प्यार के राही-भाग 3 : हवस भरे रिश्ते

वे यह भी जानते थे कि मासूम से मैं प्यार करती हूं, इसलिए उन्होंने एक दिन मौका पा कर मासूम से कहा, ‘‘बेटे, अब तू इस घर में ज्यादा दिनों तक बचा नहीं रह सकता. मैं अधेड़ हूं, अकसर बीमार रहता हूं. न जाने कब मेरे प्राण निकल जाएं. मेरे मरने के बाद तुम बिना माली के गुलशन की तरह हो जाओगे, इसलिए अभी ही तुम किसी मनपसंद लड़की से शादी कर लो. वैसे, गजाला बहुत अच्छी लड़की है. मैं ने उसे बचपन से अपनी गोद में खिलाया है. उस के साथ तुम हमेशा खुश रहोगे.’’

‘‘लेकिन मैं गजाला से मिलूंगा कैसे? अम्मी ने तो मुझ पर इतना सख्त पहरा लगा दिया है कि मैं घर से भी बाहर नहीं निकल पाता,’’ मासूम ने अपना दर्द कहा.

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. मैं आज रात तुम दोनों को मिलवा दूंगा, तब तुम दोनों आपस में तय कर लेना.’’

उस रात मौका पा कर चाचा ने मासूम राही से मेरी मुलाकात कराई. मैं ने रोतेरोते मासूम से कहा, ‘‘अब मैं एक पल भी तुम से जुदा नहीं रह सकती. वह घर मेरे लिए कैदखाने के समान हो गया है. मेरी हालत पिंजरे में कैद उस

पंछी की तरह हो गई है, जो किसी

दरिंदे से बचने के लिए सिर्फ पंख फड़फड़ा सकता है, लेकिन उड़ नहीं सकता. अब यही उपाय है कि हम दोनों निकाह कर लें.’’

‘‘तुम फिक्र मत करो, मैं ने तुम से प्यार किया है. मैं तुम्हारा दर्द मिटाने के लिए अपनी जान भी गंवा सकता हूं. मैं भी यह चाहता हूं कि हम दोनों जल्द ही शादी कर लें,’’ मासूम ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

अगले दिन मसजिद में मासूम राही के साथ मैं ने निकाह कर लिया. हम दोनों ने बीवीशौहर के रूप में एकदूसरे को सौंप दिया. उस समय मासूम राही की उम्र 21 साल और मेरी उम्र 20 साल थी. वह रात हम दोनों ने एक फुलवारी में बिताई.

मैं जानती थी कि मेरे घर वाले किसी भी कीमत पर मासूम को अपना दामाद नहीं मानेंगे और चाची डौली जरूर कोई न कोई बवाल खड़ा करेंगी. ऐसी हालत में शादी के बाद इस महल्ले में हम दोनों का रहना खतरे से खाली नहीं था, इसलिए भोर होने से पहले ही हम दोनों महल्ले की सरहद से पार हो गए. हम दोनों पैदल ही शहर की ओर बढ़ने लगे.

सुबह होने पर जब चाची ने मासूम को घर से गायब पाया, तो वे बेहद घबरा गईं. उन के गुस्से का पारा चढ़ने लगा. उन्होंने चाचा को अपने भाइयों से पिटवाने की धमकी दी और कहा कि तुम ने ही मासूम को भगा दिया है.

चाचा ने जबान नहीं खोली. चाची ने अपने गुंडों से महल्ले का चप्पाचप्पा छनवा मारा, लेकिन हम दोनों का कहीं कुछ पता नहीं लग सका.

चाची को शक था कि गजाला मासूम के अलावा किसी और के साथ नहीं जा सकती. उन्हें जब पता लगा कि गजाला भी घर से गायब है, तो उन का शक यकीन में बदल गया. वे गुस्से में हमारे घर आईं और पूछा, ‘‘गजाला कहां है?’’

अब्बाजान भी इस बारे में नहीं जानते थे, इसलिए अपनी इज्जत बचाने के लिए चुप्पी ही साधे रखी.

तब चाची ने उलटा इलजाम लगाया. अब्बाजान ने जानबूझ कर गजाला और मासूम को कहीं भगा दिया है, यह सोच कर चाची ने धमकी देते हुए कहा, ‘‘तुम सबकुछ जानते हुए भी कुछ नहीं बता रहे हो. मैं तुम्हें 12 घंटे का समय दे रही हूं. तब तक मासूम को मेरे हवाले कर दो, वरना मैं तुम लोगों पर मासूम को अगवा करने के इलजाम में थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दूंगी. इस का अंजाम क्या होगा, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

अब्बाजान तो सचमुच में ये सब नहीं जानते थे. वे लड़खड़ाई जबान में बोले, ‘‘एक हफ्ते से गजाला मामू के यहां गई हुई है.’’

तब चाची गुस्से से आगबबूला हो कर बोलीं, ‘‘तुम झूठ मत बोलो. हमें

12 घंटे का इंतजार है. उस के बाद भी अगर तुम ने मासूम का पता नहीं बताया, तो ठीक नहीं होगा.’’

आखिर चाची ने अब्बाजान और हमारे खिलाफ अगवा के इलजाम में रिपोर्ट दर्ज करवा ही दी. पुलिस ने तुरंत अब्बाजान के खिलाफ वारंट जारी कर गिरफ्तार कर लिया.

जब पुलिस ने उन से पूछताछ की, तो उन्होंने बताया, ‘‘इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता. न ही हम ने मासूम को अगवा किया. शादी की भी कोई बात नहीं है. मैं तो खुद नहीं चाहता कि हमारी बेटी की शादी उस बिन जात से हो.

‘‘2 महीने पहले हमें खबर मिली कि गजाला और मासूम प्यार करते हैं, तो मैं ने और मेरी बेगम ने गजाला को बहुत कड़ी सजा दी, जिस के चलते गजाला को अस्पताल में रहना पड़ा. कल रात गजाला और मासूम कहां चले गए, यह मुझे पता नहीं.’’

पुलिस इंस्पैक्टर ने एक बाप की बेबसी समझी और बात को सच्चा समझ कर अब्बा को छोड़ दिया. उस के बाद पुलिस तुरंत हरकत में आई और आसपास के इलाके में पूरी सरगर्मी के साथ हम दोनों को तलाश करने लगी. चाची भी पुलिस के साथ थीं.

हम दोनों पैदल ही अपना सफर तय कर रहे थे. इसलिए हम लोग पुलिस की पकड़ से बच नहीं सके. पुलिस ने हमें उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब हम दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हो रहे थे.

पुलिस हमें गिरफ्तार कर थाना में ले आई. चाची ने पुलिस को घूस के रूप में भरपूर रुपए दे कर खुश कर दिया. इसलिए पुलिस ने मासूम को चाची के हवाले कर दिया और मुझे कैद रखा.

मासूम से बिछुड़ कर मैं रोतेरोते पागल सी हो गई थी. थोड़ी देर बाद अब्बा को यह मालूम हुआ, तो वे तुरंत भागेभागे थाना में आए और मुझे जमानत पर छुड़ा कर ले गए.

मेरे आने पर अम्मी और अब्बा मुझ पर जुल्मों का कहर ढाने लगे, जैसे मैं उन की औलाद नहीं, बल्कि कोई भेड़बकरी होऊं. अब्बा ने तो मुझे ऐसा थप्पड़ मारा कि मेरे मुंह से खून निकलने लगा.

मेरी देखभाल छोटी बहन अफसाना करने लगी. उधर चाची ने मासूम को मकान के एक कमरे में कैद कर लिया और शादी करने के लिए रातदिन उस पर दबाव डालने लगीं.

चाचा जशीम राही को चाची की इस हरकत का पता लगा,

तो उन को बहुत गहरा सदमा

पहुंचा, जिस से उन की हालत और बिगड़ गई.

चाची 42 साल की थीं ही. वे चाचा से छुटकारा पाना चाहती थीं, क्योंकि वही उन के रास्ते का कांटा थे, इसलिए उन की बेबसी की हालत में भी उन की दवादारू नहीं कराई और उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिस के चलते वे कुछ दिनों के बाद चल बसे. तब मासूम पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त – भाग 2

‘नमस्ते,’ इस बार उस ने अंकल नहीं कहा. या कहा हो, मैं ने सुना नहीं. यदि मैं न सुनना चाहूं तो कौन सुना सकता है. लेकिन उस ने कहा नहीं शायद.

‘नमस्ते,’ मैं ने कहा, मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने पूछा यह जानते हुए भी कि वह कालेज जा रही है.

‘‘कालेज,’’ उस ने धीरे से मुसकराते हुए कहा.

‘‘और आप?’’

मैं हड़बड़ा गया. कोई उत्तर देते नहीं बना. क्या कहूं कि तुम से मिलने, तुम से बात करने के लिए तुम्हारे पीछे आता हूं. लेकिन कह न सका.

‘‘बस, यों ही टहलने.’’

‘‘रोज, इसी समय.’’

उस की इस बात पर मु झे लगा कि वह निश्चिततौर पर सम झ चुकी है मेरे टहलने का मकसद. मैं धीरे से मुसकराया. ‘‘हां, तुम्हें क्या लगा?’’ उफ यह क्या बेवकूफाना प्रश्न कर दिया मैं ने.

