Raksha Bandhan: सत्य असत्य- भाग 1

कर्ण के एक असत्य ने सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी. जहां इसी की वजह से हुई निशा के पिता की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया, वहीं खुद कर्ण पछतावे की आग में सुलगता रहा. पर निशा से क्या उसे कभी माफी मिल सकी?

घर की तामीर चाहे जैसी हो, इस में रोने की कुछ जगह रखना.’ कागज पर लिखी चंद पंक्तियां निशा के हाथ में देख मैं हंस पड़ी, ‘‘घर में रोने की जगह क्यों चाहिए?’’

‘‘तो क्या रोने के लिए घर से बाहर जाना चाहिए?’’ निशा ने हंस कर कहा.

‘‘अरे भई, क्या बिना रोए जीवन नहीं काटा जा सकता?’’

‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता. वह अगर हारता नहीं तो दूसरा जीतता कैसे?’’

निशा के सांवले चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें मुझे सदा ही भाती रही हैं, और उस से भी ज्यादा प्यारी लगती रही हैं मुझे उस की बातें. हलके रंग के कपड़े उस पर बहुत सजते हैं.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘ये मशहूर शायर निदा फाजली के विचार हैं और मैं इन से पूरी तरह सहमत हूं. गीता, यह सच है, घर में एक ऐसा कोना जरूर होना चाहिए जहां इंसान जी भर कर रो सके.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, जैसे घर में रसोईघर, सोने का कमरा, अतिथि कक्ष, क्या वैसा ही? मगर इतनी महंगाई में कैसे होगा यह सब? सुना है, राजामहाराजा रानियों के लिए कोपभवन बनवाते थे. क्या तुम भी वैसा ही कोई कक्ष चाहती हो?’’

शायद मेरी बात में छिपा व्यंग्य उसे चुभ गया. उस ने किताबें संभालीं और उठ कर चल दी.

मैं ने उसे रोकना चाहा, मगर वह रुकी नहीं. पलभर को मुझे बुरा लगा, लेकिन जल्द ही नौर्मल हो गई.

मैं एमए के बाद बीएड कर रही थी. इसी सिलसिले में निशा से मुलाकात हो गई थी. पहली ही बार जब वह मिली, तभी इतनी अच्छी लगी थी कि कहीं गहरे मन में समा सी गई थी. पिता के सिवा उस का और कोईर् न था. पिता ही उस के सब थे. मैं उन से मिली नहीं थी, परंतु उन के बारे मैं इतना कुछ जान लिया था, मानो बहुतकुछ देखापरखा हो.

निशा के पिता विज्ञान के प्राध्यापक थे. लगभग 6 माह पहले ही उन का दिल्ली स्थानांतरण हुआ था.

‘‘आप इस से पहले कहां थीं?’’ एक दिन मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘जम्मू.’’

‘‘बड़ी सुंदर जगह है न जम्मू. कश्मीर भी तो एक सुंदर जगह है. वहां तो तुम लोग जाती ही रहती होगी?’’

‘‘हां, बहुत सुंदर. कश्मीर तो अकसर जाते रहते हैं.’’

‘‘मगर तुम तो कश्मीरी नहीं लगतीं?’’

‘‘जानती हूं, दक्षिण भारतीय लगती हूं न, सभी हंसते हैं, पता नहीं क्यों. शायद मेरी मां सांवली होंगी. मगर मेरे पिता तो बहुत सुंदर हैं, कश्मीरी हैं न.’’

‘‘तुम्हारे भाईबहन?’’

‘‘कोई नहीं है. मैं और मेरे पिता, बस.’’

मां की कमी उसे खलती हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. वह मस्तभाव से हर बात करती थी.

एक दिन मेरे बड़े भैया ने मुझ से कहा, ‘‘कभी उसे घर लाना न, निशा कैसी है, जरा हम भी तो देखें.’’

‘‘अच्छा, लाऊंगी, मगर तुम इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हो?’’ भाई को तनिक छेड़ा तो पिताजी ने कहा, ‘‘अरे भई, दिलचस्पी लेने की यही तो उम्र है.’’

कहकहों के बीच एक भीनी सी इच्छा ने भी जन्म ले लिया था कि क्यों न मैं उसे अपनी भाभी ही बना लूं. वैसे है तो सांवली, लेकिन हो सकता है, भैया को पसंद आ जाए. हां, मां का पता नहीं, उन का गोरीचिट्टी बहू का सपना है, क्या पता वे इस लोभ से ऊपर न उठ पाएं.

उसी दिन से मैं उसे दूसरी ही नजर से देखने लगी थी. कल्पना में ही उसे भैया की बगल में बिठा कर दोनों की जोड़ी कैसी लगेगी. गुलाबी जोड़े में कैसी सजेगी निशा, कैसी प्यारी लगेगी.

‘गीता, क्या देखती रहती हो?’ अकसर निशा के टोकने पर ही मेरी तंद्रा भंग होती थी.

‘कुछ भी तो नहीं,’ मैं हौले से कह उठती.

एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘हमारे घर चलोगी? तुम्हें सब से मिलाना चाहती हूं. चलो, मेरे साथ.’’

‘‘नहीं गीता, पिताजी को अच्छा नहीं लगता. फिर इस शहर में हम नए हैं न, किसी से इतनी जानपहचान कहां है, जो…’’

‘‘क्या मेरे साथ भी जानपहचान नहीं है?’’

‘‘कभी पिताजी के साथ ही आऊंगी, उन के बिना मैं कहीं नहीं जाती.’’

एक दिन मैं उस के साथ उस के घर चली गई. वे विश्वविद्यालय की ओर से मिले आवास में रहते थे.

उन लोगों के पास 2 चाबियां थीं. घर पहुंचने पर द्वार उसे खुद ही खोलना पड़ा, क्योंकि उस के पिता अभी नहीं आए थे. पर सुंदर, व्यवस्थित घर में मैं ने उन का चित्र जरूर देख लिया. सचमुच वे बहुत सुंदर थे. किसी भी कोने से वे मुझे उस के पिता नहीं लगे, मगर बालों की सफेदी के कारण विश्वास करना ही पड़ा.

उस ने कहा, ‘‘पिताजी को फोन कर के बुला लूं. आज तुम पहली बार आई हो?’’

‘‘नहीं निशा, क्या यह अच्छा लगेगा कि मेरी वजह से वे काम छोड़ कर चले आएं? मैं फिर कभी अपने पिताजी के साथ आ जाऊंगी. दोनों में दोस्ती हो गई तो तुम्हें हमारे घर आने से नहीं रोकेंगे न.’’

‘घर में रोने को एक कोना उसे क्यों चाहिए? क्या उस के पिता ने किसी वजह से डांट दिया?’ घर आ कर भी मैं देर तक यह सोचती रही.

एक शाम भैया को

घर में प्रवेश करते

देखा तो कह दिया, ‘‘मेरे साथ निशा के घर चलो भैया, आज वह बहुत उदास थी. पता नहीं उसे क्या हो गया है.’’

‘‘तुम गौर से सुन लो, आइंदा उस से कभी मत मिलना. वह अच्छे चरित्र की लड़की नहीं है.’’

‘‘भैया,’’ मैं चीख उठी.

‘‘तुम उस के बहुत गुणगान करती थीं. अपने बाप के बिना वह कहीं जाती नहीं. अरे, दस बार तो मैं उसे एक लड़के के साथ देख चुका हूं.’’

‘‘लेकिन,’’ मैं भाई के कथन पर अवाक रह गई. फिर सोचते हुए पूछा, ‘‘आप ने निशा को कब देखा? जानते भी हो उसे?’’

‘‘जब से घर में उस के गुण गा रही हो, तभी से उसे देख रहा हूं.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं कालेज के बाहर. जब वह अपने घर जाती है, तब.’’

‘‘क्यों देखते रहे उसे?’’

‘‘झक मारता रहा, बस. और क्या कहूं,’’ भैया पैर पटक कर भीतर चले गए.

घर में मां और पिताजी नहीं थे, इसीलिए तमतमाई सी पीछे जा पहुंची, ‘‘आप सड़कछाप लड़कों की तरह उस का पीछा करते रहे? क्या आप अच्छे चरित्र के मालिक हैं? वाह भैया, वाह.’’

‘‘तुम ने ही कहा था न कि वह जहां जाती है, अपने पिता के साथ जाती है. यहां तक कि यहां तुम्हारे साथ भी नहीं आई.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था, लेकिन यह तो नहीं कहा था कि…लेकिन आप इतने गंभीर क्यों हो रहे हैं? क्या वह किसी के साथ आजा नहीं सकती. भैया, आखिर उसे चरित्रहीन कहने का आप को क्या हक है?’’

‘‘हक क्यों नहीं है. मैं…मैं उसे पसंद करने लगा था. वह मुझे भी उतनी ही अच्छी लगती रही है, जितनी कि तुम्हें. पिछले कई हफ्तों से मैं उस पर नजर रख रहा हूं. वह लड़का उस के घर उस से मिलने भी जाता है. मैं ने कई जगह दोनों को देखा है.’’

पहली बार लगा, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. अगर उस का किसी के साथ प्रेम है भी, तो मुझे बताया क्यों नहीं.

मैं ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘भैया, अपने शब्द वापस लो. प्रेम करने और चरित्रहीन होने में जमीनआसमान का अंतर है. वह चरित्रहीन नहीं है.’’

‘‘कैसे नहीं है? तुम ने कहा था न.’’

‘‘मेरी बात छोड़ो. मैं तो यह भी कह रही हूं कि वह अच्छी लड़की है. मात्र मेरी बातों का सहारा मत लो. अपनी जलन को कीचड़ बना कर उस के चरित्र पर मत उछालो.’’

इतना सुनते ही भैया खामोश हो गए.

मैं निशा को ले कर बराबर विचलित रही. 2-3 दिन बीत गए, पर वह कालेज नहीं आई. मैं ने बहुत चाहा कि उस के घर जा कर उस युवक के विषय में पूछूं, पर हिम्मत ही न हुई.

?एक रात फोन की घंटी घनघना उठी.

?फोन निशा का था और वह अस्पताल से बोल रही थी. उस के पिता को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा था. भैया मेरे साथ उसी समय अस्पताल गए.

निशा के पिता आपातकक्ष में थे. हम उन्हें देखने भीतर नहीं जा सकते थे. मुझे देखते ही वह जोरजोर से रोने लगी. उन के पड़ोसी प्रोफैसर सुदीप चुपचाप पास खड़े थे.

दूसरे दिन सुबह भैया ने कहा था कि मैं निशा को अपने साथ घर ले जाऊं. पर वह हड़बड़ा गई, ‘‘नहीं गीता, मैं पिताजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

निशा के मना करने पर भैया ऊंची आवाज में बोले, ‘‘यहां बैठ कर रोनेधोने से क्या वे जल्दी अच्छे हो जाएंगे? जाओ, घर जा कर कुछ खापी लो. मैं यहीं हूं. पिताजी से कह देना, आज छुट्टी ले लें. जाओ, तुम दोनों घर चली जाओ.’’

वह मेरे साथ घर आईर् तो पिताजी ने कहा, ‘‘घबराना नहीं बेटी, यह मत सोचना कि तुम इस शहर में अकेली हो. हम हैं न तुम्हारे…’’

मेरे मन में बारबार प्रश्न उठता रहा कि आखिर इस संकट की घड़ी में निशा का वह मित्र कहां गायब हो गया? क्या वह मात्र सुख का साथी था?

निशा ने नहा कर मेरी गुलाबी साड़ी पहन ली. मेरा मन भर आया कि काश, निशा मेरी भाभी बन पाती.

मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? मुझे भैया की आंखों में बसी पीड़ा याद आने लगी.

बरामदे से मां का बिस्तर साफ दिख रहा था. सर्दी में निशा सिकुड़ी सी सोई थी. भीतर जा कर मैं ने उस के ऊपर लिहाफ ओढ़ा दिया.

नहा कर और नाश्ता कर के मैं भी अपने कमरे में जा लेटी. भैया अभी तक घर नहीं लौटे थे. थोड़ी देर बार मेरी पलकें मुंदने लगीं. परंतु शीघ्र ही ऐसा लगा, जैसे कोई मुझे पुकार रहा है, ‘गीता…गीता…उठो न.’’

सहसा मेरी नींद खुल गई. लेकिन मेरी हड़बड़ाहट की सीमा न रही. वास्तव में जो सामने था, वह अविश्वसनीय था. सामने द्वार पर भैया पगलाए से खड़े थे और मेरी पीठ के पीछे निशा छिपने का प्रयास कर रही थी. फिर किसी तरह बोली, ‘‘मेरे पैर पकड़ रहे हैं तुम्हारे भैया. कहते हैं, वे मेरे दोषी हैं. पर मैं ने तो इन्हें पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘गीता, मुझ से घोर ‘पाप’ हो गया. मुझे माफ कर दो, गीता,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.

सहमी सी निशा कभी मुझे और कभी उन्हें देख रही थी. उस ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो इस तरह क्षमायाचना…मेरे पिताजी को कुछ हो तो नहीं गया?’’

Raksha Bandhan 2022: स्लीपिंग पार्टनर- मनु की नजरों में अनुपम भैया

पूर्व कथा

मनु को एक दिन पत्र मिलता है जिसे देख कर वह चौंक जाती है कि उस की भाभी यानी अनुपम भैया की पत्नी नहीं रहीं. वह भैया, जो उसे बचपन में ‘डोर कीपर’ कह कर चिढ़ाया करते थे.

पत्र पढ़ते ही मनु अतीत के गलियारे में भटकती हुई पुराने घर में जा पहुंचती है, जहां उस का बचपन बीता था, लेकिन पति दिवाकर की आवाज सुन कर वह वर्तमान में लौट आती है. वह अनुपम भैया के पत्र के बारे में दिवाकर को बताती है और फिर अतीत में खो जाती है कि उस की मौसी अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ दिन सपरिवार रहने आ रही हैं. और सारा इंतजाम उन्हें करने को कहती हैं.

आखिर वह दिन भी आ जाता है जब मौसी आ जाती हैं. घर में आते ही वह पूरे घर का निरीक्षण करना शुरू कर देती हैं और पूरे घर की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लेती हैं. पूरे घर में उन का हुक्म चलता है.

बातबात पर वह अपनी बहू रजनी (अनुपम भैया की पत्नी) को अपमानित करती हैं, जबकि वह दिनरात घर वालों की सेवा में हाजिर रहती है और मौसी का पक्ष लेती है. एक दिन अचानक बड़ी मौसी, रजनी को मनु की मां के साथ खाना खाने पर डांटना शुरू कर देती है तो रजनी खाना छोड़ कर चली जाती है. फिर मनु की मां भी नहीं खाती. मौसी, मां से खाना न खाने का कारण पूछती है,

और अब आगे…

मां की आवाज भर्रा गई थी, ‘दीदी, मेरी रसोई से कोई रो कर थाली छोड़ कर उठ जाए, तो मेरे गले से कौर कैसे उतरेगा?’

‘पागल है तू भी, उस की क्या फिक्र करनी, वह तो यों ही फूहड़ मेरे पल्ले पड़ी है, मैं ही जानती हूं कि कैसे इसे निभा रही हूं.’

शादी के दिन पास आते जा रहे थे. मां ने मुझे सब के कपड़े एक अटैची में रखने को कहा तो मैं बक्सों की कोठरी में कपड़े छांटने के लिए बैठ गई. कोठरी से लगा हुआ बड़ा कमरा था. अनजाने ही मेरे कानों में फुसफुसाहट के स्वर आने लगे.

प्रमिला दीदी का दांत पीसते हुए स्वर सुनाई पड़ा, ‘बड़ी भली बनने की कोशिश कर रही हो न? सब जानती हूं मैं, मौसी तो गुस्से से आग हो रही थीं, क्यों सब के सामने बेचारी बनने का नाटक करती हो, क्या चाहती हो, सब के सामने हमारी बदनामी हो? खुश हो जाओगी न तब? जबान खोली तो खींच लूंगी.’

मुझे लगा कि वहां काफी लोग खडे़ हैं, जो इस बात से अनजान हैं कि मैं वहां हूं, थोड़ा झांक कर देखने की कोशिश की तो अनुपम भैया भी वहीं खडे़ थे. एक के बाद एक आश्चर्य के द्वार मेरे सामने खुल रहे थे कि किसी घर के लोग अपनी बहू का इतना अपमान कर सकते हैं और वहीं खड़ा हुआ उस का पति इस अपमान का साक्षी बना हुआ है. छि:, घृणा से मेरा तनबदन जलने लगा पर मैं वहां से उठ कर बाहर आने का साहस नहीं जुटा सकी और घृणा, क्रोध, आक्रोश की बरसात उस एक अकेली जान पर न जाने कब तक चलती रहती अगर तभी निर्मला दीदी न आ गई होतीं.

‘क्या हो गया है तुम सब को? वहां मेरे सासससुर ने अगर इस झगडे़ की जरा सी भी भनक पा ली तो मेरा ससुराल में जीना मुश्किल हो जाएगा. इन्हें पहले से ही समझाबुझा कर लाना चाहिए था मां, अब तमाशा करने से क्या फायदा?’

सब चुपचाप कमरे से चले गए थे. यह सोच कर मैं अंदर के कमरे से बाहर निकल आई, पर रजनी भाभी वहां अभी भी आंसू बहाती बैठी हैं, यह मुझे पता नहीं था. अचानक मुझे देख कर वह चौंक उठीं. कोई एक जब उन के इतने अपमान का साक्षी बन गया, यह उन की सोच से बाहर की बात थी. ‘आप? आप कहां थीं दीदी.’

पर मेरा सवाल दूसरा था, ‘क्यों सहती हैं आप इतना?’

‘क्या?  सहना कैसा? मैं तो हूं ही इतनी बेककूफ, क्या करूं? मुझ से अपने बच्चे तक नहीं संभलते. अम्मांजी जैसी होशियार तो बहुत कम औरतें होती हैं, पर छोडि़ए, यह सब तो चलता ही रहता है, कह कर वह बाहर निकल गईं.

आज की घटना ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया था. बारबार मन में यह सवाल उठ रहा था, छि:, इतने बडे़ शहर के लोग, और इतनी संकीर्ण सोच?

सब से ज्यादा खीज मुझे अनुपम भैया पर आ रही थी, उन का स्वभाव घर के सब सदस्यों से अलग था. कभी वह रसोई में व्यस्त मां को बाहर बैठा कर गप्पें मारने लगते. मेरी तो हरपल की उन्हें खबर रहती. अचानक ही कहीं से आ कर मेरे सिर पर स्नेह से हाथ रख देते, ‘चाय पिएगी? या खाना नहीं खाया अभी तक, चल साथसाथ खाएंगे.’

मेरा ही मन अनुपम भैया से ज्यादा बात करने को नहीं होता. यही लगता कि जो आदमी दूसरों से अपनी पत्नी को अपमानित होते हुए देखता रह सकता है वह कैसे एक अच्छा इनसान हो सकता है. पर वह सचमुच एक अच्छे इनसान थे, जो व्यस्त रहने के बावजूद समय निकाल कर अपने उपेक्षित पिता से भी कुछ बातें कर लेते, होने वाले प्रबंध के बारे में भी उन्हें जानकारी दे देते थे.

घर का आर्थिक ढांचा पूरी तरह चरमरा रहा था. मां किसी हद तक खुद को ही दोषी मान रही थीं पर वह अपनी कृष्णा बहन से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थीं. जिंदगी में संघर्षों को झेलते हुए मौसी इतनी कठोर हो गई थीं कि मां की भावुकता और संवेदनशीलता को वह बेकार की सोच समझती थीं.

शादी के स्थान और बाकी सबकुछ का प्रबंध बाबूजी से उन के बेटों ने समझ लिया था और पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. अब यहां पर बाबूजी एक महत्त्वहीन मेहमान बन कर रह गए थे. मां को तो यहां आ कर भी रसोई से मुक्ति नहीं मिली थी और हम भाईबहन अपने में ही व्यस्त रहने लगे थे.

बहुत हिम्मत कर के एक दिन मैं ने अनुपम भैया को तब पकड़ लिया जब वह अपनी छिपी हुई बिटिया को ढूंढ़ते हुए हमारे कमरे में आ गए थे. मुझे देख कर खुश हो गए और बोले, ‘अब प्रमिला की शादी से छुट्टी पा कर तेरे लिए देखता हूं कोई अच्छा लड़का…’

‘मुझे नहीं करनी शादीवादी,’ गुस्से से भड़क उठी मैं.

चेहरे पर बेहद हैरानी का भाव आ गया, फिर नकली गंभीरता दिखाते हुए बोले, ‘हां, ठीक है…मत करना, वैसे भी तेरी जैसी लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ना होगा भी खासा मुश्किल काम.’

‘मुझ से फालतू बात मत कीजिए, मैं आप से कुछ गंभीर बात करना चाहती हूं, मुझे यह बताइए कि आप रजनी भाभी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?’ मैं जल्दीजल्दी उन से अपनी बात कह देना चाहती थी.

‘कैसा व्यवहार?’

‘मुझ से मत छिपाइए, क्यों, आप के सामने ही सब आप की पत्नी की इस तरह बेइज्जती करते हैं, क्या उन के लिए आप की कोई जिम्मेदारी नहीं है? मौसी तो खैर बड़ी हैं, उन का सम्मान करना आप का कर्तव्य है, पर आप से छोटे अजय भैया, सुधीर भैया और प्रमिला दीदी भी जब चाहें उन्हें डांटफटकार देती हैं. क्या वह कोई नौकरानी हैं?’ मेरा चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

वह कुछ देर तक मुझे गौर से देखते रहे, ‘लगता है, बड़ी हो गई है मेरी नन्ही- मुन्नी बहन.’

‘बात को टालिए मत…’ मैं ने बीच में ही बात काट कर कहा.

‘तेरी बात का क्या जवाब दूं, यही सोच रहा हूं. आज तक किसी ने उस के और मेरे मन की व्यथा को महसूस नहीं किया. धीरेधीरे उस व्यथा पर वक्त ने ऐसी चादर डाली कि अब कुछ महसूस ही नहीं होता. आज तू ने जो सवाल पूछा है, किसी दिन उस का उत्तर ढूंढ़ सका तो जरूर दूंगा, पर इतने सारे लोगों और घर के इतने सदस्यों के होते हुए भी वह अब सुरक्षित है, तू कुछ कर सके या नहीं पर उस की तकलीफ को समझेगी यही उस के लिए बहुत बड़ी बात होगी. बस, किसी तरह उसे यह बात समझा देनी होगी…’

बाहर भैया के नाम की आवाजें लगने लगी थीं, सो वह बात को बीच में ही छोड़ कर चले गए थे…

शादी ठीकठाक तरह से बीत गई थी.

प्रमिला दीदी विदा हो कर चली गईं. उस के बाद तो जैसे जाने वालों का तांता ही लग गया. धीरेधीरे कर के सभी लोग चले गए. किसी तरह की कृतज्ञता  की उम्मीद तो उन की ओर से किसी ने की भी नहीं थी पर जातेजाते भी बाबूजी पर सब आरोप लगा ही गए. कुछ दिन तो लग गए घर के ढांचे को ठीक करने में, फिर सबकुछ स्वाभाविक गति से चलने लगा.

फिर एक दिन एक बड़ा सा लिफाफा आया, वह भी मेरे नाम. आज के दौर की लड़कियां मेरी स्थिति का अनुभव नहीं लगा सकेंगी कि संयुक्त परिवार में किसी कुंआरी लड़की के नाम का लिफाफा आना कितने आश्चर्य की बात होती है. गनीमत यह रही कि वह लिफाफा मां के हाथ लगा. नीचे का पता देख कर मां खुश हो गईं, ‘अरे, यह तो अनुपम का पत्र है पर उस ने तुझे क्यों पत्र लिखा है?’

‘जब तक मैं खोल कर पढ़ूंगी नहीं तो कैसे बता सकती हूं कि उन्होंने मुझे पत्र क्यों लिखा है.’

मेरे हाथ में लिफाफा दे कर मां अपने घरेलू कामों में व्यस्त हो गईं.

मैं भी अपनी किताब बंद कर के लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी.

‘मनु,

ताज्जुब होगा, मेरा पत्र देख कर, पर मेरी बहन, इतने दिनों बाद बहुत सोच कर तुझे लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूं. तेरा सवाल मुझे वहां उस व्यस्तता  में भी मथता रहा और यहां आ कर भी. उसे मन से निकाल नहीं पाया हूं. अपने इस अपराधबोध से उबरना चाहता हूं पर तुझे भी विश्वास दिलाना होगा कि मेरे मन के गुबार को किसी और तक नहीं पहुंचने देगी क्योंकि कैसी भी है वह मेरी मां हैं और मौसी मेरी मां की बहन है, जो अपनी बहन के खिलाफ कुछ भी सहन नहीं कर पाएंगी. हां, तुझे मैं वह सब बताना चाहता हूं जो आजतक मैं किसी से भी नहीं कह पाया.

अपनी मां से तू ने मेरी मां के बारे में कितना कुछ सुना है, मैं नहीं जानता पर मैं और मेरे दूसरे सभी भाईबहन उन के अंधभक्त हैं. हम सभी मां के कहे हुए कटु वचनों को भी अमृत की तरह ग्रहण करते हैं. बहुत संघर्षों और कठिनाइयों के बीच मां ने अपने परिवार को संभाला है. बाबूजी ने आर्थिक रूप से कभी कोई सहायता नहीं की इसलिए उन पर मां के आक्रोश का अंत नहीं था. घर की गरीबी का जिम्मेदार मां बाबूजी को ही मानती थीं और उन्हें नकारा, बेगैरत जैसे शब्दों से हर दम चोट पहुंचातीं, जिसे गुजरते समय के साथ बाबूजी ने ओढ़ लिया था.

बचपन से मां को कठिनाइयां झेलते देख कर ही मैं बड़ा हुआ सो मन में एक उत्साह था कि किसी लायक हुआ तो मां के साथ ही इस आर्थिक भार को अपने कंधों पर ले लूंगा. बड़ा हूं, यही मेरा कर्तव्य है, पर मेरे उत्साह पर मां ने तब पानी फेर दिया जब 10वीं करते ही भागदौड़ कर के अपनी पहुंच का पूरा इस्तेमाल कर उन्होंने मुझे एक दफ्तर में क्लर्क की नौकरी दिलवा दी.

कच्ची उम्र में इतने बड़े बोझे को संभालना मेरे लिए तो खासा मुश्किल था पर मैं ने महसूस किया कि मां किसी को भी मेरी सहायता का काम करने को कोई खास महत्त्व नहीं देना चाहती थीं. कभी कोई पड़ोसिन कहती कि अरी, काहे की चिंता करती है, अब तो तेरा बेटा कमाऊ हो गया तो झल्ला कर मां कहतीं कि तो मुझे कौन से सोने के कौर खिलाएगा, अब तक हाड़ तोड़ कर इन सब का पेट पालती आई हूं, अब भी कर लूंगी.

मैं समझ गया था कि मां अब तक अपनी आत्मप्रशंसा की इतनी आदी हो गई थीं कि अपने बेटे की प्रशंसा से उन्हें ईर्ष्या होने लगी थी. इसीलिए उन्होंने मेरा विवाह ठेठ ग्रामीण लड़की से किया ताकि कभी भी वह सिर उठा कर उन के सामने बोल न सके. अपनी सत्ता के प्रति उन की सतर्कता देख सकने में समर्थ होते हुए भी मैं उन का विरोध नहीं कर सका.

शुरू से ही उस के फूहड़पन, बेवकूफी की बातों को ले कर मां के साथ छोटे भाईबहन भी व्यंग्यपूर्वक हंसते, मजाक उड़ाते और बेवजह उस को अपमानित कर के नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते.

मनु, मुझे शायद शुरू से ही इतना दबा कर रखा गया था कि मैं दब्बू प्रवृत्ति का हो गया. स्वभाव में किसी प्रकार की तेजी या अपने अस्तित्व का आभास मुझे था ही नहीं, फिर भी मैं ने एकआध बार अपने छोटे भाईबहनों को समझाने की कोशिश की थी पर उस का नतीजा जान कर तू चकित रह जाएगी.

मां ने सभी के सामने मुझे अपने ही छोटे भाईबहनों से माफी मांगने को मजबूर किया था, वरना वह खाने को हाथ नहीं लगाएंगी. मां खाना नहीं खाएंगी, यह बात मुझे मंजूर नहीं थी, मुश्किल से तो कोशिश की थी अपनी केंचुल से बाहर निकलने की, पर जल्दी ही फिर उसी केंचुल में घुस गया.

जिंदगी फिर उसी ढर्र्रे पर चल निकली. रजनी भी इस अपमान की आदी हो गई. मेरी विवशता को वह शायद समझ गई थी. आज घर में मेरे सभी भाईबहन अच्छे पदों पर हैं और मां इस का सारा के्रडिट गर्व से खुद ले लेती हैं. वह भूल जाती हैं कि एक कम उम्र लड़के ने भी उन के कंधे का जुआ उठाने में उन की मदद की थी या उस लड़की को जिस के योगदान का एहसास किसी को नहीं है.

एक शब्द है मनु ‘स्लीपिंग पार्टनर’ यानी वह साझीदार जिस कोएहसास ही न हो कि इस तरक्की में उस का भी कोई योगदान है और न जानने वाले जान सके कि उन्होंने उस का कितना फायदा उठाया है. सो रानी बहन, ऐसी ही है तेरी भाभी, एक ‘स्लीपिंग पार्टनर.’

तेरा भाई, अनुपम.’

मनु ने कितनी बार वह पत्र पढ़ा पर अंत तक वह यह नहीं समझ पाई कि किसे दोषी माने, अपनी मौसी को, जो किसी रूप में भी मौसी जैसी स्नेहमयी नहीं लगती थीं. अपनी ही अनुशंसा से अभिभूत वह किसी को भी अपनी सत्ता के आसपास नहीं फटकने देती थीं, जिस से भी उन्हें यह भय हुआ उसी को अपनी कूटनीति द्वारा सब की निगाहों में नकारा साबित करने में एक पल भी देर नहीं लगाई, चाहे वह उन के पति रहे हों या उन्हीं की संतान या बहू. बच्चों की मातृभक्ति का भी दुरुपयोग किया उन्होंने.

दूसरे अभियोगी खुद अनुपमभैया हैं, जो पराए घर से लाई हुई लड़की को उस का उचित मानसम्मान नहीं दिला सके, मां की छत्रछाया में एक दब्बू, डरपोक मातृभक्त पुत्र बन सके, पर एक अच्छे पति नहीं बने.

तीसरी अभियोगी तो स्वयं भाभी ही थीं, जिन्होंने बारबार अपने पर लगने वाले आरोपों को सिरमाथे लगाया कि खुद को फूहड़, नकारा समझने लगीं. उन के मन में ये बातें इतने गहरे तक बैठ गईं कि उन्हें बारबार उन के अस्तित्व के प्रति सचेत कराना नामुमकिन ही था और यही सब सोचतेसोचते मैं ने पत्र रख दिया था.

इनसान चाहे कितना कुछ भूल जाए, पर वक्त अपनी चाल चलना नहीं भूलता. कितना पानी गुजर गया पुल के नीचे से. अब मैं खुद भी एक विवाहिता और बालबच्चों वाली औरत हूं. घर परिवार में हर पल व्यस्त रहते मैं रजनी भाभी के अस्तित्व को भी भूल गई थी.

आज इस पत्र ने कितनी बीती बातों को आंखों के सामने चलचित्र की भांति ला खड़ा किया और सचमुच ही उन रजनी भाभी के लिए मेरी आंखों में आंसू उमड़ पडे़.

विदा भाभी अलविदा, तुम्हें मेरी श्रद्धांजलि स्वीकार हो.

Rakhsha Bandhan 2022: ज्योति- भाग 2

‘‘हमें सुबह का नाश्ता और रात का खाना चाहिए. दिन में हम लोग औफिस में होते हैं, तो बाहर ही खा लेते हैं,’’ सुमित ने उस का ध्यान खींचा.

मनीष भी सुमित के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘कितने लोगों का खाना बनेगा?’’ औरत ने सुमित से पूछा.

‘‘कुल मिला कर 3 लोगों का, हमारा एक और दोस्त है, वह अभी घर पर नहीं है.’’

औरत ने सुमित को महीने की पगार बताई और साथ ही, यह भी कि वह एक पैसा भी कम नहीं लेगी.

दोनों दोस्तों ने सवालिया निगाहों से एकदूसरे की तरफ देखा. पगार थोड़ी ज्यादा थी, मगर और चारा भी क्या था. ‘‘हमें मंजूर है,’’ सुमित ने कहा. आखिरकार खाने की परेशानी तो हल हो जाएगी.

‘‘ठीक है, मैं कल से आ जाऊंगी,’’ कहते हुए वह जाने के लिए उठी.

‘‘आप ने नाम नहीं बताया?’’ सुमित ने उसे पीछे से आवाज दी.

‘‘मेरा नाम ज्योति है,’’ कुछ सकुचा कर उस औरत ने अपना नाम बताया और चली गई.

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही ज्योति आ गई थी. रसोई में जो कुछ भी पड़ा था, उस से उस ने नाश्ता तैयार कर दिया.

आज कई दिनों बाद सुमित और मनीष ने गरम नाश्ता खाया तो उन्हें मजा आ गया. रोहन अभी तक सो रहा था, तो उस का नाश्ता ज्योति ने ढक कर रख दिया था.

‘‘भैयाजी, राशन की कुछ चीजें लानी पड़ेंगी. शाम का खाना कैसे बनेगा? रसोई में कुछ भी नहीं है,’’ ज्योति दुपट्टे से हाथ पोंछते हुए सुमित से बोली.

सुमित ने एक कागज पर वे सारी चीजें लिख लीं जो ज्योति ने बताई थीं. शाम को औफिस से लौटता हुआ वह ले आएगा.

रोहन को अब तक इस सब के बारे में कुछ नहीं पता था. उसे जब पता चला तो उस ने अपने हिस्से के पैसे देने से साफ इनकार कर दिया. ‘‘बहुत ज्यादा पगार मांग रही है वह, इस से कम पैसों में तो हम आराम से बाहर खाना खा सकते हैं.’’

‘‘रोहन, तुम को पता है कि बाहर का खाना खाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है. कुछ पैसे ज्यादा देने भी पड़ रहे तो क्या हुआ, सुविधा भी तो हमें ही होगी.’’

‘‘हां, सुमित ठीक कह रहा है. घर के बने खाने की बात ही कुछ और है,’’ सुबह के नाश्ते का स्वाद अभी तक मनीष की जबान पर था.

लेकिन रोहन पर इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा. वह जिद पर अड़ा रहा कि वह अपने हिस्से के पैसे नहीं देगा और अपने खाने का इंतजाम खुद कर कर लेगा.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी’’, सुमित बोला, उसे पता था रोहन अपने मन की करता है.

थोड़े ही दिनों में ज्योति ने रसोई की बागडोर संभाल ली थी. ज्योति के हाथों के बने खाने में सुमित को मां के हाथों का स्वाद महसूस होता था.

ज्योति भी उन की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखती. अपने परिवार से दूर रह रहे इन लड़कों पर उसे एक तरह से ममता हो आती. अन्नपूर्णा की तरह अपने हाथों के जादू से उस ने रसोई की काया ही पलट दी थी.

कई बार औफिस की भागदौड़ से सुमित को फुरसत नहीं मिल पाती तो वह अकसर ज्योति को ही सब्जी वगैरह लाने के पैसे दे देता.

जिन घरों में वह काम करती थी, उन में से अधिकांश घरों की मालकिनें अव्वल दर्जे की कंजूस और शक्की थीं. नापतौल कर हरेक चीज का हिसाब रख कर उसे खाना पकाना होता था. सुमित या मनीष ज्योति से कभी, किसी चीज का हिसाब नहीं पूछते थे. इस बात से उस के दिल में इन लड़कों के लिए एक स्नेह का भाव आ गया था.

अपनी हलकी बीमारी में भी वह उन के लिए खाना पकाने चली आती.

एक शाम औफिस से लौटते वक्त रास्ते में सुमित की बाइक खराब हो गई. किसी तरह घसीटते हुए उस ने बाइक को मोटर गैराज तक पहुंचाया.

‘‘क्या हुआ? फिर से खराब हो गई?,’’ गैराज में काम करने वाला नौजवान शकील ग्रीस से सने हाथ अपनी शर्ट से पोंछता हुआ सुमित के पास आया.

‘‘यार, सुरेश कहां है? यह तो उस के हाथ से ही ठीक होती है, सुरेश को बुलाओ.’’

जब भी उस की बाइक धोखा दे जाती, वह गैराज के सीनियर मेकैनिक सुरेश के ही पास आता और उस के अनुभवी हाथ लगते ही बाइक दुरुस्त चलने लगती.

शकील सुरेश को बुलाने के लिए गैराज के अंदर बने छोटे से केबिन में चला गया. थोड़ी ही देर में मध्यम कदकाठी के हंसमुख चेहरे वाला सुरेश बाहर आया. ‘‘माफ कीजिए सुमित बाबू, हम जरा अपने लिए दोपहर का खाना बना रहे थे.’’

‘‘आप अपना खाना यहां गैराज में बनाते हैं? परिवार से दूर रहते हैं क्या?’’ सुमित ने हैरानी से पूछा. इस गैराज में वह कई सालों से काम कर रहा था. अपने बरसों के अनुभव और कुशलता से आज वह इस गैराज का सीनियर मेकैनिक था. ऐसी कोई गाड़ी नहीं थी जिस का मर्ज उसे न पता हो, इसलिए हर ग्राहक उसे जानता था.

‘‘अब क्या बताएं, 2 साल पहले घरवाली कैंसर की बीमारी से चल बसी. तब से यह गैराज ही हमारा घर है. कोई बालबच्चा हुआ नहीं, तो परिवार के नाम पर हम अकेले हैं. बस, कट रही है किसी तरह. लाइए, देखूं क्या माजरा है?’’

‘‘सुरेश, पिछली बार आप नहीं थे तो राजू ने कुछ पार्ट्स बदल कर बाइक ठीक कर दी थी. अब तो तुम्हें ही अपने हाथों का कमाल दिखाना पड़ेगा,’’ सुमित बोला.

सुरेश ने दाएंबाएं सब चैक किया, इंजन, कार्बोरेटर सब खंगाल डाला. चाबी घुमा कर बाइक स्टार्ट की तो घरर्रर्र की आवाज के साथ बाइक चालू हो गई.

‘‘देखो भाई, ऐसा है सुमित बाबू, अब इस को तो बेच ही डालो. कई बरस चल चुकी है. अब कितना खींचोगे? अभी कुछ पार्ट्स भी बदलने पड़ेंगे. उस में जितना पैसा खर्च करोगे उस से तो अच्छा है नई गाड़ी ले लो.’’

‘‘तुम ही कोई अच्छी सी सैकंडहैंड दिला दो,’’ सुमित बोला.

‘‘अरे यार, पुरानी से अच्छा है नईर् ले लो,’’ सुरेश हंसते हुए बोला.

‘‘बात तो तुम्हारी सही है, मगर थोड़ा बजट का चक्कर है.’’

‘‘हूं,’’ सुरेश कुछ सोचने की मुद्रा में बोला, ‘‘कोई बात नहीं, बजट की चिंता मत करो. मेरा चचेरा भाई एक डीलर के पास काम करता है. उस को बोल कर कुछ डिस्काउंट दिलवा सकता हूं, अगर आप कहो तो.’’

सुमित खिल गया, कब से सोच रहा था नई बाइक लेने के लिए. कुछ डिस्काउंट के साथ नई बाइक मिल जाए, इस से बढि़या क्या हो सकता था. उस ने सुरेश का धन्यवाद किया और नई बाइक लेने का मन बना लिया.

‘‘ठीक है सुरेश, मैं अगले ही महीने ले लूंगा नई गाड़ी. बस, आप जरा डिस्काउंट अच्छा दिलवा देना.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो सुमित बाबू, निश्ंिचत रहो.’’

लगभग 45 वर्ष का सुरेश नेकदिल इंसान था. सुमित ने उसे सदा हंसतेमुसकराते ही देखा था. मगर वह अपनी जिंदगी में एकदम अकेला है, इस बात का इल्म उसे आज ही हुआ.

इधर कुछ दिनों से रोहन बहुत परेशान था. औफिस में उस के साथ हो रहे भेदभाव ने उस की नींद उड़ा रखी थी. रोहन के वरिष्ठ मैनेजर ने रोहन के पद पर अपने किसी रिश्तेदार को रख लिया था और रोहन को दूसरा काम दे दिया गया जिस का न तो उसे खास अनुभव था न ही उस का मन उस काम में लग रहा था. अपने साथ हुई इस नाइंसाफी की शिकायत उस ने बड़े अधिकारियों से की, लेकिन उस की बातों को अनसुना कर दिया गया. नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उस की शिकायतें दब कर रह गई थीं. आखिरकार, तंग आ कर उस ने नौकरी छोड़ दी.

Rakhsha Bandhan 2022: ज्योति- भाग 3

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

Raksha Bandhan Special: कड़वा फल- क्या अपनी बहन के भविष्य को संवार पाया रवि?

अपने मम्मी पापा की शादी की 10वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हुई भव्य पार्टी की यादें आज भी मेरे दिलोदिमाग में तरोताजा हैं. वह पार्टी लंबे समय तक हमारे परिचितों के बीच चर्चा का विषय बनी रही थी.

पार्टी क्लब में हुई थी. करीब 500 मेहमानों की आवभगत वरदीधारी वेटरों की पूरी फौज ने की थी. अपनीअपनी रुचि के अनुरूप मेहमानों ने जम कर खाया, और देर रात तक डांस करते रहे. इतने सारे गिफ्ट आए कि पापा को उन्हें कारों से घर पहुंचाने के लिए अपने 2 दोस्तों की सहायता लेनी पड़ी.

मेरे लिए वे बेहद खुशी भरे दिन थे. हम ने एक बड़े घर में कुछ महीने पहले शिफ्ट किया था. मेरी छोटी बहन शिखा और मुझे अपना अलग कमरा मिला. मम्मी ने उसे बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया था.

अपने नए दोस्तों के बीच मेरी धाक शुरू से ही जम गई. मेरी साइकिल हो या जूते, कपड़े हों या स्कूल बैग, हर चीज सब से ज्यादा कीमती और सुंदर होती.

‘‘मेरे मम्मी पापा दोनों सर्विस करते हैं और मेरी हर इच्छा को फौरन पूरा करना उन्हें अच्छा लगता है. तुम सब मुझ से जलो मत. मैं बहुत खुशहाल हूं,’’ अपने दोस्तों के सामने ऐसी डींगें मारते हुए मेरी छाती गर्व से फूल जाती.

अपने दोस्तों की ईर्ष्याभरी प्रतिक्रियाएं मैं मम्मी पापा को बताता तो वे दोनों खूब हंसते.

‘‘मेरे बच्चों को सुख सुविधा की हर चीज मिलेगी और वह भी ‘बैस्ट क्वालिटी’ की,’’ ऐसा आश्वासन पापा से बारबार पा कर मेरा चेहरा फूल सा खिल जाता.

‘‘रवि बेटे, हमारे ठाटबाट देख कर हम से जलने वालों में तुम्हारे दोस्त ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार और पड़ोसी भी शामिल हैं. इन की बातों पर कभी ध्यान मत देना. कुत्तों के भूंकने से हाथी अपनी मस्त चाल नहीं बदलता है,’’

मां के मुंह से अकसर निकलने वाला आखिरी वाक्य अपने ईर्ष्यालु दोस्तों को सुनाने का मैं कोई अवसर नहीं चूकता.

मम्मी पापा दोनों अच्छी पगार जरूर लेते, पर फिर भी उन की मासिक आय थी तो सीमित ही. घर के खर्चों में कटौती वे करते नहीं थे. बाजार में सुखसुविधा की आई कोई भी नई चीज हमारे घर अधिकतर पड़ोसियों के यहां आने से पहले आती. हर दूसरेतीसरे दिन बाहर होटल में खाना खाने का चाव हम सभी को था. महंगे स्कूल की फीस, कार के पैट्रोल का खर्चा, सब के नए कपड़े, मम्मी की महंगी प्रसाधन सामग्री इत्यादि नियमित खर्चों के चलते आर्थिक तंगी के दौर से भी अकसर हमें गुजरना पड़ता.

मम्मीपापा के बीच तनातनी का माहौल मैं ने सिर्फ ऐसे ही दिनों में देखा. अधिकतर तो वे हम भाईबहन के सामने झगड़ने से बचते, पर फिर भी एकदूसरे पर फुजूलखर्ची का आरोप लगा कर आपस में कड़वे, तीखे शब्दों का प्रयोग करते मैं ने कई बार उन्हें देखासुना था.

‘‘मम्मीपापा, मैं बड़ा हो कर डाक्टर बनूंगा. अपना नर्सिंगहोम बनाऊंगा. ढेर सारे रुपए कमा कर आप दोनों को दूंगा. तब हमें पैसों की कोई तंगी नहीं रहेगी. खूब दिल खोल कर खर्चा करना आप दोनों,’’ वे दोनों सदा ऐशोआराम की जिंदगी बसर करें, ऐसा भाव बचपन से ही मेरे दिल में बड़ी मजबूती से कायम रहा.

सब से छोटी बूआ की शादी पर पापा ने 21 हजार रुपए दिए, जबकि दादा दादी 50 हजार की आशा रखते थे. इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ.

‘‘मैं अपने किसी दोस्त से कर्जा ले कर 50 हजार रुपए ही दे देता हूं,’’ पापा की इस पेशकश का मम्मी ने सख्त विरोध किया.

‘‘पहली दोनों ननदों की शादियों में हम बहुत कुछ दे चुके हैं. क्या आप के दोनों छोटे भाई मिल कर यह एक शादी भी नहीं करा सकते? हमारा हाथ पहले ही तंग चल रहा है. ऊपर से कर्जा लेने की आप सोचो भी मत,’’ मम्मी को गुस्से में देख कर पापा ने चुप्पी साध ली थी.

मेरे दादा दादी, दोनों चाचाओं और तीनों बूआओं ने तब हम से सीधे मुंह बात करना ही बंद कर दिया. सारी शादी में हम बेगानों से घूमते रहे थे.

‘‘राजीव, देख ले, अपनी जिम्मेदारी ढंग से न निभा पाने के कारण कितनी बदनामी हुई है तेरी,’’ दादी ने बूआ की विदाई के बाद आंखों में आंसू भर कर पापा से कहा, ‘‘सब से अच्छी माली हालत होने के बावजूद बहन की शादी में तेरा सब से कम रुपए देना ठीक नहीं था.’’

‘‘मेरी सहूलियत होती तो मैं ज्यादा रुपए जरूर देता. जो मैं ने पहले किया उसे तुम सब भूल गए. जिस तरह से इस शादी में मुझे बेइज्जत किया गया है, उसे मैं भी कभी नहीं भूलूंगा,’’ पापा की आवाज में गुस्सा भी था और दुख भी.

‘‘पुरानी बातों को कोई नहीं याद रखता, बेटे. तुम दोनों इतना कमाने के बावजूद तंगी में फंस जाते हो, तो अपना जीने का ढर्रा बदलो. ऐसी शानोशौकत व तड़कभड़क का क्या फायदा, जो जरूरत के वक्त दूसरों का मुंह देखो या किसी के सामने हाथ फैलाओ,’’ दादी की इस नसीहत का बुरा मान पापा उन से जोर से लड़ पड़े थे.

उस शादी के बाद हमारा दादादादी, चाचा और बूआओं से मिलनाजुलना न के बराबर रह गया. मम्मीपापा के सहयोगी मित्रों के परिवारों से हमारे संबंध बहुत अच्छे थे. उन से क्लब में नियमित मुलाकात होती और एकदूसरे के घर में आनाजाना भी खूब होता.

कक्षा 8 तक मैं खुद पढ़ता रहा और खूब अच्छे नंबर लाता रहा. इस के बाद पापा ने ट्यूशन लगवा दी. विज्ञान और गणित की ट्यूशन फीस 1,500 रुपए मासिक थी.

‘‘रवि बेटा, पढ़ने में जीजान लगा दो. तुम्हारी पढ़ाई पर हम दिल खोल कर खर्चा करेंगे, मेहनत तुम करो. तुम्हें डाक्टर बनना ही है,’’ मेरे सपने की चर्चा करते हुए मम्मीपापा भावुक हो उठते.

मैं ने काफी मेहनत की भी थी, पर 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में मेरे सिर्फ  75% नंबर आए. पापामम्मी को इस कारण काफी निराशा हुई.

‘‘मेरी समझ से तुम ने यारीदोस्ती में ज्यादा वक्त बरबाद किया था, रवि. उन के साथ सजसंवर कर बाहर घूमने के बजाय तुम्हें पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए था. अगर अच्छा कैरियर बनाना है, तो आगामी 2-3 सालों के लिए सब शौक छोड़ कर सिर्फ पढ़ने में मन लगाओ,’’ पापा की कठोरता व रूखापन मुझे बहुत बुरा लगा था.

11वीं कक्षा में मैं ने साइंस के मैडिकल ग्रुप के विषय लिए. अंगरेजी को छोड़ कर मैं ने बाकी चारों विषयों की ट्यूशन पढ़ने को सब से बढि़या व महंगे कोचिंग संस्थान में प्रवेश लिया. वहां की तगड़ी फीस मम्मीपापा ने माथे पर एक भी शिकन डाले बिना कर्जा ले कर भर दी.

कड़ी मेहनत करने का संकल्प ले कर मैं पढ़ाई में जुट गया. दोस्तों से मिलना और बाहर घूमनाफिरना काफी कम कर दिया. क्लब जाना बंद कर दिया. बाहर घूमने जाने के नाम से मुझे चिढ़ होती.

‘‘मम्मीपापा, मैं जो नियमित रूप से पढ़ने का कार्यक्रम बनाता हूं, वह बाहर जाने के चक्कर में बिगड़ जाता है. आप दोनों मुझे अकेला छोड़ कर जाते हो, तो खाली घर में मुझ से पढ़ाई नहीं होती. मेरी खातिर आप दोनों घर में रहा करो, प्लीज,’’ एक शनिवार की शाम मैं ने उन से अपनी परेशानी भावुक अंदाज में कह दी.

‘‘रवि, पूरे 5 दिन दफ्तर में सिर खपा कर हम दोनों तनावग्रस्त हो जाते हैं. अगर शनिवारइतवार को भीक्लब नहीं गए, तो पागल हो जाएंगे हम. हां, बाकी और जगह जाना हम जरूर कम करेंगे,’’ उन के इस फैसले को सुन कर मैं उदास हो गया.

सुख देने व मनोरंजन करने वाली आदतों को बदलना और छोड़ना आसान नहीं होता. मम्मीपापा ने शुरू में कुछ कोशिश की, पर घूमनेफिरने की आदतें बदलने में दोनों ही नाकाम रहे.

उन्हें घर से बाहर घूमने जाने का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता. कभी बोरियत व तनाव दूर करने तो कभी खुशी का मौका होने के कारण वे बाहर निकल ही जाते.

मैं उन के साथ नहीं जाता, पर चिढ़ और कुढ़न के कारण मुझ से पीछे पढ़ाई भी नहीं होती. मन की शिकायतें उसे पढ़ाई में एकाग्र नहीं होने देतीं.

चढ़ाई मुश्किल होती है, ढलान पर लुढ़कना आसान. वे दोनों नहीं बदले, तो मेरा संकल्प कमजोर पड़ता गया. मैं ने भी धीरेधीरे उन के साथ हर जगह आनाजाना शुरू कर दिया.

इस कारण मुझे वक्तबेवक्त मम्मीपापा की डांट व लैक्चर सुनने को मिलते. उन की फटकार से बचने के लिए मैं उन के सामने किताब खोले रहता. वे समझते कि मैं कड़ी मेहनत कर रहा हूं, पर आधे से ज्यादा समय मेरा ध्यान पढ़ने में नहीं होता.

अपनी लापरवाही के परिणामस्वरूप मैं पढ़ाई में पिछड़ने लगा. टैस्टों में नंबर कम आने पर मम्मीपापा से खूब डांट पड़ी.

‘‘अपनी लापरवाही की वजह से कल को अगर तुम डाक्टर नहीं बन पाए, तो हमें दोष मत देना. अपना जीवन संवारने की जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी है, क्योंकि अब तुम बड़े हो गए हो,’’ मारे गुस्से के मम्मी का चेहरा लाल हो गया था.

यही वह समय था जब अपने मम्मीपापा के प्रति मेरे मन में शिकायत के भाव जनमे.

‘मेरे उज्ज्वल भविष्य की खातिर मम्मीपापा अपने शौक व आदतों को कुछ समय के लिए बदल क्यों नहीं रहे हैं? सुखसुविधाओं की वस्तुएं जुटा देने से ही क्या उन के कर्तव्य पूरे हो जाएंगे? मेरे मनोभावों को समझ मेरे साथ दोस्ताना व प्यार भरा वक्त गुजारने का महत्त्व उन्हें क्यों नहीं समझ आता?’ मन में उठते ऐसे सवालों के कारण मैं रातदिन परेशान रहने लगा.

तब तक क्रैडिट कार्ड का जमाना आ गया. यह सुविधा मम्मीपापा के लिए वरदान साबित हुई. जेब में रुपए न होने पर भी वे मौजमस्ती की जिंदगी जी सकते थे.

उन की दिनचर्या व उन के व्यवहार के कारण मेरे मन में नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती. उन से कुछ कहनासुनना बेकार जाता और घर में ख्वाहमख्वाह का तनाव अलग पैदा होता.

मैं सचमुच डाक्टर बनना चाहता था. मैं ने इस नकारात्मक ऊर्जा का उपयोग पढ़नेलिखने के लिए करना आरंभ किया. मम्मीपापा के साथ ढंग से बातें किए हुए कईकई दिन गुजर जाते. मन के रोष व शिकायतों को भुलाने के लिए मैं रात को देर तक पढ़ता. मुझे बहुत थक जाने पर ही नींद आती वरना तो मम्मीपापा के प्रति गलत ढंग के विचार मन में घूमते रह कर सोने न देते.

मेरी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान भी मम्मीपापा ने अपने घूमनेफिरने में खास कटौती नहीं की. वे मेरे पास होते भी, तो मुझे उन से खास सहारा या बल नहीं मिलता, क्योंकि मैं ने उन से अपने दिल की बातें कहना छोड़ दिया था.

बोर्ड की परीक्षाओं के बाद मैं ने कंपीटीशन की तैयारी शुरू की. अपनी आंतरिक बेचैनी को भुला कर मैं ने काफी मेहनत की.

बोर्ड की परीक्षा में मुझे 78% अंक प्राप्त हुए, लेकिन किसी भी सरकारी मैडिकल कालेज के लिए हुए कंपीटीशन की मैरिट लिस्ट में मेरा नाम नहीं आया.

मेरी निराशा रात को आंसू बन कर बहती. मम्मीपापा की निराशा कुछ दिनों के लिए उदासी के रूप में और बाद में कलेजा छलनी करने वाले वाक्यों के रूप में प्रकट हुई.

मेरा डाक्टर बनने का सपना अब प्राइवेट मैडिकल कालेज ही पूरा कर सकते थे. उन में प्रवेश पाने को डोनेशन व तगड़ी फीस की जरूरत थी. करीब 15-20 लाख रुपए से कम में डाक्टरी के कोर्स में प्रवेश लेना संभव न था.

हमारे रहनसहन का ऊंचा स्तर देख कर कोई भी यही अंदाजा लगाता कि मेरी उच्च शिक्षा पर 15-20 लाख रुपए खर्च करने की हैसियत मेरे मम्मीपापा जरूर रखते होंगे, पर यह सचाई नहीं थी. तभी मैं ने निराश और दुखी अंदाज में मम्मीपापा के सामने प्राइवेट मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो उन दोनों ने मेरे नकारापन के लिए मुझे खूब जलीकटी बातें सुनाईं. फिर गुस्सा शांत हो जाने के बाद उन्होंने जरूरत की राशि का इंतजाम करने के बारे में सोचविचार आरंभ किया. इस सिलसिले में पापा पहले अपने बैंक मैनेजर से मिले.

‘‘मिस्टर राजीव, मैं आप की सहायता करना चाहता हूं, पर नियमों के कारण मेरे हाथ बंधे हैं,’’ मैनेजर की प्रतिक्रिया बड़ी रूखी थी, ‘‘अपनी जीवन बीमा पालिसी पर आप ने पहले ही हम से लोन ले रखा है. किसी जमीनजायदाद के कागज आप के पास होते, तो हम उस के आधार पर लोन दे देते. आप को अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बहुत पहले से कुछ प्लानिंग करनी चाहिए थी. मुझे अफसोस है, मैं आप की कोई सहायता नहीं कर सकूंगा.’’

क्लब में पापा के दोस्त राजेंद्र उन के ब्रिज पार्टनर भी हैं. काफी लंबाचौड़ा व्यवसाय है उन का. पापा ने उन से भी रुपयों का इंतजाम करने की प्रार्थना की, पर बात नहीं बनी.

राजेंद्र साहब के बेटे अरुण से मुझे उन के इनकार का कारण पता चला.

‘‘रवि, अगर तुम्हारे पापा ने मेरे पापा से लिए पुराने कर्ज को वक्त से वापस कर दिया होता, तो शायद बात बन जाती. मेरे पापा की राय में तुम्हारे मम्मीडैडी फुजूलखर्च इनसान हैं, जिन्हें बचत करने का न महत्त्व मालूम है और न ही उन की आदतें सही हैं. मेरे पापा एक सफल बिजनेसमैन हैं. जहां से रकम लौटाने की उम्मीद न हो, वे वहां फंसेंगे ही नहीं,’’ अरुण के मुंह से ऐसी बातें सुनते हुए मैं ने खुद को काफी शर्मिंदा महसूस किया था.

दादाजी, चाचाओं और बूआओं से हमारे संबंध ऐसे बिगड़े हुए थे कि पापा की उन से इस मामले में कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी.

मम्मी ने भी अपने रिश्तेदारों व सहेलियों से कर्ज लेने की कोशिश की, पर काम नहीं बना. यह तथ्य प्रमाणित ही है कि जिन की अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है उन्हें बैंक और परिचित दोनों ही आर्थिक सहायता देने को तैयार रहते हैं. मेरी राय में अगर मम्मीपापा के पास अपनी बचाई आधी रकम भी होती, तो बाकी आधी का इंतजाम कहीं न कहीं से वही रकम करवा देती

अंतत: मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की तिथि निकल गई. उस दिन हमारे घर में गहरी उदासी का माहौल बना रहा. पापा ने मुझे गले लगा कर मेरा हौसला बढ़ाने की कोशिश की, तो मैं रो पड़ा. मेरे आंसू देख कर मम्मीपापा और छोटी बहन शिखा की पलकें भी भीग उठीं.

कुछ देर रो कर मेरा मन हलका हो गया, तो मैं ने मम्मीपापा से संजीदा लहजे में कहा, ‘‘जो हुआ है, उस से हमें सीख लेनी होगी. आगे शिखा के कैरियर व शादी के लिए भी बड़ी रकम की जरूरत पड़ने वाली है. उस का इंतजाम करने के लिए हमें अपने जीने का ढंग बदलना होगा, मम्मीपापा.’’

‘‘मेहनती और होशियार बच्चे अपने मातापिता से बिना लाखों का खर्चा कराए भी काबिल बन जाते हैं. रवि, तुम अपनी नाकामयाबी के लिए न हमें दोष दो और न ही हम पर बदलने के लिए बेकार का दबाव बनाओ,’’ मम्मी एकदम से चिढ़ कर गुस्सा हो गईं.

पापा ने मेरे जवाब देने से पहले ही उदास लहजे में कहा, ‘‘मीनाक्षी, रवि का कहना गलत नहीं है. छोटे मकान में रह कर, फुजूलखर्ची कम कर के, छोटी कार, कम खरीदारी और सतही तड़कभड़क के आकर्षण में उलझने के बजाय हमें सचमुच बचत करनी चाहिए थी. आज हमारी गांठ में पैसा होता, तो रवि का डाक्टर बनने का सपना पूरा हो सकता था.’’

‘‘ऐसा होता, तो वैसा हो जाता, ऐसे ढंग से अतीत के बारे में सोचने से चिंता और दुखों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता है,’’ मम्मी भड़क कर बोलीं, ‘‘हमें भी अपने ढंग से जिंदगी जीने का अधिकार है. रवि और शिखा को हम ने आज तक हर सुखसुविधा मुहैया कराई है. कभी किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने दी.

‘‘डाक्टर बनने के अलावा और भी कैरियर इस के सामने हैं. दिल लगा कर मेहनत करने वाला बच्चा किसी भी लाइन में सफल हो जाएगा. कल को ये बच्चे भी अपने ढंग से अपनी जिंदगी जिएंगे या हमारी सुनेंगे?’’

‘‘तुम भी ठीक कह रही हो,’’ पापा गहरी सांस छोड़ कर उठ खड़े हुए, ‘‘रवि बेटा, जैसा तुम चाहो, जिंदगी में वैसा ही हो, इस की कोई गारंटी नहीं होती. दिल छोटा मत करो. इलैक्ट्रौनिक्स आनर्स में तुम ने प्रवेश लिया हुआ है. मेहनत कर के उसी लाइन में अपना कैरियर बनाओ.’’

कुछ देर बाद मम्मीपापा अपने दुखों व निराशा से छुटकारा पाने को क्लब चले गए. शिखा और मैं बोझिल मन से टीवी देखने लगे.

कुछ देर बाद शिखा ने अचानक रोंआसी हो कर कहा, ‘‘भैया, मम्मीपापा कभी नहीं बदलेंगे. भविष्य में आने वाले कड़वे फल उन्हें जरूर नजर आते होंगे, पर वर्तमान की सतही चमकदमक वाली जिंदगी जीने की उन्हें आदत पड़ गई है. उन से बचत की उम्मीद हमें नहीं रखनी है. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनीअपनी जिंदगी संवारेंगे.’’

मैं ने शिखा को गले से लगा लिया. देर तक वह मेरा कंधा अपने आंसुओं से भिगोती रही. अपने से 5 साल छोटी शिखा के सुखद भविष्य का उत्तरदायित्व सुनियोजित ढंग से उठाने के संकल्प की जड़ें पलपल मेरे मन में मजबूत होती जा रही थीं.

Rakhsha Bandhan 2022: ज्योति- भाग 1

‘‘हां मां, खाना खा लिया था औफिस की कैंटीन में. तुम बेकार ही इतनी चिंता करती हो मेरी. मैं अपना खयाल रखता हूं,’’ एक हाथ से औफिस की मोटीमोटी फाइलें संभालते हुए और दूसरे हाथ में मोबाइल कान से लगाए सुमित मां को समझाने की कोशिश में जुटा हुआ था.

‘‘देख, झूठ मत बोल मुझ से. कितना दुबला गया है तू. तेरी फोटो दिखाती रहती है छुटकी फेसबुक पर. अरे, इतना भी क्या काम होता है कि खानेपीने की सुध नहीं रहती तुझे.’’ घर से दूर रह रहे बेटे के लिए मां का चिंतित होना स्वाभाविक ही था, ‘‘देख, मेरी बात मान, छुटकी को बुला ले अपने पास, बहन के आने से तेरे खानेपीने की सब चिंता मिट जाएगी. वैसे भी 12वीं पास कर लेगी इस साल, तो वहीं किसी कालेज में दाखिला मिल जाएगा,’’ मां उत्साहित होते हुए बोलीं.

जिस बात से सुमित को सब से ज्यादा कोफ्त होती थी वह यही बात थी. पता नहीं मां क्यों नहीं समझतीं कि छुटकी के आने से उस की चिंताएं मिटेंगी नहीं, उलटे, बहन के आने से सुमित के ऊपर जिम्मेदारी का एक और बोझ आ पड़ेगा.

अभी तो वह परिवार से दूर अपने दोस्तों के साथ आजाद पंछी की तरह बेफिक्र जिंदगी का आनंद ले रहा था. उस के औफिस में ही काम करने वाले रोहन और मनीष के साथ मिल कर उस ने एक किराए पर फ्लैट ले लिया था. महीने का सारा खर्च तीनों तयशुदा हिसाब से बांट लेते थे. अविवाहित लड़कों को घरगृहस्थी का कोई ज्ञान तो था नहीं, मनमौजी में दिन गुजर रहे थे. जो जी में आता करते, किसी तरह की बंदिश, कोई रोकटोक नहीं थी उन की जिंदगी में. कपड़े धुले तो धुले, वरना यों ही पहन लिए. हफ्ते में एक बार मन हुआ तो घर की सफाई हो जाती थी, वरना वह भी नहीं.

