
उन्होंने लिख दिया, ‘बेटे, तुम खुद समझदार हो. मुझे पूरा विश्वास है, जो भी करोगे, खूब सोचसमझ कर करोगे. अगर वहां रहने में ही तुम्हारी भलाई है तो वहीं रहो. लेकिन शादीब्याह कर अपनी गृहस्थी बसा लो. लड़की वाले हमेशा चक्कर लगाया करते हैं. तुम लिखो तो दोचार तसवीरें भेजूं. तुम्हें जो पसंद आए, अपनी राय दो तो बात पक्की कर दूं. आ कर शादी कर लो. मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगी.’
बहुत दिनों तक विक्रम ब्याह की बात टालता रहा. आखिर जब सुभद्रा देवी ने बहुत दबाव डाला तो लिखा उस ने, ‘मैं ने यहीं एक लड़की देख ली है, मां. यहीं शादी करना चाहता हूं. लड़की अच्छे परिवार की है, उस के पिता यहां एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं. अगर तुम्हें एतराज न हो तो…बात कुछ ऐसी है न मां, जब यहां रहना है तो भारतीय लड़की के साथ निभाने में कठिनाई हो सकती है. यहां की संस्कृति बिलकुल भिन्न है. लिंडा एक अच्छी लड़की है. तुम किसी बात की चिंता मत करना.’
पत्र पढ़ कर वे सहसा समझ नहीं पाईं कि खुश हों या रोएं. नहीं, रोएं भी क्यों भला? उन्होंने तुरंत अपने को संयत कर लिया, विक्रम शादी कर रहा है. यह तो खुशी की बात है. हर मां यही तो चाहती है कि संतान खुश रहे.
बेटे की खुशी के सिवा और उन्हें चाहिए भी क्या? जब त्रिपुरारि बाबू का निधन हुआ तब विक्रम हाई स्कूल में था. नीमा भी अविवाहित थी, तब कालेज में लेक्चरर थी, अब तो रीडर हो गई है. बच्चों पर कभी बोझ नहीं बनीं, बल्कि उन्हें ही देती रहीं. अब इस मौके पर भी विक्रम को खुशी देने में वे कृपण क्यों हों भला.
खुले दिल से लिख दिया, बिना किसी शिकवाशिकायत के, ‘बेटे, जिस में तुम्हें खुशी मिले, वही करो. मुझे कोई एतराज नहीं बल्कि मैं तो कहूंगी कि यहीं आ कर शादी करो, मुझे अधिक खुशी होगी. परिवार के सब लोग शामिल होंगे.’
पर लिंडा इस के लिए राजी नहीं हुई. वह तो भारत आना भी नहीं चाहती थी. विक्रम के बारबार आग्रह करने पर कहीं जा कर तैयार हुई.
कुल 15 दिनों के लिए आए थे वे लोग. सुभद्रा देवी की खुशी की कोई सीमा नहीं थी, सिरआंखों पर रखा उन्हें. पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था इस खुशी के अवसर पर. सब ने लिंडा को उपहार दिए.
कैसे हंसीखुशी में 10 दिन बीत गए, किसी को पता ही नहीं चला. घर में हर घड़ी गहमागहमी छाई रहती. लेकिन इस दौरान लिंडा उदास ही रही. उसे यह सब बिलकुल पसंद नहीं था.
उस ने विक्रम से कहा भी, ‘न हो तो किसी होटल में चले चलो, यहां तो दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता है. वहां कम से कम अपने समय पर अपना तो अधिकार होगा.’
आखिर भारत दर्शन के बहाने विक्रम किसी तरह निकल सका घर से. 4-5 दिन दिल्ली, आगरा, लखनऊ घूमने के बाद वे लोग लौट आए थे.
एक दिन लिंडा ने हंसते हुए कहा, ‘सुना था तुम्हारा देश सिर्फ साधुओं और सांपों का देश है. ऐसा ही पढ़ा था कहीं. पर साधु तो दिखे दोएक, लेकिन सांप एक भी नहीं दिखा. वैसे भी अब सांप रहे भी तो कहां, तुम्हारे देश में तो सिर्फ आदमी ही आदमी हैं. जिधर देखो, उधर नरमुंड. वाकई काबिलेतारीफ है तुम्हारा देश भी, जिस के पास इतनी बड़ी जनशक्ति है वह तरक्की में इतना पीछे क्यों है भला?’
विक्रम कट कर रह गया. कोई जवाब नहीं सूझा उसे. लिंडा ने कुछ गलत तो कहा नहीं था.
‘मैं तो भई, इस तरह जनसंख्या बढ़ाने में विश्वास नहीं रखती,’ एक दिन लिंडा ने यह कहा तो विक्रम चौंक पड़ा, ‘क्या मतलब?’
‘मतलब कुछ खास नहीं. अभी कुछ दिन मौजमस्ती में गुजार लें. दुनिया की सैर कर लें, फिर परिवार बढ़ाने की बात भी सोच लेंगे.’
विक्रम मुसकराया, ‘आखिर परिवार की बात तुम्हारे दिमाग में आई तो. कुछ दिनों बाद तुम खुद महसूस करोगी, हमारे बीच एक तीसरा तो होना ही चाहिए.’
ब्याह के पूरे 4 वर्ष बाद वह स्थिति आई. विक्रम के उत्साह का ठिकाना नहीं था. मां को पहले ही लिख दिया, ‘तुम कालेज से छुट्टियां ले लेना, मां. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा. ऐसे समय तुम्हारा यहां रहना बहुत जरूरी है, मैं टिकट भेज दूंगा. आने की तैयारी अभी से करो.’
