
‘‘इस का मतलब तुम्हारी मम्मी को मेरी पत्नी के इस दुनिया को छोड़ कर चले जाने की जानकारी है. मेरे अकेलेपन को दूर करने का जो इलाज तुम मुझे बता रही हो, क्या वह तुम्हारी मम्मी का बताया हुआ है?’’
‘‘एक बार हम दोनों की इस विषय पर बातचीत हुई थी. वैसे मुझे नहीं लगता कि आप इस दिशा में कोई कदम उठाएंगे.’’
‘‘ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.
‘‘आप को अपनी रेपुटेशन कुछ ज्यादा ही प्यारी है,’’ उस ने बड़े नाटकीय अंदाज में जवाब दिया और फिर हम दोनों ही जोर से हंस पड़े थे.
उस दिन शुचि मेरे घर में करीब 2 घंटे रुकी. उस ने मुझे चाय बना कर पिलाई और टोस्ट पर बटर लगा कर नाश्ता कराया. फिर मेरे साथ बातें करते हुए उस ने पहले ड्राइंगरूम में फैले सामान को संभाला और फिर मेरे शयनकक्ष को भी ठीकठाक कर दिया.
उस के हाथ में जूस का गिलास पकड़ाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम जिंदगी में क्या करना चाहती हो…क्या बनना चाहती हो, शुचि?’’
‘‘सर, 5 महीने बाद मेरा बी.कौम पूरा हो जाएगा. मेरी इच्छा बहुत अच्छे कालिज से एम.बी.ए. करने की है लेकिन…’’
‘‘लेकिन क्या?’’ उस की आंखों में परेशानी के भाव पढ़ कर मैं ने उत्सुक लहजे में सवाल पूछा.
‘‘मेरी फीस देना पापा के लिए कठिन होगा.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘पहले मेरी बड़ी बहन की शादी में और फिर भैया को होस्टल में रख कर इंजीनियरिंग कराने में पापा ने पहले ही सिर पर कर्जा कर लिया है. मैं बेटी हूं, बेटा नहीं. इसीलिए वह मेरी एम.बी.ए. की फीस का इंतजाम करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेंगे,’’ शुचि उदास हो उठी थी.
मैं ने फौरन उस का हौसला बढ़ाया, ‘‘शुचि, तुम अच्छे कालिज में प्रवेश तो लो. तुम्हारी फीस का इंतजाम कराने की जिम्मेदारी मेरी रहेगी.’’
‘‘क्या आप मेरी फीस भर देंगे?’’ उस की आंखों में आशा भरी चमक उभरी.
‘‘अगर बैंक से लोन नहीं मिला तो मैं भर दूंगा. नौकरी लग जाने के बाद बैंक का या मेरा लोन लौटाओगी न?’’ मैं ने मजाक में पूछा.
‘‘श्योर, सर, मेरी इस समस्या को हल करने की जिम्मेदारी ले कर आप मुझ पर बहुत बड़ा एहसान करेंगे,’’ वह भावुक हो उठी थी.
‘‘दोस्तों के बीच एहसान शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए. तुम्हारे लिए कुछ भी कर के मुझे खुशी होगी,’’ इन शब्दों को सुन कर उस का चेहरा फूल सा खिल उठा था.
शुचि के साथ के कारण अचानक ही मेरा समय बड़े आराम से कटने लगा था. उस से मिलने और उस के घर आने का मुझे इंतजार रहता. अपने को मैं नई ऊर्जा और उत्साह से भरा महसूस करता. अपने बेटेबहुओं से फोन पर बातें करते हुए मैं अपने अकेलेपन की शिकायत अब नहीं करता था. शुचि की मौजूदगी ने मेरी जिंदगी से ऊब और नीरसता को बिलकुल दूर भगा दिया था.
आगामी रविवार की सुबह पार्क में सैर कर लेने के बाद उस ने कहा, ‘‘सर, आज आप का लंच हमारे यहां है. आप तैयार रहना. मैं आप को अपने घर ले चलने के लिए ठीक 12 बजे आ जाऊंगी.’’
‘‘थैंक यू वेरी मच, शुचि. तुम्हारे मम्मीपापा से मिलने की मेरी भी बड़ी इच्छा है,’’ उस के घर जाने का बुलावा पा कर मैं सचमुच बहुत खुश हुआ था.
शुचि के आने से पहले मैं काजू की मिठाई का डब्बा और फूलों का बहुत सुंदर गुलदस्ता बाजार से ले आया था. उस के आने के 5 मिनट बाद ही हम दोनों कार में बैठ कर उस के घर जाने को निकल पड़े थे.
‘‘बहुत सुंदर गुलदस्ता बनवाया है आप ने, सर. मम्मी तो बहुत खुश हो जाएंगी,’’ शुचि की आंखों में अपनी तारीफ के भाव पढ़ कर मैं खुश हुआ था.
शुचि के पापा ने बड़ी गरमजोशी के साथ हाथ मिलाते हुए मेरा स्वागत किया, ‘‘मैं रवि हूं…शुचि का पापा. वेलकम, कपूर साहब. शुचि आप की बहुत बातें करती है. इसीलिए ऐसा लग नहीं रहा है कि हम पहली बार मिल रहे हैं.’’
शुचि की मम्मी घर के भीतरी भाग से ड्राइंगरूम में आईं तो रवि ने मुझ से उन का भी परिचय कराया लेकिन मुझे उन के मुंह से निकला एक शब्द भी समझ में नहीं आया क्योंकि उन की पत्नी को देखते ही मुझे जबरदस्त झटका लगा था.
हमारी मुलाकात करीब 30 साल बाद हो रही थी पर सीमा को देखते ही मैं ने फौरन पहचान लिया था.
‘‘ये बहुत सुंदर हैं, थैंक यू वेरी मच,’’ सीमा ने मुसकराते हुए मेरे हाथ से गुलदस्ता ले लिया था.
मैं बड़े मशीनी अंदाज में मुसकराते हुए उन के साथ बोल रहा था. उन तीनों में से किसी की बात मुझे पूरी तरह से समझ में नहीं आ रही थी. मन में चल रही जबरदस्त हलचल के कारण मैं खुद को बिलकुल भी सहज नहीं कर पा रहा था.
‘‘क्या आप मम्मी को पहचान पाए, सर?’’ शुचि के इस सवाल को सुन कर मैं बहुत बेचैन हो उठा था.
मुझे जवाब देने की परेशानी से बचाते हुए सीमा ने हंस कर कहा, ‘‘अतीत को याद रखने की फुरसत और दिलचस्पी सब के पास नहीं होती है. कपूर साहब को कुछ याद नहीं होगा पर मैं ने इन्हें पार्क में फौरन पहचान लिया था.’’
‘‘मेरी याददाश्त सचमुच बहुत कमजोर है,’’ मैं ने जवाब हलकेफुलके अंदाज में देना चाहा था पर मेरी आवाज में उदासी के भाव पैदा हो ही गए.
‘‘सीमा कुछ नहीं भूलती है, कपूर साहब. महीनों पहले हुई गलती का ताना देने से यह कभी नहीं चूकती,’’ रवि के इस मजाक पर मेरे अलावा वे तीनों खुल कर हंसे थे.
‘‘महीनों पुरानी न सही पर आप वर्षों पहले हुई गलती तो भुला कर माफ कर देती होंगी?’’ मैं ने पहली बार सीमा की आंखों में देखने का हौसला पैदा कर यह सवाल पूछा.
रवि और शुचि मेरे सवाल पर ठहाका मार कर हंसे पर मैं ने सीमा के चेहरे पर से नजर नहीं हटाई.
‘‘वक्त के साथ नईपुरानी सारी गलतियां खट्टीमीठी यादें बन जाती हैं, कपूर साहब. आप इन की बातों पर ध्यान न देना. पुरानी बातों को याद रख कर अपने या किसी और के मन को दुखी रखना मेरा स्वभाव नहीं है. आप खाने से पहले कुछ ठंडा या गरम लेंगे?’’ सीमा सहज भाव से मुसकराती हुई किचन में जाने को उठ खड़ी हुई थी.
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Anita Jain
सेवानिवृत्त होने के बाद मुझ जैसे फिट इनसान के लिए दिन काटना एक समस्या बन गया था. जिस ने जीवन भर साथ निभाने का वादा किया था वह 2 साल पहले दुनिया छोड़ कर चली गई. उस के साथ का अभाव अब बहुत खलता था.
बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में बस गया है. उस का साल में एक चक्कर लगता है. छोटा बेटा और उस की पत्नी मुंबई में नौकरी करते हैं. वे हमेशा अपने पास रहने को बुलाते हैं पर मन नहीं मानता. यह इलाका और आसपास के लोग जानेपहचाने हैं. इन्हें छोड़ कर जाने की बात सोचते ही मन उदास हो जाता है.
‘‘सर, आप के पास पैसा और जीने का उत्साह दोनों ही हैं. आप को अकेलेपन की पीड़ा क्यों भोगनी है? अपने मनोरंजन और खुशी के लिए आप को बढि़या कंपनी बड़ी आसानी से मिल सकती है.’’ ये शब्द 21 साल की शुचि ने मुझ से आज सुबह के वक्त पार्क में कहे तो मैं मन ही मन चौंक पड़ा था.
शुचि से मेरी मुलाकात सप्ताह भर पहले सुबह की सैर के समय पार्क में हुई थी. उस दिन मैं घूमने के बाद बैंच पर बैठ कर सुस्ता रहा था और वह कुछ दूरी पर व्यायाम कर रही थी.
मैं बारबार उस की तरफ देखने से खुद को रोक नहीं पा रहा था. उस के युवा, सांचे में ढले खूबसूरत जिस्म को हरकत करते देखना मुझे अच्छा लग रहा था, इस तथ्य को मैं बेहिचक स्वीकार कर लेता हूं.
एक्सरसाइज करने के बाद उसी ने मौसम के ऊपर टिप्पणी करते हुए मेरे साथ वार्तालाप शुरू किया था. करीब 10 मिनट हमारे बीच बातें हुईं पर इतनी छोटी सी मुलाकात से मिली ताजगी और खुशी दिन भर मेरे साथ बनी रही थी.
हम रोज सुबह पार्क में मिलने लगे. उस के साथ बातें करने में मुझे बहुत मजा आता था. वह एक बातूनी पर समझदार और संवेदनशील लड़की थी.
मैं रात को सोने के लिए लेटता तो पाता कि मन सुबह होने का इंतजार बड़ी बेचैनी से कर रहा है. उस से मिल कर आने के बाद घर का कोई भी काम करना मुझे पहले की तरह उबाऊ नहीं लगता. अब अगर खाली बैठता तो अकेलेपन और उदासी की चुभन व पीड़ा ने मुझे परेशान करना बंद कर दिया था.
‘‘मेरे मनोरंजन और खुशी के लिए कौन देगा मुझे बढि़या कंपनी?’’ आज सुबह उस की बात सुन कर मैं ने हलकेफुलके अंदाज में उत्सुकता दर्शाई थी.
‘‘आप अगर पैसा खर्च करने को तैयार हैं तो पहले किसी क्लब या सोसाइटी के मेंबर बन जाइए. पांचसितारा होटल के बार और रेस्तरां में जाना शुरू कीजिए. वहां आप की मुलाकात ऐसी जवान महिलाओं से होगी जिन्हें अपने शौक या जरूरतें पूरी करने को पैसा चाहिए. बदले में आप का मन बहलाने के लिए वे आप को अच्छी कंपनी देंगी.’’
‘‘आजकल ऐसा कुछ होता है, यह मैं ने सुना जरूर है पर ऐसी किसी औरत से कभी मिला नहीं हूं.’’
‘‘तो अब मिलिए, सर. आप के बेटेबहुओं के पास आप के लिए वक्त नहीं है और न ही उन्हें आप का पैसा चाहिए. तब बैंक में पैसा जोड़ कर आप को किस के लिए रखना है?’’
‘‘अरे, पैसा तो पास में होना ही चाहिए. कल को किसी बीमारी ने धरदबोचा तो…’’
‘‘सर, अगर कल की सोचते हुए आप ने आज की खुशियों को दांव पर लगा दिया तो अपने अकेलेपन और उदासी से कभी छुटकारा नहीं पा सकेंगे.’’
‘‘लेकिन मेरा इस तरह की स्त्री से परिचय कौन कराएगा?’’
‘‘सर, आप नोटों से पर्स भर कर घर से निकलिए तो सही. गुड़ कहां है, ये मक्खियों को कोई बताता है क्या, सर?’’
ऐसा जवाब देने के बाद शुचि खिलखिला कर हंसी तो मैं भी खुल कर मुसकराने से खुद को रोक नहीं पाया था.
अगले दिन उस ने जब फिर से इसी विषय पर वार्तालाप शुरू किया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘शुचि, मैं रुपए खर्च करने को तैयार हूं पर मुझे यह बताओ कि कल को मेरा कोई परिचित, दोस्त या रिश्तेदार जब किसी सुंदर स्त्री के साथ मुझे घूमते हुए देखेगा तो क्या सोचेगा?’’
‘‘वह कुछ भी सोचे, आप को इस बारे में कैसी भी टेंशन क्यों लेनी है?’’
‘‘टेंशन तो मुझे होगी ही. मैं लोगों की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहता हूं.’’
‘‘सर, आप तो बहुत डरते हैं,’’ उस ने अजीब सा मुंह बनाया.
‘‘अपनी बदनामी से सभी को डरना चाहिए, यंग लेडी.’’
‘‘फिर तो आप मुझे अपने घर चलने का निमंत्रण कभी नहीं देंगे,’’ उस ने अचानक ही वार्तालाप को नया मोड़ दे दिया.
‘‘तुम मेरे घर चलना चाहती हो?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा.
‘‘यस, सर,’’ उस ने बेहिचक जवाब दिया.
‘‘तुम्हारे घर आने की खुशी पाने के लिए मैं थोड़ी सी बदनामी सह लूंगा. तुम कब आओगी मेरे घर?’’ मैं ने मजाकिया लहजे में पूछा.
‘‘अभी चलें?’’ उस ने चुनौती देने वाले अंदाज में मेरी आंखों में झांका.
‘‘तुम्हारे मम्मीपापा चिंता तो नहीं करेंगे?’’ उस के सवाल से मन में उठी हलचल के कारण मैं एकदम से ‘हां’ नहीं कह पाया था.
‘‘मैं ने घर से निकलते हुए मम्मी को बता दिया था कि शायद मैं आप के साथ आप के घर चली जाऊं.’’
‘‘तब चलो,’’ हम दोनों पार्क के गेट की तरफ चल पड़े, ‘‘तो तुम ने अपनी मम्मी को मेरे बारे में और क्याक्या बता रखा है?’’
‘‘वह तो आप के बारे में पहले से ही बहुतकुछ जानती हैं. पार्क में घूमते हुए कुछ दिन पहले उन्होंने ही मुझे आप का परिचय बताया था.’’
‘‘और वह मुझे कैसे जानती हैं?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.
‘‘वह आप के साथ कालिज में पढ़ा करती थीं लेकिन आप दोनों के बीच ज्यादा बातचीत कभी नहीं हुई थी.’’
‘‘शायद देखने पर मैं उन्हें पहचान लूं. वैसे तुम्हें क्या बताया है उन्होंने मेरे बारे में?’’
‘‘यही कि आप बहुत अमीर हैं और 2 साल से बहुत अकेले भी.’’
‘‘इस का मतलब तुम्हारी मम्मी को मेरी पत्नी के इस दुनिया को छोड़ कर चले जाने की जानकारी है. मेरे अकेलेपन को दूर करने का जो इलाज तुम मुझे बता रही हो, क्या वह तुम्हारी मम्मी का बताया हुआ है?’’
‘‘एक बार हम दोनों की इस विषय पर बातचीत हुई थी. वैसे मुझे नहीं लगता कि आप इस दिशा में कोई कदम उठाएंगे.’’
‘‘ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.
