टूटी लड़ियां: क्या फिर से जुड़ पाईं सना की जिंदगी की लड़ियां

सना की अम्मी कमरे से सूटकेस उठा लाईं और उस में रखा सामान बाहर निकालने लगीं. ये रहे सातों सूट, यह रहा लहंगा, यह कुरती, यह चुन्नी, यह रहा बुरका, यह मेकअप का सामान और यह रहा नेकलेस…

नेकलेस का केस हाथ में आना था कि उन्हें गुस्सा आ गया और बोलीं, ‘‘कंजूस मक्खीचूस, कितना हलका नेकलेस है. एक तोले से भी कम वजन का होगा.’’

सना के अब्बू बोल पड़े, ‘‘सना की अम्मी, वे लोग कंजूस नहीं हैं, बड़े चालाक किस्म के इनसान हैं. यह सोने का हार सना के मेहर में होता न और मेहर पर सिर्फ लड़की का हक होता है, इसलिए इतना हलका बनवा कर लाए. जिन की नीयत में खोट होता है, वे ही ऐसा करते हैं… इसलिए कि कोई अनबन हो जाए, मंगनी टूट जाए या फिर तलाक हो जाए, तो ज्यादा नुकसान नहीं होता. हार वापस मिला तो मिला, न मिला तो न सही…’’

सना के अब्बू ने थोड़ा दम लिया, फिर अपने दोस्त अबरार से बोले, ‘‘अबरार भाई, यह सारा सामान उठा कर ले जाइए और उन के यहां पटक आइए…’’

अबरार सोचविचार में गुम थे. कहां तो उन्हें हज पर जाने का मौका मिलने वाला था, अब कहां वे पचड़े में पड़ गए. शादी कराना कोई आसान काम है? नेकियां भी मिलती हैं, जिल्लत भी. निबट जाए तो अच्छा, नहीं तो बड़ी फजीहत.

सना के अब्बू दोबारा बोले, ‘‘अबरार भाई, कहां खो गए? सामान उठाइए और ले जाइए.’’

अबरार चौंक पड़े, फिर सामान सूटकेस में रखने लगे.

सना के अब्बू कुछ याद करते हुए फिर बोले, ‘‘और हां, उन्होंने यह जो 10 हजार रुपए भिजवाए हैं, इन्हें भी लेते जाइए, उन के मुंह पर मार देना. बड़े गैरतमंद बनते हैं. हमें मुआवजा दे रहे हैं… 10 हजार रुपए ही खर्च हुए हैं हमारे… मंगनी में कमोबेश 50 हजार रुपए खर्च हुए हैं.’’

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘मंगनी में पूरे 50 लोग आए थे. मंगनी क्या पूरी बरात थी. आप तो थे ही… आप ने सबकुछ देखा है… हम ने कोई कोरकसर रख छोड़ी थी भला? ऐसा क्या था, जो हम ने न बनवाया हो? बिरयानी, कोरमा, कबाब, खीर और शीरमाल भी. ऊपर से सागसब्जी सो अलग…’’

कमरे का दरवाजा पकड़े खड़ी सना सिसक पड़ी. उस के गुलाबी मखमली गालों पर आंसू मोतियों की तरह लुढ़क आए. मंगनी के दिन कितनी धूमधाम थी. उस की होने वाली सास और जेठानी आई थीं और ननद भी.

सभी को उस की ससुराल से आया सामान दिखाया गया. कुछ ने तारीफ की, तो कुछ ने मुंह बिचका दिया. इतने नाम वाले बनते हैं और इतना कम सामान. कम से कम 11 सूट तो होते ही. खाली हार उठा लाए. न झुमके हैं, न नथ और न ही अंगूठी.

सना की ननद ने उसे लहंगाकुरती पहनाई थी. चुन्नी सिर पर डाली थी. सब ने मिलजुल कर उसे सजायासंवारा था. माथे पर टीका, गले में नेकलेस, कानों में झुमके और नाक में एक छोटी सी नथ पहनाई थी. नथ, टीका और झुमके सना की अम्मी ने उस के लिए जबतब बनवाए थे, ताकि शादी में गहनों की कमी न रहे.

सना की नजर सामने रखे सिंगारदान पर पड़ गई. आईने में अपना अक्स देख कर उसे शर्म आ गई थी. वह किसी शहजादी से कम नहीं लग रही थी. उस की अम्मी उस की बलाएं लेने लगी थीं. सास और ननद को अपनी पसंद पर गर्व होने लगा था, पर जेठानी जलभुन गई थी. उस का बस चले तो वह यह रिश्ता होने ही न दे.

वह घर में अपने से ज्यादा खूबसूरत औरत नहीं चाहती थी. उस का मान जो कम हो जाएगा. सभी लोग देवरानी की तारीफ करेंगे और फिर यह पढ़ीलिखी भी तो है. उस की तरह अंगूठाटेक तो नहीं है.

उस दिन से सना बहुत खिलीखिली सी रहने लगी थी. सुबहशाम सजनेसंवरने लगी थी, मंगनी में आए सूट पहनपहन कर देखने लगी थी कि किस सूट में वह कैसी लगती है. हार भी पहन कर देखती थी, फिर खुद शरमा जाती थी.

सना सपने देखने लगी कि उस की बरात गाजेबाजे के साथ बड़ी ही धूमधाम से आ रही है. वह दुलहन बनी बैठी है. बड़े सलीके से उस का सिंगार किया गया है. हाथपैरों में मेहंदी तो एक दिन पहले ही लगा दी गई थी. लहंगा, कुरती और चुन्नी में वह किसी हूर से कम नहीं लग रही है.

कभी सना सोचती, कैसा है उस का हमसफर? मोबाइल फोन की वीडियो क्लिप में तो बिलकुल फिल्मी हीरो जैसा लगता है. खूबसूरत तो बहुत है, उस की सीरत कैसी है? पढ़ालिखा है. सरकारी नौकरी करता है, तो उस की सोच भी अच्छी ही होगी.

यह वीडियो क्लिप सना का छोटा भाई बना कर लाया था. वह इसी वीडियो क्लिप को देखा करती थी और तरहतरह की बातें सोचा करती थी.

उधर सना के मंगेतर आफताब का हाल भी कुछ अलग न था. मंगनी वाले दिन जब सना का बनावसिंगार किया गया था, तो उस की ननद ने भी उस की वीडियो क्लिप बना ली थी और जब से आफताब ने इस क्लिप को देखा था, वह बेताब हो उठा था. सना से बातें करने की कोशिश करने लगा था, पर सना को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

अलबत्ता, जब सास और ननद के फोन आते, तो सना सलामदुआ कर लिया करती थी, पर आफताब से नहीं. उसे बहुत अजीब सा लग रहा था.

एक दिन जब सना अपनी ननद से बातें कर रही थी, तो बातें करतेकरते उस की ननद ने मोबाइल फोन आफताब को पकड़ा दिया था.

कुछ देर सना यों ही बातें करती रही. सास और जेठानी की खैरियत पूछती रही, फिर उसे लगा कि उधर उस की ननद नहीं कोई और है. उस ने फोन काटना चाहा, पर आफताब बोल पड़ा, ‘सना, प्लीज फोन मत काटना, तुम्हें मेरी कसम है…’

इतना सुनना था कि सना का रोमरोम जैसे खिल उठा. वह बेसुध सी हो गई. फिर आफताब ने क्या कहा, क्या उस ने जवाब दिया, उसे कुछ पता नहीं.

फिर उस दिन से यह सिलसिला ऐसा चला कि दिन हो या रात, सुबह हो या शाम दोनों एकदूसरे से बातें करते नहीं थकते थे. बातें भी क्या… एकदूसरे की पसंदनापसंद की. कौनकौन से हीरोहीरोइन पसंद हैं? फिल्में कैसी अच्छी लगती हैं? टैलीविजन सीरियल कौनकौन से देखते हैं? सहेलियां कितनी हैं और बौयफ्रैंड कितने हैं?

बौयफ्रैंड का नाम पूछने पर सना नाराज हो जाती और गुस्से में कहती, ‘‘7 बौयफ्रैंड्स हैं मेरे. शादी करनी है तो करो, वरना रास्ता पकड़ो…’’

यह सुन कर आफताब को मजा आ जाता. वह लोटपोट हो जाता. फिर सना को मनाने लगता. प्यारमुहब्बत का इजहार और वादे होने लगते.

इस तरह बहुत ही हंसीखुशी से दिन गुजर रहे थे. अब तो बस शादी का इंतजार था. शादी भी ज्यादा दूर न थी. कमोबेश 2 महीने रह गए थे. शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं.

एक दिन अबरार सना के घर आए. वे कुछ परेशान से थे. सना की अम्मी ने पूछा, ‘‘क्या बात है अबरार भाई? आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?’’

‘‘परेशानी वाली बात ही है भाभी,’’ असरार बोले.

‘‘क्या बात है? बताइए भी.’’

अबरार ने धीरे से कहा, ‘‘लड़के ने मोटरसाइकिल की मांग की है.’’

यह सुन कर सना की अम्मी को हंसी आ गई, ‘‘बड़ा नादान लड़का है. यह भी कोई कहने की बात है… क्या हम इतने गएगुजरे हैं कि मोटरसाइकिल भी नहीं देंगे.’’

शाम को जब सना के अब्बू घर आए और उन्हें यह बात पता चली, तो उन्हें बड़ा अफसोस हुआ. वे बोले, ‘‘सना की अम्मी, लड़के वाले बहुत लालची किस्म के लग रहे हैं.’’

बात आईगई हो गई. धीरेधीरे समय गुजरता रहा. इधर एक बात और हुई. आफताब का फोन आना बंद हो गया. सना को चिंता हुई. क्या वह बीमार है? बीमार होता, तो पता चलता. कहीं बाहर गया है? बाहर कहां जाएगा. वैसे तो दिन हो या रात, दम ही नहीं लेता था. पर अब. अब उसे चैन कैसे पड़ रहा है. आज कितने दिन हो गए हैं उस से बातें किए हुए?

आखिरकार सना ने उस का फोन नंबर मिलाया. उधर से काल रिसीव नहीं की गई. उस ने दोबारा फोन मिलाया. फिर नहीं रिसीव की गई. इस के बाद फोन बिजी बताने लगा.

सना पर उदासी छा गई. वह बारबार मोबाइल फोन की ओर हसरत भरी नजरों से देखती. शायद अब आफताब का फोन आए. शायद अब. कभीकभी जब किसी और का या फिर कंपनी का फोन आता, वह खुश हो कर दौड़ पड़ती, अगले ही पल निराश हो जाती.

आखिर में उस ने एक एसएमएस टाइप किया, ‘प्लीज, आफताब बात करो. इतना मत सताओ. तुम्हें मेरी कसम.’ कई दिन गुजर गए, उधर से न तो एसएमएस आया और न ही काल हुई.

इसी बीच एक दिन अबरार का आना हुआ. आज फिर वे कुछ परेशान से थे. पूछने पर वे बोले, ‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि लड़के वालों की मरजी क्या है?’’

यह सुनते ही सना के अब्बूअम्मी डर गए. अबरार ने बताया, ‘‘लड़के की मां कह रही थीं कि उन के बेटे के रिश्ते अब भी आ रहे हैं. एक लड़की वाले तो कार देने को तैयार हैं…’’

इतना सुनना था कि सना के अब्बू उठ खड़े हुए. वे गुस्से से कांपने लगे, ‘‘अबरार भाई, मैं उन के हथकडि़यां लगवा दूंगा… उन का लालच दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. अरे, उन का लड़का सरकारी नौकरी करता है… बैंक में मुलाजिम है… तो हमारी लड़की भी कोई जाहिल नहीं है.’’

अबरार भाई सकते में आ गए. वे उठ खड़े हुए और सना के अब्बू को समझाने लगे, ‘‘गफ्फार भाई, ऐसा मत बोलिए, ठंडे दिमाग से काम लीजिए. गुस्से में सब बिगड़ जाता है.’’

‘‘क्या खाक ठंडे दिमाग से काम लें… क्या आप को नहीं लगता कि सबकुछ बिगड़ रहा है… वे मंगनी तोड़ने के मूड में हैं. उन्हें हम से बड़ी मुरगी मिल गई है.’’

‘‘आप ठीक फरमा रहे हैं. शायद उन्हें हम से ऊंची पार्टी मिल गई है.’’

‘‘तो क्या ऐसी हालत में मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा… जेल भिजवा दूंगा उन्हें… समझ क्या रखा है?’’

‘‘गफ्फार भाई, जरा सोचिए, अगर आप ने ऐसा किया, तो बड़ी बदनामी होगी…’’

‘‘बदनामी, किस की बदनामी?’’

‘‘आप की, लोग कहेंगे कि लड़की का बाप हो कर लड़के वालों को हथकड़ी लगवाता है… जेल भिजवाता है… सना बिटिया के लिए रिश्ते आने बंद हो जाएंगे. लड़की वालों को बड़े सब्र से काम लेना पड़ता है.’’

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘इस से पहले कि वे मंगनी तोड़ें, हम उन के रिश्ते को लात मार देते हैं… इस से वे बदनाम हो जाएंगे कि दहेज में गाड़ी मांग रहे थे. उन्हें रिश्ता ढूंढ़े नहीं मिलेगा. हमारी सना बेटी के लिए हजारों रिश्ते आएंगे. आखिर उस में क्या कमी है? खूबसूरत है और खूब सीरत भी. अभी उस की उम्र ही क्या हुई है.’’

फिर एक दिन लड़के वालों की तरफ से 3-4 लोग आए. इन लोगों में उन के यहां की मसजिद के इमाम साहब भी थे और अबरार भी. बैठ कर तय हुआ कि दोनों पक्ष एकदूसरे का सामान वापस कर दें और लड़की वाले का मंगनी के खानेपीने में जो खर्च हुआ है, उस का मुआवजा लड़के वाले दें.

सना की अम्मी कमरे के अंदर से बोलीं, ‘‘दिखाई में हम लोग लड़के को सोने की अंगूठी पहना आए थे और 5 हजार रुपए नकद भी दिए थे. मिठाई और फल भी ले गए थे, सो अलग…’’

‘‘यही कहा जा रहा है कि जो भी दियालिया है, वह एकदूसरे को वापस कर दें. मिठाई और फल तो लड़के वाले भी लाए होंगे?’’ इमाम साहब बोले.

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘वे ठहरे लड़के वाले, वे भला क्यों लाने लगे मिठाई और फल. बिटिया को सिर्फ 251 रुपल्ली पकड़ा गए थे, बस…’’

आज अबरार मंगनी का वह सारा सामान जो लड़के के यहां से आया था, लेने आए थे और साथ में 15 हजार रुपए भी लाए थे. 10 हजार रुपए मुआवजे के और 5 हजार रुपए जो लड़की वाले लड़के को दे आए थे. सोने की अंगूठी भी ले कर आए थे.

अबरार जब सूटकेस उठा कर चलने लगे, तो सना बोली, ‘‘अंकल, एक चीज रह गई है, वह भी लेते जाइए.’’

‘‘वह क्या है बेटी? जल्दी से ले आइए,’’ वे बोले.

‘‘अंकल, आप सूटकेस मुझे दे दीजिए, मैं इसी में रख दूंगी,’’ सना ने उन से सूटकेस लेते हुए कहा.

सना कमरे के अंदर गई. सूटकेस बिस्तर पर रखा और कैंची उठाई. शाम को जब सूटकेस आफताब के घर पहुंचा, तो उस के घर की औरतें उसे खोल कर देखने लगीं कि सारे कपड़े, मेकअप का सामान और नेकलेस है भी या नहीं.

सूट तो सारे दिखाई पड़ रहे हैं. बुरका भी है, लहंगा, कुरती और चुन्नी भी. बचाखुचा मेकअप का सामान भी है.

‘‘यह क्या…’’ आफताब की भाभी चीख पड़ीं, ‘‘यह लहंगा तो कई जगह से कटा हुआ है.’’

