व्यंग्य : क्या भभूत से दामाद जी को संतान की प्राप्ति हुई

भभूत ने सासूजी को ठीक कर दिया तो संतान की चाह में दामादजी, पत्नी के संग भभूत वाले बाबा के दर्शन को आतुर दिखे. सुबह उठे तो घर पर ही बाबा के दर्शन हो गए.

जैसे तितली का फूल से, सावन का पानी से, नेता का वोट से, पुजारी का मंदिर से रिश्ता होता है उसी तरह मेरी सास का रिश्ता उन की इकलौती बेटी से है. मेरी शादी के साथ वे भी अपनी बेटी के साथ हमारे पास आ गईं. हम ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन को इसलिए स्वीकार कर लिया कि पीला पत्ता आज नहीं तो कल तो पेड़ से टूटेगा ही.

लेकिन पेड़ ही (यानी हम) पीले पड़ गए मगर पत्ता नहीं टूटा. मरता क्या न करता. उन्हें हम ने स्वीकार कर लिया वरना कौन बीवी की नाराजगी झेलता. पिछले 7-8 महीने से देख रहा था कि अपनी पत्नी को हम जो रुपए खर्च के लिए देते थे वे बचते नहीं थे. हम ने कारण जा?नने के लिए डरतेडरते पत्नी से पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आजकल मम्मी की तबीयत खराब चल रही है, इसी कारण डाक्टर को हर माह रुपया देना पड़ रहा है.’’

हम चुप हो गए. कुछ कह कर मरना थोड़े ही था लेकिन आखिर कब तक हम ओवरबजट होते?

एक रविवार हम घर पर बैठ कर टेलीविजन देख रहे थे कि विज्ञापन बे्रक आते ही हमारी पत्नी ने टेलीविजन बंद कर के हमारे सामने अखबार का विज्ञापन खोल कर रख दिया.

‘‘क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘पढ़ो तो.’’

हम ने पढ़ना प्रारंभ किया. लिखा था, ‘शहर में कोई भभूत वाले बाबा आए हुए हैं जो भभूत दे कर पुराने रोगों को ठीक कर देते हैं.’ हम ने पढ़ कर अखबार एक ओर रख दिया और आशा भरी नजरों से देखती पत्नी से कहा, ‘‘यह विज्ञापन हमारे किस काम का है?’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं यह विज्ञापन आप को थोड़े ही जाने के लिए पढ़वा रही थी?’’

‘‘फिर?’’ हम ने कुत्ते की तरह सतर्क होते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी मम्मी के लिए,’’ हिनहिनाती पत्नी ने जवाब दिया.

‘‘ओह, क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन एक बात है…’’

‘‘क्या बात है?’’ बीच में बात को रोकते हुए कहा.

‘‘कालोनी की एकदो महिलाएं इलाज के लिए गई थीं तो बाबा एवं बाबी ने उन्हें…’’

‘‘बाबा… बाबी…यानी, मैं कुछ समझा नहीं?’’ हम ने घनचक्कर की तरह प्रश्न किया.

‘‘अजी, मास्टर की घरवाली मास्टरनी, डाक्टर की बीवी डाक्टरनी तो बाबा की बीवी बाबी…’’ पत्नी ने अपने सामान्य ज्ञान को हमारे दिमाग में डालते हुए कहा.

हो…हो…कर के हम हंस दिए, फिर हम ने प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बाबा व बाबी मिल कर इलाज करते हैं?’’

‘‘जी हां, कालोनी की कुछ महिलाएं उन के पास गई थीं. लौट कर उन्होंने बताया कि बाबा का बड़ा आधुनिक इलाज है.’’

‘‘यानी?’’

‘‘किसी को भभूत देने के पहले वे उस की ब्लड रिपोर्ट, ब्लडप्रेशर, पेशाब की जांच देख लेते हैं फिर भभूत देते हैं,’’ पत्नी ने हमें बताया तो विश्वास हो गया कि ये निश्चित रूप से वैज्ञानिक आधार वाले बाबाबाबी हैं.

‘‘तो हमें क्या करना होगा?’’

‘‘जी, करना क्या है, मम्मीजी के सारे टेस्ट करवा कर ही हम भभूत लेने चलते हैं,’’ पत्नीजी ने सलाह देते हुए कहा.

‘‘ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा,’’ हम ने कहा और टेलीविजन चालू कर के धारावाहिक देखने लगे.

अगले दिन पत्नी हम से 1 हजार रुपए ले कर अपनी मम्मी के पूरे टेस्ट करवा कर शाम को लौटी. हम से शाम को कहा गया कि अगले दिन की छुट्टी ले लूं ताकि मम्मीजी को भभूत वाले बाबाजी के पास ले जाया जा सके. मन मार कर हम ने कार्यालय से छुट्टी ली और किराए की कार ले कर पूरे खानदान के साथ भभूत वाले बाबा के पास जा पहुंचे. वहां काफी भीड़ लगी थी.

हम ने दान की रसीद कटवाई, जो 501 रुपए की काटी गई थी. हम तीनों प्राणियों का नंबर दोपहर तक आया. अंदर गए तो चेंबर में नीला प्रकाश फैला था. विशेष कुरसी पर बाबाजी बैठे थे. उन के दाईं ओर कुरसी पर मैडम बाबी बैठी थीं. हमारी सास ने औंधे लेट कर उन के चरण स्पर्श किए. बाबाजी के सामने एक भट्ठी जल रही थी. उस ने हमारी सास से आगे बढ़ने को कहा और बोला, ‘‘यूरिन, ब्लड टेस्ट होगा.’’

पत्नीजी मेंढकी की तरह उचक गईं और कहने लगीं, ‘‘हम करवा कर लाए हैं.’’

‘‘उधर दे दो,’’ नाराजगी से बाबा ने देखते हुए कहा.

ब्लड, यूरिन रिपोर्ट मैडम बाबी को दी तो उन्होंने रिपोर्ट देखी, गोलगोल घुमाई और मेरी सास के हाथों में दे दी. बारबार मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि बाबा को कहीं देखा है लेकिन वह शायद मेरा भ्रम ही था.

बाबाजी ने सासूजी को पास बुलाया. जाने कितने राख के छोटेछोटे ढेर उन के पास लगे थे. 1 मिनट के लिए प्रकाश बंद हुआ और संगीत गूंज उठा. मेरा दिल धकधक करने लगा था. मैं ने पत्नी का हाथ पकड़ लिया. 1 मिनट बाद रोशनी हुई तो बाबा ने राख में से एक मुट्ठी राख उठा कर कहा, ‘‘इस भभूत से 50 पुडि़या बना लेना और सुबह, दोपहर, शाम श्रद्धा के साथ बाबा कंकड़ेश्वर महाराज की जय बोल कर खा लेना और 10 दिन बाद फिर ब्लडशुगर, यूरिन की जांच यहां से करवा कर लाना.’’

इतना कह कर बाबा ने एक लैबोरेटरी का कार्ड थमा दिया. हम बाहर आए. सुबह ही हमारी सास ने श्रद्धा के साथ कंकड़ेश्वर महाराज की जय कह कर भभूत को फांक लिया. दोपहर में दूसरी बार, जब शाम को हम कार्यालय से लौटे तो हमारी पत्नीजी हम से आ कर लिपट गईं और बोलीं, ‘‘मम्मीजी को बहुत फायदा हुआ है.’’

‘‘सच?’’

‘‘वे अब अच्छे से चलनेफिरने लगी हैं, जय हो बाबा कंकडे़श्वर की,’’ पत्नी ने श्रद्धा के साथ कहा.

हमें भी बड़ा आश्चर्य हुआ. होता होगा चमत्कार. हम ने भी मन ही मन श्रद्धा के साथ विचार किया. पत्नी ने सिक्सर मारते हुए हमारे कानों में धीरे से कहा, ‘‘सुनो, नाराज न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘हमारी शादी के 2 साल हो गए हैं. एक पुत्र के लिए हम भी भभूत मांग लें,’’ पत्नी ने शरमातेबलखाते हुए कहा.

‘‘क्या भभूत खाने से बच्चा पैदा हो सकता है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘शायद कोई चमत्कार हो जाए,’’ पत्नी ने पूरी श्रद्धा के साथ कहा.

मैं बिना कुछ कहे घर के अंदर चला आया.

सच भी था. मेरी सास की चाल बदल गई थी. उन की गठिया की बीमारी मानो उड़न छू हो गई थी. मेरे दिल ने भी कहा, ‘क्यों न मैं भी 2-2 किलो राख (भभूत) खा कर शरीर को ठीक कर लूं.’

रात को बिस्तर पर सोया तो फिर भभूत वाले बाबा का चेहरा आंखों के सामने डोल गया. कहां देखा है? लेकिन याद नहीं आया. हम ने मन ही मन विचार किया कि कल, परसों छुट्टी ले कर हम भी भभूत ले आएंगे. पत्नी को भी यह खुशखबरी हम ने दे दी थी. वे?भी सुंदर सपने देखते हुए खर्राटे भरने लगीं.

सुबह हम उठे. हम ने चाय पी और जा कर समाचारपत्र उठाया. अखबार खोलते ही हम चौंक गए, ‘भभूत वाले बाबा गिरफ्तार’ हेडिंग पढ़ते ही घबरा गए कि आखिर क्या बात हो गई? समाचार विस्तार से लिखा था कि भभूत वाला चमत्कारी बाबा किसी कसबे का झोलाछाप डाक्टर था जिस की प्रैक्टिस नहीं चलती थी, जिस के चलते उस ने शहर बदल लिया और बाबा बन गया. ब्लड, यूरिन की रिपोर्ट देख कर भभूत में दवा मिला कर दे देता था जिस से पीडि़त को लाभ मिलता था.

पिछले दिनों एक ब्लडशुगर के मरीज को उस ने शुगर कम करने की दवा भभूत में मिला कर दे दी. ओवरडोज होने से मरीज सोया का सोया ही रह गया. शिकायत करने पर पुलिस ने भभूत वाले बाबा को गिरफ्तार कर लिया. लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई है. अंत में लिखा था, ‘किसी भी तरह की कोई भभूत का सेवन न करें, उस में स्टेराइड मिला होने से तत्काल कुछ लाभ दिखलाई देता है, लेकिन बाद में बीमारी स्थायी हो जाती है.’ एक ओर बाबा का फोटो छपा था. अचानक हमारी याददाश्त का बल्ब भी जल गया. अरे, यह तो हमारे गांव के पास का व्यक्ति है, जो एक कुशल डाक्टर के यहां पट्टी बांधने का काम करता था और फिर डाक्टर की दवाइयां ले कर लापता हो गया था.

हम बुरी तरह से घबरा गए. हम ने विचार किया, पता नहीं रात को हमारी सास भी स्वर्ग को न चली गई हों. हम अखबार लिए अंदर को दौड़ पड़े. सासू मां किचन में भजिए उड़ा रही थीं और भभूत वाले बाबा के गुणगान गा रही थीं. सासू मां को जीवित अवस्था में देख हम खुश हुए. हमें आया देख कर वे कहने लगीं, ‘‘आओ, दामादजी, मुझे बिटिया ने बता दिया कि तुम भी भभूत वाले बाबा के यहां जा रहे हो… देखना, बाबा कंकड़ेश्वर जरूर गोद हरीभरी करेंगे.’’

हम ने कहा, ‘‘आप की भभूत कहां रखी है?’’

उन्होंने पल्लू में बंधी 40-50 पुडि़यां हमें दे दीं. हम ने वे ले कर गटर में फेंक दीं. पत्नी और उन की एकमात्र मम्मी नाराज हो गईं. हम ने कहा, ‘‘हम अपनी सास को मरते हुए नहीं देखना चाहते.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’ सासजी ने नाराजगी से कहा.

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं, मम्मी,’’ कह कर मैं ने वह अखबार पढ़ने के लिए आगे कर दिया.

दोनों ने पढ़ा और माथा पकड़ लिया. हम ने कहा, ‘‘वह भभूत नहीं बल्कि न जाने कौन सी दवा है जिस के चलते उस के साइड इफेक्ट हो सकते थे. आप जैसी भी हैं, बीमार, पीडि़त, आप हमारे बीच जीवित तो हैं. हम आप को कहीं दूसरे डाक्टर को दिखा देंगे लेकिन इस तरह अपने हाथों से जहर खाने को नहीं दे सकते,’’ कहते- कहते हमारा गला भर आया.

सासूमां और मेरी पत्नी मेरा चेहरा देख रही थीं. सासूमां ने मेरी बलाइयां लेते हुए कहा, ‘‘बेटा, दामाद हो तो ऐसा.’’

हम शरमा गए. सच मानो दोस्तो, घर में बुजुर्ग रूपी वृक्ष की छांव में बड़ी शांति होती है और हम यह छांव हमेशा अपने पर बनाए रखना चाहते हैं.

बिट्टू

‘‘आज बिट्टू ने बहुत परेशान किया,’’ शिशुसदन की आया ने कहा.

‘‘क्यों बिट्टू, क्या बात है? क्यों इन्हें परेशान किया?’’ अनिता ने बच्चे को गोद में उठा कर चूम लिया और गोद में लिएलिए ही आगे बढ़ गई.

बिट्टू खामोश और उदास था. चुपचाप मां की गोद में चढ़ा इधरउधर देखता रहा. अनिता ने बच्चे की खामोशी महसूस की. उस का बदन छू कर देखा. फिर स्नेहपूर्वक बोली, ‘‘बेटे, आज आप ने मां को प्यार नहीं किया?’’

‘‘नहीं करूंगा,’’ बिट्टू ने गुस्से में गरदन हिला कर कहा.

‘‘क्यों बेटे, आप हम से नाराज हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ अनिता ने पूछा और फिर बिट्टू को नीचे उतार कर सब्जी वाले से आलू का भाव पूछा और 1 किलो आलू थैले में डलवाए. कुछ और सब्जी खरीद कर वह बिट्टू की उंगली थामे धीरेधीरे घर की ओर चल दी.

‘‘मां, मैं टाफी लूंगा,’’ बिट्टू ने मचल कर कहा.

‘‘नहीं बेटे, टाफी से दांत खराब हो जाते हैं और खांसी आने लगती है.’’

‘‘फिर बिस्कुट दिला दो.’’

‘‘हां, बिस्कुट ले लो,’’ अनिता ने काजू वाले नमकीन बिस्कुट का पैकेट ले कर  2 बिट्टू को पकड़ा दिए और शेष थैले में डाल लिए.

