लोकसभा चुनाव : मुसलिम वोटरों की खामोशी क्यों

सा ल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सभी दल एड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं, मगर जीत का सेहरा किस के सिर बंधेगा, यह बड़ेबड़े राजनीतिक जानकार भी नहीं भांप पा रहे हैं. दलितों और मुसलिमों को साधने की कोशिश तो

सब की है, लेकिन उन के मुद्दे सिरे से गायब हैं. तीन तलाक को खत्म कर के भाजपा की मोदी सरकार मुसलिम औरतों की नजर में हीरो बनी थी, लेकिन अब चुनाव के वक्त तीन तलाक खारिज करने का गुणगान कर के वह मुसलिम मर्दों को भी नाराज नहीं कर सकती.

औरतें वोट डालने जाएं या न जाएं, ज्यादातर मुसलिम परिवारों में यह बात मर्द ही तय करते हैं. यही वजह है कि भाजपा की चुनावी रैलियों में तीन तलाक किसी नेता के भाषण का हिस्सा नहीं है.

उधर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव मुसलिमों के दिल में जगह बनाने लिए पिछले दिनों  बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी की मौत के बाद उन के घर तक जा पहुंचे थे. उन की मौत का गम मनाया था. उस के बाद मुसलिम वोट साधने के लिए लखनऊ के कई नवाबी खानदानों से भी मुलाकातें की थीं, ईद की सेवइयां चखी थीं, लेकिन इन कवायदों

का आम मुसलिम पर कितना असर होगा, वह जो बिरयानी का ठेला लगाता है या साइकिल का पंचर जोड़ता है या सब्जी बेचता है या फिर काश्तकारी करता है, इस का अंदाजा अखिलेश यादव खुद नहीं लगा पाए थे.

असल माने में तो वोट देने वाला यही तबका है. नवाबी खानदानों से तो एकाध कोई वोट डालने बूथ तक जाए तो जाए. अब कांग्रेस की बात करें तो वह अगर मुसलिमों के लिए कोई बात करती है, तो भाजपाई नेता सीधे गांधी परिवार पर हमलावर हो उठते हैं और उसे मुसलिम बताने लगते हैं, इसलिए कांग्रेस भी मुसलिमों और उन के मुद्दों को ले कर तेज आवाज में नहीं बोल रही है.

एक तरफ राजनीतिक दल पसोपेश में हैं कि मुसलिम किस के कितने करीब हैं, दूसरी तरफ मुसलिम अपने वोट को ले कर खामोशी ओढ़े हुए हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों में भी खामोशी पसरी हुई है. इस खामोशी में किस की जीत छिपी है, यह वोटिंग का नतीजा आने के बाद ही पता चल सकेगा.

कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मदरसा शिक्षा पर रोक लगाने की कोशिश की थी और राज्यभर के सभी 16,000 मदरसों के लाइसैंस रद्द कर दिए थे. मामला हाईकोर्ट होता हुआ सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने ‘यूपी बोर्ड औफ मदरसा ऐजूकेशन ऐक्ट 2004’ को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के 22 मार्च, 2024 के फैसले पर रोक लगा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले से 17 लाख मदरसा छात्रों पर असर पड़ेगा और छात्रों को दूसरे स्कूल में ट्रांसफर करने का निर्देश देना उचित नहीं है.

मदरसे बंद करने के योगी सरकार की कोशिश पर सरकार में मंत्री दानिश आजाद अंसारी ने सफाई पेश की. उन्होंने कहा कि सरकार चाहती थी कि मुसलिम बच्चों को भी उसी तरह सरकारी स्कूलों में हिंदी, इंगलिश, साइंस, भूगोल, इतिहास, कंप्यूटर वगैरह की तालीम मिले, जैसी हिंदू और दूसरे धर्मों के बच्चों को मिलती है. बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए मदरसा तालीम को कमतर किया जा रहा था.

बेहतर तालीम मुसलिम नौजवानों को मिले, इस के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में योगी सरकार हमेशा पौजिटिव काम करती रही है. मगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेगी.

सरकार की एकतरफा कार्यवाही

वहीं दूसरी ओर इस मामले में मुसलिम धर्मगुरुओं और नेताओं की कई प्रतिक्रियाएं आईं. मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. मुसलिमों के कई बड़े रहनुमाओं ने सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया अदा किया कि उस ने मदरसा तालीम को बरकरार रखा.

केंद्रीय स्कूल के शिक्षक मोहम्मद अकील कहते हैं, ‘‘मदरसों में बहुत गरीब मुसलिम परिवारों के बच्चे पढ़ने जाते हैं. मुसलिम यतीमखानों के बच्चे भी वहां पढ़ते हैं. वहां उन को दोपहर का भोजन मिल जाता है. किताबें और कपड़े मिल जाते हैं.

‘‘ज्यादातर बच्चों के परिवार इतने पिछड़े, गरीब और अनपढ़ हैं कि वे अपने बच्चों को दीनी तालीम और एक वक्त की रोटी के नाम पर मसजिदमदरसों में तो भेज देंगे, मगर किसी सरकारी स्कूल में नहीं भेजेंगे.

‘‘वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने को तैयार हों, इस के लिए पहले सरकार इन परिवारों की काउंसलिंग करे, इन की जिंदगी को सुधारे, उन में तालीम की जरूरत की सम?ा पैदा करे, फिर उन के बच्चों को मदरसा जाने से रोके और सरकारी स्कूल में दाखिला दे.

‘‘ऐसे ही एक आदेश पर मदरसे बंद कर देने से आप इन बच्चों के मुंह से एक वक्त की रोटी भी छीने ले रहे हैं. सरकार का यह कदम बहुत ही गलत है. उस

को पहले हिंदुओं के गुरुकुल बंद करने चाहिए, फिर मदरसों की ओर देखना चाहिए.’’

भाजपा सरकार की मदरसा नीति पर भी मुसलिम तबका बंटा हुआ है. हो सकता है कि सरकार की मंशा मुसलिम बच्चों को बेहतर तालीम देने की हो मगर ज्यादातर इस कदम को मुसलिमों पर हमले के तौर पर ही देख रहे हैं. ऐसे में भाजपा से मुसलिम तबका इस वजह से भी छिटक गया है.

बीते रमजान के आखिरी पखवारे में हिंदुओं का नवरात्र भी शुरू हो गया था. उन के भी व्रत थे. लिहाजा, सरकार ने मीटमछली की दुकानें बंद करवा दीं. यहां तक कि ठेलों पर बिरयानी बेचने वालों को भी घर बिठा दिया गया. ईद के दिन 90 फीसदी मीट की दुकानें बंद थीं. कई मुसलिम घरों में बिना नौनवैज के ईद मनी.

मुसलिम तबके ने कोई शिकायत नहीं की, मगर कांग्रेस के समय को जरूर याद किया. ऐसा अनेक बार हुआ होगा, जब ईद और नवरात्र इकट्ठे पड़े, लेकिन कांग्रेस के वक्त ईद के रोज मीट की दुकानें बंद नहीं हुईं.

पश्चिम बंगाल में सालोंसाल मछली बिकती है, फिर चाहे नवरात्र हों या दीवाली, क्योंकि वहां के हिंदुओं का मुख्य भोजन मछली है. आखिर जिस का जैसा खानपान है, वह तो वही खाएगा, उस पर रोकटोक करने वाली सरकार कौन होती है?

मगर भाजपा सरकार मुसलिमों के खानपान पर बैन लगाने में उस्ताद है. हलाल और झटके के मामले में भी उस ने मुसलिमों को परेशान किया. ऐसे में उन के वोट भाजपा को कैसे मिल सकते हैं.

कम होते मुसलिम नुमाइंदे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहां से सब से ज्यादा मुसलिम प्रतिनिधि संसद पहुंचते रहे हैं, उस मुसलिम बहुल इलाके में भी खामोशी है. साल 2013 के सांप्रदायिक दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण के माहौल

में साल 2014 के चुनाव में इस इलाके से एक भी मुसलिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया.

