मुंबई का एक भीड़ भरा इलाका. सुबह के तकरीबन 8 बज रहे थे. शबनम सड़क पर तेजी से चलती चली जा रही थी. रातभर जम कर हुई बारिश ने अब जरा राहत की सांस ली थी. 4 महीने धूप में तपी धरती को अब जा कर कहीं थोड़ा चैन मिला था.

आसमान में अब भी बादलों की लुकाछिपी का खेल चल रहा था. पानी अब बरसा कि तब बरसा, कुल मिला कर यही माहौल बन चला था.

शबनम शिवाजी नगर चौक तक पहुंच चुकी थी. वह अमीर लोगों की बस्ती थी. प्रोफैसर, वकील वगैरह सब के दोमंजिला मकान. शबनम उस दोमंजिला बंगले के सामने जा रुकी, जो देशपांडे का था.

बंगले के सामने खूबसूरत बगीचा था, जिस में चमेली, गेंदा, गुड़हल वगैरह के फूल खिले थे. फूलों की खुशबू का एक ?ोंका शबनम की नाक को छू गया.

शबनम ने दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद एक खूबसूरत अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला.

‘‘आप को किस से मिलना है?’’ उन्होंने शबनम से पूछा.

‘‘मैं... मैं शबनम. अम्मां बीमार हैं... इसलिए मैं काम करने आई हूं मैडम,’’ डरतेडरते शबनम एक आवाज में कह गई.

‘‘आ जा फिर भीतर... आ... क्या हुआ तेरी अम्मां को?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘बुखार है,’’ शबनम की आवाज में चिंता थी.

‘‘अरे सुनंदा, कौन है?’’ यह कहते हुए देशपांडे साहब भी अब तक बाहर के कमरे में आ गए थे.

उन्होंने शबनम की तरफ देखा, तो देखते ही रह गए. ऊंची कदकाठी, गोरी, चंपा के फूल की तरह नाक, बिल्लौरी आंखों वाली शबनम.

कुदरत का खेल भी कितना निराला होता है. कीचड़ में कमल खिलता है... शबनम नाम का वह कमल गरीबों की बस्ती में गरीबी से जूझती एक झोंपड़ी में खिला था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...