भला सा अंत: भाग 1

लेखिका- रेणु दीप

मनमौजी काली जब मन आता रानी को अपने निश्छल प्रेम की बूंदों से भिगो देता और मन आता तो दुत्कार देता. बेचारी रानी काली के स्वभाव से दुखी तो थी ही, साथ ही उस का फक्कड़पन उसे भीतर तक तोड़ देता. फिर भी जीवन पथ पर अकेली कठिनाइयों से जूझती रानी हर बार अपने ही दिल के हाथों हार जाती.

रविवार की सुबह मरीजों की चिंता कम रहती है. अत: सुबह टहलते हुए मैं रानी के घर की ओर चल दिया. वह एक शिशु रोगी के उपचार के बारे में कल मुझ से बात कर रही थी इसलिए सोचा कि आज उस बारे में रानी के साथ तसल्ली से बात हो जाएगी और काली के साथ बैठ कर मैं एक प्याला चाय भी पी लूंगा.

मैं काली के घर के दरवाजे पर थपकी देने ही वाला था कि घर के भीतर से आ रही काली की आवाज को सुन कर मेरे हाथ रुक गए.

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‘‘रानी प्लीज, इस गजरे को यों बेकार मत करो, कितनी मेहनत से फूलों को चुन कर मैं ने मालिन से कह कर तुम्हारे लिए यह गजरा बनवाया है. बस, एक बार इसे पहन कर दिखा दो. आज बरसों बाद मन में पुरानी हसरत जागी है कि एक बार फिर तुम्हें फूलों के गजरे से सजा देखूं.

‘‘मैं तुम्हारे इस रूप को सदासदा के लिए अपनी आंखों में कैद कर लूंगा और जब हम 80 साल के हो जाएंगे तब मन की आंखों से मैं तुम्हारे इस सजेधजे रूप को देख कर खुश हो लूंगा.’’

काली की बातें सुन कर मुझे हंसी आ रही थी. यह काली भी इतना उग्र हो गया कि 20 साल का बेटा होने को आया लेकिन इस का शौकीन मिजाज अभी तक बरकरार है.

‘‘आप यह क्या बचकानी बातें कर रहे हैं? अब क्या इन फूलों से बने गजरे पहनने व सजने की मेरी उम्र है? जब आशीष की बहू आएगी तब उसे रोज नए गहनों से सजानाधजाना,’’ रानी ने हंसते हुए काली से कहा था.

‘‘तो तुम ऐसे नहीं मानोगी. लाओ, मैं ही तुम्हें गजरों से सजा देता हूं,’’ कहते हुए शायद काली रानी को जबरन फूलों से सजा रहा था और वह उन्मुक्त हो कर जोरों से खिलखिला रही थी.

रानी का यह खिलखिला कर हंसना सुन मन भीतर तक सुकून से भर गया था.

उन दोनों को इस प्यार भरी तकरार के बीच छेड़ना अनुचित समझ मैं उन के घर के दरवाजे तक पहुंच कर भी वापस लौट गया था. मेरा मनमयूर कब अतीत में उड़ कर चला गया, मुझे एहसास तक नहीं हुआ था.

काली मेरा बचपन का अंतरंग मित्र था. रानी उस की पत्नी थी. काली, रानी और मैं, हम तीनों एक अनाम, अबूझ रिश्ते में जकड़े हुए थे. काली के घर छोड़ कर जाने के बाद मैं ने ही रानी को मानसिक संबल दिया था. वह किसी भी तरह मेरे लिए सगी छोटी बहन से कम नहीं थी.

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16 साल की कच्ची उम्र में रानी मेरे पड़ोस वाले मकान में काली के साथ ब्याह कर आई थी. ब्याह कर आने के बाद रानी ने काली की गृहस्थी बहुत सुगढ़ता से संभाली लेकिन काली ने उसे पत्नी का वह मान- सम्मान नहीं दिया जिस की वह हकदार थी.

काली एक फक्कड़, मस्तमौला स्वभाव का इनसान था. मन होता तो महीनों रानी को सिरआंखों पर बिठा कर उस की छोटी से छोटी इच्छा पूरी करता. उसे दुनिया भर का हर सुख देता. सुंदर कपड़ों और गहनों में सजेसंवरे उस के अपूर्व रूपरंग को निहारता और फिर मेरे पास आ कर रानी की सुंदरता और मधुर स्वभाव की प्रशंसा करता.

मुझ से काली के जीवन का कोई पहलू अछूता नहीं था. यहां तक कि मूड में होने पर रानी के साथ बिताए हुए अंतरंग क्षणों की वह बखिया तक उधेड़ कर रख देता. काली खानेपीने का भी बहुत शौकीन था. वह जब भी घर पर होता, रसोई में स्वादिष्ठ पकवानों की महक उड़ती रहती. हम दोनों के घर के बीच बस, एक दीवार का फासला था इसलिए काली के साथ मुझे भी आएदिन रानी के हाथ के बने स्वादिष्ठ व्यंजनों का आनंद मिला करता.