साल 2019 में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने मिल कर चुनाव लड़ा, तो 5 मुसलिम सांसद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों से जीत कर संसद पहुंचे थे. सहारनपुर से हाजी फजलुर रहमान, अमरोहा से दानिश अली, संभल से

डा. शफीकुर्रहमान बर्क, मुरादाबाद से एसटी हसन और रामपुर से आजम खान ने जीत दर्ज की थी.

लेकिन साल 2024 का चुनाव आतेआते राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन में है, राष्ट्रीय लोकदल अब भाजपा के साथ है और बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नए बदले समीकरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुसलिम सांसद फिर से चुन कर संसद पहुंच पाएंगे? यह सवाल और गंभीर तब हो जाता है, जब कई मुसलिम बहुल सीटों पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुसलिम उम्मीदवार आमनेसामने हैं.

सहारनपुर में कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद हैं, तो बहुजन समाज पार्टी ने माजिद अली को टिकट दिया है. वहीं, अमरोहा में मौजूदा सांसद दानिश अली इस बार कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं और बसपा ने मुजाहिद हुसैन को उम्मीदवार बनाया है.

संभल में सांसद रह चुके और अब इस दुनिया में नहीं रहे डा. शफीकुर्रहमान बर्क के पोते जियाउर्रहमान बर्क को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया है, तो बसपा ने यहां सौलत अली को उम्मीदवार बनाया है.

मुरादाबाद से समाजवादी पार्टी ने मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट काट कर रुचि वीरा को उम्मीदवार बनाया है, जबकि यहां बसपा ने इरफान सैफी को टिकट दिया है.

रामपुर में आजम खान जेल में हैं. समाजवादी पार्टी ने यहां मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट दिया है, जबकि बसपा से जीशान खां मैदान में हैं. कई सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों के आमनेसामने होने की वजह से यह सवाल उठा है कि क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक बार फिर मुसलिम प्रतिनिधि चुन कर संसद पहुंच सकेंगे?

संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में ऐसा माहौल बनाया गया है कि जहां कोई मुसलिम उम्मीदवार होता है, वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साजिश की जाती है. यह बड़ा सवाल है कि देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है.

भारतीय जनता पार्टी नारा देती है कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’, लेकिन असल में इस का मतलब है ‘विपक्ष मुक्त भारत’ और ‘मुसलिम मुक्त विधायिका’. मुसलिम भाजपा की सोच से वाकिफ हैं. वे खामोश हैं, मगर उन की खामोशी का यह मतलब नहीं कि सरकार बनाने या बिगाड़ने में उस का रोल नहीं होगा.

लोकसभा चुनाव : क्या औरतों के रहमोकरम पर हैं मर्द नेता?

चुनाव जैसे ही नजदीक आते हैं, सभी पार्टियां जीतने के लिए बड़ेबड़े वादे करती हैं. 13 मार्च, 2024 को कांग्रेस ने औरतों के लिए ‘नारी न्याय गारंटी’ योजना का ऐलान किया. बताया गया कि यह पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा भी है. इस व दूसरे और वादों को राहुल गांधी ने अनाउंस किया.

‘नारी न्याय गारंटी’ योजना का वादा तो खासकर औरतों की आर्थिक व सामाजिक बैकग्राउंड को मजबूत करने को ले कर था, जिस में 5 बिंदु रखे गए :

– देश की गरीब औरतों को सालाना एक लाख रुपए की माली मदद.

– केंद्र सरकार की नई नियुक्तियों में 50 फीसदी औरतों को हक.

– आंगनबाड़ी, आशा और मिड डे मील वर्कर्स के मासिक वेतन दोगुने.

– हर पंचायत में औरतों की जागरूकता के लिए कानूनी सहायक की नियुक्ति.

– हर जिले में औरतों के लिए कम से कम एक होस्टल.

एक तरह से देखा जाए तो ये वादे अपनेआप में खासा दिलचस्प हैं, क्योंकि जिस तरह संपत्ति और तमाम हकों पर मर्दों का कब्जा है, उसे एक हद तक बैलेंस करने के लिए इस तरह के काम किए जाने जरूरी हैं.

दूसरे, यह जरूरी इसलिए भी है कि आज आम लोगों के पास परचेजिंग पावर कम हो रही है. मार्केट में वैल्थ सर्कुलेशन हो नहीं पा रहा है. पैसा कुछ खास लोगों के हाथों में ही सिमट रहा है.

ऐसे में गरीबों को डायरैक्ट कैश ट्रांसफर से देश की अर्थव्यवस्था को चलाए रखना बेहद जरूरी भी है. पर समस्या यह कि इस तरह के बड़े वादे अकसर डूबते खेमे से ही आते हैं, जिस पर बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाई जा सकतीं.

हालांकि इस से एक सवाल तो बनता ही है कि आजादी के 75 साल बाद भी ऐसी नौबत क्यों है कि पक्षविपक्ष द्वारा औरतों के लिए ऐसे वादे करने पड़ रहे हैं? आखिर क्यों देश की आधी आबादी यानी औरतों को लुभाने के लिए चुनावी पार्टियों को तरहतरह के वादे करने पड़ रहे हैं?

इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 मार्च, 2024 को सिलैंडर पर 100 रुपए की छूट देने का ऐलान किया. अपने चुनावी घोषणापत्र में भाजपा की तरफ से कहा गया है कि वह जीतने के बाद

सभी बीपीएल परिवारों की छात्राओं को केजी से पीजी तक मुफ्त तालीम का फायदा देगी.

पीएम उज्ज्वला योजना में औरतों को 450 रुपए में सिलैंडर दिया जाएगा.

15 लाख ग्रामीण औरतों को लखपति योजना के  तहत कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा. एक करोड़, 30 लाख से ज्यादा औरतों को माली मदद के साथसाथ आवास का फायदा मिलेगा. बीपीएल परिवारों की लड़कियों को 21 साल तक कुल 2 लाख रुपए का फायदा दिया जाएगा.

हालांकि सवाल यह भी है कि भाजपा की घोषणाओं से कितनी उम्मीद लगाई जाए? साल 2014 से पहले भाजपा ने ‘अच्छे दिन’, ‘हर साल 2 करोड़ नौकरियां’, ‘महंगाई कम करने’, ‘काला धन वापस लाने’ और ‘हर किसी के बैंक अकाउंट में 15 लाख रुपए डालने’ जैसे तमाम वादे किए थे. हालांकि, चुनाव के बाद सवाल पूछा गया, तो तब के भाजपा अध्यक्ष व वर्तमान में गृह मंत्री अमित शाह ने इसे चुनावी जुमला बता दिया था.

चुनाव में औरतों को लुभाने के लिए राष्ट्रीय पार्टियां ही कोशिश नहीं कर रही हैं, बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी वादे कर रही हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने ट्विटर हैंडल से 4 मार्च, 2024 को ट्वीट करते हुए कहा, ‘महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए आप की दिल्ली सरकार ने एक कदम आगे बढ़ते हुए अब महिलाओं को सालाना 12,000 रुपए की सौगात दी है. 18 साल से अधिक उम्र की हमारी सभी बहनबेटियों, माताओं और बहनों को अब मुख्यमंत्री सम्मान योजना के तहत 1,000 रुपए प्रतिमाह दिए जाएंगे.’

इसी तरह तमिलनाडु में भी द्रविड़ मुनेत्र कषगम सरकार व पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार हर महीने 1,000 रुपए डायरैक्ट ट्रांसफर कर रही हैं. तकरीबन सभी पार्टियां औरतों के लिए जरूरी घोषणाएं कर रही हैं.

यह सोचा जा सकता है कि अचानक इन पार्टियों में औरतों के प्रति ऐसा रु?ान क्यों होने लगा? इस की वजह पिछले एक दशक में औरतों के चुनावी भागीदारी में बड़ा बदलाव आना है. वे सब से बड़ा वोट बैंक बन कर उभरी हैं. इतना ही नहीं, विधानसभा चुनाव में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में औरतों ने पिछले कुछ चुनावों में मर्दों से ज्यादा वोट डाले.

लोकसभा से ले कर विधानसभा चुनाव तक सभी जगह इन की वोटिंग में 10 से 15 फीसदी तक का भारी इजाफा देखने को मिला है. इसे इन आंकड़ों से सम?ाते हैं कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मर्द और औरत वोटरों के वोटिंग फीसदी में सिर्फ डेढ़ फीसदी का फर्क था, जबकि साल 2019 में वे मर्दों से आगे निकल गईं. साल 2019 के चुनाव में मर्दों का वोटिंग फीसदी जहां 67.02 था, वहीं औरतों का 67.18 फीसदी था.

