परदेसियों से न अंखियां मिलाना

परदेसी शब्द से मेरा पहला परिचय भारतीय फिल्मों के माध्यम से ही हुआ. बचपन से ही मुझे फिल्में देखने का तथा पिताजी को न दिखाने का शौक था. इन शौकों की टकराहट में प्राय: पिताजी को ही अधिक सफलता मिलती थी इसलिए मुझ बदनसीब को रेडियो से सुने गानों से ही संतोष करना पड़ता था. इसी संतोष के दौरान जब मैं ने यह गाना सुना कि ‘परदेसियों से न अंखियां मिलाना…’ तो मैं बहुत परेशान हो उठा. मेरा हृदय नायिका के प्रति दया से भर उठा. मैं ने सोचा कि आखिर परदेसियों से अंखियां मिलाने में क्या परेशानी है. यह बेचारी क्यों बारबार इस तरह की बात कर रही है.

इस पंक्ति को बारबार दोहराने से मुझे लगा कि वाकई कोई गंभीर बात है वरना वह एक बार ही कह कर छोड़ देती. बहुत कशमकश के बाद भी जब मेरे बालमन को समाधान नहीं मिला तो मैं विभिन्न लोगों से मिला. सभी लोगों ने अपनीअपनी बुद्धि के हिसाब से जो स्पष्टीकरण दिए उस से मेरा दिमाग खुल गया.

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सब से पहले मैं अपने इतिहास के टीचर से मिला. सभी टीचर मुझे शुरू से ही रहस्यमय प्राणी लगते थे. जिन मुश्किल किताबों और सवालों के डर से मुझे बुखार आ जाता था वे उन्हें मुंहजबानी याद थीं. जो गणित के सवाल मुझे पहाड़ की तरह लगते थे वे उन्हें चुटकियों में हल कर देते थे.

इतिहास के मास्टरजी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बोले, ‘‘परदेसियों से अंखियां लड़ाना वाकई एक गंभीर समस्या है. यह इतिहास का खतरनाक लक्षण है. इतिहास गवाह है कि जब भी हम ने परदेसियों से अंखियां लड़ाईं, हमें क्षति उठानी पड़ी. मुहम्मद गोरी ने जयचंद से अंखियां लड़ाईं, जिस से हमारे देश में दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी. दौलत खां लोदी ने बाबर से अंखियां मिलाईं और हमारे भारत में मुगल आ गए.

इसी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी को लें. ये परदेसी कंपनी हमारे यहां सद्भावनापूर्ण तरीके से व्यापार करने आई थी. बातों ही बातों में लड़ाई गई अंखियों के परिणाम में हमें गुलामी झेलनी पड़ी. अंगरेजों के अंखियां लड़ाने का तरीका सर्वाधिक वैज्ञानिक था. उन्होंने कभी निजाम से, कभी मराठों से, कभी सिखों से, कभी गोरखों तथा कभी राजपूतों से अंखियां लड़ाईं. इन में से प्रत्येक को उन्होंने अपना कहा, किंतु हुए किसी के नहीं.

इस के बाद में अपने मकानमालिक से मिला. उन का कहना था, ‘‘परदेसियों से अंखियां मिलाने में तो परेशानियां ही परेशानियां हैं. ये परदेसी कभी भरोसे लायक नहीं होते. आप ने यदि थोड़ी सी भी अंखियां मिला ली हैं तो बस, फिर समझो कि टाइम पर किराया नहीं मिलेगा और तो और, अंखियां मिलाने के बाद अतिक्रमण का भी खतरा है.’’

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फिर मैं नेताजी के पास चला गया. नेताजी मेरे पड़ोस में ही रहते थे. तब राजनीति के बारे में, मैं अधिक नहीं जानता था. बस, इतना अवश्य जानता था कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था है क्योंकि नेताजी प्राय: नईनई पार्टियां बदलते रहते थे.

वह मेरे इस सवाल पर मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, तुम इस देश के भविष्य हो. तुम क्यों इन चक्करों में पड़ कर अपना भविष्य अंधकारमय कर रहे हो. तुम्हें अभी बहुत आगे बढ़ना है. परदेसियों की अंखियों के चक्कर में पड़ कर तुम देश की सेवा से मुंह मोड़ना चाहते हो. नहीं, यह बिलकुल गलत है. तुम हमारी पार्टी में आ जाओ. फिर हम…’’

उन की बातें सुन कर मैं भाग निकला और हड़बड़ाहट में शर्माजी से जा टकराया. शर्माजी एक सरकारी दफ्तर में बाबू थे. ऐसे दफ्तर में जहां हजारों रुपए महीने की ऊपरी आय थी. उन्होंने मेरी हड़बड़ाहट का कारण जानना चाहा, ‘‘क्या बात है बेटा, क्या पहाड़ टूट पड़ा है?’’

मैं ने उन्हें ईमानदारी से अपनी समस्या बतला दी. उन्होंने मेरी बात सुन कर जोर से ठहाका लगाया और बोले, ‘‘बेटा, अगर परदेसियों से ही अंखियां मिलाने में रह जाता तो 2 लड़कियों की शादी कैसे करता. परदेसियों से अंखियां मिलाने का मतलब है मुफ्त में काम कर देना. इसीलिए मैं न तो आफिस में आने वाले से सीधे मुंह बात करता और न अंखियां मिलाता. यह एक सफल प्रशासक के गुण हैं.’’

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मैं असमंजस में पड़ापड़ा सोचता रहा. तभी डाक्टर अंकल आते दिखाई दिए. मैं तेजी से उन के पास गया. वह जल्दी में थे फिर भी उन्होंने मेरी बात सुनी. ‘‘वैसे परदेसियों से अंखियां मिलाने में कोई परेशानी तो नहीं है. फिर भी यह सावधानी रख लेना जरूरी है कि परदेसियों को आईफ्लू तो नहीं है.

‘‘यदि आंख मिलाना अधिक जरूरी हो तो चश्मा लगा लेना चाहिए और फिर भी कुछ हो जाए तो आईड्राप की 2-2 बूंद हर 6 घंटे में और गोलियां…’’

बाकी मेरे बस के बाहर था. मैं ने सरपट दौड़ लगाई. इतिहास के झरोखे से आईफ्लू की खिड़की तक का सफर वाकई बहुत लंबा हो गया था. परदेसियों से अंखियां मिलाने के संदर्भ में जो भयावह कल्पनाएं उपरोक्त सज्जनों ने मेरे दिमाग में बिठा दीं उस का नतीजा यह है कि आज तक मैं किसी परदेसी से अंखियां नहीं लड़ा पाया. और परिणाम में… परिणाम यही रहा कि आज तक मेरी शादी नहीं हो पाई.

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प्रायश्चित्त: भाग 1

लेखिका- किरण डी. कुमार

‘‘दीदी, मेरा तलाक हो गया,’’ नलिनी के कहे शब्द बारबार मेरे कानों में जोरजोर से गूंजने लगे. मैं अपने दोनों बच्चों के साथ कोलकाता से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठी थी. नागपुर आया तो स्टेशन के प्लेटफार्म पर नलिनी को खड़ा देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई. लेकिन न मांग में सिंदूर न गले में मंगलसूत्र. उस का पहनावा देख कर मैं असमंजस में पड़ गई.

