Father’s Day Special- मुट्ठीभर स्वाभिमान: भाग 1

15 वर्ष हो चुके थे उसे विदेश में रहते. इसलिए इन खोखली औपचारिकताओं से उसे सख्त परहेज था. चाचा से मालूम हुआ कि अंतिम संस्कार के लिए रुपयों का प्रबंध करना है, दीनानाथजी की जेब से कुल 270 रुपए मिले हैं और अलमारी में ताला बंद है, जिसे खोलने का हक केवल सुकांत को है.

पड़ोस के घर से चाय बन कर आ गई थी, किंतु सुकांत ने पीने से मना कर दिया. अपने बाबूजी के मृतशरीर के पास खामोश बैठा उन्हें देखता रहा. उन के ढके चेहरे को खोलने का उस में साहस नहीं हो रहा था. जिस जीवंत पुरुष को सदा हंसतेहंसाते ही देखा हो, उस का भावहीन, स्पंदनहीन चेहरा देखने की कल्पना मर्मांतक थी. सुकांत ने अपने बटुए से 200 डौलर निकाल कर चाचा के हाथ में रखते हुए कहा, ‘‘इन्हें आप बैंक से रुपयों में भुना कर अंतिम संस्कार के सामान का इंतजाम कर लीजिए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगे सामान लेने?’’

‘‘आप ही ले आइए, चाचा,’’ सिर झुकाए धीमे स्वर में बोला सुकांत.

‘‘ठीक है,’’ कह कर चाचा पड़ोस के व्यक्तियों को साथ ले कर चले गए.

घर में घुसने के बाद से ले कर अब तक पलपल सुकांत को मां का चेहरा हर ओर नजर आ रहा था. अपने बचपन को यहीं छोड़ कर वह जवानी की जिस अंधीदौड़ में शामिल हो विदेश जा बसा था, वह उसे बहुत महंगी पड़ी. लेकिन कभीकभी अपने ही लिए फैसलों को बदलना कितना कठिन हो जाता है.

पास ही बैठी चाची बीचबीच में रो पड़ती थीं. किंतु सुकांत की आंखों में आंसू नहीं थे. वह एक सकते की सी हालत में था. 2 वर्षों पूर्व जब मां का देहांत हुआ था तो वह आ भी न पाया था. अंतिम बार मां का मुख न देख पाने की कसक अभी भी उस के हृदय में बाकी थी. उस समय वह ट्रेनिंग के सिलसिले में जरमनी गया हुआ था. पत्नी भी घूमने के लिए साथ ही चली गई थी. दीनानाथजी फोन पर फोन करते रहे. घंटी बजती रहती पर कौन था जो उठाता. खत और तार भी अनुत्तरित ही रहे.

पत्नी के शव को बर्फ की सिल्लियों पर रखे 2 दिनों तक दीनानाथजी प्रतीक्षा करते रहे कि शायद कहीं से सुकांत का कोई संदेश मिले. फिर निराश, निरुपाय दीनानाथजी ने अकेले ही पत्नी का दाहसंस्कार किया और खामोशी की एक चादर सी ओढ़ ली.

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जरमनी से वापस आ कर जब सुकांत को अपने बाबूजी का पत्र मिला तो वह दुख के आवेग में मानो पागल हो उठा कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया. उस के दिमाग की नसें मानो झनझना उठीं. मां के प्रति बेटा होने का अपना फर्ज भी वह पूरा न कर पाया. उस का हताश मन रो उठा. किंतु अब भारत जाने का कोई अर्थ नहीं बनता था. सो, एक मित्र को उस के घर पर फोन कर के सुकांत ने उस से आग्रह किया कि वह वापसी में बाबूजी को अपने साथ ले आए. न चाहते हुए भी दीनानाथजी चले गए.

बेटे का आग्रह ठुकरा न सके. पत्नी के इस आकस्मिक निधन पर अपनेआप को बहुत असहाय सा पा रहे थे. बेटे के पास पहुंच उस की बांहों में मुंह छिपा कर रो लेने का मन था उन का. बेटे के सिवा और कौन बांट सकता था उन के इस दुख को?

चले तो गए, किंतु वहां अधिक दिन रह न सके. बुढ़ापे की कुछ अपनी समस्याएं होती हैं, जिस तरह बच्चों की होती हैं. पहले तो हमेशा पत्नी साथ होती थी, जो उन की हर जरूरत का ध्यान रखती थी. किंतु अब कौन रखता? सुबह 4 बजे जब आंख खुलती और चाय की तलब होती तो चुपचाप मुंह ढांप कर सोए रहते.

पत्नी साथ आती थी तो बिना आहट किए दबे पांव जा कर रसोई से चाय बना कर ले आती थी. किंतु अब जब एक बार उन्होंने खुद सुबह चाय बनाने की कोशिश की थी तो बरतनों की खटपट से बेटाबहू दोनों जाग कर उठ आए थे और दीनानाथजी संकुचित हो कर अपने कमरे में लौट गए थे. फिर दोपहर होते न होते बड़े तरीके से बहू ने उन्हें समझा भी दिया, ‘बाबूजी, मैं उठ कर चाय बना दिया करूंगी.’

और उस के बाद दीनानाथजी ने दोबारा रसोई में पांव नहीं रखा. बहू कितनी भी देर से सो कर क्यों न उठे, वे अपने कमरे में ही चाय का इंतजार करते रहते थे.

सुकांत अपने काम में अत्यधिक व्यस्त रहता था. घर में दीनानाथजी बहू के साथ अकेले ही होते थे. उन की इच्छा होती कि बेटी समान बहू उन के  पास बैठ कर दो बातें करे क्योंकि पत्नी की मृत्यु का घाव अभी हरा था और उसे मरहम चाहिए था, किंतु ऐसा न हो पाता. 2-4 मिनट उन के पास बैठ कर ही बहू किसी न किसी बहाने से उठ जाती और दीनानाथजी अपनेआप को अखबार व किताबों में डुबो लेते. वे परिमार्जित रुचियों के व्यक्ति थे. बेटे ने भी उन से विरासत में शालीन संस्कार ही पाए थे. सो, किताबों से कितनी ही अलमारियां भरी पड़ी थीं.

अपने दफ्तर की ओर से सुकांत को फिर 1 महीने के लिए जरमनी जाना था और सदा की तरह इस बार भी उस की पत्नी शांता साथ जाना चाहती थी. वह सुकांत के बिना 1 महीना रहने को तैयार न थी. रात की निस्तब्धता में दीनानाथजी के कानों में बहू एवं सुकांत के बीच चल रही तकरार के कुछ शब्द पड़े, ‘बाबूजी को इस अवस्था में यहां अकेले छोड़ना उचित है क्या?’ सुकांत का स्वर था.

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बंद कमरे में हुई बाबू दीनानाथ की मृत्यु रिश्तेदारों व महल्ले वालों को आश्चर्य व सदमे की हालत में छोड़ गई थी. स्वभाव से ही हंसमुख व्यक्ति थे दीनानाथ. रोज सुबहसुबह ही घर के सामने से निकलते हर जानपहचान वाले का हालचाल पूछना व एकाध को घर ले आ कर पत्नी को चाय के लिए आवाज देना उन की दिनचर्या में शामिल था. पैसे से संपन्न भी थे. किंतु 2 वर्ष पूर्व पत्नी के निधन के बाद वे एकदम खामोश हो गए थे. महल्ले वाले उन का आदर करते थे. सो, कोई न कोई हालचाल पूछने आताजाता रहता. किंतु सभी महसूस करते थे कि बाबू दीनानाथ ने अपनेआप को मानो अपने अंदर ही कैद कर लिया था. शायद पत्नी की असमय मृत्यु के दुख से सदमे में थे. 70 वर्ष की आयु में अपने जीवनसाथी से बिछुड़ना वेदनामय तो होता ही है, स्मृतियों की आंधी भी मन को मथती रहती है. पीड़ा के दंश सदा चुभते रहते हैं.

जब तक पत्नी जिंदा थी, बेटे के बुलाने पर वे अमेरिका भी जाते थे, किंतु वापस लौटते तो बुझेबुझे से होते थे. जिस मायानगरी की चमकदमक औरों के लिए जादू थी, वह उन्हें कभी रास न आई. वापस अपने देश पहुंच कर ही वे चैन की सांस लेते थे. अपने छोटे से शांत घर में पहुंच कर निश्ंिचत हो जाते. किंतु अब यों उन का आकस्मिक निधन, वह भी इस तरह अकेले बंद कमरे में, सभी अपनेअपने ढंग से सोच रहे थे. सब से अधिक दुखी थे योगेश साहब, जो दीनानाथजी के परममित्र थे.

दीनानाथजी के छोटे भाई ने फोन पर यह दुखद समाचार अपने भतीजे को दिया. फिर मृतशरीर को बर्फ पर रखने की तैयारी शुरू कर दी. वे जानते थे कि उन के भतीजे सुकांत को तुरंत चल पड़ने पर भी आने में 2 दिन लगने ही थे.

हवाईअड्डे पर हाथ में एक छोटी अटैची थामे सुकांत इधरउधर देख रहा था कि शायद उस के घर का कोई लेने आया होगा, लेकिन किसी को न पा कर वह टैक्सी ले कर चल पड़ा. घर के सामने काफी लोग जमा थे. कुछ उसे पहचानते थे, कुछ नहीं. आज 7 वर्षों के बाद वह आया था. अंदर पहुंच कर नम आंखों से उस ने चाचा के पांव छुए.

‘‘बहू और बिटिया को नहीं लाए बेटा?’’ चाचा ने पूछा.

‘‘जी, नहीं. इतनी जल्दी सब का आना कठिन था,’’ सुकांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

आंखों से पल्लू लगाए रोने का अभिनय सा करती चाची ने आगे आ कर सुकांत को गले लगाना चाहा, किंतु वह उन के पांव छू कर पीछे हट गया.

Top 10 Fathers Day Story in Hindi : टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

बच्चों के जिंदगी में मां की भूमिका जितनी जरुरी होती है, उतना ही जरुरी बाप का होना भी होता है. बाप वो होता है जो अपनी खुशियों को भूलकर अपने बच्चों की हर जिद्द को पूरा करता है. तो फादर्स डे के खास मौके पर हम आपके लिए लेकर आएं हैं सरस सलिल की टॉप 10 कहानियां . Saras Salil top 10 fathers day story in hindi.

1.Father’s Day Special- पापा के नाम चिट्ठी

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प्यारे पापा, नमस्ते. मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे.

मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना. हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

2. Father’s Day Special: नववर्ष का प्रकाश

प्रकाश ने फोन पर इतना ही कहा था कि वह दीया को ले कर पहुंच रहा है. अंधेरा घिर आया था लेकिन निधि ने अभी तक घर की बत्तियां नहीं जलाई थीं. जला कर वह करती भी क्या. जिस के जीवन से ही प्रकाश चला गया हो उस के घर के कमरों में प्रकाश हो न हो, क्या फर्क पड़ता है.

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3. Father’s Day Special: लाडो का पीला झबला

हर जुमेरात पर शहर के छोर पर नानानानी पार्क के पास वाली सड़क पर बाजार लगता था. सोहेल ने जल्दीजल्दी अपना काम खत्म कर के बाजार का रुख कर लिया. दिमाग में हिसाब चालू था. 2 ईद गुजर चुकी थीं, उसे खुद के लिए नया जोड़ा कपड़ा लिए हुए. इस बार 25 रुपए बचे हैं, महीने के हिसाब से.

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4. Father’s Day Special- मरीचिका: बेटी की शादी क्यों नहीं करना चाहते थे मनोहरलाल?

मनोहर लाल ने मधुकर के मातापिता से स्पष्ट कह दिया था कि उन की लाड़ली बेटी रूपाली हैदराबाद छोड़ कर मुंबई नहीं जाएगी. मधुकर को ही मुंबई छोड़ कर हैदराबाद आना पड़ेगा. मधुकर और उस के मातापिता के लिए यह आश्चर्य का विषय था. उन्होंने तो यह सोच रखा था कि रूपाली विवाह के बाद मधुकर के साथ रहने आएगी.

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5. Father’s Day Special: रिटर्न गिफ्ट- भाग 1

शिखा की बच्ची, मुझे तंग करने में तुझे बड़ा मजा आ रहा है न?’’ मैं ने रूठने का अभिनय किया तो वे दोनों जोर से हंस पड़े थे. ‘‘अच्छा, इतना तो बता दो कि हम जा कहां रहे हैं?’’ अपने मन की उत्सुकता शांत करने को मैं फिर से उन के पीछे पड़ गई.

‘‘मैं तो घर जा रही हूं,’’ शिखा के होंठों पर रहस्यमयी मुसकान उभर आई.

‘‘क्या हम सब वहीं नहीं जा रहे हैं?’’

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6. Father’s Day Special- बेटी के लिए

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

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7. Father’s Day 2022: पापा जल्दी आ जाना

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

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8. Father’s Day Special- बेटी के लिए

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

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9. Father’s Day 2022: शायद- क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था.

 

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10. पापा के लिए- भाग 1: पिता के प्यार के लिए सौतेली बेटी ने क्या त्याग दिया

दादी के बारबार जोर देने पर और छोटे बच्चों का खयाल कर के पापा ने मम्मी से, जो उन्हीं की कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर थीं, शादी तो कर ली. लेकिन मन से वे उन्हें नहीं अपना पाए. मम्मी भी कहां मेरे असली पापा को भुला सकी थीं

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Father’s Day Special- पापा के नाम चिट्ठी

प्यारे पापा, नमस्ते. सभी बच्चों की वरदियां बन गई हैं, पर मेरी अभी तक नहीं बनी है. मैडम रोज डांटती हैं. किताबें भी पूरी नहीं खरीदी हैं. जो खरीदी हैं, उन पर भी मम्मी ने खाकी जिल्द नहीं चढ़ाई है. अखबार की जिल्द लगाने के लिए मैडम मना करती हैं. कोई भी बच्चा अखबार की जिल्द नहीं चढ़ाता.

आप जल्दी घर पर आएं और वरदी व जिल्द जरूर लाएं. मम्मी ने मुझे जो टीनू की पुरानी वरदी दी थी, वह अब छोटी हो गई है. कई जगह से घिस भी गई है. मम्मी की आंख में दर्द रहता है. आप की बेटी स्मृति.

कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते. मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे.

मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना. हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

आप की बेटी स्मृति. कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

हमारे स्कूल का एनुअल फंक्शन 15 दिन बाद है. सभी बच्चे कोई न कोई प्रोग्राम दे रहे हैं. मुझे भी देना है. कोई अच्छी सी ड्रैस ले आना. मम्मी के सिर में दर्द रहता है. डाक्टर ने बताया कि चश्मा लगेगा, तभी दर्द ठीक होगा. उन की नजर बहुत कमजोर हो गई है.

सभी बच्चों ने गरम वरदियां ले ली हैं. ठंड बढ़ गई है. गरमी वाली वरदी रहने दें, अब सर्दी वाली वरदी ही ले आएं. मम्मी ने इस बार भी अखबार की जिल्द चढ़ाई थी. मैडम ने 10 रुपए जुर्माना कर दिया है. 2 महीने की फीस भी जमा करानी है. आप इस बार पैसे ले कर जरूर आना, नहीं तो मेरा नाम काट दिया जाएगा.

आप की बेटी स्मृति. कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैडम ने कहा है कि स्कूल बस का किराया नहीं दे सकते, तो पैदल आया करो. कम से कम फीस तो हर महीने भेज दिया करो, नहीं तो किसी खैराती स्कूल में जा कर धूप सेंको. स्कूल में डाक्टर अंकल ने हमारा चैकअप किया था. मेरे नाखूनों पर सफेदसफेद धब्बे हैं. डाक्टर अंकल ने बताया कि कैल्शियम की कमी है.

मम्मी की आंखें ज्यादा खराब हो गई हैं. वे दिनरात अखबार के लिफाफे बनाती रहती हैं. मैडम ने कहा है कि अगर घर पर कोई पढ़ा नहीं सकता, तो ट्यूशन रख लो.

पापा, आप घर वापस क्यों नहीं आते? मुझे आप की बड़ी याद आती है. मम्मी कहती हैं कि आप रुपए कमाने गए हो, फिर भेजते क्यों नहीं? आप की बेटी स्मृति.

कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते. मैं ने ट्यूशन रख ली है, मगर आप पैसे जरूर भेज देना. अगले महीने से इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. सारी फीस देनी होगी. आप वरदी नहीं लाए. मुझे ठंड लगती है. मैडम कहती हैं कि यह लड़की तो ठंड में मर जाएगी. क्या मैं सचमुच मर जाऊंगी?

पापा, ट्यूशन वाले सर भी रुपए मांग रहे हैं. वे कहते हैं कि जब रुपए नहीं हैं, तो पढ़ क्यों रही हो? किसी के घर जा कर बरतन साफ करो. हां पापा, मुझे ड्राइवर अंकल ने स्कूल बस से नीचे उतार दिया. आजकल पैदल ही स्कूल जा रही हूं. पढ़ने का समय नहीं मिलता. हमारी गाय भी थोड़ा सा दूध दे रही है. मम्मी कहती हैं कि चारा नहीं है. लोगों के खेतों से भी कब तक लाते रहेंगे.

पापा, आप हमारी बात क्यों नहीं सुनते? आप की बेटी स्मृति.

कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते. मेरे सालाना इम्तिहान हो गए हैं. मां ने गाय बेच कर सारी फीस जमा करा दी. ट्यूशन वाले सर के भी रुपए दे दिए हैं. बाकी बचे रुपयों से मां के लिए ऐनक खरीदनी पड़ी. पिछले दिनों आए तूफान व बारिश से घर की छत उखड़ गई है.

पापा, आप खूब सारे रुपए ले कर जल्दी घर आएं, तब तक मेरे इम्तिहान का रिजल्ट भी निकल जाएगा. पापा, क्या आप को हमारी याद ही नहीं आती? हमें तो आप हर पल याद आते हैं. आप की बेटी स्मृति.

कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते. मेरा रिजल्ट आ गया है. मैं अपनी क्लास में फर्स्ट आई हूं. मुझे बैग, जूते और वरदी लेनी है.

और हां पापा, इस बार मैं पुरानी नहीं, नई किताबें लूंगी. पुरानी किताबों के कई पन्ने फटे होते हैं. आजकल स्कूल में मेरी छुट्टियां चल रही हैं. सभी बच्चे बाहर घूमने जाते हैं. मैं भी मम्मी के साथ कागज के लिफाफे बनाना सीख रही हूं, ताकि इस बार मुझे स्कूल पैदल न जाना पड़े.

पापा, बारिश में छत से पानी टपकता है. बाकी बातें मैं आप के घर आने पर करूंगी. अब की बार आप घर नहीं आए, तो मैं आप को कभी चिट्ठी नहीं लिखूंगी. तब तक मेरी और आप की कुट्टी. आप की बेटी स्मृति.

कक्षा-5.

स्मृति की लिखी इन सभी चिट्ठियों का एक बड़ा सा बंडल बना कर संबंधित डाकघर ने इस टिप्पणी के साथ उसे वापस भेज दिया, ‘प्राप्तकर्ता पिछले साल हिंदूमुसलिम दंगों में मारा गया, जिस की जांच प्रशासन ने हाल ही में पूरी की है, इसलिए ये सारी चिट्ठियां वापस भेजी जाती हैं.’

Father’s Day: किसी मिसाल से कम नहीं बौलीवुड के पापा बेटे की ये 5 जोड़ियां

सभी के जीवन में कोई ना कोई रोल मौडल होता हैं. जिनसे इंस्पायर होकर वो अपनी लाइफ में कुछ अच्छे बदलाव लाते हैं. सभी की जिंदगी में एक नाम ऐसा तो है वो है पिता जो ना सिर्फ हमारी गलतियां बताता है बल्कि ये भी सिखाता है कि उन गलतियों से सीख लेकर कैसे जिंदगी में आगे बढ़ना हैं. आज हम आपको  बौलीवुड के कुछ ऐसे ही पापा बेटे की जोड़ी के बारे में बताने वाले हैं जिसने सभी के दिलों में एक खास जगह बनाई हैं.

1.शाहिद कपूर और पंकज कपूर 

शाहिद कपूर अपने पिता से काफी क्लोज हैं. किसी भी बौलीवुड इवेंट में दोनों का प्यार अक्सर कैमरे में कैद हो जाता हैं. कम उम्र में पिता से अलग हो जाने के बाद भी शाहिद के मन में पिता के लिए कोई कड़वाहट नहीं है बल्कि दोनों की केमिस्ट्री लाजवाब है.

2. वरुण धवन और डेविड धवन

चौकलेटी बौय के नाम से लड़कियों के बीच में पौपुलर वरुण पापा बौयज के बेस्ट एग्जाम्पल हैं. वरुण और डेविड की जोड़ी बौलीवुड में काफी मशहूर हैं. हर अवार्ड फंक्शन में दोनों काफी क्लोज दिखते हैं . वरुन अपने पापा को बहुत प्यार करते हैं. और ये प्यार वो पब्लिकली भी काफी शो करते हैं.

 3.रितिक रोशन और राकेश रोशन

पापा-बेटे की इस जोड़ी ने समय-समय पर अपने बीच के प्यार को शो किया हैं. दोनों काफी क्लोज हैं. जाहे बात पर्सनल लाइफ हो या प्रोफेशनल, राकेश एक सच्चे पिता के रुप में हमेशा रितिक के साथ होते हैं और रितिक भी एक आदर्श बेटे की तरह अपने पापा का पूरा ख्याल रखते हैं.

 4.सलमान खान और सलीम खान

सलमान खान एक अच्छे भाई के साथ-साथ एक अच्छे बेटे भी हैं. एक टीवी शो पर सलमान ने बताया था की वो आज भी अपनी कमाई पिता को देते हैं और वो उनको खर्चे के पैसे देते हैं. सलमान एक सच्चे पापाज बौय हैं. कितनी भी मुश्किल क्यों न आए ये दोनों हमेशा एक-दूसरे के साथ खड़े होते हैं.

5.विकी कौशल और श्याम कौशल

इस पापा बेटे की जोड़ी ने सही मायने में बौलीवुड को बहुत कुछ दिया हैं. शाम कौशल ने स्टंट डायरेक्टर और फिल्म डायरेक्टर के रुप में पहचान पाई तो वही लड़कियों के फेवरेट विक्की कौशल एक्टिंग के जरिए सभी के दिलों में जगह बनाई. विक्की अपने पापा से काफी क्लोज हैं.

Father’s Day Special: नववर्ष का प्रकाश

निधि की नजरें बारबार कलैंडर पर चली जातीं. शाम हो चुकी थी और कुछ देर बाद ही नव वर्ष का आगमन होने वाला था. सोचा कि चलो पिछला वर्ष तो किसी तरह रोतेपीटते कट ही गया. उस के मन में आने वाले नव वर्ष के लिए बेचैनी होने लगी.

प्रकाश ने फोन पर इतना ही कहा था कि वह दीया को ले कर पहुंच रहा है. अंधेरा घिर आया था लेकिन निधि ने अभी तक घर की बत्तियां नहीं जलाई थीं. जला कर वह करती भी क्या. जिस के जीवन से ही प्रकाश चला गया हो उस के घर के कमरों में प्रकाश हो न हो, क्या फर्क पड़ता है.

प्रकाश, जिसे पिछले 31 सालों से उन्होंने अपने खूनपसीने से सींचा था, जिस के पलपल का खयाल रखा था, जिस की पसंदनापसंद बड़ी माने रखती थी, उसी ने आज उन्हें बंजर, बेसहारा बना दिया था.

ममता भरे स्नेहिल आंचल की छांव में जो प्रकाश खेला था आज एकाएक अपने तक ही सीमित हो गया था. उस ने अपने मातापिता को बुढ़ापे में यों निकाल फेंका था मानो पैर में चुभा कांटा निकाल कर फेंक दिया हो. बेचारे मातापिता अपने बुढ़ापे के लिए कुछ बचा भी नहीं पाए थे. सोचा था प्रकाश पढ़लिख जाएगा तो कमा लेगा, हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा. यह एहसास निधि के लिए जानलेवा था. सारे दिन वह व्यथित रहती. उस पर पति का कठोर जीवन उसे और भी सालता. पति को जीतोड़ मेहनत करते देख उसे बहुत दुख होता. अपने जिगर के टुकड़े से उसे ऐसी उम्मीद न थी.

निधि को वह दिन याद आया जब प्रकाश का नामकरण किया गया था. सब उसे राज…राजकुमार नाम से पुकारने लगे थे किंतु उस ने प्रकाश नाम रखा. शायद यह सोच कर कि प्रकाश नाम से उसे सदैव जीवन में प्रकाश मिलता रहेगा और दूसरों को भी वह अपने प्रकाश से प्रकाशित करेगा.

परंतु आज जब जीवन इतना गुजर गया तो अनुभव हुआ कि प्रकाश का अपना कोई वजूद ही नहीं है, उस का ऐसा कोई अस्तित्व नहीं है कि जैसा दीपक के साथ या बल्ब, ट्यूबलाइट के साथ जुड़ा होता है. प्रकाश के साथ जुड़ी चीजें भले ही उस के प्रकाश के साथ जुड़ी हों लेकिन उन से प्रकाश का कोई लेनदेन या सरोकार नहीं होता. बिना किसी आग्रह के वह वहीं चला जाता है जहां बल्ब, ट्यूब- लाइट या दीपक जल रहा होता है.

वह खुद भी इस बात को सोचने की जरूरत भी नहीं समझता कि उस के चले जाने के बाद किसी का जीवन प्रकाशहीन हो कर अंधेरे में डूब जाएगा.

बड़ी नौकरी मिलते ही प्रकाश का रुख बदल गया था. घर, कार, पैसा उस के पास होते ही उस ने अपने तेवर बदल लिए थे. जब तक उस को जरूरत थी मातापिता को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करता रहा.

अपनी इच्छा से उस ने शादी भी बाहर ही कर ली. शादी के एक साल तक अपने शहर भी नहीं आया था. आज  आएगा, वह भी केवल 4 घंटे के लिए, क्योंकि बहू के गले में खानदान का पुश्तैनी हार जो डलवाना चाहता है. इस के लिए उसे घर फोन कर के सूचना देने की पूरी याद रही. फोन पर उस ने मां से पूछा, ‘मां, कैसी हो?’

‘अच्छी हूं,’ कहते ही कितना दिल भर आया था. क्या कहती कि तेरे बिना घर सूना लग रहा है. तू भूल गया है लेकिन हम नहीं भूले. तेरी शादी के अरमान ऐसे ही धरे के धरे रह गए. परंतु कहा कुछ भी नहीं था.

‘पिताजी कैसे हैं?’ प्रकाश ने पूछा.

‘ठीक हैं, मजे में हैं?’ सोचा, क्यों बताऊं कैसे जी रहे हैं. बेटा हो कर जब तुझे दायित्व का बोध नहीं रहा, केवल अपना अधिकार याद है. पुश्तैनी हार…बहू के नाम पर रखे गहने तो याद हैं किंतु कर्तव्य नहीं.

वह सोच में पड़ी थी, बेटे ने यह भी नहीं सोचा कि मांपिताजी कैसे थोड़ी सी रकम से गुजारा कर रहे होंगे. सारा जीवन तो कमाकमा कर उसे पढ़ाते रहे. होनहार निकले…कितनेकितने घंटे पढ़ाती रही और तुझे पढ़ाने के लिए खुद पढ़पढ़ कर समझती रही. उस का ऐसा परिणाम?

‘हम दोनों आप से आशीर्वाद लेने आ रहे हैं.’

निधि के मन की तटस्थता बनी रही थी. प्रकाश की बातें सुनती रही. वह कह रहा था, ‘शाम को आएंगे. रात में भोजन साथ करेंगे.’ निधि ने किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दिया था. और फोन पर वार्तालाप बंद हो गया था.

निधि ने पति मनीष को प्रकाश और बहू दीया के आने की तथा बहू की मुंह दिखाई की रस्म में पुश्तैनी हार व अन्य गहने, जो उस के लिए कभी बनवाए थे, देने की मंशा जाहिर की साथ ही वह सारी बातें बता दीं जो प्रकाश ने उस से फोन पर कही थीं.

मनीष ने गहरी नजरों से निधि की ओर देखा. वह आश्वस्त हो गए कि निधि के चेहरे पर ममता का भाव तो है साथ ही पति के प्रति पूर्ण निष्ठा भी.

‘तुम क्या चाहती हो?’

पति के दिल को पढ़ते हुए निधि ने उत्तर दिया था, ‘जैसा आप कहें.’

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. दोनों के मन में एक जैसी भावनाएं चल रही थीं. मनीष वहीं से उठ कर आराम करने चले गए थे.

घर के खर्चे के लिए उन्होंने एक सेठ के यहां 2,500 रुपए की नौकरी कर ली थी. सुबह 6 बजे घर से निकलते और शाम 7 बजे घर आते. बसों में आनेजाने के कारण थकान बहुत ज्यादा हो जाती. अत: थोड़ी देर आराम करने के लिए भीतर के कमरे में चले गए.

बाहर घने बादलों के कारण कुछ ज्यादा ही अंधकार हो गया था. थोड़ी देर में टिपटिप बूंदाबांदी होने लगी. निधि उसी तरह बरामदे में बैठी रही. प्रकाश और दीया अभी तक नहीं आए थे. मन अनेक खट्टीमीठी घटनाओं को याद करता और भूलता रहा.

तभी एक टैक्सी गेट के पास आ कर रुकी. निधि उसी तरह बैठी खिड़की से देखती रही. वे दोनों उस के बहूबेटा ही थे, किंतु अंधकार के कारण कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था. तभी प्रकाश का स्वर सुनाई दिया, ‘‘लगता है, घर में रोशनी नहीं है.’’

आवाज सुन निधि की ममता उमड़ आई. मन में सोचा, ‘हां, ठीक कहा, घर में बेटा न हो तो प्रकाश कैसे होगा. तू आ गया है तो उजाला हो जाएगा.’ किंतु प्रकाश ने मां के भावों को नहीं समझा.

निधि ने उठ कर बत्ती जलाई. आवाज सुन कर मनीष भी उठ बैठे. मुख्यद्वार खोला. प्रकाश और दीया ने दोनों को प्रणाम किया. उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘‘सदा सुखी रहो.’’

मां और पिताजी ने बहू के आगमन की कोई तैयारी नहीं की थी, यह देख प्रकाश मन ही मन अपने को अपमानित महसूस करने लगा. न तो मां ने उठ कर कोई खातिरदारी का उपक्रम किया और न ही पिताजी ने.

कुछ देर तक निस्तब्धता छाई रही. मां और पिताजी के ठंडे स्वभाव को देख कर प्रकाश का तनमन क्रोधित हो उठा. वह सोचने लगा कि पुश्तैनी हार ले कर अब उसे चलना चाहिए. उस ने मां से कहा था, ‘‘अपनी बहू की मुंह दिखाई की रस्म पूरी करो, मां. हमारी टे्रन का समय हो रहा है.’’

मुंह दिखाई की रस्म की बात सुन कर मनीष ने कहा, ‘‘हां…हां…क्यों नहीं.’’ और जा कर अपने पर्स से 11 रुपए ला कर निधि को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘निधि, बहू की मुंह दिखाई की रस्म पूरी करो.’’

निधि ने पति की आज्ञानुसार वैसा ही किया. सगन देते हुए निधि ने कहा, ‘‘बहू, मुंह दिखाई की रस्म के बाद हम बहू से रसोई करवाते हैं. तुम जा कर रसोई में हलवापूरी बना दो. सारा सामान वहीं रखा हुआ है.’’

मां के मुंह से रस्म अदायगी की बात सुन कर प्रकाश ने अपने गुस्से को काबू में रखते हुए कहा, ‘‘वाह मां, क्या खूब. आप ने बहू को कुछ दिया तो नहीं पर काम करवा रही हैं…काम अगली बार करवाइएगा.’’

प्रकाश की बात सुन कर पिता ने कहा, ‘‘बेटा, अगली बार जब आएगी काम करेगी, घर के प्रति कर्तव्य निभाएगी तो फल भी पाएगी…यह सब तुम्हारा ही तो है…’’

‘‘दीया अभी खाना नहीं बनाएगी,’’ उस ने धीरे से कहा.

दीया चुपचाप सोफे पर बैठी थी. उस ने कलाई घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 8 बज रहे थे. उस ने उठते हुए कहा, ‘‘प्रकाश, ट्रेन का समय हो रहा है.’’

‘‘हां, हां, हमें चलना चाहिए. खाना हम ट्रेन में खा लेंगे,’’ प्रकाश ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘जैसा तुम दोनों चाहो,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

दोनों ने प्रणाम किया. मातापिता ने उन्हें गले लगा कर प्यार किया और विदा कर दिया.

दोनों के चले जाने के बाद निधि रसोई में आ कर सब्जी काटने लगी. मनीष भी रसोई में आ गए.

‘‘आप को 11 रुपए देने की क्या जरूरत थी?’’ निधि ने कहा.

‘‘अपने उस पढ़ेलिखे बेटे को समझाने के लिए कि हम ने सदा अपने बेटे के प्रति कर्तव्य निभाया है लेकिन तुम ने क्या सीखा? मुंह दिखाई के लिए बहू को लाया था…वह भी एक साल बाद.’’

‘‘इसलिए कह रही हूं कि सवा रुपया देना चाहिए था,’’ निधि की बात सुन मनीष ठहाका मार कर हंसने लगे.

बहुत देर तक हंसते रहे. हमारा ही बेटा हमारे ही कान काटने पर तुला है. वह भूल गया है कि वह हमारा बेटा है,  बाप नहीं. वह दोनों पहली बार भावुक नहीं हुए थे.

पतिपत्नी ने मिल कर खाना खाया. एकसाथ एक ही थाली में खाया. मनीष खूब मजेदार बातें निधि को सुनाते रहे और वह मनीष को.

आज एक लंबे अरसे के बाद पतिपत्नी अत्यंत प्रफुल्लित एवं संतुष्ट थे मानो खोया हुआ खजाना मिल गया हो. आज मन में समझदारी का प्रकाश हुआ हो. इसी तरह 4 घंटे बीत गए. मनीष ने निधि को कहा, ‘‘नव वर्ष की बहुतबहुत बधाई हो.’’

‘‘आप को भी आज प्रकाश के आने पर मन में समझदारी का प्रकाश हुआ है. नव वर्ष सब को शुभ हो,’’ कहते हुए वे दोनों घर की छत पर आ गए और वहां से गली में आनेजाने वालों को नव वर्ष की मुबारकबाद देने लगे.

पापा के लिए: पिता के प्यार के लिए सौतेली बेटी ने क्या त्याग दिया

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Father’s Day 2022: शायद- क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

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जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

लेखिका- शशि उप्पल

Father’s Day Special- दूसरा पिता: क्या कल्पना को पिता का प्यार मिला?

वह यादों के भंवर में डूबती चली जा रही थी. ‘नहीं, न वह देवदास की पारो है, न चंद्रमुखी. वह तो सिर्फ पद्मा है.’ कितने प्यार से वे उसे पद्म कहते थे. पहली रात उन्होंने पद्म शब्द का मतलब पूछा था. वह झेंपती हुई बोली थी, ‘कमल’.

‘सचमुच, कमल जैसी ही कोमल और वैसे ही रूपरंग की हो,’ उन्होंने कहा था. पर फिर पता नहीं क्या हुआ, कमल से वह पंकज रह गई, पंकजा. क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? दूसरी औरत जब पराए मर्द पर डोरे डालती है तो वह यह सब क्यों नहीं सोचा करती कि पहली औरत का क्या होगा? उस के बच्चों का क्या होगा? ऐसी औरतें परपीड़ा में क्यों सुख तलाशती हैं?

हजरतगंज के मेफेयर टाकीज में ‘देवदास’ फिल्म लगी थी. बेटी ने जिद कर के उसे भेजा था, ‘क्या मां, आप हर वक्त घर में पड़ी कुछ न कुछ सोचती रहती हैं, घर से बाहर सिर्फ स्कूल की नौकरी पर जाती हैं, बाकी हर वक्त घर में. ऐसे कैसे चलेगा? इस तरह कसेकसे और टूटेटूटे मन से कहीं जिया जा सकता है?’ लेकिन वह तो जैसे जीना ही भूल गई थी, ‘काहे री कमलिनी, क्यों कुम्हलानी, तेरी नाल सरोवर पानी.’ औरत का सरोवर तो आदमी होता है. आदमी गया, कमल सूखा. औरत पुरुषरूपी पानी के साथ बढ़ती जाती है, ऊपर और ऊपर. और जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही बेसहारा हो कर सूखने लगती है, कमलिनी. यही तो हुआ पद्मा के साथ भी. प्रभाकर एक दिन उसे इस तरह बेसहारा छोड़ कर चले जाएंगे, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. पर ऐसा हुआ.

उस दिन प्रभाकर ने एकदम कह दिया, ‘पद्म, मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. अगर झगड़ाझंझट करोगी तो ज्यादा घाटे में रहोगी, हार हमेशा औरत की होती है. मुझ से जीतोगी नहीं. इसलिए जो कह रहा हूं, राजीखुशी मान लो. मैं अब मधु के साथ रहना चाहता हूं.’ पति का फैसला सुन कर वह ठगी सी रह गई थी. यह वही मधु थी, जो अकसर उस के घर आयाजाया करती थी. लेकिन उसे क्या पता था, एक दिन वही उस के पति को मोह लेगी. वह भौचक देर तक प्रभाकर की तरफ ताकती रही थी, जैसे उन के कहे वाक्यों पर विश्वास न कर पा रही हो. किसी तरह उस के कंठ से फूटा था, ‘और हमारी बेटी, हमारी कल्पना का क्या होगा?’

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‘मेरी नहीं, वह तुम्हारी बेटी है, तुम जानो,’ प्रभाकर जैसे रस्सी तुड़ा कर छूट जाना चाहते थे, ‘स्कूल में नौकरी करती हो, पाल लोगी अपनी बेटी को. इसलिए मुझे उस की बहुत फिक्र नहीं है.’

पद्मा हाथ मलती रह गईर् थी. प्रभाकर उसे छोड़ कर चले गए थे. अगर चाहती तो झगड़ाझंझट करती, घर वालों, रिश्तेदारों को बीच में डालती, पर वह जानती थी, सिवा लोगों की झूठी सहानुभूति के उस के हाथ कुछ नहीं लगेगा. समझदार होने पर कल्पना ने एक दिन कहा था, ‘मां, आप ने गलती की, इस तरह अपने अधिकार को चुपचाप छोड़ देना कहां की बुद्धिमत्ता है?’

‘बेटी, अधिकार देने वाला कौन होता है?’ उस ने पूछा था, ‘पति ही न, पुरुष ही न? जब वही अधिकार देने से मुकर जाए, तब कैसा अधिकार?’ पद्मा ने बहुत मुश्किल से कल्पना को पढ़ायालिखाया. मैडिकल की तैयारी के लिए लखनऊ में महंगी कोचिंग जौइन कराई. जब वह चुन ली गई और लखनऊ के ही मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया तो पद्मा बहुत खुश हुई. उस का मन हुआ, उन्नाव जा कर प्रभाकर को यह सब बताए, मधु को जलाए, क्योंकि उस के बच्चे तो अभी तक किसी लायक नहीं हुए थे. वह प्रभाकर से कहना चाहती थी कि वह हारी नहीं. उन्नाव जाने की तैयारी भी की, पर कल्पना ने मना कर दिया, ‘इस से क्या लाभ होगा, मां? जब अब तक आप ने संतोष किया, तो अब तो मैं जल्दी ही बहुतकुछ करने लायक हो जाऊंगी. जाने दीजिए, हम ऐसे ही ठीक हैं.’

पद्मा अकेली हजरतगंज के फुटपाथ पर सोचती चली जा रही थी. जया वहीं से डौलीगंज के लिए तिपहिए पर बैठ कर चली गई थी. उसे मुख्य डाकघर से तिपहिया पकड़ना था. जया और वह एक ही स्कूल में पढ़ाती थीं. पद्मा अकेली फिल्म देखने नहीं जाना चाहती थी. लड़की की जिद बताई तो जया हंस दी, ‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ. अपने जमाने की प्रसिद्ध फिल्म है.’

पति के छिनते ही पद्मा की जैसे दुनिया ही छिन गई थी. कछुए की तरह अपने भीतर सिमट कर रह गई थी, अपने घर में, अपने कमरे में. कल्पना अकसर कहा करती, ‘मां, आप का जी नहीं घबराता इस तरह गुमसुम रहतेरहते?’

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वह हंसने का निष्फल प्रयास करती, ‘कहां हूं गुमसुम, खुश तो हूं.’ पर कहां थी, वह खुश? खाली हाथ, रीता जीवन, एक सतत प्यास लिए सूखा रेगिस्तान मन, उड़ती हुई रेत और सुनसान दिशाएं. औरत, पुरुष के बिना अधूरी क्यों रह जाती है? अपने जीवन से हट कर पद्मा देखी हुई फिल्म के बारे में सोचने लगी…उसे लगा, वह खुद देवदास के किरदार में है, ‘अब तो सिर्फ यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे,’ ‘यह प्यास बुझती क्यों नहीं’, ‘क्यों पारो की याद सताती है?’, ‘कौन कमबख्त पीता है होश में रहने के लिए? मैं तो पीता हूं जीने के लिए कि कुछ सांसें ले सकूं’, ‘मैं नहीं कर सकता. क्या सभी लोग सभीकुछ करते हैं?’ फिल्म के ऐसे कितने ही वाक्य थे, जो उस के दिलोदिमाग में ज्यों के त्यों खुद से गए थे. क्या हर दुख झेलने वाला व्यक्ति देवदास है? क्या देवदास आज की भी कड़वी सचाई नहीं है?

‘चंद्रमुखी, तुम्हारा यह बाहर का कमरा तो बिलकुल बदल गया.’ क्या जवाब दिया चंद्रमुखी ने, ‘बाहर का ही नहीं, अंदर का भी सब बदल गया है.’

क्या सचमुच वह भी बाहरभीतर से बदल नहीं गई पूरी तरह? चंद्रमुखी ने वेश्या का पेशा छोड़ दिया है. देवदास कहता है, ‘छोड़ तो दिया है, पर औरतों का मन बहुत कमजोर होता है, चंद्रमुखी.’ पद्मा सोचती है, ‘क्या सचमुच औरतों का मन बहुत कमजोर होता है? क्या आदमी का मोह, आदमी की चाह, उसे कभी भी डिगा सकती है? वह कभी भी उस के मोहपाश में बंध कर अपना आगापीछा भुला सकती है?’

अचानक पद्मा हड़बड़ा गई क्योंकि आगे चलता एक व्यक्ति अचानक चकरा कर उस के पास ही फुटपाथ पर गिर पड़ा था. वह कुछ समझ नहीं पाई. बगल के पान वाले की दुकान से पद्मा ने पानी लिया और उस के चेहरे पर छींटे मारे. लोगों की भीड़ जुट गई, ‘कौन है? कहां का है? क्या हुआ?’ जैसे तमाम सवाल थे, जिन के उत्तर उस के पास नहीं थे. लोगों की सहायता से पद्मा ने उस व्यक्ति को एक तिपहिए पर लदवाया, खुद साथ बैठी और मैडिकल कालेज के आपात विभाग पहुंची.

पद्मा ने तिपहिया चालक की सहायता से उस व्यक्ति को उतारा और आपात विभाग में ले जा कर एक बिस्तर पर लिटा दिया. कल्पना को तलाश करवाया तो वह दौड़ी आई, ‘‘क्या हुआ, मां, कौन है यह?’’ पद्मा क्या जवाब देती, हौले से सारी घटना बता दी.

‘‘तुम भी गजब करती हो, मां. ऐसे ही कोई आदमी गिर पड़ा और तुम ले कर यहां चली आईं. मरने देतीं वहीं.’’ उस ने बेटी को अजीब सी नजरों से देखा कि यह क्या कह रही है? मरने देती? सहायता न करती? यह भी कोई बात हुई? अनजान आदमी है तो क्या हुआ, है तो आदमी ही.

‘‘दूसरे लोग उठाते और किसी अस्पताल ले जाते. या फिर पुलिस उठाती. आप क्यों लफड़े में पड़ीं, मरमरा गया तो जवाब कौन देगा?’’ भुनभुनाती कल्पना डाक्टरों के पास दौड़ी.

डाक्टरों ने कल्पना के कारण उस की अच्छी देखभाल की. 2 घंटे बाद उसे होश आया. दाएं हिस्से में जुंबिश खत्म हो गई थी, लकवे का असर था. जब उसे ठीक से होश आ गया तो पद्मा को खुशी हुई, एक अच्छा काम करने का आत्मसंतोष. उस ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहीं नहीं और शायद सब कहीं,’’ वह अजीब तरह से मुसकराया. ‘‘हम लोग आप के घर वालों को खबर करना चाहते थे, पर आप की जेब से कोई अतापता नहीं मिला. सिर्फ रुपए थे पर्स में, ये रहे, गिन लीजिए,’’ पद्मा ने पर्स उस की तरफ बढ़ाया.

कल्पना भी निकट आ कर बैठ गई थी. ‘‘मैडम, जो लोग सड़क पर गिरे आदमी को अस्पताल पहुंचाते हैं, वे उस का पर्स नहीं मारते,’’ वह उसी तरह मुसकराता रहा, ‘‘समझ नहीं पा रहा, आप को धन्यवाद दूं या खुद को कोसूं.’’

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‘‘क्यों भला?’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘आप के बीवीबच्चे आप की कुशलता सुन कर कितने प्रसन्न होंगे, यह एहसास है आप को?’’ ‘‘कोई नहीं है अब हमारा,’’ वह आदमी उदास हो गया, ‘‘2 साल हुए, हत्यारों ने घर में घुस कर मेरी बेटी और पत्नी के साथ बलात्कार किया था. लड़के ने बदमाशों का मुकाबला किया तो उन लोगों ने तीनों की हत्या कर दी.’’

‘‘यह सुन कर वे दोनों सन्न रह गईं. काफी देर तक खामोशी छाई रही, फिर पद्मा ने पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहां बताऊं? शायद कहीं नहीं. जिस घर में रहता था, वहां हर वक्त लगता है जैसे मेरी बेटी, पत्नी और बेटा लहूलुहान लाशों के रूप में पड़े हैं. इसलिए उस घर से हर वक्त भागा रहता हूं.’’ ‘‘यहां लखनऊ में आप कैसे आए थे?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘इलाहाबाद में किताबों का प्रकाशक हूं. स्कूल, कालेजों की पुस्तकें प्रकाशित करता हूं-पाठ्यपुस्तकों से ले कर कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि तक,’’ वह बोला, ‘‘यहां इसी सिलसिले में आया था. हजरतगंज के एक होटल में ठहरा हूं. एक सिनेमाहौल में पुरानी फिल्म ‘देवदास’ लगी है, उसे देखने गया था कि रास्ते में गश खा कर गिर पड़ा.’’

डाक्टरों से बात कर के कल्पना उस व्यक्ति को मां के साथ घर लिवा लाई, ‘‘चलिए, आप यहीं रहिए कुछ दिन,’’ उस ने कहा, ‘‘हम आप का सामान होटल से ले आते हैं. कमरे की चाबी दीजिए और होटल की कोई रसीद हो, तो वह…’’

‘‘रसीद तो कमरे में ही है, चाबी यह रही,’’ उस ने जेब से निकाल कर चाबी दी. कल्पना ने मां को बताया, ‘‘इन्हें कोई ठंडी चीज मत देना. गरम चाय या कौफी देना.’’

फिर एक पड़ोसी को साथ ले कर कल्पना चली गई. पद्मा कौफी बना लाई. उस व्यक्ति ने किसी तरह बैठने का प्रयास किया, ‘‘बिलकुल इतनी ही उम्र थी मेरी बेटी की,’’ उस का गला भर्रा गया, आंखों में नमी तिर आई.

‘‘भूल जाइए वह सब, जो हुआ,’’ पद्मा बोली, ‘‘आप अकेले नहीं हैं इस धरती पर जिन्हें दुख झेलना पड़ा, ऐसे तमाम लोग हैं.’’ वह कुछ बोला नहीं, भरीभरी आंखों से पद्मा की तरफ देखता रहा और कौफी के घूंट भरता रहा.

‘‘सच पूछिए तो अब जीने की इच्छा ही नहीं रह गई,’’ वह बोला, ‘‘कोई मतलब नहीं रह गया जीने का. बिना मकसद जिंदगी जीना शायद सब से मुश्किल काम है.’’ ‘‘शायद आप ठीक कहते हैं,’’ पद्मा के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया जब कल्पना के पिता ने अचानक एक दिन मुझे छोड़ दिया.’’

‘‘आप जैसी नेक औरत को भी कोई आदमी छोड़ सकता है क्या?’’ उसे विश्वास नहीं हुआ. ‘‘मधु नामक एक लड़की पड़ोस में रहती थी. हमारे घर आतीजाती थी. वे उसी के मोह में फंस गए. कल्पना तब छोटी थी. वे चले गए मुझे छोड़ कर,’’ पता नहीं वह यह सब उस से क्यों कह बैठी.

3-4 दिनों में वह व्यक्ति चलनेफिरने लगा था. एक सुबह पद्मा ने पूछा, ‘‘अभी तक आप ने अपना नाम नहीं बताया?’’

जवाब कल्पना ने दिया, ‘‘कमलकांत,’’ और होटल की रसीद मां की तरफ बढ़ाई, ‘‘रसीद पर इन का यही नाम लिखा है,’’ वह मुसकरा रही थी.

थोड़ी देर बाद जब वह सूटकेस में अपने कपड़े रखने लगा तो पद्मा ने पूछा, ‘‘कहां जाएंगे अब?’’ ‘‘क्या बताऊं?’’ कमलकांत बोला, ‘‘इलाहाबाद ही जाऊंगा. वहां मेरा कुछ काम तो है ही, लोग परेशान हो रहे होंगे.’’

कल्पना ने उस के हाथ से सूटकेस ले लिया, ‘‘आप अभी कहीं नहीं जाएंगे. इतने ठीक नहीं हुए हैं कि कहीं भी जा सकें. दोबारा अटैक हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. यहीं रहिए कुछ दिन और, अपने दफ्तर में फोन कर दीजिए.’’ पद्मा कुछ बोली नहीं. कहना तो वह भी यही सब चाहती थी, पर अच्छा लगा, बेटी ने ही कह दिया. शायद वह समझ गई, पर क्या समझ गई होगी? देर तक चुप बैठी पद्मा सोचती रही. कहां पढ़ा था उस ने यह वाक्य- ‘प्यार जानने, समझने की चीज नहीं होती, उसे तो सिर्फ महसूस किया जाता है.’

‘क्या कमलकांत उसे अच्छे लगने लगे हैं?’ पद्मा ने अपनेआप से पूछा. एक क्षण को वह सकुचाई. फिर झेंप सी महसूस की, ‘नहीं, अब इस उम्र में फिर से कोई नई शुरुआत करना बहुत मुश्किल है. न मन में उत्साह रहा, न इच्छा. प्रभाकर के साथ जुड़ कर देख लिया. क्या मिला उसे? क्या दोबारा वही सब दोहराए? आदमी का क्या भरोसा? क्यों सोच रही है वह यह सब इस आदमी को ले कर? क्या लगता है यह उस का? कोई भी तो नहीं…क्या सचमुच कोई भी नहीं?’ अचानक उस के भीतर से किसी ने पूछा. और वह अपनेआप को भी कोई सचसच जवाब नहीं दे पाई थी. व्यक्ति दूसरे से झूठ बोल सकता है, अपनेआप से कैसे झूठ बोले?

कल्पना कालेज जाती हुई बोली, ‘‘मां, आप अभी एक सप्ताह की और छुट्टी ले लीजिए, इन की देखरेख कीजिए.’’ पद्मा बुत बनी बैठी रही, न हां बोली, न इनकार किया.

उस के जाने के बाद पद्मा ने छुट्टी की अर्जी लिखी और पड़ोस के लड़के को किसी तरह स्कूल जाने को राजी किया. उस के हाथों अर्जी भिजवाई. शाम को जया आई, ‘‘क्या हुआ, पद्मा?’’ एक अजनबी को घर में देख कर वह भी चकराई.

जवाब देने में वह लड़खड़ा गई, ‘‘क्या बताऊं?’’ जया उसे एकांत में ले गई, ‘‘ये महाशय?’’

सवाल सुन कर पद्मा का चेहरा अपनेआप ही लाल पड़ गया, पलकें झुक गईं. जया मुसकरा दी, ‘‘तो यह बात है… कल्पना के नए पिता?’’

पद्मा अचकचा गई, ‘‘नहीं रे, पर… शायद…’’ बाद में देर तक पद्मा और जया बातें करती रहीं. अंत में जया ने पूछा, ‘‘कल्पना मान जाएगी?’’

‘‘कह नहीं सकती. मेरी हिम्मत नहीं है, जवान बेटी से यह सब कहने की. अगर तू मदद कर सके तो बता.’’ ‘‘कल्पना से कल बात करूंगी,’’ जया बोली, ‘‘और प्रभाकर ने टांग अड़ाई तो…?’’

‘‘इतने सालों से उन्होंने हमारी खबर नहीं ली. मैं नहीं समझती उन्हें कोई एतराज होगा.’’ ‘‘सवाल एतराज का नहीं, कानून का है. आदमी अपना अधिकार कभी भी जता सकता है. तुम स्कूल में अध्यापिका हो, बदनामी होगी.’’

‘‘तब से यही सब सोच रही हूं,’’ पद्मा बोली, ‘‘इसीलिए डरती भी हूं. कुछ तय नहीं कर पा रही कि कदम सही होगा या गलत. एक मन कहता है, कदम उठा लूं, जो होगा, देखा जाएगा. दूसरा मन कहता है, मत उठा. लोग क्या कहेंगे. दुनिया क्या कहेगी. समाज में क्या मुंह दिखाऊंगी. यह उम्र बेटी के ब्याह की है और मैं खुद…’’ पद्मा संकोच में चुप रह गई. ‘‘ठीक है, पहले कल्पना का मन जानने दे, तब तुम से बात करती हूं और कमलकांत से भी कहती हूं,’’ जया चली गई.

पद्मा पास की दुकान से घर की जरूरत की चीजें ले कर आई तो देखा, कमलकांत के पास कल्पना बैठी गपशप कर रही है और दोनों बेहद खुश हैं. ‘‘मां, जया मौसी रास्ते में मिली थीं.’’

सुन कर पद्मा घबरा गई. हड़बड़ाई हुई सामान के साथ सीधे घर में भीतर चली गई कि बेटी का सामना कैसे करे? ?

अचानक कल्पना पीछे से आ कर उस से लिपट गई, ‘‘मां, आप से कितनी बार कहा है, हर वक्त यों मन को कसेकसे मत रहा करिए. कभीकभी मन को ढीला भी छोड़ा जाता है पतंग की डोर की तरह, जिस से पतंग आकाश में और ऊंची उठती जाए.’’ वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए चुप बैठी रही. कल्पना हंसी, ‘‘मैं बहुत खुश हूं. अच्छा लग रहा है कि आप अपने खोल से बाहर आएंगी, जीवन को फिर से जिएंगी, एक रिश्ते के खत्म हो जाने से जिंदगी खत्म नहीं हो जाती…

‘‘मुझे ये दूसरे पिता बहुत पसंद हैं. सचमुच बहुत भले और सज्जन व्यक्ति हैं. हादसे के शिकार हैं, इसलिए थोड़े अस्तव्यस्त हैं. मुझे विश्वास है, हमारा प्यार मिलेगा तो ये भी फिर से खिल उठेंगे.’’ पता नहीं पद्मा को क्या हुआ, उस ने बेटी को बांहों में भर कर कई बार चूम लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी और कल्पना मां का यह नया रूप देख कर चकित थी.

Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 1

‘‘सौरी डैड, मुझे पता है कि आप ने मुझे एक घंटा पहले बुलाया था, पर उस समय मुझे अपनी महिला मित्र को फोन करना था. चूंकि उस के पास यही समय ऐसा होता है कि मैं उस से बात कर सकता हूं इसलिए मैं आप के बुलावे को टाल गया था. अब बताइए कि आप किस काम के लिए मुझे बुला रहे थे.’’

‘‘कोई खास नहीं,’’ दीनप्रभु ने कहा, ‘‘दवा लेने के लिए मुझे पानी चाहिए था. तुम आए नहीं तो मैं ने दवा की गोली बगैर पानी के ही निगल ली.’’

‘‘डैड, आप ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया. वैसे भी इनसान को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मैं कल से पानी का पूरा जार ही आप के पास रख दिया करूंगा.’’

हैरीसन के जाने के बाद दीनप्रभु सोचने लगे कि इनसान के जीवन की वास्तविक परिभाषा क्या है? और वह किस के लिए बनाया गया है. क्या वह बनाने वाले के हाथ का एक ऐसा खिलौना है जिस को बनाबना कर वह बिगाड़ता और तोड़ता रहता है और अपना मनोरंजन करता है.

इनसान केवल अपने लिए जीता है तो उस को ऐसा कौन सा सुख मिल जाता है, जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती और यदि दूसरों के लिए जीता है तो उस के इस समर्पित जीवन की अवहेलना क्यों कर दी जाती है. यह कितना कठोर सच है

कि इनसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करता है. वह दूसरों को रास्ता दिखाता है मगर जब वह खुद ही अंधकार का शिकार होने लगता है तो उसे एहसास होता है कि प्रवचनों में सुनी बातें सरासर झूठ हैं.

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हैरीसन घर से जा चुका था. कमरे में एक भरपूर सन्नाटा पसरा पड़ा था. दीनप्रभु के लिए यह स्थिति अब कोई नई बात नहीं थी. ऐसा वह पिछले कई सालों से अपने परिवार में देखते आ रहे थे मगर दुख केवल इसी बात का कि जो कुछ देखने की कल्पना कर के वह विदेश में आ बसे थे उस के स्थान पर वह कुछ और ही देखने को मजबूर हो गए. भरेपूरे परिवार में पत्नी और बच्चों के रहते हुए भी वह अकेला जीवन जी रहे थे.

अपने मातापिता, बहनभाइयों के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया. सब को रास्ता दिखा कर उन के घरों को आबाद किया और जब आज उन की खुद की बारी आई तो उन की डगमगाती जीवन नैया की पतवार को संभालने वाला कोई नजर नहीं आता था. सोचतेसोचते दीनप्रभु को अपने अतीत के दिन याद आने लगे.

भारत में वह दिल्ली के सदर बाजार के निवासी थे. पिताजी स्कृल में प्रधानाचार्य थे. वह अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़े थे. परिवार की आर्थिक स्थिति संभालने का जरिया नौकरी के अलावा सदर बाजार की वह दुकान थी जिस पर लोहा, सीमेंट आदि सामान बेचा जाता था. इस दुकान को उन के पिता, वह और उन के दूसरे भाई बारीबारी से बैठ कर चलाया करते थे.

संयुक्त परिवार था तो सबकुछ सामान्य और ठीक चल रहा था मगर जब भाइयों की पत्नियां घर में आईं और बंटवारा हुआ तो सब से पहले दुकान के हिस्से हुए, फिर घर बांटा गया और फिर बाद में सब अपनेअपने किनारे होने लगे.

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इस बंटवारे का प्रभाव ऐसा पड़ा कि बंटी हुई दुकान में भी घाटा होने लगा. एकएक कर दुकानें बंद हो गईं. परिवार में टूटन और बिखराव के साथ अभावों के दिन दिखाई देने लगे तो दीनप्रभु के मातापिता ने भी अपनी आंखें सदा के लिए बंद कर लीं. अभी उन के मातापिता के मरने का दुख समाप्त भी नहीं हुआ था कि एक दिन उन की पत्नी अचानक दिल के दौरे से निसंतान ही चल बसीं. दीनप्रभु अकेले रह गए. किसी प्रकार स्वयं को समझाया और जीवन के संघर्षों के लिए खुद को तैयार किया.

दीनप्रभु के सामने अब अपनी दोनों सब से छोटी बहनों की पढ़ाई और फिर उन की शादियों का उत्तरदायित्व आ गया. उन्हें यह भी पता था कि उन के भाई इस लायक नहीं कि वे कुछ भी आर्थिक सहायता कर सकें. इन्हीं दिनों दीनप्रभु को स्कूल की तरफ से अमेरिका आने का अवसर मिला तो वह यहां चले आए.

अमेरिका में रहते हुए ही दीनप्रभु ने यह सोच लिया कि अगर वह कुछ दिन और इस देश में रह गए तो इतना धन कमा लेंगे जिस से बहनों की न केवल शादी कर सकेंगे बल्कि अपने परिवार की गरीबी भी दूर करने में सफल हो जाएंगे.

अमेरिका में बसने का केवल एक ही सरल उपाय था कि वह यहीं की किसी स्त्री से विवाह करें और फिर यह शार्र्टकट रास्ता उन्हें सब से आसान और बेहतर लगा. अपनी सोच को अंजाम देने के लिए दीनप्रभु अमेरिकन लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन देखने  लगे. इत्तफाक से उन की बात एक लड़की के साथ बन गई. वह थी तो  तलाकशुदा पर उम्र में दीनप्रभु के बराबर ही थी. इस शादी का एक कारण यह भी था कि लड़की के परिवार वालों की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह किसी भारतीय युवक से करना चाहते थे, क्योंकि उन की धारणा थी कि पारिवारिक जीवन के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला हुआ युवक अधिक विश्वासी और अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार होता है.

एक दिन दीनप्रभु का विवाह हो गया और तब उन की दूसरी पत्नी लौली उन के जीवन में आ गई. विवाह के बाद शुरू के दिन तो दोनों को एकदूसरे को समझने में ही गुजर गए. यद्यपि लौली उन की पत्नी थी मगर हरेक बात में सदा ही उन से आगे रहा करती, क्योेंकि वह अमेरिकी जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी. दीनप्रभु वहां कुछ सालों से रह जरूर रहे थे पर वहां के माहौल से वह इतने अनुभवी नहीं थे कि अपनेआप को वहां की जीवनशैली का अभ्यस्त बना लेते. उन की दशा यह थी कि जब भी कोई फोन आता था तो केवल अंगरेजी की समस्या के चलते वे उसे उठाते हुए भी डरते थे. शायद उन की पत्नी लौली इस कमजोरी को समझती थी, इसी कारण वह हर बात में उन से आगे रहा करती थी.

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दीनप्रभु शुरू से ही सदाचारी थे. इसलिए अपनी विदेशी पत्नी के साथ निभा भी गए लेकिन विवाह के बाद उन्हें यह जान कर दुख हुआ था कि उन की पत्नी के परिवार के लोग अपने को सनातन धर्म का अनुयायी बताते थे पर उन का सारा चलन ईसाइयत की पृष्ठभूमि लिए हुए था. अपने सभी काम वे लोग अमेरिकियों की तरह ही करते थे. उन के लिए दीवाली, होली, क्रिसमस और ईस्टर में कोई भी फर्क नहीं दिखाई देता था. लौली के परिवार वाले तो इस कदर विदेशी रहनसहन में रच गए थे कि यदि कभीकभार कोई एक भी शनिवार बगैर पार्टी के निकल जाता था तो उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे जीवन का कोई बहुत ही विशेष काम वह करने से भूल गए हैं.

Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 2

दीनप्रभु अभावों के जीवन के भुक्तभोगी थे इसलिए वह हाथ लगे इस अवसर को खोना नहीं चाहते थे और सबकुछ जानते और देखते हुए भी वह अपने परिवार के साथ तालमेल बनाए रहे. अमेरिका में आ कर उन्होेंने आगे और पढ़ाई की. फिर बाकायदा विदेश में पढ़ाने का लाइसेंस लिया और फिर वह बच्चों के स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए.

परिश्रम से दीनप्रभु ने कभी मुंह नहीं मोड़ा. अपनी नौकरी से उन्होंने थोड़ा बहुत पैसा जमा किया और फिर एक दिन उस पैसे से एक छोटा सा ‘फ्रैंचाइज’ रेस्टोरेंट खोल लिया. फिर उन की मेहनत और लगन रंग लाई. रेस्टोरेंट चल निकला और वह थोड़े समय में ही सुखसंपदा से भर गए. पैसा आया तो दीनप्रभु ने दूसरे धंधे भी खोल लिए और फिर एक दिन उन्होंने प्रयास कर के अमेरिकी नागरिकता भी ले ली. फिर तो उन्होंने एकएक कर अपने भाईबहनों के परिवार को भी अमेरिका बुला लिया. अपने परिवार के लोगों को अमेरिका बुलाने से पहले दीनप्रभु ने सोचा था कि जब कभी विदेश में रहते हुए उन्हें अकेलापन महसूस होगा तो वे 2-1 दिन के लिए अपने भाइयों के घर चले जाया करेंगे.

अब तक दीनप्रभु 3 रेस्टोरेंट और 2 गैस स्टेशन के मालिक बन चुके थे. रेस्टोरेंट को वह और उन की पत्नी संभालते थे और दोनों गैस स्टेशनों का भार उन्होंने अपने दोनों बच्चों पर डाल रखा था. खानपान में उन के यहां पहले ही कोई रीतिरिवाज नहीं था और न ही अब है लेकिन फिर भी दीनप्रभु किसी न किसी तरह अपने भारतीय संस्कारों को बचाए रखने की कोशिश कर रहे थे. जबकि उन की पत्नी बड़े मजे से हर तरह का अमेरिकी शाकाहारी व मांसाहारी भोजन खाती थी. पार्टियों में वह धड़ल्ले से शराब पीती और दूसरे युवकों के साथ डांस भी कर लेती थी.

दीनप्रभु जब भी ऐसा देखते तो यही सोच कर तसल्ली कर लेते कि इनसान को दोनोें हाथों में लड्डू कभी भी नहीं मिला करते हैं. यदि उन को विदेशी जीवन की अभ्यस्त पत्नी मिली है तो उस के साथ उन्हें वह सुख और सम्पन्नता भी प्राप्त हुई है कि जिस के बारे में वह प्राय: ही सोचा करते थे.

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विवाह के 25 साल  पलक झपकते गुजर गए. इस बीच संतान के नाम पर उन के यहां एक लड़का और एक लड़की भी आ चुके थे. उन्हें याद है कि जब लौली ने पहली संतान को जन्म दिया था तो उन्होंने कितने उल्लास के साथ उस का नाम हरिशंकर रखा था मगर लौली ने बाद में उस का नाम हरिशंकर से हैरीसन करवा दिया. ऐसा ही दूसरी संतान लड़की के साथ भी हुआ. उन्होंने लड़की का भारतीय नाम पल्लवी रखा था मगर लौली ने पल्लवी को पौलीन बना दिया. लौली का कहना था कि अमेरिकन को हिंदी नाम लेने में कठिनाई आती है. उस समय लौली ने यह भी बताया था कि उस ने भी अपना लीला नाम बदल कर लौली किया था.

लौली की सोच है कि जब जीवन विदेशी संस्कृति में रह कर ही गुजारना है तो वह कहां तक अपने देश की सामाजिक मान्यताओं को बचा कर रख सकती है और दीनप्रभु अपनी पत्नी की इस सोच से सहमत नहीं थे. उन का मानना था कि ठीक है विदेश में रहते हुए खानपान और रहनसहन के हिसाब से हर प्रवासी को समझौता करना पड़ता है लेकिन इन दोनों बातों में अपने देश की उस संस्कृति और संस्कारों की बलि नहीं चढ़ती है कि जिस में एक छोटा भाई अपनी बड़ी बहन को ‘दीदी’, बड़े भाई को ‘भैया’ और अपने से बड़ों को ‘आप’ कह कर बुलाता है. यहां विदेश में ऐसा कोई भी रिवाज या सम्मान नाम की वस्तु नहीं है. यहां चाहे कोई दूसरों से छोटा हो या बड़ा, हर कोई एकदूसरे का नाम ले कर ही बात करता है और जब ऐसा है तो फिर एकदूसरे के सम्मान की तो बात ही नहीं रह सकती है.

एक दिन पौलीन अपने किसी अमेरिकन मित्र को ले कर घर आई और अपने कमरे को बंद कर के उस के साथ घंटों बैठी बातें करती रही तो भारतीय संस्कारों में भीगे दीनप्रभु का मन भीग गया. वह यह सब अपनी आंखों से नहीं देख सके. बेचैनी बढ़ी तो उन्होंने पौलीन से आखिर पूछ ही लिया.

‘कौन है यह लड़का?’

‘डैड, यह मेरा बौय फ्रेंड है,’ पौलीन ने बिना किसी झिझक के उत्तर दिया.

दीनप्रभु जैसे सकते में आ गए. वह कुछ पलों तक गंभीर बने रहे फिर बोले, ‘तुम इस से शादी करोगी?’

उन की इस बात पर पौलीन अपने माथे पर ढेर सारे बल डालती हुई बोली, ‘आई एम नाट श्योर.’ (मैं ठीक से नहीं कह सकती.)

पल्लवी ने कहा तो दीनप्रभु और भी अधिक आश्चर्य में पड़ गए. उन्हें यह सोचते देर नहीं लगी कि उन की लड़की का इस लड़के से यह कैसा रिश्ता है जिसे मित्रता भी नहीं कह सकते हैं और विवाह से पहले होने वाले 2 प्रेमियों के प्रेम की संज्ञा भी उसे नहीं दी जा सकती है. पौलीन अकसर इस लड़के के साथ घूमतीफिरती है. जहां चाहती है, बेधड़क उस के साथ चली जाती है. कई बार रात में भी घर नहीं आती है, उस के बावजूद वह यह नहीं जानती कि इस लड़के से विवाह भी करेगी या नहीं.

काफी देर तक गंभीर बने रहने के बाद दीनप्रभु ने पौलीन से कहा, ‘क्या तुम बता सकती हो कि बौय फ्रेंड और पति में क्या अंतर होता है?’

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‘कोई विशेष नहीं डैड. दोनों ही एकजैसे होते हैं. अंतर है तो केवल इतना कि बौय फ्रेंड की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है जबकि पति की बाकायदा अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति एक ऐसा उत्तरदायित्व होता है जिसे उसे पूरा करना ही होता है.’

अतीत की यादें दिमाग में तभी साकार रूप लेती हैं जब कुछ मिलतीजुलती घटनाएं सामने घटित हों. विवाह के बारे में बेटी का नजरिया जान कर उन्हें अपनी बहनों की शादी की याद आ गई. दीनप्रभु ने अपनी मर्जी से कभी अपनी दोनों छोटी बहनों के लिए वर चुने थे और दोनों में से किसी ने भी चूं तक न की थी. मगर आज घर में उन की स्थिति यह है कि अपनी ही बेटी के जीवनसाथी के चुनाव के बारे में जबान तक नहीं खोल सकते हैं.

दीनप्रभु को शिद्दत के साथ एहसास हुआ कि नए समाज का जो यह नया धरातल है उस पर उस के जैसा सदाचारी, सरल स्वभाव का इनसान एक पल को भी खड़ा नहीं हो सकता है. जिंदगी के सुव्यवस्थित आयाम यदि बाहरी दबाव के कारण बदलने लगें तो इनसान एक बार को सहन कर लेता है लेकिन जब अपने ही लोग खुद के बनाए हुए रहनसहन के दायरों को तोड़ने लगें तो जीवन में एक झटका तो लगता ही है साथ ही इनसान अपनी विवशता के लिए हाथ भी मलने को मजबूर हो जाता है.

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दीनप्रभु जानते थे कि अपने द्वारा बनाए उस माहौल में रहने को वह मजबूर हैं जिस की एक भी बात उन को रास नहीं आती. वह यह भी समझते थे कि यदि उन्होंने कोई भी कड़ा कदम उठाने की चेष्टा की तो जो घर बनाया है उसे बरबादियों का ढांचा बनते देर भी नहीं लगेगी. जिस देश और समाज में वह रह रहे हैं उस की मान्यताओं को स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा. जिस देश का चलन यह कहे कि ‘ये मेरा अपना जीवन है, आप कुछ भी नहीं कह सकते हैं’ और ‘अब मैं 21 वर्ष का बालिग हो चुका हूं,’ वहां पर बच्चों को जन्म देने वाले मातापिता का नाम केवल इस कारण चलता है क्योंकि बच्चे को जन्म देने वाले कोई न कोई मातापिता ही तो होते हैं.

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