Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 1

अरु भाभी और शशांक भैया के चेहरे के उठतेगिरते भावों को पढ़तेपढ़ते मैं सोच रही थी कि बंद मुट्ठी में रेत की तरह जब सबकुछ फिसल जाता है तब क्यों इनसान चेतता है?

बीच में ही बात काटते हुए शशांक बोल पडे़ थे, ‘नहीं डाक्टर अवस्थी, ऐसा नहीं कि हम लोग निधि को प्यार नहीं करते या हमेशा उसे मारतेपीटते ही रहते हैं. समस्या तो यह है कि निधि बहुत गंदी बातें सीख रही है.’

नन्ही निधि का छोटा सा बचपन मेरी आंखों के सामने कौंध उठा. घटनाएं चलचित्र की तरह आंखों के परदे पर आजा रही थीं.

उस दिन तेज बरसात हो रही थी. ओले भी गिर रहे थे. पड़ोस के मकान से जोरजोर से आती आवाजें सुन कर मेरा दिल दहल उठा. शशांक कह रहे थे, ‘बदमिजाज लड़की, साफसाफ बता, क्या चाहती है तू? क्या इस नन्ही सी जान की जान लेना चाहती है. छोटी बहन आई है यह नहीं कि खुद को सीनियर समझ कर उस की देखभाल करे. हर समय मारपीट पर ही उतारू रहती है.’

कमरे में गूंजती बेरहम आवाजें बाहर तक सुनाई पड़ रही थीं. निधि की कराह के साथ पूरे वेग से फूटती रुलाई को साफसाफ सुना जा सकता था.

‘पापा प्लीज, मुझे मत मारो. ऐसा मैं ने किया क्या है?’

‘पूरा का पूरा रोटी का टुकड़ा सीमा के मुंह में ठूंस दिया और पूछती है किया क्या है? देखा नहीं कैसे आंखें फट गई थीं उस बेचारी की?’

‘पापा, मैं ने सोचा सब ने नाश्ता कर लिया है. गुड्डी भूखी होगी,’ रोंआसी आवाज में अंदर की ताकत बटोरते हुए निधि ने सफाई सी दी.

‘एक माह की बच्ची रोटी खाएगी, अरी, अक्ल की दुश्मन, वह तो सिर्फ मां का दूध पीती है,’ आंखें तरेरते हुए शशांक बिफर उठे और एक थप्पड़ निधि के गाल पर जड़ दिया.

उस घर में जब से सीमा का जन्म हुआ था. ऐसा अकसर होने लगा था और वह बेचारी पिट जाती थी.

निधि का आर्तनाद सुन कर मैं सोचती कि ये कैसे मांबाप हैं जो इतना भी नहीं समझ पाते कि ऐसा क्रूर और कठोर व्यवहार बच्चे की कोमल भावनाओं को समाप्त करता चला जाएगा.

निधि बचपन से ही मेरे घर आया करती थी. जिस दिन अरु अस्पताल से सीमा को ले कर घर आई, वह बेहद खुश थी. दादी की मदद ले कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उस ने पूरे कमरे में रंगबिरंगे खिलौने सजा दिए.

सीमा का नामकरण संस्कार संपन्न हुआ. मेहमान अपनेअपने घर चले गए थे. परिवार के लोग बैठक में जमा हो कर गपशप में मशगूल थे. निधि भी सब के बीच बैठी हुई थी. अचानक अपनी गोलगोल आंखें मटका कर बालसुलभ उत्सुकता से उस ने मां की तरफ देख कर पूछ लिया, ‘मां, मेरा भी नामकरण ऐसे ही हुआ था?’

‘ऊं हूं,’ चिढ़ाने के लिए उस ने कहा, ‘तुम्हें तो मैं फुटपाथ से उठा कर लाई थी.’

निधि को विश्वास नहीं हुआ तो दोबारा प्रश्न किया, ‘सच, मम्मी?’

अरु ने निधि की बात को सुनी- अनसुनी कर सीमा के नैपीज और फीडर उठाए और अपने कमरे में चली गई.

अगले दिन 10 बजे तक जब निधि सो कर नहीं उठी, तब अरु का ध्यान बेटी की तरफ गया. उस ने जा कर देखा तो पता चला कि तेज बुखार से निधि का पूरा शरीर तप रहा था. आंखों के डोरे लाल थे. कपोलों पर सूखे आंसुओं की परत जमा थी. अरु ने पुचकार कर पूछा, ‘तबीयत खराब है या किसी ने कुछ कहा है?’

निधि ने मां की किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया.

निधि का बुखार तो ठीक हो गया पर अब वह हर समय गुमसुम सी बैठी रहती थी. घर में वह न तो किसी से कुछ कहती, न ज्यादा बात ही करती थी. अपने कमरे में पड़ीपड़ी घंटों किताब के पन्ने पलटती रहती. घर के सभी सदस्य यही समझते कि निधि पहले से ज्यादा मन लगा कर पढ़ने लगी है.

एक दिन सीमा को तेज बुखार चढ़ गया. दादी और शशांक दोनों घर पर नहीं थे. अरु समझ नहीं पा रही थी कि सीमा को ले कर कैसे डाक्टर के पास जाए. तभी निधि स्कूल से आ गई. उसे भी हरारत के साथ खांसीजुकाम था. अरु सीमा को निधि के हवाले कर डाक्टर के पास दवाई लेने चली गई. वापस लौटी तो सीमा के लिए ढेर सारी दवाइयां और टानिक थे पर उस में निधि के लिए कोई दवा नहीं थी.

शाम को शशांक और दादी लौट आए. कोई सीमा की पेशानी पर हाथ रखता, कोई गोदी में ले कर पुचकारता. मां पानी की पट्टियां सीमा के माथे पर रखती जा रही थीं पर किसी ने निधि की ओर ध्यान नहीं दिया.

शाम को सीमा थोड़ी ठीक हुई तो अरु उसे गोद में ले कर बालकनी में आ गई. मैं भी कुछ पड़ोसिनों के साथ अपनी बालकनी में बैठी थी. अचानक निधि ने एक छोटा सा पत्थर उठा कर नीचे फेंक दिया तो प्रतिक्रिया में अरु जोर से चिल्लाई, ‘निधि, चल इधर, वहां क्या देख रही है? छत से पत्थर क्यों फेंका?’

अरु की तेज आवाज सुन कर मेरे साथ बैठी एक पड़ोसिन ने कहा, ‘रहने दीजिए भाभीजी, बच्चा है.’

‘ऐसे ही तो बच्चे बिगड़ते हैं. यदि अभी से नहीं रोका तो सिर पर चढ़ कर बोलेगी,’ अरु की आवाज में चिड़- चिड़ापन साफ झलक रहा था.

मैं निधि के बारे में सोचने लगी थी कि उसे भी तो सीमा की तरह बुखार था. उस का भी तो मन कर रहा होगा कोई उसे पुचकारे, उस की तबीयत के बारे में पूछे. क्योंकि सीमा के जन्म से पहले उस के शरीर पर लगी छोटी सी खरोंच भी पूरे परिवार को चिंता में डाल देती थी. लेकिन इस समय सभी सीमा की तबीयत को ले कर चिंतित थे और निधि को अपने घर वालों की उपेक्षा बरदाश्त नहीं हो पा रही थी.

अम्मा- भाग 1: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

सब से बड़ी बात-बड़ों की जिंदगी का अनुभव कितनी समस्याओं को सुलझा देता है. लेकिन आज अम्मां वृद्धाश्रम में थीं. क्या वृद्धाश्रम से वापस घर आना उन्हें मंजूर हुआ? आफिस से फोन कर अजय ने नीरा को बताया कि मैं  आनंदधाम जा रहा हूं, तो उस के मन में विचारों की बाढ़ सी आ गई. आनंदधाम यानी वृद्धाश्रम. शहर के एक कोने में स्थित है यह आश्रम. यहां ऐसे बेसहारा, लाचार वृद्धों को शरण मिलती है जिन की देखभाल करने वाला अपना इस संसार में कोई नहीं होता. रोजमर्रा की सारी सुविधाएं यहां प्रदान तो की जाती हैं पर बदले में मोटी रकम भी वसूली जाती है.

बिना किसी पूर्व सूचना के क्यों जा रहा है अजय आनंदधाम? जरूर कोई गंभीर बात होगी.

यह सोच कर नीरा कार में बैठी और अजय के दफ्तर पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, सब खैरियत तो है?’’

‘‘नीरा, अम्मां, पिछले 1 साल से आनंदधाम में रह रही हैं. आश्रम से महंतजी का फोन आया था. गुसलखाने में फिसल कर गिर पड़ी हैं.’’

अजय की आवाज के भारीपन से ही नीरा ने अंदाजा लगा लिया था कि अम्मां के अलगाव से मन में दबीढकी भावनाएं इस पल जीवंत हो उठी हैं.

‘‘हम चलते हैं, अजय. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘अच्छा होगा मां को यदि किसी विशेषज्ञ को दिखाएं.’’

‘‘ठीक है, रुपए बैंक से निकलवा कर चलते हैं. पता नहीं कब कितने की जरूरत पड़ जाए,’’ सांत्वना के स्वर में नीरा ने कहा तो अजय को तसल्ली हुई.

‘‘मैं तो इस घटना को सुनने के बाद इतना परेशान हो गया था कि रुपयों का मुझे खयाल ही नहीं आया. प्राइवेट अस्पताल में रुपए की तो जरूरत पड़ेगी ही.’’

कुछ ही समय में नीरा रुपए ले कर आ गई. कार स्टार्ट करते ही पत्नी की बगल में बैठे अजय की यादों में 1 साल पहले का वह दृश्य सजीव हो उठा जब तिर्यक कुटिल दृष्टि से नीरा ने अम्मां को इतना अपमानित किया था कि वह चुपचाप अपना सामान बांध कर घर से चली गई थीं.

जातेजाते भी अम्मां की तीक्ष्ण दृष्टि नीरा पर टिक गई थी.

‘अजय, मेरी जिंदगी बची ही कितनी  है? मेरे लिए तू अपनी गृहस्थी में दरार मत डाल,’ अम्मां की गंभीर आवाज और अभिजात दर्पमंडित व्यक्तित्व की छाप वह आज तक अपने मानसपटल से कहां मिटा पाया था.

‘जाना तो अम्मां सभी को है… और रही दरार की बात, तो वह तो कब की पड़ चुकी है. अब कहीं वह दरार खाई में न बदल जाए. यह सोच लीजिए,’ अम्मां के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई नीरा बोली. वह तो इसी इंतजार में बैठी थी कि कब अम्मां घर छोडे़ं और उसे संपूर्ण सफलता हासिल हो.

कहीं अजय की भावुकता अम्मां के पैरों में पुत्र प्रेम की बेडि़यां डाल कर उन्हें रोक न ले, इस बात का डर था नीरा को इसलिए भी वह और अधिक तल्ख हो गई थी.

अगले ही दिन अजय ने फोन पर कुटिल हंसी की खनक में डूबी और बुलंद आवाज की गहराई में उभरते दंभ की झलक के साथ नीरा को किसी से बात करते सुना:

‘जिंदगी भर अब पास न फटकने देने का इंतजाम कर लिया है. कुशलक्षेम पूछना तो दूर, अजय श्राद्ध तक नहीं करेगा अम्मां का.’

उस दिन पत्नी के शब्दों ने अजय को झकझोर कर रख दिया था. समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया. पर जब आंखों से परदा हटा तो उस ने निर्णय लिया कि किसी भी हाल में अम्मां को जाने नहीं देगा. रोया, गिड़गिड़ाया, हाथ जोडे़, पैर छुए, पर अम्मां रुकी नहीं थीं. दयनीय बनना उन की फितरत में नहीं था. स्वाभिमानी शुरू से ही थीं.

अम्मां के जाने के बाद उन के तकिए के नीचे से एक लिफाफा मिला था. लिखा था, ‘इनसान क्यों अपनेआप को परिवार की माला में पिरोता है? इसीलिए न कि परिवार का हर संबंधी एकदूसरे के लिए सुखदुख का साथी बने. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से परिवार की डोर टूटने लगे तो अकेले मोती की तरह इधरउधर डोलने या अपने इर्दगिर्द बने सन्नाटे में दुबक जाने के बजाय वहां से हट जाना बेहतर होता है.

‘हमेशा के लिए नहीं, कुछ समय के लिए ही जा रही हूं पर यह समय, कुछ दिन, कुछ महीने या फिर कुछ सालों का भी हो सकता है. दिल से दिल के तार जुड़े होते हैं और ये तार जब झंकृत होते हैं तो पता चल जाता है कि हमें किसी ने याद किया है. जिस पल हमें ऐसा महसूस होगा, हम जरूर मिलेंगे, अम्मां.’

तेज बारिश हो रही थी. गाड़ी से बाहर देखने की कोशिश में अजय ने अपना चेहरा खिड़की के शीशे से सटा दिया. बाहर खिड़की के कांच पर गिर रही एकएक बूंद धीरेधीरे एकसाथ मिल कर पूरे कांच को ढक देती थी. जरा सा कांच पोंछने पर अजय को हर बार एक चेहरा दिखाई देता था. ढेर सारा वात्सल्य समेटे, झुर्रियों भरा वह चेहरा, जिस ने उसे प्यार दिया, 9 माह अपनी कोख में रखा, अपने रक्तमांस से सींचा, आंचल की छांव दी. उस का स्वास्थ्य, उस की पढ़ाई, उस की खुशी, अम्मां की पूरी दुनिया ही अजय के इर्दगिर्द सिमटी थी.

जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में नीरा और अजय विवाह सूत्र में बंधे थे उन हालात में नीरा को परिवार का अंश बनने के लिए अम्मां को न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा था.

लाखों रुपए के दहेज का प्रस्ताव ले कर, कई संपन्न परिवारों से अजय के लिए रिश्ते आए थे, पर अम्मां ने बेटे की पसंद को ही सर्वोपरि माना. अम्मां यही दोहराती रहीं कि गरीब घर की लड़की अधिक संवेदनशील होगी. घर का वातावरण सुखमय बनाएगी, अच्छी पत्नी और सुघड़ बहू साबित होगी.

पासपड़ोस के अनुभवों, किस्से- कहानियों को सुन कर अजय ने यही निष्कर्ष निकाला था कि बहू के आते ही घर का वातावरण बदल जाता है. अजय का मन किसी अज्ञात आशंका से घिरा है, अम्मां यह समझ गई थीं. बड़ी ही समझदारी से उन्होंने अजय को समझाया था :

‘बेटा, लोग हमेशा बहुओं को ही दोषी ठहराते हैं, पर मेरी समझ में ऐसा होता नहीं है. घर में जब भी कोई नया सामान आता है तो पुराने सामान को हटना ही पड़ता है. नया पत्ता तभी शाख पर लगता है जब पुराना उखड़ता है. जब भी किसी पौधे को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह आरोपित किया जाता है तो वह तभी पुष्पित, पल्लवित होता है जब उसे पर्याप्त मात्रा में खादपानी मिलता है. सामंजस्य, समझौता, समर्पण, दोनों ही पक्षों की तरफ से होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो परिवार बिखरता है.’

अजय आश्वस्त हो गया. अम्मां ने नीरा को प्यार और अपनत्व से और नीरा ने उन्हें सम्मान और कर्तव्यनिष्ठा से अपना लिया. बहू में उन की आत्मा बसती थी. उसे सजतेसंवरते देख अम्मां मुग्धभाव से हिलोरें लेतीं. नीरा की कमियों को कोई गिनवाता तो चट से मोर्चा संभाल लेतीं.

‘मेरी अपर्णा को ही क्या आता था. पर धीरेधीरे जिम्मेदारियों के बोझ तले, सबकुछ सीखती चली गई.’

1 वर्ष बीततेबीतते अजय जुड़वां बेटों का बाप बन गया. अम्मां के चेहरे पर भारी संतोष की आभा झलक उठी. इसी दिन के लिए ही तो वह जैसे जी रही थीं. अस्पताल के कौरीडोर में नर्सों, डाक्टरों से बातचीत करतीं अम्मां को देख कर कौन कह सकता था कि वह घर से बाहर कभी निकली ही नहीं.

लवकुश नाम रखा उन्होंने अपने पोतों का. 40 दिन तक उन्होंने नीरा को बिस्तर से उठने नहीं दिया. अपर्णा को भी बुलवा भेजा. ननदभौजाई गप्पें मारतीं, अम्मां चौका संभालतीं.

‘अब तो महीना होने को आया. मेरी सास तो 21 दिन बाद ही घर की बागडोर मुझे संभालने को कह कर खुद आराम करती हैं,’ अम्मां की भागदौड़ से परेशान अपर्णा ने कहा तो अम्मां ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘तेरी ससुराल में होता होगा. थोड़ा-बहुत काम करने से शरीर में जंग नहीं लगता.’

‘थोड़ाबहुत?’ अपर्णा ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा था.

‘संयुक्त परिवार की यही  तो परिभाषा है. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के काम आओ. कच्चा शरीर है. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो जिंदगी भर का रोना.’

सवा महीना बीत गया. अपर्णा अपनी ससुराल लौट रही थी. अम्मांबाबूजी हमेशा भरपूर नेग देते थे. और इस बार तो लवकुश भी आ गए थे. अपर्णा ने मनुहार की. ‘2 दिन बाद तो मैं चली जाऊंगी. अम्मां, एक बार बाजार तो मेरे साथ चलो.’

‘ऐसा कर, अजय दफ्तर के लिए निकले तो दोनों ननदभावज उस के साथ ही निकल जाओ. जो जी चाहे, खरीद लो. पेमेंट बाबूजी कर देंगे.’

‘आप के साथ जाने का मन है, अम्मां. एक दिन भाभी संभाल लेंगी,’ अपर्णा ने मचल कर कहा तो अम्मां की आंखें नम हो आई थीं.

‘फिर कभी सही. तेरे जाने की तैयारी भी तो करनी है.’

मोबाइल पर फिल्म : हथकंडेबाज प्रेमी

ऐसे टुकुरटुकुर क्या देख रहा है?’’ अपना दुपट्टा संभालते हुए धन्नो ने जैसे ही पूछा, तो एक पल के लिए सूरज सकपका गया.

‘‘तुझे देख रहा हूं. सच में क्या मस्त लग रही है तू,’’ तुरंत संभलते हुए सूरज ने जवाब दिया. धन्नो के बदन से उस की नजरें हट ही नहीं रही थीं.

‘‘चल हट, मुझे जाने दे. न खुद काम करता है और न ही मुझे काम करने देता है…’’ मुंह बनाते हुए धन्नो वहां से निकल गई.

सूरज अब भी उसे देख रहा था. वह धन्नो के पूरे बदन का मुआयना कर चुका था.

‘‘एक बार यह मिल जाए, तो मजा आ जाए…’’ सूरज के मुंह से निकला.

सूरज की अकसर धन्नो से टक्कर हो ही जाती थी. कभी रास्ते में, तो कभी खेतखलिहान में. दोनों में बातें भी होतीं. लेकिन सूरज की नीयत एक ही रहती… बस एक बार धन्नो राजी हो जाए,

फिर तो…

धन्नो को पाने के लिए सूरज हर तरह के हथकंडे अपनाने को तैयार था.

‘‘तू कुछ कामधंधा क्यों नहीं करता?’’ एक दोपहर धन्नो ने सूरज से पूछा.

‘‘बस, तू हां कर दे. तेरे साथ घर बसाने की सोच रहा हूं,’’ सूरज ने बात छेड़ी, तो धन्नो मचल उठी.

‘‘तू सच कह रहा है,’’ धन्नो ने खुशी में उछलते हुए सूरज के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

सूरज को तो जैसे करंट मार गया. वह भी मौका खोना नहीं चाहता था. उस ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सच धन्नो, मैं तुम्हें अपनी घरवाली बनाना चाहता हूं. तू तो जानती है कि मेरा बाप सरपंच है. नौकरी चाहूं, तो आज ही मिल जाएगी.’’

सूरज ने भरोसा दिया, तो धन्नो पूछ बैठी, ‘‘तो नौकरी क्यों नहीं करते? फिर मेरे मामा से मेरा हाथ मांग लेना. कोई मना नहीं करेगा.’’

सूरज ने हां में सिर हिलाया. धन्नो उस के इतना करीब थी कि वह अपनी सुधबुध खोने लगा.

‘‘यहां कोई नहीं है. आराम से लेट कर बातें करते हैं,’’ सूरज ने इधरउधर देखते हुए कहा.

‘‘मैं सब जानती हूं. तुम्हारे दिमाग का क्या भरोसा, कुछ गड़बड़ कर बैठे तो…’’ धन्नो ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘ब्याह से पहले यह सब ठीक नहीं… मरद जात का क्या भरोसा?’’ इतना कहते हुए वह तीर की मानिंद निकल गई. जातेजाते उस ने सूरज के हाथ को कस कर दबा दिया था. सूरज इसे इशारा समझने लगा.

‘‘फिर निकल गई…’’ सूरज को गुस्सा आ गया. उसे पूरा भरोसा था कि आज उस की मुराद पूरी होगी. लेकिन धन्नो उसे गच्चा दे कर निकल गई.

अब तो सूरज के दिलोदिमाग पर धन्नो का नशा बोलने लगा. कभी उस का कसा हुआ बदन, तो कभी उस की हंसी उसे पागल किए जा रही थी. वैसे तो वह सपने में कई बार धन्नो को पा चुका था, लेकिन हकीकत में उस की यह हसरत अभी बाकी थी.

सरपंच मोहन सिंह का बेटा होने के चलते सूरज के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी. सो, उस ने एक कीमती मोबाइल फोन खरीदा और उस में खूब ब्लू फिल्में भरवा दीं. उन्हें देखदेख कर धन्नो के साथ वैसे ही करने के ख्वाब देखने लगा.

‘‘अरे, तू इतने दिन कहां था?’’ धन्नो ने पूछा. उस दिन हैंडपंप के पास पानी भरते समय दोनों की मुलाकात हो गई.

‘‘मैं नौकरी ढूंढ़ रहा था. अब नौकरी मिल गई है. अगले हफ्ते से ड्यूटी पर जाना है,’’ सूरज ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अब तो ब्याह के लिए हां कर दे.’’

‘‘वाह… वाह,’’ नौकरी की बात सुनते ही धन्नो उस से लिपट गई. सूरज की भावनाएं उफान मारने लगीं. उस ने तुरंत उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘हां कर दे. और कितना तरसाएगी,’’ सूरज ने उस की आंखों में आंखें डाल

कर पूछा.

‘‘तू गले में माला डाल दे… मांग भर दे, फिर जो चाहे करना.’’

सूरज उसे मनाने की जीतोड़ कोशिश करने लगा.

‘‘अरे वाह, इतना बड़ा मोबाइल फोन,’’ मोबाइल फोन पर नजर पड़ते ही धन्नो के मुंह से निकला, ‘‘क्या इस में सिनेमा है? गानेवाने हैं?’’

‘‘बहुत सिनेमा हैं. तू देखेगी, तो चल उस झोंपड़े में चलते हैं. जितना सिनेमा देखना है, देख लेना,’’ सूरज धन्नो के मांसल बदन को देखते हुए बोला, तो

वह उस के काले मन के इरादे नहीं भांप सकी.

धन्नो राजी हो गई. सूरज ने पहले तो उसे कुछ हिंदी फिल्मों के गाने दिखाए, फिर अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए ब्लू फिल्में दिखाने लगा.

‘‘ये कितनी गंदी फिल्में हैं. मुझे नहीं देखनी,’’ धन्नो मुंह फेरते हुए बोली.

‘‘अरे सुन तो… अब अपने मरद से क्या शरमाना? मैं तुम से शादी करूंगा, तो ये सब तो करना ही होगा न, नहीं तो हमारे बच्चे कैसे होंगे?’’ उसे अपनी बाजुओं में भरते हुए सूरज बोला.

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन शादी करोगे न? नहीं तो मामा मेरी चमड़ी उतार देगा,’’ नरम पड़ते हुए धन्नो बोली.

‘‘मैं कसम खाता हूं. अब जल्दी से घरवाली की तरह बन जा और चुपचाप सबकुछ उतार कर लेट जा,’’ इतना कहते हुए सूरज अपनी शर्ट के बटन खोलने लगा. उस के भरोसे में बंधी धन्नो विरोध न कर सकी.

‘‘तू सच में बहुत मस्त है…’’ आधा घंटे बाद सूरज बोला, ‘‘किसी को कुछ मत बताना. ले, यह दवा खा ले. कोई शक नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन, मेरे मामा से कब बात करोगे?’’ धन्नो ने पूछा, तो सूरज की आंखें गुस्से से लाल हो गईं.

‘‘देख, मजा मत खराब कर. मुझे एक बार चाहिए था. अब यह सब भूल जा. तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग,’’ जातेजाते सूरज ने कहा, तो धन्नो पर जैसे बिजली टूट गई.

अब धन्नो गुमसुम सी रहने लगी. किसी बात में उस का मन ही नहीं लगता.

‘‘अरे, तेरे कपड़े पर ये खून के दाग कैसे?’’ एक दिन मामी ने पूछा, तो धन्नो को जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘पिछले हफ्ते ही तेरा मासिक हुआ था, फिर…’’

धन्नो फूटफूट कर रोने लगी. सारी बातें सुन कर मामी का चेहरा सफेद पड़ गया. बात सरपंच मोहन सिंह के पास पहुंची. पंचायत बैठी.

मोहन सिंह के कड़क तेवर को सभी जानते थे. उस के लिए किसी को उठवाना कोई बड़ी बात नहीं थी.

‘‘तो तुम्हारा कहना है कि सूरज ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती की है?’’ सरपंच के आदमी ने धन्नो से पूछा.

‘‘नहीं, सूरज ने कहा था कि वह मुझ से ब्याह करेगा, इसलिए पहले…’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था…’’ सूरज ने बीच में टोका, ‘‘यह झूठ बोल रही है.’’

‘‘मैं भी तुम से शादी करूंगा, तो क्या तू मेरे साथ भी सोएगी,’’ एक मोटे से आदमी ने चुटकी ली.