मेरे मन के भावों को पढ़ कर नलिनी ने खुद ही अपनी बात कह दी थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, नलिनी? इतना सब सहने का अंत इतना बुरा हुआ? क्या उस पत्थर दिल आदमी का दिल नहीं पसीजा तुम्हारी कठोर तपस्या से?’’

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‘‘शायद मेरी जिंदगी में यही लिखाबदा था, दीदी, जिसे मैं 8 साल से टालती आई थी. मैं हालात से लड़ने के बदले पहले ही हार मान लेती तो शायद मुझे उतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती,’’ नलिनी भावुक हो कर कह उठी. उस के साथ उस की चचेरी बहन भी थी जो गौर से हमारी बातें सुन रही थी.

नलिनी के साथ मेरा परिचय लगभग 10 साल पुराना है. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत मेरे पति आशुतोष का तबादला अचानक ही कोलकाता से अहमदाबाद हो गया था. अहमदाबाद से जब हम किराए के  फ्लैट में रहने गए तो सामने के बंगले में रहने वाले कपड़े के व्यापारी दिनकर भाई ठक्कर की तीसरी बहू थी नलिनी.

नई जगह, नया माहौल…किसी से जानपहचान न होने के कारण मैं अकसर बोर होती रहती थी. इसलिए शाम होते ही बच्चों को ले कर घर के सामने बने एक छोटे से उद्यान में चली जाती थी. दिनकर भाई की पत्नी भानुमति बेन भी अपने पोतेपोतियों को ले कर आती थीं.

पहले बच्चों की एकदूसरे से दोस्ती हुई, फिर धीरेधीरे मेरा परिचय उन के संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों से हुआ. भानुमति बेन, उन की बड़ी बहू सरला, मझली दिशा और छोटी नलिनी. भानुमति बेन की 2 बेटियां भी थीं. छोटी सेजन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

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गुजरात में लोगों का स्वभाव इतना खुले दिल का और मिलनसार होता है कि कोई बाहरी व्यक्ति अपने को वहां के लोगों में अकेला नहीं महसूस करता. ठक्कर परिवार इस बात का अपवाद न था. मेरी भाषा बंगाली होने के कारण मुझे गुजराती तो दूर हिंदी भी टूटीफूटी ही आती थी. भानुमति बेन को गुजराती छोड़ कर कोई और भाषा नहीं आती थी. वह भी मुझ से टूटीफूटी हिंदी में बात करती थीं. धीरेधीरे हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया था. घर में जब भी रसगुल्ले बनते तो सब से पहले ठक्कर परिवार में भेजे जाते और उन की तो बात ही क्या थी, आएदिन मेरे घर वे खमनढोकला और मालपुए ले कर आ जातीं.

ठक्कर परिवार में सब से ज्यादा नलिनी ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव की थी. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, तीखे नाकनक्श, छरहरा बदन और कमर तक लटकती चोटी…कुल मिला कर नलिनी सुंदरता की परिभाषा थी. तभी तो उस का पति सुशांत उस का इतना दीवाना था. नलिनी घरेलू कामों में अपनी दोनों जेठानियों से ज्यादा दक्ष थी. सासससुर की चहेती बहू और दोनों ननदों की चहेती भाभी, किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उस में.

20 जनवरी, 2001 को मैं सपरिवार अपनी छोटी बहन के विवाह में शामिल होेने कोलकाता चली गई. 26 जनवरी को मेरी छोटी बहन की अभी डोली भी नहीं उठी थी कि किसी ने आ कर बताया कि अहमदाबाद में भयंकर भूकंप आया है. सुन कर दिल दहल गया. मेरे परिवार के चारों सदस्य तो विवाह में कोलकाता आ कर सुरक्षित थे, पर टेलीविजन पर देखा कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर कहर बरपा दिया था और भीषण भूकंप के कारण पूरे गुजरात में त्राहित्राहि मची हुई थी.

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अहमदाबाद में भूकंप आने के 10 दिन बाद हम वापस आ गए तो देखा हमारे अपार्टमेंट का एक छोटा हिस्सा ढह गया था, पर ज्यादातर फ्लैट थोड़ीबहुत मरम्मत से ठीक हो सकते थे.

अपने अपार्टमेंट का जायजा लेने के बाद ठक्कर निवास के सामने पहुंचते ही बंगले की दशा देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पुराने समय में बना विशालकाय बंगला भूकंप के झटकों से धराशायी हो चुका था. ठक्कर परिवार ने महल्ले के दूसरे घरों में शरण ली थी.

मुझे देखते ही भानुमति बेन मेरे गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ीं. घर के मुखिया दिनकर भाई का शव बंगले के एक भारी मलबे के नीचे से मिला था. बड़ा बेटा कारोबार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था. भूकंप का समाचार पा कर वह भी भागाभागा आ गया था. नलिनी का पति सुशांत गंभीर रूप से घायल हो कर सरकारी अस्पताल में भरती था. घर के बाकी सदस्य ठीकठाक थे.

सुशांत को देखने जब हम सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वहां गंभीर रूप से घायल लोगों को देख कर कलेजा मुंह को आ गया. सुशांत आईसीयू में भरती था. बाहर बैंच पर संज्ञाशून्य नलिनी अपनी छोटी ननद के साथ बैठी हुई थी. नलिनी मुझे देखते ही आपा खो कर रोने लगी.

‘दीदी, क्या मेरी मांग का सिंदूर सलामत रहेगा? सुशांत के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. काश, जो कुछ इन के साथ घटा है वह मेरे साथ घटा होता.’ कहते हुए नलिनी सुबक उठी. नलिनी के मातापिता और उस का भाई मायके से आए थे. दिमाग पर गहरी चोट लगने के कारण सुशांत कोमा में चला गया था. उस के दोनों हाथपैरों पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

देखतेदेखते 2 महीने बीत गए, पर सुशांत की हालत में कोई सुधार नहीं आया, अलबत्ता नलिनी की काया दिन पर दिन चिंता के मारे जरूर कमजोर होती जा रही थी. उस के मांबाप और भाई भी उसे दिलासा दे कर चले गए थे.

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भानुमति बेन ने अपने वैधव्य को स्वीकार कर के हालात से समझौता कर लिया था. उन की पुरानी बड़ी हवेली की जगह अब एक साधारण सा मकान बनवाया जाने लगा. नीलिनी की दोनों जेठानियां अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हो गईं.

एक दिन खबर मिली कि सुशांत का एक पैर घुटने से नीचे काट दिया गया, क्योंकि जख्मों का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था. मैं दौड़ीदौड़ी अस्पताल गई. आशा के विपरीत नलिनी का चेहरा शांत था. मुझे देखते ही वह बोली, ‘दीदी, पैर कट गया तो क्या हुआ, उन की जिंदगी तो बच गई न. अगर जहर पूरे शरीर में फैल जाता तो? मैं जीवन भर के लिए उन की बैसाखी बन जाऊंगी.’

मैं ने हामी भरते हुए उस के धैर्य की प्रशंसा की पर उस के ससुराल वालों को उस का धैर्य नागवार गुजरा.

उस की दोनों जेठानियां और ननदें आपस में एकदूसरे से बोल रही थीं, ‘देखो, पति का पैर कट गया तो भी कितनी सामान्य है, जैसे कुछ भी हुआ ही न हो. कितनी बेदर्द औरत है.’

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एक रिश्ता किताब का: भाग 1

‘‘बीमार हो तुम, इलाज कराओ अपना. तुम तो इनसान ही नहीं लगते हो मुझे…’’

‘‘तो क्या मैं जानवर हूं?’’

‘‘शायद जानवर भी नहीं हो. जानवर को भी अपने मालिक पर कम से कम भरोसा तो होता है…उसे पता होता है कि उस का मालिक उस से प्यार करता है तभी तो खाना देने में देरसवेर हो जाए तो उसे काटने को नहीं दौड़ता, जैसे तुम दौड़ते हो.’’

‘‘मैं काटने को दौड़ता हूं तुम्हें? अरे, मैं तुम से बेहद प्यार करता हूं.’’

‘‘मत करो मुझ से प्यार…मुझे ऐसा प्यार नहीं चाहिए जिसे निभाने में मेरा दम ही घुट जाए. मेरी एकएक सांस पर तुम ने पहरा लगा रखा है. क्या मैं बेजान गुडि़या हूं जिस की अपनी कोई पसंदनापसंद नहीं. तुम हंसो तो मैं हंसू, तुम नाचो तो मैं नाचूं…हद होती है हर चीज की…तुम सामान्य नहीं हो सोमेश, तुम बीमार हो, कृपा कर के तुम किसी समझदार मनोचिकित्सक को दिखाओ.’’

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ऐसा लग रहा था मुझे जैसे मेरे पूरे शरीर का रक्त मेरी कनपटियों में समा कर उन्हें फाड़ने जा रहा है. आवेश में मेरे हाथपैर कांपने लगे. मैं जो कह रही थी वह मेरी सहनशक्ति समाप्त हो जाने का ही नतीजा था. कोई इस सीमा तक भी स्वार्थी और आधिपत्य जताने वाला हो सकता है मेरी कल्पना से भी परे था. ऐसा क्या हो गया जो सोमेश ने मेरी पसंद की उस किताब को आग ही लगा दी. वह किताब जिसे मैं पिछले 1 साल से ढूंढ़ रही थी. आज सुबह ही मुझे सोमेश ने बताया था कि शाम 4 बजे वह मुझ से मिलने आएगा. 4 से 5 तक मैं उस का इंतजार करती रही, हार कर पास वाली किताबों की दुकान में चली गई.

समय का पाबंद सोमेश कभी नहीं होता और अपनी जरूरत और इच्छा के अनुसार फैसला बदल लेना या देरसवेर करना उस की आदत है, जिसे पिछले 4 महीने से मैं महसूस भी कर रही हूं और मन ही मन परेशान भी हो रही हूं यह सोच कर कि कैसे इस उलझे हुए व्यक्ति के साथ पूरी उम्र गुजार पाऊंगी.

कुछ समय बीत गया दुकान में और सहसा मुझे वह किताब नजर आ गई जिसे मैं बहुत समय से ढूंढ़ रही थी. किताब खरीद कर मैं बाहर चली आई और उसी कोने में सोमेश को भुनभुनाते हुए पाया. इस से पहले कि मैं किताब मिल जाने की खुशी उस पर जाहिर करूं उस ने किताब मेरे हाथ से छीन ली और जेब से लाइटर निकाल यह कहते हुए उसे आग लगा दी, ‘‘इसी की वजह से मुझे यहां इंतजार करना पड़ा न.’’

10 मिनट इंतजार नहीं कर पाया सोमेश और मैं जो पूरे घंटे भर से यहां खड़ी थी जिसे हर आताजाता घूर रहा था. अपनी वजह से मुझे परेशान करना जो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है और अपनी जरा सी परेशानी का यह आलम कि उस वजह को आग ही लगा दी.

अवाक् रह गया सोमेश मुझे चीखते देख कर जिसे पुन: हर आताजाता रुक कर देख भी रहा था और सुन भी रहा था. मेरा तमाशा बनाने वाला अपना भी तमाशा बनना सह नहीं पाया और झट से मेरी बांह पकड़ अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने का प्रयास करने लगा.

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‘‘बस, सोमेश, अब और नहीं,’’ इतना कह कर मैं ने अपना हाथ खींच लिया और मैं ने सामने खड़े रिकशा को इशारा किया.

रिकशा पर बैठ गई मैं. सोमेश के चेहरे के उड़ते रंग और उस के पैरों के पास पड़ी धूधू कर जलती मेरी प्रिय किताब इतना संकेत अवश्य दे गई मुझे कि सोमेश सामान्य नहीं है. उस के साथ नहीं जी पाऊंगी मैं.

पापा के दोस्त का बेटा है सोमेश और उसे मैं इतनी पसंद आ गई थी कि सोमेश के पिता ने हाथ पसार कर मुझे मांग लिया था जबकि सचाई यह थी कि सोमेश की हैसियत हम से कहीं ज्यादा थी. लाखों का दहेज मिल सकता था उसे जो शायद यहां नहीं मिलता क्योंकि मैं हर महीने इतना कमा रही थी कि हर महीने किस्त दर किस्त दहेज उस घर में जाता.

मैं ही दहेज के विरुद्ध थी जिस पर उस के पिता भारी मन से ही राजी हुए थे. बेटे की जिद थी जिस पर उन का लाखों का नुकसान होने वाला था.

‘‘मेरे बेटे में यही तो कमी है, यह जिद्दी बहुत है…और मेरी सब से बड़ी कमजोरी है मेरा बेटा. आज तक इस ने जिस भी चीज पर हाथ रखा मैं ने इनकार नहीं किया…बड़े नाजों से पाला है मैं ने इसे बेटी. तुम इस रिश्ते से इनकार मत करो.’’

दिमाग भन्ना गया मेरा. मैं ने बारीबारी से अपने मांबाप का चेहरा देखा. वे भी परेशान थे मेरे इस निर्णय पर. शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी.

‘‘मैं तुम्हारे लिए वे सारी किताबें लाऊंगा शुभा बेटी जो तुम चाहोगी…’’ हाथ जोड़ता हूं मैं. शादी से इनकार हो गया तो मेरा बेटा पागल हो जाएगा.’’

‘‘आप का बेटा पागल ही है चाचाजी, आप समझते क्यों नहीं? सवाल किताबों का नहीं, किताबें तो मैं भी खरीद सकती हूं, सवाल इस बात का है कि सोमेश ने ऐसा किया ही क्यों? क्या उस ने मुझे भी कोई खिलौना ही मान लिया था कि उस ने मांगा और आप ने लाखों का दहेज ठुकरा कर भी मेरा हाथ मांग लिया…सच तो यही है कि उस की हर जायजनाजायज मांग मानमान कर ही आप ने उस की मनोवृत्ति ऐसी स्वार्थी बना दी है कि अपनी खुशी के सामने उसे सब की खुशी बेतुकी लगती है. बेजान चीजें बच्चे की झोली में डाल देना अलग बात है, आज टूट गई कल नई भी आ सकती है. लेकिन माफ कीजिए, मैं बेजान खिलौना नहीं जो आप के बच्चे के लिए शहीद हो जाऊं.