इस के पहले भी कई बार बुलाया था विक्रम ने, पर वे हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टालती रही थीं. इस बार तो वे खुद जाने को उत्सुक थीं, ‘भला अकेली बहू बेचारी क्याक्या करेगी. घर में कोई तो होना चाहिए उस की मदद के लिए, बच्चे की सारसंभाल के लिए,’ सब से कहती फिरतीं.
अमेरिका चली तो गईं पर वहां पहुंच कर उन्हें ऐसा लगा कि लिंडा को उन की बिलकुल जरूरत नहीं. मां बनने की सारी तैयारी उस ने खुद ही कर ली थी. उन से किसी बात में राय भी नहीं ली. विक्रम ने बताया, ‘यहां मां बनने वाली महिलाओं के लिए कक्षाएं होती हैं, मां. बच्चा पालने के सारे तरीके सिखाए जाते हैं. लिंडा भी कक्षाओं में जाती रही है.’
लिंडा पूरे 6 दिन अस्पताल में रही. पोता होने की खुशी से सराबोर सुभद्रा देवी के अचरज का तब ठिकाना न रहा जब विक्रम ने बताया, ‘यहां पति के सिवा और किसी को अस्पताल में जाने की इजाजत नहीं, मां. मुलाकात के समय चल कर तुम बच्चे को देख लेना.’
बड़ी मुश्किल से तीसरे दिन दादीमां होने के नाते उन्हें दिन में अस्पताल में रहने की इजाजत मिली. लेकिन वे एक दिन में ही ऊब गईं वहां से. लिंडा को उन की कोई जरूरत नहीं थी और बच्चा तो दूसरे कमरे में था नर्सों की देखभाल में.
लिंडा घर आई तो उन्होंने भरसक उस की सेवा की थी. सुबहसुबह अपने हाथों से कौफी बना कर देतीं. बचपन से मांसमछली कभी छुआ नहीं था, खाना तो दूर की बात थी, पर वहां लिंडा के लिए रोज ही कभी आमलेट बनातीं तो कभी चिकन बर्गर.
काम से फुरसत मिलते ही वे विकी को गोद में उठा लेतीं और मन ही मन गुनगुनाते हुए उस की बलैया लिया करतीं.
बिगड़ी लड़की शाम हो चुकी थी. बारिश कुछ देर पहले ही रुकी थी. फिर भी दूर या आसपास कहींकहीं बिजली कौंध जाती थी. अजय यों ही टहलने के लिए सड़क पर निकल आया था. घाटियों से उठते बादल नजदीक से गुजर कर जाने कहां इकट्ठा हो रहे थे. लेकिन अजय इस बात से बेखबर था और यहां के माहौल से अनजान भी. इस इलाके में वह दोपहर में ही आया था. आते ही उसे रहने लायक एक जगह मिल गई थी. अजय यहां नौकरी और नए काम के जुगाड़ के लिए आया था.
इस इलाके के बहुत दूर छोटे से गांव में बूढ़े मांबाप और 3 छोटी बहनों को छोड़ कर वह यहां चला आया था. बूढ़े बाप ने साहूकार से कर्जा ले कर जैसेतैसे उसे बीकौम कराया था. अजय ने 2 साल पहले अपने गांव की सुनसान सड़क पर एक तनेजा सेठ को गुंडों से बचाया था, जो रुपए ले कर जमीन खरीदने गांव आए थे. रुपए के लालच में वे गुंडे शायद तनेजा सेठ का खून भी कर देते, लेकिन ऐन मौके पर वहां पहुंच कर अजय ने उन्हें बचा लिया था. सेठजी ने एहसान से भर कर 5,000 रुपए उसे देने चाहे, लेकिन उस ने साफ मना कर दिया और कहा, ‘‘हो सके, तो मुझे कुछ काम दे दीजिएगा.’’ तब सेठजी ने अजय को अपना विजिटिंग कार्ड दे कर कहा था कि कभी जरूरत पड़े तो बेझिझक चले आना.
बीकौम कर लेने के बाद अजय ने अपने दोस्त के यहां ड्राइवरी भी सीख ली थी और साथ ही मेकैनिक भी बन गया था. नौकरी तो उसे कई मिल रही थीं, लेकिन वह शहर जा कर कुछ बड़ा काम करना चाहता था. अजय अपने गांव से इतनी दूर तनेजा सेठजी के पास एक उम्मीद ले कर आया था. अजय यह सब सोचते और टहलते हुए काफी दूर निकल गया. एक जगह खाना खाने वह चला गया. तब फिर से बारिश शुरू हो गई. बारिश के रुकने का उसे इंतजार करना पड़ा. तकरीबन 10 बजे जब फूड कौर्नर बंद होने लगा, तो उसे भी उठना पड़ा. उस ने सूती पैंट, सूती कमीज और नीला ब्लेजर पहन रखा था. वह अपने ब्लेजर को भिगोना नहीं चाहता था, क्योंकि यही पहन कर कल उसे तनेजा सेठजी के पास जाना था. बारिश के रुकने तक अजय एक छज्जे के नीचे खड़ा रहा. 12 बजे बारिश रुकी, तो लंबेलंबे डग भरते हुए वह अपने रहने की जगह चल पड़ा. अचानक उसे पीछे से कोई रोशनी आती दिखाई पड़ी. उस ने पलट कर देखा तो, एक कार उस की ओर टेढ़ीमेढ़ी चली आ रही थी. कार की रफ्तार काफी तेज थी.