दोबारा देखा, लहंगा चाकचाक था. कुरती उठा कर देखी, वह भी कई जगह से कटीफटी थी. सारे के सारे सूट उठाउठा कर देख डाले. सब के सब तारतार निकले. नकाब का भी यही हाल था. जल्द से नेकलेस उठा कर देखा. उस की भी लड़ियां टूटी हुई थीं.

वक्त का पहिया : क्या सेजल वाकई आवारा लड़की थी?

‘‘आज फिर कालेज में सेजल के साथ थी?’’ मां ने तीखी आवाज में निधि से पूछा.

‘‘ओ हो, मां, एक ही क्लास में तो हैं, बातचीत तो हो ही जाती है, अच्छी लड़की है.’’

‘‘बसबस,’’ मां ने वहीं टोक दिया, ‘‘मैं सब जानती हूं कितनी अच्छी है. कल भी एक लड़का उसे घर छोड़ने आया था, उस की मां भी उस लड़के से हंसहंस के बातें कर रही थी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निधि बोली.

‘‘अब तू हमें सिखाएगी सही क्या है?’’ मां गुस्से से बोलीं, ’’घर वालों ने इतनी छूट दे रखी है, एक दिन सिर पकड़ कर रोएंगे.’’

निधि चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मां से बहस करने का मतलब था घर में छोटेमोटे तूफान का आना. पिताजी के आने का समय भी हो गया था. निधि ने चुप रहना ही ठीक समझा.

सेजल हमारी कालोनी में रहती है. स्मार्ट और कौन्फिडैंट.

‘‘मुझे तो अच्छी लगती है, पता नहीं मां उस के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं,’’ निधि अपनी छोटी बहन निकिता से धीरेधीरे बात कर रही थी. परीक्षाएं सिर पर थीं. सब पढ़ाई में व्यस्त हो गए. कुछ दिनों के लिए सेजल का टौपिक भी बंद हुआ.

घरवालों द्वारा निधि के लिए लड़के की तलाश भी शुरू हो गई थी पर किसी न किसी वजह से बात बन नहीं पा रही थी. वक्त अपनी गति से चलता रहा, रिजल्ट का दिन भी आ गया. निधि 90 प्रतिशत लाई थी. घर में सब खुश थे. निधि के मातापिता सुबह की सैर करते हुए लोगों से बधाइयां बटोर रहे थे.

‘‘मैं ने कहा था न सेजल का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, सिर्फ 70 प्रतिशत लाई है,’’ निधि की मां निधि के पापा को बता रही थीं. निधि के मन में आया कि कह दे ‘मां, 70 प्रतिशत भी अच्छे नंबर हैं’ पर फिर कुछ सोच कर चुप रही.

सेजल और निधि ने एक ही कालेज में एमए में दाखिला ले लिया और दोनों एक बार फिर साथ हो गईं. एक दिन निधि के पिता आलोकनाथ बोले, ‘‘बेटी का फाइनल हो जाए फिर इस की शादी करवा देंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पर सोचनेभर से कुछ न होगा,’’ मां बोलीं.

‘‘कोशिश तो कर ही रहा हूं. अच्छे लड़कों को तो दहेज भी अच्छा चाहिए. कितने भी कानून बन जाएं पर यह दहेज का रिवाज कभी नहीं बदलेगा.’’

निधि फाइनल ईयर में आ गई थी. अब उस के मातापिता को चिंता होने लगी थी कि इस साल निकिता भी बीए में आ जाएगी और अब तो दोनों बराबर की लगने लगी हैं. इस सोचविचार के बीच ही दरवाजे की घंटी घनघना उठी.

दरवाजा खोला तो सामने सेजल की मां खड़ी थीं, बेटी के विवाह का निमंत्रण पत्र ले कर.

निधि की मां ने अनमने ढंग से बधाई दी और घर के भीतर आने को कहा, लेकिन जरा जल्दी में हूं कह कर वे बाहर से ही चली गईं. कार्ड ले कर निधि की मां अंदर आईं और पति को कार्ड दिखाते हुए बोलीं, ‘‘मैं तो कहती ही थी, लड़की के रंगढंग ठीक नहीं, पहले से ही लड़के के साथ घूमतीफिरती थी. लड़का भी घर आताजाता था.’’

‘‘कौन लड़का?’’ निधि के पिता ने पूछा.

‘‘अरे, वही रेहान, उसी से तो हो रही है शादी.’’

निधि भी कालेज से आ गई थी. बोली, ‘‘अच्छा है मां, जोड़ी खूब जंचेगी.’’ मां भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चल पड़ीं.

सेजल का विवाह हो गया. निधि ने आगे पढ़ाई जारी रखी. अब तो निकिता भी कालेज में आ गई थी. ‘निधि के पापा कुछ सोचिए,’ पत्नी आएदिन आलोकनाथजी को उलाहना देतीं.

‘‘चिंता मत करो निधि की मां, कल ही दीनानाथजी से बात हुई है. एक अच्छे घर का रिश्ता बता रहे हैं, आज ही उन से बात करता हूं.’’

लड़के वालों से मिल के उन के आने का दिन तय हुआ. निधि के मातापिता आज खुश नजर आ रहे थे. मेहमानों के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. दीनानाथजी ठीक समय पर लड़के और उस के मातापिता को ले कर पहुंच गए. दोनों परिवारों में अच्छे से बातचीत हुई, उन की कोई डिमांड भी नहीं थी. लड़का भी स्मार्ट था, सब खुश थे. जाते हुए लड़के की मां कहने लगीं, ‘‘हम घर जा कर आपस में विचारविमर्श कर फिर आप को बताते हैं.’’

‘‘ठीक है जी,’’ निधि के मातापिता ने हाथ जोड़ कर कहा. शाम से ही फोन का इंतजार होने लगा. रात करीब 8 बजे फोन की घंटी बजी. आलोकनाथजी ने लपक कर फोन उठाया. उधर से आवाज आई, ‘‘नमस्तेजी, आप की बेटी अच्छी है और समझदार भी लेकिन कौन्फिडैंट नहीं है, हमारा बेटा एक कौन्फिडैंट लड़की चाहता है, इसलिए हम माफी चाहते हैं.’’

आलोकनाथजी के हाथ से फोन का रिसीवर छूट गया.

‘‘क्या कहा जी?’’ पत्नी भागते हुए आईं और इस से पहले कि आलोकनाथजी कुछ बताते दरवाजे की घंटी बज उठी. निधि ने दरवाजा खोला. सामने सेजल की मां हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए खड़ी थीं और बोलीं, ’’मुंह मीठा कीजिए, सेजल के बेटा हुआ है.’’

अब सोचने की बारी निधि के मातापिता की थी. ‘वक्त के साथ हमें भी बदलना चाहिए था शायद.’ दोनों पतिपत्नी एकदूसरे को देखते हुए मन ही मन शायद यही समझा रहे थे. वैसे काफी वक्त हाथ से निकल गया था लेकिन कोशिश तो की जा सकती थी.

मांगलिक कन्या : शादी में रोड़ा बना अंधविश्वास

विवाह की 10वीं वर्षगांठ के निमंत्रणपत्र छप कर अभीअभी आए थे. कविता बड़े चाव से उन्हें उलटपलट कर देख रही थी. साथ ही सोच रही थी कि जल्दी से एक सूची तैयार कर ले और नाम, पते लिख कर इन्हें डाक में भेज दे. ज्यादा दिन तो बचे नहीं थे. कुछ निमंत्रणपत्र स्वयं बांटने जाना होगा, कुछ गौरव अकेले ही देने जाएंगे. हां, कुछ कार्ड ऐसे भी होंगे जिन्हें ले कर वह अके जाएगी.

सोचतेसोचते कविता को उन पंडितजी की याद आई जिन्होंने उस के विवाह के समय उस के ‘मांगलिक’ होने के कारण इस विवाह के असफल होने की आशंका प्रकट की थी. पंडितजी के संदेह के कारण दोनों परिवारों में उलझनें पैदा हो गई थीं. ताईजी ने तो अपने इन पंडितजी की बातों से प्रभावित हो कर कई पूजापाठ करवा डाले थे.

एकएक कर के कविता को अपने विवाह से संबंधित सभी छोटीबड़ी घटनाएं याद आने लगीं. कितना तनाव सहा था उस के परिवार वालों ने विवाह के 1 माह पूर्व. उस समय यदि गौरव ने आधुनिक एवं तर्कसंगत विचारों से अपने परिवार वालों को समझायाबुझाया न होता तो हो चुका था यह विवाह. कविता को जब गौरव, उस के मातापिता एवं ताईजी देखने आए थे तो सभी को दोनों की जोड़ी ऐसी जंची कि पहली बार में ही हां हो गई. गौरव के पिता नंदकिशोर का अपना व्यवसाय था. अच्छाखासा पैसा था. परिवार में गौरव के मातापिता, एक बहन और एक ताईजी थीं. कुछ वर्ष पूर्व ताऊजी की मृत्यु हो गई थी.

ताईजी बिलकुल अकेली हो गई थीं, उन की अपनी कोई संतान न थी. गौरव और उस की बहन गरिमा ही उन का सर्वस्व थे. गौरव तो वैसे ही उन की आंख का तारा था. बच्चे ताईजी को बड़ी मां कह कर पुकारते और उन्हें सचमुच में ही बड़ी मां का सम्मान भी देते. गौरव के मातापिता भी ताईजी को ही घर का मुखिया मानते थे. घर में छोटेबड़े सभी निर्णय उन की सम्मति से ही लिए जाते थे.

जैसा कि प्राय: होता है, लड़की पसंद आने के कुछ दिन पश्चात छोटीमोटी रस्म कर के रिश्ता पक्का कर दिया गया. इस बीच गौरव और कविता कभीकभार एकदूसरे से मिलने लगे. दोनों के मातापिता को इस में कोई आपत्ति भी न थी. वे स्वयं भी पढ़ेलिखे थे और स्वतंत्र विचारों के थे. बच्चों को ऊंची शिक्षा देने के साथसाथ अपना पूर्ण विश्वास भी उन्होंने बच्चों को दिया था. अत: गौरव का आनाजाना बड़े सहज रूप में स्वीकार कर लिया गया था. पंडितजी से शगुन और विवाह का मुहूर्त निकलवाने ताईजी ही गई थीं. पंडितजी ने कन्या और वर दोनों की जन्मपत्री की मांग की थी.

दूसरे दिन कविता के घर यह संदेशा भिजवाया गया कि कन्या की जन्मपत्री भिजवाई जाए ताकि वर की जन्मपत्री से मिला कर उस के अनुसार ही विवाह का मुहूर्त निकाला जाए. कविता के मातापिता को भला इस में क्या आपत्ति हो सकती थी, उन्होंने वैसा ही किया.

3 दिन पश्चात ताईजी स्वयं कविता के घर आईं. अपने भावी समधी से वे अनुरोध भरे स्वर में बोलीं, ‘‘कविता के पक्ष में ‘मंगलग्रह’ भारी है. इस के लिए हमारे पंडितजी का कहना है कि आप के घर में कविता द्वारा 3 दिन पूजा करवा ली जाए तो इस ग्रह का प्रकोप कम हो सकता है. आप को कष्ट तो होगा, लेकिन मैं समझती हूं कि हमें यह करवा ही लेना चाहिए.’’

कविता के मातापिता ने इस बात को अधिक तूल न देते हुए अपनी सहमति दे दी और 3 दिन के अनुष्ठान की सारी जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली. 2 दिन आराम से गुजर गए और कविता ने भी पूरी निष्ठा से इस अनुष्ठान में भाग लिया. तीसरे दिन प्रात: ही फोन की घंटी बजी और लगा कि कविता के पिता फोन पर बात करतेकरते थोड़े झुंझला से रहे हैं.

फोन रख कर उन्होंने बताया, ‘‘ताईजी के कोई स्वामीजी पधारे हैं. ताईजी ने उन को कविता और गौरव की जन्मकुंडली आदि दिखा कर उन की राय पूछी थी. स्वामीजी ने कहा है कि इस ग्रह को शांत करने के लिए 3 दिन नहीं, पूरे 1 सप्ताह तक पूजा करनी चाहिए और उस के उपरांत कन्या के हाथ से बड़ी मात्रा में 7 प्रकार के अन्न, अन्य वस्तुएं एवं नकद राशि का दान करवाना चाहिए. ताईजी ने हमें ऐसा ही करने का आदेश दिया है.’’

यह सब सुन कर कविता को अच्छा नहीं लगा. एक तो घर में वैसे ही विवाह के कारण काम बढ़ा हुआ था, जिस पर दिनरात पंडितों के पूजापाठ, उन के खानेपीने का प्रबंध और उन की देखभाल. वह बेहद परेशान हो उठी.  कविता जानती थी कि दानदक्षिणा की जो सूची बताई गई है उस में भी पिताजी का काफी खर्च होगा. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे. लेकिन मां के चेहरे पर कोई परेशानी नहीं थी. उन्होंने ही जैसेतैसे पति और बेटी को समझाबुझा कर धीरज न खोने के लिए राजी किया. उन की व्यावहारिक बुद्धि यही कहती थी कि लड़की वालों को थोड़ाबहुत झुकना ही पड़ता है.

इस बीच गौरव भी अपनी और अपने मातापिता की ओर से कविता के घर वालों से उन्हें परेशान करने के लिए क्षमा मांगने आया. वह जानता था कि यह सब ढकोसला है, लेकिन ताईजी की भावनाओं और उन की ममता की कद्र करते हुए वह उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था. इसलिए वह भी इस में सहयोग देने के लिए राजी हो गया था, वरना वह और उस के मातापिता किसी भी कारण से कविता के परिवार वालों को अनुचित कष्ट नहीं देना चाहते थे.

लेकिन अभी एक और प्रहार बाकी था. किसी ने यह भी बता दिया था कि इस अनुष्ठान के पश्चात कन्या का एक झूठमूठ का विवाह बकरे या भेड़ से करवाना जरूरी है क्योंकि मंगल की जो कुदृष्टि पूजा के बाद भी बच जाएगी, वह उसी पर पड़ेगी. उस के पश्चात कविता और गौरव का विवाह बड़ी धूमधाम से होगा और उन का वैवाहिक जीवन संपूर्ण रूप से निष्कंटक हो जाएगा.  ताईजी यह संदेश ले कर स्वयं आई थीं. उस समय कविता घर पर नहीं थी. जब वह आई और उस ने यह बेहूदा प्रस्ताव सुना तो बौखला उठी. उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे. पहली बार उस ने गौरव को अपनी ओर से इस में सम्मिलित करने का सोचा.

उस ने गौरव से मिल कर उसे सारी बात बताई. गौरव की भी वही प्रतिक्रिया हुई, जिस की कविता को आशा थी. वह सीधा घर गया और अपने परिवार वालों को अपना निर्णय सुना डाला, ‘‘यदि आप इन सब ढकोसलों को और बढ़ावा देंगे या मानेंगे तो मैं कविता तो क्या, किसी भी अन्य लड़की से विवाह नहीं करूंगा और जीवन भर अविवाहित रहूंगा. मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता, आप की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता, नहीं तो मैं पूजा करने की बात पर ही आप को रोक देता. लेकिन अब तो हद ही हो गई है. आप लोगों को मैं ने अपना फैसला सुना दिया है. अब आगे आप की इच्छा.’’

ताईजी का रोरो कर बुरा हाल था. उन्हें तो यही चिंता खाए जा रही थी कि कविता के ‘मांगलिक’ होने से गौरव का अनिष्ट न हो, लेकिन गौरव उन की बात समझने की कोशिश ही नहीं कर रहा था. उस का कहना था, ‘‘यह झूठमूठ का विवाह कर लेने से कविता का क्या बिगड़ जाएगा?’’  उधर कविता को भी गौरव ने यही पट्टी पढ़ाई थी कि तुम पर कैसा भी दबाव डाला जाए, तुम टस से मस न होना, भले ही कितनी मिन्नतें करें, जबरदस्ती करें, किसी भी दशा में तुम अपना फैसला न बदलना. भला कहीं मनुष्यों के विवाह जानवरों से भी होते हैं. भले ही यह झूठमूठ का ही क्यों न हो.