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‘‘हाथ क्यों जोड़ते हैं मेरे सामने. क्यों अपने बेटे के जुनून को हवा दे रहे हैं. आप रोकिए उसे और अपनेआप को भी. सोमेश का दिमाग संतुलित नहीं है. कृपया आप इस सत्य को समझने की कोशिश कीजिए…’’

‘‘मैं कुछ भी समझना नहीं चाहता. मुझे तो बस मेरे बच्चे की खुशी चाहिए और तुम ने शादी से इनकार कर दिया तो वह पागल हो जाएगा. वह बहुत प्यार करता है तुम से.’’

मन कांप रहा था मेरा. क्या कहूं मैं इस पिता समान इनसान से? अपनी संतान के मोह में वह इतना अंधा हो चुका है कि पराई संतान का सुखदुख भी उसे नजर नहीं आ रहा.

‘‘अगर शुभा ऐसा चाहती है तो तुम ही क्यों नहीं मान जाते?’’ पापा ने सवाल किया जिस पर सोमेश के पिता तिलमिला से गए.

‘‘तुम भी अपनी बेटी की बोली बोलने लगे हो.’’

‘‘मैं ने भी अपनी बच्ची बड़े लाड़प्यार से पाली है, जगदीश. माना मेरे पास तुम्हारी तरह करोड़ों की विरासत नहीं है, लेकिन इतना भूखा भी नहीं हूं जो अपनी बच्ची को पालपोस कर कुएं में धकेल दूं. शादी की तैयारी में मेरा भी तो लाखों खर्च हो चुका है. अब मैं खर्च का हिसाब तो नहीं करूंगा न…जब बेटी का भविष्य ही प्रश्नचिह्न बन सामने खड़ा होगा…चलो, मैं साथ चलता हूं. सोमेश को किसी मनोचिकित्सक को दिखा लेते हैं.’’

सोमेश के पिता माने नहीं और दनदनाते हुए चले गए.

‘‘कहीं हमारे हाथों किसी का दिल तो नहीं टूट रहा, शुभा? कहीं कोई अन्याय तो नहीं हो रहा?’’ मां ने धीरे से पूछा, ‘‘सोमेश बहुत प्यार करता है तुम से.’’

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‘‘मां, पहली नजर में ही उसे मुझ से प्यार हो गया, समझ नहीं पाई थी मैं. न पहले देखा था कभी और न ही मेरे बारे में कुछ जानता था…चलो, माना… हो गया. अब क्या वह मेरी सोच का भी मालिक हो गया? मां, इतना समय मैं चुप रही तो इसलिए कि मैं भी यही मानती रही, यह उस का प्यार ही है जो कोई मुझे देख रहा हो तो उसे सहन ही नहीं होता. एक दिन रेस्तरां में मेरे एक सहयोगी मिल गए तो उन्हीं के बारे में हजार सवाल करने लगा और फिर न मुझे खाने दिया न खुद खाया. वजह सिर्फ यह कि उन्होंने मुझ से बात ही क्यों की. उस में समझदारी नाम की कोई चीज ही नहीं है मां. अपनी जरा सी इच्छा का मान रखने के लिए वह मुझे चरित्रहीन भी समझने लगता है…मेरी नजरों पर पहरा, मैं ने उधर क्यों देखा, मैं ने पीछे क्यों देखा, कभीकभी तो मुझे अपने बारे में भी शक होने लगता है कि क्या सच में मैं अच्छी लड़की नहीं हूं…’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

ऐसी मांगने वालियों से तोबा: भाग 2

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लेखिका- विभावरी सिन्हा

मैं ठंडी पड़ गई, ‘‘हांहां, क्यों नहीं?’’

थोड़े से मालपुए बचे थे. कुछ निकाल कर मैं ने उन्हें दिए.

‘‘नहीं, नीराजी, मैं तो बस थोड़ा सा चख लूंगी,’’ यह कह कर उन्होंने पूरा खाना खाया. फिर बोलीं, ‘‘वाह, बहुत स्वादिष्ठ हैं. अभी मैं बच्चों को बुला कर लाती हूं. वे भी थोड़ा चख लेंगे. फिर रात को पूरा खाना खाने हम लोग आएंगे’’

मेरी आंखों के आगे तो पूरी पृथ्वी घूम गई. अभी इस आघात से उबर भी नहीं पाई थी कि वह सपरिवार चहकते हुए आ पहुंचीं. साथ में फफूंदी लगा आम का मरियल सा अचार एक छोटी कटोरी में था. पति व बिटिया मेहमानों को छोड़ने बस अड्डे गए थे. सोचा, आज हमारा उपवास ही सही. किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से रसोई की ओर बढ़ी.

पर उस से पहले मधुरिमा ने कहा, ‘‘आप बैठिए, नीराजी. थक गई होंगी. मैं निकाल लेती हूं.’’

मेरे मना करतेकरते उन्होंने सारी बचीखुची रसद निकाल कर बाहर की और सब लोग चखने बैठ गए.

मेरे हाथ में अचार की कटोरी थी और मैं मन ही मन सुलग रही थी. सोचा, कटोरी कूड़ेदान में फेंक दूं. खैर, सब लोग रात में खाना खाने का वादा कर के जल्दी ही मेरे पुए चख कर चले गए. मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा था.

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पति के आने पर मैं ने सारी बातें कहीं. वह भी बहुत दिनों से इसी समस्या पर विचार कर रहे थे. पहले तो उन्होंने मेरी बेवकूफी पर मेरी ख्ंिचाई की. फिर होटल से ला कर खाना खाया. शाम तक वह कुछ विचार करते रहे और फिर रात में खुश हो कर मधुरिमा के आने से पहले ही हमें सैर कराने ले गए. बाहर ही हम ने खाना खा लिया. उन्होंने 10 दिन की छुट्टी ली. मैं ने कारण पूछा तो बोले कि समय पर सब जान जाओगी. मैं मूक- दर्शक बन कर अगली खतरे की घंटी का इंतजार करने लगी.

दूसरे दिन सुबह ही मधुरिमा अपनी चिरपरिचित मुद्रा में खड़ी हो गईं. मैं तो पहले ही अंदर छिप चुकी थी. आज मेरे पति ने मोरचा संभाला था.

‘‘अरे, भाई साहब, आप? नीराजी किधर गईं?’’

‘‘वह तो अपनी सहेली के घर गई हैं. मुझ से कह गई हैं कि आप के आने पर जो कुछ भी चाहिए आप को मैं दे दूं. बोलिए, क्या चाहती हैं आप?’’

मधुरिमा सकपका गईं. अपने जीवन में शायद पहली बार उन को इस तरह की बातों का सामना करना पड़ रहा था. वह रुकरुक कर बोलीं, ‘‘बात यह है, भाई साहब कि आज पिंकू के सिर में दर्द है. मैं तो खुद बाजार नहीं जा सकती. मिट्टी का तेल भी खत्म हो गया है. सोचा, आप से मांग लूं. मैं कनस्तर ले कर आई हूं. 4 लिटर दे दीजिए.’’

‘‘देखिए, मधुरिमाजी, मैं अभी बाजार जा रहा हूं. आप पैसे दे दें. मैं अभी तेल ले आता हूं. मेरा भी खत्म हो चुका है,’’ मेरे पति ने हंस कर कहा.

अब तो मधुरिमा को काटो तो खून नहीं. मरियल आवाज में बोलीं, ‘‘रहने दीजिए, फिर कभी मंगवा लूंगी. अभी तो मुझे कहीं जाना है,’’ यह कह कर वह तेजी से चली गईं. मैं छिप कर देख रही थी और हंसहंस कर लोटपोट हो रही थी.

3-4 दिन चैन से गुजरे. मेरे वे 200 रुपए तो कभी लौटे नहीं. लेकिन खैर, एक घटना के बाद मुझे हमेशा के लिए शांति मिल गई. एक दिन सुबहसुबह फिर वह मुझे खोजती हुई सीधे मेरे कमरे में पहुंचीं. पर मैं तो पहले ही खतरे की घंटी सुन कर भंडारगृह में छिप गई थी. वह निराश हो कर वहीं बैठ गईं. मेरे पति ने अंदर आ कर उन को नमस्ते की और आने का कारण पूछा.

मधुरिमा ने सकपका कर कहा, ‘‘भाई साहब, नीराजी को बुला दीजिए. यह बात उन्हीं से कहनी थी.’’

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‘‘मधुरिमाजी, आप को मालूम नहीं, नीरा की बहन को लड़का हुआ है. इसलिए वह तड़के ही उठ कर शाहदरा अपनी बहन के पास गई हैं. अब तो कल ही लौटेंगी आप मुझ से ही अपनी समस्या कहिए.’’

पहले तो वह घबराईं. फिर कुछ सहज हो कर कहा, ‘‘भाई साहब, मेरे पति आप की बहुत तारीफ कर रहे थे. सचमुच आप जैसा पड़ोसी मिलना मुश्किल है.’’

‘‘यह तो आप का बड़प्पन है.’’

‘‘नहींनहीं, सचमुच नीराजी भी बहुत अच्छी हैं. मेरे घर में तो सभी उन से बहुत प्रभावित हैं. इतना अच्छा स्वभाव तो कम ही देखनेसुनने को मिलता है.’’

मेरे पति आश्चर्य से उन्हें देख रहे थे और सोच रहे थे कि क्या यही बात इन को कहनी थी.

फिर मधुरिमा ने वाणी में मिठास घोल कर कहा, ‘‘भाई साहब, जब तक नीराजी नहीं आती हैं, मैं आप का खाना बना दिया करूंगी.’’

‘‘जी शुक्रिया, खाना तो मैं खुद भी बना लेता हूं.’’

इस के बाद 1 घंटे तक वह भूमिका बांधती रहीं. पर असली बात बोलने का साहस ही नहीं कर पा रही थीं. अंत में उन्होंने मेरे पति से विदा मांगी. पर जैसे ही पति ने दरवाजा बंद करना चाहा, वह अचानक बोल पड़ीं, ‘‘भाई साहब, 50 रुपए यदि खुले हों तो दे दीजिए.’’

‘‘अच्छा तो रुपए चाहिए थे. आप को पहले कहना चाहिए था. मैं आप को 50 के बदले 100 रुपए दे देता. पर आप ने मेरा समय क्यों बरबाद किया? खैर, कोई बात नहीं,’’ मेरे पति ने जल्दी से पर्स खोल कर 150 रुपए निकाले और कहा, ‘‘मैं आप को 150 रुपए दे रहा हं. मुझे वापस भी नहीं चाहिए. पर कृपया, हमारा समय बरबाद न किया करें.’’

मधुरिमा खिसियानी बिल्ली की तरह दरवाजे की लकड़ी को टटोलने लगीं.

‘‘भाई साहब, इतने रुपए देने की क्या जरूरत थी. मुझे तो बस…’’

‘‘नहींनहीं, मधुरिमाजी, आप सब ले जाइए. मैं खुशी से दे रहा हूं. हां, कल मैं आप के घर खाना खाने आ रहा हूं. नीरा ने कहा था कल आप छोले बनाने वाली हैं. सचमुच आप बहुत स्वादिष्ठ छोले बनाती हैं. यहां से प्याज, अदरक आप खुशी से ले जा सकती हैं.’’

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‘‘नहीं, भाई साहब, ऐसी कोई बात नहीं. कल ही तो स्वादिष्ठ खीर बनाई थी, पर बच्चों ने सारी खत्म कर दी. सोचा था, आप को जरूर खिलाऊंगी,’’ मेरे पति ने आश्चर्य से मुंह फैला कर कहा, ‘‘अच्छा फिर दूध, चावल और पतीला किस के घर से लिया था आप ने?’’

अब तो मधुरिमा का रुकना मुश्किल था, ‘‘अच्छा, भाई साहब, चलती हूं,’’ कहती हुई और बेचारगी से मुंह बना कर वह तेजी से घर की ओर भागीं.

उस दिन के बाद मधुरिमा ने मांगने की आदत छोड़ दी. इस घटना का जिक्र भी उन्होंने किसी से नहीं किया क्योंकि इस में उन की ही बेइज्जती का डर था. मेरे परिवार से नाराज भी नहीं हो सकीं क्योंकि इस से बात खुलने का डर था. फलस्वरूप उन से हमारे संबंध भी ठीक हैं और हम शांति से गुजरबसर कर रहे हैं.

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ऐसी मांगने वालियों से तोबा: भाग 1

लेखिका- विभावरी सिन्हा

अभी मेरी नींद खुली ही थी कि मधुरिमा की मधुर आवाज सुनाई दी. वास्तव में यह खतरे की घंटी थी. मैं अपना मोरचा संभालती, इस से पहले ही स्थूल शरीर की वह स्वामिनी अंदर पहुंच चुकी थी. मैं अपने प्रिय प्रधानमंत्री की मुद्रा में न चाहते हुए भी मुसकरा कर खड़ी हो गई.

वह आते ही शुरू हो गईं, ‘‘अरे, नीराजी, आप सो कर उठी हैं? आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही. अभी मैं सिरदर्द की दवा भेज देती हूं. और हां, भाई साहब और छोटी बिटिया नहीं दिख रहे?’’

मैं जबरदस्ती मुलायमियत ला कर बोल पड़ी, ‘‘यह तो अभी स्नानघर में हैं और बिटिया सोई है.’’

‘‘आप की बिटिया तो कमाल की है. बड़ी होशियार निकलेगी. और हां, खाना तो बनाना शुरू नहीं किया होगा.’’

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मैं उन की भूमिका का अभिप्राय जल्दी जानना चाह रही थी. सारा काम पड़ा था और यह तो रोज की बात थी. ‘‘नहीं, शुरू तो नहीं किया, पर लगता है आप के सारे काम हो गए.’’

‘‘ओह हो,’’ मधुरिमा हंस कर बोलीं, ‘‘नहीं, मैं तो रोज दाल बनाती हूं न.’’

मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘दाल तो मैं भी रोज बनाती हूं.’’

‘‘पर मैं तो दाल में जीरे का छौंक लगाती हूं.’’

‘‘वह तो मैं भी करती हं, इस में नई बात क्या है?’’

‘‘वह क्या है, नीराजी कि आज दाल बनाने के बाद डब्बा खोला तो जीरा खत्म हो गया था. सोचा, आप ही से मांग लूं,’’ मधुरिमा ने अधिकार से कहा. फिर बड़ी आत्मीयता से मेरी पत्रिकाएं उलटने लगीं.

मैं ने तो सिर पकड़ लिया. थोड़ा सा जीरा मांगने में इतनी भूमिका? खैर, यह तो रोज का धंधा था. मुझे तो आदत सी पड़ गई थी. यह मेरे घर के पास रहती हैं और मेरी सभी चीजों पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताती हैं. इस अधिकार का प्रयोग इन्होंने दूसरों के घरों पर भी किया था, पर वहां इन की दाल नहीं गली. और फिर संकोचवश कुछ न कहने के कारण मैं बलि का बकरा बना दी गई.

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अब तो यह हालत है कि मेरी चीजें जैसे इस्तिरी, टोस्टर वगैरह इन्हीं के पास रहते हैं. जब मुझे जरूरत पड़ती है तो कुछ देर के लिए उन के घर से मंगवा कर फिर उन्हीं को वापस भी कर देती हूं क्योंकि जानती हूं कुछ ही क्षणों के बाद फिर मधुर आवाज में खतरे की घंटी बजेगी. भूमिका में कुछ समय बरबाद होगा और मेरा टोस्टर फिर से उन के घर की शोभा बढ़ाएगा.

पूरे महल्ले में लोग इन की आदतों से परिचित हैं. और घर में इन के प्रवेश से ही सावधान हो जाते हैं. यह निश्चित है कि यह कोई न कोई वस्तु अपना अधिकार समझ कर ले जाएंगी. फिर शायद ही वह सामान वापस मिले. सुबह होते ही यह स्टील की एक कटोरी ले कर किसी न किसी घर में या यों कहिए कि अकसर मेरे ही घर में प्रवेश करती हैं. मैं न चाहते हुए भी शहीद हो जाती हूं.

यह बात नहीं कि इन की आर्थिक स्थिति खराब है या इन में बजट बनाने की या गृहस्थी चलाने की निपुणता नहीं है. यह हर तरह से कुशल गृहिणी हैं. हर माह सामान एवं पैसों की बचत भी कर लेती हैं. पति का अच्छा व्यवसाय है. 2 बेटे अच्छा कमाते भी हैं. बेटी पढ़ रही है. खाना एवं कपड़े भी शानदार पहनती हैं. फिर भी न जाने क्यों इन्हें मांगने की आदत पड़ चुकी है. जब तक कुछ मांग नहीं लेतीं तब तक इन के हाथ में खुजली सी होती रहती है.

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इन की महानता भी है कि जब आप को किसी चीज की अचानक जरूरत आ पड़े और इन से कुछ मांग बैठें तो सीधे इनकार नहीं करेंगी. अपनी आवाज में बड़ी चतुराई से मिठास घोल कर आप को टाल देंगी और आप को महसूस भी नहीं होने देंगी. पहले तो आप का व परिवार का हालचाल पूछती हुई जबरदस्ती बैठक में बैठा लेंगी. फिर चाय की पत्ती में आत्मीयता घोल कर आप को जबरन चाय पिला देंगी. आप रो भी नहीं सकतीं और हंस भी नहीं सकतीं. असमंजस में पड़ कर उन की मिठास को मापती हुई घर लौट जाएंगी.

इधर कुछ दिनों से मैं इन की आदतों से बहुत परेशान हो गई थी. मेरे पास चीनी कम भी होती तो उन के मांगने पर देनी ही पड़ती. इस से मेरी दिक्कतें बढ़ जातीं. दूध कम पड़ने पर भी वह बड़े अधिकार से ले जातीं. पहले तो मेरे घर पर न होने पर वह मेरे नौकर से कुछ न कुछ मांग ले जाती थीं. अब खुद रसोई में जा कर अपनी आवश्यकता के अनुसार, हलदी, तेल वगैरह अपनी कटोरी में निकाल लेती हैं.

इस बीच अगर मैं लौट आई तो मुझ पर मधुर मुसकान फेंकती हुई आगे बढ़ जाती हैं. अदा ऐसी, मानो कोई एहसान किया हो मुझ पर. मैं तो बिलकुल आज की पुलिस की तरह हाथ बांध कर अपनी चीजों का ‘सती’ होना देखती रहती. उन के चले जाने पर पति से इस की चर्चा जरूर करती पर झुंझलाती खुद पर ही. मेरा बजट भी गड़बड़ाने लगा, सामान भी जल्दी खत्म होने लगा.

होली के दिन तो गजब ही हो गया. मैं जल्दीजल्दी पुए, पूरियां, मिठाई वगैरह बना कर मेज पर सजा रही थी. मेहमान आने ही वाले थे. इधर मेहमान आने शुरू हुए उधर मधुरिमा खतरे की घंटी बजाती हुई आ पहुंचीं. दृढ़ निश्चय कर के मैं अपना मोरचा संभालती कि उन्होंने एक प्यारी सी मुसकान मुझ पर थोप दी और मेरी मदद करने लगीं. मैं भीतर ही भीतर मुलायम पड़ने लगी.

सोचा, आज होली का दिन है, शायद आज कुछ नहीं मांगेंगी. पर थोड़ी भूमिका के बाद उन्होंने भेद भरे स्वर में मुझे अलग कमरे में बुलाया. मैं शंकित मन से उधर गई. उन्होंने अधिकारपूर्वक मुझ से कहा, ‘‘नीराजी, आज तो पिंकू के पिताजी बैंक नहीं जा सकते. कुछ रुपए, यही करीब 200 तक मुझे दे दो. मैं कल ही लौटा दूंगी.’’

मेरे ऊपर तो वज्र गिर पड़ा. मैं इनकार करती, इस के पहले ही वह बोल पड़ीं, ‘‘नीरा बहन, तुम तो दे ही दोगी. मैं जानती थी.’’

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मैं असमंजस में थी. वह फिर बोलीं, ‘‘देखो, जल्दी करना. तुम रुपए निकालो, तब तक मैं रसोई से 1 किलो चीनी ले आती हूं. थैली मेरे पास है. आज मेवों की गुझिया बनाने की सोच रही हूं. तुम लोगों को भी चखने को दे जाऊंगी.’’

मैं अभी कुछ कहना ही चाहती थी कि और भी मेहमान आ पहुंचे. मैं ने जल्दी से पर्स से 200 रुपए निकाले. सोचा, आगे देखा जाएगा. मधुरिमा ने जल्दी से रुपए लपक लिए और रसोई की ओर चली गईं. मैं इधर मेहमानों में फंस गई.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक शाम थाने के नाम

मजाक-

एक लंबी सांस लेने के बाद प्रभु दयाल अपने घर की ओर जा रहा था कि उस ने देखा कि लालबत्ती के पास कुछ लोग जमा हो रहे हैं.

माजरा क्या है, यह जानने के लिए जब वह उन लोगों के पास पहुंचा तो पता चला कि जेब काटने के दौरान मिले माल के बंटवारे को ले कर 2 जेबकतरे आपस में झगड़ रहे थे.

तभी गश्त पर निकले 2 पुलिस वाले मोटरसाइकिल पर वहां आ धमके. होशियार लोग तो वहां से खिसक गए, लेकिन प्रभु दयाल पुलिस वालों के हत्थे चढ़ गया.

एक पुलिस वाला प्रभु दयाल की कलाई जोर से पकड़ कर बोला, ‘‘चल, थाने चल. चौकचौराहे पर झगड़ाफसाद करता है, दंगा करता है…’’

घबराया हुआ प्रभु दयाल घिघियाते हुए बोला, ‘‘अरे भाई साहब, मैं शरीफ आदमी हूं. मैं ने कुछ नहीं किया है. मुझे क्यों पकड़ रहे हैं? दंगा करने वाले बदमाश तो भाग गए.’’

दूसरा पुलिस वाला थोड़ा अकड़ कर बोला, ‘‘थाने चल, वहीं तुझे सब बताएंगे.’’

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चौकचौराहे पर पुलिस के डंडे खाने के बजाय प्रभु दयाल ने थाने चलने में ही भलाई समझी.

थाने में प्रभु दयाल को जिस सबइंस्पैक्टर के सामने पेश किया गया, वह पहले से ही थाने लाए गए कुछ लोगों से निबटने में लगा था.

सबइंस्पैक्टर एक नौजवान को डांट रहा था, ‘‘देखो, तुम ने सरकारी जमीन को घेर कर रेहड़ी लगा रखी है. तुम्हारी अच्छी आमदनी होती है, तो फिर बीट कांस्टेबल से झगड़ा क्यों करते हो?

‘‘आपसी तालमेल से सब ठीकठाक चलता रहेगा. बीट कांस्टेबल जो कहता है मान लो, अकेले सब हजम करना तो ठीक नहीं है.’’

वह नौजवान घिघियाता हुआ बोला, ‘‘साहबजी, कोई नौकरी न मिलने पर ही यह काम शुरू किया था.

‘‘देखने से ही ऐसा लगता है कि हमें खूब कमाई हो रही है, पर हकीकत में ऐसा नहीं है. पुलिस वाले हर महीने पैसे बढ़ा कर लेना चाहते हैं. बताइए, उन को हम कैसे खुश रखें? आप मालिक हैं, हमें इंसाफ दीजिए.’’

सबइंस्पैक्टर पानी के साथ दवा की गोली गटकते हुए बोला, ‘‘हम फुजूल में किसी को तंग नहीं करना चाहते. तुम थोड़े कहे को ही ज्यादा समझो. बीट अफसर को खुश रखो. अब भाग लो यहां से. आगे से कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए. पानी में रह कर मगर से बैर न पालो.’’

अब अगला नंबर एक एसटीडी बूथ चलाने वाले का था. सबइंस्पैक्टर उस आदमी से बोला, ‘‘लालाजी, तय रेट से ज्यादा पैसा वसूल रहे हो. बहुत बड़ा जुर्म है यह. जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी. तुम्हारे खिलाफ जो शिकायतें आई हैं, उन का निबटारा कर लो, नहीं तो तुम्हारे साथ बुरा हो सकता है. समझ गए न?’’

अब अगला नंबर प्रभु दयाल का था. सबइंस्पैक्टर प्रभु दयाल को घूरते हुए बोला, ‘‘आंखों पर चश्मा, जेब में पैन. तुम तो काफी पढ़ेलिखे लगते हो, फिर भी चौकचौराहे पर दंगा क्यों कर रहे थे? सबकुछ खुद ही बता दो. मेरा गुस्सा बहुत बुरा है. तुम मुझे गुस्सा मत दिलाना, नहीं तो बड़ी मार खाओगे.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘गुस्सा आप की सेहत के लिए अच्छा नहीं है साहब. हाई ब्लड प्रैशर के मरीज को तो गुस्से से हमेशा दूर ही रहना चाहिए.’’

सबइंस्पैक्टर हैरान हो कर बोला, ‘‘तुम्हें कैसे पता है कि मैं हाई ब्लड प्रैशर का मरीज हूं? यह तो कमाल है.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘साहबजी, यह तो छोटी सी बात है. मुझे तो यह भी मालूम है कि कुछ देर पहले आप कोर्ट में पेश होने वाले बदमाशों की फाइल की लिखापढ़ी में लगे थे. मैं ठीक कह रहा हूं न?’’

सबइंस्पैक्टर को लगा जैसे उस के सामने एक ऐसा आदमी खड़ा है, जो दीवारों के आरपार देख सकता है.

लोहा गरम देख प्रभु दयाल ने एक और चोट की, ‘‘साहबजी, मुझे तो यह भी पता?है कि आज आप ने चावल और रोटी के साथ कौन सी सब्जी खाई है. आज आप ने लंच में कद्दू की सब्जी खाई है. ठीक कहा न?’’

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सबइंस्पैक्टर को ऐसा लग रहा था, जैसे उस की कुरसी के नीचे से जमीन खिसक रही है. ऐसे सच्चे भविष्य बताने वाले से तो उस का जिंदगी में कभी सामना ही नहीं हुआ था.

सबइंस्पैक्टर प्रभु दयाल के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आप तो सबकुछ जानते हैं. मैं और मेरे बीवीबच्चों के बारे में भी कुछ बताइए. मैं खुशकिस्मत हूं कि आप जैसे बड़े लोगों के दर्शन हो गए.

‘‘यहां पास ही में मेरा फ्लैट है. क्या आप मेरे घर चल कर कुछ चायनाश्ता करेंगे? इसी बहाने ही सही, आप के साथ मिलनेबैठने का मौका मिल जाएगा.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘फिर किसी दिन सही. आज बस इतना ही.’’

सबइंस्पैक्टर जैसे ही प्रभु दयाल के पैर छूने को आगे बढ़ा, प्रभु दयाल दूर हटते हुए बोला, ‘‘अजी साहब, ऐसा गजब मत कीजिए. अभी तो मैं अपने घर लौटना चाहूंगा, फिर किसी दिन फुरसत से आऊंगा.’’

सबइंस्पैक्टर गरजा, ‘‘मुबारक सिंह, भाई साहब को थाने की जीप में घर छोड़ कर आओ.

‘‘और हां, रास्ते में भोलू हलवाई की दुकान से साहब के बच्चों के लिए 5 किलो देशी घी के गुलाब जामुन दिलवा देना.’’

उधर महल्ले वाले प्रभु दयाल को थाने की जीप से उतरते व पुलिस द्वारा अदब से सलाम मारते देख हैरान थे. कुछ नौजवान भी वहां खड़े थे. उन में से एक ने कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘हमें तो पहले से ही शक था कि अपने में मस्त रहने वाला हमारा यह पड़ोसी प्रभु दयाल बड़ी ऊंची चीज है. थाने की जीप में आया है.’’

इधर, सारी बातें जानने के बाद प्रभु दयाल की बीवी हैरान हो कर पूछ रही थी, ‘‘शेर के मुंह में जाने के बाद भी आप सहीसलामत वापस कैसे आ गए? और साथ में देशी घी के गुलाब जामुन भी ले आए. कैसे हुआ यह चमत्कार? आप को तो ज्योतिष के बारे में कुछ भी नहीं आता, फिर वहां आप भविष्य बताने वाले कैसे बन गए?’’

प्रभु दयाल थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘अगर ज्योतिष के द्वारा कुछ बताया जा सकता, तो वाजपेयीजी समय से पहले चुनाव करा कर गद्दी नहीं खोते. ओसामा बिन लादेन कहां छिपा है, यह कब का पता लग गया होता. ज्योतिष के नाम पर जो बातें मैं ने सबइंस्पैक्टर को बताई थीं, वे तो कोई भी बता सकता था…’’

प्रभु दयाल ने राज खोला, ‘‘मैं ने देखा था कि पानी मंगा कर सबइंस्पैक्टर ने एनवास-10 की गोली गटकी थी. इस का मतलब यही था कि वह हाई ब्लड प्रैशर का मरीज है.

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‘‘लिखते हुए शायद रिफिल लीक कर गई थी, जिस से उस की उंगली में स्याही लगी थी. इस से साफ जाहिर था कि उस ने थोड़ी देर पहले लिखाई का काम किया है.

‘‘उस की मूंछों में कद्दू की सब्जी का एक छोटा टुकड़ा फंसा हुआ था यानी दोपहर को उस ने कद्दू की सब्जी खाई थी.

‘‘मैं बेकुसूर था और बेमतलब ही फंसाया जा रहा था, सो बचने के लिए ही सबइंस्पैक्टर के सामने मैं ने कुछ बातें हवा में उछाल दी थीं. मेरे बुरे समय पर हाजिरजवाब होने की नीति काम कर गई थी.

‘‘मैं ने उन से एक बार भी नहीं कहा कि मैं कोई पहुंचा हुआ पीरपंडित या भविष्य बताने वाला हूं. अब वह अपनी समझ से खुद ही यह मानने लगा था कि मैं कोई बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं, तो उस हालत में मैं क्या कर सकता था? अंधविश्वासी लोग अकसर अपने जाल में खुद ही फंस जाते हैं.’’

प्रभु दयाल की बीवी बोली, ‘‘आप ने तो कहीं भी कोई गलतबयानी नहीं की. दूसरों की मेहनत की कमाई और हक पर हिस्सापत्ती चाहने वाले ऐसे लोगों को तो सेर का कोई सवा सेर मिलते ही रहना चाहिए.’’

फिर पत्नी अपने बड़े बेटे को बुला कर बोली, ‘‘बेटा, गुलाब जामुन की यह हांड़ी गरीबों में दे आ. कहीं इस धौंसपट्टी की कमाई को खाने से हमारे बच्चों पर भी बुरा असर न पड़ जाए.’’

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कातिल

लेखक- भीमराव रामटेके ‘अनीश’

‘‘कुछ नहीं सर, वह कल वाला फिटनैस सर्टिफिकेट देने का हिसाब देना था. ये जीनियस स्कूल की 10 बसों के 5 लाख रुपए हैं. 50,000 के हिसाब से, 60,000 के लिए वे नहीं माने. कह रहे थे कि साहब का बच्चा पढ़ता है हमारे स्कूल में, तो इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिए, तो मैं ने भी ले लिए,’’ कहते हुए मुकेश ने एक बड़ा सा लिफाफा अपने बैग से निकाल कर सुनील के हाथ में दे दिया.

‘‘यार, फिर तुम एजेंट किस काम के हो… जब पहले ही बात हो गई थी तो पूरे ही लेने थे न… चलो, ठीक है.

‘‘अच्छा, आज मैं 3 बजे निकल जाऊंगा. मेरे बेटे का बर्थडे है… तो कल मुलाकात होगी,’’ सुनील लिफाफा सूटकेस में रखते हुए बोला और अपने काम में लग गया.

3 बजे सुनील अपनी कार से घर के लिए चल दिया. जैसे ही उस ने हाईवे पर मोड़ काटा, तो थोड़ी ही दूरी पर उसे जीनियस स्कूल की बस नजर आई.

‘अरे… 18 नंबर… यह तो चंकी की बस है…’ सुनील सोच ही रहा था कि बस को रुकवा कर उसे अपने साथ ले जाए कि अचानक बस लहराती हुई दूसरी तरफ उछली और सामने से आने वाले ट्रक से उस की जोरदार टक्कर हो गई. बच्चों की चीखों से आसमान जैसे गूंज उठा.

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सुनील का कलेजा कांप उठा. वह गाड़ी को ब्रेक लगा कर रुका और जल्दी से बस के अंदर घुसा.

अंदर का सीन देख कर सुनील के होश उड़ गए. बुरी तरह से जख्मी बच्चों की चीखें उस के कलेजे पर हथौड़े की तरह लग रही थीं. जैसे उस से कह रही हों कि तुम्हीं ने हमें मारा है. उस की नजरें तलाशती हुई जैसे ही चंकी पर पड़ीं, उस के तो मानो हाथपैर ठंडे पड़ गए.

चंकी के सिर और हाथों से खून बह रहा था. उस की सारी यूनीफौर्म खून से लथपथ हो चुकी थी और वह सिर पकड़ कर तड़पता हुआ जोरजोर से ‘मम्मीमम्मी’ चिल्ला रहा था.

सुनील ने तुरंत अपनी शर्ट उतार कर उस के सिर पर बांधी और उसे गोद में ले कर कार की तरफ दौड़ लगा दी. उसे कार में बिठा कर पास के ही अस्पताल की ओर तेजी कार से बढ़ा दी.

अस्पताल पहुंचते ही चंकी को स्ट्रैचर पर लिटा कर इमर्जैंसी में ले जाया गया.

सुनील ने कांपते होंठों से डाक्टर को हादसे की जानकारी दी… तुरंत ही इलाज शुरू हो गया.

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सुनील जरूरी कार्यवाही पूरी कर के बैठा ही था कि 2 एंबुलैंस आ कर रुकीं और उन में से ड्राइवर, कंडक्टर और कुछ बच्चों को निकाल कर स्टै्रचर पर लिटा कर अस्पताल के मुलाजिम उन्हें अंदर ले आए.अस्पताल में अफरातफरी का माहौल हो गया. नर्स ने बताया कि 8 बच्चों सहित ड्राइवर की मौत हो गई है. यह सुन कर सुनील पसीने से तरबतर

हो गया.‘तेरी रुपयों की हवस ने ही इन्हें मारा है… अगर तू उन खराब बसों को फिटनैस सर्टिफिकेट नहीं देता तो यह हादसा नहीं होता… तू ने ही अपने बेटे को जख्मी कर मौत के हवाले कर दिया है. तू ही कातिल है इन सब मासूम बच्चों का…’सुनील की पैसे की हवस जैसे पिघल कर उस की आंखों से बह रही थी.

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