की रक्षा के लिए आगे आएंगे. जातियों के महासागर में एक और तलैया शामिल करवाएंगे. नया वर्ग संघर्ष पैदा होगा. समाज इन्हें हेय समझेगा और नेता इन्हें अल्पसंख्यक घोषित करवा कर विकलांगों की तरह इन के लिए आरक्षण कोटा निर्धारित कराएंगे. धारा ‘3’ का सदुपयोग करने का अधिकार भी इन्हें दिलवाया जाएगा. एक वर्ग सरकारी अस्पतालों में नार्मल डिलीवरी करवाने वाले डाक्टरों के खिलाफ प्रदर्शन कर जांच आयोग बैठाने की मांग करेगा तो दूसरी ओर शबाना आजमी टेलीविजन पर आ कर कहेंगी, ‘‘नार्मल को एबनार्मल न समझें, इन्हें प्यार दें.’’

आगे बढ़ते विचारों के अश्व को अचानक डाक्टर साहिबा के सप्तम स्वर ने झटके से रोक दिया. मित्र को सुनाते हुए सफाई कर्मचारी को कह रही थीं, ‘‘सरकारी अस्पताल समझ रखा है क्या? मुझे एकदम साफ चाहिए… क्रिस्टल क्लियर, नो कंप्रोमाइज.’’

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फिर बुद्धिजीवी महाशय से मैराथन तर्कवितर्क में उलझे मित्र की ओर ब्रह्मास्त्र चला दिया, ‘‘मुझे दिक्कत नहीं है पर कल को कुछ हो गया तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी,’’ इतना कह कर तेजी से डाक्टर साहिबा अंदर चली गईं. पीछेपीछे बुद्धिजीवी भी रुख्सत हो गए.

बस, मित्र और हम ने अभिमन्यु वाली हार मान ली. मैं ने भी सांत्वना दी. यार करवा भी लो वरना कुछ ऐसावैसा हो गया तो नातेरिश्तेदार और यही संतान बड़ी हो कर 100-100 ताने मारेगी.

बिल की च्ंिता में मित्र के पेट में मरोड़े उठने लगे. नर्स से पूछने पर पता चला 15-20 हजार रुपए का खर्च आएगा. अपनी किसी संस्था के लिए डाक्टर साहिबा से डोनेशन का चेक ले कर वापस आ रहे बुद्धिजीवी महाशय ने फिर समझाया कि अभी तो बड़े सस्ते में निबट रहे हो, बाद में बहुराष्ट्रीय अस्पतालों में तो यही काम लाखों में होंगे.

हम फिर सोचने लगे कि अगर महाभारत काल में ही यह व्यवस्था लागू हो जाती तो बेचारे धृतराष्ट्र तो बिल चुकातेचुकाते ही राजपाट लुटवा बैठते.

खैर, मित्र महोदय ने जैसेतैसे इस प्रकरण को निबटाया फिर तुरंत कसम खाई कि अब दूसरी संतान के बारे में कभी सोचूंगा भी नहीं.

 संजीव झा

असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं

यह अलग ही तरह का शख्स था. पता नहीं कहां कौन सी साधारण बात इसे खास लगने लगे, किस बात से मोहित हो जाए, कुछ कह नहीं सकते थे. जिन बातों से एक आम आदमी को ऊब होती थी, इस आदमी को उस में मजा आता था. एक अजीब सा आनंद आता था उसे. इस की अभिरुचि बिलकुल अलग ही तरह की थी. वैसे यह मेरा दोस्त है, फिर भी मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि आखिर यह आदमी किस मिट्टी का बना है. मिट्टी सी चीज में अकसर यह सोना देखता है और अकसर सोने पर इस की नजर ही नहीं जाती.

मैं इस के साथ मुंबई घूमने गया था. हम टैक्सी में दक्षिण मुंबई के इलाके में घूम रहे थे. हमारी टैक्सी बारबार सड़क पर लगे जाम के कारण रुक रही थी. जब टैक्सी ऐसे ही एक बार रुकी तो इस का ध्यान सड़क के किनारे बनी एक 25 मंजिली बिल्ंिडग की 15वीं मंजिल पर चला गया, जहां एक कमरा खुला दिख रहा था. मानसून का समय था. आसमान में बादल छाए थे. कमरे की लाइट जल रही थी, पंखा घूमता दिख रहा था. वह बोल उठा, ‘यार, इस को कहते हैं ऐश. देखो, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वो महाशय आराम फरमा रहे हैं, वह भी पंखे की हवा में.’

मैं ने सोचा इस में क्या ऐश की बात है? मैं ने कहा, ‘यार, वह आदमी जो उस कमरे में दिख रहा है, वह क्या कुछ काम नहीं करता होगा? आज कोई कारण होगा कि घर पर है.’

 

अब वह बोला, ‘यार, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वह ऐश कर रहा है. यह तो एक बिल्डिंग के एक माले के एक फ्लैट की बात है, यहां तो हर फ्लैट में लोग मजे कर रहे हैं.’

मैं ने झल्ला कर कहा, ‘हां, हर फ्लैट नहीं, हर फ्लैट के हर कमरे में कहो और अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हुए हैं.’

यह तो एक घटना मुंबई की रही. एक दिन शाम को घूमते हुए शहर के रेलवे स्टेशन पर मिल गया. मैं शाने भोपाल ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. यह तफरीह करने आया था. चूंकि ट्रेन के लिए समय था, सो हम एक बैंच पर बैठ गए. स्टेशन पर आजा रही ट्रेनों को यह टकटकी लगा कर देखता. बोगी में बैठे लोगों को देखता. यदि किसी एसी बोेगी में कोई यात्री दिख जाता आपस में बतियाते या खाना खाते, लेटे पत्रिका पढ़ते तो यह कहता, ‘यार, देखो इन के क्या ऐश हैं. मस्त एसी में यात्रा कर रहे हैं, खापी रहे हैं, गपशप कर रहे हैं और अपन यहां कुरसी पर बैठे हैं?’

मैं ने कहा, ‘यार, इस में क्या खास बात हो गई? अपन लोग भी जाते हैं तो इसी तरह मौज करते हैं यदि तुम्हारे पैमाने से बात तोली जाए.’ मैं ने आगे कहा, ‘वैसे मैं तो रेलयात्रा को एक बोरिंग चीज मानता हूं.’ अब मेरा मित्र बोल पड़ा, ‘अरे यार, तुम नहीं समझोगे क्या आनंद है यात्रा का. मस्ती में पड़े रहो, सोते ही रहो और यदि घर से परांठेसब्जी लाए हो तो उस का भी मजा अलग ही है. काश, अपन भी ऐसे ही इस समय ट्रेन की ऐसी ही किसी बोगी में बैठे होते तो मजा आ जाता.’

मैं ने कहा, ‘तो चल मेरे साथ? असल जिंदगी जीना, मैं तो खैर बोर होऊंगा तो होते रहूंगा.’ लेकिन इस बात पर यह मौन हो गया.

इसे कौन से साधारण दृश्य अपील कर जाएं, कहना मुश्किल था. एक बार मैं और यह कार से शहर से 80 किलोमीटर दूर स्थित एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पौट को जा रहे थे. एक जगह ट्रैफिक कुछ धीमा हो गया था. इस की नजर सड़क के किनारे खड़े ट्रकों व उस के साइड में बैठे ड्राइवरक्लीनरों पर चली गई.

वे अपनी गाडिं़यां खड़ी कर खाना पका रहे थे. ईंटों के बने अस्थायी चूल्हे पर खाना पक रहा था. एक व्यक्ति रोटियां सेंक रहा था, एक सब्जी बना रहा था. बाकी बैठे गपशप कर रहे थे. बस, इतना दृश्य इस के लिए असली जिंदगी वाला इस का जुमला फेंकने और उसे लंबा सेंकने के लिए काफी था.

यह बोल उठा, ‘देखो यार, जिंदगी इस को कहते हैं मस्त, कहीं भी रुक गए, पकायाखाया, फिर सो गए और जब नींद खुली तो फिर चल दिए और अपन, बस चले जा रहे हैं. अभी किसी होटल में ऊटपटांग खाएंगे. ये अपने हाथ का ही बना खाते हैं, इस में  किसी मिलावट व अशुद्धता की गुंजाइश ही नहीं है. ऐसी गरम रोटियां होटल में कहीं मिलती हैं क्या?

मैं ने चिढ़ कर कहा, ‘ऐसा करते हैं अगली बार तुम भी रसोई का सामान ले कर चलना. अपन भी ऐसे ही सड़क के किनारे रुक कर असली जिंदगी का मजा लेंगे. और तुरंत ही मजा लेना है तो चल आगे, किसी शहरकसबे के बाजार से अपना तवा, बेलन और किराने का जरूरी सामान खरीद लेते हैं, इस पर वह मौन हो गया.

मैं एक बार इस के साथ हवाईजहाज से बेंगलुरु से देहरादून गया. फ्लाइट के 2 स्टौप बीच में थे. एयर होस्टैस और दूसरे हौस्पिटैलिटी स्टाफ के काम को यह देखतासुनता रहा. बाद में बोला, ‘यार, असली मजे तो इन्हीं के हैं? 2 घंटे में इधर, तो 2 घंटे में उधर. सुबह उठ कर ड्यूटी पर आए तो दिल्ली में थे, नाश्ता किया था मुंबई में. लंच लिया बेंगलुरु में और डिनर लेने फिर दिल्ली आ गए. करना क्या है, बस, मुसकराहटों को फेंकते चलना है. एक बार हर उड़ान में सैफ्टी निर्देशों का प्रदर्शन करना है, बस, फिर जा कर बैठ जाना है. प्लेन के लैंड करते समय फिर आ जाना है और यात्रियों के जाते समय बायबाय, बायबाय करना है. इसे कहते हैं जिंदगी.’

मैं ने कहा, ‘यार, तुझे हर दूसरे आदमी की जिंदगी अच्छी लगती है, अपनी नहीं.’ मैं ने आगे कहा कि इन की जिंदगी में रिस्क कितना है? अपन तो कभीकभी प्लेन में बैठते हैं तो हर बार सब से पहला खयाल सहीसलामती से गंतव्य पहुंच जाने का ही आता है. अब इस बात पर यह बंदा मौन हो गया, कुछ नहीं बोला. बस, इतना ही दोहरा दिया कि असली ऐश तो ये करते हैं.

एक और दिन की बात है. यह अपने खेल अनुभव के बारे में बता कर  दूसरों की जिंदगी में फिर से तमगे पर तमगे लगा रहा था. वनडे क्रिकेट मैच देख आया था नागपुर में, बोला, ‘यार, जिंदगी हो तो खिलाड़ी जैसी. कोई काम नहीं, बस, खेलो, खेलो और जम कर शोहरत व दौलत दोनों हाथों से बटोर लो. जनता भी क्या पगलाती है खिलाडि़यों को देख कर, इतनी भीड़, इतनी भीड़, कि बस, मत पूछो.’

मैं ने कहा, ‘बस कर यार, अभी पिछले सप्ताह प्रसिद्ध गायक सोनू निगम का कार्यक्रम हुआ था, उस में भी तेरा यह कहना था कि अरे बाप रे, क्या भीड़ है. लोग पागलों की तरह दाद दे रहे हैं, झूम रहे हैं. जिंदगी तो ऐसे कलाकारों की होती है’ मैं ने आगे कहा, ‘इस स्तर पर वे क्या ऐसे ही पहुंच गए हैं. न जाने कितने पापड़ बेले हैं, कितना संघर्ष किया है. असली कलाकार तो मैं तुझे मानता हूं जो असली जिंदगी को कहांकहां से निकाल ढूंढ़ता है.’

वह बोला, ‘यार, यह सब ठीक है. पापड़आपड़ तो सब बेलते हैं, लेकिन समय भी कुछ होता है. ये समय के धनी लोग हैं और अपन समय के कंगाल? घिसट कर जी रहे हैं.’ मैं ने कहा, ‘मैं तो तुम्हारी असली जिंदगी जीने की अगली उपमा किस के बारे में होगी, उस का इंतजार कर रहा हूं. तुम्हारा यह चेन स्मोकर की तरह का नशा हो गया है कि हर दूसरे दिन किसी दूसरे की जिंदगी में तुम्हें नूर दिखता है और अपनी जिंदगी कू्रर.’

वह कुछ नहीं बोला. अब उस के मौन हो जाने की बारी थी. उस का मौन देख कर मैं ने भी अब मौन रहना उचित समझा, वरना मैं ने कुछ कहा तो पता नहीं यह फिर किस से तुलना कर के अपने को और मुझे भी नीचा फील करवा दे.

मेरे इस दोस्त का नाम तकी रजा है. महीनेभर बाद पिछले शनिवार को मैं इस से मिलने घर गया था. मैं आजकल इस के ‘असली जिंदगी इन की है’ जुमले से थोड़ा डरने लगा हूं. मुझे लग रहा था कि कहीं यह मेरे पहुंचते ही ‘असली जिंदगी तो इन की है’ कह कर स्वागत न कर दे. मैं इस के घर का गेट खोल कर अंदर दाखिल हुआ. यह लौन में ही बैठा हुआ था.

मेरी ओर इस की नजर गई. लेकिन तकी, जो ऊपर को टकटकी लगाए कुछ देख रहा था, ने तुरंत नजर ऊपर कर ली. मैं उस के सामने पड़ी कुरसी पर जा कर बैठ गया. उस के घुटनों को छू कर मैं ने कहा कि क्या बात है, सब ठीक तो है? वह मेरे यह बोलते ही बोला, ‘क्या ठीक है यार, ऊपर देख? कैसे एक तोता मस्त अमरूद का स्वाद ले रहा है?’

मैं ने ऊपर की तरफ देखा, वाकई एक सुरमी हरे रंग का लेकिन लाल रंग की चोंच, जोकि तोते की होती ही है, वाला तोता अमरूद कुतरकुतर कर खा रहा था और बारीकबारीक अमरूद के कुछ टुकड़े नीचे गिर रहे थे. थोड़ी देर बाद वह फुर्र से टांयटांय करते उड़ गया. फिर एक दूसरा तोता आ गया. उस के पीछे 2-3 तोते और आ गए. वे सब एकएक अमरूद पर बैठ गए.

एक अमरूद पर तो 2 तोते भी बैठ कर उसे 2 छोरों से कुतरने लगे. कौमी एकता का दृश्य था. तकी बोला, ‘यार, असली जिंदगी तो इन की है. जमीन पर आने की जरूरत ही नहीं, हवा में रहते ही नाश्ता, खाना, टौयलेट सब कर लिया.’ और हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि तकी ने जैसे ही यह बोला कि एक तोता, जो उस के सिर के ठीक ऊपर वाली डाल पर था, ने अपना वेस्ट मैटेरियल सीधे तकी के सिर पर ही गिरा दिया.

‘यह भी कोई तरीका है,’ कह कर तकी अंदर की ओर भागा. जब वह वापस आया तो मैं ने कहा, ‘हां यार, वाकई असली जिंदगी ये ही जी रहे हैं.’ तकी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा.

मैं ने इस के ‘असली जिंदगी ये जी रहे हैं’ वाले आगामी बेभाव पड़ने वाले डायलौग से बचने के लिए बात को आम भारतीय की तरह महंगाई को कोसने के शाश्वत विषय की ओर मोड़ दिया.

तकी बोला, ‘हां यार, यह महंगाई तो जान ले रही है.’ लेकिन थोड़ी ही देर में असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं’ का साजोसामान ले जाती कुछ बैलगाडि़यां सामने से निकल रही थीं. ये गड़रियालुहार थे जोकि खानाबदोश जिंदगी जीते हैं. बैलगाडि़यों पर पलंग, बच्चे और सब सामान लदा दिख रहा था. अब तकी टकटकी लगा कर इन्हें ही देख रहा था. उस की आंखों ने बहुतकुछ देख लिया जो कि उसे बाद में शब्दों में प्रकट कर मेरी ओर शूट करना था. अंतिम बैलगाड़ी जब तक 25 मीटर के लगभग दूर नहीं पहुंच गई, यह उसे टकटकी लगा कर देखता ही रहा. अब वह बोला, ‘यार, जिंदगी तो इन की है?’

मैं ने कहा, ‘खानाबदोश जिंदगी भी कोई जिंदगी है?’

वह बोला, ‘यार, तुम नहीं समझोगे, इसी में जिंदगी का मजा है. एक जगह से दूसरी जगह को ये लोग हमेशा घूमते रहते हैं. कहीं भी रुक लिए और कहीं भी बनाखा लिया, और कहीं भी रात गुजार ली. भविष्य की कोई चिंता नहीं, मस्तमौला, घुमक्कड़ जिंदगी, सब को कहां मिलती है.’

मैं ने सोचा कि इस को भी यह अच्छा कह रहा है. अब तो यहां से रवानगी डालना ही ठीक होगा, वरना ‘असली जिंदगी तो इन की है’ का कोई न कोई नया संस्करण कहीं न कहीं से इस के लिए प्रकट हो जाएगा, जिसे वह मेरे पर शूट करेगा जो कि मुझे आजकल हकीकत की गोली से भी तेज लगने लगा है.