इस बढ़ते ट्रैंड और औरतों को ले कर हो रही घोषणाओं से ऐसा लग रहा है कि साल 2024 के चुनाव में औरत वोटरों की तादाद पिछली बार की तुलना में ज्यादा होगी. चुनाव आयोग के मुताबिक, साल 2024 के चुनाव में कुल 96.8 करोड़ वोटर हिस्सा ले सकते हैं. इन में 49.7 करोड़ मर्द और 47.1 करोड़ औरत वोटरों के होने का अंदाजा है.

खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों में तो इन की तादाद और भी बढ़ी है. आज किसी भी पार्टी की सियासत को ऊपर या नीचे करने में औरत वोटर बड़ा रोल निभा रही हैं. कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में रहने की एक बड़ी वजह औरतें ही हैं. यही वजह भी है कि केंद्र से ले कर राज्य सरकारों में सरकार चला रही पार्टियां औरतों के लिए कई खास योजनाएं व घोषणाएं कर रही हैं.

अगर इस का क्रेडिट साल 2005 में आए मनरेगा ऐक्ट व पैतृक संपत्ति पर बेटी के अधिकार और साल 2009 में मिले शिक्षा के अधिकार जैसे अधिकारों को दिया जाए, जिन्होंने औरतों को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया तो गलत न होगा, क्योंकि इन अधिकारों ने निचले से निचले तबके को छूने की कोशिश की, जिन में दोयम दर्जे में औरतें ही थीं.

एक तरह से औरतों के लिए ये नीतियां संजीवनी बूटी बन कर आईं, जिन्होंने उन्हें राजनीतिक रूप से ज्यादा सजग और अपने हकों के लिए लड़ना सिखाया, उन के हाथों में थोड़ीबहुत आर्थिक ताकत देने की कोशिश की, सही माने में अपने पैरों पर खड़ा करने में योगदान दिया.

मगर इस के बावजूद अगर साल 2024 के चुनावों में औरतों के लिए स्पैशल घोषणाएं की जा रही हैं, तो यह जरूर सोचा जा सकता है कि आज भी औरतें उस लैवल पर नहीं पहुंच पाई हैं जहां उन्हें होना चाहिए था.

आज भी सारी आर्थिक और कानूनी ताकत मर्दों के हाथों में हैं. इस की पुष्टि वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी की गई नई रिपोर्ट ‘वीमेन, बिजनैस ऐंड द ला’ और उस के आंकड़े भी करते हैं.

इस रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि काम करने वाली जगह पर औरतों और मर्दों के बीच का फर्क पहले की तुलना में ज्यादा बढ़ा है, वहीं जब हिंसा और बच्चों की देखभाल से जुड़े कानूनी मतभेदों को ध्यान में रखा जाता है, तो औरतों को मर्दों की तुलना में दोतिहाई से भी कम हक हासिल हैं.

हैरानी यह है कि दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जो इस गैरबराबरी से अछूता हो, यहां तक कि दुनिया की अमीर अर्थव्यवस्थाएं भी इस फर्क को दूर करने में कामयाब नहीं हो पाई हैं. भारत में मामला गंभीर है, क्योंकि यहां लैंगिक गैरबराबरी दुनिया के कई देशों के मुकाबले बेहद खराब हालत में है.

‘वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट 2023’ में भारत का नंबर 146 देशों में शर्मनाक 127वें नंबर पर है. भारत के कामकाजी और बड़े पदों पर गैरबराबरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संसद में औरतों की भागीदारी महज 14 फीसदी है, वहीं देश के कुल 119 अरबपतियों की लिस्ट में महज 9 औरतें अरबपति हैं.

आंकड़े साफ करते हैं कि मर्दों के पास औरतों के मुकाबले ज्यादा मौके हैं, वरना देश की कामकाजी औरतों की भागीदारी महज 23 फीसदी और मर्दों की 72 फीसदी न होती.

यानी, देखा जाए तो 50 फीसदी औरतें चुनावी घोषणाएं करने वाली पार्टियों के मुखिया से ले कर संसद में चुने गए मर्द नेताओं के रहमोकरम पर हैं, जो औरतों के लिए गुलामी से कम नहीं.

नेताओं की नेतागीरी में मोहरा बनते ‘स्कूली बच्चे’

क्या देश अभी भी लकीर का फकीर बना हुआ है? क्या यह सोच भारत के जनमानस में अभी भी नहीं पहुंची है कि कम से कम 12 साल से छोटे बच्चों के साथ हमें कैसा कोमल बरताव करना चाहिए? क्या सिर्फ अपनी नौकरी बचाने और नेताओं के इशारे पर हर उस गलत चीज को भी हम सिर झुका कर आसानी से मान लेते हैं और कोई भी हुक्म बजा लाते हैं?

इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्रियों के आने पर स्कूल के बच्चों को उन की रैलियों में, सभाओं में ले जाने का काम स्कूल मैनेजमैंट खुशी या मजबूर हो कर करने लगता है. सम?ाने वाली बात यह है कि निजी स्कूल ऐसा क्यों नहीं करते और सरकारी स्कूलों के बच्चों को आननफानन स्कूल ड्रैस में सभा में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है? इसे बच्चों के साथ क्रूरता और अपराध की कैटेगिरी में रखा जाना चाहिए.

सवाल यह भी है कि अगर कहीं ऐसे हालात में कोई हादसा हो जाए, तो उस का जिम्मेदार कौन होगा? यह भी तय करने की जरूरत है.

तमिलनाडु के कोयंबटूर जिला शिक्षा अधिकारी ने कोयंबटूर में भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में स्कूली बच्चों की भागीदारी पर जांच के आदेश जारी कर दिए हैं. इस से पक्ष और विपक्ष के बीच बहस की तलवारें खिंच गई हैं. मामला पुलिस तक पहुंच गया है और अब मद्रास हाईकोर्ट में चल रहा है.

सनद रहे कि नरेंद्र मोदी ने मेट्टालयम रोड पर बने गंगा अस्पताल और आरएस पुरम के मुख्य डाकघर के बीच 4 किलोमीटर तक का लंबा रोड शो किया था. सरकारी सहायता प्राप्त श्री साईं बाबा मिडिल स्कूल के 14 साल से कम उम्र के बच्चे रोड शो के दौरान अलगअलग जगहों पर पार्टी के प्रतीक चिह्नों वाली भगवा रंग की कपड़े की पट्टियां पहने हुए भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित मंचों पर परफौर्म करते हुए देखे गए.

याद रहे कि कानूनन राजनीतिक रैलियों में बच्चों की भागीदारी भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के निर्देशों के खिलाफ है. ऐसे में जब आज लोकसभा चुनाव अपने उफान पर है, तब यह सवाल और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, जिस का जवाब तय किया जाना चाहिए.

अधिकारियों ने स्कूल मैनेजमैंट को प्रधानाध्यापक और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने और घटना की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है. सवाल और जवाब यही है कि ऐसे घटनाक्रम में सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और आइंदा ऐसा न हो, यह संदेश चला जाना चाहिए.

कोयंबटूर जिला कलक्टर ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘हम ने मुद्दे का संज्ञान लिया है और एआरओ ने संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी है. जांच के निष्कर्षों के आधार पर उचित कार्यवाही की जाएगी.’

श्रम विभाग के संयुक्त आयुक्त और मुख्य शिक्षा अधिकारी द्वारा भी अलगअलग जांच शुरू कर दी गई हैं.

भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार ऐसे कार्य आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन करते हैं. स्कूल मैनेजमैंट पर कार्यवाही की जाती है. मगर इस सब के बावजूद देशभर में ये खबरें अकसर सुर्खियां बटोरती हैं कि प्रधानमंत्री या कोई अन्य राजनीतिक नेता के स्वागत में स्कूली बच्चों को भेड़बकरियों की तरह ठेल दिया जाता है. यह एक आपराधिक कृत्य है और इस से नेताओं को बचना ही चाहिए. स्कूल मैनेजमैंट को भी सख्ती बनाए रखनी चाहिए.

