Short Story : तलाक महोत्सव का निमंत्रण : आप भी आमंत्रित हैं

Short Story : जय श्री तलाकेश्वराय नम:.

दो नयन खुले, दो दिल टूटे, दो टूटे सपनों ने बिगाड़ किया.

दो निकट दिलों के पथिकों ने,

दूरदूर रहना स्वीकार किया.

सर्वसाधारण व बहुत खास को विज्ञापित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि हमारे यहां श्री तलाकेश्वर महाराज की असीम कृपा व महंगाई देवी की अनुकंपा से हमारी गृहस्थी की गाड़ी हिचकोले खाती हुई अंतत: हकीकत की चट्टान से टकरा कर चूरचूर हो चुकी है. इसीलिए हम आप को अपने मंगल तलाकोत्सव की सुमधुर बेला पर सपरिवार आमंत्रित करते हैं.

लोकतंत्र के महान देशसेवक नेताओं के भाषणों से हमारा पेट खाली होने लगा था. फलत: घर में चिकचिक शुरू हो गई थी. यही चिकचिक हमारे तलाक का मुख्य आधार बनी थी और हम आज तलाक महोत्सव मनाने के कगार पर खड़े हैं. कृपया तलाक महोत्सव पर उपस्थित हो कर इस पूर्व दंपती को आशीर्वाद प्रदान कर  अनुगृहीत करें. यह तो आप को पता ही है कि हम पिछले 3 साल से तथाकथित दांपत्य सूत्र में जकड़े हुए थे. एकदूसरे से हम काफी समय से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे. कई बार हम ने छापामार युद्ध किया तो कई बार वाक्युद्ध को आदर्श ऊंचाइयों पर स्थापित किया. कितनी ही बार जूतों व चप्पलों से अस्त्रशस्त्र का काम ले कर आरपार की लड़ाई भी लड़ी. एकदूसरे पर गालीगलौज और लांछन लगाने का कार्यक्रम रच कर इतिहास का निर्माण भी किया. आखिर श्री तलाकेश्वर महाराज की कृपा से दांपत्य सूत्र से आजादी मिल ही गई.

इस मंगल पर्व पर आप पूर्व, अभूतपूर्व वरवधू को अपना मूल्यवान गिफ्ट भेंट कर अपने अमूल्य अश्रु भी अर्पित करें.

तलाक सेरेमनी के कार्यक्रम का विवरण इस प्रकार है :

रस्म नफरत एवं छोटा तलाक बस-अंत पंचमी की रात 12 बजे. तलाक स्थापना की गतिविधि रात 1 बजे होगी. चाक भात एवं जेंट्स सौंग रात 2 बजे. तलाक के सम्मान में भोज कार्यक्रम प्रात: 4 बजे. तलाकदर्शी प्रस्थान प्रात: 5 बजे होगा. गंठजोड़ा टूटन संस्कार 6 बजे ब्रह्ममुहूर्त. मातमी धुन सुबह 7 बजे 100 सदस्यीय अजंता ब्रास बैंड द्वारा आयोजित की जाएगी.

आदरणीय श्री, श्रीमती और सुश्री, आप को तो मालूम ही है कि जहां 5 वर्ष की सरकार भी 5 माह चलने मात्र से हांफने लग जाती है. जहां नेताओं के वादे फेविकोल के जोड़ लगाने पर भी टूटटूट कर छिन्नभिन्न हो जाते हैं, वहीं हम ने पवित्र स्टोव की आंच के सामने फेरे खाने के बाद भी गृहस्थी की गाड़ी को 3 सालों तक खींचा. इसी दौरान हम ने 2 पुत्री ज्वैलर और 1 पुत्र रत्न को भी उत्पन्न किया. इस बीच आदर्श गृहस्थी संहिता के अनुसार हम ने नियमित रूप से झगड़ाफसाद व्रत का पूर्ण आचरण किया. सुबहशाम आपस में झगड़ने के महत्त्व को बरकरार रखा. रूठने के कार्यक्रम को दैनिक जीवन का रेगुलर फीचर बनाया. इसी वजह से हम ने सात जन्मों तक साथसाथ रहने की जो नेताई कसम खाई थी, उसे सिर्फ 3 सालों में ही पूरा कर लिया. यह हमारी आधुनिक जीवन दर्शन के प्रति गहरी आस्था का प्रमाण सिद्ध हुआ.

एकदूसरे के लिए समर्पित होने का जो आरोप विवाह की दुखद घड़ी पर हम पर लगा था आखिर वह झूठा ही साबित हुआ. एकदूसरे के प्रति बलिदान कर मर- मिटने का आचरण भी मिथ्या ही साबित हुआ. तब आखिर में यह मंगलकारी दिवस तलाक महोत्सव के रूप में हमारे जीवन में उभर कर आया. अत: आप को इस तलाक सेरेमनी पर एक संवेदनशील तलाकदर्शी की भूमिका अदा करनी है. आप कार्यक्रम की और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे प्रतिष्ठान, फोन, फैक्स व इंटरनेट से संपर्क साध सकते हैं. हमारे प्रतिष्ठान इस प्रकार हैं : ‘टिक्की आटा चक्की सेंटर, बिन्नी चप्पल भंडार, सिंटू साड़ी कार्नर व अन्य 7 फर्में.’

दलबदलू नेताओं की महान परंपरा को अपने सामाजिक जीवन में उतारते हुए हम ने जीवनसाथी बदलने की ठानी है. अत: हमें अपना तलाक महोत्सव मनाते हुए अत्यंत खुशी हो रही है. कार्यक्रम में समय पर आ कर आप अपना स्थान पहले से ही सुरक्षित कर लें. भीड़ से बचने के लिए हमारा तलाक स्मार्ट कार्ड हमारे प्रतिष्ठानों से प्राप्त कर लें.

होटल स्वर्ण पंख के विशाल आडि- टोरियम में इस मौके पर एक भव्य आर्केस्ट्रा का कार्यक्रम भी रखा गया है. इस में देश के जानेमाने अभिनेता एवं नेता भावपूर्ण प्रस्तुति देंगे. इसी दौरान एक पारिवारिक मातमी धुन बजा कर तलाक की परंपरा को आदर दिया जाएगा. मातमी सेरेमनी में अपनी उपस्थिति दे कर तलाकोत्सव को आनंदमयी बनाने की कृपा करावें.

कृपया यह ठीक प्रकार से जान लें कि तलाक की शोभायात्रा (तलाकदर्शी) पूर्व समधी श्रीमानजी के घर से वर्मा टै्रवल्स की सुपर डीलक्स कोचों द्वारा सीधे ही होटल स्वर्ण पंख में आएगी. आप अपना कार्यक्रम विवरण तलाक महोत्सव प्रबंध समूह के कंप्यूटर को दे कर महोत्सव की व्यवस्था बनाने में अपूर्व योगदान दे सकते हैं. कृपया तलाक स्मृति चिह्न ग्रहण करने के लिए स्वयं का साधन ले कर आएं. इस मामले में हम तलाक स्मृति चिह्न देने के बाद कुछ भी उलटीसीधी मदद करने में असमर्थ रहेंगे.

उत्तराकांक्षी, पूर्व श्री व श्रीमती के पूर्व दांपत्य बंधन की कष्टमयी निशानी 2 बेटियों एवं 1 बेटे की बालसुलभ मनुहार भी आप को आमंत्रित कर रही है. बाल मनुहार, ‘मेले पापा व पापी के तलाक में आप जलूलजलूल पधालना जी-टिक्की, बिन्नी व सिंटू.’

आशा है आप इस पावन महोत्सव पर पधार कर इसे एक ‘वेल टनाटन डे’ बनाएंगे. आप के दर्शनों के प्यासे निवर्तमान श्री व श्रीमती. पूर्व दंपती एवं एकदूसरे के खून के प्यासे.

भेजा है तलाक निमंत्रण प्रियतम तुम्हें बुलाने को.

हे गृहस्थी के खींचनहार आप भूल न जाना आने को.

Family Story : पतझड़ का अंत – सुषमा ने संभाली जिम्मेदारी

Family Story : सुहाग सेज पर बैठी सुषमा कितनी  सुंदर लग रही थी. लाल जोड़े में  सजी हुई वह बड़ी बेताबी से अपने पति समीर का इंतजार कर रही थी.

एकाएक दरवाजा खुला और समीर मुसकराता हुआ कमरे में दाखिल हुआ. सुषमा समीर को देखते ही रोमांचित हो उठी. समीर ने अंदर आ कर धीरे से दरवाजा बंद किया. पलंग पर बिलकुल पास आ कर वह बैठ गया. फिर सुषमा का घूंघट उठा कर उसे आत्मविभोर हो देखने लगा.

सुषमा उसे इस तरह गौर से देखने पर बोली, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘तुम्हें, जो आज के पहले मेरी नहीं थी. पता है सुसु, पहली बार मैं ने जब तुम्हें देखा था तभी मुझे लगा कि तुम्हीं मेरे जीवन की पतवार हो और अगर तुम मुझे नहीं मिलतीं तो शायद मेरा जीवन अधूरा ही रहता,’’ फिर समीर ने अपने दोनों हाथ फैला दिए और सुषमा पता  नहीं कब उस के आगोश में समा गई.

उस रात सुषमा के जीवन के पतझड़ का अंत हो गया था. शायद  40 साल के कठिन संघर्ष का अंत हुआ था.

सुषमा और समीर दोनों खुश थे, बहुत खुश. एकदूसरे को पा  कर उन्हें दुनिया की तमाम खुशियां नसीब हो गई थीं.

प्यार और खुशी में दिन कितनी जल्दी बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता. देखते ही देखते 1 साल बीत गया और आज सुषमा की शादी की पहली सालगिरह थी. दोनों के दोस्तों के साथ उन के घर वाले भी शादी की सालगिरह पर आए थे.

घर में अच्छीखासी रौनक थी. घरआंगन बिजली की रोशनी से ऐसा सजा था जैसे  घर में शादी हो.

सुषमा के घर वालों ने जब यह साजोसिंगार देखा तो उन का मुंह खुला का खुला रह गया और छोटी बहन जया अपनी मां से बोली, ‘‘मां, दीदी को इतना सबकुछ करने की क्या जरूरत थी. अरे, शादी की सालगिरह है, कोई दीदी की  शादी तो नहीं.’’

सुषमा की मां बोलीं, ‘‘हमें क्या, पैसा उन दोनों का है, जैसे चाहें खर्च करें.’’

शादी की पहली सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनी. जब सभी लोग चले गए तब सुषमा ने अपनी मां से आ कर पूछा, ‘‘मां, तुम खुश तो हो न, अपनी बेटी का यह सुख देख कर?’’

‘‘हां, खुश तो हूं बेटी. तेरा जीवन तो सुखमय हो गया, पर प्रिया और सचिन के बारे में सोच कर रोना आता है. उन दोनों बिन बाप के बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘मां, तुम ऐसा क्यों सोचती हो. मैं हूं न, उन दोनों को देखने वाली. तुम्हारे दामादजी भी बहुत अच्छे हैं. मैं जैसा कहती हूं वह वैसा ही करते हैं. जब मैं ने एक बहन की शादी कर दी तो दूसरी की भी कर दूंगी. और हां, सचिन की भी तो अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई है.’’

‘‘हां, पूरी हो तो गई है, लेकिन कहीं नौकरी लगे तब न.’’

‘‘मां, तुम घबराओ नहीं, हम कोशिश करेंगे कि उस की नौकरी जल्दी लग जाए.’’

‘‘सुषमा, हमें तो बस, एक तेरा ही सहारा है बेटी. जब तू हमें छोड़ कर चली आई तो हम अपने को अनाथ समझने लगे हैं.’’

अभी सुषमा और मां बातें कर ही रहे थे कि समीर आ गया. वह हंसते हुए बोला, ‘‘क्यों सुसु, आज मां आ गईं तो मुझे भूल गईं. मैं कब से तुम्हारा खाने पर इंतजार कर रहा हूं.’’

मां की ओर देख कर सुषमा बोली, ‘‘मां, अब तुम सो जाओ. रात काफी बीत गई है. हम भी खाना खा कर सोएंगे. सुबह हमें कालिज जाना है.’’

सुषमा जब कमरे में आई तो समीर थाली सजाए उस का इंतजार कर रहा था, ‘‘सुसु, कितनी देर लगा दी आने में. यहां मैं तुम्हारे इंतजार में बैठा पागल हो रहा था. थोड़ी देर तुम और नहीं आतीं तो मेरा तो दम ही निकल जाता.’’

‘‘समीर, आज के दिन ऐसी अशुभ बातें तो न कहो.’’

‘‘ठीक है, अब हम शुभशुभ ही बातें करेंगे. पहले तुम आओ तो मेरे पास.’’

‘‘समीर, हमारी शादी को 1 साल बीत गया है लेकिन तुम्हारा प्यार थोड़ा भी कम नहीं हुआ, बल्कि पहले से और बढ़ गया है.’’

‘‘फिर तुम मेरे इस बढ़े हुए प्यार का आज के दिन कुछ तो इनाम दोगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं, अब आप सो जाइए. सुबह मुझे कालिज जल्दी जाना है.’’

‘‘सुसु, अभी मैं सोने के मूड में नहीं हूं. अभी तो पूरी रात बाकी है,’’ वह मुसकराता हुआ बोला.

सुबह सुषमा जल्दी तैयार हो गई और कालिज जाते समय मां से बोली, ‘‘मां, मैं दोपहर में आऊंगी, तब तुम जाना.’’

‘‘नहीं, सुषमा, मैं भी अभी निकलूंगी. पर तुझ से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हां मां, बोलो.’’

‘‘प्रिया का एम.ए. में दाखिला करवाना है. अगर 5 हजार रुपए दे देतीं तो बेटी, उस का दाखिला हो जाता.’’

‘‘ठीक है मां, मैं किसी से पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘सुषमा, एक तेरा ही सहारा है बेटी, मैं  तुझ से एक बात और कहना चाहती हूं कि ज्यादा  फुजूलखर्ची मत किया कर.’’

‘‘मां, तुम्हें तो पता है कि मैं ने बचपन से ले कर 1 साल पहले तक कितना संघर्ष किया है. जब पिताजी का साया हमारे सिर से उठ गया था तब से ही मैं ने घर चलाने, खुद पढ़ने और भाईबहनों को पढ़ाने के लिए क्याक्या नहीं किया. अब क्या मैं अपनी खुशी के लिए इतना भी नहीं कर सकती?’’

‘‘मैं ऐसा तो नहीं कह रही हूं. फिर भी पैसे बचा कर चल. हमें भी तो देखने वाला कोई नहीं है.’’

आज सुबह ही जया का फोन आया कि दीदी, आज मंटू का जन्मदिन है. तुम और जीजाजी जरूर आना.

‘‘ हां, आऊंगी.’’

‘‘और हां, दीदी, एक बात तुम से कहनी थी. तुम ने अपनी फें्रड की शादी में जो साड़ी पहनी थी वह बहुत सुंदर लग रही थी. दीदी, मेरे लिए भी एक वैसी ही साड़ी लेती आना, प्लीज.’’

‘‘ठीक है, बाजार जाऊंगी तो देखूंगी.’’

‘‘दीदी, बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘तुम अपनी वाली साड़ी ही मुझे दे दो.’’

‘‘जया, वह तुम्हारे जीजाजी की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तो क्या हुआ. अब तुम्हारी उम्र तो वैसी चमकदमक वाली साड़ी पहनने की नहीं है.’’

‘‘जया, मेरी उम्र को क्या हुआ है. मैं तुम से 5 साल ही तो बड़ी हूं.’’

यह सुनते ही जया ने गुस्से में फोन रख दिया और सुषमा फोन का रिसीवर हाथ में लिए सोचने लगी थी.

दुनिया कितनी स्वार्थी है. सब अपने बारे में ही सोचते हैं. चाहे वह मेरी अपनी मां, भाईबहन ही क्यों न हों. मैं ने सभी के लिए कितना कुछ किया है और आज भी जिसे जो जरूरत होती है पूरी कर रही हूं. फिर भी किसी को मेरी खुशी सुहाती नहीं. जब मैं ने शादी का फैसला किया था तब भी घर वालों ने कितना विरोध किया था. कोई नहीं चाहता था कि मैं अपना घर बसाऊं. वह तो बस, समीर थे जिन्होंने मुझे अपने प्यार में इतना बांध लिया कि मैंउन के बगैर रहने की सोच भी नहीं सकती थी.

सुषमा की आंखों में आंसू झिल- मिलाने लगे थे. समीर पीछे से आ कर बोले, ‘‘जानेमन, इतनी देर से आखिर किस से बातें हो रही थीं.’’

‘‘जया का फोन था. समीर, आज उस के बेटे का जन्मदिन है.’’

‘‘तो ठीक है, शाम को चलेंगे दावत खाने…और हां, तुम वह नीली वाली साड़ी शाम को पार्टी में  पहनना. उस दिन जब तुम ने वह साड़ी पहनी थी तो बहुत सुंदर लग रही थीं. बिलकुल फिल्म की हीरोइन की तरह.’’

‘‘समीर, लेकिन वह साड़ी तो जया मांग रही है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, वैसे मैं ने उस से कहा है कि वह आप की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तुम पार्टी में जाने के लिए कोई दूसरी साड़ी पहन लेना और वह साड़ी उसे दे देना, आखिर वह तुम्हारी बहन है.’’

‘‘समीर, तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘हां, वह तो मैं हूं, लेकिन इतना भी अच्छा नहीं कि नाश्ते के बगैर कालिज जाने की सोचूं.’’

सुषमा और समीर एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे. दोनों के विचार एक थे. भावनाएं एक थीं.

एक दिन सुषमा का भाई सचिन आया और बोला, ‘‘दीदी, मुझे कुछ रुपए चाहिए.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘शहर से बाहर एकदो जगह नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाना है.’’

‘‘कितने रुपए  लगेंगे?’’

‘‘10 हजार रुपए दे दो.’’

‘‘इतने रुपए का क्या करोगे सचिन?’’

‘‘दीदी,  इंटरव्यू देने के लिए अच्छे कपड़े, जूते भी तो चाहिए. मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं हैं.’’

‘‘सचिन, अभी मैं इतने रुपए तुम्हें नहीं दे सकती. तुम्हारे जीजाजी की बहुत इच्छा है कि हम शिमला जाएं. शादी के बाद हम कहीं गए नहीं थे न.’’

‘‘दीदी,  तुम्हारी  शादी हो गई वही बहुत है. अब इस उम्र में घूमना, टहलना ये सब बेकार के चोचले हैं. मुझे पैसे की जरूरत है, वह तो तुम दे नहीं सकतीं और यह फालतू का खर्च करने को तैयार हो.’’

‘‘सचिन, क्या हम अपनी खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकते. अरे, इतने दिनों से तो मैं तुम लोगों के लिए ही करती आई हूं और जब अपनी खुशी के लिए अब करना चाहती हूं तो बातबात पर तुम लोग मुझे मेरी उम्र का एहसास दिलाते हो.

‘‘सचिन, प्यार की कोई उम्र नहीं होती. वह तो हर उम्र में हो सकता है. जब मैं खुश हूं, समीर खुश हैं तो तुम लोग क्यों दुखी हो?’’

समीर उस दिन अचानक जिद कर बैठे कि सुसु, आज मैं अपने ससुराल जाना चाहता हूं.

‘‘क्यों जी, क्या बात है?’’

‘‘अरे, आज छुट्टी है. तुम्हारे घर के सभी लोग घर पर ही होंगे. फिर जया भी तो आई होगी. और हां, नए मेहमान के आने की खुशखबरी अपने घर वालों को नहीं सुनाओगी?’’

‘‘ठीक है, अगर तुम्हारी इच्छा है तो चलते हैं, तुम्हारे ससुराल,’’ सुषमा मुसकरा दी थी.

सुषमा आज काफी सजधज कर मायके आई थी. लाल रंग की साड़ी से मेल खाता ब्लाउज और उसी रंग की बड़ी सी बिंदी अपने माथे पर  लगा रखी थी. उस ने सोने के गहनों से अपने को सजा लिया था.

मां उसे देख कर मुसकरा दीं, ‘‘क्या बात है, आज तू बड़ी सज कर आई है.’’

अभी सुषमा कुछ कहना चाह रही थी कि प्रिया बोली, ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम.’’

प्रिया की बातें सुन कर सुषमा का खून खौल उठा पर वह कुछ बोली नहीं.

मां ने आदर के साथ बेटी को बिठाया और दामादजी से हाल समाचार पूछे.

सुषमा बोली, ‘‘मां, खुशखबरी है. तुम नानी बनने वाली हो.’’

मां यह सुन कर बोलीं, ‘‘चलो, ठीक है. एक बच्चा हो जाए. फिर अपना दुखड़ा रोने लगीं कि सचिन की नौकरी के लिए 50 हजार रुपए चाहिए. बेटी, अगर तुम दे देतीं तो…’’

सुषमा बौखला उठी. मां की बात बीच में काट कर बोली, ‘‘मां, अब और नहीं, अब बहुत हो गया. मुझे जितना करना था कर दिया. अब सब बड़े हो गए हैं और वे अपनी जिम्मेदारी खुद उठा सकते हैं. मैं आखिर कब तक इस घर को देखती रहूंगी.

‘‘मैं  जब 12 साल की थी तब से ही तुम लोगों की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ढो रही हूं. रातरात भर जाग कर मैं एकएक पैसे के लिए काम करती थी. फिर सभी को इस योग्य बना दिया कि वे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठा सकें.

‘‘अब मेरा भी अपना परिवार है. पति हैं, और अब घर में एक और सदस्य भी आने वाला है. मैं अब तुम सब के लिए करतेकरते थक गई हूं मां. अब मैं जीना चाहती हूं, अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपनी खुशी के लिए.

‘‘जिंदगी की  खूबसूरत 40 बहारें मैं ने यों ही गंवा दीं, अब और नहीं. मेरे जीवन के पतझड़ का अंत हो गया है. अब मैं खुश हूं, बहुत खुश.’’

Family Story : रिटायरमेंट – आखिर क्या चाहते थे शर्मा जी के लालची रिश्तेदार

Family Story : मेरी नौकरी का अंतिम सप्ताह था, क्योंकि मैं सेवानिवृत्त होने वाला था. कारखाने के नियमानुसार 60 साल पूरे होते ही घर बैठने का हुक्म होना था.

मेरा जन्मदिन भी 2 अक्तूबर ही था. संयोगवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर.

विभागीय सहयोगियों व कर्मचारियों ने कहा, ‘‘शर्माजी, 60 साल की उम्र तक ठीकठाक काम कर के रिटायर होने के बदले में हमें जायकेदार भोज देना होगा.’’

मैं ने भरोसा दिया, ‘‘आप सब निश्ंिचत रहें. मुंह अवश्य मीठा कराऊंगा.’’

इस पर कुछ ने विरोध प्रकट किया, ‘‘शर्माजी, बात स्पष्ट कीजिए, गोलमोल नहीं. हम ‘जायकेदार भोज’ की बात कर रहे हैं और आप मुंह मीठा कराने की. आप मांसाहारी भोज देंगे या नहीं? यानी गोश्त, पुलाव…’’

मैं ने मुकरना चाहा, ‘‘आप जानते हैं कि गांधीजी सत्य व अहिंसा के पुजारी थे, और हिंसा के खिलाफ मैं भी हूं. मांसाहार तो एकदम नहीं,’’ एक पल रुक कर मैं ने फिर कहा, ‘‘पिछले साल झारखंड के कुछ मंत्रियों ने 2 अक्तूबर के दिन बकरे का मांस खाया था तो उस पर बहुत बवाल हुआ था.’’

‘‘आप मंत्री तो नहीं हैं न. कारखाने में मात्र सीनियर चार्जमैन हैं,’’ एक सहकर्मी ने कहा.

‘‘पर सत्यअहिंसा का समर्थक तो हूं मैं.’’

फिर कुछ सहयोगी बौखलाए, ‘‘शर्माजी, हम भोज के  नाम पर ‘सागपात’ नहीं खा सकते. आप के घर ‘आलूबैगन’ खाने नहीं जाएंगे,’’ इस के बाद तो गीदड़ों के झुंड की तरह सब एकसाथ बोलने लगे, ‘‘शर्माजी, हम चंदा जमा कर आप के शानदार विदाई समारोह का आयोजन करेंगे.’’

प्रवीण ने हमें झटका देना चाहा, ‘‘हम सब आप को भेंट दे कर संतुष्ट करना चाहेंगे. भले ही आप हमें संतुष्ट करें या न करें.’’

मैं दबाव में आ कर सोचने लगा कि क्या कहूं? क्या खिलाऊं? क्या वादा करूं? प्रत्यक्ष में उन्हें भरोसा दिलाना चाहा कि आप सब मेरे घर आएं, महंगी मिठाइयां खिलाऊंगा. आधाआधा किलो का पैकेट सब को दे कर विदा करूंगा.

सीनियर अफसर गुप्ता ने रास्ता सुझाना चाहा, ‘‘मुरगा न खिलाइए शर्माजी पर शराब तो पिला ही सकते हैं. इस में हिंसा कहां है?’’

‘‘हां, हां, यह चलेगा,’’ सब ने एक स्वर से समर्थन किया.

‘‘मैं शराब नहीं पीता.’’

‘‘हम सब पीते हैं न, आप अपनी इच्छा हम पर क्यों लादना चाहते हैं?’’

‘‘भाई लोगों, मैं ने कहा न कि 2 अक्तूबर हो या नवरात्रे, दीवाली हो या नववर्ष…मुरगा व शराब न मैं खातापीता हूं, न दूसरों को खिलातापिलाता हूं.’’

सुखविंदर ने मायूस हो कर कहा, ‘‘तो क्या 35-40 साल का साथ सूखा ही निबटेगा?’’

कुछ ने रोष जताया, ‘‘क्या इसीलिए इतने सालों तक आप के मातहत काम किया? आप के प्रोत्साहन से ही गुणवत्तापूर्ण उत्पादन किया? कैसे चार्जमैन हैं आप कि हमारी अदनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते?’’

एक ने व्यंग्य किया, ‘‘तो कोई मुजरे वाली ही बुला लीजिए, उसी से मन बहला लेंगे.’’

नटवर ने विचार रखा, ‘‘शर्माजी, जितने रुपए आप हम पर खर्च करना चाह रहे हैं उतने हमें दे दीजिए, हम किसी होटल में अपनी व्यवस्था कर लेंगे.’’

इस सारी चर्चा से कुछ नतीजा न निकलना था न निकला.

यह बात मेरे इकलौते बेटे बलबीर के पास भी पहुंची. वह बगल वाले विभाग में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहा था.

कुछ ने बलबीर को बहकाया, ‘‘क्या कमी है तुम्हारे पिताजी को जो खर्च के नाम से भाग रहे हैं. रिटायर हो रहे हैं. फंड के लाखों मिलेंगे… पी.एफ. ‘तगड़ा’ कटता है. वेतन भी 5 अंकों में है. हम उन्हें विदाई देंगे तो उन की ओर से हमारी शानदार पार्टी होनी चाहिए. घास छील कर तो रिटायर नहीं हो रहे. बुढ़ापे के साथ ‘साठा से पाठा’ होना चाहिए. वे तो ‘गुड़ का लाठा’ हो रहे हैं…तुम कैसे बेटे हो?’’

बलबीर तमतमाया हुआ घर आया. मैं लौट कर स्नान कर रहा था. बेटा मुझे समझाने के मूड में बोला, ‘‘बाबूजी, विभाग वाले 50-50 रुपए प्रति व्यक्ति चंदा जमा कर के ‘विदाई समारोह’ का आयोजन करेंगे तो वे चाहेंगे कि उन्हें 75-100 रुपए का जायकेदार भोज मिले. आप सिर्फ मिठाइयां और समोसे खिला कर उन्हें टरकाना चाहते हैं. इस तरह आप की तो बदनामी होगी ही, वे मुझे भी बदनाम करेंगे.

‘‘आप तो रिटायर हो कर घर में बैठ जाएंगे पर मुझे वहीं काम करना है. सोचिए, मैं कैसे उन्हें हर रोज मुंह दिखाऊंगा? मुझे 10 हजार रुपए दीजिए, खिलापिला कर उन्हें संतुष्ट कर दूंगा.’’

‘‘उन की संतुष्टि के लिए क्या मुझे अपनी आत्मा के खिलाफ जाना होगा? मैं मुरगे, बकरे नहीं कटवा सकता,’’ बेटे पर बिगड़ते हुए मैं ने कहा.

‘‘बाबूजी, आप मांसाहार के खिलाफ हैं, मैं नहीं.’’

‘‘तो क्या तुम उन की खुशी के लिए मद्यपान करोगे?’’

‘‘नहीं, पर मुरगा तो खा ही सकता हूं.’’

अपना विरोध जताते हुए मैं बोला, ‘‘बलबीर, अधिक खर्च करने के पक्ष में मैं नहीं हूं. सब खाएंगेपीएंगे, बाद में कोई पूछने भी नहीं आएगा. मैं जब 4 महीने बीमारी से अनफिट था तो 1-2 के अलावा कौन आया था मेरा हाल पूछने? मानवता और श्रद्धा तो लोगों में खत्म हो गई है.’’

पत्नी कमला वहीं थी. झुंझलाई, ‘‘आप दिल खोल कर और जम कर कुछ नहीं कर पाते. मन मार कर खुश रहने से भी पीछे रह जाते हैं.’’

कमला का समर्थन न पा कर मैं झुंझलाया, ‘‘श्रीमतीजी, मैं ने आप को कब खुश नहीं किया है?’’

वे मौका पाते ही उलाहना ठोक बैठीं, ‘‘कई बार कह चुकी हूं कि  मेरा गला मंगलसूत्र के बिना सूना पड़ा है. रिटायरमेंट के बाद फंड के रुपए मिलते ही 5 तोले का मंगलसूत्र और 10 तोले की 4-4 चूडि़यां खरीद देना.’’

‘‘श्रीमतीजी, सोने का भाव बाढ़ के पानी की तरह हर दिन बढ़ता जा रहा है. आप की इच्छा पूरी करूं तो लाखों अंटी से निकल जाएंगे, फिर घर चलाना मुश्किल होगा.’’

श्रीमतीजी बिगड़ कर बोलीं, ‘‘तो बताइए, मैं कैसे आप से खुश रहूंगी?’’

बलबीर को अवसर मिल गया. वह बोला, ‘‘बाबूजी, अब आप जीवनस्तर ऊंचा करने की सोचिए. कुछ दिन लूना चलाते रहे. मेरी जिद पर स्कूटी खरीद लाए. अब एक बड़ी कार ले ही लीजिए. संयोग से आप देश की नामी कार कंपनी से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं.’’

बेटे और पत्नी की मांग से मैं हतप्रभ रह गया.

मैं सोने का उपक्रम कर रहा था कि बलबीर ने अपनी रागनी शुरू कर दी, ‘‘बाबूजी, खर्च के बारे में क्या सोच रहे हैं?’’

मैं ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम अभी स्थायी नौकरी में नहीं हो. प्रशिक्षण के बाद तुम्हें प्रबंधन की कृपा से अस्थायी नौकरी मिल सकेगी. पता नहीं तुम कब तक स्थायी होगे. तब तक मुझे ही घर का और तुम्हारा भी खर्च उठाना होगा. इसलिए भविष्यनिधि से जो रुपए मिलेंगे उसे ‘ब्याज’ के लिए बैंक में जमा कर दूंगा, क्योंकि आगे ब्याज से ही मुझे अपना ‘खर्च’ चलाना होगा. अत: मैं ने अपनी भविष्यनिधि के पैसों को सुरक्षित रखने की सोची है.’’

श्रीमतीजी संभावना जाहिर कर गईं कि 20 लाख रुपए तक तो आप को मिल ही जाएंगे. अच्छाखासा ब्याज मिलेगा बैंक से.

उन के इस मुगालते को तोड़ने के लिए मैं ने कहा, ‘‘भूल गई हो, 3 बेटियों के ब्याह में भविष्यनिधि से ऋण लिया था. कुछ दूसरे ऋण काट कर 12 लाख रुपए ही मिलेंगे. वैसे भी अब दुनिया भर में आर्थिक संकट पैदा हो चुका है, इसलिए ब्याज घट भी सकता है.’’

बलबीर ने टोका, ‘‘बाबूजी, आप को रुपए की कमी तो है नहीं. आप ने 10 लाख रुपए अलगअलग म्यूचुअल फं डों में लगाए हुए हैं.’’

मैं आवेशित हुआ, ‘‘अखबार नहीं पढ़ते क्या? सब शेयरों के भाव लुढ़कते जा रहे हैं. उस पर म्यूचुअल फंडों का बुराहाल है. निवेश किए हुए रुपए वापस मिलेंगे भी या नहीं? उस संशय से मैं भयभीत हूं. रिटायर होने के बाद मैं रुपए कमाने योग्य नहीं रहूंगा. बैठ कर क्या करूंगा? कैसे समय बीतेगा. चिंता, भय से नींद भी नहीं आती…’’

श्रीमतीजी ने मेरे दर्द और चिंता को महसूस किया, ‘‘चिंतित मत होइए. हर आदमी को रिटायर होना पड़ता है. चिंताओं के फन को दबोचिए. उस के डंक से बचिए.’’

‘‘देखो, मैं स्वयं को संभाल पाता हूं या नहीं?’’

तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, मैं विजय बोल रहा हूं.’’

‘‘नमस्कार, विजय बाबू.’’

‘‘शर्माजी, सुना है, आप रिटायर होने जा रहे हैं.’’

‘‘हां.’’

‘‘कुछ करने का विचार है या बैठे रहने का?’’ विजय ने पूछा.

‘‘कुछ सोचा नहीं है.’’

‘‘मेरी तरह कुछ करने की सोचो. बेकार बैठ कर ऊब जाओगे.’’

‘‘मेरे पिता ने भी सेवामुक्त हो कर ‘बिजनेस’ का मन बनाया था, पर नहीं कर सके. शायद मैं भी नहीं कर सकूंगा, क्यों जहां भी हाथ डाला, खाली हो गया.’’

विजय की हंसी गूंजी, ‘‘हिम्मत रखो. टाटा मोटर्स में ठेका पाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराओ. एकाध लाख लगेंगे.’’

बलबीर उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘ठेका ले कर देखिए, बाबूजी.’’

‘‘बेटा, मैं भविष्यनिधि की रकम को डुबाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता.’’

बलबीर जिद पर उतर आया तो मैं बोला, ‘‘तुम्हारे कहने पर मैं ने ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया था न? 7 लाख रुपए डूब गए थे. तब मैं तंगी, परेशानी और खालीहाथ से गुजरने लगा था. फ ांके की नौबत आ गई थी.’’

बलबीर शांत पड़ गया, मानो उस की हवा निकल गई हो.

तभी मोबाइल बजने लगा. पटना से रंजन का फोन था. आवाज कानों में पड़ी तो मुंह का स्वाद कसैला हो गया. रंजन मेरा चचेरा भाई था. उस ने गांव का पुश्तैनी मकान पड़ोसी पंडितजी के हाथ गिरवी रख छोड़ा था. उस की एवज में 50 हजार रुपए ले रखे थे.

पहले मैं रंजन को अपना भाई मानता था पर जब उस ने धोखा किया, मेरा मन टूट गया था.

‘‘रंजन बोल रहा हूं भैया, प्रणाम.’’

‘‘खुश रहो.’’

‘‘सुना है आप रिटायर होने वाले हैं? एक प्रार्थना है. पंडितजी के रुपए चुका कर मकान छुड़ा लीजिए न. 20 हजार रुपए ब्याज भी चढ़ चुका है. न चुकाने से मकान हाथ से निकल जाएगा. मेरे पास रुपए नहीं हैं. पटना में मकान बनाने से मैं कर्जदार हो चुका हूं. कुछ सहायता कीजिएगा तो आभारी रहूंगा.’’

मैं क्रोध से तिलमिलाया, ‘‘कुछ करने से पहले मुझ से पूछा था क्या? सलाह भी नहीं ली. पंडितजी का कर्ज तुम भरो. मुझे क्यों कह रहे हो?’’

मोबाइल बंद हो गया. इच्छा हुई कि उसे और खरीखोटी सुनाऊं. गुस्से में बड़बड़ाता रहा, ‘‘स्वार्थी…हमारे हिस्से को भी गिरवी रख दिया और रुपए ले गया. अब चाहता है कि मैं फंड के रुपए लगा दूं? मुझे सुख से जीने नहीं देना चाहता?’’

‘‘शांत हो जाइए, नहीं तो ब्लडप्रेशर बढे़गा,’’ कमला ने मुझे शांत करना चाहा.

सुबह कारखाने पहुंचा तो जवारी- भाई रामलोचन मिल गए, बोले, ‘‘रिटायरमेंट के बाद गांव जाने की तो नहीं सोच रहे हो न? बड़ा गंदा माहौल हो गया है गांव का. खूब राजनीति होती है. तुम्हारा खाना चाहेंगे और तुम्हें ही बेवकूफ बनाएंगे. रामबाबू रिटायरमेंट के बाद गांव गए थे, भाग कर उन्हें वापस आना पड़ा. अपहरण होतेहोते बचा. लाख रुपए की मांग कर रहे थे रणबीर दल वाले.’’

सीनियर अफसर गुप्ताजी मिल गए. बोले, ‘‘कल आप की नौकरी का आखिरी दिन है. सब को लड्डू खिला दीजिएगा. आप के विदाई समारोह का आयोजन शायद विभाग वाले दशहरे के बाद करेंगे.’’

कमला ने भी घर से निकलते समय कहा था, ‘‘लड्डू बांट दीजिएगा.’’

बलबीर भी जिद पर आया, ‘‘मैं भी अपने विभाग वालों को लड्डू खिलाऊंगा.’’

‘‘तुम क्यों? रिटायर तो मैं होने वाला हूं.’’

वह हंसते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, रिटायरमेंट को खुशी से लीजिए. खुशियां बांटिए और बटोरिए. कुछ मुझे और कुछ बहनबेटियों को दीजिए.’’

मुझे क्रोध आया, ‘‘तो क्या पैसे बांट कर अपना हाथ खाली कर लूं? मुझे कम पड़ेगा तो कोई देने नहीं आएगा. हां, मैं बहनबेटियों को जरूर कुछ गिफ्ट दूंगा. ऐसा नहीं कि मैं वरिष्ठ नागरिक होते ही ‘अशिष्ट’ सिद्ध होऊं. पर शिष्ट होने के लिए अपने को नष्ट नहीं करूंगा.’’

मैं सोचने लगा कि अपने ही विभाग का वेणुगोपाल पैसों के अभाव का रोना रो कर 5 हजार रुपए ले गया था, अब वापस करने की स्थिति में नहीं है. उस के बेटीदामाद ने मुकदमा ठोका हुआ है कि उन्हें उस की भविष्यनिधि से हिस्सा चाहिए.

रामलाल भी एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति थे. एक दिन आए और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे, ‘‘शर्माजी, रिटायर होने के बाद मैं कंगाल हो गया हूं. बेटों के लिए मकान बनाया. अब उन्होंने घर से बाहर कर दिया है. 15 हजार रुपए दे दीजिए. गायभैंस का धंधा करूंगा. दूध बेच कर वापस कर दूंगा.’’

रिटायर होने के बाद मैं घर बैठ गया. 10 दिन बीत गए. न विदाई समारोह का आयोजन हुआ, न विभाग से कोई मिलने आया. मैं ने गेटपास जमा कर दिया था. कारखाने के अंदर जाना भी मुश्किल था. समय के साथ विभाग वाले भूल गए कि विदाई की रस्म भी पूरी करनी है.

एक दिन विजय आया. उलाहने भरे स्वर में बोला, ‘‘यार, तुम ने मुझे किसी आयोजन में नहीं बुलाया?’’

मैं दुखी स्वर में बोला, ‘‘क्षमा करना मित्र, रिटायर होने के बाद कोई मुझे पूछने नहीं आया. विभाग वाले भी विभाग के काम में लग कर भूल गए…जैसे सारे नाते टूट गए हों.’’

कमला ताने दे बैठी, ‘‘बड़े लालायित थे आधाआधा किलो के पैकेट देने के लिए…’’

बलबीर को अवसर मिला. बोला, ‘‘मांसाहारी भोज से इनकार कर गए, अत: सब का मोहभंग हो गया. अब आशा भी मत रखिए…आप को पता है, मंदी का दौर पूरी दुनिया में है. उस का असर भारत के कारखानों पर भी पड़ा है. कुछ अनस्किल्ड मजदूरों की छंटनी कर दी गई है. मजदूरों को चंदा देना भारी पड़ रहा है. वैसे भी जिस विभाग का प्रतिनिधि चंदा उगाहने में माहिर न हो, काम से भागने वाला हो और विभागीय आयोजनों पर ध्यान न दे, वह कुछ नहीं कर सकता.’’

विजय ने कहा, ‘‘यार, शर्मा, घर में बैठने के बाद कौन पूछता है? वह जमाना बीत गया कि लोगों के अंदर प्यार होता था, हमदर्दी होती थी. रिटायर व्यक्ति को हाथी पर बैठा कर, फूलमाला पहना कर घर तक लाया जाता था. अब लोग यह सोचते हैं कि उन का कितना खर्च हुआ और बदले में उन्हें कितना मिला. मुरगाशराब खिलातेपिलाते तो भी एकदो माह के बाद कोई पूछने नहीं आता. सचाई यह है कि रिटायर व्यक्ति को सब बेकार समझ लेते हैं और भाव नहीं देते.’’

मैं कसमसा कर शांत हो गया…घर में बैठने का दंश सहने लगा.

Funny Story : प्यार की तलाश में – क्या सोहनलाल को मिला प्यार

Funny Story : सोहनलाल बचपन से ही सच्चे प्यार की खोज में यहांवहां भटक रहे हैं. वैसे तो वे 60 साल के हैं, पर उन का मानना है कि दिल एक बार जवान हुआ तो जिंदगीभर जवान ही रहता है. रही बात शरीर की तो उस महान इनसान की जय हो जिस ने मर्दाना ताकत बढ़ाने वाली दवाओं की खोज की और जो उन्हें ‘साठा सो पाठा’ का अहसास करा रही हैं.

उन्होंने कसरत कर के अपने बदन को भी अच्छाखासा हट्टाकट्टा बना रखा है और नएनए फैशन कर के वे हीरो टाइप दिखने की भी लगातार कोशिश करते रहते हैं.

सोहनलाल का रंग भले ही सांवला हो, पर खोपड़ी के बाल उम्र से इंसाफ करते हुए विदाई ले चुके हैं, पान खाखा कर दांत होली के लाल रंग में रंगी गोपी से हो चुके हैं, पर ठीकठाक आंखें, नाक और कसरती बदन… कुलमिला कर वे हैंडसम होने के काफी आसपास हैं. उन के पास रुपएपैसों की कमी नहीं है इसलिए उन की घुमानेफिराने से ले कर महंगे गिफ्ट देने तक की हैसियत हमेशा से रही है. लिहाजा, न तो कल लड़कियां मिलने में कमी थी और न ही आज है.

ऐसी बात नहीं है कि सोहनलाल को प्यार मिला नहीं. प्यार मिलने में तो न बचपन में कमी रही, न जवानी में और न ही अब है, क्योंकि प्यार के मामले में हमारे ये आशिक मैगी को भी पीछे छोड़ दें. मैगी फिर भी 2 मिनट लेगी पकने में, पर इन्हें सैकंड भी नहीं लगता लड़की पटाने में. इधर लड़की से आंखें चार, उधर दिल ‘गतिमान ऐक्सप्रैस’ हुआ.

कुलमिला कर लड़की को देखते ही प्यार हो जाता है और लड़की को भी उन से प्यार हो, इस के लिए वे भी प्रेमपत्र से ले कर फेसबुक और ह्वाट्सऐप जैसी हाईटैक तकनीक तक का इस्तेमाल कर डालते हैं.

सोहनलाल अनेक बार कूटे भी गए हैं, पर ‘हिम्मत ए मर्दा, मदद ए खुदा’ कहावत पर भरोसा रखते हुए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.

प्यार के मामले में सोहनलाल ने राष्ट्रीय एकता को दिखाते हुए ऊंचनीच, जातिभेद, रंगभेद जैसी दीवारों को तोड़ते हुए अपनी गर्लफ्रैंड की लिस्ट लंबी कर डाली, जिस में सब हैं जैसे धोबन की बेटी, मेहतर की भांजी, पंडितजी की बहन, कालेज के प्रोफैसर की बेटी, स्कूल मास्टर की भतीजी वगैरह.

सोहनलाल की पहली सैटिंग मतलब पहले प्यार का किस्सा भी मजेदार है. उन के महल्ले की सफाई वाली की भांजी छुट्टियों में ननिहाल आई हुई थी और अपनी मामी के साथ शाम को खाना मांगने आती थी (उन दिनों मेहतर शाम को घरघर बचा हुआ खाना लेने आते थे).

उन्हीं दिनों ये महाशय भी एकदम ताजेताजे जवान हो रहे थे. लड़कियों को देख कर उन के तन और मन दोनों में खनखनाहट होने लगी थी. हर लड़की हूर नजर आती थी. सो, जो पहली लड़की आसानी से मिली, उसी पर लाइन मारना शुरू हो गए.

दोनों के नैना चार हुए और इशारोंइशारों में प्यार का इजहार भी हो गया.

लड़की भी इन के नक्शेकदम पर चल रही थी यानी नईनई जवान हो रही थी इसलिए अहसास एकदम सेम टू सेम थे.

कनैक्शन एकदम सही लगा. दोनों के बदन में करंट बराबर दौड़ रहा था. सो, आसानी से पट गई. बाकी काम मां की लालीलिपस्टिक ने कर दिया जो इन्होंने चुरा कर लड़की को गिफ्ट में दी थी.

एक दिन मौका देख कर सोहनलाल उस लड़की को ले कर घर के पिछवाड़े की कोठरी में खिसक लिए, यह सोच कर कि किसी ने नहीं देखा.

अभी प्यार का इजहार शुरू ही हुआ था कि लड़की की मामी आ धमकीं और झाड़ू मारमार कर इन की गत बिगाड़ डाली और धमकी भी दे डाली, ‘‘आगे से मेरी छोरी के पीछे आया तो झाड़ू से तेरा मोर बना दूंगी और तेरे मांबाप को भी बता कर तेरी ठुकाई करा डालूंगी.’’

बेचारे आशिकजी का यह प्यार तो हाथ से गया, पर जान में जान आई कि घर वालों को पता नहीं चला.

इस के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. वे पूरी हिम्मत से नईनई लड़कियों पर हाथ आजमाने लगे. कभी पत्थर में प्रेमपत्र बांध कर फेंके तो कभी आंखें झपका कर मामला जमा लिया और सच्चे प्यार की तलाश ही जिंदगी का एकमात्र मकसद बना डाला.

वैसे भी बाप के पास रुपएपैसों की कमी नहीं थी और जमाजमाया कारोबार था. सो, लाइफ सैट थी.

यह बात और है कि लड़की के साथ थोड़े दिन घूमफिर कर सोहनलाल को अहसास हो जाता था कि यह सच्चा प्यार नहीं है और फिर वे दोबारा जोरशोर से तलाश में जुट जाते.

सोहनलाल की याददाश्त तो इतनी मजबूत है कि शंखपुष्पी के ब्रांड एंबेसडर बनाए जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर उन की गर्लफ्रैंड की लिस्ट पढ़ कर किसी भी भले आदमी को चक्कर आ जाएं, पर मजाल है सोहनलाल एक भी गर्लफ्रैंड का नाम और शक्लसूरत भूले हों.

कृपया सोहनलाल को चरित्रहीन टाइप बिलकुल न समझें. उन का मानना है कि हम कपड़े खरीदते वक्त कई जोड़ी कपड़े ट्राई करते हैं तब जा कर अपनी पसंद का मिलता है. तो बिना ट्राई करे सच्चा प्यार कैसे मिलेगा?

एक बार तो लगा भी कि इस बार तो सच्चा प्यार मिल ही गया. सो, उन्होंने चटपट शादी कर डाली.

सोहनलाल बीवी को ले कर घर पहुंचे तो मां और बहनों ने खूब कोसा. बाप ने तो पीट भी डाला… दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने की वजह से. पर उन पर कौन सा असर होने वाला था, क्योंकि इतनी बार लड़कियों के बापभाई जो उन्हें कूट चुके थे, इसलिए उन का शरीर यह सब झेलने के लिए एकदम फिट हो चुका था.

सब सोच रहे थे कि प्यार का भूत सिर पर सवार था इसलिए शादी की, पर बेचारे सोहनलाल किस मुंह से बताते कि इस बार वे सच्ची में फंस चुके थे. यह रिश्ता प्यार का नहीं, बल्कि मजबूरी का था.

दरअसल, कहानी में ट्विस्ट यह था कि वह लड़की यानी वर्तमान पत्नी सोहनलाल के एक खास दोस्त की बहन थी और दोस्त से मिलने अकसर उस के घर जाना होता था, इसलिए इन का नैनमटक्का भी दोस्त की बहन से शुरू हो गया.

दोस्त चूंकि उन पर बहुत भरोसा करता था और उस कहावत में विश्वास रखता था कि ‘चुड़ैल भी सात घर छोड़ कर शिकार बनाती है’ तो बेफिक्र था.

लेकिन सोहनलाल तो आदत से मजबूर थे और ऐसे टू मिनट मैगी टाइप आशिक का किसी चुड़ैल से मुकाबला हो भी नहीं सकता, इसलिए उन्होंने लड़की पूरी तरह पटा भी ली और पा भी ली जिस के नतीजे में सोहनलाल ने कुंआरे बाप का दर्जा हासिल करने का पक्का इंतजाम कर लिया था.

पर चूंकि मामला दोस्त के घर की इज्जत का था और दोस्त पहलवान था इसलिए छुटकारा पाने के बजाय पत्नी बनाने का रास्ता सेफ लगा. इस में दोस्त की इज्जत और अपनी बत्तीसी दोनों बच गए.

प्यार का भूत तो पहले ही उतर चुका था सोहनलाल का, अब जो मुसीबत गले पड़ी थी, उस से छुटकारा भी नहीं पा सकते थे… इसलिए मारपीट और झगड़ों का ऐसा दौर शुरू हुआ जो आज तक नहीं थमा और न ही थमी है सच्चे प्यार की तलाश.

इन लड़ाईझगड़ों के बीच जो रूठनेमनाने के दौर चलते थे, उन्होंने सोहनलाल को 4 बच्चों का बाप भी बना डाला. उन की बीवी ने भी वही नुसखा आजमाया जो अकसर भारतीय बीवियां आजमाती हैं यानी बच्चों के पलने तक चुपचाप भारतीय नारी बन कर जितना हो सके सहन करो और बच्चों के लायक बनते ही उन के नालायक बाप को ठिकाने लगा डालो.

सोहनलाल की हालत घर में पड़ी टेबलकुरसी से भी बदतर हो गई.

बीवी ने घर में दानापानी देना बंद कर दिया था. अब बेचारे ने पेट की आग शांत करने के लिए ढाबों की शरण ले ली और बाकी की भूख मिटाने के लिए फेसबुक व दूसरे जरीयों से सहेलियों की तलाश में जुट गए, जिस में काफी हद तक वे कामयाब भी रहे.

वैसे भी 60 पार करतेकरते बीवी के मर्डर और सच्चे प्यार की तलाश 2 ही सपने तो हैं जो वे खुली आंखों से भी देख सकते थे.

सोहनलाल में एक सब से बड़ी खासीयत यह है, जिस से लोग उन्हें इज्जत की नजर से देखते हैं. उन्होंने हमेशा अपनी हमउम्र लड़की या औरत के अलावा किसी को भी आंख उठा कर नहीं देखा. छिछोरों या आशिकमिजाज बूढ़ों की तरह हर किसी को देख कर लार नहीं टपकाते, न ही छेड़खानी में यकीन रखते हैं.

बस, जो औरत उन के दिल में उतर जाए, उसे पाने के सारे हथकंडे आजमा डालते हैं. वह ऐसा हर खटकरम कर डालते हैं जिस से उस औरत के दिल में उतर जाएं.

प्यार की कला में तो वे इतने माहिर?हैं कि कोई भी तितली माफ कीजिए औरत एक बार उन के साथ कुछ वक्त बिता ले तो उन के प्यार के जाल में खुदबखुद फंसी चली आएगी और तब तक नहीं जाएगी जब तक सोहनलाल खुद आजाद न कर दें.

वैसे भी महोदय को इस खेल को खेलते हुए 40 साल से ऊपर हो चुके हैं इसलिए वे इस कला के माहिर खिलाड़ी बन चुके हैं. साइकिल के डंडे से लेकर कार की अगली सीट तक अनेक लड़कियों और लड़कियों की मांओं को वे घुमा चुके हैं.

आज सोहनलाल जिस तरह की औरत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहते हैं, उसे छोड़ कर हर तरह की औरत उन्हें मिल रही है.

सब से बड़ी बात तो यह है कि वे अपनी वर्तमान पत्नी को छोड़े बिना ही किसी का ईमानदार साथ चाहते हैं.

एक बार धोखा खा चुके हैं इसलिए इस बार अपनी ही जाति की सुंदर, सुशील, भारतीय नारी टाइप का वे साथ पाना चाहते हैं.

अब कोई उन से पूछे कि कोई सुंदर, सुशील और भारतीय नारी की सोच रखने वाली औरत इस उम्र में नातीपोते खिलाने में बिजी होगी या प्रेम के चक्कर में पड़ेगी? लेकिन सोहनलाल पर कोई असर होने वाला नहीं. वे बेहद आशावादी टाइप इनसान हैं और खुद को कामदेव का अवतार मानते हुए अपने तरकश के प्रेम तीर को छोड़ते रहते हैं, इस उम्मीद के साथ कि किसी दिन तो उन का निशाना सही बैठेगा ही और उस दिन वे अपने सच्चे प्यार के हाथों में हाथ डाल कर कहीं ऐसी जगह अपना आशियाना बनाएंगे जहां यह जालिम दुनिया उन्हें तंग न कर पाए.

हमारी तो यही प्रार्थना है कि हमारे सोहनलालजी को उन की खोज में जल्दी ही कामयाबी मिले.

Short Story : प्रतिक्रिया – मंत्री महोदय ने आखिर क्या किया

Short Story : ‘‘गाड़ी जरा इस गांव की तरफ मोड़ देना, सुमिरन सिंह,’’ कार में बैठेबैठे ही मंत्रीजी की आंख लग गई थी, पर सड़क पर गड्ढा आ जाने से उन की नींद खुली. दूर एक गांव के कुछ घर दिखे, अत: तुरंत मन में विचार आया कि क्यों न जा कर गांव वालों से मिल लिया जाए, आखिर वोट तो यही लोग देते हैं.

सुमिरन सिंह ने तुरंत कार गांव की ओर मोड़ दी. मंत्रीजी की कार घूमते ही उन के पीछे चल रहा कारों का पूरा काफिला भी घूम गया. गांव में इतनी बड़ी संख्या में कारें, जीपें आदि कभी नहीं आई थीं, अत: यह काफिला देखते ही गांव में हलचल सी मच गई. जिसे देखो मुखिया के बगीचे की ओर भागा चला जा रहा था, जहां मंत्रीजी का काफिला उतरा था. मुखिया व गांव के अन्य प्रभावशाली लोग मंत्रीजी की खुशामद में लगे थे.

‘‘कहिए, खेती- बाड़ी की दशा इस बार कैसी है. कोई समस्या हो तो मंत्रीजी से कह डालिए,’’ सुमिरन सिंह, जो मंत्री महोदय के सचिव व संबंधी दोनों थे, बोले.

थोड़ी देर उस भीड़ में हलचल सी हुई. फिर तो शिकायतों का ऐसा तांता लगा कि मंत्री स्तब्ध रह गए. गांववासी पीने का पानी, स्कूल, अस्पताल आदि सभी समस्याओं का समाधान चाहते थे. मंत्रीजी ने अपने सचिव से सब लिखने को कहा तथा अपने साथ आए अधिकारियों को कुछ निर्देश भी दे डाले.

‘‘गुजरबसर कैसी होती है? केवल खेती से काम चल जाता है?’’ चलते समय मंत्रीजी ने एक और प्रश्न पूछ डाला.

‘‘कभीकभी मजदूरी मिल जाती है या गायभैंस आदि पालते हैं. दूध व घी बेच कर काम चलाते हैं. अब आप से क्या छिपाना, आप तो माईबाप हैं,’’ मुखिया बोला.

‘‘मजदूरी के लिए तो शहर जाते होंगे, गांव में क्या मजदूरी मिलती होगी?’’ सुमिरन सिंह बोले.

‘‘सरकार की दया से कुछ न कुछ निर्माण कार्य चलता ही रहता है. आजकल 2-3 किलोमीटर दूर सड़क निर्माण कार्य चल रहा है. वहां आधे से अधिक लोग हमारे गांव के ही हैं. सूखा पीडि़तों के लिए ही यह कार्य आरंभ किया गया है,’’ मुखियाजी ने सूचित किया.

‘‘चलिए, क्यों न एक बार सड़क निर्माण कार्य का भी निरीक्षण कर लिया जाए. गांव वालों को भी लगेगा कि आप को उन की कितनी चिंता है,’’ जरा सा आगे बढ़ते ही सुमिरन सिंह ने मंत्री को सलाह दी.

‘‘आप कहते हैं तो वहां का भी चक्कर लगा लेते हैं. वैसे भी आज रूपगढ़ पहुंचना कठिन है. किसी विश्रामगृह में पड़ाव करना होगा,’’ मंत्रीजी ने सचिव की बात का समर्थन किया.

सड़क निर्माण स्थल पर मंत्रीजी को देखते ही भीड़ लग गई. सब एकदूसरे से आगे बढ़बढ़ कर अपनी बात कहना चाहते थे.

‘‘आप को मजदूरी कितनी मिलती है?’’ मंत्रीजी ने पास खड़े एक मजदूर से पूछा.

‘‘10 रुपए मिलते हैं, सरकार,’’ श्रमिक ने उत्तर दिया.

‘‘क्या कह रहे हो भाई? क्या तुम नहीं जानते कि सरकार ने न्यूनतम मजदूरी 16 रुपए निश्चित की हुई है? आप अपने मालिक पर दबाव डाल सकते हैं कि वह आप को न्यूनतम मजदूरी दे,’’ मंत्रीजी श्रमिक को समझाते हुए बोले.

‘‘सरकार, हम ठहरे अनपढ़ और गंवार, यह कायदाकानून क्या जानें. आप खुद ठेकेदार को बुला कर  उसे आज्ञा दें तो वह आप की बात कभी नहीं टालेगा,’’ एक श्रमिक ने हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘और महिलाओं को कितनी मजूदरी मिलती है?’’ सुमिरन सिंह ने महिलाओं से पूछा.

‘‘हमें तो पुरुषों से भी कम मिलती है. वह भी ठेकेदार की इच्छा पर है, कभी कम दे दिया कभी ज्यादा,’’ महिला श्रमिकों ने उत्तर दिया.

‘‘यह तो सरासर अन्याय है. सुमिरन सिंह, आप इस संबंध में पूरी जांच कीजिए…इन सब को न्याय मिलना चाहिए.’’ मंत्रीजी ने अपना निर्णय सुनाया.

‘‘कहां है ठेकेदार? उसे बुला कर लाओ. मंत्रीजी अभी फैसला कर देते हैं.’’

सुमिरन सिंह का आदेश पा कर श्रमिक इधरउधर भागे, पर कुछ क्षण पहले वहीं खड़ा ठेकेदार मौका मिलते ही न जाने कहां खिसक गया था. मंत्री महोदय के साथ आए लोगों ने भी उसे ढूंढ़ने का काफी प्रयत्न किया और उस के न मिलने पर सड़क निर्माण कार्य से संबंधित अधिकारी मधुसूदन को मंत्रीजी के सामने ला खड़ा किया.

‘‘आप के रहते यह कैसे संभव है कि इन बेचारों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती,’’ मधुसूदन को देखते ही मंत्रीजी गरजे.

‘‘मजदूरी आदि किसे, कब और कितनी दी जाएगी इस सब का निर्णय ठेकेदार ही करता है, हम इन सब बातों में दखल नहीं देते,’’ मधुसूदन ने निवेदन किया.

‘‘यों बहाने बना कर आप कर्तव्यमुक्त नहीं हो सकते. एक सरकारी कर्मचारी के समक्ष इतना बड़ा अन्याय होता रहे और वह कुछ न करे? बड़े शर्म की बात है. मैं तो ठेकेदार से अधिक अपराधी आप को समझता हूं,’’ मंत्रीजी ने उसे लताड़ा.

मधुसूदन चुप रह गया. वह जानता था कि मंत्री के सम्मुख कोई भी तर्क देना व्यर्थ होगा. उसे स्वयं पर ही क्रोध आ रहा था कि वह इस समय मंत्रीजी के सामने पड़ा ही क्यों.

‘‘यह देखना कि इन सब को न्यूनतम मजदूरी मिले, आज से आप का कार्य है. मुझ तक इन की कोई शिकायत नहीं पहुंचनी चाहिए,’’ मंत्रीजी ने मानो अंतिम निर्णय सुनाया.

‘‘नहीं पहुंचेगी, साहब. मैं इन की शिकायतों का पूरापूरा खयाल रखूंगा,’’ मधुसूदन का आश्वासन सुन कर मंत्रीजी कुछ शांत हुए.

यथोचित आदरसत्कार के पश्चात मंत्रीजी विदा हुए तो मधुसूदन ने चैन की सांस ली. फिर उस ने तुरंत अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को आज्ञा दी कि ठेकेदार को उन के समक्ष उपस्थित किया जाए.ठेकेदार को देखते ही वह आगबबूला हो उठे. उसे खूब खरीखोटी सुनाई.

ठेकेदार चुपचाप सब सुनता रहा. मधुसूदन से झाड़ खा कर वह सीधे मजदूरों के बीच पहुंचा. मजदूरी बढ़ने की उम्मीद से उत्पन्न प्रसन्नता से उन के चेहरे दमक रहे थे.

‘‘मैं जो कुछ कहने जा रहा हूं ध्यान से सुनिए. मुझे सड़क निर्माण कार्य के लिए श्रमिकों की आवश्यकता नहीं है. निर्माण कार्य कुछ समय के लिए रोक दिया गया है,’’ कहते हुए ठेकेदार ने अपनी बात समाप्त की.

कुछ क्षण तक तो वहां ऐसी निस्तब्धता छाई रही मानो सब को सांप सूंघ गया हो. सब के मन में एक ही बात थी कि यह क्या हो गया? मंत्री महोदय तो मजदूरी बढ़ाने की बात कह गए थे पर यहां तो रोजीरोटी से भी गए.

कुछ बुजुर्ग मिल कर ठेकेदार से मिलने भी गए पर उस ने साफ कह दिया कि जब कार्य ही रोकना पड़ रहा है तो वह इतने श्रमिकों का क्या करेगा.

श्रमिकों की इन समस्याओं से बेखबर मंत्री महोदय ने विश्रामगृह में रात बिताई. मंत्रीजी व उन के दल के अन्य लोग अत्यधिक संतुष्ट थे कि किस प्रकार वे तीव्र गति से समस्याओं का समाधान कर रहे थे.

‘‘आगे का क्या कार्यक्रम है, साहब?’’ जलपान आदि कर लेने के बाद सुमिरन सिंह ने पूछा.

‘‘आज हमें रूपगढ़ पहुंचना है. वहां 2-3 उद्घाटन हैं और एक विवाह में सम्मिलित होना है.’’

‘‘रूपगढ़ तो हम जाएंगे ही, पर मार्ग में कुछ अन्य निर्माण कार्य भी चल रहे हैं. अगर वहां होते हुए चलें तो आप को कोई आपत्ति तो नहीं,’’ सुमिरन सिंह बोले, ‘‘देखिए, कल सड़क निर्माण वाले मजदूरों की समस्या आप ने चुटकियों में हल कर दी. बेचारे आप को दुआ दे रहे होंगे.’’

‘‘जो व्यक्ति तुरंत निर्णय न ले सके, जनता की समस्याओं का समाधान न कर सके उसे नेता कहलाने का कोई अधिकार नहीं.’’ मंत्री महोदय गद्गद होते हुए बोले.

‘‘ठीक है, फिर हमारा अगला पड़ाव उस निर्माण स्थल पर होगा जहां एक पुल का निर्माण कार्य चल रहा है,’’ सुमिरन सिंह बोले.

‘‘ठीक है, आखिर उन लोगों के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है,’’ मंत्रीजी ने स्वीकृति देते हुए कहा.

मंत्रीजी दलबल सहित पुल निर्माण स्थल पर पहुंचे तो हलचल सी मच गई. सब उसी स्थान की ओर दौड़ पड़े, जिस छोटी सी पहाड़ीनुमा जगह पर मंत्री महोदय खड़े थे.

इतने सारे उत्सुक श्रोताओं को देख कर मंत्रीजी ने एक भाषण दे डाला. उस भाषण में उन्होंने भविष्य का इतना सुंदर चित्रण किया कि श्रमिक अपनी वर्तमान समस्याओं को भूल ही गए.

इसी खुशी भरे माहौल में मंत्रीजी श्रमिकों से अनौपचारिक बातचीत करने लगे और तभी उन्होंने प्रश्न किया कि प्रतिदिन प्रति श्रमिक को कितनी मजदूरी मिलती है?

श्रमिकगण मानो इसी प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहे थे. अब उन लोगों में मंत्रीजी को यह सूचना देने की होड़ लग गई कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी से कहीं अधिक दर की मजदूरी मिलती है. यही नहीं, उन्हें अन्य भी बहुत सी सुविधाएं प्राप्त हैं. स्त्री व पुरुषों में मजदूरी के संबंध में भेदभाव नहीं होता. सभी को समान मजदूरी मिलती है आदि.

एक क्षण को मंत्रीजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. वह तो मन ही मन ठेकेदार को लताड़ने की तैयारी कर चुके थे. सुमिरन सिंह को पहले से हिदायत दे दी गई थी कि ठेकेदार व संबंधित अधिकारी उस समय वहीं उपस्थित रहने चाहिए. पर यहां पूरी बात ही उलटी हो गई थी.

अंतत: उन्होंने श्रमिकों को बधाई दी कि उन्हें इतना अच्छा मालिक मिला है. ठेकेदार को भी श्रमिकों के प्रति उस के सज्जन व्यवहार के लिए बधाई दी तथा दलबल सहित रवाना हो गए.

ठेकेदार आज बहुत प्रसन्न था. उस ने सभी श्रमिकों के लिए मिठाई की व्यवस्था की थी. श्रमिक भी अत्यंत प्रसन्न थे कि उन्होंने मंत्रीजी के सम्मुख सबकुछ ठीकठाक कहा था. केवल एक कोने में सड़क निर्माण कार्य के वे मजदूर खड़े थे, जिन्हें काम से निकाल दिया गया था और उन्होंने ही आ कर यहां सारी सूचना दी थी. उधर मंत्रीजी इन सब से बेखबर रूपगढ़ की ओर बढ़े जा रहे थे.

Social Story : इंसाफ के लिए रशना का इंतकाम

Social Story : एडवोकेट फुरकान काला तो था ही, उस का जिस्म भी भद्दा था. उस की छोटीछोटी आंखों में मक्कारी और बेरहमी साफ झलकती थी. वह गले में सोने की मोटी सी चेन और हाथ में कीमती घड़ी पहने रहता था.

शहर के पौश इलाके में उस का शानदार बंगला था. एक आदमी की जिंदगी में जो कुछ चाहिए, वह सब उस के पास था. ये सब उस ने मक्कारी और साजिशों से कमाया था. उस के साथी वकील उसे जोड़तोड़ और चालाकी का बादशाह कहते थे. कैसा भी पेचीदा केस हो, कितना ही घिनौना मुजरिम हो, उस के पास आ कर मजफूज हो जाता था. वह अपनी चालों और तिकड़म की भारीभरकम फीस वसूलता था.

फुरकान के पास बेपनाह दौलत थी. साजिश और तिकड़म से आई दौलत के साथ कई तरह की बुराइयां भी आ जाती हैं. शराब और शबाब के शौक ने उस के अंदर के इंसान को बिलकुल खत्म कर दिया था. उस की जिंदगी में सिर्फ एक अच्छाई यह थी कि वह अपनी बेटी नाहीद से बेपनाह मोहब्बत करता था. एक दिन फुरकान अपने औफिस में बैठा था, तभी उस के इंटरकौम की घंटी बजी. दूसरी ओर उस का मुंशी था. उस ने क्लाइंट की खबर दी तो उस ने पहला सवाल यही पूछा, ‘‘आसामी पैसे वाली है न?’’

‘‘जी साहब, तगड़ी पार्टी है.’’ मुंशी ने जल्दी से कहा.

फुरकान ने क्लाइंट को केबिन में भेजने को कहा. उस की केबिन में जो आदमी दाखिल हुआ, वह महंगा सूट पहने था. उस की अंगुलियों में हीरे की अंगूठियां चमक रही थीं. कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम राहत खान है. मैं राहत इंडस्ट्रीज का मालिक हूं.’’

राहत इंडस्ट्रीज एक बड़ी कंपनी थी, जिस से कई कारोबार जुड़े थे. साफ था, वह काफी दौलतमंद पार्टी थी.
‘‘फरमाइए सर, मैं आप की क्या खिदमत कर सकता हूं?’’ फुरकान ने कहा.

‘‘भई, मेरे बेटे नुसरत का मामला है. उस बेवकूफ ने एक नादानी कर डाली है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘सर, जरा खुल कर बताइए, मामला क्या है?’’

‘‘भई, मेरा बेटा है नुसरत. उस ने रशना नाम की एक लड़की का रेप कर दिया है और अब जेल में बंद है. हालांकि उस लड़की को उठाने में उस के कुछ दोस्त भी शामिल थे, लेकिन पकड़ा वही अकेला गया है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘ओह! मामला तो संगीन है.’’ फुरकान ने कहा, ‘‘राहत साहब, आप चाहते हैं कि मैं आप के बेटे की पैरवी कर के उसे जेल से छुड़वा दूं.’’

‘‘जाहिर है, मैं आप के पास इसीलिए आया हूं, क्योंकि मैं ने आप का बहुत नाम सुना है.’’ राहत ने कहा.

फुरकान की आंखों की चमक बढ़ गई. उस ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘राहत साहब, केस बहुत बिगड़ चुका है. उस के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है और डीएनए रिपोर्ट से सारी सच्चाई पता चल जाएगी.’’

‘‘हां, मैं सब समझता हूं. आप एक बार उसे छुड़वा दीजिए. उस के बाद मैं उस का कुछ इंतजाम कर दूंगा. आप पैसे की कतई फिक्र न करें.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं जीजान लगा दूंगा. पर मेरी फीस 50 लाख होगी. उस में से आधे पहले, आधे केस जीतने के बाद. अगर आप को मंजूर हो तो मैं काम शुरू करूं?’’

‘‘हां, मंजूर है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘आप मुझे उन दोस्तों के नाम व पते लिखा दीजिए, जो उस दिन उस के साथ थे. हां, एक बात यह भी बता दीजिए कि अगर उसे बचाने के लिए उस के किसी दोस्त की कुरबानी देनी पड़े तो आप को कोई ऐतराज तो नहीं होगा?’’

‘‘नहीं, मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. बस किसी तरह मेरा बेटा बच जाए.’’

रशना अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. मांबाप की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, इस के बावजूद भी वह उसे पढ़ा रहे थे. वह शहर के मशहूर कालेज में पढ़ रही थी और बसस्टैंड से घर तक पैदल ही जाती थी. वह बेहद शरीफ और समझदार लड़की थी. बेपनाह खूबसूरत होने के बावजूद वह बड़ी सादगी से रहती थी.

पिता ने उस की शादी शरजील से तय कर दी थी, पर निकाह की तारीख मुकर्रर नहीं हुई थी. मंगेतर से उस की फोन पर बातचीत होती रहती थी. उस दिन भी रशना बस से उतर कर अपने घर जा रही थी, तभी एक कार उस के करीब आ रुकी. उस में से 2 लोग उतरे. जब तक वह कुछ समझ पाती, उन दोनों ने उसे दबोच कर कार में डाल लिया था.

उस गाड़ी में एक युवक और भी था. वह मशहूर उद्योगपति राहत खान का बेटा नुसरत था. रशना पूरी ताकत लगा कर चीखी, ‘‘मुझे कहां ले जा रहे हो? खुदा के वास्ते मुझे छोड़ दो.’’

एक आदमी ने तुरंत उस का मुंह दबा दिया था. सामने बैठे नौजवान नुसरत ने घुड़क कर कहा था, ‘‘चुपचाप बैठी रह. बड़ी मुश्किल से हाथ आई है, ऐसे कैसे छोड़ दूं?’’

इस के बाद उस ने अपने दोस्तों से कहा, ‘‘तुम लोगों ने आज मेरे मन का काम किया है, इसलिए तुम्हें इस का अच्छा इनाम मिलेगा.’’

2 लोगों के बीच रशना डरीसहमी बैठी थी. उसे न रास्ते समझ में आ रहे थे, न बचने की कोई तरकीब. वह चिल्ला भी नहीं सकती थी. कुछ देर में गाड़ी एक नई बन रही कालोनी में रुकी. उस कालोनी में अभी लोगों ने रहना शुरू नहीं किया था. जिन लोगों ने रशना को गाड़ी में डाला था, वही दोनों उसे एक नए मकान में ले गए. कार में बैठा नुसरत भी पीछेपीछे आ गया था. उसे एक कमरे में छोड़ कर वे दोनों चले गए तो नुसरत ने कमरे का दरवाजा बंद कर के उस की अस्मत लूट ली. वह रोरो कर बख्श देने के लिए गिड़गिड़ाती रही, पर उसे उस पर तनिक भी दया नहीं आई.

इस के बाद वह रोती रही. जब वे तीनों उसे गाड़ी में डाल कर वापस ला रहे थे तो रास्ते में रोड पर एक जगह पुलिस का नाका लगा दिखा. कार चला रहा युवक बोला, ‘‘उस्ताद, पुलिस गाड़ी रोकने को कह रही है.’’

‘‘हां, रोक दे गाड़ी.’’ नुसरत ने कहा.

‘‘उस्ताद, यह चिडि़या?’’ एक साथी ने पूछा.

‘‘इस चिडि़या के पर कटे हुए हैं और मैं ने इसे संभाला हुआ है. तू फिक्र मत कर.’’ नुसरत ने कहा.

उस समय रशना के मन में बेपनाह गुस्सा और नफरत की आग जल रही थी. जैसे ही गाड़ी रुकी, वह पूरी ताकत से चिल्लाई, ‘‘बचाओ…बचाओ…’’

लड़की की आवाज सुन कर पुलिस वालों ने गाड़ी को घेर लिया. सभी को गाड़ी से उतारा गया. रशना ने रोरो कर अपने साथ घटी घटना पुलिस को बता दी. पुलिस ने उन युवकों को हिरासत में ले लिया और खबर रशना के पिता को दे दी.

कुछ ही देर में मीडिया वालों को भी पता चल गया. फिर तो हंगामा खड़ा हो गया. रशना के मंगेतर शरजील को पता चला तो वह भी थाने पहुंच गया. रशना उस के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई.

एडवोकेट फुरकान किसी भी तरह नुसरत को बचाने में लग गया. इस के लिए उस ने पैसा और पहुंच का इस्तेमाल किया. यह केस अदालत पहुंचा तो एकदम उलटा हो गया. अदालत में जो मैडिकल रिपोर्ट पेश की गई, उस के मुताबिक राहत इंडस्ट्रीज के मालिक का बेटा नुसरत बेगुनाह पाया गया.

एडवोकेट फुरकान ने कोर्ट में जो कहानी पेश की, उस में बताया गया कि अब से करीब 2 महीने पहले किसी जगह पर रशना और नुसरत की मुलाकात हुई थी. दोनों एकदूसरे के करीब आए. मोहब्बत का खेल शुरू हो गया. इन की मुलाकातें महंगे रेस्टोरेंट में होने लगी. उन की मुलाकातों के कई गवाह पेश हुए.

2 वेटर जो उन्हें सर्व करते थे, उन के साथसाथ रेस्टोरेंट के मैनेजर नदीम ने भी गवाही दी. जिन स्टोर और दुकानों से नुसरत ने रशना को तोहफे दिलाए थे, उन लोगों ने भी कोर्ट में बयान दिए.

एक दिन रशना ने नुसरत पर शादी का दबाव डाला तो उस ने शादी से इनकार कर दिया. इस की वजह यह थी कि वह शादी करने लायक नहीं था. इस बात को रशना नहीं जानती थी. नुसरत के शादी से मना करने पर रशना ने उसे धमकी दी कि वह उस के खिलाफ कुछ भी कर सकती है. आखिर वही हुआ और उस ने नुसरत पर रेप का इलजाम लगा दिया.

उस दिन वह खुद अपनी मरजी से नुसरत व उस के दोस्तों के साथ आउटिंग पर गई थी. वापसी पर जब पुलिस ने गाड़ी रोकी तो उस ने चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया. उस के बाद पुलिस ने नुसरत और उस के साथियों को गिरफ्तार कर लिया.

मैडिकल रिपोर्ट में रशना के साथ रेप की पुष्टि तो हुई थी, पर यह रेप नुसरत ने नहीं, बल्कि किसी और ने किया था. बदला लेने की खातिर इलजाम लगा दिया था नुसरत पर. जबकि हकीकत यह थी कि नुसरत नामर्द था.

इस सिलसिले में कई डाक्टरों की मैडिकल रिपोर्ट सबूत के तौर पर अदालत में पेश की गई. वह एक मायूस इंसान है, जो दिल बहलाने के लिए लड़कियों से दोस्ती करता है. डाक्टरों और एक्सपर्ट्स की मैडिकल रिपोर्ट, डीएनए रिपोर्ट, रेस्टोरेंट वालों, स्टोर वालों आदि की गवाही ने केस का रुख ही बदल दिया.

रशना भरी अदालत में रोरो कर चीखचीख कर फरियाद करती रही, लेकिन वकील फुरकान का बिछाया जाल और सबूत इतने पक्के थे कि कुछ नहीं हो सका. नुसरत को बाइज्जत बरी कर दिया गया और रशना पर जुरमाना लगा कर उसे माफ कर दिया गया.

अदालत के बाहर राहत खान ने एडवोकेट फुरकान को गले लगा कर शुक्रिया अदा करते हुए उस की बहुत तारीफ की. शरजील के सामने रशना की हिचकियां बंध गईं. उस ने रोते हुए कहा, ‘‘शरजील, अदालत में जो कुछ कहा गया, वह सब झूठ है. मैं ने नुसरत को इस से पहले कभी नहीं देखा था.’’

‘‘मैं जानता हूं रशना, तुम बेकसूर हो. यह सब उस मक्कार वकील की साजिश है. दौलत के लिए लोग अपना ईमान और जमीर तक बेच देते हैं. तुम परेशान न हो, ऊपर वाला जरूर इंसाफ करेगा. एक बात और रशना, पहले मैं ने सोचा था कि अपना घर बना कर तुम से निकाह करूंगा, लेकिन अब मैं तुम से अगले महीने ही शादी कर रहा हूं, वरना तुम घुटती रहोगी. मैं ने इस बारे में तुम्हारे अब्बू से बात कर ली है.’’ शरजीत ने कहा.

एक दिन नुसरत का दोस्त उस के पास एक आदमी को ले कर आया. उस के सिर पर कैप थी, आंखों पर काला चश्मा, पान जैसे लाल होंठ, गले में नीला स्कार्फ बंधा था. उस ने कपड़े भी काफी कीमती पहन रखे थे. उस व्यक्ति का नाम दिलबर था. दोस्त ने बताया था कि दिलबर के पास ऐसी हुस्न की परियां हैं कि देखो तो आंखें खुली की खुली रह जाएं.

नुसरत उद्योगपति का बेटा था. वह अपनी अय्याशी पर खूब पैसे उड़ाता था, इसलिए उस ने कहा, ‘‘मुझे दिखाओ तो वे कैसी हैं?’’

दिलबर ने अपने मोबाइल फोन में नुसरत को एक फोटो दिखाई. लड़की बेहद हसीन और पुरशबाब थी. देखते ही नुसरत उस का दीवाना हो गया. उस ने कहा, ‘‘क्या तुम इसे ला सकते हो?’’

‘‘हां, तभी तो फोटो दिखा रहा हूं. पर पैसा काफी लगेगा और मेरी कुछ शर्तें भी हैं.’’

‘‘पैसे की तुम फिक्र मत करो, अपनी शर्तें बताओ.’’ नुसरत ने कहा.

‘‘शर्त यह है कि इस लड़की के पास बस वही आदमी जाएगा, जिस ने सौदा किया है यानी बस तुम. और सुबह होने से पहले तुम लड़की को वापस भेज दोगे. एक लाख रुपए कीमत होगी.’’ दिलबर ने कहा.

‘‘मुझे मंजूर है.’’ नुसरत ने बेचैनी से 50 हजार रुपए उस के हाथ पर रख कर कहा, ‘‘बाकी काम के बाद. तुम लड़की अकेले उठाओगे?’’

‘‘उस से आप को कोई मतलब नहीं, आप बस जगह बता दो, लड़की पहुंचा दी जाएगी.’’ दिलबर ने कहा.

दूसरी ओर वकील फुरकान बड़ा खुश था. एक बड़े दौलतमंद व इज्जतदार खानदान से उस की एकलौती बेटी नाहीद के लिए रिश्ता आया था. लड़का भी बाप के बिजनैस से जुड़ा था. पढ़ालिखा शरीफ लड़का था. मंगनी का दिन भी तय हो गया था.

नाहीद रोज की तरह उस दिन भी योगा क्लास से घर लौट रही थी. वह अपनी छोटी गाड़ी खुद चलाती थी. रास्ते में एक तेज रफ्तार वैन ने उस की कार को ओवरटेक कर के रोक लिया. वैन के शीशे काले थे.

वैन रुकते ही उस में से 2-3 लोग जल्दी से उतरे और उन्होंने नाहीद की कार का गेट खोल कर फुरती से उसे बेबस कर के अपनी वैन में बिठा दिया. उस की गाड़ी वहीं खड़ी रह गई.

नाहीद की समझ में नहीं आ रहा था कि वे लोग कौन हैं और उसे किडनैप क्यों कर रहे हैं? वह रुंधी आवाज में बोली, ‘‘तुम लोग कौन हो, मुझे कहां ले जा रहे हो?’’

‘‘हम इस का जवाब नहीं दे सकते, क्योंकि हम से जितना कहा गया है, हम वही कर रहे हैं.’’ उन में से एक ने जवाब दिया.

‘‘इस काम के जितने पैसे तुम्हें मिले हैं, उस का दस गुना मैं तुम्हें अपने अब्बू से दिलवा दूंगी. तुम मुझे छोड़ दो. मैं कसम खाती हूं, तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा.’’

वह आदमी हंस कर बोला, ‘‘तुम्हारे बाप से तो कुछ और वसूल करना है. अब खामोश बैठी रहो. हम तुम पर सख्ती नहीं कर रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम बकबक करती रहो. चुप नहीं हुई तो मुंह में कपड़ा ठूंस देंगे.’’

नाहीद सहम कर चुप हो गई. उसे अंदाजा नहीं था कि उसे कहां ले जाया जा रहा है. कुछ देर बाद वह वैन एक सुनसान मकान के सामने जा कर रुकी. नाहीद को वैन से जबरन उतार कर एक कमरे में बंद कर दिया गया. वह कमरा साउंडप्रूफ था. उस का चीखनाचिल्लाना बाहर नहीं सुना जा सकता था. उस कमरे में नुसरत पहुंच गया, जिस के हुक्म पर उसे किडनैप किया गया था. उसे यह पता नहीं था कि यह खूबसूरत लड़की उसी नामीगिरामी वकील की बेटी है, जिस ने उसे रेप के आरोप से बरी कराया था.

नाहीद के लिए वह रात कयामत की थी. अगले दिन नाहीद को वहीं छोड़ दिया गया, जहां से उसे उठाया था. फुरकान दोनों हाथों से सिर थामे बैठा था. उस के सामने उस की लुटीपिटी बेटी नाहीद सिसकियां भर रही थी. एक घंटे पहले ही उसे गेट पर छोड़ा गया था. उस ने अपने बाप को वह सब कुछ बता दिया, जो उस पर गुजरी थी.

तमाम रेपिस्टों को बरी कराने वाले एडवोकेट फुरकान ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसी की लाडली बेटी के साथ भी कभी ऐसा घिनौना काम हो सकता है. फुरकान एक समर्थ और ऊंची पहुंच वाला आदमी था.

दौलत की भी उस के पास कमी नहीं थी. पर आज न दौलत काम आ रही थी न रसूख. उस ने नाहीद से पूछा, ‘‘बेटा, बस एक बार मुझे पता चल जाए कि यह किस ने किया, फिर देख मैं उस का क्या हश्र करता हूं. मुझे बताओ, वे कौन थे, कैसे थे, कहां ले गए थे?’’

‘‘डैडी, जो लोग ले गए वे सब नकाब में थे. जिस ने मुझे बरबाद किया, उस के बारे में बताती हूं. जगह शहर से बाहर थी. बंगले बने थे, बाकी मुझे कुछ याद नहीं.’’ इतना कह कर नाहीद फिर रोने लगी.

फुरकान के बदन में आग लगी थी. वह अपने दिमाग पर जोर देने लगा कि कौन हो सकते हैं वे लोग? यही सोचतेसोचते उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. फुरकान ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘हैलो..’’

‘‘फुरकान साहब से बात करनी है.’’

‘‘बोल रहा हूं.’’ उस ने कहा.

‘‘फुरकान साहब, मैं आप को उस आदमी का पता बता सकता हूं, जिस ने आप की बेटी की इज्जत लूटी है.

आप चाहें तो अपनी बेटी से उस की पहचान भी करवा सकते हैं.’’

‘‘हां…हां, बताओ कौन है वह? जल्द बताओ. पर तुम कौन हो?’’

‘‘वह सब रहने दीजिए, यह जान कर क्या करेंगे. पर जिस ने आप की बेटी को बरबाद किया है, उस बदमाश का नाम नुसरत है. राहत इंडस्ट्रीज के मालिक का बेटा.’’

‘‘क्याऽऽ वह…वही नुसरत…’’

‘‘हां, वही नुसरत, जिसे आप ने रेप के केस से बरी बराया था. पर अफसोस की बात यह है कि फुरकान साहब कानूनी तौर पर आप उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि अदालत में आप पक्के सबूतों के साथ यह साबित कर चुके हैं कि वह नामर्द है. अब आप किस मुंह से अदालत के सामने कहेंगे कि उस ने आप की बेटी के साथ रेप किया है. कौन यकीन करेगा आप का?’’

फुरकान के हाथ से रिसीवर छूट गया. नाहीद सिसक रही थी. वह एक बेगुनाह और मासूम लड़की थी. उस दिन फुरकान को महसूस हुआ कि बेटी के साथ इस तरह की वारदात हो जाने के बाद उस के मांबाप पर क्या गुजरती है.

Family Story : काश – क्या मालती प्रायश्चित्त कर सकी?

Family Story, लेखक- कमल कपूर

‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा

हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा

हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

‘मालती भारद्वाज.’

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Family Story : ऐसा तो होना ही था

Family Story : आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे : ‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’ भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

Short Story : बदलाव

Short Story : आज इंटर लैवल एसएससी  का रिजल्ट आया और इस इम्तिहान को किशन के महल्ले के 2 लड़कों ने पास किया, तो यह सुन कर उसे काफी खुशी हुई.

आज से 4 साल पहले की बात है. निचले तबके से ताल्लुक रखने वाले किशन को बड़ी मेहनत के बाद सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी मिली थी. उस के मांबाप ने बड़ी मेहनत से पढ़ाईलिखाई के खर्चे का इंतजाम किया था. उन्होंने दूसरों के खेतों में मेहनतमजदूरी कर के किशन को पढ़ाया था.

कई सालों की कड़ी मेहनत का नतीजा था कि वह बीएड करने के बाद टीचर एलिजिबिलिटी टैस्ट पास कर के सरकारी स्कूल में टीचर बन गया था. उस के लिए अपनी बिरादरी में ऐसी नौकरी पाना बहुत बड़ी कामयाबी थी, क्योंकि वह अपने मातापिता के साथ दूसरों के खेतों में मेहनतमजदूरी करता था.

किशन के गांव में ऊंची जाति के लोगों की काफी तादाद थी. उन का दबदबा गांव में ज्ड्डयादा था, इसलिए गांव के मंदिरों में निचले तबके के लोगों को पूजापाठ करने की आजादी उतनी नहीं थी, जितनी होनी चाहिए थी.

जब किशन की नौकरी लगी, तो निचले तबके के लड़कों का एक ग्रुप उस के पास मिलने आया और उन में से एक ने कहा, ‘क्यों न अब हम लोग अपने महल्ले में एक मंदिर बना लें, ताकि अपनी जाति के लोगों को पूजापाठ करने में कोई परेशानी न हो?’

‘मंदिर बनाने से क्या होगा मेरे भाई?’ किशन ने पूछा.

‘शायद तुम अभी भूले नहीं होगे, जब हमारे बापदादा अपने गांव के मंदिर की दहलीज पर पैर तक नहीं रख पाते थे. इस के लिए ऊंची जाति के लोग कैसे हमारे लोगों की बेइज्जती करते थे. आज हमारी हैसियत ठीकठाक हो चुकी है. क्यों न हम लोग अपनी जाति के लोगों के पूजापाठ के लिए अपना मंदिर बना कर उन्हें ऊंचों की गुलामी से आजादी दिलवा दें,’ दूसरे लड़के ने उसे समझाने की कोशिश की थी.

‘तुम ठीक कहते हो…’ सब ने उस की बात में हां में हां मिलाई थी.

किशन अपनेआप को कमजोर पा रहा था, फिर भी वह बोला, ‘देखो भाई, यह 21वीं सदी है. पढ़ेलिखे, समझदार लोग पूजापाठ से दूर रहते हैं. पूजापाठ से कोई फायदा होने वाला नहीं है. इस से समय की बरबादी होगी.’

‘अब तुम नौकरी करने लगे हो, तो अपनेआप को पढ़ालिखा और समझदार समझने लगे हो, इसीलिए तुम ऐसा बोल रहे हो…’ सामने खड़ा एक लड़का उस पर तंज कसते हुए बोला था.

किशन बीच में ही उस की बात को काट कर बोला था, ‘नहीं भाई, मुझे पूरी बात बोलने तो दो.’

‘फिर बोलो न, तुम्हें रोकता कौन है?’ दूसरे लड़के ने बोला था.

‘मेरा मानना है कि निचले तबके के लोगों को पूजापाठ से दूर रहना चाहिए, बल्कि इस से हमारे लोगों को दिक्कत ही होगी. समय पर वे काम पर नहीं पहुंच पाएंगे.

‘अगर मेरी सलाह मानो, तो क्यों न हम लोग मंदिर के बजाय अपने लिए एक सामुदायिक भवन बनवाएं? इस में हमारे तबके के लोगों को शादीब्याह करने में कोई परेशानी नहीं होगी. उन का टैंट का खर्चा भी बचेगा.

‘बाकी दिनों में अपने तबके के लड़केलड़कियां वहां पढ़ाई करेंगे. प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करेंगे. वे पढ़लिख कर आगे बढ़ने लगेंगे. यही जरूरी भी है. हम भी ऊंची जाति वालों के समान गांव में पिछड़े नहीं रहेंगे.’

रवि किशन का चचेरा भाई था. वह पढ़ालिखा नहीं था. वह दूसरों के खेतों में काम करता था. काफी मेहनत करने के बाद भी उस की जिंदगी में कोई सुधार नहीं हो पाया था, लेकिन वह समझदार था.

रवि किशन के पक्ष में बोला, ‘तुम्हारी बातों में दम है. आज भी हमारे बच्चे पढ़ाई की कमी में इधरउधर समय बरबाद करते रहते हैं. गांव में इधरउधर घूम कर चूहा मारते हैं. मछलियां पकड़ते हैं. चिडि़या मारते रहते हैं. हम चाह कर भी उन्हें अच्छी पढ़ाईलिखाई नहीं करा पा रहे हैं.

‘हम सब की तो जिंदगी कट गई, लेकिन क्या हमारे बच्चे भी ऐसे ही जिंदगी गुजारेंगे? उन के लिए तो सचमुच कुछ अलग करना होगा, तभी हमारी जातबिरादरी में सुधार होगा. हम लोगों को मंदिरवंदिर के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए. इस से हम लोगों का भला नहीं होने वाला है.

‘मुझे भी लग रहा है कि इस मंदिर से कोई फायदा होने नहीं वाला है. हम लोग आज थोड़ाबहुत कमाने लगे हैं, तो बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. लेकिन हम लोगों को कोई सहयोग करने वाला नहीं है. किशन हमारी बिरादरी में सब से ज्यादा पढ़ालिखा और समझदार है. अगर वह ऐसा कह रहा है, तो इस से हमारे लोगों में जरूर बदलाव होगा.’

थोड़ीबहुत बहस के बाद यह तय किया गया कि अगले दिन अपने महल्ले में मीटिंग रखी जाएगी. इस में अपनी जातबिरादरी के बड़ेबुजुर्गों की भी राय ली जाएगी.

अगले दिन मीटिंग रखी गई. मीटिंग में काफी बहस हुई. यह सब देख कर किशन निराश होने लगा था, लेकिन बहस के बाद यह तय किया गया कि मंदिर नहीं, बल्कि सामुदायिक भवन ही बनाया जाएगा.

उसी मीटिंग में सामुदायिक भवन बनाने की रूपरेखा तैयार कर ली गई. लोग कितनाकितना चंदा देंगे, इस का भी विचार कर लिया गया था. लोग बढ़चढ़ कर चंदा देने के लिए तैयार थे.

चंदे के पैसे से सामुदायिक भवन बनाने के लिए सामान का इंतजाम किया गया. सभी लोगों ने अपना भरपूर योगदान दिया. लोगों में ऐसा जोश दिखा कि सामुदायिक भवन नहीं, बल्कि मंदिर ही बन रहा है.

कुछ दिन में ही लोगों की सामूहिक कोशिश से सामुदायिक भवन तैयार हो चुका था. उस भवन में नियमित अखबार, विभिन्न तरह की पत्रिकाएं और दूसरी किताबें मंगाई जाने लगीं.

किशन ने प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले लड़केलड़कियों को आपस में क्विज और डिबेट करने की सलाह दी.

जिन के घरों में पढ़ने का इंतजाम नहीं था, वे रात में सामुदायिक भवन के इनवर्टर की रोशनी के नीचे पढ़ने लगे थे.

किशन की तरह रोजगार में लगे हुए 1-2 नौजवान वहां पैसे से सहयोग करने लगे. इस से लड़केलड़कियों में आगे पढ़ने की ललक पैदा होने लगी थी.

किशन के महल्ले में जब भी शादी होती, लोग सामुदायिक भवन में बरातियों को ठहराने का इंतजाम करने लगे. इस तरह लोगों के फालतू के पैसे खर्च होने से बचने लगे.

लोगों को भी यकीन होने लगा कि इस सामुदायिक भवन के बनने से  कई फायदे हो रहे हैं, इसीलिए किशन की सोच की लोग खूब तारीफ कर रहे थे.

इस तरह तकरीबन 4 साल बीत गए. आज पहली बार उस समूह से 2 लड़कों का चयन एसएससी परीक्षा में हुआ, तो किशन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. इस के साथ ही उस के महल्ले के लोगों में विश्वास पैदा होने लगा था कि अब उन के समाज में जरूर बदलाव होगा, इसीलिए आज सभी लोग एकमत से किशन की तारीफ कर रहे थे.

किशन अपनी तारीफ को अनसुना कर उस परीक्षा में शामिल होने वाले नाकाम रहे लड़केलड़कियों को बुला कर उन्हें समझा रहा था कि नाकामी से हार नहीं माननी है. अगली बार के लिए दोगुनी मेहनत करो, आप को कामयाबी जरूर मिलेगी.

किशन ने जिस बदलाव का सपना  देखा था, आज उस सपने ने अपनी राह पकड़ ली थी.

Family Story : अपने लोग – आनंद ने आखिर क्या सोचा था

Family Story : ‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था.

आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.

आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था.

तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.

आनंद जानता था कि घर का यह दमघोंटू माहौल रानी को अच्छा नहीं लगता. ऊपर से घरगृहस्थी की एकसाथ आई परेशानियों ने रानी को और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. अभी कुछ माह पहले तक वह तितली सी सहेलियों के बीच इतराया करती थी. कभी कोईर् टोकता भी तो रानी कह देती, ‘‘अपनी फिक्र करो, मुझे कौन यहां रहना है. मास्टर औफ सर्जरी (एमएस) किया और यह चिडि़या फुर्र…’’ फिर वह सचमुच चिडि़यों की तरह फुदक उठती और सारी सहेलियां हंसी में खो जातीं.

यहां तक कि वह आनंद को भी अकसर चिढ़ाया करती. आनंद की जिंदगी में इस से पहले कभी कोई लड़की नहीं आई थी. वह उन क्षणों में पूरी तरह डूब जाता और रानी के प्यार, सुंदरता और कहकहों को एकसाथ ही महसूस करने की कोशिश करने लगता था.

आनंद मास्टर औफ मैडिसिन (एमडी) करने के बाद जब सरकारी नौकरी में लगा, तब भी उन दोनों को शादी की जल्दी नहीं थी. अचानक कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि शादी करना जरूरी हो गया. रानी के पिता उस के लिए कहीं और लड़का देख आए थे. अगर दोनों समय पर यह कदम न उठाते तो निश्चित था कि रानी एक दिन किसी और की हो जाती.

फिर वही हुआ, जिस का दोनों बरसों से सपना देख रहे थे. दोनों एकदूसरे की जिंदगी में डूब गए. शादी के बाद भी इस में कोई फर्क नहीं आया. फिर भी क्षणक्षण की जिंदगी में ऐसे जीना संभव नहीं था और रानी की बड़बड़ाहट भी इसी की प्रतिक्रिया थी.

आनंद ने यह सब सुना और रानी की बातें उस के मन में कहीं गहरे उतरती गईं. रानी के अलावा अब उस का इतने निकट था ही कौन? हर दुखदर्द की वह अकेली साथी थी. वह सोचने लगा, ‘चाहे जैसे भी हो, विदेश निकलना जरूरी है. जो यहां बरसों नहीं कमा सकूंगा, वहां एक साल में ही कमा लूंगा. ऊपर से रानी भी खुश हो जाएगी.’

आखिर वह दिन भी आया जब आनंद का विदेश जाना लगभग तय हो गया. डाक्टर के रूप में उस की नियुक्ति इंगलैंड में हो गई थी और अब उन के निकलने में केवल उतने ही दिन बाकी थे जितने दिन उन की तैयारी के लिए जरूरी थे. जाने कितने दिन वहां लग जाएं? जाने कब लौटना हो? हो भी या नहीं? तैयारी के छोटे से छोटे काम से ले कर मिलनेजुलने वालों को अलविदा कहने तक, सभी काम उन्हें इस समय में निबटाने थे.

रानी की कड़वाहट अब गायब हो चुकी थी. आनंद अब देर से लौटता तो भी वह कुछ न कहती, जबकि कुछ महीनों पहले आनंद के देर से लौटने पर वह उस की खूब खिंचाई करती थी.

अब रात को सोने से पहले अधिकतर समय इंगलैंड की चर्चा में ही बीतता, कैसा होगा इंगलैंड? चर्चा करतेकरते दोनों की आंखों में एकदूसरे के चेहरे की जगह ढेर सारे पैसे और उस से जुड़े वैभव की चमक तैरने लगती और फिर न जाने दोनों कब सो जाते.

चाहे आनंद के मित्र हों या रानी की सहेलियां, सभी उन का अभाव अभी से महसूस करने लगे थे. एक ऐसा अभाव, जो उन के दूर जाने की कल्पना से जुड़ा हुआ था. आनंद का तो अजीब हाल था. आनंद को घर के फाटक पर बैठा रहने वाला चौकीदार तक गहरा नजदीकी लगता. नुक्कड़ पर बैठने वाली कुंजडि़न लाख झगड़ने के बावजूद कल्पना में अकसर उसे याद दिलाती, ‘लड़ लो, जितना चाहे लड़ लो. अब यह साथ कुछ ही दिनों का है.’

और फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपना महल्ला, अपना शहर, अपना देश छोड़ना था. जैसेजैसे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ने का समय नजदीक आ रहा था, आनंद की तो जैसे जान ही निकली जा रही थी. किसी तरह से उस ने दिल को कड़ा किया और फिर वह अपने महल्ले, शहर और देश को एक के बाद एक छोड़ता हुआ उस धरती पर जा पहुंचा जो बरसों से रानी के लिए ही सही, उस के जीने का लक्ष्य बनी हुई थी.

लंदन का हीथ्रो हवाईअड्डा, यांत्रिक जिंदगी का दूर से परिचय देता विशाल शहर. जिंदगी कुछ इस कदर तेज कि हर 2 मिनट बाद कोई हवाईजहाज फुर्र से उड़ जाता. चारों ओर चकमदमक, उसी के मुकाबले लोगों के उतरे या फिर कृत्रिम मुसकराहटभरे चेहरे.

जहाज से उतरते ही आनंद को लगा कि उस ने बाहर का कुछ पाया जरूर है, पर साथ ही अंदर का कुछ ऐसा अपनापन खो दिया है, जो जीने की पहली शर्त हुआ करती है. रानी उस से बेखबर इंगलैंड की धरती पर अपने कदमों को तोलती हुई सी लग रही थी और उस की खुशी का ठिकाना न था. कई बार चहक कर उस ने आनंद का भी ध्यान बंटाना चाहा, पर फिर उस के चेहरे को देख अकेले ही उस नई जिंदगी को महसूस करने में खो जाती.

अब उन्हें इंगलैंड आए एक महीने से ऊपर हो रहा था. दिनभर जानवरों की सी भागदौड़. हर जगह बनावटी संबंध. कोई भी ऐसा नहीं, जिस से दो पल बैठ कर वे अपना दुखदर्द बांट सकें. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी, पर अपनेपन का काफी अभाव था. यहां तक कि वे भारतीय भी दोएक बार लंच पर बुलाने के अलावा अधिक नहीं मिलतेजुलते जिन के ऐड्रैस वह अपने साथ लाया था. जब भारतीयों की यह हालत थी, तो अंगरेजों से क्या अपेक्षा की जा सकती थी. ये भारतीय भी अंगरेजों की ही तरह हो रहे थे. सारे व्यवहार में वे उन्हीं की नकल करते.

ऐसे में आनंद अपने शहर की उन गलियों की कल्पना करता जहां कहकहों के बीच घडि़यों का अस्तित्व खत्म हो जाया करता था. वे लंबीचौड़ी बहसें अब उसे काल्पनिक सी लगतीं. यहां तो सबकुछ बंधाबंधा सा था. ठहाकों का सवाल ही नहीं, हंसना भी हौले से होता, गोया उस की भी राशनिंग हो. बातबात में अंगरेजी शिष्टाचार हावी. आनंद लगातार इस से आजिज आता जा रहा था. रानी कुछ पलों को तो यह महसूस करती, पर थोड़ी देर बाद ही अंगरेजी चमकदमक में खो जाती. आखिर जो इतनी मुश्किल से मिला है, उस में रुचि न लेने का उसे कोई कारण ही समझ में न आता.

कुछ दिनों से वह भी परेशान थी. बंटी यहां आने के कुछ दिनों बाद तक चौकीदार के लड़के रामू को याद कर के काफी परेशान रहा था. यहां नए बच्चों से उस की दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकी थी. बंटी कुछ कहता तो वे कुछ कहते और फिर वे एकदूसरे का मुंह ताकते. फिर बंटी अकेला और गुमसुम रहने लगा था. रानी ने उस के लिए कई तरह के खिलौने ला दिए, लेकिन वे भी उसे अच्छे न लगते. आखिर बंटी कितनी देर उन से मन बहलाता.

और आज तो बंटी बुखार में तप रहा था. आनंद अभी तक अस्पताल से नहीं लौटा था. आसपास याद करने से रानी को कोई ऐसा नजर नहीं आया, जिसे वह बुला ले और जो उसे ढाढ़स बंधाए. अचानक इस सूनेपन में उसे लखनऊ में फाटक पर बैठने वाले रग्घू चौकीदार की याद आई, जो कई बार ऐसे मौकों पर डाक्टर को बुला लाता था. उसे ताज्जुब हुआ कि उसे उस की याद क्यों आई. उसे कुंजडि़न की याद भी आई, जो अकसर आनंद के न होने पर घर में सब्जी पहुंचा जाती थी. उसे उन पड़ोसियों की भी याद आई जो ऐसे अवसरों पर चारपाई घेरे बैठे रहते थे और इस तरह उदास हो उठते थे जैसे उन का ही अपना सगासंबंधी हो.

आज पहली बार रानी को उन की कमी अखरी. पहली बार उसे लगा कि वह यहां हजारों आदमियों के होने के बावजूद किसी जंगल में पहुंच गई है, जहां कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है. आनंद अभी तक नहीं लौटा था. उसे रोना आ गया.

तभी बाहर कार का हौर्न बजा. रानी ने नजर उठा कर देखा, आनंद ही था. वह लगभग दौड़ सी पड़ी, बिना कुछ कहे आनंद से जा चिपटी और फफक पड़ी. तभी उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘कितने अकेले हैं हम लोग यहां, मर भी जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं. बंटी की तबीयत ठीक नहीं है और एकएक पल मुझे काटने को दौड़ रहा था.’’

आनंद ने धीरे से बिना कुछ कहे उसे अलग किया और अंदर के कमरे की ओर बढ़ा, जहां बंटी आंखें बंद किए लेटा था. उस ने उस के माथे पर हाथ रखा, वह तप रहा था. उस ने कुछ दवाएं बंटी को पिलाईं. बंटी थोड़ा आराम पा कर सो गया.

थका हुआ आनंद एक सोफे पर लुढ़क गया. दूसरी ओर, आरामकुरसी पर रानी निढाल पड़ी थी. आनंद ने देखा, उस की आंखों में एक गलती का एहसास था, गोया वह कह रही हो, ‘यहां सबकुछ तो है पर लखनऊ जैसा, अपने देश जैसा अपनापन नहीं है. चाहे वस्तुएं हों या आदमी, यहां केवल ऊपरी चमक है. कार, टैलीविजन और बंगले की चमक मुझे नहीं चाहिए.’

तभी रानी थके कदमों से उठी. एक बार फिर बंटी को देखा. उस का बुखार कुछ कम हो गया था. आनंद वैसे ही आंखें बंद किए हजारों मील पीछे छूट गए अपने लोगों की याद में खोया हुआ था. रानी निकट आई और चुपचाप उस के कंधों पर अपना सिर टिका दिया, जैसे अपनी गलती स्वीकार रही हो.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें