ताकझांक: शालू को रणवीर से क्यों होने लगी नफरत?

वह नई स्मार्ट सी पड़ोसिन तरुण को भा रही थी. उसे अपनी खिड़की से छिपछिप कर देखता. नई पड़ोसिन प्रिया भी फैशनेबल तरुण से प्रभावित हो रही थी. वह अपने सिंपल पति रणवीर को तरुण जैसा फैशनेबल बनाने की चाह रखने लगी थी.

शाम को जब प्रिया बनसंवर कर बालकनी में पड़े झले पर आ बैठती तो तरुण चोरीछिपे उस की हर बात नोटिस करता. कितनी सलीके से साड़ी पहने चाय की चुसकियां लेते हुए किसी किताब में गुम रहती है मैडम. क्या करे मियांजी का इंतजार जो करना है और मियांजी हैं जो जरा भी खयाल नहीं रखते इस बात का. बेचारी को खूबसूरत शाम अकेले काटनी पड़ती है. काश वह उस का पति होता तो सब काम छोड़ फटाफट चला आता.

तरुण का मन गाना गाने को मचलने लगता, ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए…’ कितने ही गाने हैं हसीन शाम के ‘ये शाम मस्तानी…’ ‘‘तरु कहां हो… समोसे ठंडे हो रहे हैं,’’ तभी उसे सपनों की दुनिया से वास्तविकता के धरातल पर पटकती उस की पत्नी शालू की आवाज सुनाई दी.

आ गई मेरी पत्नी की बेसुरी आवाज… इस के सामने तो बस एक ही गाना गा सकता हूं कि जब तक रहेगा समोसे में आलू तेरा रहूंगा ओ मेरी शालू…

‘‘बालकनी में हो तो वहीं ले आती हूं,’’ शालू कपों में चाय डालते हुए किचन से ही चीखी.

‘‘उफ… नहीं, मैं आया,’’ कह तरुण जल्दी यह सोचते हुए अंदर चल दिया, ‘कहां वह स्लिमट्रिम सी कैटरीना कैफ और कहां ये हमारी मोटी भैं…’

तरुण ने कदमों और विचारों को अचानक ब्रेक न लगाए होते तो चाय की ट्रे लाती शालू से टकरा गया होता.

तरुण रोज सुबह जौगिंग पर जाता तो प्रिया वहां दिख जाती. तरुण से रहा नहीं गया. जल्द ही उस ने अपना परिचय दे डाला, ‘‘माईसैल्फ तरुण… मैं आप के सामने वाले फ्लैट…’’

‘‘हांहां, मैं ने देखा है… मैं प्रिया और वे सामने जो पेपर पढ़ रहे हैं वे मेरे पति रणवीर हैं,’’ प्रिया उस की बात काटते हुए बोली.

‘‘कभी रणवीर को ले कर हमारे घर आएं.मैं और मेरी पत्नी शालू ही हैं… 2 साल ही हुएहैं हमारी शादी को,’’ तरुण बोला.

‘‘रियली? आप तो अभी बैचलर से ही दिखते हैं,’’ प्रिया ने तरुण के मजबूत बाजुओं पर उड़ती नजर डालते हुए कहा, ‘‘हमारी शादी को भी 2 ही साल हुए हैं.’’ अपनी तारीफ सुन कर तरुण उड़ने सा लगा.

‘‘रणवीर साहब अपना राउंड पूरा कर चुके?’’

‘‘अरे कहां… जबरदस्ती खींच कर लाती हूं इन्हें घर से… 1-2 राउंड भी बड़ी मुश्किल से पूरा करते हैं.’’

‘‘यहां पास ही जिम है. मैं यहां से सीधा वहीं जाता हूं 1 घंटे के लिए.’’

‘‘वंडरफुल… मैं भी जाती हूं उधर लेडीज विंग में…  ड्रौप कर के ये सीधे घर चले जाते हैं… सो बोरिंग… चलिए आप से मिलवाती हूं शायद आप को देख उन का भी दिल बौडीशौडी बनाने का करने लगे.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं? मेरी पत्नी भी कुछ इसी टाइप की है… जौगिंग क्या वाक तक के लिए भी नहीं आती… आप मिलो न उस से. शायद आप को देख कर वह भी स्लिम ऐंड फिट बनना चाहे,’’ तरुण तारीफ करने का इतना अच्छा मौका नहीं खोना चाहता था.

‘‘कल अपनी वाइफ को भी यहीं पार्क की सैर पर लाइएगा.’’ फिर कल आप के पति से वाइफ के साथ ही मिलूंगा.

‘‘ओके बाय,’’ उस ने अपने हेयरबैंड को ठीक करते हुए बड़ी अदा से थ हिलाया.

‘‘बाय,’’ कह कर तरुण ने लंबी सांस भरी.

तरुण जानबूझ कर उलटे राउंड लगाने लगा ताकि वह प्रिया को बारबार सामने से आता देख पाएगा. पर यह क्या पास आतेआते खड़ूस से पति की बगल में बैठ गई. ‘चल देखता हूं क्या गुफ्तगू, गुटरगूं हो रही है,’ सोच वह झडि़यों के पीछे हो लिया. ऐसे जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो… किसी को शक न हो. वह कान खड़े कर सुनने लगा…

‘‘रणवीर आप तो बिलकुल ही ढीले हो कर बैठ जाते हो. अभी 1 ही राउंड तो हुआ आप का… वह देखो सामने से आ रहा है… अरे कहां गया… कितनी फिट की हुई है उस ने बौडी… लगातार मेरे साथ 5 चक्कर तो हो ही गए उस के अभी भी… हमारे सामने वाले घर में ही तो रहता है… आप ने देखा है क्या सौलिड बौडी है उस की…’’

‘अरे, यह तो मेरे बारे में ही बात कर रही है और वह भी तारीफ… क्या बात है…. तरु तुम तो छा गए,’ बड़बड़ा कर वह सीधा हो कर पीछे हो लिया. ‘खड़ूस माना नहीं… आलसी कहीं का… बेचारी रह गई मन मार कर… चल तरु तू भी चल जिम का टाइम हो गया है’ सोच वह जौगिंग करते हुए ही जिम पहुंच गया.

प्रिया को जिम के पास उतार कर रणवीर चला गया यह कहते हुए, ‘घंटे भर बाद लेने आ जाऊंगा… यहां वक्त बरबाद नहीं कर सकता.’

‘हां मत कर खड़ूस बरबाद… तू जा घर में बैठ और मरनेकटने की खबरें पढ़.’ मन ही मन बोलते हुए तरु ने बुरा सा मुंह बनाया, ‘और अपनी शालू रानी तो घी में तर आलू के परांठे खाखा कर सुबहसुबह टीवी सीरियल से फैशन सीखने की क्लास में मस्त खुद को निखारने में जुटी होंगी.’

दूसरे दिन तरुण शालू को जबरदस्ती प्रिया जैसा ट्रैक सूट पहना कर पार्क में ले आया.1 राउंड भी शालू बड़ी मुश्किल से पूरा कर पाई. थक कर वह साइड की डस्टबिन से टकरा कर गिर गई.

‘‘कहां हो शालू? कहां गई?’’ पुकार लोगों के हंसने की आवाजें सुन तरुण पलटा. शालू की ऐसी हालत देख उस की भी हंसी छूट गई पर प्रिया को उस ओर देखता देख खिसियाई सी हंसी हंसते हुए हाथ का सहारा दे उठा दिया.

प्रिया के आगे गोल होती जा रही शालू को देख तरुण को और भी शर्मिंदगी महसूस होती. घर पर उस ने साइक्लिंग मशीन भी ला कर रख दी पर उस पर शालू 10-15 बार चलती और फिर पलंग पर फैल जाती.

‘‘बस न तरु हो गया न आज के लिए… सुबह से कुछ नहीं खाने दिया, बहुत भूख लगी है. खाने दो  पहले आलू के परांठे प्लीज.’’ खाने के नाम से उस में इतनी फुरती आ जाती कि तरुण के छिपाए परांठे फटाफट उठा लाती और फटाफट खाने लगती.

‘‘तुम भी खा कर तो देखो मिर्च के अचार के साथ… बड़े टेस्टी लग रहे हैं… बाद में अपना घासफूस खा लेना,’’ परांठे का टुकड़ा उस की ओर बढ़ाते हुए शालू मुसकराई.

‘‘नो थैंक्स… तुम्हीं खाओ,’’ कह तरुण डाइनिंग टेबल पर रखे कौर्नफ्लैक्स दूध की ओर बढ़ गया.शालू टीवी खोल कर बैठ गई तो तरुण बाउल ले कर अपनी विंडो पर आ गया.

‘ओह आज तो सुबह से बड़ी चहलकदमी हो रही है… तैयार मैडम प्रिया सधे कदमों से हाईहील में खटखट करते इधरउधर आजा रही हैं,’ दिल में उस के जलतरंग सी उठने लगी. ‘लगता है किसी फंक्शन में जा रही है… उफ लो यह खड़ूस अपने जूते पहने यहीं आ मरा… बेटा, थ्री पीस सूट पहन कर हीरो नहीं बन जाएगा… बीवी की बात कभी तो मान लिया कर… थोड़ी बौडीशौडी बना ले,’ तरुण परदे के पीछे खड़ा बड़बड़ाए जारहा था.

‘काश, प्रिया जैसी मेरी बीवी होती… खटखट करते2 कदम आगे2 कदम पीछे करके मेरे साथ डांस करती… मैं उसे यों गोलगोल घुमाता,’ वह खयालों में खो गया.

एक दिन खयालों को सच करने के लिए तरुण शालू के नाप के हाईहील सैंडल ले आया. बड़े चाव से शालू को पहना कर उस ने म्यूजिक औन कर दिया. शालू को सहारा दे कर उस ने खड़ा किया. घुमाया तो शालू खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तरु मुझ से नहीं होगा… गिर जाऊंगी,’’ फिर अपनेआप को संभालने के लिए उसने तरुण को जो खींचा तो दोनों बिस्तर पर जा गिरे. तरुण को भी हंसी आ गई. थोड़ी देर तक दोनों हंसते रहे.

प्रिया को अपनी बालकनी से ज्यादा कुछ तो दिखाई नहीं दिया पर दोनों की हंसी बड़ी देर तक सुनाई देती रही.

‘अकसर दोनों की हंसीखिलखिलाहट सुनाई देती है. कितना हंसमुख है तरुण… अपनी पत्नी को कितना खुश रखता है और एक ये हैं श्रीमान रणवीर हमेशा मुंह फुलाए बैठे रहते हैं जैसे दुनिया का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर हो,’ प्रिया के दिल में हूक सी उठी तो वह अंदर हो ली.

थोड़ी देर बाद ही तरुण उठा और शालू को भी उठा दिया, ‘‘चलो, थोड़ी प्रैक्टिस करते हैं… कल 35 नंबर कोठी वाले उमेशजी के बेटे की सगाई है. सारे पड़ोसियों को बुलाया है. हमें भी. और रणवीर फैमिली को भी. खूब डांसवांस होगा. बोला है खूब तैयार हो कर आना.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तभी ये सैंडल…’’ शालू मुसकराई.

शालू फिर खड़ी हो गई. किसी तरह तरुण कमर में हाथ डाल कर डांस करवाने लगा. हंसते हुए शालू ने 2 राउंड लिए. फिर अचानक पैर ऐसा मुड़ा कि हील सैंडल से अलग जा पड़ी और शालू अलग.

‘‘तुम से कुछ नहीं होगा शालू… तुम ने अच्छेखासे सैंडल भी बेकार कर दिए.’’

‘‘ब्रैंडेड नहीं थे…  तो पहले ही लग रहा था पर आप को बुरा लगेगा इसलिए कहा नहीं. प्रिया को रणवीर हर चीज ब्रैंडेड ही दिलाते हैं. काश, मेरा पति भी इतना रईस होता,’’ कह शालू ने ठंडी आह भरी.

‘‘यह देखो क्या किया…’’ तरुण ने दोनों टुकड़े उसे थमा दिए.

शालू ने उन्हें क्विकफिक्स से चिपका दिया. बोली, ‘‘देखो तरु सैंडल बिलकुल सही हो गया. अब चलो पार्टी में.’’

‘‘हां पर डांसवांस तुम रहने ही देना… वहां तुम्हारे साथ कहीं मेरी भी भद्द न हो जाए,’’ तरुण बेरुखाई से बोला.

उधर रणवीर अपनी बालकनी में शालू की किचन से रोज आती आलू, पुदीने के परांठों की खुशबू से काफी प्रभावित था. पत्नी प्रिया के रोजरोज के उबले अंडे, दलिया के नाश्ते से त्रस्त था. कई बार चुपके से शालू की तारीफ भी कर चुका था और वह कई बार मेड के हाथों उसे भिजवा भी चुकी थी. आज सुबह भी उस ने परांठे भिजवाए थे.

शालू तरुण के साथ नीचे उतरी तो प्रिया और रणवीर भी आ चुके थे. रणवीर गाड़ी स्टार्ट कर रहा था.

‘‘आइए, साथ ही चलते हैं तरुणजी,’’ रणवीर ने कहा तो प्रिया ने भी इशारा किया. चारों बैठ गए.

रणवीर बोला, ‘‘परांठों के लिए थैंक्स शालूजी… आप के हाथों में जादू है… मैं अपनी बालकनी से रोज पकवानों की खुशबू का मजा लेता हूं… प्रिया को तो घी, तेल पसंद नहीं… न बनाती है न मु?ो खाने देना चाहती है. तरुणजी आप के तो मजे हैं. रोज बढि़याबढि़या पकवान खाने को मिलते हैं. काश…’’

‘अबे आगे 1 लफ्ज भी न बोलना… क्या बोलने जा रहा था तू,’ तरुण मुट्ठियां भींचते हुए मन ही मन बुदबुदा उठा.

इधर शालू महंगी बड़ी सी गाड़ी में बैठ एक रईस से अपनी तारीफ सुन कर निहाल हुई जा रही थी.

और प्रिया ‘हां फैट खूब खाओ और ऐक्सरसाइज मत करो. फिर थुलथुल बौडी लेकर घूमना इन्हीं यानी शालू के साथ… तरुणकी तारीफ में क्यों बोलोगे? क्या गठीली बौडीहै. काश मेरा हबी ऐसा होता,’ प्रिया मन हीमन बोली.

शालू पर उड़ती नजर पड़ी तो न जाने क्यों वह जलन सी महसूस करने लगी. गाड़ी के ब्रेक के साथ सभी के उठते विचारों को भी ब्रेक लगे. पार्टी स्थल आ गया था.

मेहमान आ चुके थे. फंक्शन जोरों पर था. मीठीमीठी धुन के साथ कोल्डड्रिंक्स, मौकटेल के दौर चल रहे थे. तभी वधू का प्रवेश हुआ. स्टेज से उतर लड़के ने उस का स्वागत किया और स्टेज पर ले आया. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सगाई की रस्म पूरी की गई.

सभी ने बारीबारी से स्टेज पर आ कर बधाई दी. लड़कालड़की की शान में कुछ कहना भी था उन्हें चाहे गा कर चाहे वैसे ही. सभी ने कुछ न कुछ सुनाया.

तरुण और शालू स्टेज पर आए तो प्रिया की हसरत भरी नजरें डैशिंग तरुण पर ही जमी थीं. तरुण ने किसी गीत की मुश्किल से 2 लाइन ही गुनगुनाईं और फिर बधाई गिफ्ट थमा शालू का हाथ थामे शरमाते हुए स्टेज से उतर गया.

‘ओह तरुण की तो बस बौडी ही बौडी है. अंदर तो कुछ है ही नहीं… 2 शब्द भी नहीं बोल पाया लोगों के सामने. कितना शाई… गाना भी पूरा नहीं गा सका,’ तरुण को स्टेज पर चढ़ता देख प्रिया की आंखों में आई चमक की जगह अब निराशा झलक रही थी. आकर्षण कहीं काफूर हो रहा था.

