लोकसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को वह कामयाबी नहीं मिली, जिस की उम्मीद दोनों ही दलों को थी.
मायावती ने इस का ठीकरा सपा नेता अखिलेश यादव के सिर पर फोड़ते हुए कहा, ‘‘समाजवादी पार्टी के वोट बसपा ट्रांसफर नहीं हुए. अखिलेश यादव को सपा में मिशनरी सिस्टम यानी कैडर बेस को सही करना चाहिए.’’
साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हालत सब से ज्यादा खराब थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन का ही फायदा है कि बसपा को 10 सीटें मिल गईं.
चुनाव आयोग के आंकड़ों को भी देखें तो यह बात साफ होती है कि सपा के वोट तो बसपा को मिले, उलटे बसपा के वोट सपा को नहीं मिले.
बीते तकरीबन 20 सालों से बसपा में कैडर के कार्यकर्ताओं की घोर अनदेखी हुई है. बसपा प्रमुख मायावती को सब
से ज्यादा नुकसान 2009 के बाद से
शुरू हुआ, जब वह बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुई, पर उन्होंने दलित कार्यकर्ताओं और दूसरे दलित संगठनों की अनेदखी शुरू की थी.
टूटता बसपा का मिशन
बसपा से जाटव बिरादरी को छोड़ बाकी दलित जातियों का पूरी तरह से मोह भंग हो चुका है. इस की सब से बड़ी वजह खुद मायावती की नीतियां हैं.
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मायावती ने बसपा में लोकतंत्र को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया. धीरेधीरे
कर के जनाधार वाले नेता पार्टी से दूर होते चले गए और पार्टी का जनाधार खिसकता गया.
टिकट के लिए पैसा लेने के सब
से ज्यादा आरोप बसपा पर लगते हैं. राजधानी लखनऊ के पास की मोहनलालगंज सुरक्षित लोकसभा सीट को देखें तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने रिटायर अफसर राम बहादुर को टिकट दिया था. वे कम वोट से चुनाव हार गए.
2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने इस सीट पर राम बहादुर को टिकट नहीं दिया और सीएल वर्मा को टिकट दिया जो मायावती के बेहद करीबी माने जाते हैं. सीएल वर्मा 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट से चुनाव हार गए.
जानकार लोग कहते हैं कि अगर राम बहादुर को दोबारा इस सीट से चुनाव लड़ाया जाता तो वे सीएल वर्मा के मुकाबले बेहतर चुनाव लड़ते.
कांशीराम के समय में बसपा में सभी दलित जातियों की नुमाइंदगी
होती थी. कांशीराम की मुहिम
‘85 बनाम 15’ की थी. यही लड़ाई भीमराव अंबेडकर की भी थी.
कांशीराम के बाद मायावती के हाथ सत्ता आते ही पार्टी अपने मिशन से भटक गई. मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. वहीं से बसपा का मिशन अधूरा रह गया और पार्टी का जनाधार खिसकने लगा.
नाकाम सोशल इंजीनियरिंग
1998 के बाद से बसपा अपने मिशन को दरकिनार कर आगे बढ़ने लगी. ‘ठाकुर, बामन, बनिया छोड़ बाकी सब है डीएस फोर’ का नारा देने वाली बसपा अब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राह्मण समाज को आगे बढ़ाने लगी. इस तरह बसपा का मिशन खत्म हो गया.
बसपा के लिए परेशानी का सबब यह है कि पार्टी के दलित तबके ने सवर्णों की तरह से रीतिरिवाज और पूजापाठ करना शुरू कर दिया. भाजपा ने इन सब को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया तो बसपा ने दलितमुसलिम गठजोड़ बनाना शुरू किया. उस समय तक मायावती को इस बात का अहसास ही नहीं था कि दलित सवर्ण से ज्यादा मुसलिमों से दूर हैं. ऐसे में दलितों ने बसपा के मुसलिम प्रेम को नकारते हुए पार्टी से किनारा कर लिया.
2017 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने बसपा के तकरीबन 100 टिकट मुसलिम बिरादरी को दिए. नतीजा एक बार फिर से बसपा के खिलाफ गया और बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई.
दलितपिछड़ा गठजोड़
चुनाव में जातीय समीकरण मजबूत करने के लिए बसपासपा ने गठबंधन किया. दोनों को लग रहा था कि यह गठजोड़ काम करेगा. असल में बसपा नेता मायावती की ही तरह सपा नेता अखिलेश यादव भी केवल यादव जाति के नेता बन कर रह गए. जमीनी स्तर पर दलित पिछड़ों के बीच वैसा ही भेदभाव है जैसा दलित और सवर्ण के बीच है. दलित तबके को अब लगता है कि उस को अगर समाज की मुख्यधारा में शामिल होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा.
बसपा के खिसकते जनाधार को चुनावी नतीजों से समझा जा सकता है. 2014 में बसपा ने 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, उस को 19.77 फीसदी वोट मिले. 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिल कर 38 सीटों पर चुनाव लड़ा और 19.36 फीसदी वोट मिले. केवल 38 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी उसे पहले जैसे ही वोट मिले. इस से पता चलता है कि गठबंधन का लाभ बसपा को मिला. गठबंधन नहीं हुआ होता तो वोट प्रतिशत घट गया होता.
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सपा को देखें तो 2014 में उस को 22.35 फीसदी वोट मिले थे. 2019 में वे घट कर 18 फीसदी रह गए. ऐसे में साफ है कि गठबंधन का सपा को कोई फायदा नहीं हुआ. बसपा को केवल वोट फीसदी में ही फायदा नहीं हुआ बल्कि लोकसभा में वह जीरो से 10 सीटों पर आ पहुंची.
मायावती जो सीख अखिलेश यादव को दे रही हैं कि वे सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी मिशन से जोड़ें, असल में यह काम खुद मायावती को करने की जरूरत है. मुसलिम वोट बैंक मायावती के साथ नहीं है. वह भाजपा के खिलाफ है. ऐसे में जब तक चुनाव में राष्ट्रवाद और धर्म पर वोट डाले जाएंगे, तब
तक जातीय गठजोड़ काम नहीं आएगा. मुसलिमों का हिमायती बनने के चलते भी दलित सब से ज्यादा बसपा से नाराज हो कर पार्टी से दूर जा रहे हैं. द्य