कविता तो वैसे ही ताईजी के इस प्रस्ताव को सुन कर आपे से बाहर हो रही थी. उस पर गौरव ने उस की बात को सम्मान दे कर उस की हिम्मत को बढ़ाया था. साथ ही गौरव ने यह भी बता दिया था कि उस के मातापिता को कविता बहुत पसंद है और वे इन ढकोसलों में विश्वास नहीं करते. इसलिए ताईजी को समझाने में उस के मातापिता भी सहायता करेंगे. वैसे ताईजी को यह स्वीकार ही नहीं होगा कि गौरव जीवन भर अविवाहित रहे. वे तो न जाने कितने वर्षों से उस के विवाह के सपने देख रही थीं और उस की बहू के लिए उन्होंने अच्छे से अच्छे जेवर सहेज कर रखे हुए थे.

लेकिन पुरानी रूढि़यों में जकड़ी अशिक्षित ताईजी एक अनजान भय से ग्रस्त इन पाखंडों और लालची पंडितों की बातों में आ गई थीं. गौरव ने कविता को बता दिया था कि धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा और अगर फिर भी ताईजी ने स्वीकृति न दी तो दोनों के मातापिता की स्वीकृति तो है ही, वे चुपचाप शादी कर लेंगे.

कविता को गौरव की बातों ने बहुत बड़ा सहारा दिया था. पर क्या ताईजी ऐसे ही मान गई थीं? घर छोड़ जाने और आजीवन विवाह न करने की गौरव द्वारा दी गई धमकियों ने अपना रंग दिखाया और 4 महीने का समय नष्ट कर के अंत में कविता और गौरव का विवाह बड़ी धूमधाम से हो गया.

कविता एक भरपूर गृहस्थी के हर सुख से संपन्न थी. धनसंपत्ति, अच्छा पति, बढि़या स्कूलों में पढ़ते लाड़ले बच्चे और अपने सासससुर की वह दुलारी बहू थी. बस, उस के वैवाहिक जीवन का एक खलनायक था, ‘मंगल ग्रह’ जिस पर गौरव की सहायता एवं प्रोत्साहन से कविता ने विजय पाई थी. कभीकभी परिवार के सभी सदस्य मंगल ग्रह की पूजा और नकली विवाह की बातें याद करते हैं तो ताईजी सब से अधिक दिल खोल कर हंसतीं. काफी देर से अकेली बैठी कविता इन्हीं मधुर स्मृतियों में खोई हुई थी. फोन की घंटी ने उसे चौंका कर इन स्मृतियों से बाहर निकाला.

फोन पर बात करने के बाद उस ने अपना कार्यक्रम निश्चित किया और यही तय किया कि अपने सफल विवाह की 10वीं वर्षगांठ का सब से पहला निमंत्रणपत्र वह आज ही पंडितजी को देने स्वयं जाएगी, ऐसा निर्णय लेते ही उस के चेहरे पर एक शरारत भरी मुसकान उभर आई.

हुस्न का बदला : कहानी शीला के जज्बात की

शीला की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. पिछले एक महीने से वह परेशान थी. कालेज बंद होने वाले थे. प्रदीप सैमेस्टर का इम्तिहान देने के बाद यह कह कर गया था, ‘मैं तुम्हें पैसों का इंतजाम कर के 1-2 दिन बाद दे दूंगा. तुम निश्चिंत रहो. घबराने की कोई बात नहीं.’

‘पर है कहां वह?’ यह सवाल शीला को परेशान कर रहा था. उस की और प्रदीप की पहचान को अभी सालभर भी नहीं हुआ था कि उस ने उस से शादी का वादा कर उस के साथ… ‘शीला, तुम आज भी मेरी हो, कल भी मेरी रहोगी. मुझ से डरने की क्या जरूरत है? क्या मुझ पर तुम्हें भरोसा नहीं है?’ प्रदीप ने ऐसा कहा था.

‘तुम पर तो मुझे पूरा भरोसा है प्रदीप,’ शीला ने जवाब दिया था.

शीला गांव से आ कर शहर के कालेज में एमए की पढ़ाई कर रही थी. यह उस का दूसरा साल था. प्रदीप इसी शहर के एक वकील का बेटा था. वह भी शीला के साथ कालेज में पढ़ाई कर रहा था. ऐयाश प्रदीप ने गांव से आई सीधीसादी शीला को अपने जाल में फंसा लिया था.

शीला उसे अपना दोस्त मान कर चल रही थी. उन की दोस्ती अब गहरी हो गई थी. इसी दोस्ती का फायदा उठा कर एक दिन प्रदीप उसे घुमाने के बहाने पिकनिक पर ले गया. फिर वे मिलते, पर सुनसान जगह पर. इस का नतीजा, शीला पेट से हो गई थी.

जब शीला को पता चला कि उस के पेट में प्रदीप का बच्चा पल रहा है, तो वह घबरा गई. बमुश्किल एक क्लिनिक की लेडी डाक्टर 10 हजार रुपए में बच्चा गिराने को तैयार हुई. डाक्टर ने कहा कि रुपयों का इंतजाम 2 दिन में ही करना होगा.

इधर प्रदीप को ढूंढ़तेढूंढ़ते शीला को एक हफ्ते का समय बीत गया, पर वह नहीं मिला. शीला ने उस का घर भी नहीं देखा था. प्रदीप के दोस्तों से पता करने पर ‘मालूम नहीं’ सुनतेसुनते वह परेशान हो गई थी.

शीला ने सोचा कि क्यों न घर जा कर कालेज में पैसे जमा करने के नाम पर पिता से रुपए मांगे जाएं. सोच कर वह घर आ गई. उस की बातचीत के ढंग से पिता ने अपनी जमीन गिरवी रख कर शीला को 10 हजार रुपए ला कर दे दिए.

वह रुपए ले कर ट्रेन से शहर लौट आई. टे्रन के प्लेटफार्म पर रुकते ही शीला ने जब अपने सूटकेस को सीट के नीचे नहीं पाया, तो वह घबरा गई. काफी खोजबीन की गई, पर सूटकेस गायब था. वह चीख मार कर रो पड़ी. शीला गायब बैग की शिकायत करने रेलवे पुलिस के पास गई, पर पुलिस का रवैया ढीलाढाला रहा.

अचानक पीछे से किसी ने शीला को आवाज दी. वह उस के बचपन की सहेली सुधा थी.

‘‘अरे शीला, पहचाना मुझे? मैं सुधा, तेरी बचपन की सहेली.’’

वे दोनों गले लग गईं.

‘‘कहां से आ रही है?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘घर से,’’ शीला बोली.

‘‘तू कुछ परेशान सी नजर आ रही है. क्या बात है?’’ सुधा ने पूछा.

शीला ने उस पर जो गुजरी थी, सारी बात बता दी. ‘‘बस, इतनी सी बात है. चल मेरे साथ. घर से तुझे 10 हजार रुपए देती हूं. बाद में मुझे वापस कर देना.’’ सुधा उसी आटोरिकशा से शीला को अपने घर ले कर पहुंची.

शीला ने जब सुधा का शानदार घर देखा, तो हैरान रह गई.

‘‘सुधा, तुम्हारा झोंपड़पट्टी वाला घर? तुम्हारी मां अब कहां हैं?’’ शीला ने सवाल थोड़ा घबरा कर किया.

‘‘वह सब भूल जा. मां नहीं रहीं. मैं अकेली हूं. एक दफ्तर में काम करती हूं. और कुछ पूछना है तुझे?’’ सुधा ने कहा, ‘‘ले नाश्ता कर ले. मुझे जरूरी काम है. तू रुपए ले कर जा. अपना काम कर, फिर लौटा देना… समझी?’’ कह कर सुधा मुसकरा दी.

शीला रुपए ले कर घर लौट आई. अगले दिन जैसे ही शीला आटोरिकशा से डाक्टर के क्लिनिक पर पहुंची, तो वहां ताला लगा था. पूछने पर पता चला कि डाक्टर बाहर गई हैं और 2 महीने बाद आएंगी. शीला निराश हो कर घर आ गई. उस ने एक हफ्ते तक शहर के क्लिनिकों पर कोशिश की, पर कोई इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ.

हार कर शीला सुधा के घर रुपए वापस करने पहुंची.

‘‘मैं पैसे वापस कर रही हूं. मेरा काम नहीं हुआ,’’ कह कर शीला रो पड़ी.

‘‘अरे, ऐसा कौन सा काम है, जो नहीं हुआ? मुझे बता, मैं करवा दूंगी. मैं तेरी आंख में आंसू नहीं देख सकती,’’ सुधा ने कहा.

शीला ने सबकुछ सचसच बता दिया. ‘‘तू चिंता मत कर. मैं सारा काम कर दूंगी. मुझ पर यकीन कर,’’ सुधा ने कहा. और फिर सुधा ने शीला का बच्चा गिरवा दिया. डाक्टर ने उसे 15 दिन आराम करने की सलाह दी.

शीला बारबार कहती, ‘‘सुधा, तुम ने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. यह एहसान मैं कैसे चुका पाऊंगी?’’

‘‘तुम मेरे पास ही रहो. मैं अकेली हूं. मेरे रहते तुम्हें कौन सी चिंता?’’ शीला अपना मकान छोड़ कर सुधा के घर आ गई.

शीला को सुधा के पास रहते हुए तकरीबन 6 महीने बीत गए. पिता की बीमारी की खबर पा कर वह गांव चली आई. पिता ने गिरवी रखी जमीन की बात शीला से की. शीला ने जमीन वापस लेने का भरोसा दिलाया.

जब शीला सुधा के पास आई, तो उस ने सुधा से कहा, ‘‘मुझे कहीं नौकरी पर लगवा दो. मैं कब तक तुम्हारा बोझ बनी रहूंगी? मुझे भी खाली बैठना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘ठीक है. मैं कोशिश करती हूं,’’ सुधा ने कहा.

एक दिन सुधा ने शीला से कहा, ‘‘सुनो शीला, मैं ने तुम्हारी नौकरी की बात की थी, पर…’’ कह कर सुधा चुप हो गई.

‘‘पर क्या? कहो सुधा, क्या बात है बताओ मुझे? मैं नौकरी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं.’’ सुधा मन ही मन खुश हो गई. उस ने कहा, ‘‘ऐसा है शीला, तुम्हें अपना जिस्म मेरे बौस को सौंपना होगा, सिर्फ एक रात के लिए. फिर तुम मेरी तरह राज करोगी.’’

शीला ने सोचा कि प्रदीप से बदला लेने का अच्छा मौका है. इस से सुधा का एहसान भी पूरा होगा और उस का मकसद भी.

शीला ने अपनी रजामंदी दे दी. फिर सुधा के कहे मुताबिक शीला सजसंवर कर बौस के पास पहुंच गई. बौस के साथ रात बिता कर वह घर आ गई. साथ में सौसौ के 20 नोट भी लाई थी. और फिर यह खेल चल पड़ा. दिन में थोड़ाबहुत दफ्तर का काम और रात में ऐयाशी.

अब शीला भी आंखों पर रंगीन चश्मा, जींसशर्ट, महंगे जूते, मुंह पर कपड़ा लपेटे गुनाहों की दुनिया की बेताज बादशाह बन गई थी.

कालेज के बिगड़ैल लड़के, अमीर कारोबारी, सफेदपोश नेता सभी शीला के कब्जे में थे. एक दिन शीला ने सुधा से कहा, ‘‘दीदी, मुझे लगता है कि अमीरों ने फरेब की दुकान सजा रखी है…’’ इतने में सुधा के पास फोन आया.

‘‘कौन?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘मैडम, मैं प्रदीप… मुझे शाम को…’’

‘‘ठीक है. 10 हजार रुपए लगेंगे. एक रात के… बोलो?’’

‘‘ठीक है,’’ प्रदीप ने कहा.

‘‘कौन है?’’ शीला ने पूछा.

‘‘कोई प्रदीप है. उसे एक रात के लिए लड़की चाहिए.’’ शीला ने दिमाग पर जोर डाला. कहीं यह वही प्रदीप तो नहीं, जिस ने उस की जिंदगी को बरबाद किया था.

‘‘दीदी, मैं जाऊंगी उस के पास,’’ शीला ने कहा.

‘‘ठीक है, चली जाना,’’ सुधा बोली.

शीला ने ऐसा मेकअप किया कि उसे कोई पहचान न सके. दुपट्टे से मुंह ढक कर चश्मा लगाया और होटल पहुंच गई.

शीला ने एक कमरा पहले से ही बुक करा रखा था, ताकि वही प्रदीप हो, तो वह देह धंधे के बदले अपना बदला चुका सके. प्रदीप नशे में झूमता हुआ होटल पहुंच गया.

‘‘मेरे कमरे में कौन है?’’ प्रदीप ने मैनेजर से पूछा.

‘‘वहां एक मेम साहब बैठी हैं. कह रही हैं कि साहब के आने पर कमरा खाली कर दूंगी. वैसे, यह उन्हीं का कमरा है. होटल के सभी कमरे भरे हैं,’’ कह कर मैनेजर चला गया.

प्रदीप ने दरवाजा खोल कर देखा, तो खूबसूरती में लिपटी एक मौडर्न बाला को देख कर हैरान रह गया.

‘‘कमाल का हुस्न है,’’ प्रदीप ने सोफे पर बैठते हुए कहा.

‘‘यह आप का कमरा है?’’

‘‘जी,’’ शीला ने कहा.

‘‘मैं आप का नाम जान सकता हूं?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘मोना.’’

‘‘आप कपड़े उतारिए और अपना शौक पूरा करें. समय बरबाद न करें. इसे अपना कमरा ही समझिए.’’

इस के बाद शीला ने प्रदीप को अपना जिस्म सौंप दिया. वे दोनों अभी ऐयाशी में डूबे ही थे कि किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी.

प्रदीप मुंह ढक कर सोने का बहाना कर के सो गया.

शीला ने दरवाजा खोला, तो पुलिस को देख कर वह जोर से चिल्लाई, ‘‘पुलिस…’’

‘‘प्रदीप साहब, आप के खिलाफ शिकायत मिली है कि आप ने मोना मैडम के कमरे पर जबरदस्ती कब्जा जमा कर उन से बलात्कार किया है. आप को गिरफ्तार किया जाता है,’’ पुलिस ने कहा.

‘‘जी, मैं…’’ यह सुन कर प्रदीप की घिग्घी बंध गई.

पुलिस ने जब प्रदीप को गिरफ्तार किया, तो मोना उर्फ शीला जोर से खिलखिला कर हंस उठी और बोली, ‘‘प्रदीपजी, इसे कहते हैं हुस्न का बदला…’’

कुरसी का करिश्मा : कैसे रानी बन गई कलावती

दीपू के साथ आज मालिक भी उस के घर पधारे थे. उस ने अंदर कदम रखते ही आवाज दी, ‘‘अजी सुनती हो?’’

‘‘आई…’’ अंदर से उस की पत्नी कलावती ने आवाज दी.

कुछ ही देर बाद कलावती दीपू के सामने खड़ी थी, पर पति के साथ किसी अनजान शख्स को देख कर उस ने घूंघट कर लिया.

‘‘कलावती, यह राजेश बाबू हैं… हमारे मालिक. आज मैं काम पर निकला, पर सिर में दर्द होने के चलते फतेहपुर चौक पर बैठ गया और चाय पीने लगा, पर मालिक हालचाल जानने व लेट होने के चलते इधर ही आ रहे थे.

‘‘मुझे चौक पर देखते ही पूछा, ‘क्या आज काम पर नहीं जाना.’

