एक प्रश्न लगातार

लेखक- सावित्री रांका

रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’

‘‘कमला मौसी का.’’

यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.

रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.

‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’

‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’

‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’

‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’

‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’

‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’

‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’

‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.

‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’

‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’

मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.

इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ  जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.

नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.

‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’

‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’

इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’

‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.

‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’

सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.

‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’

‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’

‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’

खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.

सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.

अच्छा घरवर देख कर कमला के  मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.

‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’

‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’

थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.

‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’

‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’

‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’

इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’

‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’

‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.

‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’

‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’

कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.

‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’

रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.

कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.

मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’

अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.

एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.

‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’

‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’

कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.

‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’

‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’

‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’

कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’

‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.

‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’

‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’

‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’

कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.

‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’

‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’

‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.

नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.

अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.

‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’

‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’

‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’

‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’

‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’

‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’

कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.   द्य

चिंता की कोई बात नहीं

लेखक- प्रतिमा डिके

औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

शर्मनाक दलितों को सताने का जारी है सिलसिला

लेखक- शंभू शरण सत्यार्थी

जितेंद्र ऊंची जाति वालों के सामने कुरसी पर बैठ कर खाना खा रहा था. यह बात उन लोगों को पसंद नहीं आई और उस की कुरसी पर लात मार दी. इस दौरान जितेंद्र की थाली का भोजन उन लोगों के कपड़ों पर जा गिरा. इस बात पर उस की जम कर पिटाई कर दी गई जिस से उस की मौत हो गई.

मध्य प्रदेश के भिंड जिले के एंडोरी थाने के लोहरी गांव के 60 साला दलित कप्तान की मौत के बाद उस के परिवार वाले जब श्मशान घाट ले गए तो गांव के दबंगों ने उन्हें वहां से भगा दिया. मजबूर हो कर इन लोगों ने अपने घर के सामने कप्तान का दाह संस्कार किया.

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के कोतवाली इलाके में एक शादी समारोह में फिल्टर जार वाला पानी मंगवाया गया. जब पानी का जार देने वाला आदमी वहां पहुंचा तो मालूम हुआ कि वह तो दलित है. इस से अगड़ों में पानी के अछूत होने का भयानक डर पैदा हो गया और उस जार वाले को काफी फजीहत झेलनी पड़ी.

इसी तरह जालौन जिले के तहत गिरथान गांव में चंदा इकट्ठा कर के भंडारे का आयोजन किया गया था, जिस में सभी जाति के लोगों ने सहयोग दिया था. भोज चल रहा था कि कुछ दलित नौजवान पूरी और खाने की दूसरी चीजें बांटने लगे. ऊंची जाति वालों ने इस का विरोध किया और खाना खाने से इनकार करते हुए दलितों को अलग बिठाने की मांग करने लगे.

दलितों ने इस का विरोध किया तो उन में झगड़ा हो गया. बाद में दबंगों ने फरमान जारी कर दिया कि दलितों का बहिष्कार किया जाए. इस फरमान को तोड़ने वाले पर 1,000 रुपए जुर्माने के साथ ही सरेआम 5 जूते भी मारे जाएंगे.

ये चंद उदाहरण हैं. देशभर में दलितों के साथ आज भी तरहतरह की सताने वाली घटनाएं घटती रहती हैं. देश के नेता जब बुलंद आवाज में दलितों की बात करते हैं तो लगता है कि समाज में बदलाव की बयार चल रही?है.

तसवीर कुछ इस अंदाज में पेश की जाती?है कि लगता है कि देश में जातिगत बराबरी आ रही है, पर सच तो यह है कि जातिवाद और छुआछूत ने 21वीं सदी में भी अपने पैर पसार रखे?हैं.

मध्य प्रदेश के मालवा जिले के माना गांव के चंदेर की बेटी की शादी थी. चंदेर ने बैंड पार्टी बुलवा ली थी. यह बात ऊंची जाति के लोगों को नागवार गुजरी. उन्होंने सामाजिक बहिष्कार करने की धमकी दी, फिर भी उन लोगों ने बैंडबाजा बजवाया और खुशियां मनाईं.

इस बात से नाराज हो कर ऊंची जाति के लोगों ने दलितों के कुएं में मिट्टी का तेल डाल दिया.

दलितों की जरूरत

ऊंची जाति के लोगों को बेगारी करने के लिए, बोझा ढोने के लिए, घर की साफसफाई करने के लिए, घर बनाने के लिए इन्हीं दलितों की जरूरत पड़ती है. लेकिन जब काम निकल जाता है तो वे लोग उन्हें भूल जाते हैं. वे कभी नहीं चाहते हैं कि दलितों की जिंदगी में भी सुधार हो.

उन्हें यह डर सताता रहता है कि अगर दलित उन की बराबरी में खड़े हो गए तो फिर जीहुजूरी और चाकरी कौन करेगा? लेकिन जब काम निकल जाता है तो ऊंची जाति वाले दलितों को दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं.

शोषण और गैरबराबरी की वजह से बहुत से दलित ईसाई और बौद्ध धर्म अपना चुके हैं. दलितों का दूसरा धर्म स्वीकार करना भी इन ऊंची जाति वालों को काफी खलता है.

इज्जत से जीने का हक नहीं

हमारे देश में एक तरफ तो दलितों में चेतना बढ़ी है तो वहीं दूसरी तरफ दलितों पर जोरजुल्म की वारदातें भी लगातार जारी हैं. दलित भी पोंगापंथ से बाहर

नहीं निकल पा रहे हैं. इस देश में आज भी 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. 57 फीसदी दलित कुपोषण के शिकार हैं. हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध होता है.

दुख की बात तो यह है कि आज भी 21वीं सदी में दलितों को इज्जत से जीने का हक नहीं मिल पाता है जिस के वे हकदार हैं.

इन की भूल क्या है

दलित लोगों में से कुछ निरंकारी, राधास्वामी, ईसाई, आर्य समाजी, कुछ कट्टर हिंदू, नकली शर्मा, चौहान, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी हैं. वे तकरीबन 1,108 जातियों में बंटे हुए हैं. ज्यादातर मामलों में दलित एकजुट हो कर आवाज नहीं उठाते हैं.

दलित भी इंसाफ मिलने की आस देवताओं से करते हैं. उन्हें पता नहीं है कि देवता खुद रिश्वतखोर हैं और ऊंची जाति वालों का यह शोषण करने का बहुत बड़ा हथियार हैं. दलित समाज अलगअलग खेमों में बंटा हुआ है और ये लोग अपनेअपने संगठन का झंडाडंडा उठा कर खुश हैं.

दलितों में भी जिन की हालत सुधर गई है, उन में से कुछ लोग अपनेआप को ऊंची जाति के बराबर का समझने की भूल कर बैठे हैं. बहुत से मामलों में ये दलित भी ऊंची जाति वालों का साथ देने लगते हैं. इन की हालत जितनी भी सुधर जाए, लेकिन ऊंची जाति के लोग उन्हें दलित और निचला ही समझते हैं.

दलितों पर हो रहे शोषण का विरोध एकजुट हो कर पूरी मुस्तैदी के साथ करना पड़ेगा, तभी उन पर हो रहा जोरजुल्म रुक पाएगा.

हैरानी की बात यह है कि अपनेआप को दलितों का नेता मानने वाले रामविलास पासवान और देश के दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी इस मसले पर चुप दिखाई देते हैं.               द्य

पहला-पहला प्यार भाग-2

लेखक-  शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

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जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

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कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

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बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

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मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

 

पहला-पहला प्यार

लेखक- शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

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बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

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‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

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मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

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मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

महाभोज

लेखक-  संजय अइया

सुबह उठते ही गरमागरम चाय का अभी पहला घूंट ही गटका था कि अंदर काफरमान कानों के रास्ते अंदर उतर गया, ‘‘आज नाश्ता तभी बनेगा जब बाजार से सब्जी आ जाएगी.’’

हुआ यह था कि पिछले एक सप्ताह से दफ्तर के कामों में इतना उलझा रहा कि लौटते समय बाजार बंद हो जाता था और सब्जी का थैला बैग में पड़ा रह जाता. इन दिनों में पत्नी ने छोले व राजमा के साथ बेसन का कई तरह से इस्तेमाल कर एक तो अपनी पाक कला ज्ञान का भरपूर परिचय कराया, दूसरे, सब्जी की कमी को पूरा कर हमारी इज्जत ढकी थी.

पत्नी के आदेश को सिरमाथे मान कर मैं शार्टकट के रास्ते तेज कदमों से सब्जी बाजार की ओर जा रहा था. अभी थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि नाक में तेज बदबू ने प्रवेश किया. मैं ने अपनी उल्लू जैसी आंखों को मटका कर चारों ओर देखा पर कुछ दिखलाई नहीं दिया. अभी वहां से कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि फिर जोरदार बदबू का झोंका आया. अब की बार मैं ने कुत्ते जैसी नाक से मजबूरी में बदबू को सूंघा और उस जगह पर नजर डाली जहां से वातावरण प्रदूषित हो रहा था. देखा, एक मरा हुआ ढोर नगरनिगम के कचरे के डब्बे में पड़ा था और कौए उस को नोंचनोंच कर खा रहे थे.

नाक पर रूमाल रखा और स्कूली दिनों को याद कर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ लगा दी. सामने से तिवारीजी आते दिखाई दिए और मुझे इस तरह इतना फर्राटे से भागते देखा तो रोक कर पूछने लगे, ‘‘क्यों भाई, सब ठीकठाक तो है?’’

मैं ने अपनी सांसों को नियंत्रित किया और तिवारीजी के चेहरे को देखा तो वह किसी हौरर फिल्म के डे्रकुला जैसे लग रहे थे. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, नंगे पांव, गंदे से कपड़े. ‘‘बात क्या है, तिवारीजी, आप ठीकठाक तो हैं न?’’

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‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ?’’

‘‘अरे भाई, ये बढ़ी हुई दाढ़ी, नंगे पांव, बिखरे हुए बेतरतीब केश, और ये बढ़े हुए नाखून…आखिर माजरा क्या है?’’

तिवारीजी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा और बोले, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम.’’

‘‘यार, तुम कैसे हिंदू हो?’’

‘‘क्या मतलब? आप की दाढ़ीनाखून बढ़ने से मेरे हिंदू होने का क्या संबंध है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘यार, हिंदू होने के नाते तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि इन दिनों पितृपक्ष (श्राद्ध) के दिन चल रहे हैं और इन दिनों में न तो कोई शुभ काम किया जाता है और न ही दाढ़ीनाखून कटवाते हैं.’’

‘‘लेकिन तिवारीजी, हिंदू धर्म में इस तरह का कोई नियम है, ऐसा कुछ मैं ने आज तक किसी भी हिंदू धार्मिक पुस्तक में नहीं पढ़ा.’’

‘‘यार, वेदपुराणों में लिखा है, ऐसा हमें हमारे बापदादा ने बताया था.’’

‘‘आप ने पढ़ा है?’’ मैं ने नास्तिकों की तरह पूछा.

‘‘इस में पढ़ना क्या है? बुजुर्गों ने कहा है सो है, यही तो हमारी हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता है.’’

‘‘जहां पर प्रश्न करने की, शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती,’’ मैं ने कहा.

‘‘चुप रहो यार, ऐसा कर के पुरखों की आत्मा को शांति मिलती है.’’

‘‘क्या तुम्हारे पूर्वज तुम्हें ऐसा गंदा देख कर खुश हो रहे होंगे,’’ मैं ने उन का मजाक बनाते हुए कहा, ‘‘अजीब तुम्हारे पुरखे हैं.’’

‘‘लगता है, तुम पर किसी अधर्मी की छाया पड़ गई है.’’

‘‘बिलकुल नहीं मित्र, जो धर्म में है ही नहीं उसे प्रचारित करने वालों के खिलाफ मैं बोल रहा हूं. इसी कारण आज हिंदू धर्म मजाक बन गया है,’’ मैं ने एक संक्षिप्त सा भाषण ही दे डाला.

‘‘देखो यार, तुम्हारे भाषण देने से मुझ पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं भगवाधारी कट्टर पार्टी से हूं और पार्टी का आदेश सिरमाथे पर,’’ तिवारीजी बोले, ‘‘पुरखे ऐसा करने से खुश होते हैं तो मैं ने ऐसा कर दिया. मैं तो वही करूंगा जो पार्टी के लोग चाहते हैं. फिर मुझे अपनी जाति से बाहर तो कोई नहीं करेगा,’’ ऐसा कह कर तिवारीजी हीही कर के हंस पड़े.

मैं ने तिवारीजी से कहा, ‘‘गजब का स्टेमना है आप का.’’

प्रशंसा सुन कर वह खुश हो गए और कहने लगे, ‘‘क्या बताएं यार, अकेले मैं ने नहीं मेरे पूरे परिवार ने आज अभी तक भोजन ग्रहण नहीं किया है.’’

‘‘क्यों? क्या मिला नहीं?’’

‘‘कैसी बातें करते हो तुम, सातों पकवान बना कर रख छोड़े हैं लेकिन खा नहीं सकते.’’

‘‘क्यों, क्या बात हो गई?’’

‘‘यार, सुबह से हम पूर्वजों को यानी कि कौओं को खाने का निमंत्रण दे रहे हैं लेकिन अभी तक वह नहीं पहुंचे. लगता है यह प्रजाति भी लुप्त हो रही है,’’ कह कर उन्होंने अपनी काली गरदन के पास उंगली रगड़ कर मैल की गोली बनाई और क्रिकेटर की तरह निशाना साध कर फेंक दी और उदास हो गए.

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उन की उदासी मुझ से देखी नहीं गई. पूरे परिवार को भूख से परेशान होने की बात सुन कर मेरा मन द्रवित हो उठा. मैं ने कहा, ‘‘यार, तिवारीजी, मैं कुछ कहूं?’’

मरी हुई आवाज उन के मुंह से निकली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि कौए तुम्हारे यहां लंच लेने आएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ हैरत से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.

‘‘यार, जिन्हें तुम न्योता दे रहे हो वे सब तो महाभोज करने में लगे हैं.’’

‘‘कौए, महाभोज, क्या मतलब?’’ तिवारीजी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यार, अभी जिस रास्ते से मैं भागता हुआ  आ रहा था उस पर एक मरे हुए जानवर को कौए खा रहे थे, तुम ही कहो, आज के दिन इतनी अच्छी नानवेज डिश छोड़ कर वह घासफूस खाने तुम्हारे घर की छत पर क्यों आएंगे?’’

‘‘इस का अर्थ तो यह हुआ कि आज मेरा पूरा परिवार भूखा ही रहेगा.’’

‘‘शायद,’’ मैं ने भी गंभीरता से कहा.

‘‘फिर क्या उपाय हो सकता है?’’ तिवारीजी ने किसी क्लाइंट की तरह मुझ से सलाह मांगी.

‘‘एक उपाय है.’’

‘‘कहो दोस्त, जल्दी कहो, पूरे परिवार को जोरों से भूख लगी है.’’

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मैं ने पहले तो अपने दाएंबाएं देखा ताकि मौका मिले तो भाग सकूं. फिर कहा, ‘‘यार, एक भोजन की थाली परोस कर उस मरे हुए जानवर के पास रख आओ. हो सकता है टेस्ट चेंज करने के लिए कौए कुछ खा लें.’’

‘‘आइडिया तो बहुत बढि़या है,’’ कह कर तिवारीजी ने मुझे अपने गले से चिपटा लिया और अपने घर की ओर तेज कदमों से चल दिए ताकि जल्दी से थाली परोस कर मरे ढोर के पास रख सकें, जहां उन के पुरखे उसे ग्रहण कर सकें.    द्य

नायाब नुसखे रिश्वतबाजी के

रिश्वत के लेनदेन की भूमिगत नदी न जाने कब से बहती चली आ रही है. पत्रंपुष्पं से आरंभ हुई रिश्वत की यह धारा अब करोड़ों के कमीशन की महानदी में बदल चुकी है. रिश्वत के मामले में भारतीय समाज ने ही क्या पूरे विश्व ने धर्म को भी नहीं बख्शा. अपने किए पापों के परिणाम से बचने के लिए हम तथाकथित देवीदेवताओं को रिश्वत देते हैं. इच्छित फल पाने के लिए सवा रुपए से ले कर सवा लाख तक का प्रसाद और दक्षिणा चढ़ाते हैं जो रिश्वत का ही एक रूप है. थोड़ी सी भेंट चढ़ा कर उस के बदले में करोड़ों की संपत्ति की चाह रखते हैं. इसी के मद्देनजर एक तुकबंदी भी बनाई गई है:

‘तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगा.’

अब बताइए कि इतनी सुविधा- जनक रिश्वत का कारोबार अपने देश के अलावा और कहां चल सकता है. वर्षा के अभाव में नदियां सूख कर भले ही दुबली हो जाएं लेकिन रिश्वत की धारा दिनप्रतिदिन मोटी होती जा रही है. रिश्वत को अपने यहां ही क्या, सारी दुनिया में किस्मत खोलने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम समझा जाता है. रिश्वत के दम पर गएगुजरों से ले कर अच्छेअच्छों तक की किस्मत का ताला खुलता है.

आप रिश्वत दे कर टाप पर पहुंच सकते हैं पर अगर रिश्वत देने में कोताही की तो टापते रह जाएंगे और दूसरों को आगे बढ़ता देख कर लार टपकाते रहेंगे. बिना रिश्वत के आप सांसत में पडे़ रहिए या फिर रिश्वत दे कर चैन की बंसी बजाइए. रिश्वत के लेनदेन का एक ऐसा शिष्टाचार, एक ऐसा माहौल शुरू हुआ है कि लोग अपना काम कराने के लिए सरकारी कार्यालयों में अफसर और कर्मचारियों को रिश्वत से खुश रखते हैं. चुनाव के दिनों में नेता जनता से वोट बटोरने के लिए जो वादे करते हैं, जो इनाम बांटते हैं वह भी रिश्वत की श्रेणी में ही आता है. इस तरह प्रजातंत्र में सारा भ्रष्टाचार शिष्टाचार का मुखौटा पहन कर गोमुखी गंगा हो जाता है.

रिश्वत के लेनदेन में पहले कोई डर नहीं रहता था. लोग बेफिक्र हो कर नजराने, शुकराने, मेहनताने आदि के नाम पर जो कुछ ‘पत्रंपुष्पं’ मिलता था, ले लिया करते थे और शाम को आपस में बांट लेते थे. अब लेनदेन अधिक हुआ तो पकड़ने और पकड़ाने वाले भी बहुत हो गए. पहले चुनावों में भी यही हाल था. नीचे से ले कर चुनाव आयोग तक चुनावी रिश्वत पर विशेष तवज्जो नहीं दी जाती थी. चुनाव आयोग नेताओं पर विश्वास किया करते थे.

अब तो बिना भ्रष्टाचार के चुनाव संभव ही नहीं है. चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा से सौ गुना खर्च कर के चुनाव लड़ने वाला नेता चुनाव आयोग को खर्चे के हिसाब को व्यय की सीमा में बांध कर किस तरह पेश करता है, इस गणित को जान पाना मुश्किल है. जनता को दी गई तरहतरह की रिश्वत का तो कोई हिसाब ही नहीं होता है.

आजकल जिन्हें कुछ नहीं मिलता है या जो चुनाव हार जाते हैं वे दूसरों को पकड़वाने की फिराक में रहते हैं. कौन कब, किस को, कहां फंसा बैठे इस का ठिकाना नहीं. इसलिए रिश्वत में बचाव की जोखिम राशि शामिल होने से रिश्वत के भाव भी बढ़ गए हैं. कहा जाता है कि लेते हुए पकड़े जाओ तो कुछ दे कर छूट जाओ और देते हुए पकडे़ जाओ तो बोलो कि आप के पिताश्री का क्या दे रहे हैं, आप को चाहिए तो कुछ हिस्सा आप भी ले लीजिए.

इस के बाद इतना निश्चित है कि मिल जाने पर कोई माई का लाल कुछ भी एतराज नहीं करेगा. लेनेदेने वाले, पकड़ने और पकड़ाने वाले सभी अपने ही देशवासी हैं. अपनों को अपने ही मौसेरे भाइयों से क्या डर है. वे अपने ही भाइयों को कैसे पकड़ सकते हैं. पकड़ भी लेंगे तो प्यार जताने पर छोड़ देंगे.

रिश्वत लेने और देने वाले दोनों ही दबंग होते हैं. उन में वैज्ञानिक बुद्धि, सामाजिक चतुराई, राजनीतिक चालबाजी और धार्मिक निष्ठा होती है. ये लोग लेनदेन के नएनए आयाम, नएनए तरीके और नायाब नुसखे तलाशते रहते हैं. कहावत है, ‘तू डालडाल मैं पातपात’, पकड़ने वाले अपना जाल बुनते रहते हैं और रिश्वत लेने और देने वाले उस जाल को तोड़ने और बच निकलने की तरकीबें ईजाद करते रहते हैं. जैसे मारने वाले से बचाने वाला प्रबल होता है वैसे ही पकड़ने वाले से बचाने वाला भी प्रबल होता है.

दुनिया का रिवाज है कि मगरमच्छ कभी नहीं पकड़े जाते, न वे कभी मारे जाते हैं. उन्हें तो सिर्फ पाला जाता है. हमेशा छोटी मछलियां ही पकड़ी जाती हैं, मारी जाती हैं और निगली जाती हैं. मछली भी बड़ी हो तो बच जाती है, जैसे ह्वेल मछली. रिश्वत कई रूपों, कई नामों, कई प्रकारों और कई आयामों से ली जाती है. आइए, कुछ ऐसे ही नायाब तरीकों की चर्चा करें जो लेनदेन में इस्तेमाल होते हैं.

दानपात्र में डालिए

आप देवस्थानों पर जाएं तो जगहजगह गुल्लकनुमा दानपात्र रखे मिलेंगे. आप उन में देवीदेवताओं के लिए रिश्वत डालिए तो आप को फायदा होगा. समाज को भी उस का फायदा मिलता ही होगा तभी तो इतने पढ़ेलिखे लोग भी उन दानपात्रों को भरते हैं. इस से यही साबित होता है कि रिश्वत देने के मामले में मनुष्य ने धर्म को भी नहीं छोड़ा. धर्म के नाम पर रिश्वत दे कर पुण्य कमाने और स्वर्ग में अपनी सीट रिजर्व करने का रिवाज आजकल जोरों पर है.

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चूल्हे में डाल दो

हमारे समय में एक बहुत ही तेजतर्रार अफसर हुआ करते थे. लेकिन कुछ पा जाने पर उतने ही मुलायम हो जाया करते थे. जब कोई आदमी उन के पास दफ्तर में अपना काम कराने के लिए आता और कायदे के मुताबिक कुछ देने की पेशकश करता तो वह कहते, ‘चूल्हे में डाल दो.’ काम कराने वाला व्यक्ति घबरा कर उन के स्टेनो की शरण जाता और अफसर के गूढ़ वचनों का अर्थ पूछता. स्टेनो उस व्यक्ति को बगल में बने छोटे से कमरे में चूल्हा दिखाता. यह व्यक्ति उस ठंडे चूल्हे में इच्छित रकम डाल कर और स्टेनो को अपना काम बता कर बेफिक्र हो जाता. दिन भर इसी तरह चूल्हे में रुपए पड़ते रहते और शाम को अफसर और कर्मचारी बांट लेते. अब कोई बताए कि चूल्हे में फेंके गए और उठाए गए रुपयों पर किसी को क्या एतराज होगा. इस  में कौन माई का लाल किसे पकडे़गा.

