Short Story : बदला जारी है

सुशांत रोजाना की तरह कोरियर की डिलीवरी देने जा रहा था कि तभी उस का मोबाइल फोन बज उठा. उस ने झल्ला कर मोटरसाइकिल रोकी, लेकिन नंबर देखते ही उस की आंखों में चमक आ गई. उस की मंगेतर सोनी का फोन था. उस ने जल्दी से रिसीव किया, ‘‘कैसी हो मेरी जान?’’

‘तुम्हारे इंतजार में पागल हूं…’ दूसरी ओर से आवाज आई.

उन दोनों के बीच प्यारभरी बातें होने लगीं, पर सुशांत को जल्दी से जल्दी अगले कस्टमर के यहां पहुंचना था, इसलिए उस ने यह बात सोनी को बता कर फोन काट दिया.

दिए गए पते पर जा कर सुशांत ने डोरबैल बजाई. थोड़ी देर में एक औरत ने दरवाजा खोला.

‘‘मानसीजी का घर यही है मैडम?’’ सुशांत ने पूछा.

‘‘हां, मैं ही हूं. अंदर आ जाओ,’’ उस औरत ने कहा.

सुशांत ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने कागजात तैयार करने लगा. मानसी भीतर चली गई.

अपने दोस्तों के बीच माइक्रोस्कोप नाम से मशहूर सुशांत ने इतनी ही देर में अंदाजा लगा लिया कि वह औरत उम्र में तकरीबन 40-41 साल की होगी. उस के बदन की बनावट तो खैर मस्त थी ही.

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सुशांत ने कागजात तैयार कर लिए. तब तक मानसी भी आ गई. उस के हाथ में कोई डब्बा था.

सुशांत ने कागजपैन उस की ओर बढ़ाया और बोला, ‘‘मैडम, यहां दस्तखत कर दीजिए.’’

‘‘हां कर दूंगी, मगर पहले यह देखो…’’ मानसी ने वह डब्बा सुशांत को दे कर कहा, ‘‘यह मोबाइल फोन मैं ने इसी कंपनी से मंगाया था. अब इस में बारबार हैंग होने की समस्या आ रही है.’’

सुशांत चाहता तो मानसी को वह मोबाइल फोन रिटर्न करने की सलाह दे सकता था, उस की नौकरी के लिहाज से उसे करना भी यही चाहिए था, लेकिन अपना असर जमाने के मकसद से उस ने मोबाइल फोन ले कर छानबीन सी शुरू कर दी, ‘‘यह आप ने कब मंगाया था मैडम?’’

‘‘15 दिन हुए होंगे.’’

उन दोनों के बीच इसी तरह की बातें होने लगीं. सुशांत कनखियों से मानसी के बड़े गले के ब्लाउज के खुले हिस्सों को देख रहा था. उसे देर लगती देख कर मानसी चाय बनाने अंदर रसोईघर में चली गई.

सुशांत को यकीन हो गया था कि घर में मानसी के अलावा कोई और नहीं है. लड़कियों से छेड़छाड़ के कई मामलों में थाने में बैठ चुके 25 साला सुशांत की आदत अपना रिश्ता तय होने के बाद भी नहीं बदल सकी थी. उसे एक तरह से लत थी. ऐसी कोई हरकत करना, फिर उस पर बवाल होना, पुलिस थानों के चक्कर लगाना…

सुशांत ने बाहर आसपास देखा और मोबाइल फोन टेबल पर रख कर अंदर की ओर बढ़ गया. खुले नल और बरतनों की आवाज को पकड़ते हुए वह रसोईघर तक आसानी से चला गया.

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मानसी उसे देख कर चौंक उठी, ‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

कोई जवाब देने के बजाय सुशांत ने मानसी का हाथ पकड़ कर उसे खींचा और गले से लगा लिया.

मानसी ने उस की आंखों में देखा और धीरे से बोली, ‘‘देखो, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

मानसी की इस बात ने तो जैसे सुशांत को उस की मनमानी का टिकट दिला दिया. उस के होंठ मानसी की गरदन पर चिपक गए. नाम के लिए मानसी का नानुकर करना किसी रजामंदी से कम नहीं था.

कुछ पल वहां बिताने के बाद सुशांत मानसी को गोद में उठा कर पास के कमरे में ले आया और बिस्तर पर धकेल दिया.

मानसी अपने हटते परदों से बेपरवाह सी बस सुशांत को घूरघूर कर देखे जा रही थी. सुशांत को महसूस हो गया था कि शायद मानसी का कहना सही है कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, क्योंकि उस का शरीर थोड़ा गरम था. लेकिन उस ने इस की फिक्र नहीं की.

थोड़ी देर में चादर के बननेबिगड़ने का दौर शुरू हो गया. रसोईघर में चढ़ी चाय उफनतेउफनते सूख गई. खुले नल ने टंकी का सारा पानी बहा दिया. घंटाभर कैसे गुजर गया, शायद दीवार पर लगी घड़ी भी नहीं जान सकी.

कमरे में उठा तूफान जब थमा तो पसीने से लथपथ 2 जिस्म एकदूसरे के बगल में निढाल पड़े हांफ रहे थे. तभी कमरे में रखा वायरलैस फोन बज उठा.

मानसी ने काल रिसीव की, ‘‘हां बेटा, आज भी बुखार हो गया है… डाक्टर शाम को आएंगे… जरा अपनी नानी को फोन देना…’’

मानसी ने कुछ देर तक बातें करने के बाद फोन काट दिया. सुशांत आराम से लेटा सीलिंग फैन को ताक रहा था.

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‘‘कपड़े पहनो और निकलो यहां से अब… धंधे वाली का कोठा नहीं है जो काम खत्म कर के आराम से पसर गए,’’ मानसी ने अपनी पैंटी पहनते हुए थोड़ा गुस्से में कहा और पलंग से उतर कर अपने बाकी कपड़े उठाने लगी.

सुशांत ने उसे आंख मारी और बोला, ‘‘एक बार और पास आ जाता तो अच्छा होता.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं. तुम्हारे लिए एक बार ही बहुत है,’’ मानसी ने अजीब से लहजे में कहा.

यह सुन कर सुशांत मुसकरा कर उठा और अपने कपड़े पहनने लगा.

‘‘अगले महीने मेरी भी शादी होने वाली है, लेकिन जिंदगी बस एक के ही साथ रोज जिस्म घिसने में बरबाद हो जाती है, इसलिए बस यह सब कभीकभार…’’ सुशांत ने कहा.

सुशांत की बात सुन कर मानसी का चेहरा नफरत से भर उठा. वह अपने पूरे कपड़े पहन चुकी थी. उस ने आंचल सीने पर डाला और बैठक में से कोरियर के कागजात दस्तखत कर के ले आई.

‘‘ये रहे तुम्हारे कागजात…’’ मानसी सुशांत से बोली, ‘‘जानते हो, कुछ मर्द तुम्हारी ही तरह घटिया होते हैं. मेरे पति भी बिलकुल ऐसे ही थे.’’

अब तक सबकुछ ठीकठाक देख रहे सुशांत का चेहरा अपने लिए घटिया शब्द सुन कर असहज हो गया.

मानसी ताना मारते हुए कह पड़ी, ‘‘क्या हुआ? बुरा लगा तुम्हें? जिस लड़की से शादी रचाने जा रहा है, उस की वफा को ऐसे बेशर्म बन कर मेरे साथ अपने नीचे से बहाने में बुरा नहीं लगा क्या? पर मुझ से घटिया शब्द सुन कर बुरा लग रहा है?’’

‘‘देखिए मैडम, आप ने भी तो…’’ सुशांत ने अपनी बात रखनी चाही.

इस पर मानसी गुर्रा उठी, ‘‘हांहां, मैं सो गई तेरे नीचे. तुझे अपने नीचे भी दबा लिया, लेकिन बस इसलिए क्योंकि मुझ को तुझे भी वही देना था जो मेरा पति मुझे दे गया था… मरने से पहले…’’

सुशांत अब हैरान सा उसे देखे जा रहा था.

मानसी जैसे किसी अजीब से जोश में कहती रही, ‘‘मेरा पति अपने औफिस की औरतों के साथ सोता था. वह मुझे धोखा देता था. उस ने मुझे एड्स दे दिया और आज वही मैं ने तुझे भी… जा, खूब सो नईनई औरतों के साथ… तू भी मरना सड़सड़ कर, जैसे मैं मरूंगी…

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‘‘मैं अब किसी भी मर्द को अपनी टांगों के बीच आने से मना नहीं करती… धोखेबाज मर्दों से यह मेरा बदला है जो हमेशा जारी रहेगा,’’ कहतेकहते मानसी फूटफूट कर रोने लगी.

सुशांत के कानों में जैसे धमाके होते चले गए. वह सन्न खड़ा रह गया, लेकिन अब क्या हो सकता था…

मीठी अब लौट आओ: भाग 1

लेखक- अशोक कुमार

चुनाव आयोग द्वारा मुझे मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था. मणिपुर में आतंकवादी गतिविधियां होने के कारण ज्यादातर अधिकारियों ने वहां पर चुनाव ड्यूटी करने से मना कर दिया था पर चूंकि मैं ने पहले कभी मणिपुर देखा नहीं था इसलिए इस स्थान को देखने की उत्सुकता के कारण चुनाव ड्यूटी करने के लिए हां कर दी थी.

चुनाव आयोग द्वारा मुझे बताया गया कि वहां पर सेना के साथ ही केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल भी तैनात है, जो ड्यूटी के समय हमेशा मेरे साथ रहेगा. यह जानने के बाद मेरे मन से डर बिलकुल ही निकल गया था और मैं चुनाव ड्यूटी करने के लिए मणिपुर चला आया था.

