आज 78 साल के जमालुद्दीन मियां बहुत खुश थे. यूक्रेन से उन का पोता कामरान सहीसलामत घर वापस आ रहा था. कामरान के साथ उस का दोस्त अभिनव भी था. अभिनव को टिकट नहीं मिलने के चलते कामरान भी 4 दिनों तक वहीं रुका रहा.

जमालुद्दीन मियां बाहर चौकी पर लेटे थे कि आटोरिकशा आ कर रुका. सैकड़ों लोगों ने आते ही उन्हें घेर लिया. ऐसा लग रहा था कि ये बच्चे जंग से जान बचा कर नहीं, बल्कि जंग जीत कर आ रहे हैं.

‘‘अस्सलामु अलैकुम दादू,’’ आते ही कामरान ने अपने दादा को सलाम किया. उस के बाद अभिनव ने भी सलाम दोहराया.

‘‘अच्छा, यही तुम्हारा दोस्त है,’’ जमालुद्दीन मियां ने कहा.

‘‘जी दादाजी.’’

जमालुद्दीन मियां को उन दोनों का चेहरा साफ नहीं दिख रहा था. नजर कमजोर हो चली थी. उन्होंने दोनों को चौकी पर बिठाया और बारीबारी से अपने हाथों से उन का चेहरा टटोला.

वे बहुत खुश हुए, फिर कहा, ‘‘सब लोग तुम्हारी बाट जोह रहे हैं. नहाखा कर आराम कर लो.’’

अम्मी कामरान को गले से लगा कर रोने लगीं. जैसे गाय अपने बछड़े को चूमती है, वैसे चूमने लगीं. दोनों बहनें भी अगलबगल से लिपट गईं.

अब्बू कुरसी पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि उधर से छूटे तो इधर आए. कामरान की निगाहें भी अब्बू को ढूंढ़तेढूंढ़ते कुरसी पर जा कर ठहर गईं. अम्मी के आंसू थमने के बाद उस ने अब्बू के पास जा कर सलाम किया.

इधर कामरान की बहनें अभिनव के सत्कार में जुटी रहीं. अभिनव को अभी यहां से अपने घर जाना था. यहां से

40 किलोमीटर दूर उस का गांव था.

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