‘‘नहीं, मु झे लगा.’’ और वह चुप हो गई.

‘‘तुम्हें क्या लगा?’’ मैं ने बात को पटरी पर लाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं’’ कह कर वह चुप रही.

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’ बात आगे बढ़ाने के लिए कुछ तो पूछना ही था.

‘‘एमए प्रीवियस.’’

‘‘किस विषय से?’’

‘‘समाजशास्त्र से.’’

‘‘बढि़या सब्जैक्ट है.’’

दोनों तरफ थोड़ी देर के लिए फिर शांति छा गई. मैं सोच रहा था, क्या बात करूं. कालेज निकट आ रहा है. यही समय है अपनी बात कहने का. पहली बार इतना अच्छा मौका मिला है.

‘‘पढ़ाई मैं कोई दिक्कत हो तो बताना,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं, सरल विषय है. दिक्कत नहीं होती.’’

‘‘यदि हो तो?’’

‘‘जी, जरूर बताऊंगी.’’

‘‘मैं ने इसलिए कहा, क्योंकि इसी विषय में मैं ने भी पीएचडी की हुई है.’’

‘‘मैं जानती हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘आप प्रोफैसर हैं समाजशास्त्र के?’’

‘‘जी’’ मैं ने गर्व से कहा.

‘‘मैं पूछूंगी आप से यदि कोई दिक्कत आई तो.’’

‘‘क्या ऐसे बात नहीं कर सकती. बिना दिक्कत के?’’

‘‘क्यों नहीं, आखिर हम पड़ोसी हैं,’’ उस ने कहा.

मु झे अच्छा लगा. मैं ने पूछा, ‘‘आप मोबाइल रखती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कभी देखा नहीं आप को मोबाइल के साथ?’’

‘‘मैं जरूरत के समय ही मोबाइल चलाती हूं.’’

‘‘सोशल मीडिया, मेरा मतलब फेसबुक आदि पर नहीं हैं आप?’’

‘‘नही, ये सब समय की बरबादी है. घर के लोगों को भी पंसद नहीं.’’

‘‘आप का नंबर मिल सकता है,’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘क्यों नहीं,’’ कहते हुए उस ने अपना नंबर दिया जिसे मैं ने अपने मोबाइल पर सेव कर लिया.

‘‘मु झे तो आप का नाम भी नहीं पता?’’ मैं ने पूछा. मैं पूरी तरह सामने आ चुका था खुल कर. बड़ी मुश्किल से मौका मिला था. मैं इस मौके को बेकार नहीं जाने देना चाहता था.

‘‘रवीना,’’ उस ने हलके से मुसकराते हुए कहा. उस का कालेज आ चुका था. उस ने आगे कहा, ‘‘चलती हूं.’’ और वह कालेज में दाखिल हो गई, मैं सीधा निकल गया.

आगे जाने का कोई मकसद नहीं था. मकसद पूरा हो चुका था. मैं वापस घर की ओर चल दिया. मु झे तैयार हो कर कालेज भी जाना था. लेकिन कालेज के लंच में जब रवीना का कालेज छूटता था, मैं फिर तेजी से उस के कालेज की ओर बढ़ चला. मेरा और उस का कालेज एक किलोमीटर के अंतर पर था. फर्क इतना था या बहुत था कि वह अपने कालेज में छात्रा थी और मैं अपने कालेज में प्रोफैसर.

सुबह के समय सड़क खाली होती है, लेकिन लंच के समय यानी दोपहर 2 बजे भीड़भाड़ होती है. वह कालेज से निकल चुकी थी. मैं ने अपने कदम तेजी से उस की तरफ बढ़ाए. मैं उस तक पहुंचता, तभी वह किसी लड़के की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ कर पलभर में नजरों से ओ झल हो गई. मेरा खून खौल उठा. मैं क्या सम झता था उसे, क्या निकली वह? पढ़ाई करने जाती है या ऐयाशी करने. बेवफा कहीं की. और मैं क्या हूं, शादीशुदा होते हुए भी आशिकी कर रहा हूं. बेवफा तो मैं हूं अपनी बीवी का.

लेकिन नहीं, मु झे सारे दोष उस में ही नजर आ रहे थे. उसे यह सब शोभा नहीं देता. लड़कियों को अपनी इज्जत, अपने सम्मान के साथ रहना चाहिए. मांबाप की दी हुई आजादी का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए. मैं उसे कोस रहा था. फिर मैं ने स्वयं को सम झाते हुए कहा, होगा कोई रिश्तेदार, परिचित. कल पूछ लूंगा. लेकिन मेरा इस तरह पूछना क्या ठीक रहेगा? उसे बुरा भी लग सकता है. जो भी हो, पूछ कर रहूंगा मैं. तभी चैन मिलेगा मु झे. दूसरे दिन नियत समय पर वह घर से कालेज के लिए निकली और मैं भी. उस ने फिर अपनी चाल धीमी कर दी. मैं उस की बगल में पहुंच गया.

‘‘कल लौटते वक्त नहीं दिखीं आप?’’ मैं ने बात को दूसरी तरफ से पूछा.

‘‘हां, कल भैया के दोस्त मिल गए थे. वे घर ही जा रहे थे. उन्होंने बिठा लिया,’’ अब जा कर मेरे कलेजे को ठंडक मिली. फिर भी मैं ने पूछा, ‘‘भैया के दोस्त या’’ वह मेरी बात का आशय सम झ गई.

‘‘क्या, आप भी अंकल…’’

‘‘मेरे सीने पर जैसे किसी ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया हो. ‘अंकल’ शब्द दिमाग में हथौड़े की तरह बजने लगा.’’

‘‘क्या मैं बूढ़ा नजर आता हूं?’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर अंकल क्यों कहती हो?’’

‘‘तो क्या कहूं, भाईसाहब?’’

‘‘फिर तो अंकल ही ठीक है,’’ हम दोनों हंस पड़े. यदि कहने के लिए संबोधन के लिए ही कुछ कहना है तो अंकल ही ठीक है. बड़े शहरों की तरह यहां सर, या सरनेम के आगे जी लगा कर बुलाने का चलन तो है नहीं.

‘‘मैं तुम्हें फोन कर सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं? आप घर भी आ सकते हैं. मु झे भी बुला सकते हैं. मैं तो अकसर आती रहती हूं,’’ उस ने सहजभाव से कहा. लेकिन मु झे उस में अपना अधिकार दिखाई पड़ा. मेरे हौसले बढ़ चुके थे.

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां.’’

‘‘आज तक किसी ने कहा नहीं मु झ से. मु झे भी लगा कि मैं सुंदर तो नहीं, हां, बुरी भी नहीं. ठीकठाक हूं.’’

‘‘लेकिन मैं कहता हूं कि तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘आप को लगती हूं?’’

उस ने प्रश्न किया या मेरे मन की गहराई में चल रहे रहस्य को पकड़ा. जो भी हो. उस ने कहा इस तरह जैसे वह अच्छी तरह जान चुकी थी कि मैं उसे पसंद करता हूं. तभी तो उस ने कहा, आप को लगती हूं.

‘‘लगती नहीं, तुम हो.’’

मैं ने कहा. वह चुप रही. लेकिन हौले से मुसकराती रही. उस के गालों पर लालिमा थी.

मैं ने मौका देख कर अपने मन की बात स्पष्ट रूप से कहनी चाही.

‘‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं, आप कहिए.’’

‘‘मैं…मैं…मैं… आप से…’’

‘‘पहले तो आप मु झे आप कहना बंद करिए. आप प्रोफैसर हैं, मैं स्टूडैंट हूं,’’ उस ने यह कहा, तो मु झे लगा जैसे कह रही हो कि आप में और मु झ में बहुत अंतर है. ‘‘मैं आप का सम्मान करती हूं और आप…’’

मैं चुप रहा. उस ने कहा, ‘‘कहिए, आप कुछ कहने वाले थे.’’

‘‘मैं कहना तो बहुतकुछ चाहता हूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं.’’

‘‘मैं जानती हूं. आप क्या कहना चाहते हैं. लेकिन कहना तो पड़ेगा आप को,’’ उस

ने मेरी तरफ तिरछी नजर से मुसकराते

हुए कहा.

‘‘पहले तुम वादा करो कि यह बात हमारेतुम्हारे बीच में रहेगी. बात पसंद आए या न आए,’’ मैं हर तरफ से निश्ंिचत होना चाहता था. सुरक्षित भी कह सकते हैं. पहले तो लगा कि कहूं यदि तुम जानती हो तो कहने की क्या आवश्यकता है. लेकिन जाननेभर से क्या होता है?

‘‘मैं वादा करती हूं.’’

‘‘हम कहीं मिल सकते हैं. रास्ते चलते कहना ठीक न होगा.’’

‘‘लेकिन कहां?’’

‘‘थोड़ी दूर पर एक कौफी शौप है.’’

‘‘वहां किसी ने देख लिया तो क्या उत्तर देंगे. छोटा सा शहर है.’’

‘‘तुम मेरे कालेज आ सकती हो. कालेज के पार्क में बात करते हैं. वहां कोई कुछ नहीं कहेगा. यही सम झेंगे कि पढ़ाई के विषय में कोई बात हो रही होगी.’’

‘‘कब आना होगा?’’

‘‘12 बजे.’’

‘‘कालेज बंक करना पड़ेगा.’’

