Hindi Family Story: अक्ल वाली दाढ़ – कयामत बन कर कैसे आई दाढ़

Hindi Family Story: हमबचपन से सुनतेसुनते तंग आ चुके थे कि तुम्हें तो बिलकुल भी अक्ल नहीं है. एक दिन जब हम इस बात से चिढ़ कर रोंआसे से हो गए तो हमारी बूआजी ने हमें बड़े प्यार से समझाया, ‘‘बिटिया, अभी तुम छोटी हो पर जब तुम बड़ी हो जाओगी तब तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आएगी और तब तुम से कोई यह न कहेगा कि तुम में अक्ल नहीं है.’’ बूआ की बातें सुन कर हमारे चेहरे पर मुसकान आ गई और हम रोना भूल कर खेलने चले गए. अब हम पूरी तरह आश्वस्त थे कि एक न एक दिन हमें भी अक्ल आ ही जाएगी और देखते ही देखते हम बड़े हो गए और इंतजार करने लगे कि अब तो जल्द ही हमें अक्ल वाली दाढ़ आ जाएगी. इस बीच हमारी शादी भी हो गई.

अब ससुराल में भी वही ताने सुनने को मिलते कि तुम्हें तो जरा भी अक्ल नहीं. मां ने कुछ सिखाया नहीं. यही सब सुनतेसुनते वक्त बीतता चला गया पर अक्ल वाली दाढ़ को न आना था न वह आई. अब जब 40वां साल भी पार कर लिया तो हम ने उम्मीद ही छोड़ दी पर एक दिन हमारी चबाने वाली दाढ़ में बहुत तेज दर्द उठा. यह दर्द इतना बेदर्द था कि इस की वजह से हमारे गाल, कान यहां तक कि सिर भी दुखने लगा. हम दर्द से बेहाल गाल पर हाथ धरे आह उह करते फिर रहे थे. जिस ने भी हमारे दांत के दर्द के बारे में सुना उस ने यही कहा, ‘‘अरे, तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आ रही होगी. तभी इतना दर्द हो रहा है.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो देर से ही सही पर अब हमें भी अक्ल आ ही जाएगी. पर जब हमारा दर्द के मारे बुरा हाल हुआ तो हम ने सोचा इस से हम बिना अक्ल के ही ठीक थे. डैंटिस्ट के पास गए तो उन्होंने बताया आप की अंतिम वाली दाढ़ कैविटी की वजह से सड़ चुकी है. उसे निकालना होगा. तब हम ने जिज्ञासावश पूछ लिया, ‘‘क्या यह हमारी अक्ल वाली दाढ़ थी?’’

हमारे इस सवाल पर डैंटिस्ट महोदय मुसकराते हुए बोले, ‘‘जी मैम, यह आप की अक्ल वाली दाढ़ ही थी.’’ अब बताइए देर से आई और कब आई यह हमें पता ही नहीं चला और सड़ भी गई. दर्द बरदाश्त करने से तो अच्छा यही था कि हम उसे निकलवा ही दें. डैंटिस्ट ने तीसरे दिन बुलाया था सो हम तीसरे दिन दाढ़ निकलवाने वहां पहुंच गए. वहां दांत के दर्द से पीडि़त और लोग भी बैठे थे, जिन में एक छोटी सी 5 साल की बच्ची भी थी. उस के सामने वाले दूध के दांत में कैविटी थी. वह भी उस दांत को निकलवाने आई थी. हम ने उस से उस का नाम पूछा तो वह कुछ नहीं बोली. बस अपना मुंह थामे बैठी रही.

उस की मम्मी ने बताया कि 3 दिन से दर्द से बेहाल है. पहले तो दांत निकलवाने को तैयार नहीं थी पर जब दर्द ज्यादा होने लगा तो बोली चलो दांत निकलवाने. हमारा नंबर उस बच्ची के पीछे ही था. पहले उसे बुलाया गया और सुन्न करने वाला इंजैक्शन लगाया गया, जिस से उस के पूरे मुंह में सूजन आ गई. अब हमारी बारी थी. वैसे आप को बता दें हम देखने में हट्टेकट्टे जरूर हैं पर हमारा दिल एकदम चूहे जैसा है. खैर, हमें भी इंजैक्शन लगा और 10 मिनट बाद आने को कहा गया. हम मुंह पकड़े वहीं सोफे पर ढेर हो गए.

अभी हमें चकराते हुए 10 मिनट ही बीते थे कि हमें फिर अंदर बुलाया गया और निकाल दी गई हमारी अक्ल वाली दाढ़. जब दाढ़ निकाली तो हमें दर्द का एहसास नहीं हुआ पर डैंटिस्ट ने एक रुई का फाहा हमारी निकली हुई दाढ़ वाली खाली जगह लगा दिया. उस पर लगी दवा का स्वाद इतना गंदा था कि हम ने वहीं उलटी कर दी. इस पर हमें नर्स ने खा जाने वाली नजरों से देखा तो हम गाल पकड़े बाहर आ गए. हमारा छोटा बेटा जो हमारे साथ ही था ने बताया कि डैंटिस्ट अंकल ने कहा है कि 1 घंटे तक रुई नहीं निकालनी है. बड़ी मुश्किल से यह वक्त बीता और फिर हमें आइस्क्रीम खाने को मिली. एक तरफ से सूजे हुए मुंह से आइस्क्रीम खाते हुए हम बड़े फनी से लग रहे थे. बच्चे हमारी मुद्राएं देखदेख कर हंसे जा रहे थे. अब हम ने जो दर्द सहा सो सहा पर यह तो हमारे साथ बड़ी नाइंसाफी हुई न कि जिस अक्ल दाढ़ का सालों इंतजार किया वह आई भी तो कैसी. जो भी हो हम तो आखिर रह गए न वही कमअक्ल के कमअक्ल. Hindi Family Story

Hindi Family Story: मैं सुहागिन हूं – क्यों पति की मौत के बाद भी सुहागन रही वो

Hindi Family Story: जटपुर गांव के चौधरी देशराज के 5 बेटे बेगराज, लेखराज, यशराज, मोहनराज और धनराज और 4 बेटियां कमला, विमला, सुफला और निर्मला हुईं. भरापूरा परिवार, लंबीचौड़ी खेतीबारी और चौधरी देशराज का दबदबा. दालान पर बैठते तो किसी महाराजा की तरह. बड़े चौधरियों की तरह हुक्के की चिलम कभी बुझने का नाम न ले. दालान पर 4 चारपाई और दर्जनभर मूढ़े उन की चौधराहट की शान बढ़ाते थे. शाम को दालान का नजारा किसी पंचायत का सा होता था.

चौधरी देशराज ने सब से छोटे बेटे धनराज को छोड़ कर अपने सभी बेटे और बेटियों की शादी बड़ी धूमधाम से की थी. चौधरी देशराज का उसूल था कि बेटियों की शादियां बड़े चौधरियों में करो, तो वे अपने से बड़ा घराना पा कर खुश रहेंगी और अपने पिता व किस्मत पर फख्र करेंगी. बहुएं हमेशा छोटे चौधरियों की लाओ तो वे कहने में रहेंगी और बेटों का अपनी ससुरालों में दबदबा बना रहेगा.

सब से छोटे बेटे धनराज के कुंआरे रहने की कोई खास वजह नहीं थी. कितने ही चौधरी अपनी बहनबेटियों के रिश्ते धनराज के लिए ले कर आ चुके थे, लेकिन देशराज सदियों से चली आ रही गांव की ‘पांचाली प्रथा’ के मकड़जाल में फंसे हुए थे.

गांव की परंपरा के मुताबिक, वे चाहते थे कि धनराज अपने किसी बड़े भाई के साथ सांझा कर ले, जिस से जोत के 4 ही हिस्से हों, 5 नहीं. गांव के अनेक परिवार अपनी जोत के छोटा होने से इसी तरह बचाते चले आ रहे थे.

धनराज के बड़े भाइयों ने भी यही कोशिश की, लेकिन धनराज की अपनी किसी भाभी से नहीं पटी. हालांकि ‘पांचाली प्रथा’ के मुताबिक भाभियों ने धनराज पर अपनेअपने हिसाब से डोरे डाले, लेकिन धनराज कभी भाभियों के चंगुल में फंसा ही नहीं.

अब देशराज के सामने धनराज की शादी करने का दबाव था, क्योंकि बड़े बेटे बेगराज का बड़ा बेटा प्रताप भी शादी के लायक हो गया था.

असल में जब धनराज पैदा हुआ था, उस के कुछ दिनों बाद ही प्रताप का जन्म हुआ था. चाचाभतीजे के आगेपीछे जन्म लेने पर देशराज की बड़ी जगहंसाई हुई थी.

गांव के हमउम्र लोग मजाक ही मजाक में कह देते थे, ‘चौधरी साहब, अब तो होश धरो. हुक्के की गरमी ने आप के अंदर की गरमी बढ़ा रखी है, लेकिन उम्र का तो खयाल करो.’

इस के बाद चौधरी देशराज ने बच्चे पैदा करने पर रोक लगा दी. दादा बनने के बाद अपने बरताव में बदलाव लाए और दूसरी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ा लिया.

बेगराज ने अपने बड़े बेटे का नाम प्रताप जरूर रखा था, लेकिन प्रताप का मन पढ़ाईलिखाई, खेतीबारी में कम लगता था, मौजमस्ती में ज्यादा था. दिनभर खुले सांड़ की तरह प्रताप गांवभर में घूमताफिरता. उस के इस बरताव को देख कर गांव वालों ने उस का दूसरा नाम ‘सांड़ू’ ही रख दिया.

बड़ा परिवार होने के नाते घर में काम तो बहुत थे, लेकिन प्रताप ने न तो उन में कभी कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कोई जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने की कोशिश की. इस वजह से बेगराज उस की जल्दी से जल्दी शादी कर के परिवार का जिम्मेदार सदस्य बनाना चाहता था.

गांव से उस की शिकायतें कोई न कोई ले कर आता रहता था. इस से भी बेगराज परेशान था. लेकिन पहले धनराज की शादी हो, तब वे प्रताप की शादी के बारे में सोचें.

देशराज ने जल्दी ही इस समस्या का हल निकाल दिया. धनराज की शादी पास के ही गांव जगतपुर के चौधरी शक्ति सिंह की बेटी सविता के साथ हुई.

धनराज और सविता सुखभरी जिंदगी गुजारने लगे. धनराज के हिस्से में जो जमीन आई, उस में वह जीतोड़ मेहनत करने लगा. सविता भी उस का खूब साथ निभाने लगी.

धनराज खेतों में बैल बना खूब पसीना बहाता. उस की कोशिश थी कि वह भी जल्दी से जल्दी अपने भाइयों के लैवल पर पहुंच जाए.

इस जद्दोजेहद में वह भूल गया कि उस के घर में छुट्टे सांड़ प्रताप ने घुसपैठ शुरू कर दी है. वह छुट्टा सांड़ कब उस की गाय सविता के पीछे लग गया, उसे पता ही नहीं चला. गांव में भी एक खुला सांड़ था, जो इस और उस के खेत में मुंह मारता फिरता था.

धनराज की शादी में आया दहेज का सामान अभी नया था. प्रताप कभी गाने सुनने के बहाने और कभी फिल्म देखने के बहाने दहेज में आई नई एलईडी पर कार्यक्रम देखने के बहाने धनराज के कमरे में आ धमकता था.

सविता नईनवेली दुलहन थी, इसलिए वह कुछ कह पाने में हिचक रही थी. कोई और भी प्रताप को नहीं टोकता था. धनराज का वह हमउम्र भी था और बचपन का साथी था, इसलिए धनराज को भी कोई एतराज नहीं था.

सविता भी इस की आदी हो गई. उस ने सोचा कि जब किसी को प्रताप के इस बरताव से कोई एतराज नहीं तो वही क्यों प्रताप पर एतराज करे. सविता और प्रताप धीमेधीमे आपस में बातचीत भी करने लगे. अगर सविता प्रताप से कभी किसी बात को कहती तो प्रताप उसे कभी न टालता.

धीरेधीरे दोनों की दोस्ती बढ़ने लगी. प्रताप पहले से ज्यादा समय सविता के कमरे में गुजारने लगा. आग और घी का यह रिश्ता धीरेधीरे चाचीभतीजे के रिश्ते को पिघलाने लगा. हवस की आंधी में एक दिन यह रिश्ता पूरी तरह से उड़ गया.

जब तक सविता और प्रताप के इस नए रिश्ते का एहसास धनराज और परिवार के दूसरे सदस्यों को होता, तब तक बात बहुत आगे तक बढ़ गई थी.

धनराज और परिवार के दूसरे लोगों ने सविता और प्रताप पर रोक लगाने की कोशिश की, तो उन दोनों ने दूसरे तरीके ढूंढ़ लिए. हर कोई तो 24 घंटे चौकीदार बन कर घूम नहीं सकता. दोनों का मिलन कभी खेतों में तो कभी खलिहानों में, कभी गौशाला में तो कभी बिटौड़ों के पीछे होने लगा. गांव के खुले सांड़ को भी कहीं भी आनेजाने की आजादी थी.

देशराज तजरबेकार थे. वे जानते थे कि एक खुला सांड़ किसी औरत के लिए सब से अच्छा प्रेमी होता है. उस के पास अपनी प्रेमिका के लिए वह अनमोल वक्त होता है, जो किसी कामकाजी बैल के पास कभी नहीं हो सकता है. यही वजह है कि ज्यादातर लड़कियों के प्रेमी आवारा और लफंगे होते हैं. सांड़ के पास यहांवहां मुंह मारने के लिए बहुत सा खाली वक्त होता है, जबकि कामकाजी बैल की गरदन हमेशा काम के तले दबी रहती है.

देशराज ने एक दिन बेगराज को बुला कर कहा, ‘‘बेगराज, अपने प्रताप को संभाल ले. इसे कामधंधे में लगा, नहीं तो जो आग घर में सुलग रही है, पूरे परिवार को ले डूबेगी. भविष्य में इस घर में कोई रिश्ता नहीं आएगा. आगे की सोच, प्रताप घर को आग लगा रहा है.’’

‘‘बाबूजी, मैं ने कितनी ही कोशिश कर ली, लेकिन लगता है ऐसे बात बनने वाली नहीं.’’

‘‘बेगराज, पहले समझाबुझा. बात न बने तो सख्ती से परहेज मत करना. नहीं तो तेरा प्रताप पूरे परिवार का सत्यानाश कर देगा. पहले ही गांव में काफी फजीहत हो चुकी है. कैसे भी कर, प्रताप पर लगाम लगा.’’

‘‘जी बाबूजी.’’

उधर धनराज ने सविता को हर तरह से समझा लिया. लेकिन हर बात पर वह धनराज की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाती या चुप्पी साध जाती. धनराज के सामने वह ऐसी नौटंकी करती, जैसे वह इस दुनिया में धनराज के लिए ही आई है और बाकी सब बातें बेसिरपैर की हैं. लेकिन धनराज के घर से बाहर कदम रखते ही वह गिरगिट की तरह रंग बदलती.

धनराज और परिवार के लोग जितना सविता और प्रताप को समझाते, उन की इश्क की आग उतनी ही ज्यादा भड़कती. समझानेबुझाने की सीमा जब पार हो गई, तो बेगराज और लेखराज ने एक दिन प्रताप को कमरे में बंद कर के जम कर तुड़ाई की, तो सविता ने उस के घावों पर अपनी मुहब्बत का मरहम लगा दिया. यही हाल एक दिन धनराज ने सविता का किया, तो प्रताप ने उस के घावों पर अपनी मुहब्बत के फूल बरसा दिए.

धनराज ने सविता को घर छोड़ने से ले कर तलाक देने तक की धमकियां दे डालीं, लेकिन सविता के सिर चढ़ा इश्क का भूत उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.

एक दिन धनराज घर में रखी पुराने समय की तलवार उठा लाया और गुस्से में नंगी तलवार से सविता की ‘बोटीबोटी’ काट डालने की धमकी देने लगा, तो सविता ने नंगी तलवार के आगे गरदन करते हुए कहा, ‘‘काटो. पहले मेरी गरदन काटो, फिर मेरे शरीर की बोटीबोटी काट डालो. लेकिन, यह याद रखना, मेरे मरने के बाद इस घर में तबाही मचेगी, कलह मचेगा, मौत नाचेगी, किसी को जरा सा भी चैन न मिलेगा.’’

‘‘बदजात…’’ कह कर जैसे ही धनराज ने तलवार प्रहार के लिए उठाई, परिवार के लोगों ने उसे किसी तरह रोका. इस आपाधापी में यशराज और उस की घरवाली तलवार से घायल हो गए.

लेकिन सविता लाख गालियां खा कर भी टस से मस न हुई. इश्क की ताकत का भी उसे अब एहसास हुआ कि इतना सबकुछ होने पर भी उस पर किसी बात का कोई असर क्यों नहीं हो रहा है. वह चाहे तो एक पल में सबकुछ ठीक कर सकती है, लेकिन इश्क की गुलामी उसे कुछ करने दे तब न.

इन सब बातों से धनराज की गांव में इतनी जगहंसाई हो रही थी कि उस का गांव में निकलना दूभर हो गया था. उसे हर कोई ऐसा लगता था मानो वह सविता और प्रताप की ही मुहब्बत की बातें कर रहा हो.

धनराज की यह हालत हो गई कि न तो वह किसी के पास जाता था और न ही किसी को अपने पास बुलाता था. दुनिया से उस का मन उचटने लगा था. न तो उसे अच्छे कपड़े पहनना सुहाता था और न ही फैशन करना. अच्छा खाना तो उसे जहर की तरह लगता था.

उस का शरीर सूख कर कांटा होता जा रहा था. घर उसे खाने को दौड़ता था, इसलिए वह अपना ज्यादातर समय खेतों में गुजारता था. कोई उस को समझाने की कोशिश करता, तो उस को ऐसा लगता जैसे वह उस के जले पर नमक छिड़क रहा हो. परिवार के लोगों से भी वह कटाकटा सा रहने लगा था.

खेतीबारी के काम में भी उस का मन अब बिलकुल नहीं लगता था. गांव में जो एक खुला सांड़ था पहले वह उस के खेत में घुसता था तो उसे डंडा मार कर भगाता और अपनी फसल को बचाता, लेकिन अब वह उस सांड़ को फसल चरने देता और बैठाबैठा उसे देखता रहता.

धनराज बड़ी उलझन में था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे. हताशा और निराशा ने उसे चारों तरफ से घेर लिया था. उस ने सुना था कि आदमी को अपने कर्मों की सजा भुगतनी पड़ती है.

काफी सोचने के बाद भी उसे यह समझ में नहीं आया कि आखिर उस ने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया था, जिस की उसे इतनी बड़ी सजा मिली?है.

फिर उसे खेत में बैठेबैठे ध्यान में आया कि सारी समस्या की जड़ सविता ही है, तो फिर क्यों न उसे ही रास्ते से हटा दिया जाए. आज रात को उसे खाने में धतूरे के बीज पीस कर खिला दूं तो सारे खटराग की जड़ ही खत्म.

वह इसी मंशा के साथ खलिहान में गया, जहां बहुत सारे धतूरे के पौधे थे. वहां से वह बहुत सारे धतूरे के बीज ले आया. एक पेड़ की छाया में बैठ कर धनराज उन्हें पीसने लगा.

धतूरे के बीज पीसते हुए उसे खयाल आया कि सविता को रास्ते से हटा कर क्या वह चैन की बंसी बजा सकेगा? क्या इस के बाद उस की नाक ऊंची हो जाएगी? लोग क्या उसे इज्जत की नजर से देखने लगेंगे? प्रताप के सामने क्या वह सिर उठा सकेगा?

इन सवालों ने उस के दिमाग में घमासान मचा दिया. सचाई पता चलने पर लोग उसे पत्नी का हत्यारा भी बताएंगे. फिर कौन औरत उस से शादी करेगी? वह अपने भाइयों और भाभियों पर बोझ बन जाएगा. इस से अच्छा तो यह है कि वह अपनी ही जान दे दे. कितना आसान तरीका है इन सभी मुसीबतों से छुटकारा पाने का.

यह इनसान की फितरत होती है कि वह हमेशा हर समस्या के आसान उपाय ढूंढ़ता है. धनराज ने भी यही किया. पिसे हुए धतूरे के बीज उस ने खुद फांक लिए, लेकिन तुरंत कुछ नहीं हुआ. इस से धनराज की परेशानी और बढ़ गई. वह मरने का इंतजार देर तक नहीं कर सकता था. उस ने आम के एक ऊंचे पेड़ में रस्सी लटकाई, फांसी का फंदा बनाया और उस पर झूल गया.

धनराज को किसी ने फांसी के फंदे पर झूलता देखा, तो गांव में जा कर शोर मचा दिया. ग्राम प्रधान ने हकीकत जानने पर पुलिस को सूचना दी और गांव वालों को चेतावनी दी कि पुलिस के आने तक कोई भी उस पेड़ के पास न फटके, जहां धनराज फांसी के फंदे पर लटका पड़ा है.

आननफानन ही पुलिस की जीप आ गई. धनराज की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दिया गया.

इस बीच देशराज के परिवार पर पुलिस ने अपनी हनक दिखानी शुरू की. महक सिंह के बीच में पड़ने से 2 लाख रुपए में मामला तय हो गया, नहीं तो पुलिस को खुदकुशी का केस हत्या में बदलने में कितनी देर लगती.

दोपहर के बाद धनराज के अंतिम संस्कार के लिए पुलिस ने परिवार के सुपुर्द कर दिया. पूरा गांव देशराज के घर पर इकट्ठा हो गया. शाम ढलने को थी इसलिए शव को गंगाघाट पर ले जाने की जल्दी थी.

परिवार की औरतें सविता को ले कर अंतिम दर्शनार्थ धनराज के शव के पास ले कर पहुंची, तो भीड़ में हलचल पैदा हो गई. शव के पास जब घर की औरतों ने सविता की कलाई की चूड़ी तोड़ने और बिछुवे उतारने की कोशिश की, तो उस ने अपनी कलाई छुड़ाते हुए चीख कर कहा, ‘‘मुझ से नहीं होगा यह सब पाखंड. जब तक प्रताप जिंदा है, मैं सुहागिन हूं. यह बात मैं नहीं कह रही सारा गांव जानता है. न मैं अपनी मांग का सिंदूर मिटाऊंगी, न चूडि़यां तुड़वा कर अपनी कलाई नंगी करूंगी और न ही बिछुवे उतारूंगी.

‘‘प्रताप जिंदा है, तो मैं सधवा हूं, विधवा नहीं. धनराज तो मुझे मंझधार में छोड़ कर चला गया. अब प्रताप ही मेरा सहारा है.’’

सविता की बात सुन कर भीड़ ने अपनेअपने तरीके से खुसुरफुसुर की, लेकिन किसी औरत के ऐसे तेवर उन्होंने पहली बार देखे थे. दुख की इस घड़ी में कोई अड़चन नहीं डालना चाहता था.

सविता के विरोध में कुछ आवाजें उठीं, तो उन्हें समझदारी से दबा दिया गया. धनराज का शव चार कंधों पर उठा तो सब की आंखें गमगीन हो गईं. गांव में कौन ऐसा था, जो धनराज की शवयात्रा में न रोया हो.

तेरहवीं और शोक के दिन गुजरने के बाद सविता और प्रताप ने कोर्टमैरिज कर ली. सविता और प्रताप गांव की अपनी जमीनजायदाद बेच कर दूर के किसी गांव में जा बसे.

सविता प्रताप के साथ वहां रहने लगी. उन के जाने के बाद गांव वालों ने राहत की सांस ली. गांव का खुला सांड़ अब बैल बन के रह गया था. Hindi Family Story

Story In Hindi: एहसान – रुक्मिणी ने कैसे किया गोविंद पर एहसान

Story In Hindi: अंधेरा हो चला था. रुक्मिणी ने सब से पहले तो बैलगाड़ी जोती और अनाज के 2 बोरे गाड़ी में रख अपने गांव की तरफ चल दी. अंधेरे को देखते हुए रुक्मिणी ने लालटेन जला कर लटका ली थी. इस बार फसल थोड़ी अच्छी हो गई थी, इसलिए वह खुश थी.

खेत से निकल कर रुक्मिणी की गाड़ी रास्ते पर आ गई थी. अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि उसे पेड़ से टकराई हुई मोटरसाइकिल दिखी. उस को चलाने वाला वहीं खून से लथपथ पड़ा था.

रुक्मिणी ने गाड़ी रोकी और लालटेन निकाल कर उस के चेहरे के पास ले गई. उस आदमी की नब्ज टटोली, जो अभी चल रही थी. इस के बाद उस का चेहरा देख कर एक पल के लिए तो रुक्मिणी का भी सिर घूम गया. वह सरपंच का बेटा मंगल सिंह था.

मंगल सिंह को देख कर रुक्मिणी का एक बार मन हुआ कि उसे ऐसा ही छोड़ कर आगे बढ़ जाए, लेकिन आखिर वह भी एक औरत थी और न चाहते हुए भी उस ने गाड़ी के सामान को एक तरफ किया और फिर मंगल सिंह को उठा

कर गाड़ी में डाल लिया. वह चाहती थी कि जल्दी से जल्दी मंगल सिंह को वह सरपंच के हवाले कर दे. इसी के साथ पुरानी यादों ने रुक्मिणी के जख्म को ताजा कर दिया.

सीतापुर गांव में रामलाल अपने छोटे से परिवार के साथ रहता था. उस के पास छोटा सा खेत था, इसी के साथ उस की पत्नी त्रिवेणी सरपंच गोविंद सिंह के यहां झाड़ूपोंछे का काम करती थी. त्रिवेणी के साथ उस की बेटी रुक्मिणी भी आती थी. मंगल सिंह और रुक्मिणी की उम्र बढ़ने के साथसाथ उन के दिलों में प्यार की कोंपलें भी फूटने लगी थीं और अकसर वे दोनों गांव व खेतों में निकल जाया करते थे.

रुक्मिणी के भरते शरीर, उभार और जवानी का रसपान गोविंद सिंह भी दूर से करने लगा था. रुक्मिणी इन सब बातों से दूर अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी.

गंगू ने जब सरपंच गोविंद सिंह को रुक्मिणी और मंगल सिंह की प्रेम कथा बताई, तो वह आगबबूला हो गया.

पहले तो गोविंद सिंह ने मंगल सिंह को समझाया, ‘मैं तुम्हारी शादी दूसरी जगह कर दूंगा, जहां से अच्छा दहेज मिल जाएगा और वैसे भी रुक्मिणी हमारी बराबरी की नहीं है.’

जब मंगल सिंह पर उस की बातों का कोई असर नहीं हुआ, तब उस ने रुक्मिणी के पीछे अपने आदमी छोड़ दिए. वे उसे बदनाम करने लगे.

एक बार रुक्मिणी के पिता रामलाल ने उस से उस की शादी की बात की, तो वह उसे टाल गई.

समय धीरेधीरे गुजर रहा था. आखिर गोविंद सिंह ने एक दिन रुक्मिणी को उठवा लिया और मंगल सिंह से कहा कि वह गांव के किसी लड़के के साथ भाग गई है. कुछ दिन बाद जब गोविंद सिंह ने उसे छोड़ा, तब तक मंगल सिंह उस से दूर चला गया था.

रुक्मिणी में जिंदगी जीने और हालत से जूझने का हौसला था, इसलिए वह इतने पर भी टूटी नहीं. थोड़े दिन बाद इसी गम में रुक्मिणी के मांबाप भी इस दुनिया से चल बसे. लेकिन इन सब हालात ने उसे और भी जुझारू बना दिया था. इस के बाद रुक्मिणी ने खेतीबारी को खुद संभाल लिया और पास के दूसरे गांव में रहने चली गई. अमीर घराने की लड़की मंगल सिंह के साथ ज्यादा दिन नहीं निभा सकी और एक दिन वह भी उसे छोड़ कर चली गई.

इस के बाद मंगल सिंह पागल जैसा हो गया, क्योंकि बाद में उसे भी रुक्मिणी के साथ हुए गलत बरताव के बारे में मालूम पड़ा था.

इस के बाद मंगल सिंह अपने को कुसूरवार मानता था, उस से माफी मांगना चाहता था. इस के बाद उस ने भी अपने पिता सरपंच गोविंद सिंह का घर छोड़ दिया था और अलग रहने लगा था.

उस दिन भी मंगल सिंह रुक्मिणी से माफी मांगने के लिए उस के खेत पर ही जा रहा था. दिमागी परेशानी से उस का ध्यान सड़क से भटक गया था और सामने से आते हुए ट्रैक्टर ने उस की मोटरसाइकिल को टक्कर मार दी थी.

तभी मंगल सिंह ने कराहते हुए अपनी आंखें खोलीं. अब रुक्मिणी भी यादों से वापस आ गई थी. सरपंच का घर अभी थोड़ी दूर था, इसलिए मंगल सिंह की हालत देखने के लिए उस ने बैलगाड़ी रोकी और उस के पास गई.

रुक्मिणी ने मंगल सिंह के सिर पर अपनी चुनरी कस कर बांध दी. तभी मंगल सिंह के हाथ माफी मांगने के लिए जुड़ गए थे. इन सब बातों का रुक्मिणी पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने बैलगाड़ी तेजी से चलाई और सरपंच के घर के सामने गाड़ी रोक कर पूरी बात गोविंद सिंह को बताई और वापस जाने लगी.

गोविंद सिंह उस के पैरों पर गिर गया और बोला, ‘‘रुक्मिणी, मुझे किसी गरीब को नहीं सताना चाहिए था. मुझे माफ कर दे.’’

गोविंद सिंह मंगल सिंह को जीप में डाल शहर के अस्पताल में ले जाने लगा, तब मंगल सिंह ने रुक्मिणी का हाथ जोर से पकड़ लिया और उसे भी साथ चलने के लिए इशारा किया.

अस्पताल में मंगल सिंह का इलाज शुरू हो गया और उसे तुरंत खून देना था. परिवार में से किसी का खून मंगल सिंह के खून से नहीं मिल रहा था. साथ ही, वहां आए लोगों का खून भी मंगल सिंह के खून से नहीं मिल रहा था. रुक्मिणी एक बार फिर यादों की दुनिया में चली गई थी.

मंगल सिंह और रुक्मिणी एक बार शहर घूमने गए थे. तब रुक्मिणी ने कहा था, ‘देख मंगल, हमारा प्यार एकदम सच्चा और पक्का है कि तू भले ही न माने, लेकिन हमारा खून भी एक ही है.’

तब मंगल सिंह ने हंसते हुए कहा था, ‘हट पगली, ऐसे थोड़े न होता है. सभी के खून का ग्रुप अलगअलग ही होता है.’

मजाक की बात शर्त में बदल गई और दोनों ने पास के एक अस्पताल में जा कर जब खून को चैक करवाया, तब दोनों का ग्रुप एक ही निकला.

तभी डाक्टर ने आ कर कहा, ‘‘गोविंद सिंह, जल्दी खून का इंतजाम करो. मंगल सिंह की हालत खराब होती जा रही है. खून काफी बह गया है.’’

तब रुक्मिणी ने विश्वास से कहा, ‘‘डाक्टर, मेरा खून ले लीजिए.’’

गोविंद सिंह हैरानी से रुक्मिणी को देख रहा था और एहसान तले दबा जा रहा था. Story In Hindi

Story In Hindi: एक नजर – क्या हुआ था छोटी बहू के साथ?

Story In Hindi: जनाजे की तैयारी हो रही थी. छोटी बहू की लाश रातभर हवेली के अंदर नवाब मियां के कमरे में ही बर्फ पर रखी हुई थी. रातभर जागने से औरतों और मर्दों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी छाई हुई थी.

रातभर दूरदराज से लोग आतेजाते रहे और दुख जताने का सिलसिला चलता रहा.

पूरी हवेली मानो गम में डूबी हुई थी और घर के बच्चेबूढ़ों की आंखें नम थीं. मगर कई साल से खामोश और अलगथलग से रहने वाले बड़े मियां जान यानी नवाब मियां के बरताव में कोई फर्क नहीं पड़ा था. उन की खामोशी अभी भी बरकरार थी.

उन्होंने न तो किसी से दुख जताने की कोशिश की और न ही उन से मिल कर कोई रोना रोया, क्योंकि सभी जानते थे कि पिछले 2-3 सालों से वे खुद ही दुखी थे.

नवाब मियां शुरू से ऐसे नहीं थे, बल्कि वे तो बड़े ही खुशमिजाज इनसान थे. इंटर करने के बाद उन्हें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में एलएलबी पढ़ने के लिए भेज दिया गया था.

अभी एलएलबी का एक साल ही पूरा हो पाया था कि अचानक नवाब मियां अलीगढ़ से पढ़ाई छोड़ कर हमेशा के लिए वापस आ गए. घर में किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई उन से यह पूछता कि मियां, पढ़ाई अधूरी क्यों छोड़ आए?

अब्बाजी यानी मियां कल्बे अली 2 साल पहले ही चल बसे थे और अम्मी जान रातदिन इबादत में लगी रहती थीं.

घर में अम्मी जान के अलावा छोटे मियां जावेद रह गए थे, जो पिछले साल ही अलीगढ़ से बीए करने के बाद जायदाद और राइस मिल संभालने लगे थे. वैसे भी जावेद मियां की पढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. इधर पूरी हवेली की देखरेख नौकर और नौकरानियों के भरोसे चल रही थी.

हवेली में एक बहू की शिद्दत से जरूरत महसूस की जाने लगी थी. नवाब मियां के रिश्ते आने लगे थे. शायद ही कोई दिन ऐसा जाता था कि घर में नवाब मियां के रिश्ते को ले कर कोई दूर या पास का रिश्तेदार न आता हो. लेकिन अपने ही गम में डूबे नवाब मियां ने आखिर में सख्ती से फैसला सुना दिया कि वे अभी शादी करना नहीं चाहते, इसलिए बेहतर होगा कि जावेद मियां की शादी कर दी जाए.

हवेली के लोग एक बार फिर सकते में आ गए. कानाफूसी होने लगी कि नवाब मियां अलीगढ़ में किसी हसीना को दिल दे बैठे हैं, मगर इश्क भी ऐसा कि वे हसीना से उस का पताठिकाना भी न पूछ पाए और वह अपने घर वालों के बुलावे पर ऐसी गई कि फिर वापस ही न लौटी. उन्होंने उस का काफी इंतजार किया, मगर बाद में हार कर वे भी हमेशा के लिए घर लौट आए.

बरसों बाद हवेली जगमगा उठी. जावेद मियां की शादी इलाहाबाद से हुई. छोटी बहू के आने से हवेली में खुशियां लौट आई थीं.

छोटी बहू बहुत हसीन थीं. वे काफी पढ़ीलिखी भी थीं. नौकरचाकर भी छोटी बहू की तारीफ करते न थकते थे. मगर नवाब मियां हर खुशी से दूर हवेली के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहते. न तो उन्हें अब कोई खुशी खुश करती थी और न ही गम उन्हें अब दुखी करता था. वे रातदिन किताबों में खोए रहते या हवेली के पास बाग में चहलकदमी करते रहते.

सालभर होने को आया, मगर किसी की हिम्मत न हुई कि नवाब मियां के रिश्ते की कोई बात भी करे, क्योंकि हर कोई जानता था कि नवाब मियां जिद के पक्के हैं और जब तक उन के दिल में यादों के जख्म हरे हैं, तब तक उन से बात करना बेमानी है.

अभी एक साल भी न होने पाया था कि छोटी बहू के पैर भारी होने की खबर से हवेली में एक बार फिर खुशियां छा गईं. सभी खुश थे कि हवेली में बरसों बाद किसी बच्चे की किलकारियां गूंजेंगी.

वह दिन भी आया. हवेली में छोटी बहू की तबीयत काफी बिगड़ गई थी. जैसेतैसे उन्हें शहर के बड़े अस्पताल में दाखिल कराया गया. मगर होनी को कौन टाल सकता है. सो, छोटी बहू नन्हे मियां को पैदा करने के बाद ही चल बसीं.

हवेली में कुहराम मच गया. किसी ने सोचा भी नहीं था कि जो छोटी बहू हवेली में खुशियां ले कर आई थी, वे इतनी जल्दी हवेली को वीरान कर जाएंगी. नौकरचाकरों का रोरो कर बुरा हाल था. जावेद मियां तो जैसे जड़ हो गए थे. उन की आंख में आंसू जैसे रहे ही न थे.

लाश को नहलाने के बाद जनाजा तैयार किया गया. जनाजा उठाते समय हवेली के बड़े दरवाजे पर नौकरानियां दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. सभी औरतें हवेली के दरवाजे तक आईं और फिर वापस हवेली में चली गईं.

छोटी बहू को कब्र में रखने के बाद किसी ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘जिस किसी को छोटी बहू का मुंह आखिरी बार देखना है, वह देख ले.’’

नवाब मियां कब्रिस्तान में लोगों से दूर पीपल के पेड़ के पास खड़े थे. उन के दिल में भी खयाल आया कि आखिरी समय में छोटी बहू का एक बार चेहरा देख लिया जाए. आखिर वे उन के घर की बहू जो थीं.

कब्र के सिरहाने जा कर नवाब मियां ने थोड़ा झुक कर छोटी बहू का मुंह देखना चाहा. छोटी बहू का चेहरा बाईं तरफ थोड़ा घूमा हुआ था.

नवाब मियां ने जब छोटी बहू के चेहरे पर नजर डाली, तो वे बुरी तरह तड़प उठे. दोनों हाथों से अपना सीना दबाते हुए वे सीधे खड़े हुए. उन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन्होंने सोचा कि अगर वे जल्द ही कब्र के पास से नहीं हटे, तो इस कब्र में ही गिर पड़ेंगे.

कब्र पर लकड़ी के तख्ते रखे जाने लगे थे और लोग कब्र पर मुट्ठियों से मिट्टी डालने लगे. नवाब  मियां ने भी दोनों हाथों में मिट्टी उठाई और छोटी बहू की कब्र पर डाल दी.

जिस चेहरे की तलाश में वे बरसों से बेकरार थे, आज उसी चेहरे पर वे हमेशा के लिए 2 मुट्ठी मिट्टी डाल चुके थे. Story In Hindi

Family Story In Hindi: फैसला – सुरेश और प्रभाकर में से बिट्टी ने किसे चुना

Family Story In Hindi: रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए. परंतु मैं जानती थी, निश्चितरूप से वह प्रेम पूर्णरूप से किसी एक को ही करती है. दूसरे से महज दोस्ती है. वह नहीं जानती कि वह किसे चाहती है, परंतु निश्चित ही किसी एक का ही पलड़ा भारी होगा. वह किस का है, मुझे यही देखना था.

रात में बिट्टी पढ़तेपढ़ते सो गई तो उसे चादर ओढ़ा कर मैं भी बगल के बिस्तर पर लेट गई. योगेश 2 दिनों से बाहर गए हुए थे. बिट्टी उन की भी बेटी थी, लेकिन मैं जानती थी, यदि वे यहां होते, तो भी बिट्टी के भविष्य से ज्यादा अपने व्यापार को ले कर ही चिंतित होते. कभीकभी मैं समझ नहीं पाती कि उन्हें बेटी या पत्नी से ज्यादा काम क्यों प्यारा है. बिस्तर पर लेट कर रोजाना की तरह मैं ने कुछ पढ़ना चाहा, परंतु एक भी शब्द पल्ले न पड़ा. घूमफिर कर दिमाग पीछे की तरफ दौड़ने लगता. मैं हर बार उसे खींच कर बाहर लाती और वह हर बार बेशर्मों की तरह मुझे अतीत की तरफ खींच लेता. अपने अतीत के अध्याय को तो मैं जाने कब का बंद कर चुकी थी, परंतु बिट्टी के मासूम चेहरे को देखते हुए मैं अपने को अतीत में जाने से न रोक सकी…

जब मैं भी बिट्टी की उम्र की थी, तब मुझे भी यह रोग हो गया था. हां, तब वह रोग ही था. विशेषरूप से हमारे परिवार में तो प्रेम कैंसर से कम खतरनाक नहीं था. तब न तो मेरी मां इतनी सहिष्णु थीं, जो मेरा फैसला मेरे हक में सुना देतीं, न ही पिता इतने उदासीन थे कि मेरी पसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही होता. तब घर की देहरी पर ज्यादा देर खड़ा होना बूआ या दादी की नजरों में बहुत बड़ा गुनाह मान लिया जाता था. किसी लड़के से बात करना तो दूर, किसी लड़की के घर भी भाई को ले कर जाना पड़ता, चाहे भाई छोटा ही क्यों न हो. हजारों बंदिशें थीं, परंतु जवानी कहां किसी के बांधे बंधी है. मेरा अल्हड़ मन आखिर प्रेम से पीडि़त हो ही गया. मैं बड़ी मां के घर गई हुई थी. सुमंत से वहीं मुलाकात हुई थी और मेरा मन प्रेम की पुकार कर बैठा. परंतु बचपन से मिले संस्कारों ने मेरे होंठों का साथ नहीं दिया. सुमंत के प्रणय निवेदन को मां और परिवार के अन्य लोगों ने निष्ठुरता से ठुकरा दिया.

फिर 1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो था तो छोटा सा व्यापारी, पर जिस का ध्येय भविष्य में बड़ा आदमी बनने का था. इस के लिए मेरे पति ने व्यापार में हर रास्ता अपनाया. मेरी गोद में बिट्टी को डाल कर वे आश्वस्त हो दिनरात व्यापार की उन्नति के सपने देखते. प्रेम से पराजित मेरा तप्त हृदय पति के प्यार और समर्पण का भूखा था. उन के निस्वार्थ स्पर्श से शायद मैं पहले प्रेम को भूल कर उन की सच्ची सहचरी बनती, पर व्यापार के बीच मेरा बोलना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. मुझे याद नहीं, व्यापारिक पार्टी के अलावा वे मुझे कभी कहीं अपने साथ ले गए हों.

लेकिन घर और बिट्टी के बारे में सारे फैसले मेरे होते. उन्हें इस के लिए अवकाश ही न था. बिट्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी से मेरे अतीत की पुस्तक फड़फड़ाती रही. अतीत का अध्याय सारी रात चलता रहा, क्योंकि उस के समाप्त होने तक पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था… दूसरे दिन से मैं बिट्टी के विषय में चौकन्नी हो गई. प्रभाकर का फोन आते ही मैं सतर्क हो जाती. बिट्टी का उस से बात करने का ढंग व चहकना देखती. घंटी की आवाज सुनते ही उस का भागना देखती.

एक दिन सुरेश ने कहा, ‘चाचीजी, देखिएगा, एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा में आ कर रहूंगा, मां का एक बड़ा सपना पूरा होगा. मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, बहुत आगे,’ उस के ये वाक्य मेरे लिए नए नहीं थे, परंतु अब मैं उन्हें भी तोलने लगी.

प्रभाकर से बिट्टी की मुलाकात उस के एक मित्र की शादी में हुई थी. उस दिन पहली बार बिट्टी जिद कर के मुझ से साड़ी बंधवा कर गईर् थी और बालों में वेणी लगाई थी. उस दिन सुरेश साक्षात्कार देने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था. बिट्टी अपनी एक मित्र के साथ थी और उसी के साथ वापस भी आना था. मैं सोच रही थी कि सुरेश होता तो उसे भेज कर बिट्टी को बुलवा सकती थी. उस के आने में काफी देर हो गई थी. मैं बेहद घबरा गई. फोन मिलाया तो घंटी बजती रही, किसी ने उठाया ही नहीं.

लेकिन शीघ्र ही फोन आ गया था कि बिट्टी रात को वहीं रुक जाएगी. दूसरे दिन जब बिट्टी लौटी तो उदास सी थी. मैं ने सोचा, सहेली से बिछुड़ने का दर्द होगा. 2 दिन वह शांत रही, फिर मुझे बताया, ‘मां, वहां मुझे प्रभाकर मिला था.’

‘वह कौन है?’ मैं ने प्रश्न किया. ‘मीता के भाई का दोस्त, फोटो खींच रहा था, मेरे भी बहुत सारे फोटो खींचे.’

‘क्यों?’ ‘मां, वह कहता था कि मैं उसे अच्छी लग रही हूं.’

‘तुम ने उसे पास आने का अवसर दिया होगा?’ मैं ने उसे गहराई से देखा. ‘नहीं, हम लोग डांस कर रहे थे, तभी बीच में वह आया और मुझे ऐसा कह कर चला गया.’

मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.

फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.

धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.

सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.

बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.

‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.

जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.

सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’

प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.

मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था. Family Story In Hindi

Hindi Romantic Story: खेल – मासूम दिखने वाली दिव्या निकली माहिर

Hindi Romantic Story: आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए.

जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,

भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,

भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर,

पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो,

आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

Family Story In Hindi: सबक – सुधीर को लेकर क्या थी अनु की कशमकश ?

Family Story In Hindi: रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें. Family Story In Hindi

Story In Hindi: क्षमादान – वर्षों बाद जब मिली मोहिनी और शर्वरी

Story In Hindi: ‘‘हाय शर्वरी, पहचाना मुझे?’’ शर्वरी को दूर से देख कर अमोल उस की ओर खिंचा चला आया.

‘‘अमोल, तुम्हें नहीं पहचानूंगी तो और किसे पहचानूंगी?’’

शर्वरी के स्वर के व्यंग्य को अमोल ने भांप लिया. फिर भी बोला, ‘‘इतने वर्षों बाद तुम से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहो, कैसी कट रही है? तुम ने तो कभी किसी को अपने बारे में बताया ही नहीं. कहां रहीं इतने दिन?’’

‘‘ऐसे कुछ बताने लायक था ही नहीं. वैसे भी 7-8 वर्ष आस्ट्रेलिया में रहने के बाद पिछले वर्ष ही लौटे हम लोग.’’

‘‘अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न. हमारे बैच के सभी छात्र नैट पर अपने बारे में एकदूसरे को सूचित करते रहे. पर तुम न जाने कहां खोई रहीं कि हमारी याद तक नहीं आई,’’ अमोल मुसकराया.

‘‘अमोल कालेज जीवन की याद न आए, ऐसा भला हो सकता है क्या? वह समय तो जीवन का सब से सुखद अनुभव होता है… बताऊंगी अपने बारे में भी बताऊंगी. पर तुम भी तो कुछ कहो…इतने समय की क्या उपलब्धियां रहीं? क्या खोया, क्या पाया?’’

‘‘2 विवाह, 1 तलाक और 1 ठीकठाक सी नौकरी. इस से अधिक बताने को कुछ नहीं है मेरे पास,’’ अमोल उदास स्वर में बोला.

‘‘लगता है जीवन ने तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया. ऐसी निराशापूर्ण बातें तो वही करता है जिस की अपेक्षाएं पूरी न हुई हों.’’

‘‘हां भी और नहीं भी. पर जो मेरे जीवन में घटा है कहीं न कहीं उस के लिए मैं भी दोषी हूं. है न?’’

अमोल शर्वरी से अपने प्रश्न का उत्तर चाहता था, पर शर्वरी उत्तर देने के मूड में नहीं थी. वह उसे टालने के लिए अपने दूसरे मित्रों की ओर मुड़ गई. पुराने विद्यार्थियों के पुनर्मिलन का आयोजन पूरे 10 वर्षों बाद किया गया था. एकत्रित जनसमूह में शर्वरी को कई परिचित चेहरे मिल गए थे. आयोजकों ने पहले अपने अतिथियों के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया था. उस के बाद डिनर का प्रबंध था. आयोजकों ने मेहमानों से अपनीअपनी जगह बैठने का आग्रह किया तो शर्वरी साथियों के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठी. तभी उस बड़े से हौल के मुख्यद्वार पर मोहिनी दाखिल हुई. लगभग 10 वर्षों के बाद मोहिनी को देख कर शर्वरी को लगा मानो कल की ही बात हो. आयु के साथ चेहरा भर गया था पर मोहिनी तनिक भी नहीं बदली थी. सितारों से जड़ी जरी के काम वाली सुनहरे रंग की नाभिदर्शना साड़ी में सजीसंवरी मोहिनी किसी फिल्मी तारिका की भांति चकाचौंध पैदा कर रही थी. शर्वरी चाह कर भी अपनी कुरसी से हिल नहीं पाई. कभी मोहिनी से शर्वरी की इतनी गाढ़ी छनती थी कि दोनों दो तन एक जान कहलाती थीं पर अब केवल वर्षों की दूरी ने ही नहीं मन की दूरी ने भी शर्वरी को जड़वत कर दिया था.

मोहिनी अपने अन्य मित्रों से मिलजुल रही थी. पुरानी यादें ताजा करते हुए वह किसी से हाथ मिला रही थी, किसी को गले लगा रही थी तो किसी को पप्पी दे कर कृतार्थ कर रही थी, शर्वरी का कुतूहल पल दर पल बढ़ता जा रहा था. मोहिनी के स्लीवलेस, बैकलेस ब्लाउज और भड़कीले शृंगार को ध्यान से देखा और फिर गहरी सोच में डूब गई. शून्य में बनतेबिगड़ते आकारों में डूबतीउतराती शर्वरी 12 वर्ष पूर्व के अपने कालेज जीवन में जा पहुंची… शर्वरी, मोहिनी और अमोल भौतिकी के स्नातकोत्तर छात्र थे. शर्वरी व मोहिनी ने एकसाथ बी.एससी. में प्रवेश लिया था और शीघ्र ही एकदूसरे की हमराज बन गई थीं. वहीं अमोल को वह स्कूल के दिनों से जानती थी. दोनों के पिता एक ही कार्यालय में कार्यरत थे. अत: परिवारों में अच्छी घनिष्ठता थी. कब यह मित्रता, प्रेम में बदल गई, शर्वरी को पता ही न चला था.

कालेज में अमोल अकसर शर्वरी से मिलने आता, पर महिला कालेज होने के कारण अमोल को कालेज के प्रांगण में जाने की अनुमति नहीं मिलती थी. अत: वह कालेज के गेट के पास खड़ा हो कर शर्वरी की प्रतीक्षा करता. शर्वरी और मोहिनी एकसाथ ही कालेज से बाहर आती थीं. औपचारिकतावश अमोल मोहिनी से भी हंस बोल लेता तो शर्वरी आगबबूला हो उठती.

‘‘बड़े हंस कर बतिया रहे थे मोहिनी से?’’ शर्वरी मोहिनी के जाते ही प्रश्नों की झड़ी लगा देती.

‘‘कहीं जलने की गंध आ रही है. क्यों ऐसी बातें करती हो शर्वरी? अपने अमोल पर विश्वास नहीं है क्या?’’ अमोल उलटा पूछ बैठता.

समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था. शर्वरी और मोहिनी महिला कालेज से निकल कर विश्वविद्यालय आ पहुंची थीं. यह जान कर शर्वरी के हर्ष की सीमा नहीं रही कि अमोल भी उन के साथ ही एम.एससी. की पढ़ाई करेगा. पर यह प्रसन्नता चार दिन की चांदनी ही साबित हुई. मिलनेजुलने की खुली छूट मिलते ही मोहिनी और अमोल करीब आने लगे थे. शर्वरी सब देखसमझ कर भी चुप रह जाती. शुरू में उस ने अमोल को रोकने का प्रयास किया, रोई, झगड़ा किया. अमोल ने भी उसे बहलाफुसला कर यह जताने का यत्न किया कि सब कुछ ठीकठाक है. पर शर्वरी ने शीघ्र ही नियति से समझौता कर लिया. मोहिनी और अमोल के चर्चे सारे विभाग में फैलने लगे थे. पर शर्वरी ने स्वयं को सब ओर से सिकोड़ कर अपनी पढ़ाई की ओर मोड़ लिया था. इस का लाभ भी उसे मिला अब वह अपनी कक्षा में सब से आगे थी. इस सफलता का अपना ही नशा था. पर मोहिनी उस की सब से घनिष्ठ सहेली थी. उस का विश्वासघात उसे छलनी कर गया. अमोल जिसे उस ने कभी अपना सर्वस्व माना था उस की ही सहेली पर डोरे डालेगा, यह विचारमात्र ही कुंठित कर देता था.

घर पर सभी उस की और अमोल की घनिष्ठता से परिचित थे. अमोल संपन्न और सुसंस्कृत परिवार का एकमात्र दीपक था. अत: उन्होंने शर्वरी के मिलनेजुलने, घूमनेफिरने पर कहीं कोई रोकटोक नहीं लगाई थी. शर्वरी और अमोल के बीच आती दूरी भी उन से छिपी नहीं थी. शर्वरी की मां नीला देवी ने बिना कहे ही सब कुछ भांप लिया था. अमोल के उच्छृंखल व्यवहार ने उन्हें भी आहत किया था. पर वे शर्वरी को सहारा देने के लिए मजबूत चट्टान बन गई थीं.

‘‘चिंता क्यों करती है बेटी. अच्छा ही हुआ कि अमोल का असली रंग जल्दी सामने आ गया. वह मनचला तुम्हारे योग्य था ही नहीं. वह भला संबंधों की गरिमा को क्या समझेगा.’’ अब तक स्वयं पर पूर्ण संयम रखा था  शर्वरी ने. पर मां की बातें सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. नीला देवी ने भी उसे रोने दिया था. अच्छा ही है कि मन का गुबार आंखों की राह बह जाए तभी चैन मिलगा.

‘‘मां, आप मुझ से एक वादा कीजिए,’’ शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर शर्वरी नीला देवी से बोली.

‘‘हां, कहो बेटी.’’

‘‘आज के बाद इस घर में कोई अमोल का नाम नहीं लेगा. मैं ने उसे अपने जीवन से पूरी तरह निकाल फेंका. किसी सड़ेगले अंग की तरह.’’ नीला देवी ने उत्तर में शर्वरी का हाथ थपथपा कर आश्वासन दिया था. उन के वार्त्तालाप ने शर्वरी को पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. उस दिन शर्वरी पुस्तकालय में बैठी अध्ययन में जुटी थी कि अचानक मोहिनी आ धमकी. शर्वरी को देखते ही चहकी, ‘‘हाय, शर्वरी, तुम यहां छिपी बैठी हो? मैं तो तुम्हें पूरे भौतिकी विभाग में ढूंढ़ आई.’’

‘‘अच्छा? पर यों अचानक क्यों?’’

‘‘क्या कह रही हो? मैं तो तुम्हारे लिए खुशखबरी लाई हूं,’’ मोहिनी इतने ऊंचे स्वर में बोली कि वहां उपस्थित सभी विद्यार्थी उस से चुप रहने का इशारा करने लगे.

‘‘चलो, बाहर चलते हैं. वहीं तुम्हारी खुशखबरी सुनेंगे,’’ शर्वरी मोहिनी को हाथ से पकड़ कर बाहर खींच ले गई. वह जानती थी कि मोहिनी स्वर नीचा नहीं रख पाएगी.

‘‘ये लोग समझते क्या हैं अपनेआप को? पुस्तकालय में क्या कर्फ्यू लगा है कि हम किसी से आवश्यक बात भी नहीं कर सकते?’’ मोहिनी क्रोध में पैर पटकते हुए बोली.

‘‘हर पुस्तकालय में यह प्रतिबंध लागू होता है. अब छोड़ो यह बहस और बताओ क्या खुशखबरी ले कर आई होे?’’

‘‘हां, मैं तुम्हें यह बताने आई थी कि मैं तुम्हारे अमोल को सदा के लिए छोड़ आई हूं, केवल तुम्हारे लिए.’’

‘‘क्या कहा? मेरे अमोल को? अमोल मेरा कब से हो गया? शर्वरी खिलखिला कर हंसी.

‘‘लो अब क्या यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि तुम और अमोल कभी गहरे मित्र थे?’’

‘‘मुझे कुछ भी याद दिलाने की जरूरत नहीं है. और तुम अमोल से मित्रता करो या शत्रुता मुझे कुछ लेनादेना नहीं है.’’ शर्वरी का रूखा स्वर सुन कर एक क्षण को तो चौंक ही उठी थी मोहिनी, फिर बोली, ‘‘घनिष्ठ सहेली हूं तुम्हारी, तुम्हारी चिंता मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा? वैसे भी मैं विवाह कर रही हूं. अमोल को मैं ने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है.’’

‘‘अच्छा तो विवाह कर रही हो तुम? तो जा कर अमोल को बताओ. यहां क्या लेने आई हो?’’

‘‘बताया था, पर वह तो बच्चों की तरह रोने लगा, कहने लगा मेरे बिना वह जीवित नहीं रह सकेगा. वह मूर्ख सोचता था मैं उस से विवाह करूंगी. तुम जानती हो, मैं किस से विवाह कर रही हूं?’’

‘‘बताओगी नहीं तो कैसे जानूंगी?’’

‘‘बहुत बड़ा करोड़पति व्यापारी है दीपेन. तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही मुझ से?’’ और फिर अचानक मोहिनी ने स्वर नीचा कर लिया. शर्वरी का मन हुआ कि इस बचकाने प्रश्न पर खिलखिला कर हंसे पर मोहिनी का गंभीर चेहरा देख कर चुप रही.

‘‘मेरी बात मान शर्वरी अमोल को हाथ से मत जाने दे. वैसे भी दिल टूट गया है बेचारे का. तुम प्रेम का मरहम लगाओगी तो शीघ्र संभल जाएगा.’’

‘‘तुम्हें मेरी कितनी चिंता है मोहिनी…पर आशा है तुम मुझे क्षमा कर दोगी. मेरा तो मित्रता, प्रेम जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ गया है. मेरे मातापिता ने मेरा विवाह तय कर दिया है. फाइनल परीक्षा होते ही मेरा विवाह हो जाएगा.’’

‘‘क्या? तुम भी विवाह कर रही हो और वह भी मातापिता द्वारा चुने वर से? होश में आओ शर्वरी बिना रोमांस के विवाह का कोई अर्थ नहीं. अमोल अब भी तुम्हें जीजान से चाहता है.’’ शर्वरी चुपचाप उठ कर चली गई. अगले दिन प्रयोगशाला में फिर मोहिनी ने शर्वरी को घेर लिया. बोली, ‘‘चलो कैंटीन में बैठते हैं.

‘‘मैं जरा जल्दी में हूं मोहिनी…घर पर बहुत काम है.’’

‘‘ऐसा भी क्या काम है कि तुम्हें अपनी सहेली से कुछ देर बात करने का भी समय नहीं है?’’ मोहिनी भीगे स्वर में बोली तो शर्वरी मना नहीं कह सकी.

‘‘अब बता किस से हो रहा है तेरा विवाह?’’ चायसमोसे का और्डर देने के बाद मोहिनी ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘कोई करोड़पति नहीं है. हमारे जैसे मध्यवर्गीय परिवार का पढ़ालिखा युवक है वह. अच्छी नौकरी है. मैं ने मातापिता के निर्णय को मानने में ही भलाई समझी. मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इंसान किस पर विश्वास करे किस पर नहीं? प्रेम के नाम पर कैसेकैसे धोखे दिए जाते हैं भोलीभाली लड़कियों को,’’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली.

‘‘धोखा तो मातापिता द्वारा तय किए विवाह में भी होता है…प्रेम विवाह में कम से कम यह तो संतोष रहता है कि अपनी गलती की सजा भुगत रहे हैं.’’

‘‘ऐसा कोई नियमकायदा नहीं है और कैसे भी विवाह में सफलता की गारंटी कोई नहीं दे सकता,’’ शर्वरी ने बात समाप्त करने की गरज से कहा. अब तक चाय और समोसे आ गए थे. और बात का रुख भी पढ़ाईलिखाई की ओर मुड़ गया था. परीक्षा, प्रयोगशाला, विवाह की तैयारी के बीच समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला. इस बीच अमोल कई बार सामने पड़ा. आंखें मिलीं पर अब दोनों के बीच औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा था. अपने परिवार के साथ अमोल विवाह में आया अवश्य, पर बधाई दे कर तुरंत चला गया. उधर मोहिनी के करोड़पति परिवार में विवाह के किस्से अकसर सुनने को मिल जाते थे. शर्वरी के पति गौतम की कंपनी ने उन्हें आस्ट्रेलिया भेजा तो सारे संपर्क सूत्र टूट से गए. परिवार, बच्चों और अपनी नौकरी के बीच 8 वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

इतने वर्षों बाद अपने शहर लौट कर शर्वरी को ऐसा लगा मानो मां की गोद में आ गई हो. ऐसे समय जब अपने विश्वविद्यालय से पुराने छात्रों के पुनर्मिलन सम्मेलन का निमंत्रण मिला तो शर्वरी ठगी सी रह गई. इतने वर्षों बाद किस ने उस का पताठिकाना ढूंढ़ लिया, वह समझ नहीं पाई. आज इस सम्मेलन में अनेक पूर्व परिचितों से भी भेंट हुई. पर अमोल और मोहिनी से भेंट होगी, इस की आशा शर्वरी को कम ही थी. सामने ग्लैमरस मोहिनी को मित्रों और परिचितों से मिलते देख कर भी शर्वरी अपने ही स्थान पर जमी रही. तभी मोहिनी की नजर शर्वरी पर पड़ी तो बोली, ‘‘हाय शर्वरी, तुम यहां? मुझे तो जरा भी आशा नहीं थी कि तुम यहां आओगी… यहां बैठी क्या कर रही हो चलो मेरे साथ. ढेर सी बातें करनी हैं,’’ और मोहिनी उसे खींच ले गई.

‘‘सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला है मोहिनी,’’ शर्वरी ने कहा.

‘‘देखेंगे कार्यक्रम भी देखेंगे. पर पहले ढेर सारी बातें करेंगे. न जाने कितनी अनकही बातें करने को मन छटपटा रहा है.’’

‘‘ठीक है चलो,’’ शर्वरी ने हथियार डाल दिए.

कैंटीन में चाय और सैंडविच मंगाए मोहिनी ने और फिर शर्वरी का हाथ अपने हाथों में ले कर सिसकने लगी.

‘‘क्या हुआ मोहिनी?’’ शर्वरी सकते में आ गई.

‘‘शर्वरी कह दो कि तुम ने मुझे क्षमा कर दिया. मैं सच कहती हूं कि मैं ने कभी जानबूझ कर तुम्हें कष्ट नहीं पहुंचाया…जो हुआ अनजाने में हुआ.’’

‘‘क्या कह रही हो मोहिनी? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?’’

‘‘तुम ने मुझे और अमोल को क्षमा नहीं किया तो हमें कभी चैन मिलेगा, मोहिनी अब भी सुबक रही थी.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो मोहिनी. मैं ने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं.’’

‘‘पर अमोल सदा यही कहता है कि उसे तुम्हारे साथ किए व्यवहार का फल मिल रहा है और अब तो मुझे भी ऐसा ही लगता है.’’

‘‘क्या हुआ तुम्हारे साथ?’

‘‘याद है वह करोड़पति जिस से मैं ने विवाह किया था, वह पहले से विवाहित था. बड़ी कठिनाई से उस के चंगुल से छूटी मैं… उस ने मुझे तरहतरह से प्रताडि़त किया.’’

‘‘उफ, और अमोल?’’

‘‘अमोल को सदा अपनी पत्नी पर शक होता कि वह किसी और के चक्कर में है जबकि ऐसा कुछ नहीं था. थकहार कर वह अमोल से अलग हो गई. अब मैं और अमोल पतिपत्नी हैं. यों घर में सब कुछ है पर शक का कीड़ा अमोल के दिमाग से जाता ही नहीं. उसे अब मुझ पर शक होने लगा है. अमोल को लगता है कि यह सब तुम्हारे से बेवफाई करने का फल है. हमें क्षमा कर दो शर्वरी,’’ और मोहिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

तभी शर्वरी किसी की आहट पा कर पलटी. पीछे अमोल खड़ा था.

‘‘कैसा सुखद आश्चर्य है अमोल, मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम दोनों पतिपत्नी हो,’’ शर्वरी आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘बात को टालो मत शर्वरी, हमें क्षमा कर दो. हम तुम्हारे अपराधी हैं. पर तुम्हें नहीं लगता कि हम काफी सजा भुगत चुके हैं?’’ अमोल ने अनुनय की.

‘‘समझ में नहीं आ रहा तुम क्या कह रहे हो? मैं तो उस बुरे स्वप्न को कब का भूल चुकी हूं. फिर भी मेरे कहने से कोई फर्क पड़ता है तो चलो मैं ने तुम्हें क्षमा किया,’’ शर्वरी बोली. उस के बाद शर्वरी वहां रुक नहीं सकी, न कार्यक्रम के लिए और न ही डिनर के लिए. लौटते हुए केवल एक ही बात उसे उद्वेलित कर रही थी कि क्या यह अमोल और मोहिनी का अपराधबोध था, जिस ने उन के जीवन में जहर घोल दिया था या फिर कुछ और? Story In Hindi

Romantic Story In Hindi: मिट गई दूरियां – कैसे एक हुए राजेश और अंजलि

Romantic Story In Hindi: कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान जहां सभी लोग अपनेअपने घरों में सिमट गए थे, वहीं नौकरीपेशा लोगों के लिए ड्यूटी पर जमे रहना जरूरी था.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले का रहने वाला 25 साल का राजेश कुमार रेलवे में ट्रैकमैन की नौकरी कर रहा था. उस की पोस्टिंग बिहार के रोहतास जिले में हुई थी. वह कई सालों से रोहतास के डेहरी औन सोन के रेलवे क्वार्टर में रह रहा था.

रेलवे लाइन के किनारे सरकारी क्वार्टर बने हुए थे. वैसे, इस महकमे के सरकारी क्वार्टरों की हालत अच्छी नहीं थी. ज्यादातर रेलवे मुलाजिम इन क्वार्टरों में रहना पसंद नहीं करते थे. इस की वजह यह थी कि सरकारी क्वार्टर होने के चलते इन के रखरखाव और मरम्मत ठीक से नहीं हो पाई थी, जिस से कुछ को छोड़ कर ज्यादार क्वार्टर जर्जर हो चुके थे, इसलिए लोगों को रहने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था.

लिहाजा, ज्यादातर रेलवे मुलाजिम सरकारी क्वार्टर को अलौट नहीं करवाना चाहते थे. दूसरी वजह यह भी थी कि रेलवे स्टेशन शहर से थोड़ा दूर था. लेकिन राजेश कुंआरा था और उसे घर के लिए पैसे भी बचाने थे, इसलिए उस के लिए रेलवे क्वार्टर में ही रहना ठीक था.

जब कोरोना की पहली लहर आई तो राजेश को हाजिरी लगाने भर के लिए ड्यूटी जाना पड़ता था, क्योंकि देशभर में ट्रेनों की आवाजाही बंद कर दी गई थी.

उस दिन रात के तकरीबन 9 बजे राजेश क्वार्टर से खाना खा कर आदतन चहलकदमी करने निकला था. वह जैसे ही घर से बाहर निकला, घर के पिछवाड़े में एक औरत उस के कमरे की दीवार के पास बदहवास हालत में पड़ी हुई थी.

राजेश उसे देख कर हैरान हुआ. दूर से आ रही लैंपपोस्ट की रोशनी में भी वह साफ देख पा रहा था. उस की साड़ी और पेटीकोट घुटने से ऊपर तक चढ़े हुए थे. ब्लाउज का ऊपरी हुक टूट हुआ था, जिस के चलते उस के उभार साफ दिख रहे थे. उस की साड़ी जगहजगह से फटी हुई थी. उस के पैर लहूलुहान दिख रहे थे. देखने में वह भले घर की लग रही थी. राजेश को ऐसा महसूस हुआ कि उस औरत के साथ कुछ न कुछ गलत जरूर हुआ है.

राजेश को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस से कुछ पूछे. फिर भी वह इनसानियत के नाते उस औरत के नजदीक गया और पूछा, ‘‘तुम कौन हो? यहां क्या कर रही हो?’’

वह औरत सिसक रही थी. उस ने अपने आंचल से आंखों के कोनों को साफ किया. वह कुछ पल राजेश की तरफ देखती रही, फिर डरतेडरते बोलने की कोशिश की, ‘‘मुझे जोर से प्यास लगी है.’’

राजेश झटपट जा कर कमरे से एक गिलास पानी ले आया था. वह पानी के गिलास को एक ही सांस में खाली कर गई थी. देखने से अंदाजा लगा कि वह काफी भूखीप्यासी है.

‘‘मैं काफी थकी हूं. मुझे सोने दो,’’ यह कह कर वह एक तरफ वहीं जमीन पर सोने लगी थी.

‘‘बाहर बहुत कीड़ेमकोड़े और मच्छर भी हैं. यहां सोना महफूज भी नहीं है… अंदर आ कर मेरे कमरे में सो जाओ,’’ राजेश ने उस से कहा.

वह औरत कुछ पल सोचती रही, क्योंकि बाहर बहुत सन्नाटा था. वह ऐसी सुनसान जगह में कभी नहीं रही थी.

उसे अजनबी आदमी पर यकीन नहीं हो रहा था, फिर भी वह बाहर डर महसूस कर रही थी. वर्तमान हालात ऐसे थे कि उसे राजेश पर यकीन करना ही ठीक लगा था, इसलिए वह उस के कहने पर अंदर आ गई थी.

राजेश उसे कमरे में सो जाने के लिए बोला था. उस के पास कुछ रोटियां थीं, उसे खाने के लिए दी थीं, पर वह बिना खाए ही कमरे में सो गई थी. राजेश बाहर बरामदे में सो गया था.

किंतु राजेश को नींद नहीं आ रही थी. वह उसी के बारे में सोच रहा था. कुछ भी अंदाजा नहीं लगा पा रहा था. आखिर यह औरत कौन है? इस हालत में यहां तक यह कैसे पहुंची है? इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद लग गई, पता भी नहीं चला था.

राजेश की सुबह जल्दी ही नींद खुल गई थी. कुछ देर बाद वह औरत भी जाग गई थी. राजेश ने उसे बाथरूम के बारे में बता दिया. उस के पैर में छाले होने के चलते वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

राजेश के मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. तभी राजेश किचन से चाय बना कर ले आया था. वह डरते हुए चाय पीने लगी थी और खुद के बारे में सोच रही थी.

चाय पीते ही राजेश ने उस औरत से कई तरह के सवाल पूछ डाले थे.

उस औरत ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं अंजली हूं और मेरा घर तिलौथू ब्लौक के निमियाडीह गांव में है, जो यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर है.

‘‘दरअसल, मैं घर से भाग कर रेलवे लाइन पर मरने के लिए आई थी, लेकिन लौकडाउन होने के चलते कई दिनों से ट्रेन आजा नहीं रही है. मैं पिछली रात को ही अपने घर से चुपके से निकल गई थी. रातभर चलने के बाद यहां पहुंची थी.

‘‘दिनभर रेलवे लाइन के किनारे मरने के लिए भूखीप्यासी इधरउधर भटकती रही. लेकिन एक भी ट्रेन नहीं आ पाई तो मैं बहुत निराश हो गई थी.

‘‘मैं भूखप्यास से काफी थक गई थी, इसीलिए रात में आप के घर के पिछवाड़े पड़ी हुई थी. मैं यहां अपनी किस्मत पर रो रही थी. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मुझे सुनसान जगह होने के चलते काफी डर लग रहा था.’’

राजेश ने सवाल किया, ‘‘आखिर तुम मरना क्यों चाहती हो?’’

यह सुन कर अंजली काफी उदास हो गई थी. उस की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. काफी कोशिश के बाद उस ने बताया, ‘‘मेरा पति एक नंबर का शराबी है. वह नकारा है. वह मुझे कोसता रहता था कि बेटी की शादी कौन करेगा?

‘‘एक दिन शराब के नशे में उस ने मेरी बेटी को बिस्तर से नीचे फेंक दिया था. ज्यादा चोट लगने के चलते मेरी बेटी मर गई.

‘‘इस के बाद मुझे अपने पति से नफरत हो गई थी, इसीलिए मैं जीना नहीं चाहती थी,’’ यह कहते हुए अंजली की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे.

राजेश को अंजली की आपबीती सुन कर दुख हुआ था. उसे अंजली के पति पर काफी गुस्सा आ रहा था, लेकिन कुछ शक भी हो रहा था कि कोई भी औरत इतनी दूर मरने के लिए क्यों आएगी?

राजेश ने चाय के खाली प्याले को टेबल पर रखते हुए अंजली को समझाया, ‘‘अब तुम नहाधो लो. अभी लौकडाउन है. तुम कहीं जा भी नहीं सकती हो. अगर तुम चाहो तो यहां अपने पैर के जख्म को ठीक होने तक रुक सकती हो. वैसे, तुम इस हालत में कहीं जाने लायक भी नहीं हो.

‘‘अरे हां, तुम्हारे पास तो कपड़े भी नहीं हैं. हैंगर पर मेरी पैंट और टीशर्ट टंगे हुए हैं. अभी तुम्हें वही पहन कर काम चलाना पड़ेगा. मैं थोड़ा बाहर से सब्जी, दूध और तुम्हारे लिए दवा लेने जा रहा हूं. यहां 2 घंटे के बाद दुकानें बंद हो जाएंगी,’’ यह कह कर वह एक थैला ले कर बाहर निकल गया.

जब राजेश डेढ़ घंटे बाद अपने क्वार्टर में वापस आया, तो अंजली उस हालत में भी घर की साफसफाई कर चुकी थी. वह नहाधो कर कर पैंटटीशर्ट पहन चुकी थी और अपनी साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोट को सूखने के लिए आंगन में रस्सी पर फैला रखा था.

अंजली बालों में कंघी कर रही थी. वह देखने में काफी खूबसूरत लग रही थी. वह कहीं से भी शादीशुदा नहीं लग रही थी. अभी मुश्किल से उस की उम्र 24-25 साल के आसपास रही होगी. खिलेखिले बड़े उभारों की गोलाई और उस के गुलाबी होंठ देख कर एकबारगी राजेश का मन मचलने लगा था.

राजेश ने अंजली को गरम दूध के साथ ब्रैड खाने को दी. इस के बाद अपने हाथों से दवा खिलाई थी.

राजेश तौलिया ले कर बाथरूम में नहाने चला गया था. जब वह नहा कर आया, तो औफिस में हाजिरी लगाने के लिए निकल पड़ा. तकरीबन ढाई घंटे बाद जब वह घर लौट कर आया, तो अंजली खाना पका कर उस के इंतजार में बैठी हुई थी.

राजेश ने आते ही पूछा, ‘‘तुम ने खाना खा लिया?’’

‘‘नहीं,’’ अंजली ने छोटा सा जवाब दिया.

राजेश के कहने पर उस ने थोड़ा सा खाना खाया. खाना खाने के बाद वे एकदूसरे के सामने बैठे हुए थे. राजेश ने उस से कुरेदकुरेद कर पूछना शुरू किया, तो उस ने बताया, ‘‘मैं 10वीं जमात तक पढ़ी हूं. गरीबी के चलते मेरे मामा ने कम उम्र में ही मेरी शादी कर दी थी, क्योंकि मेरे मातापिता बचपन में ही गुजर गए थे.

‘‘मेरे मामा किसी तरह से मेरी शादी कर के छुटकारा पाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बिना जानेसमझे मुझे उस पियक्कड़ के गले बांध दिया था.’’

1-2 दिन बाद ही राजेश को यह एहसास हुआ कि जिस घर में वह अकेलापन महसूस करता था, उस घर में अब रौनक आ गई थी. पहले वह घर से बाहर ज्यादा समय बिताना चाहता था, पर अब अंजली के आते ही उस का रूटीन बदल गया था. वह ज्यादा से ज्यादा समय उस के साथ बिताना चाहता था. उस के साथ बातें करना अच्छा लग रहा था.

अंजली कुछ दिन में ही अपना दुखदर्द भूल चुकी थी. अब वह बातचीत के दौरान थोड़ाबहुत हंसनेमुसकराने लगी थी. वह रोज उस के लिए खाना पकाने लगी थी. दोनों मिल कर खाते थे और देर रात तक इधरउधर की बातें करते थे.

तकरीबन हफ्तेभर बाद राजेश एक दिन औफिस से छुट्टी ले कर अपने एक दोस्त की बाइक से अंजली के गांव की तरफ चला गया था. वहां उस ने एक पान बेचने वाले से पूछा, ‘‘भैया, यहां कोरोना वायरस से कितने लोगों की मौत हुई होगी?’’

उस पान वाले ने बताया, ‘‘यहां कोरोना से किसी की मौत नहीं हुई है, पर हालफिलहाल में एक औरत ने घर से भाग कर नदी में कूद कर अपनी जान दे दी है. उस की लाश अभी तक नहीं मिल पाई है.’’

‘‘वे लोग कैसे जानें कि वह औरत नदी में कूद गई है?’’ राजेश ने पान वाले से सवाल किया.

‘‘उस औरत की चप्पल नदी के किनारे पड़ी मिली थी. अब उस औरत का श्राद्ध किया जा रहा है. उस का पति शराबी होने के साथसाथ नालायक भी है. वह बिना शराब पिए रह ही नहीं पाता है. बेचारी उस औरत को मुक्ति मिल गई,’’ पान बेचने वाले ने राजेश को बताया.

राजेश भरे मन से वापस लौट आया. वह इस उधेड़बुन में था कि अंजली को यह सब बात बताए कि नहीं बताए.

लेकिन वह अंजली से सचाई को छिपाना नहीं चाहता था, इसलिए उस ने बताया, ‘‘आज मैं तुम्हारे गांव में गया था. तुम उन लोगों की नजरों में मर चुकी हो, इसलिए तुम्हारे परिवार के द्वारा तुम्हारा श्राद्ध भी किया जा रहा था.’’

यह सुन कर अंजली निराश हुई. धीरेधीरे अनलौक की प्रक्रिया शुरू हो गई थी. दुकानें वगैरह ज्यादा समय के लिए खुलने लगी थीं, इसीलिए राजेश अंजली के लिए पहनने के लिए कुछ नई साड़ी खरीद लाया था. अबतक राजेश को अंजली से लगाव हो चुका था.

राजेश की नईनई नौकरी लगी थी, इसलिए शादी के लिए उस के घर पर लड़की वाले आ रहे थे. उस के मातापिता जल्दी ही शादी कराना चाहते थे, लेकिन लौकडाउन के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा था.

अंजली के आने के बाद राजेश की इच्छा बदलने लगी थी. अंजली भी चाहती थी कि जब वह मर नहीं सकी तो राजेश के लिए ही जिएगी, क्योंकि उसी के चलते उसे नई जिंदगी मिली थी. वह मन ही मन राजेश को चाहने लगी थी.

उस रात मूसलाधार बारिश होने लगी थी. राजेश बरामदे में सो रहा था, लेकिन तेज बारिश के झोंकों के चलते बरामदे का बिस्तर गीला हो गया था. अंजली के कहने पर राजेश उस के साथ बिस्तर पर सो गया था.

तेज हवा और बारिश के चलते वातावरण में ठंडापन भी आ गया था. ऐसे में बिजली चली गई. जैसे ही दोनों की गरम सांसें टकराईं, दोनों के अंदर बिजली कौंधने लगी थी. वे एकदूसरे की बांहों में समाने लगे थे. कुछ देर में दूरियां मिट गई थीं. अब वे दोनों एकदूसरे की बांहों में पड़ कर भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. Romantic Story In Hindi

Romantic Story In Hindi: कायर – श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह क्यों किया

Romantic Story In Hindi: श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा.

हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’ इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था. Romantic Story In Hindi

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