धर्म के साए में पलते अधर्म

कोई शक नहीं कि भारत हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है. क्षेत्र चाहे विज्ञान, तकनीकी विकास का हो या फैशन और स्टाइल का महंगाई और धोखाधड़ी का हो या फिर हिंसा का और लूटमार का. अपराध क्षेत्र की ओर देखें, तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत हत्याओं के मामले में भी नंबर वन है. वर्ष 2007 में यहां हत्या की कुल 32,719 वारदातें हुईं जो संख्या में दूसरे देशों के मुकाबले सब से ज्यादा हैं.

प्रश्न यह उठता है कि भारत जैसा धर्मपरायण देश, जहां धर्मभीरु लोगों की पूरी फौज है, ऐसी वारदातों में इतना आगे कैसे बढ़ गया? धर्म की नजर से देखें तो हत्या ऐसा महापाप है जो व्यक्ति को पतन और नर्क की खाई में धकेलता है. जाहिर है, रातदिन धर्म के पोथे खोल कर बैठे धर्मपुरोहितों के उपदेशों का असर ज्यादातर पर होता ही नहीं.

बहुत से लोग पाक्षिक पत्रिका सरिता पर जनता को धर्म के खिलाफ बरगलाने का आरोप लगाते हैं. आक्षेप ये भी लगते हैं कि सालों से धर्म के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद यह पत्रिका लोगों की धार्मिक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी. यदि इस बात को एक पल के लिए सच मान भी लिया जाए तो क्या इस सच से इनकार किया जा सकता है कि सदियों से धर्म की बुनियाद पक्की करते ये तथाकथित धर्मगुरु आज तक अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए. आखिर क्यों हत्या, बलात्कार, चोरी, धोखाधड़ी की खबरों से अखबारों के पृष्ठ रंगे नजर आते हैं?

विसंगतियों की धुंध

विवाह को धार्मिक अनुष्ठान मानने और इस रिश्ते को जन्मजन्मांतर का संबंध बताने वाला धर्म तब कहां रहता है जब पतिपत्नी एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? आग की जिन लपटों के चारों तरफ फेरे दिला कर पुरोहित नवदंपती को एकदूसरे का साथ देने के 7 वचन दिलाते हैं, क्यों दहेज के नाम पर उन्हीं लपटों में लड़की को जला कर मार दिया जाता है.

छोटीछोटी बातों पर धार्मिक स्थलों और पंडेपुजारियों का चक्कर लगाने वाले लोग अपनों को, बड़ेबड़े धोखे देने से बाज नहीं आते.

धर्म का हाल तो यह है कि लोग किसी काम में सफल होने की मनौती मांगते हैं. बाद में चढ़ावा चढ़ा कर अपनी मनौती पूरी करते हैं. क्या यह एक तरह से ईश्वर को घूस देने की कवायद नहीं?

वैसे तो हर धर्म व्यक्ति को सदाचार, ईमानदारी और अहिंसा के मार्ग पर चलने का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों रिश्तों का खून करते वक्त और मानवता की धज्जियां उड़ाते वक्त लोग अपने धर्मग्रंथों का ध्यान नहीं करते?

लड़कियों के पहनावे को ले कर धर्मगुरुओं द्वारा फतवे जारी किए जाते हैं, धर्म और नीति की दुहाइयां दी जाती हैं, सदन में हंगामा खड़ा हो जाता है, उसी लड़की की जब इज्जत लुटती है, उसे निर्वस्त्र किया जाता है, तो धर्म उस की सुरक्षा के लिए आगे क्यों नहीं आता?

जिस महिला को धार्मिक कर्मकांडों के दौरान बराबरी के आसन पर बैठाया जाता है, जिस के बगैर कोई धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता, उसे ही घर में कभी समान दर्जा नहीं मिलता. आएदिन वह घरेलू हिंसा का शिकार बनती है, क्यों?

पूर्वजों के लिए दान, तप, पूजा कराने वाला व्यक्ति जीतेजी अपने वृद्ध मांबाप की सेवा नहीं करता.

मंदिरों में जा कर चढ़ावा चढ़ाते लोग दूसरे के हक की रोटी छीनते समय शर्म महसूस नहीं करते.

दावा किया जाता है कि हर धर्म अहिंसा का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों धर्म के नाम पर हिंसाएं होती हैं? एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के खून के प्यासे बन जाते हैं. सैकड़ों, हजारों जानें जाती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं. ज्यादातर दंगों के पीछे धर्म के धंधेबाजों का ही हाथ होता है.

मोटेतौर पर माना जाता है कि धर्म इसलिए है ताकि इनसान ईश्वर या कर्मफलों के भय से गलत काम न करे. पर विडंबना यह कि धर्मग्रंथों में ऐसे विधान और कथाएं भरी पड़ी हैं जिन के मुताबिक आप चाहे जितना भी पाप कर चुके हों, परमात्मा के नाम का जाप कर लें, ईश्वर की प्रार्थना कर लें, सारे पाप धुल जाएंगे. पर हकीकत में जो जैसा करता है उस को उस का फल मिलता है.

देखा जाए तो धर्म की उत्पत्ति का आधार भय है. व्यक्ति जब खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करता है, तो धर्म की तरफ मुखातिब होता है. भले ही घर के बड़ेबुजुर्ग या धर्म पुरोहित यह कह कर व्यक्ति को धार्मिक कर्मकांडों के लपेटे में लेते हैं कि इस से उन्हें शक्ति मिलेगी. वे मजबूत बनेंगे, मगर सच तो यह है कि इस से सिर्फ परावलंबन की मनोवृत्ति मजबूत होती है. धर्म के तथाकथित ठेकेदार इनसान की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं. वे एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते हैं जो उन्हें भरपूर समर्थन दे ताकि उन का खर्चापानी चलता रहे.

धर्म व्यक्ति को डरपोक तो बना सकता है मगर उस की प्रवृत्ति को बदल नहीं सकता. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जिंदगी में जितना हासिल हो सके उतना हासिल कर लो. इस के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. कुछ धर्मस्थलों में जा कर हाथ बांधे ईश्वर से अपनी इच्छा मनवाने का प्रयास करते हैं तो कुछ हाथों में हथियार थाम कर मनचाही चीज दूसरों से छीन लेते हैं. आवेश के क्षणों में उन्हें न तो धर्म का पाठ याद रहता है न धर्मगुरु. वैसे भी लोगों ने धर्म के सिर्फ बाहरी स्वरूप को स्वीकारा है जिस के अंतर्गत कर्मकांड, पूजा और तरहतरह के ढकोसले आते हैं. ज्यादातर व्यक्ति धर्म की गहराई में उतर ही नहीं पाते.

जानें अपने प्यार का सच

चलिए मान लेते हैं कि आप को पहली नजर का पहला प्यार हो गया है. दिनरात रोमांस और करवटें बदलने में गुजर रहे हैं. उन्हें हर दिन देखने के लिए इंतजार करना मुश्किल हो रहा है. आप के दिल और दिमाग में घर कर चुके उस प्यार को अब जीवनसाथी बना ही लिया जाए, ऐसा सोच रहे हैं.

लेकिन जरा आप अपने दिमाग के रोमांटिक घोड़े को लगाम दीजिए और यह तो चैक कर लीजिए कि जिसे आप प्यार करती या करते हैं, वह भी आप को प्यार करता है या फिर आप उस के लिए महज खेलने का सामान ही हैं.

मतलब, जब उसे सैक्स करना हो तभी आप की याद आती हो, ऐसा तो नहीं है? यह हो भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि प्यार और वासना में फर्क करना आसान नहीं होता, इसलिए आप का प्यार भी कहीं प्यार और वासना के बीच उलझन में तो नहीं है? यह जानने के आसान तरीके हैं:

अंखियों में न झांके सैयां

पहली नजर का प्यार आंखों से ही शुरू होता है और वासना के पुजारी की पकड़ भी आंखों से ही होती है. अगर आप को लगता है कि आप का प्यारा सा प्यार आप की आंखों में झांकने में फेल हो जाता है तो समझ जाइए कि उसे आप से नहीं, बल्कि आप के शरीर से प्यार है.

दरअसल, रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट भी यह मानते हैं कि हमारी आंखें किसी की नीयत समझने के लिए खिड़की जैसी होती हैं. जब कोई आप को प्यार करता है, तो वह आप की आंखों में बेझिझक देखेगा और अपने दिल की बातें जाहिर कर देगा, लेकिन अगर आंखों में देखने के बजाय उस की नजर आप के शरीर

के दूसरे हिस्सों जैसे उभार, कूल्हे, जांघ वगैरह पर टिकी हैं तो आप उस के लिए प्यार नहीं, बल्कि सैक्स की भूख मिटाने का आसान रास्ता हैं.

सैक्स खिलौना हैं आप

अंजलि और दीपक में बेइंतिहा मुहब्बत थी. कम से कम अंजलि तो ऐसा ही सोचती थी. यह पहली नजर का प्यार नहीं था, बल्कि दोस्ती ने इश्क की राह पकड़ी थी.

पर धीरेधीरे अंजलि को लगने लगा कि दीपक उसे नहीं, बल्कि उस के बदन को चाहता है. वह जब भी दीपक से मिलती है, वह उस के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने को बेताब रहता है.

जबकि ऐसा माना जाता है कि दोस्ती पर आधारित हर रिलेशनशिप की बहुत मजबूत बुनियाद होती है. जब आप किसी से प्यार करते हैं, तो आप उस के दोस्त जरूर होते हैं. दोस्तों की तरह अपने लव पार्टनर के साथ घूमनाफिरना पसंद करते हैं. उस के साथ हंसीमजाक करते हैं. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के लिए हमेशा खड़े होते हैं.

अगर आप की रिलेशनशिप में से दोस्ती के पहलू को हटा दें तो फिर आप का संबंध उस के साथ सैक्स के खिलौने सरीखा हो जाता?है, जिस में हावी रहने वाला पार्टनर दूसरे साथी को सैक्स की भूख मिटाने का खिलौना ही समझता है.

एक दिन अंजलि ने जब दीपक से पूछा तो दीपक ने चौंकाने वाला जवाब दिया. ‘‘यार, जब तुम सामने होती हो तो मुझे सैक्स के अलावा कुछ भी नहीं सूझता है. मुझे लगता है कि मैं तुम्हें पूरी तरह से पा लूं. मेरा प्यार तुम्हारे शरीर से आगे बढ़ ही नहीं पाता है.’’

जब रिलेशनशिप में ऐसा दौर आता है तो एक पार्टनर मालिक और दूसरा पार्टनर नौकर की तरह हो जाता है. वहां उन की रिलेशनशिप गड़बड़ा जाती है.

अगर आप का पार्टनर आप से दोस्त की तरह पेश नहीं आता है और प्यार के नाम पर आप से सैक्स करता?है, तो समझ जाइए कि आप का रिश्ता वासना की बुनियाद पर टिका है.

