मायावती का मिशन अधूरा

लोकसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को वह कामयाबी नहीं मिली, जिस की उम्मीद दोनों ही दलों को थी.

मायावती ने इस का ठीकरा सपा नेता अखिलेश यादव के सिर पर फोड़ते हुए कहा, ‘‘समाजवादी पार्टी के वोट बसपा ट्रांसफर नहीं हुए. अखिलेश यादव को सपा में मिशनरी सिस्टम यानी कैडर बेस को सही करना चाहिए.’’

साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हालत सब से ज्यादा खराब थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन का ही फायदा है कि बसपा को 10 सीटें मिल गईं.

चुनाव आयोग के आंकड़ों को भी देखें तो यह बात साफ होती है कि सपा के वोट तो बसपा को मिले, उलटे बसपा के वोट सपा को नहीं मिले.

बीते तकरीबन 20 सालों से बसपा में कैडर के कार्यकर्ताओं की घोर अनदेखी हुई है. बसपा प्रमुख मायावती को सब

से ज्यादा नुकसान 2009 के बाद से

शुरू हुआ, जब वह बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुई, पर उन्होंने दलित कार्यकर्ताओं और दूसरे दलित संगठनों की अनेदखी शुरू की थी.

टूटता बसपा का मिशन

बसपा से जाटव बिरादरी को छोड़ बाकी दलित जातियों का पूरी तरह से मोह भंग हो चुका है. इस की सब से बड़ी वजह खुद मायावती की नीतियां हैं.

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मायावती ने बसपा में लोकतंत्र को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया. धीरेधीरे

कर के जनाधार वाले नेता पार्टी से दूर होते चले गए और पार्टी का जनाधार खिसकता गया.

टिकट के लिए पैसा लेने के सब

से ज्यादा आरोप बसपा पर लगते हैं. राजधानी लखनऊ के पास की मोहनलालगंज सुरक्षित लोकसभा सीट को देखें तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने रिटायर अफसर राम बहादुर को टिकट दिया था. वे कम वोट से चुनाव हार गए.

2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने इस सीट पर राम बहादुर को टिकट नहीं दिया और सीएल वर्मा को टिकट दिया जो मायावती के बेहद करीबी माने जाते हैं. सीएल वर्मा 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट से चुनाव हार गए.

जानकार लोग कहते हैं कि अगर राम बहादुर को दोबारा इस सीट से चुनाव लड़ाया जाता तो वे सीएल वर्मा के मुकाबले बेहतर चुनाव लड़ते.

कांशीराम के समय में बसपा में सभी दलित जातियों की नुमाइंदगी

होती थी. कांशीराम की मुहिम

‘85 बनाम 15’ की थी. यही लड़ाई भीमराव अंबेडकर की भी थी.

कांशीराम के बाद मायावती के हाथ सत्ता आते ही पार्टी अपने मिशन से भटक गई. मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. वहीं से बसपा का मिशन अधूरा रह गया और पार्टी का जनाधार खिसकने लगा.

नाकाम सोशल इंजीनियरिंग

1998 के बाद से बसपा अपने मिशन को दरकिनार कर आगे बढ़ने लगी. ‘ठाकुर, बामन, बनिया छोड़ बाकी सब है डीएस फोर’ का नारा देने वाली बसपा अब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राह्मण समाज को आगे बढ़ाने लगी. इस तरह बसपा का मिशन खत्म हो गया.

बसपा के लिए परेशानी का सबब यह है कि पार्टी के दलित तबके ने सवर्णों की तरह से रीतिरिवाज और पूजापाठ करना शुरू कर दिया. भाजपा ने इन सब को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया तो बसपा ने दलितमुसलिम गठजोड़ बनाना शुरू किया. उस समय तक मायावती को इस बात का अहसास ही नहीं था कि दलित सवर्ण से ज्यादा मुसलिमों से दूर हैं. ऐसे में दलितों ने बसपा के मुसलिम प्रेम को नकारते हुए पार्टी से किनारा कर लिया.

2017 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने बसपा के तकरीबन 100 टिकट मुसलिम बिरादरी को दिए. नतीजा एक बार फिर से बसपा के खिलाफ गया और बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई.

दलितपिछड़ा गठजोड़

चुनाव में जातीय समीकरण मजबूत करने के लिए बसपासपा ने गठबंधन किया. दोनों को लग रहा था कि यह गठजोड़ काम करेगा. असल में बसपा नेता मायावती की ही तरह सपा नेता अखिलेश यादव भी केवल यादव जाति के नेता बन कर रह गए. जमीनी स्तर पर दलित पिछड़ों के बीच वैसा ही भेदभाव है जैसा दलित और सवर्ण के बीच है. दलित तबके को अब लगता है कि उस को अगर समाज की मुख्यधारा में शामिल होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा.

