औनर किलिंग- भाग 2: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

उस लड़की ने कंपकंपाते हाथों से पानी का गिलास लिया और एक ही सांस में पूरा गिलास खाली करते हुए बोली, ‘‘वे लोग मेरे पीछे पड़े हैं. वे मु झे भी जान से मार डालना चाहते हैं. लेकिन किसी तरह मैं अपनी जान बचाते हुए यहां तक पहुंची हूं, ताकि पुलिस को सब बता सकूं.’’

‘‘हांहां, मैं सम झ गया. लेकिन तुम डरो मत, क्योंकि अब तुम पुलिस के पास हो.’’

पर, घबराहट के मारे उस लड़की के मुंह से ठीक तरह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी. उस का पूरा शरीर कांप रहा था. चेहरा पीला पड़ गया था. होंठ काले पड़ गए थे. आंखें सूजी हुई थीं.

लड़की को घबराया हुआ देख कर इंस्पैक्टर माधव ने हवलदार को इशारा किया कि दरवाजे पर 2 और बंदूकधारी तैनात कर दो, ताकि इस लड़की का डर थोड़ा कम हो.

जब वह लड़की थोड़ा शांत हुई और लगा कि यहां उस की जान को कोई खतरा नहीं है, तो वह बताने लगी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मैं अमृता हूं और वे दोनों हत्यारे मेरे भाई हैं. उन्होंने ही मेरे अतुल्य की हत्या…’’ बोल कर वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर माधव को अमृता की बात से यह तो सम झ में आने ही लगा था कि जरूर यह इश्कमुहब्बत का मामला है, लेकिन वे उस लड़की के मुंह से सारी कहानी सुनना चाहते थे.

अपने आंसू पोंछ कर अमृता बताने लगी कि वह और अतुल्य एकदूसरे से प्यार करते थे और जल्द ही दोनों अपने रिश्ते के बारे में परिवार वालों को बताने ही वाले थे कि यह सब हो गया.

अपने और अतुल्य के बारे में बताते हुए अमृता अतीत की यादों में खोती चली गई.

अमृता उस गांव के ठाकुर की बेटी थी और अतुल्य एक कुम्हार परिवार का बेटा. लेकिन कुम्हार का काम उस के दादापरदादा किया करते थे. अतुल्य के पिताजी तो इसी गांव के एक स्कूल में टीचर थे.

स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अतुल्य ने शहर जा कर एक इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला ले लिया और इधर अमृता के घर वाले उसे गांव के ही कालेज में दाखिला दिलवाने लगे. मगर वह जिद करने लगी कि उसे शहर के कालेज में जा कर पढ़ना है.

थोड़ी आनाकानी के बाद अमृता के घर वाले उसे शहर भेजने को राजी हो गए. अमृता का दाखिला भी उसी कालेज में हो गया, जिस में अतुल्य पढ़ रहा था.

अमृता की बड़ी भाभी रुक्मिणी, जो उसे अपनी बेटी की तरह प्यार करती थीं, ने अपने हाथों से उस के लिए नमकीन, मिठाई, मठरी, चिवड़ा बनाया और सम झाया कि वह शहर में अपना खयाल रखे और कोई बात हो, तो उन्हें फोन जरूर करे.

‘‘हां, जरूर करूंगी मेरी मां…’’ अपनी भाभी के गले लग कर उन से विदा लेते हुए अमृता बोली थी.

एक ही शहर में रहने और एक ही कालेज में पढ़ने के चलते अमृता और अतुल्य की नजदीकियां और बढ़ती चली गईं. कालेज के बाद अकसर वे दोनों कहीं एकांत जगह पर बैठ कर अपने भविष्य के सपने बुनते.

इस शहर में दोनों के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यहां उन्हें कोई पहचानने वाला नहीं था, वरना गांव में तो डर लगा रहता था कि जाने कब कौन देख ले और बात का बतंगड़ बना कर उन के परिवार को सुना आए और फिर उन का एकदूसरे को देखना तक मुहाल हो जाए, इसलिए तो वे दोनों बचबचा कर किसी तरह उस पुरानी फैक्टरी में मिला करते थे, जहां लोगों का आनाजाना न के बराबर होता था.

लेकिन अब शहर में वे दोनों आजाद पंछी की तरह जहां मन होता वहां उड़तेफिरते रहते थे, हंसतेमुसकराते, गुनगुनाते हुए एकदूसरे की बांहों में कैसे 3 साल बीत गए, पता ही नहीं चला.

लेकिन अब कालेज पूरा होने के एक साल के बाद अमृता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे थे और इधर अतुल्य की मां भी बहू लाने के सपने देखने लगी थीं. उन दोनों ने इतने सालों तक यह बात इसलिए अपने परिवार वालों से छिपा कर रखी थी कि सही समय आने पर बता देंगे.

वैसे भी अतुल्य की सब से छोटी बहन की अगले ही महीने शादी तय हुई थी. शादी में तो जाना ही था, सोचा उसी समय वह अपने और अमृता के रिश्ते के बारे में सब को बता देगा.

इधर अमृता को यकीन था कि उस के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े कभी नहीं आएंगे, क्योंकि वह अपने परिवार में सब की लाड़ली जो थी. आज तक ऐसा नहीं हुआ, जो उस की कोई भी जिद पूरी न की गई हो.

अमृता के दोनों भाई उसे अपनी हथेलियों पर और पिता सिर पर बिठा कर रखते थे. घर में उसे इसलिए सब इतना प्यार करते थे, क्योंकि उन के घर में 3 पुश्तों के बाद बेटी पैदा हुई थी.

अमृता के पिताजी गांव के जमींदार तो थे ही, वे लोगों को सूद पर पैसे भी दिया करते थे. गांवभर के लोग जरूरत के समय उन के पास सूद पर पैसे लेने आते थे. लेकिन उन का एक उसूल था कि चाहे जितने पैसे ले जाओ सूद पर, लेकिन अगर तय समय पर पैसे नहीं लौटा पाए, तो उन की खैर नहीं.

पैसों के बदले वे मजबूर लोगों की जमीन, घर यहां तक कि गायभैंस तक अपने कब्जे में कर लेते थे और तब तक वापस नहीं देते थे, जब तक उन के पूरे पैसे नहीं मिल जाते थे.

लेकिन अतुल्य के पिता इन लोगों से दूरी बना कर रखने में ही अपनी भलाई सम झते थे. वे जानते थे कि कोयले से न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी अच्छी. ऊपर से घर में 4-4 जवान बेटियां हैं, इसलिए वे गांव के किसी भी मसले से दूर ही रहते थे.

‘‘अमृता, तुम से एक बात पूछूं क्या?’’ गोद में लेटी अमृता की हथेली को प्यार से दबा कर चूमते हुए अतुल्य बोला था, ‘‘अगर तुम्हारे या मेरे परिवार वालों ने हमें एक न होने दिया तो हम क्या करेंगे? मैं तो तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा. सच कहता हूं अमृता?’’ बोलते हुए अतुल्य उदास हो गया था.

विस्मृत होता अतीत – भाग 2: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

अब मैं ने उसे अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटाने का सोच कर जैसे ही माउस पर हाथ रखा कि डोरबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोलने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, बाहर से शिवांग की आवाज आई, ‘‘मम्मी जल्दी दरवाजा खोलो, आइसक्रीम पिघल जाएगी.’’

मैं जानती थी कि यदि मैं ने जल्दी दरवाजा नहीं खोला तो उस के शोर से ही आसपास के फ्लैट से लोग निकल आएंगे. मैं जल्दी में नैट बंद करना भूल गई.

राजीव ढेर सारा खाने का सामान ले कर आए थे यानी आज रात खाना बनाने से छुट्टी. राजीव ने चाय की फरमाइश की तो मैं तुरंत बना लाई और चाय की चुसकियों के बीच मुझे याद आया कि मैं नेट बंद करना तो भूल ही गई थी. मेरा फेसबुक अकाउंट खुला पड़ा था और चैटिंग विंडो पर 2-3 मैसेज मेरा इंतजार कर रहे थे. मैं खुद को उन्हें खोलने से रोक नहीं पाई. एक मैसेज किसी कवि प्रदीप की ओर से कवि सम्मेलन में कविता पाठ के लिए था और दूसरा मैसेज कौशल महादेव का था, जिसे पढ़ कर मुझे बेहद झुंझलाहट हुई. उस की गाड़ी एक ही जगह पर अटकी पड़ी थी, ‘आप नाराज हैं क्या…?’, ‘आप चैट क्यों नहीं करतीं…?’, ‘आप ने अपना फोटो क्यों नहीं अपलोड किया…?’ अब तो मुझे लगने लगा कि इसे वाकई अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटा देना चाहिए और मैं ने किया भी वही, पर बारबार दिमाग में एक ही सवाल दौड़ रहा था कि मैं ने अपना फोटो अपलोड नहीं किया. क्या यह प्रश्न इतना जरूरी है…?

यह सवाल मेरे अतीत की उस कब्र को खोदने के लिए काफी था जिसे दफन करने में मुझे काफी वक्त लगा था और जिस के कारण मैं मानसिक यातना के दौर से गुजरी थी और मेरे परिवार ने जो सामाजिक और मानसिक प्रताड़ना सही थी वह मुझे पागल कर देने के लिए काफी थी. अतीत की परतें उधेड़ने से मैं बहुत अपसैट हो गई और चुपचाप बालकनी में आ कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद राजीव मुझे ढूंढ़ते हुए आए और उन्होंने जैसे ही बालकनी की लाइट जलाई तो मुझे कहना पड़ा कि लाइट बंद रहने दो. वे मेरे करीब आए और धीरे से मेरा सिर सहला कर पूछा कि मैं अपसैट क्यों हूं…? तब मैं ने उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा मैं सब कुछ भूलने की कोशिश करूं. मैं थोड़ी देर अकेले रहना चाहती थी, वे बिना कुछ बोले खामोशी से उठ कर बाहर चले गए और मैं अपने अतीत को अंधेरे में फिर से जीवित होते देखती रही…

उस अंधेरे में मेरी आंखों के आगे वह शाम फिर से रिवाइंड हो गई. कालेज की फेयरवैल पार्टी थी. मैं ने बीएससी फाइनल ईयर का एग्जाम दिया था और कौलेज में वह मेरी आखिरी शाम थी. उस पार्टी में यह तय हुआ था कि लड़के धोतीकुरता या पाजामाकुरता और लड़कियां साड़ी पहन कर आएंगी. वह बेहद यादगार शाम थी पर वह मेरी जिंदगी में अंधेरा ले आएगी, मैं भी कहां जानती थी…? पार्टी में फोटो खींचने का दौर भी चल रहा था. हमारा एक क्लासमेट राहुल कैमरा ले कर आया था. वह हमारी क्लास का पढ़ने में सब से होनहार लड़का था. मेरे लिए सौफ्ट कौर्नर रखता था, यह मैं जानती थी पर वह मेरे लिए दूसरे क्लासमेट जैसा ही था. वह बारबार मेरे मना करने पर भी मेरी सिंगल फोटो खींचने की कोशिश कर रहा था जिस के लिए मैं ने उसे झिड़क दिया. सब के सामने यह बात होने से वह पार्टी से चुपचाप चला गया तो मैं ने चैन की सांस ली, पर मुझे नहीं मालूम था कि दूसरी सुबह मेरी जिंदगी का चैन हर लेने वाली है.

