Hindi Story: कौन जिम्मेदार किशोरीलाल की मौत का

Hindi Story: ‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था. इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा. फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी. इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी. Hindi Story

Hindi Kahani: बलात्कार – बहुत हुआ अब और नहीं

Hindi Kahani: जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं. ‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.

एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’

अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं.

अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.

अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.

अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदरबाहर होते रहते थे.

रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया.

आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.

अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.

बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है. मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.

मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.

‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.

‘‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.

‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’

चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.

‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’

अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझे आज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.

‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थे. और गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.

‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’

अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.

‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.

इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया.

मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.

अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं.

कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.

कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.

उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.

लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे.

लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकने लगा.

पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’

सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.

‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.

‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.

‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’

सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं.

कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.

कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’

‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’

अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’

मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.

‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.

‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.

‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ाथोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.

‘‘बहुतकुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’

‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.

‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’

कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी. Hindi Kahani

Hindi Short Story: वफादारी का सुबूत – दीपक कहां का सफर तय कर रहा था

Hindi Short Story: तकरीबन 3 महीने बाद दीपक आज अपने घर लौट रहा था, तो उस के सपनों में मुक्ता का खूबसूरत बदन तैर रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह पलक झपकते ही अपने घर पहुंच जाए और मुक्ता को अपनी बांहों में भर कर उस पर प्यार की बारिश कर दे.

पर अभी भी दीपक को काफी सफर तय करना था. सुबह होने से पहले तो वह हरगिज घर नहीं पहुंच सकता था. और फिर रात होने तक मुक्ता से उस का मिलन होना मुमकिन नहीं था.

‘‘उस्ताद, पेट में चूहे कूद रहे हैं. ‘बाबा का ढाबा’ पर ट्रक रोकना जरा. पहले पेटपूजा हो जाए. किस बात की जल्दी है. अब तो घर चल ही रहे हैं…’’ ट्रक के क्लीनर सुनील ने कहा, फिर मुसकरा कर जुमला कसा, ‘‘भाभी की बहुत याद आ रही है क्या? मैं ने तुम से बहुत बार कहा कि बाहर रह कर कहां तक मन मारोेगे. बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहां जा कर तनमन की भड़ास निकाली जा सकती है. पर तुम तो वाकई भाभी के दीवाने हो.’’

दीपक को पता था कि सुनील हर शहर में ऐसी जगह ढूंढ़ लेता है, जहां देह धंधेवालियां रहती हैं. वहां जा कर उसे अपने तन की भूख मिटाने की आदत सी पड़ गई है. अकसर वह सड़कछाप सैक्स के माहिरों की तलाश में भी रहता है. शायद ऐसी औरतों ने उसे कोई बीमारी दे दी है.

दीपक ने सुनील की बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह मुक्ता के बारे में सोच रहा था. उस की एक साल पहले ही मुक्ता से शादी हुई थी. वह पढ़ीलिखी और सलीकेदार औरत थी. उस का कसा बदन बेहद खूबसूरत था. उस ने आते ही दीपक को अपने प्यार से इतना भर दिया कि वह उस का दीवाना हो कर रह गया.

दीपक एमए पास था. वह सालों नौकरी की तलाश में इधरउधर घूमता रहा, पर उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली. दीपक सभी तरह की गाडि़यां चलाने में माहिर था. उस के एक दोस्त ने उसे अपने एक रिश्तेदार की ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी दिलवा दी, तो उस ने मना नहीं किया.

वैसे, ट्रक ड्राइवरी में दीपक को अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. तनख्वाह मिलने के साथ ही वह रास्ते में मुसाफिर ढो कर भी पैसा बना लेता था. ये रुपए वह सुनील के साथ बांट लेता था.

सुनील तो ये रुपए देह धंधेवालियों और खानेपीने पर उड़ा देता था, पर घर लौटते समय दीपक की जेब भरी होती थी और घर वालों के लिए बहुत सा सामान भी होता था, जिस से सब उस से खुश रहते थे.

दीपक के घर में उस की पत्नी मुक्ता के अलावा मातापिता और 2 छोटे भाईबहन थे. दीपक जब भी ट्रक ले कर घर से बाहर निकलता था, तो कभी 15 दिन तो कभी एक महीने बाद ही वापस आ पाता था. पर इस बार तो हद ही हो गई थी. वह पूरे 3 महीने बाद घर लौट रहा था. उस ने पूरे 10 दिनों की छुट्टियां ली थीं.

‘‘उस्ताद, ‘बाबा का ढाबा’ आने वाला है,’’ सुनील की आवाज सुन कर दीपक ने ट्रक की रफ्तार कम की, तभी सड़क के दाईं तरफ ‘बाबा का ढाबा’ बोर्ड नजर आने लगा. उस ने ट्रक किनारे कर के लगाया. वहां और भी 10-12 ट्रक खड़े थे.

यह ढाबा ट्रक ड्राइवरों और उन के क्लीनरों से ही गुलजार रहता था. इस समय भी वहां कई लोग थे. कुछ लोग आराम कर रहे थे, तो कुछ चारपाई पर पटरा डाले खाना खाने में जुटे थे. वहां के माहौल में दाल फ्राई और देशी शराब की मिलीजुली महक पसरी थी. ट्रक से उतर कर सुनील सीधे ढाबे के काउंटर पर गया, तो वहां बैठे ढाबे के मालिक सरदारजी ने उस का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘आओ बादशाहो, बहुत दिनों बाद नजर आए?’’

सुनील ने कहा, ‘‘हां पाजी, इस बार तो मालिकों ने हमारी जान ही निकाल ली. न जाने कितने चक्कर असम के लगवा दिए.’’ ‘‘ओहो… तभी तो मैं कहूं कि अपना सुनील भाई बहुत दिनों से नजर नहीं आया. ये मालिक लोग भी खून चूस कर ही छोड़ते हैं जी,’’ सरदारजी ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

‘‘पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, फटाफट 2 दाल फ्राई करवाओ पाजी. मटरपनीर भी भिजवाओ,’’ सुनील ने कहा.

‘‘तुम बैठो चल कर. बस, अभी हुआ जाता है,’’ सरदारजी ने कहा और नौकर को आवाज लगाने लगे.

2 गिलास, एक कोल्ड ड्रिंक और एक नीबू ले कर जब तक सुनील खाने का और्डर दे कर दूसरे ड्राइवरों और क्लीनरों से दुआसलाम करता हुआ दीपक के पास पहुंचा, तब तक वह एक खाली पड़ी चारपाई पर पसर गया था. उसे हलका बुखार था.

‘‘क्या हुआ उस्ताद? सो गए क्या?’’ सुनील ने उसे हिलाया.

‘‘यार, अंगअंग दर्द कर रहा है,’’ दीपक ने आंखें मूंदे जवाब दिया.

‘‘लो उस्ताद, दो घूंट पी लो आज. सारी थकान उतर जाएगी,’’ सुनील ने अपनी जेब से दारू का पाउच निकाला और गिलास में डाल कर उस में कोल्ड ड्रिंक और नीबू मिलाने लगा. तब तक ढाबे का छोकरा उस के सामने आमलेट और सलाद रख गया था.

‘‘नहीं, तू पी,’’ दीपक ने कहा.

‘‘इस धंधे में ऐसा कैसे चलेगा उस्ताद?’’ सुनील बोला.

‘‘तुझे मालूम है कि मैं नहीं पीता. खराब चीज को एक बार मुंह से लगा लो, तो वह जिंदगीभर पीछा नहीं छोड़ती. मेरे लिए तो तू एक चाय बोल दे,’’ दीपक बोला.

सुनील ने वहीं से आवाज दे कर एक कड़क चाय लाने को बोला. दीपक ने जेब से सिरदर्द की एक गोली निकाली और उसे पानी के साथ निगल कर धीरेधीरे चाय पीने लगा. बीचबीच में वह आमलेट भी खा लेता. जब तक उस की चाय निबटी.

होटल के छोकरे ने आ कर खाना लगा दिया. गरमागरम खाना देख कर उस की भी भूख जाग गई. दोनों खाने में जुट गए. खाना खा कर दोनों कुछ देर तक वहीं चारपाई पर लेटे आराम करते रहे. अब दीपक को भी कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि दिन निकलने से पहले अब वह किसी भी हालत में घर नहीं पहुंच सकता था. एक घंटे बाद जब वह चलने के लिए तैयार हुआ, तो थोड़ी राहत महसूस कर रहा था.

कानपुर पहुंच कर दीपक ने ट्रक ट्रांसपोर्ट पर खड़ा किया और मालिक से रुपए और छुट्टी ले कर घर पहुंचा. सब लोग बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही खुश हो गए. मां उस के चेहरे को ध्यान से देखे जा रही थी, ‘‘इस बार तो तू बहुत कमजोर लग रहा है. चेहरा देखो कैसा निकल आया है. क्या बुखार है तुझे?’’

‘‘हां मां, मैं परसों भीग गया था. इस बार पूरे 10 दिन की छुट्टी ले कर आया हूं. जम कर आराम करूंगा, तो फिर से हट्टाकट्टा हो जाऊंगा,’’ कह कर वह अपनी लाई हुई सौगात उन लोगों में बांटने लगा. सब लोग अपनीअपनी मनपसंद चीजें पा कर खुश हो गए.

मुक्ता रसोई में खाना बनाते हुए सब की बातें सुन रही थी. उस के लिए दीपक इस बार सोने की खूबसूरत अंगूठी और कीमती साड़ी लाया था.

थोड़ी देर बाद एकांत मिलते ही मुक्ता उस के पास आई और बोली, ‘‘आप को बुखार है. आप ने दवा ली?’’

‘‘हां, ली थी.’’

‘‘एक गोली से क्या होता है? आप को किसी अच्छे डाक्टर को दिखा कर दवा लेनी चाहिए.’’

‘‘अरे, डाक्टर को क्या दिखाना? बताया न कि परसों भीग गया था, इसीलिए बुखार आ गया है.’’

‘‘फिर भी लापरवाही करने से क्या फायदा? आजकल वैसे भी डेंगू बहुत फैला हुआ है. मैं डाक्टर मदन को घर पर ही बुला लाती हूं.’’

दीपक नानुकर करने लगा, पर मुक्ता नहीं मानी. वह डाक्टर मदन को बुला लाई. वे उन के फैमिली डाक्टर थे और उन का क्लिनिक पास में ही था. वे फौरन चले आए. उन्होंने दीपक की अच्छी तरह जांच की और जांच के लिए ब्लड का सैंपल भी ले लिया. उन्होंने कुछ दवाएं लिखते हुए कहा, ‘‘ये दवाएं अभी मंगवा लीजिए, बाकी खून की रिपोर्ट आ जाने के बाद देखेंगे.’’

रात में दीपक ने मुक्ता को अपनी बांहों में लेना चाहा, तो उस ने उसे प्यार से मना कर दिया. ‘‘पहले आप ठीक हो जाइए. बीमारी में यह सबकुछ ठीक नहीं है,’’ मुक्ता ने बड़े ही प्यार से समझाया. दीपक ने बहुत जिद की, लेकिन वह नहीं मानी. बेचारा दीपक मन मसोस कर रह गया. उस को मुक्ता का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन मुक्ता डाक्टर मदन से दीपक की रिपोर्ट लेने गई, तो उन्होंने बताया कि बुखार मामूली है. दीपक को न तो डेंगू है और न ही एड्स या कोई सैक्स से जुड़ी बीमारी. बस 2 दिन में दीपक बिलकुल ठीक हो जाएगा. दीपक मुक्ता के साथ ही था. उसे डाक्टर मदन की बातें सुन कर हैरानी हुई. उस ने पूछा, ‘‘लेकिन डाक्टर साहब, आप को ये सब जांचें करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?’’

‘‘ये सब जांचें कराने के लिए आप की पत्नी ने कहा था. आप 3 महीने से घर से बाहर जो रहे थे. आप की पत्नी वाकई बहुत समझदार हैं,’’ डाक्टर मदन ने मुक्ता की तारीफ करते हुए कहा.

दीपक को बहुत अजीब सा लगा, पर वह कुछ न बोला. दीपक दिनभर अनमना सा रहा. उसे मुक्ता पर बेहद गुस्सा आ रहा. रात में मुक्ता ने कहा, ‘‘आप को हरगिज मेरी यह हरकत पसंद नहीं आई होगी, पर मैं भी क्या करती, मीना रोज मेरे पास आ कर अपना दुखड़ा रोती रहती है. उसे न जाने कैसी गंदी बीमारी हो गई है.

‘‘यह बीमारी उसे अपने पति से मिली है. बेचारी बड़ी तकलीफ में है. उस के पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं.’’ दीपक को अब सारी बात समझ में आ गई. मीना उस के क्लीनर सुनील की पत्नी थी. सुनील को यह गंदी बीमारी देह धंधेवालियों से लगी थी. वह खुद भी तो हमेशा किसी अच्छे सैक्स माहिर डाक्टर की तलाश में रहता था.

सारी बात जान कर दीपक का मन मुक्ता की तरफ से शीशे की तरह साफ हो गया. वह यह भी समझ गया था कि अब वक्त आ गया है, जब मर्द को भी अपनी वफादारी का सुबूत देना होगा. Hindi Short Story

Hindi Story: कजरी – शकुंतला देवी सभी को शक की निगाहों से क्यों देखती थी

Hindi Story, लेखक- विरेंद्र अरुण

कजरी के खिलखिलाने की आवाज शकुंतला देवी के कानों में पड़ी, तो उन की भौंहों पर बल पड़ गए और वे यों ही बड़बड़ाने लगीं, ‘‘लगता है, फिर किसी आतेजाते के साथ बात करने में मशगूल हो गई है. कितनी बार समझाया है कमबख्त को कि हर किसी से बातें मत किया कर. लोग एक बात के सौ मतलब निकालते हैं.’’

लेकिन कजरी शकुंतला देवी की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. समझाने पर वह यही कहती थी कि जिंदगी में हंसने और बोलने का समय ही कहां मिलता है, इसलिए जब भी मौका मिले तो थोड़ा खुश हो लेना चाहिए.

कजरी की बातें सुन कर शकुंतला देवी को डर लगता था. मर्दों की इस दुनिया में अकेली और कुंआरी लड़की की हंसी के कितने मतलब निकाले जाते हैं, उन्हें सब पता था.

शकुंतला देवी अकसर ही कजरी को समझाने की कोशिश करते हुए कहतीं, ‘‘कजरी, मैं यह तो नहीं कहती कि हंसनाबोलना बुरी बात है, पर हर ऐरेगैरे से यों हंस कर बातें करना लोगों को तेरे बारे में कुछ उलटासीधा कहने का मौका दे सकता है.’’

शकुंतला देवी की ऐसी बातों पर कजरी कहती, ‘‘बीबीजी, लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं और क्या सोचते हैं, इस की मुझे परवाह नहीं है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं सही हूं.

‘‘मैं ने कभी किसी के साथ खास मकसद से हंसीमजाक नहीं किया. मैं मन से साफ हूं और मेरा मन मुझे कभी गलत नहीं कहता.

‘‘अगर आप मेरे बोलनेबतियाने को शक की निगाहों से देखती हैं तो मैं जरूर दूसरों से बोलना छोड़ दूंगी. एक आप ही तो हैं जिन की नजरों में मुझे अपनापन मिला है, वरना यहां किस की नजरों में क्या है, मैं खूब समझती हूं.’’

कजरी की बातें सुन कर शकुंतला देवी चुप हो जातीं. वे उसे जमाने की ऊंचनीच समझाने की कोशिश भर कर सकती थीं, लेकिन कजरी पर इस का कोई असर नहीं पड़ता था. वह हर समय हंसतीखिलखिलाती रहती थी.

5 साल पहले शकुंतला देवी इस महल्ले में आई थीं. उन के पति सिंचाई महकमे में अफसर थे. उन के 2 बेटे थे. दोनों लखनऊ में रह कर पढ़ रहे थे. कजरी को उन्होंने पहली बार तब देखा था, जब वह उन के पास काम मांगने के लिए आई थी.

शकुंतला देवी को एक चौकाबरतन करने वाली की जरूरत थी, सो महल्ले वालों ने कजरी को उन के पास भेज दिया. तब कजरी की उम्र 15-16 साल की रही होगी.

शकुंतला देवी ने जब पहली बार उसे देखा, तो देखती रह गईं. काला आबनूसी रंग, भराभरा जिस्म और ऊपर से बड़ीबड़ी कजरारी आंखें. कजरी रंग से काली जरूर थी, पर दिल की साफ थी.

कजरी शकुंतला देवी के यहां काम करने आने लगी. धीरेधीरे वह शकुंतला देवी से घुलमिल गई. शकुंतला देवी भी कजरी को पसंद करने लगीं. कजरी का अल्हड़पन और मासूमियत देख कर वे उसे ले कर परेशान रहती थीं.

एक दिन सुबह शकुंतला देवी हमेशा की तरह सैर के लिए घर से निकलीं. अभी वे कुछ कदम ही चली थीं कि उन की पड़ोसन ने उन्हें बताया कि कजरी को रात में पुलिस पकड़ कर थाने ले गई है.

यह सुन कर शकुंतला देवी हैरान रह गईं. पड़ोसन ने बताया कि जिस घर में कजरी काम करती है, उस के मालिक अनिरुद्ध शर्मा रात 11 बजे के आसपास घर आए थे, तो उन्होंने मेज की दराज खुली पाई. उन्होंने सुबह ही दराज में 20,000 रुपए रखे थे, जो अब गायब थे. उन का शक फौरन कजरी पर गया.

अनिरुद्ध शर्मा ने अकेले रहने और घर देर से लौटने की वजह से घर की एक चाबी कजरी को दे दी थी, ताकि उन की गैरहाजिरी में भी वह आ कर घर का चौकाबरतन कर जाए. उन्होंने कजरी को घर बुला कर पूछा और समझाया कि वह पैसे दे दे. जब कजरी नहीं मानी तो उन्होंने पुलिस को बुला कर रिपोर्ट दर्ज करा दी.

पड़ोसन की बातें सुन कर शकुंतला देवी का सिर चकराने लगा. अपनों से ठगे जाने के बाद जो एहसास दिल में होता है, वही शकुंतला देवी को हो रहा था. उन को लग रहा था कि कजरी ने अनिरुद्ध शर्मा के यहां चोरी नहीं की, बल्कि उन का विश्वास चुराया है.

सैर कर के घर आने के बाद भी शकुंतला देवी का मन बेचैन ही रहा. पड़ोसन से हुई बातों के आधार पर उन का दिमाग कजरी को अपराधी मान रहा था, लेकिन कजरी का बरताव याद आते ही दिल उस के बेगुनाह होने की दुहाई देने लगता था. आखिरकार उन्होंने कजरी से मिलने का फैसला किया.

पति के औफिस चले जाने के बाद शकुंतला देवी थाने पहुंच गईं. वहां उन्होंने देखा कि हवालात में बंद कजरी घुटनों के बल बैठी चुपचाप सूनी आंखों से बाहर देख रही थी.

शकुंतला देवी ने थानेदार से कजरी से मिलने की इजाजत मांगी. उन्हें देखते ही कजरी रो पड़ी.

कजरी रोते हुए बोली, ‘‘बीबीजी, मैं बेकुसूर हूं. मैं ने कोई चोरी नहीं की. शर्माजी ने मुझे जानबूझ कर फंसाया है.’’

शकुंतला देवी कजरी को चुप कराने लगीं, ‘‘रोओ मत कजरी, चुप हो जाओ. मुझे पूरी बात बताओ कि आखिर माजरा क्या है?’’

कजरी ने शकुंतला देवी को बताया, ‘‘बीबीजी, शर्माजी मुझ पर बुरी निगाह रखते हैं. कल रात वे मेरे पास आए और कहा कि उन के घर थोड़ी देर में मेहमान आने वाले हैं, इसलिए मैं चल कर नाश्ता तैयार कर दूं.

‘‘रात का समय होने से मैं जाने में हिचकिचा रही थी, लेकिन उन की मजबूरी का खयाल कर के चली गई.

‘‘नाश्ता तैयार करने के बाद जब मैं वापस आने लगी तो उन्होंने मुझे पकड़ लिया और कहने लगे कि मेहमानों के आने की बात तो बहाना था. सच तो यह है कि मैं तुम्हें चाहने लगा हूं.

‘‘यह सुन कर मैं ने कहा कि मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप को ऐसी बातें करते हुए शर्म आनी चाहिए.

‘‘इस पर शर्माजी ने कहा कि बेटी जैसी हो, बेटी तो नहीं हो न. बस, एक बार तुम मेरी प्यास बुझा दो, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा.

‘‘यह सुन कर मैं गुस्से में वहां से जाने लगी तो उन्होंने मुझे दबोच लिया और जबरदस्ती करने लगे.

‘‘अपनेआप को छुड़ाने के लिए दांतों से मैं ने उन के हाथ को काट लिया और वहां से भाग आई.

‘‘अभी घर आए मुझे थोड़ी ही देर हुई थी कि पुलिस घर पर आई और मुझे पकड़ कर यहां ले आई. मैं ने यहां सारी बात बताई, पर कोई सुनता ही नहीं है. सभी यही समझ रहे हैं कि मैं ने चोरी की है. बीबीजी, मैं ने कोई चोरी नहीं की है,’’ इतना कह कर कजरी फिर फफक पड़ी.

कजरी के मुंह से सारी बातें सुन कर शकुंतला देवी समझ गईं कि क्या हुआ होगा. कमजोर और गरीब लड़की की मजबूरियों का फायदा उठाने वाले भेडि़यों की कमी नहीं थी. शर्मा जैसे भेडि़ए ने कजरी को शिकार बनाना चाहा होगा और नाकाम रहने पर तिलमिलाते हुए उस ने कजरी को झूठे केस में फंसा दिया.

शकुंतला देवी को कजरी पर गर्व हुआ कि उस ने उन के यकीन को ठेस नहीं पहुंचाई है.

कजरी को चुप कराते हुए शकुंतला देवी ने कहा, ‘‘रोओ मत कजरी, मर्दों की इस दुनिया में रोने से कुछ हासिल नहीं होने वाला. अगर औरत गरीब हो तो उस की गरीबी और बेबसी उस के खिलाफ वासना के भूखे भेडि़यों के हथियार बन जाते हैं इसलिए रोने और अपनेआप को कमजोर समझने से कुछ नहीं होगा.

‘‘तुम्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी. अनिरुद्ध शर्मा को उस के किए की सजा मिलनी चाहिए. मैं तुम्हारा साथ दूंगी.’’

शकुंतला देवी ने थानेदार से बात कर के कजरी को जमानत पर छुड़ा लिया.

कजरी ने शकुंतला देवी की सलाह पर अनिरुद्ध शर्मा के खिलाफ बलात्कार करने की कोशिश की रिपोर्ट दर्ज कराई.

कजरी की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस अनिरुद्ध शर्मा को पकड़ने के लिए निकल पड़ी. Hindi Story

Story In Hindi: कबूतरों का घर – चांद बादल एक-दूसरे के साथ क्या कर रहे थे

Story In Hindi: पर ऊपर नीला आकाश देख कर और पैरों के नीचे जमीन का एहसास कर उन्हें लगा था कि वह बाढ़ के प्रकोप से बच गए. बाढ़ में कौन बह कर कहां गया, कौन बचा, किसी को कुछ पता नहीं था.

इन बचने वालों में कुछ ऐसे भी थे जिन के अपने देखते ही देखते उन के सामने जल में समाधि ले चुके थे और बचे लोग अब विवश थे हर दुख झेलने के लिए.

‘‘जाने और कितना बरसेगा बादल?’’ किसी ने दुख से कहा था.

‘‘यह कहो कि जाने कब पानी उतरेगा और हम वापस घर लौटेंगे,’’ यह दूसरी आवाज सब को सांत्वना दे रही थी.

‘‘घर भी बचा होगा कि नहीं, कौन जाने.’’ तीसरे ने कहा था.

इस समय उस टापू पर जितने भी लोग थे वे सभी अपने बच जाने को किसी चमत्कार से कम नहीं मान रहे थे और सभी आपस में एकदूसरे के साथ नई पहचान बनाने की चेष्टा कर रहे थे. अपना भय और दुख दूर करने के लिए यह उन सभी के लिए जरूरी भी था.

चांद बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था जिस से वहां गहन अंधकार छा जाता था.

तानी ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी लकडि़यां और पत्तियां शाम को ही जमा कर ली थीं. उस ने सोचा आग जल जाए तो रोशनी हो जाएगी और ठंड भी कम लगेगी. अत: उस ने अपने साथ बैठे हुए एक बुजुर्ग से माचिस के लिए पूछा तो वह जेब टटोलता हुआ बोला, ‘‘है तो, पर गीली हो गई है.’’

तानी ने अफसोस जाहिर करने के लिए लंबी सांस भर ली और कुछ सोचता हुआ इधरउधर देखने लगा. उस वृद्ध ने माचिस निकाल कर उस की ओर विवशता से देखा और बोला, ‘‘कच्चा घर था न हमारा. घुटनों तक पानी भर गया तो भागे और बेटे को कहा, जल्दी चल, पर वह….’’

तानी एक पत्थर उठा कर उस बुजुर्ग के पास आ गया था. वृद्ध ने एक आह भर कर कहना शुरू किया, ‘‘मुझे बेटे ने कहा कि आप चलो, मैं भी आता हूं. सामान उठाने लगा था, जाने कहां होगा, होगा भी कि बह गया होगा.’’

इतनी देर में तानी ने आग जलाने का काम कर दिया था और अब लकडि़यों से धुआं निकलने लगा था.

‘‘लकडि़यां गीली हैं, देर से जलेंगी,’’ तानी ने कहा.

कृष्णा थोड़ी दूर पर बैठा निर्विकार भाव से यह सब देख रहा था. अंधेरे में उसे बस परछाइयां दिख रही थीं और किसी भी आहट को महसूस किया जा सकता था. लेकिन उस के उदास मन में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी.

अपनी आंखों के सामने उस ने मातापिता और बहन को जलमग्न होते देखा था पर जाने कैसे वह अकेला बच कर इस किनारे आ लगा था. पर अपने बचने की उसे कोई खुशी नहीं थी क्योंकि बारबार उसे यह बात सता रही थी कि अब इस भरे संसार में वह अकेला है और अकेला वह कैसे रहेगा.

लकडि़यों के ढेर से उठते धुएं के बीच आग की लपट उठती दिखाई दी. कृष्णा ने उधर देखा, एक युवती वहां बैठी अपने आंचल से उस अलाव को हवा दे रही थी. हर बार जब आग की लपट उठती तो उस युवती का चेहरा उसे दिखाई दे जाता था क्योंकि युवती के नाक की लौंग चमक उठती थी.

कृष्णास्वामी ने एक बार जो उस युवती को देखा तो न चाहते हुए भी उधर देखने से खुद को रोक नहीं पाया था. अनायास ही उस के मन में आया कि शायद किसी अच्छे घर की बेटी है. पता नहीं इस का कौनकौन बचा होगा. उस युवती के अथक प्रयास से अचानक धुएं को भेद कर अब आग की मोटीमोटी लपटें खूब ऊंची उठने लगीं और उन लपटों से निकली रोशनी किसी हद तक अंधेरे को भेदने में सक्षम हो गई थी. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई.

कृष्णा के पास बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘‘मौत के पास आने के अनेक बहाने होते हैं. लेकिन उसे रोकने का एक भी बहाना इनसान के पास नहीं होता. जवान बेटेबहू थे हमारे, देखते ही देखते तेज धार में दोनों ही बह गए,’’ कृष्णा उस अधेड़ व्यक्ति की आपबीती सुन कर द्रवित हो उठा था. आंच और तेज हो गई थी.

‘‘थोड़े आलू होते तो इसी अलाव में भुन जाते. बच्चों के पेट में कुछ पड़ जाता,’’ एक कमजोर सी महिला ने कहा, उन्हें भी भूख की ललक उठी थी. इस उम्र में भूखा रहा भी तो नहीं जाता है.

आग जब अच्छी तरह से जलने लगी तो वह युवती उस जगह से उठ कर कुछ दूरी पर जा बैठी थी. कृष्णा भी थोड़ी दूरी बना कर वहीं जा कर बैठ गया. कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, ‘‘आप ने बहुत अच्छी तरह अलाव जला दिया है वरना अंधेरे में सब घबरा रहे थे.’’

‘‘जी,’’ युवती ने धीरे से जवाब में कहा.

‘‘मैं कृष्णास्वामी, डाक्टरी पढ़ रहा हूं. मेरा पूरा परिवार बाढ़ में बह गया और मैं जाने क्यों अकेला बच गया,’’ कुछ देर खामोश रहने के बाद कृष्णा ने फिर युवती से पूछा, ‘‘आप के साथ में कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सब समाप्त हो गए,’’ और इतना कहने के साथ वह हुलस कर रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, सब का दुख यहां एक जैसा ही है,’’ और उस के साथ वह अपने आप को भी सांत्वना दे रहा था.

अलाव की रोशनी अब धीमी पड़ गई थी. अपनों से बिछड़े सैकड़ों लोग अब वहां एक नया परिवार बना रहे थे. एक अनोखा भाईचारा, सौहार्द और त्याग की मिसाल स्थापित कर रहे थे.

अगले दिन दोपहर तक एक हेलीकाप्टर ऊपर मंडराने लगा तो सब खड़े हो कर हाथ हिलाने लगे. बहुत जल्दी खाने के पैकेट उस टीले पर हेलीकाप्टर से गिरना शुरू हो गए. जिस के हाथ जो लग रहा था वह उठा रहा था. उस समय सब एकदूसरे को भूल गए थे पर हेलीकाप्टर के जाते ही सब एकदूसरे को देखने लगे.

अफरातफरी में कुछ लोग पैकेट पाने से चूक गए थे तो कुछ के हाथ में एक की जगह 2 पैकेट थे. जब सब ने अपना खाना खोला तो जिन्हें पैकेट नहीं मिला था उन्हें भी जा कर दिया.

कृष्णा उस युवती के नजदीक जा कर बैठ गया. अपना पैकेट खोलते हुए बोला, ‘‘आप को पैकेट मिला या नहीं?’’

‘‘मिला है,’’ वह धीरे से बोली.

कृष्णा ने आलूपूरी का कौर बनाते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है कि आप का मन खाने को नहीं होगा पर यहां कब तक रहना पड़े कौन जाने?’’ और इसी के साथ उस ने पहला निवाला उस युवती की ओर बढ़ा दिया.

युवती की आंखें छलछला आईं. धीरे से बोली, ‘‘उस दिन मेरी बरात आने वाली थी. सब शादी में शरीक होने के लिए आए हुए थे. फिर देखते ही देखते घर पानी से भर गया…’’

युवती की बातें सुन कर कृष्णा का हाथ रुक गया. अपना पैकेट समेटते हुए बोला, ‘‘कुछ पता चला कि वे लोग कैसे हैं?’’

युवती ने कठिनाई से अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘कोई नहीं बचा है. बचे भी होंगे तो जाने कौन तरफ हों. पता नहीं मैं कैसे पानी के बहाव के साथ बहती हुई इस टीले के पास पहुंच गई.’’

कृष्णा ने गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘मेरे साथ भी तो यही हुआ है. जाने कैसे अब अकेला रहूंगा इतनी बड़ी दुनिया में. एकदम अकेला… ’’ इतना कह कर वह भी रोंआसा हो उठा.

दोनों के दर्द की गली में कुछ देर खामोशी पसरी रही. अचानक युवती ने कहा, ‘‘आप खा लीजिए.’’

युवती ने अपना पैकट भी खोला और पहला निवाला बनाते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम जूही सरकार है.’’

कृष्णा आंसू पोंछ कर हंस दिया. दोनों भोजन करने लगे. सैकड़ों की भीड़ अपना धर्म, जाति भूल कर एक दूसरे को पूछते जा रहे थे और साथसाथ खा भी रहे थे.

खातेखाते जूही बोली, ‘‘कृष्णा, जिस तरह मुसीबत में हम एक हो जाते हैं वैसे ही बाकी समय क्यों नहीं एक हो कर रह पाते हैं?’’

कृष्णा ने गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यही तो इनसान की विडंबना है.’’

सेना के जवान 2 दिन बाद आ कर जब उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले कर चले तो कृष्णा ने जूही की ओर बहुत ही अपनत्व भरी नजरों से देखा. वह भी कृष्णा से मिलने उस के पास आ गई और फिर जाते हुए बोली, ‘‘शायद हम फिर मिलें.’’

