आसरा- भाग 3: नासमझ जया को करन से प्यार करने का क्या सिला मिला

लेखक- मीनू सिंह

किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी. मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था.

उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी  होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई. नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे.

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इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए. उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला, ‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई.

जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे.

जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं. जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं.

एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया. जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया, ‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

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अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था. इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था.

जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं. मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा. उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया.

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अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

अस्तित्व- भाग 3: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

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ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

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तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

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‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लग जाती है.

आंखें- भाग 1: ट्रायल रूम में ड्रेस बदलती श्वेता की तस्वीरें क्या हो गईं वायरल

‘‘इस अलबम में ऐसा क्या है कि तुम इसे अपने पास रखे रहते हो?’’ विनोद ने अपने साथी सुरेश के हाथ में पोर्नोग्राफी का अलबम देख कर कहा.

‘‘टाइम पास करने और आंखें सेंकने के लिए क्या यह बुरा है?’’

‘‘बारबार एक ही चेहरा और शरीर देख कर कब तक दिल भरता है?’’

‘‘तब क्या करें? किसी गांव में नदी किनारे जा कर नहा रही महिलाओं का लाइव शो देखें?’’ सुरेश ने कहा.

‘‘लाइव शो…’’ कह कर विनोद खामोश हो गया.

‘‘क्या हुआ? क्या कोई अम्मां याद आ गई?’’

‘‘नहीं, अम्मां तो नहीं याद आई. मैं सोच यह रहा हूं कि यहां दर्जनों लेडीज रोज आती हैं. क्या लाइव शो यहां नहीं हो सकता?’’

‘‘अरे यहां लेडीज कपड़े खरीदने आती हैं या लाइव शो करने?’’

दोपहर का वक्त था. इस बड़े शोरूम का स्टाफ खाना खाने गया हुआ था. विनोद और सुरेश इस बड़े शो रूम में सेल्समैन थे. इन की सोचसमझ बिगड़े युवाओं जैसी थी. खाली समय में आपस में भद्दे मजाक करना, अश्लील किताबें पढ़ना और ब्लू फिल्में व पोर्नोग्राफी का अलबम रखना इन के शौक थे.

लाइव शो शब्द सुरेश के दिमाग में घूम रहा था. रात को शोरूम बंद होने के बाद वह अपने दोस्त सिकंदर, जो तसवीरों और शीशों की फिटिंग की दुकान चलाता था, के पास पहुंचा.

ड्रिंक का दौर शुरू हुआ. फिर सुरेश में उस से कहा, ‘‘सिकंदर, कई कारों में काले शीशे होते हैं, जिन के एक तरफ से ही दिखता है. क्या कोई ऐसा मिरर भी होता है जिस में दोनों तरफ से दिखता हो?’’

‘‘हां, होता है. उसे टू वे मिरर कहते हैं. क्या बात है?’’

‘‘मैं फोटो का अलबम देखतेदेखते बोर हो गया हूं. अब लाइव शो देखने का इरादा है.’’

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सुरेश की बात सुन कर सिकंदर हंस पड़ा. अगले 2 दिनों के बाद सिकंदर शोरूम के ट्रायल रूम में लगे मिरर का माप ले आया. फिर 2 दिन बाद जब मैनेजर और अन्य स्टाफ खाना खाने गया हुआ था, वह साधारण मिरर हटा कर टू वे मिरर फिट कर आया. एक प्लाईवुड से ढक कर टू वे मिरर की सचाई भी छिपा दी.

फिर यह सिलसिला चल पड़ा कि जब भी कोई खूबसूरत युवती ड्रैस ट्रायल या चेंज करने के लिए आती, विनोद या सुरेश चुपचाप ट्रायल रूम के साथ लगे स्टोर रूम में चले जाते और प्लाईवुड हटा न्यूड बौडी का नजारा करते.

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस लाइव शो को कैमरे में भी कैद कर लिया जाए?’’ विनोद के इस सवाल पर सुरेश मुसकराया.

अगले दिन उस के एक फोटोग्राफर मित्र ने एक कैमरा स्टोररूम में फिट कर दिया. अब विनोद और सुरेश कभी लाइव शो देखते तो कभी फोटो भी खींच लेते.

काफी दिन यह सिलसिला चलता रहा. गंदे दिमाग में घटिया विचार पनपते ही हैं, इसलिए विनोद और सुरेश यह सोचने लगे कि जिन की फोटो खींचते हैं उन को ब्लैकमेल कर पैसा भी कमाया जा सकता है.

उन के द्वारा बहुत से लोगों के फोटो खींचे गए थे, जिन में से एक श्वेता भी थी. श्वेता एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पद पर काम करती थी. उस के पति प्रशांत भी एक बड़ी कंपनी में मैनेजर थे, इसलिए घर में रुपएपैसे की आमद खूब थी. श्वेता द्वारा फैशन परिधान अकसर खरीदे जाते थे और कुछ दिन इस्तेमाल होने के बाद रिटायर कर दिए जाते थे. कौन सा परिधान कब खरीदा और उसे कितना पहना था श्वेता को कभी याद नहीं रहता था.

आज वह जल्दी घर आ गई थी. अभी बैठी ही थी कि कालबैल बजी. दरवाजा खोला तो देखा सामने कूरियर कंपनी का डिलिवर बौय था. श्वेता ने यंत्रचालित ढंग से साइन किया तो वह लड़का एक लिफाफा दे कर चला गया. श्वेता ने लिफाफा खोला तो अंदर पोस्टकार्ड साइज के 2 फोटो थे. उन्हें देखते ही वह जड़ हो गई.

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एक फोटोग्राफ में वह कपड़े उतार कर खड़ी थी, तो दूसरे में झुकती हुई एक परिधान पहन रही थी. फोटो काफी नजदीक से खींचे गए थे. लेकिन कब खींचे थे, किस ने खींचे थे पता नहीं चल रहा था.

चेहरा तो उसी का था यह तो स्पष्ट था, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं था कि किसी दूसरी युवती के शरीर पर उस का चेहरा चिपका दिया गया हो?

तभी कालबैल बजी. उस ने फुरती से लिफाफे में फोटो डाल कर इधरउधर देखा. कहां छिपाए यह लिफाफा वह सोच ही रही थी कि उसे अपना ब्रीफकेस याद आया. लिफाफा उस में डाल उस ने उसे सोफे के पीछे डाल दिया.

फिर की होल से देखा तो बाहर उस के पति प्रशांत खड़े मंदमंद मुसकरा रहे थे. दरवाजा खुलते ही अंदर आए और दरवाजा बंद कर के पत्नी को बांहों में भर लिया.

‘‘श्वेता डार्लिंग, क्या बात है, सो रही थीं क्या?’’

श्वेता बेहद मिलनसार और खुले स्वभाव की थी. पति से बहुत प्यार करती थी और प्यार का भरपूर प्रतिकार देती थी. मगर आज खामोश थी.

‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘जरा सिर भारी है. आप आज इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कंपनी के टूर पर गया था. काम जल्दी निबट गया इसलिए सीधा घर आ गया. चाय पियोगी? तुम आराम करो मैं किचन संभाल लूंगा.’’

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प्रशांत किचन में चला गया. तभी श्वेता का मोबाइल बज उठा. एक अनजान नंबर स्क्रीन पर उभरा. क्या पता उसी फोटो भेजने वाले का नंबर हो सोचते हुए श्वेता ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया.

तभी प्रशांत ट्रे में चाय और टोस्ट ले आए.

‘‘श्वेता यह सिर दर्द की गोली ले लो और टोस्ट खा लो. चाय भी पी लो. आज किचन का जिम्मा मेरा.’’

ट्रे थमा प्रशांत किचन में चले गए. इतने प्यारे पति को बताऊं या न बताऊं यह सोचते हुए श्वेता ने सिरदर्द की गोली बैड के नीचे डाल दी और टोस्ट चाय में भिगो कर खा लिया. फिर चाय पी और लेट गई. समस्या का क्या समाधान हो सकता है? यह सोचतेसोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला. आंखें खुली तो देखा पास ही लेटे प्रशांत पुस्तक में डूबे थे.

क्षमादान- भाग 3: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

जन्मदिन के अगले ही दिन क्षितिज ने बड़े नाटकीय अंदाज में उस के सामने विवाह प्रस्ताव रख दिया था.

‘तुम होश में तो हो, क्षितिज? तुम मुझ से कम से कम 3 वर्ष छोटे हो. तुम्हारे मातापिता क्या सोचेंगे?’

‘मातापिता नहीं हैं, भैयाभाभी हैं और उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं. मैं मना लूंगा उन्हें. तुम अपनी बात कहो.’

‘मुझे तो लगता है कि हम मित्र ही बने रहें तो ठीक है.’

‘नहीं, यह ठीक नहीं है. पिछले 2 सालों में हर पल मुझे यही लगता रहा है कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है,’ क्षितिज ने स्पष्ट किया था.

प्राची ने अपनी मां और पिताजी को जब इस विवाह प्रस्ताव के बारे में बताया तो मां देर तक हंसती रही थीं. उन की ठहाकेदार हंसी देख कर प्राची भौचक रह गई थी.

‘इस में इतना हंसने की क्या बात है, मां?’ वह पूछ बैठी थी.

‘हंसने की नहीं तो क्या रोने की बात है? तुम्हें क्या लगता है, वह तुम से विवाह करेगा? तुम्हीं कह रही हो कि वह तुम से 3 साल छोटा है.’

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‘क्षितिज इन सब बातों को नहीं मानता.’

‘हां, वह क्यों मानेगा. वह तो तुम्हारे मोटे वेतन के लिए विवाह कर ही लेगा पर यह विवाह चलेगा कितने दिन?’

‘क्या कह रही हो मां, क्षितिज की कमाई मुझ से कम नहीं है, और क्षितिज आयु के अंतर को खास महत्त्व नहीं देता.’

‘तो फिर देर किस बात की है. जाओ, जा कर शान से विवाह रचाओ, मातापिता की चिंता तो तुम्हें है नहीं.’

‘मुझे तो इस प्रस्ताव में कोई बुराई नजर नहीं आती,’ नीरज बाबू ने कहा.

‘तुम्हें दीनदुनिया की कुछ खबर भी है? लोग कितने स्वार्थी हो गए हैं?’ मां ने यह कह कर पापा को चुप करा दिया था.

क्षितिज नहीं माना. लगभग 6 माह तक दोनों के बीच तर्कवितर्क चलते रहे थे. आखिर दोनों ने विवाह करने का निर्णय लिया था, लेकिन विवाह कर प्राची के घर जाने पर दोनों का ऐसा स्वागत होगा, यह क्षितिज तो क्या प्राची ने भी नहीं सोचा था.

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जाने अभी और कितनी देर तक प्राची अतीत के विचारों में खोई रहती अगर क्षितिज ने झकझोर कर उस की तंद्रा भंग न की होती.

‘‘क्या हुआ? सो गई थीं क्या? लीजिए, गरमागरम कौफी,’’ क्षितिज ने जिस नाटकीय अंदाज में कौफी का प्याला प्राची की ओर बढ़ाया उसे देख कर वह हंस पड़ी.

‘‘तुम कौफी बना रहे थे? मुझ से क्यों नहीं कहा. मैं भी अच्छी कौफी बना लेती हूं.’’

‘‘क्यों, मेरी कौफी अच्छी नहीं बनी क्या?’’

‘‘नहीं, कौफी तो अच्छी है, पर तुम्हारे घर पहली कौफी मुझे बनानी चाहिए थी,’’ प्राची शर्माते हुए बोली.

‘‘सुनो, हमारी बहस में तो यह कौफी ठंडी हो जाएगी. यह कौफी खत्म कर के जल्दी से तैयार हो जाओ. आज हम खाना बाहर खाएंगे. हां, लौट कर गांव जाने की तैयारी भी हमें करनी है. भैयाभाभी को मैं ने अपने विवाह की सूचना दी तो उन्होंने तुरंत गांव आने का आदेश दे दिया.’’

‘‘ठीक है, जो आज्ञा महाराज. कौफी समाप्त होते ही आप की आज्ञा का अक्षरश: पालन किया जाएगा,’’ प्राची भी उतने ही नाटकीय स्वर में बोली थी.

दूसरे ही क्षण दरवाजे की घंटी बजी और दरवाजा खोलते ही सामने प्राची और क्षितिज के सहयोगी खड़े थे.

‘बधाई हो’ के स्वर से सारा फ्लैट गूंज उठा था और फिर दूसरे ही क्षण उलाहनों का सिलसिला शुरू हो गया.

‘‘वह तो मनोहर और ऋचा ने तुम्हारे विवाह का राज खोल दिया वरना तुम तो इतनी बड़ी बात को हजम कर गए थे,’’ विशाल ने शिकायत की थी.

‘‘आज हम नहीं टलने वाले. आज तो हमें शानदार पार्टी चाहिए,’’ सभी समवेत स्वर में बोले थे.

‘‘पार्टी तो अवश्य मिलेगी पर आज नहीं, आज तो मुंह मीठा कीजिए,’’ प्राची और क्षितिज ने अनुनय की थी.

उन के विदा लेते ही दरवाजा बंद कर प्राची जैसे ही मुड़ी कि घंटी फिर बज उठी. इस बार दरवाजा खोला तो सामने राजा, प्रवीण, निधि और वीणा खड़े थे.

‘‘दीदी, जीवन के इतने महत्त्वपूर्ण क्षण में आप ने हमें कैसे भुला दिया?’’ प्रवीण साथ लाए कुछ उपहार प्राची को थमाते हुए बोला था. राजा, निधि और वीणा ने भी दोनों को बधाई दी थी.

‘‘हम सब आप दोनों को लेने आए हैं. पापा ने बुलावा भेजा है. आप तो जानती हैं, वह खुद यहां नहीं आ सकते,’’ राजा ने आग्रह किया था.

‘‘भैया, हम दोनों आशीर्वाद लेने घर गए थे, पर मां ने तो हमें श्राप ही दे डाला,’’ प्राची यह कहते रो पड़ी थी.

‘‘मां का श्राप भी कभी फलीभूत होता है, दीदी? शब्दों पर मत जाओ, उन के मन में तो आप के लिए लबालब प्यार भरा है.’’

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प्राची और क्षितिज जब घर पहुंचे तो सारा घर बिजली की रोशनी में जगमगा रहा था. व्हील चेयर पर बैठे नीरज बाबू ने प्राची और क्षितिज को गले से लगा लिया था.

‘‘यह क्या, प्राची? घर आ कर पापा से मिले बिना चली गई. इस दिन को देखने के लिए तो मेरी आंखें तरस रही थीं.’’

प्राची कुछ कहती इस से पहले ही यह मिलन पारिवारिक बहस में बदल गया था. कोई फिर से विधि विधान के साथ विवाह के पक्ष में था तो कोई बड़ी सी दावत के. आखिर निर्णय मां पर छोड़ दिया गया.

‘‘सब से पहले तो क्षितिज बेटा, तुम अपने भैयाभाभी को आमंत्रित करो और उन की इच्छानुसार ही आगे का कार्यक्रम होगा,’’ मां ने यह कह कर अपना मौन तोड़ा. प्राची को आशीर्वाद देते हुए मां की आंखें भर आईं और स्वर रुंध गया था.

‘‘हो सके तो तुम दोनों मुझे क्षमा कर देना,’’

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 1

लेखक- एम. अशफाक

नई उम्र के 2 थानेदार थे, जिन में से एक का नाम था अकबर शाह और दूसरे का नाम तलजा राम. दोनों बहुत बहादुर, दिलेर और निडर थे. दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी, इतनी घनिष्ठता कि एकदूसरे के बिना जीना भी अच्छा नहीं लगता था. उन की तैनाती कहीं भी हो, लेकिन मिलने के लिए समय निकाल ही लेते थे. दोनों कभीकभी अवैध काम भी कर जाते थे, लेकिन करते इतनी चालाकी से थे कि किसी को उस की भनक तक नहीं लगती थी. दोनों बहुत बुद्धिमान थे, इसीलिए बहुत अकड़ कर चलते थे.

सन 1930 की जब की यह कहानी है तब सिंध में पुलिस के थानेदार को सूबेदार कहते थे. उस समय सूबेदार इलाके का राजा हुआ करता था. अकबर शाह और तलजा राम की भी दूसरे सूबेदारों की तरह बहुत इज्जत थी. अकबर शाह ऊंचे परिवार का था, इसलिए हर मिलने वाला पहले उस के पैर छूता था और बाद में बात करता था. तलजा राम भी उच्च जाति का ब्राह्मण था.

एक बार दोनों एक हत्या के मामले में फंस गए. हत्या जिला मीरपुर खास के पथोरो रेलवे स्टेशन पर हुई थी. वहीं से कुछ देर पहले अकबर शाह और तलजा राम गाड़ी में सवार हुए थे. रेलवे पुलिस के एसपी ने स्वयं विवेचना की और कह दिया कि हत्या दोनों के उकसावे पर की गई. देश की सभी रेलवे लाइन एकदूसरे से जुड़ी हुई थीं. फरंटियर मेल (अब स्वर्ण मंदिर मेल) मुंबई और लाहौर तक आतीजाती थीं, इसी तरह बीकानेर और जोधपुर से रेलवे की गाडि़यां हैदराबाद सिंध तक आतीजाती थीं.

एक शाम ऐसी ही एक गाड़ी में अकबर शाह और तलजा राम सवार होने के लिए पथोरो रेलवे स्टेशन पर बड़ी शानबान से आए. जोधपुर से आने वाली गाड़ी जब पथोरो स्टेशन पर आ कर रुकी तो दोनों झट से फर्स्ट क्लास के डिब्बे में बैठ गए.

