एक बार फिर: क्या प्यार के मरहम से भरे दिल के घाव?

शिखा ने कमरे में घुसते ही दरवाजा बंद कर लिया और धम्म से पलंग पर बैठ गई. नयानया घर, नईनई दुलहन… सबकुछ उसे बहुत अजीब सा लग रहा था. 25 वर्ष की उम्र में इतना सबकुछ देखा था कि बस, ऐसा लगता था कि जीवन खत्म हो जाए. अब बहुत हो चुका. हर क्षण उसे यही एहसास होता कि असंख्य निगाहें उस के शरीर को भेदती हुई पार निकल जातीं और आत्मा टुकड़ेटुकड़े हो कर जमीन पर बिखर जाती.

पलंग पर लेटते ही उस की निगाहें छत पर टिक गईं. पंखा पूरी तेजी से घूम रहा था. कमरे की ट्यूबलाइट बंद थी. एक पीला बल्ब बीमार सी पीली रोशनी फेंक रहा था. अचानक उस की निगाहें कमरे के कोने में फैले एक जाले पर पड़ीं, जिस में एक बड़ी सी मकड़ी झूल रही थी. कम रोशनी के कारण जाला पूरी तरह दिख नहीं रहा था, लेकिन मकड़ी के झूलने की वजह से उस का आभास जरूर हो रहा था.

वह एकटक उसे देखती रही. पता नहीं क्यों जाला उसे सम्मोहित कर देता है. उसे लगता है कि इस जाल में फंसी मकड़ी की तरह ही उस का जीवन भी है. आज एक महीना हो गया उस की शादी को, पर हर पल बेचैनी और घबराहट उसे घेरे रहती है. रोज मां का फोन आता है. हमेशा एक ही बात पूछती हैं, ‘कैसे लोग हैं शिखा, शेखर कैसा है, उस के मातापिता का व्यवहार ठीक है. चल बढ़िया, वैसे भी पढ़ेलिखे लोग हैं.’

मां बारबार उसे कुरेदती पर उस का जवाब हमेशा एक जैसा ही होता, ‘‘हां, मम्मी, सब अच्छे हैं.’’

वैसे भी यह उत्तर उस के जीवन की नियति बन गया था. चाहे कोई कुछ भी पूछता, उस की जबान से तो सिर्फ इस के अलावा कुछ निकल ही नहीं सकता था. चाहे कोई उसे मार ही क्यों न डाले. पहले ही उस ने मांबाप को कितने दुख दिए हैं. पुराने खयालों से जुड़े मांबाप के लिए यह कितना दुखद अनुभव था कि मात्र 25 साल की उम्र में उन्हें उस की दूसरी शादी करनी पड़ी.

उस की आंखें डबडबा आईं. पीली रोशनी उसे चुभती हुई महसूस हुई. उस ने उठ कर लाइट बंद की और दोबारा लेट गई. आंसू बरबस ही निकल कर गालों पर ढुलकने लगे.

3 साल पहले उस का जीवन कितना खूबसूरत था. पंछी की तरह स्वच्छंद, खिलीखिली, पढ़ाईलिखाई करती, खेलतीकूदती एक अबोध युवती. मांबाप भले ही बहुत ज्यादा अमीर नहीं थे, अधिक सुखसुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन घर का माहौल कुल मिला कर बहुत अच्छा था. वैसे घर में था भी कौन. अम्मांबाबूजी, वह खुद और छोटा भाई नवीन जो अभी हाल ही में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के निबटा था.

दोनों भाईबहनों के बीच गहरी समझ थी. घर पर मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी. एक बार बातोंबातों में बहू की बात चलने लगी, पर फिर सभी को लगा कि पहले लड़की के हाथ पीले हो जाएं, फिर नवीन के बारे में सोच सकते हैं. स्वयं नवीन भी यही सोचता था.

शिखा परिवार के इस आकस्मिक निर्णय से हैरान रह गई. ‘अभी से शादी, अभी तो उस की उम्र ही क्या है. पूरी 22 साल की भी नहीं हुई.’ उस ने बहुत विरोध किया.

लाड़प्यार में पली शिखा का विरोध सफल भी हो जाता, पर तभी एक घटना घट गई. पड़ोस के त्रिभुवनजी के लड़के की शादी में शैलेश व उस के परिवार वाले आए. दोचार दिन साथ रहे. त्रिभुवनजी से इन के संबंध बहुत अच्छे थे. उन की लड़की विभा, शिखा की अच्छी सहेली थी. घर पर आनाजाना था. शिखा के परिवार वालों ने भी कामकाज में हाथ बंटाया. इस दौरान सभी लोग न केवल एकदूसरे के संपर्क में आए, वरन प्रभावित भी हुए.

शैलेश का परिवार जल्दी ही विदा तो हुआ, पर थोड़े ही दिन बाद उन का प्रस्ताव भी आ गया. प्रस्ताव था, शैलेश व शिखा की शादी का. शिखा के पिताजी शादी की सोच तो रहे थे, पर यह बात अभी तक केवल विचारों में ही थी. जीवन में कई बार इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं.

आदमी किसी बात के लिए अपनी मानसिकता तैयार करता है, लेकिन एकदम से ही स्थिति सामने आ कर खड़ी हो जाए, तो वह हड़बड़ा जाता है. शिखा के घर वाले इस अप्रत्याशित स्थिति से असमंजस में पड़ गए, क्या करें, क्या न करें.

पहले तो यही सोचा कि अभी से शादी कर के क्या करेंगे. अभी उम्र ही क्या है, पर अंतत: रिश्तेदारों से बातचीत की तो उन की सोच बदल गई.

सभी ने एक ही बात कही, ‘भई, शादी तो करनी ही है. ऐसी कम उम्र तो है नहीं, 22 की होने वाली है. लड़की की शादी समय से हो जाए, वही अच्छा है. फिर 2-3 साल बाद परेशानी शुरू हो जाएगी. तब फिर दुनिया भर में भागते फिरो और दोचार साल और निकल गए तो लड़की को कुंठाएं घेर लेंगी और मांबाप की नींद हराम हो, सो अलग. फिर इस से अच्छा परिवार उन्हें भला कहां मिलेगा.

‘लड़का सुंदर है. अच्छा कमाता है. पिताजी अच्छेखासे पद पर थे. अभी काफी नौकरी बाकी थी. कोई लड़की नहीं, बस, एक छोटा भाई जरूर था. सीमित परिवार. इस से अच्छा विकल्प मिलना बहुत मुश्किल था.’

और फिर शिखा का भी इतना सशक्त विरोध नहीं रहा. वह बिलकुल ही घरेलू लड़की थी. पढ़ने में औसत थी ही और जीवन के बारे में कोई बड़ी भारी योजनाएं थीं भी नहीं. कुल मिला कर चट मंगनी और पट ब्याह. सबकुछ ठीकठाक संपन्न हो गया.

हंसतीखिलखिलाती शिखा विदा हुई और शैलेश के घर पहुंच गई. शुरूशुरू में सब अच्छा रहा, पर धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. घर वालों की असलियत धीरेधीरे सामने आ गई. अपने पढ़ेलिखे व कमाऊ लड़के के लिए साधारण सा दहेज पा कर वे जरा भी संतुष्ट नहीं हुए.

रिश्तेदारों की व्याख्या ने आग में घी का काम किया और धीरेधीरे छोटे से अंसतुष्टि के बीज ने दावानल का रूप ले लिया. फिर क्या था, हर बात में कमी, हर बात पर शिकवाशिकायत. सारी बातें इतना गंभीर रूप नहीं लेतीं, लेकिन शैलेश भी अपने मातापिता के सुर में सुर मिला कर बोलने लगा.

शिखा सुदंर थी, पढ़ीलिखी थी, पर उस की मानसिकता घरेलू लड़की की थी. जब शैलेश अपने साथ काम कर रही लड़कियों से शिखा की तुलना करता तो उसे कुंठा घेर लेती. उसे लगता कि उस के लिए तो एक प्रोफैशनल लड़की ही ज्यादा अच्छी रहती.

बस फिर क्या था. शिखा का जीवन बिलकुल ही नरक हो गया. जहां तक उस के बस में रहा उस ने सहा भी, पर जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो उसे मजबूरन घर वालों को बताना पड़ा. घर वाले उस की बातें सुन कर सन्न रह गए. उन के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. उन्होंने बहुत हाथपांव जोड़े, मनुहारमन्नतें कीं, पर कोई परिणाम नहीं निकला.

और फिर धीरेधीरे यह भी नौबत आ गई कि छोटीमोटी बातों पर शैलेश उस के साथ मारपीट करने लगा. सारे घर वाले मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहते. शिखा को लगा कि अब कोई विकल्प नहीं बचा इसलिए वह घर छोड़ कर वापस मायके आ गई.

मांबाप ने उसे इस हालत में देखा तो उन्हें बहुत धक्का लगा. नवीन तो गुस्से के मारे पागल हो गया. पिताजी ने ताऊजी को बुलवाया. सलाहमशविरा चल ही रहा था कि एक दिन शिखा के नाम तलाक का नोटिस आ पहुंचा.

घर के आंगन में तो सन्नाटा पसर गया. अम्मांबाबूजी दोनों ने जीवन देखा था. वे मतभेद की घटनाओं से दुखी हुए पर उन्हें इस परिणाम का जरा भी एहसास नहीं था. उन्होंने लड़ाईझगड़े तो जीवन में बहुत देखे थे, सभी लोग बातें तो न जाने कहांकहां तक पहुंचने की करते थे, पर अंतत: परिणति सब मंगलमय ही देखी थी. पर अब खुद के साथ यह घटित होते देख वे बिलकुल टूट ही गए. वे ताऊजी को ले कर शैलेश के घर गए भी पर कोई परिणाम नहीं निकला.

इसी तरह दिन गुजरने लगे. मांबाप की हालत देख कर शिखा का कलेजा मुंह को आ जाता था. उसे लगता था कि वह ही इस हालत के लिए जिम्मेदार है. एक गहरा अपराधबोध उसे अंदर तक हिला देता था. वह मन ही मन घुटने लगी. उधर अम्मांबाबूजी व नवीन भी उस की यह हालत देख कर दुखी थे, पर उन्हें भी कुछ नहीं सूझता था. उन्होंने उस से भी आगे पढ़ने के लिए जबरदस्ती फार्म भरवा दिया.

उधर मुकदमा चलने लगा और फिर एक दिन तलाक भी हो गया. शिखा ने इसे नियति मान कर स्वीकार कर लिया. इंसान के जीवन में जब तकलीफें आती हैं, तो उसे लगता है कि वह उन्हें कैसे बरदाश्त कर पाएगा.

पर वह स्वयं नहीं जानता कि उस के मन में सहने की कितनी असीम शक्ति मौजूद है. वह धीरेधीरे अपनी पढ़ाई करने लगी.

इसी तरह काफी समय निकल गया. नवीन की शादी की बात चलने लगी. लोग बातचीत करने आते, पर शिखा का सवाल प्रश्नचिह्न की तरह सब के सामने खड़ा हो जाता था. शिखा को बस, लगता कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

नवीन को भी उस की बहुत चिंता थी. उस ने अम्मांबाबूजी पर जोर डाला कि वे दीदी को पुनर्विवाह के लिए राजी करें.

शिखा इस बात को सुन कर बहुत भड़की, चिल्लाई. उस ने 2 दिन तक खाना नहीं खाया, पर फिर जब अम्मां उस के कमरे में आ कर रोने लगीं, तो उसे लगा, बस, अब वह उन की इच्छाएं पूरी कर के ही उन्हें तार सकती है. उस ने खुद को नदी में बहती हुई लकड़ी की तरह छोड़ दिया, जिसे धारा बहाती ले जा रही है.

बस, जल्दी ही शादी हो गई. न कोई उमंगउल्लास, न कोई धूमधड़ाका. बहुत ही सीधेसादे ढंग से. उस ने वरमाला के समय ही तो दूल्हे को पहली बार देखा, पर कोई एहसास उस के मन में नहीं जगा.

बहुत ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं थे, फिर भी उसे ऐसा लग रहा था कि वह उन्हें बरदाश्त नहीं कर पा रही है. पलपल वह रस्में दोहराई जा रही थीं. हवनकुंड में अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई थी. छोटी व सूखी लकड़ियां चटकचटक कर जल रही थीं.

कैसी किस्मत है उस की, यही सब दोबारा दोहराना पड़ रहा है. 7 फेरे, पहले और किसी के साथ वचन… अब किसी और के साथ. पहले भी तो पवित्र अग्नि के सामने मंत्र उच्चारित किए गए थे, किसी ने मना नहीं किया था. क्यों नहीं निभा पाए इस वचन को? ऐसा क्यों हो जाता है?