बसपा के खिसकते जनाधार को चुनावी नतीजों से समझा जा सकता है. 2014 में बसपा ने 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, उस को 19.77 फीसदी वोट मिले. 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिल कर 38 सीटों पर चुनाव लड़ा और 19.36 फीसदी वोट मिले. केवल 38 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी उसे पहले जैसे ही वोट मिले. इस से पता चलता है कि गठबंधन का लाभ बसपा को मिला. गठबंधन नहीं हुआ होता तो वोट प्रतिशत घट गया होता.

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सपा को देखें तो 2014 में उस को 22.35 फीसदी वोट मिले थे. 2019 में वे घट कर 18 फीसदी रह गए. ऐसे में साफ है कि गठबंधन का सपा को कोई फायदा नहीं हुआ. बसपा को केवल वोट फीसदी में ही फायदा नहीं हुआ बल्कि लोकसभा में वह जीरो से 10 सीटों पर आ पहुंची.

मायावती जो सीख अखिलेश यादव को दे रही हैं कि वे सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी मिशन से जोड़ें, असल में यह काम खुद मायावती को करने की जरूरत है. मुसलिम वोट बैंक मायावती के साथ नहीं है. वह भाजपा के खिलाफ है. ऐसे में जब तक चुनाव में राष्ट्रवाद और धर्म पर वोट डाले जाएंगे, तब

तक जातीय गठजोड़ काम नहीं आएगा. मुसलिमों का हिमायती बनने के चलते भी दलित सब से ज्यादा बसपा से नाराज हो कर पार्टी से दूर जा रहे हैं.         द्य

RTI: क्या सरकार ने सूचना का अधिकार कानून की शक्तियां कम कर दी हैं?

विपक्ष के कई दलों और सांसदों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन संबंधी एक विधेयक को मंजूरी दी है.

राज्यसभा ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को चर्चा के बाद ध्वनिमत से पारित कर दिया. साथ ही सदन ने इस विधेयक को प्रवर समिति में भेजने के लिए लाए गए विपक्ष के सदस्यों के प्रस्तावों को 75 के मुकाबले 117 मतों से खारिज कर दिया.
कांग्रेस सहित विपक्ष के कई सदस्यों ने इस का कड़ा विरोध किया.
नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने विरोध करते हुए आरोप लगाया,”आज पूरे सदन ने देख लिया कि आप ने चुनाव में 303 सीटें कैसे प्राप्त की थीं? ऐसा लगता है जैसे सरकार संसद को एक सरकारी विभाग की तरह चलाने की मंशा रखती है.”
इस के बाद विरोध में कई विपक्षी दलों के सदस्य वाक आउट कर गए.

विधेयक में क्या है प्रावधान

इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्तें केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे.
इस संशोधन विधेयक पर विपक्ष ने एतराज जताते हुए कहा कि सरकार सूचना के अधिकार कानून पर भी अपनी पकङ मजबूत बना कर उसे अपने हिसाब से डील करना चाहती है.
इस पर कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा,”हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शासनकाल में सूचना के अधिकार की अवधारणा सामने आई थी. कोई कानून और उस के पीछे की अवधारणा एक सतत प्रक्रिया है जिस से सरकारें समयसमय पर जरूरत के अनुरूप संशोधित करती रहती हैं.”
मंत्री ने आगे कहा,”मैं ने कभी यह नहीं कहा कि मोदी सरकार के शासनकाल में आरटीआई संबंधित कोई पोर्टल जारी किया गया था. मोदी सरकार के शासनकाल में एक ऐप जारी किया गया है. इस की मदद से कोई रात 12 बजे के बाद भी सूचना के अधिकार के लिए आवेदन कर सकता है.”

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केंद्र का अधिकार बढेगा

विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों में कहा गया है कि आरटीआई अधिनियम की धारा-13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की पदावधि और सेवा शर्तों का उपबंध किया गया है. इस में कहा गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ते और शर्तें क्रमश: मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के समान होंगी. इस में यह भी उपबंध किया गया है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन क्रमश: निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव के समान होगा. मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के वेतन एवं भत्ते एवं सेवा शर्तें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समतुल्य हैं.