‘‘प्लीज, एक बार, मेरे लिए,’’ शायद उस ने मेरी दयनीय हालत देख कर हां कर दिया था. दोपहर के 12 बजे. कालेज का शानदार पार्क. दिसंबर की गुनगुनी धूप. कालेज के छात्रछात्राएं अपने सखासहेलियों के साथ कैंटीन में, पार्क में बैठे हुए थे. कुछ पढ़ाई पर, कुछ सिनेमा, क्रिकेट पर बातें कर रहे थे. मैं बेचैनी से उस का इंतजार कर रहा था. वह आई. मैं उस की तरफ बढ़ा. मेरी धड़कनें भी बढ़ीं.

‘‘आइए,’’ मैं ने कहा. और हम पार्क की तरफ चल दिए.

‘‘कहिए, क्या कहना है?’’

‘‘देखो, तुम ने वादा किया है. बात हम दोनों के मध्य रहेगी.’’

‘‘मैं वादे की पक्की हूं.’’

‘‘मेरी बात पर बहुत से लेकिन, किंतुपरंतु हो सकते हैं जो स्वाभाविक हैं. लेकिन, मन के हाथों मजबूर हूं. बात यह है कि मैं तुम से प्यार करता हूं. करने लगा हूं. पता नहीं कैसे?’’

मैं ने कह दिया. हलका हो गया मन. फिर उस की तरफ देखने लगा. न जाने क्या उत्तर मिले. मैं डरा हुआ था.

‘‘मैं तो आप से बहुत पहले से प्यार करती थी जब आप मेरे पड़ोस में रहने आए थे. लेकिन आप ने कभी मेरी ओर ध्यान ही नहीं दिया. जिस दिन आप की शादी हुई थी, बहुत रोई थी मैं. फिर मन को सम झा लिया था किसी तरह. मैं आप से आज भी प्यार करती हूं लेकिन…’’

‘‘मैं जानता हूं कि मैं विवाहित हूं, 2 बच्चे हैं मेरे. लेकिन तुम साथ दो तो…’’

‘‘मैं आप के साथ हूं. आप के प्यार में. कोई लड़की जब किसी से सच्चा प्यार करती है तो किसी भी हद तक जा सकती है. मैं किसी बंधन में नहीं हूं. आप सोच लीजिए.’’

‘‘थैंक यू, मु झे कुछ नहीं सोचना. जो होगा, देखा जाएगा,’’ मैं ने कह तो दिया लेकिन कहते समय पत्नी और बच्चों का चेहरा सामने घूम गया. इस के बाद हमारी अकसर मुलाकातें होने लगीं. मोबाइल पर तो बातें होती ही रहतीं. सावधानी हम दोनों ही बरत रहे थे. कभी वह कुछ पूछने के बहाने, पढ़ाई के बहाने, घर भी आ जाती. हम सिनेमा, पार्क, रैस्तरां जहांजहां भी मिल सकते थे. मिलते रहे. वह कालेज से गायब रहती और मैं भी. एक दिन मैं ने उस से मोबाइल पर कहा, ‘‘बेकरारी बढ़ती जा रही है तुम्हें पाने की. तुम्हें छूने की. प्लीज कुछ करो.’’

‘‘मेरा भी यही हाल है, मैं कोशिश करती हूं.’’

फिर एक दिन ऐसा हुआ हमारी खुशनसीबी से कि उस

के परिवार के लोगों को एक शादी में जाना था 2 दिनों के लिए और उसी समय मेरी पत्नी को उस के मायके से बुलावा आ

गया. दिसंबर के अंतिम सप्ताह में वैसे भी स्कूल, कालेज बंद

रहते हैं. वह अपने घर में अकेली थी. मैं अपने घर में. बीच में एक दीवार थी. रात को मैं उस के घर या वह मेरे घर आए तो शायद ही कोई देखे. फिर भी सावधानी से हम ने तय किया कि मैं उस की छत पर पहुंच कर छत की सीढि़यों से नीचे जाऊंगा. दोनों छतें सटी हुई थीं.

 

प्यार के राही-भाग 2 : हवस भरे रिश्ते

यह कह कर चाची गुस्से में पैर पटकते हुए अपने घर में चली गईं. दूसरे सभी लोग भी अपनेअपने घर चले गए. चाची के इस बरताव पर अब्बाजान और महल्ले वाले भौंचक्के रह गए.

अब्बाजान को सब से ज्यादा अचंभा इस बात पर हो रहा था कि आखिर जशीम राही की बीवी इतनी मामूली सी बात पर इतनी बेइज्जती क्यों कर रही थी? ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

अब्बा घर में आ कर सब से पहले मेरे कमरे में आए और चारों ओर घूम कर देखा. सभी चीजें अपनी जगह पर थीं. मैं सोने का नाटक कर रही थी. उन्होंने मेरी चादर खींच कर देखा. मुझे सोते देख कर वह बाहर चले गए.

डौली चाची ने मासूम राही नामक फूल को बचपन से सींचा था, इसलिए

वे न चाहती थीं कि कोई दूसरी लड़की आ कर इस फूल से खेले. दरअसल, वे खुद उस से खेलने के इंतजार में कई साल से आस लगाए बैठी थीं. वे मासूम राही पर सिर्फ अपना हक समझने

लगी थीं, इसलिए जब उन्हें पता चला कि मैं मासूम से प्यार करने लगी हूं तो उन्होंने पिटवा कर मासूम को घर में कैद कर लिया.

उन्होंने जब से मासूम पर पाबंदी लगाई थी, तभी से उन के मन में सोई हवस का सैलाब सिर उठा रहा था. चाचा उन के इस नापाक इरादे को भांप गए थे, इसलिए वे एक पल भी मासूम को अपने से अलग नहीं रहने देते थे.

एक दिन चाची ने अपने मन की बात चाचा जशीम राही को बताते हुए कहा, ‘‘मैं कई दिनों से एक बात कहना चाह रही हूं. लेकिन यह सोच कर नहीं कह पा रही हूं कि कहीं आप बुरा न मान जाएं.’’

‘‘मैं भला क्यों बुरा मानूंगा. बोलो, क्या कहना चाहती हो?’’

इस पर वे बोलीं, ‘‘मैं मासूम राही से शादी करना चाहती हूं.’’

जशीम चाचा का मुंह हैरानी से फैल गया. वे गुस्से में उन के गाल पर एक थप्पड़ रसीद करते हुए गरजे, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है. तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसी बात करते हुए? मासूम राही तुम्हारे बेटे जैसा है, वह मुझे अब्बा और तुम्हें अम्मी कहता है.

‘‘इतना घिनौना और नापाक इरादा तुम्हारे मन में कैसे चला आया? तुम कम से कम अपनी उम्र का लिहाज तो करतीं. 42 साल की होने जा रही हो और एक 16 साल के लड़के, जिसे बेटे की तरह पाला, उस के साथ शादी करने की बात सोच रही हो. सारे महल्ले और रिश्तेदारी में बेइज्जती कराना चाहती हो. तुम्हारी अक्ल मारी गई है. ऐसी बात किसी और के सामने मत कहना, वरना लोग तुम्हारे नाम से भी नफरत करने लगेंगे.’’

इस पर चाची झल्लाते हुए बोलीं, ‘‘बस कीजिए, भाषण मत दीजिए. मैं ने आप से सलाह जानने के लिए कहा

था, भाषण देने के लिए नहीं. मैं करूंगी वही, जो मैं चाहती हूं. इस में बुराई भी क्या है?

‘‘मासूम जवान हो गया है. उसे शादी करनी ही है. किसी और से नहीं, मुझ से ही कर लेगा तो क्या गलत हो जाएगा? वह बचपन से ही इस घर में है, इसलिए शादी के बाद बिना किसी परेशानी के सारे काम संभाल लेगा. इस से आप को क्या परेशानी है?’’

इस पर चाचा बोले, ‘‘परेशानी यह है कि मैं मासूम राही का बाप हूं. मैं ने उसे सगे बेटे की तरह देखा है. मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम इतनी नीच हरकत पर उतर आओगी. अगर तुम में थोड़ी सी भी इनसानियत है, तो मासूम राही की शादी किसी काबिल लड़की से करा दो.’’

तब चाची सपाट लहजे में बोलीं, ‘‘ये सब बकवास बातें हैं. मैं तो इतना ही जानती हूं कि मासूम राही मेरे लिए खरीदा हुआ एक सामान है. मैं ने उसे 50,000 रुपए में खरीदा है, इसलिए मैं अपनी खरीदी हुई चीज को जब चाहूं, जिस तरह चाहूं इस्तेमाल कर सकती हूं. इस में किसी को दखल देने की जरूरत नहीं है.’’

इस पर चाचा ने चाची का गरीबान पकड़ कर कहा, ‘‘मासूम राही बाजार में बिकने वाली कोई बेजान चीज नहीं है. उस की भी खुशियां हैं, कुछ अरमान हैं. तुम्हें उस की जिंदगी बरबाद करने का कोई हक नहीं है. जरा सोचो, अगर तुम्हारा कोई बेटा होता तो मासूम राही के बराबर होता. क्या तुम उस से भी शादी कर लेतीं?’’

चाची तपाक से बोलीं, ‘‘आप हद से ज्यादा आगे बढ़ रहे हैं.’’

