हड़ताली

बिस्तर पर लेटेलेटे सोम प्रकाश ने दीवार घड़ी की ओर देखा. सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे. वह अलसाया सा लेटा रहा. उस का बिस्तर छोड़ने का मन बिलकुल नहीं कर रहा था.

सोम प्रकाश की उम्र तकरीबन 50 साल थी. रंग सांवला, भरा हुआ शरीर, सिर पर छोटेछोटे बाल. परिवार में पत्नी गायत्री और एक बेटा राजीव था जो 12वीं जमात में पढ़ रहा था.बेटी अनीता की शादी 5 साल पहले कर दी गई थी. इतने सालों के बाद बेटी अनीता मां बनने वाली थी यानी वह नाना बनने वाला था.

गायत्री ने अनीता की ससुराल वालों से कह दिया था कि बेटी का पहला बच्चा यहीं पर उस के मायके में होगा. 2 महीने से बेटी यहां आई हुई थी.

सोम प्रकाश रोडवेज की बस में ड्राइवर था. 2 दिन से रोडवेज की चक्का जाम हड़ताल चल रही थी. सरकार महंगाई तो बढ़ा देती है, पर तनख्वाह बिना बढ़ाए देना चाहती है. जब से वह नौकरी पर है, कई बार हड़ताल हो चुकी है. हर बार उस ने हड़ताल को कामयाब बनाने में पूरा साथ दिया है.

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सोम प्रकाश उठ कर बैठ गया. आज के अखबार में रोडवेज की हड़ताल की खबर पढ़ने लगा. हड़ताल के चलते प्रदेश में करोड़ों रुपए का रोजाना का नुकसान हो रहा था. मुसाफिरों को बस न मिलने से बहुत परेशानी हो रही थी. कुछ डग्गेमार बसें पुलिस से मिल कर चल रही थीं. रोडवेज कर्मचारी यूनियन के नेताओं की सरकार से बातचीत नाकाम हो रही थी.

सोम प्रकाश मन ही मन खुश हो रहा था कि हड़ताल कामयाब हो रही है, तभी उस के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने मोबाइल कान से लगा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘10 बजे तक तुम बसस्टैंड पहुंच जाना. जलसा है. हमें सरकार को अपनी ताकत दिखानी है कि हमारी एकता के चलते हड़ताल कितनी कामयाब है. जिस हड़ताल में जनता जितनी परेशान होती है, वह हड़ताल उतनी ही कामयाब मानी जाती है,’ उधर से एक साथी की आवाज सुनाई दी.

‘‘ठीक है, मैं वहां पहुंच जाऊंगा. जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है तो मजबूर हो कर उंगली टेढ़ी मतलब हड़ताल करनी पड़ती है,’’ सोम प्रकाश ने कहा और फोन बंद कर दिया.

तभी गायत्री ने आ कर कहा, ‘‘उठो जल्दी, अब ज्यादा देर नहीं है. तुम शांति दाई को जल्दी बुला लाओ.’’

‘‘दाई को रहने दो. अनीता को कसबे के बड़े अस्पताल में ले चलते हैं.’’

‘‘नहीं, नहीं. वहां कभी डाक्टर नहीं मिलता तो कभी नर्स नहीं मिलती. शांति दाई पुरानी और समझदार हैं. तुम जल्दी जाओ,’’ गायत्री ने कहा.

शांति दाई का मकान ज्यादा दूर नहीं था. सोम प्रकाश उठा और लौटा तो दाई उस के साथ थी.

कुछ ही देर बाद दाई ने कमरे से बाहर निकल कर कहा, ‘‘बेटी को शहर के अस्पताल में ही ले जाना होगा. बिना आपरेशन के बच्चा नहीं होगा.’’

यह सुनते ही सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. जल्दी ही उस ने अपने एक दोस्त से कह कर कार मंगा ली. अनीता को पिछली सीट पर गायत्री के साथ बिठा दिया गया. कसबे से शहर तकरीबन 40 किलोमीटर दूर था.

सोम प्रकाश कार चलाने लगा. बेटी की दर्द भरी कराहट सुन कर उस के दिल में कुछ चुभता चला जाता.

‘‘बस बेटी, बस. शहर आने ही वाला है. 15-20 मिनट का रास्ता और रह गया है,’’ सोम प्रकाश ने कहा.

सामने रेलवे फाटक का नजारा देख कर सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. रेलवे फाटक बंद था. ट्रक, प्राइवेट बसें, कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टरट्रौली वगैरह के चलते लंबा जमा लगा था. एक ट्रेन खड़ी थी. उस पर हजारों छात्र लदे हुए थे. वे खूब जोरशोर से चीखचिल्ला कर नारे लगा रहे थे.

कल तक जिन नारों को सुन कर सोम प्रकाश की ताकत बढ़ जाती थी, आज वे नारे उस के कानों में चुभते चले जा रहे थे.

गायत्री ने पूछा, ‘‘यहां क्या हो गया अब?’’

‘‘पता नहीं, क्या चक्कर है. मैं देख कर आता हूं,’’ कहता हुआ सोम प्रकाश कार से उतरा और फाटक की तरफ चल दिया.

वहां जा कर वह कुछ लोगों की बातें सुनने लगा. एक आदमी कह रहा था, ‘‘कल से इन छात्रों ने हड़ताल के नाम पर खूब कहर बरपा रखा है. एक ट्रेन सुबह 10 बजे सुंदरपुर पहुंचती थी. रेलवे ने उस का टाइम बदल कर 11 बजे कर दिया. अब इन छात्रों की मांग है कि ट्रेन का टाइम 10 बजे का ही किया जाए ताकि वे समय पर स्कूलकालेज पहुंच सकें. कल भी दिनभर ये गाडि़यां रोकते और लेट करते रहे. इस में तो सारी गलती रेलवे की है. भला क्या जरूरत थी टाइम बदलने की? यह सरकार भी है न बिना हड़ताल कराए मानती ही नहीं.’’

‘‘भला इस में सरकार का क्या जा रहा है, परेशान तो आम जनता है न,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘आम जनता को परेशान करने के लिए ही तो यह हड़ताल की जाती है. अब देखो, 3 दिन से रोडवेज वालों की हड़ताल चल रही है और जनता परेशान है.’’

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‘‘इन रोडवेज वालों के बारे में कुछ न पूछो. ये रास्ते में अपनी मरजी से सवारी बिठाते हैं. सवारी भले ही हाथ देती रहे, पर मरजी होगी तो बस रोक देंगे. इन की हड़ताल से जनता कितनी परेशान है. लोग गधों की तरह टैंपो, ट्रक या डग्गेमार बसों में भर कर आ रहे हैं, जा रहे हैं. क्या करें, मजबूरी है,’’ उस आदमी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोम प्रकाश ने अपने महकमे की बुराई सुनी तो तिलमिला कर रह गया, पर वह चुपचाप आगे बढ़ गया.

फाटक के पास ट्रेन का गार्ड और ड्राइवर खड़े थे. कुछ छात्र उन को घेर कर खड़े हुए नारे लगा रहे थे. कुछ लोग ट्रेन से उतर कर इधरउधर खड़े थे. ट्रेन में बैठे परेशान से लोग खिड़की से इधरउधर झांक रहे थे.

सोम प्रकाश के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं कि अब क्या होगा. इन कमबख्तों को भी आज ही हड़ताल करनी थी. सुंदरपुर पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है. इन लड़कों ने ट्रेन फाटक के सामने जानबूझ कर रोकी है, ताकि जनता परेशान हो.

3 दिन पहले जब उन की हड़ताल शुरू हुई तो एक रोडवेज की बस को उस ने व उस के साथियों ने जबरदस्ती रोका था. बस से सभी सवारियों को उतर जाने को मजबूर किया था. उसी बस में एक आदमी के साथ उस का 6-7 साल का बीमार बेटा भी था. वह आदमी अपने बेटे को डाक्टर को दिखाने शहर ले जा रहा था. तब उस आदमी ने उन लोगों के सामने हाथ जोड़ कर दया की भीख मांगी थी, पर किसी भी हड़ताली का दिल नहीं पिघला था. उस का भी नहीं. वे सब हड़ताल को कामयाब बनाने के नशे में चूर थे.

सोम प्रकाश ट्रेन के गार्ड के पास जा कर चिंतित आवाज में बोला, ‘‘साहब और कितनी देर लगेगी यहां? टै्रफिक बहुत पीछे तक लगा है. हमें सुंदरपुर जाना है. गाड़ी को थोड़ा आगे करा कर फाटक खुलवा दो बस.’’

‘‘मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. पिछले स्टेशन से यहां तक 5-6 बार जंजीर खींच ली. गाड़ी आधा किलोमीटर भी नहीं चलती कि ये लड़के जंजीर खींच कर गाड़ी रोक देते हैं. यहां जब ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाने लगा तो लड़के इंजन में ही घुस गए और ड्राइवर को नीचे उतार दिया,’’ गार्ड ने जवाब दिया.

तभी ट्रेन का ड्राइवर बोल उठा, ‘‘ऐसे हालात में गाड़ी चलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. मैं ने भी यह सोच लिया है कि इन को अपनी मनमानी कर लेने दो. मैं भी अब ट्रेन ले कर आगे नहीं जाऊंगा.’’

सोम प्रकाश ने हाथ जोड़ कर गार्ड से कहा, ‘‘मेरी बेटी की हालत बहुत खराब है साहब. आप गाड़ी आगे करा कर यह फाटक खुलवा दो.’’

‘‘कैसे खुलवा दें फाटक? इंजन की हालत देख रहे हो न, कितने छात्र उस पर लदे हुए हैं. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है. मैं आप सभी का दुख समझ रहा हूं. ट्रेन में बैठे लोगों की अपनीअपनी परेशानी है. किसी को कोर्ट जाना है, किसी को औफिस जाना है, तो किसी को डाक्टर के पास पहुंचना है.

‘‘ये हड़ताली किसी का दुख नहीं समझते. इन्हें जनता को परेशान और दुखी करने में ही मजा आता है. जब कोई हड़ताली खुद किसी हड़ताल में फंसता है तब उसे पता चलता है कि हड़ताल कितनी खतरनाक है,’’ गार्ड ने कहा.सोम प्रकाश की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह खुद हड़ताल पर था. उन की हड़ताल से लोग कितने परेशान थे, इस के बारे में सोच कर वह खुश था. छात्रों की इस तरह की हड़ताल से जब सामना हुआ तो वह बुरी तरह घबरा गया.

दुखी और परेशान सा सोम प्रकाश कार के पास पहुंच गया. उसे देखते ही गायत्री ने पूछा, ‘‘कितनी देर और लगेगी यहां? अनीता की हालत ज्यादा खराब हो रही है.’’

सोम प्रकाश ने अनीता की ओर देखा. वह आंखें बंद कर निढाल हो चुकी थी.

सोम प्रकाश चुप रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था. उसे एकएक मिनट भारी लग रहा था.

गायत्री दुखी आवाज में बोली, ‘‘अब क्या होगा? अगर अनीता को कुछ हो गया तो मैं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगी.’’

‘‘तू ने ही अनीता को जबरदस्ती यहां बुलाया था कि पहला बच्चा है, यहां मायके में ही होना चाहिए. उस की ससुराल वाले तो मना कर रहे थे. अब भुगत अपनी जिद,’’ सोम प्रकाश ने गुस्से में कहा.

गायत्री की आंखों से आंसू बहने लगे. वह बोली, ‘‘मैं जाती हूं. इन लड़कों के आगे हाथपैर जोड़ कर ट्रेन आगे करा दूंगी. यह फाटक खुल जाएगा.’’

‘‘नहीं गायत्री, वहां जाना बेकार है. हड़ताल, जाम, धरनाप्रदर्शन करने वालों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं. न कोई सुनेगा और न कोई मानेगा.’’

तकरीबन एक घंटे बाद ट्रेन आगे की ओर सरकी. फाटक खुला. ट्रैफिक चलने लगा.

सोम प्रकाश ने देखा, अनीता निढाल सी बैठी थी. गायत्री उसे पुकार रही थी, पर वह कोई जवाब नहीं दे रही थी.

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सोम प्रकाश ने कार की रफ्तार बढ़ा दी. वह जल्द ही शहर के किसी भी नर्सिंगहोम में पहुंचना चाहता था.

नर्सिंगहोम तक पहुंचने में आधा घंटा लग गया. वह तेजी से डाक्टर के चैंबर में पहुंचा और बोला, ‘‘मेरी बेटी बहुत सीरियस है. डिलीवरी होनी है उस की.’’

‘‘मैं देखती हूं अभी,’’ कहते हुए डाक्टर आरती फोन पर कुछ जरूरी बात करने लगी.

‘‘मैं नंदनपुर कसबे से आ रहा हूं. रास्ते में कुछ छात्र फाटक पर ट्रेन को रोक कर प्रदर्शन कर रहे थे. फाटक बंद होने से टै्रफिक जाम होता चला गया. वहां डेढ़ घंटा बरबाद हो गया.’’

डाक्टर आरती उठते हुए बोलीं, ‘‘पता नहीं, क्या हो रहा है इस देश में, जहां देखो हड़ताल, धरना, प्रदर्शन व जाम. ट्रेन रोको, सड़क रोको, कामकाज ठप करो. हड़ताल से जनता को कितनी परेशानी होती है, यह हड़ताली नहीं सोचते. देश को नुकसान पहुंचा कर और आम जनता को परेशान कर अपना मतलब निकालना ही हड़ताल का मकसद है क्या?

‘‘जिस नेता या मंत्री से कोई शिकायत या मांग है तो उस का घेराव करें. उस के सामने धरनाप्रदर्शन करें. आम जनता को क्यों परेशान करते हो जिस का उस हड़ताल से कोई लेनादेना नहीं है. अदालतों का सहारा लें. आप क्या काम करते हैं?’’

‘‘मैं रोडवेज बस में ड्राइवर हूं,’’ सोम प्रकाश के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे.

‘‘कमाल है, आप भी तो हड़ताल पर हैं. अब आप को पता चल गया होगा कि हड़ताल के कितने भयंकर रूप हैं. सरकार को भी चाहिए कि हड़ताल, चक्काजाम, बंद वगैरह पर पूरी तरह रोक लगा दे,’’ कहते हुए डाक्टर आरती जच्चाघर में पहुंच गईं.

अनीता को स्ट्रैचर पर लिटा कर जच्चाघर ले जाया जा चुका था.

सोम प्रकाश व गायत्री धड़कते दिल से बैठे इंतजार कर रहे थे.

कुछ देर बाद डाक्टर आरती बाहर निकलीं और गंभीर आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख है कि आप की बेटी व बच्चा बच नहीं पाए. आप ने आने में देर कर दी. अगर आप सही समय पर आ जाते तो दोनों की जान बच जाती.’’

यह सुनते ही गायत्री दहाड़ मार कर रोने लगी. सोम प्रकाश का दिल भी बैठता चला गया. अब उस की बेटी व होने वाले नाती की बलि हड़ताल पर चढ़ गई थी. वह खुद भी तो हड़ताली है. उसे लग रहा था मानो वह हड़ताली नहीं, एक अपराधी है देश का.

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सोम प्रकाश चुपचाप अनीता की लाश कार में रखवा कर गायत्री के साथ वापस घर की ओर चल दिया.

एक नंबर की बदचलन

लेखक- सुभाष चंदर

जुम्मन शेख की बीवी शकीना बेगम कभी दिन में, तो कभी रात में अपने एक आशिक से मिलने चली जाती और उस के साथ खूब गुलछर्रे उड़ाती. यह खबर बहुतों को मालूम थी. अगर किसी को नहीं पता थी तो वह था जुम्मन शेख, जिस का इस केस से सीधासीधा ताल्लुक था. पर यह बात उस तक पहुंचाने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा था, क्योंकि जुम्मन शेख बड़े ही अक्खड़ दिमाग का आदमी था. यह भी पक्का था कि यह खबर मिलने के बाद जुम्मन शेख अपनी बीवी सकीना बेगम के आशिक को पाताल में से भी ढूंढ़ निकालेगा.

इसकी एक बड़ी वजह उन जवान या फिर रंगीनमिजाज मर्दों से ही जुड़ी थी जो खुद सकीना बेगम के चक्कर में थे और उन्हें इस बात का बेहद अफसोस था कि उन के होते हुए कोई और उस हसीन औरत को ले उड़ा था. उस औरत ने पराए महल्ले के मर्द पर नजर डाली थी, जो उन की खासी बेइज्जती थी.

यह मामला औरतों के डिपार्टमैंट ने संभाला. फातिमा बी तैयार हो गईं. वे दूर के रिश्ते में जुम्मन शेख की मौसी लगती थीं. उम्रदराज थीं. दमे की मरीज थीं. उन की जबान के चलने और खांसने की रफ्तार एकजैसी तेज थी. घर वाले उन से और वे घर वालों से तंग आ चुकी थीं. वे ऐसे नेक काम के लिए बिलकुल ठीक थीं.

