
पहले तो सोचा, डाक के डिब्बे में डाल दूं. फिर जाने क्या मन में आया की खोला और पढ गया.किसी अज्ञात भारतीय ने मोदी जी की कार्यप्रणाली पर मन का गुबार निकाला है .मैं ने इसे पढ़कर सोचा, क्यों न हमारे प्रिय पाठक भी इसे एक नजर देख ले. सो नीचे पत्र शब्दश:प्रकाशित किया जा रहा है.
नरेंद्र मोदी साहब!
आप हमारे प्रधानमंत्री हैं.काफी अरसे से मैं आपके कामकाज पर नजरें गड़ाए हुए हूं .मैं देख रहा हूं आप उस धावक के जैसे व्यवहार कर रहे हैं, जो एक बार में ही 50, 100, 200, 500 मीटर की दौड़ में गोल्ड मेडल पाना चाहता है. मैं देख रहा हूं, आप उस बाॅलर की तरह है जो एक बाल में सारे खिलाड़ियों को आउट करने पर तुला हुआ है.
क्या यह संभव है?आप जैसा गुणी आदमी, यह कैसी भूल कर रहा है. आप तो हीरे हैं!हीरे!! फिर अपनी चमक, आभा को बढ़ाने के बजाय ऐसी स्थिति क्यों पैदा किए जा रहे हैं की जो आपको देखे वह अपना सर पीटता रह जाए.
आप तो अपने समय काल मे सब कुछ बदल देने पर तुले हैं. यह बदल दो, वह बदल दो, इसे ठीक कर दो, उसे फैक दो… यह सब क्या है .
कभी योजना आयोग को भंग करने की तैयारी करते है. अभी नोटबंदी करते हैं, कभी पाकिस्तान पहुंचकर पाक को नमन करते हैं कभी पाक को नापाक बताते हैं…क्यों ? क्या इसलिए की इस रास्ते पर गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव चले थे सिर्फ इसलिए सबकुछ बदल देना चाहते हैं ? योजना आयोग को भंग करके आप देश को ऐसी नवीन संस्था देने की चाहत रखते हैं ताकि हम देशवासियों आपको याद करें और उस पहले प्रधानमंत्री को भूल जाएं जो कांग्रेस का प्रतिनिधि था, जो खुद कांग्रेस था, भारत था, देश था. आपके इस देश में क्या हो रहा है कभी गाय मुद्दा बन जाती है कभी मुसलमान और हिंदू! आज नागरिक संहिता को लेकर सड़कों पर लोग निकल पड़े हैं मोदी साब… यह क्या हो रहा है संसद में आपके गृहमंत्री मंत्री कुछ कहते हैं और संसद के बाहर आप कुछ कहते हैं.
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क्यों हर उस संस्था पर आपकी निगाह है, जो कांग्रेस ने खड़ी की है .संविधान में अगर कमियां हैं तो आप उसे सर्व अनुमति से दुरुस्त करें .आप तो एक सुयोग्य तीक्ष्ण दृष्टि वाले प्रधानमंत्री है. सब जानते हैं, सर्व जानकार हैं , आप सब कुछ बदलने पर क्यों तुले हुए हैं . इसलिए मुझे आपकी नियत पर शक हो रहा है.
मोदी साब… आप बड़ी चालाकी से वह सब कुछ करना चाहते हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आपके ‘कान’ में पढता रहा है .मुझे तो लगता है,आप मोहन भागवत के हाथों की “कठपुतली’ मात्र हो. उन्हें खुश किए जा रहे हो .जबकि आपको इस देश ने प्रधानमंत्री चुना है .अब आपका दायित्व देश के प्रति है या किसी संस्था विशेष के प्रति, यह हम गरीब गुरबों को जरुर बताना चाहिए. आपकी आकर्षक बाते, आपके व्यक्तित्व, देश के प्रति समर्पण, विकास की भावना को देखकर हम लोगों ने आपको मत दिया था .
अब आप चतुराई का प्रदर्शन कर रहे हैं. कहते हैं हम सबकुछ सर्वसम्मति से कर रहे हैं. मुख्यमंत्रियों की राय ले रहे हैं .अरे! आपने तो वह सब कर दिखाया है जिसकी तो कल्पना तक हम आम लोगों ने नहीं की थी.
मोदी साब… आपको याद है की नहीं, हमारे देश का नाम भी अब बहुत प्राचीन हो गया है. लगे हाथ इसे भी बदल दीजिए. भारत नाम मे भी शायद आपको कोई बात नजर नहीं आती होगी. या इंडिया… को ही बदल दीजिए. इस पर भी कैबिनेट में फैसला ले लीजिए और ज्यादा हो तो आप अपने आका से परामर्श ले लीजिए.
आप में बदलाव और अपने नाम के प्रति बड़ा आकर्षण है .मुझे लगता है, आप जल्दी बाजी में है और जल्द से जल्द अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखाना चाहते हैं .इसलिए जो भाजपा, भाजपा के नारे लगाता है आपको पसंद नहीं आते और जो मोदी मोदी चिल्लाता है उसे आप सर आंखों पर बैठा लेते हैं.
गोकि मोदी साब… अब देश का नाम बदल ही दीजिए. आप अमर हो जाओगे .संसार और देश के इतिहास में आपका नाम हमेशा याद किया जाएगा कि आपने प्रधानमंत्री बनने के साथ भारतवासियों को भारत से निजात दिलाई और एक नए देश का, जो उज्जवल है, उजास से भरा है स्पूर्ति दायक है ऐसा नाम दिया है की सारे देशवासी गर्वान्वीत है! आपका भी काम हो जाएगा और हमारा भी कल्याण हो जाएगा.
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अन्यथा, आप बेवजह परेशान रहेंगे .यह बदल दूं, वह बदल दूं. क्या करूं जो छा जाऊं क्या करूं की आका प्रसन्न हो, यह सोचते-सोचते आपका टैलेंट चुकने लगेगा और कुछ गलत हो जाएगा .मोदी साब… आप सौ सुनार की एक लोहार की तर्ज पर सीधे देश का नाम ही बदल दे. बस ! हो गया आपका काम.
क्या टुकुर टुकुर. आप को यह शोभा नहीं देता .यह योजना आयोग, यह राष्ट्रपिता, यह नेहरू की प्रतिमा यह इंदिरा गांधी ये राजीव टर्मिनल क्या-क्या बदलोगे भाई. साठ सालों में इन कांग्रेसियों ने हर चौक चौराहे पर कब्जा कर लिया है आप परेशान हो जाओगे .
मैं आपका एक बहुत बड़ा फैन हूं. मैं आपको नित्य प्रति दिन देखता हूं. सुनता हूं. मुझे लगा, आप परेशान हो, मैं आपके मनोविज्ञान को थोड़ा-थोड़ा समझ रहा हूं. इसलिए यह पत्र लिख रहा हूं .कहीं धृष्टता हुई तो क्षमा करना . अच्छा लगे तो लौटती डाक से एक लाईन का ही सही, ‘धन्यवाद’ का पत्र भेजना.
लेखक- अवनीश शर्मा
शिखा और मैं 1 सप्ताह नैनीताल में बिता कर लौटे हैं. वह अपनी बड़ी बहन सविता को बडे़ जोशीले अंदाज में अपने खट्टेमीठे अनुभव सुना रही है.
सविता की पूरी दिलचस्पी शिखा की बातों में है. मैं दिवान पर लेटालेटा कभी शिखा की कोई बात सुन कर मुसकरा पड़ता हूं तो कभी छोटी सी झपकी का मजा ले लेता हूं.
मेरी सास आरती देवी रसोई में खाना गरम करने गई हैं. मुझे पता है कि सारा खाना सविता पहले ही बना चुकी हैं.
सारा भोजन मेरी पसंद का निकलेगा, पुराने अनुभवों के आधार पर मेरे लिए यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं. ससुराल में मेरी खूब खातिर होती है और इस का पूरा श्रेय मेरी बड़ी साली सविता को ही जाता है.
शिखा अपनी बड़ी बहन सविता के बहुत करीब है, क्योंकि वह उस की सब से अच्छी सहेली और मार्गदर्शक दोनों हैं. शायद ही कोई बात वह अपनी बड़ी बहन से छिपाती हो. उन की सलाह के खिलाफ शिखा से कुछ करवा लेना असंभव सा ही है.
‘‘हमें पहला बच्चा शादी के 2 साल बाद करना चाहिए,’’ हमारी शादी के सप्ताह भर बाद ही शिखा ने शरमाते हुए यों अपनी इच्छा बताई तो मैं हंस पड़ा था.
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‘‘मैं तो इतना लंबा इंतजार नहीं कर सकता हूं,’’ उसे छेड़ने के लिए मैं ने उस की इच्छा का विरोध किया.
‘‘मेरे ऐसा कहने के पीछे एक कारण है.’’
‘‘क्या?’’
‘‘इन पहले 2 सालों में हम अपने वैवाहिक जीवन का भरपूर मजा लेंगे, सौरभ. अगर मैं जल्दी मां बनने के झंझट में फंस गई तो हो सकता तुम इधरउधर ताकझांक करने लगो और वह हरकत मुझे कभी बरदाश्त नहीं होगी.’’
‘‘यह कैसी बेकार की बातें मुंह से निकाल रही हो?’’ उसे सचमुच परेशान देख कर मैं खीज उठा.
‘‘मेरी दीदी हमेशा मुझे सही सलाह देती हैं और हम बच्चा…’’
‘‘तो यह बात तुम्हारी दीदी ने तुम्हारे दिमाग में डाली है.’’
‘‘जी हां, और वह गलत नहीं हैं.’’
‘‘चलो, मान लिया कि वह गलत नहीं हैं पर एक बात बताओ. क्या तुम हर तरह की बातें अपनी दीदी से कर लेती हो?’’
‘‘बिलकुल कर लेती हूं.’’
‘‘वह बातें भी जो बंद कमरे में हमारे बीच होती हैं?’’ मैं ने चुटकी ली.
‘‘जी, नहीं.’’
वैसे मुझे उस के इनकार पर उस दिन भरोसा नहीं हुआ क्योंकि मेरा सवाल सुन कर उस के हावभाव वैसे हो गए थे जैसे चोरी करने वाले बच्चे को रंगे हाथों पकडे़ जाने पर होते हैं.