अच्छे मूड में काली, रानी को जितना सुखसुकून देता, मूड बिगड़ने पर उस से दोगुना दुख भी देता. गुस्सा होने के लिए छोटे से छोटा बहाना उस के लिए काफी था. अत्यधिक क्रोध आने पर वह घर छोड़ कर चला जाता और हफ्तों घर वापस नहीं आता था. काली की मां अपने बेटे के इस व्यवहार से बेहद दुखी रहा करती और रानी उस के वियोग में रोरो कर आंखें सुजा लेती.

वैसे काली की कपड़ों की एक दुकान थी लेकिन उस के मनमौजी होने की वजह से दुकान आएदिन बंद रहा करती और आखिर वह हमेशा के लिए बंद हो गई.

काली ज्योतिषी का धंधा भी करता था और इस ठग विद्या का हुनर उस ने अपने पिता से सीखा था. उस का दावा था कि उसे ज्योतिष में महारत हासिल है. लोगों के हाथ, मस्तक की रेखाएं तथा जन्मकुंडली देख कर वह उन के भूत, भविष्य और वर्तमान का लेखाजोखा बता देता तो लोग खुश हो कर उसे दक्षिणा में मोटी रकम पकड़ा जाते. शायद यही वजह थी कि कपड़े की दुकान पर मेहनत करने के बजाय उस ने लोगों को ठगने के हुनर को अपने लिए बेहतर धंधा समझा.

काली जब तक घर में रहता पैसों की कोई कमी नहीं रहती लेकिन उस के घर से जाने के बाद घरखर्च बड़ी मुश्किल से चलता, क्योंकि तब आमदनी का एकमात्र जरिया पिता की पेंशन रह जाती थी जो बहुत थोड़ी सी उस को मिलती थी.

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रानी की जिंदगी की गाड़ी हंसतेरोते आगे बढ़ती जा रही थी. बेटे के सनकी स्वभाव की वजह से बहू को रोते देख उस की सास का मन भीतर तक ममता से भीग जाया करता. वह अपनी तरफ से बहू को हर सुख देने की कोशिश करतीं लेकिन अपने बाद उस की स्थिति के बारे में सोचतीं तो भय से कांप उठती थीं.

रानी ने आगे पढ़ने का निश्चय किया तो उस की सास ने कहा, ‘अच्छा है, आगे पढ़ोगी तो व्यस्त रहोगी. इधरउधर की बातों में मन नहीं भटकेगा. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करो.’

मैं ने भी रानी को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. सो, उस ने पढ़ना शुरू कर दिया और 12वीं कक्षा में वह प्रथम श्रेणी में पास हुई. बहू की इस सफलता पर सास ने सभी रिश्तेदारों में लड्डू बंटवाए.

रानी मुझ से तथा मेरे डाक्टरी के पेशे से बहुत प्रभावित थी. वह खाली समय में घंटों मेरे क्लीनिक में बैठ कर मुझे रोगियों के उपचार में व्यस्त देखा करती और चिकित्सा संबंधी ढेरों प्रश्न मुझ से पूछती.

काली के आएदिनों के झगड़े से वह बहुत उदास रहने लगी तो एक दिन मुझ से बोली, ‘भाई साहब, आजकल वह मुझे बहुत दुख देते हैं. मूड अच्छा होने पर तो उन से बढि़या कोई दूसरा इनसान नहीं मिलेगा लेकिन मूड खराब होने पर बहाने ढूंढ़ढूंढ़ कर मुझ से लड़ते हैं. मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. मेरी जिंदगी में उन की बहुत अहमियत है. जब वह मुझ से गुस्सा हो जाते हैं तो मन होता है कि मैं आत्महत्या कर लूं.’

घोर निराशा के उन क्षणों में मैं ने रानी को समझाया था, ‘काली बहुत मनमौजी स्वभाव का फक्कड़ इनसान है लेकिन वह मन का बहुत साफ है. तुम काली को अपने जीवन में इतनी अहमियत मत दो कि उस के खराब मूड का असर तुम्हारे दिमाग और शिक्षा पर पड़े. निर्लिप्त रहो, व्यस्त रहो. 12वीं में तुम्हारे पास विज्ञान विषय था, क्यों न तुम एम.बी.बी.एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करो. डाक्टर बन कर तुम आत्मनिर्भर बन जाओगी. पैसों की तंगी नहीं रहेगी. काली को अपनी जिंदगी की धुरी मानना बंद कर दो, अपनी जिंदगी अपने बल पर जीना सीखो.’

