बच्चों पर जानलेवा गुस्सा

उत्तर प्रदेश के जनपद संत कबीर नगर के खलीलाबाद कोतवाली इलाके की रहने वाली चंचल की हत्या उस के ही बाप विजय कुमार ने इसलिए कर दी, क्योंकि वह अपने बाप से स्कूल की 800 रुपए फीस जमा करने की जिद कर बैठी. पिता को बेटी की यह बात नागवार लगी और उस ने गुस्से में आ कर बेटी का गला दबा दिया.

चंचल मौके पर बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी. इस के बाद विजय कुमार ने बस्ती जनपद में अपनी ससुराल चित्राखोर में अपने साले अमरनाथ पांडेय को फोन कर के इस वारदात की जानकारी दी.

अमरनाथ अपने ड्राइवर गोपाल और बहनोई रविचंद्र को ले कर विजय के घर पहुंचा और वहां बेहोश पड़ी चंचल उर्फ कालिंदी को 30 नवंबर, 2018 की रात तकरीबन 10 बजे बोरे में भर कर उसे बस्ती जिले के लालगंज थाना क्षेत्र में ले गया और कुआनों नदी पर बने बानपुर पुल से नीचे फेंक दिया.

इस वारदात के दूसरे दिन 1 दिसंबर, 2018 की सुबह जब गांव वालों ने एक लड़की की लाश को नदी में तैरते देखा तो उन्होंने इस की सूचना पुलिस को दी.

मौके पर पहुंची पुलिस ने लाश को नदी से निकलवा कर शिनाख्त कराने की कोशिश की, लेकिन शिनाख्त नहीं हो सकी.

लालगंज के थाना प्रभारी राजेश मिश्र ने हत्या का मुकदमा दर्ज कर जब तफतीश शुरू की तो चित्राखोर से चंचल की शिनाख्त हो गई.

पुलिस के लिए केस कुछ आसान होता दिखा और उस ने तफतीश की सूई चंचल के परिवार पर फोकस कर के जांच शुरू की तो बाप विजय कुमार पर शक हुआ.

जब पुलिस ने कड़ाई से पूछताछ की तो विजय कुमार ने चंचल की हत्या किए जाने की बात कबूल ली. इस के बाद इस हत्या में शामिल उस के साले अमरनाथ पांडेय और लाश को ठिकाने लगाने में इस्तेमाल की गई कार को बरामद कर लिया गया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट से एक बात और सामने आई कि चंचल को जब नदी में फेंका गया था तब वह जिंदा थी.

इस वारदात से एक बात साफ हो गई है कि कई बार मांबाप अपने बच्चों की जिद के चलते अपना आपा खो बैठते हैं, फिर इस का गुस्सा बच्चों पर उतारने लगते हैं. इस गुस्से के चलते बच्चों को जिस्मानी और दिमागी जोरजुल्म का शिकार होना पड़ता है.

कई बार तो मांबाप के गुस्से का शिकार हो कर बच्चे या तो अपंग हो जाते हैं या फिर उन की मौत भी हो जाती है. इस के बाद मांबाप के पास पछताने के सिवा कोई चारा नहीं रहता है.

नाजायज रिश्तों का गुस्सा

मांबाप द्वारा अपने मासूम बच्चों के ऊपर जुर्म करने की एक बड़ी वजह है नाजायज रिश्ता, क्योंकि बच्चों के चलते कई बार नाजायज रिश्तों का राज खुल जाने का डर मांबाप को होता है.

बस्ती के जिले के कप्तानगंज थाना क्षेत्र के गांव दयलापुर में नाजायज रिश्तों में रोड़ा बन रही 3 साल की मासूम सृष्टि को उस की ही मां सीमा ने गला दबा कर मार डाला था. बेटी की हत्या करने के बाद वह लाश को आंचल में छिपा कर गांव के सिवान में ले गई और भूसे के ढेर में छिपा दिया.

कप्तानगंज के तबके थानाध्यक्ष रोहित प्रसाद ने इस कांड को उजागर किया था और बताया था कि सृष्टि की मां सीमा ने ही उस की हत्या की थी.

सीमा ने पुलिस को बताया कि बैसोलिया के रहने वाले मंजीत पाठक से उस का नाजायज रिश्ता था. सृष्टि ने उन्हें संबंध बनाते हुए देख लिया था.

3 साल की मासूम सृष्टि अपने पिता को घर में दिन के वक्त किसी के आने की बात बताया करती थी इसलिए सीमा भड़क गई और डंडे से उसे पीटने लगी.

मंजीत पाठक मौके से खिसक गया था. लेकिन गुस्से से भरी सीमा अब सृष्टि को हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटाने की ठान चुकी थी. लिहाजा, उस ने मासूम सृष्टि का गला दबा कर उसे मौत के घाट उतार दिया.

अगर मांबाप में से कोई भी अपनी सैक्स की भूख नाजायज रिश्तों से मिटा रहा है तो इस का असर बच्चों पर न आने दें. अगर कभी ऐसा हो जाता है कि बच्चा अपने मांबाप के नाजायज रिश्तों के बारे में जान जाए तो कोशिश करें कि जिस के साथ ऐसा रिश्ता है, उस से दूरी बना लें.

अगर बच्चा आप के रिश्ते की बात किसी को बता भी दे तो भी आप बच्चे के ऊपर जुर्म करने से बचें, क्योंकि इस बदनामी को तो शायद आप भूल भी जाएंगे, लेकिन अपने नाजायज रिश्तों को छुपाने के चलते बच्चे से किए गए अपराध में न केवल उस से हाथ धो बैठेंगे, बल्कि जिंदगीभर के लिए सलाखों के पीछे भी पहुंच जाएंगे.

झल्लाहट पर रखें काबू

कई बार तो मांबाप काम के बोझ, नाकामी, औफिस की टैंशन वगैरह के चलते परेशान होते हैं. ऐसी हालत में बच्चे जब मांबाप से प्यार से भी बात करते हैं तो उन्हें अनायास ही मांबाप के गुस्से का शिकार होना पड़ता है. कभीकभी यह गुस्सा बच्चे को पीटने तक पहुंच जाता है. इस गुस्से के चलते ही अकसर मासूमों की जान तक चली जाती है.

सामाजिक कार्यकर्ता विशाल पांडेय का कहना है, ‘‘हर मांबाप की यह जिम्मेदारी है कि वे बच्चों के पालनपोषण को ले कर सजग रहें. ऐसा देखा गया है कि कई बार लोगों का खुद पर काबू नहीं रहता है जिस के चलते वे अपनी नाकामी और झल्लाहट अपने बच्चों के ऊपर उतारने लगते हैं.

‘‘बच्चे अपने मांबाप का विरोध करने की हालत में नहीं होते हैं और उन पर आसानी से जुर्म किया जा सकता है. इस से बचाव के लिए हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम अपने घर और काम करने की जगह की चिंता को एकदूसरे से अलग रखें. हम अपने काम की या दूसरी चिंता घर में न लाएं. अगर परेशान भी हैं तो भी बच्चों से प्यार से बात करें, उन की बातें सुनें और जरूरी होने पर उन की मदद करें.’’

खर्च पर लगाएं लगाम

अकसर हम दूसरों की नकल कर के अपनी कमाई से ज्यादा खर्च बढ़ा लेते हैं. इस के चलते हम दिनोंदिन कर्ज के बोझ से दबने लगते हैं. फिर समय से बच्चों की फीस न भर पाना, रसोई की जरूरतों के साथसाथ बच्चों की जरूरतों को पूरा न कर पाना आम बात हो जाती है.

जब आप का बच्चा दूसरे बच्चों को अच्छा खातेपहनते देखता है तो वह भी उसी तरह रहनेखाने की जिद करने लगता है, इसलिए शुरुआती दौर से अपने बच्चों का पालनपोषण अपनी माली हालत को देखते हुए ही करें, नहीं तो आगे चल कर जैसेजैसे बच्चे की जरूरतें बढ़ेंगी तो उस की मांगें भी बढ़ती जाएंगी.

ऐसे में बारबार बच्चे द्वारा कहे जाने के बावजूद बच्चों की जरूरतें पूरी न कर पाने के चलते आप में गुस्सा और झल्लाहट बढ़ने लगती है, जो धीरेधीरे बच्चों के ऊपर जुर्म के रूप में सामने आने लगती है.

इस बात से बचें

सामाजिक कार्यकर्ता अनीता देव का कहना है, ‘‘कई बार हम बच्चों के लाड़प्यार में उन की गैरजरूरी ख्वाहिशों को पूरा करने लगते हैं. इस वजह से बच्चों में जिद की आदत बढ़ती जाती है. कई बार बच्चे ऐसी जिद भी कर बैठते हैं जिसे पूरा करना आप के बस का काम नहीं होता है.

‘‘ऐसे में बात तब ज्यादा बिगड़ती है जब बच्चे अकसर गैरजरूरी चीजों के लिए जिद करने लगते हैं और अगर मांबाप की कमाई अच्छी नहीं है तो वे इस का गुस्सा बच्चों पर उतारने लगते हैं.’’

नशे से रहें दूर

सामाजिक कार्यकर्ता अरुणिमा का कहना है, ‘‘नशे में इनसान अकसर होशोहवास खो बैठता है. उस में अच्छेबुरे का फर्क करने की समझ नहीं रहती है. नशे के आदी लोगों की माली हालत तेजी से बिगड़ने लगती है जिस की वजह से वे बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते हैं.

‘‘अगर कभी बच्चा मांबाप से अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कहता भी है, तो उसे पूरा न कर पाने की झल्लाहट में वे बच्चे को मारनेपीटने लगते हैं.

‘‘नशे में इनसान यह भी नहीं सोचता है कि बच्चे को गंभीर चोट भी लग सकती है. ऐसे में बच्चा अपंगता या मौत का भी शिकार हो सकता है.

‘‘ऐसे हालात से बचने का केवल एक ही उपाय है कि बच्चों की खातिर नशे से दूरी बनाएं और नशे के ऊपर होने वाले बेजा खर्च को बच्चों की पढ़ाईलिखाई के साथसाथ पालनेपोसने पर लगाएं.’’

परिवार को रखें छोटा

सामाजिक कार्यकर्ता अनीता देव के मुताबिक, ज्यादा बच्चे पैदा कर लेना समझदारी का काम नहीं माना जा सकता है. समझदारी का काम यह है कि छोटा परिवार रखते हुए बच्चे का सही से लालनपालन किया जाए और उन की अच्छी पढ़ाई पर ध्यान दिया जाए.

बच्चे को गुस्से का शिकार होने से बचाने के लिए मांबाप का यह फर्ज है कि वे बच्चे को अच्छा माहौल दें. उन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करें.

अगर आप की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं है तो कोशिश करें कि आप कोई भी आमदनी बढ़ाने वाले रोजगार अपनाएं. इस से आप के बच्चों के भविष्य और आप के बुढ़ापे के लिए अच्छा रहेगा.

डायन…डरावना अंधविश्वास

यूरोप के अंधकार युग के समय वहां की ज्यादातर जवान लड़कियों को डायन करार दे कर जला कर मार डालने की वारदातों का जिक्र आज भी इतिहास के पन्नों में पढ़ने को मिलता है. उस समय इस के खिलाफ आवाज उठाने वालों को डायन कह देना धर्म के नेताओं के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.

जरमनी, इटली और फ्रांस के साथसाथ इंगलैंड जैसे देशों में सैकड़ों बेकुसूर लोगों खासकर औरतों और कम उम्र की लड़कियों को डायन बता कर उन पर जोरजुल्म किया जाता था और आखिर में उन्हें आग के हवाले कर दिया जाता था.

जिन लड़कियों पर जोरजुल्म किया जाता था, उन्हीं में से एक थी जोवन आव मार्क, जो हमलावर अंगरेजों के हाथों फ्रांस को बचाने के मकसद को ले कर जंग में कूद पड़ी थी और 5 सालों के अंदर कट्टर मुक्तिवाहिनी बनाने वाली जोवन आव मार्क को अंगरेजी हुकूमत की सेनाओं द्वारा डायन बता कर जला कर मार दिया गया था.

आज हम सभी 21वीं सदी में हैं और आज के वैज्ञानिक युग में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों खासकर असम में एक के बाद एक डायन बता कर हत्या कर देने की दिल दहला देने वाली वारदातें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं.

डायन क्या है

डायन एक तरह का अंधविश्वास है. अलौकिक शक्तियों के सहारे किसी का बुरा करने वाले मर्द और औरतें, जो भविष्य की बातें करते हैं, अपना रूप बदल सकते हैं और जिस तरह का काम हो, उस का वे समाधान करने का दावा करते हैं.

इस तरह के लोग कई समुदायों से देखने और सुनने को मिलते हैं. इन्हें ही डायन कहा जाता है.

हमारे देश में डायन का अंधविश्वास कितना पुराना है, यह कहना मुश्किल है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में भूतप्रेत और डायन जैसी कुप्रथा वहां के लोगों की ही देन है.

कुछ पंडितों का भी यही कहना है. माधव कंदलि की ‘रामायण’ में भी डायन शब्द का जिक्र है. राजा दशरथ की मौत के बाद रामसीता को वनवास मिलने की कुसूरवार भरत ने अपनी मां कैकेयी को ही ठहराया था.

डायन प्रथा आज सभी समाज में है. बोडो समुदाय   में थानथीन मंत्र शब्द प्रचलित है और खासकर असम के ग्वालपाड़ा जिले में राभा और बोडोकछारी संप्रदायों में यह कुप्रथा भरी पड़ी है.

थानथीन मंत्र को ज्यादातर औरतें सीखती हैं. वे विश्वास करती हैं कि इस मंत्र को पढ़ कर इनसान को मारा जा सकता है.

मिजोरम में मिजो संप्रदाय में खहरिंग को डायन कहा जाता है. ऐसी औरतों को मिजो संप्रदाय के लोग समाज से बाहर कर के उस की हत्या तक कर देते हैं.

मीसिंग समुदाय में यह कुप्रथा कूटकूट कर भरी पड़ी है. यह संप्रदाय मरनो यानी डायन पर पूरा विश्वास करता है. दूरदराज के गांवों में अमंगल और जब कोई अनहोनी घटना घटती है या बीमारियों से किसी की मौत होती है तो कहा जाता है कि डायन ने यह सब किया है.

इस मीसिंग समुदाय में अगर किसी पर शक हुआ तो उसे पकड़ कर रस्सियों से बांधा जाता है और काट कर उसे नदी में बहा दिया जाता है.

ऐसा भी देखने को मिलता है कि प्राचीन समाज में प्रचलित यह कुप्रथा और अंधविश्वास आज भी बहुत से संप्रदायों में देखने को मिल जाता है.

असम के असमिया समाज में मुखालगा यानी नजर लगना कहा जाता है. किसी शख्स का बीमार होना, फल लगने वाले पेड़ पर फल नहीं लगना, पेड़ के पत्ते का सूख जाना या समय से फल हो कर जमीन पर गिर आना वगैरह जैसी घटनाओं को नजर लगना कहा जाता है.

बताया जाता  है कि ऐसे मामलों में कोई कुसूरवार होता है तो उस के सामने जाने से लोग कतराते हैं. यहां तक कि छोटे बच्चों को नजर न लगे, इस के लिए काले टीके लगाए जाते हैं.

इन्हें डायन कहा जाता है

किसी दिमागी परेशानी से जूझ रहे शख्स के अजीब बरताव को देख कर अंधविश्वास में डूबे लोग इन्हें डायन कहते हैं. दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो अपने निजी फायदे को पूरा करने और जमीनजायदाद के लालच में किसी को भी डायन करार देते हैं.

यही नहीं, किसी से पुरानी दुश्मनी है तो वह समाज में शोर फैला देता है कि फलां आदमी डायन है, जबकि एक तांत्रिक अपनी दुकान चलाने के लिए किसी दूसरे तांत्रिक को फटकने नहीं देने के लिए उस तांत्रिक को भगाने के चक्कर में समाज में यह अफवाह फैला देता है कि फलां तांत्रिक जादूमंत्र से बुरा करने वाला है.

डायन बता कर हत्या

असम में डायन बता कर बेकुसूर मर्दों, औरतों और लड़कियों के ऊपर जोरजुल्म करने और उन की हत्या कर देने की तमाम वारदातें हो चुकी हैं. साल 1999 में ग्वालपाड़ा जिले के दुधनै इलाके में सयालमारी, साल 2000 में भवानीपुर, साल 2013 में दारीदरी गांव, साल 2000 में कोकराझाड़ जिले के कचूगांव, साल 2006 में विजयनगर, साल 2006 में नंदीपुर, साल 2010 में सेफरांगगुड़ी, साल 2011 में बेलगुड़ी, साल 2011 में सराईपुल, साल 2011 में सांथाईबाड़ी, साल 2011 में बेदलांगमारी, साल 2007 में बाक्सा जिले के रौमारी कलबाड़ी, साल 2009 में बागानपाड़ा, साल 2011 में ठेकरकूची, साल 2008 में शोणितपुर जिले के ठेकेरिलगा गांव, साल 2009 में ततखालगांव और साल 2012 में लखीपथार, साल 2005 में विश्वनाथ चारिआली के खादरू चाय बागान के कछाली लाइन गांव में डायन बता कर किसी को मार देने की वारदातें हो चुकी हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010 से ले कर 2015 तक 36 औरतों और 47 मर्दों को डायन बता कर हत्या कर दी गई, लेकिन असम महिला समता सोसायटी की एक समीक्षा के मुताबिक, महज ग्वालपाड़ा जिले में ही पिछले 10 सालों में डायन होने के शक में जोरजुल्म किए जाने के 87 मामले दर्ज हैं. इन मामलों में 98 औरतें और 2 मर्द शामिल हैं, जिस में 7 औरतें और 4 मर्दों की हत्या केवल ग्वालपाड़ा जिले में की गई.

इन आंकड़ों से पता चलता है कि जिन जगहों पर इस तरह की बर्बर घटनाएं घटी हैं, वह जगह गांव के भीतरी इलाका समूह है, जहां के रहने वाले लोग पढ़ाईलिखाई और डाक्टरी इलाज से कोसों दूर हैं. इन्हीं वजहों के चलते गांव में किसी को किसी तरह की बीमारी हो जाती है तो वह उसे अस्पताल ले जाने के बजाय तांत्रिकों व ओझाओं के पास ले जाते हैं.

नतीजतन, ओझाओं द्वारा टोनाटोटका कर इलाज करना शुरू करते हैं और उसी बीच उस बीमार आदमी की मौत हो जाती है. ओझा गांव के लोगों को यह बता कर पिंड छुड़ाता है कि इस के ऊपर डायन सवार थी और इसी वजह से यह मौत हुई.

आज के इस वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास का मकड़जाल इस कदर लोगों पर जकड़ा है कि कितने बेकुसूर मर्दों, औरतों और लड़कियों को डायन बता कर हत्या कर दी जाती है. एक ओर जहां हम डिजिटल इंडिया बनाने की बात करते हैं तो वहीं आज भी अंधविश्वास हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है.

बहरहाल, आज के इस वैज्ञानिक युग में अंधविश्वास जैसे मकड़जाल को हटाने के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए, नहीं तो डायन का आरोप लगा कर यों ही हत्याएं होती रहेंगी.

सांवली लड़कियों की सफलता

समाज में यह सोच बनी हुई है कि सांवले रंग के लोग कामयाब नहीं होते हैं. इस रंग की लड़कियों के शादीब्याह में भी परेशानियां आती हैं. गांवदेहात में तो इस तरह की परेशानियां ज्यादा आती हैं.

यह पूरा सच नहीं है. सांवला रंग अब तरक्की की राह में रोड़ा नहीं है. तमाम ऐसी लड़कियां हैं जो सांवले रंग की होने के बाद भी कामयाब हैं.

केवल नौकरी में ही नहीं, बल्कि फिल्म और टैलीविजन पर वे अपनी ऐक्टिंग या गायकी से कमाल दिखा रही हैं. इन में केवल शहरी लड़कियां ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों और गांवदेहात की लड़कियां भी शामिल हैं.

बड़े शहरों में रहने वाली लड़कियों के लिए बहुत तरह के मौके आते हैं और उन्हें अपने परिवार से भी सपोर्ट मिलता है. छोटे शहरों और गांवदेहात की रहने वाली लड़कियों के साथ सब से बड़ी परेशानी वहां का माहौल होता है.

छोटे शहरों और गांवदेहात में आज भी सांवले रंग की लड़कियों को अलग नजर से देखा जाता है. लोगों को लगता है कि सांवले रंग की लड़कियां उतनी कामयाब नहीं होती हैं.

बचपन से ही ऐसी लड़कियों को अलग निगाह से देखा जाता है. ऐसे में सांवले रंग की लड़कियों के खुद पर यकीन में कमी होने लगती है.

समाज में बहुत सारी ऐसी लड़कियां भी हैं जो सांवले रंग को दरकिनार कर आगे बढ़ी हैं और कामयाब हुई हैं. अब इन लड़कियों की कामयाबी को देख कर कहा जा सकता है कि जमाना सांवली लड़कियों का है. जरूरत इस बात की है कि इन को सही बढ़ावा मिले और इन के रंग को ले कर बचपन से यह बात समझाई जाए कि सांवला रंग किसी भी तरह से कामयाबी में रुकावट नहीं है.

मीठी आवाज से दी मात

कल्पना और खुशबू उत्तम जैसी लड़कियों ने अपनी मीठी आवाज से सांवलेपन को मात दी है. असम की रहने वाली कल्पना कहती हैं कि सांवले रंग का अंदाज सब से जुदा होता है. अच्छे रंग के बजाय अच्छी सेहत ज्यादा अहम होती है.

कल्पना फिल्मों की बड़ी कलाकार हैं. हिंदी के साथसाथ वे कई भाषाओं में गाने गाती हैं. कई फिल्मों में दर्शकों ने उन की अच्छी ऐक्टिंग को भी देखा है.

कल्पना ने हिंदी फिल्म ‘मेम साहब’, ‘चांद के पार चलो’, ‘अब बस’ और ‘सोनियो आई लव यू’ में अपनी आवाज का जादू दिखाया है. उन्होंने भोजपुरी फिल्म ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे’, ‘गब्बर सिंह’, ‘यूपी बिहार मुंबई ऐक्सप्रैस’ और ‘दुलहनिया नाच नचाए’ में काम किया है. वे देश की बहुत सी बोलियों में गाने गा चुकी हैं. एमटीवी पर उन के बिरहा गायन ने जबरदस्त धमाल मचाया है.

कल्पना ने वैस्टर्न गानों से अपना कैरियर शुरू किया था. आज वे 18 बोलियों में गाने गा रही हैं. उन्हें स्कूलकालेज के दौरान ही गानों के लिए इनाम दिया जाता था. इस से उन्होंने गायकी में ही कैरियर बनाने के बारे में विचार किया. इस के बाद वे मुंबई आ गईं.

कल्पना कहती हैं कि सांवले रंग का अपना अलग आकर्षण होता है. फैशन जगत के तमाम जानकार मानते हैं कि सांवले रंग में सहज आकर्षण होता है. शायद इसीलिए जमाना आज सांवले लोगों का है. हर क्षेत्र में ये लोग कामयाब हो रहे हैं.

बिहार की राजधानी पटना की रहने वाली भोजपुरी की मशहूर सांवलीसलोनी गायिका खुशबू उत्तम का मानना है, ‘‘रंगरूप से पहचान नहीं बनती है, बल्कि अच्छे काम और पढ़ाई से पहचान बनती है. मैं ने जब फिल्मों में कैरियर बनाने की योजना बनाई तो लोगों ने काफी मजाक बनाया. कुछ लोगों ने कहा कि गाना अलग बात है लेकिन परदे पर दिखने के लिए सुंदर होना जरूरी होता है.

‘‘मैं ने लोगों की बातों को चुनौती के रूप में लिया. मेरे गानों के औडियो कैसेट तो धूम मचा ही चुके थे, इस के बाद वीडियो में और यूट्यूब पर भी मेरे गाने सुने और देखे जाने लगे.

‘‘आज मेरे लिए मेरा रंग कोई बाधा नहीं रह गया है. मैं दूसरी लड़कियों से भी यही कहती हूं कि वे सांवले रंग को ले कर परेशान न हों.’’

खुशबू उत्तम आगे कहती हैं, ‘‘मैं बचपन से ही यह सोचती थी कि जो भी काम करूं वह ऐसा करूं जो सब से अच्छा हो. मैं ने न्यूज रीडिंग, मौडलिंग, ड्रामा जैसे तमाम कामों में भाग लिया. मेरी मौडलिंग को बहुत पसंद किया था.’’

खुशबू उत्तम को म्यूजिक बहुत पसंद है और उन्होंने इस को ही अपना कैरियर बना लिया. वे कहती हैं, ‘‘मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि किसी ने सांवले रंग का होने के चलते मुझे कोई काम न करने दिया हो. अपने सांवलेपन के बाद भी मैं घरघर पहुंच गई. आज मुझे अपने रंग पर फख्र है.

‘‘मैं दूसरी लड़कियों को भी कहती हूं कि केवल मैं ही नहीं, बल्कि फिल्मों में तमाम ऐसी लड़कियां हैं जो मुझ से भी ज्यादा कामयाब हैं.

‘‘बिपाशा बसु के अलावा बहुत से ऐसे नाम हैं जिन का रंग कभी उन की कामयाबी में बाधा नहीं बना. ऐसे में रंग की फिक्र छोड़ कर अपने काम पर फोकस करें, तब कामयाब होने से कोई रोक नहीं पाएगा.’’

खुद पर करें यकीन

उत्तर प्रदेश के बहाराइच जिले की गिनती पिछड़े शहरों में की जाती है. वहां की रहने वाली सामान्य परिवार की देवयानी अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बैंगलुरु में ‘मास्टर इन डवलपमैंट’ में रिसर्च कर रही हैं.

देवयानी ने 5वीं जमात के बाद 12वीं जमात तक नवोदय स्कूल में पढ़ाई की है. वहां से उन का चयन दिल्ली यूनिवर्सिटी के दयाल सिंह कालेज में हो गया. वहां से राजनीति शास्त्र में बीए करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे अंबेडकर यूनिवर्सिटी चली गईं.

देवयानी ने आगे की पढ़ाई के पहले सोशल वर्क करने की दिशा में काम किया. ‘देहात’ संस्था के साथ श्रावस्ती जिले के भिनगा इलाके के सब से खराब हालात वाले 129 सरकारी स्कूलों में काम किया. वहां पर वनवासी लड़कियों को स्कूल तक लाने की दिशा में भी काम किया.

देवयानी ने अपने स्कूल के समय से डांस, कोरियोग्राफी और गायकी पर भी फोकस किया था. इस के साथ ही एनसीसी के साथ रायफल शूटिंग में भी कामयाबी हासिल की थी.

देवयानी भारत की उन 2 लड़कियों में से एक हैं जिन का चयन संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘ग्लोबल एशिया अफ्रीका’ प्रोग्राम में हुआ. इस में पूरी दुनिया से केवल 20 लड़कियों को शामिल किया गया था.

देवयानी का मानना है कि रंग नहीं बल्कि आत्मविश्वास जिंदगी को कामयाब बनाता है. रंग से कोई सुंदर नहीं दिखता. समय के साथ लोगों को पता चल गया है कि सांवले रंग वाले लोग भी बहुत कामयाब होते हैं.

फैशन के क्षेत्र में जहां रंगरूप पर खास ध्यान दिया जाता?है, वहां पर भी सांवले रंग के लोगों ने अपना कमाल हमेशा दिखाया है. बिपाशा बसु हो या काजोल, सभी ने अपने ग्लैमर का लोहा मनवाया है. पढ़ाईलिखाई के क्षेत्र में छोटे शहरों की सांवली लड़कियों के आगे बढ़ने से वे दूसरों के लिए मिसाल बन रही हैं.

ऐसे निखर जाता है रंग

फिटनैस मौडल के रूप में अपने कैरियर को संवार रही आरती पाल का कहना है, ‘‘समय के हिसाब से जैसेजैसे आप कामयाबी की सीढि़यां चढ़ते जाते हैं, वैसेवैसे आप में निखार आता जाता है. जब आप कामयाब नहीं होते हैं तो आप का रंगरूप कितना ही अच्छा क्यों न हो, कोई आप से प्रभावित नहीं होता है. जब आप कामयाब हो जाते हैं तो कोई यह नहीं देखता कि आप का रंग कैसा है.

‘‘जब मैं ने मौडलिग करने का फैसला किया तो लोग कहते थे कि सांवले रंग की वजह से यह कामयाब नहीं होगी. मैं ने इन आलोचनाओं की चिंता नहीं की और खुद को आगे बढ़ाने का काम किया. ऐसे में मौडलिंग की कई प्रतियोगिताएं जीतीं. शो में हिस्सा लिया. फैशन शूट किए.

‘‘अब मैं अपनी ही कंपनी ‘एपी इवैंट’ के साथ काम कर रही हूं. खुद के साथसाथ दूसरी लड़कियों को भी फैशन की फील्ड में आगे बढ़ने का मौका दे रही हूं.’’

सांवले रंग के लोग हर क्षेत्र में कामयाब होते हैं. राजनीति में देखें तो मायावती, उमा भारती और ममता बनर्जी जैसे लोग बहुत कामयाब हुए हैं.

कामयाब शख्स में रंग को ले कर किसी तरह का कोई तनाव नहीं रहता है. समाज भी कामयाब लोगों के साथ चलना शुरू कर देता है. उस के रंगरूप को नहीं देखता है.

झारखंड की राजधानी रांची की रहने वाली लकी सुरीन बताती हैं, ‘‘मुझे मौडलिंग में रैंप शो करने बहुत पसंद थे. मेरी लंबाई बहुत अच्छी है. ऐसे में रैंप शो के लिए मुझे लोग पसंद करते थे.

‘‘मेरा रंग सांवला होने के चलते कई बार अनफिट कर दिया जाता था. लोगों के इस बरताव से दुखी हो कर कई बार मुझे लगा कि क्या मुझे मौडलिंग छोड़ देनी चाहिए? पर मैं ने हिम्मत से काम लिया और रैंप शो मौडलिंग में काम करती रही.

‘‘रांची में मौके कम थे, फिर मैं लखनऊ आ गई. यहां पर भी मुझे काम और तारीफ दोनों मिलनी शुरू हुई तो मेरा खुद पर यकीन लौट आया.

‘‘अब मैं अपनी इवैंट कंपनी ‘ब्लू बर्ड’ फैशन एजेंसी के जरीए कई शो करती हूं. मुझे कई तरह के अवार्ड मिल चुके हैं. अब मुझे नहीं लगता कि सांवला होने के चलते किसी को अपने मन का काम करने से समझौता करना चाहिए.’’

सोच बदलने की जरूरत

ऐस्थैटिक ऐंड लेजर कंसल्टैंट डाक्टर प्रभा सिंह कहती हैं, ‘‘सांवलापन कभी भी कामयाबी में बाधा नहीं बन सकता. जरूरत इस बात की होती है कि खुद पर भरोसा करें. यह बात जरूर है कि बचपन से ही बच्चे के मन में ऐसे भाव भर दिए जाते हैं कि रंग का असर उस के खुद पर यकीन को खत्म कर देता है.

‘‘हम देखते हैं कि बचपन में जो बच्चा गोरा होता है उस की लोग तारीफ ज्यादा करते हैं. ऐसे में सांवला बच्चा हीनभावना का शिकार हो जाता है. अब इस हीनभावना से निकलने के लिए वह कई तरह के उपाय करने लगता है.

‘‘ऐसे उपाय उस के 30 साल से 35 साल की उम्र तक और कभीकभी तो उस के बाद भी जारी रहते हैं. यह सोच गोरेपन को बढ़ाने का सब से बड़ा कारोबार हो गई है. बहुत सारी कोशिशों और जागरूकता के बाद भी सांवलेपन के शिकार लोग हीनभावना में रहते हैं.

‘‘इन की इस भावना को दूर करने के लिए हर लैवल पर कोशिश होनी चाहिए खासकर समाज को ऐसे लोगों का साथ देना चाहिए.’’

डाक्टर प्रभा सिंह आगे कहती हैं, ‘‘सुंदरता के लिए रंग नहीं आत्मविश्वास और फिटनैस की जरूरत होती है. आजकल के मौडल भी अब इस बात के समर्थक हैं. अब तो जिंदगी के तमाम मौकों की खूबसूरती को ले कर भी सामने लाने की कोशिशें हो रही हैं.

‘‘कई मौडलों ने शादी के बाद गर्भावस्था के समय पूरा काम किया. पहले इन बातों को छिपाने का रिवाज था. ऐसे में सांवलापन किसी को कामयाबी में रुकावट नहीं लगना चाहिए. इस दिशा

में काम होना चाहिए. स्कूल में भी ऐसे प्रोग्राम हों जो लड़कियों के मन में सांवलेपन की गलतफहमी को निकाल सकें, तभी लड़कियां और उन के परिवार इस सोच से बाहर आ सकेंगे.

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