‘‘इन को सामने देख कर मैं ने कहा, ‘मेरे सिर में काफी दर्द है. आज नहीं जा पाऊंगा.’

‘‘इस पर मालिक ने कहा, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

‘‘देखो, आज पहली बार मालिक हमारे घर आए हैं, कुछ चायपानी का इंतजाम करो.’’

कलावती थोड़ा सा घूंघट हटा कर बोली, ‘‘अभी करती हूं.’’

घूंघट के हटने से राजेश ने कलावती का चेहरा देख लिया, मानो उस पर आसमान ही गिर पड़ा. चांद सा दमकता चेहरा, जैसे कोई अप्सरा हो. लंबी कदकाठी, लंबे बाल, लंबी नाक और पतले होंठ. सांचे में ढला हुआ उस का गदराया बदन. राजेश बाबू को उस ने झकझोर दिया था.

इस बीच कलावती चाय ले आई और राजेश बाबू की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

राजेश बाबू ने चाय का कप पकड़ तो लिया, पर उन की निगाहें कलावती के चेहरे से हट नहीं रही थीं. कलावती दीपू को भी चाय दे कर अंदर चली गई.

‘‘दीपू, तुम्हारी बीवी पढ़ीलिखी कितनी है?’’ राजेश बाबू ने पूछा.

‘‘10वीं जमात पास तो उस ने अपने मायके में ही कर ली थी, लेकिन यहां मैं ने 12वीं तक पढ़ाया है,’’ दीपू ने खुश होते हुए कहा.

‘‘दीपू, पंचायत का चुनाव नजदीक आ रहा है. सरकार ने तो हम लोगों के पर ही कुतर दिए हैं. औरतों को रिजर्वेशन दे कर हम ऊंची जाति वालों को चुनाव से दूर कर दिया है. अगर तुम मेरी बात मानो, तो अपनी पत्नी को उम्मीदवार बना दो.

‘‘मेरे खयाल से तो इस दलित गांव में तुम्हारी बीवी ही इंटर पास होगी?’’ राजेश बाबू ने दीपू को पटाने का जाल फेंका.

‘‘आप की बात सच है राजेश बाबू. दलित बस्ती में सिर्फ कलावती ही इंटर पास है, पर हमारी औकात कहां कि हम चुनाव लड़ सकें.’’

‘‘अरे, इस की चिंता तुम क्यों करते हो? मैं सारा खर्च उठाऊंगा. पर मेरी एक शर्त है कि तुम दोनों को हमेशा मेरी बातों पर चलना होगा,’’ राजेश बाबू ने जाल बुनना शुरू किया.

‘‘हम आप से बाहर ही कब थे राजेश बाबू? हम आप के नौकरचाकर हैं. आप जैसा चाहेंगे, वैसा ही हम करेंगे,’’ दीपू ने कहा.

‘‘तो ठीक है. हम कलावती के सारे कागजात तैयार करा लेंगे और हर हाल में चुनाव लड़वाएंगे,’’ इतना कह कर राजेश बाबू वहां से चले गए.

कुछ दिन तक चुनाव प्रचार जोरशोर से चला. राजेश बाबू ने इस चुनाव में पैसा और शराब पानी की तरह बहाया. इस तरह कलावती चुनाव जीतने में कामयाब हो गई.

कलावती व दीपू राजेश बाबू की कठपुतली बन कर हर दिन उन के यहां दरबारी करते. खासकर कलावती तो कोई भी काम उन से पूछे बिना नहीं करती थी.

एक दिन एकांत पा कर राजेश बाबू ने घर में कलावती के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कलावती, एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए मालिक,’’ कलावती राजेश बाबू के हाथ को कंधे से हटाए बिना बोली.

‘‘जब मैं ने तुम्हें पहली बार देखा था, उसी दिन मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्यार जाग गया था. तुम को पाने के लिए ही तो मैं ने तुम्हें इस मंजिल तक पहुंचाया है. आखिर उस अनपढ़ दीपू के हाथों

की कठपुतली बनने से बेहतर है कि तुम उसे छोड़ कर मेरी बन जाओ. मेरी जमीनजायदाद की मालकिन.’’

‘‘राजेश बाबू, मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप मुझ से सच्चा प्यार करते हैं?’’ कलावती नैनों के बाण उन पर चलाते हुए बोली.

‘‘कल तुम मेरे साथ चलो. यह हवेली मैं तुम्हारे नाम कर दूंगा. 5 बीघा खेत व 5 लाख रुपए नकद तुम्हारे खाते में जमा कर दूंगा. बोलो, इस से ज्यादा भरोसा तुम्हें और क्या चाहिए.’’

‘‘बस… बस राजेश बाबू, अगर आप इतना कर सकते हैं, तो मैं हमेशा के लिए दीपू को छोड़ कर आप की हो जाऊंगी,’’ कलावती फीकी मुसकान के साथ बोली.

‘‘तो ठीक है,’’ राजेश ने उसे चूमते हुए कहा, ‘‘कल सवेरे तुम तैयार रहना.’’

दूसरे दिन कलावती तैयार हो कर आई. राजेश बाबू के साथ सारा दिन बिताया. राजेश बाबू ने अपने वादे के मुताबिक वह सब कर दिया, जो उन्होंने कहा था.

2 दिन बाद राजेश बाबू ने कलावती को अपने हवेली में बुलाया. वह पहुंच गई, तो राजेश बाबू ने उसे अपने आगोश में भरना चाहा, तभी कलावती अपने कपड़े कई जगह से फाड़ते हुए चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

कुछ पुलिस वाले दौड़ कर अंदर आ गए, तो कलावती राजेश बाबू से अलग होते हुए बोली, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, यह शैतान मेरी आबरू से खेलना चाह रहा था. देखिए, मुझे अपने घर बुला कर किस तरह बेइज्जत करने पर तुल गया. यह भी नहीं सोचा कि मैं इस पंचायत की मुखिया हूं.’’

इंस्पैक्टर ने आगे बढ़ कर राजेश बाबू को धरदबोचा और उस के हाथों में हथकड़ी डालते हुए कहा, ‘‘यह आप ने ठीक नहीं किया राजेश बाबू.’’

राजेश बाबू ने गुस्से में कलावती को घूरते हुए कहा, ‘‘धोखेबाज, मुझ से दगाबाजी करने की सजा तुम्हें जरूर मिलेगी. आज तू जिस कुरसी पर है, वह कुरसी मैं ने ही तुझे दिलाई है.’’

‘‘आप ने ठीक कहा राजेश बाबू. अब वह जमाना लद गया है, जब आप लोग छोटी जातियों को बहलाफुसला कर खिलवाड़ करते थे. अब हम इतने बेवकूफ नहीं रहे.

‘‘देखिए, इस कुरसी का करिश्मा, मुखिया तो मैं बन ही गई, साथ ही आप ने रातोंरात मुझे झोंपड़ी से उठा कर हवेली की रानी बना दिया. लेकिन अफसोस, रानी तो मैं बन गई, पर आप राजा नहीं बन सके. राजा तो मेरा दीपू ही होगा इस हवेली का.’’

राजेश बाबू अपने ही बुने जाल में उलझ गए.

कितने दूर कितने पास : एक हसंता खेलते परिवार की कहानी

सरकारी सेवा से मुक्त होने में बस, 2 महीने और थे. भविष्य की चिंता अभी से खाए जा रही थी. कैसे गुजारा होगा थोड़ी सी पेंशन में. सेवा से तो मुक्त हो गए परंतु कोई संसार से तो मुक्त नहीं हो गए. बुढ़ापा आ गया था. कोई न कोई बीमारी तो लगी ही रहती है. कहीं चारपाई पकड़नी पड़ गई तो क्या होगा, यह सोच कर ही दिल कांप उठता था. यही कामना थी कि जब संसार से उठें तो चलतेफिरते ही जाएं, खटिया रगड़ते हुए नहीं.

सब ने समझाया और हम ने भी अपने अनुभव से समझ लिया था कि पैसा पास हो तो सब से प्रेमभाव और सुखद संबंध बने रहते हैं. इस भावना ने हमें इतना जकड़ लिया था कि पैसा बचाने की खातिर हम ने अपने ऊपर काफी कंजूसी करनी शुरू कर दी. पैसे का सुख चाहे न भोग सकें परंतु मरते दम तक एक मोटी थैली हाथ में अवश्य होनी चाहिए. बेटी का विवाह हो चुका था.

वह पति और बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही थी. जैसेजैसे समय निकलता गया हमारा लगाव कुछ कम होता चला गया था. हमारे रिश्तों में मोह तो था परंतु आकर्षण में कमी आ गई थी. कारण यह था कि न अब हम उन्हें अधिक बुला सकते थे और न उन की आशा के अनुसार उन पर खर्च कर सकते थे. पुत्र ने अवसर पाते ही दिल्ली में अपना मकान बना लिया था. इस मकान पर मैं ने भी काफी खर्च किया था.

आशा थी कि अवकाश प्राप्त करने के बाद इसी मकान में आ कर पतिपत्नी रहेंगे. कम से कम रहने की जगह तो हम ने सुरक्षित कर ली थी. एक दिन पत्नी के सीने में दर्द उठा. घर में जितनी दवाइयां थीं सब का इस्तेमाल कर लिया परंतु कुछ आराम न हुआ.

सस्ते डाक्टरों से भी इलाज कराया और फिर बाद में पड़ोसियों की सलाह मान कर 1 रुपए की 3 पुडि़या देने वाले होमियोपैथी के डाक्टर की दवा भी ले आए. दर्द में कितनी कमी आई यह कहना तो बड़ा कठिन था परंतु पत्नी की बेचैनी बढ़ गई. एक ही बात कहती थी, ‘‘बेटी को बुला लो. देखने को बड़ा जी चाह रहा है. कुछ दिन रहेगी तो खानेपीने का सहारा भी हो जाएगा. बहू तो नौकरी करती है, वैसे भी न आ पाएगी.’’ ‘‘प्यारी बेटी,’’ मैं ने पत्र लिखा, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत बड़ी खराब चल रही है. चिंता की कोई बात नहीं. पर वह तुम्हें व बच्चों को देखना चाह रही है. हो सके तो तुम सब एक बार आ जाओ.

कुछ देखभाल भी हो जाएगी. वैसे अब 2 महीने बाद तो यह घर छोड़ कर दिल्ली जाना ही है. अच्छा है कि तुम अंतिम बार इस घर में आ कर हम लोगों से मिल लो. यह वही घर है जहां तुम ने जन्म लिया, बड़ी हुईं और बाजेगाजे के साथ विदा हुईं…’’ पत्र कुछ अधिक ही भावुक हो गया था.

मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर कलम ही तो है. जब चलने लगती है तो रुकती नहीं. इस पत्र का कुछ ऐसा असर हुआ कि बेटी अपने दोनों बच्चों के साथ अगले सप्ताह ही आ गई. दामाद ने 10 दिन बाद आने के लिए कहा था. न जाने क्यों मांबेटी दोनों एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोईं. भला रोने की बात क्या थी? यह तो खुशी का अवसर था. मैं अपने नातियों से गपें लगाने लगा.

रचना ने कहा, ‘‘बोलो, मां, तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? तुम कितनी दुबली हो गई हो,’’ फिर मुझे संबोधित कर बोली, ‘‘पिताजी, बकरे के दोचार पाए रोज ले आया कीजिए. यखनी बना दिया करूंगी. बच्चों को भी बहुत पसंद है. रोज सूप पीते हैं. आप को भी पीना चाहिए,’’ फिर मेरी छाती को देखते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है पिताजी आप को?

सारी हड्डियां दिखाई दे रही हैं. ठहरिए, मैं आप को खिलापिला कर खूब मोटा कर के जाऊंगी. और हां, आधा किलो कलेजी- गुर्दा भी ले आइएगा. बच्चे बहुत शौक से खाते हैं.’’ मैं मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था, ‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ. अरे, इनसान क्या कभी बुड्ढा नहीं होता? कब तक मोटा- ताजा सांड बना रहूंगा? तू तो अपनी मां की चिंता कर.’’ ‘‘मां को तो देख लूंगी, पर आप भी खाने के कम चोर नहीं हैं. आप को क्या चिंता है? लो, मैं तो भूल ही गई. आप तो रोज इस समय एक कप कौफी पीते हैं. बैठिए, मैं अभी कौफी बना कर लाती हूं. बच्चो, तुम भी कौफी पियोगे न?’’

मैं एक असफल विरोध करता रह गया. रचना कहां सुनने वाली थी. दरअसल, मैं ने कौफी पीना अरसे से बंद कर दिया था. यह घर के खर्चे कम करने का एक प्रयास था. कौफी, चीनी और दूध, सब की एकसाथ बचत. पत्नी को पान खाने का शौक था. अब वह बंद कर के 10 पैसे की खैनी की पुडि़या मंगा लेती थी, जो 4 दिन चलती थी. हमें तो आखिर भविष्य को देखना था न. 

‘‘अरे, कौफी कहां है, मां?’’ रचना ने आवाज लगा कर पूछा, ‘‘यहां तो दूध भी दिखाई नहीं दे रहा है? लो, फ्रिज भी बंद पड़ा है. क्या खराब हो गया?’’ मां ने दबे स्वर में कहा, ‘‘अब फ्रिज का क्या काम है? कुछ रखने को तो है नहीं. बेकार में बिजली का खर्चा.’’ ‘‘पिताजी, ऐसे नहीं चलेगा,’’ रचना ने झुंझला कर कहा, ‘‘यह कोई रहने का तरीका है? क्या इसीलिए आप ने जिंदगी भर कमाया है?

अरे ठाट से रहिए. मैं भी तो सिर उठा कर कह सकूं कि मेरे पिताजी कितनी शान से रहते हैं. ए बिट्टू, जा, नीचे वाली दुकान से दौड़ कर कौफी तो ले आ. हां, पास ही जो मिट्ठन हलवाई की दुकान है, उस से 1 किलो दूध भी ले आना. नानाजी का नाम ले देना, समझा? भाग जल्दी से, मैं पानी रख रही हूं.’’ किट्टू बोला, ‘‘मां, मैं भी जाऊं. फाइव स्टार चाकलेट खानी है.’’ ‘‘जा, तू भी जा, शांति तो हो घर में,’’ रचना ने हंस कर कहा, ‘‘चाकलेट खाने की तो ऐसी आदत पड़ गई है कि बस, पूछो मत. इन की तो नौकरी भी ऐसी है कि मुफ्त देने वालों की कमी नहीं है.’’

मैं मन ही मन गणित बिठा रहा था. 5 रुपए की चाकलेट, 6 रुपए का दूध, 15 रुपए की कौफी, 16 रुपए की आधा किलो कलेजी, ढाई रुपए के 2 पाए…’’ कौफी पी ही रहा था कि रचना का क्रुद्ध स्वर कानों में पड़ा, ‘‘मां, तुम ने घर को क्या कबाड़ बना रखा है. न दालें हैं न सब्जी है, न मसाले हैं. आप लोग खाते क्या हैं? बीमार नहीं होंगे तो क्या होंगे? छि:, मैं भाभी को लिख दूंगी. आप की खूब शिकायत करूंगी. दिल्ली में अगर आप को इस हालत में देखा तो समझ लेना कि भाभी से तो लड़ाई करूंगी ही, आप से भी कभी मिलने नहीं आऊंगी.’

रचना जल्दी से सामान की सूची बनाने लगी. मेरी पत्नी का खाना बनाने को मन नहीं करता था. उसे अपनी बीमारी की चिंता अधिक सताती थी. पासपड़ोस की औरतें भी उलटीसीधी सीख दे जाया करती थीं. मैं ने भी समझौता कर लिया था. जो एक समय बन जाता था वही दोनों समय खा लेते थे.