ऐसे मामलों में सब से ज्यादा जिम्मेदारी जहां एक ओर स्कूल मैनेजमैंट की है, वहीं दूसरी ओर बच्चों के मांबाप को भी इस दिशा में जागरूक होने की जरूरत है.

नेताओं की नेतागीरी में मोहरा बनते ‘स्टूडेंट’

क्या देश अभी भी लकीर का फकीर बना हुआ है? क्या यह सोच भारत के जनमानस में अभी भी नहीं पहुंची है कि कम से कम 12 साल से छोटे बच्चों के साथ हमें कैसा कोमल बरताव करना चाहिए? क्या सिर्फ अपनी नौकरी बचाने और नेताओं के इशारे पर हर उस गलत चीज को भी हम सिर झुका कर आसानी से मान लेते हैं और कोई भी हुक्म बजा लाते हैं?

इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्रियों के आने पर स्कूल के बच्चों को उन की रैलिया में, सभाओं में ले जाने का काम स्कूल मैनेजमैंट खुशी या मजबूर हो कर करने लगता है और समझने वाली बात यह है कि निजी स्कूल ऐसा क्यों नहीं करते और सरकारी स्कूलों के बच्चों को आननफानन स्कूल ड्रैस में सभा में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है? इसे बच्चों के साथ क्रूरता और अपराध की कैटेगिरी में रखा जाना चाहिए.

सवाल यह भी है कि अगर कहीं ऐसे हालात में कोई हादसा हो जाए, तो उस का जिम्मेदार कौन होगा, यह भी तय करने की जरूरत है.

तमिलनाडु के कोयंबटूर जिला शिक्षा अधिकारी ने कोयंबटूर में भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में स्कूली बच्चों की भागीदारी पर जांच के आदेश जारी कर दिए हैं. इस से पक्ष और विपक्ष के बीच बहस की तलवार खींच गई है. मामला पुलिस तक पहुंच गया है और अब मद्रास हाईकोर्ट मे चल रहा है.

सनद रहे कि नरेंद्र मोदी ने मेट्टुपालयम रोड पर बने गंगा अस्पताल और आरएस पुरम के मुख्य डाकघर के बीच 4 किलोमीटर लंबा रोड शो किया था. सरकारी सहायता प्राप्त श्री साईं बाबा मिडिल स्कूल के 14 साल से कम उम्र के बच्चे रोड शो के दौरान अलगअलग जगहों पर पार्टी के प्रतीक चिह्नों वाली भगवा रंग की कपड़े की पट्टियां पहने हुए भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित मंचों पर परफौर्म करते हुए देखे गए.

याद रहे कि कानूनन राजनीतिक रैलियों में बच्चों की भागीदारी भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के निर्देशों के खिलाफ है. ऐसे में जब आज लोकसभा चुनाव अपने उफान पर है यह सवाल और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, जिस का जवाब तय किया जाना चाहिए.

अधिकारियों ने स्कूल मैनेजमैंट को प्रधानाध्यापक और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने और घटना की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है. सवाल और जवाब यही है कि ऐसे घटनाक्रम में सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और आइंदा ऐसा न हो, यह संदेश चला जाना चाहिए.

कोयंबटूर जिला कलक्टर ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ‘हम ने मुद्दे का संज्ञान लिया है और एआरओ ने संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी है. जांच के निष्कर्षों के आधार पर उचित कार्यवाही की जाएगी.’

श्रम विभाग के संयुक्त आयुक्त और मुख्य शिक्षा अधिकारी द्वारा भी अलगअलग जांच शुरू कर दी गई हैं.
भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार ऐसे कार्य आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन करते हैं. स्कूल मैनेजमैंट पर कार्यवाही की जाती है. मगर इस सब के बावजूद देशभर में ये खबरें अकसर सुर्खियां बटोरती हैं कि प्रधानमंत्री या कोई अन्य राजनीतिक नेता के स्वागत में स्कूली बच्चों को भेड़बकरियों की तरह ठेल दिया जाता है. यह एक आपराधिक कृत्य है और इस से नेताओं को बचना ही चाहिए. स्कूल मैनेजमैंट को भी सख्ती बनाए रखनी चाहिए.

ऐसे मामलों में सब से ज्यादा जिम्मेदारी जहां एक ओर स्कूल मैनेजमैंट की है वहीं दूसरी ओर बच्चों के अभिभावकों को भी इस दिशा में जागरूक होने की जरूरत है.

लोकतंत्र में बढ़ती तानाशाही

लोकतंत्र का मतलब यह माना जाता है कि जो भी काम होंगे, वे जनता के हित में उन के चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे. जिस देश में जितने ज्यादा नागरिकों को वोट देने का हक रहता है, उस देश को उतना ही ज्यादा लोकतांत्रिक समझ जाता है. इस तरह भारत दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में सब से बड़ा है. यहां वोट देने वाले नागरिकों की तादाद दुनियाभर में सब से बड़ी है.

भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 326 के तहत बालिगों को वोट डालने का हक दिया है. वोटर के लिए जरूरी है कि वह 18 साल या उस से ज्यादा उम्र का हो, साथ ही भारत का निवासी भी हो.

भारत में 1935 के ‘गवर्नमैंट औफ इंडिया ऐक्ट’ के मुताबिक, तब केवल 13 फीसदी जनता को वोट का हक हासिल था. वोटर का हक हासिल करने की बड़ीबड़ी शर्तें थीं. केवल अच्छी सामाजिक और माली हालत वाले नागरिकों को यह हक दिया जाता था. इस में खासतौर पर वे लोग ही थे, जिन के कंधों पर विदेशी शासन टिका हुआ था. पर आजाद भारत में वोट का हक सभी को दिया गया.

लोकतंत्र के बाद भी हमारे देश में लोक यानी जनता की जगह पर तंत्र यानी अफसर और नेताओं का राज चलता है. इस में जनता घरेलू मामलों से ले कर अदालतों तक के बीच चक्की में गेहूं की तरह पिसती है. आखिर में उस का आटा ही बन जाता है. अब शायद कोई ही ऐसा हो, जो इस चक्की में पिस न रहा हो. घर के अंदर तक कानून घुस गया है. पतिपत्नी के बीच से ले कर घर के बाहर सीढ़ी और छत आप की अपनी नहीं है. जो जमीन आप अपनी समझ कर रखते हैं, असल में वह आप की नहीं होती है.

लोकतंत्र में जो तंत्र का हिस्सा है, वह लोक को अपनी जायदाद समझाता है. कानून लोक के लिए तंत्र के हिसाब से चलता है. अगर हम इस को घर के अंदर से देखें तो आप अपनी सुविधा के मुताबिक न तो छत पर कोई कमरा बनवा सकते हैं और न ही घर से बाहर निकलने के लिए सीढ़ियां. तंत्र को देख रहे अफसर अपने हिसाब से नियम बनाते हैं. हाउस टैक्स, प्रौपर्टी टैक्स जैसे नियम अफसर बनाते हैं. जनता से कभी पूछा नहीं जाता है. यही अफसर जनता के हित में अलग तरह से काम करते हैं, जबकि अफसरों, नेताओं के हित में अलग तरह से काम होता है.

लोकतंत्र में तानाशाही बढ़ती जा रही है. वोट पाने के लिए वोटर को लुभाया जा रहा है और विपक्ष को डराया जा रहा है. यह उसी तरह से है, जैसे घर के मालिक को तमाम तरह के टैक्स से परेशान किया जा रहा है. रोजगार पाने के लिए भटक रहे छात्रों को परेशान किया जा रहा है.

नौकरी के लिए इम्तिहान होता है, तो पेपर आउट करा दिया जाता है. बेरोजगारी का आलम यह है कि चपरासी की नौकरी के लिए पीएचडी वाले छात्र लाइन लगा कर खड़े होते हैं. नेताओं के पास इतना पैसा है कि वे वोट को मैनेज करते हैं.

सत्ता को बनाए रखने के लिए यह कोशिश होती है कि विपक्षी को चुनाव न लड़ने दिया जाए. बाहुबली नेता धनंजय सिंह के मसले में उन का कहना है कि ‘चुनाव लड़ने से रोकने के लिए यह किया जा रहा है’. ऐसे उदाहरण कई हैं, जहां लोकतंत्र में तानाशाही दिखती है.

आम आदमी पार्टी का मसला हो, सांसद महुआ मोइत्रा का मामला हो, तमाम उदाहरण सामने हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ले कर भी उन की ऐसी ही घेराबंदी की गई थी.

असल में लोकतंत्र की बात करने वाला या लोकतंत्र के जरीए ही सत्ता संभालने वाला कब तानाशाह बन जाता है, इस का पता नहीं चलता.

दुनियाभर में इस के तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. नैपोलियन, हिटलर और पुतिन जैसे शासकों ने अपनी शुरुआत लोकतंत्र से की, बाद में तानाशाह बन गए. भारत में जिस तरह से विरोधी नेताओें को चुनाव लड़ने से रोका जा रहा है, उस से तानाशाही बढ़ने का खतरा साफतौर पर दिख रहा है.

क्या जेल से चलेगी दिल्ली सरकार या लगेगा राष्ट्रपति शासन? जानिए, क्या हैं नियम

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पद से हटाने की मांग को ले कर दायर जनहित याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है. साथ ही कहा है कि अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के मामले में न्यायिक दखल की जरूरत नहीं है. कोर्ट ने कहा, ‘हमें राजनीतिक दायरे में नहीं घुसना चाहिए और इस में न्यायिक हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है.’

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद से ही दिल्ली की सरकार चलाने को ले कर कई सवाल खड़े होने लगे हैं, जिस में कई तरह के कयासों के साथसाथ कई महत्वपूर्ण सवाल भी सामने आ रहे हैं. सब से मुख्य सवाल यह है कि क्या अरविंद केजरीवाल जेल से ही सरकार चलाएंगे? और अगर हां, तो क्या जेल से सरकार चलाना संभव है? हालांकि, गिरफ्तारी के बाद से अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाए जाने की खबरें भी लगातार सामने आ रही हैं. लेकिन ये बातें कितनी सही हैं, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा.

क्या जेल से सरकार चलाएंगे केजरीवाल?

दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी के पहले से ही आम आदमी पार्टी नेता दावा करते रहे हैं कि अगर केजरीवाल की गिरफ्तारी हुई तो दिल्ली की सरकार जेल से चलेगी. दिल्ली सरकार की मंत्री आतिशी ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं और आगे भी बने रहेंगे, चाहे जेल से सरकार चलानी पड़ी तो चलाएंगे.

आतिशी की मानें तो देश के इतिहास में पहली बार ऐसा देखने को मिलेगा कि किसी राज्य के मुख्यमंत्री जेल से सरकार चलाएंगे और अब अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद भी उन का पद से इस्तीफा न देना काफी हद तक इस बात को सही साबित करता है.

क्या केजरीवाल इस्तीफा देंगे?

अगर कानून के जानकारों की मानें तो दोषी ठहराए जाने तक अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य नहीं हैं. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, अयोग्यता प्रावधानों की रूपरेखा देता है, लेकिन पद से हटाने के लिए दोषसिद्धि आवश्यक है यानी यह साबित करना होगा कि वे दोषी हैं.

आज तक के इतिहास में अब तक ऐसा नहीं हुआ कि कोई मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसा रहा हो, जिस ने जेल से सरकार चलाई हो. कानून के जानकारों के मुताबिक, जेल से सरकार नहीं चला करती. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि सरकार का मुखिया जेल में चला जाए और वहीं से सरकार चलती रहे, क्योंकि मुख्यमंत्री पद के तौर पर ऐसे कई काम होते हैं, जिन के लिए मुख्यमंत्री की उपस्थिति अनिवार्य होती है.

साथ ही जेल की बात करें, तो अगर कोई शख्स जेल में है तो उस के लिए जेल का मैन्युअल फौलो करना अनिवार्य है, क्योंकि पद के अनुसार जेल में कोई अलग नियम नहीं हैं. ऐसे में विधायकों, मंत्रियों से मिलना या बैठक करने पर रोक लग सकती है. इसे ले कर आम आदमी पार्टी के मंत्री सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री जेल में हैं तो बैठक और और्डर भी वहीं से दिए जाएंगे.

हाल ही में आई खबरों के मुताबिक, मुख्यमंत्री जेल से ही कई आदेश भी जारी कर रहे हैं. हालांकि ये सभी बातें राजनीतिक भाषण के लिए तो बिलकुल सही हैं, लेकिन प्रैक्टिल तौर पर फिट नहीं बैठती हैं. इस बात पर आम आदमी पार्टी के नेता कहते हैं कि इसे ले कर वे कोर्ट में याचिका दायर करेंगे. अगर कोर्ट इस मामले पर विचार करता है तो भी इस में वक्त लगेगा.

क्या लागू होगा राष्ट्रपति शासन?

आप नेताओं का कहना है कि हमारे पास पूर्ण बहुमत है. ऐसे में मुख्यमंत्री इस्तीफा क्यों दें? इस के बाद सिर्फ एक ही रास्ता बनता है, जिस में मुख्यमंत्री को बरखास्त कर दिया जाए. कानून में अनुच्छेद 239एए में ऐसा प्रावधान है, जिस में दिल्ली के उपराज्यपाल राष्ट्रपति को पत्र लिख कर मुख्यमंत्री के पद छोड़ने की बात कहें. ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति उन्हें पद से हटा सकते हैं.

इस के अलावा संविधान का अनुच्छेद 356 कहता है कि किसी भी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल होने या इस में किसी तरह का व्यवधान पैदा होने पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. 2 बातों को इसमें आधार बनाया जा सकता है. पहली, जब सरकार संविधान के मुताबिक, सरकार चलाने में सक्षम न हो. दूसरी, जब राज्य सरकार केंद्र सरकार के निर्देशों को लागू करने में विफल रहती है.

राष्ट्रपति शासन लगने पर कैबिनेट भंग कर दी जाती है. राज्य की पावर राष्ट्रपति के पास आ जाती है. इन के आदेश पर ही राज्यपाल, मुख्य सचिव और दूसरे प्रशासकों या सलाहकारों की नियुक्ति की जाती है.

क्या केजरीवाल को पद से हटाने का जोखिम लेगा केंद्र?

अब राजनीति तौर पर बात करें, जो राजनीति जानकारों का मानना है, कि केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाना लोकसभा चुनाव में उलटा पर सकता है, क्योंकि अगर अरविंद केजरीवाल पद से हटाए जाएंगे, तो जनता का इमोशनल सपोर्ट उन्हें मिलेगा. ऐसे में केंद्र सरकार कभी भी इस बात का जोखिम नहीं उठाएगी. इस के पीछे राजनीति के अतीत में हुए लालू यादव और जयललिता का केस है, जिस में उन के जेल जाने के बाद उन्हें जनता की सहानुभूति मिली थी.

दलबदल का खेल

दलबदल और क्रौस वोटिंग भी उसी तरह से गलत है, जिस तरह ‘महाभारत’ में शकुनि और समुद्र मंथन में देवताओं ने गलत किया था. इस के लिए बेईमानी सिखाने वाला जिम्मेदार होता है. दलबदल करने के लिए उकसाने वाला दलबदल करने वालों से ज्यादा कुसूरवार होता है.

जब भगवा चोले वाले दक्षिणापंथी इस काम को करते हैं, तो वे भेड़ के भेष में भेडि़ए लगते हैं. राज्यसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से ले कर हिमाचल प्रदेश तक जो हुआ, वह दलबदल की परिभाषा में भले ही पूरी तरह से फिट न हो, पर यह भ्रष्ट आचरण का उदाहरण है.

भारतीय राजनीति में दलबदल करने वालों को ‘आया राम गया राम’ के नाम से भी जाना जाता है. पहले यह कहावत ‘आया लाल गया लाल’ के नाम से मशहूर थी, फिर यह ‘आया राम गया राम’ में बदल गई. इस का मतलब राजनीतिक दलों में आने और जाने से होता है.

मजेदार बात यह है कि गया लाल नाम का एक विधायक था, जिस के नाम पर यह कहावत पड़ी थी. 55 साल के बाद आज भी यह कहावत पूरी तरह से हकीकत को दिखाती है.

बात साल 1967 की है. उस समय हरियाणा के हसनपुर निर्वाचन क्षेत्र, जिसे अब होडल के नाम से जाना जाता है, विधानसभा के सदस्य गया लाल ने एक आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता था. इस के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

इस के बाद गया लाल ने एक पखवारे में 3 बार पार्टियां बदली थीं. पहले राजनीतिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संयुक्त मोरचे में दलबदल कर के, फिर वहां से वे वापस कांग्रेस में शामिल हो गए और फिर 9 घंटे के भीतर संयुक्त मोरचे में शामिल हो गए.

जब गया लाल ने संयुक्त मोरचा छोड़ दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए, तो कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह, जिन्होंने गया लाल के कांग्रेस में दलबदल की योजना बनाई थी, चंडीगढ़ में एक  सम्मेलन में गया लाल को लाए और घोषणा की थी कि ‘गया लाल अब आया लाल’ हो गए हैं. इस से राजनीतिक दलबदल का खेल शुरू हो गया था. उस के बाद हरियाणा विधानसभा भंग हो गई और राष्ट्रपति शासन लगाया गया.

साल 1967 के बाद भी गया लाल लगातार राजनीतिक दल बदलते रहे. साल 1972 में वे अखिल भारतीय आर्य सभा के साथ हरियाणा में विधानसभा चुनाव लड़े. साल 1974 में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय लोक दल में शामिल हुए. साल 1977 में लोकदल के जनता पार्टी में विलय के बाद जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सीट जीती.

गया लाल के बेटे उदय भान भी दलबदल करते रहे. साल 1987 में आजाद उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव जीता. साल 1991 में जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव हार गए. साल 1996 में आजाद उम्मीदवार के रूप में हार गए. साल 2000 में चुनाव जीतने के बाद इंडियन नैशनल लोकदल में शामिल हो गए. साल 2004 में दलबदल विरोधी कानून के तहत आरोपों का सामना करना पड़ा. इस के बाद वे कांग्रेस में शामिल हुए. साल 2005 में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की.

हरियाणा रहा दलबदल का जनक

राजनीति का असर समाज और घरपरिवार पर भी पड़ता है. बाद में यह कहावत बहुत मशहूर हो गई. अपने वादों और दावों से बदलने वालों को ‘आया राम, गया राम’ के नाम से पहचाना जा सका. राजनीति की नजर से देखें, तो हरियाणा इस का केंद्र रहा है.

साल 1980 में भजनलाल जनता पार्टी छोड़ कर 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे और बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने. साल 1990 में उस समय भजनलाल की ही हरियाणा में सरकार थी.

भाजपा के केएल शर्मा कांग्रेस में शामिल हो गए थे. उस के बाद हरियाणा विकास पार्टी के 4 विधायक धर्मपाल सांगवान, लहरी सिंह, पीर चंद और अमर सिंह धानक भी कांग्रेस में शामिल हो गए.

साल 1996 में हरियाणा विकास पार्टी और बीजेपी गठबंधन ने सरकार बनाई. बाद में हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायकों के पार्टी छोड़ने की वजह से बंसीलाल को इस्तीफा देना पड़ा. हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायक इनेलो में शामिल हो गए थे. उस के बाद भाजपा की मदद से ओम प्रकाश चौटाला ने राज्य में सरकार बनाई थी.

साल 2009 के चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस और इंडियन नैशनल लोक दल दोनों सरकार बनाने की कोशिश कर रही थीं. उस समय हरियाणा जनहित कांग्रेस के

5 विधायक सतपाल सांगवान, विनोद भयाना, राव नरेंद्र सिंह, जिले राम शर्मा और धर्म सिंह कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

दूसरे प्रदेश भी चले दलबदल की राह

‘आया राम गया राम’ की शुरुआत भले ही हरियाणा से हुई हो, पर दलबदल की जलेबी हर दल को पसंद आने लगी. इस की मिठास में सभी सराबोर हो गए. साल 1995 के बाद से उत्तर प्रदेश में यह दौर तेज हुआ. पहली बार बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं.

साल 1996 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला. पहले 6 महीने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा रहा. इस के बाद भाजपा और बसपा ने 6-6 महीने का फार्मूला तय किया, जिस के तहत पहले 6 महीने बसपा की मायावती को मुख्यमंत्री बनना था, उस के बाद भाजपा का नंबर आता.

दूसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने अपनी 6 महीने सरकार चलाई. जब सत्ता भाजपा को सौंपने का नंबर आया, तो मायावती ने राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. राज्यपाल रोमेश भंडारी कोई फैसला लें, इस के पहले भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले कर सरकार गिरा दी.

अब सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल ने. राज्यपाल ने जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया. इस के खिलाफ भाजपा हाईकोर्ट गई. तब कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बना कर बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया. कोर्ट ने जगदंबिका पाल के मुख्यमंत्री बनाने के फैसले को रद्द कर दिया.

कल्याण सिंह और भाजपा ने बहुमत साबित करने के लिए बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को तोड़ दिया. दलबदल कानून से बचने के लिए पार्टी टूट कर नई पार्टी बनी. विधासभा अध्यक्ष ने नई पार्टी को मंजूरी दी. बसपा से टूटी बहुजन समाज दल और कांग्रेस से अलग हुई लोकतांत्रिक कांग्रेस ने भाजपा को समर्थन दिया और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. 4 साल के कार्यकाल में भाजपा ने पहले कल्याण सिंह, इस के बाद राम प्रकाश गुप्ता और आखिर में राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने.

साल 2003 में भी पहले बसपा और भाजपा का 6-6 महीने का फार्मूला बना, फिर वही कहानी दोहराई गई. इस बार भाजपा ने सरकार नहीं बनाई. लोकदल और भाजपा से अलग हुए कल्याण सिंह की पार्टी ने मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और सरकार बनाई.

कश्मीर में साल 2016 में पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के 43 में से 33 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. पहले कांग्रेस विधायक पीपल्स पार्टी में चले गए थे और बाद में भाजपा में चले गए थे. साल 2018 में गोवा में कांग्रेस के 2 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे.

मध्य प्रदेश के दिग्गज नेता और कांग्रेस से सांसद व केंद्रीय मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया. कांग्रेस की सरकार गिर गई. बिहार में भी ‘आया राम गया राम’ का खेल चलता रहा. नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दलबदल हुआ.

काम नहीं आया दलबदल विरोधी कानून

साल 1985 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने दलबदल रोकने के लिए ‘दलबदल विरोधी कानून’ बनाया. राजीव गांधी सरकार द्वारा भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची के रूप में इस को शामिल किया गया था.

इस दलबदल विरोधी अधिनियम को संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू किया गया, जो सदन के किसी अन्य सदस्य की याचिका के आधार पर दलबदल के तहत विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए विधायिका के पीठासीन अधिकारी (विधानसभा अध्यक्ष) को अधिकार देता है. दलबदल तभी मान्य होता है, जब पार्टी के कम से कम दोतिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों. राज्यसभा के चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार से अलग किसी दूसरे उम्मीदवार को वोट दिया जाए, तो विधायक की सदस्यता खुद से नहीं जाती है. यहां केवल पार्टी के चुनाव अधिकारी को वोट दिखाना होता है कि किस को वोट कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव के लिए वोट करते समय पार्टी विधायकों ने सपा नेता शिवपाल यादव को अपना वोट दिखा दिया था. इस से यह साफ हो गया कि सपा के किन विधायकों ने वोट दिया. इन की सदस्यता खुद ही नहीं जाएगी. अब समाजवादी पार्टी विधानसभा अध्यक्ष से अपील करेगी. विधानसभा अध्यक्ष पूरा मामला मुकदमे की तरह से सुनेंगे. फिर जैसा वे फैसला देंगे, वह माना जाएगा.

विधानसभा के अंदर किसी भी मामले में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास होती है. उस के फैसले पर आमतौर पर कोर्ट भी कोई बचाव नहीं करता है.

अंतरात्मा नहीं, लालच है यह दलबदल आज की समस्या नहीं है. यह हमेशा से रही है. दलबदल कानून बनने के बाद भी इस को रोका नहीं जा सका है. यह अंतरात्मा की आवाज पर नहीं, लालच और बेईमानी की वजह से किया जाता है. जिस तरह से ‘महाभारत’ में शकुनि ने पांडवों के खिलाफ काम किया, लाक्षागृह, पांडवों को जुए में धोखे से हराना जैसे बहुत से काम किए. पांडवों का साथ दे रहे कृष्ण ने बात तो धर्मयुद्ध की की, पर कर्ण, अश्वत्थामा जैसों को मारने के लिए अधर्म का सहारा लिया.

पौराणिक कथाओं में ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहां अपनी जीत के लिए साम, दाम, दंड, भेद का सहारा लिया गया. समुद्र मंथन भी इस का एक उदाहरण है, जिस में अमृत पीने के लिए देवताओं ने दानवों को धोखा दिया.

यहां इन घटनाओं से तुलना इसलिए जरूरी है, क्योंकि दक्षिणापंथी लोग खुद को बहुत पाकसाफ कहते हैं. भारतीय जनता पार्टी खुद को ‘पार्टी विद डिफरैंस’ कहती थी. उस का दावा था कि वह ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ सामने रख कर काम करती है.

अगर दलबदल की घटनाओं को देखेंगे, तो साफ दिखेगा कि भाजपा जीत के लिए दलबदल खूब कराती है. राज्यसभा चुनाव में हार के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा, ‘भाजपा जीत के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है. विधायकों को तमाम तरह के लालच दे सकती है. कुछ पाने की चाह में विधायक भटक जाते हैं.’

दरअसल, यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का हिस्सा है. यह जनता को धोखा देने के समान है. कोई विधायक एक दल से चुनाव लड़ता है. उस दल की विचारधारा और उस के वोटर से वोट ले कर जीतता है. बाद में वह दल बदल कर दूसरे दल की खिलाफ विचारधारा से हाथ मिला लेता है. इस से उस को वोट दे कर चुनाव जिताने वाली जनता खुद को ठगा सा महसूस करती है.

यह काम भगवाधारी करते हैं, तो खड़ग सिंह और बाबा भारती की कहानी याद आती है, जिस में डाकू खड़ग सिंह ने भेष बदल कर बाबा भारती को धोखा देते हुए उन का घोड़ा छीन लिया था.

लोकसभा चुनाव की तारीख का ऐलान, जानिए कौन, कब, कहां डालेगा वोट

भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने आज 16 मार्च, 2024 को लोकसभा चुनाव 2024 की तारीखों का ऐलान कर दिया है. दिल्ली के विज्ञान भवन में हुई निर्वाचन आयोग की प्रैस वार्ता में मुख्य चुनाव आयुक्त ने लोकसभा चुनाव 2024 को ले कर कहा कि 543 लोकसभा सीटों के लिए 7 चरणों में मतदान होगा, जबकि चुनाव के नतीजे 4 जून, 2024 को आएंगे.

आज हुई घोषणा के अनुसार, पहले चरण में 19 अप्रैल, 2024 को 21 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की कुल 102 लोकसभा सीटों के लिए मतदान होगा. इस चरण में 10 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं, जिन की सभी लोकसभा सीटों पर मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी.

दूसरे चरण में 26 अप्रैल, 2024 को 13 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की 89 लोकसभा सीटों के लिए मतदान कराया जाएगा. इस चरण में 4 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां की सभी सीटों पर मतदान होगा.

तीसरे चरण में 7 मई, 2024 को 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश की 94 लोकसभा सीटों के लिए मतदान होगा, जिस में 6 राज्यों की सभी सीटें शामिल हैं. चौथे चरण में 13 मई, 2024 को 3 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सभी लोकसभा सीटों के साथ ही कुल 96 लोकसभा सीटों पर मतदान होगा.

5वें चरण में 20 मई, 2024 को 3 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सभी सीटों के साथ ही कुल 8 राज्यों की 49 लोकसभा सीटों पर मतदान होगा. छठे चरण में 25 मई, 2024 को 2 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सभी सीटों पर मतदान होगा. इस चरण में 7 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की कुल 57 सीटों पर मतदान होगा. 7वें और आखिरी चरण में 1 जून, 2024 को 8 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की 57 लोकसभा सीटों पर मतदान होगा.

लोकसभा के साथसाथ 4 राज्यों आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के विधानसभा चुनाव की तारीखें भी जारी कर दी गई हैं. ओडिशा में 13 मई, 20 मई, 25 मई और 1 जून को मतदान होगा. बाकी 3 राज्यों में एक चरण में चुनाव होंगे. अरुणाचल और सिक्किम में 19 अप्रैल, 2024 और आंध्र प्रदेश में 13 मई, 2024 को वोट डाले जाएंगे.

मौजूदा लोकसभा का कार्यकाल 16 जून, 2024 को खत्म हो रहा है और नई लोकसभा का गठन उस से पहले होना है.

धर्म ने जकड़ा औरत को बेड़ियों में

आम औरतों के लिए घर की चारदीवारी बनी रहे, यह सब से बड़ी नियामत होती है और इसीलिए करोड़ों औरतें अपने शराबी, पीटने वाले, निकम्मे, गंदे, बदबूदार मर्द को झेलती ही नहीं हैं, उसे कुछ होने लगे तो बचाने के लिए जीजान लगा देती हैं. औरतों में मांग में सिंदूर की इतनी ज्यादा इच्छा रहती है कि वे घर छोड़ कर चले गए और दूसरी औरत के पास रहने वाले पति को भी अपना मर्द मानती हैं.

इस की वजह साधारण है. यह कोई त्याग का मामला नहीं है और न ही पति से प्यार का है. हर औरत को बचपन से सिखा दिया जाता है कि मर्द नाम की हस्ती ही उस को दुनिया से बचा सकती है और यह बात उस के मन में इस कदर बैठ जाती है कि चाहे मर्द के दूसरी औरतों के साथ संबंध बनें या खुद औरत के दूसरे मर्दों से संबंध बने हों, वे शादी का ठप्पा नहीं छोड़ पातीं. इस का कहीं कोई फायदा होता है, ऐसा नहीं लगता. यह शादी का बिल्ला, ये हाथ की चूडि़यां, यह मांग का सिंदूर असल में औरतों की गुलामी की निशानी बन जाता है जिस का मर्द, उस का परिवार और दूसरे लोग खूब जम कर फायदा उठाते हैं.

अगर औरत चार पैसे कमा रही है तो उस के पास एक पैसा नहीं छोड़ा जाता. अगर वह अकेले रह रही है तो साजिश के तौर पर दूसरे मर्द उस से अश्लील मजाक करने लगते हैं ताकि वह जैसे भी उसी मर्द की छांव में चली जाए. हर कानून में लिखा गया है कि मर्द का नाम बीवी के साथ लिखा जाएगा जबकि मर्द की पहचान उस के पिता से होती है. समाज ने इस तरह के फंदे बना रखे हैं कि पति को छोड़ चुकी अकेली औरत को, चाहे किसी उम्र की हो, मकान किराए पर नहीं मिलता, रेलवे का टिकट नहीं बनता, राशनकार्ड नहीं बनता, बच्चे हैं तो स्कूल में उन्हें तब तक दाखिला नहीं मिलता, जब तक मर्द का नाम न हो.

मर्द को औरत की चाबी पकड़ाने में धर्मों ने बहुत बड़ा काम किया है. हिंदू धर्म में मर्द परमेश्वर है, इसलाम में वह जब चाहे तलाक दे दे, जब चाहे सौतन ले आए. ईसाई धर्म में ईश्वरी जोड़ा बना डाला. तीनों धर्मों ने शादी अपनी निगरानी में करवानी शुरू कर दी पर औरतों के हकों पर तीनों बड़े धर्मों ने भेदभाव खुल कर रखा.

दुनियाभर में शहरों में ही नहीं गांवों तक में वेश्याएं हैं. यह दोतरफा वार है औरतों पर. एक तो जिन्हें वेश्या बनाया जाता है, उन्हें मशीन की तरह पैसा कमाने का साधन रखा जाता है. ये गरीब घरों की ही होती हैं, जिन्हें लीपपोत कर सजाया जाता है. जैसे ही जवानी घटती है, बीमारी होती है, मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. दूसरी तरफ मर्दों को इनाम दिया गया है कि वे अपनी बीवियों के होते हुए इन वेश्याओं के पास जा सकते हैं. किसी धर्म ने इस वेश्या बाजार को बंद नहीं किया.

जो औरत वेश्या बनती है वह सताई जाती है. जिस का मर्द वेश्या के पास जाता है वह भी लुटती है. कहीं भी मर्दों के बाजार क्यों नहीं हैं? अगर औरत मर्द की कोई जरूरत पूरी करती है तो औरतों की भी तो जरूरतें हो सकती हैं. उन्हें ऐसा करते ही मार डाला जाता है.

औरतों को आज भी किसी भी लोकतंत्र में बराबरी के हक नहीं मिल रहे. उन के सारे फैसले मर्द करते हैं या उन के खाविंद हों, समाज के नेता, धर्म के दुकानदार हों या सरकार चलाने वाले नेता, अफसर, जज, पुलिस के डंडे. इन में कहीं भी औरतों का कोई जोर नहीं, कोई दम नहीं, कोई जगह नहीं. जाहिर है, औरत को छिपने के लिए एक ही जगह छोड़ी गई है, उस का अपना शादीशुदा मर्द, वह भी एकलौता.

लोकतंत्र में या उसे वोटतंत्र कहें, औरतों के पास बराबर के हक हैं पर मजाल है कि कोई बीवी अपने मर्द की इजाजत के बिना किसी को वोट दे दे. जब वह घर से बाहर कदम नहीं रख सकती तो भला अपना नेता खुद कैसे चुन सकती है, अपना धर्म दुकानदार खुद कैसे चुन सकती है, अपना घर खुद कैसे बना सकती है. दुनियाभर के लोकतंत्र भी धर्म की आड़ में चल रहे हैं. यहां तो बहुतकुछ धर्म के नाम पर ही हो रहा है. धर्म कायम है तो औरतों की गुलामी कायम है, रही थी और रहेगी.

हर मुद्दे पर खुल कर बोल रहे हैं राहुल गांधी

उत्तर प्रदेश में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सेना में अग्निवीर योजना, बेरोजगारी, अडानी, राम मंदिर और जातीय गणना पर खुल कर बोला. प्रदेश में इस यात्रा में पार्टी नेता प्रियंका गांधी को भी शामिल होना था, लेकिन तबीयत ठीक न होने के चलते वे शामिल नहीं हो सकी थीं.

16 फरवरी, 2024 को ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने देश के सब से ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया था. यह यात्रा बिहार से चंदौली के रास्ते उत्तर प्रदेश पहुंची थी, जहां यात्रा का तय कार्यक्रम ‘तिरंगा सैरेमनी’ हुआ, जिस में बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को तिरंगा सौंपा था.

इस मौके पर राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे, कांग्रेस विधानमंडल दल की नेता आराधना मिश्रा मोना और दूसरे कई नेता हाजिर रहे थे.

चंदौली पहुंच कर राहुल गांधी ने सैयद राजा शहीद स्मारक पर शहीदों को नमन किया. राहुल गांधी ने कहा, ‘‘एक विचारधारा भाई को भाई से लड़ाती है और आप की जेब से पैसा निकाल कर चुनिंदा अरबपतियों को दे देती है, वहीं दूसरी विचारधारा नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलती है और आप का हक आप को वापस लौटाती है.’’

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी ने लोगों से पूछा कि देश में फैली नफरत की क्या वजह है? इस पर जवाब मिला कि देश में फैल रही नफरत की वजह डर है और इस डर की वजह नाइंसाफी है.

आज देश के हर हिस्से में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लैवल पर नाइंसाफी हो रही है. देश में किसानों और गरीबों की जमीनें छीन कर अरबपतियों को दी जा रही हैं. महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है.

मोदी सरकार की अग्निपथ योजना को नौजवानों के साथ धोखा बताते हुए राहुल गांधी ने कहा कि अग्निवीर को न कैंटीन सुविधा मिलेगी, न पैंशन मिलेगी और न शहीद का दर्जा मिलेगा. यह नौजवानों के साथ धोखा है.

मोदी सरकार अग्निपथ योजना इसलिए लाई, ताकि देश के रक्षा बजट से पैसा हमारे जवानों की रक्षा, उन की ट्रेनिंग और पैंशन में न जाए. रक्षा के सभी कौंट्रैक्ट अडानी की कंपनी के पास हैं. मोदी सरकार हिंदुस्तान के बजट का पूरा पैसा अडानी को देना चाहती है, इसलिए अग्निवीर योजना लाई गई.

राहुल गांधी ने आगे कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि सब लोग ठेके के मजदूर बनें. नौजवानों को सेना, रेलवे और पब्लिक सैक्टर में नौकरी नहीं मिल रही, क्योंकि मोदी सरकार चाहती है कि नौजवान ठेके पर ही काम करें.

आज हिंदुस्तान में 2-3 अरबपतियों को पूरा फायदा मिल रहा है और नौजवानों का ध्यान भटका कर उन का भविष्य छीना जा रहा है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे हिंदुस्तान में खाली पड़े सरकारी पदों पर भरती की जाएगी.

राहुल गांधी ने आगे यह भी कहा, ‘‘कुछ ही दिनों पहले हम ने किसानों के लिए एमएसपी की लीगल गारंटी दी है. हम कानूनी गारंटी देंगे कि हिंदुस्तान के किसानों को सही एमएसपी दी जाए.

‘‘मैं आप से यह कहना चाहता हूं कि सामाजिक अन्याय हो रहा है, आर्थिक अन्याय हो रहा है, किसानों के खिलाफ अन्याय हो रहा है.’’

राहुल गांधी ने जनता से सवाल किया कि नरेंद्र मोदी ने किसानों का कितना कर्जा माफ किया?

जनता की भीड़ ने कहा, ‘जीरो. एक रुपया नहीं किया.’

राहुल गांधी ने दूसरा सवाल किया, ‘हिंदुस्तान के 20-25 अरबपतियों का कितना कर्जा माफ किया?’

भीड़ से जवाब आया, ‘16 लाख करोड़ रुपए.’

मीडिया पर तंज कसते हुए राहुल गांधी बोले, ‘‘हम ने किसानों का कर्जा माफ किया, 72,000 करोड़ रुपए हम ने माफ किए और उस टाइम सारे मीडिया ने कहा कि देखो, यूपीए की सरकार पैसा जाया कर रही है, किसानों को आलसी बना रही है. तो जब किसानों का कर्जा माफ होता है तो मीडिया कहती है कि किसानों को आलसी बनाया जा रहा है और जब नरेंद्र मोदी 15-20 लोगों का 16 लाख करोड़ रुपए का कर्जा माफ करते हैं, तो फिर ये एक शब्द नहीं कहते.’’

जनता की भीड़ ने कहा, ‘मोदी मीडिया, गोदी मीडिया एक शब्द नहीं कहता.’

जनता के यह कहने पर राहुल गांधी बोले, ‘‘तो इसी अन्याय के खिलाफ हम ने यह यात्रा निकाली है.’’

कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी ने आगे कहा कि मीडिया में कभी किसान या मजदूर का चेहरा नहीं दिखाई देगा. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में अडानी, अंबानी, अरबपति, फिल्मी सितारे दिखे, लेकिन कोई गरीब, किसान, बेरोजगार, दुकानदार या मजदूर नहीं दिखा.

भागीदारी न्याय का मुद्दा उठाते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि देश में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की आबादी 73 फीसदी है. मगर इन वर्गों की कहीं भी भागीदारी नहीं है.

इन वर्गों को कुछ नहीं मिल रहा है. यह नाइंसाफी है. जाति जनगणना से पता चलेगा कि देश में कितने पिछड़े, दलित और आदिवासी हैं. किस वर्ग के पास कितना पैसा है.

जाति जनगणना देश का ऐक्सरे है. इस से पता लग जाएगा कि सोने की चिडि़या का पैसा किस के हाथ में है. यह क्रांतिकारी कदम है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे देश में जाति जनगणना कराई जाएगी.

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