अनिता बेहद थकी हुई थी. उस की इच्छा हो रही थी कि वह जल्दी से जल्दी घर पहुंच कर बिस्तर पर ढेर हो जाए. पंखे की ठंडी हवा में आंखें मूंदे लेटी रहे और अपने दिलोदिमाग की थकान उतारती रहे. फिर कोई उसे एक प्याला चाय पकड़ा दे और चाय पी कर वह फिर लेट जाए.

लेकिन ऐसा संभव नहीं था. घर जाते ही उसे काम में जुट जाना था. महरी भी 2-3 दिन की छुट्टी पर थी.

यही सब सोचते हुए अनिता घर पहुंची. साड़ी उतार कर एक ओर रख दी और पंखा पूरी गति पर कर के ठंडे फर्श पर लेट गई. बिट्टू ने अपने मोजे और जूते उतारे और उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

‘‘मां…’’

‘‘हूं.’’

‘‘कल से मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं, जहां रोज तुम मुझे छोड़ देती हो. मैं सारा दिन तुम्हारे पास रहूंगा,’’ कहते हुए बिट्टू अपना चेहरा अनिता के गाल से सटा कर लेट गया.

‘‘फिर मैं दफ्तर कैसे जाऊंगी?’’ अनिता ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मत जाइए,’’ बिट्टू ने मुंह फुला लिया.

‘‘फिर मेरी नौकरी नहीं छूट जाएगी?’’

‘‘छूट जाने दीजिए…लेकिन कल मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘मत जाना,’’ अनिता ने झुंझलाते हुए कह दिया.

‘‘वादा,’’ बिट्टू ने बात की पुष्टि करनी चाही.

‘‘हां…देखूंगी,’’ कह कर अनिता अतीत में खो गई.

नौकरी करने की अनिता की बिलकुल इच्छा नहीं थी. वह तो घर में ही रहना चाहती थी. और घर में रह कर वह ऐसा काम जरूर करना चाहती थी, जिस से कुछ आर्थिक लाभ होता रहे.

शुरू में उस ने अपनी यह इच्छा अजय पर जाहिर की थी. सुन कर वे बेहद खुश हुए थे और वादा कर लिया था कि वे कोशिश करेंगे कि उसे जल्दी ही कोई काम मिल जाए.

बिट्टू डेढ़ साल का ही था, जब एक दिन अजय खुशी से झूमते हुए आए और बोले, ‘आज मैं बहुत खुश हूं.’

‘क्या हुआ?’ अनिता ने आश्चर्य से पूछा.

‘तुम्हें नौकरी मिल गई है.’

‘क्या?’ उस का मुंह खुला रह गया, ‘लेकिन अभी इतनी जल्दी क्या थी.’

‘क्या कहती हो. नौकरी कहीं पेड़ों पर लगती है कि जब चाहो, तोड़ लो. मिलती हुई नौकरी छोड़ना बेवकूफी है,’ अजय अपनी ही खुशी में डूबे, बोले जा रहे थे. उन्होंने अनिता के उतरे हुए चेहरे की तरफ नहीं देखा था.

‘लेकिन अजय, मैं अभी नौकरी नहीं करना चाहती. बिट्टू अभी बहुत छोटा है. जरा सोचो, भला मैं उसे घर में अकेले किस के पास छोड़ कर जाऊंगी.’

‘तुम इस की चिंता मत करो,’ अजय ने अपनी ही रौ में कहा.

‘क्यों न करूं. जब तक बिट्टू बड़ा नहीं हो जाता, मैं घर से बाहर जा कर नौकरी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती.’

‘कैसी पागलों जैसी बातें करती हो.’

‘नहीं, अजय, तुम कुछ भी कहो, मैं बिट्टू को अकेले…’

‘मेरी बात तो सुनो, आजकल कितने ही शिशुसदन खुल गए हैं. वहां नौकरीपेशा महिलाएं अपने बच्चों को सुबह छोड़ जाती हैं और शाम को वापस ले जाती हैं,’ अजय ने मुसकराते हुए कहा.

‘नहीं, मैं अपने बच्चे को अजनबी हाथों में नहीं सौपूंगी,’ अनिता ने परेशान से स्वर में कहा.

‘बिट्टू वहां अकेला थोड़े ही होगा. सुनो, वहां तो 3-4 महीने तक के बच्चे महिलाएं छोड़ जाती हैं. क्या उन्हें अपने बच्चों से प्यार नहीं होता?’ अनिता के सामने कुरसी पर बैठा अजय उसे समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘लेकिन…’

‘लेकिन क्या?’ अजय ने झुंझला कर कहा.

अनिता अभी भी असमंजस में पड़ी थी. भला डेढ़ साल का बिट्टू उस के बिना सारा दिन अकेला कैसे रहेगा. यही सोचसोच कर वह परेशान हुई जा रही थी.

‘तुम देखना, 4-5 दिन में ही बिट्टू वहां के बच्चों के साथ ऐसा हिलमिल जाएगा कि फिर घर आने को उस का मन ही नहीं करेगा,’ अजय ने कहा.

लेकिन अनिता का मन ऊहापोह में ही डूबा रहा. वह अपने मन को व्यवस्थित नहीं कर पा रही थी. बिट्टू को अपने से सारे दिन के लिए अलग कर देना उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था.

जब पहले दिन अनिता बिट्टू को शिशुसदन छोड़ने गई थी तो वह इस तरह बिलखबिलख कर रोया था कि अनिता की आंखें भर आई थीं. अजय उस का हाथ पकड़ कर खींचते हुए वहां से ले गए थे.

दफ्तर में भी सारा दिन उस का मन नहीं लगा था. उस की इच्छा हो रही थी कि वह सब काम छोड़ कर अपने बच्चे के पास दौड़ी जाए और उसे गोद में उठा कर सीने से लगा ले.

कितना वक्त लगा था अनिता को अपनेआप को समझाने में. शुरूशुरू में वह यह देख कर संतुष्ट थी कि बिट्टू जल्दी ही और बच्चों के साथ हिलमिल गया था. लेकिन इधर कई दिनों से वह देख रही थी कि बिट्टू जैसेजैसे बड़ा होता जा रहा था, कुछ गंभीर दिखने लगा था.

वह जब भी दफ्तर से लौटती तो देखती कि बिट्टू सड़क की ओर निगाहें बिछाए उस का इंतजार कर रहा होता. अपने बेटे की आंखों में उदासी और सूनापन देख कर कभीकभी वह सहम सी जाती.

दरवाजे की घंटी बजी तो अनिता की तंद्रा टूटी. बिट्टू उस के चेहरे पर ही अपना चेहरा टिकाए सो गया था. उसे धीरे से उस ने बिस्तर पर लिटाया और जल्दी से गाउन पहन कर दरवाजा खोला तो अजय ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बड़ी थकीथकी सी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही कुछ…तुम बैठो मैं चाय लाती हूं,’’ अनिता ने कहा और रसोई में आ गई. लेकिन रसोई में घुसते ही वह सिर पकड़ कर बैठ गई. वह भूल ही गई थी कि महरी छुट्टी पर है. सारे बरतन जूठे पड़े थे. उस ने जल्दी से कुछ बरतन धोए और चाय का पानी चढ़ा दिया.

‘‘बिट्टू क्या कर रहा है?’’ चाय का घूंट भरते हुए अजय ने पूछा.

‘‘सो रहा है.’’

‘‘इस समय सो रहा है?’’ सुन कर अजय को आश्चर्य हुआ.

‘‘हां, शायद दोपहर में सोया नहीं होगा,’’ अनिता ने कहा और फिर दो क्षण रुक कर बोली, ‘‘सुनो, आज बिट्टू बहुत परेशान था. उस ने मुझ से ठीक से बात भी नहीं की. बहुत गुमसुम और गंभीर दिखाई दे रहा था.’’

‘‘क्यों?’’ अजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘कह रहा था कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता. मैं घर पर ही रहूंगा. दरअसल, वह चाहता है कि मैं सारा दिन उस के पास रहूं,’’ अनिता ने झिझकते हुए कहा.

अजय थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम खुद ही उस से चिपकी रहना चाहती हो.’’

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ अनिता के अंदर जैसे भक्क से आग जल उठी, ‘‘मैं उस की मां हूं, दुश्मन नहीं. फिर तुम्हारी तरह निर्दयी भी नहीं हूं, समझे.’’

‘‘शांत…शांत…गुस्सा मत करो. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. इस के अलावा और कोई हल है इस समस्या का?’’

‘‘खैर, छोड़ो इस बात को. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. साहब के लड़के के जन्मदिन पर देने के लिए कोई तोहफा खरीदना है.’’

‘‘तुम चले जाओ, आज मैं नहीं जा पाऊंगी,’’ अनिता उठते हुए बोली.

‘‘तुम्हारी बस यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती. जराजरा सी बात पर मुंह फुला लेती हो. उठो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं, अजय, मुंह फुलाने की बात नहीं है. काम बहुत है. महरी भी छुट्टी पर है. अभी कपड़े भी धोने हैं.’’

‘‘अच्छा फिर रहने दो. मैं ही चला जाता हूं.’’

अनिता चाय के बरतन समेट कर जाने लगी तो अजय ने फिर पुकारा, ‘‘अरे, सुनो.’’

‘‘अब क्या है?’’ उस ने मुड़ कर पूछा.

‘‘जरा देखना, कोई ढंग की कमीज है, पहनने के लिए.’’

‘‘तुम उस की चिंता मत करो,’’ अनिता ने कहा और अंदर चली गई. अजय ने चप्पलें पैरों में डालीं और फिर बिना हाथमुंह धोए ही बाहर निकल गया. अनिता ने बिट्टू को उठा कर नाश्ता कराया और फिर उसे खिलौनों के बीच में बैठा दिया.

घर भर के काम से निबट कर अनिता खड़ी हुई तो देखा, घड़ी 12 बजा रही थी. कमरे में आई तो देखा कि अजय और बिट्टू दोनों फर्श पर गहरी नींद में डूबे हुए हैं. वह भी बत्ती बुझा कर बिट्टू के बगल में लेट गई. शीघ्र ही गहरी नींद ने उसे आ घेरा.

सुबह शिशुसदन जाने के लिए तैयार होते वक्त बिट्टू फिर बिगड़ने लगा, ‘‘मैं वहां नहीं जाऊंगा. मैं घर में ही रहूंगा. बगल वाली चाची को देखो, सारा दिन घर में रहती हैं बबली को वह हमेशा अपने पास रखती हैं. और तुम मुझे हमेशा दूसरों के पास छोड़ देती हो. तुम गंदी मां हो, अच्छी नहीं हो. मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘हम आप के लिए बहुत सारी चीजें लाएंगे. जिद नहीं करते बिट्टू. फिर तुम अकेले तो वहां नहीं होते. वहां कितने सारे तुम्हारे दोस्त होते हैं. सब के साथ खेलते हो. कितना अच्छा लगता होगा,’’ अनिता ने समझाने के लहजे में कहा.

‘‘नहीं, मुझे अच्छा नहीं लगता. मैं वहां नहीं जाऊंगा. आया डांटती रहती है. कल मेरी निकर खराब हो गई थी. मैं ने जानबूझ कर थोड़े ही खराब की थी.’’

‘‘हम आया को डांट देंगे. चलो, जल्दी उठो. देर हो रही है. जूतेमोजे पहनो.’’

‘‘मैं यहीं लेटा रहूंगा?’’ बिट्टू जमीन पर फैल गया.

अनिता को अब खीझ सी होती जा रही थी, ‘‘बिट्टू, जल्दी से उठ जा, वरना पिताजी बहुत गुस्सा होंगे. दफ्तर को भी देर हो रही है.’’

‘‘होने दो,’’ बिट्टू ने चीख कर कहा और दूसरी तरफ पलट गया. अनिता बारबार घड़ी देख रही थी. उसे गुस्सा आ रहा था, पर वह गुस्से को दबा कर बिट्टू को समझाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘अरे भई, क्या बात है, कितनी देर लगाओगी?’’ बाहर से अजय ने पुकारा.

‘‘बस, 2 मिनट में आ रही हूं,’’ अनिता ने चीख कर अंदर से जवाब दिया और बिट्टू से बोली, ‘‘देख, अब जल्दी से उठ जा, नहीं तो मैं तुझे थप्पड़ मार दूंगी.’’

‘‘नहीं उठूंगा,’’ बिट्टू चिल्लाया.

‘‘नहीं उठेगा?’’

‘‘नहीं…नहीं…नहीं जाऊंगा…तुम जाओ…मैं यहीं रहूंगा.’’

‘तड़ाक.’ अनिता ने गुस्से से एक जोरदार तमाचा उस के गाल पर दे मारा, ‘‘अब उठता है कि नहीं, या लगाऊं दोचार और…’’

अनिता का गुस्से से भरा चेहरा देख कर और थप्पड़ खा कर बिट्टू सहम गया.

वह धीरे से उठ कर बैठ गया और डबडबाई आंखों से अनिता की ओर देखने लगा. फिर चुपचाप उठ कर जूतेमोजे पहनने लगा. अनिता उस का हाथ पकड़ कर करीबकरीब घसीटते हुए बाहर आई. दरवाजे पर ताला लगाया और स्कूटर पर पीछे बैठ गई. हमेशा की तरह बिट्टू आगे खड़ा हो गया.

शिशुसदन में छोड़ते वक्त अनिता ने बिट्टू को प्यार किया और अपना गाल उस की तरफ बढ़ा दिया पर बिट्टू ने अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया और आगे बढ़ गया.

‘‘अच्छा बिट्टू,’’ अनिता ने हाथ हिलाया पर बिट्टू ने मुड़ कर भी नहीं देखा.

अनिता को आघात लगा, ‘‘बिट्टू,’’ उस ने फिर पुकारा.

‘‘अब चलो भी. पहले ही इतनी देर हो गई है,’’ अजय ने अनिता का हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा कोई भी काम समय से नहीं होता,’’ स्कूटर स्टार्ट करते हुए उस ने अनिता की ओर देखा.

वह अभी भी बिट्टू को जाते हुए देख रही थी.

‘‘अब बैठो न, खड़ीखड़ी क्या देख रही हो. तुम औरतों में तो बस यही खराबी होती है. जराजरा सी बात पर परेशान हो जाती हो,’’ अजय ने झल्लाते हुए कहा.

पर अनिता अब भी वैसे ही खड़ी थी, मानो उस ने अजय की आवाज को सुना ही न हो.

‘‘तुम चलती हो या मैं अकेला चला जाऊं?’’ अजय दांत पीसते हुए बोला.

लेकिन अनिता जैसे वहां हो कर भी नहीं थी. उस की आंखों में बिट्टू का सहमा हुआ चेहरा और उस की निरीह खामोशी तैर रही थी. वह सोच रही थी, बिट्टू छोटा है, हमारे वश में है. क्या इसी लिए हमें यह अधिकार मिल जाता है कि हम उस के जायज हक को भी इस तरह ठुकरा दें.

‘‘सुना नहीं…मैं ने क्या कहा?’’ अजय ने चिल्लाते हुए कहा तो अनिता चौंक गई.

‘‘नहीं…मैं कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अनिता ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘क्या? तुम्हारा दिमाग तो सही है.’’

‘‘हां, बिलकुल सही है,’’ अनिता ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘सुनो, हम ने उसे पैदा कर के उस पर कोई एहसान नहीं किया है. अपने सुख और अपनी खुशियों के लिए उसे जन्म दिया है. क्या हमारा यह फर्ज नहीं बनता कि हम भी उस की खुशियों और उस के सुख का ध्यान रखें?

‘‘अजय, मैं घर पर ही रहूंगी. मैं नहीं चाहती कि अभी से उस के दिल में मांबाप के प्रति नफरत की चिंगारी पैदा हो जाए और फिर मांबाप का प्यार पाना उस का हक है. मैं नहीं चाहती कि उस के कोमल मनमस्तिष्क पर कोई गांठ पड़े. मैं उतने पैसे में ही काम चला लूंगी जितना तुम्हें मिलता है पर बिट्टू को उस के अधिकार मिलने ही चाहिए.’’

‘‘तो तुम्हें नहीं जाना?’’

‘‘नहीं,’’ अनिता ने दृढ़ स्वर में कहा.

अजय ने स्कूटर स्टार्ट किया और तेजी के साथ दूर निकल गया. अनिता धीमे कदमों से वापस लौट गई. उस का मन अब बेहद शांत था. उसे अपने निर्णय पर कोई दुख नहीं था.

जारी है सजा

पूर्व कथा

श्रीमान गोयल की रंगीनमिजाजी के चलते उन के बेटेबहुएं साथ नहीं रहते. पति से बहुत ही लगाव रखती व उन की खूब इज्जत करती श्रीमती गोयल के पास पति की गलत आदतोंबातों को सहने के अलावा चारा न था, जबकि उन के बच्चे पिता की गंदी हरकतों से बेहद क्रोधित रहते थे. उन के अपने बच्चों पर श्रीमान गोयल की छाया न पड़े, इसलिए वे मातापिता से अलग रहते हैं. लेकिन उन में मां की ममता में कोई कमी न थी. वे मां को बराबर पैसे भेजते रहते हैं ताकि उन के पिता, उन की मां को तंग न करें. उधर, श्रीमती गोयल का अपनी नई पड़ोसन शुभा से संपर्क हुआ तो उन्हें लगा कि गैरों में भी अपनत्व होता है. जबतब दोनों में मुलाकातें होती रहतीं और श्रीमती गोयल उन्हें पति का दुखड़ा सुना कर संतुष्ट हो लेतीं. शुभा के पूछने पर श्रीमती गोयल ने बताया, ‘‘गोयल साहब औरतबाज हैं, इस सीमा तक बेशर्म भी कि बाजारू औरतों के साथ मनाई अपनी रासलीला को चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं,’’ श्रीमती गोयल पति के साथ इस तरह जीती रहीं जैसे पड़ोसी. ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे, दीवार फांद कर आए और उन का इस्तेमाल कर चलता बने. श्रीमती गोयल सोचती हैं कि शायद ऐसा पति ही उन के जीवन का हिस्सा था, जैसा मिला है उसी को निभाना है. श्रीमती गोयल न जाने कौन सा संताप सहती रहीं जबकि उन का पति क्षणिक मौजमस्ती में मस्त रहा. कुछ भी गलत न करने की कैसी सजा वे भोग रही हैं वहीं, कुकर्म करकर के भी श्रीमान गोयल बिंदास घूम रहे हैं. लेकिन…

ऐयाश बाप को उन के पुत्र इसलिए पैसा देते हैं कि वे घर से बाहर बाहरवालियों पर लुटाएं और मां को तंग न करें. लेकिन जब मां की आंखें हमेशा के लिए बंद हो जाती हैं तब…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

बातों का सिलसिला चल निकलता तो उन का रोना भी जारी रहता और हंसना भी.

‘‘आप के घर का खर्च कैसे चलता है?’’

‘‘मेरे बच्चे मुझे हर महीने खर्च भेजते हैं. बाप को अलग से देते हैं ताकि वे मुझे तंग न करें और जितना चाहें घर से बाहर लुटाएं.’’

मैं स्तब्ध थी. ऐसे दुराचारी पिता को बच्चे पाल रहे हैं और उस की ऐयाशी का खर्च भी दे रहे हैं.

अपने बच्चों के मुंह से निवाला छीन कर कौन इनसान ऐसे बाप का पेट भरता होगा जिस का पेट सुरसा के मुंह की तरह फैलता ही जा रहा है.

‘‘आप लोग इतना सब बरदाश्त कैसे करते हैं?’’

‘‘तो क्या करें हम. बच्चे औलाद होने की सजा भोग रहे हैं और मैं पत्नी होने की. कहां जाएं? किस के पास जा कर रोएं…जब तक मेरी सांस की डोर टूट न जाए, यही हमारी नियति है.’’

मैं श्रीमती गोयल से जबजब मिलती, मेरे मानस पटल पर उन की पीड़ा और गहरी छाप छोड़ती जाती. सच ही तो कह रही थीं श्रीमती गोयल. इनसान रिश्तों की इस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाए भी तो कहां? किस के पास जा कर रोए? अपना ही अपना न हो तो इनसान किस के पास जाए और अपनत्व तलाश करे. मेकअप की परत के नीचे वे क्याक्या छिपाए रखने का प्रयास करती हैं, मैं सहज ही समझ सकती थी. जरूरी नहीं है कि जो आंखें नम न हों उन में कोई दर्द न हो, अकसर जो लोग दुनिया के सामने सुखी होने का नाटक करते हैं ज्यादातर वही लोग भीतर से खोखले होते हैं.

इसी तरह कुछ समय बीत गया. मुझ से बात कर वे अपना मन हलका कर लेती थीं.

उन्हीं दिनों एक शादी में शामिल होने को मुझे कुल्लू जाना पड़ा. जाने से पहले श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए शाल लाने के लिए दिए थे. मैं और मेरे पति लंबी छुट्टी पर निकल पड़े. लगभग 10 दिन के बाद हम वापस आए.

रात देर से पहुंचे थे इसलिए खाना खाया और सो गए. अगले दिन सुबह उठे तो 10 दिन का छोड़ा घर व्यवस्थित करतेकरते ही शाम हो गई. चलतेफिरते मेरी नजर श्रीमती गोयल के घर पर पड़ जाती तो मन में खयाल आता कि आई क्यों नहीं आंटी. जब हम गए थे तो उन्होंने सफर के लिए गोभी के परांठे साथ बांध दिए थे. गरमगरम चाय और अचार के साथ उन परांठों का स्वाद अभी तक मुंह में है. शाम के बाद रात और फिर दूसरा दिन भी आ गया, मैं ने ही उन की शाल अटैची से निकाली और देने चली गई, लेकिन गेट पर लटका ताला देख मुझे लौटना पड़ा.

अभी वापस आई ही थी कि पति का फोन आ गया, ‘‘शुभा, तुम कहां गई थीं, अभी मैं ने फोन किया था?’’

‘‘हां, मैं थोड़ी देर पहले सामने आंटी को शाल देने गई थी, मगर वे मिलीं नहीं.’’

वे बात करतेकरते तनिक रुक गए थे, फिर धीरे से बोले, ‘‘गोयल आंटी का इंतकाल हुए आज 12 दिन हो गए हैं शुभा, मुझे भी अभी पता चला है.’’

मेरी तो मानो चीख ही निकल गई. फोन के उस तरफ पति बात भी कर रहे थे और डर भी रहे थे.

‘‘शुभा, तुम सुन रही हो न…’’

ढेर सारा आवेग मेरे कंठ को अवरुद्ध कर गया. मेरे हाथ में उन की शाल थी जिसे ले कर मैं क्षण भर पहले ही यह सोच रही थी कि पता नहीं उन्हें पसंद भी आएगी या नहीं.

‘‘वे रात में सोईं और सुबह उठी ही नहीं. लोग तो कहते हैं उन के पति ने ही उन्हें मार डाला है. शहर भर में इसी बात की चर्चा है.’’

धम्म से वहीं बैठ गई मैं, पड़ोस की बीना भी इस समय घर नहीं होगी…किस से बात करूं? किस से पूछूं अपनी सखी के बारे में. भाग कर मैं बाहर गई और एक बार फिर से ताले को खींच कर देखने लगी. तभी उधर से गुजरती हुई एक काम वाली मुझे देख कर रुक गई. बांह पकड़ कर फूटफूट कर रोने लगी. याद आया, यही बाई तो श्रीमती गोयल के घर काम करती थी.

‘‘क्या हुआ था आंटी को?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘बीबीजी, जिस दिन सुबह आप गईं उसी रात बाबूजी ने सिर में कुछ मार कर बीबीजी को मार डाला. शाम को मैं आई थी बरतन धोने तो बीबीजी उदास सी बैठी थीं. आप के बारे में बात करने लगीं. कह रही थीं, ‘मन नहीं लग रहा शुभा के बिना.’ ’’

आंटी का सुंदर चेहरा मेरी आंखों के सामने कौंध गया. बेचारी तमाम उम्र अपनेआप को सजासंवार कर रखती रहीं. चेहरा संवारती रहीं जिस का अंत इस तरह हुआ. रो पड़ी मैं, सत्या भी जोर से रोने लगी. कोई रिश्ता नहीं था हम तीनों का आपस में. मरने वाली के अपने कहां थे हम. पराए रो रहे थे और अपने ने तो जान ही ले ली थी.

दोपहर को बीना आई तो सीधी मेरे पास चली आई.

‘‘दीदी, आप कब आईं? देखिए न, आप के पीछे कैसा अनर्थ हो गया.’’

रोने लगी थी बीना भी. सदमे में लगभग सारा महल्ला था. पता चला श्रीमान गोयलजी तभी से गायब हैं. डाक्टर बेटा आ कर मां का शव ले गया था. बाकी अंतिम रस्में उसी के घर पर हुईं.

‘‘तुम गई थीं क्या?’’

‘‘हां, अमेरिका वाला बेटा भी आजकल यहीं है. तीनों बेटे इतना बिलख रहे थे कि  क्या बताऊं आप को दीदी. गोयल अंकल ने यह अच्छा नहीं किया. गुल्लू तो कह रहा था कि बाप को फांसी चढ़ाए बिना नहीं मानेगा लेकिन बड़े दोनों भाई उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास कर रहे हैं.’’

गुल्लू अमेरिका में जा कर बस जाना ज्यादा बेहतर समझता था, इसीलिए साथ ले जाने को मां के कागजपत्र सब तैयार किए बैठा था. वह नहीं चाहता था कि मां इस गंदगी में रहें. घर का सारा वैभव, सारी सुंदरता इसी गुल्लू की दी हुई थी. सब से छोटा था और मां का लाड़ला भी.

हर सुबह मां से बात करना उस का नियम था. आंटी की बातों में भी गुल्लू का जिक्र ज्यादा होता था.

‘‘तुम चलोगी मेरे साथ बीना, मैं उन के घर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘इसीलिए तो आई हूं. आज तेरहवीं है. शाम 4 बजे उठाला हो जाएगा. आप तैयार रहना.’’

आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में बांध रखा था मेरा. नाश्ता वैसे ही बना पड़ा था जिसे मैं छू भी नहीं पाई थी. संवेदनशील मन समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर आंटी का कुसूर क्या था, पूरी उम्र जो औरत मेहनत कर बच्चों को पढ़ातीलिखाती रही, पति की मार सहती रही, क्या उसे इसी तरह मरना चाहिए था. ऐसा दर्दनाक अंत उस औरत का, जो अकेली रह कर सब सहती रही.

‘एक आदमी जरा सा नंगा हो रहा हो तो हम उसे किसी तरह ढकने का प्रयास कर सकते हैं शुभा, लेकिन उसे कैसे ढकें जो अपने सारे कपड़े उतार चौराहे पर जा कर बैठ जाए, उसे कहां कहां से ढकें…इस आदमी को मैं कहांकहां से ढांपने की कोशिश करूं, बेटी. मुझे नजर आ रहा है इस का अंत बहुत बुरा होने वाला है. मेरे बेटे सिर्फ इसलिए इसे पैसे देते हैं कि यह मुझे तंग न करे. जिस दिन मुझे कुछ हो गया, इस का अंत हो जाएगा. बच्चे इसे भूखों मार देंगे…बहुत नफरत करते हैं वे अपने पिता से.’

गोयल आंटी के कहे शब्द मेरे कानों में बजने लगे. पुन: मेरी नजर घर पर पड़ी. यह घर भी गोयल साहब कब का बेच देते अगर उन के नाम पर होता. वह तो भला हो आंटी के ससुर का जो मरतेमरते घर की रजिस्ट्री बहू के नाम कर गए थे.

शाम 4 बजे बीना के साथ मैं डा. विजय गोयल के घर पहुंची. वहां पर भीड़ देख कर लगा मानो सारा शहर ही उमड़ पड़ा हो. अच्छी साख है उन की शहर में. इज्जत के साथसाथ दुआएं भी खूब बटोरी हैं आंटी के उस बेटे ने.

तेरहवीं हो गई. धीरेधीरे सारी भीड़ घट गई. आंटी की शाल मेरे हाथ में कसमसा रही थी. जरा सा एकांत मिला तो बीना ने गुल्लू से मेरा परिचय कराया. गुल्लू धीरे से उठा और मेरे पास आ कर बैठ गया. सहसा मेरा हाथ पकड़ा और अपने हाथ में ले कर चीखचीख कर रोने लगा.

‘‘मैं अपनी मां की रक्षा नहीं कर पाया, शुभाजी. पिछले कुछ हफ्तों से मां की बातों में सिर्फ आप का ही जिक्र रहता था. मां कहती थीं, आप उन्हें बहुत सहारा देती रही हैं. आप वह सब करती रहीं जो हमें करना चाहिए था.’’

‘‘जिस सुबह आप कुल्लू जाने वाली थीं उसी सुबह जब मैं ने मां से बात की तो उन्होंने बताया कि बड़ी घबराहट हो रही है. आप के जाने के बाद वे अकेली पड़ जाएंगी. ऐसा हो जाएगा शायद मां को आभास हो गया था. हमारा बाप ऐसा कर देगा किसी दिन हमें डर तो था लेकिन कर चुका है विश्वास नहीं होता.’’