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धनबाद बर्दवान के बीच चलने वाली लोकल ईएमयू टे्रनों की सवारियों को दूर से ही पहचाना जा सकता है. इन रेलगाडि़यों में रोज अपडाउन करते हैं ग्रामीण मजदूर, सरकारी व निजी संस्थानों में लगे चतुर्थ श्रेणी के बाबू, किरानी, छोटीछोटी गुमटियों वाले व्यवसायी, यायावर हौकर्स और स्कूलकालेजों के छात्रछात्राएं. उस रोज दोपहर का वक्त था. लोकल टे्रन में भीड़ न थी. यात्रियों की भनभनाहट, इंजनों की चीखपुकार और वैंडरों की चिल्लपों का लयबद्ध संगीत पूरे वातावरण में रसायन की तरह फैला हुआ था. आमनेसामने वाली बर्थों पर कुछ लोग बैठे थे. उन में एक नेताजी भी थे. अभी ट्रेन छूटने में कुछ समय बाकी था कि एक भरीपूरी नवयुवती सीट तलाशती हुई आई. कसा बदन, धूसर गेहुआं रंग, तनिक चपटी नाक. हाथ में पतली सी फाइल. उस की चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी पर शहरी लड़कियों सा बिंदासपन नहीं था. एक किस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से और यही बात उस के आकर्षण को बढ़ा रही थी.
उसे देखते ही नेताजी हुलस कर तुरंत ऐक्शन में आ गए. गांधी टोपी को आगेपीछे सरका कर सेट किया और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिनाए, ‘‘अरे, यहां आओ न बेटी. खिड़की के पास हवा मिलेगी.’’
युवती एक क्षण को ठिठकी, फिर आगे बढ़ कर नेताजी के बगल में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गई.
सामने की बर्थ पर बैठे प्रोफैसर सान्याल का मन ईर्ष्या से सुलग उठा. थोड़ी देर तक तो वे चोर नजरों से लड़की के मासूम सौंदर्य को निहारते रहे. फिर नहीं रहा गया तो युवती से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत में बोल उठे, ‘‘कालेज से आ रही हैं न?’’
‘‘जी हां, नया ऐडमिशन लिया है,’’ युवती हौले से मुसकराई तो प्रोफैसर निहाल हो गए.
फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘‘मुझे पहचान रही हैं? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण व स्वतंत्रता पर मेरे आलेख ने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी है. आप ने देखा है आलेख?’’
‘‘न,’’ युवती के इनकार में सिर हिलाते ही प्रोफैसर को कसक का एहसास हुआ. शिक्षा जगत की इतनी महत्त्वपूर्ण घटना से युवती वाकिफ नहीं, प्रोफैसर के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईं.
नेताजी ने जब देखा कि लड़की प्रोफैसर की ओर ही उन्मुख बनी हुई है तो क्षुब्ध हो उठे और उस का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बोल पड़े, ‘‘अरे बेटी, आराम से बैठो न. कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है?’’ फिर जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर लड़की को देते हुए उस की उंगलियों को थाम लिया, ‘‘हमरा कार्डवा रख लो. धनबाद क्षेत्र के भावी विधायक हैं हम. अगला चुनाव में उम्मीदवार घोषित हो चुके हैं, बूझी? बर्दवान से ले कर धनबाद तक का हर थाना में हमरा रुतबा चलता है. कभी कोई कठिनाई आए तो याद कर लेना.’’
युवती की उंगलियां नेताजी के हाथों में थीं. असमंजस से भर कर उस ने झट से हाथ नीचे कर लिया. प्रोफैसर की नजरों से नेताजी की चालाकी छिपी न रह सकी. शर्ट के तले उन की धुकधुकी भी रोमांच से भरतनाट्यम् करने लगी. आननफानन अटैची खोल कर आलेख की जेरौक्स प्रति निकाली और युवती को थमाते हुए उस की पूरी हथेली को अपनी हथेलियों में भर लिया, ‘‘इस आलेख में आप जैसी युवतियों की समस्याओं का ही तो जिक्र किया है मैं ने. नारी स्वावलंबी बने, घर की चारदीवारी से मुक्त हो कर खुले में सांस ले, समाज के रचनात्मक कार्यों से जुड़े. जोखिम तो पगपग पर आएंगे ही. जोखिम से आप युवतियों की रक्षा समाज करेगा. समाज यानी हम सब. यानी मैं, ये नेताजी, ये भाईसाहब, ये… और ये…’’
प्रोफैसर अपनी धुन में पास बैठे यात्रियों की ओर बारीबारी से संकेत कर ही रहे थे कि नजरें घोर आश्चर्य से सराबोर हो कर पास बैठी शकीला पर जा टिकीं.
सांवला रंग, काजल की गहरी रेखा. लगातार पान चबाने से कत्थई हुए होंठ. पाउडर की अलसायी परत. कंधे से झूलती पुरानी ढोलक. अरे, भद्र लोगों की जमात में यह नमूना कहां से घुस आया भाई. अभी तक किसी की नजरें गईं कैसे नहीं इस अजूबे पर.
प्रोफैसर की नजरों की डोर थाम कर अन्य यात्री भी शकीला की ओर देखने लगे.
‘‘तू इस डब्बे में कैसे घुस आई रे?’’ प्रोफैसर फनफना उठे. इसी बीच उस युवती ने कसमसा कर अपनी हथेली प्रोफैसर के पंजे से छुड़ा ली.
‘‘हिजड़े न तीन में होते हैं न तेरह में, हुजूर. सभी जगह बैठने की छूट मिली हुई है इन्हें,’’ पास बैठे पंडितजी ने टिप्पणी की तो जोर का ठहाका फूट पड़ा.
‘‘ऐ जी,’’ शकीला विचलित और उत्तेजित हुए बिना चिरपरिचित अदा से ताली ठोंकती हुई हंस पड़ी, ‘‘अब हम हिजड़ा नहीं, किन्नर कहे जाते हैं, हां.’’
‘‘किन्नर कहे जाने से जात बदल जाएगी, रे?’’ नेताजी ने हथेली पर खैनी रखते हुए व्यंग्य कसा.
‘‘जात न सही, रुतबा तो बदला ही है,’’ शकीला का चेहरा एक अजीब सी ठसक से चमक उठा.
‘‘असल में जब से तुम लोगों की मौसियां विधायक बनी हैं, दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ कर नाचने लगा है, हंह,’’ नेताजी के भीतर एक तीव्र कचोट फुफकारने लगी. उन्हें राजनीति के अखाड़े में कूदे 25 साल हो गए थे. क्याक्या सपने देखे थे. विधायक का गुलीवर कद, लालबत्ती वाली कार, स्पैशल सुरक्षा गार्ड, भीड़ की जयजयकार. पर हाय, 3-3 बार प्रयास के बावजूद विधानसभा तो दूर, स्थानीय नगरनिगम का चुनाव तक नहीं जीत पाए और ये नचनिया सब विधायक बनने लगे. हाय रे विधाता.
‘‘बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप,’’ प्रोफैसर के लहजे में क्षोभ घुला हुआ था, ‘‘क्या होता जा रहा है इस देश की जनता को? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का क्या गौरवपूर्ण समरसता का इतिहास रहा है हमारा. पहले राजा प्रताप, शिवाजी, भामाशाह, कौटिल्य आदि. उस के बाद गांधी, नेहरू, अंबेडकर, शास्त्री वगैरह. देश पूरी तरह सुरक्षित था इन के हाथों में. पर अब जनता की सनक तो देखिए, हिजड़ों के हाथों में शासन की लगाम देने लगी है.’’
‘‘अब छोडि़ए भी ये बातें,’’ शकीला खीखी कर के हंसी. शकीला के वक्ष से छींटदार नायलोन की पारदर्शी साड़ी का आंचल ढलक गया था.
बातों का सिलसिला अभी चल ही रहा था कि टे्रन की सीटी की कर्कश आवाज फिजा में गूंज गई. फिर टे्रन के चक्कों ने गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिया. ठीक उसी समय 3 युवक भी डब्बे में चढ़ आए. कसीकसी जींस, अजीबोगरीब स्लोगन अंकित टीशर्ट, हाथों में एकाध कौपी या फाइल. एकदूसरे को धकियाते, हल्ला मचाते तीनों डब्बे के उसी हिस्से में आ गए जहां प्रोफैसर और नेताजी बैठे हुए थे. युवती पर नजर जाते ही उन के पांव थम गए और बाछें खिल गईं.
‘‘अतुल, क्यों न यहीं बैठा जाए?’’ पिंटू चहक उठा. फिर युवती से मुखातिब हो कर पूछ बैठा, ‘‘हैलो, आप स्टुडैंट हैं न? किस कालेज में हैं?’’