पंडितजी ने सिक्के में सिंदूर भर कर नीलेश को पकड़ा दी. उस ने मुसकराते हुए शिखा की मांग में सिंदूर भर दिया. उस की सूनी मांग एक बार फिर सिंदूर से चमकने लगी. सिक्के का सिर पर स्पर्श होते ही उसे अजीब सा लगा. क्यों दोहराया जा रहा है उस के साथ ये सब. क्यों कोई मंत्र इतना ताकतवर नहीं रहा कि वह उस के सिंदूर को बचा पाता. छोटीछोटी बातें उस की मांग का सिंदूर उजाड़ गईं… तो फिर… उस की आंखें गीली हो गईं.

और फिर वह विदा हो कर पति के घर आ गई. ठीक वैसे ही जैसे कभी अम्मांबाबूजी का साथ छोड़ कर शैलेश के साथ चल दी थी. तब भी यही दोहराया गया था कि यही पति परमेश्वर है. यह घर ही सबकुछ है. अब ये ही तुम्हारे मातापिता हैं. तुम्हें मोक्ष तभी मिल पाएगा, जब तुम्हारी अंतिम यात्रा पति के कंधों पर जाएगी, पर शैलेश ने तो जीतेजी मोक्ष दिला दिया. जीतेजी उस की अंतिम यात्रा संपन्न करा दी. और अब यहां नए घर में… अब वह फिर पति के कंधों पर चढ़ कर मोक्ष की कामना करेगी.

तभी दरवाजे की आहट से वह चौंक गई. आंखों से आंसू पोंछते हुए उस ने दरवाजा खोला. सामने नीलेश मुसकराते हुए बोला, ‘क्या बात है, क्यों अंधेरा कर रखा है.’ वह क्या कहती, बस चुप ही रही.

नीलेश ने शिखा को सोफे पर बिठाया और खुद भी सामने सोफे पर बैठ गया.

‘तुम परेशान हो.’

वह फिर कुछ नहीं बोली. बस, आंखों से अश्रुधारा बहने लगी.

‘शिखा, पता नहीं, तुम क्यों अपराधबोध से ग्रसित हो. इतनी बड़ी दुनिया है. तरहतरह के लोग हैं. सब की मानसिकता अलगअलग है. यदि अम्मांबाबूजी ने तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ दिया, जिस के मापदंडों पर तुम खरी नहीं उतर सकीं तो क्या तुम अपनेआप को खत्म कर लोगी. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिस ने केवल भौतिकवादी मापदंडों के आगे तुम्हें नकार दिया. तुम्हारी भावनाओं को बिलकुल नहीं समझा. एक ऐसे व्यक्ति के दिए गए कटु अनुभव को तुम क्यों जिंदगी भर संजो कर रखना चाहती हो.’

वह एक क्षण रुका और शिखा के आंसू पोंछते हुए बोला, ‘जीवन में हम दिनरात देखते हैं, इतनी विसंगतियों से भरा है जीवन. हर पल कहीं न कहीं किसी व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ घटता ही रहता है, ऐसे में व्यक्ति क्या करे. क्या वह किसी दूसरे के द्वारा की गई गलत हरकत से अपने अस्तित्व को मिटा डाले. कोई दूसरा अगर बुरा निकल जाए तो क्या तुम अपने सारे जीवन को अभिशप्त कर लोगी?’

वह रोने लगी, ‘नहीं, पर मुझे लगता है कि आप के साथ कहीं नाइंसाफी तो नहीं हुई है. मैं आप के लायक…’

‘तुम भी बस,’ नीलेश बीच में ही बोला, ‘अगर तुम्हारे साथ पहले कुछ घट गया हो, जिस के लिए तुम जिम्मेदार नहीं हो तो, क्या तुम्हारे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया. शिखा, तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत अच्छा है. तुम्हारी सहजता, सौम्यता सभी कुछ अच्छा है. व्यक्तित्व का मूल निर्माण आदमी के आंतरिक गुणों से निर्मित होता है. अगर हमारे बाहरी जीवन में कुछ गलत हो गया तो इस का मतलब यह नहीं कि हम गलत हो गए.’

और सही बात तो मैं ने तुम से शादी कोई सहानुभूति की वजह से नहीं की. मैं ने तुम्हें देखा, तुम अच्छी लगी. बस, यही पर्याप्त है, पर अब आज से नया जीवन जीने का संकल्प लो. बीते हुए कल की छाया कहीं से अपने जीवन पर मत पड़ने दो. अब तुम्हें मेरे साथ जीना है. मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है.’

शिखा क्या कहती. उसे लग रहा था कि उस के जीवन पर छाई कुहासे की परत धीरेधीरे हटती जा रही थी. वह नीलेश से लिपट गई और उस के सीने में मुंह छिपा लिया. उस के आंसू निकल कर नीलेश के सीने पर गिर रहे थे. उसे लगा कि उस की पुरानी जिंदगी की कड़वाहट आंसुओं से धुलती जा रही थी. अब शिखा खुश थी, बहुत खुश.

ममता : नवजात शिशु का मोह

दिनेश और महेश अपने घर के सूरजचांद थे. मांबाप ने उन्हीं की रोशनी से अपनी जिंदगी को रोशन करना चाहा. दोनों को कालेज में पढ़ने के लिए लखनऊ भेजा गया.

नवाबों की नगरी को देख कर वे दोनों दंग रह गए. लखनऊ की हवा लगते ही वे पढ़ाईलिखाई भूल गए. वे कभीकभार ही कालेज जाते, बाकी समय मीना बाजार की हवाखोरी में बिताते, जहां हमेशा सुंदरियों का बाजार सा लगा रहता.

उन दोनों के पिताजी फौज में कर्नल थे. वे हर महीने मोटी रकम भेजते और हमेशा चिट्ठियों में लिखते कि पढ़ाई में किसी तरह की लापरवाही न करना, पर लाड़ले तो ऐश कर रहे थे.

उन्होंने 2 कमरे का मकान किराए पर लिया हुआ था. छोटा भाई महेश शुरू में कुछ पढ़तालिखता रहा, पर जब उस ने बड़े भाई को मस्ती करते देखा, तो वह भी उसी रास्ते पर चल पड़ा. वे दोनों अपनीअपनी प्रेमिकाओं को ले कर शहीद पार्क में गपशप करते रहते.

कुछ समय बाद उन के पिता का तबादला जम्मू हो गया. वे दोनों चिट्ठी में ?ाठ लिखते रहते कि उन की पढ़ाई ठीकठाक चल रही है. साथ ही, महंगाई का रोना रोते हुए वे ज्यादा पैसे भेजने को लिखते. उन के पिता अब पहले से भी ज्यादा रुपए भेजने लगे थे.

दिनेश के यहां एक लड़की ममता का काफी दखल रहता था, जो अपनी छोटी बहन के साथ पढ़ने आई थी. वे दोनों खूब सैरसपाटा करते. आखिर में दोनों ने शादी कर ली.

फिर ममता की छोटी बहन की मुहिम भी शुरू हो गई. महेश को लगा कि वह दौड़ में पीछे छूटा जा रहा है. उस ने भी हाथपैर मारे और छोटी बहन के साथ कोर्ट मैरिज कर ली.

प्रेमिकाएं अब पत्नियां बन चुकी थीं. पत्नियों को लिए वे दोनों अपनेअपने कमरों में पड़े रहते. बहाना पढ़ाई का था, सो खर्च के लिए मोटी रकम भी आ रही थी.

एक बार उन के पिता अचानक लखनऊ आ पहुंचे. दोपहर के 2 बजे वे लाड़लों के यहां दाखिल हुए. सब खाना खा कर सो रहे थे.

पिताजी ने दरवाजा खटखटाया, तो ममता ने नाइटी पहने ही दरवाजा खोला.

कर्नल साहब कमरे के अंदर पैर रखते हुए बोले, ‘‘दिनेश नहीं है क्या?’’

पिताजी की आवाज सुनते ही दिनेश पहचान गया. उस की नींद हवा हो गई कि अब आफत आ गई है.

उस ने दौड़ कर पिता के पैर छुए. पिताजी उस लड़की का सिंदूर देख कर सब समझ गए.

दिनेश पैर छू कर सीधा हो ही रहा था कि कर्नल साहब ने उस के गाल पर जोरदार थप्पड़ दे मारा.

थप्पड़ पड़ते ही दिनेश तिलमिला गया और उस ने पिता का हाथ पकड़ लिया. अब कर्नल साहब के गुस्से का पारावार न था. उन्होंने फौजी हाथ दिखाए, तो बेटे की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

इस हादसे के बारे में सुन कर छोटा लड़का भी दौड़ कर आया. पीछेपीछे उस की पत्नी भी आ रही थी.

कर्नल साहब ने इस जोड़े को देखा, तो गुस्से की बची आग उन की सारी देह को धधकाने लगी. बड़े बेटे को छोड़ कर वे छोटे बेटे पर टूट पड़े. उसे इतना मारा कि खुद की सांस फूल गई.

अब वे लड़कों को छोड़ बहुओं की ओर बढ़े. वे दोनों पलंगों के नीचे जा घुसी थीं. इस नजारे को देखने के लिए पड़ोसियों की अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई थी.

कुरसी का एक पाया निकाल कर कर्नल साहब उन दोनों बहुओं पर गरजे, ‘‘बताओ, कौन हो तुम दोनों?’’

दोनों बहुओं की हवा निकल चुकी थी. दोनों ने कोर्ट मैरिज की बात दोहराई. कर्नल साहब के डंडे पड़ने से सुकोमल लड़कियां कठोर होती जा रही थीं. ऊपर से नीचे तक कोई जगह बाकी नहीं थी, जहां डंडा न पड़ा हो.

लड़के तो पहले ही भाग गए थे, अब बहुएं भी रोतीबिलखती वहां से भागीं. कर्नल साहब डंडा लिए उन्हें दौड़ाए चले जा रहे थे.

फिर कर्नल साहब लौट कर आए और सारा सामान सड़क पर फेंक दिया. ताला बंद कर उन्होंने चाबी मकान मालिक को दे दी. साथ ही, यह भी कहते गए कि उन में से किसी को अंदर मत घुसने देना.

घर पहुंच कर कर्नल साहब पत्नी पर भी खूब बिगड़े, ‘‘तुम तो मेरी जान खा गई कि बच्चों को पैसों की कमी न पड़े. दोनों नालायक तो वहां स्वयंवर रचाए बैठे हैं. खबरदार, उन निकम्मों को घर के अंदर भी पैर रखने दिया… अगर रखने दिया, तो इस बार तुम्हारा नंबर आएगा.’’

वे बेचारे चारों कुछ दिनों तक यों ही इधरउधर भटकते रहे. पर महेश का बंधन अभी ढीला था, सो उस ने हाथ झटकना ही सही समझ. एक दिन उस की पत्नी भाग खड़ी हुई. बाकी तीनों के सामने खाने के लाले पड़े थे. जैसतैसे 2 महीने काटे, पर अब काम नहीं चल रहा था.

आखिर महेश घर के लिए चल पड़ा. उस ने अपनी गलती कबूल कर ली. माफी मांगने के बाद उसे घर के भीतर जाने की इजाजत मिल गई.

लेकिन बड़ा भाई दूसरी ही मिट्टी का बना था. उस ने घर का खयाल छोड़ ममता के साथ रहने का इरादा किया. उस ने ममता को प्राइवेट स्कूल में नौकरी दिलवाई और खुद ट्यूशन पढ़ाने लगा.

जैसे पानी के मिलने से सीमेंट मजबूत हो जाता है, वैसे ही कंगाली ने दोनों के संबंधों को और भी मजबूत बनाया.

किसी तरह 2 साल बीत गए, पर अभी भी उन दोनों के तन पर पिताजी के दिए कपड़े ही थे. ममता को बच्चा हुआ, तो दिनेश की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई. वह सुबह 5 बजे उठता और रात 11 बजे सोने का मौका मिलता. सुबह से शाम तक काम ही काम था.

काम की मार ने संबंधों में खटास लानी शुरू कर दी, पर नवजात शिशु का मोह दोनों को बंधन में बांधे रहा.

हाय री ममता, दुनिया चाहे भूल जाए, पर मां अपने जाए को कभी नहीं भूलती. मां अपने बेटे का मुंह देखने के लिए बेचैन हो उठी. उस ने चोरी से दिनेश के नाम एक चिट्ठी लिखी.

चिट्ठी पा कर दिनेश घर जाने के लिए तैयार हुआ, तो ममता बोली, ‘‘मैं अकेली यहां क्या करूंगी?’’

‘‘तो तुम भी चलो,’’ वह बोला.

ममता को गांव के बाहर बैठा कर महेश घर पहुंचा. दरवाजे पर मां मिली, जो उसे देखते ही फूटफूट कर रोने लगी. फिर पूछा कि और कोई साथ में है?