फातिमा बी जुम्मन शेख की लकड़ी की दुकान पर जा पहुंचीं. जुम्मन शेख ने दुआसलाम की. फातिमा बी ने उस की बीवी सकीना बेगम के बांझ रह जाने पर अफसोस किया. कुछ डाक्टरों के पते भी बताए जिन के इलाज से शर्तिया बच्चे पैदा होते हैं. उस के बाद फातिमा बी जुम्मन शेख के कान के नजदीक गईं और कुछ फुसफुसाईं. वे कुछ देर तक फुसफुसाती ही रहीं. फुसफुस खत्म करने के बाद उन्होंने जुम्मन शेख के चेहरे के भावों की ओर गौर से देखा.

जुम्मन शेख की आंखों में लाली उतर आई थी. कुछ देर ऐसा ही रहा, फिर उस के मुंह से बोल फूटे, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. सकीना ऐसा नहीं कर सकती.’’

फातिमा बी भौंचक्की रह गईं. उन्होंने फिर भी बुझती आंच में घी डालने की कोशिश की. वे बोलीं, ‘‘न बेटा, ज्यादा टाइम तक औलाद न होए तो कई बार औरत ऐसा कदम उठा लेती है.’’

‘‘बस खालाजान, आप आगे मत बोलना…’’ जुम्मन शेख भड़क उठा, फिर जाने क्या सोच कर शांत हुआ और बोला, ‘‘पहले यह बताओ कि यह बात आप को किस ने बताई?’’

‘‘रेहाना की अम्मी ने.’’

‘‘उन्हें?’’

‘‘उस के खसम यासीन ने…

पर क्यों?’’

‘‘कुछ नहीं, आप जाओ… मैं यासीन से बात करता हूं.’’

फातिमा बी के जाते ही जुम्मन शेख कुछ देर सोचता रहा, फिर यासीन की दुकान की ओर चला गया.

जुम्मन शेख ने मामले की पूछताछ की. यासीन ने डरते हुए बताया, ‘‘यह खबर मुझे शकील ने दी.’’

जुम्मन शेख शकील के पास

गया. उस ने रमजानी का नाम लिया. रमजानी ने बशीर का और बशीर ने बिंदा बनिए का.

बिंदा बनिए ने खास जानकारी दी कि उसे यह बात कल्लू रिकशे वाले ने बताई है. उसी ने अपनी आंखों से सकीना बेगम को रात को कहीं जाते देखा है.

जुम्मन शेख ने बिंदा बनिए को आंखें तरेर कर देखा. उस के बाद वह अपनी दुकान पर आया. वहां बोरों के ढेर के नीचे से बड़ा वाला छुरा निकाला. उंगली पर लगा कर उस की धार चैक की. धार कुंद हो रही थी. फिर उस ने पत्थर से घिसघिस कर धार पैनी की. इस के बाद वह कल्लू रिकशे वाले की तलाश में निकल गया.

रात हो चुकी थी. कल्लू अपने रिकशे पर ही बार सजाए बैठा था. रिकशे की सीट पर वह खुद जमा था. देशी

दारू की बोतल, पानी का जग और प्लेट में चखने के नाम पर नमक और मिर्च सजी थी.

कल्लू को नशा चढ़ रहा था, पर जुम्मन शेख को देखते ही कल्लू के नशे के झाग झटके से नीचे बैठ गए. उस ने भाग निकलने के लिए रास्ता खोजना चाहा, पर जुम्मन शेख ने इस का

मौका नहीं दिया. उस ने छुरा निकाला और कल्लू रिकशे वाले की गरदन पर रख दिया और सर्द आवाज में बोला, ‘‘सच्चीसच्ची बता कि बात क्या है, वरना इस छुरे से अभी तेरी गरदन रेत दूंगा, समझ गया न…’’

गरदन पर छुरा रखा हो तो किसी को भी बात समझ में आ सकती है. कल्लू को भी आ गई. वह मिमियाते हुए बोला, ‘‘हुजूर, मेरी कुछ गलती नहीं है. मैं ने कुछ नहीं किया.’’

जुम्मन शेख गरजा, ‘‘कहता है, तू ने कुछ नहीं किया. मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी. बता, ऐसा झूठ बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई, वरना यहीं काट दूंगा,’’ कह कर छुरे का दबाव उस की गरदन पर बढ़ा दिया.

डर के मारे कल्लू के पाजामे से दोनों पैग बाहर निकल आए. माहौल में शराब की बदबू फैल गई.

‘‘हुजूर, मैं ने भाभी को परसों रात कब्रिस्तान की तरफ जाते देखा था. सच बोल रहा हूं,’’ कल्लू ने एक सांस में सबकुछ बक दिया.

इतना सुनते ही जुम्मन शेख ने छुरा कल्लू के गले से हटाया और बोला, ‘‘सुन बे, अगर यह बात झूठ निकली तो तू कल का सूरज नहीं देखेगा.’’

घर आ कर सकीना बेगम ने खाने के लिए पूछा. जुम्मन शेख ने उस की ओर ऐसी नजरों से देखा कि उस की आगे पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. कुछ देर बाद ही जुम्मन शेख को नींद आ गई.

लेकिन महल्ले वाले नहीं सोए थे.

वे रातभर शोरशराबे का, सकीना बेगम के रोनेचीखने वगैरह का इंतजार करते रहे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी.

पर तमाशा कहां से होता… जुम्मन शेख तो मुंह अंधेरे ही घर से निकल गया था. पहले वह पास के गांव में रहने वाले अपने बड़े भाई से मिल कर आया. उस के बाद शहर में रहने वाले अपने छोटे भाई के पास चला गया. उसी के साथ अम्मी भी रहती थीं, जबकि अब्बू अब नहीं रहे थे.

जुम्मन शेख अम्मी से मिला और जाते ही उन से लिपट गया. फिर वह बहुत देर तक रोता रहा. अम्मी हैरान सी उसे देखती रहीं.

रोने का कार्यक्रम खत्म करने के बाद अम्मी को सलाम कर के जुम्मन शेख तेज कदमों से बाहर निकल आया.

इस के बाद जुम्मन शेख अब्दुल कय्यूम एडवोकेट के दरबार में हाजिरी देने गया. उन के कान में जाने क्याक्या फुसफुसाया, फिर उस की जेब ने इस सारी कार्यवाही का जुर्माना भरा जो पूरे 2,000 रुपए था.

इस के बाद जुम्मन शेख अपने गांव की ओर बढ़ गया. अब तक रात हो चुकी थी. 11 बजे होंगे. कायदे से उसे घर जाना चाहिए था, पर वह घर नहीं गया. फैसला लिया कि वह आज रात दुकान में ही रहेगा.

दुकान से उस का घर ज्यादा दूरी पर भी नहीं था. वैसे भी उस के घर से जिसे भी कब्रिस्तान की ओर जाना होता, उसे दुकान के सामने से ही हो कर जाना पड़ा. सो, उस ने दुकान में एक ऐसी जगह तलाशी जहां से वह अपने घर पर नजर रख सकता था. दुकान की बाहरी तरफ लकडि़यों का ढेर था. वह उस में कहीं छिप कर बैठ गया.

जुम्मन शेख ने सोचना शुरू किया कि अगर कल्लू की बात सच निकली तो आज उसे किस का बैंड बजाना पड़ेगा. सकीना बेगम का तो नंबर पहला था

ही, पर पहेली यह थी कि उस का

वह आशिक कौन होगा जो उस के

हाथों मरेगा?

सवाल यह भी था कि सकीना बेगम कब आएगी, आएगी भी या नहीं? इंतजार करतेकरते 2 घंटे हो गए.

तभी कुत्तों के भूंकने की आवाज आई. जुम्मन शेख ने उस दिशा में नजर दौड़ाई तो देखा कि एक साया उस के घर से निकल कर इधरउधर देख रहा है. वह समझ गया कि सकीना बेगम ही होगी.

जब वह साया दुकान के सामने से गुजरा तो कुल्हाड़ी पर जुम्मन शेख के हाथ इतनी बुरी तरह कस गए कि उस की हथेली की हड्डी तक चसक उठी.

सकीना बेगम दुकान के पास आ कर ठिठकी, फिर आगे बढ़ गई. उस की मंजिल कब्रिस्तान की तरफ थी. वह इधरउधर देखते हुए आगे बढ़ रही थी. जैसेजैसे वह आगे बढ़ रही थी, उसी हिसाब से जुम्मन शेख का गुस्सा भी अपने कदम आगे बढ़ा रहा था.

न जाने किस तरह जुम्मन शेख अपनेआप पर काबू रख पाया था, वरना उस का कम से कम 4-5 बार मन किया कि वह इस बेवफा औरत के अपनी कुल्हाड़ी से वैसे ही 2 टुकड़े कर दे जैसे भारी लकडि़यों के करता है. उस के दांत कसमसा रहे थे, उसे इंतजार था तो बस सकीना बेगम के किसी घर में घुसने का.

जुम्मन शेख छिपताछिपाता उस का पीछा कर रहा था. वह हर तरफ से चाकचौबंद था. उस के हाथ में कुल्हाड़ी थी, पाजामे की अंटी में चाकू भी था. बस, दुश्मन की पहचान होने भर की देर थी, हलाल करने की तैयारी पूरी थी.

सकीना बेगम आगे बढ़ रही थी. चलतेचलते वह ठिठकी. जुम्मन शेख ने देखा कि मकान बशीरे का था. ‘हुम्म… तो यह बशीरे का कियाधरा है…’ उस ने सोचा. वह उस को मारने के तरीके पर विचार कर ही रहा था कि सकीना बेगम आगे चल दी.

अगला घर नवाजू का था. वह वहां भी ठिठकी.

जुम्मन शेख ने मन में कुछ हिसाब लगाया. नवाजू पर तो कुल्हाड़ी ही इस्तेमाल करनी पड़गी, वह मोटा भैंसा चाकूवाकू से कहां मरेगा, लेकिन सकीना बेगम आगे बढ़ गई.

अब तो जुम्मन शेख को पक्का यकीन हो गया कि हो न हो, सकीना बेगम ने जिस से टांका भिड़ाया है,

वह रियाजू ही है. कमबख्त… इतनी खूबसूरत बीवी के होते हुए, अपने से बड़ी उम्र की औरत पर फिसला. उस ने अंटी के चाकू को सहलाया ही था कि सकीना बेगम आगे बढ़ गई. वह थोड़ा रुकी, इधरउधर देखा, फिर सीधे कब्रिस्तान के खुले गेट में घुस गई.

सकीना बेगम गेट के अंदर जा चुकी थी. जुम्मन शेख लोहे के गेट के पीछे छिप कर खड़ा हो गया. उसे इंतजार था कि कब वह नसीमू आए और वह उस को खुदागंज पहुंचा दे.

पर वहां कोई नहीं दिखाई दिया. वहां कब्रें थीं, उन में शांति से सोए मुरदे थे, कुछ झाड़झंखाड़ भी थे, पर आदम जात कहीं नहीं दिखा.

‘फिर सकीना बेगम इतनी रात में कब्रिस्तान में क्या करने आई है? क्या वह बेवफा नहीं है? क्या वह किसी आशिक से मिलने नहीं आई है? फिर वह यहां क्यों आई है?’ जुम्मन शेख का दिल धक से रह गया. तो इस का मतलब सकीना बेगम डायन… चुड़ैल… आगे वह सोच नहीं पाया.

तभी खटखट की आवाजें आईं. उस ने गौर से देखा कि सकीना बेगम जमीन पर उकड़ूं बैठ कर कुछ खोद रही है. अब तो उस का कलेजा मुंह को आ गया, ‘इस का मतलब उस का शक सही है… वह पक्की चुड़ैल है. कब्रिस्तान से मुरदे उखाड़ कर उन को खाती है. डर के मारे उस की धड़कनें बंद होतेहोते बचीं. झुरझुरी सी हो आई, पर उस ने किसी तरह मन कड़ा किया और सकीना ‘चुड़ैल’ की आगे की कार्यवाही देखने लगा. लगा कि कुछ ही देर में सकीना

के हाथों में मुरदा होगा, पर निराशा ही हाथ लगी.

सकीना ने कुछ मिट्टी खोदी और हाथ में रखे रूमाल में बांधी. उस के बाद दियासलाई जलाई. अगरबत्ती सुलगाई और फिर वह अगरबत्ती उस कब्र पर रख दी. जुम्मन शेख पहचान गया कि यह मजार तो पीर बाबा का था.

जुम्मन शेख की समझ में कुछ नहीं आया. यह कैसी चुड़ैल है जो कब्र खोदती है, पर मुरदे नहीं खाती. उस की मिट्टी रूमाल में भरती है. खोदी हुई कब्र पर अगरबत्ती जलाती है. चुड़ैल भला अगरबत्ती क्यों जलाएगी?

तभी सकीना बेगम खड़ी हो गई और मजार पर सिर झुकाने के बाद वापस जाने लगी. जुम्मन शेख चौकन्ना हो गया. डर था कि कहीं वह देख न ले.

जब सकीना बेगम उस के पास से गुजरी तो उस का दिल धड़धड़ बज

रहा था. जब वह और नजदीक आई तो उस ने जोर से आवाज दी, ‘‘सकीना… सुनो तो…’’

सकीना बेगम डर के मारे ठिठक गई. उस ने सोचा कि कब्रिस्तान का कोई जिन जाग गया है. वह थरथर कांपने लगी.

जुम्मन शेख उस की हालत समझ गया. वह बोला, ‘‘सकीना, डरो मत, मैं… हूं… जुम्मन, तुम्हारा शौहर.’’

सकीना बेगम ने शौहर की आवाज पहचानी, पर शक फिर भी था. उस ने मुड़ कर देखा तो सच में जुम्मन शेख ही था. उस की जान में जान आई.

कुछ कहने से पहले ही जुम्मन शेख ने अपनी बेगम के हाथ थाम लिए. आंखों में प्यार भर कर वह बोला, ‘‘सच बताऊं बेगम, मैं तुम्हें मारने आया था,’’ कह कर उस ने दूर पड़ी कुल्हाड़ी दिखाई, अंटी में लगा चाकू दिखाया.

‘‘पर, मेरा कुसूर क्या है?’’ सकीना बेगम की आंखें हैरानी और दुख से फैल गईं. जुम्मन शेख ने कल्लू रिकशे वाले से ले कर महल्ले में फैली सारी बात बताई.

सकीना बेगम ने नाराजगी दिखाई लेकिन जुम्मन शेख के माफी मांगने पर वह मान गई.

उस के बाद जुम्मन शेख को कुछ याद आया. वह बोला, ‘‘तुम रात को कब्रिस्तान में क्यों आती हो? और यह मिट्टी खोदने और मजार पर अगरबत्ती जलाने का क्या चक्कर है?’’

अब सकीना बेगम ने जो बताया, उस से जुम्मन शेख का तो माथा ही घूम गया. वह बोली, ‘‘मैं मुल्ला बदरूद्दीन के पास गई थी. वह झाड़फूंक करता है. मैं ने उस से पूछा कि हमारे घर आलौद क्यों नहीं हो रही है?’’

जुम्मन शेख तुनक कर बोला, ‘‘हम्म, तो यह सारा खेल उस मरदूद का शुरू किया हुआ है. खैर, तुम आगे बताओ. उस से तो मैं बाद में निबटूंगा.’’

सकीना बेगम आगे बोली, ‘‘मुल्ला ने बताया था कि मेरे ऊपर किसी जिन का साया है. वही मेरे मां बनने में रोड़े अटका रहा है. उस के लिए उस ने मुझ से 5,000 रुपए लिए. एक तावीज दिया और कहा था कि मैं हफ्ते में 2 दिन आधी रात को कब्रिस्तान जाऊं. पीर बाबा की कब्र से मिट्टी खोद कर उस में तावीज गाड़ दूं. अगली बार आऊं तो निकाल लूं.

‘‘3 दिन पहले मैं ने तावीज गाड़ा था और आज निकाल लिया. यह देखो,’’ कह कर उस ने रूमाल में बंधी मिट्टी और उस में पड़ा तावीज दिखा दिया.

यह सुन कर और तावीज को देख कर जुम्मन के तनबदन में आग लग गई. वह भनभना कर बोला, ‘‘उस मौलवी ने तो मेरा घर बरबाद कर देना था. या तो मैं तुम्हें तलाक दे देता या फिर तुम्हारा कत्ल करता. उस के बाद फांसी चढ़ जाता. अब मैं उसे छोड़ूंगा नहीं.’’

‘‘अरे… अरे… पर, क्या करोगे उस का?’’

‘‘मैं उस को तावीज की तरह जमीन में गाड़ दूंगा और फिर निकालूंगा भी नहीं. बस सुबह हो जाने दो,’’ कह कर जुम्मन शेख सकीना बेगम के साथ घर को चल दिया.

अगले दिन सुबहसवेरे जुम्मन शेख लाठी ले कर मुल्ला बदरूद्दीन के घर पहुंच गया.