दोनों बेटे भी मेरे पास सिमट आए थे. तीनों की पत्नियां और पोतेपोतियां भी. रो रही थी मैं भी. डा. विजय हाथ जोड़ रहे थे मेरे सामने.

‘‘आप ने एक बेटी की तरह हमारी मां को सहारा दिया, जो हम नहीं कर पाए वह आप करती रहीं. हम आप का एहसान कभी नहीं भूल सकते.’’

क्या उत्तर था मेरे पास. स्नेह से मैं ने गुल्लू का माथा सहला दिया.

सभी तनिक संभले तो मैं ने वह शाल गुल्लू को थमा दी.

‘‘श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए दिए थे. कह रही थीं कि कुल्लू से उन के लिए शाल लेती आऊं. कृपया आप इसे रख लीजिए.’’

पुन: रोने लगा था गुल्लू. क्या कहे वह और क्या कहे परिवार का कोई अन्य सदस्य.

‘‘आप की मां की सजा पूरी हो गई. मां की कमी तो सदा रहेगी आप सब को, लेकिन इस बात का संतोष भी तो है कि वे इस नरक से छूट गईं. उन की तपस्या सफल हुई. वे आप सब को एक चरित्रवान इनसान बना पाईं, यही उन की जीत है. आप अपने पिता को भी माफ कर दें. भूल जाइए उन्हें, उन के किए कर्म ही उन की सजा है. आज के बाद आप उन्हें उन के हाल पर छोड़ दीजिए. समयचक्र कभी क्षमा नहीं करता.’’

‘‘समयचक्र ने हमारी मां को किस कर्म की सजा दी? हमारी मां उस आदमी की इतनी सेवा करती रहीं. उसे खिला कर ही खाती रहीं सदा, उस इनसान का इंतजार करती रहीं, जो उस का कभी हुआ ही नहीं. वे बीमार होती रहीं तो पड़ोसी उन का हालचाल पूछते रहे. भूखी रहतीं तो आप उसे खिलाती रहीं. हमारा बाप सिर पर चोट मारता रहा और दवा आप लगाती रहीं…आप क्या थीं और हम क्या थे. हमारे ही सुख के लिए वे हम से अलग रहीं सारी उम्र और हम क्या करते रहे उन के लिए. एक जरा सा सहारा भी नहीं दे पाए. इंतजार ही करते रहे कि कब वह राक्षस उन्हें मार डाले और हम उठा कर जला दें.’’

गुल्लू का रुदन सब को रुलाए जा रहा था.

‘‘कुछ नहीं दिया कालचक्र ने हमारी मां को. पति भी राक्षस दिया और बेटे भी दानव. बेनाम ही मर गईं बेचारी. कोई उस के काम नहीं आया. किसी ने मेरी मां को नहीं बचाया.’’

‘‘ऐसा मत सोचो बेटा, तुम्हारी मां तो हर पल यही कहती रहीं कि उन के  बेटे ही उन के जीने का सहारा हैं. आप सब भी अपने पिता जैसे निकल जाते तो वे क्या कर लेतीं. आप चरित्रवान हैं, अच्छे हैं, यही उन के जीवन की जीत रही. बेनाम नहीं मरीं आप की मां. आप सब हैं न उन का नाम लेने वाले. शांत हो जाओ. अपना मन मैला मत करो.

‘‘आप की मां आप सब की तरफ से जरा सी भी दुखी नहीं थीं. अपनी बहुओं की भी आभारी थीं वे, अपने पोतेपोतियों के नाम भी सदा उन के होंठों पर होते थे. आप सब ने ही उन्हें इतने सालों तक जिंदा रखा, वे ऐसा ही सोचती थीं और यह सच भी है. ऐसा पति मिलना उन का दुर्भाग्य था लेकिन आप जैसी संतान मिल जाना सौभाग्य भी है न. लेखाजोखा करने बैठो तो सौदा बराबर रहा. प्रकृति ने जो उन के हिस्से में लिखा था वही उन्हें मिल गया. उन्हें जो मिला उस का वे सदा संतोष मनाती थीं. सदा दुआएं देती थीं आप सब को. तुम अपना मन छोटा मत करो… विश्वास करो मेरा…’’

मेरे हाथों को पकड़ पुन: चीखचीख कर रो पड़ा था गुल्लू और पूरा परिवार उस की हालत पर.

समय सब से बड़ा मरहम है. एक बुरे सपने की तरह देर तक श्रीमती गोयल की कहानी रुलाती भी रही और डराती भी रही. कुछ दिनों बाद उन के बेटों ने उस घर को बेच दिया जिस में वे रहती थीं.

श्रीमान गोयल के बारे में भी बीना से पता चलता है. बच्चों ने वास्तव में पिता को माफ कर दिया, क्या करते.

उड़तीउड़ती खबरें मिलती रहीं कि श्रीमान गोयल का दिमाग अब ठीक नहीं रहा. बाहर वालियों ने उन का घर भी बिकवा दिया है. बेघर हो गया है वह पुरुष जिस ने कभी अपने घर को घर नहीं समझा. पता नहीं कहां रहता है वह इनसान जिस का अब न कोई घर है न ठिकाना. अपने बच्चों के मुंह का निवाला जो इनसान वेश्याओं को खिलाता रहा उस का अंत भला और कैसा होता.

एक रात पुन: गली में चीखपुकार हुई. श्रीमान गोयल अपने घर के बाहर खड़े पत्नी को गालियां दे रहे थे. भद्दीगंदी गालियां. दरवाजा जो नहीं खोल रही थीं वे, शायद पागलपन में वे भूल चुके थे कि न यह घर अब उन का है और न ही उन्हें सहन करने वाली पत्नी ही जिंदा है.

चौकीदार ने उन्हें खदेड़ दिया. हर रोज चौकीदार उन्हें दूर तक छोड़ कर आता, लेकिन रोज का यही क्रम महल्ले भर को परेशान करने लगा. बच्चों को खबर की गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे किसी श्रीमान गोयल को नहीं जानते हैं. कोई जो भी सुलूक चाहे उन के साथ कर सकता है. किसी ने पागलखाने में खबर की. हर रात  का तमाशा सब के लिए असहनीय होता जा रहा था. एक रात गाड़ी आई और उन्हें ले गई. मेरे पति सब देख कर आए थे. मन भर आया था उन का.

‘‘वह आंटीजी कैसे सजासंवार कर रखती थीं इस आदमी को. आज गंदगी का बोरा लग रहा था…बदबू आ रही थी.’’

आंखें भर आईं मेरी. सच ही कहा है कहने वालों ने कि काफी हद तक अपने जीवन के सुख या दुख का निर्धारण मनुष्य अपने ही अच्छेबुरे कर्मों से करता है. श्रीमती गोयल तो अपनी सजा भोग चुकीं, श्रीमान गोयल की सजा अब भी जारी है.

फ्लौपी

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

मेरो मदन गोपाल

रामपुरा गांव में बैरागिन माताश्री के सत्संग का काफी प्रचार हो रहा था. इस से पहले शहर में 7 दिन तक उन्होंने भागवत कथा की धूम मचा रखी थी. माताश्री से दीक्षा लेने के लिए लोगों की कतारें लग गई थीं. ईर्ष्यावश कृष्ण मंदिर के पुजारी के मुंह से निकल ही गया, ‘‘घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध…माताश्री ने 7 दिन में ही लगभग 2 लाख रुपए बटोर लिए हैं. हमें कोई ससुरा 21 या 51 रुपए से ज्यादा दक्षिणा नहीं देता.’’

रामपुरा गांव के पहले के जमींदार और अब के सरपंच स्वरूप सिंह ने भी माताश्री की कथा को सुना था. उन के मन में भक्ति रस की लहरों ने जोर मारा तो अपने गांव में भी कथा करवाने की जिद सी ठान ली. उन के छोटे भाई योगेश और बेटे मनोज ने बहुत समझाया कि इन ढकोसलों में कुछ नहीं रखा. पर स्वरूप सिंह ने किसी की एक न मानी. माताश्री बड़ी मुश्किल से 21 हजार रुपए दक्षिणा पाने के प्रस्ताव पर 3 दिन तक सत्संग करने को राजी हुईं.

कथास्थल को काफी भव्य रूप प्रदान किया गया था. सुसज्जित मंच की शोभा देखने लायक थी. आसपास के 5-6 गांवों की भीड़ जमा हो गई थी. सुनने वालों के लिए रंगबिरंगे शामियाने तान दिए गए थे. रोशनी की जगमगाहट में पूरा माहौल भक्ति रस में डूबने को तैयार था. 7 बजे के लगभग भजनकीर्तन आरंभ हुआ. उस के बाद माताश्री के प्रवचन ने भक्तों को काफी प्रभावित किया. इस के बाद कीर्तन मंडली ने फिर से अपना रंग जमाया.

अलगअलग साजों के संग नईनई फिल्मी तर्जों पर तैयार किए गए भजनों को सुन कर पंडाल में बैठे ग्रामीण झूमझूम कर तालियां बजाने लगे. ‘धूम मचा दे…धूम मचा दे…’ गीत की तर्ज पर गाए भजन पर तो आगे बैठे 7-8 युवक मस्ती में ठुमके लगाने लगे. कार्यक्रम समाप्त होने से पहले माताश्री ने एक भजन गाया…

‘मेरो मदन गोपाल…मेरो मदन गोपाल…

सोनाचांदी मैं ना चाहूं ना चाहूं धनमाल…

मेरो मदन गोपाल…’

माताश्री के सुरीले कंठ से गाए गए इस भजन ने श्रोताओं को पूरी तरह सम्मोहित कर दिया. कथा की समाप्ति पर एक वृद्धा बोल उठी, ‘‘माताश्री कितना त्यागमय जीवन जी रही हैं. कोई लोभलालच नहीं, कोई ऐशोआराम नहीं…किसी तरह की सुखसुविधा की इच्छा नहीं…’’

माताश्री के रात्रि विश्राम के लिए सरपंच के सड़क किनारे बने नए दो- मंजिला मकान में शानदार प्रबंध था. भोजन में पुलाव, 3 सब्जियां, दाल, पूरी व खीर आदि का इंतजाम था.

दूसरे दिन भी रात में सत्संग का वैसा ही कार्यक्रम था, पर तीसरे दिन गड़बड़ हो गई. लगभग 70 किलोमीटर दूर के कसबे से फोन आया कि सरपंचजी के ससुर इस दुनिया से कूच कर गए हैं. अत: वे पत्नी के संग ससुराल जाने की तैयारी करने लगे. जातेजाते सरपंच अपने छोटे भाई और बेटे को समझा गए कि सत्संग में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए. उन्हें डर था कि भाई और बेटा कोई चाल न चल जाएं, अत: भेंटपूजा के रूप में वस्त्र, मिठाई, फलों की 2 टोकरियां और 21 हजार रुपए माताश्री को उसी समय देते गए.

तीसरे दिन ठीक समय पर माताश्री का प्रवचन शुरू हुआ. फिर लगभग 1 घंटे तक श्रोताओं ने भजनों का आनंद लिया. कथा समाप्ति पर श्रोता घरों को लौटने लगे. अचानक सभी लोग पंडाल में प्रवेश करती बैलगाड़ी को कौतुक से देखने लगे. सरपंच के बेटे मनोज ने माताश्री के समक्ष जा कर हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हमारे पापों को क्षमा करें…आप को विश्रामस्थल तक पहुंचाने के लिए हम ने नाहक ही कार का इस्तेमाल किया. आप के त्यागमयी शरीर को इस से कितना कष्ट हुआ होगा. चलिए, अब बैलगाड़ी में सवार हो जाइए, मौसम भी खराब है…किसी समय भी बरसात हो सकती है.’’

माताश्री और उन की मुख्य शिष्या क्रोध में भुनभुनाती हुई बैलगाड़ी पर सवार हो गईं. भजनमंडली पैदल चलने लगी.

माताश्री अभी पहले सदमे से उबरी भी नहीं थीं कि एक दूसरा हृदय विदारक दृश्य उन की आंखों के सामने साकार हो उठा. बैलगाड़ी खेत के किनारे बनी एक झोंपड़ी के सामने जा कर रुक गई. अब तो माताश्री से रहा न गया, गुस्से में उबलती हुई तीखी आवाज में बोलीं, ‘‘तुम्हारे पिता के आग्रह को हम ठुकरा न सके. अगर मालूम होता कि ऐसे भक्त के घर में कंस जैसा बेटा और रावण जैसा भाई मौजूद हैं तो 21 क्या, हम 51 हजार रुपए में भी इस ओर न झांकते. बच्चे, तुम अभी हमारी हस्ती से परिचित नहीं हो.’’

‘‘शांत, माताश्री, शांत…आप स्वयं ही भजन गा रही थीं कि ‘नहीं चाहिए महल चौबारे, रहूं झोंपड़ी में खुशहाल…’ अत: हम ने सोचा, चौबारे में पलंग पर बिछे मखमली गद्दे पर लेटने से आप की आत्मा को कितना कष्ट झेलना पड़ा होगा. अब आप स्वयं सोचिए, हम भला यह पाप क्योंकर करते?’’ सरपंच के भाई योगेश की व्यंग्य भरी वाणी सुन कर साथ खड़े युवक अपनी हंसी न रोक सके.

तभी 2 सूखी रोटियों और मूंग की दाल से सजी थाली को माताश्री के सामने रखते हुए मनोज ने धीरे से कहा, ‘‘क्षमा करें, हम ने 2 दिन तक हलवा, पूरी, पनीर और खीर खिला कर आप के साथ घोर अन्याय किया है. जैसा कि आप भजन गा रही थीं कि ‘खाने को न चाहिए हलवा पूरी, दो रोटी व मूंग की दाल…’ अत: आप की उसी फरमाइश को ध्यान में रखते हुए हम ने यह सादा व पवित्र भोजन तैयार करवाया है. धन्य हैं आप और धन्य हैं आप का त्यागमय जीवन…आप वास्तव में महान हैं…’’

‘‘शंभू,’’ माताश्री ने अपने ड्राइवर की ओर क्रोध से देखा, ‘‘तुम भी इन पापियों की बातें सुन कर दांत फाड़ रहे हो…जल्दी से अपनी गाड़ी ले कर आओ.’’

तभी एक देहाती ने ऊंचे स्वर में गाया, ‘‘अब तो हो गया बुरा हाल, टूट गई जोग की तलवार और बैराग की ढाल, मेरो तो मदन गोपाल…मेरो तो मदन गोपाल.’’

इन पंक्तियों को सुन कर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया.