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लेखिका-Er. Asha Sharma
‘‘सुबहउठते ही सब से पहले हाथों में अपने करम की लकीरों के दर्शन करने चाहिए.’’ मां की यह बात मंजूड़ी के दिमाग में ऐसी फिट बैठी हुई है कि हर सुबह नींद खुलने के साथ ही उस के दोनों हाथ मसल कर अपनेआप ही आंखों के सामने आ जाते हैं. यह अलग बात है कि मंजूड़ी को इन में आज तक किसी देव के दर्शन नहीं हुए. अपने करम की लकीरों से सदा ही शिकायत रही है उसे. और हो भी क्यों नहीं… दिन उगने के साथ ही उसे रोजमर्रा की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी जूझना पड़ता है… समस्या एक हो तो गिनाए भी… यहां तो अंबार लगा है…
उठते ही सब से पहले समस्या आती है फारिग होने की… बस्ती की बाकी लड़कियों के साथ उसे भी किसी की पी कर खाली की गई ठंडे की बोतल ले कर मुंह अंधेरे ही निकलना पड़ता है… अगर किसी दिन जरा भी आलस कर गई तो दिन भर की छुट्टी… अंधेरा होने तक पेट दबाते ही रहो…
इस के बाद बारी आती है नहानेधोने की… तो रोज न सही लेकिन कभीकभी तो नहानाधोना भी पड़ता ही है… यूं तो सड़क के किनारे बिछी मोटी पाइपलाइन से जगहजगह रिसता पानी इस काम को आसान बना देता है. जब वह छोटी थी तो मां के कमठाणे पर जाने के बाद कितनी ही
देर तक इस पानी से खेलती रहती थी. लेकिन एक दिन… जब वह नहा रही थी तब मुकेसिया उसे घूरने लगा था… पहली बार मां ने बांह
पकड़ के उसे कहा था ‘‘ओट में नहाया कर…’’ उस दिन के बाद वह ओट में ही नहाती है. जी हां! ओट…
मां ने लकड़ी की चार डंडियां रोप कर… पुराने टाट और अपनी धोती बांध कर नहाने के लिए ओट तो बना रखी थी लेकिन वहां नहाना भी कहां आसान था… एक बड़ी परात में छोटा सा पाटा रख कर उस पर किसी तरह बैठ कर नहाओ अखरता तो बहुत है लेकिन क्या करें…
मां कहती है, ‘‘विधाता के लिखे करम तो भोगने ही पड़ेंगे.’’
पीने के लिए पानी का जुगाड़ करना भी एक बड़ी समस्या है. मैल से चिक्कट हुए कुछ प्लास्टिक के खाली कनस्तर झुग्गी के बाहर पड़े हैं. टूटी हुई पाइपलाइन से लोटालोटा भर के इन में दिन भर के लिए पीने का पानी भरना है… मां ने तो यह काम उसी के जिम्मे डाल रखा है… खुद तो बापड़ी दिन उगे उठने के साथ ही चूल्हे में सिर दे देती है… न दे तो करे भी क्या… 5 औलादें और 2 खुद… 7 मिनखों के लिए टिक्कड़ सेकतेसेकते ही सूरज सिर पर आ जाता है…
8 बजतेबजते तो दोनों धणीलुगाई अपने टिफिन ले कर काम पर चले जाते हैं… जो दिन ढले आते हैं तो थक के एकदम चूर… बाप तो एकआध पौव्वा चढ़ा कर अपनी थकान उतारने का झूठा बिलम करता है लेकिन मां बेचारी क्या करे… सूखे होंठों की पापड़ी को गीली जीभ फिरा कर नरम करती है और फिर से चूल्हे में सिर दे देती है… ईटों की तगारी सिर पर ढोतेढोते खोपड़ी के बाल घिस गए बेचारी के…
‘‘अरे मंजूड़ी, सूरज सिर पर नाचण लाग रियो है… इब तो उठ जा मरजाणी… बेगी सी मैडमजी को काम सलटा के आज्या… मैं और तेरो बापू जा रिया हां… और सुण, मुकेसिया नै ज्यादा मुंह मत लगाया कर… छुट्टा सांड हो रखा है आजकल…’’ मां ने जूट सिली पानी की बोतल प्लास्टिक की थैली में रखते हुए कहा तो मंजूड़ी ने अपनी खाट छोड़ी और अंगड़ाई लेने लगी. झुग्गी में पड़ेपड़े ही बाहर देखा. रामूड़ा अपनी खाट पर नहीं दिखा. उस का प्लाटिक का थैला भी अपनी ठौर नहीं था.
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‘बेचारा रामूड़ा, मुंह अंधेरे ही कांच प्लास्टिक की खाली बोतलें चुगने निकल जाता है… न जाए तो क्या करे… यहां भी तो चुगने वालों में होड़ लगी रहती है… जो सोए… सो खोए… कुछ कचरा बीन लाएगा तो 10-20 रुपल्ली हाथ में आ जाएगी… रुपए मुट्ठी में दबा के कैसा धन्ना सेठ समझने लगता है खुद को…’ सोच कर मंजूड़ी मुसकरा दी.
16 साल की मंजूड़ी भले ही झुग्गी में रहती है… बेशक उस की जिंदगी में सौ अभाव हैं… लेकिन आंखों में सपने तो आम लड़कियों की तरह ही हैं न… बारबार खुद को दर्पण में देखना… तरहतरह से बाल काढ़ना… सस्ती ही सही लेकिन नाखूनों पर पालिश की परत चढ़ाना… लिपस्टिक न सही… 2-5 रुपए की संतरे वाली कुल्फी से ही अपने होंठों को रंग कर खुद पर इतराना… ये सब भला किसी विशेष सामाजिक स्तर की लड़कियों के लिए आरक्षित थोड़े ही हैं… मंजूड़ी को भी सपने देखने का उतना ही अधिकार है जितना किसी भी सामान्य किशोरी को… उस का मन भी बारिश में भीगभीग कर गीत गाने को होता है… जैसे फिल्मों में हीरोइन गाती है… सफेद झीनी साड़ी पहने के… उसे भी सर्दी में चाय के साथ गरमगरम समोसे और गरमी में ठंडीठंडी कुल्फी आइसक्रीम खाने को दिल करता है…
अरे हां, चाय और आइसक्रीम से याद आया. अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है. ननिहाल से बिरजू मामा आए थे. मां ने छोटी बहन नानकी को 10 का नोट दे कर दूध लाने भेजा था. दूध वाली थड़ी पर एक बच्चा अपनी मां के साथ आइसक्रीम ले कर खा रहा था. नानकी का भी दिल मचल गया. उस ने उस 10 रुपए की कुल्फी खरीद ली और मजे से चुस्की मारने लगी. उधर चाय का पानी दूध के इंतजार में उबल रहा था और उधर ननकी का कोई अतापता ही नहीं… मां ने बापू को देखने भेजा तो पीछेपीछे मंजूड़ी भी आ गई. बापू ने नानकी को कुल्फी चूसते देखा तो ताव खौल गया… रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले के लिए 10 के नोट की कीमत क्या होती है यह सिर्फ वही समझ सकता है…
तमतमाए बापू ने मां की गाली के साथ एक जोरदार डूक नानकी की पीठ पर धर दिया. कुल्फी छूट कर मिट्टी में गिर गई. नानकी ने पलट कर देखा तो डर का एक साया उस की आंखों में उतर आया लेकिन अगले ही पल उसे कुल्फी का ध्यान आया. उस ने कुल्फी को उठाया… अपनी फ्रौक से पोंछी और फिर से उसे चूसनेचाटने लगी.. ‘‘बेचारी नानकी…’’ मंजूड़ी को उस पर दया आ गई. उस ने बहन के बालों में हाथ फेरा और झुग्गी से बाहर आ गई.
बस्ती में कुछ चूल्हे अभी भी सुलग रहे हैं. दीनू काका कीकर की छांव में बैठे बीड़ी फूंक रहे हैं… सरबती ताई खाट पर पड़ी खांस रही है… बिमली का छोरा झुग्गी के बाहर रखी 2 ईंटों पर अपना सुबह का पहला काम निपटा रहा है… 2 पिल्ले उस के निबटने के इंतजार में आसपास मंडरा रहे हैं… एक तरफ 3-4 बच्चे धींगामस्ती कर रहे हैं. मुकेस अपनी औटो साफ कर रहा है… उस के एफएम पर तेज गाने बज रहे हैं. मुकेस ने उस की तरफ देखा और मुसकरा कर अपनी बाईं आंख दबा दी. मंजूड़ी सकपका कर झुग्गी के भीतर आ गई.
‘‘छुट्टा सांड कहीं का, मां कहती है मुकेसिये को मुंह मत लगाना… ससुरा ये तो अंगअंग लग चुका…’’ मंजूड़ी बुदबुदाई और फिर से खाट पर पसर गई. हाथ छाती पर चला गया. 10-10 के कुछ नोट अभी भी चोली में दबे पड़े हैं.
3 साल पहले की ही बात है. मंजूड़ी मैडमजी के घर साफसफाई कर के आई ही थी. तावड़े ने भी आज धार ही रखी थी लाय बरसाने की. मंजूड़ी अपनी लूगड़ी को पानी में निचोड़ कर लाई और गीली को ही ओढ़ कर खाट पर पसर गई थी. थोड़ी देर में लूगड़ी का पानी सूख गया. वह फिर से बाहर निकली उसे भिगोने के लिए. तभी मुकेस सामने आ गया.
‘‘क्या बात है! बहुत गरमी चढ़ी है क्या?’’ मुकेस बोला.
‘‘गरमी कहां? मैं तो ठंड से कांप रही हूं.’’ मंजूड़ी ने तमक कर कहा.
‘‘अरे ठंड तो तुझे मैं बताता हूं… मेरे साथ आ…’’ मुकेस उस का हाथ पकड़ कर अपनी झुग्गी में ले गया. झुग्गी सचमुच ठंडी टीप हो रही थी. कूलर जो लगा था… मगर बिजली? मंजूड़ी ने देखा कि उस ने बिजली के खंभे पर अंकुड़ा डाल रखा है. मुकेस ने मंजूड़ी को खाट पर लिटा दिया और खुद भी बगल में सो गया. मुकेस उस पर छाने की कोशिश करने लगा. मंजूड़ी ने विरोध किया लेकिन उस का विरोध थोथा साबित हुआ और मुकेस ने उसे परोट ही लिया. जैसे कभीकभी बापू उस की मां को परोट लेता है… अब एक झुग्गी में इतने मिनख साथ सोएंगे तो फिर परदा कहां रहेगा.
मंजूड़ी की आंखें मूंदने लगी थी. जब आंख खुली तो मुकेस पैंट पहन रहा था. उस ने भी अपने कपड़े ठीक किए और खाट से नीचे उतर गई.
‘‘जब कभी गरमी ज्यादा लगे तो कूलर की हवा खाने आ आना…’’ कहते हुए मुकेस ने
10-10 के 3-4 नोट उस की मुट्ठी में ठूंस दिए थे. वही नोट आज भी उस की चोली में कड़कड़ा रहे हैं.
‘‘आज तुम सब को कुल्फी खिलाऊंगी.’’ नोट सहेजती मंजूड़ी भाईबहनों को जगाने लगी.
मंजूड़ी को आज मैडमजी के घर जाने में देर हो गई. वह फटाफट उन के काम निपटाने लगी. तभी मैडमजी कालेज के लिए तैयार हो कर कमरे से बाहर निकली. और दिन तो वह उन को रात के बासी गाउन में ही देखती है. लेकिन आज…
काली सलवार और लाल कुरता… मैचिंग चप्पल… कंधे पर झूलता पर्स और हाथ में पकड़ा मोबाइल… कानों में लटके झुमके अलग से लकदक कर रहे थे… मंजूड़ी देखती ही रह गई. आंखों में ‘‘काश’’ वाली एक चमक सी उभरी और फिर धीरेधीरे मंद पड़ती गई.
‘‘आज बहुत देर कर दी मंजू. मैं तो निकल रही हूं… तू भी फटाफट काम निबटा दे… साहब को भी जाना है…’’ कहती हुई मैडमजी ने कार की चाबी उठाई और बाहर निकल गई. मंजूड़ी अपने काम में लग गई लेकिन आंखों के सामने अभी भी हीरोइन सी सजीधजी मैडमजी ही घूम रही थीं.
3-4 दिन बाद जब मंजूड़ी सफाई करने मैडमजी के कमरे में गई तो देखा कि ड्रैसिंग टेबल पर उन के वही झुमके रखे थे. उस ने उन्हें उठाया और अपने कानों से लगा कर देखा… फिर गरदन इधरउधर घुमाई… खुद ही खुद पर मुग्ध हो गई… कुछ देर यों ही खुद को निहारती रही… तभी शीशे में साहबजी की छवि देख कर वह अचकचा गई और झुमके वापस रख दिए.
‘‘तुझे पसंद है क्या?’’ साहब ने प्रेम से पूछा. मंजूड़ी ने कोई जवाब नहीं दिया.
‘‘ये ले, पहन ले… विनी के पास तो ऐसे बहुत से हैं.’’ साहबजी उस के बहुत पास आ गए थे. इतने पास कि पंखे की हवा से उन के शरीर पर छिड़का हुआ पाउडर उड़ कर मंजूड़ी की कुर्ती पर बिखरने लगा. साहबजी ने वे झुमके जबरदस्ती उस के हाथों में थमा दिए. इसी बहाने उस के हाथों को ऊपर तक और फिर कुछ नीचे भी… गले और छाती तक… मसल दिया था साहब ने… एक बार तो मंजूड़ी अचकचा गई लेकिन फिर उस ने झुमके ले लिए. झुमकों की ये कीमत ज्यादा नहीं लगी उसे.
एक मूक समझौता हो गया… साहबजी… मुकेस… और मंजूड़ी… सब एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने लगे. आजकल मंजूड़ी काफी खुश नजर आती है. दिन भर गुनगुनाती रहती है. और तो और विनी मैडम के घर भी जानबूझ कर देरी से जाने लगी है. बस, उस का घर में घुसना और विनी का निकलना… लगभग साथसाथ ही होता है… कभीकभी मुकेस की झुग्गी में ठंडी हवा खाने भी चली जाती है.
‘‘आज ये कुल्फी किस ने खाई रे?’’ मां ने झुग्गी के बाहर से चूसी हुई कुल्फी की डंडियां उठाते हुए पूछा.
‘‘मंजूड़ी लाई थी…’’ नानकी ने पोल खोल दी तो मां ने मंजूड़ी को सवालिया निगाहों से घूरा.
‘‘आज रास्ते में 20 का नोट पड़ा मिला था… उसी से खरीद…’’ मंजूड़ी साफ झूठ बोल गई लेकिन मन ही मन डर भी गई थी कि कहीं मां यह झूठ पकड़ न ले… मंजूड़ी अतिरिक्त सतर्क हो गई.
‘‘मंजूड़ी यह नई फैसन की लाल चोली कहां से आई तेरे पास? एक दिन मां ने कड़कते हुए पूछा था.’’
‘‘इन मांओं के पास भी जाने कैसी चील की सी नजर होती है… कुछ भी नहीं छिपता इन से…’’ मंजूड़ी अपनी लूगड़ी में ब्रा को छिपाने की कोशिश करने लगी.
‘‘अरे बता तो… किस ने दी है?’’ मां ने उस की लूगड़ी परे फेंक दी. मंजूड़ी चुप.
‘‘मां हूं तेरी… बरस खाए हैं मैं ने… तेरी वाली उमर भोग चुकी हूं… देख छोरी, सहीसही बता… किस रास्ते जा रही है तू…’’ मां ने उस के कंधे झिंझोड़ दिए. मंजूड़ी पूरी हिल गई… नहीं हिली तो सिर्फ उस की जुबान.
‘‘देख मंजूड़ी, हम ठहरी लुगाई जात… मरद का मैल भी हमें ही ढोना पड़ता है… मुकेसिए और तेरे साहबजी जैसे लोगों के चक्कर में मत आ जाना… और ये प्रेमप्यार का तो सोचना भी मत… यह सब हमारे भाग में नहीं लिखा होता…’’ मां थोड़ी नरम पड़ी तो मंजूड़ी का भी हौंसला बढ़ा.