मुल्लाजी अपनी बैठक में मजमा लगाए बैठे थे. किसी को भूत भगाने का नुसखा बता रहे थे. जुम्मन को देखते ही वे चौंके, फिर घबराए. उठने की कोशिश की, पर जुम्मन के लट्ठ ने उन्हें उठने न दिया. पहले लट्ठ ने ‘आह’ निकाली, दूसरे ने ‘हाय मर गया’ की आवाज निकाली, तीसरे में वे ‘बचाओबचाओ’ की गुहार करने लगे.

महल्ले में भीड़ जमा हो गई. जुम्मन शेख ने गरज कर कहा, ‘‘बदरूद्दीन, अब भी वक्त है, बता दे कि तू ने मेरे खिलाफ यह साजिश क्यों की, वरना तुझे जिंदा नहीं छोडं़ूगा,’’ कह कर उस ने लट्ठ उठाया ही था कि बदरूद्दीन मिमियाता हुआ बोला, ‘‘मेरी जान बख्श दो. मैं ने कुछ नहीं किया. यह सब हकीमजी का कियाधरा है. उन्होंने ही मुझ से यह सब खेल करने को कहा था. इस के लिए मुझे 5,000 रुपए भी दिए थे,’’ कह कर वे रोने लगे.

यह सब सुनते ही जुम्मन शेख का माथा ठनक गया. इस का मतलब असली गुनाहगार हकीम है. उसे तो सबक ही सिखाना पड़ेगा. वह हकीम के दवाखाने की ओर बढ़ा. कहना न होगा कि महल्ले की भीड़ उस के पीछे थी.

हकीम ने पहले जुम्मन शेख को देखा, फिर भीड़ देखी. वह अंदर की ओर भाग लिए. पर जुम्मन उन से ज्यादा फुर्तीला था, उन्हें वहीं थाम लिया. पहले उन का थप्पड़ों से स्वागत किया, फिर लातों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बाहर ले आया. हकीम ने ‘बचाओबचाओ’ का शोर मचाना शुरू किया, पर किसी ने उसे नहीं बचाया.

जब मारतेमारते जुम्मन शेख के हाथपैर थक गए तो उस ने लाठी उठाई और दहाड़ कर बोला, ‘‘हकीम के बच्चे, अगर जिंदा रहना चाहता है तो सब के सामने बता कि तू ने यह साजिश क्यों रची थी, वरना तुझे तेरे तावीज के साथ यहीं गाड़ दूंगा.’’

हकीम साहब समझ गए कि खेल खत्म हो गया. उन्होंने कराहतेकराहते

जो बताया, वह सुन कर भीड़ भी हैरान रह गई.

हकीम साहब रोतेरोते बोले, ‘‘सकीना मेरे पास दवा लेने आती थी. उसे देख कर मेरी नीयत खराब हो गई थी. मैं ने उसे छेड़ने की कोशिश की तो सकीना मेरे मुंह पर थप्पड़ मार कर चली गई. यह सब देख कर मैं गमक गया. फिर मैं ने बेइज्जती का बदला लेने के लिए यह साजिश रची.’’

हकीम साहब चुप हुए ही थे कि जुम्मन शेख दहाड़ उठा, ‘‘पूरी बात बता, क्या साजिश रची थी? जल्दी बोल वरना…’’

हकीम साहब घबरा गए. वे बोले, ‘‘मैं ने… मैं ने मुल्ला बदरूद्दीन को पटाया. उसे समझाया कि वह सकीना बेगम को रात को कब्रिस्तान में जाने को कहे, ताकि जब यह बात तुम्हें पता चले तो तुम उसे मार दोगे या तलाक दे दोगे. मेरा बदला पूरा हो जाएगा.’’

हकीम साहब की बातें सुन कर भीड़ भड़क उठी. बशीरन बूआ चिल्लाईं, ‘‘इतनी बड़ी साजिश. कीड़े पड़ेंगे तेरे बदन में.’’

फिर वे भीड़ की ओर देख कर बोलीं, ‘‘देखते क्या हो रे, मारो इस मरदूद को.’’

फिर क्या था, जुम्मन शेख एक तरफ हो गया, भीड़ ने उस का अधूरा काम संभाल लिया. पहले मर्दों ने हाथ सेंके, फिर औरतों ने चप्पलों से सुताई की.

सब से ज्यादा मजा आखिर में आया. बुंदू कहीं से हज्जाम को पकड़ लाया. उस ने हकीम साहब के सिर पर उस्तरा फिरा दिया. शकील ने उन का मुंह काला किया. इस के बाद उन्हें गधे पर बिठा कर सारे महल्ले का चक्कर लगवाया गया. जुम्मन शेख अब संतुष्ट था.

उसी रात को जुम्मन शेख अपनी बीवी सकीना बेगम के साथ पलंग पर बैठा था. जुम्मन शेख भावुक होते हुए बोला, ‘‘सकीना, अगर मैं शक में पड़ कर तुम्हें मार देता तो…

सकीना बेगम बोली, ‘‘तो क्या हुआ, मैं चुड़ैल बन जाती और तुम्हारा खून चूसती?’’ कह कर वह हंस पड़ी.

उस के हंसते ही जुम्मन शेख घबरा कर उठा और पलंग से लटके पैरों को उलटपलट कर देखने लगा.

सकीना चौंक कर बोली, ‘‘क्या… क्या देख रहे हो जी?’’

जुम्मन बोला, ‘‘देख रहा हूं, कहीं तुम्हारे पैर उलटे तो नहीं हैं.’’

यह सुनते ही सकीना बेगम ने बड़ी जोर का ठहाका लगाया.

कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

लेखिका- सुजाता वाई ओवरसियर

मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.

वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.

उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.

अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.

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अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’

आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.

‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’

मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.

फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.

सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.

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‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.

‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.

मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.

‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’

‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.

‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.

‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’

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वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.

वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.

पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.

साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

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वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

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घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

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श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

नारद गए परदेश

शिवनगरी का जिला प्रशासन ऐसे ही काफी परेशान रहता है. मंदिरमसजिद तथा उन के पंडेमौलवियों की सुरक्षा में न जाने कितने नाकों चने चबाने पड़ते हैं. पुलिस, पीएसी टास्क फोर्स न जाने कितनी तरह की फोर्स हैं, फिर भी क्राइम कंट्रोल में नहीं आता. रोज ही कोई न कोई वी.आई.पी. आते रहते हैं मंदिर के दर्शन को और सरकारी दौरा बनाने के लिए 1-2 मीटिंग भी बुला लेते हैं.

पहले दर्शन कराओ फिर मीटिंग कराओ. दिन पर दिन यह समस्या गंभीर होती जा रही है. उसी में एक दिन शाम को फैक्स मिलता है कि नारदजी कल नगर में मंदिरों के दर्शनार्थ पधार रहे हैं. वह मंदिर में पूजा के बाद खासकर मार्कंडेय धाम का भ्रमण करेंगे. इस के बाद वह पत्रकार वार्त्ता भी करेंगे.

जिले की सारी प्रशासनिक मशीनरी घबरा गई कि यह नारदजी कौन हैं? कहीं प्रदेश के कोई माननीय मंत्री तो नहीं, लेकिन फैक्स के ऊपरनीचे कोई अतापता नहीं दिया गया था, न ही उन के किसी सेके्रटरी का नाम था. फैक्स करने वाले स्थान का फोन नंबर भी पत्र पर अंकित नहीं था, ताकि वापस फोन कर के पता कर लें कि यह नारदजी कौन हैं और किस विभाग के माननीय मंत्री या अध्यक्ष हैं.

आननफानन में जिला प्रशासन ने सर्किट हाउस में रिजर्वेशन कर दिया. पुलिस कप्तान को उन की सुरक्षा व्यवस्था के लिए निर्देश दे दिए गए तथा सर्किट हाउस पर पुलिस पिकेट तैनात कर दी गई.

जिले के आला सरकारी अफसर दूसरे दिन ही सुबह सर्किट हाउस पर नारदजी की अगवानी करने पहुंच गए. चूंकि उन के सड़क या वायुमार्ग से आने की कोई निश्चित सूचना नहीं थी अत: हवाई अड्डे पर एस.डी.एम. (सिटी) तथा शहर के हर मुख्य मार्ग पर एकएक ए.सी.एम. और सी.ओ. की ड्यूटी पुलिस बल के साथ लगा दी गई थी.

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अधिकारियों के बीच एक उच्च- कुलीन ब्राह्मण अधिकारी ने शंका जाहिर की, ‘‘कहीं ये टेलीविजन वाले नारदजी तो नहीं हैं जो हर धार्मिक सीरियल में दिखते हैं?’’

उन के वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया.

मुंहअंधेरे अंतरिक्ष में आकाशवाणी की तरह एक आवाज गूंजी : ‘नारायण… नारायण…’ फिर आसमान में एक छोटी सी छाया प्रकट हुई जो धीरेधीरे बड़ी होती गई और इसी के साथ ‘नारायण…नारायण’ की आवाज भी तेज होती गई. थोड़ी देर बाद वीणा लिए हुए एक कृशकाय व्यक्ति कोपीन धारण किए सर्किट हाउस के लान में सशरीर उपस्थित हुआ. सभी समझ गए कि यह टेलीविजन सीरियल वाले नारद हैं, पर लगते असली हैं.

नारदजी बोले, ‘‘वत्स, मुझे पता था कि आप लोग सर्किट हाउस में होंगे, इसलिए मैं सीधे यहीं आया. कहो, शिवनगरी में सबकुछ कुशल तो है न.’’

अधिकारी बोले, ‘‘सर, सब आप की कृपा है, लेकिन आप का यहां अचानक आना कैसे हुआ?’’

‘‘नारायण…नारायण…देवलोक में भ्रमण करतेकरते मन ऊब गया था. एक ही तरह का क्लाइमेट और सब जगह अप्सराओं का संग, नृत्यसंगीत सुनतेसुनते बोर हो गया. न कोई थ्रिल, न कोई एडवेंचर था. देवताओं ने बताया कि चेंज के लिए कुछ दिन धरती का भ्रमण कर आएं. बस, प्रोग्राम बन गया. चूंकि यह नगरी शिव के त्रिशूल पर बसी धरती से पृथक मानी जाती है, इसलिए यहां चला आया.’’

‘‘लेकिन सर, आप जैसे टीवी पर दिखते हैं वैसे नहीं दिख रहे हैं?’’ एक अधिकारी को अंतरिक्ष के अन्य ग्रह से किसी अनजाने प्राणी के भेष बदल कर आने की शंका हुई.

‘‘नारायण…नारायण…वत्स, कम- र्शियल कारणों से मुझे भी टेलीविजन पर मेकअप कर के आना पड़ता है, अन्यथा कोई उस चैनल को देखेगा ही नहीं. पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत प्रदूषण है, अत: सारे धूलकण मेरे शरीर में चिपक गए. वह तो अच्छा रहा कि प्रदूषण के कारण ओजोन परत में छेद हो गया है और मैं सीधा उस से निकल आया वरना मेरे आने में और विलंब होता.’’

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एक बडे़ अधिकारी ने प्रश्न किया, ‘‘सर, आप का अगला कार्यक्रम क्या है?’’

‘‘नारायण…नारायण…शिवनगरी में मैं पहले शिव का दर्शनपूजन करूंगा, फिर 4 बजे पत्रकार वार्त्ता करूंगा. कृपया, इस के अनुसार व्यवस्था करें. अभी मैं फ्रेश होना चाहूंगा. आप लोग 1 घंटे बाद आएं,’’ और नारायण… नारायण…कहते हुए नारद गवर्नर सूट में चले गए.

घंटे भर बाद नारद बाहर आए तो नेताओं के जामे में थे. यह देख कर अधिकारीगण चकरा गए. नारद के नाम से कोई बहुरूपिया तो नहीं आ पहुंचा? वे नारद को पहचान नहीं पाए, ‘‘सर, आप राजनेता की ड्रेस में? ये सब आया कहां से?’’

नारद ने कहा, ‘‘नारायण…नारायण… वत्स, मेरा सामान देवलोक से सीधे रिमोट से गवर्नर सूट में ट्रांस्मिट हो गया. आप लोग पार्थिव प्राणी हैं, आप की समझ से बाहर है. नेता की ड्रेस तो मौके के अनुसार है.’’

बाहर आ कर नारद ने पुलिस गारद से नेताओं की तरह सलामी ली. वह फिर लालबत्ती लगी कार में बैठ गए. शहर के ट्रैफिक ने उन्हें बहुत परेशान किया. वह काफी देर तक जाम में फंसे रहे. उन्होंने मन ही मन सोचा कि पार्थिव रूप में सड़क मार्ग से जाने से तो अच्छा था कि वह सीधे मंदिर ट्रांस्मिट हो गए होते.

महादेव मंदिर पहुंचते ही नारद घबरा गए, वहां तरहतरह के पुलिस वाले तैनात थे, केंद्रीय पुलिस, पीएसी, राज्य पुलिस, लोहे की बैरिकेटिंग, महिला पुलिस आदि, यहां तक कि आसपास के मकानों की छतों पर भी जवान आधुनिक राइफल व राकेट लांचर ले कर मुस्तैद थे.

देवलोक में नारद ने ऐसा कभी नहीं देखा था. खैर, सलामी लेते नारद मंदिर के अंदर पहुंचे. भक्तों की लंबी लाइन लगी थी. नारद ने महादेव से विनीत स्वर में कहा, ‘‘हे देवाधिदेव, आप की यह हालत. जगत के नियंता व संहारक, आप की सुरक्षा इतनी तगड़ी कि परिंदा भी पर न मार सके. हे प्रभो, यह क्या हो रहा है? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. मुझे देवलोक से यहां आने में किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं महसूस हुई पर सर्किट हाउस से यहां आने के लिए जबरदस्त सुरक्षा की व्यवस्था की गई है. आप अंतर्यामी हैं, आप ही बताएं.’’

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फौरन नारद के कान में महादेव का मोबाइल बजा, ‘‘नारद, सावधान रहना, जिस नगर का तुम भ्रमण कर रहे हो वहां रोज 2-3 अपहरण, खुलेआम रेप यानी बलात्कार, हत्याएं दिन दहाड़े हो रही हैं. इतनी सुरक्षा जिला प्रशासन ने तुम्हें बेवजह नहीं उपलब्ध कराई है. यह सुरक्षा तो मात्र दिखावा है. गोली चलने या बम फटने के पहले ही ये भाग जाएंगे. तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया जो नेता की वर्दी पहन ली. आजकल अपराधी व आतंकवादी भी इसी ड्रेस में चलते हैं, अत: जब तक पृथ्वी पर हो तब तक इसी ड्रेस में रहना वरना तुम्हारा अपहरण हो सकता है.’’

‘‘अपहरण यानी किडनैपिंग? प्रभो, मैं ने देवलोक में प्रकाश झा की फिल्म ‘अपहरण’ के कुछ वीडियो क्लिप देखे थे. यह तो बहुत खतरनाक चीज है. किडनैपिंग के बाद तो बड़ी तकलीफ होती है. वे तरहतरह की यातना देते हैं. इस के बाद फिरौती यानी रैंसम भी देना पड़ता है, वह भी लाखोंकरोड़ों में, नहीं तो मर्डर कर देते हैं. मेरा तो पृथ्वी पर कोई सगा भी नहीं है, न ही मेरे पास फूटी कौड़ी है. आप की नगरी में तो आ कर मैं फंस गया प्रभो, आप ही मेरी रक्षा करें.’’

महादेव ने कहा, ‘‘नारद, डरो नहीं, सुनने में आया है कि अपहरण को उद्योग का दर्जा मिलने जा रहा है, जिस से सरकार को अतिरिक्त स्रोत से ज्यादा टैक्स मिल सके. आयकर टैक्स व ट्रेड टैक्स ने कैबिनेट के लिए एक नोट बना कर भेजा है, जिसे स्वीकृति मिलने की आशा है.’’

‘‘नारायण…नारायण…तब तो और खतरा है. इस उद्योग को सरकार से भी सहायता मिल जाएगी,’’ नारद परेशान हो उठे.

‘‘अरे, तुम जानते नहीं. यह उद्योग पहले से ही पुलिस व नेताओं के सहयोग से चल रहा है. अब इसे कानूनी जामा पहनाने की बात हो रही है,’’ महादेवजी बोले.

नारद भले ही नेता की ड्रेस में थे पर थे तो ऋषि ही, वह बहुत घबरा गए. जल्दीजल्दी मंदिर में दर्शन कर वापस जाने लगे.

पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘साहब, यह मंदिरों की नगरी और घाटों का शहर है. पता नहीं आप फिर कब आएं. थोड़ा समय लगेगा पूरा दर्शनभ्रमण कर लें.’’

‘‘आप की सुरक्षा व्यवस्था फूलप्रूफ है न? नहीं तो मैं कहीं नहीं जाऊंगा. यहां तो छोटेछोटे बच्चों को किडनैप कर लेते हैं. मैं किडनैप हो गया तो आप मुझे बचा नहीं पाएंगे और मेरे पास फिरौती देने को पैसा भी नहीं है,’’ नारद बोले.