क्यों हो रहा है विरोध

जब से सूचना का अधिकार कानून लागू किया गया तब से ही जनता को इस के तहत कई तरह के अधिकार मिल गए थे. मगर सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन को ले कर कङा एतराज जताया जा रहा है.
इस बदलाव पर लोकपाल आंदोलन को ले कर संघर्ष करने वाले अन्ना हजारे ने कङा विरोध किया और सरकार की मंशा पर संदेह जताया.
कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी ने भी इस विधेयक का विरोध किया है.
दरअसल, विरोध इसलिए भी हो रहा है कि अब तक सूचना आयोग के सामने जो भी मामले आते हैं उन में सरकार से ही सूचना ले कर लोगों को दिया जाता है. मगर संशोधन से सरकार की सेवा शर्तें तय करने का अधिकार आयुक्तों को मिल जाएगा. जाहिर है, इस से इस कानून में कमजोरी आने की संभावना बढ जाएगी.

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क्या जनता की शक्ति कम हो गई है

बदले हुए आरटीआई ऐक्ट के तहत क्या जनता की शक्ति कम हो जाएगी? आइए, जानते हैं :
● इस संशोधन से सूचना का अधिकार कानून कमजोर हो जाएगा.
● इस संशोधन से सूचना आयुक्तों की खुदमुख्तारी पर असर पङेगा.
● जब से यह कानून लागू हुआ था तब से ही सरकार के अंदर की कई महत्वपूर्ण सूचनाएं सामने आई थीं, जिन का संबंध लोगों और सरकारी तंत्रों से था. अब ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक करने में अड़चन आ सकती है.
● आरटीआई 2005 से एक जनआंदोलन बन चुका है. जनता इस से मजबूत थी. नए संशोधन से जनता के लिए सूचना का अधिकार कानून सीमित हो जाएंगे.
● सरकारी हस्तक्षेप से निष्पक्षता का अभाव हो सकता है.
● पहले छोटेबङे लगभग हर मामले आरटीआई के दायरे में आते थे, अब इस पर असर हो सकता है और अधिकार सीमित हो सकते हैं.

कानून में संशोधन बदले की भावना

उधर अन्ना हजारे और सोनिया गांधी के विरोध के बाद कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य जयराम रमेश ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन को ले कर मोदी सरकार की तीखी आलोचना की है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी तौर पर ‘बदले की भावना’ का परिणाम करार दिया है।
एक बयान में उन्होंने कहा,”सूचना का अधिकार अधिनियम में बदलाव भविष्य के लिए खतरनाक हैं। आरटीआई से जुङे 5 मामले जो सीधे तौर पर प्रधानमंत्री से जुङे हैं, के कारण प्रधानमंत्री के इशारे पर इस में बदलाव किया गया है।”
जयराम रमेश ने आगे कहा कि पहला मामला सूचना आयोग द्वारा आरटीआई के तहत प्रधानमंत्री की शैक्षिक योग्यता को उजागर करने के मामले से जुङा है और इसीलिए इस में संशोधन किया गया।
यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में विचाराधीन है और हाल ही में इस पर सुनवाई भी हुई थी।
रमेश ने कहा,”दूसरा मामला 4 करोङ फर्जी राशनकार्ड पकङे जाने के प्रधानमंत्री के दावे से जुङा है जिस की सचाई आरटीआई में 2.5 करोङ फर्जी राशन कार्ड के रूप में सामने आई है।
“तीसरा मामला नोटबंदी के कारण विदेशों से कालेधन की वापसी मात्रा को उजागर करने के साथसाथ 2 अन्य मामले नोटबंदी के फैसले से जुङे आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के सुझावों से जुङे हैं।”
रमेश यहीं नहीं रूके। उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री ने योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग इसलिए बनाया क्योंकि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उस समय तत्कालीन योजना आयोग ने गुजरात के शिक्षा व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में सही टिप्पणी नहीं की थी।

Edited By- Neelesh Singh Sisodia 

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक बिसात

आज की हमारी इस रिपोर्ट में डॉ. चरणदास महंत की राजनीतिक दौड़ में बार-बार पिछड़ने की समीक्षा करना चाहेंगे . लाख टके का सवाल यह है कि डॉ. चरणदास महंत छत्तीसगढ़ के मोस्ट सीनियर राजनेता होने के बाद मुख्यमंत्री की दौड़ में पीछे क्यों रह जाते हैं . और भविष्य में क्या वे अर्जुन के मानिदं लक्ष भेदने के अनुसधांन में नहीं लगे हुए हैं . छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिजा को महसूस करें तो आज भूपेश बघेल के पश्चात ताम्रध्वज साहू, टी.एस. सिंहदेव मुख्यमंत्री पद की दौड़ में है मगर डॉ. चरणदास महंत की दौड़ भी जारी है और ऐसा तथ्य बताते हैं कि उन्होंने अपनी स्थिति धीरे-धीरे ही सही मजबूत बनाई है इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अपनी बेगम श्रीमती ज्योत्सना को सांसद चुनाव में विजयी बनाकर भी है . आज हम इस रिपोर्ट में डॉक्टर चरणदास का भविष्य और राजनीतिक कद को समझने का प्रयास करेंगे .

कौन कछुआ कौन खरगोश

छत्तीसगढ़ की राजनीति की नब्ज को समझने वाले जानते हैं कि डा. चरणदास महंत को छत्तीसगढ़ की राजनीति में नकारना असंभव है .1987 में आप पहली दफे विधायक बने और सीधे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने आपको राज्य कृषि मंत्री बनाया था .तब से अपनी 30 सालों की राजनीतिक यात्रा में डाक्टर चरणदास ने संघर्ष झैला है कभी अर्श पर रहे कभी फर्श पर मगर उन्होंने राजनीति के मैदान में अपनी अमिट छाप छोड़ी और प्रदेश भर में समर्थकों की भीड़ जोड़ी दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने तो आप जनसंपर्क मंत्री, आबकारी मंत्री और गृह मंत्री भी बने . दिग्विजय सिंह ने ही डॉ चरणदास को संसद की टिकट दी और मध्य प्रदेश की राजनीति से रुखसत कर सांसद बनवाया फिर हारे फिर जीते फिर हारे और यूपीए-2 में केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री बन कर सोनिया और राहुल गांधी के प्रियपात्र बन गए . डॉ . चरणदास अपने मृदु व्यवहार और पारखी नजर के बूते छत्तीसगढ़ में अपनी अलग ही बखत रखते हैं इससे उनके विरोधी भी इंकार नहीं करते .

छत्तीसगढ़ के मोस्ट सीनियर लीडर

डाक्टर चरणदास महंत छत्तीसगढ़ में मोतीलाल वोरा के पश्चात नि:संदेह मोस्ट सीनियर राजनेता है . आप सीधे मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे मगर इसलिए चुक गए क्योंकि भूपेश बघेल और टी.एस.सिंहदेव के नेतृत्व में चुनाव हुए थे डॉक्टर महंत को भी केंद्र ने जिम्मेदारी दी थी वे चुनाव संयोजक थे . जब अजीत जोगी छत्तीसगढ़ कांग्रेस से किनारा कर के चले गए तो डॉक्टर चरणदास महंत का वजन बेहद बढ़ गया . इधर जब वे सांसद चुनाव हार गए और दुर्ग से ताम्रध्वज साहू सांसद बन दिल्ली पहुंचे तो उनकी कद्र बड़ी . मगर चरण दास लगे रहे और निष्ठा से छत्तीसगढ़ के कार्यकर्ताओं को टटोलते रहते क्षेत्र में पहुंच उत्साहवर्धन करते रहते . यही कारण है कि सक्ति विधानसभा से स्वयं भारी मतों से जीत गए वहीं अपनी धर्मपत्नी जो ज्योत्सना महंत को कोरबा लोकसभा से सांसद भेजने में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की . यह ऐसा दांव था जो डॉक्टर महंत पर भारी पड़ सकता था अगर श्रीमती चुनाव हार जाती तो डॉक्टर चरणदास राहुल गांधी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहते मगर अपनी सधी हुई राजनीतिक चाल से उन्होंने छत्तीसगढ़ में अपनी पैठ जबरदस्त रूप से बनाई .

ज्योत्सना महंत की जीत का अर्थ

डा चरणदास महंत की बेगम ज्योत्सना महंत के लोकसभा चुनाव में विजयी होने से विपक्ष भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस में उनके विरोधियों के हाथों के तोते उड़ गये . जी हां यह सच है ज्योत्सना महंत अस्वस्थ रहती है राजनीति से कोई मतलब नहीं मगर आपने चुनाव जीत कर दिखा दिया की राजनीति में सिर्फ चेहरा ही सब कुछ नहीं मैनेजमेंट भी कोई चीज होती है .

ज्योत्सना महंत चुनाव में मौन मौन रही अभी भी डा. चरणदास की छाया की तरह उन्हें आगे बढ़ा रहे हैं मगर यह जीत छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूचाल लेकर आई है . क्योंकि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री रहते टी.एस.सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू कैबिनेट मंत्री रहते जो कारनामा नहीं दिखा पाए डा चरणदास ने विधानसभा अध्यक्ष रहते संवैधानिक पद की गरिमा की रक्षा करते हुए कर के दिखा दिया . अब इस खरगोश- कछुआ दौड़ में आगे क्या हो सकता है आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं भूपेश बघेल के नेतृत्व क्षमता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता उन्होंने अपना काम बखूबी किया है मगर डॉक्टर चरणदास की पैठ अनेक चेहरो पर शिकन खींच चुकी है यह छत्तीसगढ़ की राजनीति की सच्चाई है .