‘‘तू है ही धंधेवाली…’’ भीड़ से एक आवाज आई.

‘‘चुप करो,’’ मोहन सिंह अपनी कुरसी से उठा, तो वहां खामोशी छा गई. वह सीधा धन्नो के पास पहुंचा.

‘‘ऐ छोकरी, क्या सच में मेरे सूरज ने तुझ से घर बसाने का वादा किया था?’’ उस ने धन्नो से जानना चाहा.

मोहन सिंह के सामने अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती थी, लेकिन न जाने क्यों धन्नो न तो डरी और न ही उस की जबान लड़खड़ाई.

‘‘हां, उस ने मुझे घरवाली बनाने की कसम खाई थी, तभी तो मैं राजी…’’ यह सुनते ही सरपंच का सिर झुक गया. भीड़ अब भी शांत थी.

‘‘बापू, तू इस की बातों में न आ…’’ सूरज धन्नो को मारने के लिए दौड़ा.

‘‘चुप रह. शर्म नहीं आती अपनी घरवाली के बारे में ऐसी बातें करते हुए. खबरदार, अब धन्नो के बारे में कोई एक शब्द कहा तो… यह हमारे घर की बहू है. अब सभी जाओ. अगले लगन में हम सूरज और धन्नो का ब्याह रचाएंगे.’’

धन्नो मोहन सिंह के पैरों पर गिर पड़ी. उस के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘बापू, तुम ने मुझे बचा लिया.’’

अंधा मोड़ : प्यार का दलदल

‘‘सौरभ, ऐसे कब तक चलेगा?’’

‘‘तुम्हारा क्या मतलब है माधवी?’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि सौरभ…’’ माधवी ने एक पल रुक कर कहा, ‘‘अब हम ऐसे कब तक छिपछिप कर मिला करेंगे?’’

‘‘जब तक तुम्हारा और मेरा सच्चा प्यार है…’’ समझाते हुए सौरभ बोला, ‘‘फिर तुम क्यों घबराती हो?’’

‘‘मैं घबराती तो नहीं हूं सौरभ, मगर इतना कहती हूं कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए,’’ माधवी ने जब यह प्रस्ताव रखा, तब सौरभ सोचने पर मजबूर हो गया.

हां, सौरभ ने माधवी से प्यार किया है, शादी भी करना चाहता है, मगर इस के लिए उस ने अपना मन अभी तक नहीं बनाया है. उस के इरादे कुछ और ही हैं, जो वह माधवी को बताना नहीं चाहता है. उस ने माधवी को अपने प्रेमजाल में पूरी तरह से फांस लिया है. अब मौके का इंतजार कर रहा है.

उसे चुप देख कर माधवी फिर बोली, ‘‘क्या सोच रहे हो सौरभ?’’

‘‘सोच रहा हूं कि हमें अब शादी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘बताओ, कब करें शादी?’’

‘‘तुम तो जानती हो माधवी, मेरे मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. अंकल ने मुझे पालापोसा और पढ़ाया, इसलिए वे जैसे ही अपनी सहमति देंगे, हम शादी कर लेंगे.’’

‘‘मगर, डैडी मेरी शादी के लिए जल्दी कर रहे हैं…’’ समझाते हुए माधवी बोली, ‘‘मैं टालती जा रही हूं. आखिर कब तक टालूंगी?’’

‘‘बस माधवी, अंकल हां कर दें, तो हम फौरन शादी कर लेंगे.’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे अंकल न जाने कब हां करेंगे.’’

‘‘जब हम ने इतने दिन निकाल दिए, थोड़े दिन और निकाल लो. मुझे पक्का यकीन है कि अंकल जल्दी ही हमारी शादी की सहमति देंगे,’’ कह कर सौरभ ने विश्वास जताया, मगर माधवी को उस के इस विश्वास पर यकीन नहीं हुआ.

यह विश्वास तो सौरभ उसे पिछले 6-7 महीनों से दे रहा है, मगर हर बार ढाक के तीन पात साबित होते हैं. आखिर लड़की होने के नाते वह कब तक सब्र रखे.

माधवी जरा नाराजगी से बोली, ‘‘नहीं सौरभ, तुम ने मुझ से प्यार किया है और मैं प्यार में धोखा नहीं खाना चाहती हूं. आज मैं अपना फैसला सुनना चाहती हूं कि तुम मुझ से शादी करोगे या नहीं?’’

‘‘देखो माधवी, मैं ने तो तुम से उतना ही प्यार किया है, जितना कि तुम ने मुझ से किया है…’’ समझाते हुए सौरभ बोला, ‘‘मगर, तुम मेरे हालात को क्यों नहीं समझ रही हो.’’

‘‘मगर मेरे हालात को तुम क्यों नहीं समझ रहे हो सौरभ. तुम लड़के हो, मैं एक लड़की हूं. मुझ पर मांबाप का कितना दबाव है, यह तुम नहीं समझोगे…’’

एक बार फिर माधवी समझाते हुए बोली, ‘‘कितना परेशान कर रहे हैं वे शादी के लिए, यह तुम नहीं समझोगे.’’

‘‘अपने पिता को जोर दे कर क्यों नहीं कह देती हो कि मैं ने शादी के लिए लड़का देख लिया है,’’ सौरभ बोला.

‘‘बस यही तो मैं नहीं कर सकती हूं सौरभ. तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हो?’’

‘‘और तुम मेरे हालात को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही हो…’’ सौरभ जरा नाराजगी से बोला.

माधवी ने भी उसी नाराजगी में जवाब दिया, ‘‘ठीक है, तुम लड़के हो कर डरपोक बन कर रहते हो, तो मैंतो लड़की हूं. फिर भी मैं तुम्हारे फैसले का इंतजार करूंगी,’’ कह कर माधवी चली गई.

सौरभ भी उसे जाते हुए देखता रहा. दोनों का प्यार कब परवान चढ़ा, यह उन को अच्छी तरह पता है.

वैसे, सौरभ एक बिगड़ा हुआ नौजवान था, जबकि माधवी गरीब परिवार की लड़की. वह अपने माता पिता की एकलौती बेटी थी. उस से 2 छोटे भाई जरूर थे.

माधवी अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी. जब लड़की जवान हो जाती है, तब हर मातापिता के लिए चिंता की बात हो जाती है. माधवी के लिए लड़के की तलाश जारी थी. कुछ लड़के मिले, मगर वे दहेज के लालची मिले.

माधवी के पिता रघुनाथ इतना ज्यादा दहेज नहीं दे सकते थे. वे चाहते थे कि माधवी का साधारण घर में ब्याह कर दें, जहां वह सुख से रह सके. मगर ऐसा लड़का उन्हें कई सालों तक नहीं मिला.

माधवी सौरभ से शादी करना चाहती थी. वह बिना सोचेसमझे उसे अपना दिल दे बैठी थी. इन 6-7 महीनों में वह सौरभ के बहुत करीब आई, मगर उसे समझ नहीं पाई. उस ने उस पर प्यार भी खूब जताया. जरूरत की चीजें भी उसे खरीद कर दीं, मगर इस की हवा अपने मांबाप तक को नहीं लगने दी. इस के लिए उस ने 2-3 ट्यूशनें भी कर रखी थीं, ताकि मांबाप को यह एहसास हो कि वह ट्यूशन के पैसों से चीजें खरीद कर ला रही है.

जब भी सौरभ का फोन आता, वह फौरन उस से मिलने चली जाती. तब घंटों बातें करती.

शादी के बाद क्याक्या करना है, सपनों के महल बनाती, मगर कभीकभी वह यह भी सोचती कि यह सब फिल्मों में होता है, असली जिंदगी में यह सब नहीं चलता है. मगर जब भी वह उस से शादी की बात करती, वह अंकल का बहाना बना कर टाल देता. आखिर ये अंकल थे कौन? इस का जवाब उस के पास नहीं था.

तभी माधवी को एहसास हुआ कि कोई उस के पीछेपीछे बहुत देर से चला आ रहा है. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो एक बूढ़ा आदमी था.

माधवी ने ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर गुस्से से बोली, ‘‘आप मेरे पीछेपीछे क्यों चल रहे हैं?’’

‘‘मैं जानना चाहता हूं बेटी, जिस लड़के को तुम ने छोड़ा है, उस के बारे में क्या जानती हो?’’ उस बूढ़े ने यह सवाल पूछ कर चौंका दिया.

माधवी पलभर के लिए यह सोचती रही, ‘यह आदमी कौन है? और यह सवाल क्यों पूछ रहा है?’

कुछ देर तक माधवी कुछ जवाब नहीं दे सकी. तब उस बूढ़े ने फिर पूछा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया बेटी.’’

‘‘मगर, आप यह क्यों पूछना चाहते हैं बाबा?’’

‘‘इसलिए बेटी कि तुम्हारी जिंदगी बरबाद न हो जाए.’’

‘‘क्या मतलब है आप का? वह मेरा प्रेमी है और जल्दी ही हम शादी करने जा रहे हैं.’’

‘‘बेटी, मैं ने तुम्हारी सारी बातें सुन ली थीं, आड़ में रह कर…’’ वह बूढ़ा आदमी जरा खुल कर बोला, ‘‘जैसे ही तुम वहां से चली थीं, तभी से मैं तुम्हारे पीछेपीछे चला आ रहा हूं.

‘‘बेटी, जिस लड़के से तुम शादी करना चाहती हो, वह ठीक नहीं है.’’

‘‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’’

‘‘क्योंकि मैं उस का बाप हूं.’’

‘‘इस बुढ़ापे में झूठ बोलते हुए आप को शर्म नहीं आती? क्यों हमारे प्यार के बीच दुश्मन बन कर खड़े हो गए,’’ झल्ला पड़ी माधवी.

‘‘मुझे तो सौरभ ने बताया है कि उस के मांबाप बचपन में ही गुजर गए. एक अंकल ने उन्हें पालापोसा और आप उस के बाप बन कर कहां से टपक पड़े?’’ माधवी गुस्से से बोली.

‘‘तुझे कैसे यकीन दिलाऊं बेटी…’’ उस बूढ़े की बात में दर्द था. वह आगे बोला, ‘‘मगर, मैं सच कह रहा हूं बेटी, सौरभ मेरा नालायक बेटा है, जिसे मैं ने अपनी जमीनजायदाद से भी कानूनन अलग कर दिया है.

‘‘वह तुम से शादी नहीं करेगा बेटी, बल्कि शादी के नाम पर तुम्हें कहीं ले जा कर किसी कोठे पर बेच देगा. सारे गैरकानूनी धंधे वह करता है. अफीम की तस्करी में वह जेल की हवा भी खा चुका है. तुम से प्यार का नाटक कर के तुम्हारे पिता को ब्लेकमैल करेगा.

‘‘जिसे तुम प्यार समझ रही हो, वह धोखा है. छोड़ दे उस नालायक का साथ. वहीं शादी कर बेटी, जहां तेरे पिता चाहते हैं.

‘‘एक बार फिर हाथ जोड़ कर कह रहा हूं कि बेटी, छोड़ दे उसे. मैं तुझे बरबादी के रास्ते से बचाना चाहता हूं.’’

इतना कह कर वह बूढ़ा रो पड़ा. माधवी को लगा कि कहीं बूढ़ा नाटक तो नहीं कर रहा है.

इतने में वह बूढ़ा आगे बोला, ‘‘बेटी, तुझे विश्वास न हो, तो घर जा कर सारे सुबूत मैं दिखा सकता हूं.’’

‘‘आप मेरे पिता समान हैं बाबा, झूठ नहीं बोलेंगे. मगर…’’ कह कर माधवी पलभर के लिए रुकी, तो वह बूढ़ा बोला, ‘‘मगर बेटी, न तुम मुझे जानती हो और न मैं तुम्हें जानता हूं. मगर जब मैं ने तुम को अपने नालायक बेटे के साथ देखा, तब मैं ने तुम्हें उस के चंगुल से छुड़ाने का सोच लिया. तभी से मैं ने तुम्हारे घर आने की योजना बनाई थी, ताकि तुम्हारे मांबाप को सारी हकीकत बता सकूं.

‘‘मेरा विश्वास करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम प्यार में धोखा खा जाओ. मैं ने इसलिए पूछा था कि जिस लड़के से तुम प्यार करती हो, उसे अच्छी तरह परख लिया होगा. मगर तुम ने उस का केवल बाहरी रूप देखा है, भीतरी रूप तुम नहीं समझ सकी.’’

‘‘आप झूठ तो नहीं बोल रहे हैं बाबा? शायद आप मुझे अपनी बहू नहीं बनाना चाहते हैं. आप को भी दहेज वाली बहू चाहिए, इसलिए आप भी

मेरे और सौरभ के बीच दीवार खड़ी करना चाहते हैं,’’ माधवी ने यह सवाल पूछा.

‘‘तू अच्छे घराने की है. मैं तेरी जिंदगी बचाना चाहता हूं. मेरी बात पर यकीन कर बेटी. जिस के प्यार के जाल में तू उलझी हुई है, वह शिकारी एक दिन तुझे बेच देगा.’’