आखिर इनसान जिंदा रहने के लिए ही तो खाता है. अब इस उम्र में चटोरापन किस काम का. यह बात अलग थी कि हमारा खर्च आधा रह गया था. बैंक में पैसे भी बढ़ रहे थे और सूद भी. पत्नी ने धीरे से कहा, ‘‘यह तो पराया समझ कर घर लुटा रही है. सामान तुम ही लाना और मुझे यखनीवखनी कुछ नहीं चाहिए. कलेजी भी कम लाना. अगर बच्चों को खिलाना है तो सीधी तरह से कह देती.

लगता है मुझे ही रसोई में लगना पड़ेगा. हमें आगे का देखना है कि अभी का?’’ फिर सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अभी तो दामाद को भी आना है. उन्हें तो सारा दिन खानेपीने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.’’ ‘‘तुम ने ही तो कहा था बुलाने को.’’ ‘‘कहा था तो क्या तुम मना नहीं कर सकते थे. ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जो मैं ने कहा वह पत्थर की लकीर हो गई,’’ पत्नी ने उलाहना दिया. ‘‘अब तो भुगतना ही पड़ेगा. अब देर हो गई. कल सुबह बैंक से पैसे निकालने जाना पड़ेगा,’’ मैं ने दुखी हो कर कहा. इतने में रचना आ गई, ‘‘मां, देसी घी कहां है? दाल किस में छौंकूंगी? रोटी पर क्या लगेगा?’’ मां ने ठंडे दिल से कहा, ‘‘डाक्टर ने देसी घी खाने को मना किया है न.

चरबी वाली चीजें बंद हैं. तेरे लिए आधा किलो मंगवा दूंगी.’’ मैं ने खोखली हंसी से कहा, ‘‘कोलेस्टेराल बढ़ जाता है न, और रक्तचाप भी.’’ ‘‘भाड़ में गए ऐसे डाक्टर. हड्डी- पसली निकल रही है, सूख कर कांटा हो रहे हैं और कोलेस्टेराल की बात कर रहे हैं. आप अभी 5 किलोग्राम वाले डब्बे का आर्डर कर आइए. मेरे सामने आ जाना चाहिए,’’ रचना ने धमकी दी. मेरे और पत्नी के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘कितना खर्च हो जाएगा इन के रहते. सेवा से अवकाश लेने वाला हूं. कम खर्च में काम चलाना होगा. बेटे के ऊपर भी तो बोझ बन कर नहीं रहना है.’

सुबह ही सुबह रचना दूध वाले से झगड़ा कर रही थी, ‘‘क्यों, पहलवान, मैं क्या चली गई, तुम ने तो दूध देना ही बंद कर दिया.’’ ‘‘बिटिया, हम क्यों दूध बंद करेंगे? मांजी ने ही कहा कि बस, आधा किलो दे जाया करो. चाय के लिए बहुत है. क्या इसी घर में हम ने 4-4 किलो दूध नहीं दिया है?’’ ‘‘देखो, जब तक मैं हूं, 3 किलो दूध रोज चाहिए. बच्चे दोनों समय दूध लेते हैं. जब मैं चली जाऊं तो 2 किलो देना, मां मना करें या पिताजी.

यह मेरा हुक्म है, समझे?’’ ‘‘समझा, बिटिया, हम भी तो कहें, क्यों मांजी और बाबूजी कमजोर हो रहे हैं. यही तो खानेपीने की उम्र है. अभी दूध नहीं पिएंगे तो कब पिएंगे?’’ 18 रुपए का दूध रोज. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी इशारे से दूध वाले को कुछ कहने का असफल प्रयत्न कर रही थी. ‘‘अंडे भी नहीं हैं. न मक्खन न डबल रोटी,’’ रचना चिल्ला रही थी, ‘‘आप लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो क्या होगा.

बिट्टू, जा दौड़ कर नीचे से एक दर्जन अंडे ले आ और 500 ग्राम वाली मक्खन की टिकिया, नानाजी का नाम ले देना.’’ ‘‘मां, मैं भी जाऊं,’’ किट्टू बोला, ‘‘टाफी लाऊंगा. तुम्हारे लिए भी ले आऊं न?’’ ‘‘जा बाबा, जा, सिर मत खा,’’ रचना ने हंसते हुए कहा. हाथ दबा कर खर्च करने के चक्कर में बहुत मना करने पर भी पत्नी ने रसोई का काम संभाल लिया.

जब दामाद आए तब तो किसी को फुरसत ही कहां. रोज बाजार कुछ न कुछ खरीदने जाना और नहीं तो यों ही घूमने के लिए. रिश्तेदार भी कई थे. कोई मिलने आया तो किसी के यहां मिलने गए. परिणाम यह हुआ कि पत्नी के लिए रसोई लक्ष्मण रेखा बन गई. दामाद की सारी फरमाइशें रचना मां को पहुंचा देती थी, ‘‘सास के हाथ के कबाब तो बस, लाजवाब होते हैं.

उफ, पिछली दफा जो कीमापनीर खाया था, आज तक याद है. मुर्गमुसल्लम तो जो मां के हाथ का खाया था अशोक होटल में भी क्या बनेगा.’’ जब तक रचना पति और बच्चों के साथ वापस गई, मेरी पत्नी के सीने का दर्द वापस आ गया था, लेकिन दर्द के बारे में सोचने की फुरसत कहां थी. घर छोड़ कर दिल्ली जाने में 1 महीना रह गया था. कुछ सामान बेचा तो कुछ सहेजा. एक दिन 20-25 बक्सों का कारवां ले कर जब दिल्ली पहुंचे तो चमचमाते मुंह से पुत्र ने स्वागत किया और बहू ने सिर पर औपचारिक रूप से साड़ी का पल्ला खींचते हुए सादर पैर छू कर हमारा आशीर्वाद प्राप्त किया.

पोता दादी से चिपक गया तो नन्ही पोती मेरी गोदी में चढ़ गई. सुबह जल्दी उठने की आदत थी. पुत्र का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘सुनो, दूध 1 किलो ज्यादा लेना. मां और पिताजी सुबह नाश्ते में दूध लेते हैं.’’ बहू ने उत्तर दिया, ‘‘दूध का बिल बढ़ जाएगा. इतने पैसे कहां से आएंगे? और फिर अकेला दूध थोड़े ही है. अंडे भी आएंगे. मक्खन भी ज्यादा लगेगा…’’ पुत्र ने झुंझला कर कहा, ‘‘ओहो, वह हिसाबकिताब बाद में करना. मांबाप हमारे पास रहने आए हैं. उन्हें ठीक तरह से रखना हमारा कर्तव्य है.’’ ‘‘तो मैं कोई रोक रही हूं? यही तो कह रही हूं कि खर्च बढ़ेगा तो कुछ पैसों का बंदोबस्त भी करना पड़ेगा. बंधीबंधाई तनख्वाह के अलावा है क्या?’’ ‘‘देखो, समय से सब बंदोबस्त हो जाएगा. अभी तो तुम रोज दूध और अंडों का नाश्ता बना देना.’’ ‘‘ठीक है, बच्चों का दूध आधा कर दूंगी. एक समय ही पी लेंगे. अंडे रोज न बना कर 2-3 दिन में एक बार बना दूंगी.’’

‘‘अब जो ठीक समझो, करो,’’ बेटे ने कहा, ‘‘सेना के एक कप्तान से मैं ने दोस्ती की है. एक दिन बुला कर उसे दावत देनी है.’’ ‘‘वह किस खुशी में?’’ ‘‘अरे, जानती तो हो, आर्मी कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है, एक दिन दावत देंगे तो साल भर सामान लाते रहेंगे.’’ ‘‘ठीक तो है, रंजना के यहां तो ढेर लगा है. जब पूछो, कहां से लिया है तो बस, इतरा कर कहती है कि मेजर साहब ने दिलवा दिया है.’’

जब नाश्ता करने बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह दूध मेरे लिए क्यों रख दिया. अब कोई हमारी उम्र दूध पीने की है. लो, बेटा, तुम पी लो,’’ मैं ने अपना आधा प्याला पोते के आधे प्याले में डाल दिया. पत्नी ने कहा, ‘‘यह अंडा तो मुझे अब हजम नहीं होता. बहू, इन बच्चों को ही दे दिया करो. बाबा, डबल रोटी में इतना मक्खन लगा दिया…मैं तो बस, नाम मात्र का लेती हूं.’’ बहू ने कहा, ‘‘मांजी, ऐसे कैसे होगा? बच्चे तो रोज ही खाते हैं. आप जब तक हमारे पास हैं अच्छी तरह खाइए. लीजिए, आप ने भी दूध छोड़ दिया.’’ ‘‘मेरी सोना को दे दो. बच्चों को तो खूब दूध पीना चाहिए.’’

‘‘हां, बेटा, मैं तो भूल ही गया था. तुम्हारी मां के सीने में दर्द रहता है. काफी दवा की पर जाता ही नहीं. अच्छा होता किसी डाक्टर को दिखा देते. है कोई अच्छा डाक्टर तुम्हारी जानपहचान का?’’ बेटे ने सोच कर उत्तर दिया, ‘‘मेरी जानपहचान का तो कोई है नहीं पर दफ्तर में पता करूंगा. हो सकता है एक्सरे कराना पड़े.’’ बहू ने तुरंत कहा, ‘‘अरे, कहां डाक्टर के चक्कर में पड़ोगे, यहां कोने में सड़क के उस पार घोड़े की नाल बनाने वाला एक लोहार है. बड़ी तारीफ है उस की. उस के पास एक खास दवा है. बड़े से बड़े दर्द ठीक कर दिए हैं उस ने. अरे, तुम्हें तो मालूम है, वही, जिस ने चमनलाल का बरसों पुराना दर्द ठीक किया था.’’

‘‘हां,’’ बेटे ने याद करते हुए कहा, ‘‘ठीक तो है. वह पैसे भी नहीं लेता. बस, कबूतरों को दाना खिलाने का शौक है. सो वही कहता है कि पैसों की जगह आप आधा किलो दाना डाल दो, वही काफी है.’’ मैं ने गहरी सांस ली. पत्नी साड़ी के कोने से मेज पर पड़ा डबल रोटी का टुकड़ा साफ कर रही थी. मेरी मुट्ठी भिंच गईं. मुझे लगा मेरी मुट्ठी में इस समय अनगिनत रुपए हैं.

सोचने की बात सिर्फ यह थी कि इन्हें आज खत्म करूं या कल, परसों या कभी नहीं. बेटा दफ्तर जा रहा था. ‘‘सुनो,’’ उस ने बहू से कहा, ‘‘जरा कुछ रुपए दे दो. लौटते हुए गोश्त लेता आऊंगा, और रबड़ी भी. पिताजी को बहुत पसंद है न.’’ बहू ने झिड़क कर कहा, ‘‘अरे, पिताजी कोई भागे जा रहे हैं जो आज ही रबड़ी लानी है? रहा गोश्त, सो पाव आध पाव से तो काम चलेगा नहीं.

कम से कम 1 किलो लाना पड़ेगा. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. अब खाना ही है तो अगले महीने खाना.’’ ‘‘ठीक है,’’ कह कर बेटा चला गया. मुझे एक बार फिर लगा कि मेरी मुट्ठी में बहुत से पैसे हैं. मैं ने मुट्ठी कस रखी है. प्रतीक्षा है सिर्फ इस बात की कि कब अपनी मुट्ठी ढीली करूं. पत्नी ने कराहा. शायद सीने में फिर दर्द उठा था.

गुलदारनी: चालाक शिकारी की कहानी

इलाके में मादा गुलदार ताबड़तोड़ शिकार कर रही थी. न वह इनसानों को छोड़ रही थी, न जानवरों को. वह छोटेबड़े का शिकार करते समय कोई लिहाज नहीं करती थी.

वह अपने शिकार को बुरी तरह घसीटघसीट कर, तड़पातड़पा कर मारती थी.

जंगल महकमे के माहिरों के भी मादा गुलदार को पकड़ने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं. वह इतनी चालाक शिकारी थी कि पिंजरे में फंसना तो दूर, वह पिंजरे को ही पलट कर भाग जाती थी. उसे ढूंढ़ने के लिए अनेक ड्रोन उड़ाए गए, लेकिन शिकार कर के वह कहां गुम हो जाती थी, किसी को पता ही नहीं चलता.

मादा गुलदार की चालाकी के किस्से इलाके में मशहूर हो गए. आसपास के गांव के लोग उसे ‘गुलदारनी’ कह कर पुकारने लगे.

जटपुर की रहने वाली स्वाति भी किसी ‘गुलदारनी’ से कम नहीं थी. वह कुछ साल पहले ही इस गांव में ब्याह कर आई थी. 6 महीने में ही उस ने अपने पति नरदेव समेत पूरे परिवार का मानो शिकार कर लिया था. नरदेव उस के आगेपीछे दुम हिलाए घूमता था.

सासससुर अपनी बहू स्वाति की अक्लमंदी के इतने मुरीद हो गए थे कि उन को लगता था कि पूरी दुनिया में ऐसी कोई दूसरी बहू नहीं. ननद तो अपनी भाभी की दीवानी हो गई थी. घर में स्वाति के और्डर के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था.

घर फतेह करने के बाद स्वाति ने धीरेधीरे बाहर भी अपने पैर पसारने शुरू कर दिए. गांव में चौधरी राम सिंह की बड़ी धाक थी. इज्जत के मामले में कोई उन से बढ़ कर नहीं था. हर कोई सलाहमशवरा लेने के लिए उन की चौखट पर जाता. लंगोट के ऐसे पक्के कि किरदार पर एक भी दाग नहीं

एक दिन नरदेव और स्वाति शहर से खरीदारी कर के मोटरसाइकिल से लौट रहे थे. नरदेव ने रास्ते में चौधरी राम सिंह को पैदल जाते देखा, तो नमस्ते करने के लिए मोटरसाइकिल रोक ली.

स्वाति ने चौधरी राम सिंह का नाम तो खूब सुना था, पर वह उन्हें पहचानती नहीं थी.

नरदेव ने स्वाति से राम सिंह का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आप हमारे गांव के चौधरी राम सिंह हैं. रिश्ते में ये मेरे चाचा लगते हैं.’’

स्वाति के लिए इतना परिचय काफी था. उस की आंखों का आकर्षण किसी को भी बींध देने के लिए काफी था.

स्वाति बिना हिचकिचाए बोली, ‘‘चौधरी साहब, आप को मेरी नमस्ते.’’

‘‘नमस्ते बहू, नमस्ते,’’ चौधरी राम सिंह ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा.

तब तक स्वाति मोटरसाइकिल से उतर कर चौधरी राम सिंह के सामने खड़ी हो गई. अपनी लटों को ठीक करते हुए वह बोली, ‘‘चौधरी साहब, केवल ‘नमस्ते’ से ही काम नहीं चलेगा, कभी घर आइएगा चाय पर. हमारे हाथ की चाय नहीं पी, तो फिर कैसी ‘नमस्ते’.’’

इतना सुन कर चौधरी राम सिंह की केवल ‘हूं’, निकली.

स्वाति अपने पल्लू को संभालते हुए मोटरसाइकिल पर सवार हो गई. चौधरी राम सिंह उन्हें दूर तक जाते देखते रह गए. उन पर एक बावलापन सवार हो गया. वे रास्तेभर ‘चाय पीने’ का मतलब निकालते रहे.

चौधरी राम सिंह रातभर यों ही करवटें बदलते रहे और स्वाति के बारे में सोचते रहे. वे किसी तरह रात कटने का इंतजार कर रहे थे.

उधर घर पहुंच कर नरदेव ने स्वाति से पूछा, ‘‘तुम ने चौधरी को चाय पीने का न्योता क्यों दिया?’’

‘‘तुम भी निरे बुद्धू हो. गांव में चौधरी की कितनी हैसियत है. ऐसे आदमी को पटा कर रखना चाहिए, न जाने कब काम आ जाए.’’

स्वाति का जवाब सुन कर नरदेव लाजवाब हो गया. उसे स्वाति हमेशा अपने से ज्यादा समझदार लगती थी. वह फिर अपने कामधाम में लग गया.

चौधरी राम सिंह को जैसे दिन निकलने का ही इंतजार था.

सुबह होते ही वे नरदेव के चबूतरे पर पहुंच गए. उन्होंने नरदेव के पिता मनुदेव को देखा, तो ‘नमस्ते’ कहते हुए चारपाई पर ऐसे बैठे, जिस से निगाहें घर की चौखट पर रहें.

नरदेव ने खिड़की से झांक कर चौधरी राम सिंह को देखा तो तुरंत स्वाति के पास जा कर बोला, ‘‘लो स्वाति, और दो चौधरी को चाय पीने का न्योता, सुबह होते ही चतूबरे पर आ बैठा.’’

‘‘तो खड़ेखड़े क्या देख रहे हो? उन्हें चाय के लिए अंदर ले आओ.’’

‘‘लेकिन स्वाति, चाय तो चबूतरे पर भी जा सकती है, घर के अंदर तो खास लोगों को ही बुलाया जाता है.’’

‘‘तुम भी न अक्ल के अंधे हो. तुम्हें तो पता ही नहीं, लोगों को कैसे अपना बनाया जाता है.’’

नरदेव के पास स्वाति के हुक्म का पालन करने के सिवा कोई और रास्ता न था. वह बाहर जा कर चबूतरे पर बैठे चौधरी राम सिंह से बोला, ‘‘चाचा, अंदर आ जाइए. यहां लोग आतेजाते रहते हैं. अंदर आराम से बैठ कर चाय पिएंगे.’’

चौधरी राम सिंह को स्वाति के दर पर इतनी इज्जत की उम्मीद न थी. नरदेव ने उन्हें अंदर वाले कमरे में बिठा दिया. नरदेव भी पास में ही रखी दूसरी कुरसी पर बैठ कर उन से बतियाने लगा.

कुछ ही देर में स्वाति एक ट्रे में चाय, नमकीन, बिसकुट ले कर आ गई. नरदेव को चाय देने के बाद वह चौधरी राम सिंह को चाय पकड़ाते हुए बोली, ‘‘चौधरी साहब, आप के लिए खास चाय बनाई है, पी कर बताना कि कैसी बनी है.’’

स्वाति के इस मनमोहक अंदाज पर चौधरी राम सिंह खुश हो गए. स्वाति चाय का प्याला ले कर मेज के दूसरी तरफ खाट पर बैठ गई. फिर स्वाति ने एक चम्मच में नमकीन ले कर चौधरी राम सिंह की ओर बढ़ाई तो चौधरी राम सिंह ऐसे निहाल हो गए, जैसे मैना को देख कर तोता.

चाय पीतेपीते लंगोट के पक्के चौधरी राम सिंह अपना दिल हार गए. जातेजाते चाय की तारीफ में कितने कसीदे उन्होंने पढ़े, यह खुद उन को भी पता नहीं.

फिर तो आएदिन चौधरी राम सिंह चाय पीने के लिए आने लगे. स्वाति भी खूब मन से उन के लिए खास चाय बनाती.

अब चौधरी राम सिंह को गांव में कहीं भी जाना होता, उन के सब रास्ते स्वाति के घर के सामने से ही गुजरते. उन के मन में यह एहसास घर कर गया कि स्वाति पूरे गांव में बस उन्हीं को चाहती है.

कुछ ही दिनों बाद राम सिंह ने देखा कि गांव में बढ़ती उम्र के कुछ लड़के स्वाति के घर के सामने खेलने के लिए जुटने लगे हैं. लड़कों को वहां खेलते देख कर चौधरी राम सिंह बडे़ परेशान हुए.

एक दिन उन्होंने लड़कों से पूछा, ‘‘अरे, तुम्हें खेलने के लिए कोई और जगह नहीं मिली? यहां गांव के बीच में क्यों खेल रहे हो?’’

‘‘ताऊजी, हम से तो स्वाति भाभी ने कहा है कि हम चाहें तो यहां खेल सकते हैं. आप को तो कोई परेशानी नहीं है न ताऊजी?’’

‘‘न…न… मुझे क्या परेशानी होगी? खूब खेलो, मजे से खेलो.’’

चौधरी राम सिंह लड़कों पर क्या शक करते? लेकिन, उन का मन बेहद परेशान था. हालत यह हो गई थी कि उन्हें किसी का भी स्वाति के पास आना पसंद नहीं था.

एक दिन चौधरी राम सिंह ने देखा कि स्वाति उन लड़कों के साथ खड़ी हो कर बड़ी अदा के साथ सैल्फी ले रही थी. सभी लड़के ‘भाभीभाभी’ चिल्ला कर स्वाति के साथ फोटो खिंचवाने के लिए कतार में लगे थे.

उस रात चौधरी राम सिंह को नींद नहीं आई. उन्हें लगा कि स्वाति ने उन का ही शिकार नहीं किया है, बल्कि गांव के जवान होते हुए लड़के भी उस के शिकार बन गए हैं.

चौधरी राम सिंह को रहरह कर जंगल की ‘गुलदारनी’ याद आ रही थी, जो लगातार अपने शिकार के मिशन पर निकली हुई थी.

एक दिन गांव में होहल्ला मच गया. बाबूराम की बेटी ने नरदेव पर छेड़छाड़ का आरोप लगा दिया. शुरू में गांव में किसी को इस बात पर यकीन न हुआ. सब का यही सोचना था कि इतनी पढ़ीलिखी, खूबसूरत और कमसिन बीवी का पति ऐसी छिछोरी हरकत कैसे कर सकता है. लेकिन कुछ गांव वालों का कहना था, ‘भैया, बिना आग के कहीं धुआं उठता है क्या?’

अभी गांव में खुसुरफुसुर का दौर जारी ही था कि शाम को बाबूराम ने दारू चढ़ा कर हंगामा बरपा दिया. उस ने नशे की झोंक में सरेआम नरदेव को देख लेने और जेल भिजवाने की धमकी दे डाली.

जब स्वाति को इस बात का पता चला तो उस ने नरदेव को बचाने के लिए मोरचा संभाल लिया. चौधरी राम सिंह को तुरंत बुलावा भेजा गया.

स्वाति का संदेशा पाते ही वे हाजिरी लगाने पहुंच गए. चाय पीतेपीते उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति, जब तक मैं हूं, तुम चिंता क्यों करती हो. अपना अपनों के काम नहीं आएगा, तो किस के काम आएगा.’’

चौधरी राम सिंह के मुंह से यह बात सुन कर स्वाति हौले से मुसकराई और बोली, ‘‘चौधरी साहब, हम भी तो सब से ज्यादा आप पर ही भरोसा करते हैं, तभी तो सब से पहले आप को याद किया.’’

चौधरी राम सिंह तो पहले से ही बावले हुए पड़े थे, यह सुन कर और बावले हो गए. उन्हें लगा कि स्वाति का दिल जीतने का उन के पास यह सुनहरा मौका है. उन्होंने यह मामला निबटाने के लिए पूरी ताकत लगा दी.

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : जटपुर गांव के आसपास के जंगलों में एक मादा गुलदारनी का खौफ था. इस गांव में ब्याह कर आई स्वाति का भी अपनी ससुराल में दबदबा था. उस ने गांव के चौधरी राम सिंह को अपनी तरफ कर लिया था. वह गांव के मनचलों के साथ भी सैल्फी खिंचवाती थी. इस बीच स्वाति के पति नरदेव पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगा. स्वाति ने चौधरी राम सिंह को यह मामला सुलझाने के लिए कहा. अब पढि़ए आगे…

बाबूराम ने चौधरी राम सिंह की बात का मान रखते हुए कहा, ‘‘चौधरी साहब, आप की पगड़ी का मान रख रहा हूं, नहीं तो थाने में रिपोर्ट लिखवा कर नरदेव को जेल भिजवा कर ही दम लेता. बस चौधरी साहब, हमारा भी इतना मान रख लो कि नरदेव से माफी मंगवा दो.’’

रात के साए में चौधरी राम सिंह स्वाति और नरदेव को ले कर बाबूराम के घर पहुंचे. नरदेव ने बाबूराम से माफी मांग ली और आइंदा कभी ऐसी हरकत न करने की कसम खाई. सब ने यही समझा कि नरदेव के माफी मांगने से पहले ही मामले का खात्मा हो गया.

चौधरी राम सिंह भी मामले को निबटा समझ कर यही सोच रहे थे कि अब तो स्वाति उन के एहसान तले दब जाएगी और उन के फंदे में फंस जाएगी, लेकिन स्वाति फंदे में फंसने वाली कहां थी. वह उन्हें तरसाती रही.

उस रात चौधरी राम सिंह को खबर मिली कि जंगल में ‘गुलदारनी’ ने एक पिंजरा और पलट दिया है, लेकिन जंगल महकमे का अफसर भी उसे पकड़ने पर आमादा था. उस का मानना है कि बकरे की अम्मां कब तक खैर मनाएगी. आज नहीं तो कल पिंजरे में फंस कर रहेगी.

उधर गांव के खिलाड़ी लड़कों को जब यह पता चला कि स्वाति भाभी और नरदेव भैया का बाबूराम से कोई पंगा हो गया है और वे परेशानी में हैं तो उन अल्हड़ लड़कों ने बिना सोचेसमझे स्वाति भाभी को खुश करने के लिए बाबूराम के बेटे कुंदन की धुनाई कर दी.

यह खबर सुन कर स्वाति बहुत खुश हुई. उस ने लड़कों को बुलवा कर उन के साथ सैल्फी ली और उन्हें मिठाई खिलाई.

लेकिन ऐसा करते हुए स्वाति भूल गई कि बाबूराम का नासूर अभी हरा है. जब बाबूराम को यह पता चला कि कुंदन की पिटाई करने वाले लड़कों को स्वाति ने मिठाई खिलाई है, तो वह आगबबूला हो गया. उसे लगा कि स्वाति ने उसे बेवकूफ बनाया है. एक ओर तो नरदेव से माफी मंगवा दी, वहीं दूसरी ओर उस के लड़के को पिटवा दिया.

इस मामले को सुलझाने में भी एक बार फिर चौधरी राम सिंह काम आए. उन्होंने समझाबुझा कर किसी तरह बाबूराम को शांत किया.

लेकिन स्वाति और नरदेव से भी जलने वाले कम न थे. उन का पड़ोसी हरिया उन से खूब जलता था. हरिया का नरदेव से किसी न किसी बात पर पंगा होता ही रहता था. कोई भी एकदूसरे को नीचा दिखाने का मौका नहीं चूकता था. स्वाति के बढ़ते दबदबे से भी हरिया चिंतित रहता था.

नरदेव पर लगा छेड़खानी का आरोप हरिया के लिए स्वाति और नरदेव को नीचा दिखाने का सुनहरा मौका था. वह उन की गांवभर में बदनामी तो कर ही रहा था, मामले को किसी तरह दबने भी नहीं देना चाहता था. उस ने बाबूराम की कमजोर नब्ज पकड़ी.

हरिया दारू की बोतल ले कर बाबूराम के चबूतरे पर पहुंचा. नमकीन की थैली उस ने कुरते की जेब में ठूंस रखी थी.

हरिया के हाथ में बोतल देख कर बाबूराम की आंखें चमक उठीं, ‘‘क्या ले आया रे हरिया आज?’’

‘‘कुछ नहीं, बस लालपरी है. सोचा, बहुत दिन हो गए बड़े भैया के साथ दो घूंट लगा लूं.’’

यह सुन कर बाबूराम हरिया के लिए चारपाई पर जगह बनाने के लिए ऊपर को खिसक गया.

‘‘बैठो, आराम से बैठो हरिया. यह तुम्हारा ही तो घर है.’’

‘‘हांहां, बाबूराम भैया. हम ने कब इसे गैरों का घर समझा है. यह तो तुम हो जो हमें मुसीबत में भी याद नहीं करते.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है हरिया, बस बात को क्या बढ़ाएं?’’

इसी बीच बाबूराम घर से 2 गिलास और नमकीन के लिए प्लेट ले आया और कोठरी का दरवाजा बंद कर दिया.

हरिया ने पैग बनाने शुरू किए और लालपरी का रंग धीरेधीरे बाबूराम पर चढ़ना शुरू हो गया.

मौका ताड़ कर हरिया ने पांसा फेंका, ‘‘बाबूराम भैया, हमारे और तुम्हारे संबंध बचपन से कितने गाढ़े हैं. तुम्हारी बेटी को नरदेव ने छेड़ा तो छुरी अपने दिल पर चल गई भैया. तुम्हारी बेटी हमारी बेटी भी तो है. तुम ने इस बेइज्जती को सहन कैसे कर लिया भैया?’’

‘‘हरिया, हम गरीब आदमी जो हैं. पुलिस का केस बन जाए तो दिनरात दौड़ना पड़ता है. पुलिस भी पैसे वालों और दमदार लोगों की सुनती है. बस, यही सोच कर हम रुक गए.’’

‘‘बाबूराम भैया, तुम पुलिस का चक्कर छोड़ो. गांव में पंचायत बिठवा दो. 5 जूते तो उस को अपनी बेटी से लगवा ही दो.’’

‘‘हरिया, मैं ने इस पर भी बहुत सोचविचार किया, लेकिन पंचायत के पंच कौन बनेंगे…? कौन जाने?’’

‘‘तो क्या भैया हम पर यकीन नहीं है? पंचायत में अपने पंच बनवाने का माद्दा तो हम भी रखते हैं.’’

‘‘तो ठीक है हरिया, तू ही बिसात बिछा. गांव वालों से बात कर. चौधरी से बात कर. वही कुछ कर सकते हैं. गांव में उन की धाक है. समझदार भी हैं और निष्पक्ष भी.’’

हरिया ने अगले दिन से ही स्वाति और नरदेव के खिलाफ गोटी बिछानी शुरू कर दी.

चौधरी राम सिंह के कानों में खबर पहुंची तो वे सीधे स्वाति के पास पहुंचे. उन्होंने स्वाति को चेताते हुए कहा, ‘‘स्वाति, पंचायत बैठ गई, तो बेइज्जती होगी. इस आग पर बिना पानी डाले काम न चलेगा. प्रधान तेजप्रताप न माना, तो पंचायत बैठ कर ही रहेगी.’’

‘‘तो फिर क्या करना होगा…?’’

‘‘प्रधान मेरे हाथ में नहीं है. उस की लगाम कसने की कोई तरकीब सोचो. यह सारी आग पंचायत की हरिया की लगाई हुई है.’’

स्वाति समझ गई कि चौधरी राम सिंह जितना इस मामले में कर सकते थे, उन्होंने कर लिया. प्रधान का शिकार किए बिना काम नहीं चलेगा.

स्वाति ने अपना दिमाग लड़ाया. प्रधान की पत्नी रत्नो से उस की बातचीत तो है, लेकिन दूसरा महल्ला होने के चलते उस का उधर कम ही आनाजाना है. स्वाति की जानकारी में था कि रत्नो देशी घी बड़ा अच्छा तैयार करती है. उसी का बहाना बना कर वह प्रधानजी के घर पहुंच गई.

‘‘स्वाति बेटी, तू किसी के हाथ खबर भिजवा देती तो मैं देशी घी तेरे घर ही पहुंचवा देती.’’

‘‘चाची, तुम्हारे दर्शन करे बहुत दिन हो गए थे. मैं ने सोचा तुम्हारे दर्शन कर लूं. आनेजाने से ही तो जानपहचान बढ़ती है.’’

‘‘हां, सो तो है. तू भी कोई दावत का इतंजाम कर. खुशखबरी सुना तो हम भी तेरे घर आएं.’’

‘‘यह भली कही चाचीजी. आज ही लो. शाम को प्रधानजी की और तुम्हारी दावत पक्की.’’

स्वाति को तो मौका मिलना चाहिए था. उस ने प्रधानजी और रत्नो की दावत का पूरा इंतजाम कर लिया.

स्वाति ने खूब अच्छे पकवान बनाए. प्रधानजी के बराबर में बैठ कर उन की खूब सेवा की. खाने के बाद चाय की प्याली पेश की गई.

स्वाति जानती थी कि खाने के वक्त ज्यादा बातें नहीं हो पातीं, लेकिन चाय का समय तो होता ही इन बातों के लिए है.

स्वाति ने दांव चला, ‘‘रत्नो चाची, ऐसा लगता है कि आप कभी बाहर घूमने नहीं जातीं?’’

‘‘यह बात प्रधानजी से कहा. हम कितना चाहते हैं कि हरिद्वार के दर्शन कर आएं, लेकिन ये कभी ले जाते ही नहीं.’’

अब तक प्रधानजी स्वाति के मोहपाश में फंस चुके थे. उन्होंने भी अपने तरकश से तीर निकाला, ‘‘स्वाति, तुम्हीं बताओ, क्या अकेले घूमना अच्छा लगता है. कोई साथ हो…’’

‘‘हम हैं न प्रधानजी. नरदेव और मैं चलूंगी आप दोनों के साथ. और हमारी कार किस काम आएगी,’’ स्वाति ने प्रधानजी की बात को लपकते हुए और उस का समाधान करते हुए कहा.

2 दिन बाद वे चारों हरिद्वार में घूम रहे थे. रात में फिल्म का शो देखा. होटल में ठहरे. सारा बंदोबस्त स्वाति का था. गंगा में चारों ने एक ही जगह स्नान किया. प्रधानजी न चाह कर भी कनखियों से स्वाति के भीगे कमसिन बदन को देखते रहे.

स्वाति सब समझ रही थी कि प्रधानजी मन हार चुके हैं. स्वाति ने जब देखा कि प्रधानजी उस की बात को अब ‘न’ नहीं करेंगे तो मौका देख कर कहा, ‘‘प्रधानजी, यह हरिया हमारा पुराना दुश्मन है. सारा मामला सुलझ गया तो पंचायत की बात उठा दी. अब आप ही बताओ कि क्या गांव में ऐसे बैर बढ़ाना चाहिए?’’

प्रधानजी तो स्वाति पर लट्टू हो चुके थे. स्वाति का दिल जीतने के लिए उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति, मेरे होते हुए तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. मेरे होते हुए पंचायत नहीं होगी. बाबूराम को मैं समझा दूंगा, हरिया को तुम देखो. वह अडि़यल बैल है. उस से मेरी नहीं बनती है.’’

स्वाति प्रधानजी के मुंह से यही तो सुनना चाहती थी. उस का ‘मिशन प्रधान’ कामयाब हुआ.

चौधरी राम सिंह को जब पता चला कि स्वाति प्रधानजी के साथ हरिद्वार घूम आई है तो उन की काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई. उन्हें उन की ‘गुलदारनी’ के बारे में सूचना मिली कि उस ने आज एक नया तगड़ा शिकार किया है.

उस रात 9 बजे चौधरी राम सिंह के पास स्वाति का फोन आया. वह उन से तुरंत मिलना चाहती थी. चौधरी सबकुछ भूल कर स्वाति के घर की ओर लपके, मानो उन्हें दुनिया की दौलत मिल गई हो.

नरदेव चौधरी राम सिंह को घर के अंदर ले गया. स्वाति गुलाबी गाउन पहने सोफे पर बैठी थी. उस ने चौधरी को भी सोफे पर ही बैठा लिया और कहा, ‘‘चौधरी साहब, हमारे तो बस आप ही हो. आप के कहे बिना तो हम एक कदम नहीं चलते.

‘‘आप ने प्रधानजी को मना लेने की बात कही थी, हम ने उन्हें मना लिया. अब बचा हरिया, उस से एक बार मिलाने का जुगाड़ बिठा दो, तो बात बन जाए.’’

आज रसोईघर में चाय नरदेव बना रहा था. स्वाति बेझिझक बोल रही थी, लेकिन चौधरी को समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने मन की बात कहें कि स्वाति की बात का जवाब दें.

स्वाति के साथ अकेले बैठने का मौका, वह भी रात में उन्हें पहली बार मिला था. इस से पहले कि वे अपने मन की कुछ कह पाते, नरदेव चाय ले कर आ गया.

चौधरी राम सिंह मन मसोस कर रह गए. स्वाति की बात का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हरिया, तुम्हारे घर तो आएगा नहीं, उसे किसी बहाने से मुझे अपने घर की बैठक पर ही बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘चौधरी साहब, आप किसी बहाने से भी बस हरिया को अपनी बैठक पर बुला लो. बस, फिर मैं ने जानी या उस ने जानी.’’

चौधरी राम सिंह स्वाति की बात को कैसे टालते? उन्होंने अगले दिन ही शाम को हरिया को अपनी बैठक पर बुला लिया.

दिन तकरीबन ढल चुका था. हरिया के आते ही उन्होंने चुपके से स्वाति को फोन कर दिया.

स्वाति नरदेव के साथ चौधरी राम सिंह की बैठक पर पहुंची. हरिया को देखते ही वह भड़क गई, ‘‘क्यों रे हरिया, तू हमारी बहुत इज्जत उतारने में लगा है. बहुत पंचायत कराने में लगा है. बोल अभी उतारू तेरी इज्जत. अभी फाड़ूं अपना ब्लाउज और शोर मचाऊं कि हरिया ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला है.’’

स्वाति का यह गुस्साया रूप देख कर हरिया तो हरिया चौधरी राम सिंह भी दंग रह गए. हरिया को लगा कि उस ने किस से पंगा मोल ले लिया. यहां तो लेने के देने पड़ने की नौबत आ गई. कहां तो वह नरदेव को जूते लगवाने की बिसात बिछा रहा था, कहां खुद जूते खाने की नौबत आ गई.

हरिया ने अपने बचाव का रास्ता ढूंढ़ते हुए कहा, ‘‘न जी न, मैं कोई पंचायत नहीं करवा रहा. मैं तो अपने घर जा रहा हूं.’’

उस दिन से गांव में हरिया की बोलती बंद हो गई. चौधरी के मन में भी डर बैठ गया कि जो हरिया को ऐसी धमकी दे सकती है, वह एक दिन उस के साथ भी ऐसा कर सकती है.

अगले दिन चौधरी राम सिंह को खबर मिली कि पिछली रात जंगल की ‘गुलदारनी’ ने एक पिंजरा और पलट दिया और पिंजरा लगाने वालों को भी घायल कर दिया.

चौधरी राम सिंह को स्वाति अभी भी बुलाती है, पर चौधरी या तो कोई बहाना बना देते हैं या फिर अपनी पत्नी के साथ ही स्वाति के घर जाते हैं. स्वाति अभी भी उन की खूब सेवा करती है. सुना है कि बिल्ली प्रजाति के जानवर अपने शिकार पर वापस लौटते हैं.

प्यार : निखिल अपनी पत्नी से क्यों दूर होने लगा था

कहने को निखिल मुझ से बहुत प्यार करते हैं. सभी कहते हैं कि निखिल जैसा पति संयोग से मिलता है. घर में सभी सुखसुविधाएं हैं. मैं जो चाहती हूं वह मुझे मिल जाता है लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि मैं इनसान हूं. मुझे घर में सजी रखी वस्तुओं से ज्यादा छोटेछोटे खुशी के पलों की जरूरत है.

शादी के इतने साल बाद भी मुझे यह याद नहीं पड़ता कि कभी निखिल ने मेरे पास बैठ कर मेरा हाथ पकड़ कर यह पूछा हो कि मेघा, तुम खुश तो हो या मैं तुम्हें उतना समय नहीं दे पाता जितना मुझे देना चाहिए लेकिन फिर भी मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. निखिल और मुझ में हमेशा एक दूरी ही रही. मैं अपने उस दोस्त को निखिल में कभी नहीं देख पाई जो एक लड़की अपने पति में ढूंढ़ती है. मैं कभी अपने मन की बात निखिल से नहीं कह पाई. मुझे निखिल के रूप में हमसफर तो मिला लेकिन साथी कभी नहीं मिला. इतने अपनों के होते हुए भी आज मैं बिलकुल अकेली हूं. जिस रिश्ते में मैं ने प्यार की उम्मीद की थी, मेरे उसी रिश्ते में इतनी दूरी है कि एक समुद्र भी छोटा पड़ जाए. मैं अपने इस रिश्ते को कभी प्यार का नाम नहीं दे पाई. मेरे लिए वह बस, एक समझौता ही बन कर रह गया जिसे मुझे निभाना था…चाहे घुटघुट कर ही सही. मैं ने धीरेधीरे अपने हालात से समझौता करना सीख लिया था.

 

अपने आसपास से छोटीछोटी खुशियों के पल समेट कर उन्हीं को अपने जीने की वजह बना लिया था. मैं ने इस के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली थी, जहां बच्चों की छोटीछोटी खुशियों में मैं अपनी खुशियां भी ढूंढ़ लेती थी. बच्चों की प्यारी और मासूमियत भरी बातें मुझे जीने का हौसला देती थीं. किसी इनसान के पास अगर उस के अपनों का प्यार होता है तो वह बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना भी आसानी से कर लेता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उस के अपने उस के साथ हैं. लेकिन उसी प्यार की कमी उसे अंदर से तोड़ देती है, बिखरने लगता है सबकुछ…मैं भी टूट कर बिखर रही थी लेकिन मेरे अंदर का टूटना व बिखरना किसी ने नहीं देखा. जिंदगी का यह सफर सीधा चला जा रहा था कि अचानक उस में एक मोड़ आ गया और मेरी जिंदगी ने एक नई राह पर कदम रख दिया. मेरे दिल की सूखी जमीन पर जैसे कचनार के फूल खिलने लगे और उसी के साथ मेरे अरमान भी महकने लगे. स्कूल में एक नए टीचर समीर की नियुक्ति हुई. वह विचारों से जितने सुलझे थे उन का व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था. उन से बात कर के दिल को न केवल बहुत राहत मिलती थी बल्कि वक्त का भी एहसास नहीं रहता था. समीर कहा करते थे कि इनसान जो चाहता है उसे हासिल करने की हिम्मत खुद उस में होनी चाहिए. एक दिन बातों ही बातों में समीर ने पूछ लिया, ‘मेघा, तुम इतनी अलगअलग सी क्यों रहती हो? किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती हो. क्यों तुम ने अपने अंदर की उस लड़की को कैद कर के रखा है, जो जीना चाहती है? क्या तुम्हारा दिल नहीं करता कि उड़ कर उस आसमान को छू लूं…एक बार अपने अंदर की उस लड़की को आजाद कर के देखो, जिंदगी कितनी खूबसूरत है.’ समीर की बातें सुनने के बाद मुझे लगने लगा था कि मेरा भी कुछ अस्तित्व है और मुझे भी अपनी जिंदगी खुशियों के साथ जीने का हक है.

यों घुटघुट कर जीने के लिए मैं ने जन्म नहीं लिया है. इस तरह मुझे मेरे होने का एहसास दिया समीर ने और मुझे लगने लगा था जैसे मुझे वह दोस्त व साथी मिल गया है जिस की मुझे तलाश थी, जिसे मैं ने हमेशा निखिल में ढूंढ़ा लेकिन मुझे कभी नहीं मिला. मैं फिर से सपने देखना चाहती थी लेकिन मन में एक डर था कि यह सही नहीं है. समीर की आंखों में एक कशिश थी जो मुझे मुझ से ही चुराती जा रही थी. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था और मैं कहीं न कहीं अपने को बचाने की कोशिश कर रही थी लेकिन असफल होती जा रही थी. मन कह रहा था कि सभी पिंजरे तोड़ कर खुले आकाश में उड़ जाऊं पर इस दुनिया की रस्मोरिवाज की बेडि़यां, जिन में मैं इस कदर जकड़ी हुई थी कि उन्हें तोड़ने की हिम्मत नहीं थी मुझ में. मेरे अंदर एक द्वंद्व चल रहा था. दिल और दिमाग की लड़ाई में कभी दिल दिमाग पर हावी हो जाता तो कभी दिमाग दिल पर. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. समीर का बातें करतेकरते मेरे हाथ को पकड़ना, मुझे छूने की कोशिश करना, मुझे अच्छा लगता था. उन के कहे हर एक शब्द में मुझे अपनी जिंदगी आसान करने की राह नजर आती थी. मेरा मन करने लगा था कि मैं दुनिया को उन की नजरों से देखूं, उन के कदमों से चल कर अपनी राहें चुन लूं. भुला दूं कि मेरी शादी हो चुकी है. पता नहीं वह सब क्या था जो मेरे अंदर चल रहा था. एक अजीब सी कशमकश थी.

अपने अंदर की इस हलचल को छिपाने की मैं कोशिश करती रहती थी. डरती थी कि कहीं मेरे जज्बात मेरी आंखों में नजर न आ जाएं और कोई कुछ समझे, खासकर समीर को कुछ समझ में आए. समीर जब भी मेरे सामने होते थे तो मन करता था कि उन्हें अपलक देखती रहूं और यों ही जिंदगी तमाम हो जाए. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं और क्या न करूं. दिमाग कहता था कि मुझे समीर से दूरी बना कर रखनी चाहिए और दिल उन की ओर खिंचता ही जा रहा था. दिमाग कहता था कि नौकरी ही छोड़ दूं और दिल मेरे कदमों को खुद ब खुद उस राह पर डाल देता था जो समीर की तरफ जाती थी. बहुत सोचने के बाद मैं ने दिमाग की बात मानने में ही भलाई समझी और फैसला किया कि अपने बढ़ते कदमों को रोक लूंगी. मैं ने समीर से कतराना शुरू कर दिया. अब मैं बस, काम की ही बात करती थी. समीर ने कई बार मुझ से बात करने की कोशिश की लेकिन मैं ने टाल दिया. वह परेशानी जो अब तक मैं ने अपने मन में छिपा रखी थी अब समीर की आंखों में दिखने लगी थी और मैं अपनेआप को यह कह कर समझाने लगी थी कि क्या हुआ अगर समीर मेरे पास नहीं हैं, कम से कम मेरे सामने तो हैं. क्या हुआ अगर हमसफर नहीं बन सकते, मगर वह मेरे साथ हमेशा रहेंगे मेरी यादों में…मेरे जीने के लिए तो इतना ही काफी है. मैं अपने विचारों में खोई समीर से दूर, बहुत दूर जाने के मनसूबे बना रही थी कि अगले दिन समीर स्कूल नहीं आए. मेरी नजरें उन्हें ढूंढ़ रही थीं लेकिन किसी से पूछने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि जब अपने मन में ही चोर हो तो सारी दुनिया ही थानेदार नजर आने लगती है. किसी तरह वह दिन बीता पर घर आने के बाद भी अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी.

अगले दिन भी समीर स्कूल नहीं आए और इसी तरह 4 दिन निकल गए. मेरी बेचैनी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी फिर बहुत हिम्मत कर के सोचा कि फोन ही कर लेती हूं. कुछ तो पता चलेगा. मैं ने फोन किया तो उधर से सीमा ने फोन उठाया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘अरे, सीमा तुम, कब आईं होस्टल से?’’ ‘‘दीदी, मुझे तो आए 2 दिन हो गए,’’ सीमा ने बताया. ‘‘सब ठीक तो है न…समीरजी भी 4 दिन से स्कूल नहीं आ रहे हैं.’’ ‘‘दीदी, इसीलिए तो मैं यहां आई हूं. भैया की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है और मेरी बातों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा. न तो ठीक से कुछ खा रहे हैं और न ही समय पर दवा ले रहे हैं. मैं तो कहकह कर थक गई. आप ही आ कर समझा दीजिए न.’’ मैं सीमा को मना नहीं कर पाई और अगले दिन आने को कह दिया. अगले दिन समीर के घर जा कर घंटी बजाई तो सीमा ने ही दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह बोली, ‘‘अंदर आइए न, मेघाजी, मैं तो आप का ही इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘कैसी हो, सीमा,’’ मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है.’’ ‘‘पढ़ाई तो ठीक चल रही है, मेघाजी,’’ सीमा बोली, ‘‘बस, समीर भैया की चिंता है. हम दोनों का एकदूसरे के सिवा है ही कौन और मैं तो होस्टल में रहती हूं और भैया यहां पर बिलकुल अकेले. जब से मैं घर आई हूं देख रही हूं कि भैया बहुत उदास रहने लगे हैं. आप ही देखो न कितना बुखार है लेकिन ढंग से दवा भी नहीं लेते. आप तो उन की दोस्त हैं, आप ही बात कीजिए, शायद उन की समझ में आ जाए.’’ मैं सीमा के साथ समीर के कमरे में गई तो वह लेटे हुए थे. बहुत कमजोर लग रहे थे. मैं ने माथे पर हाथ रखा तो बुखार अभी भी था. मैं ने सीमा से कुछ खाने के लिए और ठंडा पानी लाने के लिए कहा और समीर को बैठने में मदद करने लगी. सीमा खिचड़ी ले आई.

मैं खिलाने लगी तो समीर बच्चों की तरह न खाने की जिद करने लगे. मैं ने कहा, ‘‘समीरजी, आप अपना नहीं तो कम से कम सीमा का तो खयाल कीजिए… वह कितनी परेशान है.’’ खैर, उन्हें खिचड़ी खिला कर दवा दी और लिटा दिया. मैं माथे पर पानी की पट्टियां रखने लगी. कुछ देर बाद बुखार कम हो गया. समीर सो गए तो मैं ने सीमा से कहा, ‘‘सीमा, मैं जा रही हूं. तुम अपने भैया का ध्यान रखना. अगर हो सका तो मैं कल फिर आने की कोशिश करूंगी.’’ मैं घर आ गई लेकिन दिमाग में एक सवाल घूम रहा था कि क्या समीर की इस हालत की जिम्मेदार मैं हूं? क्या मेरी बेरुखी से वह इतने आहत हो गए कि उन की तबीयत खराब हो गई. मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. ये बातें सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. फोन की घंटी की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. घड़ी में सुबह के 8 बज चुके थे. आज भी स्कूल की छुट्टी हो गई, यह सोचते हुए मैं ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ सीमा थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘समीरजी की तबीयत कैसी है?’’ ‘‘मेघाजी, भैया ठीक हैं. बस, मुझे एक जरूरी काम से अपनी सहेली के साथ बाहर जाना है और भैया अभी इस लायक नहीं हैं कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सके इसलिए आप की मदद की जरूरत है. क्या आप कुछ देर के लिए यहां आ सकती हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ और फोन रख दिया. मैं तैयार हो कर वहां पहुंची तो सीमा और उस की सहेली मेरा ही इंतजार कर रही थीं. वह मुझे थैंक्स कहती हुई चली गई. मैं ने समीर के कमरे में जा कर देखा तो वह सो रहे थे. मैं ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ गई और मेज पर रखी किताब के पन्ने पलटने लगी. थोड़ी देर बाद समीर के कमरे में कुछ आवाज हुई…मैं ने जा कर देखा तो समीर अपने बिस्तर पर नहीं थे. शायद बाथरूम में थे, मैं वहां से आ गई और रसोई में जा कर चाय का पानी चूल्हे पर रख दिया. चाय बना कर जब मैं बाहर आई तो समीर नहा चुके थे. उन की तबीयत पहले से ठीक लग रही थी लेकिन कमजोरी बहुत थी. मुझे देख कर वह चौंक गए. शायद उन्हें पता नहीं था कि मैं वहां पर हूं. ‘‘मेघाजी…आप, सीमा कहां है?’’ ‘‘उसे किसी जरूरी काम से जाना था, आप की तबीयत ठीक नहीं थी. अकेला छोड़ कर कैसे जाती इसलिए मुझे बुला लिया. आप चाय पीजिए, वह आ जाएगी.’’ ‘‘सीमा भी पागल है. अगर उसे जाना था तो चली जाती…आप को क्यों परेशान किया,’’ समीर बोले. मैं ने समीर की तरफ देखा और चुपचाप चाय का प्याला उन्हें थमा दिया.

हम खामोशी से चाय पीने लगे. कुछ भी कहने की हिम्मत न तो मुझ में थी और न शायद उन में. चाय पी कर मैं बर्तन रसोई में रखने के लिए उठी तो समीर ने मेरा हाथ पकड़ लिया. एक सिहरन सी दौड़ गई मेरे पूरे शरीर में. टे्र हाथ से छूट जाती अगर मैं उसे मेज पर न रख देती. मैं ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो उन्होंने और कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे लिए यह सबकुछ क्यों किया?’’ समीर के मुंह से अपने लिए पहली बार मेघाजी की जगह मेघा और आप की जगह तुम का उच्चारण सुन कर मैं चौंक गई. इस तरह से मुझे पुकारने का अधिकार उन्होंने कब ले लिया. मैं कुछ बोल ही नहीं पा रही थी कि उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. तुम ने मेरे लिए यह सब क्यों किया?’’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने अपना हाथ छुड़ाया और कहा, ‘‘एक दोस्त होने के नाते मैं इतना तो आप के लिए कर ही सकती थी, इतना भी अधिकार नहीं है मेरा?’’ ‘‘पहले तुम यह बताओ कि क्या हमारे बीच अभी भी सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है? मेघा, तुम्हारा अधिकार क्या है और कितना है इस का फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ समीर बोले. मैं ने अपनी नजरें उठाईं तो समीर मुझे ही देख रहे थे. कितना दर्द, कितना अपनापन था उन की आंखों में. दिल चाह रहा था कि कह दूं…समीर, मैं आप से बेइंतहा प्यार करती हूं…नहीं जी सकती मैं आप के बिना. अपने सभी जज्बात, सभी एहसास उन के सामने रख दूं…उन की बांहों में समा जाऊं और सबकुछ भुला दूं लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे. बिना कुछ कहे ही हम एकदूसरे के जज्बात और हालात समझ रहे थे. मुझे भी यह एहसास हो चुका था कि समीर भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं जितना मैं उन्हें करती हूं. वह भी अपने प्यार की मौन सहमति मेरी आंखों में पढ़ चुके थे और शायद उस अस्वीकृति को भी पढ़ लिया था उन्होंने. कुछ नहीं बोल पाए…हम बस, यों ही जाने कितनी देर बैठे रहे. फिर अचानक समीर ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और मेरे माथे को चूम लिया. अब मैं खुद को रोक नहीं पाई और उन की बांहों में समा गई. कितनी देर हम रोते रहे मुझे नहीं पता. दिल चाह रहा था कि यह पल यहीं रुक जाए और हम यों ही बैठे रहें. फिर समीर ने कहा, ‘‘मेघा, तुम जहां भी रहो खुश रहना और एक बात याद रखना कि मुझे तुम्हारी आंखों में आंसू और उदासी अच्छी नहीं लगती.

मैं चाहे तुम्हारे पास न रहूं, लेकिन तुम्हारे साथ हमेशा रहूंगा. बहुत देर हो गई है, अब तुम जाओ.’’ मैं ने अपना बैग उठाया और वहां से अपने घर आने के लिए निकल पड़ी. इसी प्यार ने एक बार फिर मुझे नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं समीर से कभी नहीं मिलूंगी. आज तो उस तूफान को हम पार कर गए, खुद को संभाल लिया, लेकिन दोबारा मैं ऐसा शायद न कर पाऊं और मैं नहीं चाहती थी कि समीर के आगे कमजोर पड़ जाऊं. मैं अपने प्यार को अपना तो नहीं सकती थी लेकिन उसी प्यार को अपनी शक्ति बना कर अपने फर्ज के रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी थी

मैं ने अगले दिन स्कूल में अपना इस्तीफा भेज दिया. मैं ने एक बार फिर प्यार और समझौते में से समझौते को चुन लिया. मेरे अंदर जो प्यार समीर ने जगाया वह एहसास, उन की कही हर एक बात, उन के साथ बिताए हर एक पल मेरी जिंदगी का वह अनमोल खजाना है, जो न तो कभी कोई देख सकता है और न ही मुझ से छीन सकता है. कितना अजीब सा एहसास है न यह प्यार, कब किस से क्या करवाएगा, कोई नहीं जानता. यह एहसास किसी के लिए जान देने पर मजबूर करता है तो किसी की जान लेने पर भी मजबूर कर सकता है. अब आप ही बताइए कि आप प्यार को किस तरह से परिभाषित करेंगे, क्योंकि मेरे लिए तो यह एक ऐसी पहेली है जो कम से कम मैं तो नहीं सुलझा पाई. मैं नहीं जानती कि मैं ने इतना प्यार करते हुए भी समीर को क्यों नहीं अपनाया और अपनी शादी के समझौते.

जातपांत : निर्मला से क्यों नाराज था उसका परिवार

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई.

निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो.

इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं.

तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं.

मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

मृगतृष्णा: क्या विजय और राखी की शादी हुई

लौकडाउन में काम छूट जाने के चलते लखन अपने परिवार समेत पैदल ही दिल्ली से अपने गांव मीरपट्टी लौट आया था.

लखन के परिवार में उस की पत्नी के अलावा एक बेटी और बेटा थे. बेटी का नाम राखी और बेटे का नाम सूरज था.

दिल्ली में राखी अपनी मां के साथ दूसरों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी. सूरज अभी छोटा था और सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था. लखन कपड़े की एक फैक्टरी में मजदूर था.

लखन गांव के जमींदार चौधरी साहब का पुराना कारिंदा था, इसलिए चौधरी साहब ने तरस खा कर उसे खेत और बगीचे की देखभाल के लिए रख लिया.

लखन की पत्नी और बेटी राखी चौधरी साहब के घर में महरी का काम करने लगीं. इस तरह परिवार की गुजरबसर का इंतजाम हो गया.

राखी 17 साल की थी और गजब की खूबसूरत थी. कदकाठी लंबी, गोरी छरहरी काया, बड़ीबड़ी आंखें, मासूम चेहरा और चंचल स्वभाव के चलते वह किसी की भी नजरों में चढ़ जाती थी.

राखी को अपनी खूबसूरती का एहसास था. वह उस के प्रदर्शन में कोई कोताही नहीं बरतती थी. उस का प्रेमी जुगल दिल्ली में राजमिस्त्री का काम करता था. लौकडाउन के चलते वह भी गांव वापस आ गया था.

गांव में जुगल को कोई काम नहीं मिल रहा था. वह दिल्ली लौटने के बारे में सोच रहा था. गांव में उसे राखी से मिलने का कभीकभार ही मौका मिलता था.

चौधरी साहब का सब से छोटा बेटा विजय पटना में रह कर पढ़ाई कर रहा था. छुट्टी में वह घर आया हुआ था और लौकडाउन हो जाने के चलते वहीं फंस गया था.

विजय ने एक दिन राखी को दालान में काम करते देखा, तो देखता ही रह गया. राखी की बिखरी हुई लटें, उभरी हुई छाती और कसा बदन देख कर विजय बेचैन हो उठा. वह उस से दोस्ती बढ़ाने की जुगत बैठाने लगा.

मौका देख कर विजय ने राखी से अपने मन की बात रखी, ‘‘राखी, मैं तुम्हें पसंद करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘छोटे मालिक, आप बड़े लोग हैं. और, आप मु?ा जैसी गरीब लड़की से शादी करेंगे…?’’ राखी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा.

‘‘राखी, जमाना बदल गया है. अब कोई बड़ाछोटा नहीं है…’’ विजय ने कहा.

राखी विजय के ?ांसे में आ तो गई, पर फिर भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह इस परिवार की बहू भी बन सकती है. उस ने यह बात जुगल को बताई.

जुगल ने समझते हुए कहा, ‘‘विजय बाबू शादी का ?ांसा दे कर तेरी जवानी को भोगना चाहते हैं. वे पढ़ेलिखे अमीर लोग हैं. किसी गरीब, 5वीं जमात पढ़ी लड़की से कभी शादी नहीं करेंगे.’’

जुगल के सम?ाने पर राखी सम?ा गई. एक दिन विजय ने अकेले में राखी को खेत के मचान पर बैठा कर बहलानेफुसलाने वाली बातें कीं, तो वह फिर से उस के ?ांसे में आ गई.

विजय राखी को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहा कि जुगल को राखी की किस्मत देख कर जलन हो रही है. लालच में पड़ कर राखी ने विजय को हां कह दी और पलभर में जुगल के प्यार को भुला बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो मेरी जान, आओ न रोमांस करें,’’ राखी के उभारों को सहलाते हुए विजय ने कहा, तो राखी का तनमन मचल उठा.

विजय ने अपने होंठ राखी के दहकते होंठ पर रख दिए और हाथों से उस के बदन को सहलाने लगा. राखी तड़प कर विजय से लिपट गई. दोनों ने जी भर कर अपनी प्यास बु?ाई.

अब विजय का जब भी मन करता, वह राखी के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाता था.

राखी भी अब जुगल से मिलने से कतराने लगी थी. जुगल सम?ा गया कि राखी विजय के चंगुल में फंस गई है. उस ने राखी को कई बार सम?ाने की कोशिश की, लेकिन वह जुगल से बात ही नहीं करना चाहती थी.

इसी बीच लौकडाउन खुल गया. मजदूर वापस काम पर जाने लगे थे. जुगल दिल्ली लौट आया. लखन को भी उस की फैक्टरी से काम पर आने का फोन आया. फैक्टरी का मालिक पहले से ज्यादा तनख्वाह देने के लिए तैयार था.

गांव में बस किसी तरह गुजरबसर हो रही थी, इसलिए लखन भी दिल्ली आने की सोच रहा था. यह बात राखी ने विजय को बताई.

‘‘मेरा भी कालेज शुरू होने वाला है.  मैं भी यहां से चला जाऊंगा. तुम भी अपने पिताजी के साथ दिल्ली चली जाओ. समय आने पर मैं शादी के लिए घर में बात करूंगा. ध्यान रहे कि समय से पहले किसी को इस की भनक न लगे,’’ विजय ने राखी को चूमते हुए सम?ाया.

राखी अपने पापा के साथ दिल्ली चली आई. विजय पटना चला गया. पहले तो उन दोनों में फोन पर बात होती रहती थी, पर धीरेधीरे विजय ने पढ़ाई का हवाला दे कर बात करना बंद कर दिया. राखी को विजय का यह बरताव अजीब लग रहा था.

एक दिन जुगल ने राखी को फोन कर के मिलने की गुजारिश की. राखी ने हां कर दी. वे एक पार्क में मिले. इधरउधर की बात करने के बाद जुगल ने जो बात बताई, वह सुन कर राखी का कलेजा धक से रह गया.

जुगल ने बताया, ‘‘राखी, विजय बाबू ने धूमधाम से अपनी जाति की एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी कर ली है.’’

राखी का मन जुगल की बात मानने को तैयार नहीं था. जुगल ने राखी को अपने मोबाइल फोन में विजय की शादी की तसवीर दिखाई. राखी को लगा कि जैसे आसमान उस के सिर पर गिर गया हो. वह जुगल को पकड़ कर रोने लगी.

‘‘चुप कर पगली, हर वादा सच्चा नहीं होता. जो भरम था उसे भूल जाना बेहतर है. मैं हूं न तेरे साथ,’’ राखी के माथे को सहलाते हुए जुगल ने प्यार से कहा.

राखी कुछ बोल नहीं पाई. बस, जुगल की गोद में मुंह छिपा कर रोती रही.

लेखक- सुजीत सिन्हा

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