मकान मालकिन : क्यों थीं प्रभा देवी आंटी खड़ूस?

‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था.

पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था.

होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है,

2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया.

राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं.

आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के  पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं.

आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैसे टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’ थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया.

आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया.

‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’

आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी.

उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’

वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है.

उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’

तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था.

मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’

राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’

इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई.

 

अंधेरी गुफा : जब मासूम बच्चों ने टीचर की लगाई क्लास

मैं अपनी कक्षा के छात्रों से कहता रहता था कि पढ़ने के अलावा और भी अच्छीअच्छी बातें सीखें. मन में कोई सवाल हो पूछ लें, मैं जवाब दे दूंगा.

पहले तो बच्चे झिझके, पर एक दिन उन्होंने मुझ पर ऐसे सवालों की बौछार कर दी कि मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा.

‘‘मास्टरजी, रशीद मेरा दोस्त है. हम दोनों साथसाथ खेलते हैं, साथसाथ स्कूल आते हैं, मेला देखने भी साथसाथ जाते हैं. हम में बहुत प्यार है. ईद पर वह मुझे अपने घर से सेवइयां ला कर खिलाता है और मैं दीवाली पर उसे घर की बनी गुझिया और समोसे खिलाता हूं. क्या बड़े लोग हमारी तरह मिलजुल कर एकसाथ नहीं रह सकते? कल ही एक खबर में पढ़ा था कि 4-5 लोगों ने एक मुसलिम को सरेआम सड़क पर मार डाला.’’

मेरा सिर धरती से लगता जा रहा था. मेरा सारा जोश हवा हो चुका था. लग रहा था कि मैं कुछ जानता ही नहीं. बहुत जानने का गुमान चूरचूर हो गया था. मासूम बच्चों से भरी उस क्लास में सब से गंवार और अनपढ़ मैं खुद था, क्योंकि उन के किसी भी सवाल का सही जवाब मेरे पास नहीं था.

जब मैं स्कूल में नयानया आया था, तब ऐसा सवाल पूछने की हिम्मत किसी भी छात्र में नहीं थी. यह बदलाव मैं ही उन में लाया था.

दरअसल, बीऐड के बाद बहुत हाथपैर मारने के बाद एक देहाती सरकारी स्कूल में नौकरी मिली. उस स्कूल में 12वीं जमात तक की पढ़ाई होती थी.

नईनई नौकरी थी. किसी स्कूल में मास्टर बनने का पहला मौका था. मन में उमंग थी, लगन थी. बच्चों को कुछ नया सिखाने की उमंग थी. उस समय मेरे लिए मास्टरी केवल रोजीरोटी का धंधा भर नहीं थी, बल्कि मेरे मन में बच्चों को पढ़ाने के अलावा उन्हें अच्छीअच्छी बातें सिखाने की चाहत भी हिलोरें मार रही थीं. बच्चों को स्कूली किताबें पढ़ाने के अलावा कुछ जरूरी जानकारियां देना भी मैं अपना फर्ज समझता था.

15 अगस्त का दिन था. स्कूल में तिरंगा झंडा फहराने के बाद छुट्टी हो गई. अगले दिन मैं छठी कक्षा के लड़कों को पढ़ा रहा था. अचानक मैं उन से पूछ बैठा, ‘‘15 अगस्त को तिरंगा झंडा क्यों फहराते हैं?’’ ज्यादातर बच्चे चुप रह गए. 2-4 बच्चों ने जवाब दिए भी तो आधेअधूरे.

‘‘हमारे देश की राजधानी कहां हैं?’’ मेरे इस सवाल पर भी कोई खास हरकत नहीं हुई. मुझे अचरज के साथ अफसोस भी हुआ. छठी में पढ़ने वाले लड़कों को ये बातें तो जरूर मालूम होनी चाहिए. लेकिन कोई भी मास्टर इस बात पर ध्यान नहीं देता था. कोई बच्चा पढ़े, या न पढ़े, किसी को कोई मतलब नहीं था.

पूरी कक्षा में कुछेक बच्चों के पास ही किताबें रहती थीं. बाकी बच्चे ताकझांक कर या मास्टरों के पास अपने घरों से दूध, घी, गुड़ या दूसरी चीजें पहुंचा कर काम चला लिया करते थे. मास्टरजी उन चीजों की वजन परख कर उसी के मुताबिक इम्तिहान में नंबर दे देते थे.

यह तो कभीकभार ही होता था कि कक्षा में मास्टर और बच्चे दोनों मौजूद रहें. जब बच्चे आते तो मास्टर नहीं, और जब मास्टर आते तो बच्चे नहीं. हां, स्कूल के रजिस्टरों से अलबत्ता यह कमी दूर कर दी जाती.

स्कूल में पढ़ाई की यह हालत देख कर मेरा दिल जख्मी हो उठा. जो बच्चे अपने देश की राजधानी तक न बता पाएं, वे आगे चल कर क्या करेंगे? यह सोच कर मैं बहुत चिंतित हो उठा.

स्कूल में ही एक छोटा सा पुस्तकालय भी था, जिस में कुछ छोटीमोटी किताबों के अलावा 2-3 दिन के बासी अखबार भी रहते थे. मैं ने अपने बच्चों को उन अखबारों में छपी छोटीमोटी खबरें व कहानियां पढ़ने के लिए कहा.

मैं ने उन्हें यह भी कहा कि अगर कोई बात समझ में न आए, तो तुम लोग मुझ से उस का मतलब पूछ सकते हो. हालांकि सब के घरों में टैलीविजन नहीं थे, पर ज्यादातर बच्चे कहीं न कहीं जा कर टैलीविजन के कार्यक्रम जरूर देखते थे. मैं ने उन से रेडियो, टैलीविजन पर खबरें सुनते रहने के लिए भी कहा. कुछ के बड़े भाइयों के पास मोबाइल फोन थे. दिन में वे रील्स देखते थे या ह्वाट्सएप पर कुछ पढ़ते थे.

कई दिनों तक बच्चों को खबरें पढ़नेसुनने की सलाह देते रहने के बाद मैं ने बच्चों के रुझान में होने वाले बदलाव का पता लगाने के लिए पूछा, ‘‘तुम में से कितने बच्चे अखबार की खबरें पढ़ते हैं या टैलीविजन पर न्यूज देखते हैं? हाथ उठाओ.’’

मेरे पूछने पर जब उठने वाले हाथों की तादाद बढ़ने लगी, तो मुझे बड़ी खुशी हुई.

एक दिन मुझे लगा कि मेरी क्लास के लड़कों की मासूम आंखों में खबरों के बारे में कुछ छोटे व गंभीर सवाल तैर रहे हैं. मैं ने उन्हें ढांढ़स देते हुए कहा कि वे जो भी पूछना चाहें, पूछ सकते हैं.

कुछ देर के सन्नाटे के बाद पहला सवाल स्प्रिंग की तरह उछल कर सामने आया.

‘‘हत्या किसे कहते हैं? उसे कैसे करते हैं?’’ एक बच्चे ने आगे बढ़ कर पूछा.

‘‘दुश्मनी में लोग एकदूसरे को जान से मार डालते हैं. इसी को हत्या करना कहते हैं, ‘‘बच्चे के सवाल का कुछ सकपकाते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘जो लोग हत्या करते हैं, वे गंदे लोग होते हैं न मास्टरजी?’’ एक भोली सी सूरत पर फैली मासूम आंखों में नफरत तैर रही थी.

उधर से मैं अपनी गरदन मोड़ भी नहीं पाया था कि एक लड़की ने जानना चाहा, ‘‘जो लोग हत्या करते हैं, उन्हें डर नहीं लगता? वे तो बच्चों की भी हत्या कर देते हैं. उन की बच्चों से क्या लड़ाई होती है?’’

आवाज मेरे गले में अटकने लगी. तभी एक दूसरे लड़के का सवाल चाबुक की मार सा घाव दे गया, ‘‘जो बच्चे मरते हैं, उन की मां तो रोती होंगी न?’’

‘‘मास्टरजी, युवती किसे कहते हैं?’’ एक कोने से आवाज आई.

उस लड़की का सवाल मुझे जवाब देने लायक लगा. मैं ने कहा, ‘‘देखो, जब तुम कुछ और बड़ी हो जाओगी, तब तुम्हें युवती कहेंगे.’’

जब मैं ने उस से पूछा कि उस का सवाल किस घटना से जुड़ता हुआ है, तो टूटेफूटे शब्दों में जोकुछ भी वह समझा पाई, उसे पूरा सुनने से पहले ही मैं ने अपने कानों में उंगली डाल ली.

