बढ़ती उम्र की औरतों की क्यों बदलती है सोच?

कुछ वर्षों में कमला मल्होत्रा की मानसिकता में काफी बदलाव आया है. भीतर ही भीतर एक आक्रोश सा सुलग रहा है. जराजरा सी बात पर झुंझलाने और क्रोध करने लगती हैं. उन की उम्र होगी 60 वर्ष के करीब. बेटी का विवाह हो चुका है, एक बेटा कनाडा में है, दूसरा मुंबई में. दिल्ली में वे अपने अवकाशप्राप्त पति के साथ एक अच्छे व शानदार फ्लैट में रहती हैं. सबकुछ है, पर इस आभास से मुक्ति नहीं है कि ‘मैं अकेली हूं, मेरा कोई नहीं है.’  एक चिड़चिड़ाहट और तनाव उन के चेहरे पर बराबर दिखाई देता है.

बढ़ती उम्र की शहरी महिलाओं की अब यही एक आम मानसिकता होती जा रही है. पारिवारिक जीवन में जो बदलाव आ रहा है, उस के लिए वे तैयार नहीं होती हैं. बच्चे हाथ से ऐसे छूट जाते हैं जैसे कटोरी से पारा गिर गया हो. पति हर समय सिर पर सवार सा लगने लगता है. जवानी में जो आशा बनी रहती है कि बच्चे बड़े हो कर हमारी सेवा करेंगे, वह टूट जाती है.

घर में काम भी बहुत कम हो जाता है. एक सूनापन सा बराबर बना रहता है. इस बदलाव से महिलाओं को जो पीड़ा होती है, उस से उन के नजरिए में भी फर्क आता है. वे अपनेआप को दुखियारी और बेचारी समझने लगती हैं. उन का आत्मविश्वास, उन की सहनशीलता खत्म हो जाती है.

इस दौरान पति के साथ भी उन का लगाव कम होने लगता है. प्रेम और आकर्षण को बनाए रखने की दिशा में वे कोई पहल नहीं करतीं. तटस्थ और उदासीन हो कर घर के काम करते हुए भावनाओं में डूब जाती हैं.

विशेषज्ञ बताते हैं कि उन की जिंदगी का यही समय होता है उन के लिए सब से अधिक फुरसत का, जिसे वे व्यर्थ की चिंताओं में बिताने में एक अस्वस्थ सुख का अनुभव करती हैं. मनोवैज्ञानिकों की भाषा में इसे ‘स्वपीड़ा का सुख’ कहते हैं. कमला मल्होत्रा का सुखदुख यही है.

लगभग इसी उम्र की हैं गायत्री देवी. अपनी संतान को ही सबकुछ मान लेने की गलत मानसिकता पाल कर जानेअनजाने वे पति की अवहेलना करती रही हैं.

20 वर्षों के इस भावनात्मक अंतराल के चलते पतिपत्नी के बीच पूरा संवाद नहीं हो पाता. एक गैप बराबर बना रहता है. पति को शिकायत है कि उन की जरूरतों की गायत्री को परवा नहीं है. गायत्री के अनुसार, वे मुझे पूछते ही कब हैं.

 

पुरुष बनाम महिला

जाहिर है, यह एक अधेड़ मानसिकता है जिस का शिकार महिलाएं अधिक होती हैं. उन का जीवन कुछ और अधिक सिकुड़ कर आत्मकेंद्रित हो जाता है. खाली समय में कुछ पढ़नेलिखने की आदत भी उन की नहीं होती. पुरुष बाहर की दुनिया से भी कुछ तालमेल रखते हुए जिंदगी की बदली हुई परिस्थिति से समझौता करने का गुर सीख लेते हैं. इस उम्र में जो अडि़यल मानसिकता महिलाओं में पैदा हो जाती है वह पुरुषों में बहुत कम देखी जाती है.

महिला मनोविज्ञान के विश्लेषकों ने इस मानसिकता को काफी खतरनाक बताया है. उन का मानना है कि इस से बीमारियां भी पैदा हो सकती हैं, जिन बीमारियों का जिक्र इस संदर्भ में अकसर किया जाता है उन में अवसाद और उच्च रक्तचाप प्रमुख हैं.

इधर स्ट्रोक और दिल का दौरा भी महिलाओं को अधिक पड़ने लगा है. पहले महिलाओं को यह बहुत कम होता था. बहुत से कारणों में एक कारण अब यह भी बताया जा रहा है कि अधेड़ावस्था में उन का अकेलापन बढ़ जाता है. गृहस्थी में कुछ खास करने को नहीं रह जाता तो खाली दिमाग परेशानी का सबब बन जाता है. पुरानी बातों को याद कर दुखी होने की आदत छोड़नी पड़ेगी.

मनोचिकित्सकों से बात करने पर पता चलता है कि डिप्रैशन की बीमारी भी बढ़ती उम्र की महिलाओं को ही अधिक होती है. अकसर यह इतनी गंभीर हो जाती है कि मनोचिकित्सक के पास जाना अनिवार्य हो जाता है. वे भी उन्हें यही सलाह देते हैं कि आप अपने को किसी काम में उलझाए रखें. कोई अच्छा शौक पालें, पत्रपत्रिकाएं पढ़ें, बागबानी करें और अपनी सोच को सकारात्मकता की ओर उन्मुख करें.

नकारात्मक विचार

देखने में आ रहा है कि महिलाओं को इधर स्ट्रैस व डायबिटीज भी अधिक होने लगी है. कहते हैं, आदमी जब अपने नकारात्मक विचारों को रोक नहीं पाता और यह लंबे समय तक चलता रहे तो उस के शरीर में इंसुलिन की कमी हो जाती है. मधुमेह का यह एक मानसिक कारण है. यह बढ़ती उम्र की महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है. इसी बीच अगर आर्थ्राइटिस भी हो गई हो तो कुछ चिकित्सक उसे भी महिलाओं की मानसिक अवस्था से जोड़ देते हैं. इस उम्र में वे अगर जीने का स्वस्थ दृष्टिकोण अपना लें तो अधेड़ होने की बहुत सी कुंठाओं से बच सकती हैं.

आत्महत्या से पीडि़त महिलाओं की संख्या भी इधर बहुत बढ़ी है. वे दूसरों को फलताफूलता देखती हैं तो उन से अपनी तुलना करने की मजबूरी को दबा नहीं पातीं.

पड़ोस की मीरा को यह बात रास नहीं आई कि अर्चना ने गाड़ी खरीद ली है. हम अपने एक इस छोटे से सपने को भी पूरा नहीं कर पाए तो हमारे जीवन में रखा ही क्या है. मीरा की उलझनें बढ़ गईं. पति के जीवनभर की बचतपूंजी लगा कर अर्चना की गाड़ी से भी अच्छी गाड़ी खरीदने की लालसा उन के मन में जाग उठी.

बढ़ती उम्र में आप के मन में अगर इस प्रकार की कोई वेदना पैदा हो तो आप जरा शांति से बैठ कर हिसाब लगाएं. आप को तब मालूम होगा कि आप के अधिकतर सपने पूरे हो चुके हैं और जो बाकी हैं उन के पूरे न होने का दुख मात्र एक असुरक्षा की भावना है, जो उम्र के साथ बढ़ जाती है.

यहां एक मामूली सी समझ यह रखनी होगी कि आप जब 50-55 वर्ष की होती हैं तो आप का पति 60 पार कर रहा होता है. इस उम्र में उस की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. वह तन और मन की सेहत पर अधिक खर्च करने लगता है, घरेलू चीजों की खरीदारी पर बेकार पैसा गंवाना समझता है. इस से पतिपत्नी के बीच जो विवाद पैदा होता है वह आप दोनों के अडि़यल रुख को बढ़ावा देता है. यह और बात है कि इस का खमियाजा शायद औरतों को ही ज्यादा भुगतना पड़ता है.

बोलचाल की भाषा में जिसे हम अडि़यलपन कहते हैं वह अधेड़ावस्था में अपनी चरमसीमा पर होता है. कुछ लोग इसे सठियाना भी कहते हैं. यह महिलाओं में अधिक होता है या पुरुष में, इस विषय पर कोई रिसर्च शायद न हुई हो पर अनुभव यही बताते हैं कि स्त्रियां इस की शिकार अधिक होती हैं. सासबहू के झगड़ों का एक कारण यह भी है कि सास अड़ जाती है, जबकि ससुर का नजरिया उदारवादी अथवा समझौते वाला होता है.

इच्छाओं की पूर्ति का सवाल जिस मानसिकता से पैदा होता है उस में भावुकता का पुट अधिक होता है जबकि वास्तविक समझदारी बहुत कम होती है. कभीकभी छोटीछोटी जरूरतों को भी इतना तूल दे दिया जाता है कि घर में तनाव पैदा हो जाता है. पुताई हो रही है तो दीवार पर कौन सा रंग लगे, इस पर भी बहस हो जाती है, मुंह फूल जाते हैं.

ऐसा नहीं कि अधेड़ उम्र की कठिन मानसिक दशा से उबरने का कोई रास्ता नहीं. इस समस्या से सरोकार रखने वाले बताते हैं कि आप अपने आपसी प्रेम के रैगुलेटर को जरा बढ़ा दें तो मन में रस का संचार होने लगेगा. महिलाओं के पास तो इतने गुण हैं कि उन का इस्तेमाल करें तो वे बढ़ती उम्र की कुंठाओं से बच सकती हैं. स्वयं को कुतरने वाले काल्पनिक विचारों के चूहों से बचने के लिए आप यह सब करें :

  • कोई आर्थिक समस्या नहीं तो फ्री में बच्चों को ट्यूशन दें.
  • शौकिया कुकिंग करें.
  • इस उम्र में कुछ आर्थिक जिम्मेदारी निभाने का भी प्रयास करें.
  • सिलाईकढ़ाई करें.
  • पति की दुकान या औफिस है तो वहां बैठें.
  • सुविधाजनक लगे तो बिजलीपानी और फोन आदि के बिल भी स्वयं औनलाइन जमा करें.
  • पैसा हो तो कंप्यूटर या लैपटौप खरीदें, उस पर टाइप करें, हिसाबकिताब रखें.
  • गाने सुनें, फिल्में देखें.
  • व्हाट्सऐप पर पत्रव्यवहार करें, बधाई और शुभकामनाओं का लेनदेन करें.

दो रोटी बना कर खा लेने से आत्मविश्वास नहीं पैदा होगा. घर में बुढ़ाएसठियाए  पतिपत्नी की तरह नहीं, 2 प्रेमियों की तरह रहें. अगर स्वयं को बदल नहीं सकते तो कम से कम जिन खुशियों को महसूस कर सकते हैं उन का तो जीभर के अपने जीवन में स्वागत करें. जब हम छोटीछोटी खुशियों का आनंद नहीं लेंगे तो जाहिर है कि बड़ी खुशियां भी हम से मुख मोड़ कर जा सकती हैं.

बच्चियों से सैक्स : हवस की भूख का घिनौना नतीजा

उत्तर प्रदेश राज्य के हसनगंज कोतवाली इलाके का रहने वाला रमेश पेशे से बढ़ई था. कुछ दिन पहले उस ने काम करने का ठेका लिया था, जिस के लिए वह बेंगलुरु गया था. रमेश की बेटी रीना (बदला नाम) दूसरी जमात में पढ़ती थी. वह डांस करने में अच्छी थी और खूबसूरत भी. लखनऊ में होने वाले हजरतगंज कार्निवाल में उस ने डांस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. उस समय के डीएम राजशेखर ने उसे

50 हजार रुपए का इनाम दिया था. रीना के परिवार में उस के मातापिता, 2 बहनें और 3 भाई थे. एक रविवार की सुबह 8 बजे रीना दूध लेने बाजार गई थी. इस के बाद उस की मां काम करने बाहर चली गई थी. शाम को तकरीबन 4 बजे जब मां वापस आई, तब रीना घर पर नहीं थी. उस ने दूसरे बच्चों से पूछा, तो पता चला कि रीना सुबह से ही बाहर है और अब तक घर नहीं लौटी है.

रीना की तलाश शुरू हुई. महल्ले की हर गली, हर सड़क पर मां और उस के बच्चे उसे तलाश करते रहे. मां ने पुलिस को 100 नंबर पर फोन कर के बताने की कोशिश की, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. जब रीना का कुछ पता नहीं चला, तो वे लोग थाने गए और बेटी के लापता होने की बात बताई. पुलिस वालों ने परिवार के लोगों से कहा कि तुम खोज लो कि लड़की कहां गई थी. इसी बीच एक दिन बीत गया.