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मेरी सलाह मान कर रानी ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी जोरशोर से शुरू कर दी. उस की मेहनत रंग लाई और वह प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई. मैं ने और उस की सास ने उस के इस काम में भरपूर सहयोग दिया और वह अपने ही शहर के प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में जाने लगी.

उस बार जो काली घर छोड़ कर गया तो 1 साल तक लौट कर नहीं आया. सुनने में आया कि वह बनारस में अपनी ज्योतिष विद्या का प्रदर्शन कर अपने दिन मजे से गुजार रहा था. कतिपय कारणों से जिस का भला हो गया उस ने काली को ज्योतिष का बड़ा जानकार माना. अनगिनत लोग उस के शिष्य बन गए थे तथा समाज में उसे बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता था. वह जिस रास्ते से गुजर जाता, लोग उस के पैरों पर झुकते नजर आते.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

मैं… मैं…

देश की छोड़ो, वह तो बहुत बड़ी चीज है. इंसान भी मैं मैं मैं कर रहा है. देश के प्रधानमंत्री हो या राज्य के मुख्यमंत्री! मुंह से सिर्फ मैं मै ही निकल रहा है. प्रधानमंत्री इत्ते ऊंचे पद पर पहुंच गए हैं मगर हम नहीं कहते. अमेरिका गए, ऑस्ट्रेलिया गए, जापान और नेपाल गए कहीं भी हम, हमारा देश हमारी मातृभूमि नहीं कहा. कहा तो सिर्फ, मैं मैं मैं .जिसमें कुछ भी सत्य समाहित नहीं है. देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच गए इतने बड़े ज्ञानी धुरंधर मगर मैं मैं मैं.

मैं सोचता हूं आखिर इंसान मे,- मैं मैं आया कहां से ? हर साधु महात्मा ज्ञानी यही कहता है कभी मैं मैं मैं मत करो, यह अज्ञान का प्रतीक है.मगर मुझे कोई भी नहीं मिलता जो मैं मैं मैं नहीं करता हो .

एक बड़े साहित्यकार फेसबुक पर हैं .मै उनकी कृपा दृष्टि पाने उनकी हर एक स्टेट्स पर लाइक करता हूं .आंखें मूंद कर बिना पढ़े लाइक करता .मैं सोचता मेरी लाइक से कभी तो पिघलेंगे. मैं अनवरत नाटक करता रहा. मगर उन्होंने कभी मेरी और झांका तक नहीं .मैं फोटो अपलोड करूं या कुछ लिखूं, कभी लाइक नहीं किया, मैं तरस गया एक लाइक के लिए.

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एक दिन उनके स्टेटस पर किसी क्षुब्ध आदमी ने विपरीत टिप्पणी कर दी .मैंने सोचा, आज मै को परखूंगा .मैंने उस टिप्पणी के खिलाफ टिप्पणी की .और चुपचाप इंतजार करने लगा. आश्चर्य, मै मैं पिघलने लगा, मेरी टिप्पणी को साहित्यकार ने लाइक किया । मैं समझ गया, वहां एक मैं नहीं, मैं मैं का साम्राज्य है.

हर जगह मैं मै है .हमारे एक मित्र हैं कहते हैं- एक बच्चे में भी मैं मै होता है .जिसको आप ने पैदा किया है, उसमें भी मैं मैं होता है, वह भी आपकी बेवजह मैं मैं को स्वीकार नहीं करता, उसका मैं में जागृत हो  उठता है . वे बड़े ज्ञानी पुरुष है . मैं देखता हूं वे हर किसी के मैं में को बड़ी चतुराई से शांत करते हैं . बात मनवानी हो तो चार बार रोहरा जी… रोहरा जी करते हैं .इतने मीठे स्वर में कि मैं समझ जाता हूं वे मेरे मै को जागृत करके अपनी मै की संतुष्टि करना चाहते हैं .

एक शख्स इतने पहुंचे हुए मै हैं की दावा करते हैं, दुनिया के किसी भी महिला को ज्यादा नहीं आधा एक घंटा अकेले बात करने का वक्त दिया जाए मैं उसे काबू में कर लूंगा. पहले मै, जब वह यह  कहते, तो मन ही मन हंसता, मगर तीन-चार प्रकरण अपनी आंखों से देखें, मैं डर गया .यह आदमी है या सम्मोहन का जानकार. वह कहता है कुछ मोहनी या सम्मोहन नहीं होता, यह बातों का मायाजाल है .मैं… मैं …बस उसके मैं… मैं… को पकड़ता हूं, सहलाता  हूं ,उत्सर्जित करता हूं बस…

शहर में एक प्रखर अखबार नवीस है. मैं… मैं… उनका विश्वामित्र की तरह नाक पर बैठा रहता है .लोग उक्त पंडित जी की मैं मैं को उनके क्रोध के कारण आंखें बंद करके सुनते रहते हैं. कौन अग्नि कुंड में हाथ डाले ? बहुतेरे बड़े पदों में हैं । पैसे वाले हैं . लोग उनकी मैं में को सिर्फ इसलिए सहते हैं की पद है रुपया है . मैं भी तब ही सर चढकर बोलता है जब उसे सत्ता का धन का रस्सा पकड़ में आ जाता है. लोग बड़े समझदार होते हैं, जानते हैं इनसे मुंह लगाना फिजूल हैसो आत्मसमर्पण कर देते हैं.

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ऐसे लोगों में आपका यह शुद्र लेखक भी है.मैं अपनी यह योग्यता पहचानता नहीं था.जब कभी किसी सत्ताधारी से साबका पड़ता, मै सरेंडर कर जाता उसकी हर गलत बात में भी हां में हां मिलाता .कभी विनम्रता से बात काटता, मगर दुबारा अड़ते ही मै आत्मसमर्पण कर जाता. किसी धनपति के यहां भी यही स्थिति होती, मैं उसकी हर सही-गलत बात की हां में हां कहता.

मैं यह मानता हूं की धनाढृय आदमी का, अपना मैं होता है. वह कभी भी मुझ जैसे साधारण लेखक की मैं में को स्वीकार नहीं कर सकता.

मेरे एक ज्ञानी मित्र ने मेरी इस चलाकी को पकड़ा और हंस-हंस कर मित्रों को बताता .मैं दांत निकाल कर हंसता मुस्कुराता .मैं भी अनेक प्रकार के होते हैं .मैं एक दुर्लभ एक सहज मै. मेरा में सरल किस्म का है .मेरी प्रकृति के लोग सुखी रहते हैं, समन्ववादी . मगर जकड़ने वाला मै मैं खतरनाक होता है .जो इसकी जद में आते हैं, वह उन्हें निगल जाता है .मैं कहां नहीं है. संसार का निर्माण, संहार और पालन करने वालों मैं भी मैं मैं और मैं है .

उनकी तीनों देवियों में भी, मैं मैं मै है .वेदों में, स्मृतियों में, महाभारत में भी तो मैं मै ही मिलता है. सारी लड़ाई और अस्तित्व  मैं को लेकर ही है . यह मेरा घर है, यह मेरी जमीन, यहां का मै मालिक,यह मेरी बपौती.

यह सब जानते हैं, यह संसार  क्षण भंगुर है. यह मै निरा बेझडपन है,मगर हर कोई मैं मैं मैं कर रहा है . साधु हो या महात्मा हो, मतदाता हो या नेता, अथवा अभिनेता सभी मै की परिक्रमा कर रहे हैं .और क्यों न करें, जब गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- मैं मृत्यु में भी हूं, जीवन में भी हूं, आग में भी हूं और पानी में भी .जब भगवान “मैं” को नहीं छोड़ सके, फिर हम आदम जात कैसे छोड़ सकते हैं.

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हमसफर: भाग 1

शादी में बस चंद दिन ही रह गए थे. पिछली बार जब पूजा अपने मंगेतर राहुल से मिली थी तो दोनों में यह तय हुआ था कि शादी के करीब होने से उन को अब मुलाकातों का सिलसिला रोक देना चाहिए. यह दुनियादारी के लिहाज से ठीक भी था.

इस आपसी फैसले को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि पूजा के पास राहुल का फोन आ गया. उस ने कहा, ‘‘पूजा, मैं आप से मिलना चाहता हं. कल शाम को 5 बजे मैं लाबेला कौफी हाउस में आप का इंतजार करूंगा. कुछ ऐसी बातें हैं जो शादी से पहले मेरे लिए आप को बतलाना बहुत जरूरी है.’’

‘‘क्या इन बातों को कहने के लिए शादी तक इंतजार नहीं हो सकता?’’

‘‘नहीं, ऐसी बातें शादी से पहले बतला देना जरूरी होता है.’’

मंगेतर के फोन से बेचैन पूजा को अगले दिन के इंतजार में रात भर नींद नहीं आई. आखिर क्या बतलाना चाहता था वह शादी से पहले उस को? अपने किसी अफेयर के बारे में तो नहीं? अगर इस तरह की कोई बात थी तो पहले की इतनी मुलाकातों में राहुल ने उस को क्यों नहीं बतलाई? अब जबकि शादी की तारीख बिलकुल सिर पर आ गई तो इस तरह की बात उस को बतलाने का क्या तुक और मकसद हो सकता था?