बाबा ने माधवी को बड़ी दुविधा में डाल दिया था. वे उसे सौरभ के अंधे प्रेमजाल से क्यों निकालना चाहते हैं? वह किसी अनजान आदमी की बातों को क्यों मान ले? उसे चुप देख कर बाबा फिर बोले, ‘‘क्या सोच रही हो बेटी?’’

‘‘मैं आप पर कैसे यकीन कर लूं कि आप सच कह रहे हैं. यह आप का नाटक भी तो हो सकता है?’’ एक बार माधवी फिर बोली, ‘‘मैं सौरभ का दिल नहीं तोड़ सकती हूं. इसलिए अगर आप मेरे पीछे आएंगे, तो मैं पुलिस में शिकायत कर दूंगी.’’

इतना कह कर बुरा सा मुंह बना कर माधवी चली गई. बूढ़ा चुपचाप वहीं खड़ा रह गया. कुछ दिनों बाद सौरभ ने माधवी को ऐसी जगह बुलाया, जहां से वे भाग कर किसी मंदिर में शादी करेंगे. वह भी अपनी तैयारी से तय जगह पर पहुंच गई. वहां सौरभ किसी दूसरे लड़के के साथ बात करता हुआ दिखाई दे रहा था. वह चुपचाप आड़ में रह कर सब सुनने लगी.

वह लड़का सौरभ से कह रहा था, ‘‘माधवी अभी तक नहीं आई.’’

‘‘वह अभी आने वाली है. अरे, इन 6-7 महीनों में मैं ने उस से प्यार कर के विश्वास जीता है. अब तो वह आंखें मूंद कर मुझे चाहती है. शादी के बहाने उसे ले जा कर चंपाबाई के कोठे पर बेच आऊंगा.’’

‘‘ठीक है, तुम अपनी योजना में कामयाब रहो,’’ कह कर वह लड़का दीवार फांद कर कूद गया. सौरभ बेचैनी से माधवी का इंतजार करने लगा. अब माधवी सौरभ की सचाई जान चुकी थी. इस समय उसे बाबा का चेहरा याद आ रहा था. बाबा ने जो कुछ कहा था, सच था. अब सौरभ के प्रति उसे नफरत हो गई.

सौरभ बेचैनी से टहल रहा था, मगर वह उस से नजर बचा कर बाहर निकल गई. वह सचमुच आज अंधे मोड़ से निकल गई थी.

दो चुटकी सिंदूर : सविता की क्या थी गलती

‘‘ऐ सविता, तेरा चक्कर चल रहा है न अमित के साथ?’’ कुहनी मारते हुए सविता की सहेली नीतू ने पूछा. सविता मुसकराते हुए बोली, ‘‘हां, सही है. और एक बात बताऊं… हम जल्दी ही शादी भी करने वाले हैं.’’

‘‘अमित से शादी कर के तो तू महलों की रानी बन जाएगी. अच्छा, वह सब छोड़. देख उधर, तेरा आशिक बैजू कैसे तुझे हसरत भरी नजरों से देख रहा है.’’

नीतू ने तो मजाक किया था, क्योंकि वह जानती थी कि बैजू को देखना तो क्या, सविता उस का नाम भी सुनना तक पसंद नहीं करती.

सविता चिढ़ उठी. वह कहने लगी, ‘‘तू जानती है कि बैजू मुझे जरा भी नहीं भाता. फिर भी तू क्यों मुझे उस के साथ जोड़ती रहती है?’’

‘‘अरे पगली, मैं तो मजाक कर रही थी. और तू है कि… अच्छा, अब से नहीं करूंगी… बस,’’ अपने दोनों कान पकड़ते हुए नीतू बोली.

‘‘पक्का न…’’ अपनी आंखें तरेरते हुए सविता बोली, ‘‘कहां मेरा अमित, इतना पैसे वाला और हैंडसम. और कहां यह निठल्ला बैजू.

‘‘सच कहती हूं नीतू, इसे देख कर मुझे घिन आती है. विमला चाची खटमर कर कमाती रहती हैं और यह कमकोढ़ी बैजू गांव के चौराहे पर बैठ कर पानखैनी चबाता रहता है. बोझ है यह धरती पर.’’

‘‘चुप… चुप… देख, विमला मौसी इधर ही आ रही हैं. अगर उन के कान में अपने बेटे के खिलाफ एक भी बात पड़ गई न, तो समझ ले हमारी खैर नहीं,’’ नीतू बोली.

सविता बोली, ‘‘पता है मुझे. यही वजह है कि यह बैजू निठल्ला रह गया.’’

विमला की जान अपने बेटे बैजू में ही बसती थी. दोनों मांबेटा ही एकदूसरे का सहारा थे. बैजू जब 2 साल का था, तभी उस के पिता चल बसे थे. सिलाईकढ़ाई का काम कर के किसी तरह विमला ने अपने बेटे को पालपोस कर बड़ा किया था.

विमला के लाड़प्यार में बैजू इतना आलसी और निकम्मा बनता जा रहा था कि न तो उस का पढ़ाईलिखाई में मन लगता था और न ही किसी काम में. बस, गांव के लड़कों के साथ बैठकर हंसीमजाक करने में ही उसे मजा आता था.

लेकिन बैजू अपनी मां से प्यार बहुत करता था और यही विमला के लिए काफी था. गांव के लोग बैजू के बारे में कुछ न कुछ बोल ही देते थे, जिसे सुन कर विमला आगबबूला हो जाती थी.

एक दिन विमला की एक पड़ोसन ने सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘अब इस उम्र में अपनी देह कितना खटाएगी विमला, बेटे को बोल कि कुछ कमाएधमाए. कल को उस की शादी होगी, फिर बच्चे भी होंगे, तो क्या जिंदगीभर तू ही उस के परिवार को संभालती रहेगी?

‘‘यह तो सोच कि अगर तेरा बेटा कुछ कमाएगाधमाएगा नहीं, तो कौन देगा उसे अपनी बेटी?’’

विमला कहने लगी, ‘‘मैं हूं अभी अपने बेटे के लिए, तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है… समझी. बड़ी आई मेरे बेटे के बारे में सोचने वाली. देखना, इतनी सुंदर बहू लाऊंगी उस के लिए कि तुम सब जल कर खाक हो जाओगे.’’

सविता के पिता रामकृपाल डाकिया थे. घरघर जा कर चिट्ठियां बांटना उन का काम था, पर वे अपनी दोनों बेटियों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना चाहते थे. उन की दोनों बेटियां थीं भी पढ़ने में होशियार, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि उन की बड़ी बेटी सविता अमित नाम के एक लड़के से प्यार करती है और वह उस से शादी के सपने भी देखने लगी है.

यह सच था कि सविता अमित से प्यार करती थी, पर अमित उस से नहीं, बल्कि उस के जिस्म से प्यार करता था. वह अकसर यह कह कर सविता के साथ जिस्मानी संबंध बनाने की जिद करता कि जल्द ही वह अपने मांबाप से दोनों की शादी की बात करेगा.

नादान सविता ने उस की बातों में आ कर अपना तन उसे सौंप दिया. जवानी के जोश में आ कर दोनों ने यह नहीं सोचा कि इस का नतीजा कितना बुरा हो सकता है और हुआ भी, जब सविता को पता चला कि वह अमित के बच्चे की मां बनने वाली है.

जब सविता ने यह बात अमित को बताई और शादी करने को कहा, तो वह कहने लगा, ‘‘क्या मैं तुम्हें बेवकूफ दिखता हूं, जो चली आई यह बताने कि तुम्हारे पेट में मेरा बच्चा है? अरे, जब तुम मेरे साथ सो सकती हो, तो न जाने और कितनों के साथ सोती होगी. यह उन्हीं में से एक का बच्चा होगा.’’

सविता के पेट से होने का घर में पता लगते ही कुहराम मच गया. अपनी इज्जत और सविता के भविष्य की खातिर उसे शहर ले जा कर घर वालों ने बच्चा गिरवा दिया और जल्द से जल्द कोई लड़का देख कर उस की शादी करने का विचार कर लिया.

एक अच्छा लड़का मिलते ही घर वालों ने सविता की शादी तय कर दी. लेकिन ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला.

अभी शादी के फेरे होने बाकी थे कि लड़के के पिता ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बंद करो… अब नहीं होगी यह शादी.’’

शादी में आए मेहमान और गांव के लोग हैरान रह गए. जब सारी बात का खुलासा हुआ, तो सारे गांव वाले सविता पर थूथू कर के वहां से चले गए.

सविता की मां तो गश खा कर गिर पड़ी थीं. रामकृपाल अपना सिर पीटते हुए कहने लगे, ‘‘अब क्या होगा… क्या मुंह दिखाएंगे हम गांव वालों को? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़की ने हमें. बताओ, अब कौन हाथ थामेगा इस का?’’

‘‘मैं थामूंगा सविता का हाथ,’’ अचानक किसी के मुंह से यह सुन कर रामकृपाल  अचकचा कर पीछे मुड़ कर देखा, तो बैजू अपनी मां के साथ खड़ा था.

‘‘बैजू… तुम?’’ रामकृपाल ने बड़ी हैरानी से पूछा.

विमला कहने लगी, ‘‘हां भाई साहब, आप ने सही सुना है. मैं आप की बेटी को अपने घर की बहू बनाना चाहती हूं और वह इसलिए कि मेरा बैजू आप की बेटी से प्यार करता है.’’

रामकृपाल और उन की पत्नी को चुप और सहमा हुआ देख कर विमला आगे कहने लगी, ‘‘न… न आप गांव वालों की चिंता न करो, क्योंकि मेरे लिए मेरे बेटे की खुशी सब से ऊपर है, बाकी लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, उस से मुझे कोई फर्कनहीं पड़ता है.’’

अब अंधे को क्या चाहिए दो आंखें ही न. उसी मंडप में सविता और बैजू का ब्याह हो गया.

जिस बैजू को देख कर सविता को उबकाई आती थी, उसे देखना तो क्या वह उस का नाम तक सुनना पसंद नहीं करती थी, आज वही बैजू उस की मांग का सिंदूर बन गया. सविता को तो अपनी सुहागरात एक काली रात की तरह दिख रही थी.

‘क्या मुंह दिखाऊंगी मैं अपनी सखियों को, क्या कहूंगी कि जिस बैजू को देखना तक गंवारा नहीं था मुझे, वही आज मेरा पति बन गया. नहीं… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इतनी बड़ी नाइंसाफी मेरे साथ नहीं हो सकती,’ सोच कर ही वह बेचैन हो गई.

तभी किसी के आने की आहट से वह उठ खड़ी हुई. अपने सामने जब उस ने बैजू को खड़ा देखा, तो उस का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

बैजू के मुंह पर अपने हाथ की चूडि़यां निकालनिकाल कर फेंकते हुए सविता कहने लगी, ‘‘तुम ने मेरी मजबूरी का फायदा उठाया है. तुम्हें क्या लगता है कि दो चुटकी सिंदूर मेरी मांग में भर देने से तुम मेरे पति बन गए? नहीं, कोई नहीं हो तुम मेरे. नहीं रहूंगी एक पल भी इस घर में तुम्हारे साथ मैं… समझ लो.’’

बैजू चुपचाप सब सुनता रहा. एक तकिया ले कर उसी कमरे के एक कोने में जा कर सो गया.

सविता ने मन ही मन फैसला किया कि सुबह होते ही वह अपने घर चली जाएगी. तभी उसे अपने मातापिता की कही बातें याद आने लगीं, ‘अगर आज बैजू न होता, तो शायद हम मर जाते, क्योंकि तुम ने तो हमें जीने लायक छोड़ा ही नहीं था. हो सके, तो अब हमें बख्श देना बेटी, क्योंकि अभी तुम्हारी छोटी बहन की भी शादी करनी है हमें…’

कहां ठिकाना था अब उस का इस घर के सिवा? कहां जाएगी वह? बस, यह सोच कर सविता ने अपने बढ़ते कदम रोक लिए.

सविता इस घर में पलपल मर रही थी. उसे अपनी ही जिंदगी नरक लगने लगी थी, लेकिन इस सब की जिम्मेदार भी तो वही थी.

कभीकभी सविता को लगता कि बैजू की पत्नी बन कर रहने से तो अच्छा है कि कहीं नदीनाले में डूब कर मर जाए, पर मरना भी तो इतना आसान नहीं होता है. मांबाप, नातेरिश्तेदार यहां तक कि सखीसहेलियां भी छूट गईं उस की. या यों कहें कि जानबूझ कर सब ने उस से नाता तोड़ लिया. बस, जिंदगी कट रही थी उस की.

सविता को उदास और सहमा हुआ देख कर हंसनेमुसकराने वाला बैजू भी उदास हो जाता था. वह सविता को खुश रखना चाहता था, पर उसे देखते ही वह ऐसे चिल्लाने लगती थी, जैसे कोई भूत देख लिया हो. इस घर में रह कर न तो वह एक बहू का फर्ज निभा रही थी और न ही पत्नी धर्म. उस ने शादी के दूसरे दिन ही अपनी मांग का सिंदूर पोंछ लिया था.

शादी हुए कई महीने बीत चुके थे, पर इतने महीनों में न तो सविता के मातापिता ने उस की कोई खैरखबर ली और न ही कभी उस से मिलने आए. क्याक्या सोच रखा था सविता ने अपने भविष्य को ले कर, पर पलभर में सब चकनाचूर हो गया था.

‘शादी के इतने महीनों के बाद भी भले ही सविता ने प्यार से मेरी तरफ एक बार भी न देखा हो, पर पत्नी तो वह मेरी ही है न. और यही बात मेरे लिए काफी है,’ यही सोचसोच कर बैजू खुश हो उठता था.

एक दिन न तो विमला घर पर थी और न ही बैजू. तभी अमित वहां आ धमका. उसे यों अचानक अपने घर आया देख सविता हैरान रह गई. वह गुस्से से तमतमाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की?’’

अमित कहने लगा, ‘‘अब इतना भी क्या गुस्सा? मैं तो यह देखने आया था कि तुम बैजू के साथ कितनी खुश हो? वैसे, तुम मुझे शाबाशी दे सकती हो. अरे, ऐसे क्या देख रही हो? सच ही तो कह रहा हूं कि आज मेरी वजह से ही तुम यहां इस घर में हो.’’

सविता हैरानी से बोली, ‘‘तुम्हारी वजह से… क्या मतलब?’’

‘‘अरे, मैं ने ही तो लड़के वालों को हमारे संबंधों के बारे में बताया था और यह भी कि तुम मेरे बच्चे की मां भी बनने वाली हो. सही नहीं किया क्या मैं ने?’’ अमित बोला.

सविता यह सुन कर हैरान रह गई. वह बोली, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया? बोलो न? जानते हो, सिर्फ तुम्हारी वजह से आज मेरी जिंदगी नरक बन चुकी है. क्या बिगाड़ा था मैं ने तुम्हारा?

‘‘बड़ा याद आता है मुझे तेरा यह गोरा बदन,’’ सविता के बदन पर अपना हाथ फेरते हुए अमित कहने लगा, तो वह दूर हट गई.

अमित बोला, ‘‘सुनो, हमारे बीच जैसा पहले चल रहा था, चलने दो.’’

‘‘मतलब,’’ सविता ने पूछा.

‘‘हमारा जिस्मानी संबंध और क्या. मैं जानता हूं कि तुम मुझ से नाराज हो, पर मैं हर लड़की से शादी तो नहीं कर सकता न?’’ अमित बड़ी बेशर्मी से बोला.

‘‘मतलब, तुम्हारा संबंध कइयों के साथ रह चुका है?’’

‘‘छोड़ो वे सब पुरानी बातें. चलो, फिर से हम जिंदगी के मजे लेते हैं. वैसे भी अब तो तुम्हारी शादी हो चुकी है, इसलिए किसी को हम पर शक भी नहीं होगा,’’ कहता हुआ हद पार कर रहा था अमित.

सविता ने अमित के गाल पर एक जोर का तमाचा दे मारा और कहने लगी, ‘‘क्या तुम ने मुझे धंधे वाली समझ रखा है. माना कि मुझ से गलती हो गई तुम्हें पहचानने में, पर मैं ने तुम से प्यार किया था और तुम ने क्या किया?

‘‘अरे, तुम से अच्छा तो बैजू निकला, क्योंकि उस ने मुझे और मेरे परिवार को दुनिया की रुसवाइयों से बचाया. जाओ यहां से, निकल जाओ मेरे घर से, नहीं तो मैं पुलिस को बुलाती हूं,’’ कह कर सविता घर से बाहर जाने लगी कि तभी अमित ने उस का हाथ अपनी तरफ जोर से खींचा.

‘‘तेरी यह मजाल कि तू मुझ पर हाथ उठाए. पुलिस को बुलाएगी… अभी बताता हूं,’’ कह कर उस ने सविता को जमीन पर पटक दिया और खुद उस के ऊपर चढ़ गया.

खुद को लाचार पा कर सविता डर गई. उस ने अमित की पकड़ से खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की, पर हार गई. मिन्नतें करते हुए वह कहने लगी, ‘‘मुझे छोड़ दो. ऐसा मत करो…’’

पर अमित तो अब हैवानियत पर उतारू हो चुका था. तभी अपनी पीठ पर भारीभरकम मुक्का पड़ने से वह चौंक उठा. पलट कर देखा, तो सामने बैजू खड़ा था.

‘‘तू…’’ बैजू बोला.

अमित हंसते हुए कहने लगा, ‘‘नामर्द कहीं के… चल हट.’’

इतना कह कर वह फिर सविता की तरफ लपका. इस बार बैजू ने उस के मुंह पर एक ऐसा जोर का मुक्का मारा कि उस का होंठ फट गया और खून निकल आया.

अपने बहते खून को देख अमित तमतमा गया और बोला, ‘‘तेरी इतनी मजाल कि तू मुझे मारे,’’ कह कर उस ने अपनी पिस्तौल निकाल ली और तान दी सविता पर.

अमित बोला, ‘‘आज तो इस के साथ मैं ही अपनी रातें रंगीन करूंगा.’’

पिस्तौल देख कर सविता की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

बैजू भी दंग रह गया. वह कुछ देर रुका, फिर फुरती से यह कह कह अमित की तरफ लपका, ‘‘तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी पत्नी पर गोली चलाए…’’पर तब तक तो गोली पिस्तौल से निकल चुकी थी, जो बैजू के पेट में जा लगी.

बैजू के घर लड़ाईझगड़ा होते देख कर शायद किसी ने पुलिस को बुला लिया था. अमित वहां से भागता, उस से पहले ही वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया.खून से लथपथ बैजू को तुरंत गांव वालों ने अस्पताल पहुंचाया. घंटों आपरेशन चला.

डाक्टर ने कहा, ‘‘गोली तो निकाल दी गई है, लेकिन जब तक मरीज को होश नहीं आ जाता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

विमला का रोरो कर बुरा हाल था. गांव की औरतें उसे हिम्मत दे रही थीं, पर वे यह भी बोलने से नहीं चूक रही थीं कि बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सविता है.

‘सच ही तो कह रहे हैं सब. बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही हूं. जिस बैजू से मैं हमेशा नफरत करती रही, आज उसी ने अपनी जान पर खेल कर मेरी जान बचाई,’ अपने मन में ही बातें कर रही थी सविता.

तभी नर्स ने आ कर बताया कि बैजू को होश आ गया है. बैजू के पास जाते देख विमला ने सविता का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, ‘‘नहीं, तुम अंदर नहीं जाओगी. आज तुम्हारी वजह से ही मेरा बेटा यहां पड़ा है. तू मेरे बेटे के लिए काला साया है. गलती हो गई मुझ से, जो मैं ने तुझे अपने बेटे के लिए चुना…’’

‘‘आप सविता हैं न?’’ तभी नर्स ने आ कर पूछा.डबडबाई आंखों से वह बोली, ‘‘जी, मैं ही हूं.’’

‘‘अंदर जाइए, मरीज आप को पूछ रहे हैं.’’

नर्स के कहने से सविता चली तो गई, पर सास विमला के डर से वह दूर खड़ी बैजू को देखने लगी. उस की ऐसी हालत देख वह रो पड़ी. बैजू की नजरें, जो कब से सविता को ही ढूंढ़ रही थीं, देखते ही इशारों से उसे अपने पास बुलाया और धीरे से बोला, ‘‘कैसी हो सविता?’’

अपने आंसू पोंछते हुए सविता कह लगी, ‘‘क्यों तुम ने मेरी खातिर खुद को जोखिम में डाला बैजू? मर जाने दिया होता मुझे. बोलो न, किस लिए मुझे बचाया?’’ कह कर वह वहां से जाने को पलटी ही थी कि बैजू ने उस का हाथ पकड़ लिया और बड़े गौर से उस की मांग में लगे सिंदूर को देखने लगा.

‘‘हां बैजू, यह सिंदूर मैं ने तुम्हारे ही नाम का लगाया है. आज से मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी हूं,’’ कह कर वह बैजू से लिपट गई.

विदाई: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

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सफर : जिस्म का मजा और रंगीन नोटों की सजा

रात के ठीक 10 बजे ‘झेलम ऐक्सप्रैस’ ट्रेन ने जम्मूतवी से रेंगना शुरू किया, तो पलभर में रफ्तार पकड़ ली. कंपार्टमैंट में सभी मुसाफिर अपना सामान रख आराम कर रहे थे. गीता ने भी लोअर बर्थ पर अपनी कमर टिकाई. कमर टिकाते ही उस ने देखा कि सामने वाली बर्थ पर जो साहब अभी तक बैठे थे, मुंह खुला रख कर खर्राटों भरी गहरी नींद सो चुके थे. गीता की नजर उन साहब के ऊपर वाली बर्थ पर गई तो देखा कि एक नौजवान अपनी छाती पर मोबाइल फोन रख कानों में ईयरफोन लगाए उस में बज रहे गानों के संग जुगलबंदी में मस्त था.

गीता को नींद नहीं आ रही थी. उस के ऊपर वाली बर्थ पर कोई हलचल नहीं थी. उस पर सामान रखा हुआ था और सामान वाला उसी कंपार्टमैंट के आखिरी छोर पर अपने दोस्त के साथ कारोबार की बातें कर रहा था.

रात गुजर गई. गीता लेटी रही, मगर सो नहीं पाई थी. सुबह के 5 बज चुके थे. अपनी ही दुनिया में मस्त वह नौजवान उठा और वाशरूम की तरफ चल दिया.

जब वह लौटा, तो उस का चेहरा एकदम तरोताजा दिख रहा था. तब तक गाड़ी अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन पर रुक चुकी थी. वह नौजवान छोलेकुलचे ले कर आया और फिर उस ने देखते ही देखते नाश्ता कर लिया.

सामने वाली बर्थ पर लेटे साहब हरकत में आने शुरू हुए. उन्होंने गीता से पूछा, ‘‘मैडम, यह गाड़ी कौन से स्टेशन पर रुकी हुई है?’’

गीता ने उन के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी, अंबाला स्टेशन पर.’’

तभी ट्रेन ने रेंगना शुरू कर दिया. उन साहब ने सवाल किया, ‘‘क्या कोई चाय वाला नहीं आया अब तक?’’

गीता बोली, ‘‘जी, बहुत आए थे, मगर आप सो रहे थे.’’

वे साहब चाय की तलब लिए फिर से अपनी बर्थ पर आलू की तरह लुढ़क गए. थोड़ी देर बाद उन का मुंह खुला और वे फिर से खर्राटे लेने लगे.

गीता ने सामने ऊपर वाली बर्थ पर उस नौजवान पर निगाह डाली तो देखा कि वह कोई उपन्यास पढ़ रहा था.

न जाने क्यों गीता की निगाहों को वह अच्छा लगने लगा था. उस का डीलडौल, कदकाठी, हेयरकट और उस के दैनिक रूटीन से उस ने अंदाजा लगा लिया था कि यह तो पक्का फौजी है.

इस के बाद गीता वाशरूम चली गई. थोड़ी देर बाद वह होंठों को और गुलाबी कर, आंखों को कजरारी कर, चेहरे को चमका कर व जुल्फों को संवार कर जब वापस अपनी बर्थ की ओर लौटने लगी, तो उस की नजरें दूर से ही उस नौजवान पर जा टिकीं. वह उपन्यास के पात्रों में खोया हुआ था.

गीता ने ठोकर लगने की सी ऐक्टिंग कर उस का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की, मगर सब बेकार.

गीता खिसियाई सी खिड़की के पास आ कर बैठ गई और बाहर झांकने लगी.

तकरीबन 8 बजे गाड़ी पानीपत स्टेशन पर रुकी, तो गीता ने अपनी नजरें नौजवान पर टिका कर सामने वाले साहब को पुकारते हुए कहा, ‘‘जी उठिए, स्टेशन पर गाड़ी रुकी है… चायनाश्ता सब है यहां.’’

‘‘ओके थैंक्यू, चाय पीने का बड़ा मन है मेरा,’’ उन साहब ने कहा.

‘‘जी, इसीलिए तो उठाया है. मैं जानती हूं कि आप चाय की तलब के साथ ही सो गए थे,’’ गीता बोली.

चाय वाला जैसे ही खिड़की पर आया, तो उन साहब ने झट से चाय का कप लिया और अपनी जेब से पैसे निकाल कर चाय वाले को थमा दिए. इस के तुरंत बाद आलूपूरी वाले ने खिड़की पर दस्तक दी, तो पलभर में उन साहब ने आलूपूरी अपने हाथों में थाम ली.

गीता की नजर दोबारा ऊपर वाली बर्थ पर गई, तो उस ने देखा कि वह नौजवान अभी भी उपन्यास पढ़ने में डूबा हुआ था.

चायनाश्ते से निबट कर जब उन साहब को फुरसत मिली, तो उन्होंने गीता को ‘थैंक्यू’ कहा. तभी ऊपर बैठे उस नौजवान ने नीचे झांका तो देखा कि साहब नाश्ता कर चुके थे.

उस नौजवान ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘सर, अगर आप बैठ रहे हैं, तो मैं अपनी बर्थ नीचे कर लूं क्या?’’

‘‘हांहां क्यों नहीं.’’