‘शालू, आप ऐसे कैसे जा सकती हो बगैर डांस किए. मैं ने आप का बढि़या डांस देखा है… मेरे हाथों में… आइएआइए,’’ उमेशजी की पत्नी आशाजी ने आत्मीयता से उसे ऊपर बुला लिया.

शालू ने तरुण को इशारा किया. शालू ने तरुण को इशारे से ही तसल्ली दी और सैंडल उतार कर स्टेज पर आ गई.

फरमाइश का गाना बज उठा. फिर तो शालू ऐसी नाची कि सभी उस के साथ तालियां बजाते हुए मस्त हो थिरकने लगे. तरुण ने देखा वैस्टर्न डांस पर थिरकने वाले लोग भी ठुमकने लगे थे… वह नाहक ही घबरा रहा था… शालू तो छा गई…

गाना खत्म हुआ तो प्रिया के साथ रणवीर स्टेज पर आ गया. उस ने अपनी ठहरी हुई आवाज और धाराप्रवाह में चंद शेरों से सजे संक्षिप्त वक्तव्य के द्वारा सब को ऐसा मंत्रमुगध किया कि सभी वंसमोर वंसमोर कह उठे. प्रिया भी उसे गर्व से देखने लगी कि कितने शालीन ढंग से कितने खूबसूरती से शब्दों को पिरो कर बोलता है रणवीर. उस के इसी अंदाज पर तो वह मर मिटी थी. उस ने कुहनी के पास से रणवीर का बाजू प्यार से पकड़ लिया था. दोनों ने फिर किसी इंगलिश धुन पर डांस किया.

अब डांस फ्लोर पर सभी एकसाथ डांस का मजा लेने लगे. डांस का म्यूजिक चल पड़ा था. स्टेज पर वरवधू भी थिरकने लगे. सभी पेयर में नृत्य कर रहे थे. कभी पेयर बदल भी लिए जा रहे थे. शालू ने धीरेधीरे तरुण के साथ 1-2 स्टेप लिए पर पेयर बदलते ही वह घबरा उठी और किनारे लगी सीट में एक पर जा बैठी. तरुण थोड़ी देर नई रस्म में शामिल हो नाचता रहा.

एक बार प्रिया भी उस के पास आ गई पर दूसरे ही पल वह दूसरे की बांहों में थिरकती तीसरी के पास पहुंच गई. तरुण को झटका सा लगा. कुछ अजीब सा फील होने लगा, ‘कैसे हैं ये लोग… रणवीर अपने में मस्त किसी और की पत्नी के साथ और उस की पत्नी प्रिया किसी और के पति के साथ… अजब कल्चर है इन का. इस से अच्छी तो मेरी शालू है.’ उस ने दूर अकेली बैठी शालू की ओर देखा और फिर उस के पास चला गया.

रणवीर ने देख लिया था, ‘उफ, शालू ने न तो खुद ऐंजौय किया और न पति को ही मजे लेने दिए. अपने पास बुला लिया… ऐसी पार्टियों के लायक ही नहीं वे… उधर प्रिया को देखो. कैसे एक हीरोइन सी सब की नजरों का केंद्र बनी हुई है. आई जस्ट लव हर…’ उसे नशा चढ़ने लगा था. कदमों के साथ उस की आवाज भी लड़खड़ाने लगी थी. रणवीर ने प्रिया को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो उस के कदम भी लड़खड़ाए और फिर फर्श पर जा गिरी. हड़कंप मच गया. क्या हुआ? क्या हुआ?

प्रिया दर्द से कराह उठी थी. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. रणवीर तो खुद उसे उठाने की हालत में न था. तरुण और शालू ने जैसेतैसे अस्पताल पहुंचाया.

उमेशजी अपने ड्राइवर को गाड़ी ड्राइव करने के लिए बोल रहे थे पर रणवीर माना नहीं. रास्ते भर तरुण, उस की इधरउधर भागती गाड़ी के स्टेयरिंग को मुश्किल से संभालता रहा. पर इस सब से बेखबर शालू महंगी गाड़ी में बैठी एक बार फिर अपने रईस पति की कल्पना में खो गई थी.

प्रिया घर आ गई थी. उस के पैर में प्लास्टर चढ़ गया था. लाते समय भी शालू और तरुण अस्पताल पहुंचे थे. तभी एक गरीब महिला रोती हुई आई और सब से अपने बच्चे के लिए खून देने के लिए गुहार करने लगी.

‘‘तुम प्रिया मैडम के पास चलो शालू. मैं अभी आता हूं,’’ कह तरुण ने शालू से कहा तो वह उस का आशय समझ गई.‘‘अभी 10 दिन भी नहीं हुए तुम्हें खून दिए तरुण,’’ शालू बोली.

तरुण नहीं माना. उस गरीब को खून दे आया. फिर प्रिया को उस के फ्लोर पर सहीसलामत पहुंचाया. अगले दिन बौस से डांट भी खानी पड़ी. औफिस पहुंचने में लेट जो हो गया था.

‘तरुण भी न दूसरों की खातिर अपनी परवाह नहीं करता,’ शालू औटो में बैठी सोच रही थी.

अपने ब्लौक के गेट के पास आने पर उसे एक संतरे की रेहड़ी वाला दिखा. उस ने औटो रुकवाया और उतर कर औटो वाले को पैसे देने लगी.

तभी वहां से हवा में बातें करती एक लंबी सी गाड़ी गुजरी. वह रोमांचित हो उठी. उस ने सिर उठा कर देखा, ‘अरे ये तो हमारे पड़ोसी रणवीर हैं. काश, उस का पति भी कोई बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ी वाला होता.’ शालू अभी यह सोच ही रही थी कि वही गाड़ी उलटी साइड से आ कर रेहड़ी वाले से जा टकराई. रेहड़ी उलट गई और रेहड़ी वाला छिटक कर दूर जा गिरा. उस के संतरे सड़क पर चारों ओर बिखर गए. शालू ने साफ देखा था. गाड़ी गलत साइड से आ कर रेहड़ी वाले से टकराई थी. फिर भी रणवीर ने तमाचे उस गरीब को जड़ दिए. फिर चीख कर बोला, ‘‘देख कर नहीं चल सकता?’’

‘‘साहबजी…’’ आंसू बन रेहड़ी वाले का दर्द आंखों में उतर आया. वह हाथ जोड़े इतना ही बोल सका.

‘‘ये पकड़ अपने नुकसान के रुपए… ज्यादा नाटक मत कर… कुछ नहीं हुआ… अब जल्दी सड़क साफ कर,’’ कह रणीवर ने उसे 2 हजार का 1 नोट दिया. शालू रणवीर का क्रूर व्यवहार देखती रह गई कि इतना अमानवीय बरताव…

उस की महंगी गाड़ी फिर तेजी से उस की आंखों से ओझल हो गई. शालू को इस समय कोई रोमांच न हुआ, बल्कि उसे अपनी आंखों में नमी सी महसूस होने लगी. उस ने पर्स से रुमाल निकाल कर रेहड़ी वाले के माथे से रिसता खून पोंछ कर बैंडएड चोट पर चिका दी. फिर संतरे उठवाने में उस की मदद करने लगी.

‘‘रहने दीजिए मैडमजी मैं उठा लूंगा,’’ रेहड़ी वाले के पैरों और हाथों में भी चोटें थीं.

शालू ने नजरों से ओझल हुई उस गाड़ी की ओर देखा. वहां सिर्फ धूल का गुबार था, जिस ने उस की सपनीली कल्पना को उड़ा कर रख दिया कि शुक्र है उस का तरुण महंगी बड़ी गाड़ी में घूमने वाले ऐसे छोटे दिल के घटिया इंसान की तरह नहीं है. न जाने उस ने कितनी बार तरुण को ऐसे जरूरतमंदों की मदद करते देखा है. रईस ही तो है वह. वास्तव में बड़े दिल वाला रईस. शालू को तरुण पर प्यार आने लगा और फिर वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चली.

पति की संतान : क्या पति को ठीक कर पाई सरिता

पहले सरिता घर के बहुत से काम निबटा लेती थी. लेकिन जब से पति बीमार हुए थे और बिस्तर पकड़ चुके थे तब से पार्ट टाइम कामवाली बाई से उस का काम नहीं चलता था. उसे परमानैंट नौकरानी की जरूरत थी जो पूरा घर संभाल सके.

सरिता को पति का मैडिकल स्टोर सुबह से रात तक चलाना होता था. दुकान में 3 नौकर थे. सरिता बीच में थोड़ी देर के लिए खाना खाने और फ्रैश होने घर आती थी. सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक उसे मैडिकल स्टोर पर बैठना पड़ता था. काम सारा नौकर ही करते थे लेकिन हिसाब उसे ही देखना पड़ता था.

काफी समय तक सरिता को बहुत समस्या हुई. घर में एक बेटा, एक बेटी थे जो 8वीं और 9वीं क्लास में पढ़ते थे. उन के लिए चाय, नाश्ता, सुबह का टिफिन तैयार कर के स्कूल भेजना और शाम की चाय के बाद भोजन तैयार करना और खिलाना सब हरीतिमा की जिम्मेदारी थी.

बीमार पति को समय पर दवाएं और डाक्टर के बताए मुताबिक भोजन देना… यह सब हरीतिमा के बिना मुमकिन नहीं था.

सरिता जब बहुत परेशान हो गई तब उस ने एजेंसी में जा कर कई बार परमानैंट नौकरानी का इंतजाम करने के लिए कहा.

एक दिन एजेंसी के मालिक ने कहा, ‘‘अभी तो कोई लड़की नहीं है. जल्द ही असम और बिहार से लड़कियां आने वाली हैं. मैं आप को बता दूंगा.’’

सरिता ने एजेंसी वाले से कहा, ‘‘आप ज्यादा कमीशन ले लेना. लड़की को अच्छी तनख्वाह के साथ रहनेखाने की सारी सुविधाएं भी दूंगी लेकिन मुझे उस की सख्त जरूरत है.’’

और जल्द ही एजेंसी वाले का फोन आ गया. एजेंसी से 13 साल की हरीतिमा को लाने के बाद सरिता की सारी मुसीबतों का हल हो गया.

हरीतिमा सुबह से रात तक चकरघिन्नी बनी रहती. पूरे घर का काम करती. घर के हर सदस्य का ध्यान रखती.

हर समय पूरा घर साफसुथरा रहता. हरीतिमा हमेशा काम करती नजर आती. न कोई नखरा, न कोई शिकायत और न कोई छुट्टी.

13 साल की खूबसूरत, गोरी, नाजुक, मेहनती हरीतिमा बिहार के एक छोटे से गांव की थी. घर की माली हालत खराब थी. मां बीमार थीं. घर में 2 छोटे भाई थे. उस के पिता बचपन में ही गुजर गए थे.

शुक्रवार को जब मैडिकल स्टोर बंद रहता तब सरिता उस से बात करती. उस से पूछती, ‘‘किसी चीज की कोई जरूरत हो तो बे?ि?ाक कहना. खाने में जो पसंद हो, बना कर खा लिया करो.’’

हरीतिमा को पढ़ने का शौक था. सरिता उस के लिए किताबें भी ला देती.

पति रतनलाल के एक के बाद एक 2-3 बड़े आपरेशन हुए थे. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी.

सरिता पति के कमरे में कम ही जाती थी. कमरे से आती दवाओं और गंदगी की बदबू से उसे उबकाई आती थी. पति की ऐसी बुरी दशा देखने का भी उस का मन नहीं करता था.

पति बिस्तर पर लेटे रहते. काफी समय तक तो उन के मलमूत्र का मार्ग बंद कर प्लास्टिक की थैलियां लटका दी गई थीं. उन्हें साफ करने का काम पहले तो एक नर्स करती थी, बाद में रतनलाल खुद करने लगे थे. लेकिन अब हरीतिमा ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया था.

सरिता को लगता था कि उस के पति की जिंदगी एक तरह से खत्म ही हो चुकी है. उन्हें बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही गुजारनी है. ठीक हो भी गए तो पहले जैसे नहीं रहेंगे.

सरिता ने अपना कमरा अलग तैयार कर लिया था. अपनी जरूरतों के हिसाब से सबकुछ अपने कमरे में रख लिया था. बच्चे बड़े हो रहे थे. वह गलती से ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी कि बच्चों की जिंदगी पर उस का बुरा असर पड़े.

सरिता की उम्र 40 साल थी और पति की उम्र 45 साल के आसपास. पिछले एक साल से वह पति की दुकान और घर सब देख रही थी.

आज रतनलाल को प्लास्टिक की थैली निकलवाने जाना था, लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं था.

सरिता को साथ जाना था लेकिन उस ने कह दिया, ‘‘मैं जा कर क्या करूंगी? मु?ा से यह सब देखा नहीं जाता. तुम हरीतिमा को साथ ले जाओ. फिर मु?ो दुकान भी देखनी है. काम करूंगी तो पैसा आएगा. आप के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं.’’ तय हुआ कि हरीतिमा ही साथ जाएगी.

रतनलाल अस्पताल से 3 दिन बाद घर वापस आए. उन्हें परहेज के साथ दवाएं समय पर लेनी थीं.

हरीतिमा बोर न हो, इस वजह से सरिता शुक्रवार को उसे बच्चों के साथ बाहर घुमाने ले जाती. बच्चे जो खाते, हरीतिमा को भी खिलाया जाता. चाट, पकौड़े, गोलगप्पे. बच्चे पार्क में खेलते तो हरीतिमा भी साथ में खेलती. बच्चों के लिए कपड़े खरीदने जाते तो हरीतिमा के लिए भी खरीदे जाते.

चाट खाते समय एक लड़के ने हरीतिमा से बात की. सरिता को अच्छा नहीं लगा. लौटते समय सरिता ने उस से पूछा, ‘‘तुम इसे कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे मुल्क का है मैडम.’’

‘‘मुल्क के नहीं राज्य के. मुल्क तो हम सब का एक ही है,’’ सरिता ने हंसते हुए कहा, फिर उसे सम?ाया, ‘‘देखो हरीतिमा, तुम मेरी बेटी जैसी हो. इस उम्र में लड़कों से दोस्ती ठीक नहीं है. अभी तुम्हारी उम्र महज 15 साल है.’’

अब हरीतिमा को अकसर ऐसी हिदायतें मिलने लगी थीं.

रतनलाल लाठी के सहारे घर में ही टहलने लगे थे. एक बार वे लड़खड़ा

कर गिर गए. तब से सरिता ने हरीतिमा को हिदायत दी, ‘‘तुम अंकल को थोड़ा बाहर तक घुमा दिया करो. कहीं और कोई परेशानी न हो जाए.’’

तब से हरीतिमा घर से थोड़ी दूर बने पार्क में उन के साथ जाने लगी. वह पहले जैसी शांत और सहमी हुई नहीं थी. अब वह हंसने, बोलने लगी थी. खुश रहने लगी थी.

लेकिन हरीतिमा के खिलते शरीर और उस में आए बदलावों को देख कर सरिता जरूर चिंता में रहने लगी थी. उसे उस लड़के का चेहरा याद आया तो क्या बाहर जा कर इतनी उम्र में वह सब करने लगी थी हरीतिमा, जो उस की उम्र की लिहाज से गलत था? कहीं पेट में कुछ ठहर गया तो? सरिता ने एजेंसी वाले को सारी बात फोन पर बताई.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘मैडम, यह उस का निजी मामला है. हम और आप इस में क्या कर सकते हैं? वह अपनी नौकरी से बेईमानी नहीं करती. आप के घर की देखभाल ईमानदारी से कर रही है. और आप को क्या चाहिए?’’

सरिता को लगा कि एजेंसी वाला ठीक ही कह रहा है. फिर हरीतिमा उस की जरूरत बन गई थी. जरूरी नहीं कि दूसरी लड़की इतनी ईमानदार हो, मेहनती हो.