फिर भी रास्ते में उसे खड़ा देख कर नजदीक आतेआते वह रुक गई. सफेद लंबी कार थी. उस ने झटपट चालक के नजदीक आ कर देखा. उस कार की खिड़की का शीशा नीचे खिसका, तो वह अचानक चिहुंक गया. आवाज उस के हलक में ही फंस गई. देखा कि गाड़ी में एक सुंदर और जवान लड़की बैठी थी. अंधेरे में भी उस का मुखड़ा चांद की तरह चमक रहा था. उस से पहले कि वह लड़की से कुछ कहता, उस ने शीशा चढ़ा लिया और गाड़ी आगे बढ़ा ली. तभी अजय ने देखा कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई और फिर बैक कर के उस की ओर वापस आने लगी. शायद उस लड़की को उस पर दया आ गई है. कार उस के पास आ कर रुकी, खिड़की का शीशा खुला और लड़की ने कहा, ‘‘आप ड्राइविंग जानते हैं?’’ ‘‘हां, बहुत अच्छी तरह से,’’ अजय बोला. ‘‘तो क्या यह गियरलैस गाड़ी चला लोगे?’’ लड़की ने पूछा.
उस की ऊंची आवाज से लग रहा था कि वह नशे में है. उस के हां करने पर लड़की साइड की सीट पर चली गई और कहा, ‘‘गाड़ी चलाओ.’’ वह कार में बैठ गया. जिंदगी में पहली बार वह ऐसी गाड़ी में बैठा था. कार के अंदर लड़की के आसपास इत्र की महक फैली हुई थी. अजय अपने छोटेपन के चलते उसे आंख भर देख भी नहीं सका. लड़की ने बताया, ‘‘मुझे कुछ दोस्तों ने पिला दी है और मुझ से गाड़ी नहीं चल रही. प्लीज, चला दो.’’
6 फुट का 30 साल का नौजवान… तगड़ा बदन और बड़ीबड़ी गोल आंखें. अपने पीछे आवारा लड़कों की मंडली ले कर घूमना और कैंपस में किसी भी छात्रा पर फब्तियां कसना उस का पसंदीदा काम था. अभय सिंह पिछले कई सालों से यूनिवर्सिटी की राजनीति में पैर पसारने की कोशिश कर रहा था, क्योंकि लखनऊ यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने वाला छात्र सीधे प्रदेश की राजनीति में दखल रख सकता था
और इस से राजनीतिक कैरियर को एक दिशा मिल सकती थी और इसीलिए नाम के लिए ही सही, अपनी पढ़ाई जारी रखना ऐसे छात्रों को अच्छी तरह आता था. अभय सिंह, पंकज तिवारी और हरीश सिंह तीनों पक्के दोस्त थे और ‘प्रयाग’ होस्टल में एकसाथ रहते थे. अभय सिंह गोरखपुर शहर के एक गांव सूरजगढ़ का रहने वाला था. उस के पिता गांव में प्रधान थे. लिहाजा, उन की भी राजनीतिक इच्छाएं कम न थीं और वे चाहते थे कि उन का बेटा आगे बढ़ कर राजनीति में कैरियर बनाए. छात्र संघ चुनाव के लिए जाति के नाम पर छात्रों को बांटना अभय सिंह जैसे छात्र नेताओं का प्रमुख हथियार था. हालांकि, छात्राएं जाति के नाम पर वोट न दे कर एक बेहतर और साफसुथरी इमेज वाले छात्र नेता को वोट देना पसंद करती थीं. अभय सिंह अपनेआप को एक हिंदूवादी कट्टर नेता के रूप में पेश करता था. लाल रंग का कुरता और माथे पर एक लंबा टीका उस की पहचान थी.
कैंपस में पिछले कुछ समय से एक नई लहर सी चल पड़ी थी या यह अभय सिंह की एक नई चाल थी कि वह सवर्णों के साथसाथ दलित छात्रों को भी अपनी मंडली में शामिल करने की जुगत में लगा हुआ था. दूसरी तरफ कैंपस में छात्र नेताओं का एक और ग्रुप था, जिसे ‘डिमैलो ग्रुप’ के नाम से जाना जाता था और उन छात्रों का नेता सिल्बी डिमैलो था. अभय सिंह और सिल्बी डिमैलो में छात्रों के वोट पाने की लड़ाई थी और उन दोनों गुटों में शीत युद्ध चलता ही रहता था और दोनों मंडली के लोगों के बीच मनमुटाव की खबरें आएदिन आती रहती थीं, पर उन में कभी आमनेसामने की लड़ाई नहीं हुई थी. रात के 9 बजे का समय था. अभय सिंह और उस की मंडली के 8-10 लोग अपने होस्टल के कमरे से निकल कर कुछ दूरी पर बने मैस में खाना खाने जा रहे थे. ‘‘क्या भैया, आप सवर्णों के नेता बने फिरते हो और फिर भी आजकल दलित लड़कों को अपने साथ ले कर क्यों घूम रहे हो?’