उन दिनों गाडि़यों में इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. उस डिब्बे से जिस में ये दोनों सवार हुए थे, रेलवे का एक अधिकारी उतरा जो पथोरो स्टेशन का निरीक्षण करने आया था. जब उस ने प्लेटफार्म पर भीड़ एकत्र देखी तो स्टेशन मास्टर से पूछा. उस ने बताया कि इस इलाके का सूबेदार सफर करने जा रहा है, ये भीड़ उसे छोड़ने आई है.

रेलवे का अधिकारी कुछ अनाड़ी किस्म का था, वह रेलवे का कुछ ज्यादा ही हितैषी था. उसे लगा कि पुलिस का एक सूबेदार फर्स्ट क्लास में कैसे यात्रा कर सकता है. उस ने टीटी को बुला कर कहा कि उन के टिकट चैक करे. जब टीटी ने टिकट मांगे तो अकबर शाह जो इलाके का सूबेदार था, उसे अपना अपमान लगा. उस ने गुस्से में दोनों टिकट निकाल कर टीटी के मुंह पर दे मारे. टिकट सेकेंड क्लास के थे. टीटी ने रेलवे अधिकारी की ओर देखा तो उस ने कहा, ‘‘इन से कहो कि उतर कर सेकेंड क्लास में चले जाएं.’’

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अकबर शाह को बहुत गुस्सा आया. लेकिन मजबूरी यह थी कि यह थाना नहीं रेलवे स्टेशन था, इसलिए उस ने तलजा राम को इशारा किया. दोनों उतर कर सेकेंड क्लास के डिब्बे में बैठ गए. गाड़ी हैदराबाद के लिए रवाना हो गई. अगली सुबह पुलिस को सूचना मिली कि पथोरो स्टेशन के प्लेटफार्म पर जोधपुर से आए रेलवे अधिकारी को किसी ने सोते में कुल्हाडि़यों के घातक वार कर के मार डाला है.

रेलवे के एसपी मंझे हुए अधिकारी थे, चूंकि हत्या रेलवे स्टेशन की सीमा में हुई थी इसलिए विवेचना भी रेलवे पुलिस को करनी थी. मृतक बीकानेर रेलवे का कर्मचारी था. उन लोगों ने शोर मचा दिया, जिस से सिंध की बदनामी होने लगी. जोधपुर रेलवे पुलिस ने हत्यारों का पता बताने वाले को 500 रुपए का इनाम देने की घोषणा कर दी. बीकानेर वाले क्यों पीछे रहते उन्होंने भी 1000 रुपए के इनाम का ऐलान कर दिया.

मामला बहुत नाजुक था, इसलिए उस की तफ्तीश स्वयं एसपी ने संभाल ली. वह घटनास्थल पर पहुंचे. उन्होंने घटनास्थल का निरीक्षण किया, गवाहों के बयान लिए. जब उन्हें पता लगा कि मृतक की 2 सूबेदारों से तूतूमैंमैं हुई थी तो उन्हें पक्का यकीन हो गया कि हत्या उन दोनों ने ही कराई होगी. वे दोनों सूबेदार थे, यह कैसे सहन कर सकते थे कि उन्हें फर्स्ट क्लास के डिब्बे से उतर कर सेकेंड क्लास में बैठना पड़ा.

वह भी उन चाटुकारों के सामने जो उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आए थे. उन दोनों के बारे में यह भी मशहूर था कि वे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से संबंध रखते थे. उन के लिए हत्या कराना बाएं हाथ का खेल था.

मृतक परदेसी आदमी था, जो एक दिन के लिए यहां आया था. वहां न तो उसे कोई पहचानता था और न उस की किसी से दुश्मनी थी. उस की हत्या उन दोनों सूबेदारों ने ही कराई थी. माना यह गया कि उन्होंने पथोरो से अगले स्टेशन पर पहुंच कर किसी बदमाश को इशारा कर दिया और वह बदमाश एक माल गाड़ी से जो पथोरो जा रही थी, उस में बैठ कर पथोरो स्टेशन पहुंचा. वह अफसर प्लेटफार्म पर सो रहा था, उस बदमाश ने कुल्हाड़ी के वार कर के उस की हत्या कर दी और भाग गया.

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एसपी साहब ने अपनी रिपोर्ट डीआईजी को भेज दी और दोनों सूबेदारों की गिरफ्तारी की इजाजत मांगी. उन दिनों सिंध का उच्च अधिकारी डीआईजी हुआ करता था. रिपोर्ट डीआईजी के पास पहुंची तो उन्होंने एसपी साहब को बुला कर उन से इस मामले में बात की. फिर दोनों सूबेदारों को बुला कर पूछा कि उन पर हत्या का आरोप है तो दोनों भौचक्के रह गए.

हत्या और हम, दोनों ने कानों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आप यह सोच भी कैसे सकते हैं. हम कानून के रक्षक हैं और कानून तोड़ने की सोच भी नहीं सकते. हमारा काम लोगों की जान बचाना है, जान लेना नहीं. मृतक ने हमारा अपमान जरूर किया था और हमें गुस्सा भी आया था लेकिन इतनी छोटीसी बात पर हत्या नहीं हुआ करती.’’

Serial Story: अस्मत का सौदा- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

उस लड़की को अपने साथ पीछे वाली गाड़ी में ही बिठा लाया था रणबीर, जबकि कैंप में नेताजी की उदारवादिता की चर्चा होने लगी थी कि नेताजी कितने अच्छे हैं, जो हम लोगों के लिए रोजगार जुटा रहे हैं. शायद वे धीरेधीरे हम सब को रोजगार देंगे. जैसे आज रजिया को दिया है.

‘रजिया‘ हां, यही तो नाम था उस भोली सी दिखने वाली लड़की का, जो खूबसूरती में किसी भी फिल्म हीरोइन को टक्कर देती थी. बस उस का गूंगापन ही उस के लिए एक बड़ी समस्या थी. उस के मांबाप बचपन में ही मर गए थे. कैसे, वह रजिया को पता नहीं, सिर्फ उस की एक बहन थी, जो अब भी उसी कैंप में ही थी.

जब से रजिया ने होश संभाला, तब से उस की मौसी ने ही उसे पाला है और जब वह जवान हुई तो पाकिस्तान के खराब हालात उसे एक शरणार्थी बना कर आज यहां तक ले आए थे.

जब रजिया बाथरूम से नहा कर निकली, तो रणबीर सिंह को भी अपने फैसले पर सुखद आश्चर्य हो रहा था. रजिया को देख कर उस के मुंह में भी पानी आ गया था. अमूमन तो किसी भी नए फल को नेताजी ही चखते थे, पर रजिया को तो आज रणबीर सिंह ही खा जाने वाला था.

रात को जब रजिया फर्श पर बिछे कालीन पर सो रही थी, तभी शराब के नशे में रणबीर सिंह ने रजिया के जिस्म को नोच डाला… बेचारी गूंगी लड़की चीख भी नहीं सकी थी.

हांफता हुआ जब रणबीर रजिया के जिस्म से अलग हुआ, तो अनायास ही उस के मुंह से ये शब्द निकल पड़े, ‘‘स्साला… गूंगी लड़की के साथ तो सैक्स करने का अपना ही मजा है,‘‘ और धूर्तता से मुसकरा उठा था रणबीर.

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रजिया जब उठ पाने की हालत में आई, तो वह भाग कर नेताजी के पास पहुंची. नेताजी अभी अपने बिस्तर पर ही थे. रजिया ने हाथों के इशारों से ही अपने साथ हुए अत्याचार की सारी बात नेताजी को बता डाली.

नेताजी के गुस्से का पारावार नहीं रहा. उन्होंने तुरंत ही रणबीर को बुला कर खूब डांटा.

‘‘जिस लड़की के जिस्म पर पहले हमारा अधिकार था, उसे तुम ने हम से पहले जूठा कर दिया. लगता है कि अब हमारे साथ काम करने का मन नहीं है तुम्हारा.‘‘

‘‘माफ कर दीजिए सर. कल रात थोड़ी ज्यादा हो गई थी, इसलिए होश खो बैठा. आगे से ऐसा नहीं होगा,‘‘ गिड़गिड़ा रहा था रणबीर.

उस के इस तरह माफी मांगने पर नेताजी का गुस्सा थोड़ा शांत तो हुआ, पर अंदर ही अंदर उन के मन में नाराजगी ने घर कर लिया था.

नेताजी ने इशारों में रजिया को समझाया और जा कर नहाने को कहा.

नेताजी की डांट का असर बहुत दिनों तक रणबीर पर नहीं रहा. एक नेता का पीए होने के नाते वह जनता के सीधे संपर्क में रहता था, इसलिए उसे गलत तरीके से पैसे कमाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. कुछ दिनों बाद ही उस ने लोगों से फिर पैसा उगाहना शुरू कर दिया.