सुमित से जब भी उस की मां छोटी बहन को साथ रखने की बात कहती, वह घोड़े सा बिदक जाता. छुटकी रहने आएगी तो सुमित को दोस्तों से अलग कमरा ले कर रहना पड़ेगा और ऊपर से उस की आजादी में खलल भी पड़ेगा. यही वजह थी कि वह कोई न कोई बहाना बना कर मां की बात टाल जाता.

‘‘मां, अभी बहुत काम है औफिस में, मैं बाद में फोन करता हूं,’’ कह कर सुमित ने फोन रख दिया.

वह सोच रहा था, कहीं मां सचमुच छुटकी को न भेज दें.

तीनों दोस्तों को यों तो कोई समस्या नहीं थी लेकिन खाना पकाने के मामले में तीनों ही अनाड़ी थे, ब्रैड, अंडा, दूध पर गुजारा करने वाले. रोजरोज एक ही तरह का खाना खा कर सुमित उकता गया था. बाहर का खाना अकसर उस का हाजमा खराब कर देता था. परिवार से दूर रहने का असर सचमुच उस की सेहत पर पड़ रहा था. मां का इस तरह चिंता करना वाजिब भी था. इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालना पड़ेगा, वह मन ही मन सोचने लगा. फिलहाल तो 4 बजे उस की एक मीटिंग थी. खाने की चिंता से ध्यान हटा, वह एक बार फिर से फाइलों के ढेर में गुम हो गया.

सुमित के अलावा रोहन और मनीष की भी यही समस्या थी. उन के घर वाले भी अपने लाड़लों की सेहत की फिक्र में घुले जाते थे.

शाम को थकहार कर सुमित जब घर आया तो बड़ी देर तक घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला. एक तो दिनभर औफिस में माथापच्ची करने के बाद वह बुरी तरह थक गया था, उस पर घर की चाबी ले जाना आज वह भूल गया था. फ्लैट की एकएक चाबी तीनों दोस्तों के पास रहती थी, जिस से किसी को असुविधा न हो.

थकान से बुरी तरह झल्लाए सुमित ने एक बार फिर बड़ी जोर से घंटी पर हाथ दे मारा.

थोड़ी ही देर में इंचभर दरवाजे की आड़ से मनीष का चेहरा नजर आया. सुमित को देख कर उस ने हड़बड़ा कर दरवाजा पूरा खोल दिया.

‘‘क्यों? इतना टाइम लगता है क्या? बहरा हो गया था क्या जो घंटी सुनाई नहीं दी?’’ अंदर घुसते ही सुमित ने उसे आड़ेहाथों लिया.

गले में बंधी नैकटाई को ढीला कर सुमित बाथरूम की तरफ जा ही रहा था कि मनीष ने उसे टोक दिया, ‘‘यार, अभी रुक जा कुछ देर.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ सुमित ने पूछा, फिर मनीष को बगले झांकते देख कर वह सबकुछ समझ गया, ‘‘कोई है क्या, वहां?’’

‘‘हां यार, वह नेहा आई है. वही है बाथरूम में.’’

‘अरे, तो ऐसा बोल न,’’ सुमित ने फ्रिज खोल कर पानी की ठंडी बोतल निकाल ली.

मनीष की प्रेमिका नेहा नौकरी करती थी और एक वुमेन होस्टल में रह रही थी. जब भी सुमित और रोहन घर पर नहीं होते, मनीष नेहा को मिलने के लिए बुला लेता.

सुमित को इस बात से कोई एतराज नहीं था, मगर रोहन को यह बात पसंद नहीं आती थी. उस का मानना था कि मालिकमकान कभी भी इस बात को ले कर उन्हें घर खाली करने को कह सकता है.

जब कभी नेहा को ले कर मनीष और रोहन के बीच में तकरार होती, सुमित बीचबचाव से मामला शांत करवा लेता.

‘‘यार, बड़ी भूख लगी है, खाने को कुछ है क्या?’’ सुमित ने फ्रिज में झांका.

‘‘देख लो, सुबह की ब्रैड पड़ी होगी,’’ नेहा के जाने के बाद मनीष आराम से सोफे पर पसरा टीवी देख रहा था.

सुमित को जोरों की भूख लगी थी.इस वक्त उसे मां के हाथ का बना गरमागरम खाना याद आने लगा. वह जब भी कालेज से भूखाप्यासा घर आता था, मां उस की पसंद का खाना बना कर बड़े लाड़ से उसे खिलाती थीं. ‘काश, मां यहां होतीं,’ मन ही मन वह सोचने लगा.

‘‘बहुत हुआ, अब कुछ सोचना पड़ेगा. ऐसे काम नहीं चलने वाला,’’ सुमित ने कहा तो मनीष बोला, ‘‘मतलब?’’

‘‘यार, खानेपीने की दिक्कत हो रही है, मैं ने सोच लिया है किसी खाना बनाने वाले को रखते हैं,’’ सुमित बोला.

‘‘और उस को पगार भी तो देनी पड़ेगी?’’ मनीष ने कहा.

‘‘हां, तो दे देंगे न, आखिर कमा किसलिए रहे हैं.’’

‘‘लेकिन, हमें मिलेगा कहां कोई खाना बनाने वाला,’’ मनीष ने कहा.

‘‘मैं पता लगाता हूं,’’ सुमित ने जवाब दिया.

दूसरे दिन सुबह जब सुमित काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा, किसी ने दरवाजा खटखटाया. करीब 30-32 साल की मझोले कद की एक औरत दरवाजे पर खड़ी थी.

सुमित के कुछ पूछने से पहले ही वह औरत बोल पड़ी, ‘‘मुझे चौकीदार ने भेजा है, खाना बनाने का काम करती हूं.’’

‘‘ओ हां, मैं ने ही चौकीदार से बोला था.’’

‘‘अंदर आ जाइए,’’ सुमित उसे रास्ता देते हुए बोला और कमरे में रखी कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया.

कुछ झिझकते हुए वह औरत अंदर आई. गेहुंए रंग की गठीले बदन वाली वह औरत नजरें चारों तरफ घुमा कर उस अस्तव्यस्त कमरे का बारीकी से मुआयना करने लगी. बेतरतीब पड़ी बिस्तर की चादर, कुरसी की पीठ पर लटका गीला तौलिया, फर्श पर उलटीसीधी पड़ी चप्पलें.

Rakhsha Bandhan 2022: ज्योति- भाग 4

‘‘अब आप को जातपांत का ध्यान आ रहा है, तब क्यों नहीं आया था जब नेहा दीदी के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा?’’ ज्योति कुछ भावुक स्वर में बोली. उसे मन में थोड़ी शंका भी हुई कि कहीं मनीष उस की बातों का बुरा न मान जाए, आखिर वह इस घर में सिर्फ एक खाना पकाने वाली ही थी.

मनीष ने ज्योति की इस नसीहत का बुरा नहीं माना. वह खुद भी नेहा को इस तरह रुला कर अच्छा महसूस नहीं कर रहा था. एक लंबे अरसे से वह और नेहा एकदूसरे के करीब थे. दोनों ने एकदूसरे के साथ जीनेमरने के वादे किए थे. कितनी ही बार दोनों ने अलग होने का फैसला लिया, मगर कुछ पलों की जुदाई भी दोनों से बरदाश्त नहीं होती थी.

मनीष को ज्योति की बात में सचाई लगी. जातपांत के ढकोसलों में आ कर नेहा जैसी लड़की को खोना बहुत बड़ी बेवकूफी थी, जो उसे टूट कर चाहती थी और हर हाल में उस का साथ देने को तैयार थी.

‘‘अब चाहे कुछ भी हो जाए. नेहा ही मेरी जीवनसंगिनी बनेगी,’’ मनीष के शब्दों में सचाई की झलक थी.

ज्योति मुसकरा उठी. उस की एक कोशिश से 2 दिल टूटने से बच गए थे.

उसी दिन नेहा से माफी मांग कर मनीष ने उस से शादी का वादा किया. रही बात घरवालों की, तो उन्हें भी किसी तरह मानना होगा, और वह उन्हें राजी कर के रहेगा.

रक्षाबंधन से ठीक एक दिन पहले सुमित के लिए उस की छोटी बहन की राखी आई थी. रोहन और मनीष की कोई बहन नहीं थी. तो इस दिन उन दोनों की कलाई सूनी रह जाती थी. नहाधो कर नया कुरतापजामा पहन कर सुमित ने उल्लास से लिफाफा खोल कर राखी निकाली. ज्योति से उस ने छुटकी की भेजी राखी अपनी कलाई में बंधवा ली. एक राखी ज्योति ने भी उसे अपनी ओर से बांध दी.

रोहन मनीष के साथ बैठा मैच देख रहा था. हाथ में राखी के 2 चमकीले धागे लिए ज्योति आई.

‘‘भैया, मैं आप दोनों के लिए भी राखी लाई हूं. असल में, मेरा कोई सगा भाई नहीं है, तो आप तीनों  को ही मैं भाई मानती हूं.’’

रोहन और मनीष ने भी खुशीखुशी ज्योति से राखी बंधवाई.

उसी शाम तीनों दोस्त बैठ कर छुट्टी वाले दिन का आनंद ले रहे थे. ‘‘यार सुमित, नेहा से शादी कर के मुझे अलग फ्लैट लेना पड़ेगा, तुम लोगों के साथ बिताए ये दिन बहुत याद आएंगे,’’ मनीष ने कहा.

‘‘और हम क्या यों ही कुंआरे रहेंगे?’’ रोहन ने उस की पीठ पर धप्प से एक हाथ मारा, ‘‘क्यों, है न सुमित? तेरी और मेरी भी शादी हो जाएगी.’’

फिर सब अपनीअपनी जिंदगी में मस्त भविष्य के सपनों में तीनों कुछ देर के लिए खो गए. लेकिन सुमित कुछ और ही सोच रहा था.

शादी की बात पर उसे न जाने क्यों सुरेश का खयाल आ गया. इतने अच्छे स्वभाव वाला सुरेश अपने निजी जीवन में निपट अकेला था. ‘‘यार, मैं सोच रहा हूं किसी का घर बसाना अच्छा काम है, मेरी जानपहचान में एक सुरेश है, वही गैराज वाला,’’ सुमित ने रोहन की तरफ देखा. रोहन सुरेश को जानता था. ‘‘अगर कोई सलीकेदार महिला सुरेश की जिंदगी में आ जाए तो कितना अच्छा हो.’’

‘‘सही कहा तुम ने, बहुत भला है बेचारा,’’ रोहन समर्थन में बोला.

कुछ देर खामोशी छाई रही, शायद अपनेअपने तरीके से सब सोच रहे थे.

‘‘एक बहुत नेक औरत है मेरी नजर में,’’ तभी तपाक से रोहन बोला.

‘‘कौन?’’ मनीष और सुमित ने एकसाथ पूछा.

‘‘हमारी ज्योति दीदी, और कौन?’’

दोनों ने रोहन को अजीब सी नजरों से घूरा.

‘‘यार, ऐसे क्यों देख रहे हो. कुछ गलत थोड़े ही बोला मैं ने. एक चोरउचक्के को भी जिंदगी में दूसरा मौका मिल जाता है तो फिर एक विधवा क्यों दूसरी शादी नहीं कर सकती? औरत को भी दूसरी शादी करने का उतना ही हक है जितना मर्द को. और फिर मुन्नी के बारे में सोचो. इतनी छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया, आखिर उस को भी तो एक पिता का प्यार मिलना चाहिए कि नहीं? बोलो, क्या कहते हो?’’

रोहन की बात सौ फीसदी सच थी. ज्योति कम उम्र में ही विधवा हो गई थी. उसे पूरा अधिकार था कि वह किसी के साथ एक नया जीवन शुरू कर सके, जो उस का और उस की बेटी का सहारा बन सके. उस के जैसी व्यवहारकुशल और भली औरत किसी का भी घर संवार सकती थी.

तीनों दोस्तों की नजर में सुरेश के लिए ज्योति एकदम फिट थी. ‘‘लेकिन ज्योति मानेगी क्या?’’ मनीष ने शंका जाहिर की.

‘‘मैं मनाऊंगा ज्योति दीदी को,’’ सुमित बोला.

उसी शाम जब ज्योति उन तीनों का खाना पका कर निपटी और मुन्नी भी अपनी पढ़ाई कर चुकी तो सुमित ने उसे रोक लिया.

‘‘बोलो, क्या बात करनी थी भैया,’’ ज्योति ने पूछा.

बड़े नापतोल कर शब्दों को चुन कर सुमित ने अपनी बात ज्योति के सामने रखी. वह कुछ अन्यथा न ले ले, इस बात का उस ने पूरा ध्यान रखा.