कुछ दिन बाद एक सुबह डाक से लिफाफा मेरे नाम आया. मां मेरे हाथ में उसे थमा कर चली गईं. लिफाफा वजनी था, मैं ने उसे उलटपलट कर देखा तो भेजने वाले का नाम नदारद पाया. खोलने पर उस में से कुछ तसवीरें फर्श पर गिर पड़ीं. उन तसवीरों को जैसे ही फर्श से उठाने के लिए झुकी तो ऐसा लगा कि कोई सांप देख लिया हो. तसवीरों में राहुल मेरे साथ इस तरह के पोज में खड़ा था कि समीपता का एहसास हो रहा था जबकि सचाई यह थी कि राहुल के पास तो क्या दूर खड़े हो कर भी मैं ने कोई तसवीर नहीं खिंचवाई थी.

मुझे रोना आ रहा था. जैसेजैसे मैं उन तसवीरों को देखती जा रही थी मेरा रोना गुस्से और आक्रोश में बदलता जा रहा था. मां ने जब मेरी हालत देखी तो मेरे पास आईं और उन की निगाह जब तसवीरों पर पड़ी तो वे सकते में आ गईं. पहले तो उन्होंने गुस्से में मेरी ओर देखा पर मेरी हालत देख कर वे नर्म पड़ गईं.

घर में जब सब को पता चला तो दादी का रिऐक्शन सब से पहले इस रूप में फूट कर सामने आया, ‘‘और पढ़ाओ लड़कों के साथ, यह तो होना ही था.’’

पापा और भैया कुछ न बोले पर वे बड़े गुस्से में थे. मेरा पूरा शक राहुल पर था, क्योंकि पार्टी वाले दिन मैं ने उसे अपनी फोटो लेने से डांटा था और उसी बात का बदला उस ने लिया था. मैं ने अपने इस शक के बारे में पापा को बताया तो उन्होंने उस से पूछने की ठानी पर वह अपनी इस हरकत से साफ मुकर गया. तब पापा और कोई चारा न देख कर उस के पापा से मिलने की सोच कर भैया के साथ उस के घर गए पर वहां से उन्हें अपमानित हो कर लौटना पड़ा.

इन सब बातों से धीरेधीरे लोगों को यह बात पता चल गई और मेरा घर से निकलना लगभग बंद हो गया. अब पूरा परिवार मानसिक प्रताड़ना से गुजर रहा था. और मैं जो आईएएस बनने का सपना पाले बैठी थी वह पूरा होना तो दूर, मेरी आगे की पढ़ाई करने की भी गुंजाइश शेष नहीं रही थी. मेरा सपना चकनाचूर हो चुका था. पापा को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी. वे मेरा जल्दी से जल्दी विवाह कर देना चाहते थे. वे जहां भी बात चलाते मेरे साथ हुई घटना की जानकारी पहले ही पहुंच जाती और फिर बिरादरी में रिश्ता मिलना लगभग नामुमकिन होने लगा था.

ऐसे ही समय पर राजीव के पापा हमारे घर आए. वे 10-12 सालों के बाद पापा से मिलने आए थे और हमारे घर 2-3 दिन ठहरे. घर के तनावपूर्ण माहौल को वे भांप गए पर उन्होंने अधिक पूछना ठीक न समझा. मुझे उन के आने से बेहद अच्छा लगा, क्योंकि घर में कोई मुझ से ठीक से बात तक नहीं करता था. मैं ने अपना अधिकतर समय उन के साथ ही बिताया था, पर उन के जाने की बात सुन कर मैं बेहद उदास हो गई थी. उन्होंने मुझ से पूछना चाहा कि मैं इतनी उदास क्यों रहती हूं, तो मैं उन के प्रश्न को टाल गई. वे इतना तो समझ ही चुके थे कि जरूर कोई बात है और वह भी कुछ गंभीर सी, पर उन्हें यह ठीक नहीं लगा कि इतने सालों के बाद दोस्त के घर आ कर रहूं और उस के घरेलू मामलों में दखल दूं.

उन के व्यवहार से ऐसा लग रहा था कि मानों वे कुछ कहना चाहते हैं पर कहने से झिझक रहे हैं. जब वे हम से बिदा ले रहे थे तो अचानक उन्होंने पापा से कहा कि वे कुछ कहना चाहते हैं तो पापा ने हंस कर कहा कि इतना झिझक क्यों रहे हैं? इस पर उन्होंने राजीव के लिए मेरा हाथ मांग लिया और उन्होंने बताया कि उन का बेटा एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीईओ है. पापा यह बात सुन कर थोड़े संजीदा हो गए. वे एक विजातीय के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करने में हिचकिचा रहे थे. उन्हें यह भी पता था कि अपनी जाति में वे मेरे रिश्ते के लिए कितना हाथपांव मार चुके थे पर कोई रिश्ता करने को तैयार नहीं था. ऐसे में यह रिश्ता घर बैठे ही मिल रहा था. पापा ने घर में सब से बात करी तो सब की राय यही थी कि इस रिश्ते के लिए हां कर दी जाए, पर पापा ने इस के पहले मेरी सचाई के बारे में बताना जरूरी समझा.

पूरी बात सुन कर राजीव के पापा हंस पड़े और कहने लगे, ‘‘अरे यार, यह तो आजकल हो ही रहा है. मैं ने तेरी बेटी का हाथ इसलिए मांग लिया कि वह बहुत अच्छी है. मैं तो यह समझ रहा था कि मैं विजातीय हूं इसलिए तू मेरे बेटे से रिश्ता जोड़ने से हिचकिचा रहा है.’’

फिर उन्होंने राजीव को बुला लिया और जल्द ही उन की परिणिता बन कर मैं उन के घर आ गई. मैं अपने अतीत के अंधेरे में ही डूबी रहती यदि राजीव ने आ कर बालकनी की लाइट न जलाई होती.

उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘अब कैसा लग रहा है?’’

‘‘पहले से बेहतर,’’ मैं ने कहा.

‘‘चलो कहीं घूम कर आते हैं,’’ उन्होंने बड़े इसरार से कहा.

‘‘नहीं, अभी मेरा मन नहीं है, फिर कभी.’’

‘‘तो एक काम करो…’’ इस पर मैं ने उन की तरफ देखा. उन के चेहरे पर शरारत खेल रही थी. मैं समझ गई कि वे अब कुछ न कुछ जरूर कहेंगे.

‘‘अपनी फोटो फेसबुक पर अपलोड करो. लोगों को जान लेने दो कि मेरी बीबी कितनी सुंदर है,’’ वे शरारत भरे स्वर में बोले.

Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 2

मैं ने घर का दरवाजा खोल कर चाय का पानी चूल्हे पर रखा ही था कि कालबेल बज उठी.

‘कौन?’ मैं ने पूछा.

‘आंटी, मैं निधि.’

मैं ने दरवाजा खोल दिया. फिर निधि के चेहरे को ध्यान से देखने लगी. उस की सूनी बेजान आंखों को देख कर मैं ने प्यार से पुचकारा और उस के सिर पर हाथ फे रते हुए उसे गोद में उठा लिया. फिर उस के गालों को चूमती हुई बोली, ‘तू क्यों अपनी मम्मीपापा को नाराज करती है?’

‘नहीं तो,’ सहमी सिकुड़ी सी निधि मेरी आंखों में देखते हुए बोली तो मैं ने उसे जमीन पर उतारते हुए कहा, ‘निधि बेटा, सीमा तुम्हारी छोटी बहन है और छोटों को हमेशा प्यार करते हैं.’

‘उस की चिंता मत कीजिए, वह बहुत अक्लमंद और सुंदर है, आंटी,’ और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

वातावरण को सहज बनाने के लिए मैं ने आवाज में कोमलता भरते हुए पूछा, ‘यह तुम से किस ने कहा?’

‘मां और पापा दोनों कहते हैं.’

‘गलत कहते हैं,’ मैं ने उस के कान के पास धीरे से कहा तो उस का चेहरा खिल उठा और वह घर में उछलकूद करने लगी.

10वीं की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो सीमा अपने स्कूल में ही नहीं, पूरे प्रांत में प्रथम आई थी. अरु और शशांक को मैं बधाई देने पहुंची तो देखा, निधि कोने में गुमसुम बैठी है. उस ने 12वीं में 90 प्रतिशत अंक हासिल किए थे पर सीमा की तरह प्रांत में प्रथम नहीं आई थी.

मैं धीरे से उस के पास सरक गई, ‘निधि, तुम तो बहुत बुद्धिमान निकलीं. 90 प्रतिशत अंक हासिल करना कोई आसान बात नहीं है.’

एक तरल मुसकान होंठों पर ला कर निधि बोली, ‘वह तो ठीक है आंटी, पर मैं सीमा की बराबरी तो नहीं कर सकती न?’

मैं सोच रही थी कि काश, इस के मातापिता धन से न सही जबान से ही बेटी की तारीफ कर देते तो इस मासूम का भी दिल रह जाता, उन्हें सोचना चाहिए कि जब अपने हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं हैं तो बच्चे कैसे बराबर हो सकते हैं. हर बच्चे का अपना आई क्यू होता है.

शिक्षक दिवस पर स्कूल में निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. जीतने वाले को नकद पुरस्कार के साथ ट्राफी भी मिलने वाली थी. निधि ने सारी निबंध की पुस्तकें छिपा लीं कि उस का लाभ सीमा को न मिल सके. उस  समय शशांक ने सीमा को दुविधा से उबार लिया और लाइब्रेरी से ढेरों किताबें ले आए.

कुशाग्रता, नम्रता और पिता के मार्गदर्शन में सीमा ने प्रतियोगिता जीत ली. शशांक एक बार फिर बधाई के पात्र बने और निधि को मिली उदासीनता.

उस दिन निधि का उतरा चेहरा देख कर सीमा बोली, ‘दीदी, इस बार इनाम पर मुझ से ज्यादा आप का अधिकार है.’

‘क्यों?’

‘इसलिए कि बचपन से ले कर अब तक मैं ने आप की किताबों को ही पढ़ा है. आप के नोट्स और गाइड्स का इस्तेमाल किया है. मैं तो आप की आभारी हूं,’ सीमा ने विनम्रता से कहा

क्रोध के आवेग में निधि की कनपटियां बजने लगीं. निधि को लगा सीमा ताना मार रही है. बहन के हाथ से ट्राफी छीन कर जैसे ही निधि ने जमीन पर फेंकनी चाही, ट्राफी सीमा के सिर पर लग गई. रक्त की धारा फूट पड़ी. बदहवास मां दौड़ती हुई आईं और रक्त का प्रवाह रोकने के लिए पट्टी बांध दी.

कुछ समय बाद सीमा तो स्वस्थ हो गई पर अरु सहज नहीं हो पाई थीं. निधि का यह रूप उन के लिए सर्वथा नया था. बेटी के स्वभाव ने उन्हें चिंता में डाल दिया था.

अरु इस समस्या को ले कर दुविधा में पड़ गई थीं. मैं ने उन्हें समझाया, ‘2 बच्चों में बराबरी कैसी? हर बच्चे का अपना स्वभाव होता है और फिर यह कहां का न्याय है कि दूसरे बच्चे के आते ही पहले का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाए? ऐसे में पहला बच्चा आक्रामक हो जाए तो उसे दोष मत दीजिए.’

धीरेधीरे अरु के स्वभाव में परिवर्तन आया. निधि के पास अब वह घंटों बैठी रहती थीं और जानने का भरसक प्रयत्न करतीं कि बेटी किन तर्कहीन सवालों में उलझी हुई है पर समस्याओं के तानोंबानों में उलझी निधि का व्यवहार जरा भी न बदलता था.

निधि के लिए अच्छेअच्छे समृद्ध परिवारों से कई रिश्ते आए पर वह हर बार चुप्पी साधे रही. उस के ही दायरे में बंधे, उस की छोटीछोटी गतिविधियों को देखतेदेखते अरु इतना तो जान ही गई थीं कि बेटी किसी को पसंद करने लगी है और फिर एक दिन जिद कर के जब राहुल को निधि अपने घर बुला कर लाई तो शक सच में बदल गया.

राहुल अच्छे खातेपीते घर का लड़का था पर पढ़ाई को ले कर घर के लोगों का मन नहीं मान रहा था. अरु ने कहा भी कि एम.ए. पास और कंप्यूटर डिग्रीधारी युवक को कोई विशेष योग्यता वाला नहीं माना जा सकता है. क्या कमाएगा क्या खिलाएगा. पर निधि अपनी ही जिद पर अड़ी रही.

अनुशासनप्रिय पिता के सामने बेटी का ऐसा विरोधी रूप सर्वथा नया था. कई दिन ऊहापोह में कटे. अरु व शशांक दोनों समझ रहे थे कि बेटी तर्कहीन बियाबान में खोई हुई है. उलझनों को शायद तौलना ही नहीं चाहती. तब सीमा ने मां को समझाया, ‘दीदी जहां जाना चाहती हैं उन्हें जाने दो, मां. उन की खुशी में ही हमारी खुशी है.’

लेकिन अरु को लगा निधि रेत में महल खड़ा करना चाह रही है. मां को तो हर पहलू से सोचना पड़ता है फिर चाहे अपनी बेटी के बारे में ऐसीवैसी ही बात क्यों न हो.

अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दहेज और ढेर सारी नसीहतों की पोटली बांध कर बिटिया को मां ने विदा किया तो दुख भी हुआ और आश्चर्य भी. कितना अंतर है दोनों बहनों में, एक जिद्दी तो दूसरी सरल और सौम्य.

अब निधि हर दूसरे दिन मायके आ धमकती. राहुल के पास कोई काम तो था नहीं. अत: वह भी निधि के साथ बना रहता था. हर समय की आवाजाही को देख एक दिन अरु ने निधि को टटोला तो वह ज्वालामुखी के लावे सा फट पड़ी थी.

‘मां, मेरी देवरानियां अमीर घरानों से आई हैं, मायके से उन्हें हर बार अच्छाखासा सामान मिलता है और एक आप लोग हैं कि एक बार दहेज दे कर छुट्टी पा ली. जैसे बेटी से कोई रिश्ता ही न हो. तानेउलाहने तो मुझे सहने पड़ते हैं न?’

अरु के चेहरे पर बेचारगी के भाव तिर आए. मां थीं, दुख तो होना ही था. निधि की बातें सुन कर बुरा तो मुझे भी बहुत लग रहा था पर क्या किया जा सकता था. बचपन की तृष्णा ने उस को बागी बना दिया था. छीन कर हर चीज हासिल करना उस का स्वभाव बन चुका था. काश, शशांक दंपती ने समझा होता कि बचपन ही जीवन का ऐसा स्वर्णिम अध्याय है जब उस के व्यक्तित्व की बुलंद इमारत का निर्माण होता है लेकिन यदि बच्चे को अंकुश के कड़े चाबुक से साध दिया जाए तो उस के अंदर कुंठा, घृणा, ईर्ष्या और लालच जैसी भावनाएं तो जन्म लेंगी ही.

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 1- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

‘‘अरे बावली, कहां रह गई तू?’’ रमा की कड़कती हुई आवाज ने रूपल के पैरों की रफ्तार को बढ़ा दिया.

‘‘बस, आ रही हूं मामी,’’ तेज कदमों से चलते हुए रूपल ने मामी से आगे बढ़ हाथ के दोनों थैले जमीन पर रख दरवाजे का ताला खोला.

‘‘जल्दी से रात के खाने की तैयारी कर ले, तेरे मामा औफिस से आते ही होंगे,’’ रमा ने सोफे पर पसरते हुए कहा.

‘‘जी मामी,’’ कह कर रूपल कपड़े बदल कर चौके में जा घुसी. एक तरफ कुकर में आलू उबलने के लिए गैस पर रखे और दूसरी तरफ जल्दी से परात निकाल कर आटा गूंधने लगी.

आटा गूंधते समय रूपल का ध्यान अचानक अपने हाथों पर चला गया. उसे अपने हाथों से घिन हो आई. आज भी गुरु महाराज उसके हाथों को देर तक थामे सहलाते रहे और वह कुछ न कह सकी. उन्हें देख कर कितनी नफरत होती है, पर मामी को कैसे मना करे. वे तो हर दूसरेतीसरे दिन ही उसे गुरु कमलाप्रसाद की सेवादारी में भेज देती हैं.

पहली बार जब रूपल वहां गई थी तो बड़ा सा आश्रम देख कर उसे बहुत अच्छा लगा था. खुलीखुली जगह, चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी.

खिचड़ी बालों की लंबी दाढ़ी, कुछ आगे को निकली तोंद, माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए सफेद कपड़े पहने, चांदी से चमकते सिंहासन पर आंखें बंद किए बैठे गुरु महाराज रूपल को पहली नजर में बहुत पहुंचे हुए महात्मा लगे थे जिन के दर्शन से उस की और उस के घर की सारी समस्याओं का जैसे खात्मा हो जाने वाला था.

अपनी बारी आने पर बेखौफ रूपल उन के पास जा पहुंची थी. महाराज उस के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते हुए देर तक उसे देखते रहे.

मामी की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन गुरु महाराज की कृपा उस पर औरों से ज्यादा बरसी थी.

वापसी में महाराज के एक सेवादार ने मामी के कान में कुछ कहा, जिस से उन के चेहरे पर एक चमक आ गई. तब से हर दूसरेतीसरे दिन वे रूपल को महाराज के पास भेज देती हैं.

मामी कहती हैं कि गुरु महाराज की कृपा से उस के घर के हालात सुधर जाएंगे जिस से दोनों छोटी बहनों की पढ़ाईलिखाई आसान हो जाएगी और उन का भविष्य बन जाएगा.

रूपल भी तो यही चाहती है कि मां की मदद कर उन के बोझ को कुछ कम कर सके, तभी तो दोनों छोटी बहनों और उन्हें गांव में छोड़ वह यहां मामामामी के पास रहने आ गई है.

पिछले साल जब मामामामी गांव आए थे तब अपने दुखड़े बताती मां को आंचल से आंखों के गीले कोर पोंछते देख रूपल को बड़ी तकलीफ हुई थी.

14 साल की हो चुकी थी रूपल, पर अभी भी अपने बचपने से बाहर नहीं निकल पाई थी. माली हालत खराब होने से पढ़ाई तो छूट गई थी, पर सखियों के संग मौजमस्ती अभी भी चालू थी.

ठाकुर चाचा के आम के बगीचे से कच्चे आम चुराने हों या फुलवा ताई के दालान से कांटों की परवाह किए बगैर झरबेरी के बेर तोड़ने में उस का कहीं कोई मुकाबला न था.

पर उस दिन किवाड़ के पीछे खड़ी रूपल अपनी मां की तकलीफें जान कर हैरान रह गई थी. 4 साल पहले उस के अध्यापक बाऊजी किसी लाइलाज बीमारी में चल बसे थे. मां बहुत पढ़ीलिखी न थीं इसलिए स्कूल मैनेजमैंट बाऊजी की जगह पर उन के लिए टीचर की नौकरी का इंतजाम न कर पाया. अलबत्ता, उन्हें चपरासी और बाइयों के सुपरविजन का काम दे कर एक छोटी सी तनख्वाह का जुगाड़ कर दिया था.

इधर बाऊजी के इलाज में काफी जमीन बेचनी पड़ गई थी. घर भी ठाकुर चाचा के पास ही गिरवी पड़ा था. सो, अब नाममात्र की खेतीबारी और मां की छोटी सी नौकरी 4 जनों का खर्चा पूरा करने में नाकाम थी.

रूपल को उस वक्त अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया था कि वह मां के दुखों से कैसे अनजान रही, इसीलिए जब मामी ने अपने साथ चलने के लिए पूछा तो उस ने कुछ भी सोचेसमझे बिना एकदम से हां कर दी.

तभी से मामामामी के साथ रह रही रूपल ने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था. शुरुआत में मामी ने उसे यही कहा था, ‘देख रूपल, हमारे तो कोई औलाद है नहीं, इसलिए तुझे हम ने जिज्जी से मांग लिया है. अब से तुझे यहीं रहना है और हमें ही अपने मांबाप समझना है. हम तुझे खूब पढ़ाएंगे, जितना तू चाहे.’

बस, मामी के इन्हीं शब्दों को रूपल ने गांठ से बांध लिया था. लेकिन उन के साथ रहते हुए वह इतना तो समझ गई थी कि मामी अपने किसी निजी फायदे के तहत ही उसे यहां लाई हैं. फिर भी उन की किसी बात का विरोध करे बगैर वह गूंगी गुडि़या बन मामी की सभी बातों को मानती चली जा रही थी ताकि गांव में मां और बहनें कुछ बेहतर जिंदगी जी सकें.

रूपल को यहां आए तकरीबन 6-8 महीने हो चुके थे, लेकिन मामी ने उस का किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं कराया था, बल्कि इस बीच मामी उस से पूरे घर का काम कराने लगी थीं.

मामा काम के सिलसिले में अकसर बाहर रहा करते थे. वैसे तो घर के काम करने में रूपल को कोई तकलीफ नहीं थी और रही उस की पढ़ाई की बात तो वह गांव में भी छूटी हुई थी. उसे तो बस मामी के दकियानूसी विचारों से परेशानी होती थी, क्योंकि वे बड़ी ही अंधविश्वासी थीं और उस से उलटेसीधे काम कराया करती थीं.

वे कभी आधा नीबू काट कर उस पर सिंदूर लगा कर उसे तिराहे पर रख आने को कहतीं तो कभी किसी पोटली में कुछ बांध कर आधी रात को उसे किसी के घर के सामने फेंक कर आने को कहतीं. महल्ले में किसी से उन की ज्यादा पटती नहीं थी.

मामी की बातें रूपल को चिंतित कर देती थीं. वह भले ही गांव की रहने वाली थी, पर उस के बाऊजी बड़े प्रगतिशील विचारों के थे. उन की तीनों बेटियां उन की शान थीं.

गांव के माहौल में 3-3 लड़कियां होने के बाद भी उन्हें कभी इस बात की शर्मिंदगी नहीं हुई कि उन के बेटा नहीं है. उन के ही विचारों से भरी रूपल इन अंधविश्वासों पर बिलकुल यकीन नहीं करती थी. पर न चाहते हुए भी उसे मामी के इन ढकोसलों का न सिर्फ हिस्सा बनना पड़ता, बल्कि उन्हें मानने को भी मजबूर होना पड़ता. क्योंकि अगर वह इस में जरा भी आनाकानी करती तो मामी तुरंत उस की मां को फोन लगा कर उस की बहुत चुगली करतीं और उस के लिए उलटासीधा भिड़ाया करतीं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

औनर किलिंग- भाग 1: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

हत्या की सूचना पाकर पुलिस जब एक पुरानी फैक्टरी के पास पहुंची, तो उसे वहां खून से सनी एक लाश मिली. मरने वाला शख्स यही कोई 25-26 साल का नौजवान था. हत्यारे ने बड़ी बेरहमी से उस की हत्या की थी. पुलिस को यही लग रहा था कि हत्या लूट के चलते की गई थी, लेकिन सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला है कि हत्या किसी लूट के इरादे से नहीं, बल्कि आपसी रंजिश के चलते हुई थी.

हत्या करने वाला एक नहीं, बल्कि  2 आदमी थे और दोनों के हाथों में धारदार चाकू थे. उन दोनों आदमियों ने उस नौजवान की बहुत पिटाई की थी. वह अपने दोनों हाथ जोड़ कर जान की भीख मांगता दिख रहा था, मगर उन दोनों ने बारीबारी से उस के पेट में चाकू से इतने वार किए कि मौके पर ही उस की मौत हो गई.

पुलिस को वहां गुनाह के कोई सुबूत नहीं मिल पाए और न ही गुनाहगारों की कोई पहचान हो पाई, क्योंकि दोनों  हत्यारों का चेहरा पूरी तरह से ढका  हुआ था.

गुनाहगारों की केवल 2 आंखें ही दिखाई दे रही थीं. उन दोनों ने अपने हाथों में दस्ताने पहने हुए थे और पैरों में जूते, इसलिए पुलिस पता नहीं लगा पा रही थी कि हत्यारे कौन हैं और उन्हें कैसे पकड़ा जाए?

बहुत खोजबीन करने के बाद पास की  झाडि़यों में पुलिस को खून लगी कमीज, जींस और चाकू पड़ा मिला, जिस से उस शख्स की हत्या की गई थी. लेकिन फिर भी यह कैसे पता लगाया जाए कि गुनाहगार कौन है?

उस पुरानी फैक्टरी के आसपास और सड़कों पर पुलिस के कुत्ते भी दौड़ाए गए, लेकिन हर बार वे कुछ दूर जा कर लौट आते थे. इस का मतलब यही था कि वे हत्यारे किसी गाड़ी में बैठ कर वहां से भाग गए होंगे, ऐसा पुलिस अंदाजा लगा रही थी.

मरने वाले शख्स की जेब से एक पर्स मिला, जिस से यही पता चल पाया कि उस नौजवान का नाम अतुल्य था और वह पास के ही एक गांव का रहने वाला था. उस के आइडैंटिटी कार्ड से पता चला कि वह एक कंपनी में नौकरी करता था और शायद छुट्टी में अपने गांव आ रहा था और रास्ते में ही उस के साथ यह वारदात हो गई.

जांचपड़ताल के लिए पुलिस जब उस के गांव पहुंची, तो पता चला कि अतुल्य अपने बूढ़े मांबाप का एकलौता बेटा था.

बेटे की मौत की खबर सुन कर उस की मां तो वहीं खड़ेखड़े ही बेहोश हो कर गिर पड़ीं और पिता जहां खड़े थे, वहीं जड़ हो गए.

पुलिस की गाड़ी देख कर गांव के बहुत से लोग भी वहां जुट गए और  यह सुन कर वे भी हैरान रह गए.

गांव की एक बुजुर्ग औरत ने अतुल्य की मां के चेहरे पर पानी की छींटें मारीं और उन्हें होश में लाईं. बेटे की मौत की सोच कर मां अपनी छाती पीटपीट कर यह बोल कर रोने लगीं, ‘‘हाय, अपने बेटे के जन्मदिन पर मैं ने उस के लिए खीर बनाई थी. मैं तो उस का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या हो गया? उस ने किस का क्या बिगाड़ा था? क्यों किसी ने मेरे एकलौते सहारे को मु झ से छीन लिया?’’

दूसरी तरफ पुलिस के बहुत पूछने पर अतुल्य के पिता फफकफफक कर रोते हुए बताने लगे, ‘‘हमारा बेटा एक कंपनी में नौकरी करता था. आज वह गांव आने वाला था, क्योंकि आज उस का जन्मदिन था और हम बड़ी बेसब्री से उस का इंतजार कर रहे थे.

‘‘वह तो बहुत सीधासरल लड़का था. कभी किसी से मुंह उठा कर बात भी नहीं करता था, फिर कौन उस का दुश्मन हो सकता है और क्यों मारा हमारे बेटे को?’’

बूढ़े मांबाप को रोतेबिलखते देख इंस्पैक्टर माधव भी भावुक हो गए. अतुल्य के मांबाप को हिम्मत बंधा कर पुलिस यह बोल कर वहां से चली गई कि जल्द ही हत्यारों को उन के गुनाह की सजा जरूर मिलेगी.

पुलिस हर तरह से जांच कर के थक गई, पर उन हत्यारों का कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था. आखिर हत्या की कोई तो वजह होगी न? कोई पागल तो नहीं होगा, जो आ कर यों ही किसी के पेट में चाकू मार कर भाग जाएगा?

फुटेज में साफसाफ दिख रहा था कि पूरी साजिश के तहत उस लड़के की हत्या की गई थी. हत्यारे पूरी तैयारी के साथ आए थे.

इस हत्या की वजह से पुलिस की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था. ऊपर से दबाव आ रहा था, सो अलग. पुलिस अब निराश हो चली थी. लग रहा था कि अब यह केस कभी सुल झेगा ही नहीं.

तभी एक दिन पुलिस स्टेशन में दौड़तीहांफती एक लड़की दाखिल हुई और कहने लगी कि इस हत्या के बारे में उसे पता है. वह जानती है कि अतुल्य की हत्या किस ने की है.

23-24 साल की वह दुबलीपतली लड़की बहुत डरी हुई थी. वह अपने दुपट्टे से बारबार अपना मुंह पोंछ रही थी और पीछे मुड़मुड़ कर देख भी रही थी कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा है.

‘‘एक मिनट… पहले तुम बैठो…’’ इंस्पैक्टर माधव ने अपने सामने खड़े हवलदार को इशारे से उस लड़की को पानी देने को कहा, ‘‘तुम डरो मत… यहां कोई नहीं आ सकता. तुम इतमीनान से अपनी बात कह सकती हो…’’ उस लड़की के सामने पानी का गिलास बढ़ाते हुए इंस्पेक्टर माधव बोले, ‘‘लो, पानी पी लो पहले.’’

Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 1

अरु भाभी और शशांक भैया के चेहरे के उठतेगिरते भावों को पढ़तेपढ़ते मैं सोच रही थी कि बंद मुट्ठी में रेत की तरह जब सबकुछ फिसल जाता है तब क्यों इनसान चेतता है?

बीच में ही बात काटते हुए शशांक बोल पडे़ थे, ‘नहीं डाक्टर अवस्थी, ऐसा नहीं कि हम लोग निधि को प्यार नहीं करते या हमेशा उसे मारतेपीटते ही रहते हैं. समस्या तो यह है कि निधि बहुत गंदी बातें सीख रही है.’

नन्ही निधि का छोटा सा बचपन मेरी आंखों के सामने कौंध उठा. घटनाएं चलचित्र की तरह आंखों के परदे पर आजा रही थीं.

उस दिन तेज बरसात हो रही थी. ओले भी गिर रहे थे. पड़ोस के मकान से जोरजोर से आती आवाजें सुन कर मेरा दिल दहल उठा. शशांक कह रहे थे, ‘बदमिजाज लड़की, साफसाफ बता, क्या चाहती है तू? क्या इस नन्ही सी जान की जान लेना चाहती है. छोटी बहन आई है यह नहीं कि खुद को सीनियर समझ कर उस की देखभाल करे. हर समय मारपीट पर ही उतारू रहती है.’

कमरे में गूंजती बेरहम आवाजें बाहर तक सुनाई पड़ रही थीं. निधि की कराह के साथ पूरे वेग से फूटती रुलाई को साफसाफ सुना जा सकता था.

‘पापा प्लीज, मुझे मत मारो. ऐसा मैं ने किया क्या है?’

‘पूरा का पूरा रोटी का टुकड़ा सीमा के मुंह में ठूंस दिया और पूछती है किया क्या है? देखा नहीं कैसे आंखें फट गई थीं उस बेचारी की?’

‘पापा, मैं ने सोचा सब ने नाश्ता कर लिया है. गुड्डी भूखी होगी,’ रोंआसी आवाज में अंदर की ताकत बटोरते हुए निधि ने सफाई सी दी.

‘एक माह की बच्ची रोटी खाएगी, अरी, अक्ल की दुश्मन, वह तो सिर्फ मां का दूध पीती है,’ आंखें तरेरते हुए शशांक बिफर उठे और एक थप्पड़ निधि के गाल पर जड़ दिया.

उस घर में जब से सीमा का जन्म हुआ था. ऐसा अकसर होने लगा था और वह बेचारी पिट जाती थी.

निधि का आर्तनाद सुन कर मैं सोचती कि ये कैसे मांबाप हैं जो इतना भी नहीं समझ पाते कि ऐसा क्रूर और कठोर व्यवहार बच्चे की कोमल भावनाओं को समाप्त करता चला जाएगा.

निधि बचपन से ही मेरे घर आया करती थी. जिस दिन अरु अस्पताल से सीमा को ले कर घर आई, वह बेहद खुश थी. दादी की मदद ले कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उस ने पूरे कमरे में रंगबिरंगे खिलौने सजा दिए.

सीमा का नामकरण संस्कार संपन्न हुआ. मेहमान अपनेअपने घर चले गए थे. परिवार के लोग बैठक में जमा हो कर गपशप में मशगूल थे. निधि भी सब के बीच बैठी हुई थी. अचानक अपनी गोलगोल आंखें मटका कर बालसुलभ उत्सुकता से उस ने मां की तरफ देख कर पूछ लिया, ‘मां, मेरा भी नामकरण ऐसे ही हुआ था?’

‘ऊं हूं,’ चिढ़ाने के लिए उस ने कहा, ‘तुम्हें तो मैं फुटपाथ से उठा कर लाई थी.’

निधि को विश्वास नहीं हुआ तो दोबारा प्रश्न किया, ‘सच, मम्मी?’

अरु ने निधि की बात को सुनी- अनसुनी कर सीमा के नैपीज और फीडर उठाए और अपने कमरे में चली गई.

अगले दिन 10 बजे तक जब निधि सो कर नहीं उठी, तब अरु का ध्यान बेटी की तरफ गया. उस ने जा कर देखा तो पता चला कि तेज बुखार से निधि का पूरा शरीर तप रहा था. आंखों के डोरे लाल थे. कपोलों पर सूखे आंसुओं की परत जमा थी. अरु ने पुचकार कर पूछा, ‘तबीयत खराब है या किसी ने कुछ कहा है?’

निधि ने मां की किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया.

निधि का बुखार तो ठीक हो गया पर अब वह हर समय गुमसुम सी बैठी रहती थी. घर में वह न तो किसी से कुछ कहती, न ज्यादा बात ही करती थी. अपने कमरे में पड़ीपड़ी घंटों किताब के पन्ने पलटती रहती. घर के सभी सदस्य यही समझते कि निधि पहले से ज्यादा मन लगा कर पढ़ने लगी है.

एक दिन सीमा को तेज बुखार चढ़ गया. दादी और शशांक दोनों घर पर नहीं थे. अरु समझ नहीं पा रही थी कि सीमा को ले कर कैसे डाक्टर के पास जाए. तभी निधि स्कूल से आ गई. उसे भी हरारत के साथ खांसीजुकाम था. अरु सीमा को निधि के हवाले कर डाक्टर के पास दवाई लेने चली गई. वापस लौटी तो सीमा के लिए ढेर सारी दवाइयां और टानिक थे पर उस में निधि के लिए कोई दवा नहीं थी.

शाम को शशांक और दादी लौट आए. कोई सीमा की पेशानी पर हाथ रखता, कोई गोदी में ले कर पुचकारता. मां पानी की पट्टियां सीमा के माथे पर रखती जा रही थीं पर किसी ने निधि की ओर ध्यान नहीं दिया.

शाम को सीमा थोड़ी ठीक हुई तो अरु उसे गोद में ले कर बालकनी में आ गई. मैं भी कुछ पड़ोसिनों के साथ अपनी बालकनी में बैठी थी. अचानक निधि ने एक छोटा सा पत्थर उठा कर नीचे फेंक दिया तो प्रतिक्रिया में अरु जोर से चिल्लाई, ‘निधि, चल इधर, वहां क्या देख रही है? छत से पत्थर क्यों फेंका?’

अरु की तेज आवाज सुन कर मेरे साथ बैठी एक पड़ोसिन ने कहा, ‘रहने दीजिए भाभीजी, बच्चा है.’

‘ऐसे ही तो बच्चे बिगड़ते हैं. यदि अभी से नहीं रोका तो सिर पर चढ़ कर बोलेगी,’ अरु की आवाज में चिड़- चिड़ापन साफ झलक रहा था.

मैं निधि के बारे में सोचने लगी थी कि उसे भी तो सीमा की तरह बुखार था. उस का भी तो मन कर रहा होगा कोई उसे पुचकारे, उस की तबीयत के बारे में पूछे. क्योंकि सीमा के जन्म से पहले उस के शरीर पर लगी छोटी सी खरोंच भी पूरे परिवार को चिंता में डाल देती थी. लेकिन इस समय सभी सीमा की तबीयत को ले कर चिंतित थे और निधि को अपने घर वालों की उपेक्षा बरदाश्त नहीं हो पा रही थी.

विस्मृत होता अतीत – भाग 1: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

काफीदिनों के बाद अपना फेसबुक पेज अपडेट कर ही रही थी कि चैंटिंग विंडो पर ‘हाई’ शब्द ब्लिंक हुआ. पहले तो मैं ने ध्यान नहीं दिया, मगर बारबार ब्लिंक होने पर देखा तो कोई महोदय चैट करने को आतुर दिखाई दे रहे थे. निश्चित ही मेरी फ्रैंड्स लिस्ट में से यह कोई व्यक्ति था. उस से बात करने से पहले मैं ने उस का प्रोफाइल टटोला. नाम कौशल था. मैं ने चैट करने से परहेज किया, क्योंकि मैं चैट करने में रुचि नहीं रखती, पर यह तो कोई ढीठ बंदा था.

थोड़ी देर बाद उस ने मैसेज भेजा, ‘हाऊ आर यू मैम…?’ अब मुझे भी लगा कि जवाब न देना शिष्टाचार के विरुद्ध होगा. अत: अनमने ढंग से ‘हाई, फाइन’ लिखा. मेरी कोशिश यही थी कि उसे चैट के लिए हतोत्साहित किया जाए. मैं ने स्वयं को व्यस्त दिखाने की कोशिश की. फिर से मैसेज उभरा, ‘लगता है मैम बिजी हैं…?’ मेरे संक्षिप्त जवाब ‘हां’ से उस ने फिर मैसेज भेजा, ‘ओके… मैम. सम अदर टाइम.’ मैं ने भी ‘ओह’ लिख कर चैन की सांस ली ही थी कि डोरबैल बजी. घड़ी में देखा तो शाम के 6 बज रहे थे. लगता है राजीव औफिस से लौट आए थे.

जैसे ही दरवाजा खोला, ‘‘और क्या चल रहा है मैडम…?’’ राजीव ने कहा. उन्हें जब मुझे चिढ़ाना होता है तो वे इस शब्द का इस्तेमाल

करते हैं. वे जानते हैं कि मैं मैडम शब्द से बहुत चिढ़ती हूं.

‘‘कोई खास बात नहीं, बस नैट पर सर्फिंग कर रही थी…’’ मैं ने थोड़ा चिढ़ कर ही जवाब दिया. राजीव मुसकराए. मैं उन की इसी मुसकराहट पर फिदा थी. मेरा गुस्सा एकदम गायब हो चुका था. राजीव जानते थे कि मेरे गुस्से को कैसे कम किया जा सकता है. इसलिए वे मुझे चिढ़ाने के बाद अकसर अपनी जानलेवा मुसकराहट से काम लिया करते थे.

‘‘अच्छा यार, अदरक वाली चाय तो पिलाओ… और इस रिमझिम बारिश में गरमगरम पकौड़े हो जाएं तो अपना दिन… अरे नहीं शाम बन जाएगी…’’ उन की फ्लर्टिंग पर मुझे हंसी आ गई. बाहर वास्तव में बारिश हो रही थी. घर के अंदर होने से मेरा ध्यान ही नहीं गया था. मैं जल्दी से चाय और पकौड़े बनाने लगी और राजीव फ्रैश होने चले गए. उन्होंने हम दोनों की पसंदीदा जगह यानी बालकनी में चाय पीने की फरमाइश की. चाय पीतेपीते वे बड़े खुशगवार मूड में दिखे.

मुझ से रहा नहीं गया, ‘‘क्या बात है जनाब… बड़े मूड में लग रहे हैं…’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘अरे वाह कैसे जाना…,’’ वे थोड़ा हैरत से बोले.

‘‘आप की बैटरहाफ हूं. 15 सालों में इतना भी नहीं जानूंगी…?’’ थोड़ा इतराते हुए मैं ने कहा.

‘‘हां, बात तो तुम्हारी ठीक है,’’ वे थोड़ा गंभीर हो कर बोले.

कुछ देर हम दोनों चुपचाप चाय और पकौड़े का स्वाद लेते रहे. राजीव थोड़ी देर बाद मेरी ओर देख कर शरारत में मुसकराए और मैं उन का मंतव्य समझ गई.

‘‘कोई शरारत नहीं जनाब…,’’ मैं ने शरमाते हुए कहा. फिर हम घर के इंटीरियर के बारे में बात करने लगे. पूरा घर अस्तव्यस्त पड़ा था. इस नए फ्लैट में हम हाल ही में शिफ्ट हुए थे. घर का फाइनल टचअप बाकी था. राजीव और बच्चों में इसी बात को ले कर तकरार चल रही थी कि किस कमरे में कौन सा पेंट करवाया जाए. इसी बीच बेटा शुभांग और बेटी शिवानी भी आ गए. जिन्होंने जिद की तो राजीव उन्हें ले कर बाजार चले गए. मैं ने बहुत रोका कि पानी बरस रहा है पर बच्चों के उत्साह के आगे उन्हें सब फीका लगा. उन्होंने कार गैराज से निकाली और मुझे भी साथ चलने को कहा, पर मैं अस्तव्यस्त पड़े घर को ठीक करने की सोच कर रुक गई.

काम निबटा कर जैसे ही फ्री हुई तो लैपटौप पर निगाह गई तो सोचा कि क्यों न कुछ सर्फिंग हो जाए. अब जब इंटरनैट खोला तो खुद को फेसबुक ओपन करने से रोक नहीं पाई. अभी कुछ टाइप कर ही रही थी कि कौशल महोदय ‘हाई और हैलो’ के साथ हाजिर नजर आए. कुछ खास काम तो था नहीं और सोचा राजीव और बच्चे न जाने कितनी देर में आएंगे, तो इन्हीं कौशलजी से थोड़ी देर चैट कर लिया जाए.

मैं ने भी उसे हैलो किया और चैट करना शुरू किया तो उस ने अचानक मुझ से सवाल किया, ‘क्या आप तितली हैं…?’ मैं असमंजस में पड़ गई कि भला यह क्या सवाल हुआ…? उस ने मेरा ध्यान मेरी प्रोफाइल पिक्चर की ओर दिलवाया. इस बात पर मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. मुझे वह इमेज अच्छी लगी थी तो मैं ने उसे डाल दिया था. जब उस ने इसी बात को एक बार और पूछा तो मैं चिढ़ सी गई और बहाना बना कर लौगआउट कर लिया. मुझे गुस्सा भी आ रहा था कि इस बंदे को अपनी फ्रैंड्स लिस्ट से डिलीट कर दूं. अगली बार ऐसा ही करूंगी सोच कर मैं उठ गई और रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

आने वाले कई दिनों तक हम घर की साजसज्जा में लगे रहे. घर के इंटीरियर का काम लगभग पूरा हो चुका था. आज घर पूरी तरह से सज चुका था और अब ऐसा लग रहा था कि मानों कंधों पर से कोई बोझ उतर गया हो. चूंकि बच्चे और राजीव घर पर नहीं थे तो थोड़ा रिलैक्स होने के लिए सोचा क्यों न नैट खोल कर बैठूं. अपना मेल चैक कर रही थी तो कुछ खास नहीं था सिवाय एरमा के मेल के.

उस ने मेल किया था कि उसे उसे नई जौब मिल गई है और वह लौसएंजिल्स शिफ्ट हो रही थी. उस ने बताया कि वह कंपनी की तरफ से बहुत जल्दी इंडिया भी आएगी. मैं ने उसे बधाई दी और उसे अपने घर आ कर ठहरने का न्योता भी दिया. एरमा मेरी फेसबुक फ्रैंड थी. मेल चैक करने के बाद एक बार फिर फेसबुक ओपन किया तो देखा तो मैसेजेस का ढेर लगा पड़ा था. मुझे आज तक इतने मैसेज कभी भी नहीं आए थे. जब खोला 7-8 मैसेज तो कौशल महोदय के थे. ‘हाई, कैसे हैं आप…?’, ‘नाराज हैं क्या…?’, ‘आप फेसबुक पर नहीं आ रहीं…’ इत्यादिइत्यादि. ये सब देख कर मेरा मूड खराब हो गया.

 

अम्मा- भाग 1: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

सब से बड़ी बात-बड़ों की जिंदगी का अनुभव कितनी समस्याओं को सुलझा देता है. लेकिन आज अम्मां वृद्धाश्रम में थीं. क्या वृद्धाश्रम से वापस घर आना उन्हें मंजूर हुआ? आफिस से फोन कर अजय ने नीरा को बताया कि मैं  आनंदधाम जा रहा हूं, तो उस के मन में विचारों की बाढ़ सी आ गई. आनंदधाम यानी वृद्धाश्रम. शहर के एक कोने में स्थित है यह आश्रम. यहां ऐसे बेसहारा, लाचार वृद्धों को शरण मिलती है जिन की देखभाल करने वाला अपना इस संसार में कोई नहीं होता. रोजमर्रा की सारी सुविधाएं यहां प्रदान तो की जाती हैं पर बदले में मोटी रकम भी वसूली जाती है.

बिना किसी पूर्व सूचना के क्यों जा रहा है अजय आनंदधाम? जरूर कोई गंभीर बात होगी.

यह सोच कर नीरा कार में बैठी और अजय के दफ्तर पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, सब खैरियत तो है?’’

‘‘नीरा, अम्मां, पिछले 1 साल से आनंदधाम में रह रही हैं. आश्रम से महंतजी का फोन आया था. गुसलखाने में फिसल कर गिर पड़ी हैं.’’

अजय की आवाज के भारीपन से ही नीरा ने अंदाजा लगा लिया था कि अम्मां के अलगाव से मन में दबीढकी भावनाएं इस पल जीवंत हो उठी हैं.

‘‘हम चलते हैं, अजय. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘अच्छा होगा मां को यदि किसी विशेषज्ञ को दिखाएं.’’

‘‘ठीक है, रुपए बैंक से निकलवा कर चलते हैं. पता नहीं कब कितने की जरूरत पड़ जाए,’’ सांत्वना के स्वर में नीरा ने कहा तो अजय को तसल्ली हुई.

‘‘मैं तो इस घटना को सुनने के बाद इतना परेशान हो गया था कि रुपयों का मुझे खयाल ही नहीं आया. प्राइवेट अस्पताल में रुपए की तो जरूरत पड़ेगी ही.’’

कुछ ही समय में नीरा रुपए ले कर आ गई. कार स्टार्ट करते ही पत्नी की बगल में बैठे अजय की यादों में 1 साल पहले का वह दृश्य सजीव हो उठा जब तिर्यक कुटिल दृष्टि से नीरा ने अम्मां को इतना अपमानित किया था कि वह चुपचाप अपना सामान बांध कर घर से चली गई थीं.

जातेजाते भी अम्मां की तीक्ष्ण दृष्टि नीरा पर टिक गई थी.

‘अजय, मेरी जिंदगी बची ही कितनी  है? मेरे लिए तू अपनी गृहस्थी में दरार मत डाल,’ अम्मां की गंभीर आवाज और अभिजात दर्पमंडित व्यक्तित्व की छाप वह आज तक अपने मानसपटल से कहां मिटा पाया था.

‘जाना तो अम्मां सभी को है… और रही दरार की बात, तो वह तो कब की पड़ चुकी है. अब कहीं वह दरार खाई में न बदल जाए. यह सोच लीजिए,’ अम्मां के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई नीरा बोली. वह तो इसी इंतजार में बैठी थी कि कब अम्मां घर छोडे़ं और उसे संपूर्ण सफलता हासिल हो.

कहीं अजय की भावुकता अम्मां के पैरों में पुत्र प्रेम की बेडि़यां डाल कर उन्हें रोक न ले, इस बात का डर था नीरा को इसलिए भी वह और अधिक तल्ख हो गई थी.

अगले ही दिन अजय ने फोन पर कुटिल हंसी की खनक में डूबी और बुलंद आवाज की गहराई में उभरते दंभ की झलक के साथ नीरा को किसी से बात करते सुना:

‘जिंदगी भर अब पास न फटकने देने का इंतजाम कर लिया है. कुशलक्षेम पूछना तो दूर, अजय श्राद्ध तक नहीं करेगा अम्मां का.’

उस दिन पत्नी के शब्दों ने अजय को झकझोर कर रख दिया था. समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया. पर जब आंखों से परदा हटा तो उस ने निर्णय लिया कि किसी भी हाल में अम्मां को जाने नहीं देगा. रोया, गिड़गिड़ाया, हाथ जोडे़, पैर छुए, पर अम्मां रुकी नहीं थीं. दयनीय बनना उन की फितरत में नहीं था. स्वाभिमानी शुरू से ही थीं.

अम्मां के जाने के बाद उन के तकिए के नीचे से एक लिफाफा मिला था. लिखा था, ‘इनसान क्यों अपनेआप को परिवार की माला में पिरोता है? इसीलिए न कि परिवार का हर संबंधी एकदूसरे के लिए सुखदुख का साथी बने. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से परिवार की डोर टूटने लगे तो अकेले मोती की तरह इधरउधर डोलने या अपने इर्दगिर्द बने सन्नाटे में दुबक जाने के बजाय वहां से हट जाना बेहतर होता है.

‘हमेशा के लिए नहीं, कुछ समय के लिए ही जा रही हूं पर यह समय, कुछ दिन, कुछ महीने या फिर कुछ सालों का भी हो सकता है. दिल से दिल के तार जुड़े होते हैं और ये तार जब झंकृत होते हैं तो पता चल जाता है कि हमें किसी ने याद किया है. जिस पल हमें ऐसा महसूस होगा, हम जरूर मिलेंगे, अम्मां.’

तेज बारिश हो रही थी. गाड़ी से बाहर देखने की कोशिश में अजय ने अपना चेहरा खिड़की के शीशे से सटा दिया. बाहर खिड़की के कांच पर गिर रही एकएक बूंद धीरेधीरे एकसाथ मिल कर पूरे कांच को ढक देती थी. जरा सा कांच पोंछने पर अजय को हर बार एक चेहरा दिखाई देता था. ढेर सारा वात्सल्य समेटे, झुर्रियों भरा वह चेहरा, जिस ने उसे प्यार दिया, 9 माह अपनी कोख में रखा, अपने रक्तमांस से सींचा, आंचल की छांव दी. उस का स्वास्थ्य, उस की पढ़ाई, उस की खुशी, अम्मां की पूरी दुनिया ही अजय के इर्दगिर्द सिमटी थी.

जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में नीरा और अजय विवाह सूत्र में बंधे थे उन हालात में नीरा को परिवार का अंश बनने के लिए अम्मां को न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा था.

लाखों रुपए के दहेज का प्रस्ताव ले कर, कई संपन्न परिवारों से अजय के लिए रिश्ते आए थे, पर अम्मां ने बेटे की पसंद को ही सर्वोपरि माना. अम्मां यही दोहराती रहीं कि गरीब घर की लड़की अधिक संवेदनशील होगी. घर का वातावरण सुखमय बनाएगी, अच्छी पत्नी और सुघड़ बहू साबित होगी.

पासपड़ोस के अनुभवों, किस्से- कहानियों को सुन कर अजय ने यही निष्कर्ष निकाला था कि बहू के आते ही घर का वातावरण बदल जाता है. अजय का मन किसी अज्ञात आशंका से घिरा है, अम्मां यह समझ गई थीं. बड़ी ही समझदारी से उन्होंने अजय को समझाया था :

‘बेटा, लोग हमेशा बहुओं को ही दोषी ठहराते हैं, पर मेरी समझ में ऐसा होता नहीं है. घर में जब भी कोई नया सामान आता है तो पुराने सामान को हटना ही पड़ता है. नया पत्ता तभी शाख पर लगता है जब पुराना उखड़ता है. जब भी किसी पौधे को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह आरोपित किया जाता है तो वह तभी पुष्पित, पल्लवित होता है जब उसे पर्याप्त मात्रा में खादपानी मिलता है. सामंजस्य, समझौता, समर्पण, दोनों ही पक्षों की तरफ से होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो परिवार बिखरता है.’

अजय आश्वस्त हो गया. अम्मां ने नीरा को प्यार और अपनत्व से और नीरा ने उन्हें सम्मान और कर्तव्यनिष्ठा से अपना लिया. बहू में उन की आत्मा बसती थी. उसे सजतेसंवरते देख अम्मां मुग्धभाव से हिलोरें लेतीं. नीरा की कमियों को कोई गिनवाता तो चट से मोर्चा संभाल लेतीं.

‘मेरी अपर्णा को ही क्या आता था. पर धीरेधीरे जिम्मेदारियों के बोझ तले, सबकुछ सीखती चली गई.’

1 वर्ष बीततेबीतते अजय जुड़वां बेटों का बाप बन गया. अम्मां के चेहरे पर भारी संतोष की आभा झलक उठी. इसी दिन के लिए ही तो वह जैसे जी रही थीं. अस्पताल के कौरीडोर में नर्सों, डाक्टरों से बातचीत करतीं अम्मां को देख कर कौन कह सकता था कि वह घर से बाहर कभी निकली ही नहीं.

लवकुश नाम रखा उन्होंने अपने पोतों का. 40 दिन तक उन्होंने नीरा को बिस्तर से उठने नहीं दिया. अपर्णा को भी बुलवा भेजा. ननदभौजाई गप्पें मारतीं, अम्मां चौका संभालतीं.

‘अब तो महीना होने को आया. मेरी सास तो 21 दिन बाद ही घर की बागडोर मुझे संभालने को कह कर खुद आराम करती हैं,’ अम्मां की भागदौड़ से परेशान अपर्णा ने कहा तो अम्मां ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘तेरी ससुराल में होता होगा. थोड़ा-बहुत काम करने से शरीर में जंग नहीं लगता.’

‘थोड़ाबहुत?’ अपर्णा ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा था.

‘संयुक्त परिवार की यही  तो परिभाषा है. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के काम आओ. कच्चा शरीर है. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो जिंदगी भर का रोना.’

सवा महीना बीत गया. अपर्णा अपनी ससुराल लौट रही थी. अम्मांबाबूजी हमेशा भरपूर नेग देते थे. और इस बार तो लवकुश भी आ गए थे. अपर्णा ने मनुहार की. ‘2 दिन बाद तो मैं चली जाऊंगी. अम्मां, एक बार बाजार तो मेरे साथ चलो.’

‘ऐसा कर, अजय दफ्तर के लिए निकले तो दोनों ननदभावज उस के साथ ही निकल जाओ. जो जी चाहे, खरीद लो. पेमेंट बाबूजी कर देंगे.’

‘आप के साथ जाने का मन है, अम्मां. एक दिन भाभी संभाल लेंगी,’ अपर्णा ने मचल कर कहा तो अम्मां की आंखें नम हो आई थीं.

‘फिर कभी सही. तेरे जाने की तैयारी भी तो करनी है.’

विदाई- भाग 2: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

उस ने आगे बढ़ कर अपनी पत्नी को बांहों में भर लिया. कविता अचानक हिचकियां ले कर रोने लगी. नीरज की आंखों से भी आंसू बह रहे थे.

कविता के शरीर ने जब कांपना बंद कर दिया तब नीरज ने उसे अपनी बांहों के घेरे से मुक्त किया. अब तक अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का सहारा ले कर उस ने खुद को काफी संभाल भी लिया था.

‘‘मेरे सामने यह रोनाधोना नहीं चलेगा, जानेमन,’’ उस ने मुसकरा कर कविता के गाल पर चुटकी भरी, ‘‘इन मुसीबत के क्षणों को भी हम उत्साह, हंसीखुशी और प्रेम के साथ गुजारेंगे. यह वादा इसी वक्त तुम्हें मुझ से करना होगा, कविता.’’

नीरज ने अपना हाथ कविता के सामने कर दिया.

कविता शरमाते हुए पहली बार सहज ढंग से मुसकराई और उस ने हाथ बढ़ा कर नीरज का हाथ पकड़ लिया.

उस रात नीरज अपनी ससुराल में रुका. दोनों ने साथसाथ खाना खाया. फिर देर रात तक हाथों में हाथ ले कर बातें करते रहे.

भविष्य के बारे में कैसी भी योजना बनाने का अवसर तो नियति ने उन से छीन ही लिया था. अतीत की खट्टीमीठी यादों को ही उन दोनों ने खूब याद किया.

सुहागरात, शिमला में बिताया हनीमून, साथ की गई खरीदारी, देखी हुई जगहें, आपसी तकरार, प्यार में बिताए क्षण, प्रशंसा, नाराजगी, रूठनामनाना और अन्य ढेर सारी यादों को उन्होंने उस रात शब्दों के माध्यम से जिआ.

हंसतेमुसकराते, आंसू बहाते वे दोनों देर रात तक जागते रहे. कविता उसे यौन सुख देने की इच्छुक भी थी पर कैंसर ने इतना तेज दर्द पैदा किया कि उन का मिलन संभव न था.

अपनी बेबसी पर कविता की रुलाई फूट पड़ी. नीरज ने बड़े सहज अंदाज में पूरी बात को लिया. वह तब तक कविता के सिर को सहलाता रहा जब तक वह सो नहीं गई.

‘‘मैं तुम्हारी अंतिम सांस तक तुम्हारे पास हूं, कविता. इस दुनिया से तुम्हारी विदाई मायूसी व शिकायत के साथ नहीं बल्कि प्रेम व अपनेपन के एहसास के साथ होगी, यह वादा है मेरा तुम से,’’ नींद में डूबी कविता से यह वादा कर के ही नीरज ने सोने के लिए अपनी आंखें बंद कीं.

अगले दिन सुबह नीरज और कविता 2 कमरों वाले एक फ्लैट में  रहने चले आए. यह खाली पड़ा फ्लैट नीरज के एक पक्के दोस्त रवि का था. रवि ने फ्लैट दिया तो अन्य दोस्तों व आफिस के सहयोगियों ने जरूरत के दूसरे सामान भी फ्लैट में पहुंचा दिए.

नीरज ने आफिस से लंबी छुट्टी ले ली. जहां तक संभव होता अपना हर पल वह कविता के साथ गुजारने की कोशिश करता.

उन से मिलने रोज ही कोई न कोई घर का सदस्य, रिश्तेदार या दोस्त आ जाते. सभी अपनेअपने ढंग से सहानुभूति जाहिर कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश करते.

नीरज की समझ में एक बात जल्दी ही आ गई कि हर सहानुभूतिपूर्ण बातचीत के बाद वह दोनों ही उदासी और निराशा का शिकार हो जाते थे. शब्दों के माध्यम से शरीर या मन की पीड़ा को कम करना संभव नहीं था.

इस समझ ने नीरज को बदल दिया. कविता का ध्यान उस की घातक बीमारी पर से हटा रहे, इस के लिए उस ने ज्यादा सक्रिय उपायों को इस्तेमाल में लाने का निर्णय किया.

उसी शाम वह बाजार से लूडो और कैरमबोर्ड खरीद लाया. कविता को ये दोनों ही खेल पसंद थे. जब भी समय मिलता दोनों के बीच लूडो की बाजी जम जाती.

एक सुबह रसोई में जा कर नीरज ने कविता से कहा, ‘‘मुझे भी खाना बनाना सिखाओ, मैं चाय बनाने के अलावा और कुछ जानता ही नहीं.’’

‘‘अच्छा, खाना बनाना सीखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी जनाब,’’ कविता उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए मुसकराई.

‘‘मैडमजी, मैं पूरी लगन से सीखूंगा.’’

‘‘मेरी डांट भी सुननी पड़ेगी.’’

‘‘मुझे मंजूर है.’’

‘‘तब पहले सब्जी काटना सीखो,’’ कविता ने 4 आलू मजाकमजाक में नीरज को पकड़ा दिए.

नीरज तो सचमुच आलुओं को धो कर उन्हें काटने को तैयार हो गया. कविता ने उसे रोकना भी चाहा, पर वह नहीं माना.

उसे ढंग से चाकू पकड़ना भी कविता को सिखाना पड़ा. नीरज ने आलू के आड़ेतिरछे टुकड़े बड़े ध्यान से काटे. दोनों ने ही इस काम में खूब मजा लिया.

‘‘अब मैं तुम्हें खिलाऊंगा आलू के पकौड़े,’’ नीरज की इस घोषणा को सुन कर कविता ने इतनी तरह की अजीबो- गरीब शक्लें बनाईं कि उस का हंसतेहंसते पेट दुखने लगा.

नीरज ने बेसन खुद घोला. तेल की कड़ाही के सामने खुद ही जमा रहा. कविता की सहायता व सलाह लेना उसे मंजूर था, पर पकौड़े बनाने का काम उसी ने किया.

उस दिन के बाद से नीरज भोजन बनाने के काम में कविता का बराबर हाथ बंटाता. कविता को भी उसे सिखाने में बहुत मजा आता. रसोई में साथसाथ बिताए समय के दौरान वह अपना दुखदर्द पूरी तरह भूल जाती.

‘‘मैं नहीं रहूंगी, तब भी आप कभी भूखे नहीं रहोगे. बहुत कुछ बनाना सीख गए हो अब आप,’’ एक रात सोने के समय कविता ने उसे छेड़ा.

‘‘तुम से मैं ने यह जो खाना बनाना सीखा है, शायद इसी की वजह से ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जो तुम मेरे साथ मेरे दिल में कभी न रहो,’’ नीरज ने उस के होंठों को चूम लिया.

नीरज से लिपट कर बहुत देर तक खामोश रहने के बाद कविता ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आप के प्यार के कारण अब मुझे मौत से डर नहीं लगता है.

‘‘जिस से जानपहचान नहीं उस से डरना क्या. जीवन प्रेम से भरा हो तो मौत के बारे में सोचने की फुरसत किसे है,’’ नीरज ने इस बार उस की आंखों को बारीबारी से चूमा.

‘‘आप बहुत अच्छे हो,’’ कविता की आंखें नम होने लगीं.

‘‘थैंक यू. देखो, अगर मैं तुम्हारी तारीफ करने लगा तो सुबह हो जाएगी. कल अस्पताल जाना है. अब तुम आराम करो,’’ अपनी हथेली से नीरज ने कविता की आंखें मूंद दीं.

कुछ ही देर में कविता गहरी नींद के आगोश में पहुंच गई. नीरज देर तक उस के कमजोर पर शांत चेहरे को प्यार से निहारता रहा.

हर दूसरे दिन नीरज अपने किसी दोस्त की कार मांग लाता और कविता को उस की सहेलियों व मनपसंद रिश्तेदारों से मिलाने ले जाता. कभीकभी दोनों अकेले किसी उद्यान में जा कर हरियाली व रंगबिरंगे फूलों के बीच समय गुजारते. एकदूसरे का हाथ थाम कर अपने दिलों की बात कहते हुए समय कब बीत जाता उन्हें पता ही नहीं चलता.

नीरज कितनी लगन व प्रेम से कविता की देखभाल कर रहा है, यह किसी की नजरों से छिपा नहीं रहा. कविता के मातापिता व भाई हर किसी के सामने नीरज की प्रशंसा करते न थकते.

नीरज के अपने मातापिता को उस का व्यवहार समझ में नहीं आता. वे उस के फ्लैट से हमेशा चिंतित व परेशान से हो कर लौटते.

विदाई- भाग 1: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

नीरज 3 महीने की टे्रनिंग के लिए दिल्ली से मुंबई गया था पर उसे 2 माह बाद ही वापस दिल्ली लौटना पड़ा था.

‘‘कविता की तबीयत बहुत खराब है. डा. विनिता कहती हैं कि उसे स्तन कैंसर है. तुम फौरन यहां आओ,’’ टेलीफोन पर अपने पिता से पिछली शाम हुए इस वार्त्तालाप पर नीरज को विश्वास नहीं हो रहा था.

कविता और उस की शादी हुए अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए थे. सिर्फ 25-26 साल की कम उम्र में कैंसर कैसे हो गया? इस सवाल से जूझते हुए नीरज का सिर दर्द से फटने लगा था.

एअरपोर्ट से घर न जा कर नीरज सीधे डा. विनिता से मिलने पहुंचा. इस समय उस का दिल भय और चिंता से बैठा जा रहा था.

डा. विनिता ने जो बताया उसे सुन कर नीरज की आंखों से आंसू झरने लगे.

‘‘तुम्हें तो पता ही है कि कविता गर्भवती थी. उसे जिस तरह का स्तन कैंसर हुआ है, उस का गर्भ धारण करने से गहरा रिश्ता है. इस तरह का कैंसर कविता की उम्र वाली स्त्रियों को हो जाता है,’’ डा. विनिता ने गंभीर लहजे में उसे जानकारी दी.

‘‘अब उस का क्या इलाज करेंगे आप लोग?’’ अपने आंसू पोंछ कर नीरज ने कांपते स्वर में पूछा.

बेचैनी से पहलू बदलने के बाद डा. विनिता ने जवाब दिया, ‘‘नीरज, कविता का कैंसर बहुत तेजी से फैलने वाला कैंसर है. वह मेरे पास पहुंची भी देर से थी. दवाइयों और रेडियोथेरैपी से मैं उस के कैंसर के और ज्यादा फैलने की गति को ही कम कर सकती हूं, पर उसे कैंसरमुक्त करना अब संभव नहीं है.’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं? मेरी कविता क्या बचेगी नहीं?’’ नीरज रोंआसा हो कर बोला.

‘‘वह कुछ हफ्तों या महीनों से ज्यादा हमारे साथ नहीं रहेगी. अपनी प्यार भरी देखभाल व सेवा से तुम्हें उस के बाकी बचे दिनों को ज्यादा से ज्यादा सुखद और आरामदायक बनाने की कोशिश करनी होगी. कविता को ले कर तुम्हारे घर वालों का आपस में झगड़ना उसे बहुत दुख देगा.’’

‘‘यह लोग आपस में किस बात पर झगड़े, डाक्टर?’’ नीरज चौंका और फिर ज्यादा दुखी नजर आने लगा.

‘‘कैंसर की काली छाया ने तुम्हारे परिवार में सभी को विचलित कर दिया है. कविता इस समय अपने मायके में है. वहां पहुंचते ही तुम्हें दोनों परिवारों के बीच टकराव के कारण समझ में आ जाएंगे. तुम्हें तो इस वक्त बेहद समझदारी से काम लेना है. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ नीरज की पीठ अपनेपन से थपथपा कर डा. विनिता ने उसे विदा किया.

ससुराल में कविता से मुलाकात करने से पहले नीरज को अपने सासससुर व साले के कड़वे, तीखे और अपमानित करने वाले शब्दों को सुनना पड़ा.

‘‘कैंसर की बीमारी से पीडि़त अपनी बेटी को मैं ने धोखे से तुम्हारे साथ बांध दिया, तुम्हारे मातापिता के इस घटिया आरोप ने मुझे बुरी तरह आहत किया है. नीरज, मैं तुम लोगों से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं,’’ गुस्से में उस के ससुर ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘इस कठिन समय में उन की मूर्खतापूर्ण बातों को आप दिल से मत लगाइए,’’ थकेहारे अंदाज में नीरज ने अपने ससुर से प्रार्थना की.

‘‘इस कठिन समय को गुजारने के लिए तुम सब हमें अकेले छोड़ने की कृपा करो. बस,’’ उस के साले ने नाटकीय अंदाज में अपने हाथ जोड़े.

‘‘तुम भूल रहे हो कि कविता मेरी पत्नी है.’’

‘‘आप जा कर अपने मातापिता से कह दें कि हमें उन से कैसी भी सहायता की जरूरत नहीं है. अपनी बहन का इलाज मैं अपना सबकुछ बेच कर भी कराऊंगा.’’

‘‘देखिए, आप लोगों ने आपस में एकदूसरे से झगड़ते हुए क्याक्या कहा, उस के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं. मेरी गृहस्थी उजड़ने की कगार पर आ खड़ी हुई है. कविता से मिलने को मेरा दिल तड़प रहा है…उसे मेरी…मेरे सहारे की जरूरत है. प्लीज, उसे यहां बुलाइए,’’ नीरज की आंखों से आंसू बहने लगे.

नीरज के दुख ने उन के गुस्से के उफान पर पानी के छींटे मारने का काम किया. उस की सास पास आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

अब उन सभी की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘‘कविता की मौसी उसे अपने साथ ले कर गई हैं. वह रात तक लौटेंगी. तुम तब तक यहां आराम कर लो,’’ उस की सास ने बताया.

अपने हाथों से मुंह कई बार पोंछ कर नीरज ने मन के बोझिलपन को दूर करने की कोशिश की. फिर उठ कर बोला, ‘‘मैं अभी घर जाता हूं. रात को लौटूंगा. कविता से कहना कि मेरे साथ घर लौटने की तैयारी कर के रखे.’’

आटोरिकशा पकड़ कर नीरज घर पहुंचा. उस का मन बुझाबुझा सा था. अपने मातापिता के रूखे स्वभाव को वह अच्छी तरह जानता था इसलिए उन्हें समझाने की उस ने कोई कोशिश भी नहीं की.

कविता की जानलेवा बीमारी की चर्चा छिड़ते ही उस की मां ने गुस्से में अपने मन की बात कही, ‘‘तेरी ससुराल वालों ने हमें ठग कर अपनी सिरदर्दी हमारे सिर पर लाद दी है, नीरज. कविता के इलाज की भागदौड़ और उस की दिनरात की सेवा हम से नहीं होगी. अब उसे अपने मायके में ही रहने दे, बेटे.’’

‘‘तेरे सासससुर ने शादी में अच्छा दहेज देने का मुझे ताना दिया है. सुन, अपनी मां से कविता के सारे जेवर ले जा कर उन्हें दे देना,’’ नीरज के पिता भी तेज गुस्से का शिकार बने हुए थे.

नीरज की छोटी बहन वंदना ने जरूर उस के साथ कुछ देर बैठ कर अपनी आंखों से आंसू बहाए पर कविता को घर लाने की बात उस ने भी अपने मुंह से नहीं निकाली.

अपने कमरे में नीरज बिना कपड़े बदले औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ा. इस समय वह अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा था. अपने घर व ससुराल वालों के रूखे व झगड़ालू व्यवहार से उसे गहरी शिकायत थी.

उस के अपने घर वाले बीमार कविता को घर में रखना नहीं चाहते थे और ससुराल में रहने पर नीरज का अपना दिल नहीं लगता. वह कविता के साथ रह कर कैसे यह कठिन दिन गुजारे, इस समस्या का हल खोजने को उसे काफी माथापच्ची करनी पड़ी.

उस रात कविता से नीरज करीब 2 माह बाद मिला. उसे देख कर नीरज को मन ही मन जबरदस्त झटका लगा. उस की खूबसूरत पत्नी का रंगरूप मुरझा गया था.

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