रणबीर सिंह द्वारा बलात्कार किए जाने के सदमे से रजिया बहुत घबराई हुई थी. वह न खाती थी और न ही पीती थी. उस की ये हालत देख कर नेताजी समझ गए कि अगर इस की यही हालत रही, तो इस लड़की के साथ कुछ भी करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि गुस्से में आ कर ये लड़की आत्महत्या भी कर सकती है, इसलिए उन्होंने रजिया को प्यारदुलार से समझाना शुरू किया और रणबीर को तो बिलकुल रजिया के पास फटकने नहीं दिया. तब रजिया को कुछ सुरक्षित माहौल का अनुभव हुआ.

जब उन्होंने धीरेधीरे रजिया का विश्वास जीत लिया, तो उसे लगने लगा कि अब उस पर रणबीर का कोई खतरा नहीं है और भविष्य में उस की अस्मत पर कोई आंच नहीं आएगी, तब एक दिन जब नेताजी अपने कमरे में आराम कर रहे थे, तभी उस ने नेताजी को एक कागज के टुकड़े पर टूटीफूटी हिंदी में जो लिखा, वह इस प्रकार था, ‘‘इस दुनिया में हम 2 बहनें ही हैं. मेरे यहां आ जाने से वह कैंप में अकेली रह गई है. आप बड़े दयालु हैं. हो सके तो उस को भी यहीं मेरे पास बुलवा दीजिए. आप को शुक्रिया.‘‘

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‘‘ओह्ह… तो ये मतलब है… इस की एक बहन और भी है. इस लड़की को मानसिक रूप से सही होने के लिए उस की बहन का यहां होना ठीक होगा, तो हम कल ही उस को भी बुलवा लेते हैं.‘‘

फिर क्या था, नेताजी ने तुरंत ही रणबीर सिंह को शरणार्थी कैंप में रजिया की बहन को लाने के लिए भेज दिया. कैंप में होने वाली कागजी कार्यवाही के लिए वहां के प्रबंधक के लिए नजराना भी भिजवाना नहीं भूले थे नेताजी.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?‘‘ नेताजी ने अपने साथ खड़ी रजिया की बहन से इशारों में पूछा.

‘‘जी, हमारा नाम मुमताज है,‘‘ उसे बोलते हुए सुन कर नेताजी हैरान हो गए.

उन्होंने तो सोचा था कि गूंगी रजिया की बहन भी गूंगी ही होगी, पर यह तो बोलती भी है. मतलब यह हुआ कि मुमताज खूबसूरती में भी रजिया से कहीं आगे थी और उस का बोलना तो एक तरह से सोने पे सुहागा हो गया था.

जब मुमताज ने नहाधो कर साफ कपडे़ पहन लिए, तो उसे देख कर रजिया बहुत खुश हो गई और उस से लिपट गई. जब रात को दोनों बहनें पास में लेटीं, तो रजिया ने अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में मुमताज को सब बता दिया.

यह जान कर मुमताज के गुस्से का पारावार नहीं रहा, पर उसे वक्त के थपेड़ों ने बहुत ही समझदार लड़की में तबदील कर दिया था, इसलिए उस ने अपने तरीके से ही रणबीर सिंह को सबक सिखाने की बात सोची, क्योंकि वह जानती थी कि सीधी लड़ाई में तो वह रणबीर से नहीं जीत सकती है.

मुमताज को देख कर नेताजी और रणबीर के मुंह में पानी आ गया. दोनों ही उसे भोगने का सपना देखने लगे.

रणबीर ने अपनी आदत के अनुसार ही उस पर डोरे डालने शुरू कर दिए.

‘‘हां सुनो मुमताज, आज मैं बहुत खुश हूं… बताओ, तुम्हें क्या गिफ्ट दूं,‘‘ रणबीर ने मुमताज से कहा.

‘‘पर, भला आप इतना खुश क्यों हो?‘‘ मुमताज ने पूछा.

‘‘क्योंकि, आज मेरा जन्मदिन है. मैं आज किसी को भी दुखी नहीं देखना चाहता और खुशियां बांटना चाहता हूं,‘‘ रणबीर ने मुमताज की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तो… अगर ऐसा है तो मुझे थोड़ा शहर घुमा दो. मैं काफी दिन से बाहर नहीं गई हूं,‘‘ मुमताज ने भी बनावटी प्रेम दिखाते हुए कहा.

अपने जाल में खुद ही मछली को फंसते देख मन ही मन खुश हो रहा था रणबीर.

शहर में कई जगहों पर घुमाने के बाद एक अच्छे से रैस्टोरैंट में दोनों ने साथ खाना खाया. मुमताज के हावभाव से कतई नहीं लग रहा था कि वह एक शरणार्थी कैंप से आई हुई लड़की है.

इस बीच रणबीर ने कई बार मुमताज के नाजुक अंगों को छूने की कोशिश की, जिसे वह बड़ी ही सफाई से बचा गई थी.

‘‘घूमना तो काफी हो गया… अब बताओ, मैं तुम्हें क्या तोहफा दूं?‘‘ रणबीर ने मुमताज के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए कहा. इस बार मुमताज ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘आप मुझे कुछ दिलाना ही चाहते हैं, तो फिर मुझे एक अच्छा सा मोबाइल दिला दीजिए… दरअसल, मुझे फेसबुक चलाने का बहुत शौक है,‘‘ मुसकराते हुए मुमताज ने कहा.

‘‘बस, इतनी सी बात… अभी चल कर दिलवा देता हूं.‘‘

अपनी पसंद का मोबाइल ले कर उस पर गुलाबी रंग का कवर भी लगवा लिया था मुमताज ने.

मुमताज को घुमाने, खिलानेपिलाने और तोहफे के तौर पर रणबीर मन ही मन इतना तो बेफिक्र हो ही चुका था कि अब मुमताज को पाना कठिन नहीं होगा और यही बात सोच कर रणबीर ने मुमताज से कहा, ‘‘मुमताज, तुम ने मोबाइल तो ले लिया है, पर इसे चलाना तो तुम्हें अभी आता नहीं. अगर आज रात तुम मेरे घर आ जाओ, तो मैं तुम्हें सबकुछ सिखा दूंगा… सबकुछ,‘‘ रणबीर ने अपनी आंख दबाते हुए कहा. बदले में मुमताज ने सिर्फ मुसकरा कर हामी भर दी.

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पूरे दिन रणबीर सिंह मुमताज के जिस्म के बारे में कल्पनाएं करता रहा और शाम से ही शराब पीनी भी शुरू कर दी थी.

Serial Story: मासूम कातिल- भाग 2

लेखक- गजाला जलील

मुझे उतार कर कार आगे बढ़ गई. मेरे लिए अम्मा परेशान बैठी थीं. मैं ने उन्हें दिलासा दिया और बताया रशना के ड्राइवर चाचा मुझे छोड़ने आए थे. ताकि वह किसी शक में न पड़ें. जब मैं बिस्तर पर लेटी तो दिल बुरी तरह धड़क रहा था. आंखों में वही खूबसूरत चेहरा बसा था. उन्हीं के खयालों में खोए पता नहीं कब सो गई.

दूसरे दिन फिर वही औफिस था, वही काम, वही लोग. मेरी निगाहें बारबार बौस के औफिस की तरफ उठ रही थीं, दिल में प्यार का तूफान उमड़ रहा था. आंखों में दीदार की आस थी. लेकिन बौस के रूटीन में कोई फर्क नहीं आया, वह पिछले दरवाजे से ही आतेजाते रहे. मेरा दिल दीदार को तड़पता रहा.

कई बार जी चाहा, उन के औफिस में चली जाऊं, पर हिम्मत नहीं हुई. मैं ने दिल को समझा कर खुद को काम में मसरूफ कर लिया. बारबार सोचती, उस दिन रात को मेरी तारीफ करना, प्यार से बातें करना, वह सब क्या था?

उस दिन मैनेजर अहमद साहब मेरे पास आए और कहने लगे, ‘‘सुहाना, आप टाइपिंग सीख लीजिए. आगे आप के बहुत काम आएगी.’’

मुझे अहमद साहब ने दूसरी टेबल पर बिठा दिया. थोड़ा खुद ने सिखाया फिर साथी की ड्यूटी लगा दी कि मुझे बाकायदा टाइपिंग सिखाए. मैं ने दिल लगा कर सीखना शुरू कर दिया.

करीब 20 दिन के बाद अहमद साहब ने एक टेस्ट लिया. अच्छीखासी स्पीड हो गई थी. उन्होंने कहा, ‘‘वैरी गुड, अब आप आइए मेरे साथ.’’