चुनाव के समय मेरी ड्यूटी चंदेल जिले के तेंगनौपाल इलाके में थी, जो इंफाल से लगभग 70 किलोमीटर दूर है. यहां आने के लिए सारा रास्ता पहाड़ी था और बेहद दुरूह भी था. इस इलाके में आतंकवादी गतिविधियां भी अधिक थीं, रास्ते में जगहजगह आतंकवादी लोगों को रोक लेते थे या अगवा कर लेते थे.

मैं केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकड़ी के साथ पूरी सुरक्षा में नामांकन समाप्ति वाले दिन जिला मुख्यालय पहुंच गया था. जिला मुख्यालय पर जरूरी सुविधाओं का अभाव था. रास्ते टूटेफूटे थे, भवनों की मरम्मत नहीं हुई थी और बिजली बहुत कम आती थी. ऐसे में काम करना मुश्किल था पर डाक बंगले से अकेले बाहर जाना संभव ही नहीं था क्योंकि इलाके में आतंकवादी  गति- विधियां चरम पर थीं. ऐसे में 20 दिन वहां पर बिताना मुश्किल था और समय बीतता ही नहीं था.

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दूसरे दिन मैं ने उस विधानसभा क्षेत्र के ए.डी.एम. से विस्तार के साथ इलाके के बारे में विचारविमर्श किया और पूरे विधानसभा क्षेत्र के सभी 36 पोलिंग स्टेशनों को देखने की इच्छा जाहिर की. ए.डी.एम. ने मुझे जरूरी नक्शों के साथ एक जनसंपर्क अधिकारी, जो उस क्षेत्र के नायब तहसीलदार थे, को मेरे साथ दौरे पर जाने के लिए अधिकृत कर दिया था. इस क्षेत्र में यह मेरा पहला दौरा था इसलिए अनजान होने के कारण बिना किसी सहयोगी के इस क्षेत्र का दौरा किया भी नहीं जा सकता था. एक सप्ताह में ही मुझे इस क्षेत्र के सभी मतदान केंद्रों को देखना था और मतदाताओं से उन की मतदान संबंधी समस्याएं पूछनी थीं.

अगले दिन मैं क्षेत्र के दौरे पर जाने के लिए तैयार बैठा था कि मुझे वहां के स्टाफ से सूचना मिली कि जो जनसंपर्क अधिकारी मेरे साथ जाने वाले थे वह अचानक अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाएंगे और वर्तमान में उन के अलावा कोई दूसरा अधिकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसी स्थिति में मुझे क्षेत्र का भ्रमण करना अत्यंत मुश्किल लग रहा था. मैं इस समस्या का हल सोच ही रहा था कि तभी चपरासी ने मुझे किसी आगंतुक का विजिटिंग कार्ड ला कर दिया.

कार्ड पर किसी महिला का नाम ‘शर्मिला’ लिखा था और उस के नीचे सामाजिक कार्यकर्ता लिखा हुआ था. चपरासी ने बताया कि यह महिला एक बेहद जरूरी काम से मुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उस महिला को मिलने के लिए अंदर बुलाया और उसे देखा तो देखता ही रह गया. वह लगभग 35 वर्ष की एक बेहद खूबसूरत महिला थी और बेहद वाक्पटु भी थी. उस ने मुझ से कुछ औपचारिक परिचय संबंधी बातें कीं और बताया कि इस क्षेत्र में लोगों को, खासकर महिलाओं को जागरूक करने का कार्य करती है.

बातचीत का सिल- सिला आगे बढ़ाते हुए वह महिला बोली, ‘‘तो आप इलेक्शन कमीशन के प्रतिनिधि हैं और यहां पर निष्पक्ष चुनाव कराने आए हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने यहां के कुछ इलाके तो देखे ही होंगे?’’

‘‘नहीं, आज तो जाने के लिए तैयार था पर मेरे जनसंपर्क अधिकारी अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाए इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि इलाके का दौरा किस प्रकार किया जाए.’’

‘‘आप चाहें तो मैं आप को पूरा इलाका दिखा सकती हूं.’’

‘‘यह तो ठीक है पर क्या आप के पास इतना समय होगा?’’

‘‘हां, मेरे पास पूरा एक सप्ताह है. मैं आप को दिखाऊंगी.’’

शर्मिला का उत्तर सुन कर मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या बोलूं. अलग कमरे में जा कर वहां के ए.डी.एम. से फोन पर बात की और शर्मिला के साथ क्षेत्र का दौरा करने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो ए.डी.एम. ने मना किया क्योंकि यह एक आतंकवादी इलाका था और किसी अधिकारी को किसी अजनबी के साथ जाने की इजाजत नहीं थी. क्योंकि पहले कई अधिकारियों का सुंदर लड़कियों द्वारा अपहरण किया जा चुका था और बाद में उन की हत्या भी कर दी गई थी. यह सब जानते हुए भी पता नहीं क्यों मैं शर्मिला के साथ जाने का मोह छोड़ नहीं पा रहा था और मैं ने ए.डी.एम. से अपने जोखिम पर उस के साथ इलाके के भ्रमण की दृढ़ इच्छा जाहिर कर दी थी.

ए.डी.एम. ने मेरी जिद को देखते हुए आखिर में केंद्रीय रिजर्व बल के साथ जाने की इजाजत दे दी थी और साथ में यह शर्त भी थी कि शर्मिला अपनी गाड़ी में आगेआगे चलेगी और मेरे साथ नहीं बैठेगी.

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शर्मिला ने मुझ से कहा था कि वह सब से पहले मुझे क्षेत्र का सब से दूर वाला हिस्सा दिखाना चाहेगी, जहां मतदान केंद्र संख्या 36 है. मैं ने उसे सहमति दी और हम उस केंद्र की ओर चल दिए. यह केंद्र तहसील मुख्यालय से 36 किलोमीटर दूर था.

हम दलबल के साथ इस मतदान केंद्र की ओर चले तो रास्ते में अनेक पहाड़ आए और 3 जगहों पर फौज के चेकपोस्ट आए जहां रुक कर हमें अपनी पूरी पहचान देनी पड़ी थी. साथ ही केंद्रीय बल के सभी जवानों से पूछताछ की गई और उस के बाद ही हमें आगे जाने की अनुमति मिली. आखिर में लगभग ढाई घंटे की कठिन यात्रा के बाद हम अंतिम पोलिंग स्टेशन पहुंच पाए, जो एक प्राइमरी स्कूल में स्थित था. यह स्कूल 1949 में बना था.

इस पड़ाव पर पहुंच कर हम ने राहत की सांस ली. शर्मिला ने थोड़ी देर में गांव वालों को बुला लिया. वह मेरे और उन के बीच संवाद के लिए दुभाषिए का काम करने लगी. थोड़ी देर बाद गांव वाले चले गए और केंद्रीय रिजर्व बल के जवान व ड्राइवर खाना खाने में व्यस्त हो गए. मुझे अकेला पा कर शर्मिला ने बातें करनी शुरू की.

‘‘आप को यहां आना कैसा लगा?’’

‘‘ठीक लगा, पर थोड़ा थकान देने वाला है.’’

‘‘आप ने यहां आने वाले रास्तों को देखा?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्या आप ने देखा कि यहां आना कितना मुश्किल है. तमाम सड़कें टूटी हैं. पुल टूटे हैं. वर्षों से लगता है कि इन की मरम्मत नहीं हुई है.’’

‘‘यह बारिश के कारण भी तो हो सकता है. इस क्षेत्र में तो भारत में सब से अधिक बारिश होती है.’’

‘‘नहीं, यह मरम्मत न किए जाने के कारण है. उत्तराखण्ड व हिमाचल में भी तो खूब बारिश होती है पर वहां तो सड़कों और पुलों की स्थिति ऐसी नहीं है. यह स्थिति क्या क्षेत्र के लिए सरकार की उपेक्षा नहीं दिखाती है?’’

‘‘हो सकता है, पर इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है.’’

‘‘आप एक आम आदमी की नजर से यहां के रहने वालों की नजर से सोचिए कि यदि किसी गर्भवती महिला को या एक बीमार व्यक्ति को इन सड़कों से हो कर 3 घंटे की यात्रा कर के तहसील स्थित अस्पताल पहुंचना हो तो क्या उस महिला का या उस व्यक्ति का जीवन बच सकेगा? महिला का तो रास्ते में ही गर्भपात हो सकता है और व्यक्ति अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा. सोचिए कि कितनी पीड़ा, कितना दर्द यहां के लोग सहते हैं.’’

शर्मिला के इस कथन पर मैं निरुत्तर हो गया था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, क्योंकि इस सवाल का कोई उत्तर मेरे पास था ही नहीं.

अगले दिन शर्मिला ने मुझे मतदान केंद्र संख्या 26 और 27 दिखाने को कहा. यहां जाने के लिए हमें 10 किलोमीटर जीप से जाने के बाद 5 घंटे नदी में नाव से जाना था. हम 3 नावों में बैठ कर उन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर पहुंचे. रास्ते कितने परेशानी भरे होते हैं और आदमी का जीवन कितना कष्टों से भरा होता है, यह मैं ने पहली बार 5 घंटे नाव की सवारी करने पर जाना.

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इन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर शर्मिला ने सभी गांव वालों को बुला कर उन की समस्याएं उन की जबानी मुझे सुनाई थीं. उस ने बताया था कि इन गांवों तक पहुंचना कितना मुश्किल है, बीमार का इलाज होना, शिक्षा व रोजगार पाना लगभग असंभव है. सारा जीवन अंधेरे में उजाले की उम्मीद लिए काटने जैसा है. ये लोग रोज सोचते हैं कि कल नई जिंदगी मिलेगी पर आज तक सिर्फ अंधेरा ही साथ रहा है. इन गांवों में 1949 का बना हुआ प्राइमरी स्कूल है जो आजादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी प्राइमरी ही है. यहां पर शिक्षक भी नहीं आते हैं और बच्चे कक्षा 5 से आगे पढ़ ही नहीं पाते.

तीसरे दिन शर्मिला मुझे पोलिंग स्टेशन संख्या 13, 14 की ओर ले गई. इस तरफ भी वही स्थिति थी, खराब सड़कें, टूटे पुल, टूटे स्कूल, बेरोजगार लोग और बंद पड़े चाय के कारखाने…मैं समझ नहीं पा रहा था कि शर्मिला मुझे क्या दिखाना चाह रही थी. एक ऐसा सच, जिस के बारे में दिल्ली में किसी को पता नहीं और हम लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ कहते रहते हैं पर सच तो यह है कि आधी से ज्यादा आबादी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इन स्थितियों को देख कर लगता है कि हम आम आदमी के लिए संवेदनशील नहीं हैं और उसे अच्छी जिंदगी देना ही नहीं चाहते.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

गलती की सजा: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- गलती की सजा: भाग 1

‘‘मुझे आप की मदद कर के बहुत खुशी मिलेगी. मैं आप की छुट्टी के लिए प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से अनुरोध करूंगी. मु झे पूरा भरोसा है कि वे मेरी बात मान लेंगे और आप को 2 महीने की छुट्टी मिल जाएगी,’’ विनिता ने कहा.

विजय को कुछ बोलते नहीं बन रहा था, इसलिए उस ने कहा, ‘‘अगर तैयारी के लिए 2 महीने की छुट्टी मिल गई, तो आप की बड़ी मेहरबानी होगी.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं आप के लिए इतना तो कर ही सकती हूं. वैसे भी बहुत एहसान है आप का मु झ पर. मेरा भी तो फर्ज बनता है कि मैं आप के लिए कुछ करूं,’’ विनिता ने कहा.

विजय पहले से ही शर्मिंदगी महसूस कर रहा था. विनिता की इस बात पर उस ने चुप रहना ही बेहतर सम झा. थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस ने जाने की इजाजत मांगी.

घर लौटते हुए विजय बहुत पछता रहा था. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘काश, मैं ने इस से शादी की होती तो हो सकता है कि मु झे भी कामयाबी मिल जाती. इस लड़की से तो मु झे परीक्षा की तैयारी में मदद ही मिलती. नुकसान तो होता नहीं?’

अब विजय को पिछली कोशिश में कामयाबी न मिलने का उतना अफसोस नहीं था, जितना कि विनिता से शादी नहीं करने के उस के गलत फैसले का था. पर, अब बहुत देर हो चुकी थी. अब आखिरी कोशिश में उसे किसी भी कीमत पर कामयाबी हासिल करनी है.

विनिता ने तैयारी के लिए 2 महीने की छुट्टी दिलाने की सिफारिश करने का भरोसा दिलाया ही है, इसलिए अब उसे पूरे मन से तैयारी में जुट जाना चाहिए.

अगले दिन विद्यालय पहुंचाने पर प्रिंसिपल ने बताया कि बीडीओ साहिबा की सिफारिश पर उस की छुट्टी मंजूर कर ली गई है.

प्रिंसिपल ने फिर कहा, ‘‘सुना है कि आप ने बीडीओ साहिबा पर कभी बहुत एहसान किया था, इसलिए उन्होंने आप की मदद की है. आखिर क्या एहसान किया था आप ने, जरा हमें भी बताइए?’’

विजय ने  झेंपते हुए कहा, ‘‘मु झे खुद नहीं पता कि मैं ने कब उन के लिए क्या किया था. अच्छे अफसर ऐसे ही लोगों की मदद किया करते हैं. वैसे, सच पूछा जाए तो एहसान तो उन्होंने मु झ पर अब किया है, जिस का कर्ज चुकाना भी मेरे लिए आसान नहीं होगा.’’

उसी समय बीडीओ साहिबा का काफिला स्कूल में आया. प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी के साथ स्कूल के निरीक्षण के लिए विनिता वहां पहुंची थीं.

कार से उतरते ही उन्होंने विजय से कहा, ‘‘विजय बाबू, पिछली बार पता नहीं आप ने कैसी कोशिश की थी, पर इस बार आप की कोशिश में कमी नहीं होनी चाहिए. मेरी शुभकामना है कि इस बार आप को कामयाबी जरूर मिले.’’

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विनिता बोली, ‘‘जिसे खुद पर भरोसा नहीं होता, वही दूसरों पर भरोसा नहीं कर पाता. जिसे खुद पर भरोसा होता है, उसे अपने साथियों पर भी भरोसा होता है. ऐसे लोग नए साथियों को पा कर जोश से भर जाते हैं. उन के लिए कामयाबी की राह और आसान हो जाती है, इसलिए सब से पहले खुद पर भरोसा करना ज्यादा जरूरी है. इस से कोई भी राह आसान हो जाती है.

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‘‘पिछली बार शायद आप को अपनेआप पर भरोसा नहीं था, इसलिए आप को कामयाबी नहीं मिली. अगर आप को कामयाबी मिल जाएगी, तो आप ने जो मु झ पर एहसान किया है, उस का भी कर्ज चुक जाएगा, इसलिए मैं ने आप पर भरोसा कर के आप को छुट्टी दिलवाने में मदद की है. इस बार यह भरोसा मत तोड़ दीजिएगा.’’

विजय ने कहा, ‘‘सम झदार लोग एक बार गलती करते हैं, बारबार नहीं.’’

विजय ने अगले 2 महीने की छुट्टी का फायदा उठा कर खूब तैयारी की. इस तैयारी का उसे फल भी मिला. उस ने मुख्य परीक्षा व इंटरव्यू में भी कामयाबी हासिल की और उस का चयन प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया.

विजय इस खबर को सुनाने के लिए सब से पहले विनिता के पास पहुंचा. उस के चैंबर में पहुंच कर विजय ने कहा, ‘‘मेरा चयन प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया है. इस में आप की मदद का भी अच्छा योगदान है. अगर आप ने छुट्टी दिलाने में मदद नहीं की होती तो मु झे यह कामयाबी नहीं मिलती.’’

‘‘बहुतबहुत बधाई. वैसे, मैं ने आप की कोई मदद नहीं की. मैं ने पहले भी आप से कहा है कि आप के एहसान का कर्ज चुकाया है.

‘‘जरा सोचिए, अगर आप ने शादी के लिए मना नहीं किया होता और मेरी शादी आप के साथ हो गई होती, तो क्या होता. शादीशुदा लड़की के लिए अभी भी किसी प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करना बड़ा मुश्किल होता है. परिवार की जिम्मेदारियों के बाद उस के पास खुद के लिए भी समय नहीं बचता है.

‘‘लेकिन, ऐसा मर्दों के साथ नहीं होता. वे सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर केवल परीक्षा पर अपना ध्यान दे कर तैयारी कर सकते हैं. घर में किसी ने खाना खाया है या नहीं, घर की सफाई हुई है या नहीं, इन सब बातों से उन्हें कोई लेनादेना नहीं होता.

‘‘इस तरह की जिम्मेदारियां औरतों को उठानी पड़ती हैं और मेरी शादी हो गई होती, तो शायद मु झे भी तैयारी के लिए कम समय मिलता. और मैं आज इस पद पर नहीं पहुंच पाती, इसलिए मु झे लगा था कि जो हुआ अच्छा ही हुआ और आप के द्वारा शादी के लिए मना करने को मैं ने आप का मु झ पर एक एहसान ही माना. अब आप को कामयाबी मिल चुकी है. अब मु झे भी सुकून मिला.’’

विजय ने कहा, ‘‘इस तरह मत कहिए. मैं ने जो गलती की थी, उसे अब मैं सुधारना चाहता हूं. अगर आप को बुरा न लगे तो मु झ से शादी कर मेरी पिछली गलती को सुधारने का मौका देने की कृपा करें.’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’ विनिता ने रूखे लहजे में जवाब दिया, ‘‘आप ने कैसे सोच लिया कि मैं आप से शादी करने के लिए तैयार हो जाऊंगी.

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‘‘आप को याद होगा कि सगाई के बाद आप ने शादी के लिए मना किया था. एक बार जिस ने मना किया था, उसी से शादी कर के मैं अपने स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती. आप के एहसान का कर्ज चुका दिया. अब आप जा सकते हैं.’’

विजय चुपचाप नजरें  झुकाए विनिता के चैंबर से बाहर निकल गया. उसे यह उम्मीद नहीं थी कि कामयाबी हासिल करने के बाद भी इस तरह से उसे दुत्कार दिया जाएगा. उस के लिए यह किसी सजा से कम नहीं थी. पर उसे यह भी एहसास हो गया कि उस ने जो गलती की थी, उस के बदले यह सजा कम ही थी.

गलती की सजा: भाग 1

जब विजय ने किसी की बात नहीं मानी, तो दोस्त रमेश को उसे सम झाने की जिम्मेदारी दी गई. रमेश ने उसे बहुत सम झाया, पर वह टस से मस न हुआ.

दरअसल, विजय ने राज्य लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा दी थी. उस का नतीजा अभी एक दिन पहले आया था. इस परीक्षा में वह कामयाब रहा था. इस के बाद मुख्य परीक्षा थी.

विजय का मानना था कि उसे परीक्षा के लिए जीजान से तैयारी करनी होगी. अगर वह उस में कामयाब रहा, तो इंटरव्यू में उसे कामयाबी पाने का पूरा यकीन था.

इस तरह विजय डिप्टी कलक्टर बन सकता था. इतने बड़े पद पर पहुंचने का यह मौका वह खोना नहीं चाहता था.

दोस्त रमेश ने सम झाया कि शादी के बाद भी मुख्य परीक्षा की तैयारी आसानी से की जा सकती है. उस की पत्नी के होने से तैयारी में मदद मिलेगी, नुकसान नहीं होगा. पर विजय ने कहा, ‘‘शादी के बाद न चाहते हुए भी मेरा ध्यान बंट जाएगा. हां, मैं तुम्हारी बात मानते हुए इतना कर सकता हूं कि परीक्षा के बाद तक के लिए इस शादी को टाल देता हूं. 3 महीने बाद परीक्षा होगी. परीक्षा के बाद मैं शादी कर लूंगा. तब तक के लिए लड़की वालों को रुकने के लिए कहो.’’

वैसे, उन की जाति में लड़केलड़कियों की शादी जल्दी ही हो जाती थी. विजय और जो लड़की पसंद की गई थी, दोनों की जाति के मुखिया देर होने पर खुसुरफुसुर करने लगे थे.

आखिरकार थक कर लड़की वालों को यह संदेश भिजवाया गया कि शादी को कुछ दिनों के लिए टाल दिया जाए.

लड़की वालों को यह बात बहुत बुरी लगी. उन्होंने शादी की पूरी तैयारी कर ली थी. अब तक बहुत सारे रुपए खर्च हो चुके थे.

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लड़की के पिता ने कहा, ‘‘ठीक है, पर जो नुकसान हुआ है, उस की भरपाई लड़के वालों को करनी होगी.’’

लड़की ने जब यह सुना, तो उस ने कहा, ‘‘मु झे ऐसे लोगों से रिश्ता नहीं जोड़ना है, इसलिए लड़के वालों से नुकसान की भरपाई कराइए और मु झे भी कुछ दिनों के लिए यों ही छोड़ दीजिए.’’

विजय के परिवार वालों को लड़की वालों के खर्च में हुए नुकसान की भरपाई करनी पड़ी.

इस शादी से छुटकारा पा कर विजय ने जीजान से परीक्षा की तैयारी की, पर उसे कामयाबी नहीं मिली.

उसी समय प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की भरती शुरू हुई. हालांकि यह नियमित नौकरी नहीं थी और तनख्वाह बहुत ही कम थी, पर खर्च चलाने के लिए विजय ने इस नौकरी के लिए आवेदन दिया. उस का चयन पास के ही प्रखंड के एक प्राथमिक विद्यालय में हो गया.

विजय को विद्यालय की वह नौकरी करते हुए तकरीबन डेढ़ साल बीत गए. इस बीच उस ने फिर से राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा का इश्तिहार देखा. ओबीसी का आरक्षण भी था. उस ने भी इस के लिए आवेदन कर दिया.

पिछली बार विजय परीक्षा में नाकाम रहा था, इसलिए इस बार वह अच्छी तरह तैयारी करना चाहता था.

तभी विजय को उस के साथी शिक्षकों ने बताया कि उसी प्रखंड की बीडीओ यानी प्रखंड विकास पदाधिकारी, जो एक औरत हैं, का चयन पिछली बार के राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में हुआ था. अगर वह चाहे तो उन से परीक्षा से संबंधित टिप्स ले सकता है. वे ऐसी पदाधिकारी हैं, जो सब की मदद करती हैं. वे परीक्षा की तैयारी से संबंधित उचित सलाह भी देती हैं.

राज्य लोक सेवा आयोग के नियमों के मुताबिक विजय इस बार की परीक्षा के बाद कभी बैठ नहीं सकता था, क्योंकि अगली बार से उस की उम्र इस परीक्षा के लिए ज्यादा हो जाएगी, इसलिए वह परीक्षा की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था. अपने साथी शिक्षकों की सलाह मान कर वह बीडीओ से मिलने पहुंचा.

बीडीओ के चैंबर के बाहर नेमप्लेट को देख कर उसे विश्वास नहीं हुआ, ‘विनिता कुमारी’.

‘कहीं यह वही तो नहीं, जिस से मेरी शादी होने वाली थी? यह भी राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बैठने वाली थी. इस के रिजल्ट के बारे में तो मु झे पता भी नहीं चला था. हो सकता है कि यह कोई और हो,’ इसी तरह सोचते हुए वह चैंबर में दाखिल होने लगा और बोला, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं मैडम?’’

‘‘हां, आइए,’’ अंदर से आवाज आई.

विजय ने देखा, वह विनिता ही थी. दोनों एकदूसरे को देख कर थोड़ी देर के लिए ठिठके, फिर विनिता ने ही हालात को संभालते हुए पूछा, ‘‘बैठिए, यहां कैसे आना हुआ?’’

विनिता को यहां देख कर विजय की हालत काटो तो खून नहीं जैसी हो गई थी. उसे कुछ बोलते नहीं बन रहा था.

उस ने हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से मिलने आया था, तो सोचा कि नए प्रखंड विकास पदाधिकारी से भी मिल लूं. यहां पर देखा कि आप हैं…’’

‘‘क्या मु झे देख कर आप को अच्छा नहीं लगा?’’ विनिता ने जानबू झ कर पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ विजय ने जवाब दिया.

‘‘वैसे, आप का शुक्रिया. अगर आप ने शादी के लिए मना नहीं किया होता, तो मैं भी शायद अपनी शादीशुदा जिंदगी में रम जाती और इस मुकाम को हासिल नहीं कर पाती.

‘‘आप के मना करने के बाद मैं ने अपना ध्यान और समय लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में लगाया और मु झे उस में कामयाबी मिली. इस कामयाबी के बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और इंटरव्यू में भी कामयाबी के बाद मेरा चयन इस पद के लिए हो गया,’’ विनिता ने कहा.

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‘‘मु झ से गलती हो गई थी,’’ विजय ने शर्मिंदा होते हुए कहा.

‘‘आप भी मुख्य परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. क्या हुआ आप का?’’ विनिता ने पूछा.

‘‘मु झे कामयाबी नहीं मिली. उस के बाद मैं ने प्राथमिक शिक्षक भरती के लिए आवेदन किया, जिस में मेरा चयन हो गया और अब मैं इसी प्रखंड के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हूं,’’ विजय ने कहा.

‘‘अच्छी बात है. कोई भी पद या काम छोटा या बड़ा नहीं होता. वैसे, मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइएगा. हाल ही में फिर से लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा के लिए इश्तिहार निकला था. क्या आप ने फार्म भरा है?’’?विनिता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां, पर शिक्षक के रूप में नियमित रूप से काम करते हुए इस की तैयारी करना बड़ा मुश्किल होगा. अगले महीने प्रारंभिक परीक्षा है. इस परीक्षा में तो आसानी से कामयाबी मिल जाएगी, पर उस के तकरीबन 2 महीने बाद मुख्य परीक्षा होगी.

‘‘उस के लिए कम से कम 2 महीने की छुट्टी चाहिए. इस के लिए मैं ने आवेदन भी दे दिया है, पर इतनी छुट्टी मिल पाएंगी, इस की उम्मीद कम ही है.’’

जानें आगे क्या हुआ अगले भाग में…

गलती की सजा

ग्रहण हट गया: भाग 1

लेखक- अभिजीत माथुर

मैं घर के कामों से फारिग हो कर सोने की सोच ही रही थी कि फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने बड़े बेमन से रिसीवर उठाया व थके स्वर से कहा, ‘‘हैलो.’’

उधर से अपनी सहेली अंजु की आवाज सुन कर मेरी खुशी की सीमा नहीं रही.

‘‘यह हैलोहैलो क्या कर रही है,’’ अंजु बोली, ‘‘मैं ने तो तुझे एक खुशखबरी देने के लिए फोन किया है. तेरे भैया शैलेंद्र की 24 जून की शादी पक्की हो गई है. कल ही शैलेंद्र भैया कार्ड दे कर गए हैं. तुझे भी शादी में आना है, तू आएगी न?’’

यह सुन कर मैं हड़बड़ा गई और झूठ ही कह दिया, ‘‘हां, क्यों नहीं आऊंगी, मैं जरूर आऊंगी. भाई की शादी में बहन नहीं आएगी तो कौन आएगा. मैं तेरे जीजाजी के साथ जरूर आऊंगी.’’

अंजु बोली, ‘‘ठीक है, तू जरूर आना, मैं तेरा इंतजार करूंगी,’’ यह कह कर अंजु ने फोन रख दिया.

फोन रखने के बाद मैं सोच में पड़ गई कि क्या मैं वाकई शादी में जा पाऊंगी? शायद नहीं. अगर मैं जाना भी चाहूं तो अखिल मुझे जाने नहीं देंगे. हमारी शादी के बाद अखिल ने जो कुछ झेला है वह उसे कैसे भूल सकते हैं.

मैं ने व अखिल ने 2 साल पहले घर वालों की इच्छा के खिलाफ कोर्ट में प्रेमविवाह किया था. मेरे घर वाले मेरे प्रेमविवाह करने पर काफी नाराज थे. उन्होंने मुझ से हमेशा के लिए रिश्ता ही तोड़ दिया था. वे अखिल को बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे. हम विवाह के बाद घर वालों का आशीर्वाद लेने गए थे, पर हमें वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया गया था. तब से ले कर आज तक मैं ने व अखिल ने उस घर की दहलीज पर पैर नहीं रखा है.

मैं धीरेधीरे अपने इस संसार में रमती गई और अखिल के प्यार में पुरानी कड़वी यादें भूलती गई पर आज अंजु के फोन ने मुझे फिर उन्हीं यादों के भंवर में ला कर खड़ा कर दिया, जहां से मैं हमेशा दूर भागना चाहती थी. मैं सोच रही थी कि आखिर मैं ने ऐसा क्या किया है जो मेरे घर वाले मुझ से इतने खफा हैं कि उन्होंने मुझे शैलेंद्र भैया की शादी की सूचना तक नहीं दी. क्या मैं ने अखिल से प्रेमविवाह कर इतनी भारी भूल की है कि मेरा उस घर से रिश्ता ही तोड़ दिया, जिस घर में मैं पली और बड़ी हुई. उस भाई से नाता ही टूट गया जिसे मैं सब से ज्यादा चाहती थी, जिस से मैं लड़ कर हक से चीज छीन लिया करती थी.