’ अभय सिंह के तलवे चाटने वाले एक लड़के ने सवाल किया, तो अभय सिंह ने अपनी आंखें उस लड़के पर टिका दीं और जवाब में सिर्फ मुसकराते हुए कहने लगा, ‘‘यह सब राजनीतिक चालबाजी है बबुआ, तुम जरा भी नहीं समझोगे… हिंदूमुसलमान को लड़ाने के अलावा इन दलितों को भी राजनीति में इस्तेमाल किया जाता है…’’ अभय सिंह की इस बात पर उस के साथ के लड़के ताली मार कर ऐसे हंसने लगे जैसे अभय सिंह ने कोई बहुत बड़ा चुटकुला सुना दिया हो. बातोंबातों में ही अभय सिंह और उस की मंडली के चमचे खाने की मेज पर बैठ गए और खाने की प्लेटें उन के सामने लगा दी गईं. एक 15 साल का छोकरा उन लोगों की प्लेट में खाना परोसने लगा. अभय सिंह ने दाल, चावल और सब्जी एकसाथ मिला ली और तेजी से खाने लगा, जबकि पंकज तिवारी सब की नजरें बचा कर चुपके से अपनी जेब में पड़े शराब के पौवे को गिलास में उड़ेलने लगा. ‘‘क्या बात है… आज खाना बहुत लजीज बना है…’’ हरीश ने बड़ेबड़े निवाले गटकते हुए कहा. ‘‘लजीज तो बनेगा ही भैया… अब तक आप लोग महाराज के हाथ का बना खाना खाते थे, पर आज महाराज अपने गांव गया है,
इसलिए आज की रसोई उजरिया ने बनाई है,’’ पास में खड़े वार्डन ने दांत दिखाते हुए कहा. उजरिया का नाम सुन कर लड़कों के कान खड़े हो गए. होस्टल के मैस में कोई औरत आई है और उस का अभय सिंह को पता तक नहीं चला, इस बात से अभय सिंह के अहंकार को थोड़ी चोट जरूर पहुंची, पर इस से ज्यादा वह उजरिया को देख लेने की गरज से इधरउधर गरदन घुमाने लगा, पर उसे वहां कोई औरत नहीं दिखाई दी, तो उस ने वार्डन से उजरिया को सामने लाने के लिए कहा. वार्डन के आवाज लगाने पर उजरिया नाम की एक औरत अपने माथे का पसीना पोंछते हुए आई. उस की उम्र तकरीबन 45 साल और शरीर दुबलापतला पर लंबा था, गड्ढे में जाती आंखें उस के मेहनती होने का सुबूत दे रही थीं. कैंपस में लड़कियों के जिस्म को घूरने वाले अभय सिंह और उस की मंडली के लोग उजरिया को भी ऊपर से नीचे तक घूरने लगे, पर उन्हें उन की पसंद के मुताबिक मांस का उतारचढ़ाव नजर नहीं आया,
कुछ ही देर में अरुणा ट्रे में चाय और दूध की बोतल ले आई और बोली, ‘‘आप लोग चाय पीजिए, मैं मुन्ने को दूध पिलाती हूं,’’ और विवेक के न न करते भी उस ने मुन्ने को अपनी गोद में लिटा लिया और बोतल से दूध पिलाने लगी. विवेक धीमे स्वर में आलोक से बोला, ‘‘यार, बीवी हो तो तुम्हारे जैसी, दूसरों का घर भी कितनी अच्छी तरह संभाल लिया. एक हमारी मेम साहब हैं, अपना घर भी नहीं संभाल सकतीं. घर आओ तो पता चलता है किट्टी पार्टी में गई हैं या क्लब में. मुन्ना आया के भरोसे रहता है.’’
उस दिन आलोक देर रात तक सो नहीं सका. वह सोच में निमग्न था. उसे तो अपनी पत्नी के सांवले रंग पर शिकायत थी पर यहां तो उस के दोस्तों को अपनी गोरीचिट्टी बीवियों से हर बात पर शिकायत है.
इतवार के दिन सभी दोस्तों ने आलोक की शादी की खुशी में पिकनिक का आयोजन किया था. विवेक, राजेश, नरेश, विपिन सभी शरीक थे इस पिकनिक में.
खानेपीने का सामान आलोक के दोस्त लाए थे. आलोक को उन्होंने कुछ भी लाने से मना कर दिया था, पर फिर भी अरुणा ने मसालेदार छोले बना लिए थे. सभी छोलों को चटकारे लेले कर खा रहे थे. आलोक हैरानी से देख रहा था कि अरुणा ही सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. सोनिया उस से बुनाई डालना सीख रही थी तो नीलम उस के घने लंबे बालों का राज पूछ रही थी. राजेश की पत्नी लीना उस से मसालेदार छोले बनाने की विधि पूछ रही थी. तभी विवेक बोला, ‘‘अरुणा भाभी, चाय तो आप के हाथ की ही पिएंगे. उस दिन आप की बनाई चाय का स्वाद अभी तक जबान पर है.’’
लीना, सोनिया, नीलम आदि ताश खेलने लगीं और अरुणा स्टोव जला कर चाय बनाने लगी. विवेक भी उस का हाथ बंटाने लगा. चाय की चुसकियों के साथ एक बार फिर अरुणा की तारीफ शुरू हो गई. चाय खत्म होते ही विवेक बोला, ‘‘अब अरुणा भाभी एक गाना सुनाएंगी.’’
‘‘मैं…मैं…यह आप क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’’
‘‘ठीक कह रहा हूं,’’ विवेक बोला, ‘‘आप बेध्यानी में चाय बनाते समय गुनगुना रही थीं. मैं ने पीछे से सुन लिया था. अब कोईर् बहाना नहीं चलेगा. आप को गाना ही पड़ेगा.’’
‘‘हां…हां…’’ सब समवेत स्वर में बोले. मजबूरन अरुणा को गाने के लिए हां भरनी पड़ी. उस ने एक गाना गाना शुरू कर दिया. झील का खामोश किनारा उस की मीठी आवाज से गूंज उठा. सभी मंत्रमुग्ध से उस का गाना सुन रहे थे. आलोक भी हैरान था. अरुणा इतना अच्छा गा लेती है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. बड़े ही मीठे स्वर में वह गा रही थी. गाना खत्म हुआ तो सब ने तालियां बजाईं. अरुणा संकुचित हो उठी. आलोक गहराई से अरुणा को देख रहा था.
उसे लगा अरुणा इतनी सांवली नहीं है जितनी वह सोचता है. उस की आंखें काफी बड़ी और भावपूर्ण हैं. गठा हुआ बदन, सदा मुसकराते से होंठ एक खास किस्म की शालीनता से भरा हुआ व्यक्तित्च. वह तो सब से अलग है. उस की आंखों पर अब तक जाने कौन सा परदा पड़ा हुआ था जिस के आरपार वह देख नहीं पा रहा था. उस की गहराई में तो गया ही नहीं था जहां अरुणा अपने इस रूपगुण के साथ मौजूद थी, सीप में बंद मोती की तरह.