सैक्स का 2.0 तो नहीं

जब 2 लोग प्यार करते हैं, तब सैक्स सिर्फ एक जिस्मानी काम होता है. असली रिश्ता उस के बाद शुरू होता है और आप को इस का एहसास उस के छूने के तरीके, बांहों में भरने और चूमने के अंदाज से हो जाता है. रिश्ते में बस सैक्स ही हो तो यह एक रोबोटिक रिलेशन बन कर रह जाता है जहां हम मशीनी कमांड की तरह सिर्फ सैक्स को ही तरजीह देते हैं, इसलिए आप का प्यार अगर मशीनी होता जा रहा है, तो यह चिंता की बात है.

साथ ही, आप का साथी आप की राय की इज्जत करता है या नहीं? वह आप को भी सैक्सुअल सुख देने में दिलचस्पी रखता है या सिर्फ अपनी ही भूख मिटाता है? क्या वह सैक्स के पलों में ही जोश में या आप के साथ हंस कर पेश आता है? इस तरह की बातें भी तय करती हैं कि वह आप से प्यार करता है या उस के मन में वासना है.

सैक्स ऐक्सपर्ट मानते हैं कि सैक्स करने के बाद अगर आप का पार्टनर आप की जिंदगी से जुड़े असली मुद्दों पर ध्यान नहीं देता है और क्षणिक संतुष्टि पर फोकस रखता है, तो ऐसे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं होता.

तू किसी और से तो मिल

जो इनसान सिर्फ आप के शरीर से प्यार करता है और इस रिश्ते को ले कर गंभीर नहीं है, वह अकसर आप को अकेले में ही मिलने के लिए जोर देगा यानी जब सैक्स की चाह होगी तो मिलेगा, लेकिन आप को अपने दोस्तों और परिवार से मिलाने से परहेज करेगा. हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर अपने और आप के घर वालों से मिलने से बचेगा. सबकुछ राज भरा रहेगा. रिश्ते को निजी रखने की कोशिश का दिखावा कर आप को सब से अलग रखेगा और सैक्स का मजा लेगा इसलिए अगर आप का साथी आप के सामने अपने परिवार और दोस्तों की बात नहीं करता है तो यह प्यार नहीं है, बल्कि वासना है. दरअसल, उस की भावनाएं वासना की ओर हैं.

वह सिर्फ आप के शरीर से प्यार करता है और भावनात्मक जुड़ाव महसूस नहीं करता है.

उम्मीद है, आप इशारा समझ रहे होंगे और अगर ये ट्रिक्स आप ने पढ़ ली हैं तो काफी हद तक अंदाजा भी लगा लिया होगा कि आप का पार्टनर प्रेमी है या वासना का पुजारी.

अक्षय तृतीया से जुड़े भ्रामक तथ्य

ढकेल देते हैं. आगे का आदमी इसी पानी को मुंह में भर कर कुल्ला करता है तथा खांसखंखार कर अपना कफ दूसरे के लिए आगे बढ़ाता है. इस तरह देखें तो गंगा संक्रामक रोगों के संवाहक का काम करती है. तिस पर तुर्रा यह है कि गंगा में नहाने से मुक्ति मिलती है. इसीलिए मेरा मानना है कि मुक्ति तो दूर, रोगों की संवाहक गंगा, चैन से जीने भी नहीं देगी.

अक्षय तृतीया के दिन दानपुण्य की बात कही गई है. लोग गंगा स्नान के बाद पंडेपुजारियों को सत्तू, दही, पंखा, शर्करा, जूता, छाता आदि का दान करते हैं. ये सब वस्तुएं हमें लू और गरमी से बचाती हैं. धर्मभीरु जनता भले ही लू से मर जाए पर पंडेपुजारियों को पेट काट कर, दान अवश्य दे. दान लेने वाला पंडा/पुजारी कभी नहीं पूछता, ‘यजमान, क्या तुम्हारे पास ये चीजें हैं?’ भला, वह क्यों पूछेगा? यजमान मरे या जीए. सत्तू वह खाएगा. दही वह पीएगा. जूता वह पहनेगा ताकि गरम जमीन पर पैर न जलें. छाता वह लगाएगा, जिस से धूप से बच सके. पंखा वह डुलाएगा ताकि गरमी न लगे.

पंडेपुजारियों ने दानपुण्य की सामग्री भी मौसम के हिसाब से निर्धारित की हुई है.

उन का कहना है, शास्त्रों में लिखा है कि अक्षय तृतीया को संग्रह किया धन अक्षय होता है. तो क्या शेष दिन का कमाया धन क्षय हो जाता है? तमाम मुसलिम लुटेरे व अंगरेज हमारे देश से सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात लूट कर अपने देश ले गए, क्या वे अक्षय तृतीया को नहीं खरीदे या संगृहीत किए गए थे? क्या पंडेपुजारियों ने तब के राजा- महाराजाओं को इस गूढ़ तथ्य से अवगत नहीं कराया था?

ज्योतिषी, जो सुनारों से मिले रहते हैं, तमाम बकवास पत्थरों को अंगूठी में जड़ कर पहनने की सलाह देते हैं. मूर्ख जनता को भले ही इस से कुछ फायदा हो या न हो पर ज्योतिषी व सुनारों की खूब कमाई होती है. एक ज्योतिषी तो बाकायदा दुकान बंद होने के समय आ धमकता है, फिर दिन भर की कमाई बतौर दलाली ले कर जाता है. अब यही ज्योतिषी, पंडेपुजारी व सुनार अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदने के लिए खूब प्रचार कर रहे हैं.

कुछ साल पहले तक अक्षय तृतीया कहीं भी अस्तित्व में नहीं थी, विशेषतौर से सोना खरीदने के संदर्भ में. पर आज खूब शोर मचाया जा रहा है कि इस दिन सोना खरीदने से समृद्धि आती है. टेलीविजन चैनलों पर बड़ेबड़े सुनार अक्षय तृतीया का बखान करते हुए लोगों को सोना खरीदने के लिए उकसाते हैं. ज्योतिषी व पंडेपुजारी भी अखबारों व टेलीविजन चैनलों की मदद से इस पर्व की महिमा का खूब बखान करते हुए जनता को बरगलाते हैं. कोई उन से पूछे, सोना खरीदने से समृद्धि आती है तो क्या रिकशा वाला रिकशा बेच कर सोना खरीदे? या ठेले वाला ठेला बेच कर. रिकशा, ठेला बेच कर क्या वह सोना खाएगा? सोना उसे कौन सा रोजगार मुहैया करवाएगा? धीरूभाई अंबानी ने अपने शुरुआती दिनों में क्या सोना खरीदा था?

अक्षय तृतीया को ‘युगादि तृतीया’ की भी संज्ञा दी गई है, क्योंकि सतयुग का आरंभ इसी दिन हुआ था. सतयुग का क्यों क्षय हो गया? जब एक युग ही खत्म हो गया तो सोना क्या, समृद्धि क्या?

धनतेरस तो थी ही, अब अक्षय तृतीया भी आ गई. धनतेरस को बर्तन खरीदने की होड़ रहती है, तो अक्षय तृतीया को सोना. धनतेरस को बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. जब लोग मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे तब भी? अक्षय तृतीया के दिन सोना अन्य के मुकाबले, ज्यादा मांग होने के चलते अधिक महंगा होता है. मूर्ख जनता धार्मिक अंधविश्वास के चलते सुनारों के यहां जमी रहती है. सुनार अंधविश्वास का फायदा उठा कर मालामाल होता है और कमीशन, पंडेपुजारियों को पहुंचाता है. इन सभी पर्वों के पीछे ‘धार्मिक रैकेट’ काम करता है जो नईनई कहानी गढ़ कर जनता के बीच अंधविश्वास फैलाता है.

कुल मिला कर अक्षय तृतीया कमाने, खाने व लूटने के नाम का नया धंधा है. ज्ञातव्य रहे, कभी ‘जय संतोषी मां’ का भी यही हाल था. फिल्म आने से पहले शायद ही कोई संतोषी मां को जानता था. जैसे ही इस नाम की देवी का प्रोडक्ट मार्केट में लांच हुआ, मूर्ख जनता ने उसे हाथोंहाथ लिया. फिर तो संतोषी के अनेक मंदिर, गली व चौराहों पर बन गए. महिलाएं शुक्रवार का व्रत करने लगीं. धार्मिकनगरी बनारस के एक सिनेमा हाल, जहां यह फिल्म हाउसफुल चल रही थी, वहीं मूर्ख व्रती महिलाएं उद्यापन व परिक्रमा करने लगीं. सिनेमा हाल, जय संतोषी मां का मंदिर बन गया.

जिस देश को कभी हूणों, पुर्तगालियों, मुगलों व अंगरेजों ने तबीयत से रौंदा, वहां कैसा अक्षय? मुझे तो लगता है वह दिन दूर नहीं जब सी.ए., डाक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी आदि बनाने के लिए पंडेपुजारियों, ज्योतिषियों व डाक्टरों की मिलीभगत से साल के कुछ दिन निश्चित कर दिए जाएंगे और प्रचारित किया जाएगा कि फलां दिन बच्चा पैदा करने पर वह ‘डाक्टर’ तथा फलां दिन पैदा करने पर वह ‘इंजीनियर’ बनेगा. दंपतियों पर निर्भर होगा कि वे अपने बच्चे को क्या बनाना चाहते हैं. और तब डाक्टरों को मनमानी फीस दे कर उसी दिन, उसी वक्त, भले ही आपरेशन से सही, बच्चा पैदा करने की होड़ मच जाएगी. इस तरह जो बच्चा पैदा होगा, बड़ा हो कर चोर ही क्यों न बने, धर्मभीरु  दंपती हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे, क्योंकि उन के हिसाब से जिस वक्त वह पैदा हुआ था, उस के इंजीनियर बनने का योग था.

समाधि की दुकानदारी कितना कमजोर धर्म

साधुसंतों का रहनसहन और खानपान तो आम लोगों से भिन्न रहता ही है मगर वे मरने के बाद भी विशिष्ट दिखना चाहते हैं. इस के पीछे उन की व उन के संप्रदायों की मंशा महज धर्म के नाम पर चल रही दुकानदारी को और चमकाना होती है. धर्म के धंधे की बुनियाद ही यह है कि धर्म के रखवाले कहे जाने वाले साधुसंत ही हकीकत में धर्म के नाम पर लोगोें का तरहतरह से शोषण करते हैं, व्यवस्थित और संगठित समाज से अलगथलग दिखना चाहते हैं.

महज लंगोट और गेरुए वस्त्र पहन सांसारिकता त्यागने का ढिंढोरा पीटने वाले साधुसंत शरीर पर भभूत और माथे पर बड़ा सा तिलक जरूर लगाते हैं. ये लोग हाथ में भाला, डंडा या त्रिशूल भी रखते हैं. यह ‘त्याग’ भक्तों में श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है. यह दीगर बात है कि हकीकत में यह हुलिया मुफ्त कमानेखाने यानी चढ़ावा और दक्षिणा हथियाने के लिए रखा जाता है.