दिनेश ने ‘हां’ में सिर हिलाया और गांव के बाहर चल पड़ा. साथ में मां भी चली. ममता और बच्चे को देख कर उस का दिल खुशियों से भर उठा.

मां ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया. लेकिन कर्नल साहब के डर से वह उन्हें घर चलने को न कह सकी.

थोड़ी देर बाद दिनेश अपनी पत्नी और बच्चे के साथ लौट गया. कुछ समय बाद कर्नल साहब घर लौटे, पर दिनेश के आने की बात उन्हें पता न चली.

आखिर मां को एक उपाय सूझ.

उस ने बड़े पोस्ट औफिस से ममता के नाम से अपने घर के पते पर एक तार कर दिया.

अगले दिन वह तार कर्नल साहब को मिला. उन्होंने जब उसे पढ़ा, तो उन के हाथ कांपने लगे, दिल की धड़कनें तेज हो गईं.

तार में लिखा था, ‘आप का लड़का कई दिनों से बीमार था. उस के सिर में तेज दर्द हो रहा था. पर अब दर्द ठंडा हो गया है और आज वह दुनिया से कूच कर गया?है. मैं ने लाश को 2 दिन के लिए रोक रखा है. अगर आप चाहें, तो उस के आखिरी दर्शन कर सकते हैं.’

कर्नल साहब ने घबरा कर पत्नी को बताया, लेकिन वह तो सब जानती थी. उसी का रचा खेल था. मगर रोना भी जरूरी था, सो वह गला फाड़फाड़ कर रोने लगी.

जल्दी ही कर्नल साहब बीवी को साथ ले कर बेटे का दाह संस्कार करने चल दिए. पूछताछ करते हुए एक तंग गली की सीलन भरी कोठरी के सामने जा पहुंचे. फिर खुद ही दरवाजा ठेल कर अंदर पहुंचे.

दिनेश ने उन्हें देखा, तो कलेजा धक से रह गया कि इस बला ने हमारा पीछा यहां भी नहीं छोड़ा. ममता भी उन्हें देख कर कांप उठी, पर फौलादी कर्नल अब मोम बन चुके थे और अपने ही ताप से पिघल रहे थे.

कहां तो वे बेटे के लिए कफन साथ ले कर आए थे, लेकिन जब वह जिंदा हालत में मिला, तो खुशी की सीमा न रही. ऐसा लगा, मानो अंधे को दोनों आंखें मिल गई हों.

दिनेश ने डरतेडरते पिता के पैर छुए. कर्नल साहब उसे गले से लगा कर रोने लगे. उन्हें रोते देख सभी रोने लगे. ये आंसू दुख के नहीं, बल्कि मिलन के थे.

कर्नल साहब हाथ में लिए कफन को फाड़ते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी गलती कबूल करता हूं. तुम्हें सबकुछ करने की छूट है, पर पहले घर चलो.’’

जल्दी ही सब घर की ओर चल दिए. आगेआगे पिताजी चल रहे थे, मां बच्चे को गोदी में लिए थी. दिनेश और ममता सामान लिए पीछेपीछे जा रहे थे.

कर्नल साहब मुड़े कि बच्चे को धूप लग रही होगी. उन्होंने अपने सिर से तौलिया उतार कर बच्चे को ढक दिया.

पर कर्नल साहब का जी इतने से नहीं भरा, उन्होंने खुद बच्चे को अपनी गोद में ले लिया और उसे धूप से बचाने के लिए अपनी रफ्तार तेज कर दी.

तभी दिनेश धीरे से बोला, ‘‘मां, पिताजी में अचानक बदलाव कैसे हो गया?’’

‘‘क्या करूं, मैं तुम्हारे बिना बहुत बेचैन थी. तुम्हें पाने के लिए पहले मैं ने तुम को मरा बताया, तब कहीं जा कर जिंदा पाया.’’

मौत पर मौज : रघू के दर्द पर किसकी बांछें खिली

रघु का बापू मर गया. गांव के सब लोग आ कर रघु को धीरज बंधा रहे थे.  गांव का सेठ दीनदयाल भी आया. वह रघु से 20 हजार रुपए मांगने लगा.

रघु के बाप ने एक बार रघु के इलाज के लिए पैसे लिए थे. ब्याज दर ब्याज बढ़ कर अब वे 20 हजार रुपए हो गए थे.

बैठते ही सेठ दीनदयाल ने कहा, ‘‘रघु, यह दिन सभी को देखना पड़ता?है… इस में रोने की क्या बात है. जग की रीत तो सभी को निभानी पड़ती है.’’

‘‘सेठजी, मगर बापू की उम्र ज्यादा नहीं थी. अगर वे थोड़े दिन और जीते, तो आप का कर्ज उतार जाते.’’

‘‘होनी को कौन टाल सकता है. जो होना था, हो गया. अब तो उन का क्रियाकर्म करना बाकी है और फिर मेरा कर्ज भी उतर जाएगा.’’

‘‘मगर सेठजी, क्रियाकर्म और आप के कर्ज के लिए रुपया आएगा कहां से?’’ रघु ने अपनी चिंता जताई.

‘‘इस में चिंता की क्या बात?है… तेरे पास जमीन है.’’

‘‘3 बीघा जमीन से क्या होता है…’’ रघु ने कहा, ‘‘आप तो जानते?हैं, घर में 6 लोग हैं… उन का गुजारा ही बड़ी मुश्किल से होता है… उस पर यह क्रियाकर्म…’’

‘‘रघु, चिंता करने से कुछ नहीं होगा. तेरे बापू ने कभी चिंता नहीं की, जबकि उस ने तेरे लिए बहुत दुख देखे हैं…’’ सेठजी ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘क्या तू उन का अच्छी तरह क्रियाकर्म भी नहीं कर सकता? ऐसे में उन की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी? आत्मा बेचारी इधरउधर भटकती रहेगी.

‘‘इस से तू भी परेशान रहेगा और तेरे बालबच्चों समेत पूरे गांव वाले भी परेशान होंगे…’’ सेठजी ने रघु की नीयत भांपते हुए कहा, ‘‘रुपए की परवाह मत करना, मु?ो से बन पड़ा तो मैं ही दे दूंगा.’’

रघु सेठजी की बात सम?ा गया. वह उस की जमीन हड़पना चाहता था, ताकि वह जमीन ले कर उसी से उस जमीन में खेती करवा कर अच्छाखासा मुनाफा कमाए.

इसलिए रघु ने पूछा, ‘‘मगर आप मु?ो रुपए किस शर्त पर देंगे? मेरे पास तो कुछ भी देने को नहीं है?’’

‘‘अरे, रघु कैसी बात करता है, तेरे पास सबकुछ है. फिर तेरा बाप तेरे लिए 3 बीघा जमीन छोड़ गया है, उसे गिरवी रख कर रुपए ले जाना. जब रुपए आ जाएं, तो जमीन छुड़ा लेना,’’ सेठजी ने कहा, तो रघु सम?ा गया कि वह दिन कभी नहीं आएगा, जिस दिन वह अपनी जमीन सेठ दीनदयाल से छुड़ा पाएगा.

वह सोच में डूब गया कि क्रियाकर्म करना जरूरी है. अगर वह ऐसा नहीं करेगा, तो गांव में कोई उस की मदद नहीं करेगा. यहां तक कि उसे गांव या जाति से बाहर कर दिया जाएगा.

रघु को खेतीबारी के लिए सभी का सहयोग चाहिए था. बिना सहयोग के खेतीबारी नहीं होती?है. बीज, पानी, मजदूर और रुपएपैसे, ये सब गांव से ही मिल सकते हैं.

यदि वह क्रियाकर्म करता है, तो उस की एकमात्र पूंजी वह जमीन सेठ के पास चली जाती है. तब वह एक मजदूर बन कर रह जाएगा. तब वह अपनी माली हालत कैसे सुधार पाएगा, क्योंकि उस पर कर्ज चुकाना और खेती करना कैसे मुमकिन है, यह बात वह अच्छी तरह जानता था.

वह सोच रहा था कि किसी तरह क्रियाकर्म टल जाता, तो उसे फायदा था. वह चाहता था कि मौत पर मौज न मनाई जाए. इस से गरीब आदमी मर जाता है. यह बात उस ने अपने कई दोस्तों को सम?ाई कि एक तो मरने वाले का दुख, ऊपर से कर्ज की मार. एक गरीब कैसे यह सह सकता है. मगर किसी ने उस की बात न मानी.

इस बारे में वह देर तक सोचता रहा, तो उसे लगा कि क्रियाकर्म न करना ही अच्छा है. मगर वह गांव वालों को नाराज भी नहीं करना चाहता था, इसलिए उस ने कोई बीच का रास्ता निकालने की सोची.

आखिरकार रघु को एक उपाय सूझ गया. वह बहुत खुश हुआ. उस ने पंडित रामसुख से बात की. फिर उन से अस्थि विसर्जन का मुहूर्त निकलवाया और तब हरिद्वार जाने की तैयारी करने लगा.

यह बात सुन कर गांव वाले बड़े खुश हुए कि चलो, रघु अपने बापू की अस्थियां गंगा में बहाने ले जा रहा है, इसलिए सभी ने उसे धूमधाम से विदाई दी. जिस से जो बन पड़ा, वह दिया, क्योंकि वह पहला आदमी था, जो पिता की अस्थियां मरने के तुरंत बाद हरिद्वार ले जा रहा था.

रघु बस में बैठ कर हरिद्वार चला गया. इस बात को तकरीबन 8 दिन हो गए, मगर रघु लौट कर न आया, जबकि उस के बापू के क्रियाकर्म का एक दिन बाकी रह गया था. इस वजह से सेठ दीनदयाल और पंडित रामसुख बहुत चिंता में थे.

उन्होंने बहुत सोचसम?ा कर चौपाल पर गांव वालों की एक बैठक बुलाई, जहां पर यह फैसला होना था कि रघु के बाप के क्रियाकर्म का क्या होगा? अगर रघु नहीं आया, तो क्या किया जाएगा?

पंडितजी अपनी दानदक्षिणा की चिंता में थे. उन्हें क्रियाकर्म के दिन पलंग, बिस्तर वगैरह मिलना था, जबकि सेठ दीनदयाल की निगाह रघु की 3 बीघा जमीन पर थी.

गांव वाले इसलिए चिंता में डूबे थे कि अगर रघु ने बापू का क्रियाकर्म न किया, तो गांव में उस की आत्मा कहर ढा सकती है, इसलिए गांव में चौपाल पर बैठक जमा थी.

तभी सामने से डाकिया आता दिखाई दिया. उस ने सेठजी, पंडित रामसुख और सभी गांव वालों के लिए 3 निमंत्रणपत्र दिए.

निमंत्रणपत्र में लिखा था, ‘गांव दैपालपुर को बड़ी खुशी के साथ सूचित किया जाता है कि मेरे बापू किसनाजी की आत्मा की शांति के लिए हरिद्वार के सर्वसिद्ध परम योगेश्वरजी महाराज की इच्छानुसार हरिद्वार में 18 जून, 2013 को क्रियाकर्म संपन्न होना तय हुआ है.

आप सब महानुभावों से करबद्ध निवेदन है कि यहां पधार कर मेरे बापू की आत्मा को मोक्ष प्रदान करने में सहयोग करें.

एक शोकाकुल पुत्र का निवेदन.

रघु,

गांव दैपालपुर,

हाल मुकाम,

हर की पौड़ी,

हरिद्वार.’

निमंत्रणपत्र पढ़ कर सेठजी और पंडितजी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. मगर गांव वाले खुश थे कि चलो, रघु अपने पिता का क्रियाकर्म भी हरिद्वार में कर रहा है.

इधर रघु खुश था कि मौत पर मौज मनाने वालों की इच्छा पूरी नहीं हो पाई, क्योंकि वे 8 सौ किलोमीटर दूर आने से तो रहे. साथ ही, उस की जिंदगीभर की कमाई देने वाली जमीन भी लुटने से बच गई.

मुहिम : जमींदार बाबू का घोड़ा

देश में बदलाव की नई बयार बह रही थी और जाहिर है कि हर नई हवा का असर पहलेपहल शहरों और उन के नजदीक के गांवों तक आता है. इसी तरह यह असर समोहा गांव तक भी आया और जहां पहले जमींदार और उन के चुनिंदा कारिंदे ही थोड़ेबहुत पढ़ेलिखे थे, वहां अब आबादी का 60 फीसदी हिस्सा पढ़लिख गया था.

अब तो गांव की लड़कियां भी पढ़नेलिखने में काफी आगे निकल गई थीं. यहां तक कि बैजू मास्टर की बेटी कांती पढ़ाई के साथसाथ खेलकूद में भी काफी आगे निकल गई. उसे लंबी दौड़ में कमिश्नरी लैवल पर इनाम मिला. जब वह सवेरे सड़क पर दौड़ लगाती, तो साथ में 3-4 और लड़कियां भी होतीं.

लड़कियों की देखादेखी एक महीने बाद लड़कों ने भी इसी उछलकूद में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी.

गांव के बाहर मैदान में 2 खंभे गाड़े गए, जिन में सांझ को वौलीबौल का नैट बांधा जाता और खेल चालू हो जाता. छोटेछोटे बच्चे जमा हो कर ताली पीटते. गांव की सारी रौनक ही जैसे वहां जमा हो जाती.

पुराने जमींदार शिवधर सिंह का पोता अनिल इस आयोजन की जान होता था. लंबा, छरहरा, गोरा, सलोने चेहरे वाला अनिल पढ़ाई के मामले में भी किसी से पीछे नहीं था.

पहले तो लड़कियों की दौड़ वगैरह पर गांव वालों ने नाकभौं चढ़ाई और कहा, ‘यह उलटा नाच किसी भले काम के लिए नहीं हो रहा है.’

मगर जब लड़कों का खेल क्लब तैयार हो गया और उस क्लब की अगुआई अनिल करने लगा, तब जमींदार साहब को भी मजबूरन कहना पड़ा, ‘खेलकूद से तंदुरुस्ती बनती है और नौकरी वगैरह में भी काफी सहूलियत हो जाती?है.

‘हमारा अनिल तो शुरू से ही पुलिस अफसर बनने लायक लगता है. अब खेलकूद की वजह से तो वह सीधे कप्तानी करेगा.’

हालांकि जब केवल लड़कियां ही खेलकूद में दिलचस्पी लेती थीं, तब उन का कहना था कि यह सब लड़कियां बिगड़ कर रहेंगी. सालभर में भागमभाग न लग जाए, तो देखना.

गांव के बहुतेरे लोगों की भी यही राय थी. वे लड़कियों को घर की दहलीज से बाहर नहीं देखना चाहते थे. मगर खुलेआम राय जाहिर करना उन के बस की बात नहीं थी और छिप कर चलने वाली चर्चा भला कहीं रुक पाती है? यहां भी कैसे रुकती? ऐसे लोगों का हालांकि खेलकूद से कोई वास्ता नहीं था, मगर कुढ़ने से तो था.

यह कुढ़न तब और बढ़ गई, जब एक ही मैदान में लड़कियों का भी खेल का अभ्यास शुरू हो गया.

अनिल ने घर आ कर बैजू मास्टर की बेटी कांती को उसी मैदान में खेल के अभ्यास का न्योता देते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी देखादेखी लड़कों में भी खेल भावना जागी है. अगर तुम सभी वहां खेलो, तो खेल का लैवल उठ सकेगा. हर तरफ लड़केलड़कियों की बराबरी की बात होती है, इसलिए बराबरी के जमाने में भेदभाव की क्या जरूरत?’’

मास्टर हो जाने के बावजूद बैजू मास्टर पुराने समय के असर वाले और जमींदार का दबदबा देखे हुए इनसान थे. यह बात और थी कि उन्होंने नए जमाने की हवा को पहचाना था.

गांव में पहलेपहल बेटी को ऊंची तालीम दी थी और नई हवा को वे दकियानूसी निगाह से न देख कर समाज के लिए कल्याणकारी मानते थे.

उन्होंने अनिल की बात मान ली. कांती ने भी खुशीखुशी अनिल की पेशकश का स्वागत किया. उस के बाद कांती के हाथ की बनी चाय पी कर जब अनिल चला गया, तो दलित तबके के बैजू मास्टर का रोमरोम पुलक रहा था. उन्हें लग रहा था कि सचमुच नई हवा में दम है, वरना उन की छुअन से भी परहेज बरतने वाले जमींदार का पोता यहां चाय कैसे पीता?

बैजू मास्टर को कई लोग आगाह कर चुके थे कि लड़कों के साथ लड़की का इतना घुलनामिलना, मेलमुहब्बत ठीक नहीं है. लड़के का कुछ बिगड़ता नहीं, जबकि लड़की बरबाद हो जाती है. मगर मास्टर साहब को कांती पर भरोसा था. उन्हें अनिल की शराफत पर भी पूरा यकीन था.

अनिल और कांती दोनों ने एकसाथ फर्स्ट डिवीजन में एमए का इम्तिहान पास किया. दोनों एकदूसरे को गहराइयों से चाहने लगे. लेकिन उन की चाहत में छिछोरापन न था.

वे थके पंछी की तरह अब जैसे अलसा कर एक डाल पर ही बैठने को अधीर हो उठे. आंखों की भाषा कब अधरों तक आई, यह तो नहीं कहा जा सकता, मगर जब कांती का नाम पीसीएस में आ गया, तो उस ने अनिल से शादी करने का बाकायदा ऐलान कर दिया.

गांव में कांती के पीसीएस बनने की खबर फैलने से पहले जमींदार परिवार के साथ एक दलित लड़की के ब्याह की बात गांवभर में गूंज गई.

जिसे देखो, उस के मुंह से यही चर्चा, लेकिन इतने नए विचार अभी गांव वालों के गले नहीं उतर पा रहे थे.

यह खबर जमींदार बाबू शिवधर सिंह तक पहुंची. उन्हें लगा कि जन्मभर की ठकुरा शान एक ही बार में जिबह हुई जा रही है.

उन्होंने कहा, ‘‘अनिल की यह हैसियत नहीं कि वह मेरी इच्छा के खिलाफ चूं तक कर सके. जिस दिन ऐसी नौबत आएगी, उस दिन मेरी बंदूक में 2 गोलियां मौजूद होंगी.’’

इन गोलियों की चर्चा बैजू मास्टर तक पहुंची और उन्होंने अनिल से ब्याह की दिली इच्छा रखते हुए भी खूनखराबे के डर के चलते कांती से अपने फैसले पर दोबारा विचार करने को कहा. पर न तो कांती अपने फैसले से टस से मस हुई और न ही अनिल.

अनिल से उस के दादा शिवधर सिंह ने कहा, ‘‘अभी तू मेरी जायदाद की बदौलत अंगरेजी बोलता है. अगर तू ने यह जिद न छोड़ी, तो मैं तुझे दानेदाने को मुहताज कर दूंगा.

‘‘वह भुक्खड़ परिवार की बेटी, जो जायदाद के चलते ही तेरे पीछे पड़ी है, खुद तुझ से बात करना बंद कर देगी. कुछ समझ? लाठी भी नहीं टूटेगी, सांप भी मर जाएगा. 2 गोलियां बरबाद करने से क्या फायदा?’’

तब अनिल ने पक्के इरादे के साथ कहा, ‘‘दादाजी, अब तो आप समझदारी की बात करने लगे हैं. गोली से चल कर जतन पर उतर आए हैं.

‘‘मेरी एक बात सुन लीजिए… न तो मुझे और न कांती को आप की जायदाद से एक पैसा चाहिए. दुनिया में इतने सारे लोग क्या जायदाद ले कर ही पैदा होते हैं? अपने हाथपांव का भरोसा ही सब से बड़ा भरोसा होता है.

‘‘फिर भी आप की जानकारी के लिए बता दूं कि कांती डिप्टी कलक्टरी पास कर चुकी?है और मुझे भी कहीं न कहीं दो रोटियों का जुगाड़ हो ही जाएगा. मैं ऐसी जगह को दूर से ही सलाम करता हूं,’’ यह कह कर वह वहां से तीर की तरह से निकल आया.

अनिल जाने को तो चला गया, पर जमींदार बाबू के दिल को हिला गया.

जमींदार के साथसाथ वे ममता से भरे दादा भी थे, जिन्होंने बेटे के न रहने पर पोते की परवरिश की थी. उन का दिल पोते के प्रेम और मर्यादा दोनों की तुलना बन गया.

लेकिन थोड़ी ही देर में वे एक निश्चय पर पहुंच गए. उन्होंने अपनी राइफल कंधे पर टांगी. उन के सिर पर पगड़ी थी और पैर घोड़े की रकाब पर थे.

इधर बैजू मास्टर के घर में अनिल कह रहा था, ‘‘मुझे दादाजी ने जायदाद से बेदखल कर दिया है. मैं इस समय केवल अनिल हूं, जो कांती को प्यार और विश्वास की छांव जरूर दे सकता?हूं, लेकिन जायदाद नहीं.

‘‘आप लोग इस मुगालते में भी न रहिएगा कि मैं कांती के डिप्टी कलक्टरी में आ जाने की वजह से शादी के लिए तैयार हूं. दरअसल, यह बात महीनों पहले हम दोनों में तय थी. आज अफसरी पाने की खुशी में इस के मुंह से निकल गई.’’

बैजू मास्टर मुसकराते हुए बोले, ‘‘यह पीसीएस में आई है, तो तुम आईएएस में आओगे. जब तुम्हारे साथ जायदाद थी, तब जरूर मुझे हिचक हो रही थी कि लोग कहेंगे, मास्टर ने जायदाद के लोभ में लड़की का संबंध अनिल के साथ करना चाहा. मगर अब मुझे इस रिश्ते पर कोई एतराज नहीं है.

‘‘जमींदार बाबू बड़े आदमी हैं, उन के पास जायदाद है, पर मेरे पास भी तुम्हारे लिए नमक, रोटी की कमी नहीं है. उन्हें ठसक ज्यादा प्यारी है और मुझे औलाद की खुशी.’’

तभी जमींदार बाबू का घोड़ा सामने से आता दिखाई पड़ा. उन की फरफराती हुई सफेद मूंछें एक दहशत सी पैदा कर रही थीं.

राइफल देख कर एकबारगी तो बैजू मास्टर सिर से पैर तक कांप गए. मगर दूसरे ही पल उन्होंने सोचा कि मैं पत्नी समेत कांती और अनिल के आगे आकर उन की हिफाजत करूंगा. अपने जीतेजी औलाद की तमन्नाओं का खून नहीं होने दूंगा.

जमींदार बाबू ने पास आ कर घोड़े पर बैठेबैठे ही कहा, ‘‘मैं और मेरी जायदाद दोनों से ही तो सब को चिढ़ है. मेरे दिल में जैसे औलाद का दर्द ही नहीं है… और मेरी जायदाद जैसे तुम लोगों की है ही नहीं. मुझे कौन छाती पर लाद कर ले जानी है… आज मरा कल दूसरा दिन… 70 तो पार कर ही चुका हूं.’’

फिर कुछ पल रुक कर वे आगे बोले, ‘‘बैजू, वाकई मास्टर तो तुम्हीं

हो. हमारे पोते और बहू दोनों को अपनी ओर मिला कर मुझ बूढ़े को अकेला छोड़ दिया.

‘‘अरे, पहले कभी बात तो चलाई होती… इतनी जल्दी तो कोई अदालत भी फैसला नहीं सुना सकती. अब अपनी गलती की जिम्मेदारी मुझ पर डाल रहे हो.’’

उन्होंने जेब में हाथ डाल कर एक अशरफी निकाली और बोले, ‘‘ले बहू, अभी एक से ही सब्र कर… मेरी संदूकची की चाबी तो यही हजरत कहीं रख आए हैं. बहू की दिखाई भी ढंग की नहीं होने दी,’’ फिर वह अनिल से डपट कर बोले, ‘‘ले राइफल, और इस मुबारक मौके पर दनादन फायर कर… और घर चल कर मेरी चाबी भी दे. आज ही ब्याह होना है और सारा इंतजाम करना है.’’

अनिल ने उन के पैर छूने को हाथ बढ़ाए, तो वे रोब से बोले, ‘‘पहले फायर कर…’’

बैजू मास्टर और कांती के साथ उस की मां भी उन के पैरों पर झाकी थी. उन्हें जमींदार के दिल में उगे एक सच्चे इनसान ने बरबस झांका दिया था.

जमींदार बाबू के आंसू बह रहे थे और रुंधे गले से क्या आशीर्वाद दे रहे थे, इसे फायरों की ‘तड़तड़’ की आवाज के चलते किसी ने न सुना.

अगले पल कांती के मातापिता और जमींदार बाबू के चेहरे पर एक जंग जीतने जैसी खुशी नजर आ चुकी थी. ऐसा लग रहा था, जैसे वे एक नई मुहिम पर जाने के लिए कदमताल कर रहे हों, कुछ ही पलों में उन के कदम आगे बढ़ने वाले हों.

छोटे लोग : रिटायर्ड फौजी विद्या प्रकाश का दर्द

फौज की नौकरी से रिटायर होने के बाद विद्या प्रकाश ने एक सोसाइटी में चौकीदार की नौकरी कर ली थी. रोजाना की तरह आज भी सुबह तड़के ही उठ कर उस ने कसरत की, पर सैर को नहीं निकला, क्योंकि बाहर रात से ही तेज बारिश हो रही थी. फिर नहाधो कर उस ने वरदी के साथ गमबूट पहने और हैट लगाई. आज भी वह 55 की उम्र में 45 साल का लगता है.

विद्या प्रकाश ने ठीक 8 बजे रसोईघर में झांका. पत्नी राधा अभी नहा रही थी. वह तुनक कर बोला, ‘‘कितनी बार कहा है कि खाना समय पर दे दिया करो, पर तुम्हें कौन समझांए. कभी भी समय की कद्र नहीं करती हो.’’

‘‘5 मिनट रुको, चपाती बनानी है. सब्जी तैयार है. वैसे भी आप की ड्यूटी का टाइम 9 बजे से है,’’ राधा बाथरूम से निकलते हुए बोली.

‘‘मैं लेट हो रहा हूं. पहले मुझे मेजर साहब के बंगले पर भी जाना है.’’

‘‘जल्दी जाना था, तो पहले बता देना चाहिए था,’’ चपाती बनाते हुए राधा बोली.

विद्या प्रकाश निकलने लगा, तो बारिश देख कर छाता लेने अंदर लौट आया. तब तक राधा ने खाने की प्लेट हाथ में दे दी.

‘‘यह क्या तरीका है खाना देने का,’’ राधा को घूरते हुए विद्या प्रकाश ने जल्दीजल्दी गुस्से में थोड़ा सा खाना खाया और बाहर निकल आया.

राधा उस के इस बरताव से झंझला गई और मन ही मन बोली, ‘नौकरी के बाद भी कभी प्यार से बात नहीं की.’

जिस सोसाइटी में विद्या प्रकाश चौकीदार है, उस से एक लेन पहले बड़ीबड़ी कोठियों वाली कालोनी है. वहां 7वें नंबर वाली कोठी के गेट में वह दाखिल हो कर अभी लान में खड़ा ही हुआ था कि उस ने मालिक मेजर साहब को अपनी पत्नी पर चिल्लाते हुए सुना.

एक भद्दी सी गाली देने के बाद मेजर साहब की आंखें गुस्से से लाल हो गईं और नथुने फूल गए. वे गरज उठे, ‘‘तुम अपनी कमाई का जो रोब डालना चाहती हो, वह मुझ पर नहीं चलेगा. आज तुम अगर नौकरी कर रही हो तो मेरी बदौलत. मैं तुम्हें इजाजत नहीं देता, तो तुम घर के बाहर कदम भी नहीं रख सकती थी और आज मुझे जता रही हो कि परिवार का स्टैंडर्ड भी तुम्हारी कमाई से सुधरा है. कहे देता हूं कि अपनी औकात मत भूलो, वरना…’’

पर चौकीदार को सामने देख कर मेजर साहब ने अपनी लाल आंखों और फूले हुए नथुनों को सामान्य करने की कोशिश की और अपनी पत्नी को अंदर जाने का इशारा करते हुए धीरे से बोले, ‘‘तुम अंदर जाओ. ये छोटे लोग होते हैं. इन से मैं बात करता हूं.’’

मेजर साहब की पत्नी इतनी डांट सुनने के बाद अपनी जगह से अभी हिल भी नहीं पाई थीं कि विद्या प्रकाश बगीचे में रखी कुरसी के पास पहुंच गया. वह यह सब देख कर हैरत में था.

मैडम अपने आंसुओं को पी कर बोलीं, ‘‘विद्या प्रकाश, आप बैठिए. मैं आप के लिए चाय बनवाती हूं.’’

‘‘नहीं, मैडमजी. मैं आप से ही बात करने आया हूं. मेरे भाई ने आप को धन्यवाद देने को कहा है. अगर आप ने उस दिन बैंक में उस की मदद न की होती, तो उस की बेटी समय पर होस्टल की फीस न भर पाती.’’

मैडम ने बीच में ही विद्या प्रकाश को रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, इस में एहसान मानने की कोई जरूरत नहीं है. उन की मदद कर के मुझे अच्छा लगा था.’’

‘‘ये 10,000 रुपए भेजे हैं उस ने,’’ पैसे थमा कर विद्या प्रकाश हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘इजाजत दीजिए, अब मैं चलता हूं. ड्यूटी पर भी पहुंचना है.’’

रास्ते में विद्या प्रकाश की आंखों के सामने मैडम का आंसुओं को थामे रखने वाला चेहरा छा गया. उन की आंखें उसे अंदर तक झंकझोर गई थीं, लेकिन मेजर साहब के धीरे से फुसफुसाए शब्द ‘ये छोटे लोग होते हैं’ उस के मन में कांच के टूटे टुकड़ों की तरह चुभ रहे थे.

विद्या प्रकाश का मन आज काम में नहीं लग रहा था. उस ने आधे दिन की छुट्टी ली और घर आ गया. घर में राधा सोई हुई थी. उस ने बैंक की पासबुक निकाली और बैंक चला गया.

विद्या प्रकाश बैंक से लौट कर घर आया, तो राधा बेसब्री से उस का इंतजार कर रही थी. वह बोली, ‘‘सुनो, मेरे बैंक अकाउंट में सिर्फ 8,000 रुपए ही थे. देखो, फोन में मैसेज आया है. समझ नहीं आ रहा है. शायद मुझे गलती से किसी और का मैसेज आ गया है. इतने सारे पैसे किस के हैं?’’

‘‘किसी और का मैसेज नहीं है, बल्कि मैं ने ही तुम्हारे अकाउंट में रिटायरमैंट के सारे पैसे ट्रांसफर करवा दिए हैं. अब से मेरी पैंशन भी तुम्हारे ही अकाउंट में आएगी.’’

‘‘पर क्यों…?’’ राधा थोड़ा चौंक कर बोली.

‘‘तू ही रोजरोज बोलती रहती है कि मैं दारू पी कर सारी कमाई उड़ा दूंगा. मैं ने यह झगड़ा ही खत्म कर दिया. न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.’’

‘‘पर, वह तो मैं कई सालों से बोल रही हूं, फिर आज ऐसा क्या हुआ जो…’’

राधा को बीच में ही टोकते हुए विद्या प्रकाश बोला, ‘‘बस, यह समझ लो कि मुझे आज कोई बड़ी सीख मिली है. असल में मैं ने आज तक जो भी कमाया है, वह तुम्हारे सहयोग के बिना मुमकिन नहीं था. इस पर तुम्हारा हक ज्यादा है. सुबह तुम पर जो गुस्सा किया, उस के लिए माफ कर देना,’’ कह कर विद्या प्रकाश सुकून सा पा गया.

विद्या प्रकाश का मन अब छोटेपन के एहसास से उबर चुका था. उसे अपना कद मेजर साहब के कद से बहुत ऊंचा महसूस हो रहा था.

कुलदीपक : शपांडे साहब का वंश

मुंबई का एक भीड़ भरा इलाका. सुबह के तकरीबन 8 बज रहे थे. शबनम सड़क पर तेजी से चलती चली जा रही थी. रातभर जम कर हुई बारिश ने अब जरा राहत की सांस ली थी. 4 महीने धूप में तपी धरती को अब जा कर कहीं थोड़ा चैन मिला था.

आसमान में अब भी बादलों की लुकाछिपी का खेल चल रहा था. पानी अब बरसा कि तब बरसा, कुल मिला कर यही माहौल बन चला था.

शबनम शिवाजी नगर चौक तक पहुंच चुकी थी. वह अमीर लोगों की बस्ती थी. प्रोफैसर, वकील वगैरह सब के दोमंजिला मकान. शबनम उस दोमंजिला बंगले के सामने जा रुकी, जो देशपांडे का था.

बंगले के सामने खूबसूरत बगीचा था, जिस में चमेली, गेंदा, गुड़हल वगैरह के फूल खिले थे. फूलों की खुशबू का एक ?ोंका शबनम की नाक को छू गया.

शबनम ने दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद एक खूबसूरत अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला.

‘‘आप को किस से मिलना है?’’ उन्होंने शबनम से पूछा.

‘‘मैं… मैं शबनम. अम्मां बीमार हैं… इसलिए मैं काम करने आई हूं मैडम,’’ डरतेडरते शबनम एक आवाज में कह गई.

‘‘आ जा फिर भीतर… आ… क्या हुआ तेरी अम्मां को?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘बुखार है,’’ शबनम की आवाज में चिंता थी.

‘‘अरे सुनंदा, कौन है?’’ यह कहते हुए देशपांडे साहब भी अब तक बाहर के कमरे में आ गए थे.

उन्होंने शबनम की तरफ देखा, तो देखते ही रह गए. ऊंची कदकाठी, गोरी, चंपा के फूल की तरह नाक, बिल्लौरी आंखों वाली शबनम.

कुदरत का खेल भी कितना निराला होता है. कीचड़ में कमल खिलता है… शबनम नाम का वह कमल गरीबों की बस्ती में गरीबी से जूझती एक झोंपड़ी में खिला था.

देशपांडे साहब के एक ही बेटा था. वह 16 साल का था, जो मंदबुद्धि था. उस का पुणे के एक मशहूर डाक्टर के यहां इलाज चल रहा था.

पिछले 10 साल से वह वहीं उस डाक्टर की निगरानी में रह रहा था. इतने नामचीन प्रोफैसर का बेटा, बेतहाशा दौलत का मालिक… लेकिन दिमागी तौर पर विकलांग था.

बाहर अब जोरदार बारिश होने लगी थी. शबनम जल्दीजल्दी घर के काम निबटाने में लगी थी. उसे यहां से जल्दी से जल्दी निकल कर अपने घर पहुंचना था. इस बड़े बंगले में उस का दम घुट सा रहा था.

देशपांडे साहब की वह गरम नजर मानो उस के बदन पर डंक मार रही थी. इसी विचार में खोएखोए उस ने सारे काम निबटा डाले.

शबनम जब अपने घर पहुंची, तो अम्मां बैठी उस का इंतजार कर रही थीं.

‘‘अम्मां… अब कैसा लग रहा है?’’ पूछते हुए उस ने अपनी मां को खाना परोसा, फिर दवाएं खिलाईं.

‘‘अम्मां, ये गोलियां खा कर जल्दी ठीक हो जाओ. मुझेअच्छा नहीं लगता यह सब काम करना… अब मेरा कालेज भी शुरू होने वाला है.’’

‘‘क्या हुआ शबनम बेटी?’’ अम्मां को उस की चिंता खाए जा रही थी. जवान बेटी को इस तरह लोगों के घर पर काम करने के लिए भेजना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था, पर कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था. सच, गरीबी बहुत बुरी चीज है.

शबनम जब 2 साल की थी, तभी उस के अब्बा चल बसे थे. अम्मां ने लोगों के घरों में झाड़ूपोंछा कर के शबनम को पालापोसा, पढ़ाया था. अब वह 12वीं जमात में है. उस की पढ़नेलिखने में बेहद दिलचस्पी है और वह खूब होशियार भी है.

8 दिन हो गए आज. शबनम की अम्मां का बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. अच्छे डाक्टर के पास दिखाने के लिए पैसे चाहिए, जो उस के पास नहीं थे.

इसी सोच में डूबतीउतरती शबनम देशपांडे साहब के बंगले पर पहुंची. दरवाजे की घंटी दबाई, दरवाजा देशपांडे साहब ने खोला.

‘‘मैडम…मैडम…’’ पुकारती हुई वह भीतर चली गई.

‘‘बंटी से मिलने के लिए वह पुणे गई है,’’ देशपांडे साहब ने उसे बताया. अब देशपांडे साहब घर में अकेले ही हैं. शबनम के मन को एक अजीब से डर ने दबोच लिया.

‘आज किसी तरह जल्दी से जल्दी काम निबटा लूं, कल से नहीं आऊंगी,’ अपने मन को यह सम?ाते हुए वह काम में जुट गई.

वह रसोई में पहुंची. पीछे से देशपांडे साहब भी वहां आ गए.

‘‘शबनम, चाय लोगी?’’ पूछते हुए उन्होंने गैस स्टोव सुलगा कर दूध गरम करने रख दिया. फिर चाय बना कर एक कप शबनम को थमा दिया और एक कप खुद ले कर सुड़कने लगे.

चाय पी कर वे आराम करने के लिए बैडरूम में चले गए.

‘‘साहब, कमरा साफ करना है… आप बाहर आ जाएं,’’ शबनम ने कहा.

‘‘आ ना… आ शबनम…’’ उन्होंने अलसाई सी आवाज में कहा और फिर करवट बदल ली.

लिहाजा, शबनम बैडरूम में दाखिल हो गई. उस के भीतर आते ही साहब ने झट से उठ कर दरवाजा बंद कर लिया और उस के संग जबरदस्ती करने लगे.

उम्र के लिहाज से वह उन की बेटी की तरह थी, लेकिन इनसान की नजर में जब वासना के डोरे उतर आते हैं, तब हैवानियत के कीड़े दिमाग में घुस कर उसे पूरी तरह शैतान बना देते हैं.

बेचारी शबनम उस ताकतवर राक्षस के आगे कुम्हला कर रह गई. उस की अनमोल इज्जत लुट गई.

देशपांडे साहब ने अब उस की अम्मां को इलाज के लिए एक बड़े अस्पताल में ले जा कर दिखा दिया था. वहां उन का अच्छी तरह इलाज चल रहा था, यहां शबनम रोजाना कोल्हू के बैल की तरह पिस रही थी.

8 दिन बाद देशपांडे मैडम अपने बेटे से मिल कर लौट आईं. वे खूब दुखी लग रही थीं.

एक दिन शबनम अपनी अम्मां को फलों का जूस बना कर दे रही थी, अचानक उस का जी मिचलाने लगा. वह बाथरूम की ओर दौड़ी और उलटी कर दी.

अम्मां की अनुभवी निगाहों ने जल्दी ही यह ताड़ लिया कि ये उलटियां सादा नहीं हैं.

‘‘शबनम, क्या हुआ बेटी?’’ अम्मां ने खूब पूछापुचकारा, लेकिन शबनम के मुंह से एक भी बोल न फूटा. बेटी ने अनमोल इज्जत गवां दी, खानदान की नाक कटवा दी, भीतर ही भीतर इस बेइज्जती में घुट कर आखिरकार अम्मां ने दम तोड़ दिया.

शबनम की अम्मां को गुजरे आज 40 दिन हो गए थे. उस ने देशपांडे साहब को अपने घर बुलाया था.

‘‘शबनम, मुझे पता है कि तेरे पेट में पल रहा बच्चा मेरा ही है. मैं इस बच्चे को और तुझे अपनाने को राजी हूं. तू इसे जन्म दे, शब्बो, मुझे वंश चलाने के लिए चिराग दे, कुलदीपक दे…’’ देशपांडे साहब ने भावुक हो कर उस से कहा.

फिर जल्दी ही एक दिन उन्होंने शबनम से एक मंदिर में शादी कर ली. उसे रहने के लिए अलग से एक मकान ले कर दे दिया.

9 महीने बाद शबनम ने एक बेटे को जन्म दिया. देशपांडे साहब को वंश चलाने के लिए चिराग मिल गया था, अपना कुलदीपक.

कमली बदचलन नहीं : फिर एक ब्याहता कैसे फिसली

कमली ने दरवाजे की दरार से ही झांक लिया था कि बाहर धरमराज खड़ा है, फिर भी दरवाजा खोलने पर वह ऐसे चौंकी, जैसे चोरी करते हुए रंगेहाथ पकड़ ली गई हो.

कमली मुंह पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘हाय, तो तुम हो… मैं इतनी देर से पूछ रही हूं, बोल भी नहीं सकते थे कि मैं हूं.’’

धरमराज ने अंदर आते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है चाची, मेरा आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

बोलतेबोलते धरमराज की नजर जब कमली पर पड़ी, तो वह ठगा सा उसे देखता रह गया.

कमली शायद उस समय नहा रही थी और यही वजह थी कि उस ने उस समय साड़ी के नीचे कुछ भी नहीं पहन रखा था.

जिस्म पर चिपके हुए गीले आंचल ने उस समय धरमराज को मदहोश कर दिया. वह फटी आंखों से कमली को देखता ही रह गया.

कमली ने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘इस तरह क्या देख रहे हो? बड़े बेशर्म हो तुम. बैठो, मैं नहा कर आती हूं…’’

इतना कह कर कमली फिर से नहाने को मुड़ी, लेकिन धरमराज ने उस का हाथ पकड़ कर रोक लिया.

उस समय धरमराज की आंखें लाल सुर्ख हो रही थीं और सारा बदन जोश के मारे कांपा जा रहा था. उस ने आव देखा न ताव तुरंत कमली को अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘जो नहाना था, वह तुम नहा चुकी हो, इसलिए अब तुम्हें मैं नहलाऊंगा…’’

कमली सिकुड़ते हुए बोली, ‘‘बड़े बेशर्म हो जी तुम… हटो, मुझे कपड़े तो पहन लेने दो…’’

‘‘जल्दी क्या है… फिर पहन लेना कपड़े. इतनी गरमी है, थोड़ी देर ऐसे ही बदन ठंडा होने दो. फिर जो नहाना हम कराएंगे, उस में कपड़ों का क्या काम…’’ कहतेकहते धरमराज ने कमली को और जोर से भींच लिया.

कमली भी और दिखावा नहीं कर सकी और चुपचाप बांहों में समा गई. उस की छाती में नाखून धंसाते हुए वह बोली, ‘‘क्या कर रहे हो तुम? अभी कोई आ गया तो… बदनामी होते देर नहीं लगेगी…’’

‘‘आएगा कैसे… मैं ने तो दरवाजे पर पहले ही अंदर से कुंडी लगा दी है.’’

‘‘यानी तुम्हारी नीयत पहले से ही खराब थी…’’

‘‘चाची, मेरी नीयत डिगाने वाली भी तो तुम ही हो…’’

बात सच भी थी. कमली के पति मास्टर विद्याधर दुबे की एक शादी पहले ही हो चुकी थी. उन की पहली पत्नी जानकी देवी के बहुत दिनों तक जब कोई औलाद नहीं हुई, तब वे दूसरी शादी करने का पूरा मन बना चुके थे, लेकिन उन्हीं दिनों शादी के 8 साल बाद अचानक जानकी देवी पेट से हो गई, तो मास्टर साहब के मन की बात मन में ही रह गई.

मास्टर विद्याधर दुबे का बेटा मनोज अभी 10 साल का ही हुआ था कि अचानक जानकी देवी बीमार पड़ी और चल बसी. उस समय घर संभालने की समस्या सामने आ गई.

मास्टर विद्याधर दुबे कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे क्या करें, बेटे मनोज की उम्र भी अभी काफी कम थी. लेकिन अड़ोसीपड़ोसी दूसरी शादी करने की राय देने लगे, तो उन्होंने एक पल भी देर नहीं लगाई और 25 साल की कमली को दुलहन बना कर घर ले आए.

उस समय मास्टर विद्याधर दुबे की उम्र 43 पार कर चुकी थी. हिंदू धर्म ग्रंथों में कन्या के लिए दोगुनी उम्र का वर चल जाता है, लेकिन असल जिंदगी में इस की सचाई तो कोई कमली से पूछे.

दिनभर स्कूल में पढ़ाने के बाद कुछ ट्यूशन भी निबटा कर मास्टर विद्याधर दुबे थकेमांदे घर लौटते हैं, तो जवानी से उमड़ती 25 साला रूपसी पत्नी कमली को देखते ही उन की आंखें चमक उठतीं. कभीकभी तो वे कमली को देखते ही इतने बेताब हो उठते हैं कि खानेपीने तक का भी इंतजार करना उन के लिए मुश्किल हो जाता.

मास्टर विद्याधर दुबे बेचैनी से कमली को अपने पास खींच लेते और भूखे बालक की तरह मचलने लगते. कमली कितना भी मना करती रहे, लेकिन मास्टर विद्याधर दुबे मानमनुहार कर के उस के बदन से एकएक कपड़ा उतार देते और कहते, ‘‘एक बार मुझे जी भर कर देख लेने दो…’’

फिर वे कमली की देह पर उसी तरह से हाथ फेरते, जैसे कोई गाय को दुहने से पहले उस पर हाथ फिराता है.

लेकिन उन्हें उतना सब्र नहीं था, जितना होना चाहिए था. कमली की देह पर हाथ फिरातेफिराते अचानक बेचैन हो कर उस पर टूट पड़ते हैं, लेकिन पलभर बाद ही उन की मर्दानगी रूपसी कमली की जवानी की गरमी के सामने ज्यादा देर नहीं झोल पाती थी. कुछ ही देर की छेड़खानी के बाद वे पस्त हो कर एक ओर लुढ़क जाते. फिर उन्हें जाने कब गहरी नींद घेर लेती.

लेकिन प्यासी इच्छा की आग से तड़पती हुई कमली कभीकभी सारी रात करवटें बदलती रह जाती. हरदम लगता, जैसे बदन पर चींटियां रेंग रही हों.

कमली बदचलन नहीं है, लेकिन मन की तड़प ने तन की भूख मिटाने के लिए उसे रास्ता बदलने को मजबूर कर दिया.

धरमराज मास्टर विद्याधर दुबे का छात्र रह चुका था. उसी वजह से वह अकसर उन से बातें करने आ जाता था और गांव के नाते कमली को ‘चाची’ कह कर बुलाता था. लेकिन कमली ने लुभाना शुरू किया, तो धरमराज को समझाते देर नहीं लगी.

आखिरकार उस दिन मौका मिल ही गया. कमली नहा रही थी, तभी धरमराज आ पहुंचा. कमली ने जानबूझ कर गीले कपड़ों में दरवाजा खोल दिया, फिर तो जो कुछ हुआ, उस में कमली की पूरी तरह रजामंदी थी.

बहुत दिनों तक कमली और धरमराज का यह खेल चलता रहा, पर एक दिन अचानक मनोज ने उन दोनों को गंदी हरकत करते देख लिया. वह बोला, ‘‘तुम यह क्या कर रही हो नई मां? मैं अभी जा कर पिताजी से कहता हूं.’’

मनोज ने स्कूल में जब अपने पिता को सारी बात बताई, तो मास्टर विद्याधर दुबे को एकाएक भरोसा ही नहीं हुआ. फिर वे पैर पटकते हुए घर पहुंचे, तो बाहर दरवाजे पर ताला झेल रहा था.

उन्होंने धरमराज के घर जा कर पूछा, तो पता चला कि वह भी लापता है. शाम होतेहोते पूरे इलाके में यह खबर फैल गई कि मास्टर विद्याधर दुबे की दूसरी पत्नी कमली धरमराज के साथ भाग गई.

लेकिन किसी को ताज्जुब नहीं हुआ. जैसे सब पहले से ही जानते थे कि मास्टरजी ने ढलती उम्र में इतनी जवान लड़की के साथ घर बसाया है, तो एक दिन तो ऐसा होना ही था.

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कसौटी : कौन परख रहा था कामना को

प्लेटफार्म पर गाड़ी लगते ही कामना अपने पिता के साथ डब्बे की ओर दौड़ पड़ी. गरमी से उस के होंठ सूख रहे थे. सूती साड़ी पसीने में भीग कर शरीर से चिपक गई थी, पर उसे होश कहां था. यह गाड़ी छूट गई, तो उस का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा. किसी भी कीमत पर इस रेल में जगह बनानी ही होगी. बापबेटी दोनों अपनी पूरी ताकत से रेल में चढ़ने की नाकाम कोशिश करने लगे.

उसी डब्बे में एक सज्जन भी चढ़ने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच पैर फिसलने के चलते वे औंधे मुंह प्लेटफार्म पर लुढ़क गए. बापबेटी चढ़ना भूल कर उस गिरे हुए मुसाफिर की मदद को लपके.

दूसरे मुसाफिरों का चढ़नाउतरना लगातार जारी था. किसी ने भी मुड़ कर बेहोश पड़े हुए उन सज्जन को नहीं देखा. न किसी के पास समय था और न इनसानियत. कामना ने आव देखा न ताव और झुक कर उन बुजुर्ग को उठाने लगी.

‘‘पानी… पानी…’’ वे बुजुर्ग बुदबुदाए.

अगर कामना ने उन सज्जन के मुंह पर पानी का छींटा मार कर उन्हें भीड़ से उठा कर सीमेंट की बैंच पर लिटा नहीं दिया होता, तो वे मुसाफिरों के पैरों तले कुचले जाते.

ठंडे पानी के छींटों से वे सज्जन कुनमुनाए और ऊपरी जेब की ओर इशारा किया. कामना ने  झट से जेब में हाथ डाला. दवा की शीशी थी. चंद बूंद होंठों पर पड़ते ही वे बुजुर्ग उठ कर बैठने की कोशिश करने लगे.

इधर गार्ड ने हरी  झंडी दिखाई, सीटी दी और ट्रेन चल पड़ी. बापबेटी हड़बड़ा गए. गाड़ी पकड़ें या अनजान इनसान की मदद करें. मंजिल तक उन का पहुंचना बहुत जरूरी था वे कुछ फैसला लेने ही वाले थे कि उन बुजुर्ग ने कहा, ‘‘बेटी और एक खुराक दवा देना.’’

कामना उन्हें दवा खिलाने लगी. ट्रेन जा चुकी थी. बचे हुए तमाशबीन लोग उन के इर्दगिर्द जमा होने लगे थे.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कैसे गिर पड़े?’’

‘‘आप लोगों के साथ हैं क्या?’’

तरहतरह के सवाल बापबेटी के कानों से टकराने लगे. कुछ शोहदे नजदीक आने का प्रपंच करने लगे. गाड़ी खुलने के साथ ही बापबेटी के अरमानों का महल ढह गया. वे ठंडी सांस ले कर रह गए. मंजिल हाथ आ कर एक बार फिर फिसल गई थी.

यह अफसोस करने का समय नहीं था. वे दोनों उन सज्जन की तीमारदारी में लग गए. अनजान शहर में किसी तरह पूछताछ करते हुए एक डाक्टर के पास पहुंचे. डाक्टर भले इनसान थे. मुआयना कर के वे बोल उठे, ‘‘दिल का दौरा था. यह तो अच्छा हुआ कि इन्होंने समय पर दवा खा ली, वरना जान भी जा सकती थी.’’

वे बुजुर्ग सज्जन कामना और उस के पिता के प्रति कृतज्ञ हो उठे. डाक्टर ने उन्हें कुछ दवाएं दीं और खतरे से बाहर बताया. कुछ जरूरी हिदायतों के साथ उन्हें घर तक जाने की इजाजत दे दी.

दिल्ली जाने वाली दूसरी ट्रेन रात के 9 बजे थी. कामना और उस के पापा वापस जाने की सोचने लगे.

‘‘क्यों…? आप वापस किसलिए जा रहे हैं?’’ उन सज्जन ने पूछा.

‘‘अब दिल्ली जाने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि रात वाली गाड़ी कल शाम को पहुंचेगी और हमारा काम वहां दिन में 10 बजे तक ही था,’’ पिता की आवाज में उदासी थी.

‘‘ऐसा कौन सा काम था, अगर एतराज न हो तो मु झे बताएं,’’ उन सज्जन की उत्सुकता बढ़ गई.

‘‘एतराज कैसा, वहां एक फर्म में बिटिया का इंटरव्यू था. उम्मीद थी कि नौकरी मिल जाएगी, पर लगता है कि अब ऐसा नहीं हो पाएगा. खैर, आप की जान बच गई, यही इस सफर की उपलब्धि रही.’’

कामना उन बुजुर्ग सज्जन की सेवा में लगी थी, अब वापसी के लिए तैयार हो गई. बुजुर्ग सज्जन ने पहली बार बापबेटी को गौर से देखा.

‘‘कौन सी फर्म?’’

कामना से जानकारी पा कर वे सज्जन चिंता में पड़ गए. एक बेरोजगार के हाथ से नौकरी जाने की वजह अपनेआप को सम झ कर उन्हें आत्मग्लानि होने लगी.

‘‘सुनिए, आप दोनों मेरे साथ रात की गाड़ी से दिल्ली चलिए. वहां फर्म में अपनी समस्या बताएंगे तो शायद वे लोग आप को एक मौका दे दें,’’ उन बुजुर्ग ने कहा.

‘‘वहां कौन हमारी बात सुनेगा. इंटरव्यू तो सुबह 10 बजे ही है,’’ कामना ने कहा.

‘‘आप मेरी बात तो मानिए और दिल्ली चलिए. काम नहीं होगा तो लौट आइएगा. क्यों बिटिया, मैं ठीक कह रहा हूं न? नहीं तो मैं अपनेआप को माफ नहीं कर पाऊंगा,’’ अनायास वातावरण गंभीर हो उठा.

‘‘बाबा, चलिए एक बार हो आते हैं,’’ कामना ने अपने पिता से कहा.

‘‘पर, दिल्ली में आप लोग कहां ठहरेंगे?’’ उन बुजुर्ग ने पूछा.

‘‘दिल्ली में हमारा कोई परिचित नहीं है. उस फर्म में मिल कर स्टेशन आ जाएंगे और वापसी के लिए जो भी गाड़ी मिलेगी, पकड़ लेंगे,’’ कामना ने कहा.

‘‘कहीं रुकना पड़ा तो,’’ उन बुजुर्ग ने कहा, तो कामना के पिता का सब्र जवाब दे गया, ‘‘फर्म वाले हमें क्यों रोकेंगे? देर से जाने पर वैसे ही भगा देंगे.’’

बहरहाल, वे तीनों दिल्ली आ पहुंचे.

‘‘कृपया आप लोग मेरी गाड़ी से चलिए. मु झ पर भरोसा कीजिए,’’ उन बुजुर्ग ने हाथ जोड़ कर कहा. इस प्रस्ताव पर बापबेटी चौंक उठे.

‘‘नहींनहीं, हम आटोरिकशा से चले जाएंगे. आप कष्ट न करें,’’ कामना ने कहा.

‘‘इस में कष्ट कैसा? आप ऐसा न सम झें कि मैं आप के एहसान का बदला चुका रहा हूं. मेरी गाड़ी आई है और मैं दिल्ली का रहने वाला हूं, इसलिए आप की मुश्किल हल करने की छोटी सी कोशिश है.’’

उन बुजुर्ग की बातों ने बापबेटी को ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया. वे इनकार नहीं कर सके. नई चमचमाती विदेशी कार, वरदीधारी ड्राइवर को देख कर वे दोनों हैरान थे.

ज्यादा सोचनेसम झने का वक्त नहीं था. एक फाइवस्टार होटल के सामने कार रुकी. ड्राइवर को कोई जरूरी निर्देश दे कर वे बुजुर्ग कामना के पिता से बोले, ‘‘आप के लिए कमरा बुक है. जब तक चाहें रुकें. मेरा ड्राइवर आ कर उस फर्म तक ले जाएगा. गाड़ी आप के पास ही रहेगी. कामना जैसी आप की बेटी, वैसी ही मेरी.’’

कामना भावुक हो कर उन बुजुर्ग के पैरों पर  झुक गई, ‘‘चाचाजी, होटल का खर्चा हम देंगे. आप ने हमारे बारे में सबकुछ जान लिया है, पर अपने बारे में कुछ नहीं बताया.’’

उन बुजुर्ग सज्जन ने कहा, ‘‘बेटी, बातों में समय मत गंवाओ.’’

थोड़ी देर में गाड़ी फर्राटे से लहराती आगे बढ़ गई. फर्म पहुंच कर धड़कते दिल से वे दोनों सीढि़यां चढ़ने लगे.

‘‘कामना सिंह…’’ उस के पहुंचते ही कटे बाल, मिनी स्कर्ट वाली एक लड़की ने पूछा.

‘‘जी हां,’’ कामना ने कहा.

‘‘अंदर आइए, आप का इंतजार हो रहा है,’’ लड़की ने मधुर आवाज में कहा.

‘‘इंतजार और मेरा?’’ कामना बुदबुदाई.

कामना जब इंटरव्यू दे कर निकली तो उस के पैर जमीन पर नहीं थे. हाथ में पकड़ा हुआ नियुक्तिपत्र हवा में फड़फड़ा रहा था.

‘‘पिताजी, मु झे यह नौकरी मिल गई.’’

‘‘सच…’’ पिता को यकीन ही नहीं हुआ.

‘‘हां पिताजी, अच्छी सैलरी, फ्लैट अपने गांव के निकट वाले शहर में पोस्टिंग.’’

कालेसफेद मोतियों की तरह दिनरात बीतने लगे. आज कामना को नौकरी में आए

3 साल बीत गए. उस की शादी के रिश्ते आने लगे.

आज कामना की छुट्टी थी. वह घरेलू काम में जुटी हुई थी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी. आया ने किवाड़ खोल कर उसे आवाज दी. वह अपने आंचल से गीले हाथ पोंछ कर पीठ पर लहराते खुले बालों को समेटती हुई बैठक में पहुंची.

‘‘अरे, आप…’’ कामना को अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, मैं. कैसी हो बेटी?’’ वे वही बुजुर्ग थे, जिन की कामना ने जान बचाई थी.

भीतर आने के बाद वे बुजुर्ग देर तक उस के पिता से बातें करते रहे.

बात आईगई हो गई. एक जगह कामना के ब्याह की बात पक्की हो गई. ब्याह का न्योता उन बुजुर्ग सज्जन को देने की हार्दिक इच्छा थी, पर उन का अतापता कामना के पास नहीं था.

बरात आ गई. शहनाई की गूंज तेज हो गई. बैंडबाजे की धुन और फिल्मी गीतों पर लड़केलड़कियां डांस करने लगे. दुलहन बनी कामना का दिल तेजी से धड़कने लगा. वरमाला के लिए सहेलियां उसे मंडप की ओर ले चलीं. जयमाल के समय उस की निगाहें बरातियों की ओर उठी गईं. अगली लाइन में वही बुजुर्ग छींटदार साफा बांधे उस की ओर देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

कामना चौंक उठी. उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ.

‘‘यही मेरे दादाजी हैं. इन की ही फर्म में नौकरी करती हैं आप. और इन्होंने ही मेरे लिए आप को पसंद किया है,’’ दूल्हा शरारत से फुसफुसाया.

‘‘मु झे पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘दादाजी से पूछ लेना.’’

कामना ने हड़बड़ा कर अपने पिता की ओर देखा. उन की आंखों में मौन स्वीकृति थी. तो यह बात है. सभी ने मिल कर यह खूबसूरत नाटक खेला है उस के साथ. एक दिलकश साजिश की शिकार हुई है वह.

शादी के बाद कामना एक दिन दादाजी से पूछ ही बैठी, ‘‘आप ने हमें पहले क्यों नहीं बताया कि वह फर्म आप की है?’’

‘‘बेटी, मैं तुम बापबेटी के अच्छे बरताव से काफी प्रभावित हुआ था. अगर तुम दोनों ने भी मु झे दूसरे मुसाफिरों की तरह तड़पने के लिए प्लेटफार्म पर छोड़ दिया होता, तो निश्चित ही मेरी मौत हो गई होती. मैं तुम दोनों को अच्छी तरह परखना चाहता था, इसीलिए मैं ने 3 साल लिए.

‘‘मेरी जायदाद का एकलौता वारिस मेरा पोता भी तुम्हें जांचपरख ले. कोई जल्दबाजी नहीं. अगर संतुष्ट हो जाए तो तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बना ले. तुम मेरी कसौटी पर खरी उतरी और पोते के सपनों को साकार करने वाली भी.’’

कामना पिछले दिनों की कड़ियों का सूत्र एकदूसरे से जोड़ने की फुजूल की कोशिश करती हुई मन ही मन खुश हो उठी. दादाजी की कसौटी पर खरा उतरने का संतोष उस के चेहरे पर साफ झलक रहा था.

इंतजार : क्या रुक्मी का पति उसके पास लौटा

रुक्मी ने दीवार पर टंगी लालटेन उतार कर जलाई और सदर दरवाजा बंद कर के आंगन में बिछी खटिया पर आ कर बैठ गई. चारों तरफ निगाह घुमाई, तो हर तरफ एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. पिछले 40 सालों से यह सन्नाटा ही तो उस के अकेलेपन का साथी रहा है.

अब तो रुक्मी को इस की इतनी आदत पड़ गई है कि इस सन्नाटे की भी आहटें उसे सुनाई दे जाती हैं, मानो सन्नाटा उस से बात करने की कोशिश करता हो.

रुक्मी ने लौ धीमी कर के लालटेन को फर्श पर टिकाया और खटिया पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगी.

55-56 साल पहले जब 12 बरस की रुक्मी इस घर में ब्याह कर आई थी, तब शहर से दूर कुदरत की गोद में बसे इस छोटे से गांव में उस के ससुर की इस पक्की हवेली के अलावा बाकी सभी घर कच्चे थे, लेकिन लोगों का आपसी प्यार बहुत पक्का था.

पूरा गांव एक संयुक्त परिवार की तरह मिलजुल कर रहता था और रुक्मी के ससुर बैजनाथ चौधरी परिवार के मुखिया की तरह ही यहां रहने वाले हर इनसान के सुखदुख का खयाल रखते थे.

परिवार में सासससुर के अलावा रुक्मी का पति गौरीनाथ और 4 ननदें थीं. धीरेधीरे ननदें अपनीअपनी ससुराल चली गईं और रुक्मी अपने सासससुर और पति के साथ इस हवेली में रह गई.

सासससुर ने हमेशा रुक्मी को खूब स्नेह दिया, लेकिन गौरीनाथ जैसेजैसे नौजवान हुआ, उस की उड़ानें अपने घर और गांव से निकल कर शहर तक होने लगीं. कालेज की पढ़ाई करने के लिए उसे शहर क्या भेजा गया कि वह पूरे तौर से शहर का ही हो कर रह गया.

चौधरी साहब ने कई बार बेटे से कहा कि वह गांव वापस आ कर यहां का कारोबार संभाले, लेकिन उस ने साफ कह दिया कि इतना पढ़नेलिखने के बाद अब वह खेतीबारी का देहाती काम नहीं करेगा.

बेटे के इनकार से निराश और अपनी बढ़ती उम्र से लाचार चौधरी साहब अपनी सारी जमीनजायदाद बेचने के बारे में सोचने लगे, तब एक दिन रुक्मी ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, आप अपने पुरखों की जमीन मत बेचिए. मैं आप को वचन देती हूं कि इस की पूरी देखभाल मैं करूंगी.’’

अपनी बहू की बात सुन कर पहले तो बैजनाथ चौधरी ने उसे जमीनजायदाद से जुड़ी जिम्मेदारियों की मुश्किलें बताते हुए इस  झमेले में न पड़ने को कहा, लेकिन रुक्मी ने खेतखलिहानों की देखभाल करते हुए कुछ ही समय में अपनी काबिलीयत का लोहा चौधरी साहब को मनवा दिया और उन्होंने बहू को सारा काम देखने की आजादी दे दी.

शहर जाने के शुरू के दिनों में तो गौरीनाथ महीने 2 महीने में गांव आता रहता था और यहां से अनाज और रुपए भरभर कर शहर ले जाता था, लेकिन जब रुक्मी की बेटी आशा का जन्म हुआ, तब चौधरीजी ने बेटे से कहा कि वह अनाज तो यहां से चाहे जितना ले जा सकता है, लेकिन पैसे पर अब उस का कोई हक नहीं है, क्योंकि यह पैसा रुक्मी की कड़ी मेहनत का फल है, इसलिए उस पर रुक्मी और उस की बेटी का हक है.

बाबूजी की बात सुन कर गौरीनाथ चिढ़ गया, लेकिन पिता पर कोई बस नहीं चलता था, इसलिए रुक्मी को शहर के खर्चों और अपनी परेशानियों के बारे में बता कर रुपए देने के लिए दबाव डालने लगा, लेकिन रुक्मी ने अपने ससुर की बात की इज्जत रखते हुए पति को पैसे देने से साफ इनकार कर दिया.

पैसा मिलना बंद होने के चलते धीरेधीरे गौरीनाथ ने गांव आना बहुत कम कर दिया. चौधरी साहब बेटे की नीयत को सम झ गए थे, इसलिए उन्होंने अपनी जमीन और पुश्तैनी हवेली रुक्मी के नाम कर दी. साथ ही, आशा की पढ़ाईलिखाई का भी पूरा ध्यान रखते हुए उस का नाम गांव के स्कूल में लिखवा दिया और थोड़ी बड़ी होने पर उस के लिए एक मास्टर रख कर घर में भी उस की पढ़ाई का पूरा इंतजाम करा दिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि अपनी मां की तरह अनपढ़ रह कर आशा को भी जिंदगी में तकलीफें उठानी पड़ें.

जब आशा 20 साल की थी, तब रुक्मी के ससुर का देहांत हो गया. सास पहले ही नहीं रही थीं. पिता के देहांत के बाद गौरीनाथ ने रुक्मी से कहा कि वह तो गांव में रह नहीं पाएगा, इसलिए यहां की जमीन और हवेली बेच कर शहर में बंगला खरीदेगा, जिस पर रुक्मी ने कहा कि वह बाबूजी को दिए हुए अपने वचन को निभाएगी और मरते दम तक बाबूजी की इस हवेली को बिकने नहीं देगी.

उस समय तो गौरीनाथ शहर वापस लौट गया, लेकिन 2 साल बाद अचानक वह आशा के जन्मदिन पर बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े और उपहार ले कर गांव आया और रुक्मी के लिए भी साड़ी, चूडि़यां और लालीपाउडर ले कर आया. वह 4 दिनों तक घर पर रुका था और रुक्मी से ढेरों बातें भी की थीं.

रुक्मी को लगा था कि उस का पुराना गौरी वापस आ गया है, लेकिन वह गलत थी, क्योंकि उस का गौरी तो उस से नाता तोड़ने के लिए आया था.

शहर वापस जाने से एक दिन पहले जब रुक्मी ने रोते हुए गौरी से गांव लौट आने को कहा, तो उस ने रुक्मी को अपने पास बैठा कर बड़े प्यार से उस का हाथ थाम कर कहा था, ‘‘रुक्मी, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, लेकिन अब शहर छोड़ कर नहीं आ सकता और तुम्हें शहर ले नहीं जा सकता, क्योंकि तुम देहातन हो और शहर के तौरतरीके नहीं जानती, इसलिए मैं अब एक पढ़ीलिखी शहरी लड़की से शादी करूंगा, जो शहर में मेरा साथ दे सके.’’

यह कह कर गौरीनाथ ने एक कानूनी कागज आगे करते हुए रुक्मी से उस पर अंगूठा लगवा कर बताया कि वह रुक्मी से तलाक ले रहा है, इसलिए अब वह यहां के खेतों और हवेली की जिम्मेदारियों से छुटकारा पा कर अपने घर वापस जा सकती है.

गौरीनाथ की पूरी बात रुक्मी ने बड़े आराम से सुनी, मगर जब उस ने गांव छोड़ कर जाने की बात कही, तो रुक्मी अपना आपा खो बैठी और बोली, ‘‘ब्याह से पहले अम्मांबाबू कहते थे कि शादी के बाद तेरी ससुराल ही तेरा घर होगा. मैं तो इसे ही अपना घर सम झती रही हूं और बाबूजी भी मु झे अपनी बिटिया जैसा स्नेह करते रहे.

‘‘अब मैं तुम्हें बता देती हूं कि यह हवेली और खेत बाबूजी ने मेरे नाम लिख दिए हैं, सो अब यही मेरा घर है. तुम मु झे यहां से नहीं निकाल सकते.’’

रुक्मी की बात सुन कर गौरीनाथ बगलें  झांकने लगा. उसे यह आज तक नहीं मालूम था कि उस के बाबूजी ने अपनी जायदाद का हकदार बेटे को नहीं, बल्कि अपनी बहू को बना दिया था.

गौरीनाथ ने रुक्मी से वसीयतनामा दिखाने को कहा, मगर शहरी गौरीनाथ की देहातन पत्नी ने उसे जवाब दिया कि वसीयतनामा तो अब वह तलाक के समय कचहरी में ही दिखाएगी.

अपनी पत्नी के तेवर देख कर गौरीनाथ ने आगे कोई बहस नहीं की. उस का अंगूठा लगा हुआ तलाकनामा ले कर शहर वापस चला गया.

गौरीनाथ को तो जवाब दे दिया था कि रुक्मी इस हवेली को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाएगी, लेकिन उस का मन तो अपने पति के बहुत दूर चले जाने के एहसास से तड़प रहा था. जब गौरीनाथ ने ही उसे छोड़ने का फैसला कर लिया है, तो इस हवेली और जमीन से क्या लगाव.

रुक्मी की इच्छा हुई कि सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया से ही चली जाए, लेकिन आशा का चेहरा देख कर उस ने खुद को संभाला और कलेजे पर पत्थर रख कर इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि पति अब उस का नहीं रहा है.

कुछ ही दिनों में गौरीनाथ द्वारा रुक्मी को छोड़ कर शहरी मेम से ब्याह करने की खबर पूरे गांव में फैल गई, लेकिन गांव वालों ने अपने चौधरी साहब की बहू को पूरा संरक्षण देते हुए उसे बेफिफ्री से हवेली में रहने के लिए कहा और हमेशा उस का साथ देने का वचन दिया.

आज तक गांव वाले अपना वचन निभा रहे हैं और जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पूरा गांव उस के साथ खड़ा हो जाता है.

आज से 40 साल पहले एक बार गौरीनाथ अपनी दूसरी पत्नी और बेटे को ले कर गांव आया था और रुक्मी को जमीनजायदाद अपने बेटे के नाम करने का दबाव डालने लगा था. तब गांव की पंचायत ने गौरीनाथ को अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि गांव की जमीन और हवेली पर केवल रुक्मी बहू का और उस के बाद आशा का हक है, इसलिए वह अपने शहरी परिवार को ले कर यहां से जा सकता है.

उस दिन के बाद गौरीनाथ ने अपनी पत्नी और बेटी की कोई खोजखबर नहीं ली. आशा के ब्याह के समय भी वह नहीं आया था. रुक्मी ने अकेले ही बेटी का कन्यादान किया था.

आशा का ब्याह बगल के गांव में हुआ है और उस के ससुराल वाले और पति बहुत सज्जन लोग हैं, इसलिए आशा अपनी मां से मिलने आती रहती है और दामाद भी जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पहुंच जाता है और फिर पूरे गांव का सहयोग तो है ही रुक्मी को. उस ने भी गांव वालों के लिए अपनी हवेली के फाटक खोल दिए हैं.

हवेली के बड़े कमरे में सुबह बच्चों की पाठशाला लगती है और शाम को उसी जगह प्रौढ़ शिक्षा केंद्र बन जाता है. हवेली का पीछे का हिस्सा और जमीन रुक्मी ने स्कूल के लिए दे दी है, जिस से उस के गांव वालों को खेतीबारी में बहुत मदद मिलती है और इसलिए पूरा गांव रुक्मी बहू के गुणगान करते नहीं थकता है.

लेकिन गांव वालों की इतनी इज्जत और स्नेह पाने के बाद भी कई बार रुक्मी को अकेलापन कचोटने लगता है और वह गौरी को याद कर के बिलखने लगती है. यह बेचैनी तब से और भी बढ़ गई है, जब से उसे खांसीबुखार ने घेरा है.

आशा और उस का पति जब पिछले महीने उस से मिलने आए, तो मां को बीमार और कमजोर देख कर वह लोग जिद कर के उस को पास के कसबे के अस्पताल में जांच करवाने ले गए.

डाक्टर ने बताया कि टीबी के चलते दोनों फेफड़े गल चुके हैं और अब रुक्मी की जिंदगी के कुछ ही दिन बचे हैं. आशा ने रोते हुए मां से अपने साथ चलने की जिद की, तो उस ने प्यार से बेटी को मना करते हुए कहा, ‘‘बिटिया, अब अंत समय में मैं अपनी देहरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मेरी फिक्र न करो, ये गांव वाले मेरा पूरा खयाल रखते हैं. बस, एक इच्छा रही है कि एक बार तेरे बापू को देख लेती.’’

लाख कहने पर भी जब मां साथ जाने के लिए नहीं मानीं, तो आशा ने इस उम्मीद से पिता को फोन किया कि रुक्मी की हालत के बारे में सुन कर शायद उन का मन पसीज जाए और वे मां से मिलने आ जाएं, पर गौरीनाथ ने बेटी को दोटूक जवाब देते हुए कहा, ‘‘मेरा उस से अब कोई रिश्ता नहीं है. तुम्हारी मां है, तुम जानो.’’

रुक्मी की देखभाल करने के लिए आशा को उस के पास छोड़ कर रुक्मी का दामाद अपने गांव चला गया. शाम को रुक्मी ने आशा से कहा, ‘‘बिटिया, मेरे बक्से में एक लाल साड़ी रखी है, वह मु झे पहना दो और सिंदूर की डिबिया ले आओ.’’

अपनी मां की इस मांग से परेशान आशा ने तुरंत अपने पति को फोन कर के जल्दी आने को कहा और फिर अपने आंसू पोंछते हुए मां के बक्से में से लाल साड़ी निकाल कर रुक्मी को पहना कर उन के बाल संवारे और सिंदूरदानी और आईना मां के सामने कर दिया.

उस समय न जाने कहां से रुक्मी के बेजान शरीर में इतनी ताकत आ गई कि  झट से चारपाई पर बैठ कर उस ने कंघे से अपनी मांग में सिंदूर भरा और फिर उठने की कोशिश में लड़खड़ा कर चारपाई पर गिर गई.

आशा ने मां को ठीक से लिटाना चाहा, तो बेटी का हाथ पकड़ कर वह बोली, ‘‘मु झे जमीन पर बिठा दो.’’

आशा ने बहुत सम झाया और आराम करने को कहा, लेकिन रुक्मी ने जिद पकड़ ली, तो आशा ने अपनी मां को सहारा दे कर फर्श पर बिठाया और तभी रुक्मी की आंखें पलटने लगीं और वह वहीं पर गिर पड़ी.

थोड़ी ही देर में रुक्मी के देहांत की खबर गांवभर में फैल गई और उन के अंतिम दर्शनों के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा, लेकिन रुक्मी को जिंदगीभर जिस का इंतजार रहा, वह गौरीनाथ पत्नी के आखिरी समय पर भी नहीं आया.

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