एक उस के सांवले रंग की ही आड़ ले कर बाकी सभी गुणों को वह अब तक नजरअंदाज करता रहा था. अगर गोरा रंग ही खुशी और सुखमय वैवाहिक जीवन का आधार होता तो उस के दोस्त शायद खुशियों के सैलाब में डूबे होते, पर ऐसा कहां है?
पिकनिक के बाद थकेहारे शाम को वे घर लौटे तो आलोक क ो अपेक्षाकृत प्रसन्न और मुखर देख कर अरुणा विस्मित सी थी. घर में खामोशी की चादर ओढ़ने वाला आलोक आज खुल कर बोल रहा था. कुछ हिम्मत कर के अरुणा बोली, ‘‘क्या बात है? आज आप काफी प्रसन्न नजर आ रहे हैं.’’
‘‘हां, आज मुझे सीप में बंद मोती मिला है,’’ और उस ने अरुणा को बाहुपाश में बांध लिया.
‘तब तो गोष्ठी के लिए यहां तक आने की जरूरत ही नहीं थी. इंटरनेट पर सारी जानकारी तो भारत में भी उपलब्ध थी,’’ गायत्रीजी ने नहले पर दहला जड़ा था.
‘‘चलिए महोदय, देर हो रही है. गाड़ी आ गई है,’’ राजा भैया बोले.
‘‘ठीक है, फिर हम लोग चलते हैं… आप गोष्ठी का आनंद लीजिए,’’ रामआसरेजी ने विदा ली थी.
मलयेशिया में 4 दिन पलक झपकते ही बीत गए. लगे हाथों सिंगापुर में भी घूमने का कार्यक्रम बन गया था. गोष्ठी के आयोजकों ने भी अतिथियों के स्वागत- सत्कार के साथसाथ घुमानेफिराने का प्रबंध किया था.
लौटते समय राजा भैया ने चुटकी ली, ‘‘गायत्रीजी, आप तो गोष्ठी में ही उलझी रही हैं. हमें भी कुछ बताइए न, क्या विचारविमर्श हुए… वैसे छपी हुई सामग्री हम ने भी ले ली है.’’
‘‘यों भी होता क्या है इन गोष्ठियों में. उद्घाटन और अंतिम सत्र के अलावा इन में किसी की रुचि नहीं होती,’’ प्रताप सिंह ने भी अपने दिल की बात कह दी.
स्वदेश पहुंचते ही सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. मित्रोंसंबंधियों को विदेश से लाए उपहार देना भी इसी दिनचर्या का हिस्सा था. वहां से लाए हुए छायाचित्र और वीडियो भी सब के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.
एक दिन अचानक ही मुख्यमंत्रीजी ने वक्तव्य दे दिया कि वह अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं. फिर क्या था राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं. विधायकगण अपने तरीके से अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने लगे. साम दाम, दंड भेद का सहारा लिया जाने लगा और उन की बात न सुने जाने पर दबी जबान धमकियां भी दी जाने लगीं. रामआसरेजी अपने असंतुष्ट विधायकों के साथ कई बार रवि बाबू से मिल आए थे और अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए मांगों की पूरी सूची भी उन्हें थमा दी थी.
2 महीने इसी ऊहापोह में बीत गए थे. अधिकतर विधायक मंत्रिमंडल विस्तार की बात अब लगभग भूल ही गए थे कि एक दिन सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ आने वाले समाचार ने हड़कंप मचा दिया था.
रामआसरेजी के असंतुष्ट विधायकों में से केवल गायत्री देवी को ही मंत्रिमंडल में स्थान मिल सका था. वह महिला एवं समाज कल्याण मंत्री बन गई थीं.
आननफानन में सभी विधायक रामआसरे के घर आ जुटे थे. मुख्यमंत्री पार्टी अध्यक्ष रवि बाबू के अलावा गायत्री देवी उन की विशेष कोपभाजन थीं. मुख्यमंत्रीजी तो मंत्रिमंडल का विस्तार करते ही विदेश दौरे पर चले गए थे. आखिर असंतुष्ट विधायकों के दल ने रवि बाबू के यहां धरना देने की योजना बनाई थी.
‘‘आइए मित्रो, बड़ी लंबी आयु है आप की, अभीअभी मैं आप लोगों को ही याद कर रहा था. देखिए न, कितने मनोहारी दृश्य हैं,’’ उन्होंने टीवी पर आते दृश्यों की ओर इशारा किया था.
रामआसरेजी, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी, भीमाजी यानी पांचों के विस्फारित नेत्र पलकें झपकना भूल गए थे. मलयेशिया के मनोहारी समुद्र तटों पर आनंद विहार करते, जहाज पर कू्रज में नाचतेगाते उन के दृश्य किसी ने बड़ी चतुराई से सीडी में उतार कर रवि बाबू तक पहुंचाए थे.
‘‘राजा भैया आप नृत्य बड़ा अच्छा करते हैं, साथ में वह लड़की कौन है? और सिद्दीकीजी व रामआसरे बाबू, आप लोग भी छिपे रुस्तम निकले. मुख्यमंत्रीजी कह रहे थे कि जनतांत्रिक दल के विधायक बड़े रसिक हैं,’’ रवि बाबू ने अपने विशेष अंदाज में ठहाका लगाया था.
‘‘तो आप ने सीडी मुख्यमंत्री तक भी पहुंचा दी?’’ प्रताप सिंह और भीमा बाबू ने प्रश्न किया था.
‘‘नहीं रे, यह सीडी मुख्यमंत्री निवास से हम तक आई है,’’ रवि बाबू की मुसकान छिपाए नहीं छिप रही थी.
‘‘समझ गया, मैं सब समझ गया,’’ रामआसरेजी क्रोधित स्वर में बोले थे.
‘‘क्या समझ गए आप?’’
‘‘यही कि यह सब गायत्री देवी का कियाधरा है. इसीलिए उन्हें मंत्री बना कर पुरस्कृत किया गया है,’’ वह बोले थे.
‘‘आप गायत्री देवी को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. बेचारी सीधीसादी सी घरेलू महिला है, जो अपने ससुर की महत्त्वाकांक्षाओं के चलते राजनीति में चली आई है. जासूसी करना उस के वश का रोग नहीं है,’’ रवि बाबू मानो पहेली बुझा रहे थे.
‘‘तो यह सीडी आप के पास कैसे पहुंची?’’
‘‘अनेक पत्रकार मित्र हैं हमारे, अनेक चैनलों के लिए भी काम करते हैं. वे तो सीधे जनता को दिखाना चाहते थे कि कैसे उन के विधायक एड्स जैसी गंभीर बीमारी के निराकरण के लिए खूनपसीना एक कर रहे हैं. आप के क्षेत्र कार्यकर्ता तो देखते ही वाहवाह कर उठते पर मुख्यमंत्रीजी ने सीडी खरीद ली. कहने लगे, दल की नाक का प्रश्न है. कोई जनतांत्रिक दल के विधायकों पर उंगली उठाए यह उन से सहन नहीं होगा,’’ रवि बाबू का स्वर भीग गया था, आवाज भर्रा गई थी.
कमरे में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही, मानो वहां कोई था ही नहीं, पर शीघ्र ही असंतुष्ट विधायकों की टोली रवि बाबू को नमस्कार कर बाहर निकल गई थी.
‘‘मान गए सर, आप को, क्या चाल चली है. सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे,’’ रवि बाबू के सचिव श्रीरंगाचारी बोले थे.
‘‘क्या करें, राजनीति में रहना है तो सब करना पड़ता है. आंखकान खुले रखने ही पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था और सीडी संभाल कर रख ली थी.
रामआसरेजी जब से विधायक बने थे किसी न किसी कारण हाईकमान से खिंचे रहते थे. खुद को जनता का सर्वश्रेष्ठ सेवक समझने वाले रामआसरे के घर आज उन्हीं जैसे 5 और असंतुष्टों की बैठक थी. भीमा, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी और गायत्री देवी एक के बाद एक कर जनतांत्रिक दल के अध्यक्ष रवि और मुख्यमंत्री के खिलाफ आग उगल रहे थे.
‘‘बहुत हो गया, अब हम और चुप नहीं रहेंगे. हम ने तो तनमनधन से दल की सेवा की पर उन्होंने हमें दूध में गिरी मक्खी की भांति निकाल फेंका.’’ राजा भैया बहुत क्रोध में थे.
‘‘वही तो, मंत्रिमंडल का 3 बार विस्तार हो गया, पर हम लोगों के नाम का कहीं अतापता ही नहीं. मैं ने रवि बाबू से शिकायत की तो हंसने लगे और बोले कि तुम आजकल के छोकरों की यही समस्या है कि सेवा से पहले ही मेवा खाना चाहते हो,’’ प्रताप सिंह बोले थे.
‘‘40 वसंत देख चुके नेता उन्हें कल के छोकरे नजर आते हैं तो उस में हमारा नहीं उन का दुर्भाग्य है. जब तक दल में नए खून को महत्त्व नहीं देंगे, दल कभी तरक्की के रास्ते पर अग्रसर नहीं हो सकता,’’ रामआसरे खिन्न स्वर में बोेले थे.
‘‘दल की उन्नति और अवनति की किसे चिंता है, सब को अपनी पड़ी है. सच पूछो तो मेरा तो राजनीति से पूरी तरह मोहभंग हो गया है. महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय है,’’ गायत्री देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.
तभी टेलीफोन की घंटी के तेज स्वर ने इस वार्त्तालाप में बाधा डाल दी.
‘‘नमस्ते, नमस्ते सर,’’ दूसरी ओर से दल के अध्यक्ष रवि बाबू का स्वर सुन कर रामआसरेजी सम्मान में उठ खड़े हुए थे.
‘‘रामआसरेजी, आप के लिए शुभ समाचार है,’’ रवि बाबू अपने चिरपरिचित अंदाज में हंसते हुए बोले थे.
‘‘विधायकों का एक शिष्टमंडल एड्स की रोकथाम और चिकित्सा के अध्ययन के लिए मलयेशिया जा रहा है. उस में आप का नाम भी है.’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा है.’’
‘‘कानों पर विश्वास करना सीखिए, रामआसरेजी. कुछ वरिष्ठ नेतागण आप के नाम को नहीं मान रहे थे, पर मैं अड़ गया कि रामआसरेजी जाएंगे तभी शिष्टमंडल मलयेशिया जाएगा नहीं तो नहीं. अंतत: उन्हें मानना ही पड़ा.’’
वार्त्तालाप के बीच में ही रामआसरेजी ने अपनी नजर वहां बैठे अपने अन्य साथी विधायकों पर डाली थी, जो उन का वार्त्तालाप सुनने की चाहत में बेचैन हो उठे थे. तब मोबाइल कानों से लगाए रामआसरेजी धीरे से डग भरते कक्ष के बाहर बरामदे में आ गए थे.
‘‘और कौनकौन है शिष्टमंडल में?’’
‘‘आप को आम खाने हैं या पेड़ गिनने हैं,’’ रवि बाबू संयमित स्वर में बोले थे.
‘‘वही समझ लीजिए, हमारे और भी साथी हैं रवि बाबू. वे नहीं गए और मैं चला गया तो बुरा मान जाएंगे.’’
‘‘कौनकौन हैं वहां पर?’’ रवि बाबू ने तनिक गंभीर स्वर में पूछ लिया था.
‘‘कौन? कहां? रवि बाबू?’’ रामआसरेजी हड़बड़ा गए थे.
‘‘घबराइए मत, रामआसरेजी, राजनीति में आंखकान खुले रखने पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था.
‘‘हम लोग तो यों ही चायपार्टी के लिए जमा हुए हैं. आप ने शायद गलत समझ लिया.’’
‘‘देखो, मैं ने गलतसही कुछ भी नहीं समझा है. मैं ने तो बस यह बताने के लिए फोन किया था कि हाईकमान को आप की कितनी चिंता है. आप के अन्य मित्रों को भी शिष्टमंडल में शामिल कर लिया गया है,’’ रवि बाबू बोले थे.
‘‘यानी भीमा, राजा भैया, प्रतापसिंह और सिद्दीकी भी शिष्टमंडल में हैं.’’
‘‘जी हां, और गायत्री देवी भी.’’
‘‘गायत्री देवी…यह आप ने क्या किया रवि बाबू. वह भला एड्स संबंधित अध्ययन में क्या भूमिका निभाएंगी. उन्हें तो किसी महिला सम्मेलन में भेजते.’’
‘‘ऐसा मत कहिए. गायत्री देवी ने सुन लिया तो आप की खैर नहीं. स्त्री शक्ति का सम्मान करना सीखिए, रामआसरेजी.’’
‘‘मैं तो उन का बहुत सम्मान करता हूं, रवि बाबू, पर शायद हम लोगों के साथ वह सहज अनुभव नहीं कर पाएंगी.’’
‘‘उस की चिंता आप छोडि़ए और जाने की तैयारी कीजिए,’’ कहते हुए रवि बाबू ने फोन काट दिया था.
बातचीत खत्म कर रामआसरेजी किसी विजेता की मुद्रा में कमरे में घुसे और अपने खास अंदाज में सोफे पर पसर गए.
उस की सहेलियों से कुछ अलग था. न तो वह महजबीन की तरह मजबूर थी और न अफसाना की तरह लालची. उसे तो रज्जाक मियां की खिदमत में बड़ा सुकून मिलता था.
रज्जाक भी उस के साथ बड़ी इज्जत से पेश आता था. हां, कभीकभी आवेश में आ कर मुहब्बत का इजहार जरूर कर बैठता था और रुखसाना को उस का पे्रम इजहार बहुत अच्छा लगता था. अजीब सा मदहोशी का आलम छाया रहता था उस समय तहखाने में, जब दोनों एक दूसरे का हाथ थामे सुखदुख की बातें करते रहते थे.
रज्जाक के व्यक्तित्व का जो भाग रुखसाना को सब से अधिक आकर्षित करता था वह था उस के प्रति रज्जाक का रक्षात्मक रवैया. जब भी किसी जेहादी को रज्जाक से मिलने आना होता वह पहले से ही रुखसाना को सावधान कर देता कि उन के सामने न आए.
उस दिन की बात रुखसाना को आज भी याद है. सुबह से 2-3 जेहादी तहखाने में रज्जाक मियां के पास आए हुए थे. पता नहीं किस तरह की सलाह कर रहे थे…कभीकभी नीचे से जोरों की बहस की आवाज आ रही थी, जिसे सुन कर रुखसाना की बेचैनी हर पल बढ़ रही थी. रज्जाक को वह नाराज नहीं करना चाहती थी इसलिए उस ने खाना भी छोटी के हाथों ही पहुंचाया था. जैसे ही वे लोग गए रुखसाना भागीभागी रज्जाक के पास पहुंची.
रज्जाक घुटने में सिर टिकाए बैठा था. रुखसाना के कंधे पर हाथ रखते ही उस ने सिर उठा कर उस की तरफ देखा. आंखें लाल और सूजीसूजी सी, चेहरा बेहद गंभीर. अनजानी आशंका से रुखसाना कांप उठी. उस ने रज्जाक का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.
‘क्या हुआ? वे लोग कुछ कह गए क्या?’ रुखसाना ने सहमे लहजे में पूछा.
‘रुखसाना, खुदा ने हमारी मुहब्बत को इतने ही दिन दिए थे. जिस मिशन के लिए मुझे यहां भेजा गया था ये लोग उसी का पैगाम ले कर आए थे. अब मुझे जाना होगा,’ कहतेकहते रज्जाक का गला भर आया.
‘आप ने कहा नहीं कि आप यह सब काम अब नहीं करना चाहते. मेरे साथ घर बसा कर वापस अपने गांव फैजलाबाद लौटना चाहते हैं.’
‘अगर यह सब मैं कहता तो कयामत आ जाती. तू इन्हें नहीं जानती रुखी…ये लोग आदमी नहीं हैवान हैं,’ रज्जाक बेबसी के मारे छटपटाने लगा.
‘तो आप ने इन हैवानों का साथ चुन लिया,’ रुखसाना का मासूम चेहरा धीरेधीरे कठोर हो रहा था.
‘मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है रुखी. मैं ने इन लोगों के पास अपनी जिंदगी गिरवी रखी हुई है. बदले में मुझे जो मोटी रकम मिली थी उसे मैं बहन के निकाह में खर्च कर आया हूं और जो बचा था उसे घर से चलते समय अम्मीजान को दे आया था.’
‘जिंदगी कोई गहना नहीं जिसे किसी के भी पास गिरवी रख दिया जाए. मैं मन ही मन आप को अपना शौहर मान चुकी हूं.’
‘इन बातों से मुझे कमजोर मत बनाओ, रुखी.’