अपनी सहूलियत के लिए साधुसंत रिहायशी इलाकों से कुछ दूर मंदिरों में रहते हैं. हाथ में पकड़ा डंडा या त्रिशूल दरअसल, दुष्टों के संहार के लिए नहीं बल्कि कुत्ते, बिल्लियों और दूसरे जंगली जानवरों से बचाव के लिए रखा जाता है. इस से सहज ही समझा जा सकता है कि भगवान के ये तथाकथित दूत और धर्मरक्षक असल में कितने चमत्कारी होते होंगे.

बीते 2 दशकों से साधुसंतों में विचित्र तरह की एकजुटता देखने में आ रही है कि ये लोग भी साथसाथ रहने लगे हैं. ऐसा पहले की तरह शैव, वैष्णव या किसी दूसरे संप्रदाय की विचारधारा के अनुयायी होने न होने के कारण नहीं हो रहा बल्कि मुफ्त की रोटी तोड़ने तथा एक और एक ग्यारह बनने का सिद्धांत इस के पीछे काम कर रहा है. इन्हें मुफ्त की जमीन की चाहत रहती है जिस से मेहनत न करनी पड़े. साधुसंत भी समझने लगे हैं कि बुढ़ापे में अशक्तता के चलते भीख भी नहीं मिलनी है, इसलिए भलाई इसी में है कि बुरे वक्त के लिए पैसा व जमीनजायदाद इकट्ठी की जाए. इन की इस कमाई व गहनों को लूटने में चोर, लुटेरे और डाकू भी कोई रहम, लिहाज या रियायत नहीं करते.

मामूली जानवरों और चोरलुटेरों से जो धर्म अपने ही दूतों का बचाव करने में नाकाम हो उस की पोल तो अपनेआप ही खुल जाती है. और जब बड़े पैमाने पर यह पोल खुलती है तब मुद्दे की बात से आम लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ये साधु खासा हंगामा व फसाद खड़ा कर देते हैं. ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भोपाल में हुआ.

फसाद भोपाल का

भोपाल की उपनगरी भेल, जोकि देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों में से एक है, के भूतनाथ मंदिर में एक नागा संन्यासी विष्णु गिरि की मौत हुई तो साधुसंत उसी जगह उस की समाधि बनाने की जिद पर अड़ गए जहां पर संन्यासी मरा था.

समाधि बनाने में आड़े आया भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड का प्रबंधन जो अपनी बेशकीमती जमीन पर समाधि जैसा अनुपयोगी स्थल नहीं बनने देना चाहता था. जाहिर है इस से उत्पादन व कारखाने के कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता और जमीन भी बेकार हो जाती. वैसे भी यह भेल का हक था कि वह अपनी जमीन के बाबत खुद फैसला करे.

इस इलाके में कोई 3 लाख लोग रहते हैं जो विष्णु गिरि के भक्त भले ही न हों मगर यह जरूर जानते हैं कि यह संन्यासी भूतनाथ मंदिर में कोई 70 साल से रह रहा था. कुछ लोग मानते हैं कि यहां ऊपरी बाधाओं का इलाज होता है यानी नियमित चढ़ावे के अलावा भी भूतप्रेत, पिशाच जैसी काल्पनिक चीजें आमदनी का बड़ा जरिया थीं.

यह आमदनी बनी रहे, इस मंशा से विष्णु गिरि की मौत के बाद उस के चेलेचपाटे व शहर के दूसरे साधुसंतों ने गड्ढा खोद कर समाधि बनाने की तैयारी शुरू कर दी. भेल प्रबंधन को भनक लगी तो उस ने मनमानी पर उतारू इन साधुसंतों को रोकने की खातिर अपना अमला भेजा और जिला प्रशासन से भी सहयोग मांगा जो वक्त रहते मिला भी.

मगर साधु नहीं माने. अपने मंसूबों के लिए उन के पास कोई ठोस दलील भी नहीं थी सिवा इस के कि संन्यासी की समाधि मौत की जगह पर ही बनाना धार्मिक परंपरा है और इस में सरकार, प्रशासन, कानून और भेल को अड़ंगा नहीं डालना चाहिए. न मानने पर पुलिस ने हलका बल प्रयोग किया तो साधुसंत तिलमिला उठे. इसी बीच धक्कामुक्की में विष्णु गिरि की लाश नीचे गिर गई. इस के बाद भी साधु लोग लाश को घसीट कर समाधि तक ले जाने में किसी तरह कामयाब हो गए. मगर भेल प्रबंधन की पहल और जागरूकता के चलते उसे दफना नहीं पाए.

दफना लेते तो धर्म की एक और दुकान बन कर तैयार हो जाती, जिस पर चढ़ावा चढ़ता, रोज सैकड़ों श्रद्धालु आते, मनौतियां मांगते और इन साधुसंतों को विष्णु गिरि के नाम पर मुफ्त का पैसा मिलता.

बवाल के बाद बातचीत शुरू हुई तो संत समुदाय ढीला पड़ गया. उस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि भेल प्रशासन अपनी जमीन पर समाधि क्यों बनाने दे. भेल प्रबंधन की समझदारी इस मामले में वाकई तारीफ के काबिल कही जाएगी कि वह संतों की जिद के आगे नहीं झुका. भेल के महाप्रबंधक ने स्पष्ट कहा कि किसी भी कीमत पर समाधि बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हालांकि दुकान चलाने के लिए संत समुदाय यह बात लिखित में देने को भी तैयार था कि समाधि के ऊपर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा.

कितना कमजोर धर्म

यह विवाद धर्म की कई कमजोरियों को उजागर कर गया. मसलन, धर्म मोहताज है लिखापढ़ी का, पुलिस का और कानून का और उस की जड़ में पैसा कमाने का लालच भर है. भक्तों की तमाम समस्याएं धार्मिक चमत्कार से सुलझाने और दूर करने का दावा करने वाले संत जब खुद एक समाधि बनाने के लिए कानून के मोहताज हों तो उन के चमत्कार के दावों पर कोई क्या खा कर भरोसा करे.

अगर वाकई धर्म में चमत्कार होता तो क्यों विष्णु गिरि की मौत के साथ ही समाधि खुदबखुद नहीं बन गई? लाठीचार्ज कर रहे पुलिस वालों की लाठी गायब क्यों नहीं हो गई? भेल प्रबंधन की बुद्धि क्यों किसी भगवान ने नहीं हर ली? समाधि बनाने के लिए उपद्रव कर रहे साधु सीधे भगवान की अदालत में क्यों नहीं चले गए?

आम नागरिकों की अदालत की शरण व संतों की कानूनी मोहताजी बताती है कि इन में कोई खास बात नहीं होती न ही कोई दैवीय शक्ति या चमत्कार होता है.

सिर्फ मुफ्त की कमाई के लिए ये आम लोगों की तरह जीना तो दूर मरना भी पसंद नहीं करते. अगर विष्णु गिरि को जला दिया जाता तो उन का शरीर राख हो जाता फिर कोई चमत्कारों के दावों पर यकीन नहीं करता. मंशा इस प्रकार की थी कि संन्यासी का मृत शरीर जमीन के अंदर रह कर भी भक्तों का भला काल्पनिक चमत्कारों के जरिए करता रहता है क्योंकि संत मरता नहीं है देह त्यागता है.

यह अगर सच है तो फिर उस की लाश घसीटने की नौबत क्यों आई, क्यों नहीं वह खुद चल कर समाधि स्थल तक पहुंच गई? इन हकीकतों के बाद भी साधु समुदाय ने लोगों को बरगलाने के लिए हिंदू धर्म की मान्यताओं का खुला मखौल उड़ाते श्मशानघाट में यज्ञ व हवन किया तो धर्म की और इन की हकीकत जरूर खुदबखुद उजागर हो गई कि कैसे धर्म के नाम पर पैसा कमाने के लालच में नियम बनाए व तोड़े जाते हैं. यह दोहरापन अपनेआप में जरूर एक चमत्कार है.

पूरे बवाल में हैरत की बात है कि कोई कानूनी लिखापढ़ी नहीं हुई. भेल प्रबंधन के एक अधिकारी की मानें तो उन्होंने जिला प्रशासन को मौखिक सूचना ही दी थी. कथित लाठीचार्ज के वक्त भेल का कोई अधिकारी घटनास्थल पर मौजूद नहीं था.

आम लोग तो दूर की बात है, कई धार्मिक लोग भी साधुओं की इस हरकत से नाराज दिखे. एक देवीभक्त रामजीवन दुबे की मानें तो ‘‘यह धर्म की दुकानदारी  चमकाने का तरीका भर था. मरने के बाद भी साधु खास क्यों माना जाए. ये लोग मरने के बाद आम लोगों की तरह जलने से क्यों डरते हैं. इस तरह के बेवजह के फसाद आम लोगों में धर्म की छवि बिगाड़ते हैं.’’

इस के उलट एक दूसरे संत पवन गिरि ने खुलेआम पुलिस वालों और भेल प्रबंधन को अनिष्ट का शाप तक दे डाला जिस का कोई असर नहीं हुआ. यह बात शायद ही कोई बता पाए कि क्यों सुभाष नगर विश्राम घाट में कचरा फेंकने की जगह मृत साधु की समाधि बनाई गई.

हकीकत में विष्णु गिरि का असली अपमान पुलिस या भेल प्रबंधन ने नहीं, खुद संतों ने उन के मरने के बाद किया है.

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा कितनी हास्यास्पद

हिंदू देवियां पुस्तक प्रकाशकों के लिए विज्ञापन व प्रचार का काम भी करती हैं. एक उदाहरण छपा है साहित्य संगम, सूरत से प्रकाशित वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक के पृष्ठ 19 पर. माजरा समझ में आ जाएगा. इस में शीला नाम की एक महिला को साक्षात लक्ष्मी मां ने कहा कि व्रत का उद्यापन होने पर उसे 7 कुंआरी कन्याओं को तिलक लगा कर साहित्य संगम प्रकाशन की ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ कथा की एकएक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए. प्रकाशक महोदय से पूछा जा सकता है कि इस तरह का प्रचार लक्ष्मी मां से कराने के लिए खुद उन्होंने कितने व्रत रखे थे?

आप को शायद अब मेरे कहने का मंतव्य समझ में आ रहा होगा, व्रतउपवासों के मकड़जाल में फंसे हुए लोग इस बात की जहमत नहीं उठाते हैं कि जो व्रत वे रख रहे हैं उस की पुस्तिका को ढंग से पढ़ कर उस का मनन कर सकें. वैभव लक्ष्मी व्रत कथा शुरू से अंत तक सिर्फ भोलेभाले लोगों को दिग्भ्रमित करने के अलावा कुछ नहीं करती है.

शुक्रवार व्रत कथा : सच्चाई से दूर केवल कथा मात्र

अपनेआप में वैभव लक्ष्मी व्रत कथा केवल एक कथा भर है जिस में सचाई का तनिक भी अंश नहीं है. यह बात एक औसत स्तर का पाठक भी इस व्रत कथा की पुस्तिका को पढ़ कर समझ सकता है. कहानी की पात्र शीला नाम की एक महिला है, जो अपने पति की गलत आदतों के कारण आर्थिक परेशानियों से घिरी हुई है. शीला बहुत धार्मिक महिला है और हर रोज मंदिर जा कर पूजाआरती करती है. एक दिन उस के घर एक महिला आती है जो शीला के दुख का कारण पूछती है.

कथा के अनुसार यह महिला बदले हुए वेश में साक्षात लक्ष्मी माता होती है. शीला रोतेरोते अपनी कहानी बताती है. शीला की कहानी सुन कर वह महिला यानी लक्ष्मी माता उसे उस का दुख दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्रवार व्रत रखने की विधि समझाती है. कथा अनुसार जैसे ही शीला 21 शुक्रवार का व्रत पूरा करती है, उस के  घर में धनधान्य की बहार आ जाती है. उस का पति सही रास्ते पर आ जाता है और उस का जीवन फिर से खुशियों से भर जाता है.

इस कथा को पढ़ कर कई सवाल उत्पन्न होते हैं जैसे कि क्या कोई देवी स्वयं आ कर अपने भक्त से यह कह सकती है कि तुम मेरी पूजा करो? यदि लक्ष्मी माता शीला से प्रसन्न हो कर उस के घर पर स्वयं आई थी तो फिर शीला को व्रत रखने की क्या आवश्यकता थी? क्या लक्ष्मी माता अपनी सेवा करवाए बिना अपने भक्तों के दुखों को दूर नहीं कर सकती? और सब से महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह कि शीला के मात्र 21 शुक्रवार तक व्रत रखने से उस के सारे बिगड़े काम बन गए, जबकि इस देश में ऐसी करोड़ों शीलाएं हैं जो सैकड़ों शुक्रवारों का व्रत रख चुकी हैं लेकिन उन का कोई काम नहीं बना, ऐसा क्यों?

शीला कौन है

इस पुस्तिका के शुरू में लक्ष्मी के 6 विभिन्न स्वरूप दिए गए हैं जिस में हर स्वरूप के नीचे लिखा गया है कि ‘हे लक्ष्मी मां, आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुईं वैसे ही सब पर प्रसन्न हों और सब की मनोकामना पूरी करें.’

यहां प्रश्न यह उठता है कि जिस शीला को इस पुस्तिका में इतना महिमामंडित किया गया है वह कौन है? यदि वह माता लक्ष्मी की इतनी अनन्य भक्त है तो उस का उल्लेख इस पुस्तिका के अलावा किसी भी अन्य पुस्तक या धर्मग्रंथ में क्यों नहीं मिलता जबकि हिंदू शास्त्रों और पुराणों में भगवान के अलावा उन के अनन्य भक्तों जैसे कि राम भक्त हनुमान, कृष्ण भक्त सुदामा, विष्णु भक्त प्रह्लाद आदि का विशद वर्णन मिलता है तो फिर लक्ष्मी भक्त शीला की प्रविष्टि इस पुस्तिका के अलावा कहीं और क्यों नहीं हो पाती?

वास्तविकता यह है कि शीला का प्रमाण किसी पौराणिक ग्रंथ में मिल ही नहीं सकता क्योंकि यह पात्र आधुनिक युग के पंडितों की उपज है. जैसा कि इस कथा के पृष्ठ संख्या 14 पर शीला के पति के वर्णन से पता चलता है कि उसे शराब, जुआ, रेस, चरस, गांजा आदि की लत लग गई थी, ये सभी बुराइयां आधुनिक युग की ही देन हैं अत: यह निश्चित है कि शीला का कोई पौराणिक महत्त्व नहीं है.

विरोधाभासों का दस्तावेज

शुक्रवार व्रत कथा प्रारंभ से अंत तक विरोधाभासों का एक दस्तावेज भर है. पुस्तिका में पृष्ठ संख्या 19 पर लक्ष्मी माता शीला से कहती हैं कि हर इनसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं. अर्थात देवी माता खुद कर्म की प्रधानता का संदेश दे रही हैं जबकि अगले ही पृष्ठ पर वे कहती हैं कि माता लक्ष्मी का व्रत रखने से तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी. यह कैसी कर्मप्रधानता है जिस में कर्म का अर्थ केवल व्रत रखना है? पृष्ठ संख्या 17 पर व्रत रखने की विधि में बताया गया है कि सोने के गहनों की विधिविधान से पूजा करनी चाहिए. यहां यह बात समझ में नहीं आती है कि यदि व्यक्ति के पास सोना ही होगा तो उसे व्रत रखने की आवश्यकता ही क्या है? क्या लक्ष्मी माता सोनेचांदी की चमक के बिना प्रसन्न नहीं होतीं? क्या लक्ष्मी माता के पास खुद सोने की कमी है, जो उन्हें अपनी पूजन की थाली में सोने का गहना देखने का लालच है?

लाटरी और जुए का समर्थन

पुस्तिका के अंत में कुछ ऐसे कपोल कल्पित उदाहरण दिए गए हैं जो आप को लाफ्टर चैलेंज जैसी हंसी का एहसास करा सकते हैं. पहला ही उदाहरण नवसारी की किसी महिला (बिना नामपते वाली) का दिया गया है जिस में शुक्रवार व्रत रखने से उस की 50 हजार रुपए की लाटरी लग गई. क्या इस उदाहरण से आप को ऐसा नहीं लगता कि मानो साक्षात लक्ष्मी माता कह रही हों कि भविष्य में यदि लाटरी या जुआ खेलना हो तो उस से पहले मेरा व्रत रखना, तुम्हें अवश्य लाभ होगा.

क्या इस तरह के उदाहरण लोगों को जुए और लाटरी की लत के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं? इस के अलावा और भी 6 उदाहरण इस पुस्तिका में दिए गए हैं जिन में बताया गया है कि शुक्रवार का व्रत रखने से किसी व्यक्ति के खोए हुए हीरे वापस मिल गए तो किसी की बेटी की शादी हो गई. परंतु एक बात सभी में समान है कि इन उदाहरणों में जितने भी भक्तों का जिक्र किया गया है उन में से किसी का भी पता नहीं दिया गया है.

विदेशी सप्ताह, भारतीय व्रत

मैं अकसर व्रत रखने वाली महिलाओं से यह प्रश्न करता हूं कि सोमवार से ले कर रविवार तक जो महिलाएं व्रत रखती हैं (धन्य हैं वे पंडित जिन्होंने हफ्ते का एक दिन भी खाली नहीं छोड़ा) उन का पौराणिक महत्त्व क्या है और ये व्रत कब से प्रचलन में हैं. सभी महिलाएं बिना सोचेसमझे कहती हैं कि ये व्रत भारतीय परंपरा में हजारों वर्षों से हैं.

यह बात समझ के परे है क्योंकि साप्ताहिक दिनों पर आधारित कैलेंडर, रोमन कैलेंडर है, भारतीय कैलेंडर चंद्रमा पर आधारित कैलेंडर है, जो तिथियों पर आधारित है और यही कारण है कि कोई भी भारतीय त्योहार दिन के हिसाब से नहीं आता, तिथियों के हिसाब से आता है.

भारत में अंगरेजी कैलेंडर की शुरुआत तब हुई होगी जब अंगरेजों ने भारत को गुलाम बनाया था क्योंकि उस से पहले सप्ताह के दिनों पर आधारित कैलेंडर की कल्पना भारत में नहीं की गई थी. इस से साफ है कि दिनों पर आधारित ये व्रत आधुनिक काल की देन हैं जिन का कोई भी पौराणिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि किसी भी प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथ में इन व्रतों का कोई वर्णन नहीं मिलता है, फिर ये व्रत कैसे प्रचलन में आए, यह प्रश्न विचारणीय है.

इन तमाम बातों का निचोड़ यह है कि कोई भी व्रत, उपवास या पूजा आप को लखपति नहीं बना सकती है. लक्ष्मी की साधना साधनों से नहीं बल्कि कठिन परिश्रम से की जाती है.

इस दुनिया में करोड़ों लोग बिना लक्ष्मी की पूजा किए धनवान हैं क्योंकि वे अपना कर्म कर रहे हैं. वहीं, करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो लक्ष्मी की पूजा करते हुए भी गरीबी को भोग रहे हैं क्योंकि वे बिना कर्म किए लाटरी खोलने वाली लक्ष्मी में विश्वास करते हैं.

पूजापाठ नहीं मेहनत से पैसा

कुछ साल पहले ‘थ्री इडियट्स’ नाम की एक सुपरहिट फिल्म आई थी जिस में राजू नाम का एक किरदार इम्तिहान में पास होने के लिए होस्टल के कमरे में रखे मूर्तिरूपी बहुत से भगवानों की शरण में जाता है, हाथों की कई उंगलियों में तथाकथित चमत्कारी अंगूठियां पहनता है.

ऐसी बेवकूफी करने वाला वही अकेला नहीं होता है, बल्कि उस फिल्म के और भी कई दूसरे नौजवान छात्र किरदार ऐसा ही करते नजर आते हैं. कोई गाय को चारा देता है, ताकि इम्तिहान नतीजों में बेचारा साबित न हो जाए तो कोई सांप के आगे दूध का कटोरा रखता है, ताकि फेल के बाद इंजीनियर बनाने के बजाय दूध बेचने के लिए तबेला न खोलना पड़ जाए.

वह तो खैर फिल्म थी लेकिन असल जिंदगी में भी आप को बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी कड़ी मेहनत से ज्यादा पूजापाठ के भरोसे पैसा बनाने की सोच रखते हैं. इस में नई पीढ़ी भी काफी तादाद में शामिल दिखाई देती है. जिस का नतीजा कभीकभार तो इतना खतरनाक हो जाता है जो किसी की जान पर जा कर खत्म होता है.

साल 2017 की बात है. छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार जिले में एक पिता ने जल्द से जल्द अमीर बनने के चक्कर में अपनी 4 साल की मासूम बेटी की बलि दे दी थी.

हत्या की यह वारदात बलौदा बाजार जिले के तिल्दा इलाके की थी जहां आरोपी दीपचंद ने रातोंरात अमीर बनने के लालच में एक तांत्रिक की बातों में आ कर अपनी बेटी लक्ष्मी की बलि चढ़ा दी थी.

पुलिस हिरासत में दीपचंद ने बताया कि उसे गांव के ही एक तांत्रिक ने अमीर बनने के लिए तंत्रमंत्र करने की सलाह दी थी. दीपचंद ने उस के कहने के मुताबिक ही अपनी बेटी का गला घोंट कर उसे मौत के घाट उतार दिया था. हत्या के बाद वह भगवान के सामने खड़े हो कर मंत्र जाप करने लगा था.

इस तरह किसी अपने की बलि दे कर जल्दी पैसा बनाने की यह हद ही मानी जाएगी, लेकिन हमारे देश की बहुत सारी आबादी अभी भी अपनी मेहनत के बजाय पूजापाठ के भरोसे ही पैसा बनाने की जुगत भिड़ाती रहती है और अपनी तमाम जिंदगी नकारा गुजार देती है, जिस का फायदा पंडेपुजारी और मुल्लामौलवी उठाते हैं.

हिंदू धर्म में तो पैसे को लक्ष्मी का रूप कह दिया गया है और दिलचस्प बात तो यह है कि वह आप से रूठ भी सकती है. लक्ष्मी के रूठने का यही डर लोगों को भाग्यवादी बनाता है और वे मेहनत से ज्यादा पूजापाठ पर यकीन करने लगते हैं.

पंडेपुजारी इसी बात की ताक में रहते हैं. वे मंदिर में आए ऐसे लोगों को समझाते हैं कि जब तक भाग्य बलवान नहीं होगा तब तक हाथ आया पैसा भी किसी काम नहीं आएगा या काम में बरकत तभी होगी जब इस लक्ष्मी को रूठने से बचा लोगे.

ऐसे ठग लोगों का नैटवर्क इतना बड़ा हो गया है कि वे अब घरमहल्ले से ऊपर उठ कर सोशल साइट्स बना कर लोगों को ठगने के लिए तकनीक का भी सहारा लेने लगे हैं. वे बड़े ही शातिराना ढंग से लोगों की भावनाओं से खेलते हैं, उन्हें चमत्कारी यंत्र और दूसरे सामान का गुणगान कर के इस तरह गुमराह करते हैं कि सामने वाले को लगता है कि अगर उस के पास वही चमत्कारी चीज आ जाएगी तो उस की गरीबी छूमंतर हो जाएगी.

इस चक्कर में वह नासमझ अपनी जेब की गाढ़ी कमाई भी उन को सौंप देता है, जबकि उस की गरीबी में रत्तीभर भी फर्क नहीं आता है.

यह सब शुरू होता है घरघर, महल्लेमहल्ले, गांवगांव, शहरशहर में बने धार्मिक स्थलों से, जहां पहले से ही घर के बड़े लोग नई पीढ़ी के मन में बैठा देते हैं कि कर्म से बड़ा भाग्य होता है और अगर आप का भाग्य अच्छा है तो पैसा बिना मेहनत किए ही छप्पर फाड़ कर बरसता है.

‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सब के दाता राम’ जैसी बातों ने ही लोगों को भटकाया है जबकि ऐसा होता तो सीता को बचाने के लिए खुद राम को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती.

अगर दुनिया के किसी भी अमीर देश को देखेंगे तो पता चलेगा कि वहां के लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत से उसे इतना आगे बढ़ाया है.

अमेरिका द्वारा जापान के 2 शहरों पर परमाणु बम के हमले के बाद वह देश काफी पीछे चला गया था, पर वहां के लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और ऊपर वाले के बजाय अपने हाथों, पढ़ाईलिखाई, नई तकनीक और कड़ी मेहनत पर भरोसा कर के जापान को दोबारा अमीर देशों में शुमार कर दिया. अगर वे उन हमलों को ऊपर वाले का कहर मान कर उस के चमत्कार के भरोसे बैठे रहते तो आज भी पिछड़े रहते.

दूर क्यों जाते हैं. आजादी के बाद पंजाब ने तरक्की में बाजी मार ली थी, जबकि भारत के हर राज्य के पास ऐसा करने का मौका था. इस की एक बड़ी वजह यह थी कि बंटवारे के बाद वहां सब से पहले तो सोशल सिस्टम टूट गया था. लोग दीनधर्म के चक्कर में न पड़ कर मेहनत पर ज्यादा ध्यान देने लगे थे. उन्हें यह भी साबित करना था कि भारत को मिली यह आजादी कोई खैरात नहीं है बल्कि उन की मेहनत का नतीजा है.

इस बात को उन्होंने अपने खेतों में पसीना बहा कर सच भी कर दिखाया था. और जो काम करता है उस के पास पूजापाठ करने का समय ही नहीं होता है.

इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि मेहनत से बड़ा कोई ऊपर वाला नहीं है. जो इनसान इस बात को जितना जल्दी समझ लेता है, वह हर पल का सही इस्तेमाल कर के समय को ही पैसे में तबदील करने की कला जान जाता है.

पिया बने परदेसिया घर संभाले बहुरिया

देश के किसी भी हिस्से में जाएं तो चौड़ी, चिकनी सड़कों के किनारे जैसे ही कोई छोटा शहर, कसबा या गांव आता है, वहां पर बहुत सारी चीजें बिकती नजर आती हैं. इन में ज्यादातर हिस्सा उन चीजों का होता है, जो वहां के लोकल यानी स्थानीय फल या खानेपीने की होती हैं. भुने हुए आलू, शकरकंद, नारियल पानी, मेवा और दूसरी बहुत सी चीजें यहां मिल जाती हैं. यहां बात बेचने वाली औरतों से जुड़ी हैं. ये औरतें इस तरह के काम कर के अपने घर का खर्च चलाती हैं.

सड़क किनारे दुकान चलाने के साथ ही साथ ये औरतें अपने छोटेछोटे बच्चों को संभाल रही होती हैं. इन के पति अपने गांवघर से दूर किसी दूर शहर में नौकरी करने गए होते हैं.

लखनऊउन्नाव हाईवे के किनारे अजगैन कसबे के पास अमरूद बेच रही रेहाना बताती है, ‘‘हम रोज 20 से

30 किलो अमरूद सीजन में बेच लेते हैं. 5 से 7 रुपए किलो की बचत भी हो गई तो कुछ घंटों में 150 से 200 रुपए की कमाई हो जाती है.

‘‘सीजन के हिसाब से हम अपने सामान को बदल देते हैं. ऐसे में रोज का खर्च हमारी कमाई से चलता है और जो पैसा पति बाहर कमा रहे हैं वह किसी बड़े काम के लिए जमा हो जाता है.’’

मिल कर संभाल रहे घर

भोजपुर गांव की रहने वाली सितारा देवी के पास गांव में खेती करने के लिए 3 बीघा जमीन थी. घरपरिवार बड़ा हो गया था. सितारा के 3 बेटियां और 2 बेटे थे. इन का खर्च चलाना आसान नहीं था. पति सुरेश भी परेशान रहता था.

भोजपुर गांव का ही रहने वाला प्रदीप मुंबई में कपड़ों की धुलाई का काम करता था. वह सुरेश से मुंबई चलने के लिए कहने लगा.

सुरेश बोला, ‘‘मैं मुंबई कैसे चल सकता हूं. घरपरिवार किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? पत्नी घरपरिवार और बच्चों को अकेले कैसे संभाल पाएगी?’’

यह बात सुरेश की पत्नी सितारा भी सुन रही थी. वह भी सोचती थी कि अगर सुरेश पैसा कमाने घर से बाहर चला जाए तो घरपरिवार का खर्च आसानी से चल जाएगा.

सुरेश और प्रदीप की बातें सुन कर सितारा को लगा कि पति मुंबई इसलिए नहीं जा रहा क्योंकि पत्नी घर का बोझ कैसे उठा पाएगी.

वह बोली, ‘‘तुम घरपरिवार की चिंता मत करो. उस को मैं संभाल लूंगी. तुम बाहर से चार पैसा कमा कर लाओगे तो घर का खर्च चलाना और भी आसान हो जाएगा.’’

सितारा के हिम्मत बंधाने के बाद  सुरेश ने मुंबई जा कर पैसा कमाने का फैसला कर लिया. कुछ ही सालों के बाद दोनों की घर गृहस्थी खुशहाल हो गई.

सुरेश सालभर में एक महीने की छुट्टी ले कर घर आता था तो एकमुश्त पैसा ले कर आता था. इतना पैसा गांव की खेती में कभी नहीं बच सकता था.

गांव के लोगों ने कहना शुरू किया कि सुरेश की कमाई से उस का घरपरिवार सुधर गया तो खुद सुरेश कहता था, ‘‘मेरे घर की खुशहाली में मुझ से ज्यादा मेरी पत्नी सितारा का हाथ है. अगर उस ने हमारे घरपरिवार, खेती को नहीं संभाला होता तो मेरे अकेले की कमाई से क्या हो सकता था.’’

अब सुरेश और सितारा के साथ उन के बच्चे भी खुश थे. बड़ा बेटा भी कुछ सालों में सुरेश के साथ मुंबई कमाई करने चला गया.

परसपुर गांव की रहने वाली हमीदा का पति गांव में कपड़ों की बुनाई का काम करता था. इस के बाद भी उस को इतना पैसा नहीं मिलता था कि घरपरिवार ठीक से चल सके.

हमीदा के मायके में कुछ लोग कपड़ों की बुनाई का काम करने सूरत जाते थे. वहां उन को अच्छा पैसा मिल जाता था.

हमीदा ने अपने पति रहमान से भी सूरत जाने के लिए कहा तो वह कहने लगा, ‘‘मैं सूरत जा तो सकता हूं, पर तुम यहां घर पर अकेले कैसे रहोगी? बूढ़े मांबाप भी हैं.’’

हमीदा बोली, ‘‘तुम हम लोगों की चिंता मत करो. यहां घर की जिम्मेदारी मुझ पर है. तुम केवल परदेस जाओ. जितनी मेहनत तुम यहां करते हो, उतनी मेहनत वहां भी करोगे तो अच्छा पैसा मिल जाएगा जिस से हमारा घरपरिवार सही से रह सकेगा. मांबाप का इलाज भी हो सकेगा.’’

रहमान सूरत चला गया. वहां उस ने मेहनत से कपड़ों की बुनाई का काम किया. मिल का मालिक भी खुश हो गया. उस ने एक साल में ही रहमान की तनख्वाह बढ़ा दी.

रहमान को रहने के लिए मिल में ही जगह दे दी जिस से रहने पर होने वाला खर्च बच गया. इस से रहमान की कमाई में बरकत दिखने लगी. घर वाले भी सही से रहने लगे. मांबाप का इलाज भी शहर के डाक्टरों से होने लगा.

रहमान कहता है, ‘‘यह कमाई उस की नहीं है. इस में पत्नी का भी पूरा सहयोग रहा है. अगर पत्नी ने घरपरिवार की जिम्मेदारी नहीं संभाली होती तो में कमाई करने कभी सूरत नहीं जा पाता.’’

पत्नी बनी सहयोगी

सुरेश और रहमान दोनों का कहना है कि उन की नजर में पत्नी उन की सहयोगी है. इन दोनों के सहयोग से ही घर की गृहस्थी की गाड़ी सही तरह से चलती है. घर में रह कर कुछ पत्नियां अपने हुनर का इस्तेमाल कर के खुद भी कमाई करती हैं और अपने घर को माली सहयोग करने लगती हैं.

मानिकपुर गांव का इकबाल जब कमाने के लिए दिल्ली चला गया तो उस की पत्नी शोभा ने न केवल घर के काम किए, खेती कराई, बल्कि उस ने ठेके पर कपड़े ले कर साड़ी वगैरह में तार की कढ़ाई करने का काम शुरू कर दिया.

एक साड़ी की कढ़ाई करने में शोभा को 10 दिन का समय लगता था. वह हर रोज 2 घंटे इस काम को करती थी. इस के बदले उस को 500 रुपए मिल जाते थे. इस तरह महीने में 50 से 60 घंटे काम कर के शोभा को 1,500 से 2,000 रुपए के बीच पैसे मिलने लगे.

शोभा ने यह पैसे गांव में बने डाकघर में जमा करने शुरू किए. कुछ ही सालों के अंदर शोभा ने खुद अपनी कमाई से हजारों रुपए जुटा लिए.

बीए करने वाली बिन्नो की शादी टूसरपुर गांव में हुई थी. बिन्नो पढ़नेलिखने में बहुत तेज थी. वह नौकरी करना चाहती थी, पर उस को नौकरी नहीं मिली. उस के गांव में ‘शिक्षा मित्र’ की जगह निकली तो गांव के बड़े लोगों ने उस के बजाय दूसरी औरत को नौकरी पर रखवा दिया.

बिन्नो का पति दीपक भी बेरोजगार था. वह कमाने के लिए दिल्ली चला गया. इधर बिन्नो ने गांव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरू कर दिया.

शुरुआत में तो गांव के लोगों ने बिन्नो के पास पढ़ने के लिए बच्चे भेजने में आनाकानी की. बिन्नो का घर 2 गांव के बीच था. उस ने दूसरे गांव के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया.

बिन्नो इन बच्चों से 20 रुपए महीना फीस लेती थी. दोनों गांव के बच्चे एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे. उस स्कूल में जब छमाही इम्तिहान हुए तो वे बच्चे पढ़ाई में आगे निकल गए जिन को बिन्नो ट्यूशन पढ़ाती थी. इस के बाद तो बिन्नो के पास ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों की तादाद काफी बढ़ गई.

इस तरह घर बैठ कर बिन्नो ने पति का काम भी संभाल लिया और ट्यूशन के जरीए पैसा कमा कर माली मदद भी कर दी.

काम आई समझदारी

बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने गांव के हालात को बहुत खराब कर दिया है. गांव में रहने वाले बहुत से लोगों के पास खेती करने के लिए जमीन नहीं है.  जिन के पास थोड़ीबहुत जमीन है, उन को भी उस से कोई लाभ नहीं मिलता. उन की सारी कमाई दो जून की रोटी का ही इंतजाम करने में खर्च हो जाती है.

बहुत से लोग गांव में ही रह कर मेहनतमजदूरी करते हैं लेकिन उन को वहां ठीक से पैसा नहीं मिलता है. इस के लिए गांव में रहने वाले तमाम लोग कमाई करने शहरों की ओर जाते हैं. गांव में उन की पत्नी और बच्चे रह जाते हैं.

समझदार पत्नियां गांव में रहते हुए अपना घर भी संभाल लेती हैं और कुछ न कुछ काम कर के पैसा जुटाने की कोशिश में लगी रहती हैं.

गांव की ये महिलाएं सिलाई, बुनाई, कढ़ाई जैसे काम करती हैं. कुछ पढ़ीलिखी औरतें बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करती हैं. वहीं दालमोंठ, अचार, पापड़, सेंवई, माचिस, मोमबत्ती, अगरबत्ती जैसे सामान ठेके पर बनाने का काम भी करती हैं जिस से उन की अच्छीखासी कमाई हो जाती है. आसपास के बाजारों में पता करने से इस तरह के कामों का पता चल जाता है.  पत्रपत्रिकाओं के पढ़ने, टैलीविजन और रेडियो के कार्यक्रमों को सुनने से इस तरह की तमाम जानकारियां हासिल हो जाती हैं.

कोशिश यह करें कि लड़कियों को पढ़ाएं जिस से जब वे अपनी गृहस्थी शुरू करें तो कुछ न कुछ काम करने का हुनर उन को पता हो.

आसान नहीं रास्ते

गांव में अकेली रह रही औरतों के लिए परेशानियां भी कम नहीं हैं. जोठरा गांव की रहने वाली प्रेमा का पति हरखू मुंबई में काम करने चला गया था. प्रेमा गांव में अकेली रहती थी. प्रेमा के साथ उस की बीमार सास भी रहती थी, जिस को दिखाई भी नहीं देता था.

प्रेमा का 2 साल का एक बेटा भी था.  वह जंगल में तेंदूपत्ता तोड़ने और मजदूरी का काम करती थी. जब वह मजदूरी करने जाती थी तो अपने बेटे के पांव में रस्सी बांध देती थी जिस से वह बच्चा पास के बने कुएं तक न जा सके.

प्रेमा कहती है कि वह यह काम मजबूरी में करती है. अगर बच्चा सास के सहारे छोड़ जाए तो उन को दिखाई नहीं देता है. बच्चा दूर जा सकता है.  कभी कोई हादसा हो सकता है. अगर वह बच्चे को ले कर मजदूरी करने जाती है तो वहां भी वह परेशान करता है.

इस तरह की तमाम परेशानियां और भी हैं. गांव में रहने वालों की सब से बड़ी परेशानी यह है कि वह किसी दूसरे की तरक्की को देख कर सहज नहीं रहते. जब कोई औरत आगे बढ़ती है तो उस पर तमाम तरह के लांछन भी लगने लगते हैं.

अकेली औरत के दामन पर दाग लगाना आसान होता है इसलिए गांव के लोग औरतों को बदनाम भी करते हैं. कभीकभी अगर पतिपत्नी समझदारी से काम नहीं करते तो उन के बीच झगड़ा भी हो जाता है इसलिए जब कभी इस तरह की गलतफहमी हो तो समझदारी से काम लें.

दलित दूल्हा घोड़ी नहीं चढ़ेगा

गुरुवार. 13 दिसंबर, 2018. बरात पर पथराव व मारपीट. दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारा गया. राजस्थान के अलवर जिले के लक्ष्मणगढ़ थाना इलाके के गांव टोडा में गुरुवार, 13 दिसंबर, 2018 को दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारने और बरात पर पथराव व मारपीट करने का मामला सामने आया.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, गांव टोडा के हरदयाल की बेटी विनिता की शादी के लिए पास के ही गांव गढ़काबास से बरात आई थी.

बरात ज्यों ही गांव में घुसी, राजपूत समाज के 2 दर्जन से भी ज्यादा लोग लाठियां व सरिए ले कर बरातियों पर टूट पड़े. इस दौरान दर्जनभर लोगों को गंभीर चोटें आईं.

बाद में सूचना मिलने पर मौके पर पहुंचे पुलिस प्रशासन ने दूल्हे की दोबारा घुड़चढ़ी करा कर शादी कराई.

शादियों के मौसम में तकरीबन हर हफ्ते देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर आ ही जाती है. इन घटनाओं में जो एक बात हर जगह समान होती है, वह यह कि दूल्हा दलित होता है, वह घोड़ी पर सवार होता है और हमलावर ऊंची जाति के लोग होते हैं.

दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं कर सकते थे. न सिर्फ ऊंची जाति वाले बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी अगड़ों की रस्म है, लेकिन अब दलित इस फर्क को नहीं मान रहे हैं. दलित दूल्हे भी घोड़ी पर सवार होने लगे हैं.

यह अपने से ऊपर वाली जाति के जैसा बनने या दिखने की कोशिश है. इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है जिस ने दलितों में भी बराबरी का भाव पैदा कर दिया है. यह पिछड़ी जातियों से चल कर दलितों तक पहुंचा है.

ऊंची मानी गई जातियां इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. उन के हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना ऊंची जाति वालों का ही हक है और इसे कोई और नहीं ले सकता. वैसे भी जो ऊंची जातियां दलितों के घोड़ी चढ़ने पर हल्ला कर रही हैं, आजादी तक वे खुद घोड़ी पर चढ़ कर शादी नहीं कर सकती थीं.

आजादी के बाद पिछड़ी जातियों के जोतहारों को जमीनें मिल गईं और ऊंची जातियों के लोग गांव छोड़ कर शहर चले गए तो वे जातियां खुद को राजपूत कहने लगी हैं.

लिहाजा, वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रही हैं. हिंसा उन में से एक तरीका है और इस के लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए भी तैयार हैं.

देश में लोकतंत्र होने के बावजूद भी ऊंची जाति वालों में यह जागरूकता नहीं आ रही है कि सभी नागरिक बराबर हैं.

जब तक बराबरी, आजादी और भाईचारे की भावना के साथ समाज आगे बढ़ने को तैयार नहीं होगा, तब तक सामाजिक माहौल को बदनाम करने वाली इस तरह की घटनाएं यों ही सामने आती रहेंगी.

ऐसी घटनाएं हजारों सालों की जातीय श्रेष्ठता की सोच का नतीजा है जो बारबार समाज के सामने आता रहता है या यों कहें कि कुछ लोग आजादी समझ कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो तथाकथित ऊंचे लोगों के अंदर का शैतान खुलेआम नंगा नाच करने को बाहर आ जाता है.

जिस राजस्थान को राजपुताना कहा जाता है वह रामराज्य का समानार्थी सा लगता है. दोनों का गुणगान तो इस तरह किया जाता है कि जैसे दुनिया में इन से श्रेष्ठ सभ्यता कहीं रही ही नहीं होगी, मगर जब इन दोनों की सचाई की परतें खुलती जाती हैं तो हजारों गरीब इनसानों की लाशों की सड़ांध सामने आने लगती है और वर्तमान आबोहवा को दूषित करने लगती है.

रामराज्य के समय के ऋषिमुनियों और राजपुताना के ठाकुरों व सामंतों में कोई फर्क नहीं दिखता. रामराज्य में औरतें बिकती थीं. राजा व ऋषि औरतों की बोली लगाते थे. राजपुताना के इतिहास में कई ऐसे किस्से हैं जहां शादी के पहले दिन पत्नी को ठाकुर के दरबार में हाजिरी देनी होती थी. सामंत कब किस औरत को पकड़ ले, उस के विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

माली शोषण मानव सभ्यता के हर समय में हर क्षेत्र में देखा गया, मगर दुनिया में दास प्रथा से भी बड़ा कलंक ब्राह्मणवाद रहा है जिस में शारीरिक व मानसिक जोरजुल्म सब से ऊंचे पायदान पर रहा है.

जातियां खत्म करना इस देश में मुमकिन नहीं है. अगर कोई जाति खुद को श्रेष्ठ बता कर उपलब्ध संसाधनों पर अपने एकलौते हक का दावा करती है, तो वह कुदरत के इंसाफ के खिलाफ है. कोई जाति खुद को ऊंची बता कर दूसरी जाति के लोगों को छोटा समझती है, वही जातीय भेदभाव है, जो इस जमाने में स्वीकार करने लायक नहीं है.

सब जातियां बराबर हैं, सब जाति के इनसान बराबर हैं और मुहैया संसाधनों पर हर इनसान का बराबर का हक है, यही सोच भारतीय समाज को बेहतर बना सकती है.

दलितों में इस तरह सताए जाने के मामलों की तादाद बहुत ज्यादा है जो कहीं दर्ज नहीं होते, नैशनल लैवल पर जिन की चर्चा नहीं होती.

दरअसल, एक घुड़चढ़ी पर किया गया हमला सैकड़ों दलित दूल्हों को घुड़चढ़ी से रोकता है यानी सामाजिक बराबरी की तरफ कदम बढ़ाने से रोकता है.

भाजपा सरकार व पुलिस अगर दलितों को घोड़ी पर नहीं चढ़वा सकती तो इस परंपरा को ही समाप्त कर दे. पशुप्रेम के नाम पर किसी भी शादी में घोड़ी पर चढ़ना बंद करा जा सकता है.

सरकारी नौकरी और नौजवान

हमारे समाज में सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को इज्जत की नजर से देखा जाता है. इस की वजह से सरकारी नौकरियों की तरफ नौजवानों का झुकाव ज्यादा है, पर बढ़ती आबादी और नौकरियों की कमी की वजह से सभी पढ़ेलिखे नौजवानों को सरकारी नौकरी मिलना मुमकिन नहीं  है. इस के बावजूद जब नौजवान अपने कैरियर के बारे में सोचते हैं तो उन्हें सिर्फ सरकारी नौकरी ही दिखाई पड़ती है. फार्म भरते समय भी ज्यादातर नौजवानों का कोई टारगेट नहीं होता. वे अफसर से ले कर क्लर्क और चपरासी की नौकरी तक के फार्म भरते हैं.

ये नौजवान सोच ही नहीं पाते हैं कि सरकारी नौकरी के अलावा भी रास्ते हैं. सरकारी नौकरी सभी को नहीं मिल सकती. अगर आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सरकारी नौकरियां महज 2 फीसदी के करीब ही हैं.

सरकारी नौकरी की तरफ दौड़ रहे लोगों में से 2-3 फीसदी नौजवानों को ही नौकरी मिलेगी तो बाकी लोग कहां जाएंगे?

सरकारी नौकरी के फायदे

सरकारी नौकरी में जौब सिक्योरिटी के साथसाथ दूसरी बहुत सी सुविधाएं भी मिलती हैं. सरकारी नौकरी का मतलब है आरामदायक नौकरी. काम हो या न हो, तनख्वाह तो हर महीने मिलेगी ही. पद के हिसाब से ऊपरी कमाई भी.

देश की टौप सरकारी नौकरी में आईएएस है. एक आईएएस अफसर को अच्छी तनख्वाह के साथसाथ इज्जत भी मिलती है. इन अफसरों को मोटी तनख्वाह के साथसाथ सरकारी घर, गाड़ी, मुफ्त के सरकारी नौकर और भी कई तरह की दूसरी सुविधाएं भी मिलती हैं.

बिहार में कई जगहों पर पुल बनने के बाद लिंक रोड बनाने व एनटीपीसी थर्मल पावर बनाने में किसानों द्वारा भूमि अधिग्रहण मामले में जिले के पदाधिकारी द्वारा करोड़ों रुपए की गैरकानूनी कमाई खुलेआम की गई.

सरकारी नौकरी में कई महकमे और पद हैं. पद का अपना रुतबा होता है और काली कमाई पद के हिसाब से होती है. अगर पदाधिकारी को एक लाख रुपए की रिश्वत मिलती है तो उस के क्लर्क को भी 10,000 रुपए मिलेंगे. 100-200 रुपए चपरासी भी कमा लेंगे.

जिला लैवल के पदाधिकारी की अगर रिश्वत से कमाई हर महीने 5 लाख रुपए है तो बड़ा बाबू 80-90 हजार रुपए और चपरासी भी महीने में 10,000 रुपए कमा लेता है.

ब्लौक लैवल का पदाधिकारी अगर रिश्वत लेता है तो उस में जिला लैवल तक के पदाधिकारियों तक का हिस्सा पहुंचता है. जनवितरण प्रणाली, आंगनबाड़ी केंद्र, मिड डे मील योजना, मनरेगा वगैरह सभी महकमों में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि रिश्वत में भागीदारी नीचे से ले कर ऊपर तक के पदाधिकारियों तक है. दिखावे के लिए निगरानी विभाग कभीकभार कुछ पदाधिकारियों को पकड़ कर महज खानापूरी करता रहता है और आम लोगों को यह दिखाना चाहता है कि विभाग भ्रष्टाचार के प्रति सचेत है.

पेशकार खुलेआम जज के सामने नजराना लेते हैं. इस बात को देशभर के लोग बखूबी जानते हैं और इस की चर्चा आम बातचीत के दौरान लोग करते भी रहते हैं.

इज्जत में है बढ़ोतरी

सरकारी नौकरी में काम का दबाव कम रहता है. जवाबदेही उतनी नहीं रहती. काम हुआ तो भी ठीक, नहीं तो अगले दिन पर टाल देते हैं.

सरकारी नौकरी में आजादी है. आप के पास समय की कमी नहीं है. ड्यूटी के बाद आप के पास समय ही समय है. सरकारी नौकरी में साप्ताहिक छुट्टी के अलावा भी कई छुट्टियां होती हैं.

सरकारी नौकरी में प्रमोशन होने के साथ ही तनख्वाह में बढ़ोतरी के लिए समय तय है. इस के लिए अलग से कोई काम नहीं करना है. सरकारी नौकरी में कई तरह के भत्ते मिलते हैं. मैडिकल छुट्टी के साथसाथ पूरे महीने की तनख्वाह के साथसाथ चिकित्सीय भत्ता भी मिलता है. सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को मोटी रकम की जरूरत होने पर सरकारी लोन कम ब्याज पर आसानी से मिल जाता है.

2 दोस्तों की कहानी

रितेश और दीपक दोनों दोस्त हैं. दोनों ने साथसाथ रह कर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की. दोनों रेलवे की तैयारी पटना में साथ रह कर करने लगे. 3 साल की तैयारी और कंपीटिशन में रितेश की नौकरी स्टेशन मास्टर के पद पर हो गई, जबकि दीपक काफी मेहतन करता रहा. 4 साल बीत गए, पर उस की नौकरी नहीं लगी.

दीपक की उम्र भी 27 साल के करीब पहुंच गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह निराश हो कर अपने गांव आ गया और उस ने अपने गांव में सरकारी बैंक से लोन ले कर राइस मिल खोल ली.

दीपक की राइस मिल खूब चलने लगी. 5 साल में राइस मिल से पैसा कमा कर 2 ट्रक और अपने चलने के लिए गाड़ी खरीद ली.

पैक्स का चुनाव लड़ कर दीपक पैक्स अध्यक्ष से कौआपरेटिव का जिलाध्यक्ष तक बन गया. उस की आगे की योजना बतौर विधायक चुनाव लड़ने की है.

रितेश की नौकरी जब स्टेशन मास्टर में लगी थी तो उस के परिवार के साथसाथ गांव वाले भी उस की इज्जत करने लगे. उस की शादी में दहेज में भी मोटी रकम मिली.

दीपक जब पहले गांव आता था तो उसे लोग कहते थे कि 5 साल से तैयारी कर रहा है लेकिन इस की नौकरी नहीं लगी. अब उम्मीद नहीं है. परिवार और गांव वालों के उलाहनों से दीपक दुखी हो जाता था. लेकिन वह हताश नहीं हुआ और नई योजनाएं बना कर अपना राइस मिल का कारोबार खड़ा कर इस मुकाम तक जा पहुंचा.

सरकारी नौकरी ही क्यों

सरकारी नौकरी में मौज ही मौज दिखती है. सरकारी नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है, लेकिन एक बार मिल गई तो 60 साल तक मौज ही मौज. समय से काम पर गए तो ठीक, देर से गए तो भी कोई बात नहीं. जरूरत पड़ने पर महीनों क्या सालों छुट्टी मिल जाती है.

अगर सरकारी नौकरी में आप ऊंचे पदाधिकारी हैं तो समझिए कि मुफ्त में नौकर. नीचे की पोस्ट वालों पर रोब जमा कर अपने घर के काम कराते हैं. रिश्तेदारों और दोस्तों में अलग पहचान और घमंड. रहने के लिए सभी तरह की सुविधाओं से लैस सरकारी क्वार्टर, मैडिकल सुविधा, लोन सुविधा. परिवार के साथ घूमने के लिए टूर सुविधा… न जाने क्याक्या.

और भी हैं रास्ते

जो लोग सरकारी नौकरी नहीं करते हैं, वे अपना कारोबार शुरू कर अच्छे मुकाम तक पहुंच सकते हैं. धीरू भाई अंबानी, टाटा, बिड़ला या दूसरे बड़े पूंजीपति और उद्योगपति कारोबार कर के ऊंचे शिखर तक पहुंचे हैं. इन लोगों ने बहुत सारे लोगों को रोजगार भी दिए हुए हैं. छोटा कारोबार कर के भी बहुत लोग सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को मात दे रहे हैं.

इस के अलावा प्राइवेट नौकरी में भी अच्छी तनख्वाह और सुविधाएं दी जाती हैं. सालाना 50 लाख, 25 लाख रुपए कमाने वाले लोगों की तादाद इन कंपनियों में भी होती है.

आज का समय कौमर्शियल दौर का है. उस के लिए वर्क फोर्स की जरूरत है. हम उस वर्क फोर्स का हिस्सा बन कर अपने समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं.

हर साल 2 करोड़ नौकरियों का लालच दे कर सत्ता में आई भाजपा सरकार पिछले साढ़े 4 साल में भी इतनी नौकरियां नहीं दे सकी. इस बीच लाखों की तादाद में नए बेरोजगार बढ़ गए. सब से बुरी मार खेती और लघु व घरेलू उद्योगों पर पड़ी. नोटबंदी और जीएसटी के चलते छोटेबड़े सभी कामधंधे प्रभावित हुए. पब्लिक सैक्टर हो या सरकारी, सभी में बुरी हालत हुई. हर जगह छंटनी हुई या अभी होगी.

यहां की ज्यादातर जनता गरीबी में जिंदगी गुजार रही है और अपने ऊपर आई मुसीबतों को तकदीर का नाम दे कर दिमागी बोझ को हलका करती है. धर्म से ले कर राजनीति तक तरहतरह के पाखंड फैले हुए हैं और ठग व बदमाश लोग उन की अगुआई कर रहे हैं. इन झमेलों से निकलने के लिए नई सोच के साथ बेहतर कोशिश करने की जरूरत है.

दो जून की रोटी

एक पुराना प्रचलित चुटकुला है जिसे अकसर लोग आपस मेंकहतेसुनते रहते हैं :

2 गधे चरागाह में चर रहे थे. चरतेचरते 1 गधे ने दूसरे को एक चुटकुला सुनाया, पर दूसरा गधा चुटकुला सुन कर भी शांत रहा, उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की. तब चुटकुला सुनाने वाले गधे को झेंपने के अलावा कोई चारा नहीं रहा और सांझ होने पर दोनों गधे अपनेअपने निवास को चले गए.

अगले दिन दोनों गधे चरने के लिए फिर उसी चरागाह में आए तो चुटकुला सुनने वाला गधा बहुत जोर से हंसने लगा. उसे इस तरह हंसता देख कर दूसरे गधे ने हंसने का कारण जानना चाहा, तो उत्तर मिला कि कल जो चुटकुला उस ने सुना था, उसी पर हंस रहा है.

पहले गधे ने आश्चर्य से कहा कि चुटकुला तो कल सुनाया था, आज क्यों हंस रहे हो. इस पर दूसरे गधे से उत्तर मिला कि उस का अर्थ आज समझ में आया है.

अब हंसने की बारी चुटकुला सुनाने वाले की थी. उस ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘वाह, चुटकुला कल सुना था, हंस अब रहे हो. वास्तव में तुम रहोगे गधे के गधे ही. कल की बात आज समझ में आई है.’’

मेरे विचार से यह कथा मात्र एक चुटकुला नहीं है. इस में तो गहन रहस्य और ज्ञान छिपा है. वास्तविकता यह है कि बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जिन का अर्थ तब समझ में नहीं आता जब कही जाती हैं. बहुत सी घटनाओं का अर्थ घटना के घटित होते समय जाहिर नहीं होता. बहुत सी बातों का अर्थ बाद में समझ में आता है. कभीकभी तो ऐसी बातों एवं घटनाओं का अर्थ समझने में वर्षों का वक्त लग जाता है. पर किसी भी बात के अर्थ को समझने में व्यक्ति विशेष की बुद्धि का भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो बात का अर्थ समझने में विलंब नहीं होता, परंतु यदि व्यक्ति की बुद्धि कुछ मंद है तो अर्थ समझने में देर होती ही है. अल्पबुद्धि होने के कारण ही शायद यह चुटकुला गधों के बारे में प्रचलित है.

बचपन में घटित एक घटना को समझने में मुझे भी वर्षों का समय लग गया था. शायद बालमन में तब इतनी समझ नहीं थी कि इस बात का अर्थ पल्ले पड़ सके या गधों की तरह बुद्धि अल्प होने के कारण अर्थ समझ में नहीं आया था. जो भी कहें पर यह घटना लगभग 40 साल पुरानी है.

मेरे श्रद्धेय पिताजी का मुख्य व्यवसाय खेती था, लेकिन जमीन पर्याप्त न होने के कारण वह खेती मजदूरों से कराते थे और खुद सिंचाई विभाग में छोटीमोटी ठेकेदारी का कार्य करते थे. यह कहना अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत होगा कि खेती तो मजदूरों के भरोसे थी और पिताजी का अधिक ध्यान ठेकेदारी पर रहता था.

गांव में खेल व मनोरंजन का कोई साधन नहीं था, अत: कक्षा 8 पास करने के बाद मेरा ध्यान खेती की ओर आकर्षित हुआ और मैं कभीकभी अपने खेतों पर मजदूरों का काम देखने के लिए जाने लगा. तब हमारे खेतों पर 3 मजदूर भाई, जिन के नाम ज्योति, मोल्हू व राजपाल थे, कार्य करते थे. वे मुंह अंधेरे, बिना कुछ खाएपीए हलबैल ले कर खेत पर चले जाते थे. वह खेत पर काम करते और दोपहर को उन की मां भोजन ले कर खेत पर जाती. तब काम से कुछ समय निकाल कर वे दोपहर का भोजन पेड़ की छांव में बैठ कर करते थे.

संयोगवश कभीकभी उन के खाने के समय पर मैं भी खेत पर होता था व उन का खाना देखने का अवसर मिलता था. मैं ने उन के खाने में कभी दाल या सब्जी नहीं देखी. उन के खाने में अकसर नमक मिली हुई मोटे अनाज की रोटी होती थी व उस के साथ अचार और प्याज. उन की मां कुल मिला कर 6 रोटी लाती थी व तीनों भाइयों को 2-2 रोटी दे देती थी, जिन्हें खा कर वे पानी पीते और फिर अपने काम में लग जाते.

खाने के बीच अकसर उन की मां बातें करती रहती कि आज तो घर में सेर भर ही अनाज था, उसी को पीस कर रोटी बनाई है. जिन में से घर पर औरतें व बच्चे भी खाते थे. उन्हीं में से वह तीनों भाइयों के लिए भी लाती थीं. तब मैं उन की बातें सुनता अवश्य था पर अर्थ कुछ नहीं निकाल पाता था. मुझे यह बात सामान्य लगती थी. मुझे लगता था कि उन्होंने भरपेट भोजन कर लिया है. बालपन में इस का कुछ और अर्थ निकालना संभव भी नहीं था.

उन दिनों एक परंपरा और थी कि त्योहार यानी होलीदीवाली पर मजदूरों को किसान अपने घर पर भोजन कराते थे. उसी परंपरा के तहत ज्योति, मोल्हू व राजपाल भी त्योहार के अवसर पर हमारे घर भोजन करते थे.

चूंकि मेरा उन तीनों से ही बहुत अच्छा संवाद था इसलिए उन को अकसर मैं ही भोजन कराता था. मुझे उन को भोजन कराने में बहुत आनंद आता था. उस भोजन में रोटी, चावल, दाल, सब्जी, कुछ मीठा होता था तो वह तीनों भाई भरपेट भोजन करते थे व कुछ बचा कर अपने घर भी ले जाते थे ताकि परिवार की महिलाएं व बच्चे भी उसे चख सकें.

उन को कईकई रोटी व चावल खाता देख कर कभीकभी मेरी मां कह उठतीं कि अपने घर में तो ये केवल 2 रोटी खाते हैं और हमारे घर आते ही ये इतना खाना खाते हैं. तब मुझे अपनी मां की बात सच लगती थी क्योंकि मैं उन को खेत पर केवल 2 रोटी ही खाते देखता था. मैं यह समझने में सफल नहीं रहता कि ऐसा क्यों है, यह अपने घर केवल 2 रोटी खा कर पेट भर लेते हैं व हमारे घर पर इतना खाना क्यों खाते हैं.

इन्हीं सब को देखतेभुगतते मैं खुद यौवन की दहलीज पर आ गया. पढ़ाई पूरी करने के बाद शहर में वकालत करने लगा. कुछ समय उपरांत न्यायिक सेवा में प्रवेश कर के शहरशहर तबादले की मार झेलता घूमता रहा व जीवन का चक्र गांव से शहर की तरफ परिवर्तित हो गया. खेती व खेतिहर मजदूर ज्योति, मोल्हू, राजपाल व अन्य कई मजदूर, जो कभी न कभी हमारी खेती में सहायक रहे थे, काफी पीछे छूट गए. मैं एक नई दुनिया में मस्त हो गया, जो बहुत सम्मानजनक व चमकीली थी. पर यदाकदा मुझे बचपन की बातें याद आती रहती थीं. गांव में जाने पर कभीकभार उन से भेंट भी हो जाती थी, पुरानी यादें ताजा हो जाती थीं.

कुछ ही दिन पहले न जाने क्या सोचतेसोचते मुझे उपरोक्त घटनाक्रम याद आ गया और जब मैं ने अपने वयस्क एवं परिपक्व मन से उन सब कडि़यों को जोड़ा तो वास्तविकता यह प्रकट हुई कि ज्योति, मोल्हू और राजपाल, ये 3 ही मजदूर गांव में नहीं थे बल्कि गांव में और भी बहुत मजदूर थे जिन का यही हाल था. शायद यही कारण था कि हमारे घर पर भोजन के समय उन्हें पेट भरने का अवसर मिलता था. अत: वह अपने घर की अपेक्षा हमारे घर पर अधिक भोजन करते थे. उस समय मुझे उन के अधिक खाने का कारण समझ में नहीं आया था. मुझे इस बात को समझने में लगभग 4 दशक का समय लग गया कि अनाज की कमी के कारण वे मजदूर रोज ही आधे पेट रहते थे और मुझे खेतिहर मजदूरों की उस समय की स्थिति का आभास हुआ कि तब ज्योति, मोल्हू व राजपाल जैसे श्रमिक दो जून की रोटी के लिए कितना काम करते थे व तब भी आधा पेट भोजन ही कर पाते थे.

इतने के लिए भी रूखासूखा खा कर उलटासीधा फटेपुराने कपड़ों से तन ढक कर हर मौसम में उन्हें खेती का कार्य करना पड़ता था. उन के लिए काम का कोई समय नहीं था, वह मुंहअंधेरे काम पर आते थे व देर रात को काम से लौटते थे.

मुझे जब भी अवकाश मिलता, मैं गांव जाता और उन तीनों श्रमिकों से अकसर भेंट होती, पर उन की हालत जस की तस रही. वे आधा पेट भोजन कर के ही जीवन व्यतीत करते रहे और इस दुनिया से विदा हो गए.

जीवन में उन्हें कभी दो जून की भरपेट रोटी मयस्सर नहीं हो पाई. ऐसे वे अकेले श्रमिक नहीं थे, न जाने कितने श्रमिक आधा पेट भोजन करतेकरते इस दुनिया से चले गए. अब भी, जब मैं सोचता हूं कि कितना कठिन होता है जीवन भर आधापेट भोजन कर के जीवन व्यतीत करना, तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ऊपर से नीचे तक सिहर जाता हूं.

गांव से मेरा नाता समाप्त नहीं हुआ है. वही खेत हैं, वही खेती, पर वक्त ने सबकुछ बदल दिया है. अब तो खेतीहर श्रमिकों की स्थिति में आश्चर्य रूप से परिवर्तन हुआ है. ज्योति, मोल्हू व राजपाल के बच्चों के घर पक्के हो गए हैं. बच्चों को नए कामधंधे मिल गए हैं. अब गांव में आधा बदन ढके अर्थात शरीर पर मात्र लंगोटी डाले श्रमिक बिरले ही मिलते हैं.

समाज में समानता की ध्वनि सुनाई पड़ती है, जो प्रगति का परिचायक है पर साथ ही साथ किसानों के समक्ष समस्या भी हो गई है. अब खेती कार्य के लिए मजदूरों का मिलना लगभग असंभव हो गया है. पर वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता, वह तो हर पल करवट बदलता रहता है. मैं तो पूर्ण आशान्वित हूं कि भविष्य वास्तविक रूप से उज्ज्वल होगा.

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