सोमवार की दोपहर निरालानगर में कार बाजार में सफाई करने वाला लड़का कार की सफाई कर रहा था, तो उसे कार की पिछली सीट पर एक बच्ची की लाश पड़ी मिली. वहां से पुलिस को सूचना मिली. तब आननफानन लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखी गई. पुलिस को बच्ची की लाश के नाखूनों में बाल मिले, जिस से लग रहा था कि उस ने खुद को बचाने की कोशिश की थी.

बच्ची की आंखें और जबान बाहर निकली हुई थी और मुट्ठी बंधी हुई थी, जिस से उस के दर्द का एहसास बराबर समझ आ रहा था. बच्ची के शरीर पर काले रंग की लैगिंग और पीले रंग का कुरता था. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. बच्ची की लाश मिलने की जानकारी जब घर वालों को मिली, तो वे भागेभागे आए और चीखतेचिल्लाते जमीन पर गिर पड़े.

वह बच्ची रीना थी. उस की मां ने राजुल नामक लड़के पर शक जाहिर किया, क्योंकि एक दिन पहले वह रीना को बहलाफुसला कर उसी कार के पास ले गया था. उस दिन रीना की मां वहां आ गई थी. पुलिस ने राजुल को पकड़ा. वह साफसफाई का काम करता था. वह रीना को अकसर टौफी भी देता था.

राजुल ने पुलिस को बताया कि उस ने रीना को कार में बिठाया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के बाद यह पता चला कि रीना के अंगों पर चोट के निशान मिले. मौत की वजह सिर में लगी चोट को माना गया. रीना का विसरा सुरक्षित रख लिया गया.

यह वारदात लखनऊ शहर की है, जहां हर वक्त भीड़ रहती है. यह वारदात सवाल उठाती है कि बच्ची से सैक्स करने के लिए अपराध क्यों किया जाता है? यह किसी एक शहर की वारदात नहीं है. बहुत सी जगहों पर ऐसे अपराध तेजी से होने लगे हैं.

सैक्स की भूख

मनोचिकित्सक डाक्टर मधु पाठक  का कहना है, ‘‘सैक्स की भूख और दिमागी बीमारी आदमी को अपराधी बना देती है. छोटी मासूम बच्चियों को बहलानाफुसलाना और उन को काबू में करना आसान होता है.

‘‘बलात्कार करने वाले आदमी दिमागी रूप से बीमार होते हैं. उन को लगता है कि वे किसी सामान्य औरत के साथ सैक्स संबंध नहीं बना सकते हैं. ऐसे में वे छोटी बच्चियों को अपना शिकार बनाते हैं.

‘‘ज्यादातर मामलों में ऐसे अपराधी बच्चियों के साथ खेलतेखेलते उन को बहलानेफुसलाने का काम करते हैं. इस दौरान वे उन के नाजुक अंगों से खेलते हैं. बच्चियों को इस बारे में पता नहीं होता, इसलिए वे ज्यादा विरोध नहीं कर पाती हैं.

‘‘कई बार तो सैक्स के दौरान ही बच्चियों की मौत हो जाती है और कई बार खुद को बचाने के लिए ऐसे लोग उन की हत्या तक कर देते हैं.’’

अच्छी छुअन की समझ

कुछ लोग सैक्स को ले कर इतने बीमार होते हैं कि वे शरीर को छू कर ही खुश हो जाते हैं. ऐसे लोग दूसरी औरतों के जिस्म को भी छूने की कोशिश करते हैं. राह चलते, बस, ट्रेन और हवाईजहाज तक में सफर के दौरान वे ऐसी हरकतें करने की कोशिश करते हैं. इस को ‘ईव टीजिंग’ यानी छेड़छाड़ कहा जाता है.

रैड ब्रिगेड, लखनऊ की उषा विश्वकर्मा कहती हैं, ‘‘गुड टच और बैड टच यानी अच्छी छुअन और बुरी छुअन की जानकारी बच्चों को देना बहुत ही जरूरी होता है.

‘‘आमतौर पर बीमार सोच के लोग बच्चियों के नाजुक अंगों पर हाथ फेरते हैं. देखने वालों को यह सामान्य लगता है, पर यह उन को खुशी देता है.

‘‘ऐसे में मांबाप की जिम्मेदारी बनती है कि वे बड़ी होती बच्चियों को यह जानकारी दें कि किस तरह से लोग उन को छूने की कोशिश करते हैं.

‘‘वैसे तो उम्र के साथसाथ बड़ी होती लड़कियों को यह पहले से पता चल जाता है कि उन को छूने वाले की मंशा क्या है, छोटी उम्र खासकर 6 साल से 9 साल की लड़कियों में यह समझ नहीं होती है. उन्हें लगता है कि जिस तरह से उन के घर के लोग लाड़प्यार में उन को छूते हैं, वैसे ही दूसरे लोग भी छू रहे हैं. इसलिए बच्चियों को यह बताना जरूरी है कि लाड़प्यार से छूने और सैक्स की सोच वाले के छूने में फर्क होता है.’’

बच्चियों पर कहर

गरीब भिखारी बच्चियों के बीच काम करने वाली लड़कियों को वहां से हटा कर स्कूल भेजने और उन्हें सही राह दिखाने की कोशिश करने वाली सोनाली सिंह कहती हैं, ‘‘आम समाज में रहने वाली लड़कियों को ही नहीं, बल्कि भीख मांगने वाली लड़कियों को भी ऐसे लोग अपना निशाना बनाते हैं.

‘‘आमतौर पर भीख मांगने में पूरे दिन में उतना पैसा नहीं मिलता, जितना किसी आदमी के साथ सैक्स के दौरान मिल जाता है. ऐसे में केवल मजदूर, रिकशा चलाने वाले ही नहीं, बल्कि ड्राइवर, चपरासी या दूसरे ऐसे लोग भीख मांगने वाली लड़कियों को बहलाफुसला कर ले जाते हैं. 1-2 बार सैक्स करने के बाद ये लड़कियां भी इस की आदी हो जाती हैं.

‘‘ऐसे लोग बड़ी चतुराई से इन लड़कियों को नशा करने की आदत भी डाल देते हैं, जिस के चलते इन को पैसों की जरूरत पड़ती रहती है और ये सैक्स की भूख मिटाने का जरीया बनी रहती हैं. हालत यह होती है कि कईकई लड़कियां तो 12 साल से 14 साल की उम्र में ही मां बन जाती हैं.

‘‘यह बात इन के मांबाप को भी पता  चल जाती है. कुछ दिनों तक तो ये छोटे बच्चे को अपने साथ रखती हैं, बाद में उस को किसी और के हवाले कर खुद फिर उसी दुनिया में चली जाती हैं.

‘‘भीख मांगने वाली गरीब लड़कियां सैक्स का सब से बड़ा जरीया बनती जा रही हैं. हालात ये हैं कि जल्दी मां बनने और दूसरी बीमारियों का शिकार हो कर इन में से ज्यादातर लड़कियां जवान होने से पहले ही मर जाती हैं.’’

किसी को नहीं चिंता

ऐसे ज्यादातर मामले गरीब घरों की बच्चियों के साथ होते हैं. इस मामले में पुलिस और कानून दोनों ही बहुत सुस्ती से काम करते हैं.

रीना की मां जब बेटी के गायब होने पर पुलिस थाने गई, तो पुलिस ने उस से रिपोर्ट तो ले ली, पर रीना को तलाश नहीं किया. अगर पुलिस ने उस दिन अपना काम शुरू कर दिया होता तो हो सकता है कि रीना बच जाती या उस का पता पहले चल जाता.

यही नहीं, ज्यादातर मामलों में अगर गंभीर किस्म की वारदात न हो जाए, तो घरपरिवार के लोग चुप हो जाते हैं. वे अपनी शिकायत कहीं दर्ज नहीं कराते हैं. ऐसे में अपराध करने वालों का हौसला बढ़ता है.

लखनऊ के ही एक स्कूल की घटना है. वहां काम करने वाले एक मुलाजिम ने छोटी बच्ची के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार करने की कोशिश की. बच्ची इस बात से डर गई और उस ने स्कूल जाना ही बंद कर दिया.

उस के मांबाप ने जब पूछा, तो वह कुछ बोली ही नहीं. मांबाप को लगा कि हो सकता है, स्कूल की किसी टीचर ने कुछ कहा हो. ऐसे में जब वे टीचर से मिलने की बात कहने लगे, तो बच्ची ने अपने डर की वजह बताई और तब घर वालों को पता चला कि स्कूल का एक मुलाजिम उसे डरा कर रखता था. स्कूल में शिकायत होने पर उस को हटाया गया.

ऐसे कई मामलों में केवल टीचर ही नहीं, प्रिंसिपल तक पर आरोप लग चुके हैं. यह जरूर है कि बड़े मामलों में लड़की से छेड़छाड़ तक मामला रहता है, पर गरीब बच्चियों के साथ बात बलात्कार और हत्या जैसे मामलों तक पहुंच जाती है.

कई बार लोग बच्चियों के घर वालों को पैसे दे कर मामला दर्ज न कराने का दबाव बनाते हैं. बहुत बार पैसों के दबाव में पुलिस भी आपस में समझौता कराना ठीक समझती है.

निशाने पर गरीब

‘आभा जगत ट्रस्ट’ की अध्यक्ष शिवा पांडेय कहती हैं, ‘‘गरीब बच्चियों के बहुत सारे ऐसे मामले दबा दिए जाते हैं. इन की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है. ऐसे में कुसूरवार को सजा नहीं मिलती. अपराध करने वाले ज्यादातर शराब के नशे में होते हैं. उन्हें खुद पता नहीं चल पाता कि नशे में वे शैतान बन चुके हैं.

‘‘पुलिस भी तभी काम करती है, जब उस पर दबाव होता है. कई बार तो हत्यारे पकड़े ही नहीं जाते याफिर किसी दूसरे को जेल भेज कर मामले को खत्म कर दिया जाता है. ऐसे मामले ज्यादातर गरीब और दलित जाति की लड़कियों के साथ होते हैं.’’

शिवा पांडेय गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम करती हैं. वे बताती हैं कि इन के घरों में रहने की जगह नहीं होती. ऐसे में ये बच्चियां किसी दूसरी जगह पर सोने या रहने लगती हैं. वहां आसपास के लोग इस का फायदा उठाते हैं. गरीब बच्चे भी दूसरे बच्चों की तरह टौफी, चौकलेट, कोल्ड ड्रिंक पीना चाहते हैं. इन के घर वाले पैसे दे नहीं पाते, तो दूसरे लोग खिलापिला कर बहलाफुसला लेते हैं. कई बार तो ये बातें किसी को पता ही नहीं चलतीं. जब कभी कोई वारदात हो जाती है, तो ही बात सामने आ पाती है.

देश में एक तबका कितना भी क्यों न चमक रहा हो, दूसरा तबका बहुत पीछे है. ऐसे में उस का शोषण करना लोग अपना हक समझते हैं. कई बार ऐसे मामले खबरों में आते हैं, जहां बलात्कार की शिकार को पैसे दे कर समझौता करा दिया जाता है. जब तक यह सुधार नहीं होगा, तब तक हालात नहीं बदलेंगे.

उम्र को मात देती हौसलों की उड़ान

पंकज त्रिपाठी और पत्रलेखा अभिनीत शौर्ट फिल्म ‘एल’ (एल फौर लर्निंग) मात्र डेढ़ मिनट में महिला सशक्तीकरण पर वह प्रभावोत्पादक टिप्पणी कर जाती है जो अब तक ढेरों सरकारी योजनाएं और नेताओं के छद्म वादोंभरे भाषण नहीं कर पाए. किस्सा कुछ यों है. मिडिल क्लास फैमिली को करीने से संभालती एक महिला को साइकिल चलानी नहीं आती.

जब वह अपने पति से साइकिल चलाना सिखाने के लिए कहती तो वह उस का उपहास करते हुए कहता कि इस उम्र में यह क्या नया शौक चढ़ा है, लोग देखेंगे तो हंसेंगे. पति से मिले मीठे इनकार के बाद जब वह अपने बच्चे की साइकिल ले कर पार्क में खुद ही सीखने की कोशिश करते हुए लड़खड़ाती है तो उस के बेटे को अपने दोस्तों के सामने काफी शर्मिंदगी होती है.

घर आ कर वह अपनी मां से उस की साइकिल दोबारा न छूने की हिदायत देता है. घर में अपने पति और बेटे के हतोत्साहित करते इन रवैयों से वह हार नहीं मानती और अंत में घर का सारा काम निबटा कर दोनों को बताए बगैर वह अपने ही दम पर साइकिल सीखने निकल पड़ती है.

सतही तौर पर देखें तो लगता है कोई बड़ी बात नहीं है. साइकिल तो कोई भी चला सकता है. लेकिन साइकिल का इस्तेमाल यहां प्रतीकात्मक तरीके से हुआ है. सिर्फ साइकिल ही नहीं, आज की महिला जब भी कोई नया काम सीखना चाहती है या फिर किसी पुरानी कमतरी से उबरना चाहती है तो उसे समाज से प्रोत्साहन के बजाए उपहास और उलाहना ही मिलता है. समाज की बात क्या करें, खुद के परिवार में भाई, बहन, पिता या पति भी महिलाओं को घर पर बैठने की हिदायत दे कर उन्हें कुछ नया सीखने से दूर रखते हैं.

याद कीजिए, श्रीदेवी की फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश.’ इस फिल्म में संभ्रांत परिवार का किस्सा था. जहां घर में सब अंगरेजी बोल लेते हैं सिवा शशि गोडबोले के. उस की इस कमतरी पर पति और बच्चे तक उसे जलील करने का मौका नहीं छोड़ते. आखिर में उसे भी खुद ही पहल करनी पड़ती है. वह अपने दम पर बगैर अपनी उम्र की परवा किए इंग्लिश कोचिंग क्लास में न सिर्फ दाखिला लेती है बल्कि इंग्लिश सीख कर अपना खोया आत्मविश्वास भी हासिल करती है.

हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं

फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की शशि गोडबोले और ‘एल’ की मिडिल क्लास वाइफ जैसी न जाने कितनी महिलाएं हैं हमारे देश में जिन में कइयों को कार ड्राइविंग करनी है, कई पाइलट बन कर प्लेन उड़ाना चाहती हैं, कोई अंतरिक्ष में जाना चाहती है तो किसी को शूटर बना है. किसी का सपना है कि वह एवरेस्ट की चढ़ाई करे तो कोई शादी के बाद मौडलिंग करना चाहती है.

किसी को डांस का शौक है तो कोई सिंगर बनना चाहती है. किसी को दंगल में धोबीपछाड़ लगानी है तो कोई अपनी अधूरीछूटी पढ़ाई को पूरा कर के डाक्टर या टीचर बनना चाहती है. लेकिन सब अपने परिवार की जिम्मेदारियां निभाने में कहीं पीछे छूट गईं. लेकिन जब आज वे फिर से अपने अधूरे ख्वाबों के परवाजों को पंख देना चाहती हैं तो समाज और परिवार उन्हें उम्र का हवाला दे कर उड़ने से रोकता है. कहता है कि इस उम्र में अब काहे जगहंसाई करवाओगी. चुपचाप घर में बैठो और बच्चे पालो.

जिन के हौसलों में दम होता है वे इन अड़चनों को आसानी से पार करने के लिए उम्र और अपनों के हतोत्साहन को रौंदते हुए न सिर्फ अपने सपनों को पूरा करती हैं बल्कि समाज और महिलाओं को यह संदेश भी दे जाती हैं कि हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं होते.

इस देश में कई मिसालें हैं जब महिलाओं की उम्र जान कर उन्हें कमजोर आंकने की गलती की गई. उन्होंने अपने साहस, लगन और बहादुरी से नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया. उन्होंने साबित कर दिया कि अगर कुछ करने का जज्बा हो तो आप शिखर पर पहुंच सकते हैं. आइए मिलते हैं कुछ ऐसी ही महिलाओं से, जो प्रेरणा हैं हम सब के लिए.

101 साल की गोल्ड मैडलिस्ट धावक

जब 101 वर्षीय एक महिला ने उम्र को मात देते हुए अमेरिकन मास्टर्स टूर्नामैंट में भारत की तरफ से गोल्ड मैडल जीता तो देखने वाले दांतों तले उंगली दबा कर रह गए. यह महिला कोई और नहीं, बल्कि भारतीय धावक मान कौर थीं जो 101 साल की उम्र में यह कारनामा कर दुनिया को बता रही हैं कि उम्र को बहाना बनाना छोड़ो और कर डालो जो भी हासिल करना है.

आश्चर्य की बात तो यह है कि मान कौर ने 93 वर्ष की उम्र से दौड़ना शुरू किया था. जिस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने बुढ़ापे का हवाला दे कर कभी नातीपोतों के साथ समय गुजारती हैं या फिर बिस्तर पर पड़ेपड़े मौत का इंतजार करती हैं, उस उम्र में मान कौर 100 मीटर की दौड़ पूरी करती हैं. पिछले साल भी उन्होंने इसी प्रतियोगिता में गोल्ड जीता था.

न्यूजीलैंड के औकलैंड शहर में आयोजित स्पर्धा में मान कौर ने 100 मीटर रेस में यह मैडल जीता है. मान ने अपने कैरियर में यह 17वां गोल्ड मैडल हासिल किया है. मान ने 1 मिनट 14 सैकंड्स में यह दूरी तय की, जो उसेन बोल्ट के 64.42 सैकंड के रिकौर्ड से कुछ सैकंड ही कम है. उसेन बोल्ट ने 2009 में 100 मीटर की रेस में यह रिकौर्ड कायम किया था. न्यूजीलैंड के मीडिया में ‘चंडीगढ़ का आश्चर्य’ कही जा रहीं मान कौर के लिए इस स्पर्धा में भाग लेना ही सब से बड़ा लक्ष्य था.

मान कौर कहती हैं कि उम्र की ढलान में अपने सपनों को दफन करना ठीक नहीं है. हम किसी भी उम्र में खेल सकते हैं. महिलाओं को खेलों में आना चाहिए, इस के लिए खानपान पर नियंत्रण रखना चाहिए. बढ़ती उम्र में चलतेफिरते रहने से बीमारियां दूर होती हैं. इस प्रतिस्पर्धा में मान की ऊर्जा अन्य प्रतिभागियों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई. इस से पहले उन्होंने भाला फेंक और शौट पुट में भी मैडल जीते थे. दुनियाभर के मास्टर्स खेलों में मान कौर अब तक 20 मैडल अपने नाम कर चुकी हैं.

फिटनैस का हौआ

उम्र को मात दे कर किस तरह हौसलों का शिखर पार किया जाता है, इस के 2 बड़े उदाहरण हैं. एक तरफ तेलंगाना से बेहद आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से ताल्लुक रखती सिर्फ 13 साल की उम्र की मामलावत पूर्णा अपनी लगन से सब से कम उम्र की महिला पर्वतारोही बनने का गौरव हासिल करती है तो दूसरी तरफ प्रेमलता अग्रवाल हैं जो एवरेस्ट फतह करने वाली अब तक भारत की सब से उम्रदराज महिला हैं. उन्होंने उपलब्धि 48 साल की उम्र में हासिल की.

अब यह खिताब अपने नाम करने की कोशिश 52 साल की संगीता एस बहल कर रही हैं. पर्वतारोहण का शौक संगीता के लिए ज्यादा पुराना नहीं है. उन्होंने लगभग 47 साल की उम्र में पहली बार किलिमंजारो पर चढ़ाई की.

वे 2011 में संगीता किलिमंजारो, 2013 में एलब्रस, 2014 में विंसन, 2015 में अंकाकागुआ और कोसियुस्जको शिखर फतह कर चुकी हैं. 2015 में उत्तरी अमेरिका के डेनाली पर्वत पर वे दुर्घटना का शिकार हुईं. चढ़ाई के दौरान उन का घुटना टूट गया जिस के बाद सर्जन ने उन्हें पर्वतारोहण छोड़ने की सलाह दी. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और इसे एक चुनौती की तरह लिया. उन का घुटना दोबारा जोड़ा गया. कई महीनों तक फिजियोथेरैपी ली. और उन की हिम्मत देखिए, चोट लगने के 6 महीने से भी कम समय में वे अंकाकागुआ पर्वत पर थीं.

उन की जगह कोई और होता तो आसानी से हार मान जाता और अपनी चोट व फिटनैस का हवाला दे कर घर बैठ जाता लेकिन जिसे कुछ करने की बेचैनी और जनून होता है वह हार नहीं मानता बल्कि औरों के लिए मिसाल बन जाता है.

कई बार महिलाएं या पुरुष यह सोच कर अपने कैरियर या सपने को पूरा करने में सकुचाते हैं कि अब उम्र हो गई है या फिर शरीर साथ नहीं देता. कम ही ऐसे होते हैं जो बढ़ती उम्र और फिटनैस से जुड़ी चुनौतियों का मजबूती से सामना कर कामयाबी हासिल कर पाते हैं.

महू के गोल्फर मुकेश कुमार ऐसे ही अपवाद हैं. उन्होंने 51 साल की उम्र में एशियन टूर जीत कर किसी उम्रदराज खिलाड़ी द्वारा विश्वस्तरीय गोल्फ टूर्नामैंट जीतने का रिकौर्ड अपने नाम किया है. कुछ साल पहले तक मुकेश भीतर से इतने मजबूत नहीं थे. उन्हें लगता था कि युवा खिलाडि़यों की तरह लंबे हिट लगाना अब उन के बस की बात नहीं. लगातार प्रैक्टिस और उस से मिले आत्मविश्वास के बल पर मुकेश को यह सफलता मिली.

नाकामी पर भारी पक्के इरादे

इरादा पक्का हो तो अक्षमता की हर खाई लांघी जा सकती है. यह कर दिखाया बहराइच की पुष्पा ने. दिव्यांग पुष्पा सिंह हाथों से अक्षम हैं लेकिन उन्होंने इसे कभी भी इस अक्षमता को अपने पैशन के आड़े नहीं आने दिया. वे अपने पैरों से लिखती हैं. जब वे पीसीएस लोअर की परीक्षा देने पहुंचीं तो उन की हिम्मत देख कर सभी हैरान रह गए. पुष्पा स्कूलटीचर हैं, लेकिन उन का सपना प्रशासनिक अधिकारी बनने का है. प्रशासनिक अधिकारी बन कर पुष्पा समाज में बदलाव लाना चाहती हैं.

अभिनेत्री सुधा चंद्रन ने भी तब हार नहीं मानी थी जब एक दुर्घटना में उन की एक टांग काटनी पड़ी थी. मशहूर नृत्यांगना के लिए पैरों की क्या अहमियत होती है, इसे सिर्फ एक डांसर ही समझ सकता है. सुधा की हिम्मत ही थी कि उन्होंने कृत्रिम पैर के साथ न सिर्फ अपने डांस और अभिनय के जनून को जिंदा रखा बल्कि फिल्म ‘नाचे मयूरी’ में नृत्य प्रतिभा से सब को सकते में डाल दिया.

पैरा ओलिंपिक प्रतियोगिताओं में देखिए, किस तरह से दिव्यांग खिलाड़ी अपनी लगन और प्रैक्टिस से दुनियाभर के खेलों में अपने देश का नाम रोशन कर रहे हैं.

शादी के बाद एक नई शुरुआत

कई बार महिलाओं के सपने इस बात पर दम तोड़ देते हैं कि अब वे मां बन गई हैं और शरीर में वह बात नहीं रही जो शादी से पहले होती है. जबकि यह तथ्य बिलकुल फुजूल है. हैल्थ एक्सपर्ट मानते हैं कि शादी के बाद या मां बनने के बाद एक औरत का शरीर कमजोर नहीं होता बल्कि और मजबूत हो जाता है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा की ताइक्वांडो चैंपियन नेहा की कहानी उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है जो शादी के बाद यह मान लेती हैं कि उन का कैरियर ही खत्म हो गया है. नेहा ने न सिर्फ शादी के बाद पढ़ाई की, बल्कि अपनी मेहनत के दम पर नैशनल ताइक्वांडो प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल भी हासिल किया. अगर नेहा शादी के बाद ताइक्वांडो चैंपियन हो सकती है तो कोई भी महिला शादी के बाद जो चाहे, वह कर सकती है.

दरअसल, शादी के बाद एक नई शुरुआत हो सकती है अपना हर वह हुनर आजमाने के लिए, जो शादी के पहले किन्हीं कारणों से अधूरा रह गया था. केरल की 70 वर्षीय दिलेर और जुझारू मीनाक्षी अम्मा को ही देख लीजिए. इस उम्र में औरतें अपने नातीपोतों के साथ घर पर अपना बुढ़ापा गुजारती हैं जबकि मीनाक्षी अम्मा मार्शल आर्ट कलारीपयटूट का निरंतर अभ्यास करती हैं.

कलारीपयटूट तलवारबाजी और लाठियों से खेला जाने वाला केरल का एक प्राचीन मार्शल आर्ट है. इस कला में वे इतनी पारंगत हैं कि अपने से आधी उम्र के मार्शल आर्ट योद्घाओं के छक्के छुड़ाने का दम रखती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘आज जब लड़कियों के देररात घर से बाहर निकलने को सुरक्षित नहीं समझा जाता और इस पर सौ सवाल खड़े किए जाते हैं, कलारीपयटूट ने उन में इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया है कि उन्हें देररात भी घर से बाहर निकलने में किसी प्रकार की झिझक या डर महसूस नहीं होता.’’ उन्हें प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.

फैसला होने से पहले क्यों हार मानूं

उपरोक्त महिलाओं की उपलब्धिभरे आंकड़े और मिसालों भरे प्रेरणादायक किस्से इस तथ्य को पुष्ट कर रहे हैं कि उत्साह, लगन, संकल्प बना रहे तो किसी भी उम्र या स्थिति में कोई भी हुनर सीखा और उस में निपुण हुआ जा सकता है. कुछ पाने की तमन्ना हो, सकारात्मक सोच हो तो हम अपने जीवन को सफल व सार्थक बना सकते हैं. फिर चाहे पति, पिता और बेटे सपोर्ट करें या उपहास करें, महिलाओं को जो करना है उन्हें करने से कोई नहीं रोक सकता.

उम्र को थामना किसी के भी वश में नहीं है, इसलिए बढ़ती उम्र का हवाला दे कर अपने सपनों को बीच राह में छोड़ना तार्किक नहीं है. इन तमाम महिलाओं की तरह अपनी हर अक्षमता, उम्रदराजी, हालात और मजबूरियों के पहाड़ों को पार कर के ही महिला सशक्तीकरण के नए आयाम रचे जा सकते हैं. और इस चुनौती में अगर घर, समाज, परिवार उपहास करता है, राह में कांटे बिछाता है तो बिना किसी के सहारे भी आप अकेली काफी हैं.

‘फैसला होने से पहले, मैं भला क्यों हार मानूं. जग अभी जीता नहीं है, मैं अभी हारा नहीं हूं…’ ये पंक्तियां इशारा करती हैं कि हमें लोग क्या कहेंगे और इस उम्र में हम क्या करेंगे, जैसे बहानों को पीछे छोड़ कर तब तक संघर्ष और मेहनत करो जब तक अपनी मंजिल न पा लो.

बीड़ीसिगरेट के धुएं में दम तोड़ती जिंदगी

आप जानते हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने के चलते भारत में हर साल 10 लाख लोगों की जानें चली जाती हैं? नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2015 में 13 राज्यों में कराए गए सर्वे में यह बात सामने आई कि तंबाकू खाने वालों की तादाद 47 फीसदी है.

दुनियाभर में तकरीबन 60 लाख लोग हर साल तंबाकू की बलि चढ़ते हैं, जिन में से 10 फीसदी यानी 6 लाख लोग नौनस्मोकर होने के बावजूद पैसिव स्मोकिंग का शिकार होते हैं.

नयति सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, मथुरा द्वारा कराई गई एक रिसर्च के मुताबिक, अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तकरीबन 21 फीसदी आबादी तंबाकू की लत की शिकार है. यह भी पाया गया है कि 45 साल या इस से ज्यादा की उम्र के लोगों में तंबाकू का प्रयोग आम है, जबकि नौजवान पीढ़ी धूम्रपान की गिरफ्त में है. धूम्रपान करने वाली 55 फीसदी आबादी की उम्र 25 से 45 साल के बीच पाई गई.

दिल्ली के बीएलके सुपर स्पेशलिटी अस्पताल की डाक्टर तपस्विनी शर्मा के मुताबिक, तंबाकू की लत ओरल कैविटी, कंठ नली, ग्रास नली, पेनक्रियाज, आंत और किडनी व फेफड़ों के कैंसर की वजह बनती है.

तंबाकू की लत का सीधा संबंध सभी तरह के कैंसर से होने वाली तकरीबन 30 फीसदी मौतों से होता है. बीड़ीसिगरेट पीने वाले ऐसा नहीं करने वालों की तुलना में औसतन 15 साल पहले मौत के मुंह में चले जाते हैं. सिगरेट, पाइप, सिगार, हुक्का पीने और तंबाकू चबाने व सूंघने जैसे तंबाकू सेवन के दूसरे तरीके खतरनाक होते हैं.

तंबाकू में मौजूद निकोटिन दिमाग में डोपामाइन व एंड्रोफाइन जैसे कैमिकलों का लैवल बढ़ा देता है, जिस से इस की लत लग जाती है. ये कैमिकल मजे का एहसास कराते हैं और इसलिए तंबाकू पीने या चबाने की तलब बढ़ जाती है. अगर कोई शख्स इस लत को छोड़ना भी चाहता है, तो उसे चिड़चिड़ाहट, बेचैनी, तनाव और एकाग्रता की कमी जैसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है.

तंबाकू और तंबाकू के धुएं में तकरीबन 4 हजार तरह के कैमिकल पाए जाते हैं, जिन में से 250 कैमिकल जहरीले होते हैं और 60 केमिकल कैंसर के होने की वजह बनते हैं.

तंबाकू का धुआं खून की नलियों को सख्त बना देता है, जिस से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. इस में कार्बनमोनोआक्साइड तत्त्व भी होता है, जो खून में आक्सिजन की मात्रा घटा देता है.

आमतौर पर सिगरेट नहीं पीने वालों के मुकाबले सिगरेट पीने वालों में कोरोनरी आर्टरी संबंधी बीमारियों से होने वाली मौत की दर 70 फीसदी ज्यादा रहती है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत के चलते औरतें समय से पहले ही बच्चे को जन्म दे देती हैं या उन्हें बारबार बच्चा गिरने की समस्या से जूझना पड़ता है. साथ ही, मरा हुआ बच्चा पैदा होना या बच्चे के कम वजन होने का खतरा रहता है.

बीड़ीसिगरेट पीने के चलते मर्दों में फेफड़े के कैंसर के 90 फीसदी मामले हैं, जबकि औरतों में 80 फीसदी मामले देखे गए हैं. तंबाकू का धुआं नौनस्मोकरों खासकर बच्चों के लिए भी खतरनाक होता है.

society

बीड़सिगरेट पीने वाला कोई शख्स न सिर्फ खुद की सेहत को खतरे में डालता है, बल्कि अपने आसपास मौजूद लोगों, मसलन काम करने वालों और परिवार के दूसरे सदस्यों की जिंदगी भी खतरे में डाल देता है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत अमूमन किशोरावस्था में ही लगती है और जवान होतेहोते लोग इस के आदी हो जाते हैं. इस की लत की चपेट में आने वालों को इस बात का एहसास नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं या किस चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं.

ऐसे छोड़ें तंबाकू की लत

अगर एक बार किसी को तंबाकू की लत लग जाती है, तो इसे छोड़ पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. उसे सिरदर्द, नींद न आना, तनाव, बेचैनी, हाथपैर कांपने और भूख न लगने की शिकायत या खून की उलटी होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

लेकिन कुछ तरीके ऐसे हैं, जिन को अपनाने से इस लत से छुटकारा पाने में मदद मिल सकती है:

– तंबाकू छोड़ने के लिए सब से जरूरी है कि इसे छोड़ने का पक्का फैसला करें.

– तंबाकू एक झटके में छोड़ना मुश्किल है. धीरेधीरे मात्रा कम करते हुए छोड़ें.

-अपने दोस्तों, परिचितों व रिश्तेदारों को भी बता दें कि आप ने नशा छोड़ दिया है और वे आप को नशा करने के लिए मजबूर न करें.

-अपने पास सिगरेट, तंबाकू, गुटका, माचिस वगैरह रखना छोड़ दें.

-जब आप खुद को सारा दिन मसरूफ रखते हैं, तो आप का ध्यान तंबाकू की तरफ जाएगा ही नहीं.

-अच्छा खानपान और समय पर आराम जैसी बातों का खयाल रखें.

-नशा करने वाले दोस्तों की संगत छोड़ दें.

-तंबाकू छोड़ने के लिए आप बिना शुगर वाली चुइंगम चबाते रहें, फिर आप को तंबाकू की तलब नहीं लगेगी.

-जब भी सिगरेट पीने की इच्छा हो, तो जीभ पर थोड़ा नमक रख लें.

डाक्टर तपस्विनी शर्मा कहती हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने से छुटकारा पाने के लिए दवाएं और व्यवहार थैरैपी भी इलाज करने का एक रास्ता हो सकता है. जागरूकता बढ़ाने के लिए एक मजबूत एंटीस्मोकिंग मीडिया कैंपेन अच्छा प्लेटफौर्म हो सकता है.

स्कूलों में धूम्रपान न करने की सीख भी दी जानी चाहिए. अपने घरों, सार्वजनिक जगहों पर बीड़ीसिगरेट पीने या तंबाकू खाने पर बैन करने जैसी सामाजिक पहल से जागरूकता बढ़ाई जा सकती है.

वैसे, सरकार ने नाबालिगों को धूम्रपान, तंबाकू और गुटके के नुकसान से बचाने के लिए इन्हें बेचना गंभीर अपराध घोषित किया है. दिसंबर, 2015 में भारतीय संसद में पास हुए नए जुवैनाइल जस्टिस ऐक्ट में किसी नाबालिग को तंबाकू या उस से संबंधित चीजें बेचना दंडनीय अपराध माना जाएगा और कुसूरवार को 7 साल तक की जेल व एक लाख रुपए तक का जुर्माना लगेगा.

भ्रामक उपचार का प्रचार : शर्तिया इलाज के साइड इफैक्ट

पिछले कुछ सालों से बाजारवाद के चलते जनता सेहत के प्रति बहुत जागरूक हुई है. जागरूक होना अच्छी पहल है, लेकिन इस जागरूकता के पीछे बाजारवाद का होना खतरनाक है.

टैलीविजन चैनलों पर देशी नुसखे और 100 फीसदी फायदे की गारंटी के साथ इश्तिहार दिखाए जाते हैं. इन में 7 दिनों में सिर पर बाल आना, 10 दिनों में डायबिटीज की बीमारी ठीक होना और 7 दिनों में चेहरे की झुर्रियां गायब कर देने की देशी दवाएं बताई जाती हैं. बाद में एक बात कही जाती है कि

इसे सब्सक्राइब करें यानी इन का यह सब्सक्राइब हजार से ऊपर होने पर चैनल उस पर उसी हिसाब से इश्तिहार डालता है और हर इश्तिहार की कमाई का एक बड़ा हिस्सा फर्जी लोगों के पास चला जाता है.

कुछ लोगों के इंटरव्यू भी दिखाए जाते हैं. उसी के साथ एक झूठी कहानी भी बताई जाती है कि किस तरह अफ्रीका के घने जंगलों में फलां फल को खोजा गया और उस का इस्तेमाल किया गया, जिस से शर्तिया फायदा मिल गया.

कौन सा फल? उस के रासायनिक गुण क्या हैं? उस के साइड इफैक्ट क्या हैं? इस बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है, जो ड्रग ऐेंड कंट्रोल के कायदे के मुताबिक कंपनी द्वारा बताया जाना जरूरी है.

पिछले दिनों शुगर की बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए एक ऐसा ही तकरीबन 2,000 रुपए का प्रोडक्ट आया. हैरानी की बात यह है कि उसे लाखों लोगों ने खरीदा, जिस से कंपनी करोड़पति बन गई. पर उस प्रोडक्ट में जो दवाएं मिलाई गई थीं वे कितनी मात्रा में थीं, इस का कहीं भी जिक्र नहीं था और उस का भी प्रचार अफ्रीका के जंगलों और हिमालय पर्वत की घाटियों से लाई गई जड़ीबूटियों के नाम से किया गया था.

न तो 7 दिनों में झुर्रियां जाती हैं और न ही सिर पर 7 दिनों में बाल उगते हैं, लेकिन चैनल पर बैठे वैद्य या डाक्टर खुद के मरीजों द्वारा फायदा दिए जाने की दुहाई देते हैं और आखिर में यह कहते सुनाई देते हैं कि इस जानकारी को जनहित में प्रचारित कीजिए, जितने लाइक और सब्सक्राइब बढ़ेंगे, चैनल पर उस के भाव और बढ़ेंगे, लेकिन इस नीमहकीमी से जो परेशानियां होंगी उन्हें कैसे दूर करना है, इस का कोई जिक्र नहीं होता है.

कुछ कंपनियों के बनाए सामान को आप नहीं जानते हैं, जबकि उन की कीमत लोकल ब्रांडेड कंपनियों के बनाए गए सामान से 50 से 80 गुना ज्यादा होती है. आप को सिर्फ फोन करना होता है, दवा घर पहुंच जाती है. अगर वीपीआर नहीं छुड़वाया तो उन्हें कुछ नुकसान नहीं होता है क्योंकि पहले ही वे कई गुना ज्यादा किसी से वसूल चुके होते हैं, इसलिए अपनी सेहत से खिलवाड़ न करें. आप के फैमिली डाक्टर जो सलाह दें उसी के मुताबिक दवाओं का सेवन करें.

अगर टैलीविजन चैनल की दवा खाने से कुछ साइड इफैक्ट हो गया तो आप भी परेशान होंगे और आप का डाक्टर भी.

बहुत सी दवाओं का ऐंटी डोज दवा में रखे कागज पर होता है लेकिन इन  दवाओं का ऐंटी डोज क्या लेना है, ऐसा कुछ लिखा नहीं होता है. ये लोग अपना सामान बेच कर कई गुना फायदा कमाते हैं, ऊपर से इश्तिहार से भी आमदनी हासिल करते हैं. नुकसान में ग्राहक ही रहते हैं जो रुपयों के अलावा सेहत भी खोते हैं, इसलिए टैलीविजन चैनल पर घर बैठे शर्तिया इलाज के उपयोग से बचें और अपनी सेहत को महफूज रखें.

लड़कियों की कमी के चलते शादियां अटकीं

देश बदल रहा है. शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी अब शादी के लिए लड़कियों की कमी होने लगी है. इस से लड़कों की शादियां अटक रही हैं. ज्यादातर परिवारों में लड़कियों की तादाद कम होने लगी है. एक लड़की या एक लड़के से ही परिवार पूरा होने लगा है. गांवों में रहने वाले परिवार अब शहरों में पहुंच गए हैं. ऐसे में आम परिवार की लड़कियां स्कूल जाने लगी हैं.

गांव के किसी स्कूल को देखेंगे तो साफ हो जाएगा कि वहां पढ़ने वालों में लड़कियों की तादाद ज्यादा होती जा रही है. ऐसे में अब मांबाप अपनी लड़कियों की शादियां करने के लिए लड़के को ही नहीं बल्कि उस के परिवार की माली हालत को भी देखते परखते हैं. ऐसे में कम काबिल लड़कों की शादियां नहीं हो रही हैं. उत्तर भारत के कुछ राज्यों खासतौर पर हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लड़कों के सामने ऐसे हालात बनने लगे हैं.

ऐसे में ये लड़के दूर के प्रदेशों से खरीद कर लड़कियां लाते हैं और उन से शादी कर लेते हैं. गैर प्रदेशों से लाई गई लड़कियों में यह सुविधा रहती है कि वे इन के पास गुलामों की तरह रहती हैं.

दरअसल, उत्तर भारत के ये प्रदेश मर्दवादी सोच से प्रभावित होते हैं. वे औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते. इस वजह से उन के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां शादी के लिए सब से उपयोगी होती हैं.

खरीद कर लाई लड़कियों से शादी करने वालों में ऐसे लोग भी होते हैं जो कम उम्र में शादी करने के बाद अकेले हो गए. उन में से कुछ का पत्नी से विवाद हो गया या पत्नी छोड़ कर चली गई या फिर पत्नी की मौत हो गई. ऐसे में दूसरी शादी के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां उन्हें सही लगती हैं.

इस तरह के लड़कों में हर जाति और धर्म के लोग हैं. सब से ज्यादा खराब हालत पिछड़ी जातियों की है. पिछड़ी जातियों की रोजीरोटी पहले खेती पर ही टिकी होती थी. आज भी ये परिवार खेती पर ही टिके हैं. पर अब खेती में मुनाफा कम होने लगा है. ये परिवार खेती को छोड़ कर शहरों में बस रहे हैं. ऐसे में ये काफी गरीब होते जा रहे हैं. अब इन परिवारों के लड़कों को लड़की खरीद कर शादी करना आसान लगने लगा है.

हरियाणा और पंजाब में कई सालों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामले तभी सामने आते हैं जब किसी तरह का कोई झगड़ा हो या फिर मामला पुलिस तक पहुंच जाए.

आमतौर पर खरीदी गई लड़की से शादी करने वाले लोग समाज के सामने इस बात को नहीं मानते हैं कि लड़की खरीदी गई है. ये लोग चोरीछिपे शादी करते हैं. लड़की को अपने घरोें में छिपा कर रखते हैं.

ये लोग शादी के लिए ऐसी लड़की पसंद करते हैं जो इन के जैसी दिखती हो. यही वजह है कि दक्षिण भारत के प्रदेशों की लड़कियों को यहां नहीं लाया जाता. पश्चिम बंगाल और असम की जगह बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा पसंद की जाती हैं. वहां की लड़कियां हिंदी बोल और समझ लेती हैं. उन का रंग भी साफ होता है. ऐसे में कुछ ही दिनों में वे यहां का रहनसहन सीख कर परिवार के बीच हिलमिल जाती हैं. समाज को यह बताना आसान होता है कि वह किसी दूर के रिश्तेदार की लड़की है.

यही वजह है कि लड़की खरीद कर शादी करने के मामले में बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा डिमांड में होती हैं. दूसरा पहलू यह भी है कि शादी के नाम पर खरीदी गई लड़कियों में बहुत सी कई बार आगे बेच दी जाती हैं, जो जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं.

जानकार मानते हैं कि पहले बेची गई लड़कियां केवल जिस्मफरोशी के बाजार में ही जाती थीं, पर अब वे शादी कर के दुलहन भी बनने लगी हैं. लड़की के परिवार के लिए यह माने नहीं रखता कि वह कहां जा रही है. वे तो गरीबी से छुटकारा पाने के लिए अपनी लड़की को बेचने की कोशिश करते हैं. ऐसे ज्यादातर मामले सामने नहीं आते.

निशाने पर गरीब प्रदेश

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में कुनकुनी थाने में एक आदिवासी लड़की ने शिकायत दर्ज कराई कि उसे नौकरी दिलाने के नाम पर ओडिशा ले जाया गया. वहां उस से जबरन शादी कर के बाद में जिस्मफरोशी के धंधे में उतार दिया गया.

पता चला कि यह ऐसी अकेली घटना नहीं है, बल्कि तमाम लड़कियों को नौकरी के नाम पर बाहर ले जाया जाता है और वहां उन को शादी का झांसा दे कर फंसाया जाता है.

छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि ओडिशा, आंध्र प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों से लड़कियों को किसी न किसी तरह का लालच दे कर दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है, जहां पर वे नौकरी करने जाती हैं.

इस के बाद इन लड़कियों को शादी से ले कर जिस्मफरोशी तक के जाल में फंसा दिया जाता है. कई बार ऐसी लड़कियां घरेलू नौकरानी बन कर जोरजुल्म का शिकार होती हैं.

उत्तर भारत के कुछ राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में लड़कियों की कमी है. कई नौजवानों की तो लड़कियों की कमी की वजह से शादियां अटकी होती हैं. ऐसे में वे लोग गरीब और आदिवासी प्रदेशों से लड़कियों की खरीदारी करते हैं.

गरीब और आदिवासी प्रदेशों में कई ऐसी प्लेसमैंट एजेंसियां हैं जो नौकरी दिलाने के नाम पर लड़कियों को दूसरे प्रदेशों में भेजती हैं. ये प्लेसमैंट एजेंसियां अब नौकरी के बजाय शादी के लिए लड़कियों को बाहर भेजने लगी हैं.

ये लोग लड़कियों के घर वालों को समझाते हैं कि लड़की नौकरी के लिए जा रही है. इस के बदले में उन को कभीकभी एकमुश्त और कभीकभी हर महीने पैसे पाने का लालच दिया जाता है.

बड़े शहरों में जाने वाली लड़कियां घरेलू नौकरी करती हैं या फिर जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं. अब छोटेबड़े शहरों के साथसाथ गांव और कसबों में यहां की लड़कियां जाने लगी हैं. ये लोग शादी के नाम पर लड़कियों को ले जाते हैं. असल में इन जगहों पर अब लड़कियों की कमी होने लगी है.

बेरोजगार, नशेड़ी और बिगड़ैल किस्म के लड़कों को अपने समाज की अच्छी लड़कियां शादी के लिए नहीं मिल रही हैं. ऐसे में गरीब लड़कियों को खरीद कर शादी करना उन की मजबूरी हो गई है.

गरीबी है वजह

शादी के लिए खरीद कर आने वाली लड़कियां गरीब परिवारों से होती हैं. वे शादी के बाद हर तरह का जोरजुल्म सहने को तैयार होती हैं. कम उम्र की लड़कियां बड़ी उम्र के मर्दों के साथ शादी करने को तैयार हो जाती हैं. इन मर्दों को अपने समाज की लड़कियां नहीं मिलतीं.

गरीब प्रदेशों की रहने वाली लड़कियों के मातापिता कुछ हजार रुपयों के लालच में अपनी लड़की बाहर भेज देते हैं. उन को इस बात का सुकून होता है कि उन की लड़की भूखी नहीं मरेगी और उन को भी कुछ पैसे मिल जाएंगे. इस काम में लड़की के परिवार को तैयार करने का काम वहां उन के ही समाज के लोग और नातेरिश्तेदार करते हैं.

असम से आई एक लड़की लखनऊ के एक परिवार में रहती है. वह सही से हिंदी भी नहीं बोल पाती है. पहले यह लड़की एक घरेलू नौकर बन कर आई थी, बाद में वहीं एक आदमी उस से शादी करने को तैयार हो गया.

वह लड़की बताती है, ‘‘मेरे घर में रहने के लिए एक छप्पर भी सही तरह का नहीं था. साल में कुछ महीने ही हम भरपेट खाना खाते थे. मेरी 5 बहनें हैं. मेरी बड़ी बहन कोलकाता गई थी. वहां से जो पैसे मिले उस से एक छप्पर वाला मकान बना था.

‘‘जब मैं बड़ी हुई तो मेरे एक रिश्तेदार ने मुझे यहां भेज दिया. मैं सालभर में कुछ पैसे अपने घर भेजती थी. 3 साल में मैं ने यहां का रहनसहन सीख लिया. अब कुछकुछ हिंदी बोल लेती हूं.

‘‘जब मैं यहां आई थी तब मेरी उम्र 14 साल थी. मेरे मालिक बहुत अच्छे थे. मेरे पति उन के घर आतेजाते थे. उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि वे मुझ से शादी करना चाहते हैं. इन 4 सालों में मैं अपने घर कभी नहीं गई. मेरे घर वाले शुरू में कभीकभी मेरे बारे में पूछते भी थे, पर अब कोई नहीं आता. जो पैसे मैं उन्हें भेजती थी, यह भी नहीं पता कि वे उन तक पहुंचते भी थे या नहीं. हो सकता है कि अब मेरी छोटी बहन को भी कहीं भेज दिया हो.

‘‘मैं ने शादी की बात मान ली. मैं शादी कर के बहुत खुश हूं. मेरे लिए शादी के साथ घरपरिवार का मिलना ही बड़ी बात है. मेरे लिए पति की उम्र का कुछ साल बड़ा होना माने नहीं रखता. यहां लोग बोलते हैं कि खरीद कर लाई लड़की से शादी हुई है.

‘‘यह सुन कर अजीब लगता है. पर यह उस दुख से काफी बेहतर है जो गरीबी में अपने परिवार में सहन करने पड़े थे. घरेलू नौकर से अब मैं शादीशुदा हो गई. मुझे एक पहचान मिल गई. मैं बाकी बातें भी भूल जाऊंगी और धीरेधीरे बाकी लोग भी शायद भूल जाएंगे.

‘‘गरीब लड़कियों के लिए देह धंधे के दलदल में जाने से बेहतर है कि वे किसी जरूरमंद से शादी कर के उस का घर बसा दें.’’

कई बार बिकती हैं

छत्तीसगढ़ में अपनी संस्था के साथ आदिवासी इलाकों में काम कर रहे समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘लड़की के घर वालों को केवल पैसों से मतलब होता है. जहां ज्यादा पैसा मिलता है, वे वहां लड़की भेजने को तैयार हो जाते हैं. हम लोग भी इन बातों को समझते हैं.

‘‘हम लड़कियों के मांबाप को समझाते हैं कि नौकरी के नाम पर भेजने से अच्छा है कि शादी के लिए लड़की को भेज दो. शादी कम से कम 18 साल की उम्र में होती है. मांबाप इस उम्र तक लड़की को घर में रख ही नहीं पाते.

‘‘यहां की लड़कियां ज्यादा से ज्यादा 13 से 15 साल की उम्र में ही बाहर चली जाती हैं. कुछ मांबाप तो 10 साल की उम्र में ही लड़की को बाहर भेजने को तैयार हो जाते हैं.

‘‘ऐसे में कई परिवार अपने लड़के से आधी उम्र की लड़की को ले जाते हैं, फिर कुछ सालों के बाद उन की शादी करा देते हैं. शादी की उम्र होने तक कई बार तो ये लड़कियां कईकई बार बिक चुकी होती हैं.

‘‘सैक्स के नाम पर इन्हें तरहतरह के समझौते करने पड़ते हैं. एक रात में कईकई ग्राहकों को खुश करना पड़ता है. कुछ ही सालों में ये बूढ़ी हो जाती हैं. उन्हें जिंदगी में कभी घरपरिवार का सुख नहीं मिलता, जबकि खरीदी गई दुलहन को शादी के बाद हर सुख मिलता है. ऐसे में शादी के लिए बिकना ज्यादा पसंद किया जा रहा है.’’

छत्तीसगढ़ सरकार ने प्राइवेट प्लेसमैंट एजेंसी ऐक्ट 2013 तैयार किया है. अगस्त, 2014 में इसे लागू भी किया गया. इस के बाद भी अभी तक प्लेसमैंट एजेंसियां अपनी तरह से ही काम कर रही हैं. वे अब मानव तस्करी के अड्डे बन गई हैं.

लड़कियों की खरीदफरोख्त के मामले में पश्चिम बंगाल पहले, ओडिशा दूसरे और छत्तीसगढ़ तीसरे नंबर पर आता है.

एक निजी संस्था द्वारा किए गए सर्वे से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ का जशपुर इलाका लड़कियों की खरीदफरोख्त का बहुत बड़ा अड्डा बन गया है. जिले से हर साल तकरीबन 7 हजार लड़कियों को बड़े शहरों में खरीदाबेचा जाता है.

267 गांवों के सर्वे में यह भी सामने आया है कि 70 फीसदी लड़कियां नाबालिग थीं. बाकी भी 18 साल के आसपास थीं. लड़कियों के बेचने में उन के जानपहचान वाले होते हैं. लड़कियों के मांबाप को भी यह पता होता है कि अब लड़की को वापस नहीं आना है.ऐसे में वे एकमुश्त पैसे लेने का काम करते हैं.

शादियों से बदले हालात

समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘पहले जहां लड़कियां केवल बिकने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में जाती थीं, वहीं अब वे शादी के लिए भी खरीदी जाने लगी हैं. ऐसे में गरीब लड़कियां इज्जत भरी जिंदगी गुजरबसर करने लगी हैं.’’

सावधान! मूर्खता है धर्मगुरु बनाना और सत्संग में जाना

लंबेचौड़े और ऊंचे मंच पर हजारों की भीड़ के सामने रेशमी गेरुआ वस्त्र धारण किए, रुद्राक्ष, मोती व चंदन की माला पहने, गुलाब के फूलों से महकते सिंहासन पर बैठ, सुंदर रूपसी बालाओं से घिरे हुए धर्मगुरु का देश की गरीबी पर कंरदन करते हुए यह कहना कि संसार मिथ्या है, घरपरिवार माया है, धन की इच्छा लोभ है, मोहमाया के बंधन से मुक्त हो जाओ…और फिर प्रवचन समाप्त कर के उन का अपने भक्तों की भीड़ के बीच से हो कर गुजरना, भक्तों का उन्हें देख कर जयकारा लगाना…इस धर्मगुरु के पैर छूने में एकदूसरे को कुचल डालने की होड़ और अंत में अपनी चमचमाती लग्जरी गाडि़यों के बेड़े से स्टैंडर्ड बढ़ाते चेलों की लंबी लाइन के साथ अपने आलीशान पांचसितारा सुविधाओं वाले आश्रम की तरफ प्रस्थान कर जाने का यह दृश्य किसी फिल्म का नहीं बल्कि किसी भी धर्मगुरु के सत्संग में होने वाली फुजूलखर्ची का नजारा है.

धर्मगुरु बनाने का यह चलन कोई नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है. समाज में इस तरह का प्रचार कर दिया गया है कि भगवान से बड़ा ‘गुरु’ है और लोग भी भगवान को भूल कर गुरु की शरण में आ रहे हैं. शिष्य आजकल गुरुओं की पूजा करने लगे हैं.

इस तरह के प्रचार के चलते ही धर्मभीरु जनता भयभीत हो गुरु को ढूंढ़ती है और गुरु मिल जाने पर उस के द्वारा गुरुमंत्र दिया जाता है, जिस के बदले दीक्षा लेने वाले को मोटी दक्षिणा गुप्त दान के रूप में देनी होती है. इन तथाकथित गुरुओं द्वारा बताया जाता है कि जो जितनी अधिक दक्षिणा देगा उसे उतना ही अधिक लाभ होगा. दक्षिणा के साथ फल का संबंध एक प्रकार का व्यावसायिक संबंध ही है और इस के बाद तो यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में गुरु की महिमा का बढ़चढ़ कर बखान किया गया है. भक्तिकाल के कवियों ने तो जम कर गुरु को महिमामंडित किया है. गुरु के बारे में कई उक्तियां प्रसिद्ध हैं, जैसे :

गुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुगुरूर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:॥

-स्कंदपुराण, गुरुगीता

(अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है, गुरु ही परब्रह्म है, उस गुरु के लिए नमस्कार.)

गुरु बिन पंथ न पावै कोई।

केतिकौ ज्ञानी ध्यानी होई॥

-नूरमुहम्मद अनुराग बांसुरी, पृ. 33

पहले धार्मिक गुरु ब्राह्मण होते थे और इन्हीं ब्राह्मणों ने धर्म के मुख्य उद्देश्य नैतिकता को ताक पर रख कर दूसरे उद्देश्यों पर पूरा जोर दिया. ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए आत्मापरमात्मा, स्वर्गनरक, जन्ममरण की भूलभुलैया भरे सिद्धांतों के जाल में समाज को फंसा कर उस का खूब शोषण किया.

शोषण का साधन यज्ञ को बनाया. यज्ञ को ले कर धर्मग्रंथों में इस का गुणगान भरा पड़ा है. अथर्ववेद की घोषणा है :

‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि’

(अर्थात विश्व की उत्पत्ति का स्थान यह यज्ञ है.)

गीता का उद्घोष है :

‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रे लोकोऽयं कर्म बन्धन:’

(अर्थात यज्ञ के लिए जो कर्म किए जाते हैं, उन के अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा है.)

इसी में आगे कहा गया है :

‘नायं लोकोऽस्त्य यज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरूसतम’

(अर्थात यज्ञ करने वाले को जब इस लोक में ही कोई सफलता नहीं मिलती तब उसे परलोक कहां मिलेगा.)

राजामहाराजा राजसूर्य या कहें अश्वमेध यज्ञ करते थे, जिन में हजारों ब्राह्मणों को धनदौलत, वस्त्र, दासदासी, घोड़े, रथ आदि दानस्वरूप दिए जाते थे क्योंकि यह यज्ञ पूरे ही तब होते थे जब उन्हें भरपूर दानदक्षिणा मिल जाती थी. यह यज्ञ पूरे साल चलते रहते थे. हां, इन के नाम व उद्देश्य जरूर बदले होते थे पर राजाओं को प्रतिदिन दान करना होता था और तलवार के बल पर जमा की गई धनदौलत से भरे खजाने खाली हो कर ब्राह्मणों के घर चले जाते थे. राजाओं को अश्वमेध यज्ञ के फलस्वरूप इस जन्म में कीर्ति तथा अगले जन्म में पुन: राजा बनने का झूठा आश्वासन मिलता था और ब्राह्मणों के घर ठगी के धन से भर जाते थे. इस दान के प्रमाण ऋग्वेद में मिलते हैं.

‘‘हे अग्ने, देवभक्त के पौत्र पिजवन के पुत्र सुदास ने 200 गाएं, बधुओं सहित 2 रथ दान किए. इस दान की प्रशंसा करते हुए मैं योग्य होता यज्ञ गृह में जाता हूं.’’

-ऋग्वेद 7-18-22.

धर्म के धंधे में पैसा है इसलिए देश में ऐसे निकम्मे लोगों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है. साधुसंत नामधारी ये जीव गृहत्याग का बहाना बना कर घुमक्कड़ जीवन अपना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं. इन सभी का उद्देश्य एक ही होता है कि जीविका के लिए कर्म न करना पड़े और चढ़ावे व भिक्षा के द्वारा ही जीवन निर्वाह होता रहे, यानी धर्म की आड़ में बिना हाथपांव हिलाए पेट भरना, जबकि हकीकत में धर्मकर्म से वे कोसों दूर रहते हैं और इन में बहुत से दुर्व्यसनों व दुराचारों में लीन रहते हैं.

धर्मगुरुओं में आज आपस में ही होड़ मची हुई है कि किस के चेले ज्यादा हैं, कौन छोटा कौन बड़ा है. कौन ज्यादा भीड़ जुटा पाता है और किस के कितने अमीर शिष्य हैं. ये तथाकथित गुरु दुनिया के बैरभाव कहां दूर करेंगे, खुद इन के अपने मठ में ही गद्दी हथियाने की लड़ाइयां चलती रहती हैं, मारकाट मची रहती है.

मठों, आश्रमों में अपार धन आता है. गुरुशिष्य के बीच इस को ले कर लड़ाईझगड़े शुरू हो जाते हैं. इस में सब से ज्यादा चालाक और ताकतवर शिष्य गुरु की गद्दी पर विराजमान होता है. इस का एक ताजा उदाहरण बाबा रामदेव है जो पतंजलि योग पीठ के संस्थापक शंकरदेव को पीछे धकेल कर खुद गद्दी पर बैठ गया.

प्रवचनों का हाईटेक रूप

जिस भी धार्मिक गुरु का प्रवचन जिस शहर में होना होता है वहां उन के शिष्य कई दिन पहले पहुंच कर अपने गुरु की महिमा का बखान शुरू कर उन के नाम के परचे बांटते हैं, बड़ेबड़े होर्डिंग शहर भर के चौराहों पर लगते हैं. अपने गुरु का प्रचार कर बड़ी संख्या में भीड़ जुटाने का काम ये चेले ही करते हैं.

बड़े घरों की महिलाएं सजसंवर कर प्रवचन का लाभ लेने सब से आगे बैठने की होड़ में लगी रहती हैं. अब यह बात अलग है कि उन का मकसद प्रवचन नहीं, वीडियो रिकार्डिंग होती है क्योंकि प्रवचन के वीडियो कैसेट साल भर दिखाए जाते हैं.

चूंकि समय के साथसाथ धर्म का व्यापार भी आधुनिक करवट ले रहा है इसलिए धर्म के क्षेत्र में भी इलेक्ट्रोनिक समावेश अपनी पहचान बना चुका है हिंदुओं की धर्मांधता को भुनाने के लिए कई धार्मिक चैनल आ गए हैं. जैसे, श्रद्धा, संस्कार, आस्था आदि. बाकी के लोकप्रिय चैनल भी दिन में कुछ घंटे प्रवचन जरूर दिखाते हैं.

आम जनता के बीच बड़े पंडाल में जब ये धार्मिक गुरु प्रवचन करते हैं तो उसे प्रवचन कहते हैं और जब वातानुकूलित सभागार में बैठ कर बोलते हैं तो वह आध्यात्मिक उपदेश में तबदील हो जाता है. इन का लक्ष्य विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीय भी हैं. ये प्रवासी भारतीय जम कर दानदक्षिणा देते हैं. धर्म के नाम पर ये गुरु और चैनल वाले दोनों ही जनता की जेब काट रहे हैं.

प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम का काम

आसाराम बापू, मोरारी बापू, सुधांशु महाराज तो अब प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम बन चुके हैं. इन के नाम पर लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन का प्रवचन सुनने पहुंचते हैं. इन के प्रवचन का नशा किसी अफीम से कम नहीं है इसीलिए धर्म के नाम पर इन संतों के शिविर हर शहर में लगाए जाते हैं.

इन भव्य पंडालों को लगाने में लाखों रुपए खर्च होते हैं. भक्तों द्वारा आवास समिति, स्वागत समिति, भोजन समिति, पंडाल समिति, स्वामीजी रक्षक समिति, प्रचार समिति व धन संग्रह समिति प्रमुखता से गठित कर दी जाती हैं. यहां पर बड़े दानदाता स्वागत समिति में, व्यापारी भोजन समिति में, पत्रकार, समाजसेवी व खासखास सरकारी विभागों के अधिकारी धनसंग्रह समिति में लिए जाते हैं. शहर के दबंगों को रक्षक समिति में लिया जाता है व बाकी समर्पित कार्यकर्ताओं को पंडाल, सेवा, साफसफाई व प्रचार समिति में रखा जाता है.

ये सभी अपना कामधंधा छोड़ कर जितने दिन प्रवचन होते हैं धार्मिक गुरु की चाकरी में लगे रहते हैं. इस के बदले में इन्हें मिलता है स्वामीजी का आशीर्वाद, जिसे पा कर ये अपने को धन्य समझ लेते हैं और मान लेते हैं कि स्वामीजी का हाथ इन के सिर पर है.

बिजली, माइक, क्लोज सर्किट टीवी और सजावट के दूसरे सामानों पर भी खर्च आता है. हर एक शिविर पर लाखों रुपए का खर्च आता है, जो प्रवचन के ये ब्रांड नाम अपनी जेब से नहीं देते बल्कि इन के प्रवचन के आयोजन- कर्ता खर्च करते हैं और इन के भक्त अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.

आगरा में रहने वाले जगमोहन गुप्ता का कहना है कि अभी कुछ साल पहले वृंदावन में मोरारी बापू के प्रवचन का भव्य आयोजन किया गया. यहां पर पंडाल में विशेष भक्तों, पत्रकारों, महिलाओं व विशेष दानदाताओं के लिए अलगअलग स्थान तय थे. भक्तों से मंच पर बैठ कर कथा सुनने की फीस बनाम दक्षिणा 3,100 से 5,100 रुपए तक वसूल की गई. गद्दा और सफेद धुली चादर पर आगे की पंक्ति में बैठ कर कथा सुनने की फीस 2,100 से 3,100 रुपए तक वसूली गई. बढ़ती महंगाई को देख कर कहा जा सकता है कि कथा सुनने की यह फीस अब और भी बढ़ गई होगी.

इस तरह की कथा का आयोजन जहां भी होता है कथा के दौरान लगभग 30-40 अस्थायी दुकानें भी लग जाती हैं. इन दुकानों में गुरुओं की कथा के कैसेट, संतों के प्रवचन के कैसेट और पुस्तकें 30 से ले कर 50 रुपए तक में बिकती हैं. इन के हजारों अनुयायी गुरुओं द्वारा प्रकाशित पत्रिका के स्थायी ग्राहक बनते हैं. प्रत्येक दुकान 11 दिन के लिए 1 हजार से ले कर 2 हजार रुपए तक ठेके पर उठाई जाती है. यहां संतों की तसवीरें भी 100 से 300 रुपए तक में खूब बिकती हैं.

यह आमदनी लाखों में होती है. जहां प्रवचन होते हैं वहां थोड़ीथोड़ी दूरी पर दानदाता की सुविधा के लिए दानपात्र रखे होते हैं, जिन पर लिखा होता है, ‘रुपएपैसे दानपात्र में ही डालें और आभूषण व कपड़े पंडित के पास जमा कराएं.’ सोचने की बात यह है कि ये धर्मगुरु तो संत हैं और संत तो कुछ लेते नहीं हैं या यों कहें कि इन्हें तो कुछ लेना नहीं चाहिए. फिर चढ़ावे की रकम कहांकहां आपस में बंटती है और किस को कितना मिलता है यह खोज का विषय है. यह सबकुछ हर धर्मगुरु के सत्संग में देखने को मिलता है.

मलीमसानपि जनान संत:

कुर्वन्ति निर्मलान।

(अर्थात संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं.)

-अचिंत्यानंद वर्णी, विवेकशतक, 55

लेकिन आजकल के ये संत कितने सुचरित्र वाले हैं इस का पता तो इन कुछ उदाहरणों से ही चल जाएगा. अपने प्रवचन में लाखों की भीड़ जुटाने वाला संत ज्ञानेश्वर खुद को भक्तों के बीच भगवान बतलाता था. इस स्वघोषित भगवान की जिस समय गोली मार कर हत्या की गई उस समय उस पर हत्या करने, बिजली की चोरी, सरकारी जमीन पर कब्जा, विस्फोटक पदार्थ एक्ट, अवैध हथियार रखने, जैसे अनेक मुकदमे चल रहे थे. उस के वाराणसी व बाराबंकी आश्रम में बड़ी संख्या में स्त्रियों का शारीरिक शोषण होता था.

करौंथा स्थित सतलोक आश्रम का स्वामी संत रामपाल अब जेल में है. उस की काली करतूतों से परदा उठ चुका है. रामपाल और उस के चेलों पर हत्या और जमीन पर जबरन कब्जा, डरानेधमकाने के अन्य मामले भी दर्ज किए गए हैं. लोगों को मोहमाया से दूर रहने का उपदेश देने वाला रामपाल खुद किस कदर मोहमाया से जकड़ा था यह उस का आलीशान आश्रम देखने से ही पता चल जाता है.

48 साल के पाखंडी साधु विकासानंद को पुलिस ने छापा मार कर जबलपुर के एक होटल से उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह कुछ लड़कियों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में था.

उस का फाइव स्टार आश्रम जबलपुर में ऐय्याशी, ब्लैकमेलिंग, स्मगलिंग व ब्लू फिल्म बनाने का अड्डा बना हुआ था.

खुद को कृष्ण व शिव का अवतार बता कर एक तांत्रिक नारायण दत्त श्रीमाली व उस के पुत्रों ने हरियाणा के सैकड़ों लोगों से 4 करोड़ के लगभग ठग लिए थे. 2001 में नारायण दत्त के खिलाफ कई आपराधिक मामले भी दर्ज किए गए.

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने अपनी राजनीतिक पहुंच के कारण अरबों की संपत्ति जमा कर ली. उस का अपना हवाई जहाज और हवाई अड्डा था. ऐसे स्वामी से सदाचार की क्या उम्मीद की जा सकती है?

रामदेव पर भी आयुर्वेद की आड़ में आम लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने का आरोप लगा. लेकिन लोगों में उस की पहुंच को देख कर सरकार खामोश हो गई.

शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी के बाद विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत तमाम हिंदूवादी संगठनों और नेताओं ने उन की गिरफ्तारी के तरीकों पर ऐतराज जताते हुए पृथक कानून व्यवस्था बनाने की मांग उठाई.

धर्म के इन ठेकेदारों की मानें तो शंकराचार्य या अन्य किसी धार्मिक व्यक्ति को गिरफ्तार न करना ही धर्म का सम्मान है. ये चाहते हैं कि धर्माचार्यों को अपराध करने की छूट दे दी जाए यानी धर्म को कानून के नीचे रखा जाए. अब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म की सब से ऊंची गद्दी पर बैठे ये लोग अगर अपराध करते हैं तो इन्हें सजा क्यों न दी जाए?

अब यह साबित हो चुका है कि ये धर्मगुरु खुद ही परले दर्जे के ऐय्याश, धोखेबाज, कुचरित्र, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं, तो जनता को अपने सत्संग में कौन सा मुक्ति का पाठ पढ़ाएंगे? धार्मिक गुरुओं द्वारा जनता को बेवकूफ बना कर माल बटोरने का यह धंधा सदियों से चला आ रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि जनता जागरूक हो जाए और धर्म के ठेकेदार बने इन संतों, गुरुओं की दुकानदारी पर रोक लगाए.

डाक्टर की मानें झाड़फूंक की नहीं

रीमा कैंसर की पहले स्टेज से जूझ रही थीं. डाक्टरों का कहना था कि अगर वे समय से पूरा इलाज करा लेंगी तो ठीक हो सकती हैं. लेकिन रीमा के परिवार वालों का डाक्टर के इलाज से ज्यादा झाड़फूंक पर यकीन था. वे उन्हें एक बाबा के पास ले कर पहुंचे.

उस बाबा ने अपने तंत्रमंत्र से रीमा को ठीक करने का दावा किया जिस पर परिवार वालों ने आंख मूंद कर यकीन कर लिया.

उस बाबा ने इस के एवज में न केवल ढेर सारे रुपयों की मांग की, बल्कि रीमा को डाक्टर के पास ले जाने से मना भी कर दिया.

परिवार के लोग रीमा को अकसर उस बाबा के पास झाड़फूंक के लिए ले जाने लगे. रीमा की बीमारी बढ़ती जा रही थी लेकिन उन के घर वालों को उस बाबा पर इस कदर यकीन था कि रीमा की पीड़ा को भी वे महसूस नहीं कर पा रहे थे.

एक दिन रीमा की हालत ज्यादा खराब होने लगी. उन के परिवार वालों को लगा कि उन्हें एक बार फिर से डाक्टर को दिखाना चाहिए.

डाक्टर ने बताया कि झाड़फूंक के चलते रीमा की बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है और उन का बचना मुश्किल है. आखिरकार एक दिन रीमा की मौत हो गई.

इस देश में आज भी लोग बीमारियों का इलाज माहिर डाक्टरों से न करा कर बाबाओं, पीरफकीरों की शरण में खोजते हैं. ऐसे में हर रोज हजारों लोगों को पाखंड और पोंगापंथ के चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ती है.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि उन के पास हर रोज ऐसे मरीज आते हैं जो झाड़फूंक के चक्कर में पड़ कर अपनी बीमारी को गंभीर बना लेते हैं या मौत के मुंह में चले जाते हैं. कई बार मरीजों को झाड़फूंक न कराने की सलाह देने पर उन्हें भी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है.

पढ़ेलिखे भी शिकार

एक मनोविज्ञानी राधेश्याम चौधरी का कहना है कि पढ़ेलिखे लोगों की इलाज के लिए बाबाओं के आगे लाइन लगाने की खास वजह यह होती है कि उन के मन में बचपन से ही भूतप्रेतों और बाबाओं को ले कर डर बैठा दिया जाता है जिसे वे बड़ा होने पर भी अपने मन से निकाल नहीं पाते हैं.

अगर ऐसे लोग कभी बीमार पड़ते भी हैं या परेशानियों का शिकार होते हैं तो उन्हें इस का इलाज बाबाओं के पास ज्यादा दिखाई देता है. उन को इस बात की समझ तब आती है जब वे बाबाओं के झांसे में पड़ कर अपना नुकसान कर बैठते हैं. हमें बच्चों में वैज्ञानिक सोच पैदा करनी चाहिए जिस से उन के मन में भूतप्रेतों का डर न रहने पाए.

ऐसे मरीज हैं ज्यादा

पीरफकीरों के यहां झाड़फूंक कराने आए ज्यादातर लोग दिमागी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं. ऐसे मरीजों के परिवार वाले मरीज की ऊलजुलूल हरकतों को भूतप्रेत का साया मान लेते हैं जिस के चलते वे बाबाओं की शरण में पहुंच जाते हैं.

झाड़फूंक की दुकान चलाने वाला बाबा सब से पहले उन्हें डाक्टरों के पास ले जाने से मना करता है, क्योंकि उसे पता होता है कि अगर मरीज डाक्टर के पास चला गया तो न केवल आसानी से ठीक हो जाएगा बल्कि उसे अपनी झाड़फूंक की दुकान भी बंद करनी पड़ जाएगी. इस से लंबे समय तक जेब ढीली करने वालों की तादाद में कमी आ जाएगी और उस की पोल खुलने का भी डर बना रहेगा.

मानसिक रोग विशेषज्ञ डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन का कहना है कि दिमागी बीमारी के ज्यादातर मरीज तो उन के पास तब आते हैं जब उन की हालत बहुत ज्यादा बिगड़ चुकी होती है.

परिवार से पूछने पर पता चलता है कि मरीज की अजीबोगरीब हरकतों को भूतप्रेतों का साया मान कर वे उस की झाड़फूंक करा रहे थे.

अजीब हरकतें करना दिमागी बीमारी की निशानी है. इस में कई तरह के लक्षण एकसाथ दिखाई पड़ सकते हैं. इन में स्किजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऔर्डर या कैटाटोनिक अवसाद जैसी कई बीमारियां शामिल हैं.

इन बीमारियों में मरीज के विचारों और बरताव में बदलाव आ जाता है. इस के चलते वह कुछ समय के लिए अपनी देखभाल करने में नाकाम हो जाता है.

इसी तरह के लक्षण दूसरी दिमागी बीमारियों में भी पाए जाते हैं. कुछ बीमारियों में मरीज अपनेआप को किसी दूसरे के किरदार के साथ जीने लगता है. लोग समझते हैं कि उस पर कोई ऊपरी साया है, जबकि भूतप्रेत या ऊपरी साया सब बकवास है जो पोंगापंथियों के दिमाग की उपज होती है.

ऐसी बीमारियों में डाक्टरी इलाज का सहारा लेना चाहिए, न कि बेसिरपैर की बातों में फंस कर अपनी जेब ढीली कर दी जाए.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि सामान्य या गंभीर बीमारियों की दशा में हमें डाक्टर से इलाज कराना चाहिए जिस से समय रहते बीमारी से न केवल नजात मिलेगी, बल्कि बच्चा न पैदा होने जैसी समस्याओं से जूझ रही औरतों का बाबाओं द्वारा यौन शोषण भी नहीं हो पाएगा.

अगर कोई भी इलाज के लिए पीरफकीरों और बाबाओं की शरण में जाने को कहता है तो उसे अंधविश्वास फैलाने के जुर्म में जेल भिजवाने का डर दिखाएं.

याद रखिए, कोई भी आप को झाड़फूंक कराने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. अगर कोई ऐसा करता पाया जाता है तो उस के ऊपर सख्त कानूनी कार्यवाही की जा सकती है.

शौचालय सस्ते में बनाएं

भारत में खुले में शौच की समस्या आज भी चुनौती बनी हुई है, जबकि सरकार जोरजोर से खुले में शौच मुक्त होने के ढोल पीट रही है. सरकार शौचालय बनवाने के लिए रुपए भी देती है, लेकिन यह पैसे भ्रष्टाचार के चलते जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं.

खुले में शौच की समस्या का सीधा सामना औरतों और लड़कियों को ज्यादा करना पड़ता है. इस दौरान किसी जंगली जानवर के हमले या जहरीले जीव के काटने से भी मौत होना आम बात है. कई बार उन्हें बलात्कार का शिकार तक होना पड़ता है.

बूढ़े और लाचार बीमार लोगों का बाहर शौच के लिए जाना और भी मुश्किल काम है. बारिश के दौरान या आपदा के समय में यह और भी भयावह हो जाता है.

खुले में किए गए शौच से संक्रमण फैलने और बीमारियां होने का खतरा बना रहता है क्योंकि यहीं से मक्खियां मल से फैलने वाले कीटाणुओं को घरों और खाने की चीजों तक पहुंचा देती हैं.

लिहाजा, यह जरूरी हो जाता है कि गांवों या शहरों में खुले में शौच में कमी लाने के लिए शौचालय बनाने की सस्ती तकनीक का सहारा लिया जाए जिस के तहत बने शौचालय सस्ते होने के साथसाथ टिकाऊ भी हों.

सोख्ता शौचालय

सोख्ता गड्ढों वाले शौचालयों को महज 10 से 12 हजार रुपए में तैयार किया जा सकता है. इस में 2 गड्ढे बनाए जाते हैं. इन की गहराई सवा मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए क्योंकि मल को खाने वाले कीड़े जमीन के अंदर सवा मीटर की गहराई में ही पैदा होते हैं. ज्यादा गहराई होने पर कीड़े पैदा नहीं हो पाते हैं और जमीन के अंदर तक पीने का पानी खराब होने का खतरा भी बढ़ जाता है.

प्रधानमंत्री के हाथों ‘गौरवग्राम पुरस्कार’ हासिल कर चुके स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर के ग्राम प्रधान दिलीप कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि अगर सोख्ता गड्ढों वाले शौचालय का इस्तेमाल ज्यादा समय तक करना चाहते हैं तो शौचालय की सीट के पास 2 गड्ढे बनाने चाहिए. इन्हें समयसमय पर साफ कर के 10 से 12 सदस्यों वाले परिवार के लिए सालों तक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

इस तरह के शौचालयों को बनाते समय यह ध्यान देना चाहिए कि शौचालय के गड्ढे पीने के पानी के चांपाकल वगैरह से कम से कम 10 मीटर की दूरी पर हों.

society

2 गड्ढों वाले शौचालय व एक चबूतरे को बनाने के लिए 1,000 ईंटें, डेढ़ से 3 बोरी सीमेंट, 10 से 12 बोरी बालू, 4 फुट पाइप, एक लैट्रिन सीट व गड्ढा ढकने के लिए ढक्कन की जरूरत पड़ती है. इस तरह के शौचालय को बनाने के लिए सरकार से 12,000 रुपए की मदद भी मुहैया कराई जाती है.

बांस से बने सस्ते शौचालय

अगर सस्ते में शौचालय बनवाने की बात की जाए तो बांस से बने शौचालयों का सहारा ले सकते हैं. इन में बहुत कम खर्च आता है.

गोरखपुर जिले के जंगल कौडि़या ब्लौक के कई गांवों में इस तरह की तकनीक से लोगों ने अपने घरों में शौचालयों को बनवाया है जिन में शौचालय की दीवारों और छत को बांस से बना कर उस पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता है और नीचे सीमेंट, ईंट के साथ चबूतरा बना कर लैट्रिन सीट बिठाई जाती है. इसी के बगल में गड्ढा बनाया जाता है. यह गड्ढा सोख्ता गड्ढों की तरह ही बनता है.

इस तरह की शौचालय तकनीक को ईजाद करने वाली संस्था गोरखपुर ऐनवायरनमैंटल ऐक्शन ग्रुप से विजय पांडेय बताते हैं कि गरीब परिवारों के लिए यह तकनीक बहुत ही कारगर है और इस में मुश्किल से 4,930 रुपए की लागत आती है जिसे कोई भी परिवार आसानी से अपने घरों में बनवा सकता है. यह जगह भी कम घेरता है.

सैप्टिक टैंक शौचालय

ऐसे शौचालयों को भी कम लागत में बनाया जा सकता है लेकिन यह उस जगह के लिए ज्यादा मुफीद माना जाता है जहां सीवर लाइन हो या ढकी हुई नालियां हों.

शौचालय बनाने के कारोबार से जुड़े राकेश बताते हैं कि सैप्टिक टैंक शौचालय को महज एक दिन में बना कर इस्तेमाल में लाया जा सकता?है. इस के लिए पहले से बने सीसी पाइप को जमीन के अंदर फिट किया जाता है और फिर उस के बगल में चबूतरा बना कर शौच जाने के लिए चालू कर दिया जाता है.

ऐसे शौचालयों से निकलने वाले पानी को खुले में नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि इस से मच्छर, कीड़ेमकोड़ों के पनपने का डर बढ़ जाता है और खुले में पानी छोड़ने से आबोहवा पर बुरा असर पड़ सकता है.

ऐसे शौचालय बनाने के लिए 15 से 17 हजार रुपए की लागत आती है. 5 से 10 सदस्यों वाले परिवारों के लिए इसे 50 साल तक शौच जाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

बच्चा उदास रहे तो हो जाएं सावधान

15 साल की रिया जब भी स्कूल जाती, क्लास में सब से पीछे बैठ कर हमेशा सोती रहती. उस का मन पढ़ाई में नहीं लगता था. वह किसी से न तो ज्यादा बात करती और न ही किसी को अपना दोस्त बनाती. अगर वह कभी सोती नहीं थी, तो किताबों के पन्ने उलट कर एकटक देखती रहती. क्या पढ़ाया जा रहा है, इस से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. हर बार उस की शिकायत उस के मातापिता से की जाती, पर इस का उस पर कोई असर नहीं पड़ता था.

वह हमेशा उदास रहा करती थी. इसे देख कर कुछ बच्चे तो उसे चिढ़ाने भी लगते थे, पर वह उस पर भी अधिक ध्यान नहीं देती थी. परेशान हो कर उस की मां ने मनोवैज्ञानिक से सलाह ली. कई प्रकार की दवाएं और थेरैपी लेने के बाद वह ठीक हो पाई.

दरअसल, बच्चों में डिप्रैशन एक सामान्य बात है, पर इस का पता लगाना मुश्किल होता है. अधिकतर मातापिता इसे बच्चे का आलसीपन समझते हैं और उन्हें डांटतेपीटते रहते हैं. इस से वे और अधिक क्रोधित हो कर कभी घर छोड़ कर चले जाते हैं या फिर कभी आत्महत्या कर लेते हैं.

बच्चों की समस्या न समझ पाने की 2 खास वजहें हैं. पहली तो हमारे समाज में मानसिक समस्याओं को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता और दूसरे, अभी बच्चा छोटा है, बड़ा होने पर समझदार हो जाएगा, ऐसा कह कर अभिभावक इस समस्या को गहराई से नहीं लेते. मातापिता को लगता है कि यह समस्या सिर्फ वयस्कों को ही हो सकती है, बच्चों को नहीं.

शुरुआती संकेत : जी लर्न की मनोवैज्ञानिक दीपा नारायण चक्रवर्ती कहती हैं कि आजकल के मातापिता बच्चों की मानसिक क्षमता को बिना समझे ही बहुत अधिक अपेक्षा रखने लगते हैं. इस से उन्हें यह भार लगने लगता है और वे पढ़ाई से दूर भागने लगते हैं. अपनी समस्या वे मातापिता से बताने से डरते हैं और उन का बचपन ऐसे ही डरडर कर बीतने लगता है, जो धीरेधीरे तनाव का रूप ले लेता है. मातापिता को बच्चे में आए अचानक बदलाव को नोटिस करने की जरूरत है. कुछ शुरुआती लक्षण निम्न हैं :

–       अगर बच्चा आम दिनों से अधिक चिड़चिड़ा हो रहा हो या बारबार उस का मूड बदल रहा हो.

–       बातबात पर  गुस्सा होना या रोना.

–       अपनी किसी हौबी या शौक को फौलो न करना.

–       खानेपीने में कम दिलचस्पी रखना.

–       सामान्य से अधिक समय तक सोना.

–       अलगथलग रहने की कोशिश करना.

–       स्कूल जाने की इच्छा का न होना

–       स्कूल के किसी काम को न करना आदि.

इस बारे में दीपा आगे बताती हैं कि किसी भी मातापिता को बच्चे को डिप्रैशन में देखना आसान नहीं होता और वे इसे मानने को भी तैयार नहीं होते कि उन का बच्चा डिप्रैशन में है.

तनाव से निकालना : निम्न कुछ बातों से बच्चे को तनाव से निकाला जा सकता है–

–       हमेशा धैर्य रखें, गुस्सा करने पर बच्चा भी रिवोल्ट करेगा और आप उसे कुछ समझा नहीं सकते.

–       बच्चे को कभी यह एहसास न होने दें कि वह बीमार है. यह कोई बीमारी नहीं है, इस का इलाज हो सकता है.

–       हिम्मत से काम लें, बच्चे को डिप्रैशन से निकालने में मातापिता से अच्छा कोई नहीं हो सकता.

–       बच्चे से खुल कर बातचीत करें, तनावग्रस्त बच्चा अधिकतर कम बात करना चाहता है. ऐसे में बात करने से उस के मनोभावों को समझना आसान होता है. उस के मन में कौन सी बात चल रही है, उस का समाधान भी आप कर सकते हैं.

–       हमेशा बच्चे को लोगों से मिलनेजुलने के लिए प्रेरित करें.

–       बातचीत से अगर समस्या नहीं सुलझती है, तो इलाज करवाना जरूरी है. इस के लिए आप खुद उसे मनाएं और ध्यान रखें कि डाक्टर जो भी दवा दे, उसे वह समय पर ले, इस से वह जल्दी डिप्रैशन से निकलने में समर्थ हो जाएगा.

अपना दायित्व समझें : मातापिता बच्चे के रिजल्ट को ले कर बहुत अधिक परेशान रहते हैं. इस बारे में साइकोलौजिस्ट राशिदा कपाडि़या कहती हैं कि बच्चों में तनाव और अधिक बढ़ जाता है जब उन की

बोर्ड की परीक्षा हो. ऐसे में हर मातापिता अपने बच्चे से 90 प्रतिशत अंक की अपेक्षा लिए बैठे रहते हैं और कम नंबर आने पर वे मायूस होते हैं. ऐसे में बच्चा और भी घबरा जाता है. उसे एहसास होता है कि नंबर कम आने पर उसे कहीं ऐडमिशन नहीं मिलेगा, जबकि ऐसा नहीं है, हर बच्चे को अपनी क्षमता के अनुसार दाखिला मिल ही जाता है.

कई ऐसे उदाहरण हैं जहां रिजल्ट देखे बिना ही बच्चे परीक्षा में अपनी खराब परफौर्मेंस के बारे में सोच कर आत्महत्या तक कर लेते हैं. इस से बचने के लिए मातापिता को खास ध्यान रखने की जरूरत है :

–       अपने बच्चे की तुलना किसी अन्य बच्चे से न करें.

–       वह जो भी नंबर लाया है उस की तारीफ करें और उस की चौइस को आगे बढ़ाएं.

–       अपनी इच्छा बच्चे पर न थोपें.

–       उस की खूबियों और खामियों को समझने की कोशिश करें. अगर किसी क्षेत्र में प्रतिभा नहीं है, तो उसे छोड़ उस के हुनर को उभारने की कोशिश करें.

–       एप्टिट्यूड टैस्ट करवा लें, इस से बच्चे की प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है.

–       उस के सैल्फ स्टीम को कभी कम न करें.

–       उस की मेहनत को बढ़ावा दें.

–       समस्या के समाधान के लिए बच्चे से खुल कर बातचीत करें और उस के मनोभावों को समझें तथा उस के साथ चर्चा करें.

–       अपनी कम कहें, बच्चे की ज्यादा सुनें, इस से बच्चा आप से कुछ भी कहने से हिचकिचाएगा नहीं.

–       बच्चे को हैप्पी चाइल्ड बनाएं, डिप्रैशनयुक्त नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें