तेज रफतार जिंदगी, बदलती जीवनशैली व गलत खानपान ने इंसान के हार्ट को खासा नुकसान पहुंचाया है. भारत में हार्ट संबंधी समस्या पश्चिमी देशों की तुलना में अधिक बढ़ने लगी है. युवाओं में भी अब हार्टअटैक कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है.
भारत में हृदय रोगों के आंकड़े बढ़ रहे हैं. देखा गया है कि भारतीयों को हार्टअटैक की शिकायत पश्चिमी आबादी से करीब एक दशक पहले हो जाती है. इस के अलावा, भारतीयों में हृदयरोग संबंधी जटिलताएं व गंभीरता भी यहां उपलब्ध कमजोर चिकित्सा सेवाओं व इलाज लेने में देरी के चलते अधिक होती हैं.
कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों को हृदय संबंधी समस्याओं का खतरा अधिक होता है, जबकि दोनों में मधुमेह और उच्च रक्तचाप का जोखिम बराबर है. इंडियन हार्ट एसोसिएशन के मुताबिक, ‘भारतीय पुरुषों में 50 प्रतिशत हार्टअटैक 50 साल की उम्र से पहले और 25 प्रतिशत हार्टअटैक 40 साल से कम उम्र में होता है.’
हार्टअटैक का कारण आमतौर पर कोरोनरी हार्ट रोग होता है जिस में हृदय की मांसपेशियों में औक्सीजनयुक्त रक्त का प्रवाह अचानक अवरुद्ध हो जाता है और परिणामस्वरूप हृदय को औक्सीजन नहीं मिल पाती. इस का कारण कोरोनरी आर्टरी की भीतरी सतह पर कोलैस्ट्रौल का जमाव है. कोलैस्ट्रौल की इस परत का जमाव कई सालों तक होता है.
आसान शब्दों में, हार्टअटैक तब होता है जब हृदय की मांसपेशियों में रक्त का प्रवाह रुक जाता है, जोकि लंबे समय से चली आ रही दिल की बीमारी या खराब जीवनशैली, खानपान, मोटापा और तनाव के कारण होता है.
पुरुषों में हार्टअटैक के बढ़ते मामलों के जो कई कारण हैं, उन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है हार्मोनल स्तर. ऐसा देखा गया है कि प्रीमीनोपौजल महिलाओं में एस्ट्रोजन के स्तर को सुरक्षा प्रदान करते हैं और ऐसे में महिलाओं में दिल के रोग मीनोपौज के बाद बढ़ते हैं और कमोबेश पुरुषों के समान हो जाते हैं.
इस के अलावा, एक और पहलू है महिलाओं और पुरुषों दोनों में तनाव का स्तर. शुरू में यह माना जाता था कि महिलाओं के मुकाबले पुरुषों को काम के मोरचे पर ज्यादा तनाव होता है जिस की वजह से उन में हार्टअटैक के मामले भी अधिक होते हैं, लेकिन हाल के समय में देखा गया है कि औरतें भी अपने कार्यक्षेत्रों में अधिक तनावजनित व गंभीर किस्म की भूमिकाओं में सक्रिय हैं, ऐसे में यह फर्क अब मिटने लगा है. अलबत्ता, दोनों में तनाव को सहने की क्षमता अलग होती है.
व्यवहार के स्तर पर महिलाएं अकसर दूसरों के साथ अपनी भावनाओं को बांटने वाली होती हैं और अपनी देखभाल पर भी समय लगाती हैं, जैसे कि पढ़ने या स्नातकोत्तर आदि पर, जिस के चलते उन का तनाव कम होता है, जबकि पुरुषों की आदत होती है कि वे अपनी भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखते हैं. इस का परिणाम यह होता है कि आगे चल कर पुरुषों में तनाव बुरा असर डालने लगता है. देखा गया है कि तनाव के समय रक्त वाहिकाएं (आर्टरीज) सिकुड़ती हैं, जिस से ब्लडप्रैशर बढ़ता है और अगर किसी व्यक्ति में पहले से ही रक्तवाहिकाएं संकुचित होती हैं, तो यह बड़ी मुसीबत का कारण बन सकता है.
जीवनशैली का असर
खानपान और जीवनशैली संबंधी आदतों का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि पुरुषों की जीवनशैली औरतों के मुकाबले अस्वस्थकर होती है, जिस का असर उन के दिल पर ज्यादा पड़ता है.
शराब का सेवन भी दिल के रोगों का प्रमुख कारण है. हार्ट यूके के मुताबिक, ‘करीब 37 प्रतिशत पुरुष सरकार द्वारा सु झाई गई शराब के सेवन संबंधी मात्रा से अधिक नियमितरूप से सेवन करते हैं, जबकि महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 28 प्रतिशत है. इसी तरह, महिलाओं की तुलना में पुरुषों में धूम्रपान भी काफी अधिक प्रचलित होने की वजह से उन में हृदयरोगों का जोखिम अधिक होता है और यह युवा मरीजों में प्रमुख कारण है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, महिलाओं की तुलना में पुरुष मोटापे के अधिक शिकार होते हैं. इस का काफी हद तक कारण खानपान की आदतें हैं. आमतौर पर महिलाओं के मुकाबले, पुरुष अधिक मांस का सेवन करते हैं और वे ज्यादातर रैड मीट खाते हैं. दूसरी तरफ, पुरुषों की तुलना में महिलाएं गोभी प्रजाति की सब्जियों का सेवन 19 प्रतिशत अधिक करती हैं और इसी तरह वे 14 प्रतिशत अधिक पत्तेदार सब्जियां खाती हैं. मीट, खासतौर से रैड मीट से शरीर में इन्लेमेशन का खतरा बढ़ जाता है और इस में सैचुरेटेड वसा की अधिकता के चलते यह कार्डियोवैस्कुलर समस्याओं का कारण भी बनता है. इस तरह, अधिक मात्रा में भोजन में मांस और कम सब्जियों के सेवन की वजह से भी पुरुषों में दिल के मर्ज बढ़ रहे हैं.
लेकिन महिलाओं में हृदय रोगों को अकसर कम कर के आंका जाता है
क्योंकि यह गलत धारणा है कि वे कार्डियोवैस्कुलर रोगों से सुरक्षित होती हैं. इस के अलावा, भारत में सांस्कृतिक व सामाजिक कारणों के चलते भी औरतों की सेहत को पुरुषों की तुलना में कम महत्त्व मिलता है. हृदयरोगों को कम महत्त्व दिया जाता है और साथ ही, महिलाओं के रोगों के सामने आने की कम परिस्थितियों के चलते भी उन के मामले में इलाज की स्थिति कमजोर बनी हुई है.
अमेरिका के हाल के आंकड़ों से यह सामने आया है कि 2 दशकों से भी अधिक अवधि के दौरान प्रौढ़ महिलाओं (35 से 54 वर्ष) में मायोकार्डियल रोगों के मामलों में बढ़ोतरी हुई है, जबकि इसी आयुवर्ग के पुरुषों में ये घट रहे हैं. इसलिए, महिलाओं को अपने स्वास्थ्य को ले कर अधिक सचेत होने व कार्डियोवैस्कुलर रोगों से जुड़े जोखिमों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है, जिस से हृदय संबंधी जोखिमों के खतरों को कम किया जा सके.
‘‘युवाओं में अधिक कोलैस्ट्रौल लैवल से हृदयरोगों के जोखिमों का पहले से पता लगाया जा सकता है वाली सोच के मामले में हमें कोलैस्ट्रौल को सही ढंग से सम झना होगा. यही हृदय को रक्त पहुंचाने वाली धमनियों में अवरोध खड़ा करता है जिस की वजह से हार्टअटैक होता है. इंसान के शरीर को कई प्रकार के कार्यों के लिए कोलैस्ट्रौल की आवश्यनकता होती है. कोलैस्ट्रौल 2 प्रकार का होता है- अच्छा कोलैस्ट्रौल एचडीएल कहलाता है जबकि दुष्प्रभावी कोलैस्ट्रौल को एलडीएल कहते हैं. एलडीएल कोलैस्ट्रौल ही शरीर की धमनियों की अंदरूनी परतों में जमा हो कर हार्टअटैक और स्ट्रौक का कारण बनता है.
विश्वप्रसिद्ध लांसेट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, 19 देशों में 43 वर्षों तक ऐसे करीब 4 लाख लोगों पर नजर रखी गई जिन्हें शुरू में किसी प्रकार का हृदय रोग नहीं था. अध्ययन में पाया गया कि 45 वर्ष से कम उम्र में अधिक कोलैस्ट्रौल लैवल के चलते आगे चल कर हृदयरोगों की आशंका बढ़ जाती है. साथ ही, जिन व्यक्तियों में कोलैस्ट्रौल का स्तर कम होता है उन में हार्टअटैक का जोखिम भी कम होता है. वैज्ञानिकों ने इस की वजह रक्त में नुकसानदायक लिपिडों का कम होना पाया है जोकि कोरोनरी आर्टरीज को नुकसान पहुंचाता है और धीरेधीरे यह नुकसान गंभीर रूप ले लेता है.
अध्ययन में यह भी पाया गया है कि अधिक कोलैस्ट्रौल स्तर वाले मरीजों में जल्दी इलाज शुरू करने से बाद के वर्षों में हृदय संबंधी समस्याएं और स्ट्रोक का खतरा घट जाता है.
अमेरिका में एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि शरीर की धमनियों में 20 से 30 वर्ष की आयुवर्ग में कोलैस्ट्रौल का जमाव होने लगता है. ऐसे में, आगे चल कर समस्याओं से बचने के लिए जीवन में जल्दी ही उपाय करना फायदेमंद है.
आज के दौर में फास्ट और प्रोसैस्ड फूड की अधिकता, शारीरिक व्यायाम का अभाव और ताजे फलों एवं सब्जियों का कम सेवन, मोटापा तथा कोलैस्ट्रौल स्तर में गड़बड़ी (एलडीएल की अधिक और एचडीएल की कम मात्रा) जैसी समस्याएं बच्चों में बढ़ रही हैं जो आगे चल कर उन में हार्टअटैक और स्ट्रोक का कारण बन सकती हैं. इसलिए, पेरैंट्स को चाहिए कि वे अपने बच्चों को इन तमाम दुष्प्रभावों के बारे में शुरू से ही सजग बनाएं और संतुलित व सेहतमंद जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करें.
(लेखक इंटरवैंशनल कार्डियोलौजी, फोर्टिस मैमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट, गुरुग्राम में सलाहकार हैं.)