‘‘रात को 4 बदमाशों ने एक युवती के साथ…’’ इस से आगे वह न तो अपनी बात पूरी कर पाई और न ही मैं सुन पाया.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि इन सवालों की बौछार से बचने के लिए कहां व किस कोने में जा छिपूं. तभी मुझे सबकुछ जानने वाला समझ कर एक दूसरी लड़की ने अपना एक भोलाभाला मासूम सवाल मेरे सामने रख दिया, ‘‘अगले महीने मेरे सुरेश भैया की शादी होगी, तो क्या मेरी मां पर उन की बहू पुलिस का केस कर देगी?’’

‘‘मैं तो कभी शादी नहीं करूंगा,’’ एक दूसरे लड़के की एक जोड़ी आंखें डर से फैल गईं.

मेरा कद बारबार बौना होता जा रहा था. मुझे संभलने का मौका दिए बगैर एक हथगोला सा क्लास की पहली लाइन से आ कर मेरे माथे पर लगा, ‘‘मास्टरजी, लोग दूसरों के घर क्यों जला देते हैं?’’

मेरी बेचैनी बढ़ गई और पसीना पोंछते हुए मैं क्लास से बाहर निकल आया और कैद कर लिया खुद को उन सवालों की अंधेरी गुफा में, जिन का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन फिर भी चैन नहीं मिला.

सोचने लगा, ‘कब हम इतने समझदार और अच्छे रहनसहन वाले हो पाएंगे? कब हमारी पूरी बिरादरी अपना चालचलन सुधार कर मेलजोल से रहने लगेगी कि ऐसे सवालों से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा? वह वक्त कब आएगा, जब बच्चों के हर सवाल का जवाब हमारे पास रहेगा?’

पलटती बाजी : बेटी ने बाप को दी अनोखी सौगात

अपने पान के खोखे के भीतर बैठे तेज गरमी से उबलते उमराव का हाथ बारबार बढ़ी हुई दाढ़ी पर जाता, जो बेवजह खुजली कर के गरमी की बेचैनी को और बढ़ा रही थी. अकसर उस के खोखे तक लोग आते तो उन के लिहाज से वह हाथ धोता, मगर वे भी जाने क्यों पास की बड़ेबड़े शीशों वाली नई बनी दुकान की ओर मुड़ जाते. उस दुकान का मालिक सरजू भी एकदम टिपटौप था.

मगर उमराव की निगाह में सरजू कटखना कुत्ता था. उस ने दुकान में हजारों रुपए के तो शीशे लगवाए थे, माल ठसाठस भरा था, पर उमराव का रुपए 2 रुपए का माल भी बिक जाए तो उस की आंख में सूअर का बाल उग आता था. जैसे कमानेधमाने का हक सिर्फ सरजू को ही है. वह 2-4 बार धमकी भी दे चुका था, ‘‘दुकान उठवा कर फिंकवा दूंगा.’’

सरजू की दुकान पर आने वाले नशेड़ी और गुंडे, लफंगे उस की दुकान को न केवल हिकारत की नजर से देखते, बल्कि अबेतबे कह कर उस से पानीवानी भी मांगते यानी पान खाओ सरजू के यहां और बेगारी करे उमराव.

अरे भाई, कभीकभी एकाध बार ही बोहनी करवाओ तो उसे पानी देने में कोई तकलीफ नहीं, मगर खाली रोब कौन झेले, इसीलिए तो वह कभीकभार अपनेआप को आदमी समझने की गलती कर बैठता था और गाली खाने के साथ एकाध बार थप्पड़ भी खा चुका है.

उमराव बेचारा मुश्किल में था. उस की जिंदगी में जैसे रोब ही बदा था. गांव में ठाकुरों का रोब, यहां शोहदों का रोब. गांव में लोगों ने खेत हथियाए तो वह शहर आया. मगर शहर गांव का भी लक्कड़दादा निकला. यहां के सांपों के डसने का तो कोई मंत्र ही नहीं था.

दुकान पर ही जलालत होती तो वह झेल ले जाता, पर यहां तो उस के किराए की खोली भी एक मुसीबत थी, इसलिए नहीं कि वह आरामदेह न हो कर तंग, सीलन भरी और टीन की तपने वाली छत थी, बल्कि इसलिए कि उस की बिटिया बुधिया धीरेधीरे जवानी की डगर पर कदम रख रही थी.

कभीकभी उमराव सोचता कि काश, गरीबों की बेटियां जवान ही न होतीं तो कितना अच्छा होता. फिर तो गली के छिछोरे लफंगे उस की खोली के सामने ठहाके न लगाते और न ही सीटियां बजाते.

पर जिस बात पर बस नहीं है उस का किया ही क्या जाए. उस के बस में केवल इतना था कि वह 2-4 बार दुकान में ताला लगा कर खोली की तरफ चला जाता. कभीकभी तो खोली के सामने ऐसा जमघट होता कि उस का धड़कता दिल एकदम तेज दर्द करने लगता. मगर वह खोली के दरवाजे तक जाने की हिम्मत न कर पाता और उलटे पैर लौट आता.

हालांकि उसे बुधिया पर पूरा यकीन था. वह जानता था कि वह बेचारी बिगड़ी नहीं है और यही खयाल उसे और बेबस कर जाता, काश, उस में इतनी ताकत होती कि खोली के आगे ठहाके लगाने वालों के थप्पड़ रसीद कर सकता.

इस तरह की लाचारी में तो बुधिया को अनचाहे आंसू पीने के सिवा कोई चारा नहीं था और बूढ़े बाप की बेबसी के इस दौर में कुछ भी घट सकता था.

उमराव इन खयालों में बेचैन हो उठा. पड़ोस की दुकान पर सिगरेट पीता एक लड़का मोटरसाइकिल की गद्दी पर बैठा धुआं इस अंदाज से फेंक रहा था कि उमराव को अपना वजूद ही धुआंधुआं नजर आने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह लड़का अपनी उल्लुओं जैसी आंखों से उसे ही घूर रहा हो.

उमराव ने इस विचार के आते ही अपने सीने में कुछ दबाव महसूस किया और सोचा कि हो सकता है कि खोली का भी यही हाल हो. वह तो फिर भी दुकान बंद कर सकता है, पर बेचारी बुधिया क्या करेगी. इसी खयाल के तहत उस ने खोखे को ताला मारा और गरमी की दोपहर के बावजूद खोली की ओर चल दिया.

रास्ते में लू के थपेड़ों और चुहचुहाते पसीने के बावजूद उमराव कुछ ताजगी महसूस करने लगा. यहां कम से कम उसे घूरने या दुत्कारने वाला तो कोई नहीं था. उस ने ताजा हवा फेफड़ों में भरी और मन को दिलासा दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं होने वाली है. हिम्मत से काम लेने की जरूरत है. ऐसे तो दुनिया का चलन ही गड़बड़ है, पर खुद ठीक हो तो सब ठीक है.

थोड़ी ही देर में उमराव अपनी खोली के दरवाजे पर खड़ा था. वहां सन्नाटा था. दरवाजा भिड़ा हुआ था, पर फिर भी कमरे का काफी हिस्सा बाहर से नजर आ रहा था.

पहले तो उसे बुधिया पर गुस्सा आया कि सांकल चढ़ा लेनी थी, कायदे से. ऐसी लापरवाही को इशारा समझ कर लफंगों की हिम्मत बढ़ती है. मगर दूसरे ही पल उस ने सोचा कि नहीं, वह भी हाड़मांस की बनी है. पूरी खुली दुकान में उसे गरमी लगती है तो यहां भट्ठी सी तपती खोली में बुधिया को भी ताजा हवा न सही, गरमी से राहत की जरूरत महसूस होती होगी.

अपनी गरीबी पर उस का दिल रो उठा. कितने सपनों से इसे पाला था. जब गोद में ही थी, तब मरतेमरते इस की मां ने इसे कभी कोई तकलीफ न होने देने का वचन ले कर उमराव की गोद में अपनी आंखें बंद कर ली थीं. कितने अरमान थे, एकलौती बेटी को ले कर. कहां अब उसे भूखे भेड़ियों से बचाना ही एक टेढ़ा मसला है.

उमराव ने देखा कि भोली हिरनी सी बुधिया अपने बाल संवार रही थी, दरवाजे की ओर पीठ कर के. वह एक पल को सिहर उठा. उसे क्या पता कि मां की कमी महसूस हुई. वह होती तो बेटी की कायदे से देखभाल करती. तब उमराव बेफिक्र हो कर दुकानदारी कर सकता था. मगर अब तो उस का दिल न दुकानदारी में लग पाता और न खोली में.

खोली के दरवाजे पर उस के खांसने से बुधिया ने मुड़ कर देखा. फिर दुपट्टा ठीक करते हुए बापू को बैठने का इशारा करती हुई पानी का गिलास उसे पकड़ाने लगी. पानी पी कर उसे कुछ चैन आया. कितनी समझदार है, बुधिया. काश, उस के सपनों की शान पर यह चढ़ पाती. वह धीरे से मुसकरा दिया.

उमराव की मुसकराहट देख कर बुधिया खिल उठी. बरबस उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों, क्या बात है बापू, आज बड़े खुश हो?’’

‘‘हां बेटी, एक बात मेरे मन में है, अगर तू माने,’’ वह हंस पड़ा.

‘‘बोलो बापू, क्या सोचा है?’’ कुछ मुसकराते हुए बुधिया ने कहा.

‘‘मुझे हमेशा तेरी चिंता लगी रहती है. मैं सोचता हूं कि अपने खोखे के पास एक बैंच डाल दूं और एक चाय की दुकान खोल दूं. तू चाय बनाना और मैं पान बेचूंगा. तेरे पास चाय पीने वाले मेरे पास पान खाएंगे. इसी तरह अपनी दुकानदारी चल निकलेगी. यहां चाय की कोई दुकान है भी नहीं,’’ उमराव एक ही सांस में कह गया.

‘‘हां, बापू, ठीक है. मेरा दिल भी वहां लगा रहेगा. चार पैसे भी जमा होंगे,’’ बुधिया बहुत खुश हुई.

‘‘हां, पर एक बात का खयाल रहे, कपड़ेलत्ते जरा साफ पहनने होंगे. वहां मातमी सूरत बना कर न बैठना, समझी?’’ पड़ोसी पान वाले की दुकान के चलने का राज समझ कर उमराव ने कहा.

‘‘हांहां, सब समझती हूं. बस एक तिरपाल डलवानी पड़ेगी. 2 मटके पानी और बैंच. कुल्हड़ों का इंतजाम कर लेना, गिलास धोने लगी तो चाय बनाना मुश्किल होगा…’’ बुधिया बोली, ‘‘वह चाय बनाऊंगी कि लोग खिंचे चले आएंगे.’’

उमराव का सोचा वाकई सच निकला. दुकान चल निकली थी. जो मोटरसाइकिलें पहले पड़ोसी की दुकान पर खड़ी होती थीं, वह अब बुधिया की चाय की दुकान पर खड़ी होने लगीं.

वह मुसकरा कर चाय देती. लोग अपने दोस्तों से कहते, ‘‘भई, चाय हो तो ऐसी.’’

ठंडे पानी के साथ बुधिया की तिरछी मुसकान का भी कुछ असर था. कई लोग एक प्याला चाय पीने का इरादा कर के आते और 2-2 पी कर जाते, क्योंकि बैठने, बतियाने के अलावा अखबार भी पढ़ने को मिल जाता. चलते समय वह बापू की दुकान की ओर इशारा कर देती और लोग वहीं से पान, सिगरेट खरीदते.

कल तक सुनसान रहने वाली उमराव की दुकान खूब चलने लगी थी. वह सोचता था कि अब कुछ ही दिनों में वह भी पड़ोसी की तरह अपनी दुकान में नीचे से ऊपर तक शीशे ही शीशे लगवा लेगा. पड़ोसी सरजू को लगता था कि उस की मक्खियां मारने की बारी आ गई है.

अब पैसे के आने के साथ बुधिया के जिस्म और कपड़ों पर भी निखार आ रहा था. उमराव को दुकान में बैठने वाले शोहदों से अब कोई तकलीफ नहीं थी और न ही बुधिया की तिरछी चितवन पर ही उस की छाती में कोई दर्द उठता था. वह कारोबार के गुर जान गया था. वह पड़ोसी की ठप होती दुकानदारी का मजा लेना भी जान गया था.

अभी कल ही पड़ोसी ने उमराव की मुसकान पर गुस्सा हो कर कुछ अंटशंट बका था तो वह तो चुप रहा था, पर बुधिया की दुकान पर चाय के बहाने हर रोज बैठने वाले लाल मोटरसाइकिल वाले हट्टेकट्टे समीर ने सरजू का कौलर पकड़ कर धक्का देते हुए कहा था, ‘‘अबे, बूढ़ा समझ कर उमराव पर टर्राता है. खबरदार, जो आइंदा उस की ओर देखा भी. क्या गरीब को रोटीरोजी का हक ही नहीं है? वह दो पैसे कमाने लगा तो तेरे पेट में मरोड़ होने लगी. अब की बार कुछ कहा तो दुकान की एकएक चीज नाली में पड़ी मिलेगी.’’

सरजू समझ गया था. बुधिया उसे अंगूठा दिखाती हुई हंस रही थी. सरजू तो जरूर जलाभुना होगा, मगर उमराव को उस पल बुधिया में अपना पहरेदार रूप नजर आया. वह सोचने लगा कि सालभर ऐसी ही कमाई हो जाए, तो फिर वह बुधिया के हाथ पीले करने में देर नहीं करेगा.

जिम्मेदार कौन : कमला चरित्रहीन क्यों थी?

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे.

सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था.

यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा.

जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा.

वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था.

इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई.

कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे.

जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे.

मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा.

फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी.

इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

काली की भेंट : पुजारी का फैलाया भरम

शहर के किनारे काली माता का मंदिर बना हुआ था. सालों से वहां कोई पुजारी नहीं रहता था. लोग मंदिर में पूजा तो करने जाते थे, लेकिन उस तरह से नहीं, जिस तरह से पुजारी वाले मंदिर में पूजा की जाती है.

एक दिन एक ब्राह्मण पुजारी काली माता के मंदिर में आए और अपना डेरा वहीं जमा लिया. लोगों ने भी पुजारीजी की जम कर सेवा की. मंदिर में उन की सुखसुविधा का हर सामान ला कर रख दिया.

पहले तो पुजारीजी बहुत नियमधर्म से रहते थे, सत्यअसत्य और धर्मअधर्म का विचार करते थे, लेकिन लोगों द्वारा की गई खातिरदारी ने उन का दिमाग बदल दिया. अब वे लोगों को तरहतरह की बातें बताते, अपनी हर सुखसुविधा की चीजों को खत्म होने से पहले ही मंगवा लेते.

काली माता की पूजा का तरीका भी बदल दिया. पहले पुजारीजी काली माता की सामान्य पूजा कराते थे, लेकिन अब उन्होंने इस तरह की पूजा करानी शुरू कर दी, जिस से उन्हें ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा मिल सके.

धीरेधीरे पुजारीजी ने काली माता पर भेंट चढ़ाने की प्रथा शुरू कर दी. वे पशुओं की बलि काली माता को भेंट करने के नाम पर लोगों से बहुत सारा पैसा ऐंठने लगे. जब कोई किसी काम के लिए काली माता की भेंट बोलता, तो पुजारीजी उस से बकरे की बलि चढ़ाने के नाम पर 5 हजार रुपए ले लेते और बाद में कसाई से बकरे का खून लाते और काली माता को चढ़ा देते.

बकरे के नाम पर लिए हुए 5 हजार रुपए पुजारीजी को बच जाते थे, जबकि बकरे का मुफ्त में मिला खून काली माता की भेंट के रूप में चढ़ जाता था.

धीरेधीरे दूरदूर के लोग भी काली माता के मंदिर में आने शुरू हो गए. पुजारीजी दिनोंदिन पैसों से अपनी जेब भर रहे थे. लोग सब तरह के झंझटों से बचने के लिए पुजारीजी को रुपए देने में ही अपनी भलाई समझते थे.

लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे, जो पुजारीजी की इस प्रथा का विरोध करते थे. लेकिन पुजारीजी के समर्थकों की तुलना में ये लोग बहुत कम थे, इसलिए उन्हें ऐसा काम करने से रोक न सके.

जब पुजारीजी के ढोंग की हद बढ़ गई, तो कुछ लोगों ने पुजारी की अक्ल ठिकाने लगाने की ठान ली. शहर में रहने वाले घनश्याम ने इस का बीड़ा उठाया.