‘‘तू तो मेरी वाली उमर भोग चुकी है न मां, जानती ही होगी कि अच्छा खानेपीने, पहननेओढ़ने और सैरसपाटे की कितनी हूंस उठती है मन में… अब न तो मेरा बाप कोई धन्ना सेठ है जो मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर देगा और न ही हमारी इतनी औकात है कि हम पढ़लिख कर विनी मैडम जैसे कमाएं और उड़ाएं… ज्यादा क्या होगा… 2-4 घर और पकड़ लूंगी… लेकिन उतने भर से क्या हो जाएगा… तो ञ्चया मार लें अपने मन को? यों ही रोतेबिसूरते निकाल में अपनी उमर? तूने तो बरस खाए हैं न… तू ही कोई इज्जत वाला रास्ता बता जिस से मेरे सपने पूरे हो सकें.’’ मंजूड़ी जैसेजैसे बोल रही थी वैसेवैसे मां के माथे पर लकीरें बढ़ती जा रही थी.
‘‘अरे करमजली, किस रास्ते पर चल पड़ी है तू… ये मरद जात बड़ी काइयां होती हैं… तू इन के लिए बिस्तर की चादर सी है… नई बिछाते ही पुरानी को उतार फेंकेंगे… कल को कहीं कोई रोगमरज लग गया तो दवादारू तो छोड़… देखने तक भी नहीं आएंगे ये… अरे हमारे पास चरित्तर के अलावा और है ही क्या…’’ मां उस के सिर में ठोला दे कर फुंफकारी. मंजूड़ी सर झुकाए खड़ी रही. मां उसे इसी हालत में छोड़ कर काम पर निकल गई.
4 दिन हो गए. मंजूड़ी काम पर नहीं गई. मुकेस भी कई बार उस के आसपास मंडराया लेकिन
उस ने उस की तरफ देखा तक नहीं… नानकी 2 दिन से कुल्फी के लिए रिरिया रही है. रामूड़े की जांघ उस के नेकर में से झांकने लगी है… खुद उस की आंखों के सामने विनी मैडमजी जैसे झुमके… बिंदी और क्रीम पाउडर घूम रहे हैं. मंजूड़ी चरित्र और इज्जत की परिभाषा में उलझती ही जा रही है.
‘‘इज्जत… इज्जत… इज्जत, चाटूं क्या इस थोथे चरित्तर को… क्या हो जाता है इज्जत को जब मुंह अंधेरे मोट्यारों के सामने नाड़ा खोल कर बैठना पड़ता है… कहां छिप जाता है चरित्तर जब खुले में आंख मींच के नहाना पड़ता है… कहां चली जाती है लाजशरम जब रात में मांबापू के बीच में सांस दबा के सोने का नाटक करना पड़ता है…’’ मंजूड़ी खुद को मथने लगी. विचारों के दही में से निष्कर्ष का मक्खन अलग होने लगा.
‘‘अगर कभी साहबजी ने मेरे साथ जबरदस्ती की होती तो? तो क्या होता… मैं अपनी इज्जत की खातिर दूसरा घर देखती… लेकिन एक बार तो लुट ही गई होती न… तो फिर? क्या हर बार लुटने के बाद घर बदलती? लेकिन कब तक? और तब न इज्जत बचती और न ही हाथ में दो रुपल्ली आती… तो फिर अब जब यह सब मेरी मर्जी से हो रहा है तो इस में क्या गलत है? क्या चरित्तर की ठेकेदारी सिर्फ हम लुगाइयों की है… साहबजी या मुकेसिये पर तो कोई उंगली नहीं उठाएगा… जब वो मेरे जरिए अपना मलब साध रहे हैं तो फिर मैं ही क्यों इज्जत की टोकरी ढोती फिरूं… मैं भी क्यों नहीं उन के जरिए अपना मतलब साधूं… कोई न कोई बीच का रास्ता जरूर होगा…’’ रात भर विचारती मंजूड़ी के मन की गुत्थी सुबह होने तक लगभग सुलझ ही आई थी.
आज मां के जागने से पहले ही मंजूड़ी उठ गई… सुबह का काम निबटाया… हाथमुंह धोया… अपने कपड़े ठीक किए… काम पर निकल पड़ी… रास्ते में दवाई की दुकान पर ठिठकी… आसपास देखा… घोड़े की फोटो वाला पैकेट खरीद कर चोली में ठूंस लिया… सधे हुए कदमों से चल दी मंजूड़ी… अनजान मंजिल के नए रास्तों पर…
शकुंतला शर्मा
‘तो तू आ रही है न. रोमा घूमफिर कर वहीं आ गई. कम से कम मेरे लिए.‘ ‘मम्मी के सवालों की बौछारों का सामना तो कर लूं फिर तुझे फोन करूंगी,‘ सुजाता ने चतुराई से बात टाल दी थी.
‘कहां गई थी सुजी, इतनी देर हो गई,‘ घर पहुंचते ही उस की मम्मी मीना ने उस की खबर ली. ‘आप को बता कर तो गई थी,‘ सुजाता हंसी थी. ‘कल रोमा और उस के दोस्त पिकनिक पर जा रहे हैं. रोमा चाहती है कि मैं भी उन के साथ जाऊं.‘ ‘दोस्त या सहेलियां?‘
‘सब लड़कियां हैं मां. लड़के जा भी रहे हों, तो क्या फर्क पड़ता है.‘ ‘फर्क पड़ता है. जब तक तू घर से बाहर रहती है, मन घबराता रहता है. जमाना बहुत खराब आ गया है.‘
‘मम्मी, आप की बेटी कराटे में ब्लैक बैल्ट है, इसलिए डरना छोड़ दो. फिर आप ही तो कहती हैं कि व्यक्तित्व को सजानेसंवारने के लिए घर से बाहर निकलना और नए दोस्त बनाना बहुत आवश्यक है.‘ ‘क्या सचमुच वह इतनी बदसूरत है,‘ वह देर तक सोचती रही. ‘कौन कहता है वह तो स्वयं को संसार की सब से सुंदर लड़की समझती है‘, सोचते हुए वह उदासी में भी मुसकरा दी.
‘ठीक है सुजाता, बहस में तो मैं तुम से कभी जीत ही नहीं सकती. मैं सारी तैयारी कर दूंगी. चली जाओ पिकनिक पर, पर सावधान रहना,‘ मीना ने हथियार डाल दिए. पर सुजाता देर तक स्वयं को दर्पण में निहारती रही. पिकनिक में सुजाता का व्यवहार देख कर सब से अधिक आश्चर्य रोमा को ही हुआ. सब कुछ जानते हुए भी वह सब से सामान्य व्यवहार कैसे कर पा रही थी.
एक लोकप्रिय गीत की धुन पर सुजाता को थिरकते देख कर तो सभी हैरान रह गए. उस का रंगरूप देख कर तो वे सोच भी नहीं सकते थे कि सुजाता इतना अच्छा नृत्य करती है, लगता था मानो वह हवा की लहरों पर तैर रही हो. सुजाता के प्रति अन्य छात्राओं का व्यवहार धीरेधीरे बदलने लगा. कुछ छात्राएं तो जैसे उस की दीवानी हो गई थीं. अन्य सभी का ध्यान भी अब रूपरंग से अधिक सुजाता के गुणों पर था. पर सुजाता के पीठपीछे उस की आलोचना अब भी चल रही थी. ‘क्या नाचती है, तुम्हारी सहेली?‘ आभा रोमा से बोली.
‘मेरी ही क्यों, तुम्हारी भी तो सहेली है वह,‘ रोमा हंसते हुई बोली.
‘नो, थैंक्स. पिकनिक के लिए साथ आने से कोईर् किसी का दोस्त नहीं हो जाता. मैं अपने दोस्त और सहेलियां बहुत ध्यान से चुनती हूं और मेरे दोस्त देखनेसुनने में अच्छे हों यह बेहद जरूरी है. तुम्हें एक राज की बात बताऊं, मुझे बदसूरती बिलकुल पसंद नहीं है. मैं तो अपने आसपास केवल वृक्ष, फूल और सौंदर्य देखना चहती हूं,‘ आभा अपने मन की बात बताते हुए नृत्य की मुद्रा में लहराने लगी और रोमा मुसकरा कर रह गई. पिकनिक तो समाप्त हो गई पर सुजाता की त्रासदी चलती रही. पहले तो सुजाता ने सोचा कि रैगिंग की इस प्रक्रिया से हर छात्र या छात्रा को गुजरना पड़ता है पर शीघ्र ही वह समझ गई कि सारा उलाहना केवल उस के लिए ही था. बाहर से वह दिखाने का प्रयत्न करती, मानो इन सब बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता पर एक दिन जब स्वयं को रोक नहीं पाई, तो रोमा के कंधे पर सिर रख कर सिसकने लगी थी.
‘बहुत हो गया, अब मैं तुझे और नहीं सहने दूंगी. हम दोनों कल ही प्राचार्या के पास चलेंगे. इन लोगों की अक्ल तभी ठिकाने आएगी, जब हमारी शिकायत पर इन के विरुद्ध कार्यवाही होगी,‘ रोमा क्रोधित स्वर में बोली. ‘रहने दे रोमा. उन्हें सजा मिल भी गई तो क्या फर्क पड़ जाएगा, उन की नजर में तो मैं वही कुरूप, भद्दी सी लड़की रहूंगी न, जिस का केवल मजाक बनाया जा सकता है,‘ सुजाता सिसकियों के बीच बोली.
‘क्या हो गया है तुझे?‘ कैसे तेरे मुंह से ऐसी बातें निकल सकती हैं. उन्होंने कह दिया कि तू बदसूरत है और तू ने मान लिया. इस से अधिक विडंबना और क्या होगी. क्या हो गया है, तेरे आत्मविश्वास को? हम में से किसी को ऐसे सिरफिरे लोगों से प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है. इन के अहंकार की तो कोई सीमा ही नहीं है. पर तुम उन की बातों से इस तरह आहत हो जाओगी तो कैसे चलेगा. यही तो वे चाहती हैं कि तुम उन की बातों से आहत हो कर स्वयं पर ही तरस खाने लगो. यदि ऐसा हुआ तो सब से अधिक निराशा मुझे ही होगी. इसलिए नहीं कि तुम्हारी मित्रता ने मेरी आंखों पर परदा डाल दिया है बल्कि इसलिए कि तुम्हारे गुण ही हमारी मित्रता की आधारशिला हैं.‘ रोमा भीगे स्वर में बोली. सुजाता कुछ क्षणों तक रोमा को अपलक निहारती रही, फिर मुसकरा दी.
‘अब क्या हुआ?‘ रोमा ने प्रश्न किया. ‘कुछ नहीं, मैं तो बस सोच रही थी कि मैं भी कितनी बड़ी मूर्ख हूं, तेरी जैसी सहेली मेरा साथ दे तो मैं तो सारी दुनिया से भिड़ सकती हूं.‘
‘यह हुई न बात. तो वादा कर कि इन की बातों पर न ही ध्यान देगी और न ही इन्हें स्वयं पर हावी होने देगी.‘ ‘ठीक है, मैं वादा करती हूं कि मैं ईंट का जवाब पत्थर से दूंगी.‘
सत्या, आभा और उन के दल की अन्य छात्राओं का व्यवहार तो नहीं बदला पर सुजाता बदल गई. उस ने हर ओर से स्वयं को समेट कर खुद को पढ़ाई में झोंक दिया. सुजाता प्रथम आई तो सौंदर्य की पुजारिनों को कोई अंतर नहीं पड़ा बल्कि उन्होंने अपने अमूल्य विचार प्रकट करने में देरी नहीं की. ‘हम यहां किताबी कीड़े बनने नहीं आए हैं. हम तो यहां जीवन का आनंद उठाने आए हैं. डिग्री मिल जाए, वही बहुत है,‘ सत्या बोली.
‘और नहीं तो क्या हमें इस छोटी सी उम्र में मोटा चश्मा चढ़वाने का कोई शौक नहीं है,‘ आभा ने उस की हां में हां मिलाई. सुजाता ने उन की बात सुन कर भी अनसुनी कर दी.
‘तुम लोगों ने शायद अंगूर खट्टे हैं वाली कहावत नहीं सुनी,‘ रोमा मुसकरा दी. ‘सुनी है पर हमें अंगूर पसंद ही नहीं हैं न खट्टे और न ही मीठे,‘ आभा तीखे स्वर में बोली.
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शकुंतला शर्मा
पर जैसे ही यह सूचना मिली कि वार्षिकोत्सव में विभिन्न प्रतियोगिताओं के आधार पर ‘कालेज रत्न‘ छात्रा का चुनाव होगा और उसी छात्रा को अदलाबदली कार्यक्रम के अंतर्गत जरमनी और फ्रांस के कुछ कालेजों में रहने और वहां के छात्रछात्राओं से अपने विचारों के आदानप्रदान के साथ ही उन के तौरतरीकों को जाननेसमझने का अवसर भी प्राप्त होगा, कालेज में भूचाल सा आ गया. छात्राओं में इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने
और ‘कालेज रत्न‘ बनने की होड़ लग गई. हलचल तो तब मची जब सुजाता ने भी सभी प्रतियोगिताओं में भाग ले कर ‘कालेज रत्न‘ बनने की दौड़ में कूदने की घोषणा कर दी. ‘लोग कैसेकैसे भ्रम पाल लेते हैं,‘ कक्षा में स्वयं को स्मार्ट समझने वाली छात्राएं ताने देतीं. रोमा तुम अपनी दोस्त को समझाती क्यों नहीं. ‘कालेज रत्न‘ बनने का सपना देखना अच्छा है पर वास्तविकता के धरातल से कोसों दूर है. सुजाता से कहो कि अपनी किताबों में खोई रहे और ‘कालेज रत्न‘ जैसी पदवी हमारे लिए छोड़ दे. सत्या की समवेत हंसी से पूरी कक्षा गूंज उठी. रोमा मूर्ति बनी बैठी रह गई.
‘हाथियों को देख कर जब कुत्ते भौंकते हैं, तो हाथी उन की अवहेलना कर आगे बढ़ जाते हैं,‘ रोमा ने सुजाता को समझाते हुए कहा. ‘कुत्ता किसे कहा तू ने, समझ क्या रखा है. हम इस अपमान को चुपचाप सह लेंगे? हम प्राचार्या महोदया से तुम दोनों की शिकायत करेंगे,‘ आभा भड़क उठी.
‘चलो न यहां कौन डरता है. उन्हें भी तो पता चले कि कौन किस का अपमान कर रहा है,‘ रोमा भी उठ खड़ी हुई. पहली बार सुजाता सब के सामने फूटफूट कर रो पड़ी थी. पर इस से पहले कि कोई कहीं जा पाता अंगरेजी की व्याख्याता ऋचा मैडम कक्षा में आ पहुंचीं. ‘क्या बात है, कहां जा रही हो तुम लोग और सुजाता तुम क्यों रो रही हो?‘ व्याख्याता ऋचा मैडम ने प्रश्न किया था. उत्तर में रोमा ने सारी बात कह सुनाई. सुन कर ऋचा मैडम के आश्चर्य की सीमा न रही. उन्होंने दोनों पक्षों को समझाबुझा कर शांत किया. सुजाता को चुप कराया और बात आईगई हो गई.
पर आज ‘कालेज रत्न‘ पुरस्कार की घोषणा होते ही दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं. आभा, नीरू, मुक्ता अपनी अन्य सहेलियों के साथ सत्या के घर पर मिलीं और आगे की रणनीति तैयार की. सब ने अपनी शिकायत ले कर प्राचार्या महोदया के पास जाने का निर्णय लिया.
प्राचार्या महोदया ने अगले दिन केवल 2 छात्राओं को मिलने का समय दिया तो सत्या व आभा एक शिकायती पत्र ले कर उन के पास जा पहुंचीं. प्राचार्याजी ने उन की बातें ध्यान से सुनीं, शिकायती पत्र पढ़ा और आंखें मूंद कर सोचनेविचारने की मुद्रा में आ गईं. सत्या और आभा उन के नेत्र खुलने की प्रतीक्षा करती रहीं. धीरेधीरे उन्होंने नेत्र खोले.
‘तो तुम दोनों को शिकायत है कि सुजाता को ‘कालेज रत्न‘ की उपाधि दे कर न केवल अन्य छात्राओं के साथ अन्याय हुआ है बल्कि कालेज का नाम भी मिट्टी में मिल गया है. ‘जी देखिए, न तो सुजाता का व्यक्तित्व प्रभावशाली है, न ही रूपरंग,’ आभा डरते हुए बोली.‘आज पहली बार स्वयं पर शर्म आ रही है मुझे. तुम्हें सही संस्कार तक नहीं दे सके हम. दूसरों के रूपरंग पर छींटाकशी करने का अधिकार किस ने दिया तुम्हें? शिक्षा मनुष्य को संस्कार देती है, उसे अहंकारी नहीं बनाती. शिक्षा की सार्थकता केवल डिग्री प्राप्त करना ही नहीं है बल्कि सहीगलत का ज्ञान होना भी है. हो सके तो सच्चा इंसान बनने का प्रयत्न करो, तभी तुम्हारी शिक्षा सार्थक होगी.‘‘हमारे मन में सुजाता के लिए कोई दुर्भावना नहीं है, मैम. पर उसे यह पुरस्कार दिए जाने से सभी को निराशा हुई है,” आभा ने फिर अपना पक्ष रखा.
‘इस प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल के सभी सदस्य कालेज के बाहर के हैं और वे सभी समाज के सम्मानित सदस्य हैं. उन के निर्णय पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता. मेरी मानो तो सुजाता का विरोध करने के स्थान पर तुम सब भी उस के जैसी बनने का प्रयत्न करो.‘ ‘निर्णायक मंडल ने हर क्षेत्र में सुजाता को जितने अंक दिए हैं कोई दूसरी छात्रा उस के आसपास भी नहीं ठहरती और हां मैं तो यह कहूंगी कि बाहर जा कर सुजाता को मुबारकबाद देना मत भूलना, हम सब को अच्छा लगेगा,‘ प्राचार्या ने समझाया.
‘जी मैम,‘ दोनों किसी प्रकार बोलीं और प्राचार्याजी के कक्ष से बाहर निकल आईं. बाहर तो सारा दृश्य ही बदला हुआ था, सभी छात्राएं सुजाता को घेर कर खड़ी उसे बधाई दे रही थीं. उस के चेहरे पर अनोखी चमक थी. पहली बार उन्हें सुजाता बहुत सुंदर लगी.
‘‘रोमा ठीक कहती थी, सौंदर्य तो देखने वाले की आंखों में होता है,” आभा बोली और सत्या के साथ उसे बधाई देने चल पड़ी.
धीरेधीरे 6 माह गुजर गए. इस खूबसूरत जोड़े की असलियत जगजाहिर हो चुकी थी, इसलिए सब से कर्ज मिलना बंद हो गया था. अब मकानमालिक भी इन्हें रोज आ कर धमकाने लगा था. 6 माह से उस का किराया जो बाकी था. एक दिन क्रोधित हो कर मकानमालिक ने माला के घर का सामान सड़क पर फेंक दिया और कोर्ट में घसीटने की धमकी देने लगा. पड़ोसियों के बीचबचाव से वह बड़ी मुश्किल से शांत हुआ.
रोज की अशांति और फसाद से शलभ त्रस्त हो गया. उस का मेरठ से और नौकरी से मन उचाट हो गया. न तो वह मेरठ में रहना चाहता था, न ही दिल्ली वापस जाना चाहता था. इन 2 शहरों को छोड़ कर उस की कंपनी की किस अन्य शहर में कोई शाखा नहीं थी. आखिर नौकरी बदलने की इच्छा से शलभ ने मुंबई की एक फर्म में आवेदनपत्र भेज दिया.
एक शाम शलभ दफ्तर से अपने घर लौटा तो अपने गेट के बाहर पुलिया पर अकेली माला को उदास बैठा पाया. रमा अपनी परिचित के यहां लेडीज संगीत में गई हुई थी. देर रात तक चलने वाले कार्यक्रम के कारण वह शीघ्र लौटने वाली नहीं थी. पूछने पर माला ने बताया कि 6 माह से किराया नहीं देने के कारण मकानमालिक ने उस की व महेश की अनुपस्थिति में मकान पर अपना ताला लगा दिया है. महेश उसे यहां बैठा कर मकानमालिक को मनाने गया था.
शुलभ कुछ देर तो दुविधा की स्थिति में खड़ा रहा फिर उस ने माला को अपने घर के अंदर बैठने के लिए कहा. घर के अंदर आते ही माला शलभ के गले लग कर बिलखने लगी. हालांकि शलभ बुरी तरह चिढ़ा हुआ था मालामहेश की हरकतों से पर खूबसूरत माला को रोती देख उस का हृदय पसीज उठा.
माला का गदराया यौवन और आंसू से भीगा अद्वितीय रूप शलभ को पिघलाने लगा. माला के बदन के मादक स्पर्श से शलभ के तनबदन में अद्भुत उत्तेजना की लहर दौड़ गई. माला के बदन की महक व उस के नर्म खूबसूरत केशों की खुशबू उसे रोमांचित करने लगी.
शलभ के कान लाल हो गए, आंखों में गुलाबी चाहत उतर आई और हृदय धौंकनी के समान धड़कने लगा. तीव्र उत्तेजना की झुरझुरी ने उस के बदन को कंपकंपा दिया. पल भर में वह माला के रूप लावण्य के वशीभूत हो चुका था.
अपने को संयमित कर के शलभ ने माला को अपने सीने से अलग किया और धीरे से सोफे पर अपने सामने बैठा कर सांत्वना दी, ‘‘शांत हो जाओ. सब ठीक हो जाएगा…’’
माला ने अश्रुपूरित आंखों से शलभ की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘पैसा नहीं है हमारे पास… कैसे ठीक होगा ’’
‘‘मैं कुछ करता हूं…’’ अस्फुट भर्राया सा स्वर निकला शलभ के गले से.
‘‘आता हूं मैं बस अभी, तब तक तुम यहीं बैठो…’’ कह कर शलभ ने एटीएम कार्ड उठाया और गाड़ी से निकल पड़ा.
लौट कर शलभ ने माला के हाथ में 6 माह के किराए के 9 हजार जैसे ही थमाए उस ने खुशी से किलकारी मारी. शलभ सोफे पर बैठ कर जूते उतारने लगा तो वह अपने स्थान से उठी, खूबसूरत अदा से अपना पल्लू नीचे ढलका दिया और शलभ के एकदम करीब जा कर उस के कान में मादक स्वर में फुसफुसाई, ‘‘थैंक्यू जीजू, थैंक्यू.’’
माला के उघड़े वक्षस्थल की संगमरमरी गोलाइयों पर नजर पड़ते ही शलभ का चेहरा तमतमा गया और उस के मुख से कोई आवाज नहीं निकली. वह मुग्ध हो उसे देखने लगा. घर में माला महेश के विरुद्ध शलभ के स्वर एकाएक बंद हो गए. पति के रुख में अचानक बदलाव पा कर रमा को आश्चर्य तो हुआ पर वास्तविकता से अनभिज्ञ उस ने राहत की सांस ली. रोजरोज की तकरार से उसे मुक्ति जो मिल गई थी. नहीं चाहते हुए भी शलभ ने पत्नी से माला को 9 हजार रुपए देने की बात गुप्त रखी.
माला को भी इस बात का एहसास हो गया था कि उसे देख कर सदैव भृकुटि तानने वाला शलभ उस के रूप के चुंबकीय आकर्षण में बंध कर मेमना बन गया था. वह उसे अपने मोहपाश में बांधे रखने के लिए उस पर और अधिक डोरे डालने लगी. जब भी रमा किसी काम से बाहर जाती, सहजसरल भाव से वह माला के ऊपर घर की देखरेख का जिम्मा सौंप देती. इस का भरपूर फायदा उठाती माला.
उस के दोनों हाथों में लड्डू थे. रमा के सामने आंसू बहा कर माला पैसे मांग लेती और शलभ उस पर आसक्त हो कर अब स्वयं ही धन लुटा रहा था. अपने सहज, सरल स्वभाव वाले निष्कपट अनुरागी पति को अपने प्रति दिनप्रतिदिन उदासीन व ऊष्मारहित होते देख कर रमा का माथा ठनका पर बहुत सोचनेविचारने के बाद भी वह सत्य का पता नहीं लगा पाई.
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