माताश्री शीघ्र ही अपनी मंडली के संग गांव से ही विदा नहीं हुईं, शहर के मंदिर में रखा बोरियाबिस्तर समेट कर रातोंरात वहां से भी नौ दो ग्यारह हो गईं. वह जानती थीं कि गांव की घटना तरहतरह के मिर्चमसालों के संग सुबह होतेहोते पूरे शहर में फैल चुकी होगी. अत: ऐसी स्थिति में भय, लज्जा और अपमान से बचने के लिए वे जल्द से जल्द वहां से बहुत दूर निकल जाना चाहती थीं.

कुछ दिनों बाद पता लगा, माताश्री की शादी उन के ड्राइवर शंभू से हो गई. दोबारा बैलगाड़ी पर न चढ़ना पड़े, लगता है माताश्री ने इस का पूरा इंतजाम कर लिया था.

दुश्चक्र

स्कूल छूटने के बाद मैं साथी शिक्षिकाओं के साथ घर लौट रही थी, तभी घर के पास वाले चौराहे पर एक आवाज सुनाई दी, ‘बहनजी, जरा सुनिए तो.’

पहले तो मैं ने आवाज को अनसुना कर दिया यह सोच कर कि शायद किसी और के लिए आवाज हो लेकिन वही आवाज जब मुझे दोबारा सुनाई दी, ‘बहनजी, मैं आप से ही कह रहा हूं, जरा इधर तो आइए,’ तो इस बार मजबूरन मुझे उस दिशा में देखना ही पड़ा.

मैं ने देखा, चौराहे पर स्थित एकमात्र पान की दुकान वाला मुझे ही बुला रहा था. मुझे भी आश्चर्य हुआ कि पान की दुकान पर भला मेरा क्या काम? साथ की शिक्षिकाएं भी मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगीं, लेकिन जब मुझे स्वयं ही कुछ पता नहीं था तो मैं भला उन से क्या कहती? अत: उन सब को वहीं छोड़ कर मैं पान की दुकान पर पहुंच गई और दुकानदार से कुछ पूछती उस से पहले उस ने स्वयं ही बोलना शुरू कर दिया :

‘‘बहनजी, आप इस महल्ले में अभी नईनई ही आई हैं न?’’

‘‘जी हां, अभी पिछले महीने ही मैं ने गुप्ताजी का मकान किराए पर लिया है,’’ मैं ने उसे जवाब दे दिया फिर भी दुकानदार द्वारा बुलाने का कारण मेरी समझ में नहीं आया.

‘‘अच्छा, तो मिस्टर श्याम आप के पति हैं?’’ दुकानदार ने आगे पूछा.

‘‘जी हां, लेकिन आप यह सब पूछ क्यों रहे हैं?’’ अब उस दुकानदार पर मुझे खीज होने लगी थी.

‘‘कुछ खास बात नहीं है, मुझे तो आप को सिर्फ यह बताना था कि सुबह  आप के पति दुकान पर आए थे और सिगरेट के 2 पैकेट, 4 जोड़े पान और कोल्डडिं्रक की 1 बड़ी बोतल ले गए थे. उस वक्त शायद उन की जेब में पैसे नहीं थे या फिर वे अपना पर्स घर पर ही भूल गए थे. उन्होेंने आप का परिचय दे कर आप से रुपए ले लेने के लिए कहा था,’’ दुकानदार ने मुझे बुलाने का अपना प्रयोजन स्पष्ट किया.

मैं ने पर्स खोल कर 100 रुपए का एक नोट दुकानदार की ओर बढ़ा दिया. उस ने पैसे काट कर जो पैसे वापस दिए, उन्हें बिना गिने ही मैं ने पर्स में रखा और वहां से चल दी. रास्ते में सोचने लगी कि इस आदमी ने यहां भी उधार लेना शुरू कर दिया. मेरे कानों में दुकानदार के कहे शब्द अब भी गूंज रहे थे :

‘कुछ भी हो आदमी वे बड़े दिलचस्प हैं. बातों का तो जैसे उन के पास खजाना है. बड़े काम की बातें करते हैं. दिमाग भी उन्होंने गजब का पाया है. मेरी दुकान की तो बहुत तारीफ कर रहे थे. साथ ही कुछ सुझाव भी दे गए.’

‘दिमाग की ही तो खा रहा है,’ मन ही मन सोचा और शिक्षिकाओं के समूह से आ मिली.

‘‘क्यों? क्या बात हो गई? क्यों बुलाया था दुकानदार ने?’’ रीना मैडम ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस यों ही,’’ कहते हुए मैं ने बात को टाल दिया.

वे भी शायद घर पहुंचने की जल्दी में थीं, इसलिए किसी ने भी बात को आगे नहीं बढ़ाया. सब चुपचाप जल्दीजल्दी अपनेअपने घरों की ओर बढ़ने लगीं.

घर पहुंची तो देखा महाशय ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट कर सिगरेट फूंक रहे थे. टेलीविजन चल रहा था और एक फैशन चैनल पर आधुनिक फैशन का ज्ञान लिया जा रहा था.

मुझे देखते ही श्याम बोले, ‘‘अच्छा हुआ यार, तुम आ गईं. मैं भी घर पर बैठेबैठे बोर हो रहा था. टेलीविजन भी कोई कहां तक देखे? फिर इस पर भी तो वही सब घिसेपिटे कार्यक्रम ही आते हैं.’’

जवाब में मैं ने कुछ भी नहीं कहा.

मेरी चुप्पी की ओर बिना कोई ध्यान दिए श्याम बोले, ‘‘सुनो, बहुत जोर की भूख लगी है. मैं सोच ही रहा था कि तुम आ जाओ तो साथ में भोजन करते हैं. अब तुम आ गई हो तो चलो फटाफट भोजन लगाओ, तब तक मैं हाथ धो कर आता हूं.’’

मेरा मन तो हुआ कि पूछ लूं, ‘क्या थाली ले कर खा भी नहीं सकते हो. सुबह स्कूल जाने से पहले ही मैं पूरा भोजन बना कर जाती हूं, क्या भोजन परोस कर खाना भी नहीं होता?’ लेकिन फालतू का विवाद हो जाएगा, यह सोच कर चुप रही.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ मुझे चुप देख कर श्याम ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ मैं ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

अभी मैं आगे कुछ कहती, इस से पहले ही जैसे श्याम को कुछ याद आ गया, वह बोले, ‘‘अरे, हां यार, घर में कुछ पैसे तो रख कर जाया करो. आज तुम्हारे जाने के बाद मुझे सिगरेट के लिए पैसों की जरूरत थी. पूरा घर छान मारा पर कहीं भी एक पैसा नहीं मिला. मजबूरन नुक्कड़ वाली पान की दुकान से मुझे सिगरेट उधार लेनी पड़ी. अभी कुछ रुपए दे देना तो शाम को मैं उस के रुपए चुका आऊंगा.’’

‘‘आप का उधार मैं ने चुका दिया है,’’ मैं ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और भोजन गरम करने में लग गई.

भोजन करते समय श्याम एक बार फिर शुरू हो गए, ‘‘यार, वंदना, यह तो बहुत ही गलत बात है कि सारे पैसे पर्स में रख कर तुम स्कूल चली जाती हो. ए.टी.एम. कार्ड भी तुम्हारे ही पास रहता है. ऐसे में अचानक यदि मुझे रुपयों की जरूरत पड़ जाए तो मैं क्या करूं, किस से मांगूं? जरा मेरी हालत के बारे में भी तो सोचो. मैं यहां पर घर की रखवाली करूं, सारी व्यवस्थाएं करूं, तुम्हारी देखभाल करूं, तुम्हारी सुरक्षा की चिंता करूं. ऐसे में यदि मेरी ही जेब खाली हो तो मैं कैसे ये सबकुछ कर पाऊंगा. पैसों की आवश्यकता तो पगपग पर होती है. अरे, तुम्हारे लिए ही तो मैं यहां पड़ा हूं.’’

‘‘आप को कुछ भी करने की जरूरत नहीं है. क्या करना है, कैसे करना है, मुझे सब पता है. और हां, रुपयों की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. कोई रुपए मांगते हुए यहां घर तक नहीं आएगा. मुझे सब का हिसाब करना आता है,’’ मैं ने तिक्त स्वर में कहा.

पिछला अनुभव मुझे अच्छी तरह याद है कि उधार तो चुकेगा नहीं, उलटे दोबारा भुगतान अलग से करना पड़ जाएगा. रायपुर का एक किस्सा मुझे अच्छी तरह याद है कि किस तरह मुझे दुकानदारों के सामने शर्मिंदा होना पड़ता था. किस तरह एक ही बिल का मुझे 2 बार भुगतान करना पड़ता था. एक बार तो एक दुकानदार ने पूछ भी लिया था, ‘मैडमजी, यदि बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकता हूं?’

‘पूछिए, गुप्ताजी क्या पूछना चाहते हैं आप?’ मुझे कहना पड़ा था क्योंकि गुप्ता किराना वाले के मुझ पर बहुत से एहसान थे.

‘मैडम, श्याम भाई कुछ करते क्यों नहीं? आप कहें तो मैं उन के लिए कहीं नौकरी की बात करूं?’ गुप्ताजी ने कुछ संकोच से पूछा था.

‘गुप्ताजी, बेहतर होगा ये सब बातें आप उन्हीं से कीजिए. उन के बारे में भला मैं क्या कह सकती हूं? अपने बारे में वे स्वयं ज्यादा अच्छी तरह से बता पाएंगे,’ कहते हुए मैं ने घर की तरफ कदम बढ़ा दिए थे.

‘‘कुछ ले नहीं रही हो, तबीयत खराब है क्या?’’ रुके हुए हाथ को देख कर श्याम ने पूछा.

‘‘कुछ विशेष नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है,’’ कह कर मैं किसी तरह थाली में लिया भोजन समाप्त कर के बिस्तर पर आ कर लेट गई. अतीत किसी चलचित्र की तरह मेरी आंखों के सामने घूमने लगा था.

मातापिता और भाइयों के मना करने और सब के द्वारा श्याम के सभी दुर्गुणों को बताने के बावजूद मैं ने श्याम से प्रेम विवाह किया था. श्याम ने मुझे भरोसा दिलाया था कि शादी के बाद वह स्वयं को पूरी तरह से बदल लेगा और अपनी सारी बुराइयों को छोड़ देगा.

शादी के बाद जब श्याम ने मुझे नौकरी के लिए प्रोत्साहित किया तो श्याम की सोच पर मुझे गर्व हुआ था. श्याम का कहना था कि यदि हम दोनों नौकरी करेंगे तो हमारी गृहस्थी की गाड़ी और ज्यादा अच्छी तरह से चल निकलेगी. उस समय मुझे श्याम की चालाकी का जरा भी अनुभव नहीं हुआ था…लगा कि श्याम सच ही कह रहा है. यदि मैं पढ़ीलिखी हूं, प्रशिक्षित हूं तो मुझे अपने ज्ञान का सदुपयोग करना चाहिए. उसे यों ही व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए.

संयोग से हमारी शादी के कुछ दिनों बाद ही केंद्रीय विद्यालय समूह में नौकरी (शिक्षकों) की रिक्तियां निकलीं. श्याम के सुझाव पर मैं ने भी आवेदनपत्र जमा कर दिया. जिस दिन मुझे शिक्षिका की नौकरी मिली उस दिन मुझ से ज्यादा खुश श्याम था.

श्याम की आंखों की चमक ने मेरी खुशियों को दोगुना कर दिया था. मुझे तब ऐसा लगा था जैसे श्याम को पा कर मैं ने जिंदगी में सबकुछ पा लिया. मेरी जिंदगी धन्य हो गई. हां, एक बात मुझे जरूर खटकती थी कि मुझ से वादा करने के बाद भी श्याम ने अपनी सिगरेट और शराब की आदतें छोड़ी नहीं थीं. कई बार तो मुझे ऐसा लगता जैसे वह पहले से कहीं अधिक शराब पीने लगा है.

श्याम की नौकरी लगे मुश्किल से 8 महीने भी नहीं हुए थे कि अचानक एक दिन श्याम के आफिस से उस के निलंबन का पत्र आ गया. कारण था, शराब पी कर दफ्तर आना और अपने सहकर्मियों के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार करना. दफ्तर का काम न करना, लेकिन श्याम पर जैसे इस निलंबन का कोई असर ही नहीं पड़ा. उलटे उस पत्र के आने के बाद वह और अधिक शराब पीने लगा.

कभीकभी वह शराब के नशे में बड़बड़ाता, ‘करो, जो करना है करो. निलंबित करो चाहे नौकरी से निकालो या और भी कुछ बुरा कर सकते हो तो करो. यहां नौकरी की चिंता किसे है? अरे, चिंता करनी ही होती तो पत्नी को नौकरी पर क्यों लगवाता. चिंता तो वे करें जिन के घर में अकेला पति कमाने वाला हो. यहां तो मेरी पत्नी भी एक केंद्रीय कर्मचारी है. यदि मेरी नौकरी छूट भी गई तो एकदम सड़क पर नहीं आ जाऊंगा. मेरा घर तो चलता रहेगा. मैं नहीं तो पत्नी कमाएगी.’

वह दिन है और आज का दिन है. अकेली मैं कमा रही हूं. मुझे स्वयं ही नहीं मालूम कि कब तक अपने कंधों पर न केवल खुद का बल्कि अपने पति का भार भी ढोना पड़ेगा. अचानक मुझे अपने कंधों में दर्द का अनुभव होने लगा. दर्द के मारे मेरे कंधे झुकते चले गए.

सहायक प्रबंधक

चींटी की गति से रेंगती यात्री रेलगाड़ी हर 10 कदम पर रुक जाती थी. वैसे तो राजधानी से खुशालनगर मुश्किल से 2 घंटे का रास्ता होगा, पर खटारा रेलगाड़ी में बैठे हुए उन्हें 6 घंटे से अधिक का समय हो चुका था.

राजशेखरजी ने एक नजर अपने डब्बे में बैठे सहयात्रियों पर डाली. अधिकतर पुरुष यात्रियों के शरीर पर मात्र घुटनों तक पहुंचती धोती थी. कुछ एक ने कमीजनुमा वस्त्र भी पहन रखा था पर उस बेढंगी पोशाक को देख कर एक क्षण को तो राजशेखर बाबू उस भयानक गरमी और असह्य सहयात्रियों के बीच भी मुसकरा दिए थे.

अधिकतर औरतों ने एक सूती साड़ी से अपने को ढांप रखा था. उसी के पल्ले को करीने से लपेट कर उन्होंने आगे खोंस रखा था. शहर में ऐसी वेशभूषा को देख कर संभ्रांत नागरिक शायद नाकभौं सिकोड़ लेते, महिलाएं, खासकर युवतियां अपने विशेष अंदाज में फिक्क से हंस कर नजरें घुमा लेतीं. पर राजशेखरजी उन के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर ठगे से रह गए थे. उन के परिश्रमी गठे हुए शरीर केवल एक सूती धोती में लिपटे होने पर भी कहीं से अश्लील नहीं लग रहे थे. कोई फैशन वाली पोशाक लाख प्रयत्न करने पर भी शायद वह प्रभाव पैदा नहीं कर सकती थी. अधिकतर महिलाओं ने बड़े सहज ढंग से बालों को जूड़े में बांध कर स्थानीय फूलों से सजा रखा था.

तभी उन के साथ चल रहे चपरासी नेकचंद ने करवट बदली तो उन की तंद्रा भंग हुई.

‘यह क्या सोचने लगे वे?’ उन्होंने खुद को ही लताड़ा था. कितना गरीब इलाका है यह? लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र तक नहीं है. उन्होंने अपनी पैंट और कमीज पर नजर दौड़ाई थी…यहां तो यह साधारण वेशभूषा भी खास लग रही थी.

‘‘अरे, ओ नेकचंद. कब तक सोता रहेगा? बैंक में अपने स्टूल पर बैठा ऊंघता रहता है, यहां रेल के डब्बे में घुसते ही लंबा लेट गया और तब से गहरी नींद में सो रहा है,’’ उन के पुकारने पर भी चपरासी नेकचंद की नींद नहीं खुली थी.

तभी रेलगाड़ी जोर की सीटी के साथ रुक गई थी.

‘‘नेकचंद…अरे, ओ कुंभकर्ण. उठ स्टेशन आ गया है,’’ इस बार झुंझला कर उन्होंने नेकचंद को पूरी तरह हिला दिया.

वह हड़बड़ा कर उठा और खिड़की से बाहर झांकने लगा.

‘‘यह रहबरपुर नहीं है साहब, यहां तो गाड़ी यों ही रुक गई है,’’ कह कर वह पुन: लेट गया.

‘‘हमें रहबरपुर नहीं खुशालनगर जाना है,’’ राजशेखरजी ने मानो उसे याद दिलाया था.

‘‘रहबरपुर के स्टेशन पर उतर कर बैलगाड़ी या किसी अन्य सवारी से खुशालनगर जाना पड़ेगा. वहां तक यह ट्रेन नहीं जाएगी,’’ नेकचंद ने चैन से आंखें मूंद ली थीं.

बारबार रुकती और रुक कर फिर बढ़ती वह रेलगाड़ी जब अपने गंतव्य तक पहुंची, दिन के 2 बज रहे थे.

‘‘चलो नेकचंद, शीघ्रता से खुशालनगर जाने वाली किसी सवारी का प्रबंध करो…नहीं तो यहीं संध्या हो जाएगी,’’ राजशेखरजी अपना बैग उठा कर आगे बढ़ते हुए बोले थे.

‘‘हुजूर, माईबाप, ऐसा जुल्म मत करो. सुबह से मुंह में एक दाना भी नहीं गया है. स्टेशन पर सामने वह दुकान है… वह गरम पूरियां उतार रहा है. यहां से पेटपूजा कर के ही आगे बढ़ेंगे हम,’’ नेकचंद ने अनुनय की थी.

‘‘क्या हुआ है तुम्हें नेकचंद? यह भी कोई खाने की जगह है? कहीं ढंग के रेस्तरां में बैठ कर खाएंगे.’’

‘‘रेस्तरां और यहां,’’ नेकचंद हंसा था, ‘‘सर, यहां और खुशालनगर तो क्या आसपास के 20 गांवों में भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा. मैं तो बिना खाए यहां से टस से मस नहीं होने वाला,’’ इतना कह कर नेकचंद दुकान के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गया.

‘‘ठीक है, खाओ, तुम्हें तो मैं साथ ला कर पछता रहा हूं,’’ राजशेखरजी ने हथियार डाल दिए थे.

‘‘हुजूर, आप के लिए भी ले आऊं?’’ नेकचंद को पूरीसब्जी की प्लेट पकड़ा कर दुकानदार ने बड़े मीठे स्वर में पूछा था.

राजशेखरजी को जोर की भूख लगी थी पर उस छोटी सी दुकान में खाने में उन का अभिजात्य आड़े आ रहा था.

‘‘मेरी दुकान जैसी पूरीसब्जी पूरे चौबीसे में नहीं मिलती साहब, और मेरी मसालेदार चाय पीने के लिए तो लोग मीलों दूर से चल कर यहां आते हैं,’’ दुकानदार गर्वपूर्ण स्वर में बोला था.

‘‘ठीक है, तुम इतना जोर दे रहे हो तो ले आओ एक प्लेट पूरीभाजी. और हां, तुम्हारी मसालेदार चाय तो हम अवश्य पिएंगे,’’ राजशेखरजी भी वहीं बैंच पर जम गए थे.

नेकचंद भेदभरे ढंग से मुसकराया था पर राजशेखरजी ने उसे अनदेखा कर दिया था.

कुबेर बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर राजशेखरजी की नियुक्ति हुई थी तो प्रसन्नता से वह फूले नहीं समाए थे. किसी वातानुकूलित भवन में सजेधजे केबिन में बैठ कर दूसरों पर हुक्म चलाने की उन्होंने कल्पना की थी. पर मुख्यालय ने उन्हें ऋण उगाहने के काम पर लगा दिया था. इसी चक्कर में उन्हें लगभग हर रोज दूरदराज के नगरों और गांवों की खाक छाननी पड़ती थी.

पूरीसब्जी समाप्त होते ही दुकानदार गरम मसालेदार चाय दे गया था. चाय सचमुच स्वादिष्ठ थी पर राजशेखरजी को खुशालनगर पहुंचने की चिंता सता रही थी.

बैलगाड़ी से 4 मील का मार्ग तय करने में ही राजशेखर बाबू की कमर जवाब दे गई थी. पर नेकचंद इन हिचकोलों के बीच भी राह भर ऊंघता रहा था. फिर भी राजशेखर बाबू ने नेकचंद को धन्यवाद दिया था. वह तो मोटरसाइकिल पर आने की सोच रहे थे पर नेकचंद ने ही इस क्षेत्र की सड़कों की दशा का ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया था कि उन्होंने वह विचार त्याग दिया था.

कुबेर बैंक की कर्जदार लक्ष्मी का घर ढूंढ़ने में राजशेखरजी को काफी समय लगा था. नेकचंद साथ न होता तो शायद वहां तक कभी न पहुंच पाते. 2-3-8/ए खुशालनगर जैसा लंबाचौड़ा पता ढूंढ़ते हुए जिस घर के आगे वह रुका, उस की जर्जर हालत देख कर राजशेखरजी चकित रह गए थे. ईंट की बदरंग दीवारों पर टिन की छत थी और एक कमरे के उस घर के मुख्यद्वार पर टाट का परदा लहरा रहा था.

‘‘तुम ने पता ठीक से देख लिया है न,’’ राजशेखरजी ने हिचकिचाते हुए पूछा था.

‘‘अभी पता चल जाएगा हुजूर,’’ नेकचंद ने आश्वासन दिया था.

‘‘लक्ष्मीलताजी हाजिर हों…’’ नेकचंद गला फाड़ कर चीखा था मानो किसी मुवक्किल को जज के समक्ष उपस्थित होने को पुकार रहा हो. उस का स्वर सुन कर आसपास के पेड़ों पर बैठी चिडि़यां घबरा कर उड़ गई थीं पर उस घर में कोई हलचल नहीं हुई. नेकचंद ने जोर से द्वार पीटा तो द्वार खुला था और एक वृद्ध ने अपना चश्मा ठीक करते हुए आगंतुकों को पहचानने का यत्न किया था.

‘‘कौन है भाई?’’ अपने प्रयत्न में असफल रहने पर वृद्ध ने प्रश्न किया था.

‘‘हम कुबेर बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी क्या यहीं रहती हैं?’’

‘‘कौन लता, भैया?’’

‘‘लक्ष्मीलता.’’

‘‘अरे, अपनी लक्ष्मी को पूछ रहे हैं. हां, बेटा यहीं रहती है…हमारी बहू है,’’ तभी एक वृद्धा जो संभवत: वृद्ध की पत्नी थीं, वहां आ कर बोली थीं.

‘‘अरे, तो बुलाइए न उसे. हम कुबेर बैंक से आए हैं,’’ राजशेखरजी ने स्पष्ट किया था.

‘‘क्या भैया, सरकारी आदमी हो क्या? कुछ मुआवजा आदि ले कर आए हो क्या?’’ वृद्ध घबरा कर बोले थे.

‘‘मुआवजा? किस बात का मुआवजा?’’ राजशेखरजी ने हैरान हो कर प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही कर दिया था.

‘‘हमारी फसलें खराब होने का मुआवजा. सुना है, सरकार हर गरीब को इतना दे रही है कि वह पेट भर के खा सके.’’

‘‘हुजूर, लगता है बूढ़े का दिमाग फिर गया है,’’ नेकचंद हंसने लगा था.

‘‘यह क्या हंसने की बात है?’’ राजशेखरजी ने नेकचंद को घुड़क दिया था.

‘‘देखिए, हम सरकारी आदमी नहीं हैं. हम बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी ने हमारे बैंक से कर्ज लिया था. हम उसे उगाहने आए हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हैं आप? जरा बुलाओ तो लक्ष्मी को,’’ वृद्ध अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला था.

दूसरे ही क्षण लक्ष्मीलता आ खड़ी हुई थी.

‘‘लक्ष्मीलता आप ही हैं?’’ राजशेखरजी ने प्रश्न किया था.

‘‘जी हां.’’

‘‘मैं राजधानी से आया हूं, कुबेर बैंक से आप के नाम 82 हजार रुपए बकाया है. आप ने एक सप्ताह के अंदर कर्ज नहीं लौटाया तो कुर्की का आदेश दे दिया जाएगा.’’

‘‘क्या कह रहे हो साहब, 82 हजार तो बहुत बड़ी रकम है. हम ने तो एकसाथ 82 रुपए भी नहीं देखे. हम ने तो न कभी राजधानी की शक्ल देखी है न आप के कुबेर बैंक की.’’

‘‘हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है. हमारे पास सब कागजपत्र हैं. तुम्हारे दस्तखत वाला प्रमाण है,’’ नेकचंद बोला था.

‘‘लो और सुनो, मेरे दस्तखत, भैया किसी और लक्ष्मीलता को ढूंढ़ो. मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है. अंगूठाछाप हूं मैं. रही बात कुर्की की तो वह भी करवा ही लो. घर में कुछ बर्तन हैं. कुछ रोजाना पहनने के कपड़े और डोलबालटी. यह एक कमरे का टूटाफूटा झोपड़ा है. जो कोई इन सब का 82 हजार रुपए दे तो आप ले लो,’’ लक्ष्मीलता तैश में आ गई थी.

अब तक वहां भारी भीड़ एकत्रित हो गई थी.

‘‘साहब, कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है. लक्ष्मीलता तो केवल नाम की लक्ष्मी है. इसे बैंक तो छोडि़ए गांव का साहूकार 10 रुपए भी उधार न दे,’’ एक पड़ोसी यदुनाथ ने बीचबचाव करना चाहा था.

‘‘देखिए, मैं इतनी दूर से रेलगाड़ी, बैलगाड़ी से यात्रा कर के क्या केवल झूठ, आरोप लगाने आऊंगा? यह देखिए प्रोनोट, नाम और पता इन का है या नहीं. नीचे अंगूठा भी लगा है. 5 वर्ष पहले 10 हजार रुपए का कर्ज लिया था जो ब्याज के साथ अब 82 हजार रुपया हो गया है,’’ राजशेखरजी ने एक ही सांस में सारा विवरण दे दिया था.

वहां खड़े लोगों में सरसराहट सी फैल गई थी. आजकल ऐसे कर्ज उगाहने वाले अकसर गांव में आने लगे थे. अनापशनाप रकम बता कर कागजपत्र दिखा कर लोगों को परेशान करते थे.

‘‘देखिए, मैनेजर साहब. लक्ष्मीलता ने तो कभी किसी बैंक का मुंह तक नहीं देखा. वैसे भी 82 हजार तो क्या वह तो आप को 82 रुपए देने की स्थिति में नहीं है,’’ यदुनाथ तथा कुछ और व्यक्तियों ने बीचबचाव करना चाहा था.

‘‘अरे, लेते समय तो सोचा नहीं, देने का समय आया तो गरीबी का रोना रोने लगे? और यह रतन कुमार कौन है? उन्होंने गारंटी दी थी इस कर्ज की. लक्ष्मीलता नहीं दे सकतीं तो रतन कुमार का गला दबा कर वसूल करेंगे. 100 एकड़ जमीन है उन के पास. अमीर आदमी हैं.’’

‘‘रतन कुमार? इस नाम को तो कभी अपने गांव में हम ने सुना नहीं है. किसी और गांव के होंगे.’’

‘‘नाम तो खुशालनगर का ही लिखा है पते में. अभी हम सरपंचजी के घर जा कर आते हैं. वहां से सब पता कर लेंगे. पर कहे देते हैं कि ब्याज सहित कर्ज वसूल करेंगे हम,’’ राजशेखरजी और नेकचंद चल पड़े थे. सरपंचजी घर पर नहीं मिले थे.

‘‘अब कहां चलें हुजूर?’’ नेकचंद ने प्रश्न किया था.

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. क्या करें, क्या न करें. मुझे तो स्वयं विश्वास नहीं हो रहा कि उस गरीब लक्ष्मीलता ने यह कर्ज लिया होगा,’’ राजशेखरजी बोले थे.

‘‘साहब, आप नए आए हैं अभी. ऐसे सैकड़ों कर्जदार हैं अपने बैंक के. सब मिलीभगत है. सरपंचजी, हमारे बैंक के कुछ लोग, कुछ दादा लोग. किसकिस के नाम गिनेंगे. यह रतन कुमार नाम का प्राणी शायद ही मिले आप को. जमीन के कागज भी फर्जी ही होंगे,’’ नेकचंद ने समझाया था. निराश राजशेखर लौट चले थे.

बैंक पहुंचते ही मुख्य प्रबंधक महोदय की झाड़ पड़ी थी.

‘‘आप तो किसी काम के नहीं हैं राजेशखर बाबू, आप जहां भी उगाहने जाते हैं खाली हाथ ही लौटते हैं. सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. पर आप कहीं तो गुंडों की धमकी से डर कर भाग खड़े होते हैं तो कभी गरीबी का रोना सुन कर लौट आते हैं. जाइए, विपिन बाबू से और कर्जदारों की सूची ले लीजिए. कुछ तो उगाही कर के दिखाइए, नहीं तो आप का रिकार्ड खराब हो जाएगा.’’

उन्हें धमकी मिल गई थी. अगले कुछ माह में ही राजशेखर बाबू समझ गए थे कि उगाही करना उन के बस का काम नहीं था. वह न तो बैंक के लिए नए जमाकर्ता जुटा पा रहे थे और न ही उगाही कर पा रहे थे.

एक दिन इसी उधेड़बुन में डूबे अपने घर से निकले थे कि उन के मित्र निगम बाबू मिल गए थे.

‘‘कहिए, कैसी कट रही है कुबेर बैंक में?’’ निगम बाबू ने पूछा था.

‘‘ठीक है, आप बताइए, कालिज के क्या हालचाल हैं?’’

‘‘यहां भी सब ठीकठाक है… आप को आप के छात्र बहुत याद करते हैं पर आप युवा लोग कहां टिकते हैं कालिज में,’’ निगम बाबू बोले थे.

राजशेखर बाबू को झटका सा लगा था. कर क्या रहे थे वे बैंक में? उन ऋणों की उगाही जिन्हें देने में उन का कोई हाथ नहीं था. जिस स्वप्निल भविष्य की आशा में वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ कर कुबेर बैंक गए थे वह कहीं नजर नहीं आ रही थी.

वह दूसरे ही दिन अपने पुराने कालिज जा पहुंचे थे और पुन: कालिज में लौटने की इच्छा प्रकट की थी.

प्रधानाचार्य महोदय ने खुली बांहों से उन का स्वागत किया था. राजशेखरजी को लगा मानो पिंजरे से निकल कर खुली हवा में उड़ने का सुअवसर मिल गया हो.

री गैया पार करो मोरी चुनावी नैया 

वे अब के चुनाव के बहाव में किसी भी तरह अपनी सीट निकालने की फिराक में थे, ताकि इज्जत के साथ देश को खापचा सकें. बिना चुनाव जीते देश को खाने की हिम्मत और हिमाकत करने पर कब्ज होने का कभीकभार डर सा बना रहता है.

रात को जब वे सोए हुए भी जागे से थे तो अचानक सपना आया और उन्हें सुनाई दिया, ‘जो अब के चुनावी तरणी पार करना चाहते हो तो गाय की शरण में जाओ. उस का गोबर अपने बदन पर मलो. उस के मूत्र से नहाओ. अब के चुनाव में जनता का नहीं, गाय का सिक्का जम कर चलेगा. गाय का जिस पर आशीर्वाद होगा, वही सत्ता की लंगड़ी घोड़ी चढ़ेगा. इस बार जो गाय को रिझाने में कामयाब रहेगा, वही देश का भार अपने कंधों पर सहेगा.’

सपने की उस आवाज को सुनते ही वे कच्छेबनियान में ही उठे और निकल पड़े शहर के किसी कूड़े के ढेर के पास गाय ढूंढ़ने. अंधेरे में भी अपना मुंह छिपाते… पता नहीं, किस से. ओह, उन्होंने अभी भी अपने मुंह को छिपाने का रिवाज कायम रखा था.

मजे की बात तो यह रही कि उन को अपने घर के बाहर ही रात को फेंके गए कूड़े के पास गाय मिल गई, पर दिक्कत यह थी कि उस के साथ देश का एक नागरिक भी था, उन के फेंके कूड़े में रोटी ढूंढ़ता हुआ. गाय उसे अपने सींग से हटा रही थी तो वह उसे अपनी जबान से डरा रहा था. अब तो आम आदमी के पास जबान ही बची है डराने के लिए, जिसे कानों से बहरी सत्ता ने कभी का सुनना बंद कर दिया है.

पहले तो वे थोड़ा सहमे कि देश के तथाकथित अव्वल दर्जे के नेता होने के चलते एक उंगली भर के नागरिक ने उन्हें उन के द्वारा रात को खापी कर फेंके गए उन्हीं के कूड़े के पास देख लिया तो…?

पर जब जीत का खयाल आया तो वे हुंकार उठे. एकाएक उन्हें गाय में तैंतीस करोड़ वोटर दिखने लगे… अपने चुनाव क्षेत्र के वोटरों से कई गुना ज्यादा.

वे कूड़े के ढेर के पास चंदन की खुशबू लेते खड़ेखड़े सोचने लगे, ‘इतने वोटरों से तो मैं अकेला ही सरकार भी बना सकता हूं.’

कुछ देर और सोचने के बाद उन्होंने कूड़े के ढेर के पास से उस रोटी ढूंढ़ने वाले को हड़काया, धमकाया, भगाया. जब वह उन के डर से सिर पर पैर रख दूर भाग गया तो उन्होंने बिना इधरउधर देखे, कूड़े की परवाह किए बिना गाय की पूंछ के बदले उस के गंदे खुर पकड़े और हो गए आदतन चरणम् शरणम् गच्छामि.

गाय भी उन से जितना अपने खुर छुड़वाने की कोशिश करती, वे उतनी ही जोर से गाय के खुर पकड़ लेते.

कुछ देर कूड़े के ढेर में ही उन के खुर पकड़ने और गाय के खुर छुड़वाने के बीच काफी जद्दोजेहद हुई. आखिरकार जीत उन की हुई तो उन्हें चुनाव में भी अपनी जीत तय लगी.

वे पूरे बदन पर कूड़ा लगा होने के बाद भी खुश हो उठे. उन का जोश अब दोगुना हो गया था. अब बाजी उन के हाथ में थी.

जब गाय ने जनता की तरह उन के आगे लंगर डाल दिए तो गाय ने उन पर अपनी पूंछ घुमाते हुए पूछा, ‘‘क्या चाहते हो तुम चुनाव के दिनों में मुझ से?’’

‘‘हे गऊ मैया, अब के चुनाव में मैं बस आप का साथ चाहता हूं.’’

‘‘मेरा साथ, बोले तो…?’’

‘‘अगर तुम मुझ से खुश हो जाओ गऊ मैया, तो पार लग जाए मेरी

चुनावी नैया.’’

‘‘मतलब, मैं तुम्हारी नाव को चुनाव के दलदल से पार लगाऊं? न बाबा न. यह हम से न होगा. गांवदेश से ‘छोड़ी गईं’ भला कैसे किसी की नैया पार लगा सकती हैं? हम तो खुद ही अपना आसरा ढूंढ़ने के लिए मजबूर हैं.’’

‘‘हे गऊ मैया, मैं अब के तुम्हारे खुर पकड़ कर चुनावी तरणी पार करना चाहता हूं बस. मैं पिछले 20 सालों से चुनावी तरणी के भंवर में फंसा हूं. मत पूछो, देश सेवा करने को उतावले इस मन के क्या हाल हैं.’’

‘‘पर, आज तक तो मेरी पूंछ मरने

के बाद ही वैतरणी पार कराने में ही मददगार होती रही है. ऐसे में… मुझे शक है कि…’’

‘‘मां, कुछ भी करो. वोटरों के सिर पर बहुत चुनाव लड़ लिया. अब के चुनाव तुम्हारे सिर पर लड़ा जा रहा है, सो…’’ कह कर वे घोर मतलबी गाय के चरणों में लोटपोट हुए.

‘‘कल जो सूअर के सिर पर चुनाव लड़ा गया तो क्या तुम उस के भी खुर पकड़ लोगे? हद है तुम लोगों की भी. जब चुनाव के लिए मुद्दे न बचे तो मुझ लावारिस गाय को ही चुनावी मुद्दा बना लिया. कम से कम हम ढोरों को तो छोड़ देते देश के कर्णधारो.’’

‘‘हे गऊ मैया, यह वक्त बहस करने का नहीं है. जैसेतैसे चुनावी तरणी पार लगाने का है. अब के जो तुम मुझे जिता दोगी तो मैं तुम्हें वचन देता

हूं कि तुम्हारे लिए एक फाइवस्टार तबेला बनवाऊंगा.

‘‘हे गऊ, मैया, अगर तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं हर गलीमहल्ले से वहां के लोगों को बेदखल कर तुम्हारे लिए आलीशान गौशाला बनवाऊंगा.

‘‘जो तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं तुम्हें सड़क से उठा कर संसद में ले जाऊंगा.

‘‘तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं तुम्हें राष्ट्रमाता घोषित करवाऊंगा. तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो…’’ कहतेकहते उन का गला सूख गया.

यह देख कर अपने मुंह में देश का कचरा जुगालती गाय ने अपने मुंह में की गई जुगाली में से कुछ हिस्सा उन के मुंह में डाला तो वे उस से अपना मुंह गीला कर आगे कहने लायक हुए, ‘‘हे गऊ मैया, जो तुम मुझे अपना आशीर्वाद दोगी तो मैं…’’

तभी गाय ने उन्हें जोर से लात मारी और उन की नींद की खुमारी झट से गायब हो गई. वे इधरउधर ताकते हुए घर के अंदर भागे.

हौसले बुलंद रहें सरकार : पत्नी को खुश करने के लिए

आजकल पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है कि शाम को जब भी मैं औफिस से सहीसलामत घर लौट कर आता हूं तो पत्नी हैरान हो कर पूछती है, ‘आ गए आज भी वापस?’ कई बार तो मुझे उस के पूछने से ऐसा लगता है मानो मुझे शाम को सकुशल घर नहीं आना चाहिए था. उस के हिसाब से लगता है, वह मुझ से ऊब गई हो जैसे. वैसे, एक ही बंदे के साथ कोई 20 साल तक रहे, तो ऊबन, चुभन हो ही जाती है. मुझे भी कई बार होने लगती है.

हर रोज मेरे सकुशल घर आने पर उस में बढ़ती हैरानी को देख सच पूछो तो मैं भी परेशान होने लगा हूं. कई बार इस परेशानी में रात को नींद नहीं आती. अजीबअजीब से सपने आते हैं. कल रात के सपने ने तो मुझे तड़पा ही दिया.

मैं ने सपने में देखा कि जब मैं औफिस से सब्जी ले कर घर आ रहा था तो मेरा एनकाउंटर हो गया है. पुलिस कहानियां बना अपने को शेर साबित कर रही है. मीडिया में मरने के बाद मैं कुलांचे मार रहा हूं. इस देश में आम आदमी मरने के बाद ही कुलांचे मारता है वह भी मीडिया की कृपा से. बहरहाल, मामला आननफानन सरकार के द्वार पहुंचा तो उस ने मामले को सांत्वना देनी चाही. प्रशासन मेरी पत्नी के द्वार सांत्वना देने के बजाय मामला दबाने आ धमका. वह तो मेरे जाने से पहले ही प्रशासन का इंतजार कर रही थी जैसे.

मेरे फेक एनकाउंटर के बाद सरकार और पत्नी के बीच जो बातें हुईं, प्रस्तुत हैं, आने वाले समय में किए जाने वाले फेक एनकाउंटरों में शहीद होने वालों को प्रसन्न करने वाले उन बातों के कुछ अंश :

‘बहनजी, गलती हो गई, हमारे पुलिस वाले से आप के पति का एनकाउंटर हो गया,’ कोई सरकार सा मेरी बीवी के आगे दोनों हाथ जोड़े सांत्वना देने के बदले मेरी मौत की सौदेबाजी करने के पूरे मूड में.

‘कोई बात नहीं सर. पुलिस से बहुधा गलती हो ही जाती है. हमारी पुलिस है ही गलती का पुतला. उन के जाने के बाद ही सही, आप हमारे द्वार आए, हमें तो कुबेर मिल गया. अब हमें उन के एनकाउंटर का तनिक गम नहीं. वैसे भी इस धरती पर जो आया है, उसे किसी न किसी दिन तो जाना ही है. बंदा जाने के बाद भी कुछ दे कर जाए तो बहुत अच्छा लगता है सर.’ आह, मेरी बीवी का दर्द. वारि जाऊं बीवी की मेरे लिए श्रद्धांजलि के प्रति. काश, ऐसी बीवी ब्रह्मचारियों को भी मिले.

‘देखो बहनजी, हम वैसा दूसरा पति तो आप को ला कर दे नहीं सकते पर हम ऐसा करते हैं…’ सरकार ने बीच में अपनी वाणी रोकी तो मेरी बीवी की आर्थिक चेतना जैसे जागृत हुई. उन के जाने के बाद अब तो सरकार मुझे, बस, आप का ही सहारा है,’ पत्नी कुछ तन कर बैठी.

‘तो आप को अपने यहां आप के पति की जगह पर सरकारी नौकरी में लगा देते हैं. आप चाहो तो कल से ही आ जाओ. इस के साथ ही साथ आप को एक सरकारी टू रूम सैट भी हम अभी दे देते हैं. चाबियां निकालो यार. आप के खाते में अपनी गलतीसुधार के लिए जिंदा जनता के पैसों में से 20 लाख रुपए जमा करवा देते  हैं,’ सरकार ने मुसकराते हुए घोषणा की तो पत्नी के कान खड़े हुए.

‘पर सर, उस मामले में तो आप ने उन की पत्नी को पीआरओ बनाया है. वहां भी पति ही गया है. पति तो सारे एक से होते हैं. फिर मेरे साथ मुआवजे को ले कर भेदभाव क्यों? उस के खाते में आप ने 25 लाख रुपए डाले. उस के बच्चों की पढ़ाई के लिए 5-5 लाख रुपए की एफडी बना दी. मेरी आप से इतनी विनती है कि कम से कम पतियों के एनकाउंटर के मामले में हम महिलाओं के साथ भेदभाव तो न कीजिए. चलो, ऐसा करती हूं सास के खाते में डालने वाले पैसे आप की सरकार पर छोड़े. पर…’

‘देखिए बहनजी, आप उन से अपनी तुलना मत कीजिए. कहां राजा भोज, कहां आप का गंगू तेली.’

‘सरकार माफ करना, आप जात पर उतर रहे हैं,’ पत्नी ने सरकार को वैसे ही आंखें दिखाईं जैसे मुझे दिखाती थी तो सरकार सहमी. पत्नी की आंखों से बड़ेबड़े तीसमारखां सहम जाते हैं. ऐसे में भला सरकार की क्या मजाल.

‘जात पर नहीं बहनजी, मैं तो मुहावरे पर उतरा था,’ सरकार को लग गया कि किसी गलत बीवी से पाला पड़ा है. सो, सरकार ने मुहावरे पर स्पष्टीकरण जारी किया.

‘पर फिर भी?’

‘देखिए बहनजी, सरकार को आप भी ब्लैकमेल मत कीजिए. सच पूछो तो, कहां उन की बीवी, कहां आप? वह मामला कुछ अधिक ही पेचीदा हो गया था. मीडिया बीच में आ गया था वरना…’

‘तो आप को क्या लगता है कि मेरे मामले में मीडिया बीच में नहीं आएगा? नहीं आएगा तो मैं ढोल बजाबजा कर सब को बताऊंगी कि मेरे पति को इन की पुलिस ने फ्री में निशाना बना दिया है,’ मेरी पत्नी की धमकी सुन सरकार डरीसहमी.

‘प्लीज, बहनजी, आप जो चाहेंगी हम करेंगे, पर मीडिया को बीच में मत डालिए. यह मसला मेरे, आप के और आप के पति के बीच हुए एनकाउंटर का है. मतलब हम तीनों के बीच का. अब पुलिस से गलती हो गई तो हो गई. सरकारी कर्मचारियों से बहुधा गलती हो ही जाती है. नशे में ही रहते हैं हरदम. पर इस गलती के लिए हम उन की जान भी तो नहीं ले सकते न. पर अब आप को भविष्य में आप के पति से भी अधिक खुश रखने के लिए दिल खोल कर मुआवजा तो दे सकते हैं न. सो दे रहे हैं. वैसे भी बहनजी, आज के इस दौर में क्या रखा है पतिसती में? अब तो कोर्ट ने भी साफ कर दिया है कि…’

‘देखो सर, अपने पति के फेक एनकाउंटर के बदले जितना आप ने पिछली दीदी को दिया है, उतना तो कम से कम लूंगी ही. इधर हर रोज पैट्रोलडीजल के दाम तो सुबह होते ही 4 इंच बढ़े होते हैं, पर अब आप ने गैस के दाम भी बढ़ा दिए. अब हमारे पास दिल जलाने के और बचा ही क्या? ऐसे में आप खुद ही देख लीजिए कि पति का मुआवजा ईमानदारी से दीदी को दिए मुआवजे से अधिक नहीं, तो उतना तो कम से कम बनता ही है.’

‘देखो बहनजी, हम ठहरे ब्रह्मचारी. हमें न पति के रेट पता हैं न पत्नी के. इस झंझट से बचने के लिए ही तो हम ने विवाह नहीं करवाया. तो अच्छा, ऐसा करते हैं, चलो, न मेरी न आप की. जो मेरे सलाहकार आप के पति के एनकाउंटर का तय करेंगे, सो आप को दे दूंगा. मेरा क्या? मेरे लिए तो सब टैक्स देने वालों का है. मैं तो बस बांटनहार हूं. अब पुलिस से गलती हो गई तो भुगतनी भी तो मुझे ही पड़ेगी. पर जो आप सरकार पर थोड़ा रहम करतीं तो…’

बीवी चुप रही.

आखिर, सरकार ने मेरी पत्नी को सांत्वना देते सहर्ष घोषणा की कि सरकार बहनजी के पति के फेक एनकाउंटर के मुआवजे के दुख में शरीक होते हुए उन्हें पुलिस में थानेदार की नौकरी, रहने को थ्री बैडरूम सरकारी आवास, उन के खाते में 25 लाख रुपए, बच्चों की सगाई के लिए 10-10 लाख रुपए और सास के लिए 5 लाख रुपए देने की सहर्ष घोषणा करती है.

सरकार की इस घोषणा के बाद मत पूछो कि पत्नी कितनी खुश. उस वक्त मेरा फेक एनकाउंटर उसे कितना पसंद आया, मत पूछो. उस ने ऊपर वाले को दोनों हाथ जोड़े और कहा, ‘हे ऊपर वाले, मेरे हर पति का ऐसा फेक एनकाउंटर हर जन्म में 4-4 बार हो.’

और मैं पत्नी से भी ज्यादा खुश. उसे इतना प्रसन्न मैं ने उस वक्त पहली बार देखा, तो मन गदगद हो गया. मेरी अंधी आंखें खुशी के आंसुओं से लबालब हो आईं. वाह, अपने एनकाउंटर के बाद ही सही, पत्नी को खुश तो देख सका.

हे जनपोषण को चौबीसों घंटे वचनबद्ध मित्रो, आप ने मेरा फेक एनकाउंटर कर मुझे मृत्यु नहीं, खुशियों भरा नया जीवन प्रदान किया है. आप के हौसले यों ही बुलंद रहें.

मिशन छिपकली : कोई पेपर में फेल नहीं हो सकता

45 साल की ढलती उम्र में हमारी जुड़वां संतानें हुई थीं. मुझे नन्हींमुन्नी गुडि़या का मनचाहा उपहार मिला था और वाइफ को उन का दुलारा गुड्डा, लेकिन वाइफ को बिटिया की भी चाहत थी. वे बिटिया को साइंटिस्ट बनाना चाहती थीं. मुझे बेटे के साथ नुक्कड़ पर क्रिकेट खेलने की तमन्ना थी. हम ने महल्ले में मिठाई बंटवाई. अनाथालय के बच्चों के लिए मिठाईनमकीन के पैकेट और कपड़ों के उपहार भिजवाए. हमारी खुशी का ठिकाना न था.

हम ने अपने बच्चों को भरपूर प्यार दिया. उन की सभी इच्छाएं पूरी कीं. कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. मोबाइल, लैपटौप, स्कूटी, बाइक, कार, ब्रैंडेड ड्रैसेज, ट्यूटर सबकुछ उन के पास थे. दोनों अब बड़े हो चुके थे. 9वीं कक्षा की परीक्षा दे चुके थे.

‘‘पापा, एडवांस बुकिंग करानी है,’’ बिटिया ने मुझ से रिक्वैस्ट की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, ‘संजू’ लगी है. यह फिल्म काफी पसंद की जा रही है,’’ मैं ने बिटिया का हौसला बढ़ाया. मैं खुद फिल्म देखने के मामले में आगे रहता हूं.

‘‘पापा, अगले साल हम दोनों 10वीं बोर्ड की परीक्षा देंगे. परीक्षा में हैल्प के लिए मिशन की बुकिंग चल रही है,’’ बिटिया ने मुझे बताया.

‘‘बोर्ड की परीक्षा के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है. सेहत पर बुरा असर पड़ता है. सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी में एडवांस बुकिंग कराना सही होगा. अभी औफर चल रहा है,’’ साहबजादे ने मुझे समझाया.

अपनी समझदानी थोड़ी छोटी है. पूरी बात समझ आने में थोड़ी देर लगी. अपनी संतान को 10वीं में नकल करने के लिए विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई स्पैशल चिटों की जरूरत होगी. मुझे इस संबंध में जानकारी कम थी.

‘‘वैज्ञानिक बनाने के लिए अच्छे कालेज में दाखिला दिलाना होगा. 10वीं कक्षा में अच्छे मार्क्स की जरूरत होगी,’’ वाइफ ने चिंता जताई. बच्चों को उन से झिझक नहीं थी. उन को सबकुछ पता था.

औलाद के भविष्य की चिंता मुझे भी थी. वैज्ञानिक बनने के लिए अच्छे कालेज में दाखिले की जरूरत भी थी. अच्छे कालेज में दाखिले के लिए कक्षा 10 में 90 प्रतिशत मार्क्स आने भी जरूरी थे.

परिवार के साथ मैं सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी से मिला. उन से रेट्स और औफर्स की जानकारी ली.

‘‘साइंस के एक पेपर और मैथ्स के लिए 8 हजार रुपए तथा दूसरे पेपरों के लिए 5 हजार रुपए. हमारी एजेंसी प्रीमियर एजेंसी है. एडवांस बुकिंग में 25 प्रतिशत की छूट दी जा रही है. ये रेट केवल प्रश्नोत्तर चिट के लिए हैं. और हां, मिशन छिपकली के लिए डबल रेट से रुपए देने होंगे. इस के अलावा दूसरी सेवाएं तथा कौम्बो औफर भी हैं,’’ प्रीमियर एजेंसी के रिसैप्शन पर तैनात मैडम ने जानकारी दी.

‘‘यह मिशन छिपकली क्या बला है?’’ मैं ने पूछ ही लिया. वैसे कुछकुछ अंदाजा हो रहा था.

पिछले महीने मैं ने पाटलीपुत्र सुसंवाद समाचारपत्र में खबर पढ़ी थी कि ईस्टर्न इंडिया के महानगरों के चिडि़याघरों से बहुत ही खास प्रजाति की कुछ छिपकलियों की चोरी हो गई थी. ये प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर थीं. इस इमारत की दीवार पर कई मानव आकृतियां चिपकी थीं. मैं ने बाद में इस न्यूज को चश्मा लगा कर पढ़ा था.

‘‘मिशन छिपकली के अंतर्गत एजेंसी बहुमंजिली इमारतों में परीक्षार्थियों को स्पैशल चिट उपलब्ध कराती है. पुलिस, केंद्र अधीक्षक, न्यूजपेपर रिपोर्टर सब को मैनेज करना मुश्किल जौब है. मिशन छिपकली के लिए औनजौब ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है. भगदड़ में दुर्घटना भी हो जाती है. परीक्षा केंद्र ग्राउंडफ्लोर पर होने की हालत में भुगतान की गई रकम का 50 प्रतिशत लौटा दिया जाता है. अप्रत्याशित और कठिन परिस्थितियों के लिए 2 साल की वारंटी का प्रावधान रखा गया है,’’ रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मिशन छिपकली के टैरिफ वाउचर्स का बखान किया.

हम ने शहर की दूसरी सर्विस प्रोवाइडर एजेंसियों से भी संपर्क किया. गोल्डन सर्विस एजेंसी में बालिकाओं के लिए फीस में 30 प्रतिशत की छूट का औफर था. लेकिन एजेंसी की बहुमंजिली सर्विस काफी महंगी थी.

बैस्ट सर्विस प्रोवाइडर ने रजिस्टर्ड परीक्षार्थियों के लिए शहरी इलाकों से परीक्षा केंद्रों तक ले जाने के लिए वीडियो सुविधायुक्त फ्री बस का औफर दिया था.

इन सभी एजेंसियों की शाखाएं राज्य के सभी छोटेबड़े शहरों में होने की भी जानकारी मिली. एजेंसीज ने प्रश्नोत्तर के लिए राजधानी व राज्य के दूसरे शहरों के नामीगिरामी स्कूलों के शिक्षकों व खास कोचिंग संस्थानों के विशेषज्ञों से भी अपने जुड़े होने की बात कही.

इस संपर्क मुहिम के दौरान कई दूसरी सर्विसेज की मौजूदगी के बारे में जाननेसमझने का मौका मिला. उन की सेवाओं की जानकारी मिली. कई खुलासे हुए. ये सुविधाएं परीक्षार्थियों, अभिभावकों के व्यापक हित में हैं, इस का भी ज्ञान हुआ.

मुझे इस उद्योग की पूरी जानकारी नहीं थी. मुझे पता नहीं था कि कभी शिक्षा का केंद्र रहे अपने पुराने शहर में कक्षा-10 स्पैशल चिट सप्लाई के धंधे ने बड़े कारोबार का दर्जा हासिल कर लिया है और इस कारोबार से बड़े घराने भी आकर्षित हो रहे हैं.

परीक्षाएं लंबे समय तक चलती हैं. इस दौरान खेलकूद, मूवी, मौजमस्ती, गेम्स, फेसबुक, चैटिंग, यारदोस्तों से गपें और सभी खिलंदड़ी व मनोरंजक गतिविधियां बंद हो जाती हैं. महीनों किताबों, नोट्स में घुसे रहने से बोरियत होती है. टैंशन से सेहत खराब हो जाती है. ऐसे में परीक्षाओं से जुड़ी सर्विसेज एजेंसियां हमारी आम दिनचर्या के साथसाथ ही कैरियर विकल्पों को आगे बढ़ाने में सहायक होती हैं.

इन सुविधाओं से गुप्तरूप से जुड़े शिक्षकों व सहायक कर्मियों को होने वाली कमाई, उन को कठिन हालात से उबारने में सहायक होती है. राज्य में शिक्षकों व कर्मचारियों के वेतन भुगतान की समस्या हमेशा बनी रहती है. त्योहार के महीनों में भी वेतन भुगतान नहीं हो पाता है. इस तरह सर्विस एजेंसीज उन की वित्तीय समस्याओं का समाधान भी करती हैं.

अभिभावक सर्विस एजेंसीज की बुकिंग के बाद बेफिक्र हो जाते हैं. उन्हें बहुमंजिली इमारतों पर छिपकली बन कर चिपकने से मुक्ति मिल जाती है. अच्छे कालेजों में दाखिले की राह आसान हो जाती है. शिक्षक उत्तरपुस्तिका पर, अपने द्वारा तैयार उत्तर पा कर, मार्क्स लुटाते हैं. एजेंसी विभिन्न कोलेजों व तकनीकी संस्थानों में ऐडमिशन भी दिलवाती है.

‘‘विशिष्ट संस्थानों में ऐडमिशन के लिए आप हमारी एजेंसी से संपर्क कर सकते हैं,’’ ब्राइट सर्विस एजेंसी की सुंदर रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मुझे बताया.

कई स्रोतों से जानकारी मिली कि सर्विस एजेंसीज अपनी सीक्रेट सर्विस के तहत राष्ट्रीय स्तर व राज्य स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के प्रश्नपत्र, उत्तर के साथ उपलब्ध कराती हैं. प्रश्नपत्र लीक कराने के लिए कई वैज्ञानिक राजनीतिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है. एडवांस बुकिंग कराने से पहले ठोकबजा कर पूरी तसल्ली करने की अपनी पुरानी आदत रही है. सो, मैं ने छानबीन की, कई एजेंसियों से जानकारी ली-

‘‘हमारी एजेंसी एक सर्विस एजेंसी है. यह जनसुविधाएं मुहैया कराती है.’’

‘‘अभिभावकों के हितों की सुरक्षा का काम कर रहे हैं. उन के सपने पूरे हों, इस के लिए कोशिश जारी है.’’

‘‘हमारी इंडस्ट्री बेरोजगारों को रोजगार देती है.’’

‘‘लंबे समय तक पूरी रात किताबों से चिपके रहने से गरदन अकड़ जाती है. ओनली बुक्स ऐंड नो प्ले मेक्स पप्पू ए डल बौय इस का हमारे पास कारगर इलाज है.’’

‘‘नाकामी से जूझते हुए बच्चे कई बार गलत फैसले भी ले लेते हैं. हमारी एजेंसी उन्हें कामयाबी दिलाने का काम करती है.’’

अब मुझे पूरी तसल्ली हो चुकी थी. स्पैशल चिट बनाना, बहुमंजिली इमारतों की दीवार से चिपकना मेरे बूते से बाहर की बात थी. लंबी पढ़ाई और अपनी रोजमर्रा से लंबी जुदाई बच्चों के लिए तकरीबन नामुमकिन था. मिशन छिपकली मुझे जंच रही थी.

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