पूजा खुद से ही तरहतरह के सवाल लगातार पूछती रही.

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दूसरे दिन शाम को राहुल से मिलने के लिए घर से निकलते वक्त पूजा ने सुषमा भाभी को ही इस बारे में बतलाया. ‘लाबेला’ कौफी हाउस में पूजा पहले भी 2-3 बार राहुल के साथ बैठ चुकी थी. अत: उम्मीद के अनुसार राहुल कौफी हाउस में बाईं तरफ वाले कोने की एक मेज पर बैठा उस के आने का इंतजार कर रहा था.

टेबल की तरफ बढ़ती हुई पूजा तनाव और अनिश्चितता से घिर गई. बैठते ही बोली, ‘‘मैं सारी रात सो नहीं सकी. ऐसी क्या बात थी जो आप फोन पर नहीं कह सकते थे? मेरे मन में कई तरह के विचार आते रहे.’’

‘‘किस तरह के विचार?’’ राहुल ने पूछा. वह काफी थकाथका नजर आ रहा था.

‘‘मैं सोचती रही, शायद आप शादी से पहले अपने किसी अफेयर के बारे में मुझ से कुछ कहना चाहते हैं,’’ पूजा ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘एक लड़की होने के नाते आप इस से ज्यादा शायद सोच भी नहीं सकतीं.’’

‘‘फिर आप ही बतलाएं वह ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए आप शादी तक इंतजार नहीं कर सकते थे?’’

‘‘इंतजार में शायद बहुत देर हो जाती.’’

‘‘राहुल, आप की बातें पहेली जैसी क्यों हैं? जो भी आप कहना चाहते हैं खुल कर क्यों नहीं कहते?’’

‘‘अगर इस समय मैं आप से यह कहूं कि मैं आप से शादी नहीं कर सकता तो आप को कैसा लगेगा?’’ राहुल ने कहा.

‘‘मैं समझूंगी कि आप अच्छा मजाक कर लेते हैं.’’

‘‘मैं मजाक कभी नहीं करता,’’ राहुल ने कहा.

उस के शब्दों में छिपी संजीदगी से पूजा जैसे ठिठक सी गई. उसे सारी उम्मीदें और सपने बिखरते हुए लगे.

‘‘शादी से इनकार तो आप पहले दिन भी कर सकते थे, अब जब शादी की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. इस इनकार का मतलब?’’ सदमे की हालत में पूजा ने पूछा.

‘‘शायद अपनी झूठी और खोखली खुशियों की खातिर मैं आप की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता,’’ शून्य में देखते हुए राहुल ने कहा.

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‘‘बहुत खूब, आप को लगता है कि शादी के टूटने से मैं आबाद हो जाऊंगी,’’ पूजा ने कहा.

‘‘इनकार के पीछे की सचाई को जानने के बाद शायद आप को ऐसा ही लगे.’’

‘‘कैसी सचाई?’’

‘‘एक ऐसी सचाई जो पिछले 2 महीनों से मेरी अंतरात्मा को कचोट रही है. मैं आप को किसी धोखे में नहीं रखना चाहता. मुझे इस बात की भी परवा नहीं कि सच को जानने के बाद आप मुझ से नफरत करेंगी या हमदर्दी. असलियत यह है पूजा कि मैं एच.आई.वी. पोजिटिव हूं, मुझ को एड्स है. मौत मेरे काफी करीब है,’’ वीरान आंखों से पूजा को देखते हुए राहुल ने शांत स्वर में कहा.

पूजा को ऐसा लगा जैसे उस के सिर पर कोई बम फटा हो. गहरे सदमे की हालत में हक्कीबक्की सी वह राहुल के चेहरे को देखती रह गई. एक खौफ का सर्द एहसास पूजा को अपनी रगों में उतरता महसूस हुआ.

यह देख राहुल के अधरों पर एक फीकी मुसकराहट की रेखा खिंच गई. वह बोला, ‘‘अब मैं ने जब इस बदनाम और जानलेवा बीमारी का जिक्र आप से कर ही दिया है तो इस को ले कर जरूर आप के दिमाग में कुछ सवाल उठ रहे होंगे. सब से बड़ा सवाल तो यही होगा कि मुझ में ऐसी लाइलाज बीमारी आई कहां से? शायद आप को ऐसा लग रहा होगा कि मैं ने गंदी बाजारू औरतों से सेक्स संपर्क कर के इस बीमारी को अपने खून में दाखिल किया है. मगर ऐसा नहीं है. मैं ने कभी भी किसी औरत से सेक्स संपर्क नहीं किया. यह बीमारी तो उस संक्रामक खून का नतीजा है जो 2 वर्ष पहले एक एक्सीडेंट के बाद डाक्टरों की लापरवाही से मुझ को चढ़ा दिया गया था. मौत चुपके से मेरी धमनियों में उतर गई और मुझ को इस का पता भी नहीं चला.

‘‘मैं लगातार मौत के करीब जा रहा हूं, मगर मेरे घर के लोगों को मेरी बीमारी की कोई जानकारी नहीं. इसलिए जो हुआ उस में उन का जरा भी कुसूर नहीं. मैं भी असलियत को भूल कर कुछ समय के लिए स्वार्थी हो गया था मगर मेरी अंतरात्मा लगातार मुझ को कचोटती रही. यह शादी एक धोखे और पाप से ज्यादा कुछ नहीं होगी जो मैं नहीं करूंगा. इस के साथ ही उस एक बात को स्वीकार करने में मुझ को जरा भी हिचक नहीं कि आप को देखने और शादी की बात पक्की होने के बाद अपनी कल्पनाआें में मैं ने संपूर्ण जीवन जी लिया. मरने का शायद मुझे अब बहुत गम नहीं होगा.’’

जैसे ही राहुल ने अपनी बात खत्म की, खामोशी से सब सुन रही पूजा ने कहा, ‘‘आप ने अपनी बात तो कह दी, अपना फैसला भी सुना दिया लेकिन यह कैसे सोच लिया कि आप ने जो फैसला किया है वही मेरा फैसला भी होगा?’’

पूजा के शब्दों से हैरान राहुल खालीखाली नजरों से उस को देखने लगा.

पूजा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और बोली, ‘‘अगर आप में सच को कहने की हिम्मत है तो मुझ में भी सच का साथ देने की ताकत है. आप की जिंदगी का बाकी जितना भी सफर है उस में मैं आप को अकेला नहीं छोड़ूंगी. यह शादी हर हालत में होगी.’’

‘‘आप भावुकता में ऐसा कह रही हैं. आप को शायद ठीक से मालूम नहीं कि एड्स क्या है? लोग तो एड्स के शिकार व्यक्ति के पास भी नहीं फटकते और आप एक ऐसे व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हैं.’’

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‘‘मैं लोगों की तरह गलतफहमियों में नहीं जीती. एड्स किसी इनसान के साथ उठनेबैठने या उस के साथ खानेपीने से तो नहीं होता. शादी के बाद अगर हम पतिपत्नी के बजाय 2 दोस्तों की तरह रहेंगे और उन खास पलों से परहेज करेंगे जिन से इस बीमारी का दूसरे में जाने का अंदेशा होता है तो शादी के बंधन से हमें कोई भी समस्या नहीं होगी.

‘‘जिंदगी कितनी बाकी है? मौत कब आएगी, मेडिकल साइंस और डाक्टर इस की भविष्यवाणी नहीं कर सकते जो मौत कल आनी है उस के लिए आज की जिंदगी की कुर्बानी क्यों करें हम? जितना भी वक्त बचा है उसी में पूरी जिंदगी जीनी होगी अब आप को. मैं उस जिंदगी में आप की हमसफर रहूंगी, यह मेरा फैसला है,’’ राहुल के हाथ को अपने हाथों से दबाते पूजा ने दृढ़ स्वर में कहा.

पूजा के शब्दों से राहुल की उदास और बुझी आंखों में जिंदगी जीने की चमक आ गई.

पूजा ने राहुल के अंदर के विश्वास को बढ़ाने के लिए उस के हाथ को सहलाया ओर बोली, ‘‘जब मैं ने जिंदगी के सफर में आप का हमसफर बनने का फैसला कर लिया है तो एक वचन आप को भी मुझे देना होगा.’’

‘‘कैसा वचन?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘जैसे आप ने अब तक अपनी बीमारी को राज रखा है, शादी के बाद भी आप इस को ऐसे ही राज रखेंगे. इस के बारे में कभी भी अपनी जबान पर एक शब्द न लाएंगे.’’

‘‘इस से क्या होगा? मौत जैसेजैसे करीब होगी, बीमारी को लोगों से छिपाना आसान नहीं होगा. उन को कुछ तो जवाब देना ही होगा,’’ राहुल की आवाज में उदासी थी.

‘‘शादी के बाद वह सब देखना मेरा काम होगा. लोगों को क्या जवाब देना है, यह भी मैं ही देखूंगी. मगर आप किसी से कुछ नहीं कहेंगे.’’

‘‘अगर आप की ऐसी जिद है तो मैं वादा करता हूं कि मैं अपनी जबान पर कभी अपनी बीमारी का जिक्र नहीं लाऊंगा. मेरी कोशिश रहेगी कि मेरी बीमारी का राज मेरे साथ ही इस दुनिया से जाए,’’ राहुल ने कहा.

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एक सप्ताह बाद दोनों की शादी हो गई. शादी पूरी धूमधाम के साथ हुई. इस शादी के पीछे का भयानक सच उन दोनों के अलावा शादी में शामिल कोई भी तीसरा नहीं जानता था.

अग्नि के इर्दगिर्द शादी के फेरे लेते हुए दोनों के मस्तिष्क में कुछकुछ चल रहा था, मगर उन के चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

काश, आपने ऐसा न किया होता: भाग 1

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

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अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

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‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

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‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

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‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक भावनात्मक शून्य: भाग 1

काफी समय के बाद विजय से मिलना हुआ. मौसी की बेटी की शादी थी. मामा की एक बेटी थी मिन्नी और बेटा विजय. मिन्नी बचपन से ही नकचढ़ी थी और विजय मेधावी और शालीन. मिन्नी काफी सभ्य, समझदार और विजय भी एक पूर्ण अस्तित्व. समूल परिपक्वता लिए हुए नजरों के सामने आए तो समझ ही नहीं पाया कैसे बात शुरू करूं. अजनबी से लगे वे.

बचपन का प्यार, बिना लागलपेट का व्यवहार कहां चला गया. मिलने का उत्साह उड़नछू हो गया जब विजय ने बस इतना ही पूछा, ‘‘कहो, कैसे हो? सोम ही हो न. बहुत समय के बाद मिलना हुआ. घर में सब ठीक हैं न. शांति बूआ के ही बेटे हो न?’’

अवाक् रह गया था मैं. सोचा था झट से गले मिलूंगा सब से. कितना सब बांट लूंगा बचपन का, वह बारिश में भीग कर छींकना…

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मेरे और विजय के कपड़े बदलवाती मामी सारा दोष विजय पर ही थोप देतीं. ‘क्यों वह मेरे साथ मस्ती करता रहा,’ बड़बड़ा कर तुलसी का काढ़ा पिलातीं और खबरदार करतीं कि फिर से बारिश में गए तो घर से ही निकाल देंगी. बहुत प्यार करती थीं मामी मुझे. हर साल मामी के पास जाने की एक और वजह भी थी, मामी नारियल और खसखस के लड्डू बड़े स्वादिष्ठ बनाती थीं. तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलाना मामी का प्रिय शौक था.

‘‘मामीजी कैसी हैं विजय, उन्हें साथ नहीं लाए?’’

‘‘मां भी चली आतीं तो पापा अकेले रह जाते. मेरे पास भी छुट्टी नहीं थी. मजबूरीवश आना पड़ा. यहां मामा की जगह सारी रस्में मुझे जो निभानी हैं. पापा तो चलफिर नहीं न सकते…’’

विजय ने मजबूरी स्वीकार कर ली थी, जो उस के व्यवहार में भी झलक रही थी. जाहिर था वह यहां आ कर खुश नहीं था. एक मजबूरी ढोने आया था, बस.

‘‘बूआ और फूफाजी नहीं आए? कैसे हैं वे दोनों?’’ मिन्नी ने सवाल किया था. शायद मैं ने उस के मांबाप का हालचाल पूछा था इसलिए मिन्नी ने भी कर्ज उतार दिया था. मन बुझ सा गया था. ये दोनों वे नहीं रहे, कहीं खो से गए हैं दोनों.

खासी चहलपहल थी घर में. मौसी की बड़ी बेटी नताशा और छोटी सीमा है जिस की शादी में हम आए हैं. नताशा का पति अभी कुछ दिन पूर्व अमेरिका गया है. शादीब्याह में दस काम करने को होते हैं. एक वजह यह भी थी सोम के आने की.

‘‘सोमू भैया, तुम….’’

मेरी तंद्रा टूटी थी.

नताशा सामने खड़ी थी. गहनों से लदीफंदी. पहले से थोड़ी मोटी और सुंदर.

‘‘हाय, सोमू भैया,’’ हाथों में पकड़े बैग पटक लगभग भाग कर आई थी मेरे पास और मेरे गले से लिपट मेरे गाल पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए थे.

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‘‘कैसी हो, नताशा?’’

मन भर आया था मेरा. मैं अकेली संतान हूं न अपने मांबाप की जिस वजह से किसी भाईबहन का प्यार मुझे सदा दरकार रहता है. नताशा मेरी प्यारी सी बहन है. इस की शादी में भी आया था मैं, भाई की हर रस्म मैं ने ही पूर्ण की थी.

‘‘सुना है श्रीमान अमेरिका गए हैं… बिटिया कैसी है?’’

‘‘क्या बताऊं भैया, बिटिया ने बहुत तंग कर रखा है. अपने पापा के बिना उदास हो गई है. उस का बुखार ही नहीं उतर रहा. जब से गए हैं तब से बुखार में तप रही है.’’

