सोशल साइट्स पर कैसा हो रंगढंग

Society News in Hindi: सोशल नैटवर्किंग साइट्स ने कुछकुछ नहीं, बहुत कुछ बदल दिया है. तकनीक के जमाने में नैटवर्किंग की तमाम सोशल साइट्स हैं, जैसे फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर, लिंक्डइन, इंस्टाग्राम आदि. इन सब से हम ऐक्टिव अकाउंट द्वारा जुड़ सकते हैं. जहां एक ओर इन के कई फायदे हैं, वहीं सब से बड़ा नुकसान नैगेटिव पौपुलैरिटी का है यानी बिना जानेसमझे सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर सक्रियता आप पर बुराई का ठप्पा चस्पां सकती है. इसलिए आप को बता दें कि सिर्फ अकाउंट बनाना ही पर्याप्त नहीं है. नैगेटिव पौपुलैरिटी या बैड टैग का ठप्पा न लगे इस के लिए कुछ बेसिक मैनर्स को अपनाना पड़ता है.

प्राइवेसी मजबूत हो

किसी भी सोशल नैटवर्किंग साइट पर अकाउंट बनाएं, लेकिन अपनी प्राइवेसी मेंटेन करते रहें. ताकि कोई अनजान व्यक्ति आप के अकाउंट में ताकाझांकी न कर पाए. इस से बचने का उपाय है कि आप प्राइवेट अकाउंट और अपना पासवर्ड कठिन रखें. महीने में एक बार जरूर पासवर्ड बदलें, पासवर्ड किसी से शेयर न करें.

हेराफेरी न हो

यदि सोशल साइट्स पर आप के परिचित आप से जुड़े हैं, तो डींगे मत हांकिए, सही और सटीक जानकारी अपने प्रोफाइल में अपडेट करें. पब्लिक डिस्प्ले में क्या रखना है, क्या नहीं, यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है. प्रोफाइल फोटो से परहेज न करें. ऐसा करने से नैटवर्क से जुड़े लोग आप को करीब पाएंगे.

 

पर्सनल अलग, प्रोफैशनल अलग

सोशल नैटवर्किंग साइट्स फायदेमंद साबित हों, तो पर्सनल और प्रोफैशनल अकाउंट रखें वरना एक ही अकाउंट रखने से सब गुड़गोबर हो जाएगा. कई बार एक ही अकाउंट की वजह से हम जरूरी जानकारियों से अछूते रह जाते हैं और पर्सनल व प्रोफैशनल लाइफ में अंतर तथा सामंजस्य नहीं बिठा पाते.

संभल कर करें फोटो शेयर

सोशल नैटवर्किंग साइट्स ने फोटो अपलोड की सुविधा दे कर यादों को संजोना आसान कर दिया है. मौका चाहे त्योहार का हो या दोस्तों के साथ मस्ती करने का या फिर अपनों के साथ सैरसपाटे या फिल्म देखने का, हम हर मौके को कैमरे में कैद कर सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर अपलोड कर सकते हैं. यहां तक तो सब ठीक है यदि फोटो सिर्फ आप की हैं, लेकिन मामला तब गड़बड़ा जाता है जब आप दूसरे का फोटो बिना उस से पूछे टैग या अपलोड करते हैं. याद रखें आप की इस छोटी सी हरकत से रिश्ते में दरार आ सकती है. कई लोगों को अपनी फोटो सार्वजनिक करना पसंद नहीं होता, इसलिए फोटो शेयर, टैग या अपलोड करने से पहले उस व्यक्ति की अनुमति जरूर लें.

संभल कर करें कमैंट

कम्युनिकेशन का बैस्ट औप्शन है सोशल साइट्स में कमैंट का औप्शन. पर्सनल और प्रोफैशनल अकाउंट में कमैंट ध्यान से करें. आपत्तिजनक शब्दों और अश्लील भाषा का प्रयोग कतई न करें. कमैंट लिखने के बाद दोबारा जरूर पढ़ें. यदि कुछ पर्सनल लिखना हो, तो मैसेजबौक्स का प्रयोग करें.

आंख बंद कर हामी न भरें

फ्रैंड रिक्वैस्ट की लाइन देख कर खुश न हों. भोलीभाली शक्ल में कोई शैतान छिपा हो सकता है. सोशल नैटवर्किंग साइट्स में हम काफी हद तक बच सकते हैं. मसलन, आंख बंद कर हर रिक्वैस्ट पर हामी न भरें. रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट करने से पहले उस व्यक्ति का अकाउंट अच्छी तरह देख लें. सोचसमझ कर ही फैसला लें. जिन्हें आप जानते हैं उन्हें ही फ्रैंड लिस्ट में शामिल करें. यदि कोई बारबार फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजे जिसे आप जानते नहीं, तो उस रिक्वैस्ट को स्पैम में डाल दें.

सब की अलग पसंद

यदि आप को सोशल साइट्स पर कैंडी क्रश खेलना पसंद हो तो जरूरी नहीं आप के सभी वर्चुअल फ्रैंड्स को भी पसंद होगा. बेवजह दूसरों को ऐसे गेम्स खेलने की रिक्वैस्ट न भेजें.

फौलो हो सही प्रोफाइल

कुछ गलत नहीं यदि आप सैलिब्रिटी के प्रोफाइल को फौलो करते हैं, लेकिन सही प्रोफाइल को फौलो करें, सैलिब्रिटी के अधिकांश प्रोफाइल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर फेक होते हैं. ओरिजनल की पहचान नीले रंग का मार्क है. जिस सैलिब्रिटी के प्रोफाइल के आगे नीले रंग का निशान हो वह ओरिजनल है. नीले मार्क वाले प्रोफाइल को ही फौलो करें.

मजारों पर लुटते लोग, क्या है यह गोरखधंधा

Society News in Hindi: उत्तर प्रदेश के शहर रामपुर के पास 4 ऐसी कब्रों की निशानदेही की गई है, जिन के बारे में कहा जा रहा है कि वे कब्रें फर्जी हैं और इस के द्वारा लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है, इसलिए लोगों को जागरूक किया जाए और उन्हें इस की सचाई बताई जाए, ताकि वे धोखा न खाएं.

यह काम कोई और नहीं, खुद बरेलवी उलेमा कर रहे हैं, जबकि ‘फायदा’ होने की खबर ने इस पूरे इलाके को गुलजार कर दिया है.

रामपुर की मजलिस फिक्र इसलामी के मुताबिक, जिला रामपुर के मिलन बिचौला नामक गांव में तकरीबन 6 महीने पहले एक शख्स ने सपने के आधार पर 4 फर्जी कब्रें बना लीं और उन्हें मजारों के तौर पर प्रचारित कर फायदे की अफवाह उड़ा दी. इस के बाद मजारों पर आने वालों का तांता लग गया.

नैनीताल हाईवे इस गांव से गुजर रहा है, जिस पर हर गुरुवार और सोमवार को रोड जाम रहता है. इस हाईवे से डेढ़ किलोमीटर की दूरी है, जिस के बाद एक किलोमीटर जंगल की ओर पोपलर के खेत में कब्रें बनाई गई हैं.

गुरुवार और सोमवार को यह पूरा डेढ़ किलोमीटर का रास्ता पैदल और दोपहिया वाहनों के लिए रहता है, जबकि चारपहिया वाहनों को पहले ही रोक दिया जाता है.

इस पूरे रास्ते में अगरबत्ती, तेल और पानी की सैकड़ों दुकानें लगी रहती हैं. किराए पर मजारों के आसपास की दुकानें नियमित रूप से लगती हैं. 2 बीघा जमीन पर साइकिल स्टैंड बना है. यहां पर 10 से 25 रुपए तक का किराया वसूला जाता है.

एक अंदाज के मुताबिक, हर गुरुवार को अकेले साइकिल स्टैंड से 20 हजार रुपए की आमदनी होती है. ये कब्रें जिस खेत में बनी हैं, वह 60 बीघे का है. इस खेत का मालिक अख्तर खां है. इसी ने सपने के आधार पर इन मजारों को बनाया था. लेकिन इस शख्स ने इन चारों मजारों का इंतजाम अपने हाथ में न ले कर 20 हजार रुपए महीने पर गांव के 3 लोगों को ठेके पर उठा दिया. उन लोगों इन कब्रों से कारोबार करना शुरू कर दिया. कुछ लोगों को फायदे की   झूठी अफवाह फैलाने के लिए किराए पर रख लिया, जो दिनभर इधरउधर घूम कर यह प्रचार करते हैं कि वहां जाने वाले की सारी मुसीबतें दूर हो जाती हैं.

साथ ही, कुछ जवान लड़कियों को भूतप्रेत का ढोंग करने और कब्रों के करीब चीखपुकार मचाने के लिए किराए पर रख लिया गया.

4 अनपढ़ मजदूर अलगअलग चारों कब्रों पर फातिहा के लिए बैठे हैं, जो हर आने वाले से कब्र के पास रखी गोलक में ज्यादा से ज्यादा रुपए डलवाते हैं. वहां 5 गोलकें रखी हुई?हैं. ठेकेदारों की इन कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि इन कब्रों से डेढ़ से 2 लाख रुपए की आमदनी हर महीने होने लगी.

मजलिस फिक्र इसलामी के मोहम्मद नासिर रामपुरी के मुताबिक, गोलक की निगरानी करने वाले ब्रजलाल ने बताया कि शाम को पैसे मेरे सामने ही गिने जाते हैं. गुरुवार और सोमवार को हर गोलक से 9 से 10 हजार रुपए और आम दिनों में डेढ़ से 2 हजार रुपए निकलते हैं.

उस ने आगे यह भी बताया कि एक दिन एक शख्स एक गोलक ले कर भाग गया, जिस के बाद 2 सौ रुपए रोजाना की दिहाड़ी पर मु  झे निगरानी के लिए रखा गया है.

इन मजारों के करीब ही गांव का श्मशान घाट है. वहां एक समाधि भी बनी है. गांव के लोगों ने बताया कि ठेकेदार की तरफ से इन कब्रों के करीब 5वीं कब्र बनाने का ढोंग रचा गया.

एक शख्स मोटरसाइकिल से उस जगह आया और कब्रों के पास 2-4 लंबीलंबी सांसें खींच कर बोला कि 5वीं मजार यहां है. योजना के तहत वहां पर कब्र बना दी गई.

कब्र के पास मौजूद मुजाविरों ने उस पर एक चादर डाल दी और चिराग व अगरबत्ती जला दी, फिर अचानक एक लड़की कब्र के पास आई और भूतप्रेत होने का नाटक करने लगी.

मजारों पर आए कुछ लोगों को शक हुआ और उन लोगों ने ढोंगी को पकड़ कर उस की पिटाई कर दी. ऐसा देख लड़की भी खेत की ओर भाग गई.

चारों कब्रों के पास हजारों कागज के पुरजे, जिन पर मन्नतें लिखी हैं, मजार पर बैठा शख्स एक पुरजा लिखने के 25 रुपए लेता है. इस शख्स की दिहाड़ी रोजाना 2 सौ रुपए है और मन्नतों के लालहरे कपड़े बंधे हुए हैं.

ठेकेदार ने अपनी चालाकी से मजारों से आमदनी में बहुत बढ़ोतरी कर ली है, जिस के चलते जमीन मालिक ने इस को दोबारा नीलामी पर देने की बात की और नहीं मानने पर पुलिस में शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

जब जमीन के मालिक ने देखा कि हर महीने के 20 हजार रुपए गए और मजार के नाम पर जमीन भी गई, तो उस ने कब्रों को फर्जी कहना शुरू कर दिया, लेकिन अब न तो ठेकेदार सुनने को तैयार है और न ही इन मजारों पर आने वाली जनता.

मोहम्मद नासिर रामपुरी, जो इन फर्जी कब्रों के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए हैं, ने शहर के एसडीएम को एक मांगपत्र दिया है कि फर्जी कब्रें बनाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए.

6 महीने से यह खुला खेल चल रहा था और इस में लोगों को भटका कर जो रकम वसूल की गई है, वह भी उन से वापस ली जाए.

शादी को बेचैन इन कुंआरों की कौन सुनेगा

यों तो लड़कियों की घटती तादाद और बढ़ता लिंगानुपात एक अलग मुद्दा है, लेकिन देश के करोड़ों युवाओं को शादी के लिए लड़कियां क्यों नहीं मिल रही हैं, जान कर हैरान रह जाएंगे आप…

23 दिसंबर, 2023 को देव उठानी के दिन विष्णु सहित दूसरे देवीदेवता पांवड़े चटकाना तो दूर की बात है ढंग से अंगड़ाई भी नहीं ले पाए थे कि नीचे धरती पर कुंआरों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि अब यदि सचमुच में उठ गए हो तो हमारी शादी कराओ. बस, यह उन्होंने नहीं कहा कि अगर नहीं करवा सकते तो नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दो.

ताजा हल्ला भारत भूमि के राज्य महाराष्ट्र के सोलापुर से मचा जहां सुबहसुबह कोई 50 कुंआरे सजधज कर लकदक दूल्हा बने घोड़ी पर बैठे बैंडबाजा, बरात के साथ डीएम औफिस की तरफ कूच कर रहे थे.

आजकल ऊपर विष्णुजी के पास सृष्टि के दीगर कामकाज जिन में अधिकतर प्रोटोकाल वाले हैं, कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं इसलिए वे शादी जैसे तुच्छ मसले पर कम ही ध्यान दे पाते हैं जबकि उन्हें भजन, आरती गागा कर उठाया इसी बाबत जाता है कि हे प्रभु, उठो और सृष्टि के शुभ कार्यों के साथसाथ विवाह भी संपन्न कराओ जो रोजगार के बाद हर कुंआरे का दूसरा बड़ा टास्क है. इन युवाओं ने समझदारी दिखाते हुए शादी कराने का अपना ज्ञापन कलैक्टर को दिया, जो सही मानों में विष्णु का सजीव प्रतिनिधि धरती पर कलयुग में होता है.

ज्ञापन के बजाय विज्ञापन जरूरी

उम्मीद कम ही है कि ऊपर वाले देवता तक इन कुंआरों की करुण पुकार और रोनाधोना पहुंचा होगा. रही बात नीचे के देवता कि तो वह बेचारा मन ही मन हंसते हुए ज्ञापन ही ले सकता है. अगर थोड़ा भी संवेदनशील हुआ तो इन्हें इशारा कर सकता है कि भाइयो, ज्ञापन के बजाय विज्ञापन का सहारा लो और मेरे या ऊपर वाले के भरोसे मत रहो नहीं तो जिंदगी एक अदद दुलहन ढूंढ़ने में जाया हो जाएगी और इस नश्वर संसार से तुम कुंआरे ही टैं बोल जाओगे.

यह मशवरा भी उन के मन में ही कहीं दब कर रह गया होगा कि मर्द हो तो पृथ्वीराज बनो और अपनी संयोगिता को उठा कर ले जाओ. तुम ने सुना नहीं कि वीर भोग्या वसुंधरा चर्चा में बैचलर मार्च सोलापुर के इन दूल्हों की फौज को राह चलते लोगों ने दिलचस्पी और हैरानी से देखा.

कुछ को इन कुंआरे दूल्हों से तात्कालिक सहानुभूति भी हुई लेकिन सब मनमसोस कर रह गए कि जब ऊपर वाला ही इन बदनसीबों की नहीं सुन रहा तो हमारी क्या बिसात. हम तो खुद की जैसेतैसे कर पाए थे और अभी तक उसी को झांक रहे हैं. यह बात इन दीवानों को कौन सम?ाए कि भैया, मत पड़ो घरगृहस्थी के झमेले में, पछताना ही है तो बिना लड्डू खाए पछता लो. न समझ सकते न बचा सकते मगर यह भी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है कि जो आदमी खुदकुशी और शादी पर उतारु हो ही आए उसे ब्रह्माजी भी नहीं समझ और बचा सकते क्योंकि यह भाग्य की बात है. रही बात इन दीवानों की तो इन के बारे में तो तुलसीदास बहुत पहले उजागर कर गए हैं कि जाको प्रभु दारुण दुख देई, ताकी मति पहले हर लेई.

राहगीरों ने दर्शनशास्त्र के ये कुछ चौराहे क्रौस किए और इन दूल्हों में दिलचस्पी ली तो पता चला कि इन बेचारों को लड़कियां ही नहीं मिल रहीं और जिन को जैसेतैसे मिल जाती हैं वे इन्हें सड़े आम जैसे बेरहमी से रिजैक्ट कर देती हैं क्योंकि इन के पास रोजगार नहीं है.

जागरूक होती लड़कियां मुमकिन है कि यह नजारा देख कर कुछकुछ लोगों को वह प्राचीन काल स्मरण हो आया हो जब लड़कियां चूं भी नहीं कर पाती थीं और मांबाप जिस के गले बांध देते थे वे सावित्री की तरह उस के साथ जिंदगी गुजार देती थीं. फिर बेरोजगार तो दूर की बात है लड़का लूला, लंगड़ा, अंधा, काना हो तो भी वे उसे ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है…’ वाले गाने की तर्ज पर उसी के लिए तीज और करवाचौथ जैसे व्रत करती रहती थीं. और तो और अगले जन्म के लिए भी उसी लंगूर को बुक कर लेती थीं.

जमाना बदल गया मगर अब जमाना और लड़कियां दोनों बदल गए हैं. लड़कियां शिक्षित, सम?ादार और स्वाभिमानी तथा जागरूक हो चली हैं. लिहाजा, उन्हें किसी ऐरेगिरे, तिरछेआड़े के गले नही बांधा जा सकता. पहले की लड़कियों को गऊ कहा जाता था. वे जिंदगीभर उसी खूंटे से बंधी रहती थीं जिस से पेरैंट्स बांध देते थे. मगर अब लड़कियां खुद खूंटा ढूंढ़ने लगी हैं यानी अपने लिए सुयोग्य वर तलाशने लगी हैं क्योंकि वे किसी की मुहताज नहीं हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं.

बेरोजगार जीवनसाथी उन की आखिरी प्राथमिकता भी नहीं है इसलिए समझ यह जाना चाहिए कि सोलापुर जैसे बैचलर मार्च दरअसल, बेरोजगारी के खिलाफ एक मुहिम है जिस के तहत दुलहन की आड़ में सरकार से रोजगार या नौकरी मांगी जा रही होती है. ऐसे मार्च देश के हर इलाके में देखने को मिल जाते हैं जहां इन कुंआरों का दर्द फूटफूट कर रिस रहा होता है.

कोई सस्ता तमाशा नहीं कर्नाटक की ब्रह्मचारीगलु पद्यात्रा ऐसा ही दर्द मार्च के महीने में कर्नाटक के मांड्या जिले से एक लड़के का फूटा था. सोलापुर में जिसे बैचलर मार्च कहा गया वह वहां ब्रह्मचारीगलु पद्यात्रा के खिताब से नवाजा गया था. इस यात्रा में करीब 60 कुंआरे लड़के 120 किलोमीटर की पद्यात्रा कर चामराजनगर जिले में स्थित महादेश्वर मंदिर पहुंचे थे. तब मानने वालों ने मान लिया था कि यह कोई सस्ता तमाशा या पब्लिसिटी स्टंट नहीं है बल्कि हकीकत में इन लड़कों के पास कोई नौकरी नहीं है. कुछकुछ जानकारों ने इस पद्यात्रा का आर्थिक पहलू उजागर करते हुए यह निष्कर्ष दिया था कि शादी योग्य इन लड़कों के पास कोई सलीके की नौकरी नहीं है और मूलतया ये पद्यात्री किसान परिवारों से हैं.

समस्या का दूसरा पहलू यह समझ आया था कि नए दौर की युवतियां शादी के बाद गांवों में नहीं रहना चाहतीं और खेतीकिसानी अब घाटे का धंधा हो चला है जिस में आर्थिक निश्चिंतता नहीं है इसलिए लड़की तो लड़की उस के पेरैंट्स भी रिस्क नहीं उठाते.

कर्नाटक ही नहीं बल्कि हर इलाके के किसानपुत्र इस से परेशान हैं और खेतखलिहान छोड़ कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं. जितना वे गांव में अपने नौकरों को देते हैं उस से भी कम पैसे में खुद शहर में छोटीमोटी नौकरी कर लेते हैं ताकि शादी में कोई अड़चन पेश न आए.

लड़कियों को नहीं भाते ये लड़के इस बात की पुष्टि करते मांड्या के एक किसानपुत्र कृष्णा ने मीडिया को बताया भी था कि मुझे अब तक लगभग 30 लड़कियां रिजैक्ट कर चुकी हैं. वजह मेरे पास खेती कम है जिस से कमाई भी ज्यादा नहीं होती. यह एक गंभीर समस्या है जिस के बारे में खुलासा करते सोलापुर के ज्योति क्रांति परिषद जिस के बैनर तले बैचलर मार्च निकाला गया था के मुखिया रमेश बरास्कार बताते हैं कि महाराष्ट्र के हर गांव में 25 से 30 साल की उम्र के 100 से 150 लड़के कुंआरे बैठे हैं.

संगठित हो रहे कुंआरे हरियाणा के कुंआरे भी यह और इस से मिलतीजुलती मांगें उठाते रहे हैं लेकिन कोई हल कहीं से निकलता नहीं दिख रहा और न आगे इस की संभावना दिख रही. अब अच्छी बात यह है कि जगहजगह कुंआरे इकट्ठा हो कर सड़कों पर आ रहे हैं. अपने कुंआरेपन को ले कर उन में कोई हीनभावना या शर्मिंदगी नहीं दिखती तो लगता है कि समस्या बहुत गंभीर होती जा रही है लेकिन उस के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखा रहा.

एक अंदाजे के मुताबिक देश में करीब 5 करोड़, 63 लाख अविवाहित युवा हैं लेकिन उन पर युवतियों की संख्या महज 2 करोड़, 7 लाख है. लड़कियों की घटती तादाद और बढ़ता लिंगानुपात एक अलग बहस का मुद्दा है लेकिन महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और मध्य प्रदेश के जो युवा संगठित हो कर प्रदर्शन कर रहे हैं वे बेरोजगार, अर्धबेरोजगार और किसान परिवारों के हैं जिन का मानना है कि अगर अच्छी नौकरी या रोजगार हो तो छोकरी भी मिल जाएगी. ऊपर वाला तो सुनता नहीं इसलिए ये लोग नीचे वाले से आएदिन गुहार लगाते रहते हैं.

सरकार मस्त, जनता त्रस्त

जब सरकार ही धर्म और हिंदुमुसलिम के नाम पर बनती हो, तो आम जनता की चिंता कोई क्यों करेगा…

अंबाला कैंट में जनरल अस्पताल के गेट के सामने अकसर ऐक्सीडैंट होते रहते हैं. एक गेट के बिलकुल सामने तिराहा है तो दूसरे गेट के सामने चौराहा है. वहां पर न तो सिगनल लाइट्स हैं, न ही स्पीड ब्रेकर और न ही ट्रैफिक पुलिस खड़ी रहती है.

बेशक अस्पताल के एक गेट के पास पुलिस का कैबिन है, लेकिन इस में पुलिस का कोई व्यक्ति नजर नहीं आता.

17 फरवरी, 2023 को रात के करीब 10 बज कर 50 मिनट क्योंकि पेशैंट से हम 11 बजे ही मिल सकते थे, इसलिए टाइम पास करने के लिए हम अस्पताल के गेट से बाहर निकलते हैं और बड़ी मुश्किल से सड़क पार कर के दूसरी ओर चाय पीने के लिए जाते हैं क्योंकि अस्पताल में कोई कैंटीन या चाय तक की एक छोटी सी रेहड़ी तक नहीं जबकि इतना बड़ा अस्पताल है जहां हजारों पेशैंट हैं. हर पेशैंट के साथ कम से कम 2 लोग तो आते ही होंगे. उन्हें बाहर सड़क पार जाना होता है, जिस में बहुत जोखिम है.

हम बैठे चाय पी रहे थे कि अचानक जोर की आवाज के साथ सामने आग के गोले से दिखे. हम ने देखा एक बुलेट को एक कार ने इतनी जोर से टक्कर मारी कि बुलेट बीच में 2 टुकड़े हो गई और कार का आगे का हिस्सा पूरी तरह डैमेज हो गया.

हादसों का शहर

बुलेट सवार दोनों लड़कों को उसी समय अस्पताल के अंदर ले जाया गया जहां उन्हें सीरियस बता कर चंडीगढ़ पीजीआई रैफर किया गया. उस से कुछ दिन पहले भी एक मोटरसाइकिल सवार को एक ट्रक काफी दूर तक घसीटता ले गया और उस की मौत हो गई.

उद्योगपति नवीन जिंदल ने इस अस्पताल का जीर्णोद्धार करवा कर दिल्ली से हार्ट स्पैशलिस्ट यहां बुलवाए ताकि मरीजों का इलाज अच्छे से अच्छा हो. मगर क्या महज सर्जरी ही पेशैंट्स के लिए काफी है? कभी पेशैंट का चायकौफी का मन करता है, कभी जो साथ में रहता है या कभी कोई मिलनेजुलने आता है तो उस के लिए चायपानी की आवश्यकता होती है. इन सब के लिए बड़ी न सही छोटी सी कैंटीन तो होनी ही चाहिए. हर समय हाईवे रोड को पार कर के दूसरी तरह चायपानी के लिए जाना कितना खतरनाक है यह वहां आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं से समझ जा सकता है.

जिंदल साहब अकसर निगरानी रखते हुए वहां चक्कर भी लगाते रहते हैं तो क्या उन्हें ये सब दिखाई नहीं देता? क्या इन हादसों की खबर उन्हें नहीं होती? क्या उन्हें इतना भी ज्ञान नहीं कि चौक पर अर्थात् चौराहे पर ट्रैफिक लाइट्स और ट्रैफिक पुलिस का होना आवश्यक नहीं है?

जब रात को यह हादसा हुआ तो अगले दिन सुबह 11 बजे के बाद वहां पर 2 पुलिस वाले तैनात दिखे जोकि केवल चालान काट रहे थे या किसी को रोक कर अपनी जेबें भरने का जुगाड़ कर रहे थे. लेकिन 2 दिन बाद फिर पुलिस वहां से गायब नजर आई.

पुलिस के कारनामे

आएदिन इस तरह के पुलिस के कारनामे सुनने को मिलते हैं कि पुलिस ने रोका और चालान न काट कर क्व500 ले कर छोड़ दिया. इस का क्या अर्थ है? क्या वह दोषी व्यक्ति फिर से वही गलती नहीं करेगा? जरूर करेगा क्योंकि वह जानता है कि क्व200-400 दे कर मामला रफादफा हो जाएगा. इसी कारण देश की आधी आबादी हैलमेट नहीं पहनती, स्कूटर, मोटरसाइकिल के पूरे कागज नहीं रखते, लाइसैंस नहीं बनवाती इत्यादि. इस वजह से हमारे कुछ भ्रष्ट पुलिस वालों की जेबें भरी रहती हैं.

यह मामला केवल अंबाला के उस एरिया का ही नहीं उस से आगे आइए अंबाला सिविल अस्पताल से ले कर यमुनानगर की तरफ आते हुए थाना छप्पर तक हर चौराहे का यही हाल है और इसी तरह से ही कई जगह और भी देखा गया है. बाकी देश का भी यही हाल है. आधे से ज्यादा लोग इसे ऊपर वाले की कृपा मान लेते हैं और कुछ वहां भीड़ में चीखचिल्ला कर भड़ास निकाल लेते हैं पर कभी ही कोई संबंधित अफसर को एक पत्र जनता की असुविधा पर लिखता है.

वसूल सको तो वसूल लो

जहां भी टोल टैक्स बैनर बना है, वहां पूरा स्टाफ रहता है ताकि टोल पूरा वसूल हो. जनता से पूरा टैक्स वसूल करना सरकार का हक है तो उस जनता की सुरक्षा सरकार का क्या फर्ज नहीं है? सरकार को बख्शा नहीं जाना चाहिए.

अकसर सुनते हैं कि रोड ऐक्सीडैंट में कोई न कोई मारा गया, किसी को ट्रक कुचल गया, किसी को बस कुचल गई और कभी फुटपाथ पर कोई कार वाला कार चढ़ा गया. जब कोई गरीब या साधारण जना मरता है तो किसी को कानोंकान खबर नहीं होती. लेकिन अगर किसी ऐक्सीडैंट में किसी अमीर के कुत्ते को भी चोट आ जाए तो हरजाना भरना पड़ता है, विक्टिम पर केस भी दर्ज किया जा सकता है.

क्या कोई जानता है इन रोजमर्रा के ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार कौन है? इन ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार सरकार या अन्य लोग भी उस बाइक चालक या कार, बस वाले को या शराब पी कर गाड़ी चलाने वाले को ही जिम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन हर ऐक्सीडैंट के पीछे यह सचाई नहीं होती.

सुरक्षित नहीं सड़कें

माना कि सरकार ने बहुत से ब्रिज बनवाए, अधिकतर शहरों से बाहर ही हाई वे बना कर शहर का क्राउड कम किया, सड़कें भी काफी हद तक चौड़ी और नई बनाई हैं. सड़कें बना तो दीं, लेकिन क्या सड़कें सुव्यवस्थित ढंग से हैं अर्थात् उन की सुव्यवस्था है?

कहने का तात्पर्य यह है कि क्या हर सड़क पर स्ट्रीट लाइट है? क्या सड़कों के किनारे बनती दुकानों को दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है? क्या हर चौराहे से पहले स्पीड ब्रेकर या रिफ्लैक्टर है? क्या हर चौराहे पर लाल, पीली और हरी बत्ती यानी ट्रैफिक सिगनल लाइट है? क्या हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस तैनात है?

नहीं. तो फिर उन हाईवे और सड़कों को बड़ा बनाने का क्या फायदा क्योंकि जितनी सड़क स्मूद होंगी, चौड़ी होंगी व्हिकल उतना ही तेज रफ्तार से चलेंगे.

घटनाओं का जिम्मेदार कौन

अगर स्पीड ब्रेकर नहीं तो कम से कम रिफ्लैक्टर तो हों, जिन से आती हुई गाड़ी को दूर से अंदेशा हो जाए कि वहां कुछ अवरोधक हो सकता है, इसलिए स्पीड कम करनी चाहिए. लेकिन अधिकतर देखा गया है कि न स्पीड ब्रेकर, न ट्रैफिक सिगनल लाइट्स, न ही कोई ट्रैफिक वाला चोराहे पर होता है, जोकि हादसे का कारण बन जाता है.

केवल सड़कें चौड़ी कर देने से कुछ नहीं होगा, उन सड़कों पर सिगनल लाइट्स, स्पीड ब्रेकर भी अवश्य होने चाहिए.

इन सब ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार कौन है? क्या सड़क पर स्पीड ब्रेकर न होने इन ऐक्सीडैंट्स के लिए जिम्मेदार नहीं? क्या उस चौराहे पर सिगनल लाइट नहीं होनी चाहिए थी?

हमारे देश का सिस्टम इतना ढीला क्यों है? इसलिए कि शासक अपनी कार्यशैली के कारण नहीं धर्म, पूजा, हिंदूमुसलिम के नाम पर बनती है. चुनाव आते ही मंदिरों की साजसज्जा चालू हो जाती है, सड़कों को दुरुस्त करने की फुरसत ही नहीं रहती क्योंकि वोट और सत्ता जब इन से नहीं मिलेगी तो कोई क्यों चिंता करेगा.

क्या जनता कभी अपनी जिम्मेदारी समझोगी?

सीमा कनौजिया – भद्दे डांस, चुटकुलिया बातचीत को किया मशहूर

Society News in Hindi: सोशल मीडिया (Social Media) पर इन्फ्लुएंसर (Influencer) सीमा कनौजिया अपने क्रिंज कंटैंट (cringe content) को ले कर खासा चर्चित रहती है. वह रील्स (Reels) के खेल को अच्छे से जानती है. स्किल्स (Skills) न होने के बावजूद उसे यह अच्छे से पता है कि सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की कमी नहीं जो उस के कंटैंट को पसंद कर ही लेंगे.

आज जिस को देखो वह मोबाइल फोन में आंखें गड़ाए बैठा रहता है. यह भी नहीं है कि लोग मोबाइल में कुछ नौलेजिबल कंटैंट देख रहे हों. वे देख रहे होते हैं नाली मे लेटते हुए आदमी को, वे देखते हैं मैट्रो में अजबगजब डांस करते हुए युवकयुवतियों को, वे देखते हैं भीड़भाड़ वाली मार्केट में घुस कर डांस व अजीबअजीब हरकतें करते युवाओं को.

इन सब से भी इन का पेट नहीं भरता तो ये लोग कच्ची हरीमिर्च खाने वाले और अपनी छाती पीटते हुए लोगों को देखते हैं. यही है आजकल का कंटैंट और इस तरह के कंटैंट को सोशल मीडिया की भाषा में क्रिंज कंटैंट कहते हैं.

असल में, क्रिंज कंटैंट का मतलब होता है कुछ ऐसी चीजें या वीडियो जिन्हें देख कर लोग अजीब महसूस करते हैं. इस तरह के कंटैंट आमतौर पर भद्दे डांस, चुटकुलिया बातचीत होते हैं. इन क्रिंज कंटैंट्स को देख कर लोग अनकम्फर्टेबल फील करते हैं. हालांकि इसे लोग मनोरंजन का एक साधन ही मानते हैं.
एक समय पर टिकटौक पर ऐसे वीडियोज खूब वायरल हुए थे, जिन्हें देख कर लोग क्रिंज फील करते थे. आजकल यही क्रिंज कंटैंट एक बार फिर अलगअलग सोशल प्लेटफौर्म्स पर वायरल हो रहे हैं.

इंडिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो क्रिंज कंटैंट पेश करते हैं, जैसे भुवन बाम (बीबी की वाइन्स), आशीष चंचलानी, कैरीमिनाटी, पुनीत सुपस्टार, जोगिंदर (थारा भाई जोगिंदर), दीपक कलाल, पूजा जैन (डिंचेक पूजा), एम सी स्टैन और सीमा कनौजिया.

लेकिन बात अभी यहां सीमा कनौजिया की करें तो वह अपनी वीडियोज में आखिर किस तरह का कंटैंट पेश करती है जो लोगों को क्रिंज लगता है. इंस्टाग्राम पर उस के डांस और दुलहन की तरह सजते हुए कई वीडियोज आप को देखने को मिल जाएंगे.

ऊटपटांग हरकतों के लिए चर्चित

बात करें अगर सीमा कनौजिया के वीडियोज की तो जहां कहीं भी कोई लड़की ऊटपटांग हरकतें करती हुई नजर आए तो समझ जाना चाहिए कि वह लड़की कोई और नहीं, बल्कि सीमा कनौजिया ही है.
वैसे, सीमा की एक खास पहचान भी है. वह पहचान है मुंह घुमा के ‘है है है है’ करते रहना, वह भी बेमतलब में, फालतू में. उस का यह ‘है है…’ करना अच्छेखासे इंसान को इरिटेट करने का दम रखता है. साथ ही, किसी भी व्यक्ति को गुस्सा दिला सकता है.

इस के अलावा उस का बेतुका डांस आप के सिरदर्द का कारण बन सकता है. उस के डांस और गाने के बीच में कोई तालमेल नहीं होता. तालमेल तो छोड़िए, उस के डांस में डांस ही नहीं.

वैसे तो टिकटौक के समय सीमा के बहुत से अजीबोगरीब वीडियोज वायरल हुए थे, जिन में कभी वह किचन में खाना बनाते हुए दिखती है और फिर एकदम से नाचने लगती है तो कभी किचन में खाना बनाते हुए कहती है, ‘है है, फ्रैंड्स लोग. आज मैं ने परांठे बनाए हैं, आओ खा लो. फ्रैंड्स लोग आज मैं भंडारे में जा रही हूं. क्या आप ने कभी भंडारे में खाना खाया है?’ कभी वह तरबूज और आम खाते हुए वीडियो बनाती है, वह भी भद्दे तरीके से.

वह इस से भी बाज नहीं आती तो गुसलखाने में कपड़े धोते हुए दिख जाती है तो कभी बरतन साफ करते हुए दिखती है. इतना ही नहीं, इन सब कामों को करते हुए वह हैलो फ्रैंड्स ‘है है है’ करना नहीं भूलती. उस के इस तरह के कंटैंट को ही लोग क्रिंज कहते हैं.

पब्लिक में ठुमके

आजकल लोग सीमा कनौजिया की एक वायरल वीडियो के बारे में बात कर रहे हैं. यह वीडियो दिल्ली मैट्रो की है. इस में सीमा मशहूर बौलीवुड गाने ‘अनदेखी अनजानी…’ पर डांस कर रही है. पहले वह मैट्रो के अंदर ठुमके लगाती है, फिर बाहर आ जाती है और प्लेटफौर्म पर नाचने लगती है. वीडियो में दिख रहा है कि कैसे उस के पीछे खड़े लोग उस का डांस देख कर हैरान हो रहे हैं. कई लोग तो उस का डांस देख कर अपनी हंसी तक नहीं रोक पा रहे हैं.

सीमा के इस डांस को देख कर कई लोगों ने कमैंट किया-

जिस में एक यूजर ने लिखा, ‘‘ये कौन सी बीमारी है.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘कृपया कोई इस को पागलखाने में डालो.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘ये नहीं सुधरने वाली.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘इसे कौन सा दौरा पड़ता है. मैं जा रहा हूं पुलिस स्टेशन कंप्लेन करवाने. मुझे सोशल पर मानसिक रूप से बहुत सताया गया है.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘मिरगी की बीमारी है, चप्पल सुंघाओ.’’

एक दूसरी वीडियो में सीमा रेलवे प्लेटफौर्म पर बौलीवुड के गाने ‘मेरा दिल तेरा दीवाना…’ पर लेटलेट कर डांस कर रही है. सीमा ने अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर यह डांस वीडियो अपलोड किया था. इस वायरल वीडियो पर लोग तरहतरह के रिऐक्शन दे रहे हैं. कोई उस लड़की का ‘कौन्फिडैंस’ देख कर हैरान है तो कोई उसे अपने ‘दिमाग का इलाज’ कराने की सलाह दे रहा है.

एक यूजर ने लिखा, ‘‘कोई इसे उठा कर पटरी पर फेंक दो.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘इस ने तो लेटलेट कर पूरा प्लेटफौर्म ही साफ कर दिया है.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘जिगर होना चाहिए पब्लिकली ऐसा डांस करने के लिए.’’

सीमा के इस वीडियो पर एक यूजर ने लिखा, ‘‘ईजी लगता है, ईजी लगता है, आर्ट है आर्ट ऐसा क्रिंज कंटैंट बनाना.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘कौन्फिडैंस होना चाहिए इतना बकवास डांस करने के लिए.’’एक अन्य यूजर ने कमैंट किया, ‘‘किसकिस को ये बावली या पागल लगती है, लाइक करो.’’

उस की एक और वीडियो है जिस में वह फेरीवाले को अपना वीडियो दिखा रही है. हालांकि, वह फेरीवाला उस की वीडियो में इंटरैस्ट नहीं ले रहा. ऐसी ही उस की कई और वीडियोज हैं जिन में वह बस घर के घरेलू काम करती हुई नजर आती है. वह अपने एक वीडियो में भद्दी तरह से खाना खाती हुई भी दिखती है. अगर कोई उस की यह वीडियो देख ले तो बिना खाना खाए ही टेबल से उठ जाएगा.

उस की फौलो लिस्ट की बात करें तो सीमा के इंस्टाग्राम पर 4 लाख 62 हजार से ज्यादा फौलोअर्स हैं. उस की 2 हजार 3 सौ पोस्ट हैं. इन सभी पोस्ट में सब से ज्यादा उस की बेहूदा हरकतें करती हुई वीडियोज हैं जिन का कोई सिरपैर नहीं है. ये वीडियोज उस के यूट्यूब चैनल पर भी अपलोड हैं.

वह अकसर फैशन शो में रैंप वाक करती हुई दिखाई देती है. इस के अलावा वह मेकअप आर्टिस्ट के शो में चीफ गेस्ट के तौर पर भी जाती है और अपनी स्किन पर मेकअप भी करवाती है. इस तरह वह उन का प्रमोशन कर के भी पैसा छापती है.

असल में, क्रिंज कंटैंट क्रिएटर केवल यह चाहते हैं कि लोग उन के द्वारा बनाए गए कंटैंट पर हंसें. उन्हें क्रिंज कंटैंट बनाने के लिए यही लोग प्रेरित करते हैं. आखिर, उन्हें पहचान मिल रही है. पैसा मिल रहा है फिर क्यों भला वे इस फेम को खोना चाहेंगे. ऐसे में हम और आप लोगों को ही इस तरह का कंटैंट देखना बंद करना होगा. आखिर हमारे पास भी तो खाली समय और फ्री डेटा नहीं है.

अगर हम कहें कि लोग आखिर क्रिंज कंटैंट क्यों बनाते हैं तो इस का जवाब बहुत साफ और सरल है. बारबार क्रिंज कंटैंट को देखना ही इन्हें बनाने वालों को बढ़ावा देता है. इसी कारण कंटैंट क्रिएटर क्रिंज कंटैंट बनाते हैं. वे बेवकूफ नहीं हैं, उन्हें पता है कि वे क्या कर रहे हैं. सच तो यह है कि वे बहुत स्मार्ट हैं. वे जानते हैं कि जनता जो देखती है वह बिकता है. हमारी आबादी एक अरब से ज्यादा है और लोग हर तरह के कंटैंट देखते हैं.

क्रिंज कंटैंट का कंज्यूमर

लोकप्रियता और पहचान एक बात है, पैसा बिलकुल दूसरी बात है. अब जब घटिया कंटैंट सच में पैसा कमाने का मौका बन रहा है तो क्या कोई इस मौके को छोड़ेगा? कोई इस तरह के मौके को अपने हाथ से जाने देगा? सभी लोग कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. साथ ही, वे सोशल फेम भी चाहते हैं. इसीलिए लोग क्रिंज कंटैंट से पैसा कमाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं. कोई भी टैलेंट को इम्पोर्टेंस नहीं देता है. सभी पैसे के पीछे भाग रहे हैं जिस के कारण वे क्रिंज कंटैंट लोगों के सामने परोस रहे हैं और पैसा कमा रहे हैं.

इस के पीछे एक सामाजिक कारण भी है. वह है दूसरों के अजीब और शर्मनाक पल देख कर लोगों को खुशी मिलती है. इस के अलावा, एक टर्म है ‘शाडेनफ्रूड.’ यह एक जरमन शब्द है जिस का अर्थ है दूसरों के दुर्भाग्य या शर्मिंदगी में खुशी या मनोरंजन की तलाश करना. यह ज्यादा से ज्यादा कंटैंट देखने के लिए एक प्रेरणा हो सकता है.

दिमाग नहीं लगाना पड़ता

आखिर क्रिंज कंटैंट पर ज्यादा व्यूज क्यों आते हैं, इस का कारण है कि इस तरह के कंटैंट में जो दिखाया जाता है, कई बार हम वह सभी करना चाहते हैं लेकिन सोशल प्रैशर की वजह से हम यह सब नहीं कर पाते हैं. इस के अलावा हम लोग अपने दोस्तों से वाहवाही लूटना चाहते हैं. बहुत सारे लोग हैं जो कम समय में ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. यही लोग आजकल क्रिंज कंटैंट का सहारा ले रहे हैं. इस में ज्यादा दिमाग भी नहीं लगाना पड़ता या यह कहें कि दिमाग घर छोड़ कर ही आना होता है.

ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि युवाओं को ऊटपटांग हरकतें करना, जैसे अपने ऊपर नाली का पानी डालना, चीखनाचिल्लाना, उलटापुलटा डांस करना वगैरहवगैरह करना ही पसंद आ रहा है. वे लोग ऐसा ही कंटैंट देखना चाहते हैं और क्रिंज कंटैंटर को इस से पैसा भी मिलता है. इसलिए काफी लोग क्रिंज कंटैंट बना रहे हैं.

क्रिंज कंटैंट की बढ़ती संख्या को देखते हुए इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट (आईआईएम) उदयपुर ने ‘क्रिंज कंटैंट की स्टडी के लिए एक टीम बनाई है. यह टीम कंटैंट बनाने वाले लोगों पर नजर रखेगी. आईआईएम उदयपुर की इस स्टडी में यह भी पता लगाया जाएगा कि रियल लाइफ में इन क्रिएटर्स को लोग कितना मानते हैं.

आईआईएम उदयपुर की यह स्टडी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, महाराष्ट्र के सांगली, पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर, आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम, राजस्थान के उदयपुर और असम के लाखीपुर में की जाएगी.

अभी तक आईआईएम की टीम के मुताबिक सफलता और फेम पाना छोटे शहरों के इन क्रिएटर्स का लक्ष्य होता है, इसलिए वे क्रिंज कंटैंट बनाने से भी नहीं कतराते हैं क्योंकि ऐसा करने से लोग उन्हें याद रखते हैं.

बुढ़ापे पर भारी पड़ती बच्चों की शिक्षा, क्या है हल

Society News in Hindi: मई जून में बच्चों की बोर्ड परीक्षाओं (Board Exam) के परिणाम आने के साथ ही मां बाप का आर्थिक मोर्चे पर इम्तिहान शुरू हो जाता है. जुलाई से शिक्षासत्र (Session) शुरू होते ही अभिभावकों (Parents) में ऐडमिशन दिलाने की भागदौड़ शुरू हो जाती है. बच्चे को किस कोर्स में प्रवेश दिलाया जाए? डिगरी या प्रोफैशनल कोर्स (Professional Course) बेहतर रहेगा या फिर नौकरी की तैयारी कराई जाए? इस तरह के सवालों से बच्चों समेत मांबाप को दोचार होना पड़ता है. शिक्षा के लिए आजकल सारा खेल अंकों का है. आगे उच्च अध्ययन के लिए बच्चों और अभिभावकों के सामने सब से बड़ा सवाल अंकों का प्रतिशत होता है. 10वीं और 12वीं की कक्षाओं में अंकों का बहुत महत्त्व है. इसी से बच्चे का भविष्य तय माना जा रहा है. नौकरी और अच्छा पद पाने के लिए उच्चशिक्षा (Higher Education) का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है.

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में महंगाई चरम पर है और मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों के भविष्य को ले कर की जाने वाली चिंता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. अभिभावकों को शिक्षा में हो रहे भेदभाव के साथ साथ बाजारीकरण की मार को भी झेलना पड़ रहा है. ऊपर से हमारी शिक्षा व्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी एक खतरनाक पहलू है.

गहरी निराशा

सीबीएसई देश में शिक्षा का एक प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है पर राज्यस्तरीय बोर्ड्स की ओर देखें तो पता चलता है कि देश में 12वीं क्लास के ज्यादातर छात्र जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं वहां हालात ठीक नहीं है.

हाल ही बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 12वीं के नतीजों ने राज्य में स्कूली शिक्षा पर गहराते संकट का एहसास कराया है. यहां पर कुल छात्रों में सिर्फ 34 प्रतिशत उत्तीर्ण हुए. इस साल 13 लाख में से 8 लाख से ज्यादा फेल होना बताता है कि स्थिति बेहद खराब है. छात्रों के मां बाप गहरी निराशा में हैं.

देश में करीब 400 विश्वविद्यालय और लगभग 20 हजार उच्चशिक्षा संस्थान हैं. मोटेतौर पर इन संस्थानों में डेढ़ करोड़ से ज्यादा छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इन के अलावा हर साल डेढ़ से पौने 2 लाख छात्र विदेश पढ़ने चले जाते हैं.

हर साल स्कूलों से करीब 2 करोड़ बच्चे निकलते हैं. इन में सीबीएसई और राज्यों के शिक्षा बोर्डस् स्कूल शामिल हैं. इतनी बड़ी तादाद में निकलने वाले छात्रों के लिए आगे की पढ़ाई के लिए कालेजों में सीटें उपलब्ध नहीं होतीं, इसलिए प्रवेश का पैमाना कट औफ लिस्ट का बन गया. ऊंचे मार्क्स वालों को अच्छे कालेज मिल जाते हैं. प्रवेश नहीं मिलने वाले छात्र पत्राचार का रास्ता अपनाते हैं या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू कर देते हैं.

सीबीएसई सब से महत्त्वपूर्ण बोर्ड माना जाता है. इस वर्ष सीबीएसई में 12वीं की परीक्षा में करीब साढे़ 9 लाख और 10वीं में 16 लाख से ज्यादा बच्चे बैठे थे. 12वीं का परीक्षा परिणाम 82 प्रतिशत रहा, इसमें 63 हजार छात्रों ने 90 प्रतिशत अंक पाए, 10 हजार ने 95 प्रतिशत.

कुछ छात्रों में से करीब एक चौथाई को ही ऐडमिशन मिल पाता है. बाकी छात्रों के लिए प्रवेश मुश्किल होता है. 70 प्रतिशत से नीचे अंक लाने वालों की संख्या लाखों में है जो सब से अधिक है. इन्हें दरदर भटकना पड़ता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय की बात करें तो नामांकन की दृष्टि से यह दुनिया के सब से बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है. लगभग डेढ़ लाख छात्रों की क्षमता वाले इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत 77 कालेज और 88 विभाग हैं. देशभर के छात्र यहां प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं पर प्रवेश केवल मैरिट वालों को ही मिल पाता है. यानी 70-75 प्रतिशत से कम अंक वालों के लिए प्रवेश नामुमकिन है.

सब से बड़ी समस्या कटऔफ लिस्ट में न आने वाले लगभग तीनचौथाई छात्रों और उन के अभिभावकों के सामने रहती है. उन्हें पत्राचार का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू करनी पड़ती है.

मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए कुरबानी देने को तैयार हैं. जुलाई में शिक्षासत्र शुरू होते ही अभिभावकों में ऐडमिशन की भागदौड़ शुरू हो जाती है. कोचिंग संस्थानों की बन आती है. वे मनमाना शुल्क वसूल करने में जुट जाते हैं और बेतहाशा छात्रों को इकट्ठा कर लेते हैं. वहां सुविधाओं के आगे मुख्य पढ़ाई की बातें गौण हो जाती हैं.

ऐसे में मांबाप के सामने सवाल होता है कि क्या उन्हें अपना पेट काट कर बच्चों को पढ़ाना चाहिए? मध्यवर्गीय मां बाप को बच्चों की पढ़ाई पर कितना पैसा खर्च करना चाहिए?

आज 10वीं, 12वीं कक्षा के बच्चे की पढ़ाई का प्राइवेट स्कूल में प्रतिमाह का खर्च लगभग 10 से 15 हजार रुपए है. इस में स्कूल फीस, स्कूलबस चार्ज, प्राइवेट ट्यूशन खर्च, प्रतिमाह कौपीकिताब, पैनपैंसिल, स्कूल के छोटेमोटे एक्सट्रा खर्च शामिल हैं.

मांबाप का इतना खर्च कर के अगर बच्चा 80-90 प्रतिशत से ऊपर मार्क्स लाता है, तब तो ठीक है वरना आज बच्चे की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं समझा जाता. यह विडंबना ही है कि गुजरात में बोर्ड की परीक्षा में 99.99 अंक लाने वाले छात्र वर्शिल शाह ने डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनने के बजाय धर्र्म की रक्षा करना ज्यादा उचित समझा. उस ने संन्यास ग्रहण कर लिया.

बढ़ती बेरोजगारी

यह सच है कि शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी देश के युवाओं को लील रही है. पिछले 15 सालों के दौरान 99,756 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के हैं. ये हालात बताते हैं कि देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी है. 12वीं पढ़ कर निकलने वाले छात्रों के अनुपात में कालेज उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे में छात्रों को आगे की पढ़ाई के लिए ऐडमिशन नहीं मिल पाता. छात्र और उन के मां बाप के सामने कितनी विकट मुश्किलें हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद बेरोजगारी की समस्या अधिक बुरे हालात पैदा कर रही है. देश की शिक्षाव्यवस्था बदल गई है. आज के दौर में पढ़ाई तनावपूर्ण हो गई है. अब देश में शिक्षा चुनौतीपूर्ण, प्रतिस्पर्धात्मक हो चुकी है और परिणाम को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा है. बच्चों को पढ़ानेलिखाने के लिए मांबाप पूरी कोशिश करते हैं. छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिए दबाव रहता है. कई बार ये दबाव भाई, बहन, परिवार, शिक्षक, स्कूल और समाज के कारण होता है. इस तरह का दबाव बच्चे के अच्छे प्रदर्शन के लिए बाधक होता है.

जहां तक बच्चों का सवाल है, कुछ बच्चे शैक्षणिक तनाव का अच्छी तरह सामना कर लेते हैं पर कुछ नहीं कर पाते और इस का असर उन के व्यवहार पर पड़ता है.

असमर्थता को ले कर उदास छात्र तनाव से ग्रसित होने के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं या कम मार्क्स ले कर आते हैं. बदतर मामलों में तनाव से प्रभावित छात्र आत्महत्या का विचार भी मन में लाते हैं और बाद में आत्महत्या कर लेते हैं. इस उम्र में बच्चे नशे का शिकार भी हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में मांबाप की अपेक्षा भी होती है कि बच्चे अच्छे मार्क्स ले कर आएं, टौप करें ताकि अच्छे कालेज में दाखिला मिल सके या अच्छी जौब लग सके.

दुख की बात है कि हम एक अंधी भेड़चाल की ओर बढ़ रहे हैं. कभी नहीं पढ़ते कि ब्रिटेन में 10वीं या 12वीं की परीक्षाओं में लड़कों या लड़कियों ने बाजी मार ली. कभी नहीं सुनते कि अमेरिका में बोर्ड का रिजल्ट आ रहा है. न ही यह सुनते हैं कि आस्ट्रेलिया में किसी छात्र ने 99.5 फीसदी मार्क्स हासिल किए हैं पर हमारे यहां मई जून के महीने में सारा घर परिवार, रिश्तेदार बच्चों के परीक्षा परिणाम के लिए एक उत्सुकता, भय, उत्तेजना में जी रहे होते हैं. हर मां बाप, बोर्ड परीक्षा में बैठा बच्चा हर घड़ी तनाव व असुरक्षा महसूस कर रहा होता है.

कर्ज की मजबूरी

मैरिट लिस्ट में आना अब हर मांबाप, बच्चों के लिए शिक्षा की अनिवार्य शर्त बन गई है. मांबाप बच्चों की पढ़ाई पर एक इन्वैस्टमैंट के रूप में पैसा खर्र्च कर रहे हैं. यह सोच कर कर्ज लेते हैं मानो फसल पकने के बाद फल मिलना शुरू हो जाएगा पर जब पढ़ाई का सुफल नहीं मिलता तो कर्ज मांबाप के लिए भयानक पीड़ादायक साबित होने लगता है.

मध्यवर्गीय छात्रों के लिए कठिन प्रतियोगिता का दौर है. इस प्रतियोगिता में वे ही छात्र खरे उतरते हैं जो असाधारण प्रतिभा वाले होते हैं. पर ऐसी प्रतिभाएं कम ही होती हैं. मध्यवर्ग में जो सामान्य छात्र हैं, उन के सामने तो भविष्य अंधकार के समान लगने लगता है. इस वर्ग के मां बाप अक्सर अपने बच्चों की शैक्षिक उदासीनता यानी परीक्षा में प्राप्त अंकों से नाराज हो कर उन के साथ डांट डपट करने लगते हैं.

उधर निम्नवर्गीय छात्रों के मां बाप अधिक शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं. कामचलाऊ शिक्षा दिलाने के बाद अपने व्यवसाय में हाथ बंटाने के लिए लगा देते हैं.

एचएसबीसी के वैल्यू औफ एजुकेशन फाउंडेशन सर्वेक्षण के अनुसार, अपने बच्चों को विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए तीन चौथाई मां बाप कर्ज लेने के पक्ष में हैं. 41 प्रतिशत लोग मानते हैं कि अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना सेवानिवृत्ति के बाद के लिए उन की बचत में योगदान करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है.

एक सर्वे बताता है कि 71 प्रतिशत अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए कर्ज लेने के पक्ष में हैं.

अब सवाल यह उठता है कि मां बाप को क्या करना चाहिए?

मांबाप को देखना चाहिए कि वे अपने पेट काट कर बच्चों की पढ़ाई पर जो पैसा खर्च कर रहे हैं वह सही है या गलत. 10वीं और 12वीं कक्षा के बाद बच्चों को क्या करना चाहिए,  इन कक्षाओं में बच्चों के मार्क्स कैसे हैं? 50 से 70 प्रतिशत, 70 से 90 प्रतिशत अंक और 90 प्रतिशत से ऊपर, आप का बच्चा इन में से किस वर्ग में आता है. अगर 90 प्रतिशत से ऊपर अंक हैं तो उसे आगे पढ़ाने में फायदा है. 70 से 80 प्रतिशत अंक वालों पर आगे की पढ़ाई के लिए पैसा खर्च किया जा सकता है. मगर इन्हें निजी संस्थानों में प्रवेश मिलता है जहां खर्च ज्यादा है और बाद में नौकरियां मुश्किल से मिलती हैं. इसी वर्ग के बच्चे बिगड़ते भी हैं और अनापशनाप खर्च करते हैं.

तकनीकी दक्षता जरूरी

कर्ज ले कर पढ़ाना जोखिम भरा है पर यदि पैसा हो तो जोखिम लिया जा सकता है. अगर 70, 60 या इस से थोड़ा नीचे अंक हैं तो बच्चे को आगे पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होगा पर शिक्षा दिलानी जरूरी होती है. यह दुविधाजनक घाटे का सौदा है.  इन छात्रों को सरकारी संस्थानों में प्रवेश मिल जाता है जहां फीस कम है.

36 से 50 प्रतिशत अंक वाले निम्न श्रेणी में गिने जाते हैं. इन बच्चों के मांबाप को चाहिए कि वे इन्हें अपने किसी पुश्तैनी व्यापार या किसी छोटी नौकरी में लगाने की तैयारी शुरू कर दें.

ऐसे बच्चों को कोई तकनीकी ट्रेंड सिखाया जा सकता है. कंप्यूटर, टाइपिंग सिखा कर सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में क्लर्क जैसी नौकरी के प्रयास किए जा सकते हैं. थोड़ी पूंजी अगर आप के पास है तो ऐसे बच्चों का छोटा मोटा व्यापार कराया जा सकता है.

शिक्षा के लिए मां बाप पैसों का इंतजाम कर्ज या रिश्तेदारों से उधार ले कर या जमीन जायदाद बेच कर करते हैं. यह कर्ज बुढ़ापे में मां बाप को बहुत परेशान करता है. ऐसे में कम मार्क्स वाले बच्चों के लिए आगे की पढ़ाई पर कर्ज ले कर खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है.

देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में कम अंकों वाले छात्रों को मोटा पैसा ले कर भर लिया जाता है पर यहां गुणवत्ता के नाम पर पढ़ाई की बुरी दशा है. एक सर्वे में कहा गया है कि देशभर से निकलने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा इंजीनियर काम करने के काबिल नहीं होते. केवल इंजीनियर ही नहीं, आजकल दूसरे विषयों के ग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट छात्रों के ज्ञान पर भी सवाल खड़े होते रहते हैं. प्रोफैशनलों की काबिलीयत भी संदेह के घेरे में है.

मां बाप को देखना होगा कि आप का बच्चा कहां है? किस स्तर पर है?

मध्यवर्ग के छात्र को प्रत्येक स्थिति में आत्मनिर्भर बनाना होगा क्योंकि मां बाप अधिक दिनों तक उन का बोझ नहीं उठा सकते.

शिक्षा का पूरा तंत्र अब बदल रहा है. मां बाप अब 12वीं के बाद दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम यानी पत्राचार के माध्यम से भी बच्चों को शिक्षा दिला सकते हैं. दूरस्थ शिक्षा महंगी नहीं है. इस माध्यम से आसानी से किसी भी बड़े व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में बहुत कम फीस पर प्रवेश लिया जा सकता है. कई छोटे संस्थान भी किसी विशेष क्षेत्र में कौशल को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. इस तरह यह पढ़ाई मां बाप के बुढ़ापे पर भारी भी नहीं पड़ेगी.

अकेलेपन से कब तक जूझते रहेंगे बुजुर्ग

7 अगस्त, 2017 को मुंबई के ओशिवारा में अपनी मां से मिलने पहुंचे ऋतुराज साहनी को बंद फ्लैट से अपनी मां आशा साहनी का कंकाल मात्र ही मिला. अमेरिका में बसे बेटे ने आखिरी बार, अपनी मां से फोन पर बात अप्रैल 2016 में की थी. पुलिस को फ्लैट से सुसाइड नोट मिला, ‘‘मेरी मौत के लिए किसी को दोषी न ठहराया जाए.’’ आखिरी बार की बातचीत में महिला ने अपने पुत्र से कहा था, ‘मैं घर में बहुत अकेलापन महसूस करती हूं और ओल्डएज होम जाना चाहती हूं.’ आशाजी के नाम पर सोसायटी में करीब 5 से 6 करोड़ रुपए के 2 फ्लैट हैं.

संदर्भ यही है कि महिला अपने अकेलेपन से ऊब गई थी और मौत को ही अंतिम विकल्प मान कर इस दुनिया से चली गई. मगर अफसोस इस बात का है कि उस के पासपड़ोस के लोगों ने एक बार भी उस विषय में चर्चा नहीं की. क्या उस के घर अखबार वाला या कामवाली बाई कोई भी नहीं आती थी? क्या अपने पुत्र के सिवा किसी अन्य से बातचीत नहीं होती थी? क्या पूरी मुंबई या भारत में उस से संपर्क रखने वाले, उस के सुखदुख के साथी, पड़ोसी, मित्र या रिश्तेदार नहीं बचे थे? ऐसा कैसे हो सकता है जबकि उस की उम्र मात्र 63 वर्ष थी.

समाज और बुजुर्ग

भारत में 2020 तक 20 प्रतिशत भारतीय मानसिक समस्याओं का सामना कर रहे होंगे, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ है. हर वर्ष 2 लाख लोग आत्महत्या करते हैं जोकि विश्व में होने वाली आत्महत्याओं का 25 प्रतिशत है. देश में अकेलापन और आर्थिक व मानसिक असुरक्षा बुजुर्गों के दुख के प्रमुख कारण हैं.

हम समाज से हैं और समाज हम से है. व्यक्ति परिवार, पड़ोस, विद्यालय, समुदाय, राज्य, धर्म आदि विभिन्न लोगों से जुड़ा रहता है. इन सब के बावजूद हम अकेले कैसे पड़ जाते हैं, यह विचारणीय है.

सही कहावत है, बचपन खेल कर खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख कर रोया. बचपन और जवानी का समय, विभिन्न प्रकार की गतिविधियों, जिम्मेदारियों के बीच कब गुजर जाता है, पता नहीं चलता. लेकिन वृद्धावस्था की समस्याओं की व्यापकता, गंभीरता और जटिलता वर्तमान समय की प्रमुख समस्या के रूप में सामने आ रही है. जैसेजैसे लोगों के रहनसहन के स्तर में उन्नति हुई है, वैसे ही वृद्ध व्यक्तियों की अधिक समय तक जीवित रहने की संभावना भी बढ़ती जा रही है. सो, वृद्ध व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि हो रही है.

समाज की यह परंपरा रही है कि वृद्धों के पुत्र व अन्य संबंधी उन की देखभाल करते हैं. इस के बावजूद, कई परिवारों में वृद्धों को पर्याप्त व आवश्यक देखभाल और सहायता नहीं मिल पाती. इस कारण वे दुखी व शारीरिकमानसिक बीमारियों से त्रस्त रहते हैं. वृद्धों की दुखदाई परिस्थिति के लिए परिवार का परस्पर मतभेद, कमजोर आर्थिक स्थिति, साधनों का अभाव और संतानों का विदेश जा कर बस जाना प्रमुख कारण हैं.

society

क्या न करें : रेमंड के मालिक विजयपत सिंघानिया का कहना है कि उन का पुत्र उन्हें कौड़ीकौड़ी के लिए तरसा रहा है और वे करोड़ों की जायदाद बेटे के नाम करने के बाद मुंबई की ग्रैंड पराडी सोसायटी में किराए के मकान में रह रहे हैं. जब अरबों की जायदाद पा कर भी किसी संतान में लालच आ सकता है तो मामूली हैसियत वाले परिवारों की बात ही क्या? अपने जीतेजी प्रौपर्टी अपनी संतानों के हवाले बिलकुल नहीं करनी चाहिए.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ बुजुर्ग ही अकेलेपन के शिकार हो मानसिक अवसाद से घिर जाते हैं बल्कि युवा भी जब समाज से कटते हैं तो वे भी मानसिक रोगी बन जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं या अपने को घर में कैद कर रहने लगते हैं. ऐसे कई युवकयुवतियों को घर से पुलिसबल द्वारा जबरन अस्पताल में भरती कराने की खबरें भी समयसमय पर सुर्खियां बनती रहती हैं.

क्या करें : अपनी आर्थिक सुरक्षा बरकरार रखनी चाहिए. अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मौसमी फल, सब्जी व स्वास्थ्यवर्धक आहार लेना चाहिए. पड़ोसी, रिश्तेदार व मित्रों के संपर्क में रहना चाहिए. सभी की यथासंभव आर्थिक, मानसिक या शारीरिक स्तर की मदद जरूर करनी चाहिए. जब आप आगे बढ़ कर दूसरों के सुखदुख में काम आएंगे तभी आप दूसरों की नजरों में आ पाएंगे.

अकेलेपन को अपना साथी न बना कर नियमित रूप से अपनी सोसायटी, महल्ले के क्लब या पार्क में जाएं. लोगों के संपर्क में रह कर उन के सुखदुख जानें. इस तरह के संपर्क आप को जीवन के सकारात्मक रुख की ओर ले जाते हैं.

यदि आर्थिक रूप से समर्थ हैं तो ड्राइवर, कामवाली, घरेलू नौकर की समयसमय पर आर्थिक मदद अवश्य करें. यदि धनाभाव है तो कमजोर तबके के बच्चों की पढ़ाई में निशुल्क या कम पैसे से ट्यूशन दे कर अपना समय व्यतीत करें व अकेलापन भी दूर करें.

यदि आप संयुक्त परिवार में हैं तो घर के सभी सदस्यों को साथ ले कर चलें. किसी भी प्रकार का भेदभाव पारिवारिक संबंधों की कड़वाहट का कारण बन सकता है. अगर आप अकेले ही वृद्धावस्था का सफर काट रहे हैं और आप की संतानें दूसरे शहरों या विदेशों में बसी हैं तो आप को अपने बच्चों से संपर्क में रहने से ज्यादा, अपने पड़ोसियों के संपर्क में रहना जरूरी है. आप की किसी भी परेशानी में बच्चों के पहुंचने से पहले पड़ोसी स्थिति संभाल लेंगे. यह तभी संभव है जब आप पड़ोसियों से मधुर संबंध रखेंगे.

आप अपनी सोसायटी, महल्ले के बुजुर्ग लोगों का एक अलग ग्रुप बना कर अपना समय बहुत ही अच्छे ढंग से बिता सकते हैं. बारीबारी से चायपानी का प्रोग्राम, साथ घूमने का प्रोग्राम, लूडो, कैरम, शतरंज जैसे खेल साथ में खेलने का प्रस्ताव भी समय को रोचक बनाता है.

सब का संगसाथ

महिमाजी पूरे महल्ले के बच्चों को अपने घर पर बुला कर रमी खेलती मिल जाएंगी. आतेजाते को पुकारेंगी, ‘‘ए लली, थोड़ी देर रमी खेलो न.’’ सब जानते हैं कि वे ताश खेलने की काफी शौकीन हैं. जो भी फुरसत में रहता है, उन के पास जा कर ताश खेल लेता है. किसी दिन उन की आवाज न सुनाई दे तो लोग खुद ही उन का हालचाल पूछने लगते हैं.

सुनयनाजी भजन, सोहर, बन्नाबन्नी सभी लोकगीत बहुत सुरीले स्वर में गाती हैं. हर घर के तीजत्योहार या किसी भी प्रोग्राम में उन की उपस्थिति अनिवार्य है. उन के लिए हर घर से निमंत्रण आता है.

महेशजी ने व्यायाम में महारत हासिल की हुई है. वे पार्क में नियमित रूप से लोगों को योग के टिप्स देते मिल जाते हैं. यदि वे पार्क में न दिखें, तो लोग उन का हालचाल लेने उन के घर पहुंच जाते हैं.

विनयजी को गप मारने की आदत है. अपने दरवाजे पर बैठेबैठे वे हर आनेजाने वाले की कुशलता पूछ लेते हैं. जिस दिन वे न दिखाई दें, उस दिन लोग उन के घर ही चल देते हैं.

प्रकाशजी एक बडे़ से बंगले के मालिक हैं. अपने बच्चों के विदेश प्रवास और पत्नी की मृत्यु के बाद अकेलेपन को दूर करने का उन्होंने एक नायाब तरीका ढूंढ़ा. उन्होंने अपने बंगले के आधे हिस्से में असहाय, निराश्रित वृद्धजन के लिए द्वार खोल दिए, जिस में रहनेखाने की सुविधा के बदले श्रमदान को अधिक महत्त्व दिया. वहां पर दिनभर किसी भी कार्य में दिया योगदान ही आप को वहां की सुविधा का लाभार्थी बनाता है, जैसे साफसफाई, खाना बनाना या बगीचे का रखरखाव. इस प्रकार वे अपनी उम्र के लोगों से जुड़े हुए हैं और वहीं वे उन का सहारा भी बन गए हैं.

समाज को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है जहां धन, यश व भीड़भाड़ के बावजूद वृद्ध एकाकी हो कर अपनों के इंतजार में दम तोड़ रहे हैं.

 

अमीर लोगों के महंगे अंधविश्वास, नेता अभिनेता सब हैं शामिल

Society News in Hindi: मनुष्य एक जिज्ञासु प्राणी है. वह तमाम चीजों के साथसाथ अपना भविष्य भी जानना चाहता है. शायद अपनी इसी मनोवृत्ति की तृप्ति के लिए ही उस ने ज्योतिषशास्त्र (Astrology) की खोज की होगी. लेकिन, बाजार में ज्योतिष के नाम पर मनगढ़ंत किताबों के साथ ढोंगीपाखंडी बाबाओं की भरमार हो गई है. उन का मकसद लोगों की मजबूरियों का लाभ उठाना और पैसा बनाना है. मामूली पत्थर को भी ये लोग महंगे नगीने (Precious Stones) के नाम पर बेच कर लोगों को आसानी से ठग लेते हैं. यही कारण है कि हर गली, महल्ला, गांव, शहर, नगर, महानगर में ज्योतिषीय उपाय से समस्या समाधान करने का साइनबोर्ड टंगा हुआ है. मजबूर और बीमार आदमी उन के जाल में आसानी से फंस जाता है.

चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत, चाहे पूर्व भारत हो या पश्चिम भारत, ज्योतिषियों की दुकान हर जगह खुली हुई हैं. आजकल तो टीवी चैनलों और अखबारों में ज्योतिषियों की बाढ़ सी आ गई है. सुबह से कार्यक्रम शुरू होते हैं तो मध्यरात्रि तक चलते रहते हैं. टीवी पर चलने वाले कार्यक्रमों के कंटैंट और प्रेजैंटेशन डर और भय पैदा करने वाले होते हैं.

शुभअशुभ का भ्रमजाल

जन्मकुंडली में 9 ग्रह बताए जाते हैं. ये ग्रह हैं सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु. इस में पृथ्वी का कोई स्थान नहीं है. जबकि वैज्ञानिक तथ्य यह है कि मनुष्य के जीवन पर सब से ज्यादा प्रभाव पृथ्वी का ही पड़ता है.

जब मौसम और जलवायु में बदलाव होता है, तब मनुष्य की जैविक क्रियाओंप्रतिक्रियाओं में परिवर्तन होने लगता है. इन का प्रभाव इतना होता है कि मनुष्य को मौसम के अनुसार कपड़े पहनने पड़ते हैं. लेकिन ज्योतिषशास्त्र में मौसम और जलवायु का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस की कहीं कोई चर्चा नहीं है.

वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि सूर्य तारा है, ग्रह नहीं. लेकिन ज्योतिषशास्त्र में अब भी सूर्य को ग्रह ही माना जाता है. इस का मुख्य कारण यह है कि ज्योतिषशास्त्र में सैकड़ों सालों से नई खोज हुई ही नहीं है. नई खोज होगी कैसे? आज ऐसे हजारों ज्योतिषी हैं जिन को केवल संस्कृत भाषा का ही ज्ञान है.

शिकार और शिकारी

ज्योतिषियों के शिकार केवल अनपढ़गंवार या सामान्य लोग ही नहीं हैं, बल्कि पढे़लिखे, बुद्धिजीवी, बड़ेबड़े धन्नासेठ, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, आईएएस अफसर, आईपीएस अफसर, वकील, नेता, अभिनेताअभिनेत्री भी इन ज्योतिषियों की सेवा लेते हैं. फिल्मी दुनिया में तो जितना अंधविश्वास है उतना तो अनपढ़गंवार लोग भी नहीं मानते हैं.

निर्देशक राकेश रोशन अपनी फिल्मों के नाम क अक्षर से रखते हैं, जैसे ‘करण अर्जुन’, ‘कहो ना प्यार है’, ‘कारोबार’, ‘कामचोर’, ‘कृष’, ‘कोयला’ इत्यादि. ‘कभी सास भी बहू थी’ टीवी धारावाहिक की निर्मात्री और अभिनेता जितेंद्र की बेटी एकता कपूर भी अपने धारावाहिकों और फिल्मों का नाम क अक्षर से ही रखती हैं, जैसे ‘कभी मैं झूठ नहीं बोलता’, ‘कृष्णा कौटेज’, ‘कसौटी जिंदगी की’, ‘कहीं किसी रोज’ इत्यादि. जबकि एकता कपूर की क अक्षर से टाइटल वाली सभी फिल्में फ्लौप हो गईं. जबकि उन की द अक्षर की टाइटल वाली फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ सफल हो गई. फिर भी उन का अंधविश्वास ज्यों का त्यों है.

ऋतु चौधरी जब फिल्मों में अभिनेत्री बनने आईं और निर्देशक सुभाष घई से मिलीं तो सुभाष घई ने ऋतु चौधरी को सलाह दी कि उन के लिए म अक्षर लक्की है. उन की सभी फिल्मों की अभिनेत्रियों के नाम म अक्षर से हैं. इसलिए तुम अपना नाम म से रख लो. तो ऋतु चौधरी महिमा चौधरी बन गईं. और फिल्म बनी ‘परदेस.’ इतना कर्मकांड करने के बाद भी न फिल्म परदेस चली और न ही अभिनेत्री महिमा चौधरी का कैरियर आगे बढ़ सका.

सीमा से परे अंधविश्वास

यह अंधविश्वास केवल हिंदू धर्म में नहीं है. इसलाम धर्म को मानने वाले भी अंधविश्वासी होते हैं. जब यूसुफ खान फिल्म में अभिनेता बनने आए तो उन्होंने प्रसिद्ध ज्योतिषी पंडित नरेंद्र शर्मा से अपना नामकरण संस्कार दिलीप कुमार के रूप में कराया. शाहरुख खान पन्ना पहनते हैं, तो सलमान खान फिरोजा ब्रेसलेट.

केवल फिल्मी हस्तियां ही नहीं, बल्कि कई प्रधानमंत्रियों को अपने तांत्रिक मित्रों के कारण काफी प्रसिद्धिअप्रसिद्धि भी मिली. इंदिरा गांधी एकमुखी रुद्राक्ष की माला पहनती थीं और कई बाबाओं के यहां आतीजाती रहती थीं. इस के बावजूद उन का जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा. प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है. प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव तांत्रिक चंद्रास्वामी से संबंध होने के बावजूद हवाला घोटाला में फंसे और उन की काफी फजीहत हुई.

इसरो हमारे देश की सब से बड़ी विज्ञान की प्रयोगशाला है. लेकिन इस के कई अध्यक्ष भी ऐसेऐसे वैज्ञानिक हुए हैं जो कर्मकांड और अंधविश्वास को मानते रहे हैं. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान परिषद यानी इसरो के वैज्ञानिक रौकेट लौंच करने से पहले वेंकेटेश्वर स्वामी के तिरुपति बालाजी मंदिर में पूजाअर्चना करते हैं. इस पूजा में इसरो के अध्यक्ष स्वयं उपस्थित रहते हैं.

2014 की आईएएस टौपर इरा सिंघल ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे ज्योतिष से जान गई थीं कि इस बार उन का चयन आईएएस में हो जाएगा.

बच्चन परिवार हो या अंबानी परिवार, राजनेता हो या नौकरशाह इन बड़े लोगों ने भी जानेअनजाने में अंधविश्वास का प्रचारप्रसार किया. अपनी सुरक्षा को ले कर एक सवाल के जवाब में अपने को सब से ईमानदार नेता के रूप में पेश करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि मेरी हथेली में जीवनरेखा लंबी है. मुझे कोई नहीं मार सकता. वहीं केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी जब अपना भविष्य जानने के लिए राजस्थान के भीलवाड़ा के कारोई कसबे में पंडित नाथूलाल व्यास के पास गईं तो मीडिया और सोशल मीडिया में उन की काफी आलोचना हुई थी.

ऐश्वर्या राय की शादी के समय अमिताभ बच्चन ने ग्रहनक्षत्रों को खुश करने के लिए मंदिरों का खूब दौरा किया था. वहीं, अंबानी बंधुओं में दरार पाटने के लिए मोरारी बापू से सलाह ली गई थी. फिर भी दोनों अंबानी भाई अलग हुए. कोई टोटका दोनों को एकसाथ न रख सका.

मोटी फीस वसूली

सामान्यतया ये ज्योतिषी एक डाक्टर से ज्यादा फीस लेते हैं. यंत्रमंत्रतंत्र और कर्मकांड करनेकराने के नाम पर तो मोटी रकम वसूली जाती है, वहीं रुद्राक्ष, लौकेट, अंगूठी, रत्न, माला, शंख की कीमत सैकड़े से शुरू हो कर लाखों में चली जाती है. बेजान दारूवाला एक प्रसिद्ध ज्योतिषी हैं. 5 साल तक आप का कैरियर कैसा रहेगा, यह बताने के लिए वे करीब 5,275 रुपए लेते हैं. प्रसिद्ध ऐस्ट्रोलौजर के एन राव के शिष्य एस गणेश की फीस 6,000 रुपए है. 3 साल तक आप का कैरियर कैसा रहेगा, यह बताने के लिए कंप्यूटर ऐस्ट्रोलौजी के जनक अजय भाम्बी 4,500 रुपए लेते हैं. प्रेमपाल शर्मा प्रति प्रश्न 2,100 रुपए लेते हैं. सुरेश श्रीमाली टैलीफोन पर सलाह देने के लिए एक व्यक्ति से 11,000 रुपए झटक लेते हैं.

जादवपुर यूनिवर्सिटी में विजिटिंग फैकल्टी डा. सुरेंद्र कपूर वीडियो कौंफ्रैंसिंग के जरिए सलाह देने के लिए 15 मिनट का 2,100 रुपए लेते हैं. ऋतु शुक्ला आप का जीवन 2 साल तक कैसा रहेगा, यह बताने के लिए 11,000 रुपए लेती हैं. दूरसंचार कंपनी एयरसेल अपनी ज्योतिषसेवा से प्रतिमाह 2 करोड़ रुपए का कारोबार करती है. एयरसेल की ज्योतिषसेवा के करीब 20 लाख ग्राहक हैं. हालांकि सब की फीस क्लाइंट की स्थिति के हिसाब से घटतीबढ़ती रहती है.

भारत का संविधान तंत्रमंत्रयंत्र, जादूटोना, शकुनअपशकुन, शुभअशुभ, मुहूर्त, गंडातावीज, और भभूत आदि को प्रतिबंधित करता है. भारतीय संविधान के 10 मूल कर्तव्यों में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना भी है. लेकिन यहां अंधविश्वास को ही आगे बढ़ाने वालों की भीड़ ज्यादा है.

अंधविश्वास को बढ़ावा देती हस्तियां

 – तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को वास्तुशास्त्र में इतना विश्वास है कि वे अपना आधिकारिक कार्यालय वास्तुशास्त्र के अनुसार 2 बार बदलवा चुके हैं.

– धार्मिक पाखंड पर बनी बहुचर्चित फिल्म ‘पीके’ के अभिनेता आमिर खान अपनी हर फिल्म दिसंबर में रिलीज करने को शुभ मानते हैं.

– कैटरीना कैफ अपनी हर फिल्म की रिलीज से पहले अजमेर शरीफ दरगाह जा कर दुआ मांगती हैं.

– अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी अपनी आईपीएल टीम राजस्थान रौयल्स की सफलता के लिए मैच के दौरान 2 घडि़यां पहनती हैं.

– परेश रावल अपनी किसी भी फिल्म की शूटिंग के पहले दिन लोकेशन पर नहीं जाते हैं.

– बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोती पहनते हैं.

– शिवसेना नेता और 5 बार के सांसद मोहन रावले अपने चुनाव अभियान के दौरान सिर्फ पीली शर्ट ही पहनते हैं.

– महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपना नाम बदल कर अशोक राव चव्हाण कर लिया.

– वकील व पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने नौर्थ ब्लौक में अपने कार्यालय के बाहर गणेश की बड़ी मूर्ति लगवा ली थी.

– धर्मनिरपेक्ष देश की राजधानी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का घर गणेश की मूर्तियों से भरा हुआ था. फिर भी वे चुनाव हार गईं.

– अभिनेता सुनील शेट्टी अंक ज्योतिष के अनुसार अपने नाम की स्पैलिंग लिखते हैं.

– ज्योतिष और अंकशास्त्र में 13 को अशुभ माना जाता है. इसरो ने रौकेट पीएसएलवी 12 के बाद 13 नहीं बनाया, पीएसएलवी-14 बनाया है.

– राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव पन्ना पहनते हैं.

बाबाओं की अय्याशी, क्यों लुटती गरीब घर की बेटियां

Society News in Hindi: आसाराम (Asaram), रामरहीम (Ram Rahim) व फलाहारी बाबा (Phalhari Baba) के बाद रंगीनमिजाजी में एक और नाम वीरेंद्र दीक्षित (Virender Dixit) का सामने आया. 21 दिसंबर, 2017 को पुलिस ने कोर्ट के आदेश पर दिल्ली में उस की आध्यात्मिक यूनिवर्सिटी पर छापा मार कर दर्जनों लड़कियों को बाहर निकाला. उन में से कुछ लड़कियों ने मीडिया को बताया कि वह बाबा खुद को कृष्ण व उन्हें अपनी गोपियां बता कर गुप्त ज्ञान व प्रसाद देने के नाम पर उन के साथ मुंह काला करता था. यह असर धर्म की उस अफीम का है, जिस की घुट्टी जीने से मरने तक कदमकदम पर लोगों को पिलाई जाती है. बेकार की बातों को हवा देने वाली तमाम ऊलजुलूल किस्सेकहानियां धर्म की किताबों में भरी पड़ी हैं. बातों की चाशनी चढ़ा कर प्रवचनों में उन्हें दोहराया जाता है. स्वर्ग व मोक्ष मिलने का लालच दे कर लोगों को बहकाया जाता है. सारे दुखों से छुटकारा मिलने का झांसा दे कर उन्हें भरमाया जाता है. इस से ज्यादातर लोग चालबाज बाबाओं की लुभावनी बातों में आ जाते हैं.

इन्हीं बातों के असर से धर्म के दलदल में डूबे लोग सहीगलत में फर्क करना भूल जाते हैं. अपनी बेटियों व पत्नियों को बाबाओं के आश्रमों में ले जा कर कुरबान कर देते हैं.

ऐसी लड़कियां व औरतें बाबाओं के चंगुल में फंस कर जबतब अपनी इज्जतआबरू गंवा देती हैं तो उन्हें बताया जाता है कि वे तो भगवान की हो चुकी हैं, बाहरी दुनिया पाप की गठरी है.

पीडि़त लड़कियों में से ज्यादातर लोकलाज व बलात्कारी बाबाओं व उन के गुंडों के डर से चुप्पी साध जाती हैं. अपनी जबान सिल कर वे हालात से समझौता कर लेती हैं. किसी से कोई शिकायत भी नहीं करतीं. गिरोह की कई मुफ्तखोर सदस्या तो खुद बाहर आने से इनकार कर देती हैं. इतना ही नहीं, उन पाखंडी बाबाओं के हक में बोलने व लड़ने के लिए वे खड़ी हो जाती हैं.

अपने पैर पर कुल्हाड़ी…

देश में तकरीबन 5 फीसदी अमीर, 10 फीसदी मझले व 85 फीसदी गरीब हैं. ये पाखंडी बाबा ज्यादातर निचले व मझले तबके के कम पढ़े लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. ज्योतिषी, तांत्रिक व बाबा जानते हैं कि माली तौर परकमजोर लोग ही समस्याओं से ज्यादा घिरे रहते हैं. ऊपर से उन का खुद पर यकीन भी नहीं होता इसलिए वे टोनेटोटके, गंडेतावीज, बाबाओं की मेहरबानी व चमत्कारों में अपने मसलों का हल ढूंढ़ते हैं.

जिस तरह बहुत ज्यादा महंगी गाड़ियां बनाने वाली कंपनियां टैलीविजन पर अपने इश्तिहार इसलिए नहीं देती हैं कि इतनी महंगी गाड़ियां खरीदने वालों के पास टैलीविजन देखने का समय नहीं होता है, उसी तरह पाखंडी बाबा भी ऊंची जाति के रसूखदार व अमीर लोगों को अपना शिकार कम ही बनाते हैं, क्योंकि एक तो वे जल्दी से हर किसी के झांसे में नहीं आते, ऊपर से बाबाओं को भी अपनी पोल खुलने व पकड़े जाने का डर रहता है.

नीचे से ऊपर छलांग

निचले व मझले तबके के ज्यादातर लोग अमीर लोगों की बराबरी के सपने देखते रहते हैं. धर्म के मनगढ़ंत प्रचार से उन्हें लगने लगता है कि करामातों से उन के दुखदर्द मिट जाएंगे. ये बाबा उन की दुनिया बदल देंगे, इसलिए अकसर उपायों के नाम पर वे छलांग लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं, चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी कुरबानी क्यों न देनी पड़े.

बहुत से मक्कार बाबाओं के चेलेचपाटे भोलेभाले भक्तों को पटाने में लगे रहते हैं कि तुम तो बहुत खुशनसीब हो. तुम्हारी लड़की को बाबा ने अपनी सेवा के लिए चुना है. ऐसा तो हजारोंलाखों में से किसी एक के साथ होता है. तुम्हें तो खुश होना चाहिए. तुम्हारा नाम होगा. तुम्हारी सारी पुश्तें तर जाएंगी. तुम पर बाबा की खास कृपा बरसेगी.

कई लोग इसी झूठी शान, भरम व अपने भले की उम्मीद में मौत के कुएं में छलांग लगा लेते हैं. धोखेबाज बाबाओं पर भरोसा कर के वे अपने मासूम बीवीबच्चों को उन की शरण में छोड़ देते हैं.

कई बार बाबाओं की ऐश व दौलत देख कर कुछ निकम्मे लोग खुद भी वैसा बनने के सपने देखने लगते हैं. उन्हें आत्मा व परमात्मा के ज्ञान का दौरा सा पड़ने लगता है. किसी के मिलते ही वे उसे ज्ञान देने लगते हैं. यह बात अलग है कि उन के ये हवाई किले पूरे नहीं हो पाते. सभी लोग बाबा तो नहीं बन पाते, लेकिन उन के पक्के चेले जरूर हो कर रह जाते हैं. ये चेले बाबाओं की दुकानदारी चलाने व उसे आगे बढ़ाने में मदद करते हैं.

कथा, कीर्तन, प्रवचन करने और आश्रम वगैरह चला कर धनदौलत कमाने वालों की गिनती तेजी से बढ़ रही है. इस की अहम वजह धर्म के धंधों में बढ़ती चकाचौंध है, इसलिए बहुत से लड़केलड़कियां गेरुए कपड़े पहन कर जल्दी पैसा बनाने की ओर बढ़ रहे हैं. कम उम्र के बहुत से लड़केलड़कियां ऊंचेऊंचे स्टेज से कथाप्रवचन और जागरण कर के माल बटोर रहे हैं.

अब पछताए होत क्या…

धर्म का कारोबार करने वाले धंधेबाज बड़े ही शातिर होते हैं. ये भोलेभाले लोगों में से छांटछांट कर अपने चेलाचेली बना लेते हैं. हद से ज्यादा गरीबी, तालीम व जागरूकता की कमी धर्मांधता की आग में घी का काम करती हैं. मसलन माली तंगी होने से कई लोग लड़की को आज भी बोझ मानते हैं, इसलिए कई मांबाप तो मुफ्त में पढ़ाईलिखाई कराने के लालच में पहले लड़कियों को बाबाओं के आश्रमों में भेज देते हैं, बाद में हंगामा करते हैं.

दरअसल, जवान लड़कियां छांट कर अपनी हवस मिटाने की गरज से पाखंडी बाबाओं ने जाल फैला रखे हैं. धार्मिक तालीम देने के नाम पर उन्होंने अपने आश्रमों में 12वीं जमात तक के कन्या इंटर कालेज खोल रखे हैं.

ज्यादातर निकम्मे, नशेड़ी व गैरजिम्मेदार लोग अब लड़कियों को पालना भी बड़ा मुश्किल काम समझते हैं. इस के बाद उन की शादी करना व दहेज देना उन्हें झंझट लगता है, इसलिए कई बार छुटकारा पाने के लिए भी कुछ लोग अपनी लड़कियों को बाबाओं के आश्रमों में भेज कर बेफिक्र हो जाते हैं.

शिकार की तलाश में मक्कार बाबाओं व उन के चालबाज चेलों का बहुत से घरों में आनाजाना लगा रहता है. भोलीभाली औरतें धार्मिक कर्मकांड, दोष, दुर्भाग्य, नरक व पाप के नाम पर डरीसहमी रहती हैं. वे बाबाओं के दिमाग में घूम रहे शैतान व हैवान को नहीं पहचान पातीं और उन के झांसे में आ कर पैसा व आबरू दोनों गंवा देती हैं.

फैलता जाल

देश के हर हिस्से में शिरडी के सांईं बाबा, वैष्णो देवी, शनि महाराज व बालाजी वगैरह के नाम पर नएनए मंदिर और बाबाओं के आश्रम बढ़ रहे हैं, इसलिए उन के महंतों व पाखंडी बाबाओं की गिनती व उन का जाल भी बढ़ रहा है.

बहुत से शहरोंकसबों में अकसर बाबाओं के कथाप्रवचन होते रहते हैं. खातेपीते घरों की औरतें व मर्द अपने घर में काम छोड़ कर इन बाबाओं के प्रवचन सुनने चले जाते हैं, फिर उन से कान में नाम व मंत्र की दीक्षा लेते हैं.

धर्म की आड़ में बलात्कार करने वाले कई बाबाओं का गिरोह बहुत बड़ा है. शिकायत व जांच के बाद जब ये फंस जाते हैं तो इन के गुंडे शिकायत करने वालों को धमकाते हैं, गवाहों को मार तक देते हैं.

आसाराम के केस में अब तक कई गवाह मारे जा चुके हैं. आसाराम को सलाखों के पीछे पहुंचाने वाली लड़की को भी बदनाम करने व मार देने की धमकी मिली थी, इसलिए उसे 20 दिसंबर, 2017 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में आसाराम व उसके 11 गुरगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराना पड़ा और सरकार को उस की सिक्योरिटी बढ़ानी पड़ी. अपने धन बल व भक्तों की भीड़ वाले वोट बैंक के चलते ज्यादातर नेता इन बाबाओं के तलवे चाटते हैं. भ्रष्ट व कमजोर अफसर इन के खिलाफ सख्त कदम उठाना तो दूर जांच करने से भी कतराते हैं.

ये हैं उपाय

बाबाओं के चक्कर में फंस चुके तमाम लोग आज भी थानाकचहरी के चक्कर काटकाट कर परेशान हैं. उन की बहूबेटियां बरसों से इन दरिंदों के आश्रमों में कैद हैं, मारी जा चुकी हैं या लापता हैं. ये गुनाहगार हत्यारे उन के दस्तखत से जबरन या बहलाफुसला कर लिखाए गए हलफनामों की आड़ में बचने की नाकाम कोशिशें करने में लगे रहते हैं.

पिछले दिनों मेरठ का एक बाबा अपने एक चेले की जवान व बेऔलाद बीवी को औलाद देने का झांसा दे कर अपने साथ ले कर भाग गया.

इतना ही नहीं, पाखंडी बाबा आज भी जेल से बाहर अपना कारोबार धड़ल्ले से चला कर अपनी ऐशगाहों में मौज मार रहे हैं. भोलेभाले भक्त उन पर अंधा भरोसा कर के भेड़ों की तरह मुंड़ रहे हैं.

इस में कुसूर धर्म प्रचार व लोगों की लापरवाही का है. पाखंडी बाबाओं को पकड़ने के ज्यादातर मामले कोर्ट के आदेश से खुले हैं. गैरसरकारी संगठन व महिला आयोग को पहल करनी चाहिए ताकि ढोंगियों व पाखंडियों को उन के किए की सजा मिले, वरना अनगिनत पाखंडी बाबा धर्म की आड़ ले कर अपना घर भरते रहेंगे. वे भोलेभाले लोगों के घर इसी तरह बरबाद करते रहेंगे.

अब तो धर्म का सहारा ले कर कई सालों से सत्ता पाई जा रही है और ऐसे में कौन सी सरकार इन बाबाओं पर नकेल कसेगी? ये तो नेताओं और अफसरों की तरह चाहे जैसे मरजी जनता की जेबें काटेंगे.

दबंग कर रहे दलित दूल्हों की दुर्गति

Society News in Hindi: यह घटना इसी साल के जून महीने की है. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के छतरपुर (Chhatarpur) में चौराई गांव का रितेश अपनी शादी पर जैसे ही घोड़ी पर चढ़ा, गांव के कुछ लोगों ने इस बात का विरोध किया. हंगामा बढ़ा, तो पुलिस आई. लेकिन पुलिस की मौजूदगी में ही बरात पर पत्थरबाजी शुरू हो गई. दरअसल, रितेश अहिरवार दलित था. उस की बरात पर पत्थरबाजी इसलिए हुई कि कैसे कोई दलित घोड़ी पर चढ़ कर अपनी बरात ले जा सकता है? इस पूरे मामले में सरकारी काम में बाधा डालने, मारपीट करने और हरिजन ऐक्ट (Harijan Act) के तहत एफआईआर हुई थी. देश का संविधान (constitution) कहने को ही सभी को बराबरी का हक देता है, लेकिन एक कड़वा और अकसर देखा जाने वाला सच यह है कि जो दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ने की हिमाकत या जुर्रत करता है, दबंग लोग उस की ऐसी दुर्गति करते हैं कि कहने में झिझक होती है कि वाकई देश में कोई लोकतंत्र वजूद में है, जिस का राग सरकार, नेता, समाजसेवी, राजनीतिक पार्टियां और पढ़ेलिखे समझदार लोग अलापा करते हैं.

छुआछूत दूर हो गई, जातपांत का भेदभाव खत्म हो गया और अब सभी बराबर हैं, ये कहने भर की बातें हैं. हकीकत यह है कि यह प्रचार खुद दबंग और उन के कट्टरवादी संगठन करते रहते हैं, जिस से समाज की अंदरूनी हालत और सच दबे रहें और वे दलितों पर बदस्तूर सदियों से चले आ रहे जुल्मोसितम ढाते हुए ऊंची जाति वाला होने का अपना गुरूर कायम रखें.

जड़ में है धर्म

किसी भी गांव, कसबे या शहर में देख लें, कोई न कोई छोटा या बड़ा बाबा पंडाल में बैठ कर प्रवचन या भागवत बांचता नजर आएगा. ये बाबा लोग कभी बराबरी की, छुआछूत दूर करने की या जातपांत खत्म करने की बात नहीं करते. वजह सिर्फ इतनी भर नहीं है कि धार्मिक किताबों में ऐसा नहीं लिखा है, बल्कि यह भी है कि इन की दुकान चलती ही जातिगत भेदभाव से है.

अपनी दुकान चमकाए रखने के लिए धर्म की आड़ में समाज में पड़ी फूट को हवा दे रहे बाबा घुमाफिरा कर दबंगों को उकसाते हैं और दलितों को उन के दलितपने का एहसास कराते हुए नीचा दिखाने में लगे रहते हैं. इन पर न तो कोई कानून लागू होता है, न ही कोई इन की मुखालफत कर पाता है, क्योंकि मामला धर्म का जो होता है.

फसाद की असल जड़ धर्म और उस के उसूल हैं, जिन के मुताबिक शूद्र यानी छोटी जाति वाले जानवरों से भी गएबीते हैं. उन्हें घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने का हक तो दूर की बात है, सवर्णों के बराबर बैठने का भी हक नहीं है, इसलिए आएदिन ऐसी खबरें पढ़ने में आती रहती हैं कि दलितों को पानी भरने से रोका, वे नहीं माने तो उन की औरतोंबच्चों को बेइज्जत किया, मर्दों को पीटा और इस पर भी नहीं माने तो गांव से ही खदेड़ दिया.

यही वजह है कि करोड़ों दलित दबंगों के कहर का शिकार हो कर घुटन भरी जिंदगी जी रहे हैं, पर उन की सुनने वाला कोई नहीं.

इस पर तुर्रा यह कि हम एक आजाद लोकतांत्रिक देश की खुली हवा में सांस लेते हैं, जिस में संविधान सभी को बराबरी का हक देता है. यह मजाक कब और कैसे दूर होगा, कोई नहीं जानता.

चिंता की बात यह भी है कि दलितों पर जोरजुल्म लगातार बढ़ रहे हैं, जिन की तरफ किसी राजनीतिक पार्टी, नेता या समाज के ठेकेदारों का ध्यान नहीं जो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, रैलियां निकालते हैं और दलितों को बरगलाने के लिए बुद्ध और अंबेडकर जयंतियां मनाते हैं. इस साजिश को, जो धर्म और राजनीति की देन है, दलित समझ पाएं तभी वे इज्जत और गैरत की जिंदगी जी पाएंगे.

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