मैं उन के अंदाज पर हैरान थी. वह मुझे ले कर इमरान साहब के औफिस में गए. मैं पहली बार वहां आई थी. औफिस की सजावट और खूबसूरती देख कर मैं चकाचौंध हो गई. कमरे में हलका अंधेरा था. एसी की ठंडक, टेबल पर हलकी नीली रोशनी थी. उन की गूंजती सी आवाज सुनाई दी, ‘‘आइए अहमद साहब, आप कैसी हैं मिस सुहाना.’’

मेरी आवाज मुश्किल से निकली, ‘‘मैं अच्छी हूं सर.’’

इतने दिनों के बाद बौस को देखने से मेरी तड़प और चाहत और बढ़ गई थी. मैं प्यासी निगाहों से उन्हें देखती रही. अहमद साहब बोले, ‘‘सर, मैं ने आप के लिए टाइपिस्ट का बंदोबस्त कर लिया है, ये हैं.’’

‘‘वैरी गुड, मिस सुहाना क्या आप टाइपिंग जानती हैं?’’

‘‘जी सर, इन्होंने अच्छे से सीख लिया है.’’

‘‘अहमद साहब, आप ने ये बड़ा अच्छा काम किया. एक बड़ा मसला हल हो गया.’’

उन के कमरे में एक तरफ एक छोटी टेबल रखी थी, जिस पर टाइपराइटर रखा था. मुझे वहां बिठा दिया गया. इमरान साहब ने मुझे कुछ कागजात टाइप करने को दिए.

शाम को जब मैं टेबल से उठी तो इमरान साहब ने कहा, ‘‘मिस सुहाना, टाइपिस्ट की हैसियत से आप की तनख्वाह में 300 रुपए का इजाफा कर दिया गया है.’’

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मुझे बड़ी खुशी हुई. मैं ने अम्मा को बताया तो वह खुश नहीं हुईं. कहने लगीं, ‘‘मैं कैसी मजबूर मां हूं कि तुम्हारी कमाई खा रही हूं. मुझे तो तुम्हारी शादी का सोचना चाहिए. तुम्हारी कमाई जमा कर के मुझे शादी की तैयारी करनी होगी.’’

मेरा दिल भी उदास हो गया. मैं ने कहा, ‘‘अम्मा, मैं शादी नहीं करूंगी. आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘नहीं बेटी, ये तो दुनिया का दस्तूर है. हर लड़की को विदा हो कर अपने असली घर जाना पड़ता है.’’ अम्मा ने दुखी मन से कहा.

वक्त गुजरता रहा. मैं इमरान हसन के औफिस में मेहनत और लगन से काम करती रही. वह भी बड़ी मोहब्बत और इज्जत से पेश आते. मेरी नजरों में उन की इज्जत और सम्मान दिनबदिन बढ़ता जा रहा था.

जिंदगी बड़ी अच्छी गुजर रही थी. उस दिन मैं घर पर ही अम्मा के साथ किचन में थी. मैं ने देखा अम्मा टटोलटटोल कर काम कर रही थीं. वह दूध का पतीला ठीक से देख नहीं पाईं. दूध नीचे गिर गया. कुछ गरम दूध पांव पर भी गिरा. उन्हें चक्कर आ गया. मैं उन्हें कमरे में लाई और ग्लूकोज पिलाया. पैर पर दवा लगाई, फिर पूछा, ‘‘अम्मा, ये सब क्या है? आप को क्या कम दिखाई देने लगा है?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, ऐसे ही जरा चक्कर आ गया था.’’

‘‘नहीं अम्मा, आप सच बताएं, आप को मेरी जान की कसम, आप को मुझे सच बताना होगा.’’

वह फूटफूट कर रोने लगीं फिर बताया, ‘‘बेटी, कुछ दिनों से मुझे चक्कर आ रहे हैं. धीरेधीरे मेरी आंखों की रोशनी कम होने लगी. अब तो बहुत ही कम दिखाई देता है. चक्कर भी आते हैं.’’

‘‘अम्मा, आप ने मुझे बताया क्यों नहीं, हम किसी डाक्टर को दिखाते, यह नौबत यहां तक आती ही नहीं. चलिए, उठिए डाक्टर के पास चलते हैं.’’

‘‘नहीं सुहाना, तुम मेरी बेटी हो. बेटी की कमाई कर्ज की तरह होती है. तुम्हारी कमाई सिर्फ तुम्हारी शादी पर खर्च होगी, इलाज पर नहीं.’’

‘‘नहीं अम्मा, मैं आप को किसी अच्छे डाक्टर के पास ले चलूंगी.’’

मैं ने बहुत कुछ कहा लेकिन अम्मा किसी कीमत पर इलाज के लिए तैयार नहीं हुईं.

दूसरे दिन औफिस में मैं उदास सी थी. इमरान हसन ने मुझे देखते ही कहा, ‘‘क्या बात है सुहाना, आप उदास लग रही हैं?’’

‘‘नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘मिस सुहाना, आप मुझे गैर समझती हैं. आप नहीं जानतीं, मैं आप के बारे में क्या सोचता हूं. मेरा दिल चाहता है सारी दुनिया की खुशियां ला कर आप के कदमों में डाल दूं.’’

फिर वह अचकचा कर चुप हो गए.

‘‘शायद मैं कुछ ज्यादा बोल गया, मुझे माफ करना सुहाना.’’

‘‘नहीं सर, आप मेरे हमदर्द हैं. दरअसल मेरी अम्मा की आंखों की रोशनी जा रही है. उन्हें बहुत कम दिखाई देने लगा है. मैं क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों सुहाना. मैं आज आप के साथ आप के घर चलूंगा. हम उन्हें अच्छे डाक्टर को दिखाएंगे. क्या आप की अम्मा मेरी मां जैसी नहीं हैं?’’

‘‘यह बात नहीं है सर, असल में वह इलाज कराने को राजी ही नहीं होतीं.’’

‘‘मैं उन्हें समझा लूंगा, आप फिक्र न करें.’’

शाम को वह मेरे साथ मेरे घर आए. उन्होंने अम्मा से उन की बीमारी के बारे में पूछा, ‘‘इस की शुरुआत करीब 3 महीने पहले हुई थी, पर अम्मा ने मुझ से छिपाया.’’

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इमरान साहब ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘आप घबराएं नहीं, मैं आप का इलाज कराऊंगा. आप ठीक हो जाएंगी.’’

‘‘नहीं बेटे, हम कुदरत से जंग नहीं लड़ सकते. मैं डाक्टरों का सहारा नहीं लेना चाहती. मैं आप का अहसान भी नहीं ले सकूंगी. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.’’

इमरान साहब भी नाकाम हो कर वापस चले गए. अम्मा ने कहा, ‘‘बड़ा नेक आदमी है. क्या तुम्हारे औफिस में काम करता है. अल्लाह उसे अच्छा रखे. वैसे कितनी उम्र है उस की?’’

मैं ने यहां झूठ बोलना ठीक समझते हुए कहा, ‘‘हां, अम्मा मेरे औफिस में काम करता है. अधेड़ आदमी है. 3 बच्चों का बाप है. भला आदमी है.’’

अम्मा को इत्मीनान हो गया.

दूसरे दिन इमरान साहब ने बड़े जज्बाती ढंग से कहा, ‘‘सुहाना, आज मैं दिल की बात तुम से कहना चाहता हूं. मैं तुम्हें दुलहन बना कर अपने घर ले जाना चाहता हूं. मैं तुम से बेहद मोहब्बत करता हूं. मुझे जवाब दो सुहाना.’’

मेरा दिल जोर से धड़क रहा था. मैं ने शरमा कर कहा, ‘‘सर, पर हमारे हालात में जमीनआसमान का फर्क है. मैं एक गरीब लड़की हूं और आप…’’

‘‘सुहाना, दिल के रिश्तों में ऊंचनीच, गरीब अमीर कुछ नहीं देखते. तुम मेरे लिए क्या हो, यह बस मैं जानता हूं.’’

‘‘क्या जिंदगी के किसी मोड़ पर आप को यह अहसास नहीं होगा कि आप ने बराबरी में शादी नहीं की?’’

‘‘नहीं, मैं ने बचपन में अपनी अम्मी को खो दिया था. फिर अब्बू चल बसे. मैं प्यार को तरसा हुआ इंसान हूं. तुम मेरे लिए मोहब्बत का समंदर हो. मेरी मंजिल हो. बस तुम राजी हो जाओ.’’

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मैं सोच में थी. मैं ने कहा, ‘‘इमरान साहब, मैं नहीं जानती, यह कैसे मुमकिन होगा?’’

‘‘तुम परेशान न हो, मैं सब देख लूंगा.’’

शादी- भाग 3: सुरेशजी को अपनी बेटी पर क्यों गर्व हो रहा था?

सुरेश चुपचाप वहां से निकल लिए और सुकन्या को ढूंढ़ने लगे.

‘‘क्या बात है, भाई साहब, कहां नैनमटक्का कर रहे हैं,’’ मिसेज साहनी ने कहा, जो सुकन्या के साथ गोलगप्पे के स्टाल पर खट्टेमीठे पानी का मजा ले रही थी और साथ कह रही थी, ‘‘सुकन्या, गोलगप्पे का पानी बड़ा बकवास है, इतनी बड़ी पार्टी और चाटपकौड़ी तो एकदम थर्ड क्लास.’’

सुकन्या मुसकरा दी.

‘‘मुझ से तो भूखा नहीं रहा जाता,’’ मिसेज साहनी बोलीं, ‘‘शगुन दिया है, डबल तो वसूल करने हैं.’’

उन की बातें सुन कर सुरेश मुसकरा दिए कि दोनों मियांबीवी एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं. मियां ज्यादा पी कर होश खो बैठा है और बीवी मीनमेख के बावजूद खाए जा रही है.

सुरेश ने सुकन्या से कहा, ‘‘खाना शुरू हुआ है, तो थोड़ा खा लेते हैं, नहीं तो निकलने की सोचते हैं.’’

‘‘इतनी जल्दी क्या है, अभी तो कोई भी नहीं जा रहा है.’’

‘‘पूरे दिन काम की थकान, फिर फार्म हाउस पहुंचने का थकान भरा सफर और अब खाने का लंबा इंतजार, बेगम साहिबा घर वापस जाने में भी कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा. चलते हैं, आंखें नींद से बोझिल हो रही हैं, इस वाहन चालक पर भी कुछ तरस करो.’’

‘‘तुम भी बच्चों की तरह मचल जाते हो और रट लगा लेते हो कि घर चलो, घर चलो.’’

‘‘मैं फिर इधर सोफे पर थोड़ा आराम कर लेता हूं, अभी तो वहां कोई नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुकन्या सोसाइटी की अन्य महिलाआें के साथ बातें करने लगी और सुरेश एक खाली सोफे पर आराम से पैर फैला कर अधलेटे हो गए. आंखें बंद कर के सुरेश आराम की सोच रहे थे कि एक जोर का हाथ कंधे पर लगा, ‘‘सुरेश बाबू, यह अच्छी बात नहीं है, अकेलेअकेले सो रहे हो. जश्न मनाने के बजाय सुस्ती फैला रहे हो.’’

सुरेश ने आंखें खोल कर देखा तो गुप्ताजी दांत फाड़ रहे थे.

मन ही मन भद्दी गाली निकाल कर प्रत्यक्ष में सुरेश बोले, ‘‘गुप्ताजी, आफिस में कुछ अधिक काम की वजह से थक गया था, सोचा कि 5 मिनट आराम कर लूं.’’

‘‘उठ यार, यह मौका जश्न मनाने का है, सोने का नहीं,’’ गुप्ताजी हाथ पकड़ कर सुरेश को डीजे फ्लोर पर ले गए जहां डीजे के शोर में वर और वधू पक्ष के नजदीकी नाच रहे थे, ‘‘देख नंदकिशोर के ठुमके,’’ गुप्ताजी बोले पर सुरेश का ध्यान सुकन्या को ढूंढ़ने में था कि किस तरीके से अलविदा कह कर वापस घर रवानगी की जाए.

सुकन्या सोसाइटी की महिलाओं के साथ गपशप में व्यस्त थी. सुरेश को नजदीक आता देख मिसेज रस्तोगी ने कहा, ‘‘भाई साहब को कह, आज तो मंडराना छोड़ें, मर्द पार्टी में जाएं. बारबार महिला पार्टी में आ जाते हैं.’’

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‘‘भाभीजी, कल मैं आफिस से छुट्टी नहीं ले सकता, जरूरी काम है, घर भी जाना है, रात की नींद पूरी नहीं होगी तो आफिस में काम कैसे करूंगा. अब तो आप सुकन्या को मेरे हवाले कीजिए, नहीं तो उठा के ले जाना पड़ेगा,’’ सुरेश के इतना कहते ही पूरी महिला पार्टी ठहाके में डूब गई.

‘‘क्या बचपना करते हो, थोड़ी देर इंतजार करो, सब के साथ चलेंगे. पार्टी का आनंद उठाओ. थोड़ा सुस्ता लो. देखो, उस कोने में सोफे खाली हैं, आप थोड़ा आराम करो, मैं अभी वहीं आती हूं.’’

मुंह लटका कर सुरेश फिर खाली सोफे पर अधलेटे हो गए और उन की आंख लग गई.

नींद में सुरेश ने करवट बदली तो सोफे से नीचे गिरतेगिरते बचे. इस चक्कर में उन की नींद खुल गई. चंद मिनटों की गहरी नींद ने सुरेश की थकान दूर कर दी थी. तभी सुकन्या आई, ‘‘तुम बड़े अच्छे हो, एक नींद पूरी कर ली. चलो, खाना शुरू हो गया है.’’

सुरेश ने घड़ी देखी, ‘‘रात का 1 बजा था. अब 1 बजे खाना परोस रहे हैं.’’

खाना खाते और फिर मिलते, अलविदा लेते ढाई बज गए. कार स्टार्ट कर के सुरेश बोले, ‘‘आज रात लांग ड्राइव होगी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 3 बज जाएंगे. मैं सोचता हूं कि उस समय सोने के बजाय चाय पी जाए और सुबह की सैर की जाए, मजा आ जाएगा.’’

‘‘आप तो सो लिए थे, मैं बुरी तरह थक चुकी हूं. मैं तो नींद जरूर लूंगी… लेकिन आप इतनी धीरे कार क्यों चला रहे हो?’’

‘‘रात के खाली सड़कों पर तेज रफ्तार की वजह से ही भयानक दुर्घटनाएं होती हैं. दरअसल, पार्टियों से वापस आते लोग शराब के नशे में तेज रफ्तार के कारण कार को संभाल नहीं पाते. इसी से दुर्घटनाएं होती हैं. सड़कों पर रोशनी पूरी नहीं होती, सामने से आने वाले वाहनों की हैडलाइट से आंखों में चौंध पड़ती है, पटरी और रोडडिवाइडर नजर नहीं आते हैं, इसलिए जब देरी हो गई है तो आधा घंटा और सही.’’

पौने 4 बजे वे घर पहुंचे, लाइट खोली तो रोहिणी उठ गई, ‘‘क्या बात है पापा, पूरी रात शादी में बिता दी. कल आफिस की छुट्टी करोगे क्या?’’

सुरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘कल नहीं, आज. अब तो तारीख भी बदल गई है. आज आफिस में जरूरी काम है, छुट्टी का मतलब ही नहीं. अगर अब सो गया तो समझ लो, दोपहर से पहले उठना ही नहीं होगा. बेटे, अब तो एक कप चाय पी कर सुबह की सैर पर जाऊंगा.’’

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‘‘पापा, आप कपड़े बदलिए, मैं चाय बनाती हूं,’’ रोहिणी ने आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम सो जाओ, बेटे, हमारी नींद तो खराब हो गई है, मैं चाय बनाती हूं,’’ सुकन्या ने रोहिणी से कहा.

चाय पीने के बाद सुरेश, सुकन्या और रोहिणी सुबह की सैर के लिए पार्क में गए.

‘‘आज असली आनंद आएगा सैर करने का, पूरा पार्क खाली, ऐसे लगता है कि हमारा प्राइवेट पार्क हो, हम आलसियों की तरह सोते रहते हैं. सुबह सैर का अपना अलग ही आनंद है,’’ सुरेश बांहें फैला कर गहरी सांस खींचता हुआ बोला.

‘‘आज क्या बात है, बड़ी दार्शनिक बातें कर रहे हो.’’

‘‘बात दार्शनिकता की नहीं, बल्कि जीवन की सचाई की है. कल रात शादी में देखा, दिखावा ही दिखावा. क्या हम शादियां सादगी से नहीं कर सकते? अगर सच कहें तो सारा शादी खर्च व्यर्थ है, फुजूल का है, जिस का कोई अर्थ नहीं है.’’

तभी रोहिणी जौगिंग करते हुए समीप पहुंच कर बोली, ‘‘पापा, बिलकुल ठीक है, शादियों पर सारा व्यर्थ का खर्चा होता है.’’

सुकन्या सुरेश के चेहरे को देखती हुई कुछ समझने की कोशिश करने लगी. फिर कुछ पल रुक कर बोली, ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आज सुबह बापबेटी को क्या हो गया है?’’

‘‘बहुत आसान सी बात है, शादी में सारे रिश्तेदारों को, यारों को, पड़ोसियों को, मिलनेजुलने वालों को न्योता दिया जाता है कि शादी में आ कर शान बढ़ाओ. सब आते हैं, कुछ कामधंधा तो करते नहीं…उस पर सब यही चाहते हैं कि उन की साहबों जैसी खातिरदारी हो और तनिक भी कमी हो गई तो उलटासीधा बोलेंगे, जैसे कि नंदकिशोर के बेटे की शादी में देखा, हम सब जम कर दावत उड़ाए जा रहे थे और कमियां भी निकाल रहे थे.’’

तभी रोहिणी जौगिंग का एक और चक्कर पूरा कर के समीप आई और बोलने लगी तो सुकन्या ने टोक दिया, ‘‘आप की कोई विशेष टिप्पणी.’’

यह सुन कर रोहिणी ने हांफते हुए कहा, ‘‘पापा ने बिलकुल सही विश्लेषण किया है शादी का. शादी हमारी, बिरादरी को खुश करते फिरें, यह कहां की अक्लमंदी है और तुर्रा यह कि खुश फिर भी कोई नहीं होता. आखिर शादी को हम तमाशा बनाते ही क्यों हैं. अगर कोई शादी में किसी कारण से नहीं पहुंचा तो हम भी गिला रखते हैं कि आया नहीं. कोई किसी को नहीं छोड़ता. शादी करनी है तो घरपरिवार के सदस्यों में ही संपन्न हो जाए, जितना खच?र् शादी में हम करते हैं, अगर वह बचा कर बैंक में जमा करवा लें तो बुढ़ापे की पेंशन बन सकती है.’’

‘‘देखा सुकन्या, हमारी बेटी कितनी समझदार हो गई है. मुझे रोहिणी पर गर्व है. कितनी अच्छी तरह से भविष्य की सोच रही है. हम अपनी सारी जमापूंजी शादियों में खर्च कर देते हैं, अकसर तो उधार भी लेते हैं, जिस को चुकाना भी कई बार मुश्किल हो जाता है. अपनी चादर से अधिक खर्च जो करते हैं.’’

‘‘क्या बापबेटी को किसी प्रतियोगिता में भाग लेना है, जो वहां देने वाले भाषण का अभ्यास हो रहा है या कोई निबंध लिखना है.’’

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‘‘काश, भारत का हर व्यक्ति ऐसा सोचता.

Serial Story: धनिया का बदला- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे धनिया, आप चिंता क्यों करती हो… आप तो बस दवा खाओ और आराम करो… हम खाना भी बना लेंगे और बच्चों को भी संभाल लेंगे,’’ छंगा कह रहा था. उस की बात सुन कर खटिया पर लेटी हुई धनिया की आंखों में आंसू आ गए.

बीरू के मर जाने के बाद उस के हिस्से की जमीन धनिया के नाम कर दी गई थी. छंगा के मन में तो खोट था. वह उस जमीन को अपने नाम पर करा कर धनिया से छुटकारा पाना चाहता था, इसलिए एक दिन जब धनिया बुखार की दवा खा कर सो रही थी, तब धोखे से छंगा ने जमीन के कागजों पर धनिया का अंगूठा लगवा लिया.

शायद छंगा को इसी दिन का इंतजार ही था कि कागजों पर अंगूठा लग जाए और वह अकेला ही इस जमीन पर  राज करे.

जब कुछ दिनों बाद धनिया की सेहत में सुधार हो गया, तब उस ने गौर किया कि छंगा का उस के और उस की बेटियों के प्रति बरताव बदल सा गया है. जहां पहले वह बच्चियों के लिए खानेपीने की चीजें लाता था, वहीं अब वह खाली हाथ चला आता है और सीधे मुंह बात भी नहीं करता और उन्हें मारनापीटना भी शुरू कर दिया है.

‘‘अब तो तुम्हारा बुखार सही हो गया है… कुछ कामधाम भी किया करो… सारा दिन तुम्हारे बच्चे मुझे तंग करते रहते हैं और मेरे पैसे खर्च करवाते हैं. अब इन का और खर्चा मुझ से नहीं उठाया जाता,’’ छंगा गरज रहा था.

‘शायद बाहर की कुछ परेशानी होगी, तभी तो ऐसे कह रहा है छंगा, नहीं तो मीठा बोलने वाला छंगा इतना कड़वा क्यों बोलता,’ ऐसा सोच कर धनिया खुद ही खेत की तरफ सब्जी तोड़ने चल दी.

खेत पर पहुंचते ही उस की आंखें हैरत से फटी रह गईं. खेत में खड़े नीम के पेड़ की छांव में गांव के कुछ मुस्टंडे शराब और मांस खा रहे थे.

‘‘तुम लोग मेरे खेत में गंदगी क्यों फैला रहे हो… क्या तुम लोगों को और कोई जगह नहीं मिली… चलो, भागो यहां से,’’ धनिया चीख रही थी.

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‘‘तुम्हारा खेत… पर, यह खेत तो तुम अपनी मरजी से छंगा के नाम पर चुकी हो… और उसी ने हमें यहां बुला कर खानेपीने का इंतजाम करवाया है. अगर हमारी बात पर यकीन न आ रहा हो, तो पंचायत बुला कर पूछ लो,’’ उन में से एक ने धनिया से कहा.

धनिया ने उन लोगों को तो किसी तरह वहां से चलता किया, पर उन लोगों की बात उस के कानों में गूंजती रही.

धनिया घर लौटी, तो अपनी बेटियों को उस ने दरवाजे पर ही रोते पाया.

‘‘देखो अम्मां… पापा ने हमें मार कर घर से बाहर निकाल दिया है,’’ एक बेटी ने बताया.

धनिया का दिल दहल उठा था. उस ने बाहर से ही छंगा को आवाज लगाई.

‘‘अब मुझे तेरी जरूरत नहीं है… तू मेरी जिंदगी से चली जा, तुझ में है ही क्या? भला कोई 2 बेटियों की मां के साथ कैसे खुश रह सकता है,’’ छंगा अंदर से ही बोला और दरवाजा बंद  कर लिया.

रोती हुई धनिया पंचायत पहुंची. पंचों ने तुरंत ही छंगा को तलब किया और उस से पूछा कि जिस औरत के साथ अभी कुछ दिन पहले ही तुम ने ब्याह किया है, आज उस के साथ ऐसा सुलूक क्यों कर रहे हो?

‘‘भला मैं ऐसा सुलूक करने वाला कौन होता हूं… इस कागज पर खुद धनिया का अंगूठा लगा है और जिस में लिखा हुआ है कि मैं अब अपनी सारी खेती छंगा के नाम कर रही हूं और अपनी मरजी से छंगा का घर छोड़ कर जा रही हूं, इसलिए भविष्य में उसे मेरा पति और मुझे उस की पत्नी न समझा जाए,’’ कह कर छंगा ने कागज आगे बढ़ा दिया.

पंचों ने उन कागजों को उलटापलटा. कागज पर यही लिखा हुआ था, जिस के नीचे धनिया का अंगूठा भी लगा हुआ था.

‘‘तुम ने तो अपनी मरजी से ही ये सब किया है… यह अंगूठे का निशान तो तुम्हारा ही है न?’’ पंचों में से  एक ने कागज दिखाते हुए पूछा.

धनिया हैरान थी. अंगूठे का निशान तो उसी का था, पर भला वह क्यों ऐसा करने लगी? यह सोच कर वह परेशान हो उठी.

कागजों के आगे पंच भी मजबूर थे, इसलिए उन्होंने छंगा के हक में फैसला सुना दिया और धनिया सड़क पर आ गई.

रात हुई तो धनिया को डर लगने लगा. कुछ सोच कर वह बेटियों को ले कर अपने घर गई. दरवाजा अंदर से भिड़ा हुआ था. सामने छंगा बैठा हुआ ढेर सारे नोटों की गड्डियां गिन रहा था.

धनिया सन्न रह गई थी, उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. आखिरकार आज से पहले इतना पैसा तो छंगा के पास नहीं देखा था उस ने.

‘‘ऐसे चुड़ैल की तरह क्या देख रही है… क्या कभी पैसा नहीं देखा… और फिर मेरे घर क्यों आई हो, जब तुझे पंचायत में शिकायत ले कर जाना ही है… अब मुझे तेरा साथ नहीं चाहिए,’’ छंगा ने धनिया को देख कर कहा.

‘‘मैं कोई भीख मांगने नहीं आई… मेरे हिस्से की जमीन…’’

‘‘तेरी कोई जमीन नहीं… और जो जमीन तू ने मेरे नाम कर दी थी, वह भी मैं ने कालिया को बेच दी है,’’ कह कर छंगा ने दरवाजा बंद कर दिया था.

Serial Story: संधि प्रस्ताव- भाग 2

लेखक- अलका प्रमोद

‘‘सुनीता बोलीं, ‘यह किसी ने झूठ लिखा है. अरे, मेरे यथार्थ ने मुझ से फोन पर बात कर के आने को कहा था और अचानक उस ने आश्रम में दीक्षा ले ली? यह नहीं हो सकता. उस का दीक्षा लेने का मन होता तो कभी तो हम से जिक्र करता. वह तो हम से अपने मन की हर बात कहता है.’

‘‘‘अब तो सच वहां जा कर ही मालूम होग, सुनीता,’ तपन ने चिंतातुर वाणी में कहा.

‘‘आश्रम के द्वार पर ही सुनीता, तपन और उन के साथ आए यथार्थ के मामा राजन और तपन के अभिन्न मित्र विकास को रोक दिया गया. तपन ने वह पत्र दिखाया जिस में लिखा था कि उन के हृदय के टुकड़े ने आश्रम में दीक्षा ले ली है.

‘‘वहां स्वामीजी के कुछ शिष्य थे. उन्होंने उन के आने का उद्देश्य पूछा. सुनीता ने कहा, ‘हम अपने बेटे को लेने आए हैं.’

‘‘इस पर वहां का मुख्य कार्यकर्ता अखिलानंद बोला, ‘पर उन्होंने दीक्षा ले ली है. अब वे आप के बेटे नहीं हैं, बल्कि यहां के दीक्षित प्रशिक्षु हैं. कुछ समय बाद वे संत की उपाधि पा जाएंगे.’

‘‘यह सुन कर सुनीता व्यग्र हो गईं. उन्होंने कहा, ‘ऐसे कैसे आप मेरे बेटे को मुझ से छीन सकते हैं? आप कौन होते हैं यह कहने वाले कि वह मेरा बेटा नहीं है?’

‘‘तपन ने कहा, ‘वह एक पढ़ालिखा इंजीनियर है. अभी तो उसे अपना कैरियर बनाना है. अभी कोई आयु है दीक्षा लेने की?’

‘‘इस पर विकास ने कहा, ‘अरे तपन, इन लोगों से बहस करने से क्या लाभ, पहले यथार्थ से मिलो, दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.’

‘‘‘आप उन से नहीं मिल सकते,’ अखिलानंद ने कहा.

‘‘‘अरे, मेरा बेटा है और हम ही नहीं मिल सकते, आप कौन होते हैं हमें रोकने वाले?’

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‘‘तभी अखिलानंद के एक साथी ने आ कर उस के कान में कुछ कहा. फिर अखिलानंद ने तपन से कहा, ‘आप लोग खुश हो जाएं स्वामीजी ने आज्ञा दी है कि आप लोगों को विश्वानंदजी से मिलवा दिया जाए.’

‘‘‘ये विश्वानंद कौन हैं, हम उन से मिलना नहीं चाहते. हमें, बस, अपने बेटे से मिलना है.’

‘‘‘जी, आप के जो बेटे थे उन का ही सांसारिक नाम त्याग कर नया नाम विश्वानंद रखा गया है.’

‘‘सुनीता को यह स्वीकार नहीं था. उन्होंने कहा, ‘आप के कहने से उस का नाम बदल जाएगा क्या? उस का नाम कानूनीरूप से यथार्थ है और वही रहेगा.’

‘‘तपन ने बात को विराम देते हुए कहा, ‘चलिए, पहले आप हमें उस से मिलवाइए.’

‘‘आखिलानंद और उस का वह साथी उन्हें आश्रम के पिछवाड़े एक गर्भकक्ष में ले गए जहां अंधकार पांव पसारे था. बस, एक रोशनदान से प्रकाश की रश्मियां घुसपैठ करने को प्रयासरत थीं वरना दिन या रात का निर्णय कठिन हो जाता.

‘‘अखिलानंद ने आवाज दी, ‘विश्वानंद, देखो कुछ लोग तुम से मिलना चाहते हैं.’

‘‘बैठे हुए व्यक्ति को देख कर आगंतुक कुछ क्षण तो हतप्रभ रह गए. कहां जींस पहने, बालों में जेल लगाए सुंदरस्मार्ट यथार्थ और कहां बाल मुंडाए गेरुए वस्त्र पहने यह युवक. पर मां की दृष्टि तो सात परदों में भी अपने बेटे को पहचान लेती है. उस ने यथार्थ को देख कर कहा, ‘बेटा, इन लोगों ने तुम्हारा यह क्या हाल किया है?’

‘‘‘आप कौन?’ यथार्थ ने सुनीता को देख कर कहा.

‘‘सुनीता को लगा मानो किसी ने उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो. उस ने कहा, ‘मैं तेरी मम्मा, बेटू.’

‘‘‘मेरी कोई मां नहीं,’ यथार्थ ने कहा. उस की आंखें लाल हो रही थीं. वह आंखें नीची कर के बात कर रहा था.

‘‘तपन ने कहा, ‘बेटा, तुझे क्या हो गया है. मैं तेरा पापा, ये मम्मा, जरा होश में तो आ.’

‘‘पर यथार्थ ने उन की ओर दृष्टि नहीं उठाई. वह नीची दृष्टि किए हुए एक ही बात कह रहा था, ‘मैं किसी को नहीं जानता, मेरी कोई मां नहीं, कोई पिता नहीं.’

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‘‘सुनीता ने उस का हाथ थामा तो उस ने झटक दिया और बोला, ‘मैं एक संत हूं. मैं सांसारिक लोगों से नहीं मिलता. मुझ से दूर रहें.’

‘‘‘बेटा, मैं तेरी मां हूं. इन लोगों ने तुझे बहका दिया है.’

‘‘इस पर वह खोईखोई वाणी में बोला, ‘मेरी मांपिता सब ऊपर वाला है. इस नश्वर संसार में मेरा कोई नहीं.’

‘‘सुनीता रो पड़ीं. वे तपन से बोलीं, ‘देखो, मेरे बेटे को क्या हो गया है. यह मुझे ही नहीं पहचान रहा है. जरूर इस पर किसी ने कोई जादूटोना कर दिया है.’ वे यथार्थ को हिलाने लगीं, अखिलानंद ने उन्हें रोक दिया, ‘आप इन्हें छू नहीं सकतीं. ये पवित्र आत्मा हो गए हैं.’

‘‘सुनीता बिगड़ गईं, ‘मैं, जिस ने उसे जन्म दिया है उस की मां, उसे छू नहीं सकती?’ उन्होंने यथार्थ से कहा, ‘बोल बेटा, बता दे इन्हें कि मैं तेरी मां हूं.’ पर वे लोग उन्हें और तपन वगैरा को जबरदस्ती बाहर ले आए और बोले, ‘बस, इस से ज्यादा आप उन से नहीं मिल सकते.’

‘‘विवशता में उन्हें वहां से आना पड़ा पर अपना बेटा कैसे खो सकते थे वे. दूसरे दिन अपने साथ 15-20 लोगों को ले कर वे फिर आश्रम गए. पर इस बार उन्हें अंदर जाने से ही रोक दिया गया. तपन के साथ यथार्थ के मित्र शिशिर और पवन भी थे. वे दोनों गुस्से में आ गए. उन्होंने जबरदस्ती अंदर जाने का प्रयास किया. उधर, स्वामीजी के शिष्यों का समूह बाहर आ गया. वे लोग इन्हें रोकने लगे जिस में आपस में हाथापाई की स्थिति आ गई. इसी हाथापाई में पवन को चोट लग गई और खून बहने लगा.

‘‘जब इन लोगों का अंदर जाने का प्रयास असफल हो गया, तो ये लोग वहीं धरना दे कर बैठ गए. और नारे लगाने लगे, ‘मेरा बेटा वापस दो, स्वामी जी हायहाय, धर्म के नाम पर धांधली नहीं चलेगी’ आदि.

‘‘इन के चारों ओर लोगों की भीड़ लग गई. जब आश्रम वालों ने देखा कि ये नहीं हट रहे हैं तो उन्होंने पुलिस को बुला लिया.

‘‘पुलिस ने स्वामीजी की शिकायत पर धरने वालों को हटाने का प्रयास किया तो इन लोगों ने आश्रम के विरुद्ध शिकायत की. इस पर पुलिस ने पूछताछ की. पर जब यथार्थ से पुलिस ने पूछा तो उस ने साफसाफ कह दिया कि वह अपनी इच्छा से आया है.

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‘‘पुलिस इंस्पैक्टर ने तपन से कहा, ‘देखिए, आप का बेटा वयस्क है और यदि वह अपनी इच्छा से आश्रम में रह रहा है तो हम कुछ नहीं कर सकते.’

‘‘‘पर आश्रम वालों ने उस का ब्रेनवाश किया है, उसे बहका कर फंसाया है.’

‘‘‘जी, मैं सब समझ रहा हूं पर इस का कोई साक्ष्य नहीं है.’

‘‘तपन ने कहा, ‘पर आप हमें अपने ढंग से अपने बेटे को वापस लेने दीजिए.’

‘‘इंस्पैक्टर ने कहा, ‘देखिए तपनजी, मैं आप को अपने हाथ में कानून नहीं लेने दे सकता.’

‘‘सुनीता ने कहा, ‘यह कैसी बात है कि आप जानते हैं कि उन्होंने मेरे बेटे को बरगलाया है, वे गलत हैं और हम सही, फिर भी हमें ही रोक रहे हैं?’

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