सरिता इस बात को भूलने की कोशिश कर ही रही थी. 2-4 दिन ही गुजरे थे कि सरिता ने हरीतिमा को उलटी करते हुए देख लिया.

सरिता घबरा गई. उस ने प्यार से हरीतिमा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘तुम ने आखिर बेवकूफी कर ही दी. जब यह सब कर रही थी तो सावधानी क्यों नहीं बरती? कितना समय हो गया? अभी जा कर अपने चाहने वाले के साथ मिल कर डाक्टर से अबौर्शन करा लो. बाद में मुसीबत में पड़ जाओगी और तुम्हारे आशिक को बलात्कार के जुर्म में जेल हो जाएगी. इतना तो सम?ाती होगी कि 18 साल से कम उम्र की लड़की से संबंध बनाना बलात्कार कहलाता है?’’

हरीतिमा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा…’’ सरिता ने गुस्से में कहा, ‘‘मैं इस हालत में तुम्हें काम पर नहीं रख सकती. अभी इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से.’’

हरीतिमा रोने लगी. उस ने सरिता के पैर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, गलती हो गई. मु?ो माफ कर दीजिए. आप ही कोई रास्ता निकालिए. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

सरिता को गुस्सा तो था लेकिन हरीतिमा की जरूरत भी थी. उस ने अपने परिचित डाक्टर को दिखाया. एक महीने का पेट था. 5,000 रुपए ले कर डाक्टर ने आसानी से पेट गिरा दिया.

सरिता ने फिर डांटा, सम?ाया और दोबारा ऐसी गलती न करने को कहा.

रात में उसे अपने पास बिठा कर प्यार से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिस के साथ तुम्हारे संबंध बने? चाटपकौड़े की दुकान में मिला वह लड़का?’’

हरीतिमा चुप रही. सरिता समझ गई कि वह बताना नहीं चाहती.

रतनलाल की ठीक होती तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. उन्हें फिर अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों ने हालत गंभीर बताई. जिस कैंसर से वे उबर चुके थे, वही कैंसर उन्हें पूरी तरह अंदर ही अंदर खोखला कर चुका था.

अस्पताल में ही रतनलाल की मौत हो गई. उस दिन सरिता फूटफूट कर रोई और हरीतिमा अकेले में अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करती रही.

पति के अंतिम संस्कार की सारी रस्में निबट चुकी थीं. सरिता की जिंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी थी. बच्चे अपनी पढ़ाई में लग चुके थे. दुख की परतें अब छंटने लगी थीं.

तभी फिर सरिता को हरीतिमा में वे सारे लक्षण दिखे जो एक गर्भवती औरत में दिखाई देते हैं. इस बार हरीतिमा अपने पेट को छिपाने की कोशिश करती नजर आ रही थी.

सरिता ने उसे गुस्से में थप्पड़ जड़ कर कहा, ‘‘फिर वही पाप…’’ इस बार हरीतिमा ने जवाब दिया, ‘‘पाप नहीं, मेरे प्यार की निशानी है.’’

हरीतिमा का जवाब सुन कर सरिता सन्न रह गई, ‘‘प्यार समझाती भी हो? यह प्यार नहीं हवस है, बलात्कार है. चलो, अभी डाक्टर के पास,’’ सरिता ने गुस्से में कहा.

‘‘मैं नहीं गिराऊंगी.’’

‘‘यह कानूनन अपराध है. जेल जाएगा तुम्हारा आशिक.’’

‘‘कुछ भी हो, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? समझाती क्यों नहीं हो?’’

‘‘हां, मेरा दिमाग खराब है. प्यार ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है.’’

‘‘बुलाओ इस बच्चे के बाप को.’’

‘‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘क्या… कौन है वह?’’

‘‘मैं उन्हें बदनाम नहीं करना चाहती.’’

‘‘चली जाओ यहां से.’’

हरीतिमा चली गई. सरिता ने एजेंसी वाले को फोन कर दिया.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं सब संभाल लूंगा.’’

सरिता निश्चिंत हो गई. कुछ दिन बीत गए. एक दिन वह घर की साफसफाई करने लगी. पति के कमरे का नंबर आया तो सरिता ने पति के सारे कपड़े, पलंग, बिस्तर सबकुछ दान कर दिया. वह एक अरसे बाद पति के कमरे में गई थी.

कमरा पूरी तरह खाली था. बस, एक पैन और डायरी रखी थी. सरिता ने डायरी के पन्ने पलटे. कुछ जगह हिसाब लिखा हुआ था. कुछ कागजों पर दवा लेने की नियमावली. एक पन्ने पर हरी स्याही से लिखा था हरीतिमा. यह नाम पढ़ कर वह चौंक गई. उस ने अपने कमरे में जा कर हरीतिमा के बाद पढ़ना शुरू किया…

‘सरिता, माना कि 15 साल की लड़की से प्यार करना गलत है. उस से संबंध बनाना अपराध है. लेकिन इस अपराध की हिस्सेदार तुम भी हो. मैं बीमार क्या हुआ, तुम ने मु?ो मरा ही सम?ा लिया. अपना कमरा बदल लिया. मेरे कमरे में आना, मु?ा से मिलना तक बंद कर दिया.

‘‘मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, तुम ने सोचा कभी? लेकिन तुम तो जिम्मेदारियां निभाने में लगी थीं. मैं तो जैसे अछूत हो चुका था तुम्हारे लिए.

‘सच कहूं तो मैं तुम्हारी बेरुखी देख कर ठीक होना ही नहीं चाहता था. लेकिन मैं ठीक हुआ हरीतिमा की देखभाल से. उस के प्यार से.

‘हां, मैं ने हरीतिमा से तुम्हारी शिकायतें कीं. उस से प्यार के वादे किए. उस के पैर पड़ा कि मेरी जिंदगी में तुम्हीं बहार ला सकती हो. मुझे तुम्हारी जरूरत है हरीतिमा. मैं तुम से प्यार करता हूं.

‘कम उम्र की नाजुक कोमल भावों से भरी लड़की मेरे प्यार में बह गई. उस ने मेरी जिस्मानी और दिमागी जरूरतें पूरी कीं.

‘हां, वह मेरे ही बच्चे की मां बनने वाली है. मैं उस के बच्चे को अपना नाम दूंगा. दुनिया इसे पाप कहे या अपराध, लेकिन वह मेरा प्यार है. मेरी पतझड़ भरी जिंदगी में वह हरियाली बन कर आई थी.

‘इस घर पर जितना तुम्हारा हक है, उतना ही हरीतिमा का भी है. लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मैं बचूंगा नहीं. अचानक से सारे शरीर में पहले की तरह भयंकर दर्द उठने लगा है.

‘मैं तुम से किसी बात के लिए माफी नहीं मांगूंगा. चिंता है तो बस हरीतिमा की. अपने होने वाले बच्चे की. उसे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए. तुम्हारा बंगला, तुम्हारा बैंक बैलैंस नहीं चाहिए. उसे बस सहारा चाहिए, प्यार चाहिए.’

डायरी खत्म हो चुकी थी. सरिता अवाक थी. उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था और खुद पर शर्मिंदगी भी. किस तरह ?ाटक दिया था उस ने अपने पति को. बीमारी, लाचारी की हालत में. हां, वही जिम्मेदार है अपने पति की बेवफाई के लिए. इसे बेवफाई कहें या अकेले टूटे हुए इनसान की जरूरत.

सरिता को उसी एजेंसी से दूसरी लड़की मिल चुकी थी. उस ने पूछा, ‘‘तुम हरीतिमा को जानती हो?’’

‘‘नहीं मैडम, एजेंसी वाले जानते होंगे.’’

सरिता ने एजेंसी में फोन लगा कर बात की.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘क्या बताएं मैडम, किस के प्यार में थी? बच्चा गिराने को भी तैयार नहीं थी. न ही मरते दम तक बच्चे के बाप का नाम बताया.’

‘‘मरते दम तक… मतलब?’’ सरिता ने पूछा.

‘हरीतिमा बच्चे को जन्म देते समय ही मर गई थी.’

‘‘क्या…’’ सरिता चौंक गई ‘‘और बच्चा…’’

‘‘वह अनाथाश्रम में है.’’

सरिता सोचने लगी, ‘एक मैं हूं जिस ने पति के बंगले, कारोबार, बैंक बैलैंस को अपना कर पति को छोड़ दिया बंद कमरे में. बीमार, लाचार पति. बच्चों तक को दूर कर दिया. और एक गरीब हरीतिमा, जिस ने न केवल बीमारी की हालत में पति की देखभाल की, अपना सबकुछ सौंप दिया. यह जानते हुए

भी कि उसे कुछ नहीं मिलेगा सिवा बदनामी के.

‘उस ने अपने प्यार की निशानी को जन्म दिया. वह चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी? इस धनदौलत पर उस का भी हक बनता था. वह ले सकती थी लेकिन उस ने सबकुछ छोड़ दिया अपने प्यार की खातिर. उस ने एक बीमार मरते आदमी से प्यार किया और उसे निभाया भी और एक मैं हूं…

‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं हरीतिमा के प्यार की निशानी, अपने पति के बच्चे को इस घर में ला कर रहूंगी. मैं पत्नी का धर्म तो नहीं निभा सकी, पर उन की संतान के प्रति मां होने की जिम्मेदारी तो निभा ही सकती हूं.’ सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद सरिता बच्चे को घर ले आई.

घर का चिराग : क्यों रूठा गया था साकेत

मां की गोद में एक बेजान देह रखी थी, जिस के माथे को वे हौलेहौले सहला रही थीं, ‘‘मेरा बेटा… मेरा राजा बेटा… आंखें खोलो बेटा…’’

उस बेजान देह में मां के छूने का भी कोई असर नहीं पड़ रहा था. मां ने लोरी गानी शुरू कर दी थी, ‘‘उठ जा राजदुलारे… मेरा प्यारा बेटा… उठ जा बेटा…’’

देह खामोश थी. सारा माहौल गमगीन था. मां और बापू के घर का चिराग बु?ा गया था.

चारों ओर जमा भीड़ भारी मन से यह सब देख रही थी. किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह उस देह को अंतिम संस्कार के लिए मां की गोद से उठा सके. एक कोने में बूढ़ा पिता बेसुध पड़ा था. अंतिम संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. इस परिवार में ऐसा कोई था भी नहीं, जिस के आने की राह देखी जा सके. एक बूढ़ी मां और एक बुजुर्ग पिता, बस इतना ही तो परिवार था.

साकेत अपने मांबाप की एकलौती औलाद था. मांबाप मजदूरी करते थे. साकेत की लाश आज ही शहर के बाहर एक पेड़ से लटकी मिली थी. पुलिस को शक था कि साकेत ने खुदकुशी की है, पर जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई, तो साफ हो गया कि उस की हत्या कर के उस की लाश को पेड़ से लटका दिया गया था.

30 साल का साकेत एक प्राइवेट कंपनी में चीफ इंजीनियर था. वैसे तो उसे नौकरी करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था, पर उस की मेहनत और लगन के चलते उस की तरक्की जल्दी हो गई थी. मांबाप के दिन फिर गए थे.

साकेत अपने मांबाप का बहुत ध्यान रखता था. दूर शहर में होने के बावजूद वह महीने में एक बार अपने गांव जरूर आता था. घर आ कर वहां के सारे इंतजाम करता था. महीनेभर का राशन ला कर रख देता था. उस ने मांबाप को मजदूरी करने से रोक दिया था. वह ढेर सारे रुपए उन्हें दे जाता था, ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो.

पिताजी बीमार रहने लगे थे. वह उन का इलाज एक बड़े अस्पताल में करा रहा था. मां भी कुछ ज्यादा ही बूढ़ी नजर आने लगी थीं. जिंदगीभर उन्होंने मेहनत जो की थी.

एक दिन की बात है, साकेत अपनी मां की गोद में सिर रख कर बोला था, ‘‘मां, आप बाबूजी को सम?ाओ न… मेरे साथ चलें… वहीं रहना. यहां अकेले रहने से क्या मतलब है.’’

‘‘तेरे बाबूजी भला मानते कहां हैं मेरी. उन्हें तो बस अपना यही गांव अच्छा लगता है. तू ही बोलना उन से,’’ मां ने साकेत का सिर सहलाया था. साकेत की बोलने की हिम्मत नहीं हुई थी. वैसे तो वह जब भी गांव आता था, हर बार अपने मांबाप के लिए नए कपड़े लाना नहीं भूलता था. इस बार भी वह नए कपड़े ले कर आया था.

‘‘बाबूजी, आप पुराने कपड़े क्यों पहनते हैं? आप इन्हें उतारिए और ये पहनें. देखो, कितने अच्छे लग रहे हैं.’’

‘‘अरे बेटा, अब इस उम्र में मैं ऐसे कपड़े पहन कर क्या करूंगा.’’

‘‘नहीं, आप को पहनने ही पड़ेंगे,’’ साकेत ने जिद की. पिताजी को उस की जिद के आगे ?ाकना पड़ा.

नए कपड़ों में बाबूजी बहुत अच्छे लग रहे थे. मां ने जब नई साड़ी पहनी, तो उन की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अरे मां, रो क्यों रही हो…? इतनी अच्छी लग रही हो… बिलकुल साकेत की मां ही लग रही हो… चीफ इंजीनियर साकेत,’’ साकेत ने मां की आंखों से आंसू पोंछ दिए थे.

‘‘बेटा, तू जब छोटा था, तो नए कपड़ों के लिए रूठ जाया करता था और हम दिला भी नहीं पाते थे. बस, यही सोच कर आंखें भर आईं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मुझे तो आप ने कभी शर्ट कभी पैंट, ऐसे करकर के नए कपड़े तो पहनाए ही हैं, पर आप को तो मैं ने कभी नए कपड़े पहनते नहीं देखा,’’ आंसू की एक बूंद उस की आंखों से भी बह निकली थी.

एक बार रक्षाबंधन पर साकेत अड़ गया था, ‘‘मां देखो, सब बच्चों ने नए कपड़े पहने हैं, मुझे भी चाहिए.’’

मां ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, पर वह माना नहीं था. मां सेठ के पास गई थीं और कुछ सामान गिरवी रख कर उस के लिए नया कपड़ा ले कर आई थीं. नए कपड़े पहन कर ही वह मुंहबोली बहन के घर राखी बंधवाने गया था.

‘‘तुझे याद है बेटा, तू दीवाली पर फुलझड़ी और मिठाई के लिए कितना रोया था,’’ मां उस घटना की कल्पना से ही सुबक पड़ी थीं. इस बार पिताजी के गालों पर भी आंसुओं की लड़ी दिखाई देने लगी थी.

‘‘हां मां, सच कहूं तो मुझे आज भी दीवाली केवल इसी वजह से अच्छी नहीं लगती. मां, आप कितनी परेशान हुई थीं उस दिन. धिक्कार है मुझे खुद पर मां.’’

मां ने साकेत को छाती से लगा लिया, ‘‘तब तू छोटा था बेटा. नासमझ.’’ साकेत के सामने वह दीवाली की रात कौंध गई थी. पटेल साहब का घर छोटेछोटे बल्बों से रोशन था. उन का बेटा गौरव नए कपड़े पहन कर एक हाथ में मिठाई और एक हाथ में पटाखे ले कर आया था.

‘‘चलो यार, पटाखे फोड़ते हैं,’’ गौरव ने कहा, तो साकेत उस के साथ चला गया था. साकेत गौरव को मिठाई खाते देख रहा था.

‘‘मिठाई बड़ी मीठी लगती है क्या?’’ साकेत ने कभी मिठाई नहीं चखी थी. एक बार गांव में एक तेरहवीं हुई तो उसे बेसन की बर्फी खाने को मिली थी. वह उसे मिठाई समझाता था, पर गौरव तो सफेद रस में डूबी मिठाई खा रहा था. ऐसी मिठाई उस ने खाने की तो छोड़ो देखी तक नहीं थी.

‘‘हां, बहुत मीठी लगती है. पर, मैं तुझे दे नहीं सकता, क्योंकि जूठी हो गई है न,’’ गौरव बोला था.

साकेत ललचाई निगाहों से गौरव को तब तक देखता रहा था, जब तक उस की मिठाई खत्म नहीं हो गई. मिठाई खत्म होने के बाद गौरव ने फुल?ाड़ी जलाई. फुल?ाड़ी ने रंगबिरंगी चिनगारियां छोड़नी शुरू कर दी थीं.

‘‘एक फुलझाड़ी मुझे भी दो न. मैं भी जलाऊंगा,’’ साकेत गिड़गिड़ाया था.

‘‘अपनी मां से बोलो,’’ गौरव बोला था. गौरव भी बच्चा ही था न और बड़े घर का होने के चलते उसे साकेत की लालसा की कद्र नहीं थी.

साकेत रूठ गया और घर आ कर वह मां के सामने यह बोलते हुए अड़ गया था, ‘‘मुझे वह वाली मिठाई ही चाहिए…’’

मां को तेज बुखार था. पिताजी ने साकेत को समझने की काफी कोशिश की थी, पर वह नहीं माना था. पिताजी उसे उंगली पकड़ कर मिठाई की दुकान पर ले गए थे, पर उस दुकान पर वह मिठाई नहीं थी. उस दिन वह बीमार मां की छाती से चिपक कर बहुत देर तक रोता रहा था.

‘‘आप ने मुझे मिठाई भी नहीं दिलाई और फुलझड़ी भी नहीं दिलाई. मैं आप से कभी बात नहीं करूंगा,’’ सुबक उठा था साकेत. साथ ही, दीवाली की रात में उस के मांबाप भी रोते रहे थे, रातभर अपनी बेबसी पर.

स्कूल जाने के लिए भी साकेत ऐसे ही अड़ा था. मांबाप को उस की जिद के आगे झाकना पड़ा था. पिताजी तो वैसे भी बहुत मेहनत करते ही थे, मां ने भी मजदूरी करनी शुरू कर दी थी. जैसेजैसे उस की पढ़ाई आगे बढ़ती गई, उस का खर्चा भी बढ़ता गया, वैसेवैसे ही मां और पिताजी की मेहनत भी बढ़ती चली गई. पेट काट कर पढ़ाया था उसे.

यादों का बवंडर खत्म ही नहीं हो रहा था. मां ने साकेत के आंसू पोंछे, ‘‘चलो, भूल जाओ. ये कपड़े देखो, मैं कैसी लग रही हूं?’’ मां बात को बदलना चाह रही थीं.

मां ने हलुआपूरी बनाई थी. उन के लिए खुशी में यही सब से बेहतर पकवान थे.

‘‘मां, याद है जब मैं इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे कर आया था तो आप ने मेरी पुरानी पैंट में पैबंद लगाते हुए कहा था, ‘बेटा, हमेशा बड़े सपने देखो, वे जरूर पूरे होते हैं.’’’

‘‘हां, तू इतनी ऊंची पढ़ाई कर रहा था, तब भी हम तुझे एक जोड़ी कपड़े तक नहीं सिलवा पा रहे थे.’’

‘‘पुराने कपड़े पहनना तो मेरी आदत हो गई थी मां, पर मैं यह बोल रहा हूं कि मैं ने हमेशा ऊंचे सपने देखे और इसी वजह से ही तो आज चीफ इंजीनियर बन पाया हूं.’’ मां चुप थीं, तब पिताजी ने कहा था, ‘‘तुम हमेशा सचाई पर डटे रहना, तभी हमारी मेहनत कामयाब होगी.’’

‘‘पिताजी, आप लोगों ने मेरी वजह से बहुत परेशानियां झोली हैं, पर अब आप को इतना खुश रखूंगा कि आप अपने सारे दुख भूल जाएंगे,’’ साकेत भावुक हो गया था.

लौटते समय साकेत ने मां को बोल दिया था, ‘‘मां अगली बार जब आऊंगा, तो आप लोगों को साथ ले कर ही जाऊंगा. आप पिताजी को तैयार कर लेना. मैं किसी की बात नहीं मानूंगा.’’

पर साकेत इस हालत में ही वापस आया था बेजान बन कर. उस की देह को रखे बहुत देर हो चुकी थी. लोगों में अब बेसब्री नजर आने लगी थी. कुछ औरतों ने मां को जबरदस्ती अलग किया था.

‘‘मत छीनो मेरे बेटे को मुझसे. वह अभी सो रहा है. जाग जाएगा.’’

सैकड़ों आंखें नम थीं. वहां जुटे समूह को अब अंतिम क्रिया करनी ही थी, इस वजह से साकेत के शरीर को अर्थी पर रख दिया था.

साकेत की मौत खुदकुशी नहीं, बल्कि हत्या थी. साकेत उन लोगों की हैवानियत का शिकार बना था, जिन के बेईमानी वाले कामों को चीफ इंजीनियर होने के नाते वह मान नहीं रहा था.

वह कोई बड़ा ठेकेदार था, सत्ता से जुड़ा. साकेत ने उस के बनाए पुल के भुगतान के कागजों को फेंक दिया था और बोला था, ‘‘इस पुल से लाखों लोग आनाजाना करेंगे और तुम थोड़े से लालच में इसे कमजोर बना रहे हो. मैं तुम्हारा भुगतान नहीं कर सकता.’’

साकेत के इनकार से उस ठेकेदार का खून खौल गया था, ‘‘आप जानते नहीं हैं कि मेरी कितनी पकड़ है,’’ उस ने अपने  कुरतेपाजामे की सिलवटों को दूर करते हुए कमर में खुंसी पिस्तौल की ?ालक साकेत को दिखाते हुए कहा था.

साकेत डरा नहीं और बोला, ‘‘आप जो चाहें कर लें, पर मैं इस पुल को पास नहीं कर सकता.’’

इस के बाद साकेत के पास किसी नेता का भी फोन आया था, ‘क्यों अपनी जान गंवाना चाहते हो…’ पर वह कुछ नहीं बोला था.

बिल का भुगतान तो नहीं हुआ, पर एक दिन साकेत की लाश पेड़ से लटकती जरूर मिली.

मांबाप अपनी एकलौती औलाद के यों गुजर जाने से दुखी थे. साकेत के गुजरने के बहुत दिनों बाद तक माहौल गमगीन बना रहा था. उस के पिताजी बीमारी के शिकार हो चुके थे. मां ने अब साकेत के हत्यारों को पकड़वाने के लिए कमर कस ली थी. वे जानती थीं कि यह सब इतना आसान नहीं है, पर वे हिम्मत नहीं हारना चाह रही थीं.

एक बैनर को अपने शरीर से लपेटे मां शहर दर शहर घूम रही थीं. उस बैनर पर लिखा था, ‘इंजीनियर साकेत के हत्यारों को पकड़वाने में मदद करें’.

लोग उस बैनर को पढ़ते, बुजुर्ग मां की हालत पर दुख भी जताते, पर मदद करने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था. समाज पंगु जान पड़ रहा था. सभी के चेहरे पर एक खौफ दिखाई देता था.

वह बूढ़ी औरत समाज के इस खोखलेपन से नाराज नहीं थी. वह जानती थी कि कोई भी अपने साकेत को नहीं खोना चाहता और इसी खौफ से लोग मदद करने के लिए आगे नहीं आ रहे थे.

बूढ़ी मां इस सब की परवाह किए बगैर दौड़ रही थीं अनजान रास्ते पर बगैर किसी सहारे के. वे प्रदेश की राजधानी जा पहुंची थीं और विधानसभा के सामने खड़े हो कर अपने बेटे के हत्यारों को पकड़ने की अपील कर रही थीं.

चारों ओर से भारी भीड़ ने उन्हें घेर लिया था. वे रो रही थीं और अपील कर रही थीं कि कोई तो आगे आए उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए. भीड़ तो केवल तमाशा देख रही थी.

सिक्योरिटी वालों ने मां को गिरफ्तार कर लिया, पर उन का चिल्लाना जारी था. धीरेधीरे वे निढाल हो गईं और मर गईं अपने बेटे को इंसाफ दिलाए बगैर.

गिरफ्त : क्या सुशांत को आजाद करा पाई मनीषा

मनीषा को सामान रखते देख कर प्रिया ने पूछ ही लिया, ‘‘तो क्या, कर ली अजमेर जाने की पूरी तैयारी?’’

‘‘अरे नहीं, पूरी कहां, बस जो सामान बिखरा पड़ा है उसे ही समेट रही हूं. अभी तो एक बैग ले कर ही जाऊंगी, जल्दी वापस भी तो आना है.’’

‘‘वापस,’’ प्रिया यह सुन कर चौंकी थी, ‘‘तो क्या अभी रिजाइन नहीं कर रही हो?’’

‘‘नहीं.’’

मनीषा ने जोर से सूटकेस बंद किया और सुस्ताने के लिए बैड पर आ कर बैठ गई थी.

‘‘बहुत थक गई हूं यार, छोटेछोटे सामान समेटने में ही बहुत टाइम लग जाता है. हां, तो तू क्या कह रही थी. रिजाइन तो मैं बाद में करूंगी, पहले पुणे में जौब तो मिल जाए.’’

‘‘अरे, मिलेगी क्यों नहीं, सुशांत जीजान से कोशिश में लग जाएगा, अब तुझे वह यहां थोड़े ही रहने देगा,’’ प्रिया ने उसे छेड़ा था और मनीषा मुसकरा कर रह गई.

मनीषा और प्रिया इस महिला हौस्टल में रूममेट थीं और दोनों यहां गुरुग्राम में जौब कर रही थीं. मनीषा की शादी अगले महीने होनी तय हुई थी, इसलिए वह छुट्टी ले कर जाने की तैयारी में थी.

‘‘बाय द वे,’’ प्रिया ने उसे फिर छेड़ा था, ‘‘तू अब सुशांत के खयालों में उलझी रह और अपनी पैकिंग भी करती रह, मैं नीचे जा रही हूं. क्या तेरे लिए कौफी ऊपर ही भिजवा दूं? अरे मैडम, मैं आप ही से कह रही हूं.’’ प्रिया ने उसे झकझोरा था.

‘‘हां…हां, सुन रही हूं न, कौफी के साथ कुछ खाने के लिए भी भेज देना, मुझे तो अभी पैकिंग में और समय लगेगा,’’ मनीषा बोली.

‘‘मैं सोच रही हूं कि आज रीना के कमरे में ही डेरा जमाऊं, कुछ काम भी करना है लैपटौप पर,’’ प्रिया बोली.

‘‘हां…हां…जरूर,’’ मनीषा के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘वह तो तू कहेगी ही, अच्छा है रात को सुशांत से अकेले में आराम से चैट करती रहना.’’ मैं चली. हां, यह जरूर कह देना कि यह सब प्रिया की मेहरबानी से संभव हुआ है.’’

‘‘अरे हां, सब कहूंगी,’’ मनीषा हंस पड़ी थी. प्रिया के जाने के बाद उस ने बचा हुआ सामान समेटा और सोचने लगी, ‘चलो, अब ठीक है. छुट्टी के बाद ही लौटेंगे तो कम से कम सामान तो पैक ही मिलेगा.’

हाथमुंह धो कर उस ने कपड़े बदले. तब तक प्रिया ने कौफी के साथ कुछ सैंडविच भी भिजवा दिए थे. कौफी पी कर वह कमरे के बाहर बनी छोटी सी बालकनी में आ गई थी.

शाम को अंधेरा बढ़ने लगा था पर नीचे बगीचे में लाइट्स जल रही थीं जिस से वातावरण काफी सुखद लग रहा था. झिलमिलाती रोशनी को देखते हुए वह बालकनी में ही कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

तो आखिर शादी तय हो ही गई थी उस की. सुशांत को याद करते ही पता नहीं कितनी यादें दिलोदिमाग पर छाने लगी थीं.

पता नहीं उस के साथ लंबे समय तक क्या होता रहा. पापा ने कई लड़के देखे, कहीं लड़का पसंद नहीं आया तो कहीं दहेज की मांग, तो किसी को लड़की सांवली लगती.

चलचित्र की तरह सबकुछ आंखों के सामने घूमने लगा था. हां, रंग थोड़ा दबा हुआ जरूर था उस का पर पढ़ाई में तो वह शुरू से ही अव्वल रही. इंजीनियरिंग कर के एमबीए भी कर लिया. अच्छी नौकरी मिल गई. फिर आत्मनिर्भर होते ही व्यक्तित्व में भी तो निखार आ ही जाता है.

अब तो हौस्टल की दूसरी लड़कियां भी कहती हैं, ‘अरे, रंग कुछ दबा हुआ है तो क्या, पूरी ब्यूटी क्वीन है हमारी मनीषा.’

एकाएक उस के होंठों पर मुसकान खिल गई थी. सुशांत ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था. फिर उस की मां और मौसी दोनों आईं और शगुन कर गईं.

अब तो 15 दिनों बाद सगाई और शादी दोनों एकसाथ ही करने का विचार था.

तय यह हुआ कि सुशांत का परिवार और रिश्तेदार 2 दिन पहले ही अजमेर पहुंच जाएं. पापा ने उन के लिए एक पूरा रिसौर्ट बुक करा दिया था. घर के रिश्तेदारों के लिए पास के एक दूसरे बंगले में ठहरने का इंतजाम था.

कल ही मां ने फोन पर सूचना दी थी, ‘मनी, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बस, अब तू छुट्टी ले कर आजा. घर पर तेरा ही इंतजार है.’

‘हां मां, आ तो रही हूं, परसों पहुंच जाऊंगी आप के पास,’ मां तो पता नहीं कब से पीछे पड़ी थीं.

‘बहुत कर ली नौकरी, अब घर आ कर कुछ दिन हमारे पास रह. शादी के बाद तो ससुराल चली ही जाएगी. और हां, लड़कियां शादी से पहले हलदीउबटन सब करवाती हैं. तू भी ब्यूटी पार्लर जा कर यह सब करवाना.’

‘चली जाऊंगी मां, 15 दिन बहुत होते हैं अपना हुलिया संवारने को,’ मनीषा बोली.

उस ने बात टाली थी. पर मां की याद आते ही बहुत कुछ घूम गया था दिमाग में. एक माने में मां की बात सही भी थी, अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में वह काफी समय घर से बाहर ही रही. और अब शादी कर के घर से दूर हो जाएगी तो वे भी चाहती हैं कि बेटी कुछ दिन उन के पास भी रह ले. चलो, अब मां भी खुश हो जाएंगी. कह भी रही थीं कि मेरी पसंद के सारे व्यंजन बना कर खिलाएंगी मुझे.

‘अरे मां, अब तो मैं ज्यादा तलाभुना खाना भी नहीं खाती हूं.’

‘हां…हां, पता है. पर यहां तेरी मनमानी नहीं चलेगी, समझी,’ मां ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘अरे, फोन बज रहा है,’ कमरे में रखा उस का मोबाइल बज रहा था. लो, मां को याद किया तो उन का फोन भी आ गया. इसी को शायद टैलीपैथी कहते हैं. वह तेजी से अंदर गई. अरे, यह तो सुशांत का फोन है, पर इस समय कैसे. अकसर उस का फोन तो रात 10 बजे के बाद ही आता था और अगर पास में प्रिया सो रही हो तो वह बाहर बालकनी में बैठ कर आराम से घंटे भर बातें करती थी पर इस समय, वह चौंकी थी.

‘‘हां सुशांत, बस, मैं कल निकल रही हूं अजमेर के लिए, थोड़ाबहुत सामान पैक किया है,’’ मोबाइल उठाते ही उस ने कहा था.

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी.

रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले

रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी का क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

अपना घर : क्या विजय को हुआ गलती का एहसास  

विजय ने अपना स्कूटर खड़ा किया और कमरे में घुसा. कमरे में शाम का अंधेरा फैला हुआ था. उस ने लाइट औन की. सोफे पर उदास सी बैठी हुई सुरेखा को देखते ही वह चिल्ला कर बोला, ‘‘कौन मर गया है जो अंधेरे में बैठी रो रही हो?’’

विजय की गुस्से भरी आवाज सुनते ही सुरेखा चौंक उठी. उस का मूड खराब था. वह तो विजय के आने का इंतजार कर रही थी कि कब विजय आए और वह अपना गुस्सा उस पर बरसाए क्योंकि आज सुबह औफिस जाते समय विजय ने वादा किया था कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे. उस के बाद खरीदारी करेंगे. खाना भी आज होटल में खाएंगे. शाम को 6 बजे से पहले घर पहुंचने का वादा किया था.

4 बजे के बाद सुरेखा ने कई बार विजय के मोबाइल फोन पर बात करनी चाही तो उस का फोन नहीं सुना था. हर बार उस का फोन काट दिया गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर क्या बात है? जल्दी नहीं आना था तो मना कर देते. बारबार फोन काटने का क्या मतलब?

सुरेखा तो शाम के 5 बजे से ही जाने के लिए तैयार हो गई थी. पता नहीं, औफिस में देर हो रही है या यारदोस्तों के साथ सैरसपाटा हो रहा है. बस, उस का मूड खराब होने लगा था. उसे कमरे की लाइट औन करना भी ध्यान नहीं रहा.

सुरेखा ने विजय की ओर देखा. विजय का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी में आज वह पहली बार विजय को इतने गुस्से में देख रही थी.

सुरेखा अपना गुस्सा भूल कर हैरान सी बोल उठी, ‘‘यह क्या कह रहे हो? मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं. तुम्हारा फोन मिलाया तो हर बार तुम ने फोन काट दिया. आखिर बात क्या है?’’

‘‘बात तो बहुत बड़ी है. तुम ने मुझे धोखा दिया है. तुम्हारे मातापिता ने मुझे धोखा दिया है.’’

‘‘धोखा… कैसा धोखा?’’ सुरेखा के दिल की धड़कन बढ़ती चली गई.

‘‘तुम्हारे धोखे का मुझे आज पता चल गया है कि तुम शादी से पहले विकास की थी,’’ विजय ने कहा.

यह सुन कर सुरेखा चौंक गई. वह विजय से आंख न मिला पाई और इधरउधर देखने लगी.

‘‘अब तुम चुप क्यों हो गई? शादी को 2 साल होने वाले हैं. इतने दिनों से मैं धोखा खा रहा था. मुझे क्या पता था कि जिस शरीर पर मैं अपना हक समझता था, वह पहले ही कोई पा चुका था और मुझे दी गई उस की जूठन.’’

‘‘नहीं, आप यह गलत कह रहे हो.’’

‘‘क्या तुम विकास से प्यार नहीं करती थी? तुम उस के साथ पता नहीं कहांकहां आतीजाती थी. तुम दोनों को शादी की मंजूरी भी मिल गई थी कि अचानक वह कमबख्त विकास एक हादसे में मर गया. यह सब तो मुझे आज पता चल गया नहीं तो मैं हमेशा धोखे में रहता.’’

यह सुन कर सुरेखा की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम्हें किसी ने धोखा नहीं दिया है, मेरी किस्मत ने ही मुझे धोखा दिया है जो विकास के साथ ऐसा हो गया था.’’

‘‘तुम ने मुझे अब तक बताया क्यों नहीं?’’

सुरेखा चुप रही.

‘‘अब तुम यहां नहीं रहोगी. मैं तुम जैसी चरित्रहीन और धोखेबाज को अपने घर में नहीं रखूंगा.’’

‘‘विजय, मैं चरित्रहीन नहीं हूं. मेरा यकीन करो.’’

‘‘प्रेमी ही तो मरा है, तुम्हारे मांबाप तो अभी जिंदा हैं. जाओ, वहां दफा हो जाओ. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. अपने धोखेबाज मांबाप से कह देना कि अपना सामान ले जाएं.’’

सुरेखा सब सहन कर सकती थी, पर अपने मातापिता की बेइज्जती सहना उस के वश से बाहर था. वह एकदम बोल उठी, ‘‘तुम मेरे मम्मीपापा को क्यों गाली देते हो?’’

‘‘वे धोखेबाज नहीं हैं तो उन्होंने क्यों नहीं बताया?’’ कहते हुए विजय ने गालियां दे डालीं.

‘‘ठीक है, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रहूंगी,’’ कहते हुए सुरेखा ने एक बैग में कुछ कपड़े भरे और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई.

सुरेखा रेलवे स्टेशन पर जा पहुंची. रात साढ़े 10 बजे ट्रेन आई.

3 साल पहले एक दिन सुरेखा बाजार में कुछ जरूरी सामान लेने जा रही थी. उस के हाथ में मोबाइल फोन था. तभी एक लड़का उस के हाथ से फोन छीन कर भागने लगा. वह एकदम चिल्लाई ‘पकड़ो… चोरचोर, मेरा मोबाइल…’

बराबर से जाते हुए एक नौजवान ने दौड़ लगाई. वह लड़का मोबाइल फेंक कर भाग गया था. जब उस नौजवान ने मोबाइल लौटाया, तो सुरेखा ने मुसकरा कर धन्यवाद कहा था.

वह युवक विकास ही था जिस के साथ पता नहीं कब सुरेखा प्यार के रास्ते पर चल दी थी.

एक दिन सुरेखा ने मम्मी से कह दिया था कि विकास उस से शादी करने को तैयार है. विकास के मम्मीपापा भी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए हैं.

पर उस दिन अचानक सुरेखा के सपनों का महल रेत के घरौंदे की तरह ढह गया जब उसे यह पता चला कि मोटरसाइकिल पर जाते समय एक ट्रक से कुचल जाने पर विकास की मौत हो गई है.

सुरेखा कई महीने तक दुख के सागर में डूबी रही. उस दिन पापा ने बताया था कि एक बहुत अच्छा लड़का विजय मिल गया है. वह प्राइवेट नौकरी करता है.

सुरेखा की विजय से शादी हो गई. एक रात विजय ने कहा था, ‘तुम बहुत खूबसूरत हो सुरेखा. मुझे तुम जैसी ही घरेलू व खूबसूरत पत्नी चाहिए थी. मेरे सपने सच हुए.’

जब कभी सुरेखा विजय की बांहों में होती तो अचानक ही एक विचार से कांप उठती थी कि अगर किसी दिन विजय को विकास के बारे में पता चल गया तो क्या होगा? क्या विजय उसे माफ कर देगा. नहीं, विजय कभी उसे माफ नहीं करेगा क्योंकि सभी मर्द इस मामले में एकजैसे होते हैं. तब क्या उसे बता देना चाहिए? नहीं, वह खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे?

आज विजय को पता चल गया और जिस बात का उसे डर था, वही हुआ. पर वह शक, नफरत और अनदेखी के बीच कैसे रह सकती थी?

सुबह सुरेखा मम्मीपापा के पास जा पहुंची थी.

सुरेखा के कमरे से निकल जाने के बाद भी विजय का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था. वह सोफे पर पसर गया. धोखेबाज… न जाने खुद को क्या समझती है वह? अच्छा हुआ आज पता चल गया, नहीं तो पता नहीं कब तक उसे धोखे में ही रखा जाता?

2-3 दिन में ही पासपड़ोस में सभी को पता चल गया. काम वाली बाई कमला ने साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो बाबूजी, अब मैं काम नहीं करूंगी. जिस घर में औरत नहीं होती, वहां मैं काम नहीं करती. आप मेरा हिसाब कर दो.’’

विजय ने कमला को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, काम न छोड़ो, 100-200 रुपए और बढ़ा लेना.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मेरी भी मजबूरी है. मैं यहां काम नहीं करूंगी.’’

‘‘जब तक दूसरी काम वाली न मिले, तब तक तो काम कर लेना कमला.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं एक दिन भी काम नहीं करूंगी,’’ कह कर कमला चली गई.

4-5 दिन तक कोई भी काम वाली बाई न मिली तो विजय के सामने बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो गई. सुबह घर व बरतनों की सफाई, शाम को औफिस से थका सा वापस लौटता तो पलंग पर लेट जाता. उसे खाना बनाना नहीं आता था. कभी बाजार में खा लेता. दिन तो जैसेतैसे कट जाता, पर बिस्तर पर लेट कर जब सोने की कोशिश करता तो नींद आंखों से बहुत दूर हो जाती. सुरेखा की याद आते ही गुस्सा व नफरत बढ़ जाती.

रात को देर तक नींद न आने के चलते विजय ने शराब के नशे में डूब

कर सुरेखा को भुलाना चाहा. वह जितना सुरेखा को भुलाना चाहता, वह उतनी ज्यादा याद आती.

एक रात विजय ने शराब के नशे में मदहोश हो कर सुरेखा का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम ने मुझे जो धोखा दिया है, उस की सजा जल्दी ही मिलेगी. मुझे तुम से और तुम्हारे परिवार से नफरत है. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा. मुझे नहीं चाहिए एक चरित्रहीन और धोखेबाज पत्नी. अब तुम सारी उम्र विकास के गम में रोती रहना.’’

उधर से कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘सुन रही हो या बहरी हो गई हो?’’ विजय ने नशे में बहकते हुए कहा.

‘यह क्या आप ने शराब पी रखी है?’ वहां से आवाज आई.

‘‘हां, पी रखी है. मैं रोज पीता हूं. मेरी मरजी है. तू कौन होती है मुझ से पूछने वाली? धोखेबाज कहीं की.’’

उधर से फोन बंद हो गया.

विजय ने फोन एक तरफ फेंक दिया और देर तक बड़बड़ाता रहा.

औफिस और पासपड़ोस के कुछ साथियों ने विजय को समझाया कि शराब के नशे में डूब कर अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. इस परेशानी का हल शराब नहीं है, पर विजय पर कोई असर नहीं पड़ा. वह शराब के नशे में डूबता चला गया.

एक शाम विजय घर पर ही शराब पीने की तैयारी कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विजय ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘इस समय कौन आ गया मेरा मूड खराब करने को?’’

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विजय ने उठ कर दरवाजा खोला तो चौंक उठा. सामने उस का पुराना दोस्त अनिल अपनी पत्नी सीमा के साथ था.

‘‘आओ अनिल, अरे यार, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए? सीधे दिल्ली से आ रहे हो क्या?’’ विजय न%

उसका दुख: क्या पहली बीवी को भुला पाया वो

टैक्सी हिचकोले खा रही थी. कच्ची सड़क पार कर पक्की सड़क पर आते ही मैं ने अपने माथे से पंडितजी द्वारा कस कर बांधा गया मुकुट उतार दिया. पगड़ी और मुकुट पसीने से चिपचिपे हो गए थे. बगल में बैठी सिमटीसिकुड़ी दुलहन की ओर नजर घुमा कर देखा, तो वह टैक्सी की खिड़की की ओर थोड़े से घूंघट से सिर निकाल कर अपने पीछे छोड़ आए बाबुल के घर की यादें अपनी भीगी आंखों में संजो लेने की कोशिश कर रही थी.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘अभी बहुत दूर जाना है. मुकुट उतार लो.’’

चूड़ियों की खनक हुई और इसी खनक के संगीत में उस ने अपना मुकुट उतार कर वहीं पीछे रख दिया, जहां मैं ने मुकुट रखा था.

चूड़ियों के इस संगीत ने मुझे दूर यादों में पहुंचा दिया. मुझे ऐसा लगने लगा, जैसे मेरे अंदर कुछ उफनने लगा हो, जो उबाल आ कर आंखों की राह बह चलेगा.

आज से 15 साल पहले मैं इसी तरह नंदा को दुलहन बना कर ला रहा था. तब नएपन का जोश था, उमंग थी, कुतूहल था. तब मैं ने इसी तरह कार में बैठी लाज से सिकुड़ी दुलहन का मौका देख कर चुपके से घूंघट उठाने की कोशिश की थी. वह मेरा हाथ रोक कर और भी ज्यादा सिकुड़ गई थी.

मैं ने उसे अभी तक देखा ही नहीं था. मैं ने चाचाजी की पसंद को ही अपनी पसंद मान लिया था. अब उसे देखने के लिए मन उतावला हो रहा था.

नंदा को पा कर मैं फूला नहीं समा रहा था. वह भी खुश थी. भरेपूरे परिवार में वह जल्दी ही हिलमिल गई.

मां उस की तारीफ करते नहीं अघाती थीं. घर में जो भी औरतें आतीं, वे अपनी बहू से उन्हें जरूर मिलाती थीं. अपने 5 बेटों और बड़ी बहू का वे उतना ध्यान नहीं रखतीं, जितना उस का रखती थीं.

सासससुर की देखरेख, देवरननदों की पढ़ाई की सुविधा जुटाना, मुझे कालेज में जाने के लिए कपड़े, जूते, किताबें तैयार कराना, नौकरचाकरों को अपनी देखरेख में काम कराना उस के जिम्मे लगने लगा था.

अगर मैं कभीशहर घूम आने या अपने दोस्तों के यहां चलने के लिए कहता, तो वह धीरे से कह देती, ‘ससुरजी को दवा देनी है. नौकरों से सब्जी की गुड़ाई करानी है. जानवरों के सानीपानी देना है. जेठानीजी अकेले कहां करा पाएंगी इतना सारा काम? मैं चली जाऊंगी, तो सासूमां को तकलीफ उठानी पड़ेगी. आज नहीं, फिर कभी.’

उस की ऐसी दलीलों को सुन कर मन मसोस कर मुझे चुप रह जाना पड़ता. जोशीजी की पत्नी ताना दे कर कहतीं, ‘‘मास्टरजी, कभी बहू को तो यहां लाया करो. आप ने तो उन्हें ऐसे छिपा लिया है, जैसे हम नजर लगा देंगे.’’

कालेज से जब घर लौटता, तो थक कर चूर हो जाता था. कभीकभी तो आठों पीरियड पढ़ाने पड़ जाते थे. मेरी तकलीफ नंदा जानती थी. समय निकाल कर जिद कर के वह मालिश करने लग जाती.

एक दिन वह मुझ से नाराज थी. रात को बिना खाए ही सो गई. बात यह थी कि उस ने उस दिन मेरे पास आ कर कहा था, ‘‘पतिजी, एक बात कहूं? अगर आप मानोगे, तो तब कहूंगी,’’ वह बड़ी ही मासूमियत से बोली थी. वह अकेले में मुझे ‘पतिजी’ कहती थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कहो तो सही.’’

‘‘पहले मानूंगा कहो,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा बाबा, मानूंगा,’’ मैं बोला.

‘‘मुझे कुछ ज्यादा पैसे चाहिए,’’ उस ने कहा.

‘‘किसलिए चाहिए, यह तो बताओ?’’

‘‘अभी यह मत पूछो. तुम्हें अपनेआप पता चल जाएगा. मुझे 3 सौ रुपए की जरूरत है,’’ वह बोली.

‘‘जब तक तुम वजह नहीं बताओगी, पैसे नहीं मिलेंगे,’’ मैं ने भी अपना फैसला सुना दिया.

इस के बाद वह रात को मुझ से नहीं बोली. सब को खाना खिला कर वह बिना खाए ही सो गई.

दूसरे दिन मांजी को नंदा से कहते हुए सुना, ‘‘क्या बात है, जसौद हरीश व हंसी को साथ ले कर नैनीताल नंदा देवी देखने ले जाने वाला था, अभी तक तैयार नहीं हुए?’’

‘‘पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया मांजी. अगर आप थोड़ा पैसों की मदद कर दें, तो मैं उन से मांग कर आप को दे दूंगी, नहीं तो बच्चों का दिल टूट जाएगा. वे एक हफ्ते से कितने बेचैन हैं?’’ कहते हुए वह मांजी की ओर याचना भरी नजरों से देख रही थी.

‘‘ऐसा था, तो अभी तक क्यों नहीं कहा… मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हारे जाने का प्रोग्राम बदल गया है,’’ मां बोलीं.

‘‘मांजी, मैं ने सोचा कि उन से कह कर…’’ मुझे देख कर वह चुप हो गई.

मैं कालेज जाने की तैयारी कर रहा था. सासबहू की बातें मेरे कानों में पड़ीं, तो मैं उन के पास पहुंचा और जेब से पैसे निकाल कर नंदा को थमाते हुए बोला, ‘‘अरे भई, पहले ही कह दिया होता. वजह तो मैं पूछ ही रहा था. मैं ने कभी मना किया है तुम्हें?’’

वह मुसकराते हुए पैसे ले कर अंदर की ओर चल दी. वह देवरननद को यह खुशखबरी देने की बेचैनी अपने में नहीं रोक सकी. देवर व ननद से इतना लगाव देख कर मुझे उस से और भी प्यार हो आया.

हमारी खुशहाल जिंदगी के 2 साल बीत गए. इस बीच हमारी गोद में एक नन्हा मुन्ना भी आ गया. बच्चे की जिम्मेदारी मांजी ने अपने ऊपर ले ली थी. वे ही उसे नहलातींधुलातीं, देखरेख करतीं. नंदा केवल अपना दूध पिलाने और रात को पास में ही सुलाने की ड्यूटी निभाती.

सब ठीक ही चल रहा था. बोझ का एहसास तो तब हुआ, जब 4 साल और 2 साल के फर्क में लड़कियां और चली आईं.

उस दिन मेरा बेटा नवीन मेरे पलंग पर आ कर सो गया था. बड़ी बेटी मां के पास सो रही थी. छोटी बेटी को नंदा थपकी दे कर अपनी चारपाई पर सुला रही थी.

मैं ने नंदा के मन को टटोलने के लिए पूछ लिया, ‘‘आधा दर्जन पूरा होने में 3 ही अदद की तो कमी रह गई. तुम्हारा क्या विचार है?’’

वह झुंझला कर बोली, ‘‘तुम भी कैसी बात करते हो जी? इन 2 लड़कियों की फिक्र ही मेरा दिमाग चाट रही है. 2-1 और हो जाएं, तो घर का भट्ठा ही बैठ जाएगा. ब्याहने के लिए कहां से लाओगे इतने पैसे?’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम ठीक कह रही हो. वह तो मैं ने तुम्हारे विचार जानने के लिए कहा था. सोच रहा हूं कि इस आने वाले जाड़ों में परिवार नियोजन करा लूं.’’

यह सुन कर वह चौंक पड़ी. कुछ देर वह मेरी ओर ताकती रही, फिर मेरे पास आ कर कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘तुम इतने कमजोर हो. कहीं तुम्हें कुछ हो गया, तो मैं क्या करूंगी? मैं तो कहीं की नहीं रहूंगी. मुझे ही फैमिली प्लानिंग करा लेने दो. तुम जब कहो, तब मैं अस्पताल चल दूंगी.’’

मैं खीझ उठा, ‘‘तुम्हारी सोच तो बस जिद करने की आदत है. तुम यह क्यों नहीं समझतीं कि मर्द को फैमिली प्लानिंग में ज्यादा मुश्किल नहीं होती. औरत के लिए दिक्कत होती है. अस्पताल में कम से कम 2 दिन रुकना पड़ता है. दूसरा कोई आसान तरीका अभी नहीं निकला है. तुम निश्चिंत रहो. मुझे कुछ नहीं होने वाला है.’’

‘‘नहीं, तुम यह कभी मत करना. मैं ने सुना है कि मर्द कमजोर हो जाते हैं. मैं सारी तकलीफ झेलने को तैयार हूं, पर तुम्हें आपरेशन नहीं कराने दूंगी.’’

उस के मासूम चेहरे को देख कर मुझे ‘हां’ कहने के अलावा और कोई चारा नहीं दिखा.

3 महीने भी नहीं गुजरे थे कि सरकारी आदेश आ गया. 2 बच्चों से ज्यादा जिन के बच्चे हैं, तुरंत नसबंदी कराने के सख्त आदेश कर दिए. उन दिनों इमर्जैंसी चल रही थी. चमचों और पिछलग्गुओं की बन आई थी. नेताओं को खुश करने के लिए, सरकार को खुश करने के लिए जनता पर जीतोड़ कहर ढाया जा रहा था. तब प्रिंसिपल भी भला पीछे क्यों रहें. उन के तो दोनों हाथ में लड्डू थे. सरकार को भी खुश करो और दर्जनभर केस दिलवा कर एक इंक्रीमैंट और जुड़वा लो.

मैं ने आपरेशन कराने से पहले नंदा की रजामंदी ले लेना ठीक समझा, वरना उसे मनाना मुश्किल होगा. इन दिनों वह बच्चों को ले कर रामगढ़ गई हुई थी. जब उसे मालूम हुआ कि मैं आपरेशन कराने वाला हूं, वह दौड़ीदौड़ी चली आई. मेरे समझाने पर भी वह नहीं मानी.

आपरेशन की ड्रैस पहना कर जब नर्सें उसे आपरेशन रूम में ले जा रही थीं, तब मेरा कलेजा काटने को आ रहा था. मैं अपने को धिक्कार रहा था कि मैं उसे क्यों अस्पताल ले आया? क्यों उस की बात मानी?

आपरेशन रूम से बाहर लाने में तकरीबन आधा घंटा लगा होगा. मुझे वे पल घंटों लंबे लगे.

स्ट्रेचर पर सफेद कपड़ों में उसे बेहोश देख कर मुझे एकबारगी रोना सा आ गया. गला ऐसा भर आया, मानो कोई गला घोंटने लगा हो. बेहोशी में कराह के बीच उस का पहला साफ शब्द था, ‘‘पतिजी…’’

3 साल बाद शादी की 13वीं सालगिरह की मनहूस आखिरी रील चल रही थी. इस रील के प्रमुख पात्र थे. मैं नायक था, नायिका नंदा थी और खलनायक खुद ऊपर वाला.

खलनायक को नंदा का मेरे पास रहना अब नागवार सा लगा. फिर क्या था, उस ने उसे मुझ से छीनने की साजिश रच डाली.

चिनगारी बुझने से पहले खूब रोशनी करती है न, ऊपर वाले ने नंदा की जिंदगी का भी यही सब से अच्छा सुनहरा साल चला दिया.

उस का छोटा भाई अपनी दीदी से मिलने आया था. नंदा अपनी खुशी को नहीं संभाल पा रही थी. अंदरबाहर इधरउधर वह तितली सी फुदक रही थी. रात को जब सब लोग मेरे बैडरूम में रेडियो के गानों के बीच गपशप में मशगूल थे, तो नंदा ने मुझ से अपनी तकलीफ जाहिर की, ‘‘आज मैं खाना नहीं खा सकी. मेरे जबड़े में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘ज्यादा बोलती है न, इसलिए जबड़ा दर्द करेगा ही,’’ मैं ने बात हंसी में टाल दी.

सुबह अपने भाई को विदा कर वह मेरे पास आ रही थी. आते ही वह सिसकियों से भर गई. आखिर इतना दुख वह कब से अपने में रोके थी? मैं हैरान रह गया. शायद भाई की जुदाई हो.

पर ऐसी कोई बात न थी. उस का रोना शारीरिक दुख था. वह अपना मुंह पूरी तरह नहीं खोल पा रही थी. जबड़े दर्द के साथसाथ कसते चले जा रहे थे. मात्र उंगली डालने लायक जगह बची थी. मैं सहम गया.

उस ने मुझे छुट्टी ले कर अस्पताल चलने को कहा. मैं तुरंत उसे ले कर डाक्टर मेहरा के प्राइवेट अस्पताल को चल दिया. राधा भाभी को भी अपने साथ ले लिया.

डाक्टर मेहरा ने देखा और पूछा, ‘‘कहीं चोट तो नहीं लगी है?’’

नंदा ने सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

‘‘कहीं कील या ब्लेड तो नहीं चुभा था?’’

जवाब था, ‘‘नहीं.’’

‘‘इधर महीनेभर के अंदर कोई ऐसी बात याद करो कि तुम्हारे शरीर से खून निकला हो या शरीर में कुछ चुभा हो या फिर तुम ने किसी पिन, सूई जैसी किसी चीज से दांत खुरचा हो?’’

कुछ देर सोचने के बाद उस ने ही कहा, ‘‘कुछ याद नहीं पड़ता.’’

मैं डाक्टर के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. डाक्टर के चेहरे पर हैरानी और उतारचढ़ाव साफ जाहिर हो रहा था.

डाक्टर बोला, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता. जरूर कुछ न कुछ हुआ होगा, जो तुम याद नहीं कर पा रही हो. बिना चोट के तो यह मुमकिन ही नहीं है.’’

फिर डाक्टर ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘मुझे टिटनैस का डर लग रहा है. आप इन्हें जितनी जल्दी हो सके, सरकारी अस्पताल में भरती करा दें.’’

बीमारी का नाम सुनते ही मेरे पैरों की जमीन खिसकने लगी. मैं घबरा गया और उन से पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, कहीं खतरा तो नहीं है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. अगर समय पर टिटनैस के इंजैक्शन लग जाएंगे, तो ठीक हो जाएंगी.’’

मुझे याद नहीं कि मैं ने कब परचा लिया और कब हम तीनों सरकारी अस्पताल पहुंच गए. हम में से किसी को होश नहीं था. खतरे का डर सब को हो गया था, क्योंकि इस बीमारी की भयंकरता सब ने सुन रखी थी.

डाक्टर ने देखा, जांचा, परखा, पूछा आखिर में पहले डाक्टर की बात का समर्थन करते हुए नंदा को स्पैशल वार्ड में दाखिल कर दिया.

एटीएस के 50,000 पावर के इंजैक्शन का इंतजाम भी मुझे ही करना था. वह इंजैक्शन अस्पताल में नहीं था. देर करना खतरनाक था.

नंदा के पास भाभी को छोड़ कर मैं सब्र से काम लेने के लिए कह कर जाने लगा, तो वे दोनों मुंह दबा कर फफक कर रो उठीं.

मैं ने अपने को भरसक संभाला. लगा, जैसे सीना फट जाएगा. समय गंवाना ठीक न समझ कर मैं शहर को चल दिया. घंटेभर बाद इंजैक्शन का भी इंतजाम हो गया.

घर में सूचना देते समय मेरा गला भर गया, आंखें बरसने लगीं. सारे घर में अजीब सा सन्नाटा छा गया.

पहली रात हलकीहलकी कराहने की आवाजें आती रहीं. मैं उस के साथ था. मैं उस के माथे को सहला रहा था. उस ने अपना पर्स, कानों के कनफूल, मंगलसूत्र सब मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘पतिजी, इन्हें रख लो. अपना खयाल रखना. बच्चों का खयाल रखना,’’ वह आगे कुछ न कह सकी. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करो, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी.’’

हम दोनों को ही एहसास हो चुका था कि अलविदा का समय नजदीक आ चुका है. शायद रातभर में हम इतना ही बोले थे.

दूसरे दिन तक सारे गांव, इलाके, रिश्तेदारों तक को सूचना मिल गई थी. अस्पताल में भीड़ रोके नहीं रुक रही थी. अब नंदा का रूम डार्करूम बना दिया गया था. आंखों पर पट्टी रख दी गई थी. उस के आसपास आवाज करने की मनाही कर दी गई थी.

अगले दिन उस के पैरों में जकड़न चालू हो गई. पीठ में दर्द, ऐंठन बढ़ गई. दांत आपस में भिंच गए. धीरेधीरे जकड़न व ऐंठन सारे बदन में दाखिल हो गई. हलकेहलके झटके भी पड़ने चालू हो गए.

जब झटके पड़ते, ऐंठन होती, तो हम लोग उस के हाथ, पैर, सीना हलके से मलते. ग्लूकोज की बोतलों में तरहतरह की दवाओं का मिश्रण उसे दिया जा रहा था. एटीएस का तब तक दूसरा भी 50,000 पावर का इंजैक्शन लगा दिया गया था.

एकएक दिन खिसक रहे थे और उस की हालत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. उस का शरीर इंजैक्शनों से छलनी हो गया था. पानी के बिना वहां सूखी पपड़ियां तड़क आई थीं. दांत कसने से खून बह रहा था. जूस व पानी के लिए वह संकेत करती, लेकिन डाक्टर की इजाजत नहीं थी. दिल मसोस कर रह जाना पड़ता. फट आए होंठों में ग्रीसलीन लगा कर तर करने की कोशिश की. पानी की 2-4 बूंदें तो दरारों में ही समा जाती थीं. इधर झटके तेज होते गए. दौरों की लंबाई भी बढ़ती गई. दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए उसे नींद के इंजैक्शन दिए जा रहे थे, पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था.

अब ग्लूकोज को भी शरीर ने खींचना छोड़ दिया था. निराशा में सब का दिल डूबने लगा.

अभी छठे दिन की पौ नहीं फटी थी. रात को बारिश के बाद धुंधला सा उजाला होने लगा था. नर्स नींद का इंजैक्शन दे कर चली गई. कुछ समय बाद मैं दूसरे लोगों की देखरेख में नंदा को सौंप कर नहानेधोने चला गया. जब लौट कर आया, तब तक नंदा नहीं रही थी. अब न कोई झटके थे. न दौरे थे. न दर्द था. न कराहें थीं. थीं तो बस घर वालों की, दोस्तों की घुटती सिसकियां.

मेरा सबकुछ लुट गया था. मैं खोयाखोया सा रहने लगा. छोटी बच्चियां जब टकटकी लगा कर मेरी ओर देखतीं, कलेजा मुंह में आने को हो जाता. थपकियां दिला कर, सीने से लगाए उन्हें सुला देता.

नवीन ने चुप्पी साध ली थी. चुपचाप आ कर पुस्तक पढ़ने लग जाता. अब मांजी ही बच्चों की परवरिश कर रही थीं. धीरेधीरे 2 साल निकल गए.

मांजी बच्चों की खातिर दोबारा शादी करने की बात छेड़तीं, तो मैं टाल जाता था. ससुराल वालों ने भी शादी के लिए कहना शुरू कर दिया. कई जगह से रिश्ते भी आने शुरू हो गए, लेकिन मैं साफ मना कर देता. भला पराए बच्चों को कौन नवेली अपना लेगी?

सासजी को शादी के लायक हो आई अपनी बेटी खुशी की उतनी चिंता न थी, जितनी मेरी और मेरे बच्चों की. मैं ने खुशी के लिए योग्य लड़का तलाश कर सूचना भेजी, तो जवाब आया कि खुशी ने इसलिए इनकार कर दिया है कि जब तक जीजाजी शादी नहीं कर लेंगे, वह भी शादी नहीं करेगी.

बात बिगड़ती देख ससुराल वालों ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न खुशी से ही मेरी शादी कर दी जाए. खुशी ने भी अपनी दीदी के बच्चों की खातिर अपना त्याग स्वीकार कर लिया. लेकिन मैं इसे कैसे स्वीकार कर लेता?

मैं ने उसे समझाया, ‘‘खुशी, तुम यह क्या कर रही हो? जरा सोचो तो… मेरी उम्र का 38वां साल पार होने जा रहा है, जबकि तुम अभी 20 साल की होगी. फिर मैं 3 बच्चों का पिता भी हूं. मेरी खातिर अपनी जिंदगी क्यों बरबाद करने पर तुली हो? यह सही नहीं है.’’

वह धीरे से बोली, ‘‘आप मेरी चिंता न करें. सब सोचसमझ कर ही तो मैं ने हां की है. उम्र की क्या कहते हैं? माथे में उम्र लिखी होती, तो दीदी यों ही हमें छोड़ कर चली थोड़े ही जातीं? बच्चे मुझ से हिलेमिले हैं. मां का दुख भूल जाएंगे.

‘‘दीदी पर जितना हक आप का था, क्या मेरा हक नहीं? मुझे भी तो उस का दुख उतना ही है, जितना आप को,’’ उस के अंदर अपनापन और त्याग की भावना साफ झलक रही थी.

बहुत समझाने पर भी उस ने अपना इरादा नहीं बदला, तब मुझे भी सहमति देनी पड़ी. आखिर किसकिस का मुंह संभालता?

टैक्सी ने हिचकोला खाया, तो मेरी पिछली यादें टूट गईं. मैं अपनी यादों में इतना खो गया था कि मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं वर बना बैठा हूं. एक दुलहन भीगी पलकों से मुझे ही निहार रही है. मुझे पढ़ रही है. समझ रही है.

शायद तब तक मेरी आंखों के रास्ते कुछ बह कर सूख गया था. वह मुझ पर लुढ़क गई और मेरी गोदी में सो गई.

वापस: क्यों प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती थी प्रभा

“मिस्टर प्रभाकर की स्थिति बहुत नाजुक है. हम ने बहुत कोशिश की उन्हें ठीक करने की. पर किसी प्रकार के अंधेरे में आप को रखना उचित नहीं होगा. अब वे शायद 1-2 दिनों से ज्यादा जिंदा न रह सकें,” डाक्टर ने प्रभा से कहा.

प्रभा सन्न रह गई. प्रभा और प्रभाकर की जोड़ी क्या सिर्फ 1 वर्ष के लिए थी? बीते लमहे उस के मस्तिष्क में

कौंधने लगे. पर अभी उन लमहों को याद करने का समय नहीं था. प्रभाकर को बचाने में डाक्टर अपनी असमर्थता जता चुके थे. पर प्रभा अपने पति प्रभाकर को किसी भी हाल में वापस पाना चाहती थी,“मैं प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती हूं, डाक्टर. क्या आप मेरी मदद करेंगे?” प्रभा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा.

“देखिए, मैं आप की भावना को समझ सकता हूं. पर यह संभव नहीं है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“क्यों संभव नहीं है? वह मेरा पति है. मैं उस के बच्चे की मां बनना चाहती हूं. अब क्या मैं आप को बताऊं कि आज के उन्नत तकनीक के जमाने में यह संभव है कि आप प्रभाकर के स्पर्म को इकट्ठा कर सुरक्षित रख दें. बाद में ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से मैं मां बन जाऊंगी,” प्रभा ने मायूस होते हुए कहा.

“यह मुझे पता है प्रभाजी. पर प्रभाकर अभी अचेत हैं. बगैर उन की मरजी के उन का स्पर्म हम नहीं ले सकते. यह कानूनी मामला है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“कोई तो उपाय होगा डाक्टर?” प्रभा तड़प कर बोली.

“एक ही उपाय है, कोर्ट और्डर,” डाक्टर ने कहा,”पर इस के लिए समय चाहिए और शायद प्रभाकर 1-2 दिनों से अधिक जीवित नहीं रह सकें.

“मैं कोर्ट और्डर ले कर आऊंगी,”कहते हुए प्रभा उठ खड़ी हुई. उस ने आईसीयू में जा कर एक बार प्रभाकर को देखा. वह अचेत पड़ा था. तरहतरह के उपकरण उस के शरीर में लगे हुए थे.

“तुम मेरे पास वापस आओगे प्रभाकर,” उस ने प्रभाकर के सिर को सहलाते हुए कहा,“पति के रूप में नहीं तो संतान के रूप में,” और आंसू पोंछती वह बाहर निकल गई.

उस ने अपना मोबाइल निकाला. नेहा उस की परिचित थी और ऐडवोकेट थी. उस ने उसे कौल किया तो उधर से आवाज आई,“हैलो प्रभा, कैसी हो?” वह जानती थी कि प्रभा अभी किस मानसिक संताप से गुजर रही है.

“कैसी हो सकती हूं, नेहा. एक अर्जेंट काम है तुम से,” प्रभा ने उदास स्वर में कहा.

“बोलो न,” नेहा ने आत्मीयता से कहा.

“आज ही कोर्ट और्डर ले लो, प्रभाकर के स्पर्म को कलैक्ट कर प्रिजर्व करने का. मैं प्रभाकर के बच्चे का मां बनना चाहती हूं,” प्रभा ने कहा.

“आज ही? मगर यह मुश्किल है. कोर्ट के मामले तो तुम जानती ही हो,” नेहा ने असमर्थता जताते हुए कहा.

“जानती हूं. पर तुम जान लो कि डाक्टर ने कहा है कि प्रभाकर 1-2 दिनों से ज्यादा जीवित नहीं रह सकता और उस के जाने के पहले मैं उस का स्पर्म प्रिजर्व करवाना चाहती हूं ताकि मैं ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से प्रभाकर के बच्चे की मां बन सकूं. कोर्ट में कैसे और क्या करना है यह तुम मुझ से बेहतर जान सकती हो. प्लीज नेहा, पूरा जोर लगा दो. जरूर कोई रास्ता होगा,” प्रभा ने कहा.

“ठीक है. मैं सारे काम छोड़ इस काम में लगती हूं. मैं राजेंद्र अंकल को तुम्हारे दस्तखत लेने भेजूंगी. तुरंत दस्तखत कर पेपर भेज देना,” नेहा प्रभा के पड़ोस में ही रहती थी और उस के ससुर राजेंद्रजी से परिचित थी.

“ठीक है,” प्रभा ने फोन बंद कर दिया.

सबकुछ समाप्त हो चुका था. प्रभा हौस्पिटल के वेटिंग लाउंज में बैठ गई. चारों ओर मरीजों के परिचित व रिश्तेदार बैठे थे. कुछ के मरीज सामान्य रूप से बीमार थे तो कुछ के गंभीर. कोविड के दूसरे लहर की अफरातफरी समाप्त हो चुकी थी. हौस्पिटल के कर्मचारी अपने काम में व्यस्त थे. कोई कैश काउंटर में काम कर रहा था तो कोई कैशलैस काउंटर पर. इतने लोगों के होते हुए भी चारों ओर अजीब किस्म का सन्नाटा था. ऐसा प्रतीत होता था मानों जीवन पर आशंका का ग्रहण लगा हुआ है.

प्रभा ने पर्स से पानी की बोतल निकाल एक घूंट लिया और आंखें बंद कर बैठ गई. प्रभाकर के साथ बिताए 1-1 पल उस की आंखों के सामने आते चले गए…

पतिपत्नी के रूप में वे 1-2 माह ही सही तरीके से रह पाए थे. शादी के 1-2 सप्ताह के बाद से ही कोरोना कहर बरपाने लगा था. शादी के 1 माह बाद पिछले वर्ष वह कुछ काम से बैंगलुरू गया था. उस समय समाचारपत्रों में काफी सुर्खियां थीं उस अपार्टमैंट की जिस में वह ठहरा हुआ था. देश में कोरोना के कुछ मामले आने लगे थे. कोई कोविड पैशंट मिला था उस सोसाइटी में. सोसाइटी को सील कर दिया गया था. किसी प्रकार वह वापस आ पाया था.

कोरोना से वह बैंगलुरू में ही संक्रमित हो गया था या फिर रास्ते में या फिर दिल्ली वापस आने के बाद, कहा नहीं जा सकता था पर बुरी तरह संक्रमित हो गया था. गले में खराश और बुखार से काफी परेशान था वह. उस ने खुद को एक कमरे में आइसोलेट कर रखा था. प्रभा चाहती तो थी उस के पास जाने को पर प्रभाकर ने सख्त हिदायत दे रखी थी,“अभी तुम ठीक हो तो मेरी देखभाल कर रही हो, मुझे खानापानी दे रही हो। तुम भी संक्रमित हो जाओगी तो फिर कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? लौकडाउन के कारण कोई दोस्तरिश्तेदार भी नहीं आ पाएगा. हौस्पिटल भरे हुए हैं और फिर इस का कोई इलाज भी नहीं है.”

दोनों एक ही औफिस में काम करते थे और इस दौरान उन की मुलाकात हुई थी. दोनों के नाम मिलतेजुलते थे इसलिए कई बार गलतफहमी भी होती थी. एक बार प्रभाकर की चिट्ठी उस के पास आ गई थी. वह चिट्ठी प्रभाकर को देने गई थी. उस चिट्ठी ने दोनों के बीच सेतु का काम किया था. दोनों के नाम मिलतेजुलते ही नहीं थे, सोचविचार में भी तालमेल था. पहले दोनों अच्छे दोस्त बने, फिर प्रेमी और फिर दंपती. मगर जिंदगी को शायद कुछ और ही गंवारा था. संयोग से वह कोरोनाग्रस्त होने से बच गई और प्रभाकर भी धीरेधीरे ठीक हो गया. कोविड से ठीक होने के बाद लगा था कि जिंदगी पटरी पर वापस आ रही है. पर कोविड के पोस्ट कंप्लीकैशंस के कारण प्रभाकर की स्थिति बिगड़ने लगी. निमोनिया और मल्टी और्गन फेलियर के कारण प्रभाकर का बचना मुश्किल हो गया.

एकाएक प्रभा की तंद्रा भंग हुई. उस का मोबाइल बज रहा था. उस ने स्क्रीन पर देखा ‘न्यू पापा कौलिंग’ मैसेज स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था. उस ने प्रभाकर के पिताजी का नंबर न्यू पापा के नाम से सेव कर रखा था. प्रभाकर के पापा राजेंद्रजी काफी सहयोगात्मक व्यवहार वाले थे. पहले उस ने उन का नाम ‘फादर इन ला’ के नाम से सेव कर रखा था. पर उन के स्नेह को देखते हुए उस ने उन्हें ‘न्यू पापा’ का पद दे दिया था.

“हैलो पापा,” उस ने कौल रिसीव कर क्षीण स्वर में कहा.

“कहां हो बेटा? ऐडवोकेट नेहा ने एक डौक्यूमैंट भेजा है तुम्हारे दस्तखत के लिए,” राजेंद्रजी ने कहा.

“पापा मैं मैन ऐंट्री पर वेटिंग लाउंज में कोने…” बोलतेबोलते रुक गई प्रभा. उस ने देखा प्रभाकर के पिताजी उस के सामने आ गए थे।

“इस पेपर पर दस्तखत कर दो. नेहा ने मांगा है,” राजेंद्रजी ने उसे पेपर देते हुए कहा. उन के चेहरे पर उदासी पसरी हुई थी. उन्होंने डौक्यूमैंट पढ़ लिया था और प्रभा की स्थिति को समझ सकते थे.

प्रभा ने दस्तखत कर पेपर उन्हें वापस कर दिया,”पापा, चाय पीना चाहेंगे?” उस ने पूछा. वह जानती थी कि घर में किसी को खानेपीने की कोई रूचि फिलहाल नहीं है.

“इच्छा तो नहीं हो रही. जीवन ने तो जहर पिला रखा है. नेहा ने तुरंत पेपर मांगा है. चलता हूं,” और वे चलते बने.

शाम तक नेहा कोर्ट और्डर ले कर आ गई. कोर्ट ने विशेष परिस्थिति को देखते हुए मामले पर विचार किया और अंतरिम राहत दे दी. कोर्ट ने स्पष्ट आदेश हौस्पिटल के डाइरैक्टर को दिया था. प्रभा कोर्ट और्डर ले कर सीधे डाइरैक्टर के पास गई. डाइरैक्टर को उस ने कोर्ट और्डर दिखाया. उस में साफसाफ यह उल्लेख था कि चूंकि मरीज अचेत है और उस की सहमति पाना असंभव है, विशेष परिस्थिति को देखते हुए न्यायालय अस्पताल प्रशासन को आदेश देता है कि आईवीएफ/एआरटी प्रोसीजर से मरीज के स्पर्म को सुरक्षित रखे.

हौस्पिटल ने सही प्रोसीजर अपना कर स्पर्म सुरक्षित रख लिया. प्रभा के मन में संतोष हो गया. प्रभाकर को बचाना तो संभव नहीं है पर वह उस के बच्चे की मां जरूर बनेगी और वह उस के पास दूसरे रूप में वापस आएगा.

तुम कैसी हो: क्यों आशा को अपने पति से शिकायत थी?

मेरे खयाल से मैं ने आशा से नहीं पूछा, ‘तुम कैसी हो.’ कभी नहीं. एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें. सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी.

मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स,  म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं.

आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है. 50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का.

मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है.

औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट. कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’

आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह  कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है.

दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो.

‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली.

मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई.

आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की. वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का.

‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था.

महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की. जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत.

घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं.

शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी. मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’

यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने.

कौन जाने: निशा को कैसे पता चली जिंदगी की कीमत

कितनी चिंता रहती थी वीना को अपने घर की, बच्चों की. लेकिन न वह, न कोई और जानता था कि जिस कल की वह चिंता कर रही है वह कल उस के सामने आएगा ही नहीं. घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहीं देखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूं  पर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.  क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैं  तो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’

विक्की : कैसे सबका चहेता बन गया अक्खड़ विक्की

नई कामवाली निर्मला का कामकाज, रहनसहन, बोलचाल आदि सभी घरभर को ठीक लगा था. उस में उन्हें दोष बस यही लगा था कि वह अपने साथ अपने बेटे विक्की को भी लाती थी. निर्मला का 3-4 वर्षीय बेटा बहुत शैतान था. नन्ही सी जान होते हुए भी वह घरभर की नाक में दम कर देता था. गजब का चंचल था, एक मिनट भी चैन से नहीं रहता था. और कुछ नहीं तो मुंह ही चलाता रहता था. कुछ न कुछ बड़बड़ाता ही रहता था. टीवी या रेडियो पर जो संवाद या गाना आता था, उस को विक्की दोहराने लगता था. घर में कोई भी कुछ बोलता तो वह उस बात का कुछ भी जवाब दे देता. घर के जिस किसी भी प्राणी पर उस की नजर पड़ती, वह उस से बोले बिना नहीं रहता था. दादाजी को वह भी दादाजी, मां को मां, पिताजी को पिताजी एवं छोटे बच्चों को उन के नाम से या ‘दीदी’, ‘भैया’ आदि कह कर पुकारता रहता था. घर के पालतू कुत्ते सीजर को भी वह नाम ले कर बुलाता था.

जब आसपास कोई न होता तो विक्की अपने बस्ते में से किताब निकाल कर जोरजोर से पाठ पढ़ने लगता. फिर पढ़ने में मन न लगने पर अपनी मां से बतियाने लगता. मां जब डांट कर चुप करातीं तो कहने लगता, ‘‘मां विक्की को डांटती हैं… मां विक्की को डांटती हैं. मां की शिकायत पिताजी से करूंगा. मां बहुत खराब हैं.’’ इस बड़बड़ाहट से झुंझला कर उस की मां जब उसे जोर से डांटतीं तो विक्की कुछ देर के लिए चुप हो जाता. मगर थोड़ी देर बाद उस का मुंह फिर चलने लगता था. कभी वह मुंडेर पर आ बैठी चिडि़या को बुलाने लगता तो कभी पौधों से बातें करने लगता था. कहने का मतलब यह कि उस का मुंह सतत चलता ही रहता था. सिर्फ मुंह ही नहीं, विक्की के हाथपांव भी चलते थे. वह काम कर रही अपनी मां की आंख बचा कर घर में घुस जाता था. दादाजी के कमरे में घुस कर उन से पूछने लगता, ‘‘दादाजी, सो रहे हो? दिनभर सोते हो?’’

पिताजी को दाढ़ी बनाते देखते ही प्रश्न करता, ‘‘दाढ़ी बना रहे हो, पिताजी?’’ मां को जूड़ा बांधते देख उस का प्रश्न होता, ‘‘इतना बड़ा जूड़ा? मेरी मां का तो जरा सा जूड़ा है.’’ गुड्डी और मुन्ने को पढ़ते या खेलते देख वह उन के पास पहुंच कर कभी बोल पड़ता या ताली पीटने लगता. सीजर के कारण ही वह थोड़ा सहमासहमा रहता था, नहीं तो सारे घर में धमाल करता रहता. फिर भी कुत्ते को चकमा दे कर वह घर में घुस ही जाता था. सीजर यदि उस पर लपकता तो वह चीखता हुआ अपनी मां के पास भाग जाता. वहां पहुंच कर वह जाली वाले द्वार के पीछे से सीजर से बतियाता था. कहने का मतलब यह कि वह न तो एक स्थान पर बैठ पाता था, न उस का मुंह ही बंद होता था. उस का स्वर घर में गूंजता ही रहता था.

विक्की की इन शरारतों से तंग हो कर सभी ने उस की मां को आदेश दिया, ‘‘तुम इस बच्चे को यहां मत लाया करो.’’ निर्मला ने अपनी विवशता जाहिर करते हुए स्पष्ट शब्दों में हर किसी को कहा, ‘‘घर पर कोई संभालने वाला होता तो न लाती, मजबूरी में लाती हूं.’’ वैसे निर्मला ने पहले दिन ही बता दिया था, ‘‘मेरा घरवाला दिन निकलते ही काम पर जाता है. उस के अलावा घर में और कोई है नहीं, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. घर में किस के सहारे छोड़ूं. रिश्तेदार यदि पासपड़ोस में होते तो उन के यहां छोड़ आती. अगर एक दिन का मामला होता तो पड़ोसियों की मदद ले लेती, पर यह तो रोज का ही झमेला है, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. 3-4 साल की इस जरा सी जान को किसी के भरोसे छोड़ने का मन भी नहीं होता क्योंकि यह बड़ा शैतान है. एक पल चैन से नहीं बैठता. ‘‘एक रोज गलियों से निकल कर सड़क पर जा पहुंचा था. वहां ट्रक के नीचे आतेआते बचा. एक बार कुएं में झांकने पहुंच गया था. इस के कारण सब को परेशानी होती है. पर करूं क्या? यह मुआ मार से भी नहीं सुधरा. इस के पिता तो डांटतेफटकारते ही रहते हैं.’’

निर्मला की इस विवशता से भलीभांति परिचित होते हुए भी घरभर के सदस्य उस से कहते ही रहते, ‘‘तू कुछ भी कर के इस शैतान से हमें बचा.’’ बारबार के इन तकाजों से परेशान हो कर निर्मला उन लोगों से ही पूछ बैठती थी, ‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं?’’

तब लेदे कर एक ही मार्ग सभी को सूझता था. वे यही सलाह देते थे, ‘‘तू पीछे वाले आंगन में ही इसे बंद रखा कर. घर में न घुसने दिया कर.’’ निर्मला को पता था कि यह सलाह निरर्थक है, क्योंकि बरतन, कपड़े, सफाई आदि काम करने में उसे लगभग दोढाई घंटे लग जाते थे. इतनी देर तक विक्की को वहां कैद रखना संभव नहीं था. कैद रखने पर भी उस का मुंह तो चलता ही रहता था. वह जाली वाले द्वार के पीछे खड़ाखड़ा शोर मचाता ही रहता और दरवाजा भड़भड़ाता रहता. घर के किसी भी प्राणी पर नजर पड़ते ही विक्की उसे पुकारने लगता. टैलीफोन की घंटी बजते ही ‘हैलोहैलो’ कहने लगता. दादाजी को जाप करते देख वह भी उन के सुर में सुर मिलाने लगता. सीजर को देखते ही उसे छेड़ कर भूंकने या गुर्राने पर विवश कर देता. तब दोनों में खासा दंगल सा छिड़ जाता. जाली के पीछे बड़े मजे से खड़ा विक्की क्रोध से उबलते सीजर का खूब मजा लेता रहता. उस के कहकहे फूटते रहते. तब उस की मां की गुहार मचती. वे काम छोड़ कर विक्की को डांट कर दरवाजे से दूर भगातीं. थोड़ी देर शांति हो जाती. किंतु कुछ देर बाद ही विक्की का ‘वन मैन शो’ फिर शुरू हो जाता.

रोज की इस परेशानी से क्षुब्ध हो कर सभी ने बारबार विचार किया कि निर्मला को काम से छुट्टी दे दें और कोई दूसरी कामवाली रख लें. किंतु उस की साफस्वच्छ छवि, उस के कामकाज का सलीका, विनम्र स्वभाव, वक्त की पाबंदी, कम से कम नागे करने की प्रवृत्ति जैसे गुणों के कारण वे ऐसा साहस न कर पाए. वैसे भी कामवालियों का उन का अभी तक का अनुभव अच्छा नहीं रहा था. किसी ने बरतनों में चिकनाई छोड़ी थी तो किसी ने घर को ढंग से बुहारा नहीं था. किसी ने कपड़ों का मैल नहीं छुड़ाया था तो किसी ने आएदिन नागे करकर के उन्हें परेशान किया था. कोई बारबार पेशगी मांगती रही थी तो कोई पेशगी में ली गई रकम ले कर भाग गई थी. ऐसे कई कटु अनुभव हुए थे उन लोगों को. लेकिन निर्मला के काम से सभी प्रसन्न थे. वह हाथ की भी सच्ची थी. कई बार उस ने नोट व गहने स्नानघर एवं शयनकक्ष से उठाउठा कर दिए थे. लेकिन विक्की के कारण सभी परेशान रहते थे. किंतु एक रोज अनपेक्षित हो गया. हुआ यों कि विक्की टैलीफोन कर रहे पिताजी के पास जा पहुंचा एवं अपनी बाल सुलभ हंसी के साथ बीचबीच में ‘हैलोहैलो’ कहने लगा.

पिताजी ने टैलीफोन पर बात जारी रखते हुए उसे संकेतों से दूर भगाने का प्रयास किया, मगर वह वहां से टला नहीं. मुसकराते हुए ‘हैलोहैलो’ कहता रहा. पिताजी ने सहायता के लिए चारों तरफ नजर दौड़ाई मगर कोई दिखा नहीं. इसी उधेड़बुन में वे चोंगे को आधा दबा कर ही विक्की पर चीखे. यह चीख टैलीफोन में चली गई. उस ओर उन के साहब थे. उन्होंने टैलीफोन बंद कर दिया. पिताजी ने फिर से फोन मिला कर साहब को सारा मामला समझाते हुए क्षमायाचना की. किंतु उन को लगा कि साहब के मन में गांठ पड़ गई है. इसी झुंझलाहट में पिताजी ने विक्की को एक चांटा मारा. उस की मां को उसी क्षण घर से जाने का आदेश दे दिया.

विक्की को पीटती हुई निर्मला बाहर हो गई. निर्मला ने आना बंद कर दिया. घरभर को नई परेशानियों ने आ घेरा. उस के स्थान पर आई नई कामवालियों से सभी को असंतोष रहने लगा. कोई बरतन में चिपकी चिकनाई की शिकायत करने लगा, किसी को गर्द व जालों की मौजूदगी खलने लगी तो किसी को उस की गंदी आदतें बुरी लगने लगीं. सब से बड़ी समस्या तो सीजर को ले कर हुई. वह नई कामवालियों से अपरिचित होने के कारण उन पर लपकता था. इसलिए उसे बांध कर रखना पड़ता था. 3 कामवालियां 3 कामों के लिए अलगअलग समय पर आती थीं. इसलिए उन के आते ही एक व्यक्ति को सीजर को बांधने की तत्परता दिखानी पड़ती थी. उधर सीजर को यह नई कैद खलने लगी थी, वह मुक्ति के लिए शोर मचाता था. सुबहशाम घरभर की शांति भंग होने लगी. काम भी संतोषप्रद नहीं था और मगजपच्ची भी करनी पड़ती थी.

इसीलिए निर्मला सभी को याद आने लगी. बातबात पर उस का उल्लेख होने लगा. जब देखो तब उस के काम, व्यवहार और आदतों आदि की तुलना नई कामवालियों से होने लगी. ऐसे क्षणों में पिताजी को पश्चात्ताप होता कि उन्होंने तैश में व्यर्थ ही निर्मला को भगा दिया. बच्चे तो चंचल होते ही हैं. उन्हें विक्की की चंचलता पर इस तरह क्रोधित नहीं होना चाहिए था. इसी पश्चात्ताप से क्षुब्ध हो कर पिताजी ने बारबार कहा, ‘‘निर्मला को बुलवा लो.’’ किंतु उन की इस आज्ञा का पालन कोई भी नहीं कर पाया. वैसे सभी मन से यह चाहते थे कि निर्मला फिर से यहां पर काम करने लग जाए. किंतु उसे बुलाना किसी को भी उचित नहीं लग रहा था. सभी की यह दलील थी कि इस तरह बुलाने से वह सिर पर चढ़ेगी. विक्की इस घर में खुल कर शैतानी करेगा. किंतु ऐसी दलीलें होते हुए भी सभी की यह कामना थी कि निर्मला किसी तरह लौट आए.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि 20-21 दिन बाद ही एक रोज दिन ढले छरहरी, सांवली, मंझोले कद की निर्मला द्वार पर आ खड़ी हुई. स्वच्छ धानी साड़ी वाली इस नारी ने आते ही मुख्यद्वार खोला, सीजर भूंकता हुआ उस की ओर लपका. उस समय केवल मां ही घर में थीं. उन्होंने दरवाजे की ओर नजर दौड़ाई. निर्मला के सामने सीजर पूंछ हिला रहा था. यह दृश्य देख कर मां को सुखद आश्चर्य हुआ. उस के साथ विक्की को न देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ. इतने दिनों बाद आई निर्मला के तन पर अगली दोनों टांगें रख कर सीजर प्रेम प्रदर्शन कर रहा था. उस से जैसेतैसे छुटकारा पा कर वह मुसकराती हुई भीतर गई.

मां ने पूछा, ‘‘कैसी हो, निर्मला?’’

‘‘अच्छी हूं, मांजी,’’ उस ने सहज स्वर में कहा.

‘‘विक्की मजे में है?’’

‘‘जी हां, मजे में है.’’ इधरउधर की बातें होने लगीं. मां मन ही मन तौलती रहीं कि यह क्यों आई है. अच्छा हो, यदि यह यहां काम फिर से कर ले. तभी निर्मला ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘मांजी, मेरा काम मुझे फिर से दे दो. विक्की को संभालने के लिए मैं ने अपनी सास को गांव से बुलवा लिया है. वह अब मेरे साथ नहीं आएगा.’’ मां को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने अपने हर्ष को छिपाते हुए संयत स्वर में कहा, ‘‘रखने को तो तुम्हें फिर से रख लें, मगर तुम्हारी सास का क्या भरोसा, वे यदि अपने गांव चली गईं तो फिर विक्की की समस्या हो जाएगी.’’

‘‘नहीं होगी, मांजी. मेरी सास अब यहीं रहेंगी, मैं पक्का वादा करा के उन्हें लाई हूं. मेरा सारा काम मुए विक्की के कारण छूट गया था. इसलिए यह पक्का इंतजाम करना पड़ा. आप बेफिक्र रहिए, आप को मेरा विक्की अब परेशान नहीं करेगा. मैं यहां उसे कभी नहीं लाऊंगी. आप तो मुझे बस काम देने की मेहरबानी कीजिए,’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, सोचेंगे,’’ मां ने नाटक किया.

‘‘सोचेंगे नहीं, मुझे काम देना ही होगा. मैं ने अपने घर की तरह यहां काम किया है.’’

‘‘इसीलिए तो कहा कि देखेंगे.’’

‘‘ऐसी गोलमोल बातें मत कीजिए, मांजी. मुझे कल से ही काम पर आने की मंजूरी दे दीजिए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? तेरी जगह पर 3 औरतें हम ने रखी हैं. महीना पूरा होने पर उन्हें बंद करेंगे.’’

‘‘नहीं, कल 15 तारीख है, कल से ही उन्हें बंद कर दीजिए. मैं कल से ही काम संभाल लूंगी.’’ मां मन ही मन प्रसन्न हुईं कि चलो, घरभर की इच्छा पूरी हो जाएगी. किंतु अपने मन की यह बात जाहिर न करते हुए बोलीं, ‘‘गुड्डी के पिताजी से पूछ कर फैसला करूंगी. तू इतनी जल्दबाजी मत कर.’’ ‘‘जल्दबाजी बिना हमारा गुजारा कैसे होगा. इसलिए मैं तो कल से ही काम पर आ जाऊंगी,’’ यह कहते हुए निर्मला उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही चली गई. मां प्रसन्न हुईं कि मामला आसानी से निबट गया. निर्मला द्वारा काम संभालते ही घरभर का असंतोष दूर हो गया. विक्की के न आने से सभी को दोहरी प्रसन्नता हुई. किंतु कुछ दिनों बाद ही सभी को जैसे विक्की की याद आने लगी. वे लोग निर्मला से उस का हालचाल पूछने लगे. प्रश्न होने लगे, ‘विक्की को उस की दादी संभाल लेती है?’, ‘विक्की उन्हें परेशान तो करता होगा?’, ‘वे ज्यादा बूढ़ी होंगी, तब तो वह उन को चकमा दे कर बाहर निकल जाता होगा?’, ‘बुढि़या को वह शैतान बहुत तंग करता होगा?’, ‘कुएं के पास या सड़क पर वह फिर तो नहीं गया न?’ निर्मला इन प्रश्नों के उत्तर देती रहती थी. किंतु उस के जवाब से किसी को संतोष नहीं होता था. सभी का मन था कि विक्की कभी यहां आए तो उस से सारी बातें पूछें. उस के महीन स्वर को सुनने को जैसे सभी लालायित हो उठे थे. सांवले रंग के, प्रशस्त ललाट एवं बड़ीबड़ी आंखों वाले उस हाथभर ऊंचे बालक की छवि सभी के मनमस्तिष्क में तैरती रहती थी. उस की शरारतों की चर्चा करकर के सभी प्रसन्न होते थे.

एक रोज पिताजी ने निर्मला से कहा, ‘‘उस शैतान को किसी दिन लाना, उसे टैलीफोन सुनवाऊंगा.’’

दादाजी बोले, ‘‘एक बार जाप करवाऊंगा उस से.’’

मां बोलीं, ‘‘मेरे जूड़े की अब कोई तारीफ ही नहीं करता.’’

गुड्डी ने बताया, ‘‘उस के लिए मैं ने पहली कक्षा की किताब और पट्टी रखी हुई है.’’

मुन्ना बोला, ‘‘मैं उसे खिलौने दूंगा.’’ सभी ने अपनेअपने मन की बताई. केवल सीजर ही इस संदर्भ में न कह पाया. किंतु जिस रोज निर्मला विक्की को ले कर आई, उस रोज उस मूक पशु ने अपने मन की बात अपनी भाषा में कह दी. विक्की को देखते ही वह पहले झपटता था, किंतु अब उसे देखते ही वह दुम हिलाने लगा. सीजर को यों दुम हिलाते देख निर्मला अपने बेटे को ले कर आगे बढ़ी. सीजर तो जैसे प्रेम में बावला हो रहा था. उस ने दुम हिलातेहिलाते विक्की का मुंह चाट लिया तो वह डर के कारण रो पड़ा. यह देख सभी के ठहाके फूट पड़े. बड़े बच्चों वाले घर में नन्हे विक्की का यह रुदन मां को बड़ा भला लगा. वे भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मुए सीजर ने यह अच्छा राग शुरू करा दिया.’’

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