‘आप क्यों कमजोर पड़ने लगे भला?’ रुखसाना बोली, ‘कमजोर तो मैं हूं जिस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं है. मैं ने आप को सब से अलग समझा था पर आप भी दूसरों की तरह स्वार्थी निकले. एक पल को भी नहीं सोचा कि आप के जाने के बाद मेरा क्या होगा,’ कहतेकहते रुखसाना फफकफफक कर रो पड़ी.
रज्जाक ने उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया और गुलाबी गालों पर एक चुंबन की मोहर लगा दी.
चढ़ती जवानी का पहला आलिंगन… दोनों जैसे किसी तूफान में बह निकले. जब तूफान ठहरा तो हर हाल में अपनी मुहब्बत को कुर्बान होने से बचाने का दृढ़ निश्चय दोनों के चेहरों पर था.
रुखसाना के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए रज्जाक बोला, ‘रुखी, मैं अपनी मुहब्बत को हरगिज बरबाद नहीं होने दूंगा. बोल, क्या इरादा है?’
मुहब्बत के इस नए रंग से सराबोर रुखसाना ने रज्जाक की आंखों में आंखें डाल कर कुछ सोचते हुए कहा, ‘भाग निकलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रज्जाक मियां. बोलो, क्या इरादा है?’
‘पैसे की चिंता नहीं, जेब में हजारों रुपए पडे़ हैं पर भाग कर जाएंगे कहां?’ रज्जाक चिंतित हो कर बोला.
महबूब के एक स्पर्श ने मासूम रुखसाना को औरत बना दिया था. उस के स्वर में दृढ़ता आ गई थी. हठात् उस ने रज्जाक का हाथ पकड़ा और दोनों दबेपांव झरोखे से निकल पड़े. झाडि़यों की आड़ में खुद को छिपातेबचाते चल पड़े थे 2 प्रेमी एक अनिश्चित भविष्य की ओर.
तब तक बहुत देर हो चुकी थी. ‘‘वह कोमल बच्ची अब सयानी हो चुकी थी, बिगड़ी हुई. सभी से चिढ़ना, बातबात पर बिगड़ना मेरे स्वभाव में शामिल हो गया, लेकिन कोई मुझे कुछ नहीं कहता था, क्योंकि मैं सेठजी की एकलौती बेटी हूं.’’ फिर कुछ पर रुक कर मधु ने कहा, ‘‘उस दौरान स्कूल के एक साथी ने मुझे कुछ दोस्तों से मिलवाना शुरू किया, जो नशा करते थे. अपने दुख को हलका करने के लिए मैं भी नशा करने लगी, पर न भाई को पता चला, न पिताजी को. अब वे लोग मुझे इस्तेमाल कर रहे हैं और मुझे ड्रग्स रखने को भी कहते हैं. मैं हरदम डरीसहमी रहती हूं.’’
अजय बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम ड्रग्स अपने बिस्तर के नीचे रखती हो, क्योंकि पहले दिन मैं ने ही रात को तुम्हारे कमरे में सूटकेस रखा था.’’ मधु इस पर हैरान होते हुए बोली, ‘‘तुम्हें इतना बड़ा राज मालूम था और तुम ने न मुझे ब्लैकमेल किया, न पुलिस में गए. उलटे मेरी गालियां सुनते रहे.’’ अजय बोला, ‘‘पहली ही रात के अंधेरे में जब तुम ने गाड़ी रोक कर एक अनजान आदमी पर भरोसा किया, तो मुझे लग गया कि तुम बेहद कोमल दिल वाली हो और बाद में जब तुम्हारे यहां ही नौकरी मिली, तो मुझे तुम्हें इस चक्कर से निकालना ही था.’’ अजय ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे गैंग की मुखिया प्रिया है. यह पैन ड्राइव है, जो मैं ने उस के लैपटौप से कल कौपी की थी,
जब वह कपड़े उतार कर लेटी बिस्तर पर मेरा इंतजार कर रही थी. मैं ने बहाना बनाया था कि मैं पसीने की बदबू में डूबा हूं, इसलिए गैस्ट बाथरूम में नहाऊंगा. ‘‘वह मेरा इंतजार कर रही थी, पर मैं लैपटौप का डाटा कौपी कर रहा था. इस के सहारे तुम छुटकारा पा सकती हो. तुम ने एक बार मेरी छोटी जाति के बारे में कुछ कहा था, पर यह नहीं भूलो कि हम लोग हमेशा वह करते रहे हैं, जो सब के भले के लिए हो, चाहे इस में हमारी जान ही क्यों न चली जाए.’’ ‘‘तुम्हें मैं ने काफी तकलीफ पहुंचाई है. मुझे माफ कर दो अजय.’’ इतना कहतेकहते मधु का गला भर गया.
यह बात सुन कर अजय का दिल भर आया. उस का दिल चाह रहा था कि आगे बढ़ कर मधु की बांहें थाम ले, लेकिन उसे हिम्मत नहीं हो रही थी. भीगी आवाज में मधु ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मैं पत्थरदिल हो चुकी थी. मैं भूल गई थी कि मैं एक लड़की हूं, इनसान हूं. तुम ने मुझे नई जिंदगी दी है. ‘‘तुम ने अपनी मेहनत से इस पत्थर को पिघलने के लिए मजबूर किया है. मैं तुम्हारा अहसान कैसे चुकाऊं, समझ में नहीं आता. ‘‘मैं तुम से प्यार करने लगी हूं. अजय, तुम्हारे लिए मैं जाति का हर बंधन तोड़ने को तैयार हूं,’’ इतना कह कर मधु अजय से लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. तब ऐसा लगता था कि यह पत्थर अभी पानी की तरह बह जाना चाहता है. बिगड़ी लड़की का सारा गंद आंसुओं के साथ बहने लगा था.