अपनी दादी की गोद में थी बिटिया. खाना खा कर हम सब अपने कमरे में आ गए, जहां नन्ही सी बच्ची बुखार में तप रही थी. नताशा शादी के काम में व्यस्त थी और उस की सास पोती की देखभाल में. कुछ ही पल में मैं तो दोनों दादीपोती से हिलमिल गया लेकिन मिन्नी और विजय औपचारिक बातचीत के बाद आराम करने के लिए लेट गए. 2 साल की गोलमटोल बच्ची तेज बुखार में तप रही थी.

‘‘क्या बताएं बेटा, सभी टेस्ट करा चुके हैं. कोई रोग नहीं. बाप वहां उदास है… बेटी यहां तप रही है.’’

बेटे के वियोग में मां भी बेचैन और बेटी भी. नताशा की आंखें भी भर आई थीं.

‘‘मैं ने बहुत समझाया था उन्हें, माने ही नहीं. कहने लगे, तरक्की करनी है तो परिवार का मोह छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘एक ही बेटा है मेरा…इतना बड़ा घर है. बिटिया के दादाजी की पेंशन आती है. हमारी कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी उस पर, कहता है कि बिटिया ही बहुत है और बच्चा नहीं चाहिए…अब इस बिटिया के लिए क्या यहां कुछ कम था जो पराए देश में जा बसा है. इस बिटिया के लिए ही न सारा झमेला, बिटिया ही न रही तो किस के लिए सब. महीना भर हुआ है उसे गए और महीना ही हो गया है हमें डाक्टरों के चक्कर लगाते. क्या करें हम.’’

‘‘आजा, बेटा मेरे पास,’’ यह कह कर मैं ने हाथ बढ़ाए तो बिटिया ने झटक दिए.

‘‘किसी के पास जाती भी तो नहीं, दादीदादा और मां के सिवा कोई हाथ न लगाए.

वैसे तो सारा इंतजाम होटल में है फिर भी…’’ नताशा ने मन खोला था.

‘‘कोई बात नहीं, मैं और विजय हैं ही. तुम हमें काम समझा दो. आज और कल 2 दिन की ही तो बात है. काम बांट दो न, हम कर लेंगे सब…क्यों विजय?’’

पुकार लिया था मैं ने विजय को. ममेरा भाई है, शादी में काम तो कराएगा न. लाख अजनबी लगे, है तो अपना.

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तय हो गया सब. कल जब सब घर से चले जाएं तब पूरे घर की जिम्मेदारी विजय पर. शादी का सारा सामान घर पर है न. सोना, चांदी, जेवर, कपड़े और क्या नहीं. सिर्फ मामा की मिलनी के समय विजय होटल में जाएगा. जैसे ही रस्म हो जाए वह घर वापस आ जाएगा और तब तक मौसी के पड़ोसी उन के घर का खयाल रखेंगे. मेरे जिम्मे था होटल का सारा इंतजाम देखना.

‘‘सीमा को ब्यूटी पार्लर से लाने का काम भी विजय का. विजय सीमा को होटल छोड़, रस्म पूरी कर घर आ जाएगा. क्यों विजय, ठीक रहेगा न?’’

गरदन हिला दी थी विजय ने. उसी शाम हम दोनों जा कर सभी रास्ते समझ आए थे. लगभग पूरी शाम हम साथ रहे थे. वह चुप था. उस ने अपनी तरफ से कोई भी बात नहीं की थी. मैं ही था जो निरंतर उसे कुरेद रहा था.

‘‘शादी कब कर रहे हो, विजय? सीमा के बाद अब तुम दोनों ही बच गए हो, जो आजाद घूम रहे हो.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी कैसी है सोम? उसे साथ क्यों नहीं लाए?’’

‘‘तुम चाचा बनने वाले हो न. आजकल में कभी भी, इसीलिए मम्मी और पापा भी नहीं आ पाए.’’

‘‘अरे, ऐसी हालत में तुम पत्नी को छोड़ कर यहां चले आए.’’

‘‘क्या करें भाई, यही तो गृहस्थी है. अपने घर के साथसाथ भाईबहन का घर भी तो देखना चाहिए. यहां मौसी का कोई बेटा होता तो वही संभाल लेता न सब. अब संयोग देखो, दामादजी हैं तो ठीक शादी से पहले अमेरिका चले गए. छोटे परिवारों की यही तो त्रासदी है. एक भी सदस्य कम हो जाए तो सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

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‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है… किसी अपने को ही खोजता रहता हूं… कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दूसरी बार: भाग 1

लेखिका- डा. उषा यादव

आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

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पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

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शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

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बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

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बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

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शादी के बाद

रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

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रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

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‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

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लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

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विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

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