‘‘साहब, शर्मिंदा न करें. यहां इतनी तगड़ी सिक्योरिटी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता. अभीअभी राजधानी से आप की सुरक्षा के लिए ब्लैककैट कमांडो आ गए हैं,’’ पुलिस अफसर ने विनती की.

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‘‘साहब, यह ब्लैककैट कमांडो बडे़ तेज और खतरनाक होते हैं. ये सी.एम., पी.एम. और बडे़ जेड श्रेणी के नेताओं को मिलते हैं. ये कमांडो उन्हें हमेशा घेरे रहते हैं, अपनी जान की बाजी लगा कर उन की सुरक्षा करते हैं. चूंकि पी.एम. और सी.एम. राजधानी में ही रहते हैं, अत: ये लोग भी वहीं रहते हैं. आप देवलोक के माननीय अतिथि हैं अत: आप के लिए विशेष रूप से ब्लैककैट कमांडो भेजे गए हैं,’’ पुलिस अफसर बोला.

‘‘तो पुलिस क्या करती है? सुरक्षा उपलब्ध कराना क्या उस का काम नहीं…नारायण…’’ नारद नाराज हो गए.

नारद के काफिले के साथ एक पत्रकार भी था, बोला, ‘‘सुरक्षा, क्या मजाक करते हैं मुनिवर. कोई शरीफ आदमी कभी थाने नहीं जाना चाहता. थाने में बलात्कार, प्रताड़ना, कभीकभी जबरिया मौत क्या नहीं होता. आधे पुलिस वाले क्रिमिनल के साथ रहतेरहते खुद क्रिमिनल हो गए हैं.’’

‘‘नारायण…नारायण…तो पुलिस का क्या काम है?’’ नारद ने पूछा.

‘‘साधो, पुलिस का काम क्राइम रेट हाई रखना है ताकि उन की मौज रहे. जहां क्राइम रेट हाई करना हो वहां बस, थाने खुलवा दीजिए. पहाड़ों में पहले शांति थी पर थाने खुलते ही वहां क्रिमिनल्स की बाढ़ आ गई. अब तो पहाड़ों की पब्लिक थाने खुलने की बात सुन कर ही हिंसा पर उतारू हो जाती है,’’ पत्रकार ने नारद को बताया.

‘‘ऐसा क्या?’’ नारद की आंखें फैल गईं.

पुलिस अफसर चिल्ला कर बोला, ‘‘शटअप, बहुत अंटशंट बोलता है. अभी तेरे को बंद करवाता हूं.’’

किसी तरह से नारद नगर के दूसरे मंदिरों को देखने जाने को तैयार हुए. गंगा के किनारे पहुंचते ही नगर अधिकारी ने बताना शुरू किया, ‘‘सर, यह जगह बहुत ब्यूटीफुल है. पर्यटकों की सुविधा के लिए हम लोगों ने घाटों का सुंदरीकरण किया है. यह रेड सैंड स्टोन मेरे कार्यकाल में लगाया गया. विश्राम के लिए हम ने फैंसी छतरियां पर्यटकों के लिए घाट की सीढि़यों पर लगाईं. बोटिंग के लिए फाइबर ग्लास नाव व मोटर बोट सरकार ने विशेष रूप से मंगाई हैं.’’

‘‘वेरी नाइस, बट, गंगा में सीवर व जानवरों के अंश किस ने मंगाए,’’ नारद ने व्यंग्य छोड़ा.

‘‘सर, ऐसा है कि बजट की कमी के चलते आजकल सीवर पंप खराब चल रहे हैं. पिछले शहर के लोग बहुत गंदे हैं. वे मरे जानवरों को गंगा में बहा देते हैं. यहां पर 2 श्मशानघाट भी हैं. दाहसंस्कार के बाद लकड़ी की कमी के कारण भी आदमी के कुछ अवशेष बचे रहते हैं. उन को भी लोग नदी में बहा देते हैं. इस में नगर प्रशासन का कोई दोष नहीं है. आबादी भी इतनी बढ़ गई है कि…’’

नारद ने बीच में टोका, ‘‘आबादी क्यों बढ़ रही है? क्या आबादी कम करने वाले की कमी हो गई है?’’

‘‘नहीं सर, हमारे ग्रंथों में एक मान्यता है कि यहां मरने पर मोक्ष प्राप्त होता है. अत: दूसरे शहरों व प्रांतों से बूढे़ लोग यहां मरने के लिए आ जाते हैं. उन के साथ रहने के लिए 1-2 रिश्तेदार भी आते हैं. मरने की प्रतीक्षा करने वालों के कारण शहर की आबादी बढ़ती जा रही है. वे जल्दी मरते नहीं, क्या करें, हम भी संविधान के प्रावधानों के कारण मजबूर हैं,’’ अधिकारी ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा.

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पुलिस अधिकारी की ओर देख कर नारद बोले, ‘‘आप के शहर में क्राइम रेट बहुत हाई है. क्या इस का उपयोग शहर की आबादी नियंत्रण करने में नहीं किया जा सकता?’’

पुलिस अफसर सहित दूसरे आला अधिकारी भी अचकचा गए, ‘‘नहीं, सर, कार्ययोजना क्राइम कंट्रोल करने के लिए है, न कि आबादी कंट्रोल करने के लिए,’’ पुलिस अफसर ने कहा.

‘‘तो क्या कार्य योजना है आप की?’’

‘‘साहब, क्राइम कंट्रोल के लिए हम रातदिन एक किए रहते हैं. कोई क्राइम होने के बाद हम लोग क्राइम स्पौट पर तुरंत पहुंचते हैं. यदि मर्डर हो गया हो तो मर्डर के बाद तुरंत मौके का मुआयना करते हैं. बौडी का फोटोग्राफ व फिंगर पिं्रट लेते हैं. डेड बौडी को पोस्टमार्टम के लिए भेजते हैं. कहीं बम ब्लास्ट हुआ तो तुरंत फोर्स तैनात कर दी. किसी को घुसने से मना कर दिया. मजिस्ट्रेट से धारा 144 लगवा दी. सर, हम क्या नहीं करते. उसी समय बडे़ अफसरों को पुलिस लाइन में बुला कर क्राइम कंट्रोल रिव्यू किया जाता है, ताकि क्राइम कंट्रोल हो सके,’’ पुलिस अफसर उत्तेजित हो गए.

‘‘तो दबंग अपराधी भी यहां क्राइम कंट्रोल करते हैं? अच्छा, आप लोग क्राइम के पहले क्यों नहीं पहुंचते?’’ नारद ने सवाल किया.

‘‘सर, हम आप के जैसे अंतर्यामी तो हैं नहीं. यदि क्राइम का पहले पता लग जाए तो कोई भी कंट्रोल कर ले, हमारी जरूरत ही न रहे,’’ पुलिस अफसर ने विवशता जाहिर की.

‘‘मुझे पता है कि आप के यहां इंटेलिजेंस ब्यूरो, एल.आई.यू., रा सब है, तब क्या बात है कि क्राइम का पहले पता नहीं चलता?’’ नारद ने शंका व्यक्त की.

पुलिस अफसर तेजी से बोला, ‘‘सर, ये इंटेलीजेंस वाले अपने को बहुत इंटेलीजेंट समझते हैं. उन की खबर सच निकलने पर आउट आफ टर्न प्रोमोशन उन्हें मिल जाता है. हम मेहनत करते हैं और टापते रह जाते हैं. इसलिए हम उन की खबर पर कोई काररवाई नहीं करते. हम अपने मन से काररवाई करते हैं. अपना क्राइम कंट्रोल का रिकार्ड ठीक करवाने के लिए हम किसी छुटभैए की जेब में तमंचा रख कर उस का इनकाउंटर दिखा देते हैं. आउट आफ टर्न प्रोमोशन पक्का. अफीम की पुडि़या रख कर बंद करा देते हैं. बड़ा दिमाग लगाना पड़ता है हमें.’’

पुलिस अफसर हांफने लगा.

पत्रकार फिर नारद के पास आ कर बोला, ‘‘ऋषिवर, ये लोग ठीक कहते हैं. बड़ा दिमाग लगाते हैं ये. एक क्रिमिनल को दूसरे के विरुद्ध तैयार करते हैं. बंदूक, गोली सब सप्लाई कराते हैं. फिर जब 2 क्रिमिनल गुट आपस में भिड़ते हैं तो एक का सफाया हो ही जाता है. पुलिस को खरोंच भी नहीं लगती. ये अपनी पीठ भी खुद ठोक लेते हैं.’’

‘‘साहब, किसी बडे़ डकैत का हम तब तक सफाया नहीं करते जब तक उस के हेड पर 4-5 लाख का इनाम घोषित नहीं हो जाता. अन्यथा ददुआ या उस जैसे डकैत बीहड़ों में जिंदा नहीं रहते.’’

‘‘मैं ठीक ही कह रहा था,’’ पत्रकार बोला.

‘‘नो, नो सर, ये मीडिया वाले तिल का ताड़ बना देते हैं,’’ पुलिस अफसर ने कहा.

पत्रकार फिर बीच में टपक पड़ा, ‘‘सर, जनसंख्या पर कंट्रोल तो मेडिकल विभाग करता है न. हास्पिटल में आने वाले आधे मरीज तो डाक्टरों की कृपा से देवलोक चले जाते हैं और आधे नकली दवा खा कर. लेकिन ये लोग फर्जी नसबंदी कर के पापुलेशन का बैलेंस बनाए रखते हैं.’’

सी.एम.ओ. साहब छुट्टी पर थे. एक कंपाउंडर काफिले के साथ था. वह शर्माते हुए बोला, ‘‘सर, मैं नाचीज एक मेडिकल असिस्टेंट. क्षमा करें, नसबंदी से ले कर मरहमपट्टी तक मैं ही करता हूं पर 200 रुपए में मुझे 5 रुपए मिलते हैं, बाकी ऊपर वाले जानें. मेरा स्वर्ग का रास्ता मत खराब करना प्रभु.’’

‘‘नारायण…नारायण…यह क्या गड़बड़घोटाला है. 200 रुपए में 5 रुपए मिलते हैं. यह मैं समझ नहीं पाया. थोड़ा और स्पष्ट करें,’’ नारद ने जिज्ञासा जाहिर की.

पत्रकार ने आगे जा कर उन की जिज्ञासा शांत की, ‘‘सर, सरकार हरेक नसबंदी पर प्रोत्साहनस्वरूप 200 रुपए देती है. उस में से आधा तो फर्जी नसबंदी की जाती है. उसी रुपए के बंदरबांट की बात कर रहे हैं कंपाउंडर साहब, बड़ा करप्शन है.’’

‘‘यह करप्शन क्या होता है?’’ नारद उत्सुक हो कर बोले.

पत्रकार ने स्पष्ट किया, ‘‘सर, जैसे मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाया जाता है वैसे ही अधिकारियों को भी चढ़ावा चढ़ाए जाने का यहां चलन है. इसे करप्शन कहा जाता है. करप्शन का मतलब कर औप्शन यानी जिस धन पर कर, यानी टैक्स देना औप्शनल हो, यानी मनमर्जी, इसे देशी भाषा में रिश्वत या घूस भी कहते हैं.’’

‘‘नारायण…नारायण,’’ नारद बोले, ‘‘मंदिर दर्शन का मूड खराब कर दिया. मेरा बीपी हाई हो रहा है. चलिए, अब वापस चलते हैं.’’

अधिकारीगण सन्न रह गए. सब के चेहरे लटक गए. नारद झटके से कार में बैठ गए. नारद ने कार में ही मोबाइल पर महादेव से बात की, ‘‘हे महादेव…आप की नगरी की यह दुर्दशा. आबादी इतनी कि चलनाफिरना मुश्किल. आप मोक्ष प्राप्त करने की चाहत रखने वालों को ऊपर बुलाते भी नहीं. शहर इतना गंदा कि सीवर व मरे जानवरों की दुर्गंध अभी भी नाक में बसी है. क्राइम रेट बहुत हाई है. पुलिस ने दबंग अपराधियों से सेटिंग कर रखी है. हमेशा क्राइम होने के बाद स्पौट पर पहुंचती है. मेडिकल विभाग भी 200 पर 5 रुपए के चक्कर में है, यहां तक कि मंदिर में भी करप्शन है. आखिर इस नगरी का कैसे कल्याण हो. मेरा तो बीपी हाई हो गया है.’’

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महादेव का मोबाइल पर जवाब आया, ‘‘वैरी सैड, नारद, अभी मैं कैलाश पर्वत पर हूं. मैं कल उन विभागों के देवताओं की मीटिंग बुला रहा हूं. तुम अभी वापस आ जाओ, फिर कभी जाना, अन्यथा हार्ट अटैक हो जाएगा… ओवर.’’

नारद वी.आई.पी. कार से ही तुरंत देवलोक को ट्रांस्मिट हो गए. जब कार सर्किट हाउस पहुंची तो कार में नारद को न पा कर अधिकारियों में हड़कंप मच गया. जिले में तुरंत रेड एलर्ट जारी कर दिया गया.

उस रात अचानक

लेखिका- नीता दानी

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है,

‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

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गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…

गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था. प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

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गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था.

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मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी.

सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं.

‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

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रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’

प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था.

टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी.

‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था.

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प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

रात को 8 से ऊपर का समय था. मेरे खास दोस्त रामहर्षजी की ड्यूटी समाप्त हो रही थी. रामहर्षजी पुलिस विभाग के अधिकारी हैं. डीवाईएसपी हैं. वे 4 सिपाहियों के साथ अपनी पुलिस जीप में बैठने को ही थे कि बगल से मैं निकला. मैं ने उन्हें देख लिया. उन्होंने भी मुझे देखा.

उन के नमस्कार के उत्तर में मैं ने उन्हें मुसकरा कर नमस्कार किया और बोला, ‘‘मैं रोज शाम को 7 साढ़े 7 बजे घूमने निकलता हूं. घूम भी लेता हूं और बाजार का कोई काम होता है तो उसे भी कर लेता हूं.’’

‘‘क्या घर चल रहे हैं?’’ रामहर्षजी ने पूछा.

मैं घर ही चल रहा था. सोचा कि गुदौलिया से आटोरिकशा से घर चला जाऊंगा पर जब रामहर्षजी ने कहा तो उन के कहने का यही तात्पर्य था कि जीप से चले चलिए. मैं आप को छोड़ते हुए चला जाऊंगा. उन के घर का रास्ता मेरे घर के सामने से ही जाता था.

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लोभ विवेक को नष्ट कर देता है. यही लोभ मेरे मन में जाग गया. नहीं तो पुलिस जीप में बैठने की क्या जरूरत थी. रामहर्षजी ने तो मित्रता के नाते ऐसा कहा था पर मुझे अस्वीकार कर देना चाहिए था.

यदि मैं पैदल भी जाता तो 20-25 मिनट से अधिक न लगते और लगभग 15 मिनट तो जीप ने भी लिए ही, क्योंकि सड़क पर भीड़ थी.

‘‘जाना तो घर ही है,’’ मैं ने जैसे प्रसन्नता प्रकट की.

‘‘तो जीप से ही चलिए. मैं भी घर ही चल रहा हूं. ड्यूटी खत्म हो गई है. आप को घर छोड़ दूंगा.’’

पुलिस की जीप में बैठने में एक बार संकोच हुआ, पर फिर जी कड़ा कर के बैठ गया. मैं अध्यापक हूं, इसलिए जी कड़ा करना पड़ा. अध्यापकी बड़ा अजीब काम है. सारा समाज अपराध करे पर जब अध्यापक अपराध करता है तो लोग कह बैठते हैं कि अध्यापक हो कर ऐसा किया. छि:-छि:. कोई यह नहीं कहता कि व्यापारी ने ऐसा किया, नेता ने ऐसा किया या अफसर ने ऐसा किया. अध्यापक से समाज सज्जनता की अधिक आशा करता है.

बात भी ठीक है. मैं इस से सहमत हूं. समाज को बनाने की जिम्मेदारी दूसरों की भी है पर अध्यापक की सब से ज्यादा है. दूसरों का आदर्श होना बाद में है, अध्यापक को पहले आदर्श होना चाहिए.

मैं जीप में बैठ गया. रामहर्षजी ड्राइवर की बगल में बैठे. बाद में 4 सिपाही बैठे. 2 सामने और 1-1 मेरी अगलबगल.

जीप चल पड़ी.

जैसे ही जीप थोड़ा आगे बढ़ी, मैं ने चारों तरफ देखा. अगलबगल में इक्का, रिकशा, तांगा और कारें आजा रही थीं. किनारों पर दाएंबाएं लोग पैदल आजा रहे थे.

जीप में मेरे सामने बैठे दोनों सिपाही डंडे लिए थे, जबकि अगलबगल में बैठे सिपाहियों के हाथों में बंदूकें थीं. मैं चुपचाप बैठा था.

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एकाएक मेरे दिमाग में अजीब- अजीब से विचार आने लगे. मेरा दिमाग सोच रहा था, यदि किसी ने मुझे पुलिस की जीप में सिपाहियों के बीच में बैठे देख लिया तो क्या सोचेगा. क्या वह यह नहीं सोचेगा कि मैं ने कोई अपराध किया है और पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है. पुलिस शरीफ लोगों को नहीं पकड़ती, अपराधियों को पकड़ती है.

मेरा चेहरा भी ऐसा है जो उदासी भरा गंभीर सा बना रहता है, हंसने में मुझे कठिनाई होती है. लोग जिन बातों पर ठहाके लगाते हैं, मैं उन पर मुसकरा भी नहीं पाता. मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है- मनहूसोें जैसा.

अपने अपराधी होने की बात जैसे ही मेरे मन में आई, मैं घबराने लगा. शरीर से पसीना छूटने लगा. मन में पछतावा होने लगा कि यह मैं ने क्या किया. 10 रुपए के लोभ में इतनी बड़ी गलती कर डाली. अब बीच में जीप कैसे छोड़ूं. यदि मैं कहूं भी कि मुझे यहीं उतार दीजिए तो मेरे मित्र रामहर्षजी क्या सोचेंगे. प्रेम और सज्जनता के नाते ही तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था.

मेरी मानसिक परेशानी बढ़ती जा रही थी. बचने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था. एकतिहाई दूरी पार कर चुका था. यदि अब आटोरिकशा से जाता या पैदल जाता तो व्यावहारिक न होता. मुझे यह ठीक नहीं लगा कि इतनी आफत झेल लेने के बाद जीप से उतर पड़ूं.

जीप आगे बढ़ रही थी. तभी मेरे एक मित्र शांतिप्रसादजी मिले. उन्होंने मुझे जीप में देखा पर मैं ने ऐसा बहाना बनाया मानो मैं उन्हें देख नहीं रहा हूं. उन्होंने मुझे नमस्कार भी किया पर मैं ने उन के नमस्कार का उत्तर नहीं दिया.

नमस्कार करते समय शांतिप्रसादजी मुसकराए थे. तो क्या यह सोच कर कि पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है, लेकिन शांतिप्रसाद के स्वभाव को मैं जानता हूं. वे मेरी तकलीफ पर कभी हंस नहीं सकते, सहानुभूति ही दिखा सकते हैं. फिर भी मैं यह सोच कर परेशान हो रहा था कि शांति भाई मुझे पुलिस की जीप में बैठा देख कर न जाने क्या सोच रहे होंगे. यदि सचमुच उन्होंने मेरे बारे में गलत सोचा या यही सोचा कि पुलिस गलती से मुझे गिरफ्तार कर के ले जा रही है, तब भी वे बड़े दुखी होंगे.

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अब पुलिस की जीप में बैठना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था. मैं बारबार पछता रहा था कि क्यों जरा से पैसे के लोभ में आ कर पुलिस की गाड़ी में बैठ गया. अब तक न जाने मुझे कितने लोग देख चुके होंगे और क्याक्या सोच रहे होंगे.

चलतेचलते एकाएक जीप रुक गई. रामहर्षजी उतरे और 2 ठेले वालों को भलाबुरा कहते हुए डांटा. ठेले वाले ठेला ले कर भागे. वास्तव में उन ठेले वालों से रास्ता जाम हो रहा था, पर मित्र महोदय ऐसी भद्दीभद्दी गालियां दे सकते हैं, यह सुन कर मैं आश्चर्य में पड़ गया. हालांकि दूसरे पुलिस वालों को मैं ने उस से भी भद्दी बातें कहते हुए सुना है, पर एक अध्यापक का मित्र ऐसी बातें करेगा, यह अजीब लगा. लग रहा था मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मैं कहां फंस गया, किस जगह आ गया. लोग क्या जानें कि डीवाईएसपी रामहर्षजी मेरे मित्र हैं. लोग तो यही जानेंगे कि रामहर्षजी पुलिस अधिकारी हैं और मैं किसी कारण जीप में बैठा हूं, शायद किसी अपराध के कारण.

जब जीप रुकी हुई थी और रामहर्षजी ठेले वालों को डांट रहे थे, राजकीय इंटर कालेज के अध्यापक शशिभूषण वर्मा बगल से निकले. उन्होंने मुझे पुलिस के साथ जीप में देखा तो रुक गए, ‘‘अरे, विशेश्वरजी, आप. क्या बात है? कोई घटना घटी क्या. मैं साथ चलूं?’’

इस समय मैं शशिभूषण को न देखने का बहाना नहीं कर सकता था. बोला, ‘‘जीप गुदौलिया से लौट रही थी. डीवाईएसपी साहब ने मुझे जीप में बैठा लिया कि आप को घर छोड़ देंगे. डीवाईएसपी साहब मेरे मित्र हैं.’’

फिर मैं ने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने कोई अपराध नहीं किया है. आप चिंता मत करिए. मैं न थाने जा रहा हूं, न जेल,’’ यह सुन कर मेरे मित्र शशिभूषण भी हंस पड़े. सिपाहियों को भी हंसी आ गई.

रामहर्षजी सड़क की भीड़ को ठीकठाक कर के जीप में आ कर बैठ गए थे. ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की. आगे फिर थोड़ी भीड़ मिली. पुलिस की गाड़ी देख कर भीड़ अपनेआप इधरउधर हो गई और जीप आगे बढ़ती चली गई.

मेरा घर अभी भी नहीं आया था जबकि कई लोग मुझे मिल चुके थे. मैं चाह रहा था कि घर आए और मुझे पुलिस जीप से मुक्ति मिले. अब तक मैं काफी परेशान हो चुका था.

आखिर घर आया. जीप दरवाजे पर रुकी. मेरा छोटा बेटा पुलिस को देख कर डरता है. वह घर में भागा और दादी को पुलिस के आने की सूचना दी.

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मां, दौड़ीदौड़ी बाहर आईं. मैं तब तक जीप से उतर कर दरवाजे पर आ गया था. उन्होंने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या बात है. तुम पुलिस की जीप में क्यों बैठे थे? किसी से झगड़ा तो नहीं हुआ. मारपीट तो नहीं हो गई. कहीं चोट तो नहीं लगी है. फिर तो सिपाही घर नहीं आएंगे?’’

‘‘मां, तुम तो यों ही डर रही हो,’’ मैं ने मां को सारी बात बताई.

वे बोलीं, ‘‘मैं तो डर ही गई थी. आजकल पुलिस बिना बात लोगोें को परेशान करती है. अखबार में मैं रोज ऐसी घटनाएं पढ़ती रहती हूं. गुंडेबदमाशों का तो पुलिस कुछ कर नहीं पाती और भले लोगों को सताती है.’’

‘‘अरे, नहीं मां, रामहर्षजी ऐसे आदमी नहीं हैं. वे मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. तभी तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था. वे कभी किसी को बेमतलब परेशान नहीं करते.’’

‘‘चलो, ठीक है,’’ बात समाप्त हो गई.

घर आ कर मैं ने कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और बैठक में बैठ कर चाय पीने लगा.

‘‘टन…टन…टन…’’ घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला.

‘‘आइए, आइए, आज कहां भूल पड़े,’’ मैं ने हंस कर रामपाल सिंह से कहा. रामपाल सिंह मेरे फुफेरे भाई हैं.

बैठक में आ कर कुरसी पर बैठते ही रामपाल सिंह बोले, ‘‘भाई, मैं तो घबरा कर आया हूं. लड़के ने तुम को नई सड़क पर पुलिस जीप से जाते देखा था. पुलिस बगल में बैठी थी. क्या बात थी. तुम्हें पुलिस क्यों ले जा रही थी? मैं यही जानने आया हूं्.’’

मैं ने रामपाल सिंह को सारा किस्सा बताया. फिर यह कहा, ‘‘मुझे पुलिस जीप में बैठा देख कर न जाने किसकिस ने क्याक्या सोचा होगा और न जाने कौनकौन परेशान हुआ होगा.’’

‘‘तब आप को पुलिस जीप में नहीं बैठना चाहिए था. जिस ने देखा होगा, उसे ही भ्रम हुआ होगा. हमलोग अध्यापक हैं,’’ वे बोले.

‘‘आप ठीक कहते हैं भाई साहब, मुझे अपने किए पर बहुत दुख हुआ. आज मैं ने यही अनुभव किया. आज मैं ने कान पकड़ लिए हैं. ऐसा नहीं होगा कि फिर कभी किसी पुलिस जीप में बैठूं.’’

मैं अभी बात कर ही रहा था कि हमारे एक पड़ोसी घबराए हुए आए और मेरा हालचाल पूछने लगे. चाय फिर से आ गई थी और तीनों चाय पी रहे थे. पुलिस जीप में बैठने की बात मैं अपने पड़ोसी को भी बता रहा था. मेरी बात पड़ोसी सुन कर खूब हंसे.

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मैं पुलिस जीप में क्या बैठा, एक आफत ही मोल ले ली. एक बूढ़ी महिला मेरी मां से इसी बारे में पूछने आईं, एक पड़ोसिन ने श्रीमतीजी से पूछा और एक महाशय ने रात के 11 बजे फोन कर के बगल वाले घर में बुलाया, क्योंकि मेरे घर में फोन नहीं है. मैं मोबाइल रखता हूं जिस का नंबर उन के पास नहीं था. फोन पर उन्होंने पूरी जानकारी ली.

2 व्यक्ति दूसरे दिन भी मेरा हालचाल लेने आए, ‘‘भाई साहब, हम तो डर ही गए थे इस बात को सुन कर.’’

तीसरे दिन दोपहर को एक महाशय जानकारी लेने आए और कालेज में प्रिंसिपल ने पूरी जानकारी ली.

यद्यपि इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि शहर में मेरे प्रति लोगों की बड़ी अच्छी धारणा है तथा मेरे शुभचिंतकों की संख्या काफी अधिक है, पर अब मैं ने 2 प्रतिज्ञाएं भी की हैं, पहली, कि मैं कभी लोभ नहीं करूंगा और दूसरी, कि कभी पुलिस की जीप में नहीं बैठूंगा. पहली प्रतिज्ञा में कभी गड़बड़ी हो भी जाए, पर दूसरी प्रतिज्ञा का तो आजीवन पालन करूंगा.

रामहर्षजी गुदौलिया में बाद में भी मिले हैं और उन्होंने जीप में बैठने का प्रेमपूर्वक आग्रह भी किया है, पर मैं किसी न किसी बहाने टाल गया. जरा से लोभ के लिए अब प्रतिज्ञा तोड़ कर परेशानी में न पड़ने की कसम जो खा रखी है.

आशियाना

‘‘मालकिन, आप के पैरों में अधिक दर्द हो तो तेल लगा कर मालिश कर दूं?’’

‘‘हूं,’’ बस, इतना ही निकला नंदिता के मुंह से.

‘‘तेल गरम कर के लाती हूं,’’ कह कर राधा चली गई. राधा को जाते देख कर नंदिता सोचने लगी कि आज के इस मशीनी युग में प्यार खत्म हो गया है. भावनाओं, संवेदनाओं का मोल नहीं रहा. ऐसे में प्रेम की वर्षा से नहलाने वाला एक भी प्राणी मिल जाए तो अच्छा लगता है. नंदिता के अधर मौन थे पर मन में शब्दों की आंधी सी चल रही थी. मन अतीत की यादों में मुखर हो उठा था. कभी इस घर में बहुत रौनक रहती थी. बहुत ध्यान रखने वाले पति मोहन शास्त्री और दोनों बेटों, आशीष और अनुराग के साथ नंदिता को समय का पता ही नहीं चलता था.

मोहन शास्त्री संस्कृत के अध्यापक थे. वे खुद भी इतिहास की अध्यापिका रही थीं. दोनों स्कूल से अलगअलग समय पर घर आते, पर जो भी पहले आता, घर और बच्चों की जिम्मेदारियां संभाल लेता था.

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अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और मोहन शास्त्री का निधन हो गया. यह एक ऐसा गहरा वज्रपात था जिस ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था. एक पल को ऐसा लगा था जैसे शरीर बेजान हो गया और वे बस, एक लाश बन कर रह गई थीं. सालों से रातदिन का प्यारा साथ सहसा सामने से गायब हो अनंत में विलीन हो जाए, तो हृदयविदारक अनुभूति ही होती है.

समय की गति कितनी तीव्र होती है इस का एहसास इनसान को तब होता है जब वह किसी के न रहने से उत्पन्न हुए शून्य को अनुभूत कर ठगा सा खड़ा रह जाता है. बच्चों का मुंह देख कर किसी तरह हिम्मत रखी और फिर अकेले जीना शुरू किया.

दोनों बेटे बड़े हुए, पढ़लिख कर विदेश चले गए और पीछे छोड़ गए एक बेजान बुत. जब दोनों छोटे थे तब उन्हें मां की आवश्यकता थी तब वे उन पर निस्वार्थ स्नेह और ममता लुटाती रहीं और जब उम्र के छठे दशक में उन्हें बेटों की आवश्यकता थी तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ गए. अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई, सोचतेसोचते उन की आंखें नम हो जातीं.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने संसार के सभी मोह बेबस हो कर हथियार डाल देते हैं पर यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. भर्राई आवाज में जब उन्होंने पूछा था, ‘मैं अकेली कैसे रहूंगी?’ तो दोनों बेटे एक सुर में बोले थे, ‘अरे, राधा है न आप के पास. और कौन सा हम हमेशा के लिए जा रहे हैं. समय मिलते ही चक्कर लगा लेंगे, मां.’

नंदिता फिर कुछ नहीं बोली थीं. भागदौड़ भरे उन के जीवन में भावनाओें की शायद कोई जगह नहीं थी.

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दोनों चले गए थे. वे एक तरफ बेजान बुत बन कर पड़ी रहतीं. उन्हें कुछ नहीं चाहिए था सिवा दो प्यार भरे शब्द और बच्चों के साथ कुछ पलों के. रात को सोने जातीं तो उन की आंखें झरझर बहने लगतीं. सोचतीं, कभी मोहनजी का साथ, बेटों की शरारतों से उन का आंगन महका करता था और अब यह सन्नाटा, कहां विलुप्त हो गए वे क्षण.

अकेलेपन की पीड़ा का जहर पीते हुए, बेटों की उपेक्षा का दंश झेलते हुए समय तेज गति से चलता हुआ उन्हें यथार्थ की पथरीली भूमि पर फेंक गया.

दोनों बेटे पैसे भेजते रहते थे. उन्हें अपनी पैंशन भी मिलती रहती थी. उन का गुजारा अच्छी तरह से हो जाता था. उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें रुपएपैसे से कोई मोह नहीं था. वे तो बस, अकेलेपन से व्यथित रहतीं. कभीकभी आसपड़ोस की महिलाओं से तो कभी अपनी साथी अध्यापिकाओं से मिल लेती थीं, लेकिन उस के बाद फिर खालीपन. पूरे घर में वे और उन की विधवा बाई राधा थी. न कोई बच्चा न कोई सहारा देने वाला रिश्तेदार. राधा को भी उन की एक सहेली ने कुछ साल पहले भेजा था. उन्हें भी घर के कामधंधे के लिए कोई चाहिए था, सो अब राधा घर के सदस्य की तरह नंदिता को प्रिय थी.

जीवन किसी सरल रेखा सा नहीं चल सकता, वह अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ ले लेता है.

‘‘मालकिन, मैं तेल के साथ चाय भी ले आई हूं. मैं तेल लगाती हूं, आप चाय पीती रहना,’’ राधा की आवाज से उन की तंद्रा टूटी. इतने में ही पड़ोस की मधु आ गई. वह अकसर चक्कर काट लेती थी. अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कभीकभी उन के पास खड़ी हो दोचार बातें करती फिर चली जाती. नंदिताजी को उस पर बड़ा स्नेह हो चला था. उन्होंने यह भी महसूस किया कि मधु कुछ गंभीर है, बोलीं, ‘‘आओ मधु, क्या हुआ, चेहरा क्यों उतरा हुआ है.’’

‘‘आंटी, मेरी मम्मी की तबीयत खराब है और मुझे आज ही गांव जाना है. अनिल और बच्चे भी मेरे साथ जा रहे हैं लेकिन मेरी ननद पिंकी की परीक्षाएं हैं, उसे अकेले घर में नहीं छोड़ सकती. अगर आप को परेशानी न हो तो कुछ दिन पिंकी को आप के पास छोड़ जाऊं.’’

‘‘अरे, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आराम से जाओ, पिंकी की बिलकुल भी चिंता मत करो.’’

मधु चली गई और पिंकी अपना सामान ले कर नंदिता के पास आ गई. पिंकी के आते ही घर का सन्नाटा दूर हो गया और नंदिता का मन चहक उठा. पिंकी की परीक्षाएं थीं, उस के खानेपीने का ध्यान रखते हुए नंदिता को अपने बेटों की पढ़ाई का जमाना याद आ जाता फिर वे सिर झटक कर अपनेआप को पिंकी के खानेपीने के प्रबंध में व्यस्त कर लेतीं. एक पिंकी के आने से उन की और राधा की दिनचर्या में बहुत बदलाव आ गया था. पिंकी फुर्सत मिलते ही नंदिता के पास बैठ कर अपने कालेज की, अपनी सहेलियों की बातें करती.