आधारशिला

चिकित्सा महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एमबीबीएस की डिगरी और 2 विषयों में स्वर्णपदक लेती हुई श्वेता को देख कर खुशी से मेरी आंखें भर आईं. वह कितनी सुंदर लग रही थी. गोरा रंग, मोहक नैननक्श. उस पर आत्मविश्वास और बुद्धिमत्ता के तेज ने उस के चेहरे को हजारों में एक बना दिया था.

मैं उस की मां हूं, क्या इसीलिए अपनी बेटी में इतना सौंदर्य देख पाती हूं? मैं ने एक निगाह अपने इर्दगिर्द बैठी भीड़ पर डाली तो पाया कई जोड़ी आंखें श्वेता को एकटक निहार रही हैं.

श्वेता की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. अपना लक्ष्य उस ने पा लिया था. मेरा मन गर्व से भर उठा. साथ ही एक चिंता ने हृदय के किसी कोने से हलके से सिर उठाया कि अब हमें उस के लिए वर की तलाश करनी होगी. सही समय पर सही काम होना ही चाहिए, यही सफल व्यक्ति की निशानी है.

बरसों पहले की बात याद आई. नन्ही श्वेता को पैरों पर झुलाते हुए मैं उसे रटाया करती, ‘वर्क व्हाइल यू वर्क, प्ले व्हाइल यू प्ले…’

श्वेता ने यह कविता अच्छी तरह रट ली थी. जब वह अपनी तोतली आवाज में इसे सुनाती तो मैं भावविभोर हो जाती. मगर क्या इस का सही अर्थ वह समझ पाई थी.

10वीं कक्षा में पहुंचते ही वह पढ़ाई और कैरियर की नींव बनाने की उम्र में राह भटक गई थी. अनजाने प्रदेश की ओर बढ़ते हुए उस के क्रमश: दूर जाते हुए कदमों की पद्चाप को मैं मां हो कर भी पहचान नहीं पाई थी. यदि वह नेक व्यक्ति मुझे उस बात की सूचना न देता तो न जाने श्वेता का क्या होता, क्या होता हम सब का, यदि उस की जगह कोई और होता तो…

मुझे वह दिन याद आया, जब दोपहर की डाक से वह पत्र मिला था :

मीनाजी,

जितनी जल्दी संभव हो, स्कूल आ कर मुझ से मिल लें. कृपया इस बात को गुप्त रखें. श्वेता को भी इस बारे में कुछ न बताएं.

वह नाम मेरे लिए कतई अपरिचित नहीं था. 3-4 महीनों से श्वेता के मुख से वह नाम सुनतेसुनते हमें ही नहीं, शायद पड़ोसियों को भी रट गया था. मगर मैं सोचने लगी कि यह पत्र… इस का मजमून ऐसी कौन सी बात की ओर इशारा कर रहा है, जोकि बेहद गोपनीय है, और शायद गंभीर भी. मेरा हृदय कांप उठा.

‘जैसेतैसे साड़ी लपेट कर मैं ने बालों को ढीलेढाले जूड़े की शक्ल में बांध लिया. श्वेता को उस दिन बुखार था, इसलिए वह स्कूल नहीं जा पाई थी. यह बात मेरे पक्ष में थी. उसे बता कर कि आवश्यक काम से बाहर जा रही हूं, मैं निकल पड़ी.

श्वेता के स्कूल की छुट्टी 4 बजे होती थी. मैं साढ़े 3 बजे ही स्कूल पहुंच चुकी थी. अभी मुझे आधा घंटा इंतजार करना था. मैं प्रवेशद्वार के समीप ही बैंच पर बैठ गई. इस तरह चोरीछिपे इंतजार करना मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, मगर करती भी क्या? बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. यदि वह श्वेता की पढ़ाई के संबंध में थी तो उस में गोपनीयता की क्या बात थी?

मासिक टैस्ट में उसे कैमेस्ट्री में अच्छे अंक मिलने लगे थे. हालांकि अन्य विषयों में वह कमजोर ही थी. 1-2 बार मैं ने इस बात के लिए उसे टोका भी था, मगर जोर दे कर कुछ नहीं कहा था. क्योंकि कैमेस्ट्री में उसे इंट्रैस्ट नहीं था, लेकिन अचानक इस वर्ष उस का इंट्रैस्ट देख कर मुझे मन ही मन बड़ा भला लगा था.

मेरी नींद पिछले महीने के टैस्ट के परिणाम के बाद भी नहीं खुली थी, अब अंगरेजी और फिजिक्स में उसे बहुत कम अंक मिले थे. उस समय भी मैं ने श्वेता को संबंधित विषयों में ध्यान देने की बस मामूली सी हिदायत ही दी थी.

हालांकि कुशाग्रबुद्धि श्वेता का अन्य विषयों में इतने कम अंक प्राप्त करना चिंता का विषय होना चाहिए था, परंतु मैं ने सोचा कि साल की शुरुआत ही है, धीरेधीरे वह सभी विषयों को गंभीरता से पढ़ने लगेगी. मैं सोचने लगी, क्या इन विषयों में कम अंक आने के कारण ही पुनीत ने मुझे बुलाया है? लेकिन भला उन्हें अन्य विषयों से क्या लेना? उन के विषय कैमेस्ट्री में तो श्वेता के बराबर ही अच्छे अंक आ रहे हैं.

‘विचारों के भंवर में मैं इस कदर डूब गई थी कि छुट्टी होने की घंटी भी मुझे सुनाई नहीं दी. जब क्लास से लड़कियों के झुंड बाहर निकलने लगे, तब मैं चौंकी. उसी समय देखा, सामने से एक युवक मेरी ओर चला आ रहा है.

‘क्या आप मीनाजी हैं?’ उस ने नम्रता से पूछा.

मेरे हां कहने पर उस ने अपना परिचय दिया, ‘मैं, पुनीत हूं. आइए, हम पास वाले कौफीहाउस में कुछ देर बैठें. दरअसल, बात जरा नाजुक है, इस तरह सड़क पर बताना ठीक नहीं होगा.’

‘ठीक है,’ कहती हुई मैं उन के साथ चल दी. इस तरह अनजान व्यक्ति के साथ आना मुझे कुछ अजीब जरूर लग रहा था, पर गए बिना चारा भी नहीं था.

‘बगल में चलते हुए मैं ने पुनीत पर एक निगाह डाली. 6 फुट लंबा कद, गोरा रंग और आंखों पर चढ़ा चश्मा, जो उन के व्यक्तित्व को और भी अधिक प्रभावशाली बना रहा था. उन की आवाज धीर गंभीर थी.

शीघ्र ही हम कौफीहाउस पहुंच गए. कौफी का और्डर दे कर वे कुछ क्षणों के लिए चुप हो गए. चारों ओर नजर दौड़ा कर उन्होंने कमीज की जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाया, ‘पत्र है, श्वेता का, मेरे नाम.’

मैं ने थरथराते हाथों से पत्र ले कर पढ़ा. क्या नहीं था उस में, जन्मजन्मांतर का अटूट संबंध, रातरात भर जागते रहने का इजहार, याद, इंतजार, आरजू और

न जाने कैसेकैसे शब्दों से भरा हुआ था वह पत्र.

पत्र पढ़तेपढ़ते मेरे आंसू निकल आए. ऐसा लगा, श्वेता की उच्चशिक्षा संबंधी सारी महत्त्वाकांक्षाओं का अंत हो गया. मेरी स्थिति को पुनीत भांप गए थे. वे कहने लगे, ‘यदि आप होश खो बैठेंगी तो श्वेता का क्या होगा.’

मैं ने उन की ओर देखा कि कहीं उन के इस वाक्य में मेरे प्रति उपहास तो नहीं, लेकिन नहीं, इस वाक्य का सहीसही अर्थ ही उन के चेहरे पर लिखा हुआ था. वे आगे बोले, ‘इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. दरअसल, श्रद्धा और प्रेम का अंतर हमें इस उम्र में समझ में नहीं आता. इसलिए आप इसे गंभीर अपराध के रूप में न लें. इसीलिए मैं ने आप से ही इस बारे में बात करना ठीक समझा. आप उस की मां हैं, उस के हृदय को समझ सकती हैं.’

‘परंतु ऐसा पत्र, जी चाहता है, उसे जान से मार डालूं.’

‘नहीं, आप इस बात को श्वेता को महसूस भी न होने दें कि आप को इस पत्र के बारे में सबकुछ मालूम है. हम इस समस्या को शांति से सुलझाएंगे. आप तो जानती ही हैं कि यदि अनुकूल परिस्थितियों में यह उम्र हवा का शीतल झोंका होती है तो प्रतिकूल परिस्थितियों में गरजता हुआ तूफान बन जाती है.’

‘आप कह तो ठीक ही रहे हैं,’ मैं ने मन ही मन उन के मस्तिष्क की परिपक्वता की सराहना की.

पुनीत से की गई 15-20 मिनट की बातचीत ने मेरे मन के बोझ को आंशिक रूप से ही सही, पर कुछ कम अवश्य किया था.

‘क्या आप ने मनोविज्ञान पढ़ा है?’ मैं ने पूछा तो वे हंस पड़े, ‘जी, बाकायदा तो नहीं, परंतु हजारों मजबूरियों से घिरा हुआ मध्यवर्गीय घर है हमारा. मैं 5 भाईबहनों में सब से बड़ा हूं. सब की अपनीअपनी समस्याएं, उन के सुखदुख का मैं गवाह बना. उन का राजदार, मार्गदर्शक, सभी कुछ. मातापिता ने परिस्थितियों से शांतिपूर्वक जूझने के संस्कार दिए और इस तरह मेरा घर ही मेरे लिए अनुभवों की पाठशाला बन गया.’

उन के गजब के संतुलित स्वर ने मेरे उबलते हुए मन को मानो ठंडक प्रदान की.

‘तो योजना के मुताबिक, आप कल हमारे घर आ रहे हैं?’ मैं ने कहा और उन से विदा ली.

मैं ने औटोरिकशा के बजाय बस से ही जाना ठीक समझा. एकांत से मुझे डर लग रहा था. बस  की भीड़ में शायद मेरा दुख अधिक तीव्रता धारण न कर पाए. मगर मेरा सोचना गलत था. भीड़भरी बस में भी मैं बिलकुल अकेली थी. मेरा दुख मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था.

‘बसस्टौप से धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए मैं घर पहुंची. मुझे देखते ही श्वेता दौड़ कर आई और मेरे गले लिपट गई, ‘ओह मां, कितनी देर लगा दी. मैं अकेली बैठी कब से बोर हो रही हूं.’

‘श्वेता, छोड़ो यह बचपना,’ मैं ने अपने गले से उस की बांहें हटाते हुए कहा.

मैं ने बेरुखी से उस के हाथ झटक तो दिए थे, पर तभी पुनीत की वह बात याद आई, ‘आप अपने व्यवहार से उसे किसी तरह का आभास न होने दें कि आप उस के बारे में सबकुछ जान चुकी हूं,’ सो, मैं ने सहज स्वर में कहा, ‘बेटे, जल्दी जा कर लेट जाओ, तुम्हें अभी भी बुखार है. थोड़ी देर में अंकित भी आता होगा, वह तुम्हें जरा भी आराम नहीं करने देगा.’

श्वेता अपने कमरे में जा कर लेट गई. मैं एक पत्रिका ले कर पढ़ने बैठ गई, पर ध्यान पढ़ने में कहां था. मेरा मन तो किसी खुफिया अधिकारी की तरह श्वेता के पिछले व्यवहार की छानबीन करने लगा. वह अकसर पुनीत की प्रशंसा किया करती थी. सो, हम भी उन की योग्यता के कायल हो चुके थे, क्योंकि पिछले साल की अपेक्षा इस साल श्वेता को कैमेस्ट्री में काफी अच्छे अंक मिले थे.

जब पढ़ाने की तारीफ से आगे बढ़ कर उस ने उन के व्यक्तित्व की तारीफ शुरू की, तब भी मुझे कुछ अजीब नहीं लगा था. मैं सोचती, 14-15 वर्ष की उम्र यों भी सिर्फ योग्यता तोलने की नहीं होती. यदि वह उन्हें स्मार्ट कहा करती है  तो यह गलत नहीं. ऐसे ही शब्द तो इस उम्र में किसी के व्यक्तित्व को नापने का पैमाना होते हैं.

जब मैं उम्र के इस दौर से गुजर रही थी, मुझे भी अपनी शिक्षिका देविका कोई आसमानी परी मालूम होती थीं. मेरी मां और बाबूजी अकसर कहा करते थे, ‘इसे हमारी कोई बात समझ में ही नहीं आती, लेकिन वही बात अगर देविका कह दें तो तुरंत मान लेगी.’

यह तो बहुत बाद में समझ आया कि देविका भी औरों की तरह साधारण सी महिला थीं. मुझे महसूस होने वाला उन का पढ़ाने का जादुई ढंग उन के अपने बच्चों पर बेअसर रहा था. उन के दोनों बेटे क्लास में मुश्किल से ही पास होते थे.

बस, इसी तरह श्वेता का भी पुनीत का अतिरिक्त गुणगान करना मुझे जरा भी संदेहजनक नहीं लगा था.

दरवाजे की डोरबैल जोर से बज रही थी. शायद अंकित आ गया था. मैं ने भाग कर दरवाजा खोला.

अंकित को दूध का गिलास पकड़ा कर मैं रात के खाने की तैयारी में लग गई. श्वेता की समस्या ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया था, मगर फिर भी सोच लिया था कि जैसे भी हो, यह बात मैं इन के कानों में नहीं पड़ने दूंगी. इन का प्यार भी असीम था और गुस्सा भी. इन्हें यदि इस पत्र के बारे में पता चल जाता, तो शायद श्वेता को सूली पर चढ़ा देते.

शाम को ये लगभग 8 बजे घर पहुंचे. श्वेता और अंकित में किसी बात पर झगड़ा हो रहा था. टीवी जोरजोर से चल रहा था. इन्होंने आते ही पहले टीवी औफ किया, फिर बच्चों को जोरदार आवाज में डांटा. जब कोलाहल बंद हुआ तब मुझे खयाल आया कि मैं अपने विचारों में किस कदर खोई हुईर् थी.

‘क्या बात है, कुछ परेशान सी लग रही हो, बच्चों को इन की शैतानियों के लिए डांट नहीं रही हो?’ इन्होंने पास आ कर पूछा.

‘लीजिए, अब डांटना ही हमारे स्वस्थ होने का परिचायक हो गया. क्या मैं चुपचाप बैठी आप को अच्छी नहीं लग रही?’ मैं ने शरारत से पूछा.

‘नहीं, बिलकुल अच्छी नहीं लग रही हो. बच्चों की आवाजें, टीवी का शोर और इन सब से ऊपर तुम्हारी आवाज हो, तभी मुझे लगता है कि मैं अपने घर आया हूं’, इन्होंने नहले पे दहला मारा.

खाना खाते समय श्वेता खामोश ही रही. उस के पास सुनाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वह स्कूल जो नहीं गई थी. फिर भी एकाध बार पुनीत की तारीफ करना नहीं भूली.

योजना के मुताबिक अगले दिन पुनीत हमारे घर आए. श्वेता उन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘सर, आप? यहां कैसे? आप को कैसे पता चला कि मैं यहां रहती हूं? मैं बीमार थी, क्या इसीलिए मुझे देखने आए हैं?’ उस ने सवालों की झड़ी लगा दी.

पुनीत मुसकराते हुए बोले, ‘हां भई, मैं इस तरफ किसी काम से आया था, सोचा, तुम से भी मिलता चलूं. पता तो तुम ने ही मुझे दिया था.’

‘ओह, हां. मुझे तो याद ही नहीं रहा.’ श्वेता के चेहरे पर खुशी झलक रही थी. टीवी पर फिल्म चल रही थी. श्वेता फिल्म देखते हुए हमेशा अपनेआप को भी भूल जाती थी, मगर अब उसे फिल्म से भी कोई मतलब नहीं था. उस की दुनिया तो जैसे पुनीत में ही सिमट आई थी.

‘सर, आप क्या खाएंगे?’ श्वेता इठला कर पूछ रही थी.

‘जो आप बना लाएं,’ उन्होंने शरारती स्वर में कहा.

‘जी, मैं तो सिर्फ चाय बना

सकती हूं.’

‘जी हां, मैं तो भूल ही गया था, आप तो छोटी सी बच्ची हैं, आप को भला क्या बनाना आता होगा.’

श्वेता को हंसते देख उसे गुस्सा आ रहा था.

मैं रसोई में जा कर नमकीन, मठरी और गुलाबजामुन ले आई.

‘अरे, आप तो बहुत कुछ ले आईं,’ पुनीत शिष्टता से बोले.

‘कहां बहुत कुछ है सर, आप यह लीजिए. मैं आप के लिए पकौडि़यां तल कर लाती हूं.’

‘ नहीं भई, इतना काफी है,’ कहते हुए पुनीत अपने बारे में बताने लगे कि वे एक गरीब परिवार से हैं. पिता रिटायर्ड हैं, 2 छोटी बहनें और 1 भाई अभी पढ़ रहे हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.

हमारी योजना के मुताबिक ही वे अपने परिवार के हालात के बारे में जानबूझ कर बता रहे थे. यह वास्तविकता भी थी और कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी बताई जा रही थी, ताकि इस कठोर धरातल की ओर बढ़ते हुए श्वेता के नाजुक पांव अपनेआप कांप उठें.

इस घटना के 2-3 दिनों बाद मैं पुनीत से मिलने स्कूल गई. इस बार हम ने स्कूल के बाहर एक स्थान और समय निश्चित कर लिया था. वे आए और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा कर चले गए. डर था कि कहीं श्वेता हमें न देख ले. पत्र कुछ इस प्रकार था :

आदरणीय सर,

आप मेरे पत्रों के उत्तर क्यों नहीं देते? क्या मैं आप को सुंदर नहीं लगती या अपनी गरीबी की वजह से ही आप आगे बढ़ने में डर रहे हैं? सर, जब से मुझे आप की आर्थिक स्थिति का पता चला है, आप की कर्तव्यभावना देख कर मेरे मन में आप के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया है. कृपया मुझे अपना लें. मैं आप का पूरापूरा साथ दूंगी. नमक के साथ सूखी रोटी खा कर भी दिन गुजार लूंगी. आप का परिवार मेरा परिवार है. हम मिलजुल कर यह जिम्मेदारी उठाएंगे.

आप की,

श्वेता.

पत्र पढ़ कर मैं ने सिर पीट लिया कि सारी योजना बेकार चली गई. नमक के साथ रोटी वाली बात पढ़ कर तो बेहद हंसी आई. खाने में पचासों नुक्स निकालने वाली श्वेता को मैं कल्पना में भी सूखी रोटी खाते हुए नहीं देख सकती थी. गरीबी उस के लिए सिर्फ फिल्मी अनुभव के समान थी. गरीबी का फिल्मीरूप जितना लुभावना होता है, असलियत उतनी ही जानलेवा. काश, श्वेता यह सब जान पाती.

2-3 दिन श्वेता अनमनी सी रही, फिर कुछ सहज हो गई. 10-15 दिनों से पुनीत का भी कोई फोन नहीं आया था. हम ने तय कर लिया था कि श्वेता यदि उन्हें कोई पत्र लिखती है तो वे पहले मुझे फोन से खबर देंगे. मुझे लगने लगा कि पुनीत की बेरुखी या गरीबी की वजह से श्वेता अपनेआप ही संभल गई है.

उस रात मैं कई दिनों बाद निश्चिंत हो कर सोई. सुबह उठी तो सब से पहले श्वेता के कमरे की ओर गई. श्वेता गहरी नींद में थी, लेकिन उस के गोरे गालों पर आंसुओं के निशान थे. लगता था, जैसे वह देररात तक रोती रही थी. मेज पर कैमेस्ट्री की कौपी रखी थी. मैं ने खोल कर देखा तो उस में से एक पत्र गिरा. सलीमअनारकली, हीररांझा आदि के उदाहरण सहित उस में अनेक फिल्मी बातें लिखी हुई थीं.

लेकिन उस पत्र की अंतिम पंक्ति मुझे धराशायी कर देने के लिए काफी थी. ‘सर, यदि आप ने मेरा प्यार स्वीकार न किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगी.’

मैं भाग कर श्वेता के निकट पहुंची. उस की लयबद्ध सांसों ने मुझे आश्वस्त किया. फिर मैं ने उस की अलमारी की एकएक चीज की छानबीन की कि कहीं कोई जहर की शीशी तो उस ने छिपा कर नहीं रखी है, लेकिन ऐसी कोई चीज वहां नहीं मिली. मेरा धड़धड़ धड़कता हुआ कलेजा कुछ शांत हुआ. लेकिन चिंता अब भी थी.

मेरी नजरों के सामने अखबारी खबरें घूम गईं. एकतरफा प्रेम के कारण या प्रेम सफल न होने के कारण आत्महत्या की कितनी ही खबरें मैं ने तटस्थ मन से पढ़ी, सुनी थीं. लेकिन अब जब अपने ऊपर बीत रही थी, तभी उन खबरों का मर्मभेदी दुख अनुभव कर पा रही थी.

मुझे बरसों पहले की वह घटना याद आई जब कमरे में घुस आई एक नन्ही चिडि़या को उड़ाने के प्रयत्न में मैं पंखा बंद करना भूल गई थी. चिडि़या पंखे से टकरा कर मर गईर् थी. उस की क्षतविक्षत देह और कमरे में चारों ओर बिखरे कोमल पंख मुझे अकसर अतीत के गलियारों में खींच ले जाते, और तब मन में एक टीस पैदा होती.

श्वेता के संदर्भ में उस चिडि़या का याद आना मुझे बड़ा अजीब लगा. मैं ने स्कूल में पुनीत को फोन किया. मेरी कंपकंपाहटभरी आवाज सुन कर शायद वे मेरी दुश्चिंता भांप गए और बोले, ‘धीरज रखिए, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आप के घर आऊंगा.’

निश्चित समय पर पुनीत आए. मैं जितनी बेचैन थी, वे उतने ही शांत लग रहे थे.

मैं ने कहा, ‘आप को सुन कर अवश्य आश्चर्य होगा, पर मैं आज कुछ अलग ही तरह की बात कहने जा रही हूं,’ मैं ने अपनेआप को स्थिर कर के कहा, ‘आप श्वेता से शादी कर लीजिए, कहीं वह प्रेम में पागल हो कर आत्महत्या न कर ले.’ यह कहतेकहते फफकफफक कर रो पड़ी.

‘अपनेआप को संभालिए. श्वेता अभी बच्ची है मेरी छोटी बहन के समान. उस की उम्र अभी शादी की नहीं, सुनहरे भविष्य के निर्माण की है, जिस की आधारशिला हमें अपने हाथों से रखनी होगी.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन आज उस ने पत्र लिखा है, जिस में…’

‘वह पत्र उस ने मुझे दिया है, आप घबराएं नहीं. जब तक मैं उसे नकारात्मक उत्तर नहीं दूंगा, तब तक कुछ नहीं होगा. अभी तक मैं ने उस के प्रेम को स्वीकारा नहीं है, तो नकारा भी नहीं है.’

‘लेकिन यह स्थिति कब तक कायम रहेगी?’ मैं ने पूछा.

‘अधिक दिन नहीं,’ वे बोले, ‘यह तो हम जान ही चुके हैं कि श्वेता का ऐसी हरकतें करना कुछ तो उस की किशोर उम्र का परिणाम है और कुछ फिल्मों का मायावी संसार उसे यह सबकुछ करने को उकसाता रहा है, क्योंकि वह फिल्में देखने की बहुत शौकीन है.’

‘जी हां, मगर फिल्म और वास्तविकता के बीच का फर्क उसे समझाएं तो कैसे. और समझ में आने पर भी क्या प्यार का भूत उस के सिर से उतर जाएगा?’

पुनीत कहीं और देख रहे थे, जैसे उन्होंने मेरा प्रश्न सुना ही न हो, फिर एकाएक बोल पड़े, ‘अब आप निश्चिंत रहिए. उस का यह फिल्मी तिलिस्म फिल्मी ढंग से ही टूटेगा.’ और वे चले गए.

मेरे मन में आया कि पति से इतनी गंभीर बात छिपा कर मैं कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं. मगर जब औफिस से लौटने पर इन का थकाहारा चेहरा देखती तो बस, यही लगता कि इन के सामने ऐसी गंभीर समस्या न ही रखूं. यदि मैं अपने स्तर पर यह समस्या सुलझा सकूं तो बहुत अच्छा होगा और फिर पुनीत का पूरा साथ है ही. दूसरी बात, इन के गुस्से का भी क्या ठिकाना. यदि गुस्से में आ कर इन्होंने कोई कठोर कदम उठाया तो श्वेता न जाने क्या कर बैठे.

गनीमत यही थी कि पुनीत बहुत चरित्रवान थे. यदि वे छिछोरे युवकों जैसे होते तो हम कहीं के न रहते.

अगले दिन पुनीत हमारे घर फिर आए. श्वेता हमेशा की तरह बेहद खुश हुई. अब वे अकसर ही हमारे घर आने लगे. शायद श्वेता को इस बात से विश्वास हो चला था कि वे भी उसे चाहते हैं.

जब भी वे आते, अपने बारे में कुछ न कुछ ऊलजलूल बोलते चले जाते.

श्वेता कहती, ‘सर, यह चश्मा आप पर बहुत फबता है,’ तो कहते, ‘जानती हो, इस का नंबर है माइनस फाइव. 35 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते मैं अंधा हो जाऊंगा.’

श्वेता भी उन की बातों से कुछ ऊबती हुईर् नजर आती.

एक रोज वे घर पर आए. ठीक उसी वक्त फ्यूज उड़ जाने से

बिजली चली गई. श्वेता उन से बोली, ‘मैं फ्यूज वायर ला देती हूं, आप जोड़ दीजिए.’

‘मैं और फ्यूज?’ वे इस तरह घबराए, जैसे कोई अनोखी बात सुन ली हो, ‘श्वेता, फ्यूज तो दूर, मैं बिजली का मामूली से मामूली काम भी नहीं जानता. करंट लगने से मैं बेहद डरता हूं.’

श्वेता ने उन की ओर आश्चर्य से देखा, ‘सर, फ्यूज तो मैं भी जोड़ लेती हूं. बस, मीटर बोर्ड कुछ ऊंचा होने के कारण आप से कह रही हूं.’

श्वेता ने मेज पर स्टूल रखा और फ्यूज ठीक कर दिया. पुनीत यह सब खामोशी से देख रहे थे.

रात को खाना खाते समय श्वेता हंसतेहंसते यह घटना अपने पिताजी को सुना रही थी. इतना लंबाचौड़ा युवक और फ्यूज सुधारने जैसा साधारण काम नहीं कर सकता. उस की हीरो वाली छवि को इस घटना से बड़ा धक्का लगा था.

पर उस रोज मैं न हंस पाई. मैं जानती थी कि पुनीत ने जानबूझ कर ऐसी हरकत की थी.

एक रोज उन्होंने एक और मनगढ़ंत घटना सुनाई कि जब वे कालेज में

पढ़ते थे, एक चोर घर के अंदर घुस आया. वे चुपचाप सांस रोके लेटे रहे. चोर अलमारी में रखे 5-7 सौ रुपए ले कर भाग गया.

श्वेता उन की ओर अविश्वास से ताकती रही, फिर बोली, ‘कुछ भी हो, आप को उसे पकड़ने की कोशिश तो करनी ही चाहिए थी. आप के साथसाथ समाज का भी कुछ भला हो जाता.’

‘समाज के लिए मरमिटूं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं,’ वे बोले. फिर कुछ क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘समाज हमारे लिए क्या करता है? यों तो लोग दहेज विरोधी बातें भी खूब करते हैं, पर मैं क्यों न लूं दहेज? क्या समाज मेरी बहनों की मुफ्त में शादी करवा देगा?’

श्वेता कुछ नहीं बोली, अपने सपनों के राजकुमार की खंडित प्रतिमा को वह किसी तरह जोड़ नहीं पा रही थी.

उस के कुछ दिन बड़ी मानसिक ऊहापोह में गुजरे. फिर एक रोज उस ने शायद अपने कमजोर मन पर विजय पा ही ली.

एक दिन वह बोली, ‘मां, कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं?’

‘कैसे?’ मैं उस के प्रश्न का रुख समझ रही थी, फिर भी पूछ लिया.

‘देखने में बड़े आदर्शवादी, समाज सुधारक और बड़ीबड़ी बातें करने वाले और अंदर से धोखेबाज, मक्कार और झूठे हैं. जैसे, जैसे पुनीत सर.’ आंसू छिपाती हुई वह अपने कमरे में चली गई. मुझे उस के दिए हुए ये विशेषण बिलकुल अच्छे नहीं लगे. मैं सोच रही थी कि मेरी बेटी को सही राह पर लाने वाला व्यक्ति सिर्फ महान, समझदार और व्यवहारकुशल हो सकता है और कुछ नहीं.

मैं ने उसे समझाया, ‘बेटी, दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं. सभी हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप  नहीं होते. वे जैसे भी होते हैं, अपनी जगह पर सही होते हैं. इसलिए उन्हें बुराभला कहना ठीक नहीं.’

श्वेता ने मुझ से बहस नहीं की, पर धीरेधीरे उस का पुराना रूप लौटने लगा. मैं खुश थी.

एक दिन पुनीत का फोन आया कि श्वेता अब उन्हें पत्र नहीं लिखती, उन से दूसरी छात्राओं की तरह  ही पेश आती है. तब मैं ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.

जिस तरह नाजुक हाथों से उलझे हुए रेशम को सुलझाया जाता है, उसी तरह नफासत से उन्होंने श्वेता के दिल की गुत्थी को सुलझाया था.

उस वर्ष वह जैसेतैसे द्वितीय श्रेणी ही पा सकी, जोकि स्वाभाविक ही था. लगभग पूरा वर्ष उस ने प्रेमवर्ष के रूप में ही तो मनाया था. पर उस के बाद वह पूरी तरह पढ़ाई में जुट गई. और अब उस का सपना भी पूरा हो गया.

असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं

यह अलग ही तरह का शख्स था. पता नहीं कहां कौन सी साधारण बात इसे खास लगने लगे, किस बात से मोहित हो जाए, कुछ कह नहीं सकते थे. जिन बातों से एक आम आदमी को ऊब होती थी, इस आदमी को उस में मजा आता था. एक अजीब सा आनंद आता था उसे. इस की अभिरुचि बिलकुल अलग ही तरह की थी. वैसे यह मेरा दोस्त है, फिर भी मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि आखिर यह आदमी किस मिट्टी का बना है. मिट्टी सी चीज में अकसर यह सोना देखता है और अकसर सोने पर इस की नजर ही नहीं जाती.

मैं इस के साथ मुंबई घूमने गया था. हम टैक्सी में दक्षिण मुंबई के इलाके में घूम रहे थे. हमारी टैक्सी बारबार सड़क पर लगे जाम के कारण रुक रही थी. जब टैक्सी ऐसे ही एक बार रुकी तो इस का ध्यान सड़क के किनारे बनी एक 25 मंजिली बिल्ंिडग की 15वीं मंजिल पर चला गया, जहां एक कमरा खुला दिख रहा था. मानसून का समय था. आसमान में बादल छाए थे. कमरे की लाइट जल रही थी, पंखा घूमता दिख रहा था. वह बोल उठा, ‘यार, इस को कहते हैं ऐश. देखो, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वो महाशय आराम फरमा रहे हैं, वह भी पंखे की हवा में.’

मैं ने सोचा इस में क्या ऐश की बात है? मैं ने कहा, ‘यार, वह आदमी जो उस कमरे में दिख रहा है, वह क्या कुछ काम नहीं करता होगा? आज कोई कारण होगा कि घर पर है.’

अब वह बोला, ‘यार, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वह ऐश कर रहा है. यह तो एक बिल्डिंग के एक माले के एक फ्लैट की बात है, यहां तो हर फ्लैट में लोग मजे कर रहे हैं.’

मैं ने झल्ला कर कहा, ‘हां, हर फ्लैट नहीं, हर फ्लैट के हर कमरे में कहो और अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हुए हैं.’

यह तो एक घटना मुंबई की रही. एक दिन शाम को घूमते हुए शहर के रेलवे स्टेशन पर मिल गया. मैं शाने भोपाल ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. यह तफरीह करने आया था. चूंकि ट्रेन के लिए समय था, सो हम एक बैंच पर बैठ गए. स्टेशन पर आजा रही ट्रेनों को यह टकटकी लगा कर देखता. बोगी में बैठे लोगों को देखता. यदि किसी एसी बोेगी में कोई यात्री दिख जाता आपस में बतियाते या खाना खाते, लेटे पत्रिका पढ़ते तो यह कहता, ‘यार, देखो इन के क्या ऐश हैं. मस्त एसी में यात्रा कर रहे हैं, खापी रहे हैं, गपशप कर रहे हैं और अपन यहां कुरसी पर बैठे हैं?’

मैं ने कहा, ‘यार, इस में क्या खास बात हो गई? अपन लोग भी जाते हैं तो इसी तरह मौज करते हैं यदि तुम्हारे पैमाने से बात तोली जाए.’ मैं ने आगे कहा, ‘वैसे मैं तो रेलयात्रा को एक बोरिंग चीज मानता हूं.’ अब मेरा मित्र बोल पड़ा, ‘अरे यार, तुम नहीं समझोगे क्या आनंद है यात्रा का. मस्ती में पड़े रहो, सोते ही रहो और यदि घर से परांठेसब्जी लाए हो तो उस का भी मजा अलग ही है. काश, अपन भी ऐसे ही इस समय ट्रेन की ऐसी ही किसी बोगी में बैठे होते तो मजा आ जाता.’

मैं ने कहा, ‘तो चल मेरे साथ? असल जिंदगी जीना, मैं तो खैर बोर होऊंगा तो होते रहूंगा.’ लेकिन इस बात पर यह मौन हो गया.

इसे कौन से साधारण दृश्य अपील कर जाएं, कहना मुश्किल था. एक बार मैं और यह कार से शहर से 80 किलोमीटर दूर स्थित एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पौट को जा रहे थे. एक जगह ट्रैफिक कुछ धीमा हो गया था. इस की नजर सड़क के किनारे खड़े ट्रकों व उस के साइड में बैठे ड्राइवरक्लीनरों पर चली गई.

वे अपनी गाडिं़यां खड़ी कर खाना पका रहे थे. ईंटों के बने अस्थायी चूल्हे पर खाना पक रहा था. एक व्यक्ति रोटियां सेंक रहा था, एक सब्जी बना रहा था. बाकी बैठे गपशप कर रहे थे. बस, इतना दृश्य इस के लिए असली जिंदगी वाला इस का जुमला फेंकने और उसे लंबा सेंकने के लिए काफी था.

यह बोल उठा, ‘देखो यार, जिंदगी इस को कहते हैं मस्त, कहीं भी रुक गए, पकायाखाया, फिर सो गए और जब नींद खुली तो फिर चल दिए और अपन, बस चले जा रहे हैं. अभी किसी होटल में ऊटपटांग खाएंगे. ये अपने हाथ का ही बना खाते हैं, इस में  किसी मिलावट व अशुद्धता की गुंजाइश ही नहीं है. ऐसी गरम रोटियां होटल में कहीं मिलती हैं क्या?

मैं ने चिढ़ कर कहा, ‘ऐसा करते हैं अगली बार तुम भी रसोई का सामान ले कर चलना. अपन भी ऐसे ही सड़क के किनारे रुक कर असली जिंदगी का मजा लेंगे. और तुरंत ही मजा लेना है तो चल आगे, किसी शहरकसबे के बाजार से अपना तवा, बेलन और किराने का जरूरी सामान खरीद लेते हैं, इस पर वह मौन हो गया.

मैं एक बार इस के साथ हवाईजहाज से बेंगलुरु से देहरादून गया. फ्लाइट के 2 स्टौप बीच में थे. एयर होस्टैस और दूसरे हौस्पिटैलिटी स्टाफ के काम को यह देखतासुनता रहा. बाद में बोला, ‘यार, असली मजे तो इन्हीं के हैं? 2 घंटे में इधर, तो 2 घंटे में उधर. सुबह उठ कर ड्यूटी पर आए तो दिल्ली में थे, नाश्ता किया था मुंबई में. लंच लिया बेंगलुरु में और डिनर लेने फिर दिल्ली आ गए. करना क्या है, बस, मुसकराहटों को फेंकते चलना है. एक बार हर उड़ान में सैफ्टी निर्देशों का प्रदर्शन करना है, बस, फिर जा कर बैठ जाना है. प्लेन के लैंड करते समय फिर आ जाना है और यात्रियों के जाते समय बायबाय, बायबाय करना है. इसे कहते हैं जिंदगी.’

मैं ने कहा, ‘यार, तुझे हर दूसरे आदमी की जिंदगी अच्छी लगती है, अपनी नहीं.’ मैं ने आगे कहा कि इन की जिंदगी में रिस्क कितना है? अपन तो कभीकभी प्लेन में बैठते हैं तो हर बार सब से पहला खयाल सहीसलामती से गंतव्य पहुंच जाने का ही आता है. अब इस बात पर यह बंदा मौन हो गया, कुछ नहीं बोला. बस, इतना ही दोहरा दिया कि असली ऐश तो ये करते हैं.

एक और दिन की बात है. यह अपने खेल अनुभव के बारे में बता कर दूसरों की जिंदगी में फिर से तमगे पर तमगे लगा रहा था. वनडे क्रिकेट मैच देख आया था नागपुर में, बोला, ‘यार, जिंदगी हो तो खिलाड़ी जैसी. कोई काम नहीं, बस, खेलो, खेलो और जम कर शोहरत व दौलत दोनों हाथों से बटोर लो. जनता भी क्या पगलाती है खिलाडि़यों को देख कर, इतनी भीड़, इतनी भीड़, कि बस, मत पूछो.’

मैं ने कहा, ‘बस कर यार, अभी पिछले सप्ताह प्रसिद्ध गायक सोनू निगम का कार्यक्रम हुआ था, उस में भी तेरा यह कहना था कि अरे बाप रे, क्या भीड़ है. लोग पागलों की तरह दाद दे रहे हैं, झूम रहे हैं. जिंदगी तो ऐसे कलाकारों की होती है’ मैं ने आगे कहा, ‘इस स्तर पर वे क्या ऐसे ही पहुंच गए हैं. न जाने कितने पापड़ बेले हैं, कितना संघर्ष किया है. असली कलाकार तो मैं तुझे मानता हूं जो असली जिंदगी को कहांकहां से निकाल ढूंढ़ता है.’

वह बोला, ‘यार, यह सब ठीक है. पापड़आपड़ तो सब बेलते हैं, लेकिन समय भी कुछ होता है. ये समय के धनी लोग हैं और अपन समय के कंगाल? घिसट कर जी रहे हैं.’ मैं ने कहा, ‘मैं तो तुम्हारी असली जिंदगी जीने की अगली उपमा किस के बारे में होगी, उस का इंतजार कर रहा हूं. तुम्हारा यह चेन स्मोकर की तरह का नशा हो गया है कि हर दूसरे दिन किसी दूसरे की जिंदगी में तुम्हें नूर दिखता है और अपनी जिंदगी कू्रर.’

वह कुछ नहीं बोला. अब उस के मौन हो जाने की बारी थी. उस का मौन देख कर मैं ने भी अब मौन रहना उचित समझा, वरना मैं ने कुछ कहा तो पता नहीं यह फिर किस से तुलना कर के अपने को और मुझे भी नीचा फील करवा दे.

मेरे इस दोस्त का नाम तकी रजा है. महीनेभर बाद पिछले शनिवार को मैं इस से मिलने घर गया था. मैं आजकल इस के ‘असली जिंदगी इन की है’ जुमले से थोड़ा डरने लगा हूं. मुझे लग रहा था कि कहीं यह मेरे पहुंचते ही ‘असली जिंदगी तो इन की है’ कह कर स्वागत न कर दे. मैं इस के घर का गेट खोल कर अंदर दाखिल हुआ. यह लौन में ही बैठा हुआ था.

मेरी ओर इस की नजर गई. लेकिन तकी, जो ऊपर को टकटकी लगाए कुछ देख रहा था, ने तुरंत नजर ऊपर कर ली. मैं उस के सामने पड़ी कुरसी पर जा कर बैठ गया. उस के घुटनों को छू कर मैं ने कहा कि क्या बात है, सब ठीक तो है? वह मेरे यह बोलते ही बोला, ‘क्या ठीक है यार, ऊपर देख? कैसे एक तोता मस्त अमरूद का स्वाद ले रहा है?’

मैं ने ऊपर की तरफ देखा, वाकई एक सुरमी हरे रंग का लेकिन लाल रंग की चोंच, जोकि तोते की होती ही है, वाला तोता अमरूद कुतरकुतर कर खा रहा था और बारीकबारीक अमरूद के कुछ टुकड़े नीचे गिर रहे थे. थोड़ी देर बाद वह फुर्र से टांयटांय करते उड़ गया. फिर एक दूसरा तोता आ गया. उस के पीछे 2-3 तोते और आ गए. वे सब एकएक अमरूद पर बैठ गए.

एक अमरूद पर तो 2 तोते भी बैठ कर उसे 2 छोरों से कुतरने लगे. कौमी एकता का दृश्य था. तकी बोला, ‘यार, असली जिंदगी तो इन की है. जमीन पर आने की जरूरत ही नहीं, हवा में रहते ही नाश्ता, खाना, टौयलेट सब कर लिया.’ और हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि तकी ने जैसे ही यह बोला कि एक तोता, जो उस के सिर के ठीक ऊपर वाली डाल पर था, ने अपना वेस्ट मैटेरियल सीधे तकी के सिर पर ही गिरा दिया.

‘यह भी कोई तरीका है,’ कह कर तकी अंदर की ओर भागा. जब वह वापस आया तो मैं ने कहा, ‘हां यार, वाकई असली जिंदगी ये ही जी रहे हैं.’ तकी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा.

मैं ने इस के ‘असली जिंदगी ये जी रहे हैं’ वाले आगामी बेभाव पड़ने वाले डायलौग से बचने के लिए बात को आम भारतीय की तरह महंगाई को कोसने के शाश्वत विषय की ओर मोड़ दिया.

तकी बोला, ‘हां यार, यह महंगाई तो जान ले रही है.’ लेकिन थोड़ी ही देर में असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं’ का साजोसामान ले जाती कुछ बैलगाडि़यां सामने से निकल रही थीं. ये गड़रियालुहार थे जोकि खानाबदोश जिंदगी जीते हैं. बैलगाडि़यों पर पलंग, बच्चे और सब सामान लदा दिख रहा था. अब तकी टकटकी लगा कर इन्हें ही देख रहा था. उस की आंखों ने बहुतकुछ देख लिया जो कि उसे बाद में शब्दों में प्रकट कर मेरी ओर शूट करना था. अंतिम बैलगाड़ी जब तक 25 मीटर के लगभग दूर नहीं पहुंच गई, यह उसे टकटकी लगा कर देखता ही रहा. अब वह बोला, ‘यार, जिंदगी तो इन की है?’

मैं ने कहा, ‘खानाबदोश जिंदगी भी कोई जिंदगी है?’

वह बोला, ‘यार, तुम नहीं समझोगे, इसी में जिंदगी का मजा है. एक जगह से दूसरी जगह को ये लोग हमेशा घूमते रहते हैं. कहीं भी रुक लिए और कहीं भी बनाखा लिया, और कहीं भी रात गुजार ली. भविष्य की कोई चिंता नहीं, मस्तमौला, घुमक्कड़ जिंदगी, सब को कहां मिलती है.’

मैं ने सोचा कि इस को भी यह अच्छा कह रहा है. अब तो यहां से रवानगी डालना ही ठीक होगा, वरना ‘असली जिंदगी तो इन की है’ का कोई न कोई नया संस्करण कहीं न कहीं से इस के लिए प्रकट हो जाएगा, जिसे वह मेरे पर शूट करेगा जो कि मुझे आजकल हकीकत की गोली से भी तेज लगने लगा है.

यह भीखूब रही. मेरी शादी के तुरंत बाद की घटना है. पत्नी विदा हो कर ससुराल आ गईर् थी. बहू से मिलने वालों का आनाजाना लगा हुआ था.

उन दिनों हमारे ताऊजी सेवानिवृत्त हो कर उसी शहर में रहते थे. उन के क्रोधी स्वभाव से हम सभी परिचित थे. मेरी पत्नी को जल्द ही ताऊजी के बारेमें इतने किस्से सुनने को मिले कि उस के दिल में एक डर सा समा गया.

शाम का वक्त था. तभी ताऊजी का आगमन हुआ. उन को देखते ही पत्नी घर के अंदर भागी. ताऊजी बहू का नाम पुकारते हुए उस के पीछे जाने लगे तो वह अपने कमरे के अंदर भागी. ताऊजी को दरवाजे की तरफ आता देख उस के होश उड़ गए. कमरे में एक ही दरवाजा था. भागने का कोई उपाय न देख वह पलंग के नीचे छिप गई. ताऊजी कमरे के अंदर झांक कर वापस लौटे. फिर सब को बतलाने लगे कि बहू को अंदर जाते देखा, फिर गायब कहां हो गई.

ताऊजी के जाने के बाद ही पत्नी पलंग के नीचे से बाहर आई. तब तक उस के कपड़ों तथा मेकअप का बुरा हाल हो चुका था. वह शर्म से लाल हो रही थी, जबकि हम सब का हंसते हंसते बुरा हाल था.  विनोद प्रसादशर्माजी कुछ महीनों पहले ही रिटायर हुए. अब उन के पास न तो कोई विशेष काम था और न ही सरकारी नौकर या गाड़ी. वे कोशिश करते घर के कामों में खुद को व्यस्त रखने की, दोस्तों के यहां जाना और उन्हें बुलाना बढ़ गया.

एक दिन हम 5-6 दोस्त शर्माजी के घर गपें मारने के लिए इकट्ठा हुए. थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा बोलीं, ‘‘मैं चाय बना कर ले आती हूं.’’ शर्माजी बोले, ‘‘अरे, रुको, चाय तो आज मैं ही बनाऊंगा.’’ और वे चले चाय बनाने. पत्नी साथ जाने लगीं तो उन्हें यह कह कर रोक दिया कि ‘‘आप यहीं बैठो.’’ पत्नी बुदबुदाई, ‘‘कभी तो चाय बनाई नहीं.’’

थोड़ी देर बाद शर्माजी बिलकुल बैरा स्टाइल में चाय की ट्रे ले कर आ गए. सब ने चाय ले ली. पहली चुस्की लेते ही सब की नाक में हींग की महक तैर गई. सब एकदूसरे का मुंह देखने लगे तो वे बोले, ‘‘है न बढि़या मसाला चाय?’’

सब कहने लगे, ‘‘आप भी लीजिए.’’

शर्माजी ने जैसे ही चाय की चुस्की ली, उन का मुंह देख कर हम सब खिलखिला कर हंस दिए. असल में उन्होने चाय में जीरावन मसाला डाल दिया था जो चाय मसाले के साथ ही रखा था.

गरीबी रेखा

रेखा सिर्फ हीरोइन ही नहीं है, सरकारी कलाकारी भी है जिसे गरीबीरेखा कहते हैं. गरीबीरेखा इसलिए नहीं खींची जाती कि वह अमीर और गरीब का भेद कर सके बल्कि यह तो लक्ष्मणरेखा जैसी है जिसे कोई अमीर पार कर गरीबों की गरीबी का अपहरण न कर सके. और सरकार भी उस रेखा पार सब का उद्धार कर सके.

उन का आना कभी नागवार नहीं गुजरा. चाहे घर में कोई मेहमान आया हो या मैं कोई जरूरी काम निबटा रहा होऊं. यहां तक कि हम पतिपत्नी के बीच किसी बात को ले कर हुए विवाद की वजह से घर का माहौल अगर तनावभरा हो गया हो, तो भी.

वे जब भी आते, गोया अपने साथ हर मर्ज की दवा ले कर आते. हालांकि उन के पास दवा की कोई पुडि़या नहीं होती, फिर भी, शायद यह उन के व्यक्तित्व का कमाल था कि उन के आते ही घर में शीतल वायु सी ठंडक घुल जाती. जरूरी काम को बाद के लिए टाल दिया जाता और मेहमान तो जैसे उन्हीं से मिलने आए होते हों. पलभर में वे उन से इतना खुल जाते जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों.

लवी तो उन्हें देखते ही उन की गोद में बैठ जाता, उन की मोटीघनी मूंछों के साथ खेलने लगता. और बेगम बड़ी अदा से मुसकरा कर कहती, ‘‘चाचाजी, आज स्पैशल पकौड़े बनाने का मूड था, अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘तुम्हारे मूड को मैं जानता हूं बेटी, जो मुझे देख कर ही पकौड़े बनाने का बन जाता है. लेकिन सौरी,’’ वे हाथ उठा कर कहते, ‘‘आज पकौड़े खाने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

लेकिन बेगम उन की एक नहीं सुनती और उन्हें पकौड़े खिला कर ही मानती.

वे आते, तो कभी इतनी धीरगंभीर चर्चा करते जैसे सारे जहां कि चिंताएं उन्हीं के हिस्से में आ गई हैं, तो कभी बच्चों की तरह कोई विषय ले कर बैठ जाते. आज आए तो कहने लगे, ‘‘बेटा, यह तो बताओ, यह गरीबीरेखा क्या होती है?’’

मुझे ताज्जुब नहीं हुआ कि वे मुझ से गरीबीरेखा के बारे में सवाल कर रहे हैं. मैं उन के स्वभाव से वाकिफ हूं. वे कब, क्या पूछ बैठेंगे, कुछ तय नहीं रहता. अकसर ऐसे सवाल कर बैठते, जिन से आमतौर पर आदमी का अकसर वास्ता पड़ता है, लेकिन आम आदमी का उस पर ध्यान नहीं जाता. और ऐसा भी नहीं कि जो सवाल वे कर रहे होते हैं, उस का जवाब वे न जानते हों. वे कोई सवाल उस का जवाब जानने के लिए नहीं, बल्कि उस की बखिया उधेड़ने के लिए करते हैं, यह मैं खूब जानता हूं.

मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा से आदमी के जीवनस्तर का पता चलता है.’’

‘‘मतलब, गरीबीरेखा से यह पता चलता है कि कौन गरीब है और कौन अमीर है.’’

मैं बोला, ‘‘हां, जो इस रेखा के इस पार है, वह अमीर है और जो उस पार है, वह गरीब है.’’

‘‘मतलब, गरीब को उस की गरीबी का और अमीर को उस की अमीरी का एहसास दिलाने वाली रेखा.’’

‘‘हां,’’ मैं थोड़ा हिचकिचा कर बोला, ‘‘आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं.’’

‘‘यानी, एक तरह से यह कहने वाली रेखा कि तू गरीब है. तू ये वाला चावल मत खा. ये वाले कपड़े मत पहन वगैरहवगैरह.’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा का यह मतलब निकालना मेरे हिसाब से ठीक नहीं होगा.’’

‘‘गरीब को उस की गरीबी का एहसास दिलाने के पीछे कोई और भी मकसद हो सकता है भला,’’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पहलू बदल कर कहा, ‘‘खैर, यह बताओ, यह रेखा खींची किस ने है, सरकार ने?’’

‘‘हां, और क्या, सरकार ने ही खींची है. और कौन खींच सकता है.’’

‘‘लेकिन सरकार को यह रेखा खींचने की जरूरत क्यों पड़ी भला?’’

‘‘सरकार गरीबों की चिंता करती है इसलिए. सरकार चाहती है कि गरीब भी सम्मानपूर्वक जिंदगी गुजारें. उन की जरूरतें पूरी हों. वे भूखे न रहें. गरीबों का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं बना रखी हैं.’’

‘‘तो ऊपर उठा उन का जीवनस्तर?’’

‘‘उठेगा,’’ मैं बोला, ‘‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है. लेकिन यह तय है कि इस से उन्हें उन की जरूरत की चीजें जरूर आसानी से मुहैया हो रही हैं.’’

‘‘गरीबों को उन की जरूरत की चीजें गरीबीरेखा खींचे बगैर भी तो मुहैया कराई जा सकती थीं?’’

उन के इस सवाल से मेरा दिमाग चकरा गया और मुझ से कोई जवाब देते नहीं बना. फिर भी मैं बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. ऐसा हो तो सकता था. फिर पता नहीं क्यों, गरीबीरेखा खींचने की जरूरत पड़ गई.’’

‘‘ऐसा तो नहीं कि अमीर लोग गरीबों का हक मार रहे थे, इसलिए यह रेखा खींचने की जरूरत पड़ी?’’

तभी गरमागरम पकौड़े से भरी ट्रे ले कर बेगम वहां आ गई. आते ही बोली, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप दोनों अपनी बहस को विराम दीजिए. पहले गरमागरमा पकौड़े खाइए, उस के बाद देशदुनिया की फिक्र करिए.’’

बेगम के वहां आ जाने से चाचा के मुंह से निकला अंतिम वाक्य आयागया हो गया. मैं और चाचाजी पकौड़े खाने में मसरूफ हो गए. पकौड़े गरम तो थे ही, स्वादिष्ठ भी थे.

4-6 पकौड़े खाने के बाद चाचाजी  ही बोले, गरीबीरेखा से अगर सचमुच अमीर लोगों को गरीबों का हक मारने का मौका नहीं मिल रहा है और गरीबों को उन की जरूरत की चीजें मुहैया हो रही हैं, तो क्यों ने ऐसी दोचार रेखाएं और खींच दी जाएं.’’

मैं ने एक पकौड़ा उठा कर मुंह में रखा और चाचाजी की तरफ देखने लगा. वे समझ गए कि मैं उन का आशय समझ नहीं पाया हूं. इसलिए उन्होंने खुद ही अपनी बात आगे बढ़ाई, बोले, ‘‘एक भ्रष्टाचारी रेखा हो. एक कमीनेपन की रेखा हो. एक चुनाव के दौरान झूठे वादे करने की रेखा हो…’’

उन्होंने एक और पकौड़ा उठाया और उसे मिर्र्च वाली चटनी में डुबोते हुए बोले, ‘‘भ्रष्टाचार, कमीनापन और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना मनुष्य के स्वभावगत गुण हैं. इन्हें पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता. चुनावी सीजन में जो भ्रष्टाचार खत्म करने और ब्लैकमनी वापस लाने के दावे करते थे, चुनाव जीतने के बाद वे खुद उस में रम जाते हैं. यहां तक कि अपने मूल काम को भी त्याग देते हैं, जिस का नुकसान सीधे गरीबों को होता है. इसलिए गरीबीरेखा की तरह कुछ और रेखाएं भी खींची जानी चाहिए.

‘‘भ्रष्टाचारी रेखा, भ्रष्टाचार करने वालों की लिमिट तय करेगी. तुम ने सुना होगा, यातायात विभाग के एक हैड कौंस्टेबल के पास से करोड़ों रुपए बरामद हुए थे. भ्रष्टाचारी रेखा खींच दी जाए तो भ्रष्टाचारी एक हद तक ही भ्रष्टाचार करेगा.

‘‘भ्रष्टाचार जब लाइन औफ कंट्रोल तक पहुंचेगा तो वह खुद ही हाथ जोड़ कर रकम लेने से मना कर देगा, कहेगा, ‘इस साल का मेरा भ्रष्टाचार का कोटा पूरा हो गया है, इसलिए अब नहीं. कम से कम इस साल तो नहीं. अगले साल देखेंगे.’

‘‘इसी तरह चुनावीरेखा चुनाव के दौरान झूठे वादों की लिमिट तय करेगी. चुनाव के दौरान उम्मीदवार यह देखेगा कि उस की पार्टी के नेता ने पिछली बार कौनकौन से वादे किए थे और उन में से कौनकौन से वादे पूरे नहीं हुए हैं. उस हिसाब से उम्मीदवार वादे करेगा, कहेगा, ‘पिछले चुनाव में मेरी पार्टी के नेता ने फलांफलां वादे किए थे जो पूरे नहीं हो पाए, इसलिए इस चुनाव में मैं कोई नया वादा नहीं करूंगा बल्कि पिछली बार किए गए वादों को पूरा करूंगा.’ इसी तरह कमीनीरेखा लोगों के कमीनेपन की लिमिट तय करेगी.’’

उन की इस राय के बाद मेरे पास बोलने को जैसे कुछ रह ही नहीं गया था. वे भी एकदम से खामोश हो गए थे. जैसे बोलने की उन की लिमिट पूरी हो गई हो. उसी समय बेगम भी वहां चाय ले कर पहुंच गई थी. तब तक लवी उन की गोद में ही सो गया था.

बेगम ने लवी को उन की गोद से उठाया और उसे ले कर दूसरे कमरे में चली गई. हम दोनों चुपचाप चाय सुड़कने लगे थे. चाय का घूंट भरते हुए बीचबीच में मैं उन की ओर कनखियों से देख लिया करता था, लेकिन वे निर्विकार भाव से चुप बैठे चाय सुड़क रहे थे.

उन के दिमाग की थाह पाना मुश्किल है. समझ में नहीं आता कि उन के दिमाग में क्या चल रहा होता है. एक दिन पूछ बैठे, ‘‘मुझे देख कर तुम्हारे मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग तुम्हारी कौम के लोगों का गला काटते हैं, उन के घर जलाते हैं, उन की संपत्ति लूटते हैं.’’

उन के इस अप्रत्याशित सवाल से मैं बौखला गया था, बोला, ‘‘यह कैसा सवाल है चाचाजी.’’

‘‘सवाल तो सवाल है बेटा. सवाल में कैसे और वैसे का सवाल क्यों?’’

‘‘तो एक सवाल मेरा भी है चाचाजी,’’ मैं बोला, ‘‘क्या आप के मन में कभी यह खयाल आया कि आप मुसलमान हैं और मैं हिंदू हूं. जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग भी आप की कौम के लोगों के साथ वही सब करते हैं जो आप की कौम के लोग हमारी कौम के साथ करते हैं. आप मांसभक्षी हैं और मैं शुद्ध शाकाहारी.’’

‘‘जवाब यह है बेटे कि यह खयाल हम दोनों के मन में नहीं आता, न आएगा.’’

‘‘फिर आप ने यह सवाल पूछा ही क्यों चाचाजी?’’

वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले, ‘‘दरअसल, हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे बेटा कि जब एक आम हिंदू और एक आम मुसलमान के मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि मैं हिंदू, तू मुसलमान या मैं मुसलमान तू हिंदू, जब आम दिनों में दोनों संगसंग व्यापार करते हैं, उठतेबैठते हैं, एकदूसरे के रस्मोरिवाज का हिस्सा बनते हैं तो आखिर दंगा होता ही क्यों है. और जब दंगा होता भी है तो इतना जंगलीपन कहां से पैदा हो जाता है कि दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. कहीं…’’ वे एक पल के लिए रुके, फिर बोले, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे बीच भी कोई रेखा खींच दी जाती हो, हिंदूरेखा या मुसलमानरेखा…’’

सांझ का भूला

सीता ने अपने नए फ्लैट का दरवाजा खोला. कुली ट्रक से सामान उतार कर सीता के निर्देश पर उन्हें यथास्थान रख गया. कुली के जाने के बाद सीता ने अपना रसोईघर काफी मेहनत से सजाया. सारा दिन घर में सामान को संवारने में ही निकल गया. शाम को सीता जब आराम से सोफे पर बैठी तो उसे अजीब सी खुशी महसूस हुई. बरसों की घुटन कम होती हुई सी लगी.

सीता को खुद के फैसले पर विश्वास नहीं हो रहा था. 50 वर्ष की उम्र में वह घर की देहरी पार कर अकेली निकल आई है. यह कैसे संभव हुआ? वैसे आचारशील परिवार की नवविवाहिता संयुक्त परिवार से अलग हो कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ले तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा चलन तो आजकल आम है. लेकिन घर की बुजुर्ग महिला गृह त्याग दे और अलग जीने लगे तो यह सामान्य बात नहीं है. सीता के दिमाग में सारी अप्रिय घटनाएं एक बार फिर घूमने लगीं.

सीता कर्नाटक संगीत के शिक्षक शिवरामकृष्णन की तीसरी बेटी थी. पिताजी अच्छे गायक थे, पर दुनियादारी नहीं जानते थे. अपने छोटे से गांव अरिमलम को छोड़ कर वे कहीं जाना नहीं चाहते थे. उन का गांव तिरुच्ची के पास ही था. गांव के परंपरावादी आचारशील परिवार, जहां कर्नाटक संगीत को महत्त्व दिया जाता था, शहर की ओर चले गए. गांव में कुल 3 मंदिर थे. आमंत्रण के उत्सवों और शादीब्याह में गाने का आमंत्रण शिवरामकृष्णन को मिलता था. उन के कुछ शिष्य घर आ कर संगीत सीखते थे. सीता की मां बीमार रहती थीं और सीता ही उन की देखभाल करती थी. पिताजी ने किसी तरह दोनों बहनों की शादी कर दी थी. एक छोटा भाई भी था, जो स्कूल में पढ़ रहा था.

सीता अपनी मां का गौर वर्ण और सुंदर नयननक्श ले कर आई थी. घने काले बाल, छरहरा बदन और शांत चेहरा बड़ा आकर्षक था. एक उत्सव में तिरुच्ची से आए रामकृष्णन के परिवार के लोगों ने सीता को देखा और उसी दिन शाम को रामकृष्णन ने अपने बेटे रविचंद्रन के साथ सीता की सगाई पक्की कर ली. सीता के पिता ने भी झटपट बेटी का ब्याह रचा दिया.

सीता का ससुराल जनधन से वैभवपूर्ण था. उस का पति कुशल बांसुरीवादक था. वह जब बांसुरीवादन का अभ्यास करता तो राह चलते लोग खड़े हो कर सुनने लगते थे, लेकिन सीता को कुछ ही समय में पता लगा कि उस का पति बुरी संगति के कारण शराबी बन गया है और अपनी इसी लत के कारण वह कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता.

कुल 4 वर्षों की गृहस्थी ही सीता की तकदीर में लिखी थी. रविचंद्रन फेफड़े के रोग का शिकार बन कर खांसते हुए सीता को छोड़ कर चल बसा. सासससुर पुत्र शोक से बुझ कर गांव चले गए. जेठ ने सीता को मायके जाने को कह दिया.

सीता अपने दोनों नन्हे पुत्रों को ले कर अपनी दीदी के यहां चेन्नई में रहने लगी. उस ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. दीदी के घर का पूरा काम अपने कंधे पर उठाए सीता गुस्सैल जीजा के क्रोध का सामना करती. उस ने किसी तरह संगीत में एम.ए. तक की शिक्षा पूरी की और शहर के प्रसिद्ध महिला कालिज में प्रवक्ता के पद पर काम करने लगी.

सीता के दोनों बेटे 2 अलग दिशाओं में प्रगति करने लगे. बड़ा बेटा जगन्नाथ पिता की तरह संगीतकार बना. वह फिल्मों में सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगा. अपनी संगीत टीम की एक विजातीय गायिका मोनिका को जगन्नाथ घर ले कर आया तो सीता ने पूरी बिरादरी का विरोध सहन करते हुए जगन्नाथ और मोनिका का विवाह रचाया था. दूसरा बेटा बालकृष्णन ग्रेनेट व्यापार में लग गया. अपनी कंपनी के मालिक ईश्वरन की पुत्री के साथ उस का विवाह हो गया.

सीता ने दोनों बेटों का पालनपोषण काफी मेहनत से किया था. वह उन पर कड़ा अनुशासन रखती थी. मां का संघर्ष, परिवार में मिले कटु अनुभवों ने दोनों बेटों की हंसी छीन ली थी. विवाह के बाद ही दोनों बेटे हंसनेबोलने लगे थे. सैरसपाटे पर जाना, दोस्तों को घर बुलाना, होटल में खाना दोनों को ही अच्छा लगने लगा. कुछ समय तक सीता का घर खुशहाल रहा, लेकिन सीता के जीवन में फिर आंधी आई.

भाग्यलक्ष्मी के पिता काफी संपन्न थे. इसलिए उस के पास ढेर सारे गहने और कांचीपुरम की कीमती रेशमी साडि़यां थीं. उस पर हर 2-3 दिन के बाद वह मायके जाती और वापसी पर फलमिठाइयां भरभर कर लाती थी. मोनिका यह सब देख कर जलभुन जाती थी. सीता दोनों बहुओं को किसी तरह संभालती थी. दोनों के मनमुटाव के बीच फंस कर घर का सारा काम सीता को ही करना पड़ता था.

पोंगल के त्योहार के समय बहुओं को उन के मायके से एक सप्ताह पहले ही नेग आ जाता. भाग्यलक्ष्मी के मातापिता अपनी बेटी, दामाद और सास के कपड़े आदि ले कर आ गए. भाग्यलक्ष्मी काफी खुश थी. पोंगल के पर्व के दिन सीता ने बहुओं को मेहंदी रचाने के लिए बुलाया. भाग्यलक्ष्मी ने मेहंदी रचा ली तो मोनिका का क्रोध फूट पड़ा, ‘बड़ी बहू को पहले न बुला कर छोटी बहू को पहले मेहंदी लगा दी, मुझे नीचा दिखाना चाहती हैं न आप?’

मोनिका के कठोर व्यवहार के कारण घर में कलह शुरू हो गई. बालकृष्णन का व्यापार भाग्यलक्ष्मी के परिवार से जुड़ा था. वह पत्नी का रोनाधोना देख नहीं पा रहा था. वही हुआ जिस का सीता को डर था. बालकृष्णन अपने ससुर के यहां रहने चला गया. कुछ समय तक वह सीता से मिलने आताजाता रहा पर धीरेधीरे उस का आना कम हो गया.

मोनिका अपने पति के साथ संगीत के कार्यक्रमों में जुड़ी रहती थी. घर के कामों में उस की कभी रुचि रही ही नहीं. यहां तक कि सवेरे स्नान कर रसोईघर में आने के रिवाज का भी वह पालन नहीं करती थी.

मोनिका को जाने क्यों कभी सीता के साथ लगाव रहा ही नहीं. सीता बहू को प्रसन्न रखने के लिए काफी प्रयास करती थी. इस के बाद भी मोनिका का कटु व्यवहार बढ़ता ही जाता था. यहां तक कि वह अपने बेटे मोहन को उस की दादी सीता से हमेशा दूर रखने का यत्न करती थी. सीता अंदर से टूटती रही, अकेले में रोती रही और अंत में अलग फ्लैट ले कर रहने का कष्टपूर्ण निर्णय उस ने लिया था.

आदतवश सीता सुबह 4 बजे ही जग गई. आंख खुलते ही घर की नीरवता का भान हुआ तो झट से अपना मन घर के कामकाज में लगा लिया. रसोईघर में खड़ी सीता फिर एक बार चौंकी. भरेपूरे मायके और ससुराल में हमेशा वह 5-7 लोगों के लिए रसोई बनाती थी. आज पहली बार उसे सिर्फ अपने लिए भोजन तैयार करना है. लंबी सांस लेती हुई वह काम में जुटी रही.

मन में खयाल आया कि बहू मोनिका नन्हे चंचल मोहन को संभालते हुए नाश्ता और भोजन अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? जगन्नाथ को प्रतिदिन नाश्ता में इडलीडोसा ही चाहिए. इडली बिलकुल नरम हो, सांभर के साथ नारियल की चटनी भी हो, यह जरूरी है. दोपहर के भोजन में भी उसे सांभर, पोरियल (भुनी सब्जी), कूट्टू (तरी वाली सब्जी), दही, आचार के साथ चावल चाहिए. इतना कुछ मोनिका अकेले कैसे तैयार कर पाएगी?

सीता ने अपना लंच बौक्स बैग में रख लिया. उसे अकेले बैठ कर नाश्ता करने की इच्छा नहीं हुई. केवल कौफी पी कर वह कालिज चल पड़ी. कालिज में उसे अपने इस नए घर का पता कार्यालय में नोट कराना था. मैनेजर रामलक्ष्मी ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘आप का अपना मकान टी. नगर में है न? फिर आप उतने अच्छे इलाके को छोड़ कर यहां विरुगंबाकम में क्यों आ गईं?’’

सीता फीकी हंसी हंस कर बात टाल गई. कालिज में कुछ ही समय में बात फैल गई कि सीता बेटेबहू से लड़ कर अलग रहने लगी है. ‘जाने इस उम्र में भी लोग कैसे परिपक्व नहीं होते, छोटों से लड़तेझगड़ते हैं. जब बड़ेबूढ़े ही घर छोड़ कर भागने लगेंगे तो समाज का क्या हाल होगा?’ इस तरह के कई ताने सुन सीता खून का घूंट पी कर रह जाती थी.

सीता को अकेला, स्वतंत्र जीवन अच्छा भी लग रहा था. रोजरोज की खींचातानी, तूतू, मैंमैं से तो छुटकारा मिल गया. घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह कितना काम करती थी फिर भी मोनिका ताने देती रहती थी. सीता ने अपने वैधव्य का सारा दुख अपने दोनों बेटों के चेहरों को निहारते हुए ही झेला था पर आज स्थिति बदल गई है. आज बेटे भी मां को भार समझने लगे हैं.

बहुओं की हर बात मानने वाले दोनों बेटे अपनी मां के दिल में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहते हैं? बहुओं का अभद्र व्यवहार सहन करते हुए क्या सीता को ही घुटघुट कर जीना होगा. सीता ने जब परिवार से अलग रहने का निर्णय लिया तब दोनों बेटे चुप ही रहे थे. सीता की आंखों में आंसू भर आए.

सीता के पति रविचंद्रन का श्राद्ध था.

सीता अपने बेटेबहुओं व पोतों के साथ गांव में ही जा कर श्राद्ध कार्य संपन्न कराती थी. गांव में ही सीता के सासससुर, बूआ और अन्य परिजन रहते हैं. जगन्नाथ ही सब के लिए टिकट लिया करता था. गांव में पत्र भेज कर पंडितजी और ब्राह्मणों से सारी तैयारी करवा कर रखता था. श्राद्ध में कुल 8 दिन बाकी हैं और अब तक सीता को किसी ने कोई खबर नहीं दी. क्या दोनों बेटे उसे बिना बुलाए ही गांव चले जाएंगे? सीता अकेले गांव पहुंचेगी तो बिरादरी में होहल्ला हो जाएगा. अभी तक तो उस के अलग रहने की बात शहर तक ही है. सीता का मन घबराने लगा. अपने अलग फ्लैट में रहने की बात वह अपने सासससुर से क्या मुंह ले कर कह पाएगी.

उस के वयोवृद्ध सासससुर आज भी संयुक्त परिवार में ही जी रहे हैं. ससुर की विधवा बहन, विधुर भाई, भाई के 2 लड़के, दूर रिश्ते की एक अनाथ पोती सब परिवार में साथ रहते हैं. उन्होंने सीता को भी गांव में आ कर रहने को कहा था, पर वह ही नहीं आई थी. क्या इतने लोगों के बीच मनमुटाव नहीं रहता होगा? क्या आर्थिक परेशानियां नहीं होंगी? पता नहीं ससुरजी कैसे इस उम्र में सबकुछ संभालते हैं?

सीता ने मन मार कर जगन्नाथ को फोन किया. मोनिका ने ही फोन उठाया. जगन्नाथ किसी फिल्म की रिकार्डिंग के सिलसिले में सिंगापुर गया हुआ था. सीता गांव जाने के बारे में मोनिका से कुछ भी पूछ नहीं पाई. बालकृष्णन भी बंगलुरु गया हुआ था. भाग्यलक्ष्मी ने भी गांव जाने के बारे में कुछ नहीं कहा.

सीता को पहली बार घर त्यागने का दर्द महसूस हुआ. क्या करे वह? टे्रन से अपने अकेले का आरक्षण करा ले? पर यह भी तो पता नहीं कि लड़कों ने गांव में श्राद्ध करने की व्यवस्था की है या नहीं? उसे अपने दोनों बेटों पर क्रोध आ रहा था. क्या मां से बातचीत नहीं कर सकते हैं? लेकिन सीता अपने बेटों से न्यायपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकती है? उस ने स्वयं परिवार त्याग कर बेटों से दूरी बना ली है. अब कौन किसे दोष दे? सीता ने अंत में गांव जाने के लिए अपना टिकट बनवा लिया और कालिज में भी छुट्टी की अर्जी दे दी.

सीता विचारों के झंझावात से घिरी गांव पहुंची थी. उस के पहुंचने के बाद ही जगन्नाथ, मोनिका, बालकृष्णन, भाग्यलक्ष्मी, मोहन और कुमार पहुंचे. सीता ने जैसेतैसे बात संभाल ली. श्राद्ध अच्छी तरह संपन्न हुआ. सीता की वृद्ध सास और बूआ उस के परिवार के बीच में अलगाव को देख रही थीं. मोहन अपनी दादी सीता के गले लग कर बारबार पूछ रहा था, ‘‘ ‘पाटी’ (दादी), आप घर कब आएंगी? आप हम से झगड़ कर चली गई हैं न? मैं भी अम्मां से झगड़ने पर घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं बोलते, जाओ, कुमार के साथ खेलो,’’ सीता ने मुश्किल से उसे चुप कराया.

शहर वापसी के लिए जब सब लोग तैयार हो गए तब सीता के ससुर ने अपने दोनों पोतों को बुला कर पूछा, ‘‘तुम दोनों अपनी मां का ध्यान रखते हो कि नहीं? तुम्हारी मां काफी दुबली और कमजोर लगती है. जीवन में बहुत दुख पाया है उस ने. अब कम से कम उसे सुखी रखो.’’

जगन्नाथ और बालकृष्णन चुपचाप दादा की बात सुनते रहे. उन्हें साष्टांग प्रणाम कर सब लोग चेन्नई लौट गए थे.

गांव से वापस आने के बाद सीता और भी अधिक बुझ गई थी. कितने महीनों बाद उस ने अपने दोनों बेटों का मुंह देखा था. दोनों प्यारे पोतों का आलिंगन उसे गद्गद कर गया था. बहू मोनिका भी काम के बोझ से कुछ थकीथकी लग रही थी पर उस की तीखी जबान तो पहले जैसे ही चलती रही थी. जगन्नाथ काफी खांस रहा था. वह कुछ बीमार रहा होगा.

बालकृष्णन अपने चंचल बेटे कुमार के पीछे दौड़तेदौड़ते ऊब रहा था. भाग्यलक्ष्मी बालकृष्णन का ज्यादा ध्यान नहीं रख रही थी. खैर, मुझे क्या? चलाएं अपनीअपनी गृहस्थी. मेरी जरूरत तो किसी को भी नहीं है. सब अपना घर संभाल रहे हैं. मैं भी अपना जीवन किसी तरह जी लूंगी.

सीता के कालिज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था. अध्यापकगण अपने परिवार के साथ आए थे. अपने साथियों को परिवार के साथ हंसताबोलता देख कर सीता के मन में कसैलापन भर गया. उसे अपने परिवार की याद सताने लगी. हर वर्ष उस के दोनों बेटे इस कार्यक्रम में आते थे. सीता इस कार्यक्रम में गीत गाती थी. मां के सुरीले कंठ से गीत की स्वरलहरी सुन दोनों बेटे काफी खुश होते थे. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में अकेली बैठी सीता का मन व्यथित था.

सीता को इधर कुछ दिनों से अपनी एकांत जिंदगी नीरस लगने लगी थी. न कोई तीजत्योहार ढंग से मना पाती और न ही किसी सांस्कृतिक आयोजन में जा पाती. कहीं चली भी गई तो लोग उस से उस के परिवार के बारे में प्रश्न अवश्य पूछते थे. पड़ोसी भी उस से दूरी बनाए रखते थे.

एक दिन सीता ने अपने 2 पड़ोसियों की बातें सुन ली थीं :

‘‘मीना, तुम अपने यहां मत बुलाना. हमारे सुखी परिवार को उस की नजर लग जाएगी. पता नहीं, इतने बड़े फ्लैट में वह अकेली कैसे रहती है. जरूर इस में कोई खोट होगा, तभी तो इसे पूछने कोई नहीं आता है.’’

सीता यह संवाद सुन कर पसीना- पसीना हो गई थी.

दरवाजे की घंटी लगातार बज रही थी. सीता हड़बड़ा कर उठी. रात भर नींद नहीं आने के कारण शायद भोर में आंख लग गई. सीता की नौकरानी सुब्बम्मा आ गई थी. सुब्बम्मा जल्दीजल्दी सफाई का काम करने लगी. सीता ने दोनों के लिए कौफी बनाई.

‘‘अम्मां, मुझे बेटे के लिए एक पुरानी साइकिल लेनी है. बेचारा हर दिन बस से आताजाता है. बस में बड़ी भीड़ रहती है. तुम मुझे 600 रुपए उधार दे दो. मैं हर महीने 100-100 रुपए कर के चुका दूंगी,’’ सुब्बम्मा बरतन मलतेमलते कह रही थी.

‘‘लेकिन सुब्बम्मा, तुम्हारा बेटा तो तुम्हारी बात नहीं सुनता है. तुम्हें रोज 10 गालियां देता है. कमाई का एक पैसा भी तुम्हें नहीं देता…रोज तुम उस की सैकड़ों शिकायतें करती हो और अब उस के लिए कर्ज लेना चाहती हो,’’ सीता कौफी पीते हुए आश्चर्य से पूछ रही थी.

‘‘अरे, अम्मां, अपनों से ही तो हम कहासुनी कर सकते हैं. बेचारा बदनसीब मेरी कोख में जन्मा इसीलिए तो गरीबी का सारा दुख झेल रहा है. अच्छा खानाकपड़ा कुछ भी तो मैं उसे नहीं दे पाती हूं. बेटे के आराम के लिए थोड़ा कर्ज ले कर उसे साइकिल दे सकूं तो मुझे संतोष होगा. फिर मांबेटे में क्या दुश्मनी टिकती है भला…अब आप खुद का ही हाल देखो न. इन 7-8 महीनों में ही आप कितनी कमजोर हो गई हैं. अकेले में आराम तो खूब मिलता है पर मन को शांति कहां मिलती है?’’ सुब्बम्मा कपड़ा निचोड़ती हुई बोले जा रही थी.

‘‘सुब्बम्मा, तुम आजकल बहुत बकबक करने लगी हो. चुपचाप अपना काम करो,’’ सीता को कड़वा सच शायद चुभ रहा था.

‘‘अम्मां, कुछ गलत बोल गई हूं तो माफ करना. मैं आप का दुख देख रही हूं. इसी कारण कुछ मुंह से निकल गया. अम्मां,  मुझे रुपए कलपरसों देंगी तो अच्छा रहेगा. एक पुरानी साइकिल मैं ने देख रखी है. दुकानदार रुपए के लिए जल्दी कर रहा है,’’ सुब्बम्मा ने अनुनय भरे स्वर में कहा.

‘‘सुब्बम्मा, रुपए आज ही ले जाना. चलो, जल्दी काम पूरा करो. देर हो रही है,’’ सीता रसोईघर में चली गई.

सीता का मन विचलित होने लगा. ‘ठीक ही तो कहती है सुब्बम्मा. जगन्नाथ और बालकृष्णन को देखे बिना उसे कितना दुख होता है. पासपड़ोस में बेटेबहू की निंदा भी तो होती होगी. सास को घर से निकालने का दोष बहुओं पर ही तो लगाया जाता है. अपने पोतों से दूर रहना कितना दर्दनाक है. कुमार और मोहन दादी से बहुत प्यार करते हैं. आखिर परिवार से दूर रह कर अकेले जीवन बिताने में उसे क्या सुख मिल रहा है?

‘सुब्बम्मा जैसी साधारण महिला भी परिवार के बंधनों का मूल्य जानती है. परिवार से अलग होना क्या कर्तव्यच्युत होना नहीं है? परिवार में यदि हर सदस्य अपने अहं को ही महत्त्व देता रहे तो सहयोगपूर्ण वातावरण कैसे बनेगा?

‘बहू उस के वंश को आगे ले जाने वाली वाहिका है. बहू का व्यवहार चाहे जैसा हो, परिवार को विघटन से बचाने के लिए उसे सहन करना ही होगा. उस की भी मां, दादी, सास, सब ने परिवार के लिए जाने कितने समझौते किए हैं. मां को घर से निकलते देख कर जगन्नाथ को कितना दुख हुआ होगा?’ सीता रात भर करवट बदलती रही. सुबह होते ही उस ने दृढ़ निश्चय के साथ जगन्नाथ को फोन लगाया और अपने वापस घर आने की सूचना दी. सीता को मालूम था कि उसे बहू मोनिका के सौ ताने सुनने होंगे. अपने पुत्र जगन्नाथ का मौन क्रोध सहन करना पड़ेगा. बालकृष्णन और भाग्यलक्ष्मी भी उसे ऊंचनीच कहेंगे. सीता ने मन ही मन कहा, ‘सांझ का भूला सुबह को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता.’

जीत गया जंगवीर

‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा.

देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.

जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं.

वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’

‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना.’

सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझ से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.

जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.

एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’

मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’

वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता.

एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.

मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मुझे एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’

‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.

‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी.

जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझ को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.

मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है.

जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मुझे और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.

सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी.

एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.

जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’

कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझ में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मुझे चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’

यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था.

मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.

जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते.

उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उस ने मुझे बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.

मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’

तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.

फलों में श्रेष्ठ राशिफल

फलों का राजा कभी आम था, लेकिन आज के भौतिकवादी युग में आम का दर्जा राजा का न रह कर मात्र आम का रह गया है. अब फलों का राजा राशिफल हो गया है. लोगों को इस फल में बहुत स्वाद आता है. इस में रस बहुत है लेकिन इस का जूस नहीं निकाला जा सकता है. सुबह को ज्यादातर लोग अखबार में सब से पहले अपना राशिफल खाने की कोशिश करते हैं तब आगे देश, दुनिया की खबरों पर नजर डालते हैं.

दूसरों का भविष्य अच्छा बताने से अपना भविष्य अच्छा हो जाता है. सामने वाले का हाथ देख कर बता दो कि तुम्हें बहुत जल्दी गड़ा हुआ धन मिलने वाला है और अपनी दक्षिणा में 21 रुपए झटक लो. अब गड़ा हुआ धन पाने की खुशी में यह सोचने का टाइम किसी के पास नहीं है कि धन मिलने के नाम पर उलटे 21 रुपए आप की जेब से चले गए. फिर अगर भविष्य बताने वाले को गड़े हुए धन की हकीकत में जानकारी होती तो वह उस को खुद ही क्यों न निकाल लेता.

ज्यादातर अखबारों और पत्रिकाओं से किसी न किसी कथित ज्योतिषी का अनुबंध है. वे हर राशि वाले को शुभअशुभ बताते हैं. वे ही निर्धारित करते हैं कि कौन सा रंग पहनो, अपने नाम की स्पेलिंग में क्या बदलाव करो जिस से कि आप की तकदीर चमक जाए. स्पेलिंग न हुई कोई जूता चमकाने वाली पौलिश हो गई.

अकसर अखबार वालों का जब ज्योतिषाचार्य से अनुबंध टूट जाता है या किसी कारण से राशिफल नहीं मिल पाता है तो वे पिछले 3-4 अंकों की राशियों के भविष्यफल में थोड़ा फेरबदल कर के छापते रहते हैं. पढ़ने वाले रसिक पाठक उन में विशेषताएं ढूंढ़ ही लेते हैं.

हम टेलीविजन पर हवाई जहाज, रेल, बसों की दुर्घटनाओं के समाचार देखते हैं. दूसरे दिन जब अखबार में मृतकों, घायलोें के नाम पढ़ते हैं तो वे सब अलगअलग राशियों वाले होते हैं. अगर हम पिछले दिन का अखबार उठा कर देखें तो एकाध राशि में जरूर लिखा होगा, ‘यात्रा शुभ होगी.’

ज्योतिष के हिसाब से मरने वाले सभी एक ही राशि के होने चाहिए और इसी प्रकार घायल भी एक ही राशि के हों. जब अलगअलग राशि के मर रहे हैं तो फिर राशियों और राशिफल का क्या औचित्य रह जाता है?

हिंदुस्तान में हर तीसरा आदमी ज्योतिषी है. वह आप को अपनी राय जरूर पेश कर देगा कि मंगल को पूरब की यात्रा मत करो और बृहस्पतिवार को पीला वस्त्र धारण किया करो. किसी ब्राह्मण को पीली मिठाई दान कर दो. अब उस के लिए कम से कम बेसन के लड्डू या सोहनपापड़ी का इंतजाम तो हो ही जाएगा.

अगर आप ज्योतिषी बन कर अपनी दुकान चलाना चाहते हैं, सामने वाले को भविष्य के सपने दिखा कर अपना खुद का भविष्य संवारना चाहते हैं तो आप भी मेरी तरह से भविष्यफल की उलटवांसियां लिखना शुरू कर दें. सड़क किनारे बैठ जाएं. रोज जितना दफ्तर में कलम घिस कर कमाते हैं, उस से ज्यादा की दक्षिणा पाएंगे. एक बार आजमा कर जरूर देखें क्योंकि हिंदुस्तान सांपसपेरों के साथसाथ अंधविश्वासियों का भी देश है.

मीन

इस राशि वाले मीन यानी मछली का सेवन करें. मछली की आंख पर नहीं बल्कि पूरी मछली पर नजर रखें. आप शार्क स्वभाव वाले हैं. मीन राशि होने के कारण दूसरे के काम में मीनमेख निकालें. 1, 11, 21 तारीख आप के लिए शुभ हैं, इन में कोई न कोई बड़ी मछली जरूर फंसेगी.

कुंभ

आप का कुंभ यानी घड़ा (पाप का) भर चुका है और अब बहुत जल्दी ही फूटने वाला है. आप ध्यान करें कि आप एक बार कुंभ के मेले में बिछड़ गए थे. यह बात फिल्मी दुनिया वालों को पता लग गई थी तो उन्होंने आप की ही ‘मिलेबिछड़े’ थीम पर कई फिल्में भी बना डालीं. पिछले जन्म में आप कुम्हार थे.

तुला

आप न्यायप्रिय हैं. सभी न्यायाधीश इसी राशि के होते हैं, क्योंकि वे कोर्ट में अपनी डायस पर तुला यानी तराजू का स्टेच्यू जरूर रखते हैं. अब इलेक्ट्रौनिक्स तराजू आ गए हैं, सो आप के भाव बाजार में गिर सकते हैं. आप खुद सिक्कों का इंतजाम करें और किसी  संस्था से अपने को तराजू में तुलवा लें, इस से आप की लोकप्रियता बढ़ेगी. पिछले जन्म में आप व्यापारी (बनिया) थे.

कन्या

भारत की सीमा कश्मीर से कन्याकुमारी तक है. चूंकि आप के विवाह का शीघ्र योग है इसलिए आप विवाह का प्रयास करें तो कन्या भारतवर्ष की मिल सकती है और अगर आप स्वयं कन्या हैं तो बौलीवुड की फिल्मों में विषकन्या का रोल पा सकती हैं. आप के लक्षणों को देख कर आप के पति द्वारा आत्महत्या किए जाने का प्रबल योग है.

सिंह

आप गलतफहमी में रहेंगे कि आप किंग हैं. जब से अक्षय कुमार की ‘सिंह इज किंग’ रिलीज हुई है तब से हर सिंह राशि वाला अपनेआप को किंग समझ रहा है. अब लोकतंत्र में राजाओं का खेल खत्म हो चुका है, सो आप शिकार के लिए जंगल की ओर निकल जाएं. हां, जाते समय चिलीचिकन साथ में जरूर लेते जाएं, क्योंकि आप मुरगे का भी शिकार नहीं कर पाएंगे. अब मुरगे शिकार से नहीं बल्कि होटल के वेटर को आर्डर देने पर मिलते हैं.

मिथुन

मिथुन दा का समय जा चुका है. इस राशि वाले मिथुन चक्रवर्ती की पुरानी फिल्मों की पायरेटिड सीडी ला कर सफेद वस्त्र धारण कर, स्नान कर के 7 बार देखें तो आप को संसार में दुख दिखाई नहीं देगा क्योंकि आप की आंखों की ज्योति चली जाएगी. मिथुन राशि वाले अपने बाल बढ़ा लें तो आर्थिक संपन्नता आएगी क्योंकि नाई को पैसे नहीं देने पड़ेंगे न.

धनु

धनुषबाण बीते दिनों की बात हुई, अब ए.के.-47 का समय आ चुका है. धनु राशि वाले नौकरी या व्यापार करेंगे. आप नीलम, पन्ना, पुखराज धारण करें क्योंकि मेरे छोटे भाई की रत्नों की दुकान है, उस का भी धंधा चल जाएगा. आप किसी व्यंग्य लेखक को 501 रुपए का दान करें. सुझाव देने वाला भी व्यंग्य लेखक है, यह याद रखेंगे तो आप को इस महान कार्य के लिए भटकना भी नहीं पड़ेगा.

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व्यंग्य : क्या भभूत से दामाद जी को संतान की प्राप्ति हुई

भभूत ने सासूजी को ठीक कर दिया तो संतान की चाह में दामादजी, पत्नी के संग भभूत वाले बाबा के दर्शन को आतुर दिखे. सुबह उठे तो घर पर ही बाबा के दर्शन हो गए.

जैसे तितली का फूल से, सावन का पानी से, नेता का वोट से, पुजारी का मंदिर से रिश्ता होता है उसी तरह मेरी सास का रिश्ता उन की इकलौती बेटी से है. मेरी शादी के साथ वे भी अपनी बेटी के साथ हमारे पास आ गईं. हम ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन को इसलिए स्वीकार कर लिया कि पीला पत्ता आज नहीं तो कल तो पेड़ से टूटेगा ही.

लेकिन पेड़ ही (यानी हम) पीले पड़ गए मगर पत्ता नहीं टूटा. मरता क्या न करता. उन्हें हम ने स्वीकार कर लिया वरना कौन बीवी की नाराजगी झेलता. पिछले 7-8 महीने से देख रहा था कि अपनी पत्नी को हम जो रुपए खर्च के लिए देते थे वे बचते नहीं थे. हम ने कारण जा?नने के लिए डरतेडरते पत्नी से पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आजकल मम्मी की तबीयत खराब चल रही है, इसी कारण डाक्टर को हर माह रुपया देना पड़ रहा है.’’

हम चुप हो गए. कुछ कह कर मरना थोड़े ही था लेकिन आखिर कब तक हम ओवरबजट होते?

एक रविवार हम घर पर बैठ कर टेलीविजन देख रहे थे कि विज्ञापन बे्रक आते ही हमारी पत्नी ने टेलीविजन बंद कर के हमारे सामने अखबार का विज्ञापन खोल कर रख दिया.

‘‘क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘पढ़ो तो.’’

हम ने पढ़ना प्रारंभ किया. लिखा था, ‘शहर में कोई भभूत वाले बाबा आए हुए हैं जो भभूत दे कर पुराने रोगों को ठीक कर देते हैं.’ हम ने पढ़ कर अखबार एक ओर रख दिया और आशा भरी नजरों से देखती पत्नी से कहा, ‘‘यह विज्ञापन हमारे किस काम का है?’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं यह विज्ञापन आप को थोड़े ही जाने के लिए पढ़वा रही थी?’’

‘‘फिर?’’ हम ने कुत्ते की तरह सतर्क होते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी मम्मी के लिए,’’ हिनहिनाती पत्नी ने जवाब दिया.

‘‘ओह, क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन एक बात है…’’

‘‘क्या बात है?’’ बीच में बात को रोकते हुए कहा.

‘‘कालोनी की एकदो महिलाएं इलाज के लिए गई थीं तो बाबा एवं बाबी ने उन्हें…’’

‘‘बाबा… बाबी…यानी, मैं कुछ समझा नहीं?’’ हम ने घनचक्कर की तरह प्रश्न किया.

‘‘अजी, मास्टर की घरवाली मास्टरनी, डाक्टर की बीवी डाक्टरनी तो बाबा की बीवी बाबी…’’ पत्नी ने अपने सामान्य ज्ञान को हमारे दिमाग में डालते हुए कहा.

हो…हो…कर के हम हंस दिए, फिर हम ने प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बाबा व बाबी मिल कर इलाज करते हैं?’’

‘‘जी हां, कालोनी की कुछ महिलाएं उन के पास गई थीं. लौट कर उन्होंने बताया कि बाबा का बड़ा आधुनिक इलाज है.’’

‘‘यानी?’’

‘‘किसी को भभूत देने के पहले वे उस की ब्लड रिपोर्ट, ब्लडप्रेशर, पेशाब की जांच देख लेते हैं फिर भभूत देते हैं,’’ पत्नी ने हमें बताया तो विश्वास हो गया कि ये निश्चित रूप से वैज्ञानिक आधार वाले बाबाबाबी हैं.

‘‘तो हमें क्या करना होगा?’’

‘‘जी, करना क्या है, मम्मीजी के सारे टेस्ट करवा कर ही हम भभूत लेने चलते हैं,’’ पत्नीजी ने सलाह देते हुए कहा.

‘‘ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा,’’ हम ने कहा और टेलीविजन चालू कर के धारावाहिक देखने लगे.

अगले दिन पत्नी हम से 1 हजार रुपए ले कर अपनी मम्मी के पूरे टेस्ट करवा कर शाम को लौटी. हम से शाम को कहा गया कि अगले दिन की छुट्टी ले लूं ताकि मम्मीजी को भभूत वाले बाबाजी के पास ले जाया जा सके. मन मार कर हम ने कार्यालय से छुट्टी ली और किराए की कार ले कर पूरे खानदान के साथ भभूत वाले बाबा के पास जा पहुंचे. वहां काफी भीड़ लगी थी.

हम ने दान की रसीद कटवाई, जो 501 रुपए की काटी गई थी. हम तीनों प्राणियों का नंबर दोपहर तक आया. अंदर गए तो चेंबर में नीला प्रकाश फैला था. विशेष कुरसी पर बाबाजी बैठे थे. उन के दाईं ओर कुरसी पर मैडम बाबी बैठी थीं. हमारी सास ने औंधे लेट कर उन के चरण स्पर्श किए. बाबाजी के सामने एक भट्ठी जल रही थी. उस ने हमारी सास से आगे बढ़ने को कहा और बोला, ‘‘यूरिन, ब्लड टेस्ट होगा.’’

पत्नीजी मेंढकी की तरह उचक गईं और कहने लगीं, ‘‘हम करवा कर लाए हैं.’’

‘‘उधर दे दो,’’ नाराजगी से बाबा ने देखते हुए कहा.

ब्लड, यूरिन रिपोर्ट मैडम बाबी को दी तो उन्होंने रिपोर्ट देखी, गोलगोल घुमाई और मेरी सास के हाथों में दे दी. बारबार मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि बाबा को कहीं देखा है लेकिन वह शायद मेरा भ्रम ही था.

बाबाजी ने सासूजी को पास बुलाया. जाने कितने राख के छोटेछोटे ढेर उन के पास लगे थे. 1 मिनट के लिए प्रकाश बंद हुआ और संगीत गूंज उठा. मेरा दिल धकधक करने लगा था. मैं ने पत्नी का हाथ पकड़ लिया. 1 मिनट बाद रोशनी हुई तो बाबा ने राख में से एक मुट्ठी राख उठा कर कहा, ‘‘इस भभूत से 50 पुडि़या बना लेना और सुबह, दोपहर, शाम श्रद्धा के साथ बाबा कंकड़ेश्वर महाराज की जय बोल कर खा लेना और 10 दिन बाद फिर ब्लडशुगर, यूरिन की जांच यहां से करवा कर लाना.’’

इतना कह कर बाबा ने एक लैबोरेटरी का कार्ड थमा दिया. हम बाहर आए. सुबह ही हमारी सास ने श्रद्धा के साथ कंकड़ेश्वर महाराज की जय कह कर भभूत को फांक लिया. दोपहर में दूसरी बार, जब शाम को हम कार्यालय से लौटे तो हमारी पत्नीजी हम से आ कर लिपट गईं और बोलीं, ‘‘मम्मीजी को बहुत फायदा हुआ है.’’

‘‘सच?’’

‘‘वे अब अच्छे से चलनेफिरने लगी हैं, जय हो बाबा कंकडे़श्वर की,’’ पत्नी ने श्रद्धा के साथ कहा.

हमें भी बड़ा आश्चर्य हुआ. होता होगा चमत्कार. हम ने भी मन ही मन श्रद्धा के साथ विचार किया. पत्नी ने सिक्सर मारते हुए हमारे कानों में धीरे से कहा, ‘‘सुनो, नाराज न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘हमारी शादी के 2 साल हो गए हैं. एक पुत्र के लिए हम भी भभूत मांग लें,’’ पत्नी ने शरमातेबलखाते हुए कहा.

‘‘क्या भभूत खाने से बच्चा पैदा हो सकता है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘शायद कोई चमत्कार हो जाए,’’ पत्नी ने पूरी श्रद्धा के साथ कहा.

मैं बिना कुछ कहे घर के अंदर चला आया.

सच भी था. मेरी सास की चाल बदल गई थी. उन की गठिया की बीमारी मानो उड़न छू हो गई थी. मेरे दिल ने भी कहा, ‘क्यों न मैं भी 2-2 किलो राख (भभूत) खा कर शरीर को ठीक कर लूं.’

रात को बिस्तर पर सोया तो फिर भभूत वाले बाबा का चेहरा आंखों के सामने डोल गया. कहां देखा है? लेकिन याद नहीं आया. हम ने मन ही मन विचार किया कि कल, परसों छुट्टी ले कर हम भी भभूत ले आएंगे. पत्नी को भी यह खुशखबरी हम ने दे दी थी. वे?भी सुंदर सपने देखते हुए खर्राटे भरने लगीं.

सुबह हम उठे. हम ने चाय पी और जा कर समाचारपत्र उठाया. अखबार खोलते ही हम चौंक गए, ‘भभूत वाले बाबा गिरफ्तार’ हेडिंग पढ़ते ही घबरा गए कि आखिर क्या बात हो गई? समाचार विस्तार से लिखा था कि भभूत वाला चमत्कारी बाबा किसी कसबे का झोलाछाप डाक्टर था जिस की प्रैक्टिस नहीं चलती थी, जिस के चलते उस ने शहर बदल लिया और बाबा बन गया. ब्लड, यूरिन की रिपोर्ट देख कर भभूत में दवा मिला कर दे देता था जिस से पीडि़त को लाभ मिलता था.

पिछले दिनों एक ब्लडशुगर के मरीज को उस ने शुगर कम करने की दवा भभूत में मिला कर दे दी. ओवरडोज होने से मरीज सोया का सोया ही रह गया. शिकायत करने पर पुलिस ने भभूत वाले बाबा को गिरफ्तार कर लिया. लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई है. अंत में लिखा था, ‘किसी भी तरह की कोई भभूत का सेवन न करें, उस में स्टेराइड मिला होने से तत्काल कुछ लाभ दिखलाई देता है, लेकिन बाद में बीमारी स्थायी हो जाती है.’ एक ओर बाबा का फोटो छपा था. अचानक हमारी याददाश्त का बल्ब भी जल गया. अरे, यह तो हमारे गांव के पास का व्यक्ति है, जो एक कुशल डाक्टर के यहां पट्टी बांधने का काम करता था और फिर डाक्टर की दवाइयां ले कर लापता हो गया था.

हम बुरी तरह से घबरा गए. हम ने विचार किया, पता नहीं रात को हमारी सास भी स्वर्ग को न चली गई हों. हम अखबार लिए अंदर को दौड़ पड़े. सासू मां किचन में भजिए उड़ा रही थीं और भभूत वाले बाबा के गुणगान गा रही थीं. सासू मां को जीवित अवस्था में देख हम खुश हुए. हमें आया देख कर वे कहने लगीं, ‘‘आओ, दामादजी, मुझे बिटिया ने बता दिया कि तुम भी भभूत वाले बाबा के यहां जा रहे हो… देखना, बाबा कंकड़ेश्वर जरूर गोद हरीभरी करेंगे.’’

हम ने कहा, ‘‘आप की भभूत कहां रखी है?’’

उन्होंने पल्लू में बंधी 40-50 पुडि़यां हमें दे दीं. हम ने वे ले कर गटर में फेंक दीं. पत्नी और उन की एकमात्र मम्मी नाराज हो गईं. हम ने कहा, ‘‘हम अपनी सास को मरते हुए नहीं देखना चाहते.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’ सासजी ने नाराजगी से कहा.

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं, मम्मी,’’ कह कर मैं ने वह अखबार पढ़ने के लिए आगे कर दिया.

दोनों ने पढ़ा और माथा पकड़ लिया. हम ने कहा, ‘‘वह भभूत नहीं बल्कि न जाने कौन सी दवा है जिस के चलते उस के साइड इफेक्ट हो सकते थे. आप जैसी भी हैं, बीमार, पीडि़त, आप हमारे बीच जीवित तो हैं. हम आप को कहीं दूसरे डाक्टर को दिखा देंगे लेकिन इस तरह अपने हाथों से जहर खाने को नहीं दे सकते,’’ कहते- कहते हमारा गला भर आया.

सासूमां और मेरी पत्नी मेरा चेहरा देख रही थीं. सासूमां ने मेरी बलाइयां लेते हुए कहा, ‘‘बेटा, दामाद हो तो ऐसा.’’

हम शरमा गए. सच मानो दोस्तो, घर में बुजुर्ग रूपी वृक्ष की छांव में बड़ी शांति होती है और हम यह छांव हमेशा अपने पर बनाए रखना चाहते हैं.

बिट्टू

‘‘आज बिट्टू ने बहुत परेशान किया,’’ शिशुसदन की आया ने कहा.

‘‘क्यों बिट्टू, क्या बात है? क्यों इन्हें परेशान किया?’’ अनिता ने बच्चे को गोद में उठा कर चूम लिया और गोद में लिएलिए ही आगे बढ़ गई.

बिट्टू खामोश और उदास था. चुपचाप मां की गोद में चढ़ा इधरउधर देखता रहा. अनिता ने बच्चे की खामोशी महसूस की. उस का बदन छू कर देखा. फिर स्नेहपूर्वक बोली, ‘‘बेटे, आज आप ने मां को प्यार नहीं किया?’’

‘‘नहीं करूंगा,’’ बिट्टू ने गुस्से में गरदन हिला कर कहा.

‘‘क्यों बेटे, आप हम से नाराज हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ अनिता ने पूछा और फिर बिट्टू को नीचे उतार कर सब्जी वाले से आलू का भाव पूछा और 1 किलो आलू थैले में डलवाए. कुछ और सब्जी खरीद कर वह बिट्टू की उंगली थामे धीरेधीरे घर की ओर चल दी.

‘‘मां, मैं टाफी लूंगा,’’ बिट्टू ने मचल कर कहा.

‘‘नहीं बेटे, टाफी से दांत खराब हो जाते हैं और खांसी आने लगती है.’’

‘‘फिर बिस्कुट दिला दो.’’

‘‘हां, बिस्कुट ले लो,’’ अनिता ने काजू वाले नमकीन बिस्कुट का पैकेट ले कर  2 बिट्टू को पकड़ा दिए और शेष थैले में डाल लिए.

अनिता बेहद थकी हुई थी. उस की इच्छा हो रही थी कि वह जल्दी से जल्दी घर पहुंच कर बिस्तर पर ढेर हो जाए. पंखे की ठंडी हवा में आंखें मूंदे लेटी रहे और अपने दिलोदिमाग की थकान उतारती रहे. फिर कोई उसे एक प्याला चाय पकड़ा दे और चाय पी कर वह फिर लेट जाए.

लेकिन ऐसा संभव नहीं था. घर जाते ही उसे काम में जुट जाना था. महरी भी 2-3 दिन की छुट्टी पर थी.

यही सब सोचते हुए अनिता घर पहुंची. साड़ी उतार कर एक ओर रख दी और पंखा पूरी गति पर कर के ठंडे फर्श पर लेट गई. बिट्टू ने अपने मोजे और जूते उतारे और उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

‘‘मां…’’

‘‘हूं.’’

‘‘कल से मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं, जहां रोज तुम मुझे छोड़ देती हो. मैं सारा दिन तुम्हारे पास रहूंगा,’’ कहते हुए बिट्टू अपना चेहरा अनिता के गाल से सटा कर लेट गया.

‘‘फिर मैं दफ्तर कैसे जाऊंगी?’’ अनिता ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मत जाइए,’’ बिट्टू ने मुंह फुला लिया.

‘‘फिर मेरी नौकरी नहीं छूट जाएगी?’’

‘‘छूट जाने दीजिए…लेकिन कल मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘मत जाना,’’ अनिता ने झुंझलाते हुए कह दिया.

‘‘वादा,’’ बिट्टू ने बात की पुष्टि करनी चाही.

‘‘हां…देखूंगी,’’ कह कर अनिता अतीत में खो गई.

नौकरी करने की अनिता की बिलकुल इच्छा नहीं थी. वह तो घर में ही रहना चाहती थी. और घर में रह कर वह ऐसा काम जरूर करना चाहती थी, जिस से कुछ आर्थिक लाभ होता रहे.

शुरू में उस ने अपनी यह इच्छा अजय पर जाहिर की थी. सुन कर वे बेहद खुश हुए थे और वादा कर लिया था कि वे कोशिश करेंगे कि उसे जल्दी ही कोई काम मिल जाए.

बिट्टू डेढ़ साल का ही था, जब एक दिन अजय खुशी से झूमते हुए आए और बोले, ‘आज मैं बहुत खुश हूं.’

‘क्या हुआ?’ अनिता ने आश्चर्य से पूछा.

‘तुम्हें नौकरी मिल गई है.’

‘क्या?’ उस का मुंह खुला रह गया, ‘लेकिन अभी इतनी जल्दी क्या थी.’

‘क्या कहती हो. नौकरी कहीं पेड़ों पर लगती है कि जब चाहो, तोड़ लो. मिलती हुई नौकरी छोड़ना बेवकूफी है,’ अजय अपनी ही खुशी में डूबे, बोले जा रहे थे. उन्होंने अनिता के उतरे हुए चेहरे की तरफ नहीं देखा था.

‘लेकिन अजय, मैं अभी नौकरी नहीं करना चाहती. बिट्टू अभी बहुत छोटा है. जरा सोचो, भला मैं उसे घर में अकेले किस के पास छोड़ कर जाऊंगी.’

‘तुम इस की चिंता मत करो,’ अजय ने अपनी ही रौ में कहा.

‘क्यों न करूं. जब तक बिट्टू बड़ा नहीं हो जाता, मैं घर से बाहर जा कर नौकरी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती.’

‘कैसी पागलों जैसी बातें करती हो.’

‘नहीं, अजय, तुम कुछ भी कहो, मैं बिट्टू को अकेले…’

‘मेरी बात तो सुनो, आजकल कितने ही शिशुसदन खुल गए हैं. वहां नौकरीपेशा महिलाएं अपने बच्चों को सुबह छोड़ जाती हैं और शाम को वापस ले जाती हैं,’ अजय ने मुसकराते हुए कहा.

‘नहीं, मैं अपने बच्चे को अजनबी हाथों में नहीं सौपूंगी,’ अनिता ने परेशान से स्वर में कहा.

‘बिट्टू वहां अकेला थोड़े ही होगा. सुनो, वहां तो 3-4 महीने तक के बच्चे महिलाएं छोड़ जाती हैं. क्या उन्हें अपने बच्चों से प्यार नहीं होता?’ अनिता के सामने कुरसी पर बैठा अजय उसे समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘लेकिन…’

‘लेकिन क्या?’ अजय ने झुंझला कर कहा.

अनिता अभी भी असमंजस में पड़ी थी. भला डेढ़ साल का बिट्टू उस के बिना सारा दिन अकेला कैसे रहेगा. यही सोचसोच कर वह परेशान हुई जा रही थी.

‘तुम देखना, 4-5 दिन में ही बिट्टू वहां के बच्चों के साथ ऐसा हिलमिल जाएगा कि फिर घर आने को उस का मन ही नहीं करेगा,’ अजय ने कहा.

लेकिन अनिता का मन ऊहापोह में ही डूबा रहा. वह अपने मन को व्यवस्थित नहीं कर पा रही थी. बिट्टू को अपने से सारे दिन के लिए अलग कर देना उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था.

जब पहले दिन अनिता बिट्टू को शिशुसदन छोड़ने गई थी तो वह इस तरह बिलखबिलख कर रोया था कि अनिता की आंखें भर आई थीं. अजय उस का हाथ पकड़ कर खींचते हुए वहां से ले गए थे.

दफ्तर में भी सारा दिन उस का मन नहीं लगा था. उस की इच्छा हो रही थी कि वह सब काम छोड़ कर अपने बच्चे के पास दौड़ी जाए और उसे गोद में उठा कर सीने से लगा ले.

कितना वक्त लगा था अनिता को अपनेआप को समझाने में. शुरूशुरू में वह यह देख कर संतुष्ट थी कि बिट्टू जल्दी ही और बच्चों के साथ हिलमिल गया था. लेकिन इधर कई दिनों से वह देख रही थी कि बिट्टू जैसेजैसे बड़ा होता जा रहा था, कुछ गंभीर दिखने लगा था.

वह जब भी दफ्तर से लौटती तो देखती कि बिट्टू सड़क की ओर निगाहें बिछाए उस का इंतजार कर रहा होता. अपने बेटे की आंखों में उदासी और सूनापन देख कर कभीकभी वह सहम सी जाती.

दरवाजे की घंटी बजी तो अनिता की तंद्रा टूटी. बिट्टू उस के चेहरे पर ही अपना चेहरा टिकाए सो गया था. उसे धीरे से उस ने बिस्तर पर लिटाया और जल्दी से गाउन पहन कर दरवाजा खोला तो अजय ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बड़ी थकीथकी सी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही कुछ…तुम बैठो मैं चाय लाती हूं,’’ अनिता ने कहा और रसोई में आ गई. लेकिन रसोई में घुसते ही वह सिर पकड़ कर बैठ गई. वह भूल ही गई थी कि महरी छुट्टी पर है. सारे बरतन जूठे पड़े थे. उस ने जल्दी से कुछ बरतन धोए और चाय का पानी चढ़ा दिया.

‘‘बिट्टू क्या कर रहा है?’’ चाय का घूंट भरते हुए अजय ने पूछा.

‘‘सो रहा है.’’

‘‘इस समय सो रहा है?’’ सुन कर अजय को आश्चर्य हुआ.

‘‘हां, शायद दोपहर में सोया नहीं होगा,’’ अनिता ने कहा और फिर दो क्षण रुक कर बोली, ‘‘सुनो, आज बिट्टू बहुत परेशान था. उस ने मुझ से ठीक से बात भी नहीं की. बहुत गुमसुम और गंभीर दिखाई दे रहा था.’’

‘‘क्यों?’’ अजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘कह रहा था कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता. मैं घर पर ही रहूंगा. दरअसल, वह चाहता है कि मैं सारा दिन उस के पास रहूं,’’ अनिता ने झिझकते हुए कहा.

अजय थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम खुद ही उस से चिपकी रहना चाहती हो.’’

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ अनिता के अंदर जैसे भक्क से आग जल उठी, ‘‘मैं उस की मां हूं, दुश्मन नहीं. फिर तुम्हारी तरह निर्दयी भी नहीं हूं, समझे.’’

‘‘शांत…शांत…गुस्सा मत करो. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. इस के अलावा और कोई हल है इस समस्या का?’’

‘‘खैर, छोड़ो इस बात को. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. साहब के लड़के के जन्मदिन पर देने के लिए कोई तोहफा खरीदना है.’’

‘‘तुम चले जाओ, आज मैं नहीं जा पाऊंगी,’’ अनिता उठते हुए बोली.

‘‘तुम्हारी बस यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती. जराजरा सी बात पर मुंह फुला लेती हो. उठो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं, अजय, मुंह फुलाने की बात नहीं है. काम बहुत है. महरी भी छुट्टी पर है. अभी कपड़े भी धोने हैं.’’

‘‘अच्छा फिर रहने दो. मैं ही चला जाता हूं.’’

अनिता चाय के बरतन समेट कर जाने लगी तो अजय ने फिर पुकारा, ‘‘अरे, सुनो.’’

‘‘अब क्या है?’’ उस ने मुड़ कर पूछा.

‘‘जरा देखना, कोई ढंग की कमीज है, पहनने के लिए.’’

‘‘तुम उस की चिंता मत करो,’’ अनिता ने कहा और अंदर चली गई. अजय ने चप्पलें पैरों में डालीं और फिर बिना हाथमुंह धोए ही बाहर निकल गया. अनिता ने बिट्टू को उठा कर नाश्ता कराया और फिर उसे खिलौनों के बीच में बैठा दिया.

घर भर के काम से निबट कर अनिता खड़ी हुई तो देखा, घड़ी 12 बजा रही थी. कमरे में आई तो देखा कि अजय और बिट्टू दोनों फर्श पर गहरी नींद में डूबे हुए हैं. वह भी बत्ती बुझा कर बिट्टू के बगल में लेट गई. शीघ्र ही गहरी नींद ने उसे आ घेरा.

सुबह शिशुसदन जाने के लिए तैयार होते वक्त बिट्टू फिर बिगड़ने लगा, ‘‘मैं वहां नहीं जाऊंगा. मैं घर में ही रहूंगा. बगल वाली चाची को देखो, सारा दिन घर में रहती हैं बबली को वह हमेशा अपने पास रखती हैं. और तुम मुझे हमेशा दूसरों के पास छोड़ देती हो. तुम गंदी मां हो, अच्छी नहीं हो. मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘हम आप के लिए बहुत सारी चीजें लाएंगे. जिद नहीं करते बिट्टू. फिर तुम अकेले तो वहां नहीं होते. वहां कितने सारे तुम्हारे दोस्त होते हैं. सब के साथ खेलते हो. कितना अच्छा लगता होगा,’’ अनिता ने समझाने के लहजे में कहा.

‘‘नहीं, मुझे अच्छा नहीं लगता. मैं वहां नहीं जाऊंगा. आया डांटती रहती है. कल मेरी निकर खराब हो गई थी. मैं ने जानबूझ कर थोड़े ही खराब की थी.’’

‘‘हम आया को डांट देंगे. चलो, जल्दी उठो. देर हो रही है. जूतेमोजे पहनो.’’

‘‘मैं यहीं लेटा रहूंगा?’’ बिट्टू जमीन पर फैल गया.

अनिता को अब खीझ सी होती जा रही थी, ‘‘बिट्टू, जल्दी से उठ जा, वरना पिताजी बहुत गुस्सा होंगे. दफ्तर को भी देर हो रही है.’’

‘‘होने दो,’’ बिट्टू ने चीख कर कहा और दूसरी तरफ पलट गया. अनिता बारबार घड़ी देख रही थी. उसे गुस्सा आ रहा था, पर वह गुस्से को दबा कर बिट्टू को समझाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘अरे भई, क्या बात है, कितनी देर लगाओगी?’’ बाहर से अजय ने पुकारा.

‘‘बस, 2 मिनट में आ रही हूं,’’ अनिता ने चीख कर अंदर से जवाब दिया और बिट्टू से बोली, ‘‘देख, अब जल्दी से उठ जा, नहीं तो मैं तुझे थप्पड़ मार दूंगी.’’

‘‘नहीं उठूंगा,’’ बिट्टू चिल्लाया.

‘‘नहीं उठेगा?’’

‘‘नहीं…नहीं…नहीं जाऊंगा…तुम जाओ…मैं यहीं रहूंगा.’’

‘तड़ाक.’ अनिता ने गुस्से से एक जोरदार तमाचा उस के गाल पर दे मारा, ‘‘अब उठता है कि नहीं, या लगाऊं दोचार और…’’

अनिता का गुस्से से भरा चेहरा देख कर और थप्पड़ खा कर बिट्टू सहम गया.

वह धीरे से उठ कर बैठ गया और डबडबाई आंखों से अनिता की ओर देखने लगा. फिर चुपचाप उठ कर जूतेमोजे पहनने लगा. अनिता उस का हाथ पकड़ कर करीबकरीब घसीटते हुए बाहर आई. दरवाजे पर ताला लगाया और स्कूटर पर पीछे बैठ गई. हमेशा की तरह बिट्टू आगे खड़ा हो गया.

शिशुसदन में छोड़ते वक्त अनिता ने बिट्टू को प्यार किया और अपना गाल उस की तरफ बढ़ा दिया पर बिट्टू ने अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया और आगे बढ़ गया.

‘‘अच्छा बिट्टू,’’ अनिता ने हाथ हिलाया पर बिट्टू ने मुड़ कर भी नहीं देखा.

अनिता को आघात लगा, ‘‘बिट्टू,’’ उस ने फिर पुकारा.

‘‘अब चलो भी. पहले ही इतनी देर हो गई है,’’ अजय ने अनिता का हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा कोई भी काम समय से नहीं होता,’’ स्कूटर स्टार्ट करते हुए उस ने अनिता की ओर देखा.

वह अभी भी बिट्टू को जाते हुए देख रही थी.

‘‘अब बैठो न, खड़ीखड़ी क्या देख रही हो. तुम औरतों में तो बस यही खराबी होती है. जराजरा सी बात पर परेशान हो जाती हो,’’ अजय ने झल्लाते हुए कहा.

पर अनिता अब भी वैसे ही खड़ी थी, मानो उस ने अजय की आवाज को सुना ही न हो.

‘‘तुम चलती हो या मैं अकेला चला जाऊं?’’ अजय दांत पीसते हुए बोला.

लेकिन अनिता जैसे वहां हो कर भी नहीं थी. उस की आंखों में बिट्टू का सहमा हुआ चेहरा और उस की निरीह खामोशी तैर रही थी. वह सोच रही थी, बिट्टू छोटा है, हमारे वश में है. क्या इसी लिए हमें यह अधिकार मिल जाता है कि हम उस के जायज हक को भी इस तरह ठुकरा दें.

‘‘सुना नहीं…मैं ने क्या कहा?’’ अजय ने चिल्लाते हुए कहा तो अनिता चौंक गई.

‘‘नहीं…मैं कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अनिता ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘क्या? तुम्हारा दिमाग तो सही है.’’

‘‘हां, बिलकुल सही है,’’ अनिता ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘सुनो, हम ने उसे पैदा कर के उस पर कोई एहसान नहीं किया है. अपने सुख और अपनी खुशियों के लिए उसे जन्म दिया है. क्या हमारा यह फर्ज नहीं बनता कि हम भी उस की खुशियों और उस के सुख का ध्यान रखें?

‘‘अजय, मैं घर पर ही रहूंगी. मैं नहीं चाहती कि अभी से उस के दिल में मांबाप के प्रति नफरत की चिंगारी पैदा हो जाए और फिर मांबाप का प्यार पाना उस का हक है. मैं नहीं चाहती कि उस के कोमल मनमस्तिष्क पर कोई गांठ पड़े. मैं उतने पैसे में ही काम चला लूंगी जितना तुम्हें मिलता है पर बिट्टू को उस के अधिकार मिलने ही चाहिए.’’

‘‘तो तुम्हें नहीं जाना?’’

‘‘नहीं,’’ अनिता ने दृढ़ स्वर में कहा.

अजय ने स्कूटर स्टार्ट किया और तेजी के साथ दूर निकल गया. अनिता धीमे कदमों से वापस लौट गई. उस का मन अब बेहद शांत था. उसे अपने निर्णय पर कोई दुख नहीं था.

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