क्याक्या सपने संजोए थे मैं ने शैलेंद्र भैया की शादी के कि यह करूंगी, वह करूंगी, पर सारे सपने धराशायी हो गए. मैं भैया की शादी में जाना तो दूर, जाने की सोच भी नहीं सकती थी.

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मैं दिन भर इसी ऊहापोह में रही कि इस बारे में अखिल को कहूं या नहीं.

शाम को अखिल के आने के बाद मैं ने बड़ी हिम्मत जुटा कर उन से शैलेंद्र भैया की शादी के बारे में कहा तो अखिल ने आराम से मेरी बातें सुनीं फिर मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, वाह, मेरे साले की शादी है, तब तो हमें जरूर चलना चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘अखिल, कोई कार्ड या कोई संदेश नहीं आया है. यह तो मुझे अंजु ने फोन पर बताया है.’’

यह सुन अखिल कुछ सोच कर बोले, ‘‘तब तो हमारा न जाना ही ठीक है.’’

मैं अखिल के मुंह से यह सुन कर उदास हो गई और पूरी रात गुमसुम सी रही. अखिल कुछ कहते तो मैं केवल हूंहां में जवाब दे देती.

अगले दिन अखिल के आफिस जाने के बाद मेरा किसी काम में मन नहीं लगा और मैं घुटघुट कर रोए जा रही थी. बाहर से घंटी की आवाज सुन कर मैं दौड़ती हुई फाटक तक जाती कि शायद पोस्टमैन आया हो और शैलेंद्र भैया की शादी का कार्ड आया हो. फोन की घंटी बजने पर मैं सोचती, शायद ताऊजी या पापा का हो पर ऐसा कुछ नहीं था. मैं 3-4 दिन तक ऐसे ही रही थी. अखिल मेरा यह हाल रोज देखते और शायद परेशान होते.

एक रात अखिल मेरी उदासी से परेशान हो कर बोले, ‘‘बीना, क्या तुम शैलेंद्र भैया की शादी में शरीक होना चाहती हो?’’

मैं तो जैसे यह सुनने को तरस रही थी. बोली, ‘‘हां, अखिल, मैं अपने शैलेंद्र भैया को दूल्हा बने देखना चाहती हूं. मेरी यह दिली इच्छा थी कि मैं अपने भाई की शादी में खूब मौजमस्ती करूं. प्लीज, अखिल, शादी में चलो न. मैं एक बार भैया को दूल्हे के रूप में देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, फिर हम तुम्हारे शैलेंद्र भैया की शादी में जरूर शरीक होंगे,’’ अखिल बोले, ‘‘मैं तुम्हारी यह ख्वाहिश जरूर पूरी करूंगा. लेकिन बीना, मेरी एक शर्त है.’’

‘‘शैलेंद्र भैया की शादी में जाने के लिए मुझे हर शर्त मंजूर है,’’ मैं खुशी से पागल होते हुए बोली.

‘‘बीना, हम तुम्हारे घर पर नहीं बल्कि वहां किसी होटल में रुकेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

24 जून को मैं व अखिल जयपुर के लिए रवाना हो गए. मैं पूरे रास्ते सपने संजोती रही कि मैं वहां यह करूंगी, वह करूंगी. हमें देख सब खुश होंगे. खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चला कि रास्ता कैसे कटा.

जयपुर पहुंचते ही होटल के कमरे में सामान रखने के बाद मैं फटाफट तैयार होने लगी. अखिल मुझे यों उतावले हो कर तैयार होते पहली बार देख रहे थे. उन की आंखों में उस दिन पहली बार मैं ने दर्द देखा था. मैं इतनी जल्दी तैयार हो गई तो अखिल बोले, ‘‘हमेशा डेढ़ घंटे में तैयार होने वाली तुम आज पहली बार 10 मिनट में तैयार हुई हो, वाकई घर वालों से मिलने के लिए कितनी बेकरार हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘अब ज्यादा बातें मत करो, प्लीज, जल्दी टैक्सी ले आओ.’’

अखिल टैक्सी ले आए. मैं पूरे रास्ते घबराती रही कि पता नहीं वहां क्या होगा. मेरा दिल आने वाले हर पल के लिए घबरा रहा था.

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हम घर पहुंचे तो हमें आया देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए. शायद किसी को हमारे आने का गुमान नहीं था. सब हमें किसी अजनबी की तरह देख रहे थे. मैं 2 साल बाद अपने घर आई थी, पर वहां मुझे कुछ भी बदलाव नजर नहीं आया. सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं छोड़ कर गई थी. बस, बदले नजर आ रहे थे तो अपने लोग जो मुझे एक अजनबी की तरह देख रहे थे. हां, मेरे छोटे भाईबहन मुझे व अखिल को घेर कर खड़े थे. कोई कह रहा था, ‘‘दीदी, आप कहां चली गई थीं? आप व जीजाजी अब कहीं मत जाना.’’

मैं बच्चों से बातें करने में व्यस्त हो गई. अखिल मेरी तरफ देख चुपचाप एक कुरसी पर जा कर बैठ गए. मैं ने देखा वह डबडबाई आंखों से मुझे देखे जा रहे थे.

मैं ने बूआजी के लड़के राकेश को चुपचाप शैलेंद्र भैया को बुलाने भेजा. शैलेंद्र भैया 15-20 मिनट तक नहीं आए तो मैं ने सोचा शायद वह हम से मिलना नहीं चाहते हैं. मैं अपने को कोस रही थी कि क्यों मैं ने यहां आने की जिद की. मैं फालतू ही यहां अपनी व अखिल की बेइज्जती कराने आ गई. मैं तो कितना चाव ले कर यहां आई थी पर इन लोगों को हमारे आने की जरा भी खुशी नहीं है. मैं समझ गई कि यहां कोई हमारी इज्जत नहीं करेगा. मैं ने वहां से वापस जाने की सोची.

मैं हारी हुई लुटेपिटे कदमों से अखिल के पास जा ही रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘बीनू.’’

मैं ने पलट कर देखा तो राकेश के साथ शैलेंद्र भैया खड़े थे. मैं भैया के पांव छूने झुकी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मैं रोने लगी. भैया भी रोने लगे और बोले, ‘‘कैसी है री, तू? मुझे अभीअभी पता चला कि तू आ चुकी है. मैं सब की नजर बचा कर दौड़ादौड़ा तेरे पास चला आया. अच्छा हुआ, अंजु ने तुझे सही समय पर सूचित कर दिया, नहीं तो मैं सोच रहा था कि पता नहीं अंजु तुझे कहेगी भी या नहीं.’’

मैं बोली, ‘‘तो क्या आप ने अंजु को कहा था मुझे कहने के लिए?’’

भैया बोले, ‘‘हां…तू क्या सोचती है, तेरा भाई इतना निष्ठुर है कि अपनी प्यारी बहन को भूल जाए और अकेला जा कर शादी कर आए. अंजु को मैं ने ही कहा था कि वह तुझे जरूरजरूर किसी भी हालत में आने को कहे.’’

मैं बोली, ‘‘पर मुझे अंजु ने यह तो नहीं कहा था कि उसे आप ने बोला है मुझे आने के लिए.’’

भैया बोले, ‘‘उसे मैं ने ही मना किया था कि मेरा नाम नहीं ले क्योंकि मैं तुझे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. तेरे आने से मुझे तसल्ली है. तू मुझ से एक वादा कर, अब तुझे कोई कुछ भी कहे तू अपने भाई को छोड़ कर नहीं जाएगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है भैया, अब तो आप की खातिर सब सह लूंगी.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल कहां हैं…मुझे उन से मिला तो सही.’’

भैया को मैं ने अखिल से मिलवाया तो भैया हाथ जोड़ कर अखिल से बोले, ‘‘अखिल, आप ने अच्छा किया जो मेरी बहन को आज के दिन ले आए. मैं आप का आभारी हूं. आप को शायद मैं अच्छी तरह अटेंड न कर पाऊं पर प्लीज, आप कहीं मत जाना, चाहे परिवार का कोई कुछ भी कहे.’’

अखिल बोले, ‘‘भाई साहब, आज तो हम आए ही आप की खातिर हैं, जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल, मैं अभी आता हूं. आप लोग यहीं रुकें.’’

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फिर मैं व अखिल एकांत में कुरसी पर बैठ गए. मैं अखिल को अपने घर के बारे में, अपनी बचपन में की गई शरारतों के बारे में बताने लगी.

हमारे यहां रस्म है कि दोपहर में दूल्हे की एक आरती उस की बड़ी बहन करती है. वह रस्म जब होने जा रही थी तो मैं व अखिल चुपचाप कुरसी पर बैठे उसे देख रहे थे. मेरे पापा ने उस रस्म के लिए मेरी छोटी बहन शालिनी को आवाज लगाई तो शैलेंद्र भैया बोले, ‘‘पापा, बीना के यहां होते शालिनी कैसे आरती करेगी? क्या कभी शादीशुदा बहन के होते छोटी बहन आरती करती है? आरती तो बीना ही करेगी,’’ ऐसा कह कर भैया ने मुझे आवाज दी, ‘‘बीनू, यहां आओ, तुम्हें कसम है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

ग्रहण हट गया: भाग 2

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लेखक- अभिजीत माथुर

यह सुन कर मेरी एकदम रुलाई फूट गई. मुझे यों अपमानित होते देख अखिल मेरे पास आए और बोले, ‘‘चलो, बीना, चलो यहां से. मैं तुम्हारी और बेइज्जती होते नहीं देख सकता.’’

यह सुन कर पापा बोले, ‘‘हां, हां…चले जाओ यहां से. वैसे भी यहां तुम्हें बुलाया किस ने है?’’

अखिल बोले, ‘‘आप ने हमें नहीं बुलाया लेकिन हम यहां इसलिए आए हैं क्योंकि बीना अपने भाई को दूल्हा बने देखना चाहती थी और मैं यहां इस की वह इच्छा पूरी करने आया था, पर मुझे क्या पता था कि यहां इस की इतनी बेइज्जती होगी.

‘‘अरे, आप को बेइज्जती करनी थी तो मेरी की होती. गुस्सा निकालना था तो मुझ पर निकाला होता, दोषी तो मैं हूं. इस मासूम का क्या कुसूर है? आप लोगों के लिए पराया तो मैं हूं, यह तो आप लोगों की अपनी है. आप के घर की बेटी है, आप का खून है. क्या खून का रिश्ता इतनी जल्दी मिट जाता है कि अपनी जाई बेटी पराई हो जाती है?

‘‘मैं इस के लिए पराया हो कर भी इसे अपना सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इसे दुत्कार रहे हैं. मैं पराया हो कर भी इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर अपनी बेइज्जती कराने यहां आ सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इस की बेइज्जती कर रहे हैं. इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर थोड़ा सा समझौता नहीं कर सकते. यह बेचारी तो कितने सपने संजो कर यहां आई है. कितने अरमान होंगे इस के दिल में अपने भाई की शादी के, पर आप लोगों को इस से क्या? आप लोग तो अपनी झूठी इज्जत, मानमर्यादा के लिए उन सब का गला घोटना चाहते हैं.

‘‘मैं पराया हो कर भी इसे 2 साल में इतना प्यार दे सकता हूं और आप जिन्होंने इसे बचपन से अपने पास रखा उसे जरा सा प्यार नहीं दे सकते. इस का गुनाह क्या है? यही न कि इस ने आप लोगों की इच्छा से, आप की जाति के लड़के से शादी न कर मुझ जैसे दूसरी जाति के लड़के से शादी की. इस का यह गुनाह इतना बड़ा तो नहीं है कि इसे हर पल, हर घड़ी बेइज्जत किया जाए. इस ने जो कुछ अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया वह इतना बुरा तो नहीं है कि जिस के लिए बेइज्जत किया जाए और रिश्ता तोड़ दिया जाए.’’

मैं आज अखिल को ऐसे बेबाक बोलते पहली बार देख रही थी. मैं अखिल को अपलक देखे जा रही थी.

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अखिल फिर बोले, ‘‘आप शायद नहीं जानते कि यह आप लोगों को कितना प्यार करती है? आप लोग सोचते हैं कि इस ने आप की इच्छा के खिलाफ शादी की है तो यह आप लोगों की भूल है. यह आप लोगों को उतना नहीं, उस से भी कहीं ज्यादा प्यार करती है, जितना हमारी शादी से पहले करती थी.

‘‘यह पिछले 2 साल से मेरे साथ रह रही है. मैं इसे भरपूर प्यार देता हूं, कभी किसी बात की तकलीफ नहीं होने देता, फिर भी कभीकभी यह आप लोगों की याद में इतनी बेचैन हो जाती है कि रोने लग जाती है और खानापीना छोड़ कर खुद अपने को आप का गुनाहगार मानती है. कहने को यह आप लोगों से दूर है, पर इस का दिल, इस का मन तो आप लोगों के पास ही है.

‘‘मैं आप सभी से माफी चाहता हूं कि गुस्से व भावना में आ कर मैं आप लोगों को न जाने क्याक्या कह गया. पर मैं क्या करूं…मैं मजबूर था. मैं बीना की बेइज्जती होते नहीं देख सकता क्योंकि मैं बहुत प्यार करता हूं इसे, बहुत ज्यादा. अच्छा, हम चलते हैं…बिन बुलाए आए और आप की खुशियों में खलल डाला इस के लिए माफी चाहते हैं,’’ अखिल बोले और मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘चलो, बीना.’’

हम दोनों चलने के लिए मुड़े ही थे कि शैलेंद्र भैया, जो इतनी देर से चुपचाप अखिल को बोलते देखे जा रहे थे, बोले, ‘‘ठहरो,’’ फिर घर वालों की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘‘पापा, ताऊजी, मैं जानता हूं कि यह बीना का दोष है कि इस ने हमारी इच्छा के खिलाफ जा कर हमारी जाति से अलग जाति के लड़के से शादी की है, पर इस का दोष इतना बड़ा तो नहीं कि हम इसे मरा समझ लें. आखिर इस ने जो भी किया, अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया. इस ने अपने लिए जो लड़का पसंद किया है वैसा तो शायद आपहम भी नहीं ढूंढ़ सकते थे.

‘‘यह अपने घर वालों का…हम लोगों का प्यार पाने के लिए कितना तड़प रही है. यह हमारा प्यार पाने के लिए पति के साथ अपने मानसम्मान की परवा न करते हुए यहां आई है ताकि यह अपने भाई को दूल्हा बना देख सके. यह हमारा प्यार पाने के लिए भटक रही है और हम इसे गले लगा कर प्यार देने के बजाय दुत्कार रहे हैं, बेइज्जत कर रहे हैं. क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि हम इसे गले लगा कर अपने प्यार के आंचल में भींच लें. जब अखिल पराया हो कर इसे प्यार से रख सकता है, तो हम लोग इतने गएगुजरे तो नहीं हैं कि इस के अपने हो कर भी इसे प्यार नहीं दे सकते.

‘‘पापा, अगर इस ने नादानी में कोई भूल की है तो हम तो समझदार हैं, हमें इसे माफ कर के गले लगा लेना चाहिए. मैं ने तो इसे कभी का माफ कर दिया था. मैं शायद आप लोगों को यह सब कभी नहीं कह पाता, पर आज जब अखिल को बोलते देखा तो मैं ने सोचा कि जब यह आदमी अपनी पत्नी, जो मात्र 2 बरस से इस के साथ रह रही है, उस की बेइज्जती सहन नहीं कर पाया तो मैं अपनी बहन की बेइज्जती कैसे सहन कर रहा हूं, जो मेरे साथ 20 साल रही है. मैं चाहता हूं कि आप लोग भी बीना को माफ कर दें व इसे गले लगा लें.’’

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मैं ने देखा भैया की आंखें भर आई हैं. फिर मैं ने अपनी ताईताऊजी, मम्मीपापा की तरफ देखा, सभी के चेहरे बुझे हुए थे व सभी की आंखों में आंसू थे. शायद उन पर अखिल की बातों का असर हो गया था. ताईजी व मम्मी, ताऊजी व पापा की तरफ याचिकापूर्ण दृष्टि से देख रही थीं.

अचानक ताऊजी मेरे पास आए और हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हें समझने में भूल की है. मैं तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सका और अपनी ही शान में ऐंठा रहा, पर आज अखिल व शैलेंद्र की बातों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. इन की बातों ने मेरी झूठी शान की अकड़ को मिटा दिया है. हमारा जीवन तुम्हारा गुनाहगार है, हमें माफ कर दो.’’

मैं ताऊजी को यों रोते देख हतप्रभ सी हो गई और मेरे मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे. अखिल ताऊजी और पापा के सामने आए और बोले, ‘‘ताऊजी व पापाजी, आप कैसी बातें करते हैं? बड़े क्या कभी बच्चों से माफी मांगते हैं. माफी तो हमें मांगनी चाहिए आप लोगों से कि हम ने आप को कष्ट दिया. गलती तो हम से हुई है कि हम ने आप लोगों की इच्छा के विरुद्ध कार्य किया. आप तो हम से बड़े हैं, आप का हाथ तो हमें आशीर्वाद देने के लिए है, हमारे सामने हाथ जोड़ने के लिए  नहीं.’’

ताऊजी बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं ने तुम्हें समझने में बड़ी भूल की है. शैलेंद्र ने सही कहा कि बीनू ने तुम्हारे रूप में जो पति पसंद किया है वैसा तो शायद हम सब मिल कर भी नहीं ढूंढ़ पाते. तुम हमारी बेटी की खुशी, उस की ख्वाहिश के लिए अपने मानसम्मान की परवा किए बगैर यहां आ गए और हम ने तुम दोनों का आदरसत्कार करने के बजाय बेइज्जत किया. तुम्हारी भावनाओं को, तुम्हारे प्रेम को नहीं समझा बल्कि अपनी रौ में बह कर तुम्हें तवज्जुह नहीं दी. हमारा परिवार वाकई तुम दोनों का गुनाहगार है. हमें माफ कर दो. मैं व हरि दोनों अपने घर वालों की तरफ से तुम दोनों से क्षमा चाहते हैं.’’

तभी पापा बोले, ‘‘हां, अखिल बेटे, मेरी गलती को माफ कर दो और यहीं रुक जाओ. यह हमारे घरपरिवार की तरफ से प्रार्थना है. मैं तुम से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं.’’

फिर ताऊजी, पापा, ताईजी व मम्मी सभी मेरे व अखिल के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो कर क्षमा मांगते हुए हमें रोकने लगे. यह देख अखिल बोले, ‘‘अरे, यह आप सब लोग क्या कर रहे हैं? प्लीज, आप लोग अपने बच्चों के सामने हाथ जोड़ कर खड़े न हों. आप लोग हमारे बुजुर्ग हैं. आप लोगों के हाथ तो आशीर्वाद देने के लिए हैं. मैं और बीना कहीं नहीं जाएंगे बल्कि पूरी शादी में खूब मजे करने के लिए यहीं रुकेंगे. यह तो आप लोगों का बड़प्पन है कि आप हम से बिना किसी गलती के माफी मांग रहे हैं.’’

ताऊजी यह सुन कर मुझ से बोले, ‘‘बीनू, वाकई तू ने एक हीरा पसंद किया है. हम ने इसे पहचानने में भूल कर दी थी,’’ फिर वह मेरे पास आ कर बोले, ‘‘क्यों बीना, तू ने मुझे माफ कर दिया या कोई कसर रह गई है. अगर रह गई है तो बेटी, पूरी कर ले. मैं तेरे सामने ही खड़ा हूं.’’

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मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्या ताऊजी आप भी,’’ फिर मैं खुशी से ताऊजी के गले लग गई.

तभी पापा की आवाज आई, ‘‘अरे, बीना, जल्दी इधर आ और शैलेंद्र की आरती कर. देख, देर हो रही है. बाकी रस्में भी करनी हैं. फिर बरात ले कर तेरी भाभी को भी लेने जाना है.’’

मैं पापा की आवाज सुन कर खुशी से कूदती हुई शैलेंद्र भैया की आरती करने गई. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे ग्रहण का हिस्सा जो मेरी जिंदगी पर लग गया.

सुसाइड: भाग 4

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लेखक- सुकेश कुमार श्रीवास्तव

‘‘जी…?’’ रजनी ने हैरानी से कहा. वह कुछ समझ न पाई.

‘‘शरद की हालत इतनी खराब नहीं है. उन की हालत ठीक भी नहीं है. समझ लीजिए कि कैंसर ने अभी दस्तक दी है. अंदर नहीं आया है.’’

‘‘यानी, उन्हें कैंसर नहीं है?’’

‘‘कहना मुश्किल है, पर दवाओं ने असर किया है. मानिए, 5 फीसदी सुधार हुआ है.’’

‘‘तो अभी इन का टैस्ट नहीं होना है?’’

‘‘टैस्टवैस्ट नहीं करना है. वह मैं ने इन्हें डराने के लिए कहा था. ये डर भी गए हैं, अच्छा हुआ. इन्हें पान मसाला या गुटखा खाने से डर लगने लगा है. इस डर ने ही इन्हें गुटखे से 5 दिन दूर रखा है. अब मैं ने इन्हें 5 दिन की दवा और दी है. अगर ये 10 दिन तक गुटखे से दूर रहे, तो गुटखा इन से छूट सकता है.

‘‘यह स्टडी है कि टोबैको ऐडिक्ट अगर 10 दिन तक टोबैको से दूर रहे, और उस की विल पावर स्ट्रौंग हो तो टोबैको की आदत छूट सकती है.’’

‘‘पर, इन का मुंह तो पूरा नहीं खुल पा रहा है.’’

‘‘देखिए मिसेज शरद, हर गंभीर बीमारी अपने आने का संकेत देती है और संभलने का मौका भी देती है. माउथ कैंसर का भी यही हाल है. पहली दस्तक मुंह का न खुलना या कम खुलना है. उन की यह हालत 2-3 महीने से होगी. यह फर्स्ट स्टेज है.

‘‘फिर आता है, मुंह का छाला. एक या 2 छाले. ये छाले होने के 5 या 6 दिनों में अपनेआप ठीक हो जाते हैं. इन में कोई दर्द वगैरह भी नहीं होता. 10-15 दिनों के बाद एकाध छाला और होता है और ठीक हो जाता है. इसे आप सैकंड स्टेज समझिए. यहां तक लोग इस की सीरियसनैस नहीं समझते.

फिर आती है, थर्ड स्टेज. एकसाथ कई छाले होते हैं. ये सूखते नहीं हैं. इन में घाव हो जाते हैं और अंदर ही इन में पस पड़ जाती है.

‘‘इस के बाद आती है, लास्ट स्टेज. जब छाले का घाव गाल के दूसरी तरफ यानी बाहरी तरफ आ आता है. यह स्टेज बहुत तेजी से आती है और घाव व कैंसर सेल की ग्रोथ गाल से गले तक हो जाती है. यह लाइलाज है.’’

‘‘यानी, ये सैकंड स्टेज पर पहुंच गए थे.’’

‘‘कह सकते हैं. सैकंड स्टेज की प्राइमरी स्टेज पर.’’

‘‘इस का इलाज क्या है?’’

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‘‘सैकंड स्टेज तक ही इलाज किया जाता है. थर्ड स्टेज आने पर आपरेशन कभीकभी कामयाब होता है. फोर्थ स्टेज लाइलाज है. इस का एक ही इलाज है. पहली स्टेज होते ही तंबाकू से परहेज, खासकर पान मसाला या गुटखा से. 1, 2 या 5 रुपए के गुटखे में क्वालिटी की उम्मीद आप कैसे कर सकते हैं. यह सामान्य सी बात लोग क्यों नहीं समझते. फिर इस के बनाने वाले इसी 1-2 रुपए से करोड़पति हो जाते हैं और सरकारें हजारों करोड़ टैक्स से भी कमा लेती हैं. 2 रुपए के पाउच की क्वालिटी शायद 20 पैसे की भी नहीं होती.’’

‘‘जब ऐसा है, तो सरकार इसे रोक क्यों नहीं देती?’’

‘‘छोडि़ए. यह बड़ी बहस की बात है.’’

‘‘तो ये बच सकते हैं?’’

‘‘शरद बाबू बच जाएंगे, बशर्ते ये तंबाकू से दूर रहें.

रजनी से रहा न गया. उस ने सिर पर आंचल रख लिया और उठ कर डाक्टर साहब के पैर छू लिए.

‘‘अरे… यह आप क्या कर रही हैं. उठिए.’’

‘‘आप… आप डाक्टर नहीं हैं…’’ रजनी की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘बड़ी हत्यारी चीज है यह गुटखा मिसेज शरद…’’ डाक्टर साहब गमगीन हो गए. ‘‘मैं ने अपना बेटा खोया है. मैं… मैं उसे बचा नहीं पाया. उस का चेहरा देखने लायक नहीं रहा था.

‘‘हां बेटी, मेरा बेटा भी पान मसाला खाता था. एक दिन एकएक डब्बा खा जाता था. यह चीज ही ऐसी है, जो गरीबअमीर, ऊंचानीचा कुछ नहीं देखती है. बस इसलिए मैं अपने को रोक नहीं पाता हूं. आउट औफ द वे जा कर भी कोशिश करता हूं कि इस से किसी को बचा सकूं.’’

रजनी कुछ कह न सकी. बस एकटक डाक्टर को देखती रही, जो अब एक गमगीन पिता लग रहे थे.

‘‘अब तुम जाओ और वैसा ही करो, जैसा मैं ने कहा है. याद रखना, शरदजी को ठीक करने में जितनी मेरी कोशिश है, उतनी ही जिम्मेदारी तुम्हारी भी है. जाओ और अपनी गृहस्थी, अपने परिवार को बचाओ.’’

रजनी बाहर आ गई. शरद बेचैन हो रहा था.

‘‘क्या कह रहे थे डाक्टर साहब?’’ बाहर आते ही उस ने पूछा.

‘‘चलो, घर चल कर बात करते हैं,’’ रजनी ने गमगीन लहजे में कहा. वे रिकशा से ही आए थे, रिकशा से ही वापसी हुई.

‘‘अब तो बताओ. क्या डाक्टर साहब ने बता दिया है कि मेरे पास कितने दिन बचे हैं?’’

‘‘तुम कैंसर की सैकंड स्टेज पर पहुंच गए हो…’’ रजनी ने साफसाफ कह दिया, ‘‘अब अगर तुम गुटखा खाओगे, तो लास्ट स्टेज पर पहुंचोगे. फिर कोई इलाज नहीं होगा.’’

‘‘अरे, गुटखे का तो अब नाम न लो. अब तो मैं गुटखे की तरफ देखूंगा भी नहीं. अभी कोई इलाज है क्या?’’

‘‘अभी डाक्टर साहब ने साफसाफ नहीं बताया है. 10 दिन बाद बताएंगे. तुम्हें पूरा आराम करना होगा. तुम्हें छुट्टी बढ़ानी होगी.’’

‘‘मैं कल ही एक महीने की छुट्टी बढ़ा दूंगा.’’

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शरद ने एक महीने की छुट्टी बढ़ा दी, पर उसे 2 महीने लग गए.

शरद के औफिस जौइन करने से 2 दिन पहले औफिस के सभी कुलीग उस से मिलने घर आए. सभी खुश थे. तभी रजनी ने प्रस्ताव रखा कि शरद के ठीक होने की खुशी में कल यानी रविवार को सभी सपरिवार रात के खाने पर उन के यहां आएं. सभी ने तालियां बजा कर सहमति दी.

‘‘पर, भाभीजी हमारी एक शर्त है,’’ नीरज ने कहा.

‘‘बताइए नीरजजी?’’ रजनी ने मुसकरा कर कहा.

‘‘हमारी भी एक शर्त है…’’ नीरज ने नाटकीयता से कहा, ‘‘कि सभी अतिथितियों का स्वागत पान मसाले से किया जाए.’’

यह सुन कर वहां सन्नाटा पसर गया.

‘‘भाड़ में जाओ…’’ तभी शरद ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मेरे सामने कोई पान मसाले से स्वागत तो क्या कोई पान मसाले का नाम भी न ले. पार्टीवार्टी भी जाए भाड़ में.’’

‘‘अरे… अरे… गलती हो गई भाभीजी. पान मसाले से नहीं, बल्कि हमारी शर्त है कि अतिथियों का स्वागत शरबत के गिलासों से किया जाए.’’

‘‘मंजूर है,’’ रजनी ने कहा तो सभी की हंसी गूंज उठी. शरद की भी, क्योंकि अब उस का मुंह पूरा खुल रहा था.

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सुसाइड: भाग 1

बड़ी जिम्मेदारियां थीं शरद के ऊपर. अभी उस की उम्र ही क्या थी. महज 35 साल. रजनी सिर्फ 31 साल की थी और सोनू तो अभी 3 साल का ही था. उस ने जेब में हाथ डाल कर गुटखे के दोनों पाउच को सामने ही रखे बड़े से डस्टबिन में फेंक दिया.

‘देखिए, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता…’ शरद को लगा, जैसे डाक्टर का कहा उस के जेहन में गूंज रहा हो, ‘अगर दवाओं से आराम हो गया तो ठीक है, नहीं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. मुंह पूरा नहीं खुल पा रहा है. अगर आराम नहीं हुआ तो कुछ टैस्ट कराने पड़ेंगे. 5 दिन की दवा दे रहा हूं, उस के बाद दिखाइएगा.’

तब सोनू पैदा नहीं हुआ था. रजनी के मामा के लड़के की शादी थी. शरद की खुद की शादी को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था. शादी के बाद ससुराल में पहली शादी थी. उन्हें बड़े मन से बुलाया गया था.

रजनी के मामाजी का घर बिहार के एक कसबेनुमा शहर में था. रजनी के पिताजी, मां, भाई व बहन भी आ ही रहे थे. दफ्तर में छुट्टी की कोई समस्या नहीं थी, इसलिए शरद ने भी जाना तय कर लिया था. ट्रेन सीधे उस शहर को जाती थी. रात में चल कर सुबहसुबह वहां पहुंच जाती थी, पर ट्रेन लेट हो कर 10 बजे पहुंची.

स्टेशन से ही आवभगत शुरू हो गई. उन्हें 4 लोग लेने आए थे. उन्हीं में थे विनय भैया. थे तो वे शरद के साले, पर उम्र थी उन की 42 साल. खुद ही बताया था उन्होंने. वे रजनी के मामाजी के दूर के रिश्ते के भाई के लड़के थे.

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वे खुलते गेहुंए रंग के जरा नाटे, पर मजबूत बदन के थे. सिर के बाल घने व एकदम काले थे. उन की आंखें बड़ीबड़ी व गोल थीं. वे बड़े हंसमुख थे और मामाजी के करीबी थे.

‘आइए… आइए बाबू…’ उन्होंने शरद को अपनी कौली में भर लिया, ‘पहली बार आप हमारे यहां आ रहे हैं. स्वागत है. आप बिहार पहली बार आ रहे हैं या पहले भी आ चुके हैं?’

‘जी, मैं तो पहली बार ही आया हूं साहब,’ शरद ने भी गर्मजोशी से गले मिलते हुए अपना हाथ छुड़ाया.

‘अरे, हम साहब नहीं हैं जमाई बाबू…’ उन के मुंह में पान भरा था, ‘हम आप के साले हैं. नातेरिश्तेदारी में सब से बड़े साले. नाम है हमारा विनय बाबू. उमर है 42 साल. सहरसा में अध्यापक हैं, पर रहते यहीं हैं. कभीकभार वहां जाते हैं.’

‘आप अध्यापक हैं और स्कूल नहीं जाते?’ शरद ने हैरानी से कहा.

‘अरे, स्कूल नहीं कालेज जमाई बाबू…’ उन्होंने जोर से पान की पीक थूकी, ‘हां, नहीं जाते. ससुरे वेतन ही नहीं देते. चलिए, अब तो आप से खूब बातें होंगी. आइए, अब चलें.’

तब तक साथ आए लोगों ने प्रणाम कर शरद का सामान उठा लिया था. वे स्टेशन से बाहर की ओर चले.

‘आप किस विषय के अध्यापक हैं?’ शरद ने चलतेचलते पूछा.

‘हम अंगरेजी के अध्यापक हैं…’ उन्होंने गर्व से बताया, ‘हाईस्कूल की कक्षाएं लेता हूं जमाई बाबू.’

स्टेशन के बाहर आ कर सभी तांगे से घर पहुंचे. शरद का सभी रिश्तेदारों से परिचय हुआ.

तब शरद को पता चला कि विनय भैया नातेरिश्ते में होने वाले शादीब्याह के अभिन्न अंग हैं. वे हलवाई के पास बैठते थे. विनय भैया सुबह से शाम तक हलवाइयों के साथ लगे रहते थे.

दूसरे दिन विनय भैया आए.

‘आइए जमाई बाबू…’ विनय भैया बोले, ‘आप बोर हो गए होंगे. आइए, जरा आप को बाहर की हवा खिलाएं.’

सुबह का नाश्ता हो चुका था. शरद अपने कमरे में अकेला बैठा था. वह तुरंत उठ खड़ा हुआ. घर से बाहर निकलते ही विनय भैया ने नाली में पान थूका.

‘आप पान बहुत खाते हैं विनय भैया,’ शरद से रहा नहीं गया.

‘बस यही पान का तो सहारा है…’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘खाना चाहे एक बखत न मिले, पर पान जरूर मिलना चाहिए. आइए, पान खाते हैं.’

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वे उसे आगे मोड़ पर बनी पान की दुकान की ओर ले चले.

‘मगही पान लगाओ. चूना कम, भीगी सुपारी, इलायची और सादा पत्ती. ऊपर से तंबाकू,’ उन्होंने पान वाले से कहा.

‘आप कैसा पान खाएंगे जमाई बाबू?’ उन्होंने उस से पूछा.

‘मैं पान नहीं खाता,’ शरद बोला.

‘अरे, ऐसा कहीं होता है. पान खाने वाली चीज है, न खाने वाली नहीं जमाई बाबू.’

‘सच में मैं पान नहीं खाता, पर चलिए, मैं मीठा पान खा लूंगा.’

‘मीठा पान तो औरतें खाती हैं, बल्कि वे भी जर्दा ले लेती हैं.’

‘नहीं, मैं जर्दातंबाकू बिलकुल नहीं खाता.’

‘अच्छा भाई, जमाई बाबू के लिए जनाना पान लगाओ.’

पान वाले ने पान में मीठा डाल कर दिया.

वे वापस आ कर हलवाई के पास पड़ी कुरसियों पर बैठ गए और हलवाई से बातें करने लगे. आधा घंटा बीत गया.

तभी विनय भैया ने एक लड़के से कहा, ‘अबे चिथरू, जा के 2 बीड़ा पान लगवा लाओ. बोलना विनय बाबू मंगवाए हैं.’

वह लड़का दौड़ कर गया और पान लगवा लाया.

‘लीजिए जमाई बाबू, पान खाइए. अबे, जमाई बाबू वाला पान कौन सा है?’

‘आप पान खाइए…’ शरद ने कहा, ‘मेरी आदत नहीं है.’

‘चलो तंबाकू अलग से दिए हैं…’ विनय बाबू ने पान चैक किए, ‘लीजिए. यह तो सादा चूनाकत्था है. जरा सी सादा पत्ती डाल देते हैं.’

‘नहीं विनय भैया, मु झे बरदाश्त नहीं होगी.’

‘अरे, क्या कहते हैं जमाई बाबू? सादा पत्ती भी कोई तंबाकू होती है क्या. वैसे जर्दातंबाकू खाना तो मर्दानगी की निशानी है. सिगरेट आप पीते नहीं, दारू वगैरह को तो सुना है, आप हाथ भी नहीं लगाते. जर्दातंबाकू की मर्दानगी तो यहां बच्चों में भी होती है.’

तब तक विनय बाबू पान में एक चुटकी सादा पत्ती वाला तंबाकू डाल कर उस की तरफ बढ़ा चुके थे. शरद ने उन से पान ले कर मुंह में रख लिया. कुछ नहीं हुआ. मर्दानगी के पैमाने को उस ने पार कर लिया था.

शादी से लौट कर शरद ने पान खाना शुरू कर दिया. बहुत संभाल कर बहुत थोड़ी सी सादा पत्ती व तंबाकू लेने लगा. फिर तो वह कायदे से पान खाने लगा. कुछ नहीं हुआ. बस यह हुआ कि उस के खूबसूरत दांत बदसूरत हो गए.

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एक बार शरद को दफ्तर के काम से एक छोटी सी तहसील में जाना पड़ा. गाड़ी से उतर कर उस ने एक दुकान से पान खाया. पान एकदम रद्दी था. कत्था तो एकदम ही बेकार था. तुरंत मुंह कट गया.

‘बड़ा रद्दी पान लगाया है,’ शरद ने पान वाले से कहा.

‘यहां तो यही मिलता है बाबूजी.’

‘पूरा मुंह खराब कर दिया यार.’

‘यह लो बाबूजी, इस को दबा लो,’ उस ने एक पाउच बढ़ाया.

‘यह क्या है?’

‘यह गुटखा है. नया चला है. इस से मुंह कभी नहीं कटेगा. इस में सुपारी, कत्था, चूना, इलायची सब मिला है. पान से ज्यादा किक देता है बाबूजी.’

शरद ने गुटखे का पाउच फाड़ कर मुंह में डाल लिया.

अपने शहर में आ कर अपनी दुकान से शरद ने पान खाया. आज मजा नहीं आया. उस ने 4 गुटखे ले कर जेब में डाल लिए.

सोतेसोते तक में शरद चारों गुटखे खा गया. सुबह उठते ही ब्रश करते ही गुटखा ले आया. धीरेधीरे उस की पान खाने की आदत छूट गई. खड़े हो कर पान लगवाने की जगह गुटखा तुरंत मिल जाता था. रखने में भी आसानी थी. खाने में भी आसानी थी. परेशानी थोड़ी ही थी. मुंह का स्वाद खत्म हो गया. खाने में टेस्ट कम आता था.

रजनी परेशान हो गई. शरद की सारी कमीजों पर दाग पड़ गए, जो छूटते ही नहीं थे. सारी पैंटों की जेबों में भी दाग थे. उसे कब्ज रहने लगी. पहले उठते ही प्रैशर रहता था, जाना पड़ता था. अब उठ कर ब्रश कर के, चाय पी कर व फिर जब तक एक गुटखा न दबा ले, हाजत नहीं होती थी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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