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एक हफ्ते बाद मधु लौट आई तो पिंकी अपने घर चली गई. घर में अब फिर पहले सा सन्नाटा हो गया. इस सन्नाटे को राधा की आवाजें ही तोड़ती थीं. अन्यथा वे चुपचाप रोज के जरूरी काम निबटा कर अपने कमरे में पड़ी रहती थीं. टीवी देखने का उन्हें ज्यादा शौक नहीं था. वैसे भी जब मन दुखी हो तो टीवी भी कहां अच्छा लगता है.

मधु ने पिंकी का ध्यान रखने के लिए नंदिता आंटी को कई बार धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘मधु, धन्यवाद तो मुझे भी कहना चाहिए. एक हफ्ता पिंकी के कारण मन लगा रहा.’’

नंदिता से बात करने के बाद मधु थोड़ी देर सोचती रही, फिर बोली, ‘‘आंटी, आजकल कितनी ही लड़कियां पढ़ने और नौकरी करने को बाहर निकलती हैं. आप क्यों नहीं ऐसी लड़कियों को पेइंगगेस्ट रख लेतीं. आप का समय भी कट जाएगा और आर्थिक रूप से भी ठीक रहेगा.’’

‘‘नहीं मधु, मुझे पैसे की जरूरत नहीं है, मेरा काम अच्छी तरह से चल जाता है.’’

‘‘ठीक है आंटी, लेकिन आप का मन अच्छा रहेगा तो आप शारीरिक रूप से भी स्वयं को स्वस्थ महसूस करेंगी.’’

‘‘ठीक है, देखती हूं.’’

‘‘बस, आंटी, बाकी काम अब मुझ पर छोड़ दीजिए,’’ कह कर मधु चली गई.

4 दिन बाद ही मधु एक बोर्ड बनवा कर लाई जिस पर लिखा था, ‘आशियाना.’ और नंदिता को दिखा कर बोली, ‘‘देखिए आंटी, आप का खालीपन मैं कैसे दूर करती हूं. अब आप के आसपास इतनी चहलपहल रहेगी कि आप ही शांति का एक कोना ढूंढें़गी.’’

नंदिता मुसकरा दीं, अंदर गईं, वापस आ कर मधु को कुछ रुपए दिए तो उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘आंटी, आप के लिए मेरी भावनाओं का यही महत्त्व है?’’

‘‘अरे, बेटा, बोर्ड वाले को तो देने हैं न? उसी के लिए हैं. तुम्हारी भावनाओं, प्रेम और आदर को मैं किसी मूल्य से नहीं आंक सकती. इस वृद्धा के जीवन के सूनेपन को भरने के लिए तुम्हारे इस सराहनीय कदम का कोई मोल नहीं है.’’

‘‘आंटी, आप ऊपर के कमरे साफ करवा लीजिए. अब मैं चलती हूं, बोर्ड वाले को एक बोर्ड पिंकी के कालेज के पास लगाने को कहा है और यह वाला बोर्ड बाहर लगवा दूंगी,’’ मधु यह कह कर चली गई.

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नंदिता ने पता नहीं कब से ऊपर जाना छोड़ा हुआ था. ऊपर बेटों के कमरों को बंद कर दिया था. आज वे ऊपर गईं, कमरे खोले तो पुरानी यादें ताजा हो आईं. राधा के साथ कमरों की सैटिंग ठीक की, साफसफाई करवाई और फिर नीचे आ गईं.

एक हफ्ते बाद पिंकी आई तो उस के साथ 2 लड़कियां और 1 महिला भी आई. पिंकी बोली, ‘‘आंटी, ये मेरे कालेज में नई आई हैं और इन के मम्मीपापा इन्हें होस्टल में रहने की इजाजत नहीं दे रहे हैं.’’

उस के बाद साथ आई महिला बोली, ‘‘आप के यहां मेरी बच्चियां रहेंगी तो हमें चिंता नहीं होगी. मधुजी ने बताया है कि आप के यहां दोनों सुरक्षित रहेंगी और अब तो देख कर बिलकुल चिंता नहीं रही. बस, आप कहें तो ये कल से ही आ जाएं?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘हां, हां, क्यों नहीं?’’

‘‘तो ठीक है. ये अपना सामान ले कर कल आ जाएंगी,’’ यह कह कर वह चली गई.

अगले दिन ही नीता और ऋतु सामान ले कर आ गईं और राधा खुशीखुशी उन का सामान ऊपर के कमरों में सैट करवाने लगी.

नंदिताजी दोनों लड़कियों के खाने की पसंदनापसंद पूछ कर सोचने लगीं कि चलो, अब इन लड़कियों के बहाने खाना तो ढंग से बन जाया करेगा. शाम को अमेरिका से बड़े बेटे का फोन आया तो उन्होंने इस बारे में उसे बताया. वह कहने लगा, ‘‘मां, क्या जरूरत थी आप को इन चक्करों में पड़ने की, आप को आराम करना चाहिए.’’

‘‘यह आराम ही तो मुझे परेशान कर रहा था, इस में बुरा क्या है?’’ आशीष ने फोन रख दिया था. छोटे बेटे अनुराग को भी उन की यह योजना पसंद नहीं आई थी लेकिन नंदिता ने दोनोें की पसंद की चिंता नहीं की.

नीता और ऋतु शाम को आतीं तो नीचे ही नंदिता के साथ खाना खातीं, कुछ बातें करतीं फिर ऊपर चली जातीं. दोनों नंदिता से खूब घुलमिल गई थीं, उन के मातापिता के फोन आते रहते और नंदिताजी से भी उन की बात होती रहती. अब नंदिता को घर में, अपने जीवन में अच्छा परिवर्तन महसूस होता. वे अब खुश रहने लगी थीं.

15 दिन बाद ही एक और लड़की अवनि भी अपना बैग उठाए चली आई और सब बातें समझ कर नंदिता के हाथ में एडवांस रख दिया. नंदिता ने सब से पहले राधा की मदद के लिए एक और महिला चंपा को रख लिया. तीनों लड़कियां सुबह नाश्ता कर के जातीं फिर शाम को ही आतीं. सब के मातापिता को यह तसल्ली थी कि लड़कियों को साफसुथरा घर का खाना मिल रहा है.

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नंदिता की कोई बेटी तो थी नहीं, अब हर रोज लड़कियों और उन के क्रियाकलापों को देखते रहने का लोभ वे संवरण न कर पातीं. लड़कियों के शोर में उन्हें जीवन का संगीत सुनाई देता, नई उमंग और इस संगीत ने उन के जीवन में नई उमंग, नया जोश भर दिया था.

दुबलीपतली, बड़ीबड़ी आंखों वाली, सुतवां नाक और गौरवर्णा अवनि उन के मन में बस गई. नीता और ऋतु हंसती, खिलखिलाती रहतीं लेकिन अवनि बस, हलका सा मुसकरा कर रह जाती और हमेशा सोच में घिरी दिखती. अवनि की मां की मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता फोन पर नंदिता से संपर्क बनाए रखते. गांव में ही वे अवनि के छोटे भाईबहन के साथ रहते थे. बिना मां की बच्ची से नंदिता को विशेष स्नेह था.

इधर कुछ दिनों से नंदिता देख रही थीं कि अवनि कालेज भी देर से जा रही थी और असमय लौट कर चुपचाप ऊपर अपने कमरे में पड़ी रहती थी. उन लड़कियों के व्यक्तिगत जीवन में नंदिता हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थीं लेकिन जब रहा नहीं गया तो नीता और ऋतु के जाने के बाद ऊपर गईं, देखा, अवनि आंखों पर हाथ रखे चुपचाप लेटी है. आहट पा कर उठ कर बैठ गई.

नंदिता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, अवनि? तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, कालेज जाने का मन नहीं था.’’

‘‘चलो, अगर तबीयत ठीक नहीं है तो डाक्टर को दिखा देती हूं.’’

‘‘नहीं, आंटी, आप परेशान न हों, मैं ठीक हूं.’’

नंदिता उस के बैड पर बैठ गईं. उस के सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘मैं अकेली जिंदगी काट रही थी, तुम लोग आए तो मैं फिर से जी उठी. सिर्फ पैसे दे कर पेइंगगेस्ट बनने की बात नहीं है, तुम लोगों से मैं जुड़ सी गई हूं. मेरी तो कोई बेटी है नहीं, तुम्हें देखा तो बेटी की कमी पूरी हो गई. मुझे भी अपनी मां की तरह समझ लो, किसी बात पर अकेले परेशान होने की जरूरत नहीं है, मुझ से अपनी परेशानी शेयर कर सकती हो.’’

अवनि सुबक उठी, घुटनों पर सिर रख कर रो पड़ी. एक बार तो नंदिता चौंक पड़ी, कहीं यह लड़की कोई गलती तो नहीं कर बैठी, यह विचार आते ही नंदिता मन ही मन परेशान हो गईं, फिर बोलीं, ‘‘अवनि, मुझे बताओ तो सही.’’

‘‘आंटी, मुझ से गलती हो गई है, मैं प्रैग्नैंट हूं. मैं पापा को क्या मुंह दिखाऊंगी.’’

‘‘कौन है, कहां रहता है?’’ नंदिताजी ने पूछा.

‘‘इसी शहर में रहता है. कह रहा है कि उस की मम्मी कभी अपनी जाति से बाहर इस विवाह के लिए तैयार नहीं होंगी.’’

‘‘तुम मुझे उस का पता और फोन नंबर तो दो.’’

‘‘नहीं, आंटी. संजय ने कहा है कि वह अपनी मम्मी से बात नहीं कर सकता, अब कुछ नहीं हो सकता.’’

‘‘सारी सामाजिक संहिताओं को फलांग कर तुम ने अच्छा तो नहीं किया लेकिन अब तुम मुझे उस का पता दो और फ्रेश हो कर कालेज जाओ, देखती हूं क्या हो सकता है.’’

नंदिता ने अवनि को कालेज भेजा और अवनि को बिना बताए उस के पिता केशवदास को फौरन आने के लिए कहा.

मधु को भी बुला कर उस से विचारविमर्श किया. शाम तक केशवदास आ गए. नंदिता ने उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया. केशवदास यह सब सुन कर सकते में आ गए और शर्मिंदा हो गए. उन की झुकी हुई गरदन देख कर नंदिता ने उन की मानसिक दशा का अंदाजा लगा कर कहा, ‘‘क्यों न एक बार संजय के मातापिता से मिल लिया जाए, आप कहें तो मैं और मधु भी चल सकते हैं.’’

केशवदास को यह बात ठीक लगी और तय हुआ कि एक बार कोशिश की जा सकती है. उसी दिन नंदिता ने संजय की मम्मी से फोन कर के मिलने का समय मांगा. इतने में अवनि लौट आई और अपने पापा को देख कर चौंक गई. केशवदास का झुका हुआ चेहरा देख कर अवनि की आंखों से आंसू बह निकले.

रात को नंदिता और मधु केशवदास के साथ संजय के घर गए. नंदिता को देख कर संजय की मम्मी चौंक पड़ीं. नंदिता उस का चौंकना समझ नहीं सकीं. नीता, संजय की मम्मी, हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘‘मैडम, आप ने मुझे नहीं पहचाना?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘सौरी, वास्तव में मैं ने आप को नहीं पहचाना.’’

‘‘मैडम, मैं नीता भारद्वाज, मुझे आप ने ही पढ़ाया था, 12वीं में पूरा साल मेरी फीस आप ने ही भरी थी.’’

‘‘हां, याद आया. नीता इतने साल हो गए, तुम इसी शहर में हो, कभी मिलने नहीं आईं.’’

‘‘नहीं मैडम, अभी 1 साल पहले ही हम यहां आए हैं. कई बार सोचा लेकिन मिल नहीं पाई.’’

नीता के पिता की मृत्यु के बाद उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी जिस का पता चलने पर नंदिता ही नीता की फीस भर दिया करती थीं. नीता और उस की मां उन की बहुत एहसानमंद थीं. लेकिन अब घर के रखरखाव से आर्थिक संपन्नता झलक रही थी. नीता ने कहा, ‘‘संजय मेरा इकलौता बेटा है और उस के पिता रवि इंजीनियर हैं जो अभी आफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’

‘‘हां, मैं संजय के बारे में ही बात करने आई थी, क्या करता है आजकल?’’

‘‘अभी कुछ ही दिन पहले उसे नौकरी मिली है.’’

अब तक नीता का नौकर चाय ले कर आ चुका था. नंदिता ने सारी बात नीता को बता दी थी और कहा, ‘‘नीता, मैं आशा करती हूं जातिधर्म के विचारों को एक ओर रख कर तुम अवनि को अपना लोगी.’’

‘‘मैडम, अब आप चिंता न करें, आप का कहना क्या मैं कभी टाल सकती हूं?’’

सब के दिलों से बोझ हट गया. नीता ने कहा, ‘‘मैं रवि से बात कर लूंगी. मैं जानती हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. हां, मैं अवनि से कल आ कर जरूर मिलूंगी और जल्दी ही विवाह की तिथि निश्चित कर लूंगी. मैडम, अब आप बिलकुल चिंता न करना, आप जैसा चाहेंगी वैसा ही होगा.’’

सब चलने के लिए उठ खड़े हुए. केशवदास ने कहा, ‘‘आप लोगों का एहसान कभी नहीं भूलूंगा, आप विवाह की तिथि तय कर के बता दीजिए, विवाह की भी तैयारी करनी होगी.’’

नंदिताजी मुसकराईं और बोलीं, ‘‘आप को ही नहीं मुझे भी तैयारी करनी है, मैं ने उसे बेटी जो कहा है.’’

केशवदास लौट गए, नंदिता और मधु भी घर आ गए. नंदिता ने अवनि को यह समाचार दिया तो वह चहक उठी और उन के गले लग गई, ‘‘थैंक्यू, आंटी.’’

वे अब बहुत खुश थीं. उन्होंने जीवन की कठोर सचाई को अपनाकर पुरानी यादों को मन के एक कोने में दबा कर रख दिया था और नईनई प्यारी खिलखिलाती यादों के साथ जीना शुरू कर दिया था. वे अब यह जान चुकी थीं कि जिन्हें प्रेम का, ममता का मान रखना नहीं आता, उन पर स्नेह लुटा कर अपनी ममता का अपमान करवाना निरी बेवकूफी है. अब उन्हें अवनि के विवाह की भी तैयारियां करनी थीं. इस उत्साह में उन के जोड़ों के दर्द ने भी हार मान ली थी. आराम तो उन्हें अब मिला था उकताहट से, दर्द से, घर में पसरे सन्नाटे से.

अब उन का ‘आशियाना’ खिल- खिलाता रहेगा, हंसता रहेगा, बोलता रहेगा लड़कियों के साथ और उन के साथ. अब उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं, किसी के प्रति क्रोध नहीं. जीवन की छोटीछोटी खुशियों में ही बड़ी खुशी खोज लेना, यही तो जीवन है.

मां और मोबाइल

‘‘मेरा मोबाइल कहां है? कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें इधरउधर मत किया करो पर तुम सुनती कहां हो,’’ आफिस जाने की हड़बड़ी में मानस अपनी पत्नी रोमा पर बरस पड़े थे.

‘‘आप की और आप के बेटे राहुल के कार्यालय और स्कूल जाने की तैयारी में सुबह से मैं चकरघिन्नी की तरह नाच रही हूं, मेरे पास कहां समय है किसी को फोन करने का जो मैं आप का मोबाइल लूंगी,’’ रोमा खीझपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘‘तो कहां गया मोबाइल? पता नहीं यह घर है या भूलभुलैया. कभी कोई सामान यथास्थान नहीं मिलता.’’

‘‘क्यों शोर मचा रहे हो, पापा? मोबाइल तो दादी मां के पास है. मैं ने उन्हें मोबाइल के साथ छत पर जाते देखा था,’’ राहुल ने मानो बड़े राज की बात बताई थी.

‘‘तो जा, ले कर आ…नहीं तो हम दोनों को दफ्तर व स्कूल पहुंचने में देर हो जाएगी…’’

पर मानस का वाक्य पूरा हो पाता उस से पहले ही राहुल की दादी यानी वैदेहीजी सीढि़यों से नीचे आती हुई नजर आई थीं.

‘‘अरे, तनु, मेरे ऐसे भाग्य कहां. हर घर में तो श्रवण कुमार जन्म लेता नहीं,’’ वे अपने ही वार्त्तालाप में डूबी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे देर हो रही है,’’ मानस अधीर स्वर में बोले थे.

‘‘पता है, इसीलिए नीचे आ रही हूं. तान्या से बात करनी है तो कर ले.’’

‘‘मैं बाद में बात कर लूंगा. अभी तो मुझे मेरा मोबाइल दे दो.’’