Edited By – Neelesh Singh Sisodia  

सिद्धू सरकार से बाहर : क्या बड़बोलापन जिम्मेदार?

इस अहम की लड़ाई में सिद्धू मोहरा बन गए. यह जंग दिल्ली दरबार तक भी पहुंची और 15 जुलाई को इस्तीफे की शक्ल में बाहर आई. नवजोत सिंह सिद्धू ने 15 जुलाई, 2019 को पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अपना इस्तीफा भेज दिया था और उन्होंने पंजाब के राज्यपाल वीपी सिंह बदनोर को यह इस्तीफा भेज दिया.

कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच विवाद 14 जुलाई को उस समय गहरा गया था, जब सिद्धू ने नवीन एवं नवीनीकरण ऊर्जा स्रोत मंत्रालय लेने से मना कर दिया था. सिद्धू ने इस्तीफे में लिखा है, ‘मैं पंजाब मंत्रिमंडल के मंत्री पद से इस्तीफा देता हूं.’

ट्विटर पर अपना इस्तीफा पोस्ट करते हुए नवजोत सिंह सिद्धू ने ट्वीट किया कि मेरा इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के पास 10 जून, 2019 को पहुंच गया था. पर मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा यह बताने के बाद कि सिद्धू का इस्तीफा नहीं मिला है तो सिद्धू ने ट्वीट किया कि पंजाब के मुख्यमंत्री को अपना इस्तीफा भेजूंगा.

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6 जून को मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में नवजोत सिंह सिद्धू से स्थानीय सरकार, पर्यटन और सांस्कृतिक मामलों का विभाग ले कर उन्हें नए और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत मंत्रालय दे दिया था, पर उन्होंने कामकाज संभालने से मना कर दिया था.

हालांकि नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच विवाद में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने दखल दिया तो उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तीफा मंजूर नहीं किया था.

नवजोत सिंह सिद्धू फिर से कैबिनेट में स्थानीय निकाय विभाग मांग रहे थे, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह किसी भी कीमत पर उन्हें यह विभाग देने को तैयार नहीं हुए. 40 दिनों के बाद भी सिद्धू ने ऊर्जा विभाग का कामकाज नहीं संभाला. 14 जुलाई को उन्होंने खुलासा किया कि वह मंत्री पद से अपना इस्तीफा 10 जून को राहुल गांधी को सौंप चुके हैं. सवाल उठने पर नवजोत सिंह सिद्धू ने 15 जुलाई को मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपना इस्तीफा सौंप दिया.

वजह, कैप्टन ने सिद्धू पर आरोप लगाया था कि उन की घटिया कारगुजारी के कारण लोकसभा चुनाव में पार्टी को शहरों में नुकसान हुआ. इसे सिद्धू अपने माथे पर कलंक मान रहे हैं.

जिन 13 मंत्रियों के विभाग बदले गए हैं, उन में सिद्धू ही एकमात्र ऐसे मंत्री थे जिन पर नकारा होने का ठप्पा लगा. हालांकि कांग्रेस नवजोत सिंह सिद्धू को खोना नहीं चाहती. उसे लग रहा है कि अगर सिद्धू किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं तो वह कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं.

कांग्रेस की भी यही सोच है कि सिद्धू हमेशा से ही अपने बड़बोलेपन के कारण परेशानी खड़ी कर देते हैं तभी तो अमरिंदर सिंह ने उन से इस्तीफा मांग लिया. कांग्रेस अब सिद्धू को नया काम दे कर चुप कराने की कोशिश में है.

वैसे, सिद्धू का क्रिकेट से राजनीति की ओर आना और उस के बाद छोटा परदा यानी टैलीविजन पर अपनी एक्टिंग के चलते छा जाना और वहां पर अपनी शेरोशायरी का लोहा मनवाना उन्हें अच्छी तरह आता है.

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सिद्धू का इस्तीफा कहीं दूसरी ओर का संकेत न हो, यह देखने वाली बात होगी. कहीं वे फिर से भाजपा की ओर न चले जाएं, इसलिए कांग्रेस भी उन्हें नाराज नहीं करना चाहती. यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि नवजोत सिंह सिद्धू किस करवट बैठते हैं.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia 

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