रात होने से पहले सब उस स्थान पर पहुंच गए जहां हजारों लोग छोटेछोटे तंबुओं में पहले से ही पहुंचे हुए थे. उस खुले मैदान में जहांजहां भी नजर जाती थी बस, रोतेबिलखते लोग अपनों से बिछुड़ने के दुख में डूबे दिखाई देते थे. धीरेधीरे भीड़ एक के बाद एक कर उन तंबुओं में गई. पानी ने बहा कर कृष्णा और जूही  को एक टापू पर फेंका था लेकिन सरकारी व्यवस्था ने दोनों को 2 अलगअलग तंबुओं में फेंक दिया.

मीलों दायरे में बसे उस तंबुओं के शहर में किसी को पता नहीं कि कौन कहां से आया है. सब एकदूसरे को अजनबी की तरह देखते लेकिन सभी की तकलीफ को बांटने के लिए सब तैयार रहते.

सरकारी सहायता के नाम पर वहां जो कुछ हो रहा था और मिल रहा था वह उतनी बड़ी भीड़ के लिए पर्याप्त नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद करने के काम में जुटी थीं.

वहां रहने वाले पीडि़तों के जीवन में अभाव केवल खानेकपड़े का ही नहीं बल्कि अपनों के साथ का अभाव भी था. उन्हें देख कर लगता था, सब सांसें ले रहे हैं, बस.

उस शरणार्थी कैंप में महामारी से बचाव के लिए दवाइयों के बांटे जाने का काम शुरू हो गया था. कृष्णा ने आग्रह कर के इस काम में सहायता करने का प्रस्ताव रखा तो सब ने मान लिया क्योंकि वह मेडिकल का छात्र था और दवाइयों के बारे में कुछकुछ जानता था. दवाइयां ले कर वह कैंपकैंप घूमने लगा. दूसरे दिन कृष्णा जिस हिस्से में दवा देने पहुंचा वहां जूही को देख कर प्रसन्नता से खिल उठा. जूही कुछ बच्चों को मैदान में बैठा कर पढ़ा रही थी. गीली जमीन को उस ने ब्लैकबोर्ड बना लिया था. पहले शब्द लिखती थी फिर बच्चों को उस के बारे में समझाती थी. कृष्णा को देखा तो वह भी खुश हो कर खड़ी हो गई.

‘‘इधर कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे इनसान हूं तो दूसरों की सेवा करना भी तो हमारा धर्म है. ऐसे समय में मेहमान बन कर क्यों बैठे रहें,’’ यह कहते हुए कृष्णा ने जूही को अपना बैग दिखाया, ‘‘यह देखो, सेवा करने का अवसर हाथ लगा तो घूम रहा हूं,’’ फिर जूही की ओर देख कर बोला, ‘‘आप ने भी अच्छा काम खोज लिया है.’’

कृष्णा की बातें सुन कर जूही हंस दी. फिर कहने लगी, ‘‘ये बच्चे स्कूल जाते थे. मुसीबत की मार से बचे हैं. सोचा कि घर वापस जाने तक बहुत कुछ भूल जाएंगे. मेरा भी मन नहीं लगता था तो इन्हें ले कर पढ़नेपढ़ाने बैठ गई. किताबकापी के लिए संस्था वालों से कहा है.’’

दोनों ने एकदूसरे की इस भावना का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आखिर हम कुछ कर पाने में समर्थ हैं तो क्यों हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें?’’

अब धीरेधीरे दोनों रोज मिलने लगे. जैसेजैसे समय बीत रहा था बहुत सारे लोग बीमार हो रहे थे. दोनों मिल कर उन की देखभाल करने लगे और उन का आशीर्वाद लेने लगे.

कृष्णा भावुक हो कर बोला, ‘‘जूही, इन की सेवा कर के लगता है कि हम ने अपने मातापिता पा लिए हैं.’’

एकसाथ रह कर दूसरों की सेवा करते करते दोनों इतने करीब आ गए कि उन्हें लगा कि अब एकदूसरे का साथ उन के लिए बेहद जरूरी है और वह हर पल साथ रहना चाहते हैं. जिन बुजुर्गों की वे सेवा करते थे उन की जुबान पर भी यह आशीर्वाद आने लगा था, ‘‘जुगजुग जिओ बच्चों, तुम दोनों की जोड़ी हमेशा बनी रहे.’’

एक दिन कृष्णा ने साहस कर के जूही से पूछ ही लिया, ‘‘जूही, अगर बिना बराती के मैं अकेला दूल्हा बन कर आऊं तो तुम मुझे अपना लोगी?’’

जूही का दिल धड़क उठा. वह भी तो इस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘अकेले क्यों आओगे, यहां कितने अपने हैं जो बराती बन जाएंगे.’’

कृष्णा की आंखें खुशी से चमक उठी. अपने विवाह का कार्यक्रम तय करते हुए उस ने अगले दिन कहा, ‘‘पता नहीं जूही, अपने घरों में हमारा कब जाना हो पाए. तबतक इसी तंबू में हमें घर बसाना पडे़गा.’’

जूही ने प्यार से कृष्णा को देखा और बोली, ‘‘तुम ने कभी कबूतरों को अपने लिए घोसला बनाते देखा है?’’

कृष्णा ने उस के इस सवाल पर अपनी अज्ञानता जाहिर की तो वह हंस कर बताने लगी, ‘‘कृष्णा, कबूतर केवल अंडा देने के लिए घोसला बनाते हैं, वरना तो खुद किसी दरवाजे, खिड़की या झरोखे की पतली सी मुंडेर पर रात को बसेरा लेते हैं. हमारे पास तो एक पूरा तंबू है.’’

कृष्णा ने मुसकरा कर उस के गाल पर पहली बार हल्की सी चिकोटी भरी. उन दोनों के घूमने से पहले ही कुछ आवाजों ने उन्हें घेर लिया था.

‘‘कबूतरों के इन घरों में बरातियों की कमी नहीं है. तुम तो बस दावत की तैयारी कर लो, बराती हाजिर हो जाएंगे.’’

उन दोनों को एक अलग सुख की अनुभूति होने लगी. लगा, मातापिता, भाईबहन, सब की प्रसन्नता के फूल जैसे इन लोगों के लिए आशीर्वाद में झड़ रहे हैं. Story In Hindi

Hindi Story: मैं तो कुछ नहीं खाती

Hindi Story: अपना देश उपवासों का देश है. हर माह, हर सप्ताह, हर रोज कोई न कोई त्योहार आते ही रहते हैं. दीपावली, होली जैसे कुछ खास त्योहारों को छोड़ दिया जाए, जिन में मिठाइयां,  चटपटे नमकीन पकवानों का छक कर उपयोग किया जाता है तो शेष त्योहारों में महिलाओं द्वारा उपवास रख कर पर्वों की इतिश्री कर दी जाती है.

कुछ उपवास तो निर्जला होते हैं. ये उपवास औरतों के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं. साथ ही सहनशीलता का जीताजागता उदाहरण भी हैं. आम औरतें तो बिना अन्न खाए रह सकती हैं मगर बिना पानी के रहना सच में साहस भरा कदम है. यह उपवास हरेक के बूते का रोग नहीं होता. घर में पानी से भरे मटके हों, फ्रिज में पानी से भरी ठंडी बोतलें हों, गरमी अपना रंग दिखा रही हो, गला प्यास से सूख रहा हो और निर्जला व्रत रखने वाली महिलाएं इन से अपना मुंह मोड़ लें. है न कमाल की बात. ठंडी लस्सी, शरबत, केसरिया दूध की कटोरी को छूना तो दूर वे इस सुगंधित स्वादिष्ठ पेय की ओर देखती तक नहीं हैं. धन्य है आर्य नारी, सच में ऐसी त्यागमयी मूर्ति की चरण वंदना करने को मन करता है.

ऐसा निर्जला उपवास करने वाली औरतों की संख्या उंगलियों पर होती है मगर खापी कर उपवास करने वाली घरेलू औरतें हर घर में मिल जाती हैं जो परिवार के स्वास्थ्य, सुखसमृद्धि के लिए गाहे- बगाहे उपवास करती रहती हैं. उपवास के नाम पर वे अन्न त्याग करने में अपनी जबरदस्त आस्था रखती हैं.

प्रात:काल स्नान कर घोषणा करती हैं कि उन का आज उपवास है. वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगी. मगर फलाहार के नाम पर सब चलता है. मौसमी फलों की टोकरियां इस बात का प्रमाण होती हैं कि परिवार की महिलाएं कितनी सात्विक हैं. श्रद्धालु हैं, त्यागी हैं.

ऐसे तीजत्योहार में वे अनाज की ओर देखती तक नहीं हैं. बस, फल के नाम पर कुछ केले खा लिए. पपीता या चीकू की कुछ फांकें डकार लीं. कोई पूछता तो गंभीरता से कहती, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं बस, थोड़े से भुने काजू ले लिए. कुछ दाने किशमिश, बादाम चबा लिए. विश्वास मानिए, मैं तो कुछ खाती नहीं. खापी कर उपवास किया तो उपवास का मतलब ही क्या रह गया.’’

‘‘आप सच कहती हैं, बहनजी. स्वास्थ्य की दृष्टि से सप्ताह में एक दिन तो अन्न छोड़ ही देना चाहिए. क्या फर्क पड़ता है यदि हम एक दिन अनाज न खाएं?’’ एक ही थैली की चट्टीबट्टी दूसरी महिला ने हां में हां मिलाते हुए कहा.

उपवास वाले दिन परिवार का बजट लड़खड़ा कर औंधेमुंह गिर जाता है. सिंघाड़े की सेव कड़ाही के तेल में तली जाने लगती है. कद्दू की खीर शुद्ध दूध में बनाई जाने लगती है. फलाहारी व्यंजन के नाम पर राजगीरा के बादशाही रोल्स बनने लगते हैं. फलाहार का दिन हो और किचन में सतरंगी चिवड़ा न बने, ऐसा कैसे हो सकता है? फलाहारी पकवान ही तो संभ्रांत महिलाओं को उपवास करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.

नएनए फलाहारी पकवान सुबह से दोपहर तक बनते रहते हैं. घरेलू औरतों के मुंह चलते रहते हैं. पड़ोस में फलाहारी पकवानों की डिश एक्सचेंज होती रहती हैं. एकदूसरे की रेसिपी की जी खोल कर प्रशंसा होती है, ‘‘बड़ा गजब का टेस्ट है. आप ने स्वयं घर पर बनाया है न?’’ एक उपवासव्रता नारी पूछती है.

‘‘नहीं, बहनजी, आजकल तो नएनए व्यंजनों की विधियां पत्रपत्रिकाओं में हर माह प्रकाशित होती रहती हैं. अखबारों के संडे एडीशन तो रंगीन चित्रों के साथ रेसिपीज से पटे रहते हैं. इसी बहाने हम लोग किचन में व्यस्त रहती हैं. आप को बताऊं हर टीवी चैनल वाले दोपहर को किचन टिप्स के नाम पर व्यंजन प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहते हैं. ऊपर से पुरस्कारों की भी व्यवस्था रहती है. हम महिलाओं के लिए दोपहर का समय बड़े आराम से व्यंजन बनाने की विधियां देखने में बीत जाता है.

‘‘मैं तो कहती हूं, अच्छा भी है जो ऐसे रोचक व उपयोगी कार्यक्रम हमें व्यस्त रखते हैं, नहीं तो आपस में एकदूसरे की आलोचना कर हम टाइम पास करती रहती थीं. जब से मैं ने व्यंजन संबंधी कार्यक्रम टीवी पर देखने शुरू किए हैं विश्वास मानिए, पड़ोसियों से बिगड़े रिश्ते मधुर होने लगे हैं. मैं भी उपवास के नाम पर अब किचन में नएनए प्रयोग करती रहती हूं ताकि स्वादिष्ठ फलाहारी व्यंजन बनाए जा सकें.’’

विशेष पर्वों पर फलाहारी व्यंजन के कारण बाजार में सिंघाड़े, मूंगफली, राजगिरा, सूखे मेवे, तिल, साबूदाना और आलू जैसी फलाहारी वस्तुओं के भाव आसमान छूने लगते हैं. उपवास की आड़ में तेल की धार घर में बहने लगती है. नए परिधान में चहकती हुई महिलाएं जब उपवास के नाम पर फलाहारी वस्तुएं ग्रहण करती हैं, सच में वे काफी सौम्य लगती हैं. उन का दमकता चेहरा दर्शाता है कि उपवास रहने में सच संतोष व आनंद की अनुभूति होती है. बस, दुख इसी बात का रहता है कि हर नए व्यंजन का निराला स्वाद चटखारे के साथ लेते हुए कहती रहती हैं, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं.’’ Hindi Story

Hindi Kahani: जेल के वे दिन – कैदियों की आपबीती

Hindi Kahani: कई दिनों से सुन रहे हैं कि हमें अब जेल से रिहा किया जाएगा. रोज नईनई खबरें आतीं. एक बार टूटी आस फिर जागने लगती. रात कल के सपने बनने में बीत जाती है, फिर अगले दिन के सपनों के लिए मन यादों में भटकने लगता है. हम 5 दोस्त बांगरमऊ से अहमदाबाद जा रहे थे. रवींद्र कई बार वहां जा चुका था. उसी ने बताया कि वहां बहुत काम है. यहां तो कानपुर और लखनऊ में कोई काम नहीं मिल पा रहा था.

रवींद्र अहमदाबाद के किस्से सुनाया करता था. वहां नईनई कंपनियां खुल रही थीं. लोग हजारों रुपए कमा रहे थे.

हम पांचों दोस्त भी रवींद्र के साथ जाने को तैयार हो गए. वह जानकार था. कई सालों से वहीं पर काम कर रहा था. अच्छी गुजरबसर हो रही थी. परिवार भी खुश था.

अहमदाबाद पहुंच कर रवींद्र ने हमें तेल की एक फैक्टरी के ठेकेदार से मिलवाया. हमें दूसरे दिन से ही काम पर रख लिया गया. सुबह के 8 बजे से ले कर शाम के 7 बजे तक मुश्किल भरा काम होता था. बड़ीबड़ी मशीनें लगी थीं. बड़ा काम था.

हम पांचों ने वहीं फैक्टरी के पास ही एक झोंपड़ी बना ली थी, साथ ही बनातेखाते थे. कभीकभी हम समुद्र की ओर भी निकल जाते थे. तैरती हुई नावों को देखते.

नाविक समुद्र में बड़ा सा जाल डालते थे. मछलियां पकड़ते और नाव भरभर कर मछलियां ले कर जाते. कभीकभी उन नाविकों से बातें भी होती थीं.

3 महीने बाद ठेकेदार ने हमारी एक महीने की छुट्टी कर दी कि कहीं हम परमानैंट न हो जाएं. अब हमारे पास कमानेखाने का कोई साधन न था. रोज ही दूसरी फैक्टरियों के भी चक्कर लगाते, पर कुछ काम नहीं बन पा रहा था.

रवींद्र के फोन पर खबर आई कि मेरे बड़े भाई की शादी है. मां ने बुलाया है. रवींद्र से कुछ पैसे उधार ले कर हम चारों ने घर जाने का प्रोग्राम बनाया. पर पैसों की कमी के चलते घर वालों के लिए कुछ नहीं ले जा पाए.

बाबूराम, सुधीर, श्यामू और मैं चारों ने 8 दिन का प्रोग्राम बनाया. शादी की गहमागहमी में भी मैं खोयाखोया सा रहता था. मां ने मेरी शादी के लिए भी भाभी की बहन को चुन लिया था. मैं ने उन्हें तकरीबन 6 महीने बाद ही आने का वादा किया.

अहमदाबाद में शाम को समुद्र के किनारे घूमते हुए हमें भुदई ठेकेदार मिल गया. वह हम से बात करने पर बोला कि वह नाव देता है और मछली पकड़ कर लाने पर हाथोंहाथ पैसा भी देते हैं.

दूसरे दिन सुबहसवेरे हम चारों वहां पहुंच गए. नाव व जाल भुदई ठेकेदार से मिल गए. हम चारों शाम ढले वापस आए. भुदई ठेकेदार की और नावों के साथ गए थे. खूब सारी मछलियां मिल गई थीं. अब हम रोज जाने लगे थे.

एक दिन हम और ज्यादा मछलियों के लालच में सब नावों से आगे निकल गए. तेज हवा चल रही थी. अंधेरा भी बढ़ रहा था.

हम ने पीछे मुड़ कर देखा, तो बाकी नावें काफी पीछे रह गई थीं. हमारी नाव नहीं संभल रही थी. हम ने तय किया और नाव किनारे लगा ली. सोचा, सवेरेसवेरे वापस हो लेंगे और नाव में ही सो गए.

रात को पता नहीं क्याक्या खयाल आ रहे थे. पिताजी कितना समझाते थे कि सवेरे उन के साथ खेतों पर जाऊं और स्कूल भी जाऊं, पर मुझे तो श्यामू के साथ खेतों में बनी मेड़ों को पैरों से तोड़ने में बड़ा मजा आता था. फिर आम के पेड़ से पत्थर मारमार कर आम तोड़ना और माली को परेशान करने में बहुत मजा आता था. कुम्हार के घर के सामने के मैदान में गुल्लीडंडा खेलने में अच्छा लगता. कुम्हार काका खूब चिल्लाते, पर हम उन की पकड़ से दूर भागते रात गए घर पहुंचते.

आज पिताजी की बातें याद आ रही थीं. घूम कर देखा तो तीनों सो रहे थे. मैं ने सोने की कोशिश की, पर नींद नहीं आ रही थी. अंगोछे से सिरमुंह ढक लिए. आंखें कस कर बंद कर लीं.

पता नहीं, कब आंख लगी. सवेरे पंछियों की आवाज सुन कर आंख खुली तो देखा कि रेत के ऊपर बहुत से लोग पड़े थे. पास ही श्यामू, बाबूराम व सुधीर भी थे. न नाव, न जाल. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है.

हरी वरदी पहने कुछ सिपाही सब को हड़का रहे थे और एक ओर चलने को कह रहे थे. बहुत सारे लोगों को एक

कमरे में बंद कर दिया गया. प्यास से गला सूख रहा था. जरा भी जगह, हिलने भर को नहीं.

मैं धीरेधीरे खिसक कर श्यामू व बाबूराम के पास पहुंचा. फिर देखा तो सुधीर बिलकुल दरवाजे के पास था.

श्यामू ने बताया कि हमें बंदी बना कर ये लोग पाकिस्तान ले आए हैं. अब तो बहुत घबराहट हो रही थी. शाम को कुछ लोगों को एक दूसरे कमरे में भेज दिया गया. अब तकरीबन 17-18 लोग होंगे वहां. फिर उन्होंने पूछताछ शुरू की. नाम वगैरह पूछने लगे. उन्हें शक था कि हम हिंदुस्तानी लोग जासूसी करने आए थे और कुछ बता नहीं रहे थे.

थोड़ी देर बाद कुछ दूसरे लोग आए और वे अपने ही तरीके से पूछताछ करने लगे. उन लोगों के जाने के बाद हम लोग दीवार का सहारा ले कर आड़ेतिरछे से लेट गए.

सवेरे हमें एक और मोटे से आदमी के सामने ले जाया गया. एकएक कर फिर वही पूछताछ का सिलसिला. मारपीट व जुल्म ढाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला.

जब वह मारपीट कर के थक गया, तो हम तीनों को एक कमरे में, जो जेल का बैरक था, छोड़ दिया गया. आंतें कुलबुला रही थीं. मांपिताजी सब बहुत याद आ रहे थे. इतने में एक सिपाही खाने की थालियां सलाखों के नीचे से खिसकाते हुए जोर से चिल्लाया. एक गंदी सी गाली उस के मुंह से निकली और उस ने नफरत से वहीं जमीन पर थूक दिया.

हम लोगों को पता चला कि हमारे साथसाथ 27 मछुआरों को पाकिस्तान की नौसेना ने जखऊ बंदरगाह से मछुआरों की नौकाओं समेत पकड़ लिया है.

सभी मछुआरों को कराची के मलोर लांघी जेल में रखा गया था. हमारे साथ जो चौथा आदमी था ननकू, वह मोहम्मदपुर का बाशिंदा था. गांव में 2 बेटियां व पत्नी हैं. उस के बिना पता नहीं उन पर क्या बीत रही होगी.

कुछ दिनों बाद हम लोगों को जेल में काम मिलने लगा. हमें मोती मिलते थे, जिन से हम तरहतरह की मालाएं बनाते थे. रोज के 50 रुपए मिलते थे. जेल में टैलीविजन लगा था. सरहद के हाल देख कर आस टूटने लगती थी. ननकू काका तो कुछ बोलते ही नहीं थे. उन के मोबाइल फोन छीन लिए गए थे. जो रोज खाना देने आते थे, उन का नाम अजहर मियां था. उन से पता चला कि दोनों सरकारों के बीच बात चल रही है. कुछकुछ लोगों के समूह छोड़े जा रहे हैं. जल्दी ही हमारा भी नंबर आएगा.

वहां रहते हुए सालभर से ऊपर का समय हो गया था. इसी बैरक में रहते हुए होलीदीवाली भी निकल गई थीं.

जब अजहर मियां खाना देने आते, तो उन के मुंह पर निगाहें टिक जातीं. पानी में अपनी सूरत देख कर ही हम डर जाते थे. ननकू काका दीवार पर रोज ही एक लकीर बना देते. फिर गिनते. बारबार गिनते और सिर झुका कर बैठ जाते.

आज अजहर मियां ने बताया कि कल कुछ और लोगों को छोड़ा जाएगा. हम चारों को उम्मीद सी बंधने लगी. एकदूसरे की गलबहियां डालने लगे.

अजहर मियां से कहा कि देख कर बताएं हमारा नाम है कि नहीं… दूसरे दिन पता चला कि हम चारों को भी 220 मछुआरों के साथ छोड़ा जाएगा.

हम वहां से निकल कर उन के पास पहुंचे, तो धक्कामुक्की हो रही थी कि लाइन में आगे पहुंच जाएं. पीछे वाला कहीं रह न जाए. सोमवार देर शाम अटारी बौर्डर से अमृतसर लाया गया. जेल से बाहर आने पर लगा, मानो जान ही नहीं थी. अभीअभी सांस ली है. अपनेआप को छू कर देख रहे थे. एकदूसरे को चिकोटी काटी कि कहीं यह सपना तो नहीं है. अब तो आंखों ने नए सपने देखने शुरू किए हैं.

हमें पाकिस्तानी जेल से निकलने पर हमारा मेहनताना व 3-3 हजार रुपए व कपड़े मिले थे. वहां पर एकएक पल भी एकएक साल के बराबर बीता है. 14 महीने अपने वतन से बाहर रहे, पर अब कुछ घंटे रहना भी दूभर लग रहा है.

श्यामू ने पीसीओ वाले से अपनी मां को फोन लगाया कि हम अमृतसर पहुंच गए हैं. जल्दी ही गांव पहुंचेंगे. बाबूराम, सुधीर व मैं साथ ही हैं. पड़ोस के गांव के ननकू काका भी थे.

श्यामू फफकफफक कर रो पड़ा. कितने समय बाद मां की आवाज सुनी थी. दिव्यांग पिता बद्रीप्रसाद का चेहरा भी आंखों से नहीं हट पा रहा था. हम लोग कितनी देर पैदल चलते रहे, फिर बस मिल गई. मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था.

आज खेतों में फूली सरसों भी पीली नहीं लग रही थी. ठंडी हवा गरम लू सी लग रही थी. बस एक जगह ढाबे पर रुकी, तो हम ने कुछ खा कर चाय पीने की सोची, पर हम से कुछ खाया नहीं गया. बस फिर चल पड़ी. घर आ कर पता चला कि हमारे आने की खबर सुन कर गांव वाले भी आ गए हैं. किसी के घर लड्डू तो किसी के घर में हमारी पसंद की लौकी की बरफी बनाई गई.

मेरी मां ने मेरी पसंद की सब्जीरोटी व खीर बनाई थी, पर मुझ से तो खाया ही नहीं जा रहा था. बस, मां का हाथ अपने हाथ में ले कर बैठा रहा और अपनेआप को यकीन दिला रहा था कि मैं मां के पास हूं.

मां, मैं अब कभी तुझे दुख नहीं दूंगा. यहीं गांव में परिवार के साथ रहूंगा. जो कुम्हार बचपन में लाठी ले कर हड़काता था, उस की भी आंखें आंसुओं से भरी थीं.

राधा मौसी, रामप्यारी काकी व उन की बकरियां सभी थीं. मैं यादों में ही उन सब को कितना ढूंढ़ा करता था. हम सब देर रात तक बैठे बातें करते रहे.

मैं ने उन्हें बताया कि वहां हमें सताया नहीं जाता था. अपनी बनाई मालाएं दिखाईं. पर सरकार से नाराजगी थी कि उन को हमारी गैरहाजिरी में घर में साढ़े 4 हजार रुपए हर महीने देने थे, जो उन्होंने नहीं दिए.

अगले ही दिन तमाम अखबार वाले व ग्राम पंचायत वाले हमारे आने पर हम से पूछने लगे कि वहां हमारे साथ कैसा सुलूक किया गया था. मेरे तो होंठ ही नहीं हिल रहे थे. श्यामू व बाबूराम ने कुछकुछ बताया.

अगले दिन अखबार में सब छपा. सरकार में भी बात पहुंची. वहां से खबर आई कि निरीक्षण के लिए सरकारी अधिकारी आएंगे. फिर पूछताछ का सिलसिला हुआ और जल्दी ही हमें हमारा हक मिल गया. हम तीनों को नौकरी भी मिल गई. नईनई स्कीमों के तहत हमें घर के लिए लोन भी मिला. Hindi Kahani

15 August Special: गर्व से कहो हम भारतीय हैं

15 August Special: ऐसी ही एक टौप क्लास तौलियाधारियों की है. पूरा जहां, जहां घर में कुरतापाजामा, लुंगी, अपरलोअर, बरमूडाटीशर्ट वगैरह पहनता हो तो पहनता रहे, अपनी बला से. हम नहीं बदलेंगे की तर्ज पर सुबह उठने के बाद और नौकरी या दुकान से घर आने के बाद ये उसी तौलिए को, जिसे नहाने के बाद इस्तेमाल किया था, लपेटे घूमते रहते हैं. इसी तौलिए को लपेटेलपेटे ये रात को नींद के आगोश में चले जाते हैं.

आप सोचते होंगे कि तौलिया अगर सोते समय खुल जाता होगा तो बड़ी दिक्कत होती होगी? जिसे आजकल की भाषा में ऊप्स मूमैंट कहते हैं. सोते समय तौलिया खुल जाए तो खुल जाए, क्या पता चलता है. वह तो जब कोई सुबहसवेरे दरवाजे की घंटी बजा दे और ये अलसाए से बिस्तर से उठें तब जा कर पता चलता है कि तौलिया तो बिस्तर की चादर से गलबहियां करे पड़ा है. तब वे जल्दी में तौलिए को लपेट दरवाजा खोलने आगे बढ़ते हैं.

वैसे भी सोते समय क्या, यह तौलिया किसी भी समय, खिसकते समय की तरह जब चाहे कमर से खिसक जाता है और ये उसे बारबार संभालते देखे जा सकते हैं. लेकिन ये तौलिया टाइप वाले भाईजी लोग बड़े जीवट होते हैं. भले ही ये बड़े अफसर हों, नेता हों या बड़ेछोटे कारोबारी हों, तौलिए से अपना लगाव नहीं छोड़ पाते हैं.

मैं तो अपने पड़ोस में एक मूंदड़ाजी को जानता हूं. बाजार के बड़े सेठ हैं, लेकिन बचपन से ही उन को जो तौलिए में देखता आ रहा हूं तो आखिरी समय में भी तौलिए में ही देखा. बाद में घर वालों को पता नहीं क्या सू झा कि तौलिया रूपी कफन में ही उन का दाह संस्कार कर दिया गया. शायद कहीं वसीयत में उन की आखिरी इच्छा ही यह न रही हो?

मेरा बचपन से जवानी का समय उन के तौलिए में ही लिपटेलिपटे कट गया. उन की पत्नी और बच्चों ने कई बार कोशिश की थी कि वे कुरतापाजामा नहीं तो कम से कम लुंगीबंडी अवतार में आ जाएं, लेकिन वे नहीं माने तो नहीं माने. बोले, ‘यह हमारी परंपरा है. हमारे पिता और उन के पिता भी इसी तरह से रहते थे.’

वे आगे गर्व से दलील देते हैं कि गरमी प्रधान इस देश में तौलिए से अच्छा व आरामदायक और कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वे यह भी बताने लगते हैं कि अगर एक आदमी साल में 2 जोड़ी कुरतापाजामा या लुंगी लेता हो, तो उन पर कम से कम 1,000 रुपए का खर्चा आता है और उन्होंने जब से होश संभाला है, तब से तौलिए से ही काम चला

रहे हैं, तो सोचें कि 40-50 सालों में 50,000 रुपए तो बचा ही लिए होंगे. वाह रे परंपरा के धनी आदमी, वाह रे तेरा गणित.

हम तौलिए में ही अपना यह पूरा लेख नहीं लपेटना चाहते. महज तौलिए की ही बात से तो कई पाठक भटकाव के रास्ते पर चले जाएंगे. कई हिंदी फिल्मों के सीन दिमाग पर छा जाएंगे कि कैसे किसी छरहरी हीरोइन के गोरे व चिकने बदन से तौलिया आहिस्ता से सरका था.

चाहे फिल्म का कोई सीन हो या कोई रोमांटिक गाना हो, जो बाथरूम में फिल्माया गया हो या बाथरूम से मादक अदाओं के साथ बाहर निकलती हीरोइन पर फिल्माया गया हो, दोस्तों की कही इसी बात पर तो फिल्म को देखने हम लोग दौड़े चले गए थे.

दूसरी ओर तौलिया नापसंदधारी टाइप सज्जन भी होते हैं. ये धारी वाला कच्छा पहन कर ही सुबह से देर रात तक घरआंगन, बाहर, बाजार, पड़ोस में दिखते रहते हैं.

हां, इस क्लास में हर चीज की तरह थोड़ा विकास यह हुआ है कि कुछेक धारीदार कच्छे में नहीं तो पैंटनुमा अंडरवियर में ही अब घर के अंदरबाहर होते रहते हैं. कुछ तो इन में इतने वीर हैं कि अपनी दुकान में भी इस परंपरागत कपड़े में ही काम चला लेते हैं. जो नहाधो कर शरीर पर तो एक कच्छा और एक बनियान चढ़ाई रात तक का काम हो गया. अल्प बचत वालों को अगर बचत सीखनी है तो इन से सीखें. लोग साल में 4 जोड़ी कपड़े खरीदते हैं तो ये 4 जोड़ी कच्छेबनियान खरीदते हैं.

आइए, अब आते हैं अगले परंपरागत संस्कारी पर. ये स्वच्छता अभियान को  झाड़ू लगाने वाले लोग हैं. ये कहीं भी हलके हो लेते हैं. ये वे लोग हैं, जो घर के बाहर की ही नाली में परंपरागत आत्मविश्वास से मूत्र त्याग करने का लोभ छोड़ नहीं पाते हैं. इस काम में वे पता नहीं क्यों गजब की ताजगी महसूस करते हैं.

डीएनए जोर मारने लगता है तो वे क्या करें? कितने भी धनी हों, इन्हें इस बात से  बिलकुल भी  िझ झक नहीं होती कि वे कहां खड़े हो कर या बैठ कर मूत्र विसर्जन कर रहे हैं.

यह तो साफ है कि अगर ये धोती, लुंगीधारी या तौलियाधारी हैं तो बैठ कर और पैंटकमीज में हों तो खड़े हो कर धारा प्रवाह हो जाते हैं, इसीलिए शायद ऐसे लोगों का पैंटकमीज से छत्तीस का आंकड़ा रहता है.

एक और परंपरागत जन हमारे यहां पाए जाते हैं. डायनासौर भले ही लुप्त हो गए हों, लेकिन ये सदियों से पाए जाते रहे हैं और कभी लुप्त नहीं होने वाले.

ये बस में हों, रेल में हों, बाजार में हों, आप से बात कर रहे हों, न कर रहे हों, इन का हाथ बराबर उन की एक पसंदीदा जगह पर पहुंच जाता है और अपने इस अनमोल अंग को चाहे जब अपनेपन से छू लेता है, सफाई से मसल लेता है.

आप किसी शराबी की शराब छुड़वा सकते हैं, लेकिन इन के हाथ को वहां जाने से नहीं रोक सकते. यकीन न हो तो ऐसे किसी सज्जन पर प्रयोग कर के देख लें. हां, सब के खाते में 1-2 पड़ोसी दोस्त ऐसे होते ही हैं. जैसे आदमी अपनी पलकें अपनेआप  झपकाता रहता है, वैसे ही इन का हाथ भी अपनेआप अपनी पसंदीदा जगह पर वजह या बेवजह पहुंचता रहता है. इन के बड़े पहुंच वाले लंबे हाथ होते हैं.

अब वक्त हो गया है, दूसरे परंपरागत जन की तरफ जाने का. ये कहीं भी खड़े हों, कुछ भी कर रहे हों, लेकिन खखारना नहीं छोड़ते. मौका मिलते ही गले को साधा, बजाया और थूका. पार्क में घूम रहे हों, कार, स्कूटर, साइकिल पर जा रहे हों, दफ्तर में बैठें हों, बस जब इच्छा हुई थूक दिया.

यह सीन तब और भी ज्यादा कलरफुल हो जाता है, जब ये पानतंबाकू चबाने के शौकीन हों. तब ये अपने आसपास की जगह के साथ हर रोज ही मुंह से होली खेलते रहते हैं.

गंगू ने तो अभी आप को केवल 4 जनों की क्लास बताई है, बाकी बाद में. नहीं तो आप अपनी संस्कृति पर गर्व करने लगेंगे और ‘गर्व से कहो हम भारतीय हैं’ कहने से खुद को रोक नहीं पाएंगे. 15 August Special

Best Hindi Story: सहयात्री – क्या वह अजनबी बन पाया कनिका का सहयात्री

Best Hindi Story, लेखिका – अर्विना गहलोत

शामको 1 नंबर प्लेटफार्म की बैंच पर बैठी कनिका गाड़ी आने का इंतजार कर रही थी. तभी कंधे पर बैग टांगे एक हमउम्र लड़का बैंच पर आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें. लगता है आज गाड़ी लेट हो गई है.’’

न बोलना चाहते हुए भी कनिका ने हां में सिर हिला उस की तरफ देखा. लड़का देखने में सुंदर था. उसे भी अपनी ओर देखते हुए कनिका ने अपना ध्यान दूसरी ओर से आ रही गाड़ी को देखने में लगा दिया. उन के बीच फिर खामोशी पसर गई. इस बीच कई ट्रेनें गुजर गई. जैसे ही उन की टे्रन की घोषणा हुई कनिका उठ खड़ी हुई. गाड़ी प्लेटफार्ट पर आ कर लगी तो वह चढ़ने को हुई कि अचानक उस की चप्पल टूट गई और पैर पायदान से फिसल प्लेटफार्म के नीचे चला गया.

कनिका के पीछे खड़े उसी अनजान लड़के ने बिना देर किए झटके से उस का पैर निकाला और फिर सहारा दे कर उठाया. वह चल नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘‘यदि आप को बुरा न लगे तो मेरे कंधे का सहारा ले सकती हैं… ट्रेन छूटने ही वाली है.’’

कनिका ने हां में सिर हिलाया तो अजनबी ने उसे ट्रेन में सहारा दे चढ़ा कर सीट पर बैठा दिया और खुद भी सामने की सीट पर बैठ गया. तभी ट्रेन चल दी.

उस ने अपना नाम पूरब बता कनिका से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘कनिका.’’

‘‘आप को कहां जाना है?’’

‘‘अहमदाबाद.’’

‘‘क्या करती हैं?’’

‘‘मैं मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रही हूं. वहां पीजी में रहती हूं. आप को कहां जाना है?’’

‘‘मैं भी अहमदाबाद ही जा रहा हूं.’’

‘‘क्या करते हैं वहां?’’

‘‘भाई से मिलने जा रहा हूं.’’

तभी अचानक कंपार्टमैंट में 5 लोग घुसे और फिर आपस में एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए 3 लोग कनिका की बगल में बैठ गए. उन के मुंह से आती शराब की दुर्गंध से कनिका का सांस लेना मुश्किल होने लगा. 2 लोग सामने पूरब की साइड में बैठ गए. उन की भाषा अश्लील थी.

पूरब ने स्थिति को भांप कनिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे पैर में चोट है. तुम इधर आ जाओ… ऊपर वाली बर्थ पर लेट जाओ… बारबार आनेजाने वालों से तुम्हें परेशानी होगी.’’

कनिका स्थिति समझ पूरब की हर बात किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह माने जा रही थी. पूरब ने सहारा दिया तो वह ऊपर की बर्थ पर लेट गई. इधर पैर में चोट से दर्द भी हो रहा था.

हलकी सी कराहट सुन पूरब ने मूव की ट्यूब कनिका की तरफ बढ़ाई तो उस के मुंह

से बरबस निकल गया, ‘‘ओह आप कितने

अच्छे हैं.’’

उन लोगों ने पूरब को कनिका की इस तरह सेवा करते देख फिर कोई कमैंट नहीं कसा और अगले स्टेशन पर सभी उतर गए.

कनिका ने चैन की सांस ली. पूरब तो जैसे उस की ढाल ही बन गया था.

कनिका ने कहा, ‘‘पूरब, आज तुम न होते तो मेरा क्या होता?’’ मैं

किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करूं… आज जो भी तुम ने मेरे लिए किया शुक्रिया शब्द उस के सामने छोटा पड़ रहा है.

‘‘ओह कनिका मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता.’’

बातें करतेकरते अहमदाबाद आ गया. कनिका ने अपने बैग में रखीं स्लीपर निकाल कर पहननी चाहीं, मगर सूजन की वजह से पहन नहीं पा रही थी. पूरब ने देखा तो झट से अपनी स्लीपर निकाल कर दे दीं. कनिका ने पहन लीं.

पूरब ने कनिका का बैग अपने कंधे पर टांग लिया. सहारा दे कर ट्रेन से उतारा और फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें पीजी तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे जाओगी? अपने पैर की हालत देखी है? किसी नर्सिंग होम में दिखा लेते हैं. फिर तुम्हें छोड़ कर मैं भैया के पास चला जाऊंगा. आओ टैक्सी में बैठो.’’

कनिका के टैक्सी में बैठने पर पूरब ने टैक्सी वाले से कहा, ‘‘भैया, यहां जो भी पास में नर्सिंगहोम हो वहां ले चलो.’’

टैक्सी वाले ने कुछ ही देर में एक नर्सिंगहोम के सामने गाड़ी रोक दी.

डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कहा, ‘‘ज्यादा नहीं लगी है. हलकी मोच है. आराम करने से ठीक हो जाएगी. दवा लिख दी है लेने से आराम आ जाएगा.’’

नर्सिंगहोम से निकल कर दोनों टैक्सी में बैठ गए. कनिका ने अपने पीजी का पता बता दिया. टैक्सी सीधा पीजी के पास रुकी. पूरब ने कनिका को उस के कमरे तक पहुंचाया. फिर जाने लगा तो कनिका ने कहा, ‘‘बैठिए, कौफी पी कर जाइएगा.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे देर हो जाएगी तो भैया ंिंचतित होंगे. कौफी फिर कभी पी लूंगा.’’

जाते हुए पूरब ने हाथ हिलाया तो कनिका ने भी जवाब में हाथ हिलाया और फिर दरवाजे के पास आ कर उसे जाते हुए देखती रही.

थोड़ी देर बाद बिस्तर पर लेटी तो पूरब का चेहरा आंखों के आगे घूम गया… पलभर को पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, धड़कनें तेज हो गईं.

तभी कौल बैल बजी.

इस समय कौन हो सकता है? सोच कनिका फिर उठी और दरवाजा खोला तो सामने पूरब खड़ा था.

‘‘क्या कुछ रह गया था?’’ कनिका ने

पूछा, ‘‘हां… जल्दबाजी में मोबाइल यहीं भूल गया था.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई कि मेरे पैरों में तुम्हारी स्लीपर हैं. इन्हें भी लेते जाना,’’ कह कौफी बनाने चली गई. अंदर जा कर कौफी मेकर से झट से 2 कप कौफी बना लाई, कनिका पूरब को कनखियों से देख रही थी.

पूरब फोन पर भाई से बातें करने में व्यस्त था. 1 कप पूरब की तरफ बढ़ाया तो पूरब की उंगलियां उस की उंगलियों से छू गईं. लगाजैसे एक तरंग सी दौड़ गई शरीर में. कनिका पूरब के सामने बैठ गई, दोनों खामोशी से कौफी पीने लगे.

कौफी खत्म होते ही पूरब जाने के लिए उठा और बोला, ‘‘कनिका, मुझे तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’

अब तक विश्वास अपनी जड़े जमाने

लगा था. अत: कनिका ने अपना मोबाइल नंबर

दे दिया.

पूरब फिर मिलेंगे कह कर चला गया. कनिका वापस बिस्तर पर आ कर कटे वृक्ष की तरह ढह गई.

खाना खाने का मन नहीं था. पीजी चलाने वाली आंटी को भी फोन पर ही अपने आने की खबर दी, साथ ही खाना खाने के लिए भी मना कर दिया.

लेटेलेटे कनिका को कब नींद आ गई,

पता ही नहीं चला. सुबह जब सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ीं तो आंखें खोल घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. फिर बड़बड़ाते हुए तुरंत

उठ खड़ी हुई कि आज तो क्लास मिस हो गई. जल्दी से तैयार हो नाश्ता कर कालेज के लिए निकल गई.

एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला. आज कालेज की छुट्टी थी. कनिका को

बैठेबैठे पूरब का खयाल आया कि कह रहा था फोन करेगा, लेकिन उस का कोई फोन नहीं आया. एक बार मन किया खुद ही कर ले. फिर खयाल को झटक दिया, लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. किताब ले कर कुछ देर यों ही पन्ने पलटती रही, रहरह कर न जाने क्यों उसे पूरब का खयाल आ रहा था. अनमनी हो खिड़की से बाहर देखने लगी.

तभी अचानक फोन बजा. देखा तो पूरब का था. कनिका ने कांपती आवाज में हैलो कहा.

‘‘कैसी हो कनिका?’’ पूरब ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो? तुम ने कोई फोन नहीं किया?’’

पूरब ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं भाई के साथ व्यवसाय में व्यस्त था, हमारा हीरों का व्यापार है.’’

तुम तैयार हो जाओ मैं लेने आ रहा हूं.

कनिका के तो जैसे पंख लग गए. पहनने के लिए एक प्यारी पिंक कलर की ड्रैस निकाली. उसे पहन कानों में मैचिंग इयरिंग्स पहन आईने में निहारा तो आज एक अलग ही कनिका नजर आई. बाहर बाइक के हौर्न की आवाज सुन कर कनिका जल्दी से बाहर भागी. पूरब हलके नीले रंग की शर्ट बहुत फब रहा था. कनिका सम्मोहित सी बाइक पर बैठ गई.

पूरब ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

सुन कर कनिका का दिल रोमांचित हो उठा. फिर पूछा, ‘‘कहां ले चल रहे हो?’’

‘‘कौफी हाउस चलते हैं… वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ और फिर बाइक हवा से बातें करने लगी.

कनिका का दुपट्टा हवा से पूरब के चेहरे पर गिरा तो भीनी सी खुशबू से पूरब का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

कनिका ने अपना आंचल समेट लिया.

‘‘पूरब, एक बात कहूं… कुछ देर से एक गाड़ी हमारे पीछे आ रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कोई हमें फौलो कर रहा है.’’

‘‘तुम्हारा वहम है… उन्हें भी इधर ही

जाना होगा.’’

‘‘अगर इधर ही जाना है तो हमारे पीछे

ही क्यों चल रहे हैं… आगे भी निकल कर जा सकते हैं.’’

‘‘ओह, शंका मत करो… देखो वह काफी हाउस आ गया. तुम टेबल नंबर 4 पर बैठो. मैं बाइक पार्क कर के आता हूं.’’

कनिका अंदर जा कर बैठ गई.

पूरब जल्दी लौट आया. बोला, ‘‘कनिका क्या लोगी? संकोच मत करो… अब तो हम मिलते ही रहेंगे.’’

‘‘पूरब ऐसी बात नहीं है. मैं फिर कभी… आज और्डर तुम ही कर दो.’’

वेटर को बुला पूरब ने 2 कौफी का और्डर दे दिया. कुछ ही पलों में कौफी आ गई.

कौफी पीने के बाद कनिका ने घड़ी की तरफ देख पूरब से कहा, ‘‘अब हमें चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है मैं तुम्हें छोड़ कर औफिस चला जाऊंगा. मेरी एक मीटिंग है.’’

पूरब कनिका को छोड़ कर अपने औफिस पहुंचा. भाई सौरभ के

कैबिन में पहुंचा तो उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. पूछा, ‘‘पूरब कहां थे? क्लाइंट तुम्हारा इंतजार कर चला गया. तुम कहां किस के साथ घूम रहे थे… मुझे सब साफसाफ बताओ.’’

अपनी एक दोस्त कनिका के साथ था… आप को बताया तो था.’’

‘‘मुझे तुम्हारा इन साधारण परिवार के लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं है… और फिर बिजनैस में ऐसे काम नहीं होता है… अब तुम घर जाओ और फोन पर क्लाइंट से अगली मीटिंग फिक्स करो.’’

‘‘जी भैया.’’

कनिका और पूरब की दोस्ती को 6 महीने बीत गए. मुलाकातें बढ़ती गईं. अब दोनों एकदूसरे के काफी नजदीक आ गए थे. एक दिन दोनों घूमने के  लिए निकले. तभी पास से एक बाइक पर सवार 3 युवक बगल से गुजरे कि अचानक सनसनाती हुई गोली चली जो कनिका की बांह को छूती हुई पूरब की बांह में जा धंसी.

कनिका चीखी, ‘‘गाड़ी रोको.’’

पूरब ने गाड़ी रोक दी. बांह से रक्त की धारा बहने लगी. कनिका घबरा गई. पूरब को सहारा दे कर वहीं सड़क के किनारे बांह पर दुपट्टा बांध दिया और फिर मदद के लिए

सड़क पर हाथ दिखा गाड़ी रोकने का प्रयास

करने लगी. कोई रुकने को तैयार नहीं. तभी कनिका को खयाल आया. उस ने 100 नंबर पर फोन किया. जल्दी पुलिस की गाड़ी पहुंच गई. सब की मदद से पूरब को अस्पताल में भरती

करा पूरब के फोन से उस के भाई को फोन पर सूचना दे दी.

डाक्टर ने कहा कि काफी खून बह चुका है. खून की जरूरत है. कनिका अपना खून देने के लिए तैयार हो गई. ब्लड ग्रुप चैक कराया तो उस का ब्लड गु्रप मैच कर गया. अत: उस का खून ले लिया गया.

तभी बदहवास से पूरब के भाई ने वहां पहुंच डाक्टर से कहा, ‘‘किसी भी हालत में मेरे भाई को बचा लीजिए.’’

‘‘आप को इस लड़की का धन्यवाद करना चाहिए जो सही समय पर अस्पताल ले आई… अब ये खतरे से बाहर हैं.’’

सौरभ की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. जैसे ही पूरब को होश आया सौरभ फफकफफक कर रो पड़ा, ‘‘भाई, मुझे माफ कर दे… मैं पैसे के मद में एक साधारण परिवार की लड़की को तुम्हारे साथ नहीं देख सका और उसे तुम्हारे रास्ते से हमेशा के लिए हटाना चाहा पर मैं भूल गया था कि पैसे से ऊपर इंसानियत भी कोई चीज है. कनिका मुझे माफ कर दो… पूरब ने तुम्हारे बारे में बताया था कि वह तुम्हें पसंद करता है. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि साधारण परिवार की लड़की हमारे घर की बहू बने… आज तुम ने मेरे भाई की जान बचा कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया,’’ और फिर कनिका का हाथ पूरब के हाथों में दे कर बोला, ‘‘मैं जल्द ही तुम्हारे मातापिता से बात कर के दोनों की शादी की बात करता हूं.’’ कह बाहर निकल गया.

पूरब कनिका की ओर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘कनिका, अब हम सहयात्री से जीवनसाथी बनने जा रहे हैं.’’

यह सुन कनिका का चेहरा शर्म से लाल हो गया. Best Hindi Story

Hindi Story: आखिर कहां तक – किस बात से उसका मन घबरा रहा था

Hindi Story: लेकिन बुढ़ापे में अकसर बहुतों के साथ ऐसा होता है जैसा मनमोहन के साथ हुआ. रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा. मैं सोने की कोशिश कर रहा था. शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.

इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है.

हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया.

‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’

हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था. मनमोहन चाचा…’’

‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया. किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा.

‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं. बीमार हो गए क्या?’’

‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने.’’

मैं बिस्तर से उठा. पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुरता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया.

हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा.’’

मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा.’’

हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया.

महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है. गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है. घर की बत्तियां जल रही थीं. दरवाजा खुला हुआ था. मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया. बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा.

मैं ने  हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात  गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया. गरमी के दिन थे, पसीनापसीना हो उठा था.

‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उस की छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी ले कर आ गई.

हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया. मैं ने लोटा वहीं सीढि़यों पर रख दिया. फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं? कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’

‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया.

‘‘ठीकठाक तो हैं?’’

‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं.’’

‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ खड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे. मैं ने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’

‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया.

आंगन के कोने से लगी सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर पहुंचा. सामने वाले कमरे के बीचों- बीच एक तखत पड़ा था. कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था. एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था. तखत पर मनमोहन पैर लटकाए गरदन झुकाए बैठे थे. फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था.

‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरेधीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तखत पर बैठ गया. तखत थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं.

‘‘तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’

रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया. वहां कमरे के बीचोंबीच लटक रहे पुराने बंद पंखे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था. नीचे एक तिपाई रखी थी.

‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे. वह तो मैं ने इन की गैंगैं की घुटीघुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़ कर आ गया. देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं. तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया. फिर नीलेश को आवाज दी. हम दोनों ने मिल कर जैसेतैसे इन्हें फंदे से अलग किया. चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं.

‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके. आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगा कर मरने से तो हमें भी मरवा देते. हम भी फांसी पर चढ़ जाते. पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घरद्वार फूंक कर इन के नाम पर फंदे पर लटक जाते.

‘‘अब चाचाजी, आप ही इन से पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है. इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बरबाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुल कर बात करनी चाही.

‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’

‘‘कोई झगड़ाटंटा नहीं हुआ. दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यारदोस्तों से भी मिल आए हैं. बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जा कर साइकिल पर उसे ले आए. हम ने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई. अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं. घर में इन का मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला.

‘‘लेकिन तुम लोगों ने इन से कुछ कहासुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इन से कोई क्या कह सकता है. बात करते ही काटने को दौड़ते हैं. आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है. फुल चेकअप. वह भी डा. आकाश की पैथोलौजी लैब में. हम ने पूछा भी कि आखिर आप को परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है. मन घबरा रहा है. अकेले में दम घुटता है.

‘‘पिछले महीने ही मैं ने इन्हें सरकारी अस्पताल में डा. दिनेश सिंह को दिखाया था. जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है…’’

तभी नीलेश पानी का गिलास ले कर आ गया. मैं ने पानी पी लिया. तब मैं ने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुम ने इन का दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’

‘‘नहीं, 2 महीने पहले डा. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला.

‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए. और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर. इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’

‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है. सब ठीकठाक है.’’

‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा. फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जा कर, यहां क्या कर रहे हो.

बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया. फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए. इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुसकान फेंक कर चुप हो गया.

मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया. रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो. मैं वहीं आ रहा हूं.’’

रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं. कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गरदन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया.

मैं ने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने उन्हें रोने दिया. उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया. मैं ने फिर आत्मीयता से उन के सिर पर हाथ फेरा. अब की बार उन्होंने सिर उठा कर मु़झे देखा. उन की आंखें लाल हो रही थीं. बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे. फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ…’’ इतना कह कर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो. मैं यहां नहीं रह सकता. ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’

मैं ने कोई विवाद नहीं किया. कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो.’’

उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार हो कर खड़े हो गए.

तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’

‘‘इस समय इन की तबीयत खराब है. मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न. आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था.

मैं ने धैर्य से काम लिया. उस से इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है. मैं समझाबुझा कर शांत कर दूंगा. इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है.’’

‘‘आप इन्हें नहीं जानते. यह नाटक कर रहे हैं. घरभर का जीना हराम कर रखा है. कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का. दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं. अब इस उम्र में इन की गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं. न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे. और वह मास्टरनी, अब छोडि़ए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है. अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था.

‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैं ने सहज ही पूछ लिया.

‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं.’’

‘‘जरा जबान संभाल कर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उन का भरापूरा परिवार है. पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इन से क्या स्वार्थ है. बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है. इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है. अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैं ने शांत भाव से पूछा.

‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाबकिताब पूछने की आप को कोई जरूरत नहीं है. इन का खानापीना, कपडे़ लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबाचौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इन से ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए. हम ने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद कर के फांसी लगाने का नाटक करने लगे. आप इन्हें नहीं जानते. इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है. एक अकेले आदमी का खर्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है…और आप से भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आ कर मैं आप से कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं.’’

इस के बाद तो उस ने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया. रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा.

मैं ने कुछ निश्चय किया. उस समय रात के 2 बज रहे थे. गली से निकल कर सीधा प्रो. प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया. दरवाजे की कालबेल दबा दी. कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया. अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला. मुझे सामने देख कर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्तव्यस्त से लग रहे थे. एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे.

मैं ने वहीं खडे़खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं. तभी प्रो. प्रेमलता भी आ गईं. बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया.

प्रो. प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं.

लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है. मनमोहनजी का सारा पी.एफ., जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया. साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है. इधरउधर साइन कर के 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है. इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इन से मजदूरी कराता है.’’

‘‘सागसब्जी, आटापिसाना, बच्चों को स्कूल ले जानालाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं. फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार स्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इन की जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी हैं.’’

मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार- विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए. उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था. हम ने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी. Hindi Story

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