घनश्याम सब से पहले पुजारीजी के भक्त बने और 2-4 झूठी समस्याएं उन्हें सुना डालीं. साथ ही बताया कि उन के पास पैसों की कमी नहीं है, लेकिन इतना पैसा होने के बावजूद भी उन्हें शांति नहीं मिलती. अगर किसी तरह उन्हें शांति मिल जाए, तो वे किसी के कहने पर एक लाख रुपए भी खर्च कर सकते हैं.

एक लाख रुपए की बात सुन कर  पुजारीजी की लार टपक गई. उन्होंने तुरंत घनश्याम को अपनी बातों के जाल में फंसाना शुरू कर दिया.

पुजारी बोला, ‘‘देखो जजमान, अगर तुम इतने ही परेशान हो, तो मैं तुम्हें कुछ उपाय बता सकता हूं.

‘‘अगर तुम ने ये उपाय कर दिए, तो समझो तुम्हें मुंहमांगी मुराद मिल जाएगी. लेकिन इस सब में खर्चा बहुत होगा.’’

घनश्याम ने पुजारीजी को अपनी बातों में फंसते देखा, तो झट से बोल पड़े, ‘‘पुजारीजी, मुझे खर्च की चिंता नहीं है. बस, आप उपाय बताइए.’’

पुजारीजी ने काली माता की पूजा के लिए एक लंबी लिस्ट तैयार कर दी.

घनश्याम पुजारीजी की कही हर बात  मानता गया. पुजारीजी ने काली माता की भेंट के लिए 2 बकरों का पैसा भी घनश्याम से ले लिया. साथ ही, उन्हें घर में एक पूजा कराने को कह दिया.

पुजारीजी की इस बात पर घनश्याम तुरंत तैयार हो गए.

तीसरे दिन घनश्याम के घर पर पूजा की तारीख तय हुई, जबकि भेंट चढ़ाने के लिए पैसे तो पुजारीजी उन से पहले ही ले चुके थे. तीसरे दिन पुजारीजी घनश्याम के घर जा पहुंचे.

पुजारीजी ने अमीर जजमान को देख हर बात में पैसा वसूला और घनश्याम अपनी योजना को कामयाब करने के लिए पुजारी द्वारा की गई हर विधि को मानते गए.

जोरदार पूजा के बाद घनश्याम ने पुजारीजी के लिए स्वादिष्ठ पकवान बनवाए, बाजार से भी बहुत सी स्वादिष्ठ चीजें मंगवाई गईं.

पुजारीजी ने जम कर खाना खाया. उन्होंने आज तक इतना लजीज खाना नहीं खाया था.

जब पुजारीजी खाना खा चुके, तो उन्होंने घनश्याम से पूछा, ‘‘घनश्याम, तुम ने हमें इतना स्वादिष्ठ खाना खिला कर खुश कर दिया. ये कौन सा खाना है और किस ने बनाया है?

पुजारी के पूछने पर घनश्याम ने जवाब दिया, ‘‘पुजारीजी, कुछ खाना तो बाजार से मंगवाया था और कुछ यहीं पकाया था. सारा खाना ही बकरे के मांस से बना हुआ था.’’

घनश्याम ने बकरे के मांस का नाम लिया, तो पुजारीजी की सांसें अटक गईं, लेकिन उन्होंने सोचा कि शायद घनश्याम मजाक कर रहे हैं. वे बोले, ‘‘जजमान, आप मजाक बहुत कर लेते हैं, लेकिन हमारे सामने मांसाहारी चीज का नाम मत लो. हम तो मांसमदिरा को छूते भी नहीं, खाना तो बहुत दूर की बात है.’’

घनश्याम ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘मैं सच कह रहा हूं पुजारीजी. आप चाहें तो जिस बावर्ची ने खाना बनाया है, उस से पूछ लें.’’

घनश्याम की बात सुन पुजारीजी का दिल बैठ गया. मन किया कि उलटी कर दें. नफरत से भरे मन में घनश्याम के लिए गुस्सा भी बहुत था.

घनश्याम ने आवाज दे कर बावर्ची को बुला कर कहा, ‘‘जरा पुजारीजी को बताओ तो कि तुम ने क्या बनाया था.’’

बावर्ची अपने बनाए हुए खाने को बताने लग गया. सारा खाना बकरे के मांस से बनाया गया था.

पुजारीजी पैर पटकते हुए गुस्से से भरे घनश्याम के घर से चले गए. घर के बाहर आ कर उन्होंने गले में उंगली डाली और खाए हुए खाने को अपने पेट से खाली कर दिया, लेकिन मन की नफरत इतने से ही शांत नहीं हुई.

पुजारीजी ने बस्ती में हंगामा कर लोगों को जमा कर लिया, जिन में ज्यादातर उन के भक्त थे. उन्होंने घनश्याम द्वारा की गई हरकत सब लोगों को बताई, तो हर आदमी घनश्याम की इस हरकत पर गुस्सा हो उठा.

अब लोग पुजारीजी समेत घनश्याम के घर जा पहुंचे. सब ने घनश्याम को भलाबुरा कहा.

घनश्याम ने सब लोगों की बातें चुपचाप सुनीं, फिर अपना जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मैं किसी भी गलती के लिए माफी मांगने के लिए तैयार हूं, लेकिन आप पहले मेरी बात ध्यान से सुनें,

उस के बाद जो आप कहेंगे, वह मैं करूंगा.’’

सब लोग शांत हो कर घनश्याम की बात सुनने लगे. घनश्याम ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखो भाइयो, जब मैं पुजारीजी के पास गया और अपनी परेशानी बताई, तो इन्होंने मुझ से 2 बकरों की भेंट काली माता पर चढ़ाने के लिए रुपए लिए थे. साथ ही, मुझ से यह भी कहा था कि मैं घर में पूजा कराऊं.’’

‘‘मैं ने पुजारीजी के कहे मुताबिक ही पूजा कराई और घर में बकरे के मांस से बना खाना परोसा. पुजारीजी ने मुझ से पूछा नहीं और मैं ने बताया नहीं.’’

भीड़ में से एक आदमी ने लानत भेजते हुए कहा, ‘‘तो भले आदमी, तुम को तो सोचना चाहिए कि पुजारी को मांस खिलाना कितना अधर्म का काम है. क्या तुम यह नहीं जानते थे?’’

घनश्याम ने शांत लहजे में जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मुझे नहीं लगता कि यह कोई अधर्म का काम है. जब ब्राह्मण पुजारी अपनी आराध्य काली माता पर बकरे की बलि चढ़ा सकता है, तो उस बकरे के मांस को खुद क्यों नहीं खा सकता? क्या पुजारी की हैसियत भगवान से भी ज्यादा है या भगवान ब्राह्मण से छोटी जाति के होते हैं?’’

लोगों में सन्नाटा छा गया. घनश्याम की बात पर किसी से कोई जवाब न मिल सका.

पुजारीजी का सिर शर्म से झुक गया. उन्होंने यह बात तो कभी सोची ही नहीं थी. लोग खुद इस बात को सोचे ही बिना काली माता के लिए बकरे की बलि देते रहे थे.

आज पंडितजी की समझ में आया कि भला भगवान किसी जानवर का मांस क्यों खाने लगे? वे तो किसी भी जीव की हत्या को बुरा मानते हैं, वहां मौजूद सभी लोग घनश्याम की बात का समर्थन करने लगे.

भीड़ के लोगों ने पुजारीजी को ही फटकार कर काली माता का मंदिर छोड़ देने की चेतावनी दे दी. उस दिन से काली माता के मंदिर पर पशु बलि की प्रथा बंद हो गई.

पुजारीजी का धर्म भ्रष्ट हो चुका था, ऊपर से लोगों की नजरों में उन की इज्जत न के बराबर हो गई थी. उन्होंने वहां से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी. अब मंदिर वीरान हो गया था. अब वहां जानवर बंधने लगे थे.

ट्रेन की इमर्जैंसी खिड़की और वो लड़की

‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी.

अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया.

लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा.

थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह  झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली.

अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे.

ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई.

मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करते थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मु  झे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’ दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जा कर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’

अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछ चाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

इज्जत : सौदेबाज अनजान भाभी

बात उन दिनों की है, जब मेरे बीटैक के फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान होने वाला था और मैं इसी की तैयारी में मसरूफ था. अपनी सुविधा और आजादी के लिए होस्टल में रहने के बजाय मैं ने शहर में एक कमरा किराए पर ले कर रहने का फैसला किया था. शहर में अकेला रहना बोरिंग हो सकता है. यही सोच कर मैं ने अपने साथी रंजीत को अपना रूममेट बना लिया था.

फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान सिर पर था, इसलिए मैं इसी में बिजी रहता था, पर रंजीत को इस की कोई परवाह नहीं थी. वह पिछले हफ्ते अपने घर से आया था और अब उसे फिर वहां जाने की धुन सवार हो गई थी.

जब रंजीत अपने घर जाने के लिए निकल गया, तो मैं भी अपनी पढ़ाई में मस्त हो गया.

अभी आधा घंटा भी नहीं बीता होगा कि रंजीत लौट कर मुझ से बोला, ‘‘भाई, यह बता कि अगर किसी को मदद की जरूरत हो, तो उस की मदद करनी चाहिए या नहीं?’’

रंजीत और मदद… मुझे हैरत हो रही थी, क्योंकि किसी की मदद करना उस के स्वभाव के बिलकुल उलट था, पर पहली बार उस के मुंह से मदद शब्द सुन कर अच्छा लगा.

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल. इनसान ही इनसान के काम आता है. जरूरतमंद की मदद करने से बेहतर और क्या हो सकता है. पर आज तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो? तुम्हारे घर जाने का क्या हुआ?’’

‘‘यार, बात यह है कि मैं घर जाने के लिए टिकट खरीद कर जब प्लेटफार्म पर पहुंचा, तो देखा कि एक औरत अपने 2 बच्चों के साथ बैठी रो रही थी. मुझ से रहा न गया और पूछ बैठा, ‘आप क्यों रो रही हैं?’

‘‘उस औरत ने जवाब दिया, ‘मुझे जहानाबाद जाना है. इस समय वहां जाने वाली कोई गाड़ी नहीं है. अगली गाड़ी के लिए मुझे कल सुबह तक यहां इंतजार करना होगा.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘तो इस में रोने वाली क्या बात थी?’’’

रंजीत ने उस औरत की बात को और आगे बढ़ाया. वह बोली थी, ‘रात के 8 बज चुके हैं. मैं जानती हूं कि 9 बजे के बाद यह स्टेशन सुनसान हो जाता है. मेरे साथ 2 बच्चे भी हैं. कोई अनहोनी न हो जाए, यही सोचसोच कर मुझे रोना आ रहा है. मैं इस स्टेशन पर रात कैसे गुजारूंगी?’

‘‘मैं सोच में पड़ गया कि मु झे उस औरत की मदद करनी चाहिए या नहीं. यही सोच कर तुम से पूछने आ गया,’’ रंजीत मेरी ओर देखते हुए बोला.

‘‘देखो भाई रंजीत, हम लोग यहां बैचलर हैं. किसी की मदद करना तो ठीक है, पर किसी अनजान औरत को अपने कमरे पर लाना मु झे अच्छा नहीं लग रहा है. मकान मालकिन पता नहीं हम लोगों के बारे में क्या सोचेगी?’’

मुझे उस समय पता नहीं क्यों उस अनजान औरत को कमरे पर लाने का खयाल अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए अपने मन की बात उसे बता दी.

‘‘मकान मालकिन पूछेगी, तो बता देंगे कि रामध्यान की भाभी है, यहां डाक्टर के पास आई है. वैसे भी हम लोगों के गांव से अकसर कोई न कोई मिलने तो आता ही रहता है,’’ रंजीत ने एक उपाय सुझाया.

आप को बताते चलें कि जिस बिल्डिंग में हम लोग रहते थे, उस की दूसरी मंजिल पर रामध्यान भी किराए पर रह रहा था. वह वैसे तो हमारे ही कालेज का एक शरीफ छात्र था, पर हम लोगों से जूनियर था, इसलिए न केवल हमारी बातें मानता था, बल्कि हमें इज्जत भी देता था.

‘‘ठीक है. अब अगर तुम उस औरत की मदद करना ही चाहते हो, तो मुझे क्या दिक्कत है. रामध्यान को सारी बातें समझा दो.’’

रंजीत तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ रामध्यान के पास गया और उसे सारी बातें बता दीं. उसे कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि उस औरत के रातभर रहने के लिए वह अपना कमरा देने को भी तैयार था. वह उसी समय अपनी कुछ किताबें ले कर हमारे कमरे में रहने चला आया.

‘‘अब तुम जाओ रंजीत. उसे ले आओ. और हां, उसे यह भी समझा देना कि अगर कोई पूछे, तो खुद को रामध्यान की भाभी बताए.’’

‘‘नहीं, तुम भी मेरे साथ चलो,’’ वह मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहता था.

‘‘मुझे पढ़ने दो यार, इम्तिहान सिर पर हैं. मैं अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता,’’ मैं बहाना करते हुए बोला.

‘‘अच्छा, किसी की मदद करना समय बरबाद करना होता है. तुम्हारा अगर नहीं जाने का मन है, तो साफसाफ कहो. वैसे भी एक दिन में तुम्हारी कितनी तैयारी हो जाएगी? एक दिन किसी की मदद के लिए तो कुरबान किया ही जा सकता है,’’ रंजीत किसी तरह मुझे ले ही जाना चाहता था.

‘‘ठीक है भाई, जैसी तुम्हारी मरजी. आज की शाम किसी की मदद के नाम,’’ मैं मजबूर हो कर बोला. थोड़ी देर में

मैं भी तैयार हो कर उस के साथ निकल पड़ा. रंजीत आगेआगे और मैं पीछेपीछे. वह मु झे स्टेशन के सब से आखिरी प्लेटफार्म के एक छोर पर ले गया, जहां वह औरत अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी. वह हमें देख कर मुसकराने लगी. न जाने क्यों, उस का इस तरह मुसकराना मुझे अच्छा नहीं लगा.

मैं सोचने लगा कि न जाने कैसी औरत है, पर उस समय मुझ से कुछ बोलते नहीं बना.

स्टेशन से बाहर आ कर मैं ने 2 रिकशे वाले बुलाए. मुझे टोकते हुए वह औरत बोली, ‘‘2 रिकशों की क्या जरूरत है. एक ही में एडजस्ट कर चलेंगे न. बेकार में ज्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं.’’

‘‘पर हम एक ही रिकशे में कैसे चलेंगे?’’ मैं ने सवाल किया.

वह बोली, ‘‘देखिए, ऐसे चलेंगे…’’ कह कर वह रिकशे की सीट पर ठीक बीच में बैठ गई और दोनों बच्चों को अपनी गोद में बिठा लिया, ‘‘आप दोनों मेरे दोनों ओर बैठ जाइए,’’ वह हम दोनों को देख कर मुसकराते हुए बोली.

मुझे इस तरह बैठना अच्छा नहीं लग रहा था, पर उस दौर में पैसों की बड़ी किल्लत थी. अगर उस समय इस तरह से कुछ पैसे बच रहे थे, तो क्या बुरा था. आखिरकार हम दोनों उस के दोनों ओर बैठ गए.

हमारे बैठते ही अपने एकएक बच्चे को उस ने हम दोनों को थमा दिया. मैं अब भीतर ही भीतर कुढ़ने लगा था. हमारी अजीब हालत थी. हम उस की मदद कर रहे थे या वह हम से जबरदस्ती मदद ले रही थी.

रिकशे की रफ्तार तेज होती जा रही थी और मेरे सोचने की रफ्तार भी तेज होने लगी थी. मैं कहां हूं, किस हालत में हूं, यह भूल कर मैं अपनी सोच में ही डूबने लगा था. न जाने क्यों मुझे बारबार यह खयाल आ रहा था कि कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं.

कमरे पर पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज चुके थे. रंजीत ने उसे सारी बात समझा कर रामध्यान के कमरे में ठहरा दिया.

मैं ने रंजीत से कहा, ‘‘भाई, जब यह हमारे यहां आ गई है, तो इस के खानेपीने का इंतजाम भी तो हमें ही करना पड़ेगा. जाओ, होटल से कुछ ले आओ.’’

रंजीत खुशीखुशी होटल की ओर चल पड़ा. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि रंजीत को आज क्या हो गया है, पर मैं चुप था. वह जितनी तेजी से गया था, उतनी ही तेजी से और बहुत जल्दी खानेपीने का सामान ले कर लौटा था.

‘‘जाओ, उसे खाना दे आओ. हम दोनों रामध्यान के साथ यहीं खा लेंगे,’’ मैं ने रंजीत से कहा.

रंजीत खाना देने ऊपर के कमरे में गया और तकरीबन आधा घंटे बाद लौटा. मुझे भूख लगी थी, लेकिन मैं उस का इंतजार कर रहा था. सोच रहा था कि उस के आने के बाद साथ बैठ कर खाएंगे.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने इतनी देर क्यों लगा दी?’’

‘‘भाई, उस के कहने पर मैं ने भी उसी के साथ खाना खा लिया,’’ रंजीत धीरे से बोला.

‘‘कोई बात नहीं… आओ रामध्यान, हम दोनों खाना खा लें. हम तो इसी का इंतजार कर रहे थे और यह तुम्हारी भाभी के साथ खाना खा आया,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

रामध्यान को भी हंसी आ गई. वह हंसते हुए खाने की थाली सजाने लगा.

रात को खाना खाने के बाद अकसर हम लोग बाहर टहलने के लिए निकला करते थे, इसलिए खाने के बाद मैं बाहर जाने के लिए तैयार हो गया और रंजीत को भी तैयार होने के लिए कहा.

‘‘आज मेरा जाने का मन नहीं है,’’ रंजीत टालमटोल करने लगा.

आखिरकार मैं और रामध्यान टहलने के लिए निकले. तकरीबन आधा घंटे के बाद लौटे. वापस आने पर देखा कि हमारे कमरे पर ताला लगा हुआ था.

रामध्यान ने हंसते हुए कहा, ‘‘भैया, हो सकता है रंजीत भैया भाभी के पास गए हों.’’

‘‘हो सकता है. जा कर देखो,’’ मैं ने रामध्यान से कहा.

‘‘थोड़ी देर बाद रामध्यान और रंजीत हंसतेमुसकराते सीढ़ियों से नीचे आ रहे थे.

‘‘भाभीजी तो बहुत मजाकिया हैं भाई. सच में मजा आ गया,’’ उतरते ही रंजीत ने कहा.

‘‘अब हंसना छोड़ो और जल्दी कमरा खोलो,’’ वे दोनों हंस रहे थे, पर मुझे गुस्सा आ रहा था.

मैं ने चुपचाप कमरे में जा कर अपने कपड़े बदले और बैड पर सोने चला गया. थोड़ी देर तक बैड पर लेटेलेटे मैं ने पढ़ाई की और उस के बाद मु झे नींद आ गई.

देर रात को रंजीत और रामध्यान की बातों से मेरी नींद टूटी. उन दोनों को देख कर लग रहा था कि वे दोनों अभीअभी कहीं से लौटे हैं.

मैं ने उन से पूछा, ‘‘तुम दोनों कहां गए थे और अभी तक सोए क्यों नहीं?’’

‘कहीं… कहीं नहीं. बस अभी सोने ही वाले हैं,’ दोनों ने एकसुर में कहा.

थोड़ी देर बाद रंजीत ने मुझे जगाते हुए कहा, ‘‘भाई, तुम्हें एक बात कहनी है.’’

‘‘इतनी रात को… बोलो, क्या बात कहनी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अगर बुरा मानने वाली बात नहीं होगी, तो बुरा क्यों मानूंगा?’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम चाहो तो भाभीजी के मजे ले सकते हो,’’ रंजीत थोड़ा संकोच करते हुए बोला.

‘‘क्या बक रहे हो रंजीत? तुम्हें क्या हो गया है?’’ मैं ने हैरानी और गुस्से में उस से पूछा.

‘‘भाई, अच्छा मौका है. चाहो तो हाथ साफ कर लो,’’ रंजीत के चेहरे पर इस समय एक कुटिल मुसकान थी. वह अपनी इसी मुसकान से मुझे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘‘हम ने उसे सहारा दिया है. वह हमारी मेहमान है. तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो?’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘इस तरह भी हम उस की मदद कर सकते हैं. मैं ने उस से बात कर ली है. एक बार के लिए 2 सौ रुपए में सौदा पक्का हुआ है,’’ वह मुझे ऐसे बता रहा था, जैसे कोई बड़ा उपहार भेंट करने जा रहा हो.

‘‘मुझे तुम्हारी सोच से घिन आती है रंजीत. आखिर तुम अपने असली रूप में आ ही गए. मु झे हैरत हो रही थी कि तुम भला किसी की मदद कैसे कर सकते हो. अब तुम्हारी असलियत सामने आई.

‘‘मुझे पहले से ही शक हो रहा था, पर मैं यह सोच कर चुप था कि चलो, एक अच्छा काम कर रहे हैं. अच्छा क्या खाक कर रहे हैं,’’ मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था, पर इस समय उसे समझाने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था.

रंजीत कुछ नहीं बोला. वह सिर झुकाए बैठा था.

थोड़ी देर तक हम दोनों ऐसे ही चुपचाप बैठे रहे. रामध्यान अब तक सो चुका था.

थोड़ी देर बाद रंजीत बोला, ‘‘ठीक है भाई, सो जाओ. मैं भी सोता हूं.’’

सुबह जब मैं उठा, तब तक 7 बज चुके थे. रामध्यान की तथाकथित भाभी इस समय हमारे कमरे में बैठी थी. रामध्यान और रंजीत भी उस के पास ही बैठे थे.

‘‘मैं आप के ही उठने का इंतजार कर रही थी,’’ मुझे देखते हुए वह बोली.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हुआ कुछ नहीं. मैं जा रही हूं. कुछ बख्शीश तो दे दीजिए,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘बख्शीश किस बात की?’’ मुझे हैरानी हुई.

‘‘देखो मिस्टर, आप के इस दोस्त ने 2 सौ रुपए में एक बार की बात कर मेरी इज्जत का सौदा किया था. इन दोनों ने 2-2 बार मेरी इज्जत को तारतार किया. इस तरह पूरे 8 सौ रुपए बनते हैं. और ये हैं कि मुझे केवल 4 सौ रुपए दे कर टरकाना चाहते हैं. मैं भी अड़ चुकी हूं. बंद कमरे में मेरी इज्जत जाते हुए किसी ने नहीं देखा. अब अगर मैं यहां चिल्ला कर बताने लगी कि तुम लोग मुझे यहां क्यों लाए थे, तो तुम लोगों की इज्जत गई समझो,’’ वह बड़े ही तीखे अंदाज में बोले जा रही थी.

मैं ने रंजीत और रामध्यान की ओर देखा. वे दोनों सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे. मुझ से कोई भी नजरें नहीं मिला रहा था.

मैं सारी बात समझ चुका था. यह भी जानता था कि रंजीत और रामध्यान के पास और पैसे नहीं होंगे. ऐसे में मु झे ही अपनी जेब ढीली करनी होगी.

मैं ने अपना पर्स निकाला और उसे 4 सौ रुपए देते हुए बोला, ‘‘लीजिए अपने पैसे.’’ पैसे मिलते ही वह खुश हो गई और अपने रास्ते चल पड़ी.

मैं सोच रहा था कि इज्जत आखिर है क्या? कल उस की इज्जत बचाने के लिए हम ने उसे सहारा दिया था और आज अपनी इज्जत बचाने के लिए हमें उसे पैसे देने पड़े.

इस तरह कहने को तो दुनिया की नजरों में हम सभी की इज्जत जातेजाते बची है. वह औरत बाइज्जत अपने रास्ते गई और हम अपने घर में.

आज भी जब मैं उस घटना को याद करता हूं, तो सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि क्या वाकई उस औरत के साथसाथ हम सभी ने अपनीअपनी इज्जत बचा ली थी?

‘इज्जत’ हमारे हैवानियत से भरे कामों के ऊपर पड़ा परदा है. इसी परदे को तारतार होने से बचाने के लिए हम ने उस औरत को पैसे दिए.

यह परदा दुनिया से तो हमारी हिफाजत करता नजर आ रहा है, पर हम सभी ने एकदूसरे को बिना इस परदे के देख लिया है. दुनियाभर के लिए हम भले ही इज्जतदार हों, पर अपनी सचाई का हमें पता है.

 

 

हरिनूर : कहानी शबीना और नीरज के प्यार की

‘‘अरे, इस बैड नंबर 8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन

में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’ तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था. तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजा लेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझाते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझ.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां

आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के वातों से बरी कर दिया था.

हकीकत : क्या था फारुकी साहब की मौत का कारण?

फा रुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी.

फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी. फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है.

एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नईर् बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई.

मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’

मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती.

तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं. सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनोें भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’’

मारे गए गुलफाम : हिमानी ने दिखाया हुस्नजाल

मुंबई के इंदिरा नगर में बनी वह चाल बड़ी सड़क से समकोण बनाती एक पतली गली के दोनों ओर आबाद थी. इस के दोनों ओर 15-15 खोलियां बनी हुई थीं. इन खोलियों में ज्यादातर वे लोग रहते थे, जो या तो छोटेमोटे धंधे करते थे या किसी के घर में नौकर या नौकरानी का काम करते थे.

इस चाल के आसपास गंदगी थी. गली में जगहजगह कूड़ेकचरे के ढेर नजर आते थे. कहींकहीं खोलियों की नालियों का गंदा पानी बहता दिखलाई पड़ता था.

इन खोलियों में रहने वाले लोगों का स्वभाव भी उन की खोलियों की तरह अक्खड़ और गंदा था. वे बातबात पर गालीगलौज करते थे और देखते ही देखते मरनेमारने पर उतारू हो जाते थे.

इन्हीं खोलियों में से एक खोली सुभद्राबाई की भी थी, जो जबान की कड़वी, पर दिल की नेक थी. वह लोगों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी और इसी से अपना गुजारा करती थी.

मुंबई में तो वैसे ही घर में काम करने वाली बाई मुश्किल से मिलती है, ऊपर से सुभद्राबाई जैसी नेक और ईमानदार बाई का मिलना तो किसी चमत्कार जैसा ही था. यही वजह थी कि सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन के मालिक उस के साथ बहुत अच्छा बरताव करते थे और उस की छोटीमोटी मांग तुरंत मान लेते थे.

सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन में एक घर प्रताप का भी था. उन का महानगर में रेडीमेड गारमैंट्स का कारोबार था, जो खूब चलता था.

प्रताप की उम्र तकरीबन 55 साल थी और उन की पत्नी नंदिनी भी तकरीबन उन्हीं की उम्र की थीं. घर में पतिपत्नी ही रहते थे, क्योंकि उन के दोनों बेटे दूसरे शहरों में नौकरी करते थे और अपने परिवार के साथ वहीं सैटल हो गए थे.

नंदिनी अकसर अपने बेटों के पास जाया करती थीं, जबकि प्रताप को अपने कारोबार के चलते इस का मौका कम ही मिलता था.

जब भी नंदिनी अपने बेटों के पास जातीं, सुभद्राबाई की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं. ऐसे में उसे घर का काम करने के अलावा प्रताप के लिए खाना भी बनाना पड़ता. पर सुभद्राबाई खुशीखुशी यह जिम्मेदारी संभालती. प्रताप और नंदिनी भी इस के बदले उसे छोटेमोटे तोहफे और नकद पैसे देते रहते थे.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. महानगर की बत्तियां जल उठी थीं, तभी एक टैक्सी इस गली के मुहाने पर आ कर रुकी. टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और उस में से तकरीबन 25 साला एक खूबसूरत लड़की उतरी. शर्ट और जींस में सजी वह दरमियाने कद की एक सुगठित बदन वाली लड़की थी.

टैक्सी की दूसरी ओर का दरवाजा खोल कर तकरीबन 30 साला एक हैंडसम नौजवान निकला.

उस नौजवान ने टैक्सी का किराया चुकाया और जब टैक्सी आगे बढ़ गई, तो वे दोनों गली में दाखिल हो गए.

सुभद्राबाई थोड़ी देर पहले अपने काम से लौटी थी और अब खोली में पड़ी चारपाई पर लेट कर अपनी कमर सीधी कर रही थी. बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा देर तक काम करने पर उस की कमर अकड़ जाती थी और ऐसे में उस के लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता था.

अचानक किसी ने उस की खोली का दरवाजा खटखटाया. पहले तो वह चौंकी, फिर उठ कर दरवाजा खोल दिया. पर दरवाजा खोलते ही उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. दरवाजे पर 2 अनजान लोग खड़े थे.

‘‘किस से मिलना है आप को?’’ सुभद्राबाई उन्हें गहरी नजरों से देखती हुई बोली.

‘‘क्या आप सुभद्राबाई हैं?’’ लड़की ने पूछा.

‘‘हां,’’ सुभद्राबाई बोली.

‘‘फिर तो हमें आप से ही मिलना है.’’

‘‘पर, मैं ने तो आप लोगों को पहचाना नहीं. कौन हैं आप लोग?’’

‘‘मेरा नाम हिमानी है और ये शमशेर. जहां तक आप का हमें पहचानने का सवाल है, तो उस के पहले हम मिले ही नहीं.’’

‘‘फिर आज?’’

‘‘क्या हमें सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही बतलानी पड़ेंगी?’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए,’’ सुभद्राबाई झोंपते हुए बोली.

अंदर सुभद्राबाई ने उन्हें चारपाई पर बिठाया, फिर खोली का दरवाजा बंद कर उन के पास खोली के फर्श पर ही बैठ गई.

‘‘आप भी चारपाई पर बैठिए,’’ उसे फर्श पर बैठता देख लड़की बोली.

‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘आप बोलिए, आप को मुझ से क्या काम है?’’

‘‘काम तो है, वह भी बहुत जरूरी,’’ पहली बार लड़के ने मुंह खोला, ‘‘पर, इस के पहले हम आप को यह बता दें कि हमें आप के बारे में सबकुछ मालूम है. आप किनकिन लोगों के पास काम करती हैं और उन से आप को क्या पगार मिलती है?’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है.’’

‘‘हम आप के सवाल का जवाब देंगे, पर इस के पहले आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिए.’’

‘‘कौन से सवाल का?’’

‘‘सुभद्राबाई, आप का शरीर जब तक ठीक है, आप लोगों के घरों में काम कर के अपना गुजारा कर लेती हैं, पर जिस दिन आप का शरीर थक जाएगा, उस दिन आप क्या करेंगी?’’

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझ.’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि क्या आप अपने काम से इतना पैसा कमा लेती हैं कि अपना बुढ़ापा सही ढंग से बिता सकें?’’

सुभद्राबाई के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे. पिछले कई दिनों से वह भी यही बात सोच रही थी.

‘‘आप चुप क्यों हैं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़का बोला.

‘‘मुझे अपने काम से जो पैसा मिलता है, वह खानेपहनने और खोली का किराया देने में ही खर्च हो जाता है. मैं लाख कोशिश करती हूं कि हर महीने कुछ पैसे बचा लूं, ताकि बुढ़ापे में काम आएं, पर बचा नहीं पाती.’’

‘‘और कभी बचा भी नहीं पाएंगी, क्योंकि मुंबई में हर चीज इतनी महंगी है कि मेहनतमजदूरी करने वाला इनसान कुछ बचा ही नहीं सकता.’’

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो बेटा,’’ सुभद्राबाई एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘पर, किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘हम औरों के लिए तो नहीं, पर आप के लिए इतना जरूर कह सकते हैं कि बहुतकुछ किया जा सकता है.’’

‘‘कौन करेगा मेरे लिए और क्यों?’’

‘‘यहां कोई दूसरे के लिए कुछ नहीं करता, अपना भविष्य संवारने के लिए इनसान को खुद ही कुछ करना पड़ता है. अगर आप अपना बुढ़ापा संवारना चाहती हैं, तो आप को ही इस की कोशिश करनी होगी.’’

‘‘पर क्या…’’

‘‘पहले आप यह बतलाइए कि क्या आप अपने भविष्य के लिए कुछ पैसे जोड़ना चाहती हैं?’’

‘‘भला कौन नहीं चाहेगा?’’

‘‘मैं आप की बात कर रहा हूं.’’

‘‘हां.’’

‘‘हम आप को पूरे 50 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘50 हजार…?’’ सुभद्राबाई हैरान हो कर बोली.

‘‘हां, पूरे 50 हजार.’’

‘‘इस के लिए मुझे करना क्या होगा?’’

‘‘कुछ खास नहीं,’’ लड़के के बदले लड़की बोली, ‘‘आप को सिर्फ एक महीने के लिए मुझे प्रताप के घर बतौर नौकरानी रखवाना होगा. वह भी तब, जब वह घर में अकेला हो.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘तुम 50 हजार रुपए कमाना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर वह करो, जो हम चाहते हैं.’’

‘‘लेकिन, तुम बतौर नौकरानी वहां एक महीने रह कर करना क्या चाहती हो?’’

‘‘कुछ न कुछ तो करूंगी ही, पर यह बात हम तुम्हें नहीं बताएंगे.’’

सुभद्राबाई खामोश हो गई. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच आई थीं. 50 हजार रुपए की बात सुन कर उस के मन में लालच की भावना जाग उठी थी, पर दूसरी ओर वह उन लोगों की तरफ से दुखी भी थी. न जाने वे प्रताप के साथ क्या करना चाहते थे.

‘‘अब तुम क्या सोचने लगीं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़की बोली.

‘‘पर, तुम कहीं से भी काम वाली बाई नहीं लगती हो,’’ सुभद्राबाई लड़की को सिर से पैर तक देखते हुए बोली.

‘‘यह हमारी सिरदर्दी है. तुम यह बताओ कि तुम यह काम कर सकती हो या नहीं?’’

‘‘तुम्हारा इरादा प्रतापजी को कोई नुकसान पहुंचाना तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘पर, पैसे?’’

‘‘उस दिन तुम्हें पैसे मिल जाएंगे, जिस दिन तुम मुझे बतौर नौकरानी प्रताप के घर रखवा दोेगी.’’

‘‘अरे सुभद्रा, तुम…’’ सुभद्राबाई ने हिमानी के साथ जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, प्रताप बोला, ‘‘पूरे 4 दिन कहां रहीं? तुम सोच भी नहीं सकतीं कि इन 4 दिनों में मुझे कितनी परेशानी उठानी पड़ी. तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी मालकिन आजकल बेटे के पास गई हैं.’’

‘‘मालूम है मालिक,’’ सुभद्राबाई अपने चेहरे पर दर्द का भाव लाती हुई बोली, ‘‘पीठ दर्द से मेरा उठनाबैठना मुश्किल है. डाक्टर को दिखाया, तो दवाओं के साथसाथ पूरे एक महीने तक बैडरैस्ट करने की सलाह दी है.’’

‘‘एक महीना?’’

‘‘पर, आप फिक्र न करें, आप को इस दरमियान कोई तकलीफ न होगी,’’ सुभद्राबाई हिमानी को आगे करते हुए बोली, ‘‘यह मेरी भतीजी हिमानी है. जब तक मैं नहीं आती, यही आप के घर का सारा काम करेगी.’’

प्रताप ने हिमानी पर एक गहरी नजर डाली. खूबसूरत और जवान हिमानी को देख उस की आंखों में एक अनोखी चमक जागी.

‘‘इसे सबकुछ समझ दिया है न?’’ प्रताप ने पूछा.

‘‘जी मालिक?’’

हिमानी प्रताप के घर काम करने आने लगी थी. उसे यहां पर काम करते हुए

10 दिन बीत गए थे. इस बीच उस ने बड़ी मेहनत और लगन से प्रताप के घर का काम किया था और उस की सुखसुविधा का बेहतर खयाल रखा था. उस के इस बरताव से प्रताप बड़े खुश हुए थे. वे हिमानी के साथ बड़ा ही कोमल और अपनापन भरा बरताव करते थे.

सच तो यह था कि हिमानी की खूबसूरती और जवानी ने उन के अधेड़ बदन में एक नई उमंग जगा दी थी और उन्हें हिमानी का साथ मिलने से एक अजीब खुशी मिलती थी.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. प्रताप अपने बैडरूम में पलंग पर बैठे थे. हिमानी घुटने के बल झुकी उस के कमरे की सफाई कर रही थी. ऐसे में उस के भारी और गोरे उभारों का ज्यादातर भाग उस के ब्लाउज से बाहर झांक रहा था. प्रताप की निगाहें रहरह कर उस के इन कयामती उभारों की ओर उठ जाया करती थीं और जब भी ऐसा होता, उन के तनबदन में एक हलचल सी मच जाती थी.

हिमानी कहने को तो काम कर रही थी, पर उस का पूरा ध्यान प्रताप की हरकतों पर था. उस की नजरों का भाव समझ कर वह मन ही मन खुश हो रही थी. उसे लग रहा था कि वह जल्द ही प्रताप को अपने शीशे में उतार लेगी और ऐसा होते ही अपना उल्लू सीधा कर यहां से रफूचक्कर हो जाएगी.

हिमानी सफाई का काम कर खड़ी हुई और ऐसा होते ही प्रताप की नजरों से वह नजारा गायब हो गया. इस के बावजूद उन के बदन में जो कामनाओं की आग भड़की थी, उस ने उन्हें हिला दिया था.

प्रताप पलंग से उतरे, फिर आगे बढ़ कर हिमानी को अपनी बांहों में भर लिया. उन की इस हरकत से हिमानी चौंकी, फिर बांहों में कसमसाते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हैं साहब?’’

‘‘हिमानी, तुम बहुत ही खूबसूरत हो,’’ प्रताप जोश से कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारी इस खूबसूरती ने मेरे तनबदन में आग लगा दी है. तुम से लिपट कर मैं अपने तन की इसी आग को बुझाने की कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर, यह गलत है.’’

‘‘कुछ गलत नहीं,’’ प्रताप उसे बुरी तरह चूमते, सहलाते हुए बोले.

मन ही मन मुसकराती हिमानी कुछ देर तक उन की बांहों से छूटने का नाटक करती रही, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. ऐसा होते ही प्रताप ने उसे उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गए.

भावनाओं का तूफान जब गुजर गया, तो हिमानी रोते हुए बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? मुझे तो बरबाद कर दिया?’’

पलभर तक तो प्रताप के मुंह से बोल न फूटे, फिर वे शर्मिंदा हो कर बोले, ‘‘हिमानी, मुझ से गलती हो गई. मैं अपने आपे में नहीं था. जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है. प्लीज, यह बात सुभद्राबाई को न बतलाना.’’

‘‘आप ने मेरा सबकुछ लूट लिया और अब कह रहे हैं कि बूआ से यह बात न कहूं.’’

‘‘मैं तुम्हें इस की कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘कीमत…?’’ हिमानी ने गुस्से वाली निगाहों से प्रताप को देखा.

बदले में प्रताप ने तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकाला, फिर कमरे में रखी अलमारी की ओर बढ़ गए. ऐसा होते ही हिमानी के होंठों पर शातिराना मुसकान रेंग उठी. पर जैसे ही उन्होंने सेफ खोली, उस की निगाहें उस पर जम गईं. अलमारी बड़े नोटों और गहनों से भरी थी.

प्रताप हिमानी के करीब आए और तकरीबन जबरदस्ती नोट की गड्डी उस के हाथ पर रखते हुए बोले, ‘‘प्लीज, सुभद्राबाई को कुछ न बतलाना.’’

हिमानी उन्हें पलभर घूरती रही, फिर अपने कपड़े ठीक करने के बाद नोटों की गड्डी ब्लाउज में रखते हुए कमरे से निकल गई.

उस रात प्रताप पूरी रात ढंग से सो न सके. उन्हें यह बात परेशान करती रही कि कहीं हिमानी उन की करतूत सुभद्राबाई को न बतला दे. अगर ऐसा हो गया, तो वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहने वाले थे.

पर दूसरे दिन उन्हें तब हैरानी और खुशी का झटका लगा, जब हिमानी हमेशा की तरह काम पर लौट आई. वह बिलकुल सामान्य थी और उसे देख कर ऐसा हरगिज नहीं लगता था कि उस के साथ कुछ ऐसावैसा घटा है.

जब 5 दिन तक सबकुछ ठीक रहा, तो छठे दिन रात को प्रताप ने हिमानी को हिम्मत कर के एक बार फिर अपनी बांहों में समेट लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ हिमानी चौंकने का नाटक करती हुई बोली, ‘‘आप ने वादा किया था कि आप दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं क्या करूं हिमानी…’’ प्रताप कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारे हुस्न और जवानी ने मुझे ऐसा पागल किया है कि मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं. प्लीज, मुझे रोको मत… मुझे मेरी प्यास बुझ लेने दो.’’

हिमानी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. अगले ही पल दोनों के बदन एकदूसरे से चिपक कर पलंग पर अठखेलियां कर रहे थे. इस बार हिमानी भी पूरे जोश के साथ प्रताप का साथ दे रही थी.

हिमानी ने चालाकी से प्रताप को अपने हुस्नजाल में फांस लिया था. जब उसे यकीन हो गया कि शिकार पूरी तरह उस के जाल में फंस गया है, तो एक रात उस ने उस के खाने में बेहोशी की दवा मिलाई और उस की पूरी अलमारी खाली कर रफूचक्कर हो गई.

प्रताप को जब सवेरे होश आया और उस ने अपनी अलमारी देखी, तो सिर पीट लिया. लोकलाज के डर से वे पुलिस में भी इस की शिकायत न कर सके.

 

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