शुकराना, नजराना और मेहनताना

काम कराने के लिए आदमी क्या नहीं करता. पहले समय में लोग कहा करते थे कि हुजूर, काम हो जाए तो खुश कर देंगे. काम हो जाने पर शुक्रिया अदा करने के नाम पर जो रकम दी या ली जाती थी उसे शुकराना कहा जाता था. काम कराने के लिए कुछ लोग नजर भेंट करते थे, वह नजराना कहलाता था.

कुछ लोग काम का मेहनताना वसूल करते थे जबकि काम करने के लिए सरकारी वेतन मिलता ही था. आज तो फाइल तलाशने, उठाने और उसे आगे बढ़ाने का भी मेहनताना लिया जाता है. आज भी न्याय मंदिरों में और सरकारी दफ्तरों में शुकराने, नजराने और मेहनताने की प्रथा बदस्तूर लागू है.

पंडेपुजारियों को चढ़ौत्री

आप त्योहारों पर देवस्थानों पर जाएं तो दर्शन करने वालों की लंबी कतारें लगी हुई मिलेंगी. आप लेनदेन जानते हैं तो आप को शार्टकट से दर्शन कराए जा सकते हैं. अगर समझ नहीं है तो पब्लिक की लाइन में लगे रहिए, कभी न कभी दर्शन हो ही जाएंगे.

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और अब सेवा शुल्क

आज जब सरकार ने भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को पकड़नेपकड़ाने का महकमा ही खोल दिया है तो लेनेदेने वाले भी कम नहीं हैं. सरकार तो जनता की बनाई है अत: सरकार की अक्ल से बड़ी तो जनता जनार्दन की अक्ल है. लेनेदेने वालों ने भी अपने तौरतरीके और अस्त्रशस्त्र बदल लिए हैं. अब रिश्वत न ले कर सेवा शुल्क लिया जाता है. देने वाले देते हैं, लेने वाले लेते हैं और सब काम बेखौफ होते हैं. मियांबीवी राजी हों तो काजीजी को क्या पड़ी है कि दोनों के बीच कूदाफांदी करें. पकड़ने या पकड़ाने वाले भी तो सेवा करते हैं, अत: उन्हें भी सेवा शुल्क मिल जाता है और आप का मेवा सुरक्षित हो जाता है. कुछ मिले तो खा लेने में क्या हर्ज है.

सो भैया, अगर कुछ करना है या करवाना है तो मनमाफिक दीजिए और लीजिए और आज के शिष्टाचार में शरीफ हो जाइए. रिश्वत ही सारी मुसीबतों का ‘खुल जा सिमसिम’ है. अत: इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लीजिए और मौजमजे उड़ाइए और दूसरों को भी मौज उड़ाने दीजिए.

जितने लोग उतने तरीके

रिश्वत के लेनदेन के इतने तरीके हैं कि कहां तक गिनाएं. रिश्वत में कोई रूप देता है कोई राशि, कोई माल तो कोई मिल्कीयत. कुछ लोग अपनों से बड़ों के यहां सुबहशाम हाजिरी दे कर ही रिश्वत की भरपाई कर लेते हैं. चरण छूने की रिश्वत तो सब से बड़ी रिश्वत होती है जो सार्वजनिक रूप से ली और दी जा सकती है. कुछ अफसर अपने दफ्तर के आंगन में देवस्थान बनवा लेते हैं और काम कराने आने वालों से चढ़ौत्री चढ़वाते हैं. शाम को सारी चढ़ौत्री घर पहुंच जाती है. एक तथाकथित साहित्यकार तो संपादकों को अपनी रचना भेजते समय पत्र में संपादकजी को चरण स्पर्श लिखते थे और इसी रिश्वत के बल पर वह सभी पत्रपत्रिकाओं में सितारे की तरह चमके.

भेंट का समय

कई राजनेता, अफसर अपने दफ्तर और बंगले में भेंट का समय लिखवा कर तख्ती टांगे रहते हैं. मिलने वाले आते हैं, उन के निजी सहायकों से पूछते हैं कि उन्हें साहब या नेताजी से मिलना है. निजी सहायक भी तो ऐसे लोगों के ऐसे ही हुआ करते हैं, सो वे भी सामने टंगी हुई तख्ती की तरफ इशारा कर समझा देते हैं कि भैयाजी, भेंट का समय लिखा है, मिलने का नहीं. अगर कुछ भेंट लाए हैं तो दीजिए और मिल आइए वरना मिलने की कहां और किसे फुरसत है. जिसे काम कराना होता है वह भेंट चढ़ा कर मिल लेता है. जो भेंट नहीं चढ़ाता वह अपनी बलि भी चढ़ा दे तब भी काम नहीं होता. कभी होता भी है तो तब तक वह इतना खर्च कर चुका होता है जितने में 2 बार भेंट दी जा सकती थी. कभीकभी तो बिना भेंट चढ़ाए तब काम होता है जब मिलने वाला दुनिया से कूच कर चुका होता है.

मुन्ने से मिलिए

अपने देश में मुन्नों की बड़ी महिमा है. देश में इसलिए मुन्नों की भरपूर फसल उगाई जाती है. कई सच्चे और ईमानदार माने जाने वाले अपने मुन्नों की मार्फत वारेन्यारे कर रहे हैं. राजनीति की कुरसी पर भले ही बाप विराजमान हैं लेकिन उन के मुन्ने राज कर रहे हैं. हम लोग तो पक्के ईमानदार हैं और लेनदेन में कोई विश्वास भी नहीं रखते हैं. अब अगर हमारा मुन्ना कुछ करताकराता है तो उस के तो खेलनेखाने के दिन हैं. ऐसे ही तथाकथित ईमानदार लोग जो किसी पद पर होते हैं, मिलने वालों को अपने मुन्नों से मिलवाते हैं. मुन्नों से ओ.के. रिपोर्ट मिलने पर काम हो जाता है. जो मुन्ने को ही खुश न कर पाया वह मुन्ने के बाप को क्या खुश करेगा. फिर उस का काम कैसे हो सकता है. मुन्ने की खुशी में ही साहब की खुशी है.

वजन रखना होगा

काम कराने के लिए आजकल दफ्तरों में फाइल पर वजन रखने की बात कही जाती है. दूसरी चीजें तो वजन से दबती हैं लेकिन फाइल पर वजन रखने से वह फुर्र से उड़ती है.

फाइलों के बारे में विज्ञान का गति सिद्धांत लागू नहीं होता. फाइल पर जितना अधिक वजन रखेंगे उस की गति उतनी ही तेज होती जाएगी और अफसर से हस्ताक्षर करा कर वापस आ जाएगी. वजन रखने वाला व्यक्ति अपना काम करा कर खुशीखुशी चला जाता है. वजन न रखने पर फाइलों पर वर्षों तक निर्णय और हस्ताक्षर नहीं हो पाते हैं. इस तरह लालफीताशाही में फंस कर आप भी फीते की तरह हो जाते हैं.

कुछ लाए हो

हम ने एक नामीगिरामी अफसर ऐसे देखे हैं जो काम कराने के लिए आए लोगों से मिलते ही प्रश्न दागते थे, ‘कुछ लाए हो या यों ही चले आए.’ काम कराने वाला अगर समझदार होता तो नजराना हाजिर कर देता, जिसे वह फौरन डब्बे में रखवा लेते.

उस का काम बेझिझक, बेझंझट हो जाता. अगर मिलने वाला सीधा या शातिर होता और अफसर से पलट कर पूछ बैठता कि सर, क्या लाना था? तो वह फट से कहते, ‘अरे भाई, मेरा मतलब जरूरी कागजात वगैरह से है.’ जाहिर है कि सारे कागज और पूरी जानकारी देने पर ऐसे अनाड़ी लोगों का काम कैसे हो सकता था. पता लगा कर जब अगली बार वह कुछ न कुछ लाता तभी मामला आगे बढ़ता.

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अपने लिए नहीं, ऊपर वालों के लिए

लेने वाला कभी अपने लिए या अपने नाम पर नहीं लेता है. वह तो ऊपर वाले के नाम पर लेता है. लेने वाले को तो कुछ नहीं चाहिए. वह बेचारा तो काम करने के लिए तड़प रहा है.

पैसा तो उसे अपने ऊपर वाले को देना है. लेने वाला तो सतयुगी जीव है उसे तो ऊपर वाले के लिए लेना पड़ता है तभी निर्णय होता है. देने वाले

को झख मार कर देना ही पड़ता है वरना वह नीचे और ऊपर वालों के चक्कर में फंस कर चक्कर ही काटता रहेगा.

पत्रंपुष्पं के रूप में

कुछ लोग काम कराने के लिए पत्रंपुष्पं के रूप में कुछ दियालिया करते हैं. अपने यहां रिश्वत लेनेदेने की किसे फुरसत है.

इस जमाने में अफसर और नेता ही सबकुछ होते हैं और कुछ उन से भी बडे़ होते हैं. देने वाला भी बड़ी नम्रता से पत्रपुष्प ही अर्पित करता है.

अब भला बताइए कि पत्रपुष्प अर्पित करने और स्वीकार करने की मनाही कहां लिखी है. इस में न तो भारतीय दंड संहिता की धारा ही

लग सकती है और न ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून की कोई भी धारा या उपधारा.

डाली और डोली

डाली और डोली की रिश्वत तो आदिकाल से चली आ रही है. युद्ध बंद करने, संधि करने अथवा कर्ज माफ कराने के लिए डालियां और डोलियां सजा कर रिश्वत भेजी जाती थी. राजा- महाराजाओं के युग में तथा अंगरेजी राज्य में भी रिश्वत के रूप में दियालिया जाता है और धड़ल्ले से काम हो रहे हैं. डाली और डोली से लोगों ने ऊंचेऊंचे पद और प्रतिष्ठा प्राप्त की है.

कमीशन और कोड नंबर

जैसेजैसे युग बदल रहा है आदमी के तौरतरीके बदल रहे हैं. वैसे ही रिश्वत के तौरतरीके भी बदल रहे हैं. लेनदेन के आयाम बदल रहे हैं. अब रिश्वत न कह कर कमीशन या दलाली देते हैं और वह भी किसी माध्यम

से. सीधी रिश्वत तो नासमझ स्वीकार करते हैं.

चतुर लोग तो माध्यम के माध्यम से वारेन्यारे करते हैं. जो इन में से बड़े और समझदार हैं वे कोड नंबर से रिश्वत की राशि विदेशी बैंकों में जमा कराते हैं.  द्य

नारमल डिलीवरी बस ढूंढ़ते रह जाओगे

‘‘बधाई हो भाई, मिठाई हो जाए,’’ मैं ने कहा तो जैसे हमारे शब्दों को बाजू में सरका कर कहने लगे, ‘‘किसी अच्छे अस्पताल में दिखाना है. गांव में तो सुविधाएं थीं नहीं. हां, पखवाड़े में एक बार हाजिरी भरने के लिए आने वाली डाक्टर साहिबा ने अभी तक सबकुछ नार्मल ही बताया था पर यहां तसल्ली करना जरूरी है क्योंकि श्रीमतीजी को सीजेरियन से बहुत डर लगता है.’’

हम ने भी अपने सामान्य ज्ञान पर इठलाते हुए नजदीकी एक अस्पताल का जिक्र किया एवं शाम को साथ चलने का वादा भी कर दिया.

शाम को कतार में खड़ेखड़े डाक्टर साहिबा पर नजर पड़ते ही हम अंदर तक कांप गए. यह तो वही हैं जिन्हें 10 साल पहले अपनी बहन को इन्हीं परिस्थितियों में दिखाने हम सरकारी अस्पताल में गए थे. उस समय यह डाक्टरनी बड़ी जोर से चिल्ला पड़ी थी, ‘अभी तक जहां दिखाया है वहीं दिखाओ, अब यहां क्या करने आए हो. मेरे पास समय नहीं है.’

डाक्टर साहिबा के इस धाराप्रवाह श्री वचनों के बीच हम बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाए थे कि यह हमारी बहन है और कल ही ससुराल से आई है.

अपनी बारी आने तक हम आगे की रणनीति बनाते रहे कि हमें क्या कहना है, पर यह क्या, बर्फ की तरह ठंडी डाक्टर साहिबा ने पूरा चेकअप कर के मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बाहर से ट्रांसफर हो कर आए हैं क्या? सब नार्मल है. चिंता की कोई बात नहीं है. हर 15 दिन पर नियमित चेकअप के लिए आते रहना.

डाक्टर साहिबा में आए इस क्रांतिकारी बदलाव को देख कर तो मानो हमारी सोचनेसमझने की क्षमता ही खत्म हो गई. आदमी इतना भी बदल सकता है? खैर, सब नार्मल है, सुन कर हम भी मित्र की खुशी में शामिल हो गए. लगेहाथ मित्र को अपने पूर्व अनुभव के आधार पर तसल्ली भी दे डाली कि इन डाक्टर साहिबा के 99 प्रतिशत केस नार्मल डिलीवरी के ही होते हैं.

निर्धारित समय के 2 दिन पहले डाक्टर साहिबा ने देख कर गंभीर आवाज में कह दिया कि भरती हो जाओ, आपरेशन करना पड़ेगा.

मित्र की आवाज, मुखमुद्रा और प्रश्नसूचक आंखों से निगाह चुराते हुए हम नर्स की शरण में पहुंचे तो वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनी की वरिष्ठ बिक्री अधिकारी की तरह समझाने लगी, ‘‘देखिए, यह एक प्रेस्टिजियस अस्पताल है, यहां हम अपने मरीज की बेस्ट पौसिबल केयर करते हैं. हम किसी प्रकार का रिस्क नहीं लेते हैं. हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हर डिलीवरी 100 प्रतिशत परफेक्ट हो और हर कस्टमर को पूरा सेटिस्फेक्शन मिले.

‘‘मैं खुद पिछले 3 सालों से यहां काम कर रही हूं पर औसतन 90-95 प्रतिशत डिलीवरी आपरेशन से होते देख रही हूं. इनफेक्ट, आजकल हमारी लाइफ स्टाइल, खानपान, रहनसहन, यहां तक कि ब्रीड ही ऐसी हो चुकी है कि नार्मल डिलीवरी में जान जाने का खतरा हमेशा बना रहता है.’’

‘‘यह बिलकुल सही कह रही हैं जनाब,’’ की आवाज के साथ एक भारी-भरकम हाथ हमारे कंधे पर आ पड़ा. मुड़ कर देखा तो वैज्ञानिक सोच वाले आधुनिक बुद्धिजीवी महाशय सामने खड़े मुसकरा रहे थे.

एक सेल्समैन की तरह पूरे आत्म-विश्वास के साथ वे पुन: बोले, ‘‘डरने की कोई बात नहीं है. इस अस्पताल में आधु-निक तकनीक का प्रयोग होता है तथा विश्व स्तर के सभी आधुनिक उपकरण यहां मौजूद हैं. रही बात खर्च की तो डाक्टर साहिबा बिल ही इस तरह से बनवा देंगी कि पूरा का पूरा आप के विभाग से आप को वापस मिल जाएगा. यह लोग इस मामले में एकदम ईमानदार हैं.’’

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‘‘लेकिन साहब, डिलीवरी नार्मल हो जाए तो इस का कोई मुकाबला ही नहीं होता है. अभी तक सबकुछ ठीक ही था. डाक्टर साहिबा कोशिश करें तो डिलीवरी नार्मल भी हो सकती है. हमारे परिवार वालों के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं,’’ हमारे मित्र कुछ घिघियाते से बोले थे.

बुद्धिजीवी बोले, ‘‘अमां यार, इस साइबर एज में भी आप बैलगाड़ी युग की बातें कर रहे हैं. मौडर्न टाइम है भाई. अभी पिछले सप्ताह ही मैं विदेश टूर कर के आया हूं. वहां तो नार्मल डिलीवरी का कंसेप्ट ही खत्म हो गया है. हजारों में शायद ही एकदो नार्मल डिलीवरी होती हैं. आदमी मंगल पर पहुंच रहा है और आप हैं कि अभी तक जमीन के अंदर धंसे हुए हैं.’’

मित्र फिर घिघियाए, ‘‘भाई साहब, हमारे पूरे खानदान में ही नहीं बल्कि श्रीमती के परिवार में भी आज तक सभी डिलीवरियां नार्मल ही हुई हैं. किसी में आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ी.’’

मित्र का मुंह लगभग दबाते हुए बुद्धिजीवी बोले, ‘‘यार, धीरे बोलो, अगर डाक्टर साहिबा ने सुन लिया कि आप ऐसे खानदान से आए हो तो आप का केस लेने से ही मना कर देंगी. अपने खानदान को कुछ तो प्रगतिशील बनाओ. जमाने के साथ चलना सीखो भाई. जिस कालोनी में आप रह रहे हैं वहां सभी ने इसी अस्पताल में डिलीवरी करवाई है, शायद ही कोई नार्मल डिलीवरी हुई हो. कम से कम अपने और अस्पताल के स्टेटस का तो खयाल करो,’’ वह एक पल को किसी मजे हुए नेता की तरह रुके फिर बोलना

शुरू किया, ‘‘यह कोई सरकारी खैराती अस्पताल तो है नहीं, एक हाइटेक अस्पताल है. अब तो इस क्षेत्र में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कूदने वाली हैं जिन के अस्पताल को देख कर आप की आंखें चुंधिया जाएंगी. फिर तो सीजेरियन डिलीवरी पूरी तरह से स्टेटस सिंबल बन जाएगी.

‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां’, ‘स्टेटस’ जैसे शब्द कान में पड़ने के साथ ही हम अपनी सोचनेविचारने की ‘मुंगेरी’ आदत के चलते विचारों के महासागर में गोते लगाने लगे. अगर वास्तव में बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस क्षेत्र में आ पहुंचीं तो विज्ञापनों की बाढ़ के दबाव से सीजेरियन करवाना हर आदमी की मजबूरी हो जाएगी और नार्मल डिलीवरी तो बस जिद्दी दाग की तरह ढूंढ़ते रह जाएंगे. टेलीविजन पर विज्ञापन आएगा, ‘जो बीवी से करे प्यार वह सीजेरियन से कैसे करे इंकार’ या फिर सरकार ही समाचारों से पहले दिखलाने लगे कि विमला का बेटा टेढ़ामेढ़ा इसलिए पैदा हुआ कि उस ने नार्मल डिलीवरी करवाई थी, अगर स्वस्थ सुंदर बच्चा चाहिए तो भाई साहब सीजेरियन ही करवानी चाहिए.

कंपनियां भी ऐसा टीका विकसित कर लेंगी कि नार्मल डिलीवरी हो ही नहीं पाए. देश भर के तथाकथित क्लब और संस्थाएं पोलियो खुराक की तरह पैदा होते ही हर संतान को यह टीका लगा देगी. एक बार जनमानस पर सीजेरियन स्टेटस के रूप में स्थापित हुआ नहीं कि सामाजिक संबंधों में भूचाल सा आ जाएगा.

शादीसंबंधों में सब से पहले पूछा जाएगा कि लड़का नार्मल है या सीजेरियन. बायोडाटा के कालम में एक लाइन यह भी होगी कि क्या संतान सीजेरियन है? उच्च कुल के लोग पूरे परिवार को गर्व के साथ सीजेरियन बताएंगे. अगर कोई संतान गलती से नार्मल हुई तो मांबाप खिसियाते हुए कहेंगे बाकी भाई और बहन तो सीजेरियन ही हैं, बस, यही गलती से…

गांव से शहर लाते समय यदि रास्ते में नार्मली कुछ हो गया तो इस दुर्घटना को मातापिता छिपाएंगे या अपने बच्चे के भविष्य को देखते हुए दूर पलायन कर जाएंगे. ऐसे बच्चे बड़े होने पर ताना मारेंगे, ‘‘हमारे लिए आप ने किया ही क्या है? नार्मल डिलीवरी से दुनिया में हमें ले आए. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

नार्मल डिलीवरी आर्थिक दिवालि-एपन या मानसिक पिछड़ेपन का प्रतीक बन कर रह जाएगी.

प्रतिक्रियास्वरूप कुछ नेता और सामाजिक संगठन इन की रक्षा के लिए आगे आएंगे. जातियों के महासागर में एक और तलैया शामिल करवाएंगे. नया वर्ग संघर्ष पैदा होगा. समाज इन्हें हेय समझेगा और नेता इन्हें अल्पसंख्यक घोषित करवा कर विकलांगों की तरह इन के लिए आरक्षण कोटा निर्धारित कराएंगे. धारा ‘3’ का सदुपयोग करने का अधिकार भी इन्हें दिलवाया जाएगा. एक वर्ग सरकारी अस्पतालों में नार्मल डिलीवरी करवाने वाले डाक्टरों के खिलाफ प्रदर्शन कर जांच आयोग बैठाने की मांग करेगा तो दूसरी ओर शबाना आजमी टेलीविजन पर आ कर कहेंगी, ‘‘नार्मल को एबनार्मल न समझें, इन्हें प्यार दें.’’

आगे बढ़ते विचारों के अश्व को अचानक डाक्टर साहिबा के सप्तम स्वर ने झटके से रोक दिया. मित्र को सुनाते हुए सफाई कर्मचारी को कह रही थीं, ‘‘सरकारी अस्पताल समझ रखा है क्या? मुझे एकदम साफ चाहिए… क्रिस्टल क्लियर, नो कंप्रोमाइज.’’

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फिर बुद्धिजीवी महाशय से मैराथन तर्कवितर्क में उलझे मित्र की ओर ब्रह्मास्त्र चला दिया, ‘‘मुझे दिक्कत नहीं है पर कल को कुछ हो गया तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी,’’ इतना कह कर तेजी से डाक्टर साहिबा अंदर चली गईं. पीछेपीछे बुद्धिजीवी भी रुख्सत हो गए.

बस, मित्र और हम ने अभिमन्यु वाली हार मान ली. मैं ने भी सांत्वना दी. यार करवा भी लो वरना कुछ ऐसावैसा हो गया तो नातेरिश्तेदार और यही संतान बड़ी हो कर 100-100 ताने मारेगी.

बिल की च्ंिता में मित्र के पेट में मरोड़े उठने लगे. नर्स से पूछने पर पता चला 15-20 हजार रुपए का खर्च आएगा. अपनी किसी संस्था के लिए डाक्टर साहिबा से डोनेशन का चेक ले कर वापस आ रहे बुद्धिजीवी महाशय ने फिर समझाया कि अभी तो बड़े सस्ते में निबट रहे हो, बाद में बहुराष्ट्रीय अस्पतालों में तो यही काम लाखों में होंगे.

हम फिर सोचने लगे कि अगर महाभारत काल में ही यह व्यवस्था लागू हो जाती तो बेचारे धृतराष्ट्र तो बिल चुकातेचुकाते ही राजपाट लुटवा बैठते.

खैर, मित्र महोदय ने जैसेतैसे इस प्रकरण को निबटाया फिर तुरंत कसम खाई कि अब दूसरी संतान के बारे में कभी सोचूंगा भी नहीं.

 संजीव झा

आधारशिला

चिकित्सा महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एमबीबीएस की डिगरी और 2 विषयों में स्वर्णपदक लेती हुई श्वेता को देख कर खुशी से मेरी आंखें भर आईं. वह कितनी सुंदर लग रही थी. गोरा रंग, मोहक नैननक्श. उस पर आत्मविश्वास और बुद्धिमत्ता के तेज ने उस के चेहरे को हजारों में एक बना दिया था.

मैं उस की मां हूं, क्या इसीलिए अपनी बेटी में इतना सौंदर्य देख पाती हूं? मैं ने एक निगाह अपने इर्दगिर्द बैठी भीड़ पर डाली तो पाया कई जोड़ी आंखें श्वेता को एकटक निहार रही हैं.

श्वेता की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. अपना लक्ष्य उस ने पा लिया था. मेरा मन गर्व से भर उठा. साथ ही एक चिंता ने हृदय के किसी कोने से हलके से सिर उठाया कि अब हमें उस के लिए वर की तलाश करनी होगी. सही समय पर सही काम होना ही चाहिए, यही सफल व्यक्ति की निशानी है.

बरसों पहले की बात याद आई. नन्ही श्वेता को पैरों पर झुलाते हुए मैं उसे रटाया करती, ‘वर्क व्हाइल यू वर्क, प्ले व्हाइल यू प्ले…’

श्वेता ने यह कविता अच्छी तरह रट ली थी. जब वह अपनी तोतली आवाज में इसे सुनाती तो मैं भावविभोर हो जाती. मगर क्या इस का सही अर्थ वह समझ पाई थी.

10वीं कक्षा में पहुंचते ही वह पढ़ाई और कैरियर की नींव बनाने की उम्र में राह भटक गई थी. अनजाने प्रदेश की ओर बढ़ते हुए उस के क्रमश: दूर जाते हुए कदमों की पद्चाप को मैं मां हो कर भी पहचान नहीं पाई थी. यदि वह नेक व्यक्ति मुझे उस बात की सूचना न देता तो न जाने श्वेता का क्या होता, क्या होता हम सब का, यदि उस की जगह कोई और होता तो…

मुझे वह दिन याद आया, जब दोपहर की डाक से वह पत्र मिला था :

मीनाजी,

जितनी जल्दी संभव हो, स्कूल आ कर मुझ से मिल लें. कृपया इस बात को गुप्त रखें. श्वेता को भी इस बारे में कुछ न बताएं.

वह नाम मेरे लिए कतई अपरिचित नहीं था. 3-4 महीनों से श्वेता के मुख से वह नाम सुनतेसुनते हमें ही नहीं, शायद पड़ोसियों को भी रट गया था. मगर मैं सोचने लगी कि यह पत्र… इस का मजमून ऐसी कौन सी बात की ओर इशारा कर रहा है, जोकि बेहद गोपनीय है, और शायद गंभीर भी. मेरा हृदय कांप उठा.

‘जैसेतैसे साड़ी लपेट कर मैं ने बालों को ढीलेढाले जूड़े की शक्ल में बांध लिया. श्वेता को उस दिन बुखार था, इसलिए वह स्कूल नहीं जा पाई थी. यह बात मेरे पक्ष में थी. उसे बता कर कि आवश्यक काम से बाहर जा रही हूं, मैं निकल पड़ी.

श्वेता के स्कूल की छुट्टी 4 बजे होती थी. मैं साढ़े 3 बजे ही स्कूल पहुंच चुकी थी. अभी मुझे आधा घंटा इंतजार करना था. मैं प्रवेशद्वार के समीप ही बैंच पर बैठ गई. इस तरह चोरीछिपे इंतजार करना मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, मगर करती भी क्या? बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. यदि वह श्वेता की पढ़ाई के संबंध में थी तो उस में गोपनीयता की क्या बात थी?

मासिक टैस्ट में उसे कैमेस्ट्री में अच्छे अंक मिलने लगे थे. हालांकि अन्य विषयों में वह कमजोर ही थी. 1-2 बार मैं ने इस बात के लिए उसे टोका भी था, मगर जोर दे कर कुछ नहीं कहा था. क्योंकि कैमेस्ट्री में उसे इंट्रैस्ट नहीं था, लेकिन अचानक इस वर्ष उस का इंट्रैस्ट देख कर मुझे मन ही मन बड़ा भला लगा था.

मेरी नींद पिछले महीने के टैस्ट के परिणाम के बाद भी नहीं खुली थी, अब अंगरेजी और फिजिक्स में उसे बहुत कम अंक मिले थे. उस समय भी मैं ने श्वेता को संबंधित विषयों में ध्यान देने की बस मामूली सी हिदायत ही दी थी.

हालांकि कुशाग्रबुद्धि श्वेता का अन्य विषयों में इतने कम अंक प्राप्त करना चिंता का विषय होना चाहिए था, परंतु मैं ने सोचा कि साल की शुरुआत ही है, धीरेधीरे वह सभी विषयों को गंभीरता से पढ़ने लगेगी. मैं सोचने लगी, क्या इन विषयों में कम अंक आने के कारण ही पुनीत ने मुझे बुलाया है? लेकिन भला उन्हें अन्य विषयों से क्या लेना? उन के विषय कैमेस्ट्री में तो श्वेता के बराबर ही अच्छे अंक आ रहे हैं.

‘विचारों के भंवर में मैं इस कदर डूब गई थी कि छुट्टी होने की घंटी भी मुझे सुनाई नहीं दी. जब क्लास से लड़कियों के झुंड बाहर निकलने लगे, तब मैं चौंकी. उसी समय देखा, सामने से एक युवक मेरी ओर चला आ रहा है.

‘क्या आप मीनाजी हैं?’ उस ने नम्रता से पूछा.

मेरे हां कहने पर उस ने अपना परिचय दिया, ‘मैं, पुनीत हूं. आइए, हम पास वाले कौफीहाउस में कुछ देर बैठें. दरअसल, बात जरा नाजुक है, इस तरह सड़क पर बताना ठीक नहीं होगा.’

‘ठीक है,’ कहती हुई मैं उन के साथ चल दी. इस तरह अनजान व्यक्ति के साथ आना मुझे कुछ अजीब जरूर लग रहा था, पर गए बिना चारा भी नहीं था.

‘बगल में चलते हुए मैं ने पुनीत पर एक निगाह डाली. 6 फुट लंबा कद, गोरा रंग और आंखों पर चढ़ा चश्मा, जो उन के व्यक्तित्व को और भी अधिक प्रभावशाली बना रहा था. उन की आवाज धीर गंभीर थी.

शीघ्र ही हम कौफीहाउस पहुंच गए. कौफी का और्डर दे कर वे कुछ क्षणों के लिए चुप हो गए. चारों ओर नजर दौड़ा कर उन्होंने कमीज की जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाया, ‘पत्र है, श्वेता का, मेरे नाम.’

मैं ने थरथराते हाथों से पत्र ले कर पढ़ा. क्या नहीं था उस में, जन्मजन्मांतर का अटूट संबंध, रातरात भर जागते रहने का इजहार, याद, इंतजार, आरजू और

न जाने कैसेकैसे शब्दों से भरा हुआ था वह पत्र.

पत्र पढ़तेपढ़ते मेरे आंसू निकल आए. ऐसा लगा, श्वेता की उच्चशिक्षा संबंधी सारी महत्त्वाकांक्षाओं का अंत हो गया. मेरी स्थिति को पुनीत भांप गए थे. वे कहने लगे, ‘यदि आप होश खो बैठेंगी तो श्वेता का क्या होगा.’

मैं ने उन की ओर देखा कि कहीं उन के इस वाक्य में मेरे प्रति उपहास तो नहीं, लेकिन नहीं, इस वाक्य का सहीसही अर्थ ही उन के चेहरे पर लिखा हुआ था. वे आगे बोले, ‘इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. दरअसल, श्रद्धा और प्रेम का अंतर हमें इस उम्र में समझ में नहीं आता. इसलिए आप इसे गंभीर अपराध के रूप में न लें. इसीलिए मैं ने आप से ही इस बारे में बात करना ठीक समझा. आप उस की मां हैं, उस के हृदय को समझ सकती हैं.’

‘परंतु ऐसा पत्र, जी चाहता है, उसे जान से मार डालूं.’

‘नहीं, आप इस बात को श्वेता को महसूस भी न होने दें कि आप को इस पत्र के बारे में सबकुछ मालूम है. हम इस समस्या को शांति से सुलझाएंगे. आप तो जानती ही हैं कि यदि अनुकूल परिस्थितियों में यह उम्र हवा का शीतल झोंका होती है तो प्रतिकूल परिस्थितियों में गरजता हुआ तूफान बन जाती है.’

‘आप कह तो ठीक ही रहे हैं,’ मैं ने मन ही मन उन के मस्तिष्क की परिपक्वता की सराहना की.

पुनीत से की गई 15-20 मिनट की बातचीत ने मेरे मन के बोझ को आंशिक रूप से ही सही, पर कुछ कम अवश्य किया था.

‘क्या आप ने मनोविज्ञान पढ़ा है?’ मैं ने पूछा तो वे हंस पड़े, ‘जी, बाकायदा तो नहीं, परंतु हजारों मजबूरियों से घिरा हुआ मध्यवर्गीय घर है हमारा. मैं 5 भाईबहनों में सब से बड़ा हूं. सब की अपनीअपनी समस्याएं, उन के सुखदुख का मैं गवाह बना. उन का राजदार, मार्गदर्शक, सभी कुछ. मातापिता ने परिस्थितियों से शांतिपूर्वक जूझने के संस्कार दिए और इस तरह मेरा घर ही मेरे लिए अनुभवों की पाठशाला बन गया.’

उन के गजब के संतुलित स्वर ने मेरे उबलते हुए मन को मानो ठंडक प्रदान की.

‘तो योजना के मुताबिक, आप कल हमारे घर आ रहे हैं?’ मैं ने कहा और उन से विदा ली.

मैं ने औटोरिकशा के बजाय बस से ही जाना ठीक समझा. एकांत से मुझे डर लग रहा था. बस  की भीड़ में शायद मेरा दुख अधिक तीव्रता धारण न कर पाए. मगर मेरा सोचना गलत था. भीड़भरी बस में भी मैं बिलकुल अकेली थी. मेरा दुख मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था.

‘बसस्टौप से धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए मैं घर पहुंची. मुझे देखते ही श्वेता दौड़ कर आई और मेरे गले लिपट गई, ‘ओह मां, कितनी देर लगा दी. मैं अकेली बैठी कब से बोर हो रही हूं.’

‘श्वेता, छोड़ो यह बचपना,’ मैं ने अपने गले से उस की बांहें हटाते हुए कहा.

मैं ने बेरुखी से उस के हाथ झटक तो दिए थे, पर तभी पुनीत की वह बात याद आई, ‘आप अपने व्यवहार से उसे किसी तरह का आभास न होने दें कि आप उस के बारे में सबकुछ जान चुकी हूं,’ सो, मैं ने सहज स्वर में कहा, ‘बेटे, जल्दी जा कर लेट जाओ, तुम्हें अभी भी बुखार है. थोड़ी देर में अंकित भी आता होगा, वह तुम्हें जरा भी आराम नहीं करने देगा.’

श्वेता अपने कमरे में जा कर लेट गई. मैं एक पत्रिका ले कर पढ़ने बैठ गई, पर ध्यान पढ़ने में कहां था. मेरा मन तो किसी खुफिया अधिकारी की तरह श्वेता के पिछले व्यवहार की छानबीन करने लगा. वह अकसर पुनीत की प्रशंसा किया करती थी. सो, हम भी उन की योग्यता के कायल हो चुके थे, क्योंकि पिछले साल की अपेक्षा इस साल श्वेता को कैमेस्ट्री में काफी अच्छे अंक मिले थे.

जब पढ़ाने की तारीफ से आगे बढ़ कर उस ने उन के व्यक्तित्व की तारीफ शुरू की, तब भी मुझे कुछ अजीब नहीं लगा था. मैं सोचती, 14-15 वर्ष की उम्र यों भी सिर्फ योग्यता तोलने की नहीं होती. यदि वह उन्हें स्मार्ट कहा करती है  तो यह गलत नहीं. ऐसे ही शब्द तो इस उम्र में किसी के व्यक्तित्व को नापने का पैमाना होते हैं.

जब मैं उम्र के इस दौर से गुजर रही थी, मुझे भी अपनी शिक्षिका देविका कोई आसमानी परी मालूम होती थीं. मेरी मां और बाबूजी अकसर कहा करते थे, ‘इसे हमारी कोई बात समझ में ही नहीं आती, लेकिन वही बात अगर देविका कह दें तो तुरंत मान लेगी.’

यह तो बहुत बाद में समझ आया कि देविका भी औरों की तरह साधारण सी महिला थीं. मुझे महसूस होने वाला उन का पढ़ाने का जादुई ढंग उन के अपने बच्चों पर बेअसर रहा था. उन के दोनों बेटे क्लास में मुश्किल से ही पास होते थे.

बस, इसी तरह श्वेता का भी पुनीत का अतिरिक्त गुणगान करना मुझे जरा भी संदेहजनक नहीं लगा था.

दरवाजे की डोरबैल जोर से बज रही थी. शायद अंकित आ गया था. मैं ने भाग कर दरवाजा खोला.

अंकित को दूध का गिलास पकड़ा कर मैं रात के खाने की तैयारी में लग गई. श्वेता की समस्या ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया था, मगर फिर भी सोच लिया था कि जैसे भी हो, यह बात मैं इन के कानों में नहीं पड़ने दूंगी. इन का प्यार भी असीम था और गुस्सा भी. इन्हें यदि इस पत्र के बारे में पता चल जाता, तो शायद श्वेता को सूली पर चढ़ा देते.

शाम को ये लगभग 8 बजे घर पहुंचे. श्वेता और अंकित में किसी बात पर झगड़ा हो रहा था. टीवी जोरजोर से चल रहा था. इन्होंने आते ही पहले टीवी औफ किया, फिर बच्चों को जोरदार आवाज में डांटा. जब कोलाहल बंद हुआ तब मुझे खयाल आया कि मैं अपने विचारों में किस कदर खोई हुईर् थी.

‘क्या बात है, कुछ परेशान सी लग रही हो, बच्चों को इन की शैतानियों के लिए डांट नहीं रही हो?’ इन्होंने पास आ कर पूछा.

‘लीजिए, अब डांटना ही हमारे स्वस्थ होने का परिचायक हो गया. क्या मैं चुपचाप बैठी आप को अच्छी नहीं लग रही?’ मैं ने शरारत से पूछा.

‘नहीं, बिलकुल अच्छी नहीं लग रही हो. बच्चों की आवाजें, टीवी का शोर और इन सब से ऊपर तुम्हारी आवाज हो, तभी मुझे लगता है कि मैं अपने घर आया हूं’, इन्होंने नहले पे दहला मारा.

खाना खाते समय श्वेता खामोश ही रही. उस के पास सुनाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वह स्कूल जो नहीं गई थी. फिर भी एकाध बार पुनीत की तारीफ करना नहीं भूली.

योजना के मुताबिक अगले दिन पुनीत हमारे घर आए. श्वेता उन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘सर, आप? यहां कैसे? आप को कैसे पता चला कि मैं यहां रहती हूं? मैं बीमार थी, क्या इसीलिए मुझे देखने आए हैं?’ उस ने सवालों की झड़ी लगा दी.

पुनीत मुसकराते हुए बोले, ‘हां भई, मैं इस तरफ किसी काम से आया था, सोचा, तुम से भी मिलता चलूं. पता तो तुम ने ही मुझे दिया था.’

‘ओह, हां. मुझे तो याद ही नहीं रहा.’ श्वेता के चेहरे पर खुशी झलक रही थी. टीवी पर फिल्म चल रही थी. श्वेता फिल्म देखते हुए हमेशा अपनेआप को भी भूल जाती थी, मगर अब उसे फिल्म से भी कोई मतलब नहीं था. उस की दुनिया तो जैसे पुनीत में ही सिमट आई थी.

‘सर, आप क्या खाएंगे?’ श्वेता इठला कर पूछ रही थी.

‘जो आप बना लाएं,’ उन्होंने शरारती स्वर में कहा.

‘जी, मैं तो सिर्फ चाय बना

सकती हूं.’

‘जी हां, मैं तो भूल ही गया था, आप तो छोटी सी बच्ची हैं, आप को भला क्या बनाना आता होगा.’

श्वेता को हंसते देख उसे गुस्सा आ रहा था.

मैं रसोई में जा कर नमकीन, मठरी और गुलाबजामुन ले आई.

‘अरे, आप तो बहुत कुछ ले आईं,’ पुनीत शिष्टता से बोले.

‘कहां बहुत कुछ है सर, आप यह लीजिए. मैं आप के लिए पकौडि़यां तल कर लाती हूं.’

‘ नहीं भई, इतना काफी है,’ कहते हुए पुनीत अपने बारे में बताने लगे कि वे एक गरीब परिवार से हैं. पिता रिटायर्ड हैं, 2 छोटी बहनें और 1 भाई अभी पढ़ रहे हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.

हमारी योजना के मुताबिक ही वे अपने परिवार के हालात के बारे में जानबूझ कर बता रहे थे. यह वास्तविकता भी थी और कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी बताई जा रही थी, ताकि इस कठोर धरातल की ओर बढ़ते हुए श्वेता के नाजुक पांव अपनेआप कांप उठें.

इस घटना के 2-3 दिनों बाद मैं पुनीत से मिलने स्कूल गई. इस बार हम ने स्कूल के बाहर एक स्थान और समय निश्चित कर लिया था. वे आए और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा कर चले गए. डर था कि कहीं श्वेता हमें न देख ले. पत्र कुछ इस प्रकार था :

आदरणीय सर,

आप मेरे पत्रों के उत्तर क्यों नहीं देते? क्या मैं आप को सुंदर नहीं लगती या अपनी गरीबी की वजह से ही आप आगे बढ़ने में डर रहे हैं? सर, जब से मुझे आप की आर्थिक स्थिति का पता चला है, आप की कर्तव्यभावना देख कर मेरे मन में आप के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया है. कृपया मुझे अपना लें. मैं आप का पूरापूरा साथ दूंगी. नमक के साथ सूखी रोटी खा कर भी दिन गुजार लूंगी. आप का परिवार मेरा परिवार है. हम मिलजुल कर यह जिम्मेदारी उठाएंगे.

आप की,

श्वेता.

पत्र पढ़ कर मैं ने सिर पीट लिया कि सारी योजना बेकार चली गई. नमक के साथ रोटी वाली बात पढ़ कर तो बेहद हंसी आई. खाने में पचासों नुक्स निकालने वाली श्वेता को मैं कल्पना में भी सूखी रोटी खाते हुए नहीं देख सकती थी. गरीबी उस के लिए सिर्फ फिल्मी अनुभव के समान थी. गरीबी का फिल्मीरूप जितना लुभावना होता है, असलियत उतनी ही जानलेवा. काश, श्वेता यह सब जान पाती.

2-3 दिन श्वेता अनमनी सी रही, फिर कुछ सहज हो गई. 10-15 दिनों से पुनीत का भी कोई फोन नहीं आया था. हम ने तय कर लिया था कि श्वेता यदि उन्हें कोई पत्र लिखती है तो वे पहले मुझे फोन से खबर देंगे. मुझे लगने लगा कि पुनीत की बेरुखी या गरीबी की वजह से श्वेता अपनेआप ही संभल गई है.

उस रात मैं कई दिनों बाद निश्चिंत हो कर सोई. सुबह उठी तो सब से पहले श्वेता के कमरे की ओर गई. श्वेता गहरी नींद में थी, लेकिन उस के गोरे गालों पर आंसुओं के निशान थे. लगता था, जैसे वह देररात तक रोती रही थी. मेज पर कैमेस्ट्री की कौपी रखी थी. मैं ने खोल कर देखा तो उस में से एक पत्र गिरा. सलीमअनारकली, हीररांझा आदि के उदाहरण सहित उस में अनेक फिल्मी बातें लिखी हुई थीं.

लेकिन उस पत्र की अंतिम पंक्ति मुझे धराशायी कर देने के लिए काफी थी. ‘सर, यदि आप ने मेरा प्यार स्वीकार न किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगी.’

मैं भाग कर श्वेता के निकट पहुंची. उस की लयबद्ध सांसों ने मुझे आश्वस्त किया. फिर मैं ने उस की अलमारी की एकएक चीज की छानबीन की कि कहीं कोई जहर की शीशी तो उस ने छिपा कर नहीं रखी है, लेकिन ऐसी कोई चीज वहां नहीं मिली. मेरा धड़धड़ धड़कता हुआ कलेजा कुछ शांत हुआ. लेकिन चिंता अब भी थी.

मेरी नजरों के सामने अखबारी खबरें घूम गईं. एकतरफा प्रेम के कारण या प्रेम सफल न होने के कारण आत्महत्या की कितनी ही खबरें मैं ने तटस्थ मन से पढ़ी, सुनी थीं. लेकिन अब जब अपने ऊपर बीत रही थी, तभी उन खबरों का मर्मभेदी दुख अनुभव कर पा रही थी.

मुझे बरसों पहले की वह घटना याद आई जब कमरे में घुस आई एक नन्ही चिडि़या को उड़ाने के प्रयत्न में मैं पंखा बंद करना भूल गई थी. चिडि़या पंखे से टकरा कर मर गईर् थी. उस की क्षतविक्षत देह और कमरे में चारों ओर बिखरे कोमल पंख मुझे अकसर अतीत के गलियारों में खींच ले जाते, और तब मन में एक टीस पैदा होती.

श्वेता के संदर्भ में उस चिडि़या का याद आना मुझे बड़ा अजीब लगा. मैं ने स्कूल में पुनीत को फोन किया. मेरी कंपकंपाहटभरी आवाज सुन कर शायद वे मेरी दुश्चिंता भांप गए और बोले, ‘धीरज रखिए, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आप के घर आऊंगा.’

निश्चित समय पर पुनीत आए. मैं जितनी बेचैन थी, वे उतने ही शांत लग रहे थे.

मैं ने कहा, ‘आप को सुन कर अवश्य आश्चर्य होगा, पर मैं आज कुछ अलग ही तरह की बात कहने जा रही हूं,’ मैं ने अपनेआप को स्थिर कर के कहा, ‘आप श्वेता से शादी कर लीजिए, कहीं वह प्रेम में पागल हो कर आत्महत्या न कर ले.’ यह कहतेकहते फफकफफक कर रो पड़ी.

‘अपनेआप को संभालिए. श्वेता अभी बच्ची है मेरी छोटी बहन के समान. उस की उम्र अभी शादी की नहीं, सुनहरे भविष्य के निर्माण की है, जिस की आधारशिला हमें अपने हाथों से रखनी होगी.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन आज उस ने पत्र लिखा है, जिस में…’

‘वह पत्र उस ने मुझे दिया है, आप घबराएं नहीं. जब तक मैं उसे नकारात्मक उत्तर नहीं दूंगा, तब तक कुछ नहीं होगा. अभी तक मैं ने उस के प्रेम को स्वीकारा नहीं है, तो नकारा भी नहीं है.’

‘लेकिन यह स्थिति कब तक कायम रहेगी?’ मैं ने पूछा.

‘अधिक दिन नहीं,’ वे बोले, ‘यह तो हम जान ही चुके हैं कि श्वेता का ऐसी हरकतें करना कुछ तो उस की किशोर उम्र का परिणाम है और कुछ फिल्मों का मायावी संसार उसे यह सबकुछ करने को उकसाता रहा है, क्योंकि वह फिल्में देखने की बहुत शौकीन है.’

‘जी हां, मगर फिल्म और वास्तविकता के बीच का फर्क उसे समझाएं तो कैसे. और समझ में आने पर भी क्या प्यार का भूत उस के सिर से उतर जाएगा?’

पुनीत कहीं और देख रहे थे, जैसे उन्होंने मेरा प्रश्न सुना ही न हो, फिर एकाएक बोल पड़े, ‘अब आप निश्चिंत रहिए. उस का यह फिल्मी तिलिस्म फिल्मी ढंग से ही टूटेगा.’ और वे चले गए.

मेरे मन में आया कि पति से इतनी गंभीर बात छिपा कर मैं कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं. मगर जब औफिस से लौटने पर इन का थकाहारा चेहरा देखती तो बस, यही लगता कि इन के सामने ऐसी गंभीर समस्या न ही रखूं. यदि मैं अपने स्तर पर यह समस्या सुलझा सकूं तो बहुत अच्छा होगा और फिर पुनीत का पूरा साथ है ही. दूसरी बात, इन के गुस्से का भी क्या ठिकाना. यदि गुस्से में आ कर इन्होंने कोई कठोर कदम उठाया तो श्वेता न जाने क्या कर बैठे.

गनीमत यही थी कि पुनीत बहुत चरित्रवान थे. यदि वे छिछोरे युवकों जैसे होते तो हम कहीं के न रहते.

अगले दिन पुनीत हमारे घर फिर आए. श्वेता हमेशा की तरह बेहद खुश हुई. अब वे अकसर ही हमारे घर आने लगे. शायद श्वेता को इस बात से विश्वास हो चला था कि वे भी उसे चाहते हैं.

जब भी वे आते, अपने बारे में कुछ न कुछ ऊलजलूल बोलते चले जाते.

श्वेता कहती, ‘सर, यह चश्मा आप पर बहुत फबता है,’ तो कहते, ‘जानती हो, इस का नंबर है माइनस फाइव. 35 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते मैं अंधा हो जाऊंगा.’

श्वेता भी उन की बातों से कुछ ऊबती हुईर् नजर आती.

एक रोज वे घर पर आए. ठीक उसी वक्त फ्यूज उड़ जाने से

बिजली चली गई. श्वेता उन से बोली, ‘मैं फ्यूज वायर ला देती हूं, आप जोड़ दीजिए.’

‘मैं और फ्यूज?’ वे इस तरह घबराए, जैसे कोई अनोखी बात सुन ली हो, ‘श्वेता, फ्यूज तो दूर, मैं बिजली का मामूली से मामूली काम भी नहीं जानता. करंट लगने से मैं बेहद डरता हूं.’

श्वेता ने उन की ओर आश्चर्य से देखा, ‘सर, फ्यूज तो मैं भी जोड़ लेती हूं. बस, मीटर बोर्ड कुछ ऊंचा होने के कारण आप से कह रही हूं.’

श्वेता ने मेज पर स्टूल रखा और फ्यूज ठीक कर दिया. पुनीत यह सब खामोशी से देख रहे थे.

रात को खाना खाते समय श्वेता हंसतेहंसते यह घटना अपने पिताजी को सुना रही थी. इतना लंबाचौड़ा युवक और फ्यूज सुधारने जैसा साधारण काम नहीं कर सकता. उस की हीरो वाली छवि को इस घटना से बड़ा धक्का लगा था.

पर उस रोज मैं न हंस पाई. मैं जानती थी कि पुनीत ने जानबूझ कर ऐसी हरकत की थी.

एक रोज उन्होंने एक और मनगढ़ंत घटना सुनाई कि जब वे कालेज में

पढ़ते थे, एक चोर घर के अंदर घुस आया. वे चुपचाप सांस रोके लेटे रहे. चोर अलमारी में रखे 5-7 सौ रुपए ले कर भाग गया.

श्वेता उन की ओर अविश्वास से ताकती रही, फिर बोली, ‘कुछ भी हो, आप को उसे पकड़ने की कोशिश तो करनी ही चाहिए थी. आप के साथसाथ समाज का भी कुछ भला हो जाता.’

‘समाज के लिए मरमिटूं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं,’ वे बोले. फिर कुछ क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘समाज हमारे लिए क्या करता है? यों तो लोग दहेज विरोधी बातें भी खूब करते हैं, पर मैं क्यों न लूं दहेज? क्या समाज मेरी बहनों की मुफ्त में शादी करवा देगा?’

श्वेता कुछ नहीं बोली, अपने सपनों के राजकुमार की खंडित प्रतिमा को वह किसी तरह जोड़ नहीं पा रही थी.

उस के कुछ दिन बड़ी मानसिक ऊहापोह में गुजरे. फिर एक रोज उस ने शायद अपने कमजोर मन पर विजय पा ही ली.

एक दिन वह बोली, ‘मां, कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं?’

‘कैसे?’ मैं उस के प्रश्न का रुख समझ रही थी, फिर भी पूछ लिया.

‘देखने में बड़े आदर्शवादी, समाज सुधारक और बड़ीबड़ी बातें करने वाले और अंदर से धोखेबाज, मक्कार और झूठे हैं. जैसे, जैसे पुनीत सर.’ आंसू छिपाती हुई वह अपने कमरे में चली गई. मुझे उस के दिए हुए ये विशेषण बिलकुल अच्छे नहीं लगे. मैं सोच रही थी कि मेरी बेटी को सही राह पर लाने वाला व्यक्ति सिर्फ महान, समझदार और व्यवहारकुशल हो सकता है और कुछ नहीं.

मैं ने उसे समझाया, ‘बेटी, दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं. सभी हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप  नहीं होते. वे जैसे भी होते हैं, अपनी जगह पर सही होते हैं. इसलिए उन्हें बुराभला कहना ठीक नहीं.’

श्वेता ने मुझ से बहस नहीं की, पर धीरेधीरे उस का पुराना रूप लौटने लगा. मैं खुश थी.

एक दिन पुनीत का फोन आया कि श्वेता अब उन्हें पत्र नहीं लिखती, उन से दूसरी छात्राओं की तरह  ही पेश आती है. तब मैं ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.

जिस तरह नाजुक हाथों से उलझे हुए रेशम को सुलझाया जाता है, उसी तरह नफासत से उन्होंने श्वेता के दिल की गुत्थी को सुलझाया था.

उस वर्ष वह जैसेतैसे द्वितीय श्रेणी ही पा सकी, जोकि स्वाभाविक ही था. लगभग पूरा वर्ष उस ने प्रेमवर्ष के रूप में ही तो मनाया था. पर उस के बाद वह पूरी तरह पढ़ाई में जुट गई. और अब उस का सपना भी पूरा हो गया.

असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं

यह अलग ही तरह का शख्स था. पता नहीं कहां कौन सी साधारण बात इसे खास लगने लगे, किस बात से मोहित हो जाए, कुछ कह नहीं सकते थे. जिन बातों से एक आम आदमी को ऊब होती थी, इस आदमी को उस में मजा आता था. एक अजीब सा आनंद आता था उसे. इस की अभिरुचि बिलकुल अलग ही तरह की थी. वैसे यह मेरा दोस्त है, फिर भी मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि आखिर यह आदमी किस मिट्टी का बना है. मिट्टी सी चीज में अकसर यह सोना देखता है और अकसर सोने पर इस की नजर ही नहीं जाती.

मैं इस के साथ मुंबई घूमने गया था. हम टैक्सी में दक्षिण मुंबई के इलाके में घूम रहे थे. हमारी टैक्सी बारबार सड़क पर लगे जाम के कारण रुक रही थी. जब टैक्सी ऐसे ही एक बार रुकी तो इस का ध्यान सड़क के किनारे बनी एक 25 मंजिली बिल्ंिडग की 15वीं मंजिल पर चला गया, जहां एक कमरा खुला दिख रहा था. मानसून का समय था. आसमान में बादल छाए थे. कमरे की लाइट जल रही थी, पंखा घूमता दिख रहा था. वह बोल उठा, ‘यार, इस को कहते हैं ऐश. देखो, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वो महाशय आराम फरमा रहे हैं, वह भी पंखे की हवा में.’

मैं ने सोचा इस में क्या ऐश की बात है? मैं ने कहा, ‘यार, वह आदमी जो उस कमरे में दिख रहा है, वह क्या कुछ काम नहीं करता होगा? आज कोई कारण होगा कि घर पर है.’

अब वह बोला, ‘यार, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वह ऐश कर रहा है. यह तो एक बिल्डिंग के एक माले के एक फ्लैट की बात है, यहां तो हर फ्लैट में लोग मजे कर रहे हैं.’

मैं ने झल्ला कर कहा, ‘हां, हर फ्लैट नहीं, हर फ्लैट के हर कमरे में कहो और अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हुए हैं.’

यह तो एक घटना मुंबई की रही. एक दिन शाम को घूमते हुए शहर के रेलवे स्टेशन पर मिल गया. मैं शाने भोपाल ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. यह तफरीह करने आया था. चूंकि ट्रेन के लिए समय था, सो हम एक बैंच पर बैठ गए. स्टेशन पर आजा रही ट्रेनों को यह टकटकी लगा कर देखता. बोगी में बैठे लोगों को देखता. यदि किसी एसी बोेगी में कोई यात्री दिख जाता आपस में बतियाते या खाना खाते, लेटे पत्रिका पढ़ते तो यह कहता, ‘यार, देखो इन के क्या ऐश हैं. मस्त एसी में यात्रा कर रहे हैं, खापी रहे हैं, गपशप कर रहे हैं और अपन यहां कुरसी पर बैठे हैं?’

मैं ने कहा, ‘यार, इस में क्या खास बात हो गई? अपन लोग भी जाते हैं तो इसी तरह मौज करते हैं यदि तुम्हारे पैमाने से बात तोली जाए.’ मैं ने आगे कहा, ‘वैसे मैं तो रेलयात्रा को एक बोरिंग चीज मानता हूं.’ अब मेरा मित्र बोल पड़ा, ‘अरे यार, तुम नहीं समझोगे क्या आनंद है यात्रा का. मस्ती में पड़े रहो, सोते ही रहो और यदि घर से परांठेसब्जी लाए हो तो उस का भी मजा अलग ही है. काश, अपन भी ऐसे ही इस समय ट्रेन की ऐसी ही किसी बोगी में बैठे होते तो मजा आ जाता.’

मैं ने कहा, ‘तो चल मेरे साथ? असल जिंदगी जीना, मैं तो खैर बोर होऊंगा तो होते रहूंगा.’ लेकिन इस बात पर यह मौन हो गया.

इसे कौन से साधारण दृश्य अपील कर जाएं, कहना मुश्किल था. एक बार मैं और यह कार से शहर से 80 किलोमीटर दूर स्थित एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पौट को जा रहे थे. एक जगह ट्रैफिक कुछ धीमा हो गया था. इस की नजर सड़क के किनारे खड़े ट्रकों व उस के साइड में बैठे ड्राइवरक्लीनरों पर चली गई.

वे अपनी गाडिं़यां खड़ी कर खाना पका रहे थे. ईंटों के बने अस्थायी चूल्हे पर खाना पक रहा था. एक व्यक्ति रोटियां सेंक रहा था, एक सब्जी बना रहा था. बाकी बैठे गपशप कर रहे थे. बस, इतना दृश्य इस के लिए असली जिंदगी वाला इस का जुमला फेंकने और उसे लंबा सेंकने के लिए काफी था.

यह बोल उठा, ‘देखो यार, जिंदगी इस को कहते हैं मस्त, कहीं भी रुक गए, पकायाखाया, फिर सो गए और जब नींद खुली तो फिर चल दिए और अपन, बस चले जा रहे हैं. अभी किसी होटल में ऊटपटांग खाएंगे. ये अपने हाथ का ही बना खाते हैं, इस में  किसी मिलावट व अशुद्धता की गुंजाइश ही नहीं है. ऐसी गरम रोटियां होटल में कहीं मिलती हैं क्या?

मैं ने चिढ़ कर कहा, ‘ऐसा करते हैं अगली बार तुम भी रसोई का सामान ले कर चलना. अपन भी ऐसे ही सड़क के किनारे रुक कर असली जिंदगी का मजा लेंगे. और तुरंत ही मजा लेना है तो चल आगे, किसी शहरकसबे के बाजार से अपना तवा, बेलन और किराने का जरूरी सामान खरीद लेते हैं, इस पर वह मौन हो गया.

मैं एक बार इस के साथ हवाईजहाज से बेंगलुरु से देहरादून गया. फ्लाइट के 2 स्टौप बीच में थे. एयर होस्टैस और दूसरे हौस्पिटैलिटी स्टाफ के काम को यह देखतासुनता रहा. बाद में बोला, ‘यार, असली मजे तो इन्हीं के हैं? 2 घंटे में इधर, तो 2 घंटे में उधर. सुबह उठ कर ड्यूटी पर आए तो दिल्ली में थे, नाश्ता किया था मुंबई में. लंच लिया बेंगलुरु में और डिनर लेने फिर दिल्ली आ गए. करना क्या है, बस, मुसकराहटों को फेंकते चलना है. एक बार हर उड़ान में सैफ्टी निर्देशों का प्रदर्शन करना है, बस, फिर जा कर बैठ जाना है. प्लेन के लैंड करते समय फिर आ जाना है और यात्रियों के जाते समय बायबाय, बायबाय करना है. इसे कहते हैं जिंदगी.’

मैं ने कहा, ‘यार, तुझे हर दूसरे आदमी की जिंदगी अच्छी लगती है, अपनी नहीं.’ मैं ने आगे कहा कि इन की जिंदगी में रिस्क कितना है? अपन तो कभीकभी प्लेन में बैठते हैं तो हर बार सब से पहला खयाल सहीसलामती से गंतव्य पहुंच जाने का ही आता है. अब इस बात पर यह बंदा मौन हो गया, कुछ नहीं बोला. बस, इतना ही दोहरा दिया कि असली ऐश तो ये करते हैं.

एक और दिन की बात है. यह अपने खेल अनुभव के बारे में बता कर दूसरों की जिंदगी में फिर से तमगे पर तमगे लगा रहा था. वनडे क्रिकेट मैच देख आया था नागपुर में, बोला, ‘यार, जिंदगी हो तो खिलाड़ी जैसी. कोई काम नहीं, बस, खेलो, खेलो और जम कर शोहरत व दौलत दोनों हाथों से बटोर लो. जनता भी क्या पगलाती है खिलाडि़यों को देख कर, इतनी भीड़, इतनी भीड़, कि बस, मत पूछो.’

मैं ने कहा, ‘बस कर यार, अभी पिछले सप्ताह प्रसिद्ध गायक सोनू निगम का कार्यक्रम हुआ था, उस में भी तेरा यह कहना था कि अरे बाप रे, क्या भीड़ है. लोग पागलों की तरह दाद दे रहे हैं, झूम रहे हैं. जिंदगी तो ऐसे कलाकारों की होती है’ मैं ने आगे कहा, ‘इस स्तर पर वे क्या ऐसे ही पहुंच गए हैं. न जाने कितने पापड़ बेले हैं, कितना संघर्ष किया है. असली कलाकार तो मैं तुझे मानता हूं जो असली जिंदगी को कहांकहां से निकाल ढूंढ़ता है.’

वह बोला, ‘यार, यह सब ठीक है. पापड़आपड़ तो सब बेलते हैं, लेकिन समय भी कुछ होता है. ये समय के धनी लोग हैं और अपन समय के कंगाल? घिसट कर जी रहे हैं.’ मैं ने कहा, ‘मैं तो तुम्हारी असली जिंदगी जीने की अगली उपमा किस के बारे में होगी, उस का इंतजार कर रहा हूं. तुम्हारा यह चेन स्मोकर की तरह का नशा हो गया है कि हर दूसरे दिन किसी दूसरे की जिंदगी में तुम्हें नूर दिखता है और अपनी जिंदगी कू्रर.’

वह कुछ नहीं बोला. अब उस के मौन हो जाने की बारी थी. उस का मौन देख कर मैं ने भी अब मौन रहना उचित समझा, वरना मैं ने कुछ कहा तो पता नहीं यह फिर किस से तुलना कर के अपने को और मुझे भी नीचा फील करवा दे.

मेरे इस दोस्त का नाम तकी रजा है. महीनेभर बाद पिछले शनिवार को मैं इस से मिलने घर गया था. मैं आजकल इस के ‘असली जिंदगी इन की है’ जुमले से थोड़ा डरने लगा हूं. मुझे लग रहा था कि कहीं यह मेरे पहुंचते ही ‘असली जिंदगी तो इन की है’ कह कर स्वागत न कर दे. मैं इस के घर का गेट खोल कर अंदर दाखिल हुआ. यह लौन में ही बैठा हुआ था.

मेरी ओर इस की नजर गई. लेकिन तकी, जो ऊपर को टकटकी लगाए कुछ देख रहा था, ने तुरंत नजर ऊपर कर ली. मैं उस के सामने पड़ी कुरसी पर जा कर बैठ गया. उस के घुटनों को छू कर मैं ने कहा कि क्या बात है, सब ठीक तो है? वह मेरे यह बोलते ही बोला, ‘क्या ठीक है यार, ऊपर देख? कैसे एक तोता मस्त अमरूद का स्वाद ले रहा है?’

मैं ने ऊपर की तरफ देखा, वाकई एक सुरमी हरे रंग का लेकिन लाल रंग की चोंच, जोकि तोते की होती ही है, वाला तोता अमरूद कुतरकुतर कर खा रहा था और बारीकबारीक अमरूद के कुछ टुकड़े नीचे गिर रहे थे. थोड़ी देर बाद वह फुर्र से टांयटांय करते उड़ गया. फिर एक दूसरा तोता आ गया. उस के पीछे 2-3 तोते और आ गए. वे सब एकएक अमरूद पर बैठ गए.

एक अमरूद पर तो 2 तोते भी बैठ कर उसे 2 छोरों से कुतरने लगे. कौमी एकता का दृश्य था. तकी बोला, ‘यार, असली जिंदगी तो इन की है. जमीन पर आने की जरूरत ही नहीं, हवा में रहते ही नाश्ता, खाना, टौयलेट सब कर लिया.’ और हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि तकी ने जैसे ही यह बोला कि एक तोता, जो उस के सिर के ठीक ऊपर वाली डाल पर था, ने अपना वेस्ट मैटेरियल सीधे तकी के सिर पर ही गिरा दिया.

‘यह भी कोई तरीका है,’ कह कर तकी अंदर की ओर भागा. जब वह वापस आया तो मैं ने कहा, ‘हां यार, वाकई असली जिंदगी ये ही जी रहे हैं.’ तकी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा.

मैं ने इस के ‘असली जिंदगी ये जी रहे हैं’ वाले आगामी बेभाव पड़ने वाले डायलौग से बचने के लिए बात को आम भारतीय की तरह महंगाई को कोसने के शाश्वत विषय की ओर मोड़ दिया.

तकी बोला, ‘हां यार, यह महंगाई तो जान ले रही है.’ लेकिन थोड़ी ही देर में असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं’ का साजोसामान ले जाती कुछ बैलगाडि़यां सामने से निकल रही थीं. ये गड़रियालुहार थे जोकि खानाबदोश जिंदगी जीते हैं. बैलगाडि़यों पर पलंग, बच्चे और सब सामान लदा दिख रहा था. अब तकी टकटकी लगा कर इन्हें ही देख रहा था. उस की आंखों ने बहुतकुछ देख लिया जो कि उसे बाद में शब्दों में प्रकट कर मेरी ओर शूट करना था. अंतिम बैलगाड़ी जब तक 25 मीटर के लगभग दूर नहीं पहुंच गई, यह उसे टकटकी लगा कर देखता ही रहा. अब वह बोला, ‘यार, जिंदगी तो इन की है?’

मैं ने कहा, ‘खानाबदोश जिंदगी भी कोई जिंदगी है?’

वह बोला, ‘यार, तुम नहीं समझोगे, इसी में जिंदगी का मजा है. एक जगह से दूसरी जगह को ये लोग हमेशा घूमते रहते हैं. कहीं भी रुक लिए और कहीं भी बनाखा लिया, और कहीं भी रात गुजार ली. भविष्य की कोई चिंता नहीं, मस्तमौला, घुमक्कड़ जिंदगी, सब को कहां मिलती है.’

मैं ने सोचा कि इस को भी यह अच्छा कह रहा है. अब तो यहां से रवानगी डालना ही ठीक होगा, वरना ‘असली जिंदगी तो इन की है’ का कोई न कोई नया संस्करण कहीं न कहीं से इस के लिए प्रकट हो जाएगा, जिसे वह मेरे पर शूट करेगा जो कि मुझे आजकल हकीकत की गोली से भी तेज लगने लगा है.

यह भीखूब रही. मेरी शादी के तुरंत बाद की घटना है. पत्नी विदा हो कर ससुराल आ गईर् थी. बहू से मिलने वालों का आनाजाना लगा हुआ था.

उन दिनों हमारे ताऊजी सेवानिवृत्त हो कर उसी शहर में रहते थे. उन के क्रोधी स्वभाव से हम सभी परिचित थे. मेरी पत्नी को जल्द ही ताऊजी के बारेमें इतने किस्से सुनने को मिले कि उस के दिल में एक डर सा समा गया.

शाम का वक्त था. तभी ताऊजी का आगमन हुआ. उन को देखते ही पत्नी घर के अंदर भागी. ताऊजी बहू का नाम पुकारते हुए उस के पीछे जाने लगे तो वह अपने कमरे के अंदर भागी. ताऊजी को दरवाजे की तरफ आता देख उस के होश उड़ गए. कमरे में एक ही दरवाजा था. भागने का कोई उपाय न देख वह पलंग के नीचे छिप गई. ताऊजी कमरे के अंदर झांक कर वापस लौटे. फिर सब को बतलाने लगे कि बहू को अंदर जाते देखा, फिर गायब कहां हो गई.

ताऊजी के जाने के बाद ही पत्नी पलंग के नीचे से बाहर आई. तब तक उस के कपड़ों तथा मेकअप का बुरा हाल हो चुका था. वह शर्म से लाल हो रही थी, जबकि हम सब का हंसते हंसते बुरा हाल था.  विनोद प्रसादशर्माजी कुछ महीनों पहले ही रिटायर हुए. अब उन के पास न तो कोई विशेष काम था और न ही सरकारी नौकर या गाड़ी. वे कोशिश करते घर के कामों में खुद को व्यस्त रखने की, दोस्तों के यहां जाना और उन्हें बुलाना बढ़ गया.

एक दिन हम 5-6 दोस्त शर्माजी के घर गपें मारने के लिए इकट्ठा हुए. थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा बोलीं, ‘‘मैं चाय बना कर ले आती हूं.’’ शर्माजी बोले, ‘‘अरे, रुको, चाय तो आज मैं ही बनाऊंगा.’’ और वे चले चाय बनाने. पत्नी साथ जाने लगीं तो उन्हें यह कह कर रोक दिया कि ‘‘आप यहीं बैठो.’’ पत्नी बुदबुदाई, ‘‘कभी तो चाय बनाई नहीं.’’

थोड़ी देर बाद शर्माजी बिलकुल बैरा स्टाइल में चाय की ट्रे ले कर आ गए. सब ने चाय ले ली. पहली चुस्की लेते ही सब की नाक में हींग की महक तैर गई. सब एकदूसरे का मुंह देखने लगे तो वे बोले, ‘‘है न बढि़या मसाला चाय?’’

सब कहने लगे, ‘‘आप भी लीजिए.’’

शर्माजी ने जैसे ही चाय की चुस्की ली, उन का मुंह देख कर हम सब खिलखिला कर हंस दिए. असल में उन्होने चाय में जीरावन मसाला डाल दिया था जो चाय मसाले के साथ ही रखा था.

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