इस बात की पुष्टि अनेक मौकों पर हो चुकी है कि शिखा अपनी बड़ी बहन को हर बात बताती है. इस कारण अगर मैं या मेरे परिवार वाले परेशान नहीं हैं तो इसलिए कि सविता बेहद समझदार और गुणवान हैं. मैं उन्हें अपने परिवार का मजबूत सहारा मानता हूं, टांग अड़ा कर परेशानी खड़ी करने वाला रिश्तेदार नहीं.
सविता के पास न रंगरूप की कमी है न गुणों की. कमाती भी अच्छा हैं पर दुर्भाग्य की बात यह है कि बिना शादी किए ही वह खुद को विधवा मानती हैं.
रवि नाम के जिस युवक को वह किशोरावस्था से प्रेम करती थीं, करीब 2 साल पहले उस का एक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया. इस सदमे के कारण सविता ने कभी शादी न करने का फैसला कर लिया है. किसी के भी समझाने का सविता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
मेरे मातापिता ने भी उन्हें शादी करने के लिए राजी करने की कोशिश दिल से की थी. तब उन का कहना था, ‘‘मेरी तकदीर में अपनी घरगृहस्थी के सुख लिखे होते तो मैं जिसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहती थी वह मुझे यों छोड़ कर नहीं जाता. रवि की जगह मैं किसी और को नहीं दे सकती.’’
करीब महीने भर पहले मेरा जन्मदिन था. सविता ने कमीजपैंट और मैचिंग टाई का उपहार मुझे दिया था.
‘‘थैंक यू, बड़ी साली साहिबा,’’ मैं ने मुसकराते हुए उपहार स्वीकार किया और फिर भावुक लहजे में बोला, ‘‘मुझे आप से एक तोहफा और चाहिए. आशा है कि आप मना नहीं करोगी.’’
‘‘बिलकुल नहीं करूंगी,’’ उन्होंने आत्मविश्वास से भरे स्वर में फौरन जवाब दिया.
‘‘आप शादी कर लो, प्लीज,’’ मैं ने विनती सी की.
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पहले तो वह चौंकीं, फिर उन की आंखों में गंभीरता के भाव उपजे और अगले ही पल वह खिलखिला कर हंस भी पड़ीं.
‘‘सौरी, सौरभ, उपहार तुम्हें अपने लिए मांगना था. मेरा शादी करना तुम्हारे लिए गिफ्ट कैसे बन सकता है?’’
‘‘आप का अकेलापन दूर हो जाए, इस से बड़ा गिफ्ट मेरे लिए और कुछ नहीं हो सकता.’’
‘‘तुम सब के होते हुए मुझे अकेलेपन का एहसास कैसे हो सकता है?’’ शिखा और मेरी बहन प्रिया के गले में बांहें डाल कर सविता हंस पड़ीं. और मेरा प्रयास एक बार फिर बेकार चला गया.
हमारे नैनीताल घूम कर आने के बाद सविता दीदी ने मुझे और शिखा को पास बिठा कर एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा शुरू की थी.
‘‘सौरभ, तुम को भविष्य को ध्यान में रख कर अब चलना शुरू कर देना चाहिए. खर्चे संभल कर करना शुरू करो. बचत करोगे तो ही बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाओगे… अपने मकान में रह सकोगे,’’ वह हमें इस तरह समझाते हुए काफी गंभीर नजर आ रही थीं.
‘‘हम दोनों नौकरी करते हैं, पर आज के समय में मकान खरीदना बड़ा महंगा हो गया है. अपने मकान में रहने का सपना जल्दी से पूरा होने का फिलहाल कोई मौका नहीं है,’’ मैं ने दबी आवाज में कहा.
‘‘तुम दोनों क्या मुझे पराया समझते हो?’’ उन्होंने फौरन आहत भाव से पूछा.
‘‘ऐसा बिलकुल भी नहीं है.’’
‘‘तब अपने मकान का सपना पूरा करना तुम दोनों की नहीं, बल्कि हम तीनों की जिम्मेदारी है. सौरभ, आखिर मैं, मां और तुम दोनों के अलावा और किस के लिए कमा रही हूं?’’
वह नाराज हो गई थीं. उन्हें मनाने के लिए मुझे कहना पड़ा कि जल्दी ही हम 3 बेडरूम वाला फ्लैट बुक कराएंगे और उन की आर्थिक सहायता सहर्ष स्वीकार करेंगे. मेरे द्वारा ऐसा वादा करा लेने के बाद ही उन का मूड सुधरा था.
शिखा और मेरे मन में उन के प्रति कृतज्ञता का बड़ा गहरा भाव है. हम दोनों उन के साथ बड़ी गहराई से जुड़े हुए हैं. तभी उन की व्यक्तिगत जिंदगी का खालीपन हमें बहुत चुभता है. बाहर के लोगों के सामने वह सदा गंभीर बनी रहती हैं, पर हम दोनों से खूब खुली हुई हैं.
उस दिन दोपहर का खाना सचमुच मेरी पसंद को ध्यान में रख कर सविता ने तैयार किया था. मैं ने दिल खोल कर उन की प्रशंसा की और वह प्रसन्न भाव से मंदमंद मुसकराती रहीं.
खाना खाने के बाद मैं ने 2 घंटे आराम किया. जब नींद खुली तो पाया कि शरीर यों टूट रहा था मानो बुखार हो. कुछ देर बाद ठंड लगने लगी और घंटे भर के भीतर पूरा शरीर भट्ठी की तरह जलने लगा.
सविता दीदी जिद कर के मुझे शाम को डाक्टर के पास ले गईं. हमें रात को घर लौट जाना था पर उन्होंने जाने नहीं दिया.
‘‘ज्यादा परेशान मत होइए आप,’’ मैं ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘इस मौसम में यह बुखार मुझे हर साल पकड़ लेता है. 2-4 दिन में ठीक हो जाऊंगा.’’
उन की चिंता दूर करने के लिए मैं ने अपनी आवाज में लापरवाही के भाव पैदा किए तो वह गुस्सा हो गईं.
‘‘सौरभ, हर साल तुम बीमार नहीं पड़ोगे तो कौन पड़ेगा?’’ उन्होंने मुझे डांटना शुरू किया, ‘‘तुम्हारा न खाने का कोई समय है, न ही सोने का. दूध से तुम्हें एलर्जी है. फल खाने के बजाय तुम टिक्की और समोसे पर खर्च करना बेहतर मानते हो. अब अगर तुम नहीं सुधरे तो मैं तुम से बोलना बंद कर दूंगी.’’
‘‘दीदी, आप इतना गुस्सा मत करो,’’ मैं ने फौरन नाटकीय अंदाज में हाथ जोडे़, ‘‘मैं ने दूध पीना शुरू कर दिया है. आप के आदेश पर अब लंच भी ले जाने लगा हूं. वैसे एक बात आप मेरी भी सुन लो, अगर कभी सचमुच आप ने मुझ से बोलना छोड़ा तो मैं आमरण अनशन कर दूंगा. फिर मेरी मौत की जिम्मेदार…’’
सविता ने आगे बढ़ कर मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और मेरे देखते ही देखते उन की आंखों में आंसू छलक आए.
‘‘इतने खराब शब्द फिर कभी अपनी जबान पर मत लाना सौरभ. किसी अपने को खोने की कल्पना भी मेरे लिए असहनीय पीड़ा बन जाती है,’’ उन का गला भर आया.
‘‘आई एम सौरी,’’ भावुक हो कर मैं ने उन का हाथ चूमा और माफी मांगी.
उन्होंने अचानक झटका दे कर अपना हाथ छुड़ाया और तेज चाल से चलती कमरे से बाहर निकल गईं.
मैं ने मन ही मन पक्का संकल्प किया कि आगे से ऐसी कोई बात मुंह से नहीं निकालूंगा जिस के कारण सविता के दिल में रवि की याद ताजा हो और दिल पर लगा जख्म फिर से टीसने लगे.
अगले दिन सुबह भी मुझे तेज बुखार बना रहा. शिखा को आफिस जाना जरूरी था. मेरी देखभाल के लिए सविता ने फौरन छुट्टी ले ली.
उस दिन सविता के दिल की गहराइयों में मुझे झांकने का मौका मिला. उन्होंने रवि के बारे में मुझे बहुत कुछ बताया. कई बार वह रोईं भी. फिर किसी अच्छी घटना की चर्चा करते हुए बेहद खुश हो जातीं और अपने दिवंगत प्रेमी के प्रति गहरे प्यार के भाव उन के हावभाव में झलक उठते.
मुझे नहीं लगता कि सविता ने मेरे अलावा कभी किसी दूसरे से इन सब यादों को बांटा होगा. उन्होंने मुझे अपने बहुत करीब समझा है, इस एहसास ने मेरे अहम को बड़ा सुख दिया.
शाम को मेरी तबीयत ठीक रही पर रात को फिर बुखार चढ़ गया. शिखा भी अपनेआप को ढीला महसूस कर रही थी, सो वह मेरे पास सोने के बजाय अपनी मां के पास जा कर सो गई.
सविता को अब 2 मरीजों की देखभाल करनी थी. हम दोनों को उन्होंने जबरदस्ती थोड़ा सा खाना खिलाया. वह नहीं चाहती थीं कि भूखे रह कर हम अपनी कमजोरी बढ़ाएं.
रात 11 बजे के आसपास मेरा बुखार बहुत तेज हो गया. सब सो चुके थे, इसलिए मैं चुपचाप लेटा बेचैनी से करवटें बदलता रहा. नींद आ रही थी पर तेज बदन दर्द के कारण मैं सो नहीं सका.
शायद कुछ देर को आंख लग गई होगी, क्योंकि मुझे न तो सविता के कमरे में आने का पता लगा और न ही यह कि उन्होंने कब से मेरे माथे पर गीली पट्टियां रखनी शुरू कीं.
तपते बुखार में गीली पट्टियों से बड़ी राहत महसूस हो रही थी. मैं आंखें खोलने को हुआ कि सविता ने मेरे बालों में उंगलियां फिराते हुए सिर की हलकी मालिश शुरू कर दी. इस कारण आंखें खोलने का इरादा मैं ने कुछ देर के लिए टाल दिया.
जिस बात ने मुझे बहुत जोर से कुछ देर बाद चौंकाया, वह सविता के होंठों का मेरे माथे पर हलका सा चुंबन अंकित करना था.
इस चुंबन के कारण एक अजीब सी लहर मेरे पूरे बदन में दौड़ गई. मैं सविता के बदन से उठ रही महक के प्रति एकदम से सचेत हुआ. उन की नजदीकी मेरे लिए बड़ा सुखद एहसास बनी हुई थी. मैं ने झटके से आंखें खोल दीं.
सविता की आंखें बंद थीं. वह न जाने किस दुनिया में खोई हुई थीं. उन के चेहरे पर मुझे बड़ा सुकून और खुशी का भाव नजर आया.
‘‘सविता,’’ अपने माथे पर रखे उन के हाथ को पकड़ कर मैं ने कोमल स्वर में उन का नाम पुकारा.
सविता फौरन अपने सपनों की दुनिया से बाहर आईं. मुझ से आंखें मिलते ही उन्होंने लाज से अपनी नजरें झुका लीं. अपना हाथ छुड़ाने की उन्होंने कोशिश की, पर मेरी पकड़ मजबूत थी.
‘‘सविता, तुम दिल की बहुत अच्छी हो…बहुत प्यारी हो…बड़ी सुंदर हो,’’ इन भावुक शब्दों को मुंह से निकालने के लिए मुझे कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी.
जवाब में खामोश रह कर वह अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास करती रही.
एक बार फिर मैं ने उस का हाथ चूमा तो उन्होंने अपना हाथ मेरे हाथ में ढीला छोड़ दिया.
मैं उठ कर बैठ गया. सविता की आंखों में मैं ने प्यार से झांका. वह मुझ से नजरें न मिला सकीं और उन्होंने आंखें मूंद लीं.
सविता का रूप मुझे दीवाना बना रहा था. मैं उन के चेहरे की तरफ झुका. उन के गुलाबी होंठों का निमंत्रण अस्वीकार करना मेरे लिए असंभव था.
मेरे होंठ उन के होंठों से जुडे़ तो उसे तेज झटका लगा. उन की खुली आंखों में बेचैनी के भाव उभरे. कुछ कहने को उन के होंठ फड़फड़ाए, पर शब्द कोई नहीं निकला.
सविता ने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और कुरसी से उठ कर कमरे से बाहर चल पड़ीं. मैं ने उन्हें पुकारा पर वह रुकी नहीं.
मैं सारी रात सो नहीं सका. मन में अजीब से अपराधबोध व बेचैनी के भावों के साथसाथ गुदगुदी सी भी थी.
अगले दिन सुबह सविता, अपनी मां और शिखा के साथ कमरे में आईं. मैं काफी बेहतर महसूस कर रहा था.
‘‘सौरभ बेटे, एक खुशखबरी सुनो. सविता ने शादी के लिए ‘हां’ कर दी है,’’ यह खबर सुनाते हुए मेरी सास की आंखों में खुशी के आंसू उभर आए.
‘‘अरे, यह कैसे हुआ?’’ मैं ने चौंक कर सविता की तरफ अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा.
‘‘मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरे अंदर की औरत, जिसे मैं मरा समझती थी, जिंदा है और उसे जीने का भरपूर मौका देने के लिए मुझे अपनी अलग दुनिया बसानी ही पडे़गी, सौरभ,’’ सविता ने मुझ से बेधड़क आंखें मिलाते हुए जवाब दिया.
‘‘आप का फैसला बिलकुल सही है. बधाई हो,’’ अपनी बेचैनी को छिपा कर मैं मुसकरा पड़ा.
‘‘थैंक यू, सौरभ. तुम ने रात को मेरी आंखें खोलने में जो मदद की है, उस के लिए मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी,’’ सविता सहज भाव से मुसकरा उठीं.
‘‘सौरभ, ऐसा क्या समझाया तुम ने, जो दीदी ने अपना कट्टर फैसला बदल लिया?’’ शिखा ने उत्सुक लहजे में सवाल पूछा.
मैं ने कुछ देर सोचने के बाद गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘मेरे कारण सविता को शायद यह समझ में आ गया है कि टेलीविजन धारावाहिक या फिल्में देख कर…या फिर किसी दूसरे की घरगृहस्थी का हिस्सा बन कर जीने का असली आनंद नहीं लिया जा सकता है. जिंदगी के कुछ अनुभव शेयर नहीं हो सकते…शेयर नहीं करने चाहिए. मैं ठीक कह रहा हूं न, सविता जी?’’
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सविता से हाथ मिलाते हुए मैं ने उन्हें एक बार फिर शुभकामनाएं दीं. वह प्रसन्नता से भरी आफिस जाने की तैयारी में जुट गईं.
मैं भी अपनेआप को अचानक बड़ा हलका, तरोताजा और खुश महसूस कर रहा था. शिखा का हाथ अपने हाथों में ले कर मैं ने सविता को दिल से धन्यवाद दिया क्योंकि उन्होंने मुझे बड़ी भूल व गलती की दलदल में फंसने से बचा लिया था.
सविता के प्रति मेरे मन में आदरसम्मान के भाव पहले से भी ज्यादा गहरे हो गए थे.
‘‘औरत भी बलात्कार कर सकती है,’’ भैया भनक कर बोले, ‘‘इस का पता मुझे तब चला जब तुम ने भीड़ जमा कर के सब के सामने यह कह दिया था कि मैं ने तुम्हें रेप करने की कोशिश की है, वह भी आफिस के केबिन में. हम में अच्छी दोस्ती थी, मुझे कुछ करना ही होता तो क्या जगह की कमी थी मेरे पास? हर शाम हम साथ ही होते थे. रेप करने के लिए मुझे आफिस का केबिन ही मिलता. तुम ने गिरीश की प्रमोशन के लिए मुझे सब की नजरों में गिराना चाहा…साफसाफ कह देतीं मैं ही हट जाता. इतना बड़ा धोखा क्यों किया मेरे साथ? अब इस से क्या चाहती हो, बताओ मुझे. इसे अकेला लावारिस मत समझना.’’
‘‘मैं किसी से कुछ नहीं चाहती सिर्फ माफी चाहती हूं. तुम्हारे साथ मैं ने जो किया उस का फल मुझे मिला है. अब गिरीश मेरे साथ नहीं रहता. मेरा बेटा भी अपने साथ ले गया…सोम, जब से मैं ने तुम्हें बदनाम करना चाहा है एक पल भी चैन नहीं मिला मुझे. तुम अच्छे इनसान थे, सारी की सारी कंपनी तुम्हें बचाने को सामने चली आई. तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा…मैं ही कहीं की नहीं रही.’’
‘‘मेरा क्या नहीं बिगड़ा…जरा बताओ मुझे. मेरे काम पर तो कोई आंच नहीं आई मगर आज किसी भी औरत पर विश्वास कर पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं रही. अपनी मां के बाद तुम पहली औरत थीं जिसे मैं ने अपना माना था और उसी ने अपना ऐसा रूप दिखाया कि मैं कहीं का नहीं रहा और अब मेरे भाई को अपने जाल में फंसा कर…’’
‘‘मत कहो सोम ऐसा, विजय मेरे भाई जैसा है. अपने घर बुला कर मैं तुम्हारी पत्नी से और विजय से अपने किए की माफी मांगनी चाहती थी. मेरी सांस बहुत घुटती है सोम. तुम मुझे क्षमा कर दो. मैं चैन से जीना चाहती हूं.’’
‘‘चैन तो अपने कर्मों से मिलता है. मैं ने तो उसी दिन तुम्हारी और गिरीश की कंपनी छोड़ दी थी. तुम्हें सजा ही देना चाहता तो तुम पर मानहानि का मुकदमा कर के सालों अदालत में घसीटता. लेकिन उस से होता क्या. दोस्ती पर मेरा विश्वास तो कभी वापस नहीं लौटता. आज भी मैं किसी पर भरोसा नहीं कर पाता. तुम्हारी सजा पर मैं क्या कह सकता हूं. बस, इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हें सहने की क्षमता मिले.’’
अवाक् था मैं. भैया का अकेलापन आज समझ पाया था. श्रीमती गोयल चीखचीख कर रो रही थीं.
‘‘एक बार कह दो मुझे माफ कर दिया सोम.’’
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‘‘तुम्हें माफ तो मैं ने उसी पल कर दिया था. तब भी गिरीश और तुम पर तरस आया था और आज भी तुम्हारी हालत पर अफसोस हो रहा है. चलो, विजय.’’
श्रीमती गोयल रोती रहीं और हम दोनों भाई वापस गाड़ी में आ कर बैठ गए. मैं तो सकते में था ही भैया को भी काफी समय लग गया स्वयं को संभालने में. शायद भैया शोभा से प्यार करते होंगे और शोभा गिरीश को चाहती होगी, उस का प्रमोशन हो जाए इसलिए भैया से प्रेम का खेल खेला होगा, फिर बदनाम करना चाहा होगा. जरा सी तरक्की के लिए कैसा अनर्थ कर दिया शोभा ने. भैया की भावनाओं पर ऐसा प्रहार सिर्फ तरक्की के लिए. भैया की तरक्की तो नहीं रुकी. शोभा ने सदा के लिए भैया को अकेला जरूर कर दिया. कब वह दिन आएगा जब भैया किसी औरत पर फिर से विश्वास कर पाएंगे. यह क्या किया था श्रीमती गोयल आप ने मेरे भाई के साथ? काश, आप ने ऐसा न किया होता.
उस रात पहली बार मुझे ऐसा लगा, मैं बड़ा हूं और भैया मुझ से 10 साल छोटे. रो पड़े थे भैया. खाना भी खा नहीं पा रहे थे हम.
‘‘आप देख लेना भैया, एक प्यारी सी, सुंदर सी औरत जो मेरी भाभी होगी एक दिन जरूर आएगी…आप कहते हैं न कि हर कीमती राह तरसने के बाद ही मिलती है और किसी भी काम का एक निश्चित समय होता है. जो आप की थी ही नहीं वह आप की हो कैसे सकती थी. जो मेरे भाई के लायक होगी कुदरत उसे ही हमारी झोली में डालेगी. अच्छे इनसान को सदा अच्छी ही जीवनसंगिनी मिलनी चाहिए.’’
डबडबाई आंखों में ढेर सारा प्यार और अनुराग लिए भैया ने मुझे गले लगा लिया. कुछ देर हम दोनों भाई एकदूसरे के गले लगे रहे. तनिक संभले भैया और बोले, ‘‘बहुत तेज चलने वालों का यही हाल होता है. जो इनसान किसी दूसरे के सिर पर पैर रख कर आगे जाना चाहता है प्रकृति उस के पैरों के नीचे की जमीन इसी तरह खींच लेती है. मैं तुम्हें बताना ही भूल गया. कल पापा से बात हुई थी.
बौबी का बहुत बड़ा एक्सीडेंट हुआ है. उस ने 2 बच्चों को कुचल कर मार दिया. खुद टूटाफूटा अस्पताल में पड़ा है और मांबाप पुलिस से घर और घर से पुलिस तक के चक्कर लगा रहे हैं. जिन के बच्चे मरे हैं वे शहर के नामी लोग हैं. फांसी से कम सजा वे होने नहीं देंगे. अब तुम्हीं बताओ, तेज चलने का क्या नतीजा निकला?’’
वास्तव में निरुत्तर हो गया मैं. भैया ने सच ही कहा था बौबी के बारे में. उस का आचरण ही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाला है. मनुष्य काफी हद तक अपनी पीड़ा के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है.
दूसरे दिन कंपनी के काम से जब मुझे श्रीमती गोयल के पास जाना पड़ा तब उन का झुका चेहरा और तरल आंखें पुन: सारी कहानी दोहराने लगीं. उन की हंसी कहीं खो गई थी. शायद उन्हें मुझ से यह भी डर लग रहा होगा कि कहीं पुरानी घटना सब को सुना कर मैं उन के लिए और भी अपमान का कारण न बन जाऊं.
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पहली बार लगा मैं भी भैया जैसा बन गया हूं. क्षमा कर दिया मैं ने भी श्रीमती गोयल को. बस मन में एक ही प्रश्न उभरा :
आप ने ऐसा क्यों किया श्रीमती गोयल जो आज आप को अपनी नजरें शर्म से झुकानी पड़ रही हैं. हम आज वह अनिष्ट ही क्यों करें जो कब दुख का तूफान बन कर हमारे मानसम्मान को ही निगल जाए. इनसान जब कोई अन्याय करता है तब वह यह क्यों भूल जाता है कि भविष्य में उसे इसी का हिसाब चुकाना पड़ सकता है.
काश, आप ने ऐसा न किया होता.
‘‘मिन्नी का तो मम्मीपापा जानें… मुझे अपना पता है. बस, शादी नहीं करना चाहता.’’
‘‘मिन्नी के लिए मम्मीपापा क्यों जानें? तुम भाई हो न.’’
‘‘मिन्नी से बात किए मुझे शायद 5-6 साल हो गए. हम आपस में बात ही नहीं करते. तुम तरस रहे हो तुम्हारी कोई बहन होती. मेरी है न, मैं उस से बोलता ही नहीं.’’
मानो आसमान से नीचे गिरा मैं. कानों से सुनी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या विजय अपनी सगी बहन से बात नहीं करता? लेकिन क्यों? ऐसा क्यों?
‘‘एक वक्त था…मुझे बहुत तकलीफ हुई थी जब मेरी बहन ने इतना बड़ा मजाक मेरे साथ किया था. किसी पराई लड़की के साथ शर्त लगाई थी. मेरा दोष सिर्फ इतना था कि मैं ने उसे किसी के साथ दोस्ती करने से रोका था. कोई था जो अच्छा नहीं था. उन दिनों मिन्नी बी.सी.ए. कर रही थी. उस की सुरक्षा चाहता था मैं. उस के मानसम्मान की चिंता थी मुझे. नहीं मानी तो मैं ने मम्मी से बात की. मान गई थी मिन्नी…उस के साथ दोस्ती तोड़ दी…और उस का बदला मुझ से लिया अपनी एक सहेली से मेरी दोस्ती करा कर.’’
मैं टुकुरटुकुर उस का चेहरा पढ़ता रहा.
‘‘मेरी बहन है न मिन्नी. मुझे कैसी लड़कियां पसंद हैं उसे पता था. बिलकुल उसी रूप में ढाल कर उसे घर लाती रही. मुझे सीधीसादी वह मासूम प्यारी सी लड़की भा गई. मम्मीपापा को भी वह घरेलू लगने वाली लड़की इतनी अच्छी लगी कि उसे बहू बना लेने पर उतारू हो गए. हमारा पूरा परिवार उस पर निछावर था. वह मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी समूल भावनाएं उसी पर जा टिकी थीं.
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‘‘मैं कोई सड़कछाप आशिक तो नहीं था न सोम, ईमानदारी से अपना सब उस पर वार देने को आतुर था. क्या यही मेरा दोष था? क्या प्रेम की भूख लगना अनैतिक था? पूरी श्रद्धा थी मेरे मन में उस के लिए और जिस दिन मैं ने उसे अपने मन की बात कही उस ने खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया. क्षण भर में उस का रूप ऐसा बदला कि मेरी आंखें विश्वास ही नहीं कर पाईं. वह मिन्नी से शर्त जीत चुकी थी.
‘‘ ‘तुम्हारी बहन को किसी से प्रेम हो जाए तो गलत. अब तुम्हें मुझ से प्रेम हो गया तो सही. कैसे दोगले इनसान हो तुम.’ ’’
चुप हो गया विजय कहताकहता. धीरेधीरे बच्ची की आंखों के किनारे पोंछने लगा. सोईसोई भी वह रो रही थी. प्रश्न लिए आंखों में मुझे देखा विजय ने.
‘‘यह बेजबान बच्ची देखी है न, इतना रोई मेरे गले को अपने छोटेछोटे हाथों से कस कर कि मैं पत्थर हूं क्या जो समझ ही न पाऊं? मिन्नी तो मेरा खून है. क्या उसे पता नहीं चल सकता था मैं उस से कितना प्यार करता हूं. दुश्मन था क्या मैं? प्यार कोई तमाशा है क्या जिसे जहां चाहो मोड़ लो. उस का भला चाहा क्या यही मेरा दोष था. वह पल और आज का दिन मेरा मन ही मर गया. अब न मिन्नी के लिए दर्द होता है न अपने लिए ही कोई इच्छा जागती है.’’
रो पड़ा था मैं. स्नेह से विजय का हाथ पकड़ लिया, सोच रहा था…मैं भावुक हूं…मैं हूं जो भावना को सब से ऊपर मानता हूं.
‘‘वह लड़का अच्छा होता तो मैं मिन्नी का साथ देता,’’ विजय पुन: बोला, ‘‘उस की पढ़ाई पूरी हो जाती, कुछ तो भविष्य होता दोनों का. मैं तो नौकरी कर रहा था. शादी की उम्र थी मेरी. मांबाप भी सहमत थे. मैं गलत कहां था जो उस लड़की के मुंह से मुझे दोगला इनसान कहला भेजा. उस की हंसी मैं आज भी भूल नहीं पाता.
‘‘उस के बाद कुछ समझ में आया होगा मिन्नी के. मम्मीपापा ने भी डांटा. मुझ से माफी भी मांगी लेकिन दिल से मैं उसे माफ नहीं कर सका. बहन है राखी पर राखी बांध देती है. भाई हूं न, कहीं भाग तो नहीं सकता. मुसाफिर जैसी लगती है वह मुझे, जैसे सफर में कोई साथ हो. अपनी नहीं लगती. मैं मन को समझाता भी हूं. बुरा सपना समझ सब भूल जाना चाहता हूं लेकिन मन का कोना जागता ही नहीं, सदासदा के लिए मर गया.’’
‘‘मर गया मत कहो विजय, सो गया कहो. जीवन में सब का एक हिस्सा प्रकृति निश्चित कर देती है. जो लड़की उस ने तुम्हारे लिए बनाई है वह अभी तुम्हारी आंखों के सामने आई ही नहीं तो कैसे तुम्हारा सोया कोना जागे. तुम एक अच्छे ईमानदार इनसान हो. कोई भी ऐसीवैसी तुम्हारी साथी नहीं न हो सकती. तुम्हारे समूल भाव बस उसी के लिए हैं जिन्हें तुम टुकड़ाटुकड़ा कर कहीं भी बिखेरना नहीं चाहते, जिसे भी मिलोगे तुम पूरेपूरे मिलोगे.
‘‘यह पूरापूरा, प्यारा सा मेरा भाई जिसे मिलेगा वह खुद भी तो उतनी ही सच्ची और ईमानदार होगी…और ऐसी लड़कियां आजकल बहुत कम मिलती हैं, बहत कम होती हैं ऐसी लड़कियां. इसलिए कीमती होती हैं लेकिन होती हैं यह एक शाश्वत सत्य है. तुम्हारा हिस्सा तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है.’’
टपकने लगी थीं विजय की आंखें. मैं कंधा थपका कर कहने लगा, ‘‘क्या इसीलिए सब से दूरदूर भागते हो? चोर या अपराधी हो क्या तुम? मत भागो सब से दूर. मिन्नी तो सब के साथ घुलमिल कर खुश है और तुम व्यर्थ कटे से हो सब से. हादसा था, हुआ, बीत गया. माफ कर दो बहन को. हो सकता है उसे भी वह लड़का बहुत ज्यादा पसंद हो. प्यार की सीमा जरा अलग और ज्यादा विशाल होती है इतना तो मानते हो न. तुम भाई हो, तुम्हारे प्यार की हद उस सीमा से टकरा गई थी…बस, इतना ही हुआ था. इस में इतना गंभीर होने की क्या जरूरत है. जरा सोचो…माफ कर दो मिन्नी को. तुम्हारा हर सोया कोना जाग उठेगा.’’
सुनता रहा विजय. जैसे उस ने भी बरसों बाद अपना मन खोला था किसी के साथ. बच्ची सहसा उठ कर रोने लगी थी. वही टूटेफूटे शब्द थे, ‘पा…पा…’
‘‘आजा बच्चे मेरे पास.’’
समस्त अनुराग से विजय ने नताशा की मासूम सी गुडि़या बिटिया को पास खींच लिया…चूम कर गले से लिपटा लिया… बड़बड़ाने लगा, ‘क्या होगा इस बच्ची का. हम सब तो परसों चले जाएंगे तब इस का क्या होगा?’
विजय उठ कर कमरे में टहलने लगा था और बच्ची को थपथपा कर सुलाने का प्रयास करने लगा. नताशा भी बच्ची का रोना सुन कर चली आई थी. दोनों मिल कर उसे चुप कराने की कोशिश में थे.
मैं सब सुन कर और देख कर कुछ दुखी था. भावनाओं में जीने वाला इनसान ऐसे ही तो जीता है. कभी अपनी पीड़ा पर परेशान और कभी दूसरे की तकलीफ…दर्द पर दुखी. सत्य है उस की पीड़ा…और यही तो उस की कमाई है. भावुक न हो तो जी ही न पाए.
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यह भावुकता ही तो है जो मनुष्य को जमीन से जोड़ती है. आज हर तीसरा इनसान आज के तेज युग के साथ भागता हुआ कहीं न कहीं अपनी जमीन से कट रहा है और गहरा अवसाद उस का साथी बनता जा रहा है. सोचा जाए तो आज हम कहां जा रहे हैं, हमें ही पता नहीं. कहीं न कहीं तो हमें जमीन से जुड़ना पड़ेगा न. बिना जुड़े हमारा भविष्य हमें एक भावनात्मक शून्य के सिवा कुछ नहीं दे पाएगा…वह चाहे आप हों चाहे हम.
भारती ने तब प्रीति की तरफ देखा था. कितनी जल्दी स्थिति से समझौता करने की बात सोच लेती है यह.
फिर आननफानन में आपरेशन के लिए 2 दिन बाद की ही तारीख तय हो गई थी.
अजय का फिर फोन आ गया था.
‘‘भारती, मुझे टूर पर निकलना है, इसलिए कोशिश तो करूंगा कि उस दिन तुम्हारे पास पहुंच जाऊं पर अगर नहीं आ पाऊं तो तुम डाक्टर से मेरी बात करा देना.’’
हुआ भी यही. आपरेशन करने से पहले डाक्टर प्रभा की फोन पर ही अजय से बात हुई, क्योंकि उन्हें अजय की अनुमति लेनी थी. सबकुछ सामान्य था पर एक अजीब सी शून्यता भारती अपने भीतर अनुभव कर रही थी. आपरेशन के बाद भी वही शून्यता बनी रही.
शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग निकल जाने से जैसे शरीर तो रिक्त हो गया है, पर मन में भी एक तीव्र रिक्तता का अनुभव क्यों होने लगा है, जैसे सबकुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है उस के पास.
‘‘दीदी, आप चुप सी क्यों हो गई हैं, आप के टांके खुलते ही डाक्टर आप को दिल्ली जाने की इजाजत दे देंगी. बड़ी गाड़ी का इंतजाम हो गया है. स्कूल के 2 बाबू भी आप के साथ जाएंगे. अजयजी से भी बात हो गई है,’’ प्रीति कहे जा रही थी.
तो क्या अजय उसे लेने भी नहीं आ रहे. भारती चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी.
उधर प्रीति का बोलना जारी था, ‘‘दीदी, आप चिंता न करें…भरापूरा परिवार है, सब संभाल लेंगे आप को, परेशानी तो हम जैसे लोगों की है जो अकेले रह रहे हैं.’’
पर आज भारती प्रीति से कुछ नहीं कह पाई थी. लग रहा था कि जैसे उस की और प्रीति की स्थिति में अधिक फर्क नहीं रहा अब.
हालांकि अजय के औपचारिक फोन आते रहे थे, बच्चों ने भी कई बार बात की पर उस का मन अनमना सा ही बना रहा.
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अभी सीढि़यां चढ़ने की मनाही थी पर दिल्ली के फ्लैट में लिफ्ट थी तो कोई परेशानी नहीं हुई.
‘‘चलो, घर आ गईं तुम…अब आराम करो,’’ अजय की मुसकराहट भी आज भारती को ओढ़ी हुई ही लग रही थी.
बच्चे भी 2 बार आ कर कमरे में मिल गए, फिर रोहित को दोस्त के यहां जाना था और रश्मि को डांस स्कूल में. अजय तो खैर व्यस्त थे ही.
नौकरानी आ कर उस के कपड़े बदलवा गई थी. फिर वही अकेलापन था. शायद यहां और वहां की परिस्थिति में कोई खास फर्क नहीं था, वहां तो खैर फिर भी स्कूल के स्टाफ के लोग थे, जो संभाल जाते, प्रीति एक आवाज देते ही नीचे आ जाती पर यहां तो दिनभर वही रिक्तता थी.
बच्चे आते भी तो अजय को घेर कर बैठे रहते. उन के कमरे से आवाजें आती रहतीं. रश्मि के चहकने की, रोहित के हंसने की.
शायद अब न तो अजय के पास उस से बतियाने का समय है न पास बैठने का, और न ही बच्चों के पास. आखिर यह हुआ क्या है…2 ही दिन में उसे लगने लगा कि जैसे उस का दम घुटा जा रहा है. उस दिन सुबह बाथरूम में जाने के लिए उठी थी कि पास के स्टूल से ठोकर लगी और एक चीख सी निकल गई थी. दरवाजे का सहारा नहीं लिया होता तो शायद गिर ही पड़ती.
‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ अजय यह कहते हुए बालकनी से अंदर की ओर दौडे़.
‘‘कुछ नहीं…’’ वह हांफते हुए कुरसी पर बैठ गई थी.
‘‘भारती, तुम्हें अकेले उठ कर जाने की क्या जरूरत थी? इतने लोग हैं, आवाज दे लेतीं. कहीं गिर जातीं तो और मुसीबत खड़ी हो जाती,’’ अजय का स्वर उसे और भीतर तक बींध गया था.
‘‘मुसीबत, हां अब मुसीबत सी ही तो हो गई हूं मैं…परिवार, बच्चे सब के होते हुए भी कोई नहीं है मेरे पास, किसी को परवा नहीं है मेरी,’’ चीख के साथ ही अब तक का रोका हुआ रुदन भी फूट पड़ा था.
‘‘भारती, क्या हो गया है तुम्हें? कौन नहीं है तुम्हारे पास? हम सब हैं तो, लगता है कि इस बीमारी ने तुम्हें चिड़चिड़ा बना दिया है.’’
‘‘हां, चिड़चिड़ी हो गई हूं. अब समझ में आया कि इस घर में मेरी अहमियत क्या है… इतना बड़ा आपरेशन हो गया, कोई देखने भी नहीं आया, यहां अकेली इस कमरे में लावारिस सी पड़ी रहती हूं, किसी के पास समय नहीं है मुझ से बात करने का, पास बैठने का.’’
‘‘भारती, अनावश्यक बातों को तूल मत दो. हम सब को तुम्हारी चिंता है, तुम्हारे आराम में खलल न हो, इसलिए कमरे में नहीं आते हैं. सारा ध्यान तो रख ही रहे हैं. रही बात वहां आने की, तो तुम जानती ही हो कि सब की दिनचर्या है, फिर नौकरी करने का, वहां जाने का निर्णय भी तो तुम्हारा ही था.’’
इतना बोल कर अजय तेजी से कमरे के बाहर निकल गए थे.
सन्न रह गई भारती. इतना सफेद झूठ, उस ने तो कभी नौकरी की इच्छा नहीं की थी. ब्याह कर आई तो ससुराल की मजबूरियां थीं, तंगहाली थी. 2 छोटे देवर, ननद सब की जिम्मेदारी अजय पर थी. सास की इच्छा थी कि बहू पढ़ीलिखी है तो नौकरी कर ले. तब भी कई बार हूक सी उठती मन में. सुबह से शाम तक काम से थक कर लौटती तो घर के और काम इकट्ठे हो जाते. अपने स्वयं के बच्चों को खिलाने का, उन के साथ खेलने तक का समय नहीं होता था, उस के पास तो दुख होता कि अपने ही बच्चों का बालपन नहीं देख पाई.
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फिर यह बाहर की पोस्ंिटग, उस का तो कतई मन नहीं था घर छोड़ने का. यह तो अजय की ही जिद थी, पर कितनी चालाकी से सारा दोष उसी के माथे मढ़ कर चल दिए.
इच्छा हो रही थी कि चीखचीख कर रो पड़े, पर यहां तो सुनने वाला भी कोई नहीं था.
पता नहीं बच्चों से भी अजय ने क्या कहा था, शाम को रश्मि और रोहित उस के पास आए थे.
‘‘मम्मी, प्लीज आप पापा से मत लड़ा करो. सुबह आप इतनी जोरजोर से चिल्ला रही थीं कि अड़ोसपड़ोस तक सुन ले. कौन कहेगा कि आप एक संभ्रांत स्कूल की प्रिंसिपल हो,’’ रोहित कहे जा रहा था, ‘‘ठीक है, आप बीमार हो तो हम सब आप का ध्यान रख ही रहे हैं. यहां पापा ही तो हैं जो हम सब को संभाल रहे हैं. आप तो वैसे भी वहां आराम से रह रही हो और यहां आ कर पापा से ही लड़ रही हो…’’
विस्फारित नेत्रों से देखती भारती सोचने लगी कि अजय ने बच्चों को भी अपनी ओर कर लिया है. अकेली है वह… सिर्फ वह…
लेखिका- रेखा विनायक नाबर
‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’
‘‘मैं भी आता हूं.’’
‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मु?ो ही संभालनी होगी.’’
मैं दबेपांव भाभी के घर गया.
‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’
‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’
‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’
‘‘हां…हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’
‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’
‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’
‘‘और शमु?’’
फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.
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‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’
उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’
‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’
‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’
मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.
‘‘मैं प्रकाश बोल रहा हूं, आप के घर से. आप कैसी हो? लो, बात करो उन से.’’
‘‘शमु, रो मत, धीरज रख. देख मैं उस के साथ ऐसा खेल खेलूंगा कि उसे फूटफूट कर रोना पड़ेगा. हम दोनों आ रहे हैं तु?ो लेने. आखिरी फ्लाइट से निकलते हैं. तब तक खुद का ध्यान रख,’’ शर्मिला के पिताजी बोले.
क्रोध की जगह करुणा ने ले ली. शर्मिला की आंखों से आंसू छलक रहे थे. शर्मिला की मां भी व्याकुल थीं, लेकिन ?ाठमूठ का धीरज दे रही थीं. मेरी मां ने तो बिस्तर पकड़ लिया था. उन के आंसू थम नहीं रहे थे. सब को इतने बड़े दुख में धकेलने वाले निर्दयी भैया से मु?ो घृणा आने लगी. शर्मिला के अपने घर आने पर हम वहां पहुंचे.
‘‘शर्मिला, यह क्या हुआ बेटा,’’ यह बोल कर मां बेहोश हो गईं. बाबूजी शर्मिंदा हो कर उस के सामने हाथ जोड़ रहे थे.
‘‘हम आप के कुसूरवार हैं. ऐसा कुलक्षणी बेटा जना, मु?ो शर्म आती है.’’
शर्मिला के पापा अब तक शांत हो गए थे.
शर्मिला की मां और शर्मिला मेरी मां को सम?ा रहे थे.
‘‘हम सब को यह दुख भोगना था शायद, लेकिन आप खुद को कुसूरवार न सम?ों. मैं उसे पाताल से भी ढूंढ़ कर लाऊंगा और सजा दूंगा. प्रकाश उसे अमेरिका में संपर्क करने का कोई रास्ता है क्या?’’ ‘‘हां पापा, प्रसाद का औफिस का नंबर तो नहीं है पर जहां रहता है वहां का नंबर ट्रेर्स करता हूं.’’
‘‘फोन लगाया था तो पता चला भैया 3 महीने पहले ही अपार्टमैंट छोड़ चुके थे.’’
‘‘हरामखोर, पहले से ही प्लान कर चुका था. उस ने मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. नया बिजनैस शुरू करने के बहाने मेरे पास से 5 लाख रुपए ले गया था.’’
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‘‘हां, मु?ो भी यही कारण बता कर पैसे मांगे, मैं ने पीएफ से 2 लाख रुपए निकाल कर दिए, शर्मिला के गहने भी गायब हुए हैं.’’ मैं ने बताया.
‘‘नीच अमानुष. अब मैं यह हकीकत अखबार में छपवाने वाला हूं. अमेरिका में मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, उन को भी खबर दूंगा. सब जगह उस की बदनामी करूंगा.’’
अब बदनामी होगी, इस कारण बाबूजी डर गए.
‘‘देखिए, हमारे बेटे से अक्षम्य अपराध हुआ है. लेकिन जरा धीरज से काम लीजिए. ऐसी घड़ी में सोचविचार कर के निर्णय लीजिए, आप देख ही रहे हो हालात कितने नाजुक हैं और शर्मिला के भविष्य की दृष्टि से भी सोचना चाहिए. बस, एक हफ्ते का समय दीजिए हमें. देखते हैं कुछ हल निकलता है क्या. नहीं तो मानहानि सहने के सिवा और कोई चारा नहीं.’’
वे एक हफ्ता रुकने को राजी हो गए. बड़ी कृपा हुई थी हम पर. गए हफ्ते खुशी की तरंगों पर तैरने वाले हम, आज दुख के सागर में डूब चुके थे. केवल भैया की इस घिनौनी हरकत की वजह से फूल जैसी शर्मिला मुर?ा कर सांवली पड़ गईर् थी. उस ने जैसे न बोलने का प्रण लिया था. हम दोनों सहारा बने, इसलिए मां थोड़ी संभल गईं, वरना उन के लिए सदमा असहनीय था.
‘‘कलमुंहा, बच्ची की जिंदगी की होली कर डाली.’’
‘‘सही कहती हो आप. हम उस के अपराधी हैं. कभी न भरने वाला जख्म है यह.’’ शर्मिला मां से मिल कर गई. आश्चर्य यह था कि दोनों संयम से काम ले रही थीं. एक दिन मैं औफिस से आया तो मांबाबूजी अभीअभी शर्मिला के घर से लौटे थे.
‘‘बाबूजी, उन्होंने बुलाया था क्या?’’
‘‘नहीं, ऐसे ही मिल कर आए, काफी दिन हुए, मिले नहीं थे. शर्मिला को भी देखने को दिल कर रहा था.’’
‘‘सब कुछ ठीक है न?’’
‘‘हां, ठीक ही कहना चाहिए, लेकिन भविष्य के बारे में सोचना जरूरी है.’’
‘‘प्रकाश अभीअभी आए हो न? हाथपांव धो आओ. मैं चाय बनाती हूं. कुछ खा भी लो.’’ मु?ो मां का यह बरताव अजीब लगा.
चायनाश्ता हो गया. हम तीनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे. मां मु?ा से कुछ कहना चाहती हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा था. वे बहुत टैंशन में लग रही थीं.
‘‘मां, क्या हुआ, कुछ कहना है क्या, टैंशन में लग रही हो. बताओ अभी, क्यों टैंशन बढ़ा रही हो?’’
‘‘प्रकाश, देखो…हमें ऐसा लगता है, इसलिए सुझाव दे रही हूं. लेकिन सोच कर ही बताना.’’
‘‘क्या सोचना है? क्या सुझाव दे रही हो? और ऐसे हकला कर क्यों बोल रही हो?’’
आखिरकार बाबूजी ने बड़ी हिम्मत कर बोल ही दिया, ‘‘प्रकाश, हमें लगता है कि तुम शर्मिला को पत्नी के रूप में स्वीकार करो.’’
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ऐसे लग रहा था मानो सारे बदन में बिजली दौड़ रही है. मैं जोर से चिल्लाया. ‘‘यह कैसे हो सकता है? भाभी और पत्नी? नहीं, मैं सोच भी नहीं सकता. आप मुझे ऐसा सुझाव कैसे दे सकते हो?’’
‘‘प्रकाश बेटे, यह कहते हुए हमें भी अच्छा नहीं लग रहा. हम जानते हैं कि तुम्हारे भी अपने वैवाहिक जीवन के कुछ सपने होंगे. तुम अच्छे पढ़ेलिखे हो, अच्छी तनख्वाह मिलती है तुम्हें. तुम्हें अच्छी लड़की मिल सकती है. लेकिन, हमें शर्मिला के बारे में भी तो सोचना चाहिए. उस की कोई गलती न होते हुए भी उस की जिंदगी यों बरबाद हो गई, और हमें यह देखना पड़ रहा है. अनजाने में हम ही इस के जिम्मेदार हैं न?’’
मां फिर से सिसकसिसक कर रोने लगीं.
‘‘मां, मु?ो सोचने के लिए वक्त चाहिए. यही बोलने के लिए आप उन के यहां हो आए? क्या कहा उन्होंने?’’
‘‘हम ने बात की उन से. कुछ कहा नहीं उन्होंने. उन्हें भी वक्त चाहिए. फोन करेंगे वे. तुम्हारा कहना क्या है, यह पूछने को कहा है.’’
मेरे पांवतले जमीन खिसक रही थी. जेहन ने काम करना बंद कर दिया था.
‘‘मैं जरा घूम कर आता हूं.’’
‘‘इस वक्त?’’
‘‘हां.’’
दूर बगीचे तक घूम कर आया. तब कहीं थोड़ा सुकून महसूस हुआ. मेरे लौटने तक मांबाबूजी चिंता कर रहे थे. खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. उठ कर बिस्तर पर लेटा. नींद आने का सवाल ही नहीं था. मेरी वैवाहिक जिंदगी शुरू होते ही खत्म होने वाली थी. भैया के पुराने कपड़े, किताबें इस्तेमाल करने वाला मैं अब उन की त्यागी पत्नी… नहीं, यह नहीं हो सकता. इस प्रस्ताव को नकारना चाहिए. मैं बहुत बेचैन था. लेकिन आंखों के सामने आंसू निगलती मां, शर्मिंदा बाबूजी, क्रोधित शर्मिला के पिता, उन को संभालने की कोशिश करती हुई शर्मिला की मां और जिंदगी के वीरान रेगिस्तान की बालू की तरह शुष्क शर्मिला दिखने लगी. इन सब की नजरें बड़ी आशा से मुझे देख रही हैं, ऐसा लगने लगा. फिर से एक बार मेरे नसीब में उतरन ही आईर् थी. इस कल्पना से दिल जख्मी हो रहा था. ऐसी स्थिति में मुझे बचपन की एक घटना याद आई.
भैया की ड्राइंग अच्छी थी, वे बहुत अच्छे चित्र बनाते थे, और पूरे होने के बाद दोस्तों को दिखाने जाते थे. सारा सामान वैसे ही रखते थे. घर साफ होना चाहिए, इस पर बाबूजी का ध्यान रहता था. फिर मां मु?ो मनाती थीं, ‘प्रकाश, ये सामान जरा उठा कर रख बेटे. वो देखेंगे तो बिगड़ेंगे. मैं ने लड्डू बनाए हैं. मैं लाती हूं तेरे लिए.’
‘मां भैया अपना सामान क्यों खुद नहीं रखते? लड्डू का लालच दे कर आप मुझे से काम करवाती हो. भैया बिगाड़ेंगे और मैं संवारूंगा, यह अलिखित नियम बनाया है क्या आप ने.’
मां का यह अलिखित नियम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था. जिंदगी के इस मोड़ पर उस के किए अक्षम्य अपराध को मुझे ही सही करना था, मुझे ही अब शर्मिला से शादी करनी थी.
क्यों, क्योंकि वह सिर्फ मेरा बड़ा भाई है, इसलिए.
अगर मेयर बन जाते, विधायक बन जाते या फिर सांसद बन जाते तो सारे दु:ख मिट जाते.जीवन तर जाता.मगर किस्मत में शायद दु:खी रहना ही बदा है.
सुबह सवेरे सामना हो गया. चेहरे पर दुख के बादल उमड़ घुमड़ रहे थे. हमें देखा तो चेहरा और भी सुकुड़ गया बोले, भैया, रोहरानंद! मेरा देश गर्त में जा रहा है ?
रोहरानंद को सहानुभूति उमड़ी-” क्यों भैय्या! क्या हो गया, सब कुछ तो ठीक-ठाक नजर आता है।आखिर क्या हो गया ?”
दु:खी आत्मा मानो तड़फ उठी-” क्या हो गया ? क्या तुम्हें कुछ भी गलत दृष्टिगोचर नहीं हो रहा ??”
रोहरानंद ने कहा -” ऐसा तो चलता रहता है और ऐसा ही चलता रहेगा .हम जैसे आम आदमी को भला क्या विशिष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा.”
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दु:खी आत्मा ने दु:खी स्वर में कहा- “अगरचे, हम महापौर होते, सांसद होते तो, यह सब कतई नहीं होता जो शहर में इन दिनों हो रहा है.”
रोहरानंद – “क्या अनर्थकारी हुआ है जरा हम भी सुने.”
दु:खी आत्मा- “अगरचे हम महापौर बनते तो शहर का कायाकल्प हो गया होता. विधायक बनते, विधानसभा क्षेत्र का चेहरा बदल देते और अगर सांसद बनते तो संसदीय क्षेत्र का कायाकल्प हो जाता.”
रोहरानंद – “आप दूसरों को भी समय दीजिए, अभी समय ही कितना व्यतीत हुआ है.”
दुखी आत्मा -” एक एक दिन बहुत होता है ,इतना समय क्या कम है.हमें तो एक बार बना दीजिए 4 दिन मे सब ठीक कर कर देंगे.”
रोहरानंद -” अच्छा, 4 दिन क्या 100 दिन में क्या कुछ चमत्कार कर दिखाते .”
दुखी आत्मा – “देखो!सच तो यह है कि सबसे पहले मैं स्वयं अपना दु:ख दूर करता. चुनाव में एक करोड़ रुपए बहा डाला, उसकी रिकवरी करता.”
रोहरानंद – “अर्थात स्वयं लाल होते, फिर जनता को लाल करते…
दु:खी आत्मा -” भैय्या! क्या बताएं तुम अपने आदमी हो तुमसे क्या छिपाना. इन दो वर्षों में ही मैं स्वयं सुखी हो ही जाता अपने खासुल खास समर्थकों को भी सुखी कर डालता.तुम्हें भी मालामाल कर डालता.”
रोहरानंद- ( हंसते हुए )” तो फिर आपको महापौर पर विधायक पर बाण छोड़ने का क्या अधिकार है. शहर की किस्मत अच्छी है जो तुम न महापौर हुए. ना विधायक बने.”
दु:खी आत्मा – “नहीं, नहीं ,यह नगर का दुर्भाग्य है भाई . मैं ना दु:खी रहता, न किसी को दु:खी रहने देता.मैं स्वयं तो दोनों हाथों से रुपए समेटता, अपने समर्थकों को भी निहाल कर देता.”
रोहरानंद- “मुझे तो आपकी बात पर राई भर भी एतबार नहीं है, हां अगर जीत जाते तो खुद मालामाल अवश्य हो जाते.”
दु:खी आत्मा -” नहीं, नहीं , मुझ पर विश्वास करो. मैं भ्रष्टाचार करता और जी भर कर करता और सभी नगरवासियों को अपना पिछलग्गू बनाकर दिखा देता.”
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रोहरानंद -” भैय्या! जनता समर्थक यूं ही नहीं बनती, उसके लिए नगर का विकास करना पड़ता है. काम करना पड़ता है. महापौर का दायित्व है नगर की साफ-सफाई,सड़कों की मरम्मत सौन्दरीकरण,जल पानी इत्यादि का ध्यान रखें. जनता तब पिछलग्गू होती है.”
दुखी आत्मा -” जनता यह सब नहीं देखती, जनता सिर्फ मुस्कुराता चेहरा देखती है.तब मैं सदा मुस्कुराता रहता. जनता मुस्कुराता देख स्वयं मुस्कुराती…”
रोहरानंद – “मगर, तुम्हें देखकर तो कोई भी नहीं कह सकता कि तुमने जिंदगी में कभी मुस्कुराया भी होगा. जब देखो तुम्हारा मुंह लटका रहता है.
दुखी आत्मा -” ( आर्त स्वर में ) मैं पहले ऐसा नहीं था.”
रोहरानंद – “तुम्हें देख कर लगता है तुम जन्मजात दुखी हो.
दुखी आत्मा -” नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है . पहले मैं भी एक मस्तमौला और खुशगवार मौसम की भांति खुशनुमा इसां था .”
रोहरानंद -” अच्छा, तो यह पराजित होने के पश्चात के हालात हैं…”
दुखी आत्मा- “( गहरी नि:श्वास छोड़कर ) हां, मैं मेयर चुनाव हारने के बाद से ऐसा हो गया हूं.”
रोहरानंद- “भैय्या! अब मुझे तुमसे बड़ी सहानुभूति है.”
दुखी आत्मा – “ऐसा है तो मेरा साथ दो…”
रोहरानंद -“मैं आम आदमी हूं. मैं भला क्या साथ दूं.”
दुखी आत्मा -“मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए, बस एक चीज… सिर्फ एक चीज…
रोहरानंद – “अच्छा चलो, बताओ.”
दु:खी आत्मा -” सिर्फ इतना करो भैय्या! तूम भी मेरी तरह दु:खी हो जाओ .चेहरा लटका लो. चेहरे पर पीड़ा उभार लो .कोई भी देखें तो समझ जाए कि तुम भी दुखी आत्मा हो.”
रोरहरानंद – “( आश्चर्य से ) मगर इससे क्या होगा ?”
दु:खी आत्मा – “मेरी आत्मा को सुकून मिलेगा. मैं एक-एक करके शहर को अपने साथ ऐसे ही दु:खी कर अपना बहुमत बनाऊंगा .और एक दिन मेरे साथ इतने लोग हो जाएंगे की महापौर की कुर्सी हिलने लगेगी.”
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रोहरानंद – “वाह! क्या तरकीब निकाली है. मगर मैं तो धर्म संकट में फंस गया.”
दु:खी आत्मा – “देखो! तुम अपनी जुबां से फिर नहीं सकते, तुमने मेरा साथ देने का वादा किया है.”
रोहरानंद – “मगर, यह तो षड्यंत्र कर रहे हो, मैं भला क्यों साथ दूं. मैं तो आम आदमी हूं. मेरा तुमसे लेना दो न देना एक. अर्थात मुझे क्या लाभ ?”
दु:खी आत्मा – “जिस दिन में बहुमत में आऊंगा, यानी महापौर बनूंगा तुम्हें खुश कर दूंगा.”
रोहरानंद – “मगर, मैं तो आज भी खुश हूं और कल भी था. और मैं जानता हूं तुम कल भी दुखी थे, आज भी हो,और कल भी रहोगे.”
लेखक- शिव शंकर गोयल
इस का ‘आईक्यू’ या ‘ईक्यू’ ही नहीं, बल्कि सब तरह के क्यू ऊंचे होंगे. मसलन:
एक जगह पर किसी समाज का परिचय सम्मेलन हो रहा था. वहां एक छोटा बच्चा खो गया. नहींनहीं, मैं आप को गलत बता गया. बच्चा तो आयोजकों के पास मंच पर था, लेकिन उस के मम्मीपापा कहीं खो गए थे. बच्चा भीड़ देख कर रो रहा था.
एक कार्यकर्ता ने उस बच्चे के मांबाप को ढूंढ़ने की खातिर उस से पूछा, ‘‘बताओ बेटा, तुम्हारा नाम क्या?है?’’
‘‘पप्पू…’’ वह बोला.
‘‘तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है?’’ दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा.
‘‘पापा…’’ बच्चे ने बताया.
‘‘वे क्या काम करते हैं?’’ पहले कार्यकर्ता ने पूछा.
‘‘जो मम्मी कहती हैं…’’ लड़के ने रोतेरोते बताया.
‘‘तुम कहां रहते हो?’’ दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा.
‘‘मम्मी के पास…’’ उस बच्चे ने जवाब दिया.
देखा आप ने… कहते हैं न कि पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं. अब आप ही बताइए कि ऐसे बच्चे बड़े हो कर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बनने लायक हैं कि नहीं? कोई भी पत्रकार इन से कुछ नहीं उगलवा सकता है.
इतना ही नहीं, समय से पहले होशियारी आ जाने का उदाहरण भी देखते हैं.
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बचपन में हम सभी ने प्यासे कौए की कहानी पढ़ी है. अब भी वही कहानी पढ़ाई जाती है, जो इस तरह है:
एक प्यासा कौआ था. पानी ढूंढ़तेढूंढ़ते उसे एक घड़े में कुछ पानी दिखाई दिया, लेकिन पानी इतना कम था कि उस की चोंच वहां तक नहीं पहुंच सकती थी, इसलिए उस ने घड़े में एकएक कर के कई कंकड़पत्थर ला कर डाले, जिस से घड़े में पानी ऊपर आ गया. तब कौए ने अपनी प्यास बुझाई और फिर वह उड़ गया.
अपने बच्चे को यह कहानी पढ़ते देखा, तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘अच्छा बेटा बताओ, इस कहानी से हमें क्या सीख मिलती है?’’
‘‘सीख यही कि खाओपीओ और वहां से खिसक लो,’’ वह बोला.
एक बच्चे से उस के रिश्तेदार ने पूछा, ‘‘बेटे, बड़े हो कर क्या बनोगे?’’
‘‘दांतों का डाक्टर बनूंगा अंकल,’’ बच्चा बोला.
‘‘क्यों? ऐसी क्या बात है, जो तुम दांतों के डाक्टर बनोगे?’’
‘‘अंकल, आंख, कान वगैरह तो 2-2 ही होते हैं, जबकि दांत 32 होते हैं, उस में ज्यादा स्कोप है,’’ लड़का बोला.
इतिहास की क्लास थी. मुगलकाल की पूरी पढ़ाई हो जाने के बाद मास्टरजी ने एक लड़के से पूछा, ‘‘बताओ, अकबर कौन था और वह कब मरा?’’
‘‘अकबर अपने बाप का बेटा था और जब उस की मौत आ गई, तब वह मरा,’’ एक छात्र ने जवाब दिया.
क्या सटीक टैलीग्राफिक जवाब था. ऐसे लोग ही आगे चल कर क्रिकेट के कमेंटेटर बन कर बोलेंगे कि गेंदबाज ने गेंद फेंकी, बल्लेबाज ने शौट लगाया और फील्डर ने गेंद रोकी.
गणित के टीचर ने एक छात्र से पूछा कि एक को एक से कैसे जोड़ें कि 3 हो जाए?
‘‘दोनों की शादी करा दीजिए सर,’’ एक छात्र ने जवाब दिया. अब बताइए कि इस पीढ़ी को आप और क्या पढ़ाना चाहते हैं?
कैमिस्ट्री के एक मास्टरजी ने क्लासरूम में आ कर छात्रों से कहा, ‘‘तुम में से एक छात्र जा कर लैबोरेटरी से बोतल में तेजाब भर लाए.’’
एक छात्र गया और बोतल में तेजाब भर लाया. मास्टरजी ने अपनी जेब से एक सिक्का निकाल कर बोतल में डाल दिया और सारी क्लास से पूछा, ‘‘अब बताओ कि यह सिक्का तेजाब में घुलेगा या नहीं?’’
सभी छात्रों ने एक आवाज में जवाब दिया, ‘नहीं घुलेगा.’
मास्टरजी सभी छात्रों के जवाब से बहुत खुश हुए और बच्चों से पूछा, ‘‘क्यों नहीं घुलेगा?’’
एक छात्र ने खड़े हो कर बताया, ‘‘मास्टरजी, अगर यह सिक्का तेजाब में घुल जाता, तो आप हमारा सिक्का लेते. आप ने इस में अपना सिक्का डाला, इस का मतलब यह है कि यह तेजाब में नहीं घुल सकता…’’ यह सुन कर मास्टरजी बगलें झांकने लगे.
ऐसी ही उम्र के बच्चे जब कभी अपनी मम्मी या पापा के साथ किसी ‘जिम’ में चले जाते हैं, तो वहां का नजारा देख कर अनायास ही उन के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अरे, सबकुछ दिखता है.’’
कई साल पहले राज कपूर ने फिल्म ‘जागते रहो’ बनाई थी, जिस में दिखाया गया था कि सफेदपोश लोग रात के अंधेरे में क्याक्या गुल खिलाते रहते हैं. राज कपूर ने सबकुछ दिखा दिया, पर समाज में से कोई कुछ बोला क्या? उलटे, वह फिल्म बौक्स औफिस पर पिट गई. भला कौन अपनी पोल खुलवाना चाहता है?
‘‘चाहे इस की वजह से हम जैसों को सदा लोगों के ताने ही क्यों न सुनने पड़ें… हमारी सारी सामाजिक समरसता ही क्यों न चौपट होने लगे…और फिर आप किन दलितों और पिछड़ों की बात कर रहे हैं? क्या वास्तव में उन्हें आरक्षण का लाभ मिल पाता है? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि असली मलाई तो हम या आप जैसे लोग ही जीम जाते हैं. क्या यह सच नहीं है कि साधनसंपन्न होते हुए भी आप के बेटे को इंजीनियरिंग में दाखिला आरक्षित कोटे से ही मिला था?’’
‘‘आखिर इस में बुराई क्या है?’’
‘‘बुराई है, जब आप आरक्षण पा कर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गए हैं तो क्या अब भी आरक्षण के प्रावधान को अपनाकर आप किसी जरूरतमंद का हक नहीं छीन रहे हैं?’’
‘‘बहुत बकरबकर किए जा रहे हो, तुम जैसा नीच इनसान मैं ने पहले नहीं देखा. जिस थाली में अब तक खाते रहे हो उसी में छेद करने की सोचने लगे. अब तुम चले जाओ. वरना…’’ मंत्रीजी अपना आपा खो बैठे और अपना रौद्र रूप दिखाते हुए क्रोध से भभक उठे.
डा. सीताराम ने भी उन से ज्यादा उलझना ठीक नहीं समझा और चुपचाप चले गए.
आलोक यह सब देख कर स्तब्ध था. डा. सीताराम के पिता मंत्रीजी के अच्छे मित्रों में हुआ करते थे, उन के गर्दिश के दिनों में उन्होंने उन्हें बहुत सहारा दिया था और मंत्रीजी के कंधे से कंधा मिला कर उन की हर लड़ाई में वह साथ खड़े दिखते थे. यह बात और है कि जैसेजैसे मंत्रीजी का कद बढ़ता गया, डा. सीताराम के पिता पीछे छूटते गए या कहें मंत्रीजी ने ही यह सोच कर कि कहीं वह उन की जगह न ले लें, उन से पीछा छुड़ा लिया.
आलोक मंत्रीजी के साथ तब से था जब वह अपने राजनीतिक कैरियर के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस समय वह बेकार था. पता नहीं उस समय उस ने मंत्रीजी में क्या देखा कि उन के साथ लग गया. उन्हें भी उस जैसे एक नौजवान खून की जरूरत थी जो समयानुसार उन की स्पीच तैयार कर सके, उन के लिए भीड़ जुटा सके और उन के आफिस को संभाल सके. उस ने ये सब काम बखूबी किए. उस की लिखी स्पीच का ही कमाल था कि लोग उन को सुनने के लिए आने लगे. धीरेधीरे उन की जनता में पैठ मजबूत होने लगी और वह दिन भी आ गया जब वह पहली बार विधायक बने. उन के विधायक बनते ही आलोक के दिन भी फिर गए पर आज डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार…वह सिहर उठा.
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अपने पिता की उसी दोस्ती की खातिर डा. सीताराम अकसर मंत्रीजी के घर आया करते थे तथा एक पुत्र की भांति जबतब उन की सहायता करने के लिए भी तत्पर रहते थे पर आज तो हद ही हो गई…उन की इतनी बड़ी इंसल्ट…जबकि उन का नाम शहर के अच्छे डाक्टरों में गिना जाता है. क्या इनसान कुरसी पाते ही इस हद तक बदल जाता है?
वास्तव में मंत्रीजी जैसे लोगों की जब तक कोई जीहजूरी करता है तब तक तो वह भी उन से ठीक से पेश आते हैं पर जो उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है उन से वे ऐसे ही बेरहमी से पेश आते हैं…अगर बात ज्यादा बिगड़ गई तो उस को बरबाद करने से भी नहीं चूकते.
आलोक अब तक सुनता रहा था पर आज वह वास्तविकता से भी परिचित हुआ…सारे मंत्री तथा वरिष्ठ आफिसर कुछ भी होने पर विदेश इसीलिए भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने डाक्टरों की एक ऐसी जमात पैदा की है जो ज्ञान के नाम पर शून्य है फिर वह क्यों रिस्क लें? जनता जाए भाड़ में, चाहे जीए या मरे…उन्हें तो बस, वोट चाहिए.
आज यहां हड़ताल, कल वहां बंद, कहीं रैली तो कहीं धरना…अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए तोड़फोड़ करवाने से भी नेता नहीं चूकते. ऐसा करते वक्त ये लोग भूल जाते हैं कि वे किसी और की नहीं, अपने ही देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं. आम जनजीवन अलग अस्तव्यस्त हो जाता है, अगर इस सब में किसी की जान चली गई तो वह परिवार तो सदा के लिए बेसहारा हो जाता है पर इस की किसे परवा है. आखिर ऐसे दंगों में जान तो गरीब की ही जाती है. सामाजिक समरसता की परवा आज किसे है जब इन जैसों ने पूरे देश को ही विभिन्न जाति, प्रजातियों में बांट दिया है.
आलोक का मन कर रहा था कि वह मंत्रीजी का साथ छोड़ कर चला जाए. जहां आदमी की इज्जत नहीं वहां उस का क्या काम, आज उन्होंने डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार किया है कल उस के साथ भी कर सकते हैं.
मन ने सवाल किया, ‘तुम जाओगे कहां? जीवन के 30 साल जिस के साथ गुजारे, अब उसे छोड़ कर कहां जाओगे?’
‘कहीं भी पर अब यहां नहीं.’
‘बेकार मन पर बोझ ले कर बैठ गए… सचसच बताओ, जो बातें आज तुम्हें परेशान कर रही हैं, क्या आज से पहले तुम्हें पता नहीं थीं?’
‘थीं…’ कहते हुए आलोक हकला गया था.
‘फिर आज परेशान क्यों हो… अगर तुम छोड़ कर चल दिए, तो क्या मंत्रीजी तुम्हें चैन से जीने देंगे… क्या होगा तुम्हारी बीमार मां का, तुम्हारी 2 जवान बेटियों का जिन के हाथ तुम्हें पीले करने हैं?’
तभी सैलफोन की आवाज ने उस के अंतर्मन में चल रहे सवालजवाबों के बीच व्यवधान पैदा कर दिया. उस की पत्नी रीता का फोन था :
‘‘मांजी की हालत ठीक नहीं है… लगता है उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा. वहीं शुभदा को देखने के लिए भी बरेली से फोन आया है, वे लोग कल आना चाहते हैं… उन्हें क्या जवाब दूं, समझ में नहीं आ रहा है.’’
‘‘बस, मैं आ रहा हूं… बरेली वालों का जो प्रोग्राम है उसे वैसा ही रहने दो. इस बीच मां की देखभाल के लिए जीजी से रिक्वेस्ट कर लेंगे,’’ संयत स्वर में आलोक ने कहा. जबकि कुछ देर पहले उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.
‘‘आलोक, कहां हो तुम…गाड़ी निकलवाओ…हम 5 मिनट में आ रहे हैं,’’ मंत्रीजी की कड़कती आवाज में रीता के शब्द कहीं खो गए. याद रहा तो केवल उन का निर्देश…साथ ही याद आया कि आज 1 बजे उन्हें एक पुल के शिलान्यास के लिए जाना है.
उस के पास मंत्रीजी का आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं था…घर के हालात उसे विद्रोह की इजाजत नहीं देते. शायद उसे ऐसे माहौल में ही जीवन भर रहना होगा, घुटघुट कर जीना होगा. अपनी मजबूरी पर वह विचलित हो उठा पर अंगारों पर पैर रख कर वह अपने और अपने परिवार के लिए कोई मुसीबत मोल लेना नहीं चाहता था. और तो और, अब वह जब तक शिलान्यास नहीं हो जाता, घर भी नहीं जा पाएगा.
सैलफोन पर ‘हैलो…क्या हुआ…’ सुन कर उसे याद आया कि वह रीता से बात कर रहा था…न आ पाने की असमर्थता जताते हुए मां को तुरंत अस्पताल में शिफ्ट करने की सलाह दी. वह जानता था, रीता उस की बात सुन कर थोड़ा भुनभुनाएगी पर उस की मजबूरी समझते हुए सब मैनेज कर लेगी. आखिर ऐसे क्षणों को जबतब उस ने बखूबी संभाला भी है.