देश में बदलाव की नई बयार बह रही थी और जाहिर है कि हर नई हवा का असर पहलेपहल शहरों और उन के नजदीक के गांवों तक आता है. इसी तरह यह असर समोहा गांव तक भी आया और जहां पहले जमींदार और उन के चुनिंदा कारिंदे ही थोड़ेबहुत पढ़ेलिखे थे, वहां अब आबादी का 60 फीसदी हिस्सा पढ़लिख गया था.

अब तो गांव की लड़कियां भी पढ़नेलिखने में काफी आगे निकल गई थीं. यहां तक कि बैजू मास्टर की बेटी कांती पढ़ाई के साथसाथ खेलकूद में भी काफी आगे निकल गई. उसे लंबी दौड़ में कमिश्नरी लैवल पर इनाम मिला. जब वह सवेरे सड़क पर दौड़ लगाती, तो साथ में 3-4 और लड़कियां भी होतीं.

लड़कियों की देखादेखी एक महीने बाद लड़कों ने भी इसी उछलकूद में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी.

गांव के बाहर मैदान में 2 खंभे गाड़े गए, जिन में सांझ को वौलीबौल का नैट बांधा जाता और खेल चालू हो जाता. छोटेछोटे बच्चे जमा हो कर ताली पीटते. गांव की सारी रौनक ही जैसे वहां जमा हो जाती.

पुराने जमींदार शिवधर सिंह का पोता अनिल इस आयोजन की जान होता था. लंबा, छरहरा, गोरा, सलोने चेहरे वाला अनिल पढ़ाई के मामले में भी किसी से पीछे नहीं था.

पहले तो लड़कियों की दौड़ वगैरह पर गांव वालों ने नाकभौं चढ़ाई और कहा, ‘यह उलटा नाच किसी भले काम के लिए नहीं हो रहा है.’

मगर जब लड़कों का खेल क्लब तैयार हो गया और उस क्लब की अगुआई अनिल करने लगा, तब जमींदार साहब को भी मजबूरन कहना पड़ा, ‘खेलकूद से तंदुरुस्ती बनती है और नौकरी वगैरह में भी काफी सहूलियत हो जाती?है.

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