थोड़ी देर बाद वह नौजवान उन साहब की बगल में, तो गीता के ठीक सामने बैठ चुका था.

गीता अपनी बर्थ पर बैठीबैठी खिड़की से बाहर झांकतेझांकते अपनी नजरें उस नौजवान की नजरों से मिलाने की कोशिश करने लगी.

लेकिन वह नौजवान तो उसे देख ही नहीं रहा था. वह सोचने लगी, ‘ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि मुझे कोई देखे भी न. अगर कोई मेरी बगल से भी गुजरता है, तो वह पलट कर मुझे जरूर देखता है.’

उस नौजवान पर टकटकी लगाए गीता सोच रही थी कि तभी उस ने पानी की बोतल गीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैडम, पानी पी लीजिए.’’

यह सुन कर गीता के गंभीर चेहरे पर एक मुसकान उभरी. उस की ओर देखतेदेखते गीता पानी की बोतल अपने हाथ में थाम बैठी और दोचार घूंट गटागट पी भी गई.

पानी की बोतल उसे वापस देते हुए गीता ने अपने कयास को पुख्ता करने के लिए पूछ लिया, ‘‘आप फौजी हैं न?’’

‘‘जी…’’

गीता ने उस से दोबारा कहा, ‘‘बुरा मत मानना प्लीज… मैं ने किसी से सुना था कि फौजी दिमाग से पैदल होते हैं… जहां लड़की देखी नहीं कि कभी उन के सिर में तो कभी बदन में खुजली होने लगती है और फिर वे पागलों की तरह लड़कियों को देखने लगते हैं. पर आप ने यह साबित कर दिया कि सभी फौजी एकजैसे नहीं होते.’’

‘‘हां, पर फौजियों को ठीक रहने कौन देता है… जहां फौजी ऐसी हरकत नहीं करते, वहां लड़कियां उन के साथ ऐसा ही करने लगती हैं. आखिर कोई कहां तक बचे?’’ उस नौजवान की यह बात सीधा गीता के दिल को जा कर लगी.

बातचीत का सिलसिला चला, तो उस नौजवान ने पूछ लिया, ‘‘क्या नाम है आप का?’’

‘‘गीता.’’

‘‘क्या करती हैं आप?’’

‘‘जी, मैं बैंक में हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ वह फौजी बोला.

गीता ने पूछा, ‘‘और आप का नाम?’’

‘‘मेरा नाम प्रिंस है.’’

‘‘प्रिंस… वह भी सेना में… पर कौन रहने देता होगा आप को वहां प्रिंस की तरह…’’

इस बात पर वे दोनों हंस दिए थे, हंसीठहाकों के बीच उन्हें पता ही नहीं चला कि टे्रन कब नई दिल्ली स्टेशन पर आ कर रुक गई.

सवारियों ने उतरना शुरू किया, तो साथ ही साथ नई सवारियों का चढ़ना भी जारी था.

तभी एक बंगाली जोड़ा अपना बर्थ नंबर ढूंढ़तेढूंढ़ते वहां आ पहुंचा. अधेड़ उम्र के उस बंगाली जोड़े ने अपना सामान सीट के नीचे रखा और वे दोनों गीता व प्रिंस के साथ ही आ बैठे.

दिनभर की प्यारभरी बातों के सिलसिले के साथ ही एक के बाद एक स्टेशन भी पीछे छूटते रहे और पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई. पैंट्री वाले आए, खाने का और्डर बुक किया. कुछ देर बाद रात का भोजन सब के सामने था.

खाना खाने के बाद प्रिंस ने टूथब्रश किया, तो गीता ने भी उस की देखादेखी यह काम कर डाला. सभी सुस्ताने के मूड में आए, तो सब ने अपनीअपनी बर्थ संभालनी शुरू कर दी.

बंगाली जोड़ा कुछ परेशान सा इधरउधर ताकनेझांकने लगा.

प्रिंस ने उन्हें टोकते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है जी?’’

बंगाली आदमी ने अपना दर्द बयां किया, ‘‘क्या बताएं बेटा. एक तो हम शरीर से भारी, उस पर उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि जहां हमारे लिए ऊपर वाली बर्थ पर चढ़नाउतरना किसी किले को फतेह करने से कम नहीं है. कहीं इस चढ़नेउतरने में फिसल कर गिर गए, तो 2-4 हड्डियां तो टूट ही जाएंगी.’’

इतने में बंगाली औरत की याचक निगाहें गीता के छरहरे बदन पर जा पड़ीं. उन्होंने विनती करते हुए कहा, ‘‘बेटी, क्या आप हमारी मदद कर सकती हैं?’’

गीता हैरानी से उन की ओर देखते हुए बोली, ‘‘कैसे आंटी?’’

‘‘आप बर्थ ऐक्सचेंज कर लीजिए प्लीज. आप जवान लोग हो, ऊपर की बर्थ पर चढ़उतर सकते हो.’’

‘‘ठीक है आंटी. मैं ऊपर वाली बर्थ पर चली जाती हूं, आप मेरी बर्थ पर सो जाइए,’’ गीता ने कहा.

गीता पायदान में पैर अटका कर प्रिंस के सामने ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गई, तो बंगाली जोड़ा भी नीचे वाली बर्थ पर लेट गया.

प्रिंस, जो पहले से ही अपनी बर्थ पर मौजूद था, अब तक उपन्यास के पन्नों में डूब चुका था.

गीता ने ऊंघते हुए उस की तरफ देखा और एक बदनतोड़ अंगड़ाई लेते हुए अपनी छाती को उभारा, तो फौजी की नजरें उपन्यास से हट कर उस के बदन पर आ ठहरीं. उपन्यास हाथ से छूट कर नीचे गिर गया.

गीता के चेहरे पर मादकता में लिपटी जीत की मुसकान तैर गई. उस ने नीचे गिरे हुए उपन्यास को देखा तो उस के उभार झांकने लगे. फौजी की निगाहें तो मानो वहीं पर अटक कर रह गईं.

फौजी ने गीता की ओर देख कर कहा, ‘‘बुरा मत मानना, आप की हंसी तो बेहद खूबसूरत है.’’

गीता ने भी जवाब में कहा, ‘‘आप का चालचलन बहुत अच्छा है… मैं कल से देख रही हूं.’’

यह बात सुन कर प्रिंस हंस पड़ा और बोला, ‘‘आर्मी वालों का चालचलन बिगड़ने कौन देता है मैडम? कैद में रहते हैं. कोई हमें खुला छोड़ कर तो देखे.’’

गीता मुसकराते हुए कहने लगी, ‘‘अब चालचलन कुछ ठीक नहीं लग रहा है आप का.’’

‘‘कहां से ठीक रहता… आप जो कल रात से मुझ पर डोरे डालती आ रही हैं. हम कंट्रोल करना जानते हैं, तो इस का मतलब यह तो नहीं हुआ कि किसी हुस्नपरी को देख कर हमारा दिल ही नहीं धड़कता. हम बात मौका देख कर करते हैं मैडम.’’

गीता ने उस की बातों में दिलचस्पी लेते हुए पूछा, ‘‘गाने के शौकीन हो बाबू, फौज में क्यों चले गए?’’

प्रिंस गंभीर हो गया, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘एक लड़की के चक्कर में फौजी बन गया. उसे आर्मी वाले पसंद थे.’’

‘‘ओह… अब तो वह लड़की आप की पत्नी होगी?’’

‘‘न… जब मैं ट्रेनिंग कर के गांव लौटा, तब तक उस ने किसी कारोबारी से शादी कर ली थी. मगर मैं फौजी हो कर रह गया.’’

‘‘बहुत दुख हुआ होगा उस के ऐसा करने पर?’’

‘‘हां, पर क्या करता? जिंदगी है ही चलने का नाम. कभी दोस्तों ने मुझ को, तो कभी मैं ने खुद को समझा लिया कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है.’’

फिर गीता की ओर आंख मार कर प्रिंस ने हलके से मुसकराते हुए कहा, ‘‘बस, अब मैं कुछ अच्छा होने का इंतजार कर रहा हूं.’’

‘‘क्या बात है साहब… मुझे आप की यही अदा तो बड़ी पसंद है.’’

‘‘मुझ से दोस्ती करोगी?’’

‘‘वह तो हो ही गई है अब… इस में कहने की क्या बात है?’’

फिर उन दोनों ने एकदूसरे से हाथ मिलाया, तो गीता ने प्रिंस की हथेली में अपनी उंगलियों से सरसराहट सी पैदा कर दी. उस सरसराहट ने प्रिंस के तनमन में खलबली मचा दी थी. दोनों एकदूजे की आंखों में डूबने लगे.

रात अपने शबाब पर चढ़नी शुरू हो गई थी. वे दोनों कब एक ही बर्थ पर आ गए, किसी को भनक तक न हुई.

गीता के बदन से आ रही गुलाब के इत्र की भीनीभीनी खुशबू में प्रिंस बहकता चला गया.

गीता ने थोड़ी ढील दी, तो प्रिंस के हाथ उस के बदन से खेलने लगे. गीता ने कुछ नहीं कहा, तो प्रिंस ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया.

थोड़ी ही देर में वे दो बदन एक जान हो गए. चलती टे्रन में उन के प्यार का सफर अब अपनी हद पर था. फिर इसी सफर में वे दोनों हांफतेहांफते नींद के आगोश में समा गए.

सुबह के तकरीबन 3 बजे गाड़ी ने अपनी रफ्तार कम की, तो गीता की नींद खुल गई. उस ने अपनेआप को प्रिंस की बांहों से आजाद कर कपड़े पहने. उस का खंडवा स्टेशन आने वाला था.

गीता ने एक कागज पर प्रिंस के लिए कुछ लिखा और उस के सिरहाने रख दिया. फिर कुछ सोचा और जल्दबाजी में एक और पुरजे पर कुछ लिखा और पर्स निकाल कर उस पुरजे को पर्स में रखा और पैंट की जेब के हवाले किया.

फिर गीता ने अपना सामान समेटा और बिना आहट किए ही प्लेटफार्म पर उतर गई.

रात के प्यार में थके प्रिंस की नींद सुबह के 5 बजे खुली, तो उस ने अपनी बगल में गीता को टटोला. वह वहां नहीं थी और न ही उस का सामान.

प्रिंस हैरानपरेशान सा इधरउधर ताकने लगा. गीता का कहीं नामोनिशान न मिलने पर उस ने खुद को ठीकठाक करने के लिए सिरहाने रखी अपनी शर्ट उठाई, तो उसे उस के नीचे एक चिट्ठी मिली. लिखा था:

‘डियर,

‘आप बहुत अच्छे फौजी हैं. देर से बहकते हो जरा… पर बहकते जरूर हो. सफर रोमांचक गुजरा. आप की बात ही कुछ और थी… फिर कभी दोबारा आप से इसी तरह मुलाकात हो.

‘लव यू डियर, गुड बाय.’

चिट्ठी पढ़ कर प्रिंस हैरान हुआ. उस भोलीभाली दिखने वाली मासूम बला के बारे में सोचतेसोचते उस के माथे पर सिलवटें पड़ने लगीं, तभी चाय वाला वहां आया.

‘‘अरे भैया, एक कप चाय दे दो,’’ कहते हुए प्रिंस ने अपना पर्स निकाला, तो उस में से एक और पुरजा निकला, जिस पर लिखा हुआ था:

‘आप का पर्स रंगीन नोटों की गरमी से लबालब था. दिल आ गया… सो, निशानी के तौर पर सभी रंगीनियां साथ लिए जा रही हूं… उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.’

प्रिंस के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘चाय के लिए चिल्लर तो छोड़ जाती…पर फौजी पर तरस खाता कौन है…’’

विदाई- भाग 2: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

उस ने आगे बढ़ कर अपनी पत्नी को बांहों में भर लिया. कविता अचानक हिचकियां ले कर रोने लगी. नीरज की आंखों से भी आंसू बह रहे थे.

कविता के शरीर ने जब कांपना बंद कर दिया तब नीरज ने उसे अपनी बांहों के घेरे से मुक्त किया. अब तक अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का सहारा ले कर उस ने खुद को काफी संभाल भी लिया था.

‘‘मेरे सामने यह रोनाधोना नहीं चलेगा, जानेमन,’’ उस ने मुसकरा कर कविता के गाल पर चुटकी भरी, ‘‘इन मुसीबत के क्षणों को भी हम उत्साह, हंसीखुशी और प्रेम के साथ गुजारेंगे. यह वादा इसी वक्त तुम्हें मुझ से करना होगा, कविता.’’

नीरज ने अपना हाथ कविता के सामने कर दिया.

कविता शरमाते हुए पहली बार सहज ढंग से मुसकराई और उस ने हाथ बढ़ा कर नीरज का हाथ पकड़ लिया.

उस रात नीरज अपनी ससुराल में रुका. दोनों ने साथसाथ खाना खाया. फिर देर रात तक हाथों में हाथ ले कर बातें करते रहे.

भविष्य के बारे में कैसी भी योजना बनाने का अवसर तो नियति ने उन से छीन ही लिया था. अतीत की खट्टीमीठी यादों को ही उन दोनों ने खूब याद किया.

सुहागरात, शिमला में बिताया हनीमून, साथ की गई खरीदारी, देखी हुई जगहें, आपसी तकरार, प्यार में बिताए क्षण, प्रशंसा, नाराजगी, रूठनामनाना और अन्य ढेर सारी यादों को उन्होंने उस रात शब्दों के माध्यम से जिआ.

हंसतेमुसकराते, आंसू बहाते वे दोनों देर रात तक जागते रहे. कविता उसे यौन सुख देने की इच्छुक भी थी पर कैंसर ने इतना तेज दर्द पैदा किया कि उन का मिलन संभव न था.

अपनी बेबसी पर कविता की रुलाई फूट पड़ी. नीरज ने बड़े सहज अंदाज में पूरी बात को लिया. वह तब तक कविता के सिर को सहलाता रहा जब तक वह सो नहीं गई.

‘‘मैं तुम्हारी अंतिम सांस तक तुम्हारे पास हूं, कविता. इस दुनिया से तुम्हारी विदाई मायूसी व शिकायत के साथ नहीं बल्कि प्रेम व अपनेपन के एहसास के साथ होगी, यह वादा है मेरा तुम से,’’ नींद में डूबी कविता से यह वादा कर के ही नीरज ने सोने के लिए अपनी आंखें बंद कीं.

अगले दिन सुबह नीरज और कविता 2 कमरों वाले एक फ्लैट में  रहने चले आए. यह खाली पड़ा फ्लैट नीरज के एक पक्के दोस्त रवि का था. रवि ने फ्लैट दिया तो अन्य दोस्तों व आफिस के सहयोगियों ने जरूरत के दूसरे सामान भी फ्लैट में पहुंचा दिए.

नीरज ने आफिस से लंबी छुट्टी ले ली. जहां तक संभव होता अपना हर पल वह कविता के साथ गुजारने की कोशिश करता.

उन से मिलने रोज ही कोई न कोई घर का सदस्य, रिश्तेदार या दोस्त आ जाते. सभी अपनेअपने ढंग से सहानुभूति जाहिर कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश करते.

नीरज की समझ में एक बात जल्दी ही आ गई कि हर सहानुभूतिपूर्ण बातचीत के बाद वह दोनों ही उदासी और निराशा का शिकार हो जाते थे. शब्दों के माध्यम से शरीर या मन की पीड़ा को कम करना संभव नहीं था.

इस समझ ने नीरज को बदल दिया. कविता का ध्यान उस की घातक बीमारी पर से हटा रहे, इस के लिए उस ने ज्यादा सक्रिय उपायों को इस्तेमाल में लाने का निर्णय किया.

उसी शाम वह बाजार से लूडो और कैरमबोर्ड खरीद लाया. कविता को ये दोनों ही खेल पसंद थे. जब भी समय मिलता दोनों के बीच लूडो की बाजी जम जाती.

एक सुबह रसोई में जा कर नीरज ने कविता से कहा, ‘‘मुझे भी खाना बनाना सिखाओ, मैं चाय बनाने के अलावा और कुछ जानता ही नहीं.’’

‘‘अच्छा, खाना बनाना सीखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी जनाब,’’ कविता उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए मुसकराई.

‘‘मैडमजी, मैं पूरी लगन से सीखूंगा.’’

‘‘मेरी डांट भी सुननी पड़ेगी.’’

‘‘मुझे मंजूर है.’’

‘‘तब पहले सब्जी काटना सीखो,’’ कविता ने 4 आलू मजाकमजाक में नीरज को पकड़ा दिए.

नीरज तो सचमुच आलुओं को धो कर उन्हें काटने को तैयार हो गया. कविता ने उसे रोकना भी चाहा, पर वह नहीं माना.

उसे ढंग से चाकू पकड़ना भी कविता को सिखाना पड़ा. नीरज ने आलू के आड़ेतिरछे टुकड़े बड़े ध्यान से काटे. दोनों ने ही इस काम में खूब मजा लिया.

‘‘अब मैं तुम्हें खिलाऊंगा आलू के पकौड़े,’’ नीरज की इस घोषणा को सुन कर कविता ने इतनी तरह की अजीबो- गरीब शक्लें बनाईं कि उस का हंसतेहंसते पेट दुखने लगा.

नीरज ने बेसन खुद घोला. तेल की कड़ाही के सामने खुद ही जमा रहा. कविता की सहायता व सलाह लेना उसे मंजूर था, पर पकौड़े बनाने का काम उसी ने किया.

उस दिन के बाद से नीरज भोजन बनाने के काम में कविता का बराबर हाथ बंटाता. कविता को भी उसे सिखाने में बहुत मजा आता. रसोई में साथसाथ बिताए समय के दौरान वह अपना दुखदर्द पूरी तरह भूल जाती.

‘‘मैं नहीं रहूंगी, तब भी आप कभी भूखे नहीं रहोगे. बहुत कुछ बनाना सीख गए हो अब आप,’’ एक रात सोने के समय कविता ने उसे छेड़ा.

‘‘तुम से मैं ने यह जो खाना बनाना सीखा है, शायद इसी की वजह से ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जो तुम मेरे साथ मेरे दिल में कभी न रहो,’’ नीरज ने उस के होंठों को चूम लिया.

नीरज से लिपट कर बहुत देर तक खामोश रहने के बाद कविता ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आप के प्यार के कारण अब मुझे मौत से डर नहीं लगता है.

‘‘जिस से जानपहचान नहीं उस से डरना क्या. जीवन प्रेम से भरा हो तो मौत के बारे में सोचने की फुरसत किसे है,’’ नीरज ने इस बार उस की आंखों को बारीबारी से चूमा.

‘‘आप बहुत अच्छे हो,’’ कविता की आंखें नम होने लगीं.

‘‘थैंक यू. देखो, अगर मैं तुम्हारी तारीफ करने लगा तो सुबह हो जाएगी. कल अस्पताल जाना है. अब तुम आराम करो,’’ अपनी हथेली से नीरज ने कविता की आंखें मूंद दीं.

कुछ ही देर में कविता गहरी नींद के आगोश में पहुंच गई. नीरज देर तक उस के कमजोर पर शांत चेहरे को प्यार से निहारता रहा.

हर दूसरे दिन नीरज अपने किसी दोस्त की कार मांग लाता और कविता को उस की सहेलियों व मनपसंद रिश्तेदारों से मिलाने ले जाता. कभीकभी दोनों अकेले किसी उद्यान में जा कर हरियाली व रंगबिरंगे फूलों के बीच समय गुजारते. एकदूसरे का हाथ थाम कर अपने दिलों की बात कहते हुए समय कब बीत जाता उन्हें पता ही नहीं चलता.

नीरज कितनी लगन व प्रेम से कविता की देखभाल कर रहा है, यह किसी की नजरों से छिपा नहीं रहा. कविता के मातापिता व भाई हर किसी के सामने नीरज की प्रशंसा करते न थकते.

नीरज के अपने मातापिता को उस का व्यवहार समझ में नहीं आता. वे उस के फ्लैट से हमेशा चिंतित व परेशान से हो कर लौटते.

विदाई- भाग 1: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

नीरज 3 महीने की टे्रनिंग के लिए दिल्ली से मुंबई गया था पर उसे 2 माह बाद ही वापस दिल्ली लौटना पड़ा था.

‘‘कविता की तबीयत बहुत खराब है. डा. विनिता कहती हैं कि उसे स्तन कैंसर है. तुम फौरन यहां आओ,’’ टेलीफोन पर अपने पिता से पिछली शाम हुए इस वार्त्तालाप पर नीरज को विश्वास नहीं हो रहा था.

कविता और उस की शादी हुए अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए थे. सिर्फ 25-26 साल की कम उम्र में कैंसर कैसे हो गया? इस सवाल से जूझते हुए नीरज का सिर दर्द से फटने लगा था.

एअरपोर्ट से घर न जा कर नीरज सीधे डा. विनिता से मिलने पहुंचा. इस समय उस का दिल भय और चिंता से बैठा जा रहा था.

डा. विनिता ने जो बताया उसे सुन कर नीरज की आंखों से आंसू झरने लगे.

‘‘तुम्हें तो पता ही है कि कविता गर्भवती थी. उसे जिस तरह का स्तन कैंसर हुआ है, उस का गर्भ धारण करने से गहरा रिश्ता है. इस तरह का कैंसर कविता की उम्र वाली स्त्रियों को हो जाता है,’’ डा. विनिता ने गंभीर लहजे में उसे जानकारी दी.

‘‘अब उस का क्या इलाज करेंगे आप लोग?’’ अपने आंसू पोंछ कर नीरज ने कांपते स्वर में पूछा.

बेचैनी से पहलू बदलने के बाद डा. विनिता ने जवाब दिया, ‘‘नीरज, कविता का कैंसर बहुत तेजी से फैलने वाला कैंसर है. वह मेरे पास पहुंची भी देर से थी. दवाइयों और रेडियोथेरैपी से मैं उस के कैंसर के और ज्यादा फैलने की गति को ही कम कर सकती हूं, पर उसे कैंसरमुक्त करना अब संभव नहीं है.’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं? मेरी कविता क्या बचेगी नहीं?’’ नीरज रोंआसा हो कर बोला.

‘‘वह कुछ हफ्तों या महीनों से ज्यादा हमारे साथ नहीं रहेगी. अपनी प्यार भरी देखभाल व सेवा से तुम्हें उस के बाकी बचे दिनों को ज्यादा से ज्यादा सुखद और आरामदायक बनाने की कोशिश करनी होगी. कविता को ले कर तुम्हारे घर वालों का आपस में झगड़ना उसे बहुत दुख देगा.’’

‘‘यह लोग आपस में किस बात पर झगड़े, डाक्टर?’’ नीरज चौंका और फिर ज्यादा दुखी नजर आने लगा.

‘‘कैंसर की काली छाया ने तुम्हारे परिवार में सभी को विचलित कर दिया है. कविता इस समय अपने मायके में है. वहां पहुंचते ही तुम्हें दोनों परिवारों के बीच टकराव के कारण समझ में आ जाएंगे. तुम्हें तो इस वक्त बेहद समझदारी से काम लेना है. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ नीरज की पीठ अपनेपन से थपथपा कर डा. विनिता ने उसे विदा किया.

ससुराल में कविता से मुलाकात करने से पहले नीरज को अपने सासससुर व साले के कड़वे, तीखे और अपमानित करने वाले शब्दों को सुनना पड़ा.

‘‘कैंसर की बीमारी से पीडि़त अपनी बेटी को मैं ने धोखे से तुम्हारे साथ बांध दिया, तुम्हारे मातापिता के इस घटिया आरोप ने मुझे बुरी तरह आहत किया है. नीरज, मैं तुम लोगों से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं,’’ गुस्से में उस के ससुर ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘इस कठिन समय में उन की मूर्खतापूर्ण बातों को आप दिल से मत लगाइए,’’ थकेहारे अंदाज में नीरज ने अपने ससुर से प्रार्थना की.

‘‘इस कठिन समय को गुजारने के लिए तुम सब हमें अकेले छोड़ने की कृपा करो. बस,’’ उस के साले ने नाटकीय अंदाज में अपने हाथ जोड़े.

‘‘तुम भूल रहे हो कि कविता मेरी पत्नी है.’’

‘‘आप जा कर अपने मातापिता से कह दें कि हमें उन से कैसी भी सहायता की जरूरत नहीं है. अपनी बहन का इलाज मैं अपना सबकुछ बेच कर भी कराऊंगा.’’

‘‘देखिए, आप लोगों ने आपस में एकदूसरे से झगड़ते हुए क्याक्या कहा, उस के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं. मेरी गृहस्थी उजड़ने की कगार पर आ खड़ी हुई है. कविता से मिलने को मेरा दिल तड़प रहा है…उसे मेरी…मेरे सहारे की जरूरत है. प्लीज, उसे यहां बुलाइए,’’ नीरज की आंखों से आंसू बहने लगे.

नीरज के दुख ने उन के गुस्से के उफान पर पानी के छींटे मारने का काम किया. उस की सास पास आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

अब उन सभी की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘‘कविता की मौसी उसे अपने साथ ले कर गई हैं. वह रात तक लौटेंगी. तुम तब तक यहां आराम कर लो,’’ उस की सास ने बताया.

अपने हाथों से मुंह कई बार पोंछ कर नीरज ने मन के बोझिलपन को दूर करने की कोशिश की. फिर उठ कर बोला, ‘‘मैं अभी घर जाता हूं. रात को लौटूंगा. कविता से कहना कि मेरे साथ घर लौटने की तैयारी कर के रखे.’’

आटोरिकशा पकड़ कर नीरज घर पहुंचा. उस का मन बुझाबुझा सा था. अपने मातापिता के रूखे स्वभाव को वह अच्छी तरह जानता था इसलिए उन्हें समझाने की उस ने कोई कोशिश भी नहीं की.

कविता की जानलेवा बीमारी की चर्चा छिड़ते ही उस की मां ने गुस्से में अपने मन की बात कही, ‘‘तेरी ससुराल वालों ने हमें ठग कर अपनी सिरदर्दी हमारे सिर पर लाद दी है, नीरज. कविता के इलाज की भागदौड़ और उस की दिनरात की सेवा हम से नहीं होगी. अब उसे अपने मायके में ही रहने दे, बेटे.’’

‘‘तेरे सासससुर ने शादी में अच्छा दहेज देने का मुझे ताना दिया है. सुन, अपनी मां से कविता के सारे जेवर ले जा कर उन्हें दे देना,’’ नीरज के पिता भी तेज गुस्से का शिकार बने हुए थे.

नीरज की छोटी बहन वंदना ने जरूर उस के साथ कुछ देर बैठ कर अपनी आंखों से आंसू बहाए पर कविता को घर लाने की बात उस ने भी अपने मुंह से नहीं निकाली.

अपने कमरे में नीरज बिना कपड़े बदले औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ा. इस समय वह अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा था. अपने घर व ससुराल वालों के रूखे व झगड़ालू व्यवहार से उसे गहरी शिकायत थी.

उस के अपने घर वाले बीमार कविता को घर में रखना नहीं चाहते थे और ससुराल में रहने पर नीरज का अपना दिल नहीं लगता. वह कविता के साथ रह कर कैसे यह कठिन दिन गुजारे, इस समस्या का हल खोजने को उसे काफी माथापच्ची करनी पड़ी.

उस रात कविता से नीरज करीब 2 माह बाद मिला. उसे देख कर नीरज को मन ही मन जबरदस्त झटका लगा. उस की खूबसूरत पत्नी का रंगरूप मुरझा गया था.

गुलदारनी – भाग 2 : चालाक शिकारी की कहानी

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : जटपुर गांव के आसपास के जंगलों में एक मादा गुलदारनी का खौफ था. इस गांव में ब्याह कर आई स्वाति का भी अपनी ससुराल में दबदबा था. उस ने गांव के चौधरी राम सिंह को अपनी तरफ कर लिया था. वह गांव के मनचलों के साथ भी सैल्फी खिंचवाती थी. इस बीच स्वाति के पति नरदेव पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगा. स्वाति ने चौधरी राम सिंह को यह मामला सुलझाने के लिए कहा. अब पढि़ए आगे…

बाबूराम ने चौधरी राम सिंह की बात का मान रखते हुए कहा, ‘‘चौधरी साहब, आप की पगड़ी का मान रख रहा हूं, नहीं तो थाने में रिपोर्ट लिखवा कर नरदेव को जेल भिजवा कर ही दम लेता. बस चौधरी साहब, हमारा भी इतना मान रख लो कि नरदेव से माफी मंगवा दो.’’

रात के साए में चौधरी राम सिंह स्वाति और नरदेव को ले कर बाबूराम के घर पहुंचे. नरदेव ने बाबूराम से माफी मांग ली और आइंदा कभी ऐसी हरकत न करने की कसम खाई. सब ने यही समझा कि नरदेव के माफी मांगने से पहले ही मामले का खात्मा हो गया.

चौधरी राम सिंह भी मामले को निबटा समझ कर यही सोच रहे थे कि अब तो स्वाति उन के एहसान तले दब जाएगी और उन के फंदे में फंस जाएगी, लेकिन स्वाति फंदे में फंसने वाली कहां थी. वह उन्हें तरसाती रही.

उस रात चौधरी राम सिंह को खबर मिली कि जंगल में ‘गुलदारनी’ ने एक पिंजरा और पलट दिया है, लेकिन जंगल महकमे का अफसर भी उसे पकड़ने पर आमादा था. उस का मानना है कि बकरे की अम्मां कब तक खैर मनाएगी. आज नहीं तो कल पिंजरे में फंस कर रहेगी.

उधर गांव के खिलाड़ी लड़कों को जब यह पता चला कि स्वाति भाभी और नरदेव भैया का बाबूराम से कोई पंगा हो गया है और वे परेशानी में हैं तो उन अल्हड़ लड़कों ने बिना सोचेसमझे स्वाति भाभी को खुश करने के लिए बाबूराम के बेटे कुंदन की धुनाई कर दी.

यह खबर सुन कर स्वाति बहुत खुश हुई. उस ने लड़कों को बुलवा कर उन के साथ सैल्फी ली और उन्हें मिठाई खिलाई.

लेकिन ऐसा करते हुए स्वाति भूल गई कि बाबूराम का नासूर अभी हरा है. जब बाबूराम को यह पता चला कि कुंदन की पिटाई करने वाले लड़कों को स्वाति ने मिठाई खिलाई है, तो वह आगबबूला हो गया. उसे लगा कि स्वाति ने उसे बेवकूफ बनाया है. एक ओर तो नरदेव से माफी मंगवा दी, वहीं दूसरी ओर उस के लड़के को पिटवा दिया.

इस मामले को सुलझाने में भी एक बार फिर चौधरी राम सिंह काम आए. उन्होंने समझाबुझा कर किसी तरह बाबूराम को शांत किया.

लेकिन स्वाति और नरदेव से भी जलने वाले कम न थे. उन का पड़ोसी हरिया उन से खूब जलता था. हरिया का नरदेव से किसी न किसी बात पर पंगा होता ही रहता था. कोई भी एकदूसरे को नीचा दिखाने का मौका नहीं चूकता था. स्वाति के बढ़ते दबदबे से भी हरिया चिंतित रहता था.

नरदेव पर लगा छेड़खानी का आरोप हरिया के लिए स्वाति और नरदेव को नीचा दिखाने का सुनहरा मौका था. वह उन की गांवभर में बदनामी तो कर ही रहा था, मामले को किसी तरह दबने भी नहीं देना चाहता था. उस ने बाबूराम की कमजोर नब्ज पकड़ी.

हरिया दारू की बोतल ले कर बाबूराम के चबूतरे पर पहुंचा. नमकीन की थैली उस ने कुरते की जेब में ठूंस रखी थी.

हरिया के हाथ में बोतल देख कर बाबूराम की आंखें चमक उठीं, ‘‘क्या ले आया रे हरिया आज?’’

‘‘कुछ नहीं, बस लालपरी है. सोचा, बहुत दिन हो गए बड़े भैया के साथ दो घूंट लगा लूं.’’

यह सुन कर बाबूराम हरिया के लिए चारपाई पर जगह बनाने के लिए ऊपर को खिसक गया.

‘‘बैठो, आराम से बैठो हरिया. यह तुम्हारा ही तो घर है.’’

‘‘हांहां, बाबूराम भैया. हम ने कब इसे गैरों का घर समझा है. यह तो तुम हो जो हमें मुसीबत में भी याद नहीं करते.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है हरिया, बस बात को क्या बढ़ाएं?’’

इसी बीच बाबूराम घर से 2 गिलास और नमकीन के लिए प्लेट ले आया और कोठरी का दरवाजा बंद कर दिया.

हरिया ने पैग बनाने शुरू किए और लालपरी का रंग धीरेधीरे बाबूराम पर चढ़ना शुरू हो गया.

मौका ताड़ कर हरिया ने पांसा फेंका, ‘‘बाबूराम भैया, हमारे और तुम्हारे संबंध बचपन से कितने गाढ़े हैं. तुम्हारी बेटी को नरदेव ने छेड़ा तो छुरी अपने दिल पर चल गई भैया. तुम्हारी बेटी हमारी बेटी भी तो है. तुम ने इस बेइज्जती को सहन कैसे कर लिया भैया?’’

‘‘हरिया, हम गरीब आदमी जो हैं. पुलिस का केस बन जाए तो दिनरात दौड़ना पड़ता है. पुलिस भी पैसे वालों और दमदार लोगों की सुनती है. बस, यही सोच कर हम रुक गए.’’

‘‘बाबूराम भैया, तुम पुलिस का चक्कर छोड़ो. गांव में पंचायत बिठवा दो. 5 जूते तो उस को अपनी बेटी से लगवा ही दो.’’

‘‘हरिया, मैं ने इस पर भी बहुत सोचविचार किया, लेकिन पंचायत के पंच कौन बनेंगे…? कौन जाने?’’

‘‘तो क्या भैया हम पर यकीन नहीं है? पंचायत में अपने पंच बनवाने का माद्दा तो हम भी रखते हैं.’’

‘‘तो ठीक है हरिया, तू ही बिसात बिछा. गांव वालों से बात कर. चौधरी से बात कर. वही कुछ कर सकते हैं. गांव में उन की धाक है. समझदार भी हैं और निष्पक्ष भी.’’

हरिया ने अगले दिन से ही स्वाति और नरदेव के खिलाफ गोटी बिछानी शुरू कर दी.

चौधरी राम सिंह के कानों में खबर पहुंची तो वे सीधे स्वाति के पास पहुंचे. उन्होंने स्वाति को चेताते हुए कहा, ‘‘स्वाति, पंचायत बैठ गई, तो बेइज्जती होगी. इस आग पर बिना पानी डाले काम न चलेगा. प्रधान तेजप्रताप न माना, तो पंचायत बैठ कर ही रहेगी.’’

‘‘तो फिर क्या करना होगा…?’’

‘‘प्रधान मेरे हाथ में नहीं है. उस की लगाम कसने की कोई तरकीब सोचो. यह सारी आग पंचायत की हरिया की लगाई हुई है.’’

स्वाति समझ गई कि चौधरी राम सिंह जितना इस मामले में कर सकते थे, उन्होंने कर लिया. प्रधान का शिकार किए बिना काम नहीं चलेगा.

स्वाति ने अपना दिमाग लड़ाया. प्रधान की पत्नी रत्नो से उस की बातचीत तो है, लेकिन दूसरा महल्ला होने के चलते उस का उधर कम ही आनाजाना है. स्वाति की जानकारी में था कि रत्नो देशी घी बड़ा अच्छा तैयार करती है. उसी का बहाना बना कर वह प्रधानजी के घर पहुंच गई.

‘‘स्वाति बेटी, तू किसी के हाथ खबर भिजवा देती तो मैं देशी घी तेरे घर ही पहुंचवा देती.’’

‘‘चाची, तुम्हारे दर्शन करे बहुत दिन हो गए थे. मैं ने सोचा तुम्हारे दर्शन कर लूं. आनेजाने से ही तो जानपहचान बढ़ती है.’’

‘‘हां, सो तो है. तू भी कोई दावत का इतंजाम कर. खुशखबरी सुना तो हम भी तेरे घर आएं.’’

‘‘यह भली कही चाचीजी. आज ही लो. शाम को प्रधानजी की और तुम्हारी दावत पक्की.’’

स्वाति को तो मौका मिलना चाहिए था. उस ने प्रधानजी और रत्नो की दावत का पूरा इंतजाम कर लिया.

स्वाति ने खूब अच्छे पकवान बनाए. प्रधानजी के बराबर में बैठ कर उन की खूब सेवा की. खाने के बाद चाय की प्याली पेश की गई.

स्वाति जानती थी कि खाने के वक्त ज्यादा बातें नहीं हो पातीं, लेकिन चाय का समय तो होता ही इन बातों के लिए है.

स्वाति ने दांव चला, ‘‘रत्नो चाची, ऐसा लगता है कि आप कभी बाहर घूमने नहीं जातीं?’’

‘‘यह बात प्रधानजी से कहा. हम कितना चाहते हैं कि हरिद्वार के दर्शन कर आएं, लेकिन ये कभी ले जाते ही नहीं.’’

अब तक प्रधानजी स्वाति के मोहपाश में फंस चुके थे. उन्होंने भी अपने तरकश से तीर निकाला, ‘‘स्वाति, तुम्हीं बताओ, क्या अकेले घूमना अच्छा लगता है. कोई साथ हो…’’

‘‘हम हैं न प्रधानजी. नरदेव और मैं चलूंगी आप दोनों के साथ. और हमारी कार किस काम आएगी,’’ स्वाति ने प्रधानजी की बात को लपकते हुए और उस का समाधान करते हुए कहा.

2 दिन बाद वे चारों हरिद्वार में घूम रहे थे. रात में फिल्म का शो देखा. होटल में ठहरे. सारा बंदोबस्त स्वाति का था. गंगा में चारों ने एक ही जगह स्नान किया. प्रधानजी न चाह कर भी कनखियों से स्वाति के भीगे कमसिन बदन को देखते रहे.

स्वाति सब समझ रही थी कि प्रधानजी मन हार चुके हैं. स्वाति ने जब देखा कि प्रधानजी उस की बात को अब ‘न’ नहीं करेंगे तो मौका देख कर कहा, ‘‘प्रधानजी, यह हरिया हमारा पुराना दुश्मन है. सारा मामला सुलझ गया तो पंचायत की बात उठा दी. अब आप ही बताओ कि क्या गांव में ऐसे बैर बढ़ाना चाहिए?’’

प्रधानजी तो स्वाति पर लट्टू हो चुके थे. स्वाति का दिल जीतने के लिए उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति, मेरे होते हुए तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. मेरे होते हुए पंचायत नहीं होगी. बाबूराम को मैं समझा दूंगा, हरिया को तुम देखो. वह अडि़यल बैल है. उस से मेरी नहीं बनती है.’’

स्वाति प्रधानजी के मुंह से यही तो सुनना चाहती थी. उस का ‘मिशन प्रधान’ कामयाब हुआ.

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