‘‘हांहां, बढ़ूंगा. तुम जो काम करने जा रही हो, उस के घिनौनेपन की कोई हद नहीं है. तुम कान खोल कर सुन

लो. अगर तुम ने मेरे बेटे मासूम से

शादी की बात दोबारा कही तो मैं खुदकुशी कर लूंगा और मेरी मौत की जिम्मेदार तुम होगी,’’ चाचा ने धमकी भरे शब्दों में कहा.

इस के बाद चाची ने फिर कभी चाचा से मासूम राही के बारे में कोई बातचीत नहीं की. लेकिन उन के मन में हवस अपनी जगह बैठी रही. चाचा जानते थे कि उन की वह हवस किसी भी समय अपनी शैतानी हरकत दिखा सकती है. ऐसी हालत में मासूम राही का बचे रहना नामुमकिन था.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त – भाग 1

ऐसा क्यों होता है जिसे कई बार देखा हो, देख कर भी न देखा हो. आतेजाते नजर पड़ जाती हो लेकिन उसे ले कर कोई विचार, कोईर् खयाल न उठा हो कभी. ऐसा होता वर्षों बीत चुके हों. फिर किसी एक दिन बिना किसी खास बात या घटना के अचानक से उस का ध्यान आने लगता है. मन सोचने लगता है उस के विषय में. वह पहले जैसी अब भी है, कोई विशेषता नहीं. फिर भी उस के खयाल आते चले जाते हैं और वह अच्छी लगने लगती है अकारण ही, हो सकता है पहले उस के मन में कुछ हो या न भी हो, वहम हो मेरा कोरा. अभी भी उस का मन वैसा ही हो जैसा पहले मेरा था. उस को ले कर सबकुछ कोरा.

लेकिन, मु झे यह क्या होने लगा? क्या सोचने लगा मन उस के बारे में? क्यों उस का चेहरा आंखों के सामने  झूलने लगा हर वक्त? यह क्या होने लगा है उसे ले कर, नींद भी उड़ने लगी है. मैं नाम भी नहीं जानता. जानना चाहा भी नहीं कभी. लेकिन आजकल तो हाल ऐसा हो गया है कि बुद्धि भ्रष्ट सी हो गई है. आवारा मन भटकने लगा है उस के लिए. अब तो प्रकृति से मांगने लगा हूं कि मिल जाए वह तो सब मिल गया मु झे. एक  झलक पाने को मन मचलता रहता है. कहने की हिम्मत नहीं पड़ती.

अब सोचता हूं तो बहुतकुछ असमानताएं नजर आती हैं, उस में और मु झ में. उम्र, जाति, धर्म और भी न जाने क्याक्या? लेकिन ये सब क्यों होने लगा, यह सम झ नहीं पा रहा हूं. खुद में एक लाचारी सी है. मन की निरंतर बढ़ती हुईर् चाहत. क्या करूं अपनी इस बेवकूफी का? अपने पर गुस्सा भी आता है दया भी. जितना सोचता हूं कि न सोचूं, उतना ही सोचता जाता हूं और पता भी नहीं चलता कब रात गुजर गई सोचतेसोचते. क्या इसे प्यार कहेंगे?

कितना अजीब है यह सबकुछ. पता चलने पर क्या सोचेंगे लोग. वैसे पता चलने नहीं दूंगा किसी को मरते दम तक. उस से कहने की तो हिम्मत ही नहीं है. मान लो, कह भी दिया तो क्या होगा? कहीं गलत सम झ बैठी. कहीं हल्ला कर दिया इस बात का, मेरा प्रेम तो छिछोरा बन कर रह जाएगा. अब दिखती है तो देखता हूं मैं और चाहता हूं कि देखे वह मु झे. लेकिन सामने पड़ते ही न जाने कौन सी  िझ झक, कौन सी मर्यादा रोक लेती है? देख नहीं पाता, देखना चाहता हूं जीभर के. वह देखती है लेकिन नजर टकराने जैसा. जैसे आमनेसामने से गुजरते हैं. अजनबी या पहचाने चेहरे. बस, इस से ज्यादा कुछ नहीं. छोटा शहर, छोटा सा महल्ला, क्या करूं?

खत भी कैसे लिखूं कि उसे पता हो कि मैं ने लिखा है, लेकिन पता न चले किसी और को. पता चले और तमाशा खड़ा हो तो कह सकूं कि मैं ने नहीं लिखा. फिर पत्र उसी तक पहुंचे तो भी ठीक, घर में किसी के हाथ लगा तो उस की मुश्किल. शक के दायरे में तो आ ही जाऊंगा मैं. वैसे, यदि उस की हां हो तो फिर कोई डर नहीं मु झे. फिर चाहे जमाने को पता लग जाए. बस, उस के दिल में हो कुछ मेरे लिए.

आजकल तो मोबाइल का जमाना है, लेकिन मोबाइल तो पत्रों से भी ज्यादा विस्फोटक हैं. फिर, मु झे नंबर भी पता नहीं. पता लगाने की कोशिश कर सकता हूं. लेकिन मैं ने उस के हाथ में कभी मोबाइल देखा ही नहीं. कोशिश की तो थी उस का नंबर पता लगाने की. किसी भी नंबर से कर सकता था फोन. लेकिन सफल नहीं हुआ. मान लो, किसी दिन सफल हो भी जाऊं तो क्या होगा? क्या कहेगी, क्या सम झेगी वह? मानेगी या मना कर देगी. मु झे ऐसा करना चाहिए या नहीं. बहुत बड़ा सामाजिक, आर्थिक भेद है. क्या करूं मैं? यह सब हो कैसे गया?

क्या यह प्यार है या कुछ और. या मेरी बढ़ती उम्र की कोई अतृप्त लालसा. यही सोच कर हैरान, परेशान हूं कि ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ. न मेरे सपनों की राजकुमारी से मेल खाती है वह, न कोई विशेषताएं हैं मु झे खींचने लायक उस में. फिर मैं किस  झं झट में अपनेआप फंसता जा रहा हूं. क्या यह मन का भटकना है, क्या कोई बुरा समय शुरू हो गया है मेरा. क्या सच में प्यार हो गया है मु झे. मैं दिनोंदिन पागल और बेचैन हो रहा हूं उस के लिए, मेरे न चाहने पर भी.

मैं क्या करूं, यह कोई फिल्म या कहानी नहीं है. यह जीवन है. एक मध्यवर्गीय महल्ला है जहां ऐसा सोचना भी ठीक नहीं. फिर इसे परिणित करना बहुत मुश्किल है और मान लो कि ऐसा हो भी जाए जैसा चाहता हूं मैं, तब क्या होगा, लड़की का भविष्य, मेरा वर्तमान, कहां जाएंगे भाग कर?

पुलिस, कोर्टकचहरी, मीडियाबाजी सबकुछ होगा. फिर अपने मातापिता के साथ आतीजाती दिखती लड़की से बात करना भी संभव नहीं है. लेकिन अचानक से यह सब क्यों होने लगा मन में. उस का खयाल, उस का चेहरा घूमता रहता है और दिनरात बेकरारी बढ़ती ही जा रही है निरंतर. यह गलत है, मैं जानता हूं, लेकिन यह बेईमान मन सुने, तब न. अब, बस, घुटते रहना है और किसी एक दिन ऐसी गलती भी होनी है मु झ से. जिस का क्या परिणाम होगा, मु झे पता नहीं या पता है, इसलिए हिम्मत नहीं जुटा पाता. लेकिन मन कर के रहेगा मनमानी और होगा कोई तमाशा.

मैं रोक रहा हूं खुद को लेकिन पता नहीं कब तक? मैं तो यही सोच कर परेशान हूं कि यह सब क्यों हो रहा है मेरे साथ. क्या कहूंगा मैं उस से. मान लो, मौका मिला भी और कहा, ‘तुम से प्यार करता हूं,’ आगे शादी की बात पर क्या कहूंगा? वह नहीं कहेगी तुम तो शादीशुदा हो? 2 बच्चों के बाप? शर्म नहीं आती तुम्हें. बात सही है. मैं हूं शादीशुदा. तो क्या मैं बोर हो चुका हूं अपनी पत्नी से? नहीं, ऐसा नहीं है, मैं चाहता हूं उसे. और बच्चों से कौन बाप बोर होता है? तो क्या मु झे नएपन की तलाश है. क्या मैं ऐयाशी की तरफ बढ़ रहा हूं. नहीं, वह तो कहीं भी कर सकता हूं.

यही लड़की क्यों पसंद और प्रिय है मु झे. क्या कह सकता हूं? क्या करूं मनचले मन ने जीना हराम कर रखा है. क्यों यह लड़की मेरी जिंदगी में घुसती चली जा रही है, मेरे मनमस्तिष्क में समाती ही जा रही है. ऐसा भी नहीं कि मैं छोड़ दूं उस की खातिर अपना परिवार. फिर किस हक से मैं उसे चाहता हूं पाना. सम झ के बाहर है बात. किस अधिकार से कहूं उस से. क्या वह हां कह सकती है. नहीं, बिलकुल नहीं. अगर कह दिया, तो होगा क्या आगे? शादी और प्रेम के भंवर में फंस जाऊंगा मैं. बदनामी, अपमान अलग. यह कैसी मुसीबत मोल ले ली मैं ने. सब इस मन का कियाधरा है. धिक्कार है ऐसे मन में. मैं अपने को विवश और दुविधा में क्यों पा रहा हूं?

क्या करूं, सोचसोच कर परेशान हूं. ठीक तो यही होगा कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खुश रहूं. उन्हीं में मन लगाऊं. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. अब मेरी हालत ऐसी हो गईर् है कि मैं उस साधारण सी दिखने वाली 25 वर्ष की लड़की को 45 की उम्र में देखे बिना चैन नहीं पा रहा हूं. दिल बच्चों की तरह मचल रहा है. उस के घर से निकलने, छत पर टहलने वापस आने के समय पर मैं ध्यान दे रहा हूं ताकि मैं उसे देख सकूं. देख ही तो सकता हूं और कुछ तो मेरे वश में है नहीं.

मैं घर की छत पर हूं. मेरे घर से लगा हुआ उस का घर है. वह अपनी छत पर है. मैं उस की तरफ देख रहा हूं. बीचबीच में उस की नजर भी मु झ पर पड़ रही है. लेकिन उस की नजर मेरी नजर से जुदा है. उस की नजर पड़ने पर मैं अपनी नजरें हटा नहीं रहा हूं, बल्कि पूरी बेशर्मी से उसे देखे जा रहा हूं. उसे शायद आश्चर्य हो रहा होगा मु झ पर. जिस आदमी ने कभी नहीं देखा उस की तरफ तब भी जब वह अविवाहित था और अब ऐसे देख रहा है.

उस ने नजरें हटा लीं. वह छत से उतर कर नीचे चली गई. थोड़ी देर बाद मैं भी. अब मेरा क्या काम छत पर. उस के कालेज जाने के समय पर मैं भी निकल पड़ता उस के पीछे. वह कालेज चली जाती. मैं सीधा निकल जाता. जब वह कालेज से लौटती तो मैं भी सारे कामधाम छोड़ कर उस के पीछे चल देता. वह अपने घर और मैं मजबूरी में अपने घर. जी तो यही चाहता कि मैं उस के साथ उस के घर चला जाऊं. अपने घर बुलाना, थोड़ा नहीं, बहुत मुश्किल है. काश, शादी के पहले यह सब कोशिश की होती, तो बात बन जाती. इतने पीछेपीछे चलने पर उस का ध्यान मेरी ओर खिंचना स्वाभाविक था. यह कोई एकदो दिन की बात नहीं थी कि वह इसे इत्तफाक मान लेती. अब वह भी मेरी तरफ गौर से देखने लगी. शायद उसे मु झ पर शक हो चला हो तो या उसे महसूस हुआ हो कि मैं उसे चाहने लगा हूं. हो सकता है उसे मु झ में बदनीयती नजर आने लगी हो कह नहीं सकता. मेरी पत्नी को जरूर मेरे इस टाइमबेटाइम घर से आनेजाने पर शक हुआ. तभी तो उस ने टोका. लेकिन मैं ने उसे टाल दिया. छत पर जाता, तो पत्नी भी छत पर आने लगी. मेरे कार्य में व्यवधान पड़ने लगा. लेकिन मैं ऐसा जाहिर कर रहा था मानो मु झे पेट की शिकायत हो, या खुली हवा में सांस लेना, डाक्टर के अनुसार, जरूरी था मेरे लिए.’’

पत्नी ने पूछा भी,‘‘ तुम्हें कुछ हुआ है, कोई बीमारी है, डाक्टर से मिले?’’

मेरा जवाब था, ‘‘हां, खुली हवा में टहलने के लिए, पैदल चलने के लिए कहा डाक्टर ने,’’ अब कैसे बताऊं कि जो दिल में बस चुकी है वह पैदल ही कालेज आतीजाती है. मु झे उम्मीद तब जगी जब वह मेरे घर कुछ काम से आई. आती तो वह पहले भी थी लेकिन उस वक्त मैं ने कभी ध्यान नहीं दिया. पड़ोसी थी, सो, मेरी पत्नी से परिचय था उस का. उस के परिवार का. आनाजाना लगा रहता था. लेकिन अब वह आई तो मु झे लगा कि वह मेरे लिए आई है और आती रहेगी मेरे लिए. वह मु झ से नमस्ते अंकल कहती. पहले कोई फर्क नहीं पड़ता था. लेकिन अब कहती तो दिल पर तीर चलने लगते.

मैं अब पहले से भी ज्यादा सजसंवर कर रहता. एक भी बाल सफेद नहीं दिखने देता था. दाढ़ी रोज बनाता था. अच्छे कपड़े पहनने लगा था. पहनता तो पहले भी था लेकिन अब अपने चेहरे, बाल, कपड़ों का ज्यादा ध्यान रखने लगा था. मेरा इस तरह उस के पीछपीछे आना, उसे एकटक ताकना, शायद उसे आभास हो गया था कि मेरे दिल में उस के लिए कुछ है. कुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ है.

उस में भी मु झे काफी परिवर्तन दिखाई देने लगे थे. उस की वेशभूषा, पहनावा, करीने से संवारे गए बाल. जो पहले कभी नहीं था. वह अब होने लगा था. उस का इतराना, बल खा कर चलना, पीछे मुड़ कर देखना, मुसकराना, नजर मिलते ही गालों पर लाली दौड़ जाना, उस के देखने में मु झे साफ फर्क नजर आने लगा था. यह मेरा भ्रम नहीं था.

उसे आभास हो चुका था कि मैं उस पर दिलोजान से फिदा हूं. लेकिन वह मु झ पर क्यों मेहरबान हो रही थी, मेरी सम झ में नहीं आ रहा था. उम्र का असर था. लग रहा होगा उसे, चाहता है कोई. चाहत कब देखती है उम्रबंधन? ये तो समाज के बनाए रिवाज हैं. जो न मु झे मंजूर हैं और न शायद उसे. आग बराबर लगी हुई थी दोनों तरफ. बहुत दिन इसी सोच में बीत गए कि वह कोई बात करे ताकि आगे की शुरुआत हो सके. लेकिन मैं भूल गया था कि शुरुआत पुरुष को ही करनी होती है.

मु झे उस के हावभाव से सम झ लेना चाहिए था. यदि मैं ने देर की, तो शायद बात हाथ से निकल जाए. वैसे भी, बहुत देर हो चुकी थी. इस से पहले कि और देर हो जाए, मु झे कह देना चाहिए उस से. लेकिन मैं क्या कहूं? कैसे कहूं? मेरे कहने पर यदि उस ने अनुकूल उत्तर न दिया. उलटा कुछ कह दिया, तो फिर कैसे रह पाऊंगा पड़ोसी बन कर? क्या इज्जत रह जाएगी मेरी महल्ले में? लेकिन चाहत है तो कहना होगा. अब बिना कहे काम नहीं चल सकता. मेरी नजर उस से टकराती तो मैं मुसकरा देता. जवाब में वह भी मुसकरा देती. अब बनी बात. लाइन क्लीयर है. अब कह सकता हूं मैं अपने दिल की बात. वह कालेज जा रही थी और मैं उस के पीछे थोड़े अंतर से चल रहा था. उस ने अपनी गति धीमी कर दी. मैं भी अपनी गति से चलता रहा. थोड़ी देर में बगल में था मैं उस की. अब हम साथसाथ चल रहे थे.

प्यार के राही-भाग 1 : हवस भरे रिश्ते

उस दिन गजाला और मासूम राही की शादी बड़ी धूमधाम से हो रही थी. सभी लोग निकाह के वक्त का इंतजार कर रहे थे. मासूम राही दोस्तों के बीच सेहरा बांधे गपें मार रहे थे, तभी मौलवी साहब आए और निकाह की तैयारी होने लगी.

मौलवी साहब बोलते गए और मासूम राही निकाह कबूल करते गए. सारी रस्में खत्म होने के बाद सभी लोग मजे ले कर खाना खाने लगे.

अगली रात गजाला और मासूम राही अपने सुहागरात के कमरे में एकदूसरे के आगोश में खोए हुए थे और गरम तूफान की आग में जल रहे थे. कुछ मिनटों के बाद वह आग ठंडी हुई, तो वे एकदूसरे से अलग हुए.

गजाला की आंखें एकाएक फड़फड़ाने लगीं. वह सोचने लगी, ‘आज अपने प्यार को यह अंजाम देने के लिए हमें क्या नहीं करना पड़ा,’ फिर वह बिस्तर पर बिछे छोटेछोटे फूलों को सरसरी निगाहों से देखने लगी और अपनी प्यारभरी यादों में डूब गई. एकएक सीन उस के दिमाग में किसी फिल्म की तरह घूमने लगा और उस की आंखों में आंसू उमड़ आए.

मैं पटना में रह रही थी. मेरे पिता शौकत राही की 6 संतानें थीं, 4 बहनें और 2 भाई. मैं सब से बड़ी थी. हमारे अब्बा जान के पास काफी जमीनजायदाद थी. इसी वजह से हम सभी सुखचैन से जिंदगी गुजार रहे थे.

हमारे अब्बाजान के बड़े भाई जशीम चाचा के पास भी जमीनजायदाद थी, लेकिन उन्हें दिमागी चैन नहीं था, क्योंकि उन के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए जशीम चाचा बारबार चाची डौली को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने के लिए कहा करते थे, लेकिन चाची हर बार टाल जातीं.

जब चाचा ने ज्यादा जिद की, तो चाची बोलीं, ‘‘देखिएजी, आप जिद कर रहे हैं, तो गोद लड़का ही लेंगे.’’

इस पर चाचा कहते, ‘‘नहीं, लड़की ही गोद लेंगे. आज के जमाने में लड़का और लड़की में फर्क ही क्या है?’’

तब चाची झल्ला कर बोलीं, ‘‘मैं समझती हूं कि जो हमारे बुढ़ापे में हमारी लंबीचौड़ी जायदाद को संभाल सके और हम दोनों को भी चैन की दो वक्त की रोटी दे सके, उसे ही गोद लेना चाहिए.’’

चाचा बेहद नरम दिल से बोले, ‘‘तुम्हारी बात तो ठीक है, लेकिन हम ऐसी बेटी गोद लेना चाहते हैं, जो हम दोनों की खिदमत कर सके. हम उस की शादी कर के दूल्हे को घरजमाई बना लेंगे. तब हम दोनों को दोहरा फायदा हो जाएगा. इस तरह हमें बेटाबेटी दोनों मिल जाएंगे.’’

इस पर चाची बोलीं, ‘‘जो करना है सो कीजिए, लेकिन मुझे तो बेटा ही चाहिए.’’

दूसरे दिन चाचा ने अपने नजदीकी दोस्त रमाशंकर को बुलाया और 10,000 रुपए दे कर कहा, ‘‘हम बच्चा गोद लेना चाहते हैं. तुम कोई लड़की ला कर हमें दो. हम तुम्हारे बहुत एहसानमंद रहेंगे. ले आने पर 40,000 रुपए और देंगे.’’

एक हफ्ते बाद रमाशंकर ने तकरीबन 9 साल का एक मासूम सा लड़का ला कर चाचा को देते हुए कहा, ‘‘लीजिए भाई जशीम राही, मैं ने अपना वादा पूरा किया. आप मेरा इनाम हवाले करें.’’

‘‘लेकिन यार, यह तो लड़का है. मैं ने तो किसी लड़की की गोद लेने की बात तुम से कही थी,’’ चाचा ने मजबूरी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘यही लो. अब तक तो आप बिना औलाद के जी रहे थे, अब लड़का मिला है तो कह रहे हैं कि लड़की चाहिए. यह बेचारा कुदरत का मारा है. दानेदाने का मुहताज है. घर में इस के रहने से आप का दिल भी लगा रहेगा. इस मासूम को इतनी दूर से आप के पास ले आया हूं.’’

फिर कुछ सोच कर वे आगे बोले, ‘‘इस का नाम राही है. गांव में इस के मांबाप मजदूरी करते थे. इस के 4 भाईबहन हैं. गरीबी के चलते कई बार इस मासूम को भूखे पेट ही सोना पड़ता था. बाप शराबी है. एक दिन वह शराब के पैसे न दे सका तो इस बेचारे को ही शराब की दुकान में गिरवी रख दिया. वहीं से इसे छुड़ा कर लाया हूं.’’

चाचा ने रमाशंकर की मजबूरी समझी. बोले, ‘‘ठीक है, यह लो पैसे. आखिर डौली की ही इच्छा पूरी हुई.’’

मासूम को देख कर चाची बहुत खुश हुईं. उसे गोद में उठा कर वे बेतहाशा चूमने लगीं.

मासूम स्कूल जाने लगा. मैं तब

8 साल की थी. हम दोनों एक ही दर्जे में साथसाथ पढ़ने लगे. हमारे चाचा और हमारे अब्बा के मकान आमनेसामने थे, इसलिए हम दोनों अकसर एकदूसरे से मिलते रहते थे. दोनों साथसाथ खेलते और साथसाथ खाते 10वीं जमात पास कर गए. हम दोनों फुलवारी की तनहाइयों में घंटों बातचीत किया करते थे. बातबात में जब मासूम ने अपनी बीती कहानी मुझे सुनाई तो उस से मेरी हमदर्दी और बढ़ गई. मैं अकसर खानेपीने की चीजें ला कर मासूम को दिया करती. हम दोनों में लगाव बढ़ता गया.

मासूम राही मन लगा कर पढ़ता और चाचा का हाथ बंटाता. उस के बरताव, काम और पढ़ाई से चाचाचाची बहुत खुश थे. वे उसे अपने बेटे की तरह मानते और सारे जहां की खुशियां उस के कदमों में डाल कर उसे प्यार करते.

मासूम राही भी चाचाचाची को अम्मां और अब्बा कह कर पुकारता था. मैं सुबह उठ कर घर के कामों से निबटने के बाद उस के साथ कालेज जाया करती थी. शाम ढलने से पहले हर रोज हम फुलवारी में घूमने जाया करते थे.

वक्त गुजरता गया. हम दोनों ने बचपन की केंचुली उतार कर जवानी की दहलीज पर कदम रखा. दोनों जवां दिलों में एकदूसरे के लिए प्यारमुहब्बत का दरिया बहने लगा.

हम दोनों एकदूसरे के करीब आते गए, लेकिन अब बचपन की तरह खुलेआम नहीं, बल्कि चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. हर प्यार करने वाले की तरह हमारा और मासूम राही का भी चोरीछिपे मिलना ज्यादा दिनों तक समाज से छिपा नहीं रह सका. फौरन ही महल्ले वालों को हमारी मुहब्बत की भनक लग गई. वे दबी जबान से हम दोनों की चर्चा करने लगे.

यह बात चाचा और चाची को पता लगी, तो उन्होंने मासूम को अपने दरबान और नौकरों से बुरी तरह से पिटवाया और बुराभला कहा. इधर मेरी भी हालत बदतर कर दी गई. हमारी अम्मी ने मुझे रस्सी से बांध दिया और डंडे से इतना पीटा कि मेरी पीठ से खून निकलने लगा. कई जख्म भी उभर आए थे.

मैं बेतहाशा चिल्ला रही थी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. वे लगातार मेरे सिर पर वार करने लगीं, जिस से मैं बेहोश हो गई.

जब होश आया, तो मैं अस्पताल में थी. सिर, पीठ, हाथ और पैर में पट्टियां बंधी थीं. अब्बाजान पास ही में कुरसी पर बैठे हुए थे.

जब मैं ने आंखें खोलीं, तो वे बोले, ‘‘बेटी, यह सब छोड़ दो, नहीं तो हम से बुरा कोई नहीं होगा. मासूम से तो मैं निबट लूंगा. जिस के बारे में कुछ भी सहीसही मालूम नहीं है, उस के साथ इश्क लड़ाने चली है. अगर आज के बाद तुम घर से निकली, तो तुम्हें मैं जान से मार डालूंगा.’’

जब मैं एक महीने के बाद ठीक हो कर अस्पताल से घर आई, तो मुझे पंख कटे पक्षी की तरह घर में कैद कर दिया गया. मैं मन मसोस कर रह गई.

उधर मासूम राही हमारी याद में तड़प रहा था. उस पर भी चाचा के गुंडे नजर रखे रहते थे. मासूम से नहीं मिल पाने के चलते मैं बेचैन सी रहने लगी. उन्हीं दिनों पता लगा कि मासूम राही पर भी चाचा और चाची ने इतनी सख्त पाबंदी लगा दी थी कि वह चाह कर भी मुझ से नहीं मिल पा रहा था.

जब मैं खुद को नहीं रोक सकी, तो उस से रात में मिलने का फैसला किया. मैं आधी रात को मासूम से मिलने के लिए दबे पैर चाचा के घर में घुस गई. मासूम चाचा के कमरे में सोया हुआ था.

जैसे ही मैं उस के कमरे से गुजरी, वैसे ही अचानक आहट पा कर चाची उठीं. उन्होंने ‘चोरचोर’ चिल्लाते हुए चाचा को जगाया और तुरंत बंदूक ला कर देते हुए बोलीं, ‘‘गजाला आई है. आज जान से मार दीजिए.’’

चाचा ‘चोरचोर’ चिल्लाते हुए हमारे पीछे भागे. मैं सिर पर पैर रख कर गली की ओर भागी. चाचा ने मुझ पर

3 गोलियां चलाईं. गहरा अंधेरा होने के चलते उन का निशाना ठीक नहीं बैठा. इस गली से होते हुए मैं अपने कमरे में जा कर लेट गई.

आधी रात को गोलियों की आवाज सुन कर महल्ले में अफरातफरी हो गई. मेरे अब्बाजान और महल्ले वाले दौड़दौड़े चाचा के घर पहुंचे और गोली चलाने की वजह पूछी. चाचा गहरे अंधेरे में मुझे ठीक से पहचान नहीं सके थे. फिर भी उन्हें पूरा यकीन था कि वह गजाला ही थी, इसलिए उन्होंने अब्बाजान को अलग ले जा कर कहा, ‘‘भाई, तुम्हारी इज्जत हमारी इज्जत है. गजाला आई थी.’’

अभी चाचा अब्बाजान को समझा ही रहे थे कि चाची सब के सामने बोल पड़ीं. ‘‘शौकत राही, समझा ले अपनी बेटी को. वह जवानी के जोश में आधी रात को मेरे घर में चोरों की तरह घुस आई. आज तो वह बच कर भाग गई, लेकिन आज के बाद अगर उस ने ऐसी हरकत की तो मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

अब्बाजान ने गुस्से में तमतमाते हुए कहा, ‘‘आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह गजाला ही थी? आप ने इतने अंधेरे में उसे पहचान लिया? हमारी बेटी पर इलजाम मत लगाइए. वह कोई चोरउचक्का होगा.’’

इस पर चाची ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘अगर यकीन नहीं आता तो घर जा कर देखो, वह इस समय घर में मौजूद

नहीं होगी. वह कहीं गली में जा कर छिपी होगी.’’

यह कैसा प्यार – भाग 1 : मर्यादा की दहलीज

रमा और विजय की दोस्ती प्यार में तो बदल चुकी थी लेकिन इस प्यार ने उन्हें जीवन के जिस मोड़ पर ला दिया था उस की कल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी.

वेदोनों बचपन से एक ही कालोनी में आसपड़ोस में रहते हुए बड़े हुए थे. दोनों ने एकसाथ स्कूल व कालेज की पढ़ाई पूरी की. उन के संबंध मित्रता तक सीमित थे, वो भी सीमित मात्रा में. दोनों एक ही जाति के थे. सो, स्कूल समय तक एकदूसरे के घर भी आतेजाते थे. कालेज में भी एकदूसरे की पढ़ाई में मदद कर देते थे. एकदूसरे के छोटेमोटे कामों में भी सहयोग कर देते थे. लेकिन कालेज के समय से उन का एकदूसरे के घर आनाजाना बहुत कम हो गया. जाना हुआ भी तो अपने काम के साथ में एकदूसरे के परिवार से मिलना मुख्य होता था.

दोनों अपने समाज, जाति की मर्यादा जानते थे. अब दोनों जवानी की उम्र से गुजर रहे थे. रमा तभी विजय के घर जाती जब विजय की बहन से उसे काम होता. विजय से तो एक औपचारिक सी हैलो ही होती. कालेज में भी उन का मिलना बहुत जरूरत पर ही होता. रमा को यदि विजय से कोई काम होता तो वह विजय की बहन या मां से कहती. विजय को वैसे तो जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी रमा के घर, पर कई बार ऐसे मौके आते कि जाना पड़ता. जैसे रमा को नोट्स देने हों या कालेज की लाइब्रेरी से निकाल कर पुस्तकें देनी हों.

विजय जाता तो रमा के मम्मी या पापा घर पर मिलते. रमा चाय बना कर दे जाती. विजय पुस्तकें रमा के मातापिता को दे देता. रमा के मातापिता उसे बैठा कर घरपरिवार, पढ़ाईलिखाई, भविष्य की बातें पूछते, कुछ अपनी बताते. विजय वापस आ जाता.

रमा के मातापिता अपनी इकलौती बेटी के लिए अच्छे वर की तलाश में जुटे थे. बात विजय की भी निकली. रमा के पिता ने कहा, ‘‘लड़का तो ठीकठाक है लेकिन करता तो कुछ नहीं है फिलहाल.’’

रमा की मां ने कहा, ‘‘अभी तो पढ़ाई कर रहा है. पास का देखापरखा लड़का है. रमा से पटती भी है.’’ मां की बातें रमा के कानों से होती हुईं उस के दिल में पहुंचीं, पहली बार. और पहली बार ही रमा के हृदय में कंपन सी हुई. रमा के पिता ने एक सिरे से नकारते हुए कहा, ‘‘पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी की कोई गांरटी नहीं है और मैं अपनी इकलौती बेटी का विवाह किसी बेरोजगार से नहीं कर सकता. फिर इतनी पास रिश्ता करना भी ठीक नहीं है. अभी तो विजय की बहन बैठी हुई है शादी के लिए. मु?ो विजय के पिता का व्यवहार और उन की क्लर्की की नौकरी दोनों खास पसंद नहीं हैं.’’

रमा की मां ने कहा, ‘‘मैं ने तो ऐसे ही बात कह दी थी. आप उस के परिवार के बारे में क्यों उलटासीधा कह रहे हैं?’’

रमा के पिता ने कहा, ‘‘उलटासीधा नहीं, सच कह रहा हूं. मैं अपनी हैसियत वाले घर में ही रिश्ता करूंगा. इंजीनियर हूं. क्लर्क के घर में क्यों रिश्ता करूं?’’

पति को आवेश में देख रमा की मां किचन में जा कर घरेलू कामों में जुट गई. विजय को जब मालूम हुआ कि रमा के लिए लड़के वाले देखने आ रहे हैं तो पता नहीं क्यों पहली बार उसे लगा कि उस की प्रियवस्तु कोई उस से छीन रहा है. उस ने हिम्मत कर के अपनी मां से रमा के साथ शादी की बात चलाने के लिए कहा.

विजय की मां ने कहा, ‘‘बेटा, पहले नौकरी करो. फिर बहन के हाथ पीले करो. उस के बाद अपनी शादी के विषय में सोचना.’’ मां ने कह तो दिया लेकिन बेटे के चेहरे को भी पढ़ लिया. उन्हें स्पष्ट नजर आया कि उन का बेटा रमा से प्रेम करता है. बेटे की तसल्ली के लिए मां ने कहा, ‘‘अच्छा, देखती हूं, तुम्हारे पिता से बात करती हूं.’’ विजय के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई, जिसे मां से छिपाने के लिए वह दूसरे कमरे में चला गया.

विजय की मां ने रात को भोजन के बाद अपने कमरे में पति से बेटे के मन की बात कही. पति ने कहा, ‘‘वे लोग ऊंची हैसियत वाले हैं. अपने से बड़े घर की लड़की लाने का मतलब समझती हो. सह पाओगी बड़े घर की बेटी के नखरे. फिर इतनी पास में रिश्ता. घर में जवान बेटी बैठी है. बेटा बेरोजगार है. किस मुंह से शादी का रिश्ता ले कर जाएंगे. अपना अपमान नहीं कराना मुझे. फिर मैं ठहरा ईमानदार आदमी और मामूली सा क्लर्क. वे हैं इंजीनियर और 2 नंबर के पैसे वाले.’’

विजय की मां ने कहा, ‘‘वो मैं समझाती हूं. बेटे के दिल में है कुछ रमा के लिए, इसलिए कहा.’’

विजय के पिता ने कुछ पल ठहर कर कहा, ‘‘मैं तो बात करने नहीं जाऊंगा. तुम चाहो तो किसी और के माध्यम से बात चलवा कर देख लो. बेटे की तरफदारी करने से अच्छा है, बेटे को सम?ाओ कि अपने पैरों पर खड़े हो कर उन के बराबर बन कर दिखाए.’’

पत्नी ने करवट ली और सोने का प्रयास करने लगी. वे इस बात को यहीं खत्म कर देना चाहती थी.

बाजार से जरूरी सामान मंगवाना था. रमा के पिता कुछ अस्वस्थ थे. रमा की मां ने विजय को आवाज दे कर बुलाया और कहा, ‘‘रमा को देखने वाले आ रहे हैं. यह लिस्ट ले जाओ. बाजार से सामान ले कर जल्दी आना.’’

सामान की लिस्ट और रुपए ले कर विजय बाजार की ओर चल दिया. लेकिन मन उस का उदास था. वह सोच रहा था कि रमा किस तरह उसे मिलेगी. कैसे वह रमा को अपना जीवनसाथी बनाएगा. एमएससी का अंतिम वर्ष था उस का. नौकरी मिलने में समय लगेगा.

विजय के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह रमा के पिता से अपने विवाह की बात कर पाता. मां ने अपने एक परिचित से रिश्ते की खबर भेजी थी, लेकिन उत्तर अनुकूल न था. बात औकात, हैसियत, बेरोजगारी पर आ कर अटक गई थी. विजय के मन में अजीब से अंधड़ चल रहे थे. स्वयं को संभालते हुए बाजार से सामान ला कर उस ने रमा के पिता को सौंप दिया. लड़के वाले आ चुके थे, इसलिए रमा के मातापिता ने विजय को बैठने को भी नहीं कहा.

विजय पास के गार्डन में पहुंचा. थकेहारे, टूटे हुए व्यक्ति की तरह मन में सोचने लगा, ‘रमा का ये रिश्ता टूट जाए, रमा का विवाह हो तो मुझ से, अन्यथा न हो.’

हार से गुस्सा उपजता है और गुस्से से मस्तिष्क बेकाबू हो कर किसी भी दिशा में भटकने लगता है. पास बैठे एक अंकल से उस ने कहा, ‘‘क्या जिंदगी में जिसे चाहो वह मिल जाता है?’’

अंकल ने रूखे स्वर में कहा ‘‘हां, शायद.’’

अंकल की बात से असंतुष्ट विजय उठ कर घर की तरफ चल दिया. रातभर वह यही सोचता रहा कि उसे रमा से इतना लगाव, इतना प्यार कैसे हो गया? यदि पहले से था तो उसे पता क्यों नहीं चला? यही तड़प पहले होती तो वह रमा से इस विषय में कालेज में बात कर लेता. क्या पता रमा के मन में कुछ है भी या नहीं. होता तो कभी तो वह कहती बातों में, इशारों में. प्रेम कहां छिपता है? कहीं यह एकतरफा प्यार का मामला तो नहीं. वह खुद से कहने लगा, ‘रमा का ग्रैजुएशन का अंतिम वर्ष है. शादी आज नहीं तो कल हो ही जाएगी. फिर मेरा क्या होगा? क्या मैं रमा से बात करूं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बात और बिगड़ जाए.’

विचारों के आंधीतूफान से उल?ाता विजय घर आ गया. रात में बिस्तर पर उसे नींद नहीं आई. वह करवटें बदलते हुए सोचने लगा कि रमा को कैसे हासिल किया जाए. पत्रपत्रिकाओं में छपने वाले तांत्रिक बाबाओं, वशीकरण विधा के जानकारों वाले विज्ञापन उस के दिमाग में कौंधने लगे. बाजार से उस ने कुछ तंत्रमंत्र की किताबें खरीद कर उन्हें आजमाने पर विचार किया. यदि लड़की वशीभूत हो कर विवाह के लिए तैयार हो जाए तो फिर कोई क्या कर सकता है?

तंत्रमंत्र की पुस्तकें पढ़ कर विजय को निराशा हाथ लगी. वशीकरण मंत्र के लाखों की संख्या में जाप कर के  उन्हें सिद्ध करना, फिर पूरे नियम से उन का दसवां हिस्सा हवनतर्पण, मार्जन करना, उस के बाद विशेष तिथि, योग में ऐसी सामग्री जुटाना जो उस के लिए क्या, किसी भी साधारण आदमी के लिए संभव नहीं थी. विजय ने पुस्तकें एकतरफ फेंक कर इंटरनैट पर वशीकरण संबंधी प्रयोग तलाशने शुरू किए, उसे मिले भी. सारे प्रयोग एकएक कर के किए भी, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.

विजय समझ गया कि सारे प्रयोग ?ाठे हैं. फिर उस ने तंत्रमंत्र, वशीकरण के विज्ञापनों पर दृष्टि डाली जहां 24 घंटे से ले कर 4 मिनट में वशीकरण के दावे किए गए थे. विजय ने कई बाबाओं से मुलाकात की. रुपए इधरउधर से इंतजाम कर के फीस भरी. कभी नीबू के प्रयोग, कभी नारियल वशीकरण, कभी लौंग वशीकरण प्रयोग बाबाओं द्वारा बताए गए. लेकिन नतीजा शून्य निकला.

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बुढ़ापे में जो दिल बारंबार खिसका-भाग 3

नेहा ने पलक झपकते ही कहे पर अमल किया और बाकी सहेलियों को आंख मारी. ‘‘हांहां, क्यों नहीं, अंकल, जरूर. हम 4 हैं, आप भी 4 स्कूटी पर बैठ सकेंगे? तो आइए, आप लोग भी क्या याद करेंगे.’’ ‘‘बुड्ढों का चौगड्डा खुशी की बौखलाहट में जल्दी ही एकएक कर के चारों लड़कियों के पीछे मजे लेने बैठ गया. लड़कियों ने आपस में एकदूसरे को आंख मारी, तो बुड्ढों ने अपने साथियों को. सब के अपने मंसूबे थे. लड़कियों ने जो झटके से स्कूटी स्टार्ट की तो अंकल लोगों की मानो हलक में सांस अटक गई. और जो स्पीड पकड़ी तो वे लाललाल हुए मुंह से रोकने के लिए चिल्लाते रहे. लड़कियां आज दूर निकल कर पहाड़ी के पीछे झरने के पास तक चली गईं, जिसे देखने की तमन्ना तो थी पर अकेली वे वहां जाने से डरती थीं. आज मौका मिल गया, एक पंथ दो काज. वे सोचने लगीं कि काश, जयंति भी साथ आ पाती तो कितना मजा आता.

‘‘अंकल, आप लोग यहां पत्थरों पर चैन से बैठो. हम थोड़ा दूसरी ओर से भी देख कर आती हैं.’’ उन्होंने कहा. ‘‘ओके गर्ल्स,’’ बुड्ढे मस्त थे.

‘‘हां जयंति, तुम्हारे कहे अनुसार हम ने चारों बुड्ढों को वहीं झरने के पास धोखे से छोड़ दिया है. अब हम वापस आ रही हैं, आधे घंटे में मिलते हैं, ओके,’’ आगे बढ़ कर नेहा ने जयंति को मिशन पहाड़ी सफल हुआ बता दिया था.

अंकल लोग तो अभी अपनी सांसें ही ठीक कर रहे थे, वे दूसरी ओर के दूसरे रास्ते से निकल कर वापस पार्क पहुंच कर देर तक मजा लेती रहीं. जयंति वहीं इंतजार कर रही थी. मोबाइल पर सारा डायरैक्शन उन्हें वही दे रही थी. ‘‘काश, तू भी साथ चल सकती तो सब की बिगड़ी शक्लें देखती.’’

‘‘कोई नहीं, अब घर पर बिगड़ी शक्लों के साथ बुरी हालत भी देख लूंगी, वह हंसी थी.’’ ‘‘बुरे फंसे सारे बुढ़ऊ. वहां न कोई सवारी, न कोई आदमी. पैदल जब इतनी दूर चल कर आएंगे हांफतेकांपते, तब असली मजा आएगा.’’

‘‘आज अच्छी तरह ले लिया होगा लड़कियों के संग सैर का मजा.’’ ‘‘अब शायद सुधर जाएं और हमें छेड़ने की हिमाकत न करें,’’ सब अपने मिशन पर खूब हंसीं.

अब यह देखो, चारचांद लगाने के लिए और क्या लाई हूं.’’ जयंति बैग से कुछ निकालने लगी तो सभी उत्सुकतावश देखने लगीं. ‘‘अरे वाह, कैप्स, स्कार्फ. कितना प्यारा रैड कलर. पर एक ही कलर क्यों? किस के लिए? हमारे लिए?’’ शिखा, सीमा, नेहा, ज्योति सब खुश भी थीं, हैरान भी.

‘‘अब सीक्रेट सुनो, मेरे फादर इन लौ नई कैप के लिए मेरे हबी से कह रहे थे. मैं ने कहा कि मैं ले आऊंगी, और मैं एक नहीं, 4-4 लाल रंग की टोपियां उठा लाई, इसी चौकड़ी के लिए. जानती हो क्यों? क्योंकि मस्ताना, द हीरो, को लाल रंग से सख्त चिढ़ है. कल पार्क में आ कर बैठने तो दो बुड्ढों को. जब ज्यादा लोग टहल के चले जाते हैं, पार्क तकरीबन खाली हो जाता है. ये बुड्ढे तब भी बैठे मजे ले रहे होते हैं. बस, तभी इन्हें ये गिफ्ट पहना कर और फिर उन्हें मजा दिलाएंगे. आइडिया कैसा लगा?’’ ‘‘हां, स्कार्फ की गांठ जरा कस के लगाना सभी, ताकि जल्दी खोल न सकें वे,’’ शिखा ने कहा तो सभी हंस पड़ीं.

‘‘हां, मैं और शिखा पार्क के दोनों गेट बंद कर के रखेंगी,’’ नेहा ने योजना को सफल बनाने में एक और टिप जोड़ा. ‘‘और मस्ताना को पार्क के अंदर छोड़ कर वहां से थोड़ी देर के लिए बाहर निकल जाऊंगी. फिर मस्ताना अपना काम करेगा और मैं 5-7 मिनट बाद लौट आऊंगी स्थिति संभालने,’’ हाहा, सब खूब हंसीं.

‘‘बुढ़ापे में जब रेबीज की कईकई सुइयां लगेंगी, तो सारी लोफरी निकल जाएगी.’’ उन के सम्मिलित ठहाकों से पार्क गुंजायमान हो उठा. दूसरे दिन कांड हो चुका था. टोपियां संभालते स्कार्फ खोलने की कोशिश में गिरतेपड़तेचिल्लाते उन आशिकमिजाज बुड्ढों की हालत देखने लायक थी. बाकी खड़े लोगों ने भी लड़कियों का साथ दिया.

‘‘जो हुआ, ठीक हुआ इन के साथ.’’ ‘‘अच्छा सबक है. सभी को तंग कर रखा था.’’

‘अच्छा हुआ, सबक तो मिला. जोर किस का बुढ़ापे में जो दिल खिसका,’ रेवती भी चिढ़ से बुदबुदा उठी. पास खड़ी जयंति ने सुना, उन की आंखों में कोई दर्द भी न दिखा तो उसे राहत मिली कि वह उन की दोषी नहीं है. पास के अस्पताल में रोज इंजैक्शन लगवाने जाते दोस्त आंसुओं में कराहते हुए मिलते, पर कुछ न कह पाते न आपस में, न घर वालों से, न ही और किसी से. जयंति की टीम ने उन्हें एक नारे से सावधान कर दिया था, ‘जब तक बहूबेटियों के लिए इज्जत आप के पास, तब तक खैर मनाओ आप…वरना और भी तरीके हैं अपने पास…’

रणवीर सोच रहा था चारों में से किसी के घर वालों ने रिपोर्ट क्यों नहीं की. उस ने आंगन में मस्ताना के साथ बैठी पेपर पर कुछ लाइनें खींचती जयंति की ओर देखा तो पास चला आया, देखा तो वह मुसकराने लगा. पार्क में कैपस्कार्फ में गिरतेपड़ते मस्ताना के डर से भाग रहे उन चारों बुड्ढों का कितना सटीक कार्टून बनाया था जयंति ने.

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