‘‘मुझे तो जब भी किसी को फोन करना होता है तो तुम जल्दी में रहते हो. कितनी बार कहा है कि मुझे भी एक मोबाइल ला दो, पर मेरी सुनता ही कौन है. एक वह श्रवण कुमार था जिस ने मातापिता को कंधे पर बिठा कर सारे तीर्थों की सैर कराई थी और एक मेरा बेटा है,’’ वैदेहीजी देर तक रोंआसे स्वर में प्रलाप करती रही थीं पर मानस मोबाइल ले कर कब का जा चुका था.

‘‘मोबाइल को ले कर क्यों दुखी होती हैं मांजी. लैंडलाइन फोन तो घर में है न. मेरा मोबाइल भी है घर में. मैं भी तो उसी पर बातें करती हूं,’’ रोमा ने मांजी को समझाना चाहा था.

‘‘तुम कुछ भी करो बहू, पर मैं इस तरह मन मार कर नहीं रह सकती. मैं किसी पर आश्रित नहीं हूं. पैंशन मिलती है मुझे,’’ वैदेही ने अपना क्रोध रोमा पर उतारा था पर कुछ ही देर में सब भूल कर घर को सजासंवार कर रोमा को स्नानगृह में गया देख कर उन्होंने पुन: अपनी बेटी तान्या का नंबर मिलाया था.

‘‘हैलो…तान्या, मैं ने तुम से जैसा करने को कहा था तुम ने किया या नहीं?’’ वे छूटते ही बोली थीं.

‘‘वैदेही बहन, मैं आप की बेटी तान्या नहीं उस की सास अलका बोल रही हूं.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ वे एकाएक हड़बड़ा गई थीं.

‘‘तान्या कहां है?’’ किसी प्रकार उन के मुख से निकला था.

‘‘नहा रही है. कोई संदेश हो तो दे दीजिए. मैं उसे बता दूंगी.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है, मैं कुछ देर बाद दोबारा फोन कर लूंगी,’’ वैदेही ने हड़बड़ा कर फोन रख दिया था. पर दूसरी ओर से आती खनकदार हंसी ने उन्हें सहमा दिया था.

‘कहीं छोकरी ने बता तो नहीं दिया सबकुछ? तान्या दुनियादारी में बिलकुल कच्ची है. ऊपर से यह फोन. स्थिर फोन में यही तो बुराई है. घरपरिवार को तो क्या सारे महल्ले को पता चल जाता है कि कहां कैसी खिचड़ी पक रही है. मोबाइल फोन की बात ही कुछ और है…किसी भी कोने में बैठ कर बातें कर लो.’ उन की विचारधारा अविरल जलधारा की भांति बह रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘हैलो मां, मैं तान्या. मां ने बताया कि जब मैं स्नानघर में थी तो आप का फोन आया था. कोई खास बात थी क्या?’’

‘‘खास बात तो कितने दिनों से कर रही हूं पर तुम्हें समझ में आए तब न. अरे, जरा अक्ल से काम लो और निकाल बाहर करो बुढि़या को. जब देखो तब तुम्हारे यहां पड़ी रहती है. कब तक उस की गुलामी करती रहोगी?’’

‘‘धीरे बोलो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो बुरा मानेंगी.’’

‘‘फोन पर हम दोनों के बीच हुई बात को कैसे सुनेगी वह?’’

‘‘छोड़ो यह सब, शनिवाररविवार को आप से मिलने आऊंगी तब विस्तार से बात करेंगे. जो जैसा चल रहा है चलने दो. क्यों अपना खून जलाती हो.’’

‘‘मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूं पर तुम लोगों को बुरा लगता है तो आगे से नहीं कहूंगी,’’ वैदेही रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, क्यों मन छोटा करती हो. हम सब आप का बड़ा सम्मान करते हैं. यथाशक्ति आप की सलाह मानने का प्रयत्न करते हैं पर यदि आप की सलाह हमारा अहित करे तो परेशानी हो जाती है.’’

‘‘लो और सुनो, अब तुम्हें मेरी बातों से परेशानी भी होने लगी. ठीक है, आज से कुछ नहीं कहूंगी,’’ वैदेही ने क्रोध में फोन पटक दिया था और मुंह फुला कर बैठ गई थीं.

‘‘क्या हुआ, मांजी, सब ठीक तो है?’’ उन्हें दुखी देख कर रोमा ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों? तुम्हें कैसे लगा कि सब ठीक नहीं है?’’ वैदेही ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही पूछ लिया.

‘‘आप का मूड देख कर.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. छिप कर मेरी बातें सुनते हो तुम लोग. इसीलिए तो मोबाइल लेना चाहती हूं मैं.’’

‘‘मैं ने आज तक कभी किसी का फोन वार्त्तालाप नहीं सुना. आप को दुखी देख कर पूछ लिया था. आगे से ध्यान रखूंगी,’’ रोमा तीखे स्वर में बोली और अपने काम में व्यस्त हो गई.

वैदेही बेचैनी से तान्या के आने की प्रतीक्षा करती रही कि कब तान्या आए और कब वे उस से बात कर के अपना मन हलका करें पर जब सांझ ढलने लगी और तान्या नहीं आई तो उन का धीरज जवाब देने लगा. मानस सुबह से अपने मोबाइल से इस तरह चिपका था कि उन्हें तान्या से बात करने का अवसर ही नहीं मिल रहा था.

‘‘मुझे अपनी सहेली नीता के यहां जाना है, मांजी. मैं सुबह से तान्या दीदी की प्रतीक्षा में बैठी हूं पर लगता है कि आज वे नहीं आएंगी. आप कहें तो मैं थोड़ी देर के लिए नीता के घर हो आऊं. उस का बेटा बीमार है,’’ रोमा ने आ कर वैदेही से अनुनय की तो वे मना न कर सकीं.

रोमा को घर से निकले 10 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि तान्या ने कौलबेल बजाई.

‘‘लो, अब समय मिला है तुम्हें मां से मिलने आने का? सुबह से दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हूं. आंखें भी पथरा गईं.’’

‘‘इस में टकटकी लगा कर बैठने की क्या बात थी, मां?’’ मानस बोल पड़ा, ‘‘आप मुझ से कहतीं मैं तान्या दीदी से फोन कर के पूछ लेता कि वे कब तक आएंगी.’’

‘‘लो और सुनो, सुबह से पता नहीं किसकिस से बात कर रहा है तेरा भाई. सारे काम फोन कान से चिपकाए हुए कर रहा है. बस, सामने बैठी मां से बात करने का समय नहीं है इस के पास.’’

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो सदासर्वदा आप की सेवा में मौजूद रहता हूं. फिर राहुल है, रोमा है जितनी इच्छा हो उतनी बात करो,’’ मानस हंसा.

‘‘2 बेटों, 2 बेटियों का भरापूरा परिवार है मेरा पर मेरी सुध लेने वाला कोई नहीं है. यहां आए 2 सप्ताह हो गए मुझे, तान्या को आज आने का समय मिला है.’’

‘‘मेरा बस चले तो दिनरात आप के पास बैठी रहूं. पर आजकल बैंक में काम बहुत बढ़ गया है. मार्च का महीना है न. ऊपर से घर मेहमानों से भरा पड़ा है. 3-4 नौकरों के होने पर भी अपने किए बिना कुछ नहीं होता,’’ तान्या ने सफाई दी थी.

‘‘इसीलिए कहती हूं अपने सासससुर से पीछा छुड़ाओ. सारे संबंधी उन से ही मिलने तो आते हैं.’’

‘‘क्या कह रही हो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो गजब हो जाएगा. बहुत बुरा मानेंगी.’’

‘‘पता नहीं तुम्हें कैसे शीशे में उतार लिया है उन्होंने. और 2 बेटे भी तो हैं, वहां क्यों नहीं जा कर रहतीं?’’

‘‘जौय और जोषिता को मांजी ने बचपन से पाल कर बड़ा किया है. अब तो स्थिति यह है कि बच्चे उन के बिना रह ही नहीं पाते. दोचार दिन के लिए भी कहीं जाती हैं तो बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को कठपुतली बना कर रखा है उन्होंने. जैसा चाहते हैं वैसा नचाते हैं दोनों. सारा वेतन रखवा लेते हैं. दुनिया भर का काम करवाते हैं. यह दिन देखने के लिए ही इतना पढ़ायालिखाया था तुम्हें?’’

‘‘किसी ने जबरदस्ती मेरा वेतन कभी नहीं छीना है मां. उन के हाथ में वेतन रखने से वे लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं और मेरे सासससुर भी वह पैसा अपनी जेब में नहीं रख लेते बल्कि उन्हें हमारे पर ही खर्च कर देते हैं. जो बचता है उसे निवेश कर देते हैं. ’’

‘‘पर अपना पैसा उन के हाथ में दे कर उन की दया पर जीवित रहना कहां की समझदारी है?’’

‘‘मां, आप क्यों तान्या दीदी के घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करती हैं,’’ इतनी देर से चुप बैठा मानस बोला था.

‘‘अरे, वाह, अपनी बेटी के हितों की रक्षा मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा. पर मेरी बेटी तो समझ कर भी अनजान बनी हुई है.’’

‘‘मां, मैं आप के सुझावों का बहुत आदर करती हूं पर साथ ही घर की सुखशांति का विचार भी करना पड़ता है.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. अपनी समस्याएं क्या कम हैं, जो आप तान्या दीदी की समस्याएं सुलझाने लगीं? और मां, आप ने तो दीदी के आते ही अपने सुझावों की बमबारी शुरू कर दी. न चाय, न पानी…कुछ तो सोचा होता,’’ मानस ने मां को याद दिलाया.

‘‘रोमा अभी तक लौटी नहीं जबकि उसे पता था कि तान्या आने वाली है. फोन करो कि जल्दी से घर आ जाए.’’

‘‘फोन करने की जरूरत नहीं है. वह स्वयं ही आ जाएगी. उस की मां आई हुई हैं, उन से मिलने गई है.’’

‘‘मां आई हुई हैं? मुझ से तो कह कर गई है कि नीता का बेटा बीमार है. उसे देखने जा रही है.’’

‘‘उसे भी देखने गई है. कई दिनों से सोच रही थी पर जा नहीं पा रही थी. नीता के घर के पास रोमा के दूर के रिश्ते के मामाजी रहते हैं. वे बीमार हैं और रोमा की मम्मी उन्हें देखने आई हुई हैं.’’

‘‘ठीक है, सब समझ में आ गया. मां से मिलने जा रही हूं यह भी तो कह कर जा सकती थी, झूठ बोल कर जाने की क्या आवश्यकता थी. रोमा अपना फोन तो ले कर गई है?’’

‘‘हां, ले गई है.’’

‘‘ला, अपना फोन दे तो मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘क्या बात करेंगी आप? वह अपनेआप आ जाएगी,’’ मानस ने तर्क दिया.

‘‘फोन कर दूंगी तो जल्दी आ जाएगी. तान्या आई है तो खाना खा कर ही जाएगी न…’’

‘‘आप चिंता न करें मां, मैं खाना नहीं खाऊंगी. आप को जो खाना है मैं बना देती हूं,’’ तान्या ने उन्हें बीच में ही टोक दिया.

‘‘फोन तो दे मानस, रोमा से बात करनी है,’’ वैदेही जिद पर अड़ी थीं.

‘‘एक शर्त पर मोबाइल दूंगा कि आप रोमा से कुछ नहीं कहेंगी. बेचारी कभीकभार घर से बाहर निकलती है. दिनभर घर के काम में जुटी रहती है.’’

‘‘ठीक है, रोमा को कुछ नहीं कहूंगी, उस की मां से बात करूंगी. कहूंगी आ कर मिल जाएं. बहुत लंबे समय से मिले नहीं हम दोनों.’’

मां को फोन थमा कर मानस और तान्या रसोईघर में जा घुसे थे.

‘‘हैलो रोमा, तुम नीता के बीमार बेटे से मिलने की बात कह कर गई थीं. सौदामिनी बहन के आने की बात तो साफ गोल कर गईं तुम,’’ वैदेही बोलीं.

‘‘नहीं मांजी, ऐसा कुछ नहीं था. मुझे लगा, आप नाराज होंगी,’’ रोमा सकपका गई.

‘‘लो भला, मांबेटी के मिलने से भला मैं क्यों नाराज होने लगी? सौदामिनी बहन को फोन दो जरा. उन से बात किए हुए तो महीनों बीत गए,’’ वैदेहीजी का अप्रत्याशित रूप से मीठा स्वर सुन कर रोमा का धैर्य जवाब देने लगा था. उस ने तुरंत फोन अपनी मां सौदामिनी को थमा दिया था.

‘‘नमस्ते, सौदामिनी बहन. आप तो हमें भूल ही गईं,’’ उन्होंने उलाहना दिया.

‘‘आप को भला कैसे भूल सकती हूं दीदी, पर दुनिया भर के पचड़ों से समय ही नहीं मिलता.’’

‘‘तो यहां तक आ कर क्या हम से मिले बिना चली जाओगी? मेरा तो सब से मिलने को मन तरसता रहता है. इसीलिए बच्चों से कहती हूं एक मोबाइल ला दो, कम से कम सब से बात कर के मन हलका कर लूंगी.’’

रसोईघर में भोजन का प्रबंध करते मानस और तान्या हंस पड़े थे, ‘‘मां फिर मोबाइल पुराण ले कर बैठ गईं, लगता है उन्हें मोबाइल ला कर देना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं ने भी कई बार सोचा पर डरती हूं अपना मोबाइल मिलते ही वे हम भाईबहनों का तो क्या, अपने खानेपीने का होश भी खो बैठेंगी.’’

‘‘मुझे दूसरा ही डर है. फोन पर ऊलजलूल बात कर के कहीं कोई नया बखेड़ा न खड़ा कर दें.’’

‘‘जो भी करें, उन की मर्जी है. पर लगता है कि अपने अकेलेपन से जूझने का इन्होंने नया ढंग ढूंढ़ निकाला है.’’

‘‘चलो, तान्या दीदी, आज ही मां के लिए मोबाइल खरीद लाते हैं. इन का इस तरह फोन के लिए बारबार आग्रह करना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चाय तैयार है. चाय पी कर चलते हैं, भोजन लौट कर करेंगे,’’ तान्या ने स्वीकृति दी थी.

‘‘मैं रोमा और जीजाजी दोनों को फोन कर के सूचित कर देता हूं कि हम कुछ समय के लिए बाहर जा रहे हैं.’’

‘‘कहां जा रहे हो तुम दोनों?’’ वैदेही ने अपना दूरभाष वार्त्तालाप समाप्त करते हुए पूछा.

‘‘हम दोनों नहीं, हम तीनों. चाय पियो और तैयार हो जाओ, आवश्यक कार्य है,’’ मानस ने उन का कौतूहल शांत करने का प्रयत्न किया.

वे उन्हें मोबाइल की दुकान पर ले गए तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. मानो कोई मुंह में लड्डू ठूंस दे और उस का स्वाद पूछे.

वैदेहीजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे लंबे समय से अपने मनपसंद खिलौने के लिए मचलते बच्चे को उस का मनपसंद खिलौना मिल गया हो.

उन्होंने अपनी पसंद का अच्छा सा मोबाइल खरीदा जिस से अच्छे छायाचित्र खींचे जा सकते थे. घर के पते आदि का सुबूत देने के बाद उन के फोन का नंबर मिला तो उन का चेहरा खिल उठा.

‘‘आप को अपना फोन प्रयोग में लाने के लिए 24 घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,’’ सेल्समैन ने बताया तो वे बिफर उठीं.

‘‘यह कौन सी दुकान पर ले आए हो तुम लोग मुझे? इन्हें तो फोन चालू करने में ही 24 घंटे लगते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं है, मां जहां आप ने इतने दिनों तक प्रतीक्षा की है एक दिन और सही,’’ तान्या ने समझाना चाहा.

‘‘तुम नहीं समझोगी. मेरे लिए तो एक क्षण भी एक युग की भांति हो गया है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

घर पहुंचते ही फोन को डब्बे से निकाल कर उस के ऊपर मोमबत्ती जलाई गई. फिर बुला कर सब में मिठाई बांटी, मानो मोबाइल का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ था और उस के चालू होने की प्रतीक्षा की जाने लगी.

यह कार्यक्रम चल ही रहा था कि रोमा, सौदामिनी और अपने मामा आलोक बाबू के साथ आ पहुंची.

वैदेही का नया फोन आना ही सब से बड़ा समाचार था. उन्होंने डब्बे से निकाल कर सब को अपना नया मोबाइल फोन दिखाया.

‘‘कितना सुंदर फोन है,’’ राहुल तो देखते ही पुलक उठा.

‘‘दादी मां, मुझे भी दिया करोगी न अपना मोबाइल?’’

‘‘कभीकभी, वह भी मेरी अनुमति ले कर. छोटे बच्चों पर नजर रखनी पड़ती है न सौदामिनी बहन.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ सौदामिनी ने सिर हिला दिया था.

‘‘सच कहूं, तो आज कलेजा ठंडा हो गया. यों तो राहुल को छोड़ कर सब के पास अपनेअपने मोबाइल हैं. पर अपनी चीज अपनी ही होती है. आयु हो गई है तो क्या हुआ, मैं ने तो साफ कह दिया कि मुझे तो अपना मोबाइल फोन चाहिए ही. मैं क्या किसी पर आश्रित हूं? मुझे पैंशन मिलती है,’’ वे देर तक सौदामिनी से फोन के बारे में बातें करती रही थीं.

कुछ देर बाद सौदामिनी और आलोक बाबू ने जाने की अनुमति मांगी थी.

‘‘आप ने फोन किया तो लगा कि यहां तक आ कर आप से मिले बिना जाना ठीक नहीं होगा,’’ सौदामिनी बोलीं.

‘‘यही तो लाभ है मोबाइल फोन का. अपनों को अपनों से जोड़े रखता है,’’ वैदेही ने उत्तर दिया.

‘‘चिंता मत करना. अब मेरे पास अपना फोन है. मैं हालचाल लेती रहूंगी.’’

‘‘मैं भी आप को फोन करती रहूंगी. आप का नंबर ले लिया है मैं ने,’’ सौदामिनी ने आश्वासन दिया था.

हाथ में अपना मोबाइल फोन आते ही वैदेही का तो मानो कायाकल्प ही हो गया. उन का मोबाइल अब केवल वार्त्तालाप का साधन नहीं है. उन के परिचितों, संबंधियों और दोस्तों के जवान बेटेबेटियों का सारा विवरण उन के मोबाइल में कैद है. वे चलताफिरता मैरिज ब्यूरो बन गई हैं. पहचान का दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि किसी का भी कच्चा चिट्ठा निकलवाना हो तो लोग उन की ही शरण में आते हैं.

‘‘इस बुढ़ापे में भी अपने पांवों पर खड़ी हूं मैं. साथ में पैंशन भी मिलती है,’’ वे शान से कहती हैं. और एक राज की बात. उन के पास अब एक नहीं 5 मोबाइल फोन हैं जो पहले दूरभाष पर उन के लंबे वार्त्तालाप का उपहास करते थे अब उसी गुण के कारण उन का सम्मान करने लगे हैं.

मैं नहीं जानती

पूर्व कथा

दिल्ली से दूर नदी के एकांत होटल में दिव्या 1 सप्ताह गुजार देती है तो वहां उसे देवयानी मिल जाती है. वह बताती है कि अब वह यहीं रह रही है, सो वह उस से जिद करती है कि होटल में नहीं उस के घर में रहे लेकिन दिव्या उसे टाल देती है. वह होटल आ कर अतीत में खो जाती है. पीएच.डी. कर दिव्या कालेज में जौब करती है. जब वह एम.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी, देवयानी का महेश के साथ विवाह हो गया था?. वह खुश थी. दिव्या की चाहत थी कि देवयानी की तरह उसे भी खुशमिजाज परिवार मिले. उसे मिला भी लेकिन वह सुख, शांति, प्यार, सम्मान नहीं. कामेश विवाह के 3 दिन बाद ही दिव्या को नौकरी न करने का अल्टीमेटम दे देता है.

कामेश समय पर घर आते नहीं, दिव्या प्रतीक्षा करतेकरते सो जाती. देर रात कामेश का स्पर्श उसे बिच्छू के डंक सा लगता. उस ने दिव्या की जरूरत को कभी समझा ही नहीं.

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एक दिन दिव्या को देवयानी का फोन आता है कि कामेश का अंबाला ट्रांसफर हो गया है, वे अंबाला ट्रेन से जा रहे हैं. इसलिए मिलने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आ जाए. दिव्या और कामेश स्टेशन पहुंच कर मुलाकात करते हैं. दिव्या महेश और देवयानी से हंसहंस कर बातें करती है. कामेश दिव्या को ताना देता है कि ‘ऐसी खुश तो तुम कभी नहीं होतीं, जितनी महेश की बातें सुन कर हो रही हो.’ कामेश का यह ताना दिव्या को अच्छा नहीं लगा. अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

भैया-भाभी के विवाह की 25वीं सालगिरह थी. बहुत बार कहने पर कामेश जाने को तैयार हुए. उस खुशी भरे माहौल में भी मैं घुटीघुटी सी रही. मुखौटा लगाए चेहरे पर मुसकान लाने का प्रयत्न करती रही कि कोई मेरी मनोस्थिति को भांप न ले…डरतीडरती रही. सांची की परीक्षा थी सो देवयानी नहीं आई. महेश अकेला आया था. मैं उस से बचती रही. मैं जानती थी कामेश की नजरें मेरा पीछा कर रही होंगी. मैं ऐसी स्थिति से खासकर बचना चाहती थी जो उन्हें ताने मारने का अवसर दे.

खुश रहना और खुशियां बांटना बुरा है क्या? महेश यही तो करता है. फंक्शन पार्टी में भी वह अपने खुलेपन और खुशमिजाज के कारण छाया रहा. हरेक के साथ अपनेपन से मिलता रहा, बातें करता रहा, हंसता रहा, हंसाता रहा. वहीं कामेश चुपचाप अपने में ही सीमित बैठे रहे. मैं भी उन के साथसाथ ही रही.

मैं कामेश का साथ चाहती थी. ये 2 दिन वे पूरी तरह से मेरे साथ थे. फिर भी खुश नहीं थी तो कामेश के कारण, उन की चुप्पी के कारण. सब से अलगथलग रहने के कारण. मैं चाहती थी वे सब के साथ मिल कर बैठें, उन से बात करें. एक बार धीरे से कहा भी लेकिन उन के उत्तर ने चुप करा दिया था. कहने लगे, ‘तुम्हारे भैयाभाभी के विवाह की सालगिरह है, तुम खुशियां मनाओ. मैं ने मना तो नहीं किया.’

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यह कहना क्या कम था. फिर उन से मैं ने कुछ नहीं कहा.

आज पीछे मुड़ कर देखती हूं तो सोचती हूं, क्यों सहा मैं ने इतना कुछ. अब बंधन तोड़ कर चली आई हूं तो क्या इतने बरसों में कामेश की तानाशाही को नहीं तोड़ सकती थी. उन की हर गलत बात का जवाब क्यों नहीं दे पाई मैं. पढ़लिख कर भी रूढि़यों में बंधी रही, अपने अधिकारों से वंचित रही. बच्चों तक ने मुझे गंवार समझ लिया. मेरे त्याग, मेरी ममता को वे भी नहीं समझ पाए. उन के लिए, कामेश के लिए, एक जरूरत की वस्तु बन कर रह गई मैं.

मैं ने जीवन में क्या पाया? शून्यता, रीतापन, तृष्णा से भरा मन. सामने सागर बहता रहा और मैं प्यासी की प्यासी ही रही. उस का खारापन मुझे सालता रहा. शांत बहती नदी अच्छी लगती है लेकिन पानी की अधिकता से उफनती वही नदी किनारों को तोड़ विनाश का रूप धारण कर लेती है. सबकुछ बहा कर ले जाती है. मेरा मन भी जब तक शांत था, शांत था. भीतर ही भीतर सुप्त ज्वालामुखी पनपता रहा जिस ने एक न एक दिन मन की सीमाओं को तोड़ना ही था. उस ने एक दिन फटना था और वह फट गया. पानी किनारों को लांघ कर दूरदूर तक बहने लगा था.

निक्की की शादी के बाद मेरे जीवन में और सूनापन आ गया. अपनी खुशियां उस के चेहरे पर देखती थी. जो मैं नहीं पा सकी, चाहती थी वह पा ले. वह तो अपना जीवन पूरी तरह जी ले. उस की हर इच्छा को पूरा करती रही.

जिस दिन मुझे पता चला कि निक्की और विनीत एकदूसरे को चाहते हैं, मैं ने उन्हें एक करने की ठान ली थी. विनीत को घर पर बुला कर उस से बात की. उस के मातापिता के बारे में जानकारी ली. उसे समझाया कि यदि वह निक्की से सच में प्यार करता है तो उसे अपने मातापिता से बात करनी होगी. वह निक्की का रिश्ता मांगने हमारे घर आएंगे ताकि कामेश को पता न चले कि यह लवमैरिज है.

विनीत इस के लिए मान गया और फिर यह सब इस तरह से हो गया कि किसी को पता ही नहीं चला.

निक्की अपने घर में खुश थी. मैं भी उस की खुशी में अपनी खुशियां ढूंढ़ रही थी. देवयानी की बात हमेशा याद आती रही, ‘दीदी, हर पल में खुशी ढूंढ़ो…जो मिल जाए उस क्षण को जी भर कर जी लो. बड़ीबड़ी खुशियों की तलाश में छोटीछोटी खुशियां, जो हमारे चारों ओर बिखरती रहती हैं, हम उन्हें अनदेखा कर जाते हैं. वे हमारे हाथ से निकल जाती हैं और हम मुंह ताकते रह जाते हैं.’

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ऐसा ही तो हुआ था मेरे साथ. मैं ने बड़ी खुशी की तलाश में छोटीछोटी खुशियों के अवसर भी खो दिए. अवसाद में डूबी रही. अपनी प्रतिभा, रचनात्मकता सब भूल गई. मैं ने उन की ओर ध्यान ही नहीं दिया और जीवन की डोर मेरे हाथ से छूटती गई.

निक्की की शादी के बाद मैं नए सिरे से अपने जीवन को पहचानने की कोशिश करने लगी थी. मैं निक्की और विनीत का विवाह करवा सकती हूं. कामेश को इस की भनक नहीं लगने दी तो अपने जीवन की इस ढलान पर ही सही, मैं आत्मतुष्टि के लिए कुछ क्यों नहीं कर सकती, खुशियां क्यों नहीं तलाश सकती भला.

मैं प्रयास करने भी लगी. ढेर सारी पुस्तकें मंगवा ली थीं. घरगृहस्थी के कामों से समय निकाल कर पढ़ती रहती. कुछकुछ लिखने भी लगी थी. खालीपन को भरने का इस से अच्छा रास्ता कोई और नहीं था लेकिन कई बार न चाहते हुए भी एक के बाद एक मुसीबत आ खड़ी होती है. मेरे साथ भी वही हुआ. कामेश ने एक दिन मेरी डायरी देख ली और मुझ पर बिफर पड़े थे.

चिल्ला कर बोले थे, ‘तुम मेरे साथ इतनी दुखी हो जो अपनी पीड़ा को इन कागजों पर उतार कर मुझे जलील करना चाहती हो. चाहती क्या हो तुम? मैं ने तुम्हें क्या नहीं दिया. किस बात की कमी है तुम्हें, आखिर दुनिया को क्या बताना चाहती हो तुम.’

जीवन भर चुप्पी साधे रहे और सारा आक्रोश एक ही दिन में निकाल दिया. डायरी के पन्नों को फाड़ कर आग में झोंक दिया. मैं हतप्रभ उन्हें देखती रही. कुछ कह नहीं सकी, पर मेरी आत्मा अंदर से चीख रही थी. मेरा रोमरोम कराह रहा था.

पता नहीं मुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई थी. अगली सुबह अर्णव, गौरव के चले जाने के बाद मैं ने एक नोट लिख कर टेबल पर रखा. अटैची में कुछ कपड़े रखे और घर से बाहर आ गई.

मैं जानती हूं, जो कुछ मैं ने किया है वह इस समस्या का हल नहीं है. पलायन करने से समस्याएं नहीं सुलझतीं. पर मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था. भाग जाना चाहती थी, अपने ही घर से, दूर रहना चाहती थी. इसलिए सबकुछ छोड़ कर चली आई. 1 सप्ताह में ही मैं जैसे पूरा जी ली. बस, अब और बंधन नहीं. मुक्ति चाहिए मुझे.

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ठक…ठक…ठक…दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ सोचने लगी, बैरा होगा. उसे रुकने के लिए कहा. दोबारा दस्तक हुई, तो जा कर दरवाजा खोला. सामने देवयानी खड़ी थी.

‘‘इतनी सुबहसुबह, कोई और काम नहीं था तुम्हें.’’

‘‘आप भी दीदी, आप से ज्यादा और कोई काम हो सकता है भला. आप को लेने आई हूं. चलिए, जल्दी से सामान बांधिए.’’

‘‘नहीं, देवयानी, मैं यहां ठीक हूं. मिलने आ जाऊंगी.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता, दीदी, मेरे रहते आप यहां नहीं रहेंगी. यह मेरा अंतिम फैसला है.’’

मेरे कुछ कहने से पहले ही देवयानी मेरा सामान एक जगह जमा करने लगी.

मैं उसे कैसे समझाती कि तुम्हारे घर जाने से मेरी समस्याएं और बढ़ जाएंगी. चैकआउट कर के मैं उस के साथ चल दी.

उस के घर जा कर भी मैं अनमनी सी रही. खाना खा कर सो गई. दोपहर बाद उठी तो ड्राइंगरूम से जानीपहचानी आवाज आ रही थी. झांक कर देखा तो कामेश सामने बैठे थे. उलटे पांव कमरे में आ गई. हृदय की धड़कन बढ़ गई. पता नहीं कामेश, देवयानी और महेश के सामने कैसा व्यवहार करेंगे. मेरा दिल डूबने लगा लेकिन मैं संभल गई. जब इतना कदम उठा लिया है तो उस का सामना करने का साहस भी होना चाहिए. पर कामेश को पता कैसे चला कि मैं यहां हूं. हो सकता है देवयानी ने बता दिया हो. कल शाम मुझे अकेला देख कर वह हैरान तो हो गई थी. मुझे विश्वास हो गया कि उसी का काम है. मुझे उस पर गुस्सा आने लगा. मुझे यहां से चले जाना चाहिए. सामान मेरा बंधा हुआ था. मैं बाहर जाने का रास्ता देखने लगी. तभी सामने कामेश आ गए. मैं मुंह मोड़ कर खड़ी हो गई. उस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी, जो अभी आने वाली थी.

मैं ने महसूस किया. कामेश मेरे बिलकुल पीछे आ कर चुपचाप खड़े हो गए. मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहने लगे, ‘‘अपने घर चलो दिव्या. तुम्हारे बिना घर घर ही नहीं लगता. तुम्हारे चले आने पर मुझे पता चला कि मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं. कहांकहां नहीं ढूंढ़ा तुम्हें. तुम्हें मुझ से कोई शिकायत थी तो कहा क्यों नहीं.’’

‘‘आप ने कभी मौका दिया मुझे. हमेशा ही मुझे चुप रहने को कहा. किस से शिकायत करती,’’ मैं ने पहली बार अपनी आवाज में गुस्सा लाते हुए कहा.

‘‘यह मेरी गलती थी. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, दिव्या. मैं ने सदैव अपने बारे में ही सोचा. तुम्हारे बारे में सोचा ही नहीं. तुम पर एकाधिकार समझा. व्यस्तता का लबादा ओढ़े, तुम से दूरदूर ही रहा. अपने अनुसार तुम को ढालने का प्रयत्न करता रहा. तुम्हारा अपना जीवन है, कभी सोचा ही नहीं. तुम चली आईं तो यह सब जाना. मैं ने जो अन्याय किया है मैं उस के लिए माफी मांगता हूं.’’

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‘‘मैं कैसे विश्वास कर लूं कि आप जो कह रहे हैं वह सच है. सोच इतनी जल्दी तो नहीं बदल जाती.’’

‘‘तुम से दूर रह कर मेरी सोच बदल गई है दिव्या,’’ कहते हुए कामेश ने मेरा मुंह अपनी ओर फेर लिया. मैं ने उन की आंखों में तैरते हुए आंसू देखे. शायद वे आंसू पश्चात्ताप के थे. मैं धीरेधीरे पिघलने लगी थी.

कदम से कदम मिला कर चलने की चाह बलवती हो रही थी. ठगी जाऊंगी या कदम मिला कर चल सकूंगी, नहीं जानती. पर यह जो खुशी का क्षण आया है उसे नहीं जाने दूंगी.

राशनकार्ड की महिमा

रसोई गैस का सिलेंडर लेने के लिए राशनकार्ड जरूरी हो गया था. चूंकि जिंदा रहने के लिए भोजन अतिआवश्यक है, सो राजगोपालजी राशनकार्ड दफ्तर के चक्कर लगाने लगे. दफ्तर वालों ने आवेदन की औपचारिकता में उन्हें बुरी तरह उलझा दिया था. वे बिचौलियों के इर्दगिर्द घूमे, फिर भी काम न बना तो उन्होंने राशनकार्ड को ही अपने जीने का मकसद बना लिया और इसी धुन में लगे रहे.

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मुझे चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी समझ से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई झिझक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. झांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मुझे दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने समझाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम समझ गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’

हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी समझ से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

झोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे.

रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान समझेंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मुझे आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और झमेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मुझे भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब समझा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने झिड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सुझाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मुझे दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

 राज गोपाल काटजू  

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