सिर झुकाए सुमित की बातों को चुपचाप सुनती रही ज्योति. आज तक उस के अपने सगे रिश्ते वालों ने उस का घर बसाने की चिंता नहीं की थी. वह अकेली ही अपने दम पर अपना और अपनी बेटी का पेट पाल रही थी. उस ने कभी किसी से सहारे की उम्मीद नहीं की थी. लेकिन खून का रिश्ता न होने पर भी उस के ये तीनों मुंहबोले भाई आज उस के भले के लिए इतने फिक्रमंद हैं, यह सोच कर ही ज्योति की आंखों से आंसू बह चले.

उसे इस तरह से रोता देख तीनों के चेहरे पर परेशानी के भाव आ गए. सुमित को लगा शायद उसे यह सब नहीं कहना चाहिए था.

‘‘देखो ज्योति, रो नहीं, हम तुम्हारी और मुन्नी की भलाई चाहते है, बस. एक बार सुरेश से मिल लो, फिर आगे जो तुम्हारी मरजी,’’ सुमित ने प्रयास किया उसे शांत कराने का.

‘‘भैया, मैं तो इसलिए रो रही हूं कि आज मुझे अपने और पराए की पहचान हो गई. जो मेरे अपने हैं, वे कभी मेरे सुखदुख में काम नहीं आए और एक आप हो, जिन से खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी आप लोगों को मेरी और मेरी बेटी की चिंता है,’’ कुछ सयंत हो कर अपनी गीली आंखें पोंछती हुई वह बोली, ‘‘यह सच है कि एक पिता की जगह कोईर् नहीं ले सकता. मेरी बेटी पिता के प्यार से हमेशा महरूम रही है. मगर मैं ने उसे मां और बाप दोनों का प्यार दिया है. अगर आप लोगों को यकीन है कि कोई नेक इंसान मेरी बेटी को सगी बेटी की तरह प्यार देगा, तो मैं भी आप पर भरोसा करती हूं.’’

बात बनती देख तीनों के चेहरे खिल गए. 2 अधूरे लोगों को मिला कर उन के जीवन में खुशियों की बहार लाने से बढ़ कर भला और क्या नेकी हो सकती थी.

सुरेश और ज्योति की एक औपचारिक मुलाकात करवाई गई. तीनों ने पूरी तसल्ली के बाद ही ज्योति के लिए सुरेश जैसे इंसान को चुना था. सुरेश ने सहर्ष ज्योति और मुन्नी को अपना लिया, एकाकी जीवन के सूनेपन को भरने के लिए कोई तो चाहिए था.

बहुत ही सादगी के साथ सुरेश और ज्योति का विवाह संपन्न हुआ. तीनों दोस्तों ने शादी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. प्रीतिभोज पर वरवधू पक्ष के कुछेक रिश्तेदारों को भी बुलाया गया था.

सुमित ने मां और छुटकी को भी खास इस विवाह के लिए बुला रखा था. उस की मां गर्व का अनुभव कर रही थी सपूत के हाथों नेक काम होते देख कर.

विदाई के समय ज्योति सुमित, मनीष और रोहन के गले लग कर जारजार रोने लगी, तो तीनों को महसूस हुआ जैसे उन की सगी बहन विदा हो रही है.

अपने आंचल में बंधे खीलचावल को सिर के ऊपर से पीछे फेंक कर रस्म पूरी करती ज्योति विदा हो गईर् थी, साथ में देती गई ढेरों आशीर्वाद अपने तीनों भाइयों को.

Top 10 Best Raksha Bandhan Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट रक्षा बंधन कहानियां हिंदी में

हर भाई- बहन को  ‘रक्षाबंधन’ का बेसब्री से इंतजार होता है. यह भाई-बहन के अटूट बंधन को दर्शाने वाला फेस्टिवल है.  भाई-बहन का रिश्ता बेहद प्यारा होता है. इस रिश्ते में इमोश्न्स के साथ-साथ कई सीक्रेट्स भी होते हैं. तो इस खास मौके पर हम आपके लिए लेकर आये हैं सरस सलिल की  टॉप 10  रक्षाबंधन स्पेशल कहानियां. अगर आप कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो यहां पढ़िए Top 10 Raksha Bandhan Story in Hindi.

  1.  तृप्त मन- राजन ने कैसे बचाया बहन का घर?

tript-man

अमेरिका में स्थायी रूप से रह रहे राजन के ताऊ धर्म प्रकाश को जब खबर मिली कि उन के भतीजे राजन ने आई.टी. परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है तो उन्होंने फौरन फोन से अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश को कहा कि वह राजन को अमेरिका भेज दे…यहां प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के बाद नौकरी का बहुत अच्छा स्कोप है.

चंद्र्र प्रकाश भी तैयार हो गए और बेटे को अमेरिका के लिए पासपोर्ट, वीजा आदि बनवाने में लग गए. लेकिन उन की पत्नी सरोजनी के मन को कुछ बहुत अच्छा नहीं लगा. कुल 2 बच्चे राजन और उस से 5 साल छोटी 8वीं में पढ़ रही राशी. अब बेटा सात समुंदर पार चला जाएगा तो मां को कैसे अच्छा लगेगा. उस ने तो पति से साफ शब्दों में मना भी किया.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

2. ज्योति- क्यों सगे भाईयों से भी बढ़कर निकले वो तीनों लड़के?

bhai

‘‘हां मां, खाना खा लिया था औफिस की कैंटीन में. तुम बेकार ही इतनी चिंता करती हो मेरी. मैं अपना खयाल रखता हूं,’’ एक हाथ से औफिस की मोटीमोटी फाइलें संभालते हुए और दूसरे हाथ में मोबाइल कान से लगाए सुमित मां को समझाने की कोशिश में जुटा हुआ था.

‘‘देख, झूठ मत बोल मुझ से. कितना दुबला गया है तू. तेरी फोटो दिखाती रहती है छुटकी फेसबुक पर. अरे, इतना भी क्या काम होता है कि खानेपीने की सुध नहीं रहती तुझे.’’ घर से दूर रह रहे बेटे के लिए मां का चिंतित होना स्वाभाविक ही था, ‘‘देख, मेरी बात मान, छुटकी को बुला ले अपने पास, बहन के आने से तेरे खानेपीने की सब चिंता मिट जाएगी. वैसे भी 12वीं पास कर लेगी इस साल, तो वहीं किसी कालेज में दाखिला मिल जाएगा,’’ मां उत्साहित होते हुए बोलीं.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

3. सत्य असत्य- क्या निशा ने कर्ण को माफ किया?

satya-asatya

कर्ण के एक असत्य ने सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी. जहां इसी की वजह से हुई निशा के पिता की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया, वहीं खुद कर्ण पछतावे की आग में सुलगता रहा. पर निशा से क्या उसे कभी माफी मिल सकी?

घर की तामीर चाहे जैसी हो, इस में रोने की कुछ जगह रखना.’ कागज पर लिखी चंद पंक्तियां निशा के हाथ में देख मैं हंस पड़ी, ‘‘घर में रोने की जगह क्यों चाहिए?’’

‘‘तो क्या रोने के लिए घर से बाहर जाना चाहिए?’’ निशा ने हंस कर कहा.

‘‘अरे भई, क्या बिना रोए जीवन नहीं काटा जा सकता?’’

‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता. वह अगर हारता नहीं तो दूसरा जीतता कैसे?’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

4.  दागी कंगन- क्या निहाल अपनी बहन को उस दलदल से निकाल पाया

dagi-kangan

‘‘मुन्नी, तुम यहां पर कैसे?’’ ये शब्द कान में पड़ते ही मुन्नी ने अपनी गहरी काजल भरी निगाहों से उस शख्स को गौर से देखा और अचानक ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘निहाल भैया…’’

वह शख्स हामी भरते हुए बोला, ‘‘हां, मैं निहाल.’’

‘‘लेकिन भैया, आप यहां कैसे?’’

‘‘यही सवाल तो मैं तुम से पूछ रहा हूं कि मुन्नी तुम यहां कैसे?’’

अपनी आंखों में आए आंसुओं के सैलाब को रोकते हुए मुन्नी, जिस का असली नाम मेनका था, बोली, ‘‘जाने दीजिए भैया, क्या करेंगे आप जान कर. चलिए, मैं आप को किसी और लड़की से मिलवा देती हूं. मुझ से तो आप के लिए यह काम नहीं होगा.’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें

5. भाईदूज – राधा ने मोहन को कैसे बनाया भाई

 

ss

‘‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.

‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.

‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’

‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’

‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

6.  स्लीपिंग पार्टनर- मनु की नजरों में अनुपम भैया

rakhi

मनु को एक दिन पत्र मिलता है जिसे देख कर वह चौंक जाती है कि उस की भाभी यानी अनुपम भैया की पत्नी नहीं रहीं. वह भैया, जो उसे बचपन में ‘डोर कीपर’ कह कर चिढ़ाया करते थे.

पत्र पढ़ते ही मनु अतीत के गलियारे में भटकती हुई पुराने घर में जा पहुंचती है, जहां उस का बचपन बीता था, लेकिन पति दिवाकर की आवाज सुन कर वह वर्तमान में लौट आती है. वह अनुपम भैया के पत्र के बारे में दिवाकर को बताती है और फिर अतीत में खो जाती है कि उस की मौसी अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ दिन सपरिवार रहने आ रही हैं. और सारा इंतजाम उन्हें करने को कहती हैं.

आखिर वह दिन भी आ जाता है जब मौसी आ जाती हैं. घर में आते ही वह पूरे घर का निरीक्षण करना शुरू कर देती हैं और पूरे घर की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लेती हैं. पूरे घर में उन का हुक्म चलता है.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

7.  कड़वा फल- क्या अपनी बहन के भविष्य को संवार पाया रवि?

fal

अपने मम्मी पापा की शादी की 10वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हुई भव्य पार्टी की यादें आज भी मेरे दिलोदिमाग में तरोताजा हैं. वह पार्टी लंबे समय तक हमारे परिचितों के बीच चर्चा का विषय बनी रही थी.

पार्टी क्लब में हुई थी. करीब 500 मेहमानों की आवभगत वरदीधारी वेटरों की पूरी फौज ने की थी. अपनीअपनी रुचि के अनुरूप मेहमानों ने जम कर खाया, और देर रात तक डांस करते रहे. इतने सारे गिफ्ट आए कि पापा को उन्हें कारों से घर पहुंचाने के लिए अपने 2 दोस्तों की सहायता लेनी पड़ी.

मेरे लिए वे बेहद खुशी भरे दिन थे. हम ने एक बड़े घर में कुछ महीने पहले शिफ्ट किया था. मेरी छोटी बहन शिखा और मुझे अपना अलग कमरा मिला. मम्मी ने उसे बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया था.

अपने नए दोस्तों के बीच मेरी धाक शुरू से ही जम गई. मेरी साइकिल हो या जूते, कपड़े हों या स्कूल बैग, हर चीज सब से ज्यादा कीमती और सुंदर होती.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

 

8.  कितने अजनबी- क्या रश्मि अपने भाई-बहन के मतभेद को खत्म कर पाई?

kitne

हम 4 एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग एकदूसरे से इतने अजनबी कि अपनेअपने खोल में सिमटे हुए हैं.

मैं रश्मि हूं. इस घर की सब से बड़ी बेटी. मैं ने अपने जीवन के 35 वसंत देख डाले हैं. मेरे जीवन में सब कुछ सामान्य गति से ही चलता रहता यदि आज उन्होंने जीवन के इस ठहरे पानी में कंकड़ न डाला होता.

मैं सोचती हूं, क्या मिलता है लोगों को इस तरह दूसरे को परेशान करने में. मैं ने तो आज तक कभी यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि पड़ोसी क्या कर रहे हैं. पड़ोसी तो दूर अपनी सगी भाभी क्या कर रही हैं, यह तक जानने की कोशिश नहीं की लेकिन आज मेरे मिनटमिनट का हिसाब रखा जा रहा है. मेरा कुसूर क्या है? केवल यही न कि मैं अविवाहिता हूं. क्या यह इतना बड़ा गुनाह है कि मेरे बारे में बातचीत करते हुए सब निर्मम हो जाते हैं.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

9. राखी का उपहार

rakhi

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

‘‘आप को सभी की फिक्र है पर अपने घर को आप ने कभी देखा है?’’ अचानक ही नेहा मुखर हो उठी थी, ‘‘भैया, कभी फुरसत के 2 पल निकाल कर भाभी की तरफ तो देखो. क्या उन की सूनी आंखें आप से कुछ पूछती नहीं हैं?’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

10. बड़े भैया- क्यों स्मिता अपने भाई से डरती थी?

smita

बड़े भैया ने घूर कर देखा तो स्मिता सिकुड़ गई. कितनी कठिनाई से इतने दिनों तक रटा हुआ संवाद बोल पाई थी. अब बोल कर भी लग रहा था कि कुछ नहीं बोली थी. बड़े भैया से आंख मिला कर कोई बोले, ऐसा साहस घर में किसी का न था.

‘‘क्या बोला तू ने? जरा फिर से कहना,’’ बड़े भैया ने गंभीरता से कहा.

‘‘कह तो दिया एक बार,’’ स्मिता का स्वर लड़खड़ा गया.

‘‘कोई बात नहीं,’’ बड़े भैया ने संतुलित स्वर में कहा, ‘‘एक बार फिर से कह. अकसर दूसरी बार कहने से अर्थ बदल जाता है.’’

स्मिता ने नीचे देखते हुए कहा, ‘‘मुझे अनिमेष से शादी करनी है.’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

Raksha Bandhan Special: मुंहबोले भाई से ऐसे निभाएं रिश्ता

रिश्ता मांबेटे का हो या भाईबहन का, हर रिश्ते की अपनी गरिमा होती है और मांग भी. जब कोई प्यारा सा रिश्ता हमारी अनजानी गलतियों की वजह से टूट जाता है तब हमें एहसास होता है कि शायद कहीं कोई कमी रह गई थी. ऐसे में बात जब मुंहबोले भाई की हो तो शिष्टाचार कुछ ज्यादा ही महत्त्व रखता है, क्योंकि यह रिश्ता आप बहुत सोचसमझ कर बनाते हैं. इस रिश्ते का शिष्टाचार कायम रहे इस के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखें.

मिल कर कुछ नियम बनाएं

मुंहबोले भाईबहन का रिश्ता जितना प्यार भरा है यह उतना ही नाजुक भी होता है. ऐसे में कुछ मर्यादित नियम बनाइए, जिस से शिष्टता झलके. हमेशा दूरी बना कर रखें. इस रिश्ते में ज्यादा निकटता लोगों को खटकती है. अगर आप को एकदूसरे से मिलना है तो एकदूसरे के घर में या पब्लिक प्लेस में ही मिलें. बातचीत भी ऐसी करें जिस से फूहड़ता या अश्लीलता न झलके. साथ ही समय का ध्यान जरूर रखें. हो सके तो दिन में ही मिलें.

ये भी पढ़ें- परीक्षा से संबंधित तनाव को ऐसे रखें दूर

छोटीछोटी बातों का बुरा मत मानिए

अगर मुंहबोला भाई आप को कुछ कहता भी है जैसे कि आप ऐसा न करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, इस से बात मत करो आदि तो उस की बातों का बुरा न मानें, उस से गुस्से में बात न करें, क्योंकि हर भाई अपनी बहन का खयाल रखने के लिहाज से उस से ऐसा कहता है. इस से उस के प्यार और स्नेह का पता चलता है. उस की बातों को नैगेटिव न लेते हुए उस से शिष्ट हो कर ही बात करें.

सौरी बोलना सीखिए

हर भाईबहन के बीच लड़ाईझगड़ा होता रहता है लेकिनकुछ देर बाद वे सब भूल भी जाते हैं. अगर आप से कोई गलती हो भी गई है तो सौरी बोल कर अपनी गलती मान लीजिए. ऐसा करने से आप भाई की नजर में अच्छी बहन बन जाएंगी.

कमियां मत निकालिए

अपने मुंहबोले भाई की बातबात में कमियां निकालना अच्छी बात नहीं. अगर आप उसे सचमुच अपना भाई मानती हैं तो कोई भी बात सही ढंग से समझाएं न कि गुस्से से.

अच्छे गुणों की कद्र करें

आप अपने मुंहबोले भाई के अच्छे गुणों की कद्र करें, क्योंकि हर इंसान में अच्छाई व बुराई दोनों ही होती हैं. उस की कमियों को औरों के सामने उजागर न करें.

ये भी पढ़ें- Dating में भूलकर भी न पूछे ये 8 सवाल

विश्वास जीतें

अपने मुंहबोले भाई का विश्वास जीतने की कोशिश करें. इस के लिए आप दोनों को एकदूसरे को समझना बहुत जरूरी है. बिना एकदूसरे को समझे रिश्ते को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता.

पर्सनल बातों में दखलंदाजी न करें

हर किसी की अपनी पर्सनल लाइफ होती है, ऐसे में आप कभी भी मुंहबोले भाई की पर्सनल लाइफ में बिना उस से पूछे अपनी राय न दें. हो सकता है आप का दखल उसे पसंद न हो.

इन सब बातों का ध्यान रख आप मुंहबोले भाई से शिष्ट और मधुर रिश्ता बनाए रख सकती हैं.

ये भी पढ़ें- इन 12 लक्षणों से रहें सतर्क, हो सकता है HIV

Raksha Bnadhan Special: भाई को बनाएं जिम्मेदार

अर्चित 3 भाइयों में सब से छोटा होने के कारण घर में सब का लाड़ला था. यही वजह थी कि वह कुछ ज्यादा ही सिर चढ़ गया था. यदि उसे कोई काम करने को कह दिया जाता तो वह उसे पूरा नहीं करता था या फिर इतने बुरे ढंग से तब करता था जब उस की कोई वैल्यू ही नहीं रह जाती थी. शुरू में तो सभी उस की इन बातों को नजरअंदाज करते रहे, लेकिन अब वह कालेज में था और उस की इन हरकतों से परिवार वालों को सब के सामने शर्मिंदा होना पड़ता था. इसी तरह रमेश को अगर कुछ काम करने जैसे कि बिजली का बिल जमा करने या बाजार से कुछ लाने को कहो तो वह कोई न कोई बहाना बना देता था. यह समस्या लगभग हर घर में देखने को मिल जाएगी. अकसर छोटे भाईबहन लापरवाह हो जाते हैं. दरअसल, आजकल के युवा कोई जिम्मेदारी लेना ही नहीं चाहते. ऐसे ही युवा आगे चल कर हर तरह की जिम्मेदारी से भागते हैं. फिर धीरेधीरे यह उन की आदत बन जाती है. फिर वह अपने मातापिता की, औफिस की व समाज की जिम्मेदारियों से खुद को दूर कर लेते हैं. लेकिन यदि कोशिश की जाए तो उन्हें भी जिम्मेदार बनाया जा सकता है. इस के लिए बड़े भाई को ही प्रयास करना होगा, क्योंकि वह आप की बात जल्दी मानेगा.

ऐसे बनाएं भाई को जिम्मेदार    

घर की परेशानियों में शामिल करें : अकसर हम अपने छोटे भाईबहनों को घर में आने वाली छोटीमोटी परेशानियों से दूर रखते हैं. घर में आने वाली मुश्किलों की भनक तक उन्हें नहीं लगने देते. ऐसे में घर के छोटों को पता ही नहीं होता कि उन के बड़े किस समस्या से जूझ रहे हैं. बस, वे अपनी फरमाइशें पूरी करवाने में ही लगे रहते हैं. ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि इस से छोटे भाईबहन जिंदगी के अच्छे और बुरे पहलू देखने और समझने से वंचित रह जाते हैं. उन्हें भी अपनी परेशानियों में शामिल करें ताकि वे भी इन का सामना कर सकें.

ये भी पढ़ें- Rakhsha Bandhan Special: बहन की स्वतंत्रता में बाधक न बनें

जरूरी काम भाई को भी सौंपें : भाई को भी काम करने को दें. यह न सोचें कि इस के बस का नहीं है. यह कहां करेगा, मैं तो इसे मिनटों में कर लूंगा और भाई की समझ से बाहर हो जाएगा. अगर आप ऐसे करेंगे तो भाई सीखेगा कैसे  उसे भी कुछ काम करने दें. फिर चाहे वह उसे करने में ज्यादा समय ले या फिर गलत करे, लेकिन उसे करने दें. इस तरह धीरेधीरे उसे इन कामों को करने की आदत हो जाएगी, लेकिन अगर आप उसे काम सौंपेंगे ही नहीं, तो वह करेगा कैसे

भाई को छोटा न समझें : ‘अभी तो यह छोटा है,’ अगर आप ऐसे समझते रहेंगे तो वह कभी बड़ा नहीं होगा. वैसे भी वह हमेशा आप से छोटा ही रहेगा. उसे बड़ा बनाने की जिम्मेदारी आप की ही है.

पैसे की कीमत समझाएं :  यदि भाई हर वक्त मातापिता से किसी न किसी बात की डिमांड करता रहता है और पेरैंट्स को तंग करता है तो उसे घर की आर्थिक स्थिति के बारे में बताएं. उसे बताएं कि पैसा कितनी मुश्किल से कमाया जाता है. घरखर्च में उस का भी सहयोग लें और घर का सामान आदि उस से मंगाए. जब वह अपने हाथ से खर्च करेगा तो उसे पैसे की वैल्यू पता चलेगी.

रिश्ते निभाना भी सिखाएं : छोटी बहन को राखी पर अपनी पौकेटमनी से या अपने कमाए हुए पैसे से गिफ्ट देने की आदत डालें. कभीकभी घर के छोटे बच्चों से कहें कि आज चाचा ही बच्चों को आइस्क्रीम खिला कर आएंगे. घर में आए मेहमान को भी सब के बीच बैठने को कहें और बातचीत में उसे भी शामिल करें.

खुद मिसाल बनें : आप खुद भाई के सामने मिसाल बनें. जब वह घर और बाहर का सभी काम आप को जिम्मेदारी से निभाते हुए देखेगा तो आप को अपना रोलमौडल समझने लगेगा और खुद भी आप के जैसा बनने की पूरी कोशिश करेगा. आप जो भी गुण अपने भाई में देखना चाहते हैं पहले उन्हें आप खुद में लाएं और फिर भाई को सिखाएं.

ये भी पढ़ें- ऐंटी सेक्स बेड: मैदान से पहले बिस्तर का खेल

उस के काम को आप भी टाल जाएं : अगर भाई आप का कहना नहीं मानता, कोई भी काम जिम्मेदारी से नहीं करता और आप उस की इस आदत से परेशान हैं, तो आप उसे उसी की भाषा में समझाएं. जब वह आप से या घर के किसी मैंबर से अपने किसी जरूरी काम को वक्त पर करने को कहे तो आप भी टालमटोल करें और काम समय पर न करें. इस के बाद उसे गुस्सा आएगा और उलझन होगी तब उसे प्यार से समझाएं कि जब वह खुद ऐसा करता है तो अन्य लोगों को भी ऐसी ही परेशानी होती है.

गैरजिम्मेदारी के नुकसान बताएं

–       अगर आप गैरजिम्मेदार होंगे तो लोग आप को गंभीरता से नहीं लेंगे.

–       पीठ पीछे आप के बचपने की लोग बुराइयां करेंगे.

–       मांबाप भी आप पर भरोसा करने में कतराएंगे.

–       बाहर ही नहीं घर में भी कोई आप की इज्जत नहीं करेगा.

–       एक बार यदि काम करने का समय निकल गया तो यह लौट कर दोबारा नहीं आएगा और फिर आप के हाथ सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचेगा.

–       लड़कियां आप से दूर भागेंगी कि यह तो किसी काम का नहीं, इस से दोस्ती बढ़ा कर आगे कोई फ्यूचर नहीं है.

इन बातों का भी रखें खयाल

– अगर आप रोब दिखा कर काम करवाने की कोशिश करेंगे तो वह कोई काम नहीं करेगा इसलिए प्यार से बात करें, रोब से नहीं.

– छोटे भाईबहन पर जिम्मेदारी धीरेधीरे डालें, एकदम से सारा काम न सौंपें, क्योंकि इस से वह इरीटेट होने लगेगा.

– आप का मकसद काम निकलवाना नहीं बल्कि काम सिखाना होना चाहिए इसलिए बस आज का काम किसी तरह हो जाए इस मानसिकता के साथ काम करवाएंगे तो वह कभी नहीं सीख पाएगा.

– यदि भाई को काम करने में कोई परेशानी है और वह काम ढंग से नहीं कर पा रहा है, तो उस का हौसला बढ़ाएं. वह घबराए तो उसे समझाएं कि वह यह काम इस ढंग से कर सकता है.

– अगर वह अपनी कोई जिम्मेदारी बखूबी निभाता है, तो उस की तारीफ की जानी चाहिए. इस से उस में आगे भी अच्छा करने की इच्छा पैदा होगी.

– अगर भाई ने कोई काम अच्छा किया है, तो उस का क्रैडिट खुद न लें, बल्कि सब को बताएं कि यह भाई की अपनी मेहनत है.

ये भी पढ़ें- 65 साल की उम्र में की शादी, कर्मकांडों में फंसा

– जो जिम्मेदारी या काम आप उसे सौंपना चाहते हैं पहले उसे खुद करें ताकि आप को काम करता देख वह भी सीखे और उस काम में उस का भी मन लगे. फिर चाहे वह काम घर के छोटे बच्चों को पढ़ाने का ही क्यों न हो. जब आप उन्हें पढ़ाएंगे तो एक दिन भाई भी खुद ब खुद पढ़ाने लगेगा.

– शुरूशुरू में भाई को वही काम दें, जिस में उस का इंट्रस्ट है. जब उसे उस काम को करने में मजा आने लगे और वह अपनी जिम्मेदारी सही से निभाने लगे, तो उसे अन्य काम करने की जिम्मेदारी देना शुरू करें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें