Short Story: खुशी – पायल खुद को छला हुआ क्यों महसूस करती थी?

Short Story: शशि ने जब पायल से विवाह की बात दोबारा छेड़ी तो पायल ने कहा, ‘‘इस उम्र में विवाह? क्यों मजाक करती हो. लोग क्या कहेंगे?’’

शशि ने पहले भी कई बार पायल से विवाह की चर्चा की थी. आज फिर कहा, ‘‘अपने बारे में सोचो. आधा जीवन अकेले काट लिया. तुम्हारी परेशानी, अकेलेपन में कोई आया तुम्हारा हाल पूछने? और लोगों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही हैं. शादी नहीं हुई तब भी और हो जाएगी तब भी. कहने दो जिस को जो कहना है.’’

शशि अपने घर चली गई. दोनों सहेलियां थीं. एक ही कालोनी में रहती थीं. शशि विवाहित और 2 बच्चों की मां थी, जबकि 45 की उम्र में भी पायल कुंआरी थी. शशि के जाने के बाद पायल ने खुद को आईने में देखा. ठीक उसी तरह जैसे वह 20 साल की उम्र में खुद को आईने में निहारा करती थी. बालों को कईकई बार संवारा करती थी.

इधर कुछ सालों से तो वह आईने को मात्र बालों में कंघी करने के लिए झटपट देख लिया करती थी. पिछले कई वर्षों से उस ने खुद को आईने में इस तरह नहीं देखा. शशि शादी की बात कर के गई तो पायल ने स्वयं को आईने में एक बार निहारना चाहा. आधे पके हुए बाल, चेहरे का खोया हुआ जादू, आंखों के नीचे काले गड्ढे. स्वयं को संवारना भूल गई थी पायल. आज फिर संवरने का खयाल आया और आईने में झांकते हुए वह अपने अतीत में खो गई.

जब वह 20 साल की थी तब पिता की असमय मृत्यु हो गई थी. जवान होती लड़कियों की तरह स्वयं को भी आईने में निहारती रहती थी. मां को पेंशन मिलने लगी. लेकिन किराए के मकान में 2 बेटियों और 1 बेटे के साथ मां को घर चलाने में समस्या होने लगी. 2 लड़कियों की शादी और बेटे को पढ़ालिखा कर रोजगार लायक बनाना मां के लिए कठिन प्रतीत हो रहा था. पायल कालेज में थी और 5 साल छोटा भाई अनुज अभी स्कूल में था.

पिता की मृत्यु के बाद पायल ने नौकरी के लिए तैयारी करना शुरू कर दी. वह घर के हालात समझती थी और मां का हाथ भी बंटाना चाहती थी. कुछ दिनों बाद पायल की नौकरी लग गई. वह शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गई. पायल को समझ ही नहीं आया कि नौकरी उस के लिए वरदान था या श्राप. मां ने भाईबहन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी. पायल ने सहर्ष स्वीकार भी कर ली. पायल के लिए रिश्ते आते तो मां मना कर देती. कहती, ‘‘पहले छोटी की शादी हो जाए और बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए. उस के बाद पायल की शादी के बारे में सोचूंगी.’’

पायल की कमाई घर आने लगी तो भाईबहन के शौक बढ़ गए. मां भी दिल खोल कर खर्च करती. पायल ने भी भाईबहन और मां की इच्छाओं को हमेशा पूरा किया. 20 बरस की पायल की जवानी शुरू होते ही खत्म सी हो गई.

अब उसे एक ही सबक मां बारबार सिखाती, ‘‘अब तुम्हें अपने लिए नहीं, अपने भाईबहन के लिए जीना है.’’

जरूरतें व्यक्ति को स्वार्थी बना देती हैं. पायल को औफिस में देर हो जाती

या औफिस का कोई घर छोड़ने आता तो मां उस से पचासों सवाल करती. पायल क्या बात कर रही है, मां की नजरें और कान इसी पर लगे रहते.

मां कहती, ‘‘यह ठीक नहीं है. कोई प्यार की बीमारी मत पाल लेना. तुम कमाऊ लड़की हो. दसों लोग डोरे डालेंगे. लेकिन ध्यान रखना, तुम्हारे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. फिर भी यदि करना ही चाहो तो कोई क्या कर सकता है? तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी. हम अपना देख लेंगे.’’

मां की आंखों में आंसू भर आते और पायल को कई प्रकार से समझाते हुए कसम खानी पड़ती कि जब तक भाईबहन को किनारे नहीं लगा देती तब तक ऐसाकुछ नहीं होगा.

पायल जब 30 वर्ष की हुई तब रुचि की शादी हुई. रिश्ते बहुत आए लेकिन रुचि को पसंद नहीं आए. रुचि के अपने सपने थे. उस के सपनों का राजकुमार ढूंढ़ने में एक दशक लग गया. पायल जब उसे समझाती कि हम बहुत बड़े लोग नहीं हैं. इतने बड़े सपने मत पालो. अपने बराबर वालों में से किसी को पसंद कर लो. पायल की बात पर मां उलाहना देते हुए कहतीं, ‘‘समय लग रहा है तो लगे. रुचि को लड़का पसंद तो आना चाहिए. मन मार कर शादी करने का क्या अर्थ है? तुम्हें रुचि की शादी की इतनी जल्दी क्यों है? तुम चाहो तो…’’

पायल को चुप होना पड़ा. खातेपीते घर के इंजीनियर से शादी तय हुई तो उस के मुताबिक खर्च भी करना पड़ा. पायल को अपने पीएफ के अलावा विभागीय लोन भी लेना पड़ा. विवाह में अच्छाखासा खर्च हुआ. इस वजह से उसे 5 साल अपने वेतन से लोन चुकाना पड़ा.

यदाकदा आने वाले रिश्तों को भी यह कह कर अस्वीकृत कर दिया जाता कि बस भाई अपने पैर पर खड़ा हो जाए. फिर मांबेटे मिल कर पायल के हाथ पीले करेंगे. पायल ने आईना देखना छोड़ दिया. बस झट से कंघी कर के पीछे चोटी कर लेती. स्वयं को जी भर कर देखना ही भूल गई पायल. छोटा भाई अनुज बीटैक कर रहा था. पढ़ाई में होने वाला खर्चा पायल को ही प्रतिमाह भेजना था. शुरू में तो अनुज फोन पर अकसर कहता पायल से कि दीदी, एक बार मुझे नौकरी मिल गई फिर आप की शादी धूमधाम से करूंगा. लेकिन नौकरी मिलते ही वह अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया.

मां की इच्छा थी कि एक बार बहू का मुंह देख लूं तो समझो गंगा नहा लिया. फिर कोई परवाह नहीं. पायल के विषय में नहीं सोचा मां ने. पायल को दुख तो हुआ लेकिन मां के कई कड़वे घूंट की तरह वह इसे भी पी गई. अनुज के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. मां के अपने तौरतरीके थे लड़की पसंद करने के. दहेज, सुंदर लड़की… और इतने तामझाम से निबटने के बाद मां किसी लड़की को शादी के लिए पसंद करती तो अनुज के नखरे शुरू हो जाते. पायल 40 साल की हो गई. अपनी शादी के बारे में उस ने न जाने कब से सोचना बंद कर दिया. अनुज की शादी हुई तो अपनी पत्नी को ले कर वह मुंबई चला गया.

कुछ महीनों बाद मां चल बसी. मां की मृत्यु के बाद पायल अकेली रह गई. भाईबहन फोन करते या कभीकभार मिलने भी आते तो अकेली कमाऊ बहन के कुछ देने की बजाय उस से ही आर्थिक मदद मांगते.

पायल का तबादला हो गया नए शहर में. इस नए शहर में उसे शशि जैसी सहेली मिली. शशि को जब पायल के बारे में पता चला तो उस ने समझाया, ‘‘ठीक है तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, लेकिन अब तो सोचो अपने बारे में.’’

पायल कहती, ‘‘मेरी उम्र 45 साल के आसपास है. इस उम्र में शादी? लोग क्या सोचेंगे? मेरे भाईबहन, उन के रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

शशि कहती, ‘‘अब निकलो इस जंजाल से. तुम्हारे बारे में किस ने सोचा? तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. अब क्या तुम्हारे भाईबहन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या अब उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाने वाली हो? इस से पहले कि भाईबहन अपना बच्चा यह कह कर तुम्हारे पास छोड़ जाएं कि बहन तुम अकेली हो, मेरे बच्चे को रख लो. आप का मन लगा रहेगा और आप की देखभाल भी हो जाएगी, अच्छा होगा कि तुम अपना नया जीवन शुरू करो.’’

पायल ने स्वयं को काफी देर तक गौर से आईने में निहारा. उसे लगा जैसे

जिम्मेदारी के नाम पर छल किया गया हो उस के साथ. लेकिन शिकायत करे तो किस से करे? वह कमाती थी इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती थी. उस ने तय किया कि वह आज ही ब्यूटीपार्लर जाएगी.

शशि ने एक अधेड़ युवक से उस का परिचय करवाया था. युवक के चेहरे पर जिंदगी के पूरे निशान मौजूद थे. करीने से कटे और रंगे हुए बाल. उम्र को मात देने की भरपूर कोशिश करता हुआ उस का क्लीन शेव चेहरा और जींस टीशर्ट पहने हुए पूरी जिंदादिली के साथ जीता हुआ वह युवक रमेश था.

पहला विवाह असफल हो चुका था. चोट के निशान तो थे जीवन पर लेकिन भरपूर जीने के लिए मरहमपट्टी के साथ मुसकराता चेहरा था. अच्छी नौकरी में था. पायल से विवाह के लिए तैयार था. कई बार मिल भी चुका था. लेकिन पायल के मन में मोती बिखर चुके थे. वह हर बार कुछ न कुछ बहना बना कर टाल जाती. लेकिन आज जब उस ने स्वयं को आईने में निहारा तो अमृत की चंद बूंदें उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं. जीवन हर अवस्था में खूबसूरत रहता है. पायल ने शशि को फोन किया,

‘‘मैं विवाह के लिए राजी हूं.’’ शशि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रुचि और अनुज को जब उस ने अपने विवाह की बात बताई तो दोनों ने मिलीजुली बात ही कही.

‘‘दीदी इस उम्र में शादी? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? आप को सहारा ही चाहिए, तो मेरे बेटे को अपने पास रख लो.’’

‘‘मुझे सहारा नहीं जीवन चाहिए. मुझे जीना है. अपनी खुशी के लिए, अपने लिए.’’

रुचि और अनुज कुछ पल खामोश रहे. उन्हें अपने स्वार्थ का एहसास हुआ. दोनों ने कहा, ‘‘हम आप के विवाह में शामिल होने के लिए कब आएं. होने वाले जीजा से तो मिलाओ.’’

‘‘जल्दी खबर करती हूं,’’ पायल ने खुशी से चहकते हुए कहा. कोई आप के विषय में सोचे यह अच्छी बात है. न सोचे तो स्वयं सोचना चाहिए. अपनी खुशियां तलाशने का हक हर किसी को है.

Family Story: नजरिया बदल रहा – क्या अपर्णा का सपना पूरा हुआ?

Family Story: ‘‘देख अपर्णा, इधर आ जल्दी.’’ ‘‘क्या है मम्मा?’’ अपर्णा वीडियो पौज कर मोबाइल हाथ में लिए चली आई थी.

‘‘वह देख, पार्थ नीचे खड़ा अपने गमलों को कितने प्यार से पानी दे रहा है. सादे कपड़ों में भी कितना हैंडसम दिखता है.’’

अपर्णा ने मां रागिनी को घूर कर देखा.

‘‘यह देख, कितना हराभरा कर दिया है उस ने यह बगीचा. अभी आए कुल 2 महीने ही तो हुए हैं इन लोगों को यहां,’’ वह फुसफुसा कर बताए जा रही थी.

‘‘मम्मा, आप तो पीछे ही पड़ जाते हो. बस, कोई लड़का दिख जाना चाहिए आप को. उस की खूबियां गिनाने लग जाती हो. बोल दिया न, मु?ो नहीं करनी शादीवादी, वह भी एक सरकारी नौकरी वाले से कतई नहीं. शगुन दी की शादी की थी न सरकारी डाक्टर से. बेचारी आज तक वहीं बनारस में अटकी अस्पताल, मंदिर और घाटों के दर्शन कर रही हैं.’’

‘‘तेरी प्रौब्लम क्या है. स्मार्ट है, हैंडसम है पार्थ, दिल्ली विश्वविद्यालय में बौटनी का लैक्चरर है. उस का अपना घर है. उस पर से अकेला लड़का है, एक बहन है, बस.’’

‘‘हां, एक बहन है, जिस की शादी हो चुकी है. बड़े भले लोग हैं. पिता डिग्री कालेज में इंग्लिश के प्रोफैसर थे, रिटायर हो चुके हैं. मां स्कूल टीचर थीं, रिटायर हो चुकीं. अपनी ही जाति के हैं…और कुछ? मम्मा कितनी बार बताओगे मु?ो यही बातें,’’ वह खीझी सी एक सांस में सब बोल कर ही ठहरी थी और रागिनी को खींच कर अंदर ले आई थी.

‘‘अभीअभी नौकरी लगी है उस की, रिश्तों की भरमार है उस के लिए, कमला बहनजी बता रही थीं. कोई रुका थोड़े ही रहेगा तेरे लिए,’’ रागिनी ने कहा.

‘‘हां, तो किस ने कहा है रुकने के लिए. मैट्रिमोनियल में देखो, हजार मिलेंगे एक से एक, यूएस, इंग्लैंड में वैल सैटल्ड, हैंडसम लड़के. प्रिया, शिखा, रूबी, जया मेरी सारी खास सहेलियां कोई अमेरिका, आस्ट्रेलिया तो कोई कनाडा, लंदन की उड़ानें भर रही हैं या तैयारी में हैं. किसी की शादी हो चुकी है तो किसी की इंगेजमैंट. आप को तो मालूम है, प्रिया तो पिछले महीने ही शादी कर लंदन चली गई. मु?ो तो वर्ल्ड के बैस्ट प्लेस जाना है यूएसए, उस में भी न्यूयौर्क.’’

‘‘हम से इतनी दूर जाने की सोच रही है, अप्पू. तेरे और शगुन के अलावा कौन है हमारा. पास है तो शगुन कभीकभी आ जाती है. कभी हम भी मिल आते हैं. तू आसपास भारत में ही कोई ढूंढ़. तेरे लिए व हमारे लिए, यही सही रहेगा. शगुन तो सम?ादार है, सब संभालना जानती है. दुनियादारी का पता है उसे. तु?ो तो कुछ भी नहीं मालूम. बस, तेरे परीलोक जैसे सपने. मैट्रिमोनियल से अनजाने लोगों से रिश्ता कर तु?ो परदेस भेज दें, कुछ गड़बड़ हुई तो… न्यूज तो देखतीपढ़ती है न?’’

‘‘शीर्ष की तो याद होगी आप को, जो मेरे साथ बीएससी में था. जिस ने एक दिन हमें अपनी कार में लिफ्ट दी थी, आप का पैर मुड़ गया था मार्केट में, जोर की मोच आ गई थी आप को. इतने सालों बाद वह कुछ समय पहले अचानक मु?ो मौल में मिल गया था. उस की कंपनी उसे यूएस भेज रही है वह भी सीधा न्यूयौर्क. 3 साल का असाइनमैंट है. अपने पेरैंट्स को मना रहा था. वे नहीं चाहते कि जाए और यदि जाना ही है तो शादी कर के जाए. पर वह चला गया.

‘‘मु?ा से बोल रहा था. ‘वहीं कोई दूसरी कंपनी जौइन कर लूंगा. पागल हूं जो इतनी अच्छी जगह छोड़ इंडिया वापस रहने आऊंगा. हां, शादी जरूर भारत की लड़की से करूंगा ताकि घर का काम बढि़या हो सके और घर का खाना भी मिल सके. हाहा वह रुक कर हंसा था, फिर बोला. तब तक तुम अपनी पीएचडी पूरी कर लो. अगर वेट किया मेरा, तो शादी तुम्हीं से करूंगा. मेरी पहली पसंद तो तुम ही थीं. यह बात और है मैं ने कभी जाहिर नहीं किया.’ कह कर वह मुसकरा रहा था. मैं आप को बताने ही वाली थी.’’

‘‘अरे, तु?ो बना रहा है. वह भी कैसा लड़का है जैसे मांबाप से कोई मतलब नहीं, उन्हें भी ले जाने की बात कहता तो भी बात सम?ा आती. वह तेरी क्या कद्र करेगा.’’

‘‘नहीं मम्मा, फोन नंबर दिया है उस ने मु?ो, उस पर उस से मेरी कई बार बात भी हुई है. कई बार उस के फोन भी आ चुके हैं. उस ने प्रौमिस किया है, 6 महीनों में लौटने वाला है, तब आप सब से मिलेगा अपने मम्मीपापा के साथ, शादी की बात करने.’’

‘‘वाह, कब आएगा, कब बात करेगा. इतना ही था तो उन्हें हम से मिलवा कर क्यों नहीं गया? एक नंबर का फेंकू लगता है. पापा से बात करती हूं, ला, पता दे उस का. हम खुद ही जा कर उस के मांबाप से बात करते हैं.’’

‘‘मैं कभी घर नहीं गई उस के, न ही उस से कभी पता पूछा. शायद कालकाजी में घर है उस का.’’

‘‘कमाल है, घरपरिवार भी देखा नहीं. और इतना बड़ा फैसला ले लिया. सच में बच्चों वाला दिमाग है तेरा. कब आएगा, कब बात करेगा वह. 27 की हो चली है तू. धीरगंभीर स्थिर चित्त, पार्थ जैसा ही कोई संभाल सकता है तु?ो, जान रही हूं.’’ उन्हें कुछ इसी थीम पर गिरीश कर्नाड और शबाना आजमी की ‘स्वामी’ फिल्म याद हो आईर् थी. जिद्दी चंचल लड़की और गंभीर लड़का…

‘‘एक बार फिर अच्छी तरह सोच ले. फिर कहूंगी पार्थ तेरे लिए बिलकुल फिट है. वे लोग भी तु?ो पसंद करते हैं.’’

‘‘कहां हो भई दोनों मांबेटी. देखो कुमार के घर का बना गरम इडलीसांभर फिर दे गए और मेरी प्रिय मखाने की खीर भी. विश्व में बढ़ रहे करोना संकट के लिए टीवी पर प्रधानमंत्री क्या बोलते हैं. यहां भी लौकडाउन होना तो तय है.’’ पापा नंदन कुमार की आवाज पर दोनों टीवी रूम में चली आईं.

21 दिनों का लौकडाउन हुआ, फिर 19 दिनों का. सभी बताए नियमों का पालन कर रहे थे. पार्थ और अपर्णा की भी छुट्टी हो गईर् थी. तालीथाली, दीयाबत्ती अभियान में अपर्णा ने पूरी बिल्ंिडग में सब से अधिक जोरशोर से हिस्सा लिया. नीचे पार्थ के घर होहल्ला न सुन कर अपर्र्णा मुंह बिचकाती रही. जरा भी जज्बा नहीं देश के लिए. कैसा अजीब आदमी है, अकड़ू खां बना बैठा होगा कहीं, प्रवक्ता पार्थ. अंधेरे में अपनी उन किताबों में भी तो नहीं खो सकता इस समय. कुमार साहब ने दीप बाहर रख दिए थे, तो थाली वाले दिन मिसेज कुमार ने मंदिर की घंटी टुनटुना दी थी. बस, हो गया देशप्रेम. अपर्णा को खल रहा था. पार्थ तो वैसे भी कम ही बाहर निकलता. उसे यह सब बचकाना लगता. हां, सब्जीफल, दूध लाने के लिए जरूर जाता, मांपापा को जाने नहीं देता.

एक दिन कुमार फिर घर आए, बोले, ‘‘भाईसाहब, बहनजी, आप भी पार्थ से ही मंगा लिया कीजिए. आप क्यों जाएंगे, यह ही ले आया करेगा न. बुजुर्गों और छोटे बच्चों को ही ज्यादा खतरा है कोरोना से.’’

तो रागिनी ने घूमने को उतावली अपर्णा को सामान लाने के बहाने पार्थ के साथ भेज दिया. एक पंथ दो काज. शायद, पार्थ को पसंद ही करने लगे.

सामान ले कर अपर्णा पार्थ की कार में पहले ही आ बैठी. पार्थ अभी लाइन में था. तब तक उस ने शीर्ष को फोन लगा दिया. इतने दिनों से फोन लग नहीं रहा था. आज कौल कनैक्ट हो गई. तो उस ने शीर्ष की पूरी खबर ली. बहुत दिनों से फोन नहीं आया, न मिला तुम्हारा फोन. अधिक बिजी हो या मु?ो भूल गए. किसी और के चक्कर में तो नहीं पड़ गए. क्या हाल है वहां? न्यूज में तो तुम्हारा न्यूयौर्क सब से अधिक कोरोना की चपेट में है. दिल घबरा रहा था, और तुम हो कि फोन ही नहीं उठा रहे. तुम सेफ तो हो?’’

‘‘अरे, यहां सब मजे में हैं. छुट्टियां हो गई हैं. अपार्टमैंट से ही काम होता है औनलाइन. मु?ो क्या होना है. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के साथ हूं. और तुम सब?’’

‘‘ठीक है सब. छुट्टियां यहां भी हो गई हैं. अच्छा, तुम्हारे पेरैंट्स तो ठीक हैं? कौन है उन के पास? कैसे कर रहे होंगे मैनेज. उन का घर का पता, फोन नंबर दो, तो कभी जरूरत पर मदद को परमिशन ले कर पहुंचा जा सकता है. मम्मा को सब बता दिया, वे मिलना भी चाहती हैं.’’

‘‘पापा की तो डेथ हो गई.’’

‘‘ओह, वैरी सैड ऐंड पेनफुल. कब? कैसे?’’

‘‘10 दिन तो हो ही गए, कोरोना से. मम्मी को भी आइसोलेशन में रखा गया है. रिश्तेदारों को भी जाने नहीं दे रहे. यहां से जाना ही पौसिबल नहीं था. सारी फ्लाइटें बंद. मामा लोग उन से फोन से कनैक्टेड हैं और मैं भी. क्या कर सकता हूं.’’

‘‘फिर क्या कह रहे थे, मैं मजे में हूं?’’

‘‘तो, मैं तो ठीक ही हूं. फादरमदर की वैसे भी उम्र थी ही, जाना तो वैसे भी था, फिर मैं इंडिया आ कर भी क्या कर लेता, न देख सकता न छू सकता. अच्छा है यहां सेफ हूं. कुछ हुआ तो बैस्ट इलाज हो जाएगा. चिल्ल… डोंट वरी फौर मी.’’

‘‘तुम अपने फादरमदर के लिए ही बोल रहे हो न?’’ अपर्णा को आश्चर्य हो रहा था. ऐसा निर्मोही, स्वार्थी बेटा कैसे हो सकता है? क्या फायदा ऐसे एडवांस शहर, ऊंचे स्तर और पैसों का जो ऐसे समय भी मांबाप के पास न रह सके, न आ सके और फिर उन के प्रति मन में ऐसी भावना रखे.

‘‘क्या सोचने लगी भई, कोई तुम्हें तो नहीं मिल गया? अरे दोचार महीनों की बात है. सबकुछ नौर्मल हो जाएगा. वैज्ञानिक लगे हुए हैं, दवावैक्सीन जल्द ही ढूंढ़ निकालेंगे ये लोग. शादी कर के तुम्हें भी यहां ले आऊंगा. फिर अपनी तो घरबाहर ऐश ही ऐश होगी. हाहा, ओके, औनलाइन काम का वक्त हो गया. रखता हूं, बहुत काम है. ट्वेंटी डेज से पहले कौल नहीं कर पाऊंगा. ओके, बाय, लव यू स्वीटहार्ट.’’ उस के फ्लाइंग किस के साथ ही फोन कट गया था.

अपर्णा इधरउधर देखने लगी, कहां रह गया पार्थ. वह भी जाने कितना सामान ले रहा है पागल सा. रोज ही तो आता है मार्केट, फिर भी. उस ने नजरें दूर घुमाईं तो पार्थ नजर आया. वह मास्क लगाए, गरीब बच्चों में दूध की थैली, केले, बिस्कुट और ब्रैड बांट रहा था. तभी किसी गरीब बूढ़ी महिला ने उस से हाथ जोड़े कुछ कहा तो वह फिर राशन की दुकान में घुस गया. लौट कर उस ने लाई आटेचावल की थैलियां महिला के सिर पर अपनी मदद से रखवा दीं. महिला ने हाथ जोड़ कर हाथ ऊपर उठाए तो अपर्णा सम?ा गई कि जरूर गरीब महिला उसे दुआएं दे रही है. अपना सामान ला कर पार्थ ने गाड़ी में रखा.

‘‘एक मिनट,’’ कह कर उस ने जा रहे ठेले से साग खरीदा और कूड़े में खाना ढूंढ़ती कमजोर गाय को खिला कर वापस चला आया, ‘‘सौरी, थोड़ा टाइम लग गया.’’

‘‘आप रोज ही ऐसे इतना सब…’’ वह हैरान थी. दिल भी भर आया था उस का.

‘‘इतनाउतना कुछ नहीं. बहुतथोड़ा ही कर पाता हूं. दुनिया की जरूरत के आगे यह तो नगण्य ही है.’’

अपर्णा ने पहली बार पार्थ के चेहरे को ध्यान से देखा था, ‘जज्बा भी, जज्बात भी और सुंदर, सही सोच भी, मतलब सोने जैसा दिल. शीर्ष के दिल, दुनिया से कितना अलग, निर्मल…शायद मम्मी सही ही कह रही थीं. मु?ो अब उन की ही बात मान लेनी चाहिए. नजरिया बदलने लगा था. उस ने एक बार ऊपर से नीचे किन्हीं खयालों में गुम ड्राइव करते पार्थ को देखा और मन ही मन मुसकरा उठी.

Family Story: संयुक्त खाता – आखिर वीरेन अंकल क्यों बदल गये?

Family Story: दोपहर का समय था. मैं औफिस में लंच टाइम में खाना खा कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस, 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में फोन की  घंटी बजी.

‘उफ, अब यह किस का फोन आ गया?’ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘कहिए आंटी, बताइए कैसी हैं आप?’’

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग 10 दिनों से अस्पताल में ही हैं,’’ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘सीरियस ही है बेटी. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,’’ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,’’ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते हैं. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और वीरेन अंकल की तरफ ही लगा रहा.

मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.’’ कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटी, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज पर खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? ये तो चैक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन, बस, इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चैकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?’’ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चैकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दीं. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा न? आप चैक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘नहीं बेटी, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो ये खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी न?’’ आंटी ने इतनी मासूमियतभरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या कहूं. बस चैक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर आ कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं वीरेन साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद वीरेन साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा.

‘‘आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए. बैंक के निर्देशों के अनुसार, यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है.’’

वह मैनेजर बैंक के निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और वीरेन अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

सुबह दफ्तर जाने के बजाय मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राअल फौर्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने वीरेन अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे.

फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की पत्नी को दे दूं?’’ जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के इलाज के लिए आप की पत्नी को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?’’ जवाब फिर नकारात्मक था. बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार वीरेन अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?’’

वीरेन अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने

के नाम पर जवाब में फिर न

ही मिला. हालांकि, यह अकाउंट वीरेन अंकल के अपने अकेले के नाम पर ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘वीरेन साहब, आप की पत्नी को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?’’ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?’’ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह थी कि वीरेन अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. वीरेन साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट  से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?’’

मैनेजर की बात तो सोलह आने सही थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?’’

‘‘कहा था बेटी. कई बार कहा था, पर वे मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पैंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता.’’

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अब तो पैंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,’’ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि वीरेन अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्त्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. वीरेन अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिनों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ हमेशाहमेशा के लिए चले गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि वीरेन अंकल के सभी खाते बंद करवा कर उन्हें कमला आंटी के नाम करवाए. इन कामों में बहुत से फौर्म भरने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बौंड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने वीरेन अंकल के सभी खाते आंटी के नाम पर करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूचुअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

वीरेन अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पैंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चैक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था.

इस बात को कई महीने बीत गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही कि ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटी, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.’’

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चैकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वह चैकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. न ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मुहताज हो गईं. फिर अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही, यह सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास न करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

‘‘तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वे पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.’’

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोडि़ए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.’’ समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास  खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोड़ो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूचुअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं?

अब कमला आंटी को ही ले? लीजिए. उन बेचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पैंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि उन के मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटी, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?’’

‘‘हां, हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,’’ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू… किस खुशी में आंटी?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटी,’’ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा. लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.’’

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह, बधाई हो.’’

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है? वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,’’ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

घर जा कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया.

Romantic Story: बेनाम रिश्ता – क्या किशन के दिल में अमृता के लिए प्यार था?

Romantic Story: अपने विवाह के बाद किसी रिश्तेदार के विवाह समारोह में मेरा जाना हुआ. वहां जा कर मैं ने देखा कि तमाम रिश्तेदारों के साथसाथ मेरी चचेरी भाभी भी आई हुई थीं. उन से मेरा 40 वर्षों बाद मिलना हुआ था. रात को भोजन के बाद मैं भाभी के पास बैठी उन से बातें कर रही थी.

उन्होंने बताया कि चाचा की मृत्यु के तुरंत बाद ही वे ससुराल छोड़ कर अपने इकलौते बेटे व बहू के साथ अपने मायके लखनऊ जा कर बस गईर् थीं.

मैं बहुत ध्यान से उन की बातें सुन रही थी और साथ ही साथ विस्तार से जानने की जिज्ञासा भी प्रकट कर रही थी.

उन्होंने आगे बताया कि उन का भाई किशन भी लखनऊ में अपने पैतृक मकान में परिवार सहित रह कर पुश्तैनी व्यवसाय संभाल रहा था.

इतना सुनने के बाद मेरे लिए आगे कुछ और जानने की जिज्ञासा का कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि वे मेरे और किशन के रिश्ते से अनभिज्ञ नहीं थीं. मेरी आंखों के सामने एक धुंधला सा चेहरा तैर गया, जो वक्त के बहाव में धूमिल होतेहोते मिट सा गया था. मैं नहीं चाहती थी कि मेरे मन में जो चल रहा है, उस को मेरे चेहरे के भाव से भाभी पढ़ लें, इसलिए मैं आंखें बंद कर के सोने का उपक्रम करने लगी और उन से विदा ले कर अपने कमरे में चली आई. दिनभर की भागदौड़ से थकी होने के कारण तुरंत ही मैं सो गई.

तमाम मेहमानों के साथ भाभी ने भी विदा ली. जातेजाते वे अपना मोबाइल नंबर देना और मेरा लेना नहीं भूलीं. इस मुलाकात ने हमारी आत्मीयता को पुनर्जीवित कर दिया था. मैं दिल्ली

लौट आई और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई.

मुझे आए हुए 20 दिन बीते कि एक दिन मेरा मन भाभी से बात करने को हुआ, लेकिन यह सोच कर टाल दिया कि कहीं किशन भी आसपास न बैठा हो. मैं बुझी हुई आग को दोबारा सुलगाना नहीं चाहती थी. लेकिन फिर भी परोक्षरूप से उस से संपर्क करने की इच्छा का ही तो परिणाम था कि मैं उन से बात करना चाह रही थी.

अभी 3 दिन ही बीते कि अचानक अपने मोबाइल में एक मैसेज और उस को भेजने वाले का नाम पढ़ कर मैं बुरी तरह चौक गई. जो मैं नहीं चाहती थी, वही हुआ. भाभी के भाई किशन का मैसेज था, ‘‘कैसी हो अमृता,’’ मैसेज पढ़ते हुए मैं ने अपने चारों और ऐसे देखा, जैसे मैं कोई चोरी कर रही हूं.

मेरे मन में अजीब सी हलचल होने लगी. पलक झपकते ही मैं समझ गई कि किशन ने भाभी से ही मेरा मोबाइल नंबर लिया होगा. मेरे मन में भाभी से मिलने के बाद उस का खयाल आना और उस का मैसेज आना, टैलीपैथी ही तो थी, सच ही कहा गया है किसी से मिलने के पीछे भी कोई न कोई कारण होता है. तो क्या भाभी से मिलने का कारण भी मेरा किशन से दोबारा संपर्क होना था, मैं सोच रही थी.

मेरा मन अशांत हो चला था. मैं अपने मस्तिष्क को 40 वर्ष पहले अतीत में घटित घटना की यादों में धकेलने के लिए मजबूर हो गई थी, जो मेरे मानस पटल से समय के बहाव में धुलपुंछ गए थे और जिन का मेरे जीवन में अब कोई अस्तित्व ही नहीं था. अतीत के पन्ने एकएक कर के मेरी आंखों के सामने खुलने लगे.

मेरी भाभी अपनी मां और भाई के साथ मथुरा में हमारे घर आई थीं. तब मेरी उम्र 21-22 वर्ष की रही होगी. भाभी के आग्रह पर जहांजहां वे घूमने गए, मैं भी उन के साथ गई. साथसाथ घूमते हुए भाभी के भाई की गहरी निगाहों की कब मैं शिकार हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. उस की मंदमंद मुसकान और बोलती हुई बड़ीबड़ी भूरी आंखों ने मुझे मूक प्रेमनिमंत्रण देने में जरा भी संकोच नहीं किया. जिस को स्वीकार करने से मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई.

वह बहुत कम बोलता था, लेकिन उस की आंखों की भाषा से कुछ भी अनकहा नहीं रहता था. किसी ने ठीक ही कहा है खामोशियों की भी जबां होती है. परिवार वालों से हट कर जब भी मौका मिलता था, वह मेरा हाथ पकड़ लेता था और मैं ने भी कभी हाथ छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. हम दोनों मंत्रमुग्ध से एकदूसरे का साथ पाने के लिए आतुर रहते थे. और वह होली का दिन, कैसे भूल सकती हूं… वह सब. यंत्रचालित हम एकदूसरे के पीछे भागते रहते थे.

20 दिनों के साथ के बाद अंत में बिछुड़ने का दिन आ गया. भाभी मुझ से खिंचीखिंची ही रहीं. इस से मुझे आभास हो गया था कि उन से कुछ भी छिपा नहीं है, मौका पा कर किशन ने मेरे हाथ में एक छोटी सी पर्ची थमा दी, जिस में उस का पता लिखा था. कुछ भी कहनेसुनने का हम दोनों को कभी मौका नहीं मिला. आज के विपरीत वह जमाना ही ऐसा था, जब अपने हावभाव से ही प्रेम की अभिव्यक्ति होती थी, उसे शब्दों का जामा पहनाने में इतना विलंब हो जाता था कि समय के बहाव में परिस्थितियां ही बदल जाती थीं.

मुझे याद है, उस के जाने के बाद अगले दिन अपनी सहेली से लिपट कर मैं कितना रोई थी. किशन से लगभग 3 महीने तक पत्रव्यवहार हुआ. फिर अचानक उस का पत्र आना बंद हो गया. मैं ने पत्र लिख कर कारण पूछा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया.

समय बीतता गया और किशन के साथ बिताए गए दिनों की यादें समय की परतों के नीचे दबती चली गईं. और आज अचानक इतने वर्षों बाद उस का यह अप्रत्याशित मैसेज. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं?

अपने पति की मृत्यु के बाद से जीवन अकेलेपन और खालीपन के एहसास के नीचे दब कर दम तोड़ रहा था और एक बोझ सा बन गया था, लेकिन जीना तो था न. बच्चे बहुत व्यस्त रहते थे, मैं हमेशा उन के सामने मुसकराहट का मुखौटा ओढ़े रहती थी, लेकिन रात में अकेले, साथी की कमी को बहुत शिद्दत से महसूस करती थी और कई बार तो रातभर नींद नहीं आती थी, यह सोच कर कि  पहाड़ सा जीवन कैसे काटूंगी.

वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए मेरा मन किशन से बात करने के लिए व्याकुल हो गया. कुछ देर के आत्ममंथन के बाद हमारे जमाने के विपरीत जब पति के अतिरिक्त किसी भी पुरुष से आत्मीयता का संबंध रखना पाप समझा जाता था, इस जमाने की बदली हुई सोच, नई टैक्नोलौजी द्वारा उपलब्ध संपर्क साधन के कारण और पहले प्यार की अनुभूति की पुनरावृत्ति की मिठास को पाने के लोभ ने आग में घी डालने का कार्य किया और मेरा मन, मन की सीमारेखा को तोड़ने के लिए मजबूर हो गया.

मैं ने अपने मन को यह कह कर समझाया, ‘देखिए आगेआगे होता है क्या.’ और मैं ने जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं, तुम बताओ?’’ वह जैसे मेरे जवाब का इंतजार ही कर रहा था. प्रत्युत्तर में उस ने औपचारिकतापूर्ण मेरे परिवार के बारे में विस्तार से पूछा और अपने परिवार के बारे में बताया कि उस के परिवार में उस की पत्नी और 2 बेटियां हैं, दोनों बेटियों का विवाह हो चुका है.

वर्षों बाद उस की आवाज सुन कर मैं बहुत रोमांचित हुई, ऐसा लगा कि जैसे हमारे अतीत के मूकप्रेम को वाणी मिल गई. वार्त्तालाप में साथसाथ बिताए गए वे दिन, जो धरातल में कही समा गए थे, पुनर्जीवित हो गए. बहुत सारी घटनाएं किशन ने याद दिलाईं, जो मैं भूल चुकी थी.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें तो सब याद है.’’

वह बोला, ‘‘मैं भूला ही कब था?’’

‘‘तो फिर तुम ने पत्र लिखना क्यों बंद कर दिया?’’

क्या करता दीदी ने सबकुछ पिताजी को बता दिया. और उन के आदेश पर मुझे ऐसा करना पड़ा. वह जमाना ही ऐसा था, जब बड़ों का वर्चस्व ही सर्वोपरि होता था.’’

‘‘काश, उस समय मोबाइल होता.’’ मेरी इस आवाज का मर्म उसे अंदर तक आहत कर गया.

‘‘चलो, अब तो मोबाइल है. अब तो बात कर सकते हैं,’’ उस ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा.

उस से बात कर के मुझे अपने पर नाज हो आया कि आज इतने सालों बाद भी मैं किसी की यादों में बसी हूं. विवाह एक सामाजिक बंधन है, जो शरीर को तो कैद कर सकता है, लेकिन मन तो आजाद पंछी की तरह अरमानों के गगन में जब चाहे उड़ सकता है. बहुत बार विवाह के समय हवन की अग्नि भी प्यार की तपिश को अक्षुण्ण नहीं कर पाती. उस की बातों से स्पष्ट हो गया था कि वह भी अपने परिवार के प्रति समर्पित है, लेकिन मेरी तरह उस के भी दिल का एक कोना खाली ही रहा. प्रसिद्ध शायर फराज ने ठीक ही कहा है, ‘‘कुछ जख्म सदियों के बाद भी ताजा रहते हैं फराज, वक्त के पास भी हर मर्ज की दवा नहीं होती.’’

मुझे किशन की बातें बहुत रोमांचित करती थीं. लेकिन कभीकभी मेरा मन नैतिकता और अनैतिकता के झूले में झूलता हुआ रिश्ते के स्थायित्व के बारे में सोच कर उद्विग्न हो जाता था. लेकिन धीरेधीरे उस से बातें कर के मुझे एहसास हो चला था कि हमारा प्रेम परिपक्व उम्र की अंतरंग मित्रता में परिवर्तित हो गया है. इस नए रिश्ते को बनाने में किशन का बहुत सहयोग था.

पहले उस की जो बातें मुझे रोमांचित करती थीं, अब अजीब सा सुकून देने लगी थीं. अब हम दोनों की बातचीत में किसी कारण लंबा अंतराल भी आ जाता था, तो मुझे उस के दोबारा खो जाने की बात सोच कर बेचैनी नहीं होती थी. हम दोनों ही वार्त्तालाप के दौरान एक बार मिलने की इच्छा व्यक्त करते थे.

एक दिन उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया कि वह एक बार मिलने के लिए बहुत बेचैन है और वह जल्दी ही किसी बहाने से मुझ से मिलने दिल्ली आएगा. यह सुन कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उस से मिलने की कल्पना ही मुझे बहुत रोमांचित कर रही थी. सोच में पड़ गई. 40 वर्षों में उस में जाने कितना परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं, मैं उस के साथ सहज हो पाऊंगी या नहीं.

वह दिन भी आ गया जब उसे दिल्ली आना था. किशन से इतने सालों बाद मिलना, मेरे लिए, सपने का वास्तविकता में बदलने से कम नहीं था. समय और परिस्थितियां बहुत बदल गई थीं. इसलिए उस से मिलने के लिए अपनी मनोस्थिति को तैयार करने में मुझे बहुत समय लगा.

उस से मिलने पर मुझे लगा कि हम दोनों के सिर्फ बाहरी आवरण पर ही उम्र ने छाप छोड़ी थी, लेकिन अंदर के एहसास में रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं आया था. इतने सालों बाद मिलने पर समझ ही नहीं आ रहा था कि बातों का सिलसिला कहां से आरंभ किया जाए, अभी भी बिना कुछ कहे ही जैसे हम ने आपस में सबकुछ कह दिया था.

किशन ने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए बात आरंभ की, ‘‘अमृता, जरूरी नहीं कि हम जिस से प्यार करें, उस से शादी भी हो जाए और जिस से शादी हो उस से प्यार हो जाए, क्योंकि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है, इसलिए इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है.

‘‘हमारी आपस में शादी नहीं हुई, लेकिन आपस के प्यार के एहसास के रिश्ते को अच्छे दोस्त बन कर तो जिंदा रख सकते हैं. वैसे भी, उम्र के इस पड़ाव में इस से अधिक चाहिए ही क्या? मेरे जीवन में तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता.’’

मुझे ऐसा लग रहा था. जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में विचरण कर रही हूं. हमारे पुरुषप्रधान समाज में तो ऐसी सोच वाला पुरुष मिलना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है, जिस ने मेरे प्यार को दीये की लौ की तरह अभी तक अपने दिल में छिपा रखा था. मैं अपने को धन्य समझ कर, भावातिरेक में उस से लिपट गई और मेरी आंखों से आंसू बह निकले.

उस ने मुझे अपने बाहुपाश में थोड़ी देर के लिए जकड़े रखा. किशन के पहली बार के इस स्पर्श ने मुझे अलौकिक सुकून दिया. मुझे लगा कि मेरे एकाकी जीवन में किसी साथी ने दस्तक दे दी थी और मुझे जीने का सबब मिल गया था.

पति और पत्नी का रिश्ता कानूनी है, लेकिन यह बेनाम रिश्ता, क्योंकि इस ने समाज की स्वीकृति की मुहर प्राप्त नहीं की है, अवैध माना जाता है. समाज को अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है, क्योंकि यह बेनाम रिश्ता इतना खूबसूरत होता है कि जीवन के लिए संजीवनी से कम नहीं होता और ताउम्र खुशी देता है.

शायर गुलजार ने इस बेनाम रिश्ते को अपनी कलम से बहुत खूबसूरत तरीके से उकेरा है, ‘हाथ से छू के इस रिश्ते को इलजाम न दो.’

उस ने मुझ से कहा कि हमारा मिलना आसान नहीं है, लेकिन फोन पर एकदूसरे के संपर्क में रह कर हमेशा एकदूसरे से जुड़े रहेंगे. किशन ने एक ऐसा एहसास दे कर, जिस के कारण हजारों मील की दूरियां भी बेमानी हो गई थीं, मुझ से विदा ली. इन दोनों के बीच की दूरी अब कोई माने नहीं रखती थी. दिल से दिल जुड़ गए थे. यह रिश्ता दिल का था. समाज की मुहर की जरूरत भी नहीं थी इसे.

Family Story: अंश – प्रताप के प्रतिबिंब के पीछे क्या कहानी थी?

Family Story: कालेज प्राचार्य डाक्टर वशिष्ठ आज राउंड पर थे. वैसे उन को समय ही नहीं मिल पाता था. कभी अध्यापकों की समस्या, कभी छात्रों की समस्या, और कुछ नहीं तो पब्लिक की कोई न कोई समस्या. आज समय मिला तब वे राउंड पर निकल पड़े.

उन के औफिस से निकलते ही सब से पहले थर्ड ईयर की कक्षा थी. बीए थर्ड ईयर की क्लास में डाक्टर प्रताप थे. हमेशा की तरह उन की क्लास शांतिपूर्वक चल रही थी. अगली क्लास मैडम सुनीता की थी. वे हंसीमजाक करती हुई अपनी क्लास में बच्चों को पढ़ाती थीं.

अब वे अगली कक्षा की ओर बढ़े. बीए प्रथम वर्ष की कक्षा थी, जिस में चिल्लपों ज्यादा रहती. इस बात को सब समझते थे कि यह स्कूल से कालेज में आए विद्यार्थियों की क्लास थी. ये विद्यार्थी अपनेआप को स्कूल के सख्त अनुशासन से आजाद मानते हैं. स्कूल में आने और जाने में कोई ढील नहीं मिलती थी लेकिन यहां कभी भी आने और जाने की आजादी थी. लेकिन आज क्लास शांत थी. केवल अध्यापक की आवाज गूंज रही थी. आवाज सुन कर प्राचार्यजी चौंके, क्योंकि आवाज डाक्टर प्रताप की थी. बस, अंतर यही था थर्ड ईयर की कक्षा में जहां राजनीति पर चर्चा चल रही थी तो प्रथम वर्ष की कक्षा में इतिहास पढ़ाया जा रहा था.

प्राचार्यजी ने सोचा- एक ही व्यक्ति 2 जगह कैसे हो सकता है? प्राचार्य वापस थर्ड ईयर की क्लास की ओर गए तो देखा कि प्रताप वहां पढ़ा रहे थे. वे वापस आए और देखा कि क्लास का ही एक विद्यार्थी अध्यापक बना हुआ था और पूरी क्लास शांतिपूर्वक पढ़ रही थी. अध्यापक बना हुआ विद्यार्थी राहुल था.

प्राचार्य थोड़ी देर तक चुपचाप देखते रहे और फिर डाक्टर प्रताप को बुला लाए. दोनों राहुल की कक्षा का निरीक्षण करते रहे और जब क्लास खत्म हुई तब ताली बजाते हुए क्लास में प्रवेश कर गए. उन को देख कर सभी खड़े हो गए और राहुल प्राचार्य के पास पहुंच कर बोला, ‘‘सौरी सर.’’

प्राचार्य और प्रताप सर ने उस के सिर पर हाथ फेरा. प्राचार्य ने कहा, ‘‘बेटा, इस में माफी मांगने वाली बात कहां से आ गई. तुम तो अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हो. हमारे लिए तो गर्व की बात है कि हमारे कालेज में इतना होनहार विद्यार्थी है. इस साल के ऐनुअल फंक्शन में तुम्हारा शो रखेंगे.’’ प्राचार्य की बात सुन कर ललिता उठी और बोली, ‘‘सर, यह सभी सरों की मिमिक्री करता है. प्रताप सर की मिमिक्री तो इतनी अच्छी करता है कि जैसे यह प्रताप सर का ही अंश हो.’’

बात छोटी सी थी लेकिन उन का इंपैक्ट इतना बड़ा होगा? यह बाद में पता चलेगा.

राहुल की ममेरी बहन है सुषमा. वह घर गई और स्कूल में घटी घटना को अपनी मम्मी कविता को बता दिया. ललिता ने जो कहा उसे भी अपनी मम्मी को बताया और बोली, ‘‘मम्मी,

अपने राहुल में प्रताप सर की छवि दिखती है.’’

सुषमा की बात सुन कर कविता बोली, ‘‘तू ने पहले तो यह नहीं बताया, जबकि तुम दोनों को 3 महीने हो गए कालेज गए हुए.’’

सुषमा ने कहा, ‘‘पहले मैं ने इस बात पर गौर नहीं किया था लेकिन क्लास में यह चर्चा होती रही है.’’

रात को कविता ने अपने पति अनिल को बताया और संभावना व्यक्त की कि कहीं डाक्टर प्रताप ही राहुल के जैविक पिता तो नहीं?’’

अनिल ने कहा, ‘‘हो सकता है. मैं प्रताप सर से बात करूंगा.’’ इस से पहले मैं इनफर्टिलिटी सैंटर से बात करूंगा, जहां राहुल का जन्म हुआ. अगर वे सच में राहुल के पापा हुए तो मेरे लिए यह सब से अच्छा दिन होगा. अपनी छोटी बहन को विधवा के रूप में देखा नहीं जाता.’’

राहुल की मम्मी सुनीता जब 11 वर्ष की रही होंगी, उस के भाई की शादी हुई थी. उस के एक साल बाद एक सड़क दुघर्टना में उन के मम्मीपापा का देहांत हो गया. अनिल और कविता ने उस का अपनी बेटी जैसा खयाल रखा. सुनीता को एहसास भी नहीं होने दिया कि उस के मम्मीपापा नहीं हैं. इस दौरान सुनीता के भाई के घर में बेटे का जन्म हुआ. बूआ व भतीजा दोनों में पटरी अच्छी बैठ गई.

सुनीता को पढ़ाया और उस की शादी की. 20-21 साल की उम्र में ही सुनीता की शादी कर दी गई. लड़का अच्छा मिल गया, इसलिए सुनीता की शादी जल्दी कर दी. राजेश एक अच्छा पति साबित हुआ. उस ने सुनीता को हर खुशी देने की कोशिश की लेकिन सब से बड़ी

खुशी वह नहीं दे पाए. सुनीता मां नहीं बन सकी.

दोनों ने लगभग 10 वर्ष बिना संतान के बिता दिए और अपनी नियति मान कर चुपचाप बैठ गए. जब शहर में इनफर्टिलिटी सैंटर खुला तो दोनों सैंटर गए. जांच में कमी राजेश में पाई गई.

चूंकि राजेश इलाज से भी पिता बनने के काबिल नहीं थे, इसलिए शुक्राणुओं की व्यवस्था शुक्राणु बैंक से हो गई. राहुल का जन्म हुआ. इस के साथसाथ कविता ने एक बच्ची को जन्म दिया. यही सुषमा है. राजेश ने राहुल और सुनीता दोनों को भरपूर प्यार दिया. जीवन अच्छा चल रहा था.

परंतु राजेश की अचानक मौत ने सुनीता को तोड़ दिया. सुनीता से ज्यादा अनिल को तोड़ दिया. जिस बहन को उन्होंने अपनी बच्ची की तरह पाला, उस को विधवा के रूप में देख कर वे अपनेआप को संभाल नहीं पा रहे थे. बहरहाल, धीरेधीरे सब सामान्य होने लगा. राहुल और सुषमा दोनों कालेज पहुंच गए.

इधर प्रताप भी परेशान थे. आज जो हुआ, उस से भी परेशान थे. उस ने उन के मन में संदेह पैदा कर दिया था. अब तक वे लोगोें की चर्चाओं को भाव नहीं दे रहे थे. लोग इसलिए भी चुप रहते क्योंकि लोगों को प्रताप सर का व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी लड़की को प्रभावित कर सकें. उन के मन में भी यही था कि कहीं वे वही तो नहीं? प्राचार्य वशिष्ठ ने प्रताप सर को बुलाया क्योंकि उन्होंने भी प्रताप सर के व्यवहार को भांप लिया था.

प्रताप सर के आने पर बात प्राचार्यजी ने ही बात शुरू की. ‘‘आप तभी से परेशान हैं जब से राहुल ने आप की नकल की?’’

‘‘नहीं सर, ऐसी बात नहीं. मैं कालेज में चल रही चर्चाओं से परेशान हूं और आज की घटना ने और क्लास की एक छात्रा के कमैंट ने चर्चा को और सशक्त बनाया है. मेरे सामने यह बात भी आई है कि राहुल मेरी अवैध संतान है जबकि ऐसा नहीं है. हां, राहुल मेरा बेटा हो सकता है,’’ डाक्टर प्रताप बोले.

यह सुन कर प्राचार्य चौंके और बोले, ‘‘राहुल आप का बेटा कैसे हो सकता है?’’

‘‘मेरा कोई अफेयर नहीं है. पता नहीं कैसे तब मैं ने अपने शुक्राणु दान कर दिए? मैं ने शुक्राणु बैंक को अपने शुक्राणु दान किए थे. तब मुझे यह पता नहीं कि

यह सब इस रूप में मेरे सामने आएगा.’’

‘‘तब तो आप का और राहुल का डीएनए टैस्ट करा लेते है,’’ प्राचार्य बोले.

‘‘लेकिन राहुल को इस के लिए कैसे राजी करें?’’

वह मुझ पर छोड़ दो, प्राचार्य बोले. लेकिन उन को कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि राहुल के मामा ने आ कर सारी समस्या हल कर दी.

उस घटना को एक सप्ताह से अधिक हो गया था. राहुल कालेज से वापस लौटा तब उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘क्यों रे, तू अपने टीचरों की नकल करता है?’’

‘‘नकल नहीं मम्मी, मिमिक्री करता हूं. आप को किस ने बताया? जरूर यह सुषमा ही होगी. वह तो यह भी कह रही होगी कि मुझ में प्रताप सर की छवि दिखाई देती है.’’

‘‘हां,’’ सुनीता बोली, ‘‘पर बेटा, तू अपने अध्यापकों की कमियों को नहीं बल्कि उन की विशेषताओं को उजागर कर. वे तेरे गुरुजी हैं और उन का सम्मान करो.’’

राहुल कुछ बोलता, तभी उस की भाभी आ गई और राहुल से बोली, ‘‘तू जा, अपनी पढ़ाई कर. मुझे तेरी मम्मी से कुछ बातें करनी हैं. कविता अब सुनीता से बोली, ‘‘डाक्टर प्रताप डीएनए जांच के लिए राजी हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, मैं राजेश को नहीं भुला पाऊंगी,’’ सुनीता बोली, ‘‘और खुद उन का भी परिवार होगा?’’

‘‘नहीं. उन का कोई परिवार नहीं है,’’ कविता बोली, ‘‘प्रताप सैल्फमेड व्यक्ति हैं. वे अनाथाश्रम में पले हैं. वे कौन सी जाति के हैं, कौन से धर्म के हैं, कौन जानता है.

‘‘परिवार क्या होता है? वे नहीं जानते. उन का परिवार अनाथाश्रम के लोग ही हैं. पढ़ने के जनून ने उन को यहां तक पहुंचाया है. हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए. कुछ बनने के जनून में खुद की शादी और परिवार के बारे में नहीं सोचा. हां, इतना जरूर किया कि शुक्राणु बैंक में अपने शुक्राणु दान कर दिए. और उन्हीं का तू ने उपयोग किया और फिर राहुल का जन्म हुआ.’’

सुनीता सुन रही थी परंतु कुछ बोल नहीं रही थी. कविता आगे बोली, ‘‘तू कुछ बोल नहीं रही है. प्रताप और राहुल के डीएनए अगर मैच कर गए तो हम सब के लिए खुशी की बात होगी. वे तेरे बेटे के जैविक पिता तो हैं ही, कोई गैर नहीं. समय को भी शायद यही मंजूर होगा, तभी तो उस ने ये हालात पैदा किए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, कभीकभी मैं प्रताप की और राजेश की तुलना करने लगी और उन को बुरा लगा तो?’’

‘‘तू राहुल की सोच. अपनी और प्रताप की नहीं. उसे अपने जैविक पिता को पिता कहने का मौका तो दे. हम सब चाहते हैं कि तुम सब एक सुखद जीवन जियो. और हां, राजेश होता तो भी उसे गम क्यों होता, वह जानता तो था कि राहुल उन की संतान नहीं. राजेश की आदतें तो

तू जानती ही है. उस का आशीर्वाद

भी मिलेगा.’’

सुनीता बोली, ‘‘पर भाभी, इस उम्र में शादी क्या शोभा देगी?’’

‘‘पागल, तू अभी 50 की हुई और इस उम्र में शादी तन की नहीं, मन की जरूरत होती है. इस उम्र में ही पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे की ज्यादा जरूरत होती है. बच्चे अपने परिवार के साथ व्यस्त रहेंगे. उन को उन के परिवार के साथ जीवन जीने दे. और जहां तक राहुल की बात है, तो तेरे भाई ने उस से बातचीत कर उस की सोच की थाह ले ली है. वह तो खुश है और डीएनए जांच के लिए भी राजी है. तू प्रताप के बारे में भी सोच, उस ने कभी कोई सुख नहीं देखा. जन्म के तुरंत बाद मांबाप मर गए. वह अनाथाश्रम में आ गया. अनाथाश्रम में पलने वाला बच्चा इस मुकाम तक पहुंचा है तो उस में काबिलीयत तो होगी. उसे तू ही खुशी दे सकती है. अगर तू ने मना कर दिया तो वह कहीं टूट न जाए.’’

सुनीता राजी हो गई. इधर प्रताप और राहुल के डीएनए मैच कर गए. और साथ ही, राहुल व सुनीता बंधन में बंध गए.

Family Story: तू रुक, तेरी तो – रुचि ने बच्चों के साथ क्या किया

Family Story: ‘‘च टाक…’’

समर्थ ने आव देखा न ताव, रुचि के गालों पर  झन्नाटेदार तमाचा आज फिर रसीद कर दिया. तमाचा इतनी जोर का था कि वह बिलबिला उठी. आंखों से गंगायमुना बह निकली. वह गाल पकड़े जमीन पर जा बैठी. समर्थ रुका नहीं, ‘‘तू रुक तेरी तो बैंड बजाता हूं अभी,’’ कहते हुए खाने की थाली जमीन पर दे मारी, फिर इधरउधर से लातें ही लातें जमा कर अपना पूरा सामर्थ्य दिखा गया. 5 साल का बेटा पुन्नू डर कर मां की गोद में जा छिपा.

‘‘चल छोड़ उसे, बाहर चल,’’ समर्थ उसे घसीटे जा रहा था, ‘‘चल, नहीं तो तू भी खाएगा…’’ वह गुस्से से बावला हो रहा था.

‘‘नई…नई… जाना आप के साथ, आप गंदे हो,’’ पुनीत चीखते हुए रो रहा था.

‘‘ठीक है तो मर इस के साथ,’’ समर्थ ने  झटके से उसे छोड़ा तो वह गिरतेगिरते बचा. अपने आंसू पोंछता हुआ भाग कर वह मां के आंसू पोंछने लगा. रुचि का होंठ कोने से फट गया था, खून रिस रहा था.

‘‘मम्मा, खून… आप को तो बहुत चोट आई है. गंदे हैं पापा. आप को आज फिर मारा. मैं उन से बात भी नहीं करूंगा. आप पापा से बात क्यों करते हो, आप कभी बात मत करना,’’ वह आंसुओं के साथ उस का खून भी बाजुओं से साफ करने लगा, ‘‘मैं डब्बे से दवाई ले आता हूं,’’ कह कर वह दवा लेने भाग गया.

रुचि मासूम बच्चे की बात पर सोच रही थी, ‘कैसे बात न करूं समर्थ से. घर है, तमाम बातें करनी जरूरी हो जाती हैं, वरना चाहती मैं भी कहां हूं ऐसे जंगली से बात करना. 2 घरों से हैं, 2 विचार तो हो ही सकते हैं, वाजिब तर्क दिया जा सकता है कोई है तो, पर इस में हिंसा कहां से आ जाती है बीच में. समर्थ को बता कर ही तो सब साफ कर के खाना तैयार कर दिया था समय पर. अम्माजी को आने में देर हो रही थी. फोन भी नहीं उठा रही थीं. खाना तैयार नहीं होता, तो भी सब चिल्लाते.’

‘‘अपने को गलत साबित होते देख नहीं पाते ये मर्द. बस, यही बात है,’’ अपनी सूजी आंखों के साथ जब अपने ये विचार अंजलि को बताए तो वह हंस पड़ी.

‘‘यार देख, मन तो अपना भी यही करता है. कोई अपनी बात नहीं मानता तो उसे अच्छे से पीटने का ही दिल करता है. पर हम औरतों के शरीर में मर्दों जैसी ताकत नहीं होती, वरना हम भी न चूकतीं, जब मरजी, धुन कर रख देतीं, अपनी बात हर कोई ऊपर रखना चाहता है.’’

‘‘तू तो हर बात को हंसी में उड़ा देना चाहती है. पर बता, कोई बात सहीगलत भी तो होती है.’’

‘‘हां, होती तो जरूर है पर अपनेअपने नजरिए से.’’

‘‘फिर वही बात. ऐसे तो गोडसे और लादेन भी अपने नजरिए से सही थे. पर क्या वे वाकई में सही कहे जा सकते हैं?’’

अंजली को सम झ नहीं आ रहा था, वह रुचि का ध्यान कैसे हटाए. आएदिन मासूम सी रुचि के साथ समर्थ की मारपीट की घटनाएं उसे कहीं अंदर तक  िझ्ां झोड़ रही थीं, बेचारे नन्हे पुन्नू के दिलोदिमाग पर क्या असर होता होगा. सारी बातें सुनी उस ने, किचन से सटे पूजाघर में सुबह से बह रहे दूध, बताशे, गुड़, खीर, मिष्ठान के चढ़ावे की सुगंध आकर्षित लग रही थी. मक्खियों, चीटियों की बरात से परेशान हो कर रुचि ने लाईजोल डालडाल कर किचन के साथसाथ पूजाघर को भी अच्छी तरह चमका डाला था.

किचन के चारों कोनों में पंडित मुखानंद के बताए 5-5 बताशे रख कर दूध चढ़ाने के टोटके का आज भी पालन कर के अपने भाई के घर गई. सास को लौटने में देर हो रही थी. चींटियों, मक्खियों के बीच रात का खाना बनाना मुश्किल हो रहा था. रुचि ने तंग आ कर सफाई का कदम उठाया था, क्या गलत किया उस ने. रुचि की कोई गलती आज भी उसे नहीं लगी. और फिर, गलती हो भी तो क्या कोई जानवरों की तरह सुलूक करता है भला? रोजरोज ऐसे बेसिरपैर के टोटके, पूजा, पाखंड उन का चलता ही रहता. हैरानी तो यह कि बहुत मौडर्न बनने वाला समर्थ भी ये सब मानता है. पहले ही मना किया था रुचि से कि समर्थ कुछ ज्यादा ही जता रहा है अपने को, अच्छे से एक बार और सोच ले, फिर शादी कर. पर मानी नहीं. पापा के सिर का बो झ जल्द से जल्द उतार कर उन्हें खुश देखना चाहती थी वह तो?

‘‘तू भी न, गौ बनी हुई है, गौ के भी 2 सींगें, 4 लातें और लंबी दुम होती है, वक्त आने पर इस्तेमाल भी करती है. पर तू तो बिलकुल सुशील, संस्कारी अबला नारी बनी हुई है, बड़ेबड़े मैडल मिलेंगे तु झे क्या? इतनी ज्यादती सहती क्यों है? डिपैंडैंट है इसलिए…’’ इतनी पढ़ीलिखी है, बोला था जौब कर ले. पर नहीं, पतिपरमेश्वर नहीं मानते. अरे, मानेंगे कैसे भला, फुलटाइम की दासी जो छिन जाएगी,’’ उस ने चिढ़ते हुए उस की ही बात कही.

अंजलि का घर रुचि से कुछ ही दूर था. बचपन से कालेज तक साथ पढ़ी अंजलि अपनी शादी के 2 महीने बाद ही पति के हादसे में हुई मौत के बाद वापस आ कर उसी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. पड़ोस के ब्लौक में ही रुचि की शादी हुई थी तो अकसर अंजलि लौटते समय रुचि से मिलने आ जाया करती. खूबसूरत रुचि को स्मार्ट समर्थ ने अपने को खुलेदिमाग का जता, उस के पिता हरिभजन के आगे अपने को चरित्रवान बताया, महात्मा गांधी, विवेकानंद आदि पर अपना पुस्तक संग्रह दिखा कर अच्छे होने का प्रमाण देदे कर, उस से शादी तो कर ली पर शादी के बाद ही उस की 18वीं सदी की मानसिकता सामने आ गई.

खुलेदिमाग की हर तरह की सफाईपसंद रुचि जाहिलों में फंस कर रह गई. पिता के संस्कार थे, ‘बड़ों  की आज्ञा का पालन करना है सदैव, अवज्ञा कभी नहीं,’ सो, किए जा रही थी. मां तो थी नहीं. पर नेकी, ईमानदरी, सत्य पर चलने वाले पिता ने अच्छे संस्कार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर यहां उन बातों की न इज्जत है न जरूरत. अब रुचि को कौन सम झाए, उस ने तो पिता की बातें गांठ बांध अंतस में बिठा ली हैं. बात वही है, ‘सबकुछ सीखा हम ने, न सीखी होशियारी.’ क्या करूं इस लड़की का? रोज ही मार खाए जा रही है. पर पिता से बताती भी नहीं कि वे आघात सह नहीं पाएंगे. लेदे के वही तो हैं उस के परिवार में.

पुन्नू घर पर होता तो वे रोतेरोते अपनी मासूम जबां से मम्मा के साथ घटी पूरी हिंसा का ब्योरा अंजलि मौसी को देने की कोशिश करता. ‘कैसे दादी, बूआ, चाचू सभी पापा की साइड लेते हैं. कोई मम्मा को बचाने नहीं आता. कहते हैं, और मारो और मारो.’ अंजलि सोचती, वे बचाने क्या आएंगे, सभी एक थाली के चट्टेबट्टे हैं.

जंगली गंवई हूश. छोटे से बच्चे में दिनबदिन कितना आक्रोश भरता जा रहा है, अंजलि देख रही थी. इतनी नफरत, इतना गुस्सा उस अबोध के व्यक्तित्व को बरबाद किए जा रहा है. पर करती भी क्या? रुचि तो हठ किए बैठी थी कि उस की मूक सेवा कभी तो रंग लाएगी, एक दिन प्रकृति सब ठीक करेगी.

अब तो पुन्नू भी पापा, चाचू के जैसे चीजें तोड़नेफेंकने लगा है. गुस्सा होता तो घरवालों की तरह चीखता है. खाना उठा कर जमीन पर दे मारता, तो रुचि थप्पड़ रसीद करती. तो रुचि को ही डांट पड़ने लगती. उसे तुरंत साफ करने के लिए आदेश हो जाता. घर के लोग शह भी देते उसे. कितनी बार देखासुना है उन्हें कहते हुए, ‘लड़का है, लड़की थोड़ी ही है. मर्द है वह क्यों करेगा भला. बहू, चल साफ कर जल्दी से, मुखानंद महाराज आते ही होंगे, इस की कुंडली का वार्षिक फल विचार कर के. आजा मेरे लाल, तू तो हमारे घर का वारिस है. तेरा कोई कुछ भी नहीं बिगड़ेगा. तु झे तो, मिनिस्टर बनना है. आज वे तेरे और तेरे पापा समर्थ के लिए असरदार टोटका बताने वाले हैं. नई तावीज भी लाएंगे तेरे लिए.’

उस दिन अंजलि स्कूल से लौटी तो रुचि के घर के आगे ऐंबुलैंस खड़ी देख कर माथा ठनका, किस को क्या हो गया? उस ने पांव तेजी से बढ़ाए, पास पहुंची तो देखा लोग रुचि को स्ट्रैचर पर डाले ऐंबुलैंस से निकाल कर घर में ले जा रहे हैं. रुचि बेसुध थी. खून से लथपथ सिर फट गया था, खून बह कर माथेचेहरेगरदन, कपड़ों पर जम चुका था. कुछ अभी भी सिर से बहे जा रहा था. पड़ोसियों ने बताया, ‘घर मैं काफी देर तक आएदिन की तरह चीखपुकार होती रही थी. 2 घंटे से रुचि यों ही पड़ी रही. तब जा कर ऐंबुलैंस ले आने का इन्हें होश आया. तब तक देर हो चुकी थी. रुचि ने ऐंबुलैंस में जाते ही दम तोड़ दिया.’

रुचि के पिता हरिभजन को किसी भले मानस ने खबर दे दी थी. वह ही उन्हें थाम कर रुचि के अंतिम दर्शन करवाने ले आया था. वे रुचि के खून सने सिर पर हाथ रख कर बिलख उठे. पुन्नू को लिपटा कर फूटफूट कर रो पड़े थे.

हादसे से अवाक अंजलि के रुंधे गले से शब्द ही नहीं निकल रहे थे. अंकल को क्या और कैसे ढाढ़स बंधाए. उस को देखते ही रुचि के पिता विलाप करते हुए बोल पड़े, ‘‘बेटी, इतना सब हो रहा था उस के साथ, तू ने कुछ बताया क्यों नहीं कभी. न उस ने कभी कोई भनक लगने दी. लकवे के कारण एक पैर से लाचार मु झे यह कह कर कि ‘ससुराल में यहां पूजा, पंडित, शकुन, अपशकुन बहुत मानते विचार करते हैं, घर नहीं आने देती थी मु झे. खुद ही पुन्नू को ले कर हफ्ते में एकदो बार आ जाती थी. तू तो उस की पक्की सहेली थी. तु झ से पूछता तो तू कहती बिलकुल ठीक है, आप उस की चिंता मत कीजिए. अब बता, ठीक है? चली गई मेरी रुचि. ‘वे अंजलि को, तो कभी रुचि के शव को पकड़ कर लगातार हिचकियों से रोए जा रहे थे.

उन का कं्रदन सुन अंजलि का दिल टूकटूक हुआ जा रहा था. अपनी आंखों के सैलाब को किसी तरह रोकते हुए वह बोली, ‘‘अंकल, संभालिए अपने को, आप की तबीयत पहले ही ठीक नहीं. इसी से रुचि ने कसम दे रखी थी आप से कुछ न कहूं. मैं क्या करती अंकल. यहां आप की अच्छी सीख ने उसे बांधे रखा, जिन का इन जाहिलों के यहां कोई मोल नहीं था,’’ पुन्नू अंजलि को देखते ही उस से लिपट गया.

‘‘अंजलि मौसी, इन सब ने मिल कर मेरी मम्मा को मारा. पापा ने दीवार पर मम्मा का सिर दे मारा था. वे गिर पड़ीं. मम्मा तभी से मु झ से बोली नहीं बिलकुल भी. दादी ने पापा, चाचू को भगा दिया. अब  झूठ कह रही हैं कि मम्मा सीढ़ी से गिर पड़ी,’’ वह रुचि से लिपट कर जोरजोर से रोने लगा. ‘‘उठो न मम्मा, अपने पुन्नू से बोलो न. मैं छोड़ूंगा नहीं किसी को. बड़ा हो कर बैंड बजा दूंगा इन सब की,’’ वह समर्थ से सीखे हुए शब्दों को दोहराने लगा.

रोजरोज की चीखनेचिल्लाने व मारपीट की आवाजों से तंग आ कर आज किसी पड़ोसी ने 100 नंबर डायल कर दिया था. पुलिस आ गई. नन्हे पुन्नू के बयान पर तफ्तीश हुई. 2 दिन के अंदर पुलिस ने समर्थ और उस के भाई को धरदबोचा. उन्हें जेल हो गई. नन्हा पुनीत किस के पास रहता, समस्या थी. क्योंकि पुन्नू अपनी दादी, बूआ के पास रहने को बिलकुल तैयार न था.

अंजलि उसे यह कह कर अपने साथ ले गई. ‘‘अंकल, आज के दौर में सज्जनता, सिधाई, संस्कारों का मोल सम झने वाले बहुत कम हैं. दुनिया के हिसाब से अपने को तैयार करना चाहिए और सामने आई चुनौतियों को सिधाई से नहीं, चतुराई से निबटना चाहिए. सिधाई से अकसर आज की दुनिया मूर्ख बनाती है, दबाती है, अपना उल्लू सीधा करती है. जो, रुचि  झेलती रही. कितना सम झाया था उसे. अंकल, पुन्नू चाहे कहीं भी रहे मैं उस को दूसरा समर्थ कभी नहीं बनने दूंगी. आप निश्चित रहें अंकल. शादी के 2 महीने बाद ही दुर्घटना में पति प्रशांत की मौत के बाद निरुद्देश्य बंजर से मेरे जीवन को पुनीत के रूप में एक नया लक्ष्य मिल गया है. अब आप भी मु झे अपनी रुचि ही समझिए अंकल. मैं इसे ले कर आप से मिलने उसी के जैसे आती रहूंगी.’’

रुचि के पिता हरिभजन के कांपते बूढ़े हाथ अंजलि के सिर पर जा रुके थे. उन से कुछ बोलते न बना, केवल आंसू आंखों से बहे चले जा रहे थे. अंजलि भीगे मन से उन्हें पोंछने लगी. पुन्नू ने दोनों हाथों से नाना और अंजलि मौसी को कस कर पकड़ लिया और आंखें मीचे वह गालों पर ढुलकते आंसुओं में अपनी मम्मा का एहसास ढूंढ़ रहा था.

‘‘मम्मा…’’ उस की हिचकियों के साथ निकलता बारबार वह एक शब्द सभी के हृदय को बींध रहा था.

Family Story: और्डर – क्या अंकलजी ने गुड्डी को अपना फोन दिया?

Family Story, लेखिका-  दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

Romantic Story: इजहार – सीमा के लिए गुलदस्ता भेजने वाले का क्या था राज?

Romantic Story, लेखक – सिद्धार्थ जैन

मनीषा ने सुबह उठते ही जोशीले अंदाज में पूछा, ‘‘पापा, आज आप मम्मी को क्या गिफ्ट दे रहे हो?’’

‘‘आज क्या खास दिन है, बेटी?’’ कपिल ने माथे में बल डाल कर बेटी की तरफ देखा.

‘‘आप भी हद करते हो, पापा. पिछले कई सालों की तरह आप इस बार भी भूल गए कि आज वैलेंटाइनडे है. आप जिसे भी प्यार करते हो, उसे आज के दिन कोई न कोई उपहार देने का रिवाज है.’’

‘‘ये सब बातें मुझे मालूम हैं, पर मैं पूछता हूं कि विदेशियों के ढकोसले हमें क्यों अपनाते हैं?’’

‘‘पापा, बात देशीविदेशी की नहीं, बल्कि अपने प्यार का इजहार करने की है.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि सच्चा प्यार किसी तरह के इजहार का मुहताज होता है. तेरी मां और मेरे बीच तो प्यार का मजबूत बंधन जन्मोंजन्मों पुराना है.’’

‘‘तू भी किन को समझाने की कोशिश कर रही है, मनीषा?’’ मेरी जीवनसंगिनी ने उखड़े मूड के साथ हम बापबेटी के वार्तालाप में हस्तक्षेप किया, ‘‘इन से वह बातें करना बिलकुल बेकार है जिन में खर्चा होने वाला हो, ये न ला कर दें मुझे 5-10 रुपए का गिफ्ट भी.’’

‘‘यह कैसी दिल तोड़ने वाली बात कर दी तुम ने, सीमा? मैं तो अपनी पूरी पगार हर महीने तुम्हारे चरणों में रख देता हूं,’’ मैं ने अपनी आवाज में दर्द पैदा करते हुए शिकायत करी.

‘‘और पाईपाई का हिसाब न दूं तो झगड़ते हो. मेरी पगार चली जाती है फ्लैट और कार की किस्तें देने में. मुझे अपनी मरजी से खर्च करने को सौ रुपए भी कभी नहीं मिलते.’’

‘‘यह आरोप तुम लगा रही हो जिस की अलमारी में साडि़यां ठसाठस भरी पड़ी हैं. क्या जमाना आ गया है. पति को बेटी की नजरों में गिराने के लिए पत्नी झूठ बोल रही है.’’

‘‘नाटक करने से पहले यह तो बताओ कि उन में से तुम ने कितनी साडि़यां आज तक खरीदवाई हैं? अगर तीजत्योहारों पर साडि़यां मुझे मेरे मायके से न मिलती रहतीं तो मेरी नाक ही कट जाती सहेलियों के बीच.’’

‘‘पापा, मम्मी को खुश करने के लिए 2-4 दिन कहीं घुमा लाओ न,’’ मनीषा ने हमारी बहस रोकने के इरादे से विषय बदल दिया.

‘‘तू चुप कर, मनीषा. मैं इस घर के चक्करों से छूट कर कहीं बाहर घूमने जाऊं, ऐसा मेरे हिस्से में नहीं है,’’ सीमा ने बड़े नाटकीय अंदाज में अपना माथा ठोंका.

‘‘क्यों इतना बड़ा झूठ बोल रही हो? हर साल तो तुम अपने भाइयों के पास 2-4 हफ्ते रहने जाती हो,’’ मैं ने उसे फौरन याद दिलाया.

‘‘मैं शिमला या मसूरी घुमा लाने की बात कह रही थी, पापा,’’ मनीषा ने अपने सुझाव का और खुलासा किया.

‘‘तू क्यों लगातार मेरा खून जलाने वाली बातें मुंह से निकाले जा रही है? मैं ने जब भी किसी ठंडी पहाड़ी जगह घूम आने की इच्छा जताई, तो मालूम है इन का क्या जवाब होता था? जनाब कहते थे कि अगर नहाने के बाद छत पर गीले कपड़ों में टहलोगी तो इतनी ठंड लगेगी कि हिल स्टेशन पर घूमने का मजा आ जाएगा.’’

‘‘अरे, मजाक में कही गई बात बच्ची को सुना कर उसे मेरे खिलाफ क्यों भड़का रही हो?’’ मैं नाराज हो उठा.

मेरी नाराजगी को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए सीमा ने अपनी शिकायतें मनीषा को सुनानी जारी रखीं, ‘‘इन की कंजूसी के कारण मेरा बहुत खून फुंका है. मेरा कभी भी बाहर खाने का दिल हुआ तो साहब मेरे हाथ के बनाए खाने की ऐसी बड़ाई करने लगे जैसे कि मुझ से अच्छा खाना कोई बना ही नहीं सकता.’’

‘‘पर मौम, यह तो अच्छा गुण हुआ पापा का,’’ मनीषा ने मेरा पक्ष लिया. बात सिर्फ बाहर खाने में होने वाले खर्च से बचने के लिए होती है.

‘‘उफ,’’ मेरी बेटी ने मेरी तरफ ऐसे अंदाज में देखा मानो उसे आज समझ में आया हो कि मैं बहुत बड़ा खलनायक हूं.

‘‘जन्मदिन हो या मैरिज डे, अथवा कोई और त्योहार, इन्हें मिठाई खिलाने के अलावा कोई अन्य उपहार मुझे देने की सूझती ही नहीं. हर खास मौके पर बस रसमलाई खाओ या गुलाबजामुन. कोई फूल, सैंट या ज्वैलरी देने का ध्यान इन्हें कभी नहीं आया.’’

‘‘तू अपनी मां की बकबक पर ध्यान न दे, मनीषा. इस वैलेंटाइनडे ने इस का दिमाग खराब कर दिया है, जो इस जैसी सीधीसादी औरत का दिमाग खराब कर सकता हो, उस दिन को मनाने की मूर्खता मैं तो कभी नहीं करूंगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुनाया तो मांबेटी दोनों ही मुझ से नाराज नजर आने लगीं.

दोनों में से कोई मेरे इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाती, उस से पहले ही किसी ने बाहर से घंटी बजाई.

मैं ने दरवाजा खोला और हैरानी भरी आवाज में चिल्ला पड़ा, ‘‘देखो, कितना सुंदर गुलदस्ता आया है.’’

‘‘किस ने भेजा है?’’ मेरी बगल में आ खड़ी हुई सीमा ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘और किस को भेजा है?’’ मनीषा उस पर लगा कार्ड पढ़ने की कोशिश करने लगी.

‘‘इस कार्ड पर लिखा है ‘हैपी वेलैंटाइनडे, माई स्वीटहार्ट,’ कौन किसे स्वीटहार्ट बता रहा है, यह कुछ साफ नहीं हुआ?’’ मेरी आवाज में उलझन के भाव उभरे.

‘‘मनीषा, किस ने भेजा है तुम्हें इतना प्यारा गुलदस्ता?’’ सीमा ने तुरंत मीठी आवाज में अपनी बेटी से सवाल किया.

मेरे हाथ से गुलदस्ता ले कर मनीषा ने उसे चारों तरफ से देखा और अंत में हैरानपरेशान नजर आते हुए जवाब दिया, ‘‘मौम, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है.’’

‘‘क्या इसे राजीव ने भेजा?’’

‘‘न…न… इतना महंगा गुलदस्ता उस के बजट से बाहर है.’’

‘‘मोहित ने?’’

‘‘वह तो आजकल रितु के आगेपीछे दुम हिलाता घूमता है.’’

‘‘मोहित ने?’’

‘‘नो मम्मी. वी डौंट लाइक इच अदर वैरी मच.’’

‘‘फिर किस ने भेजे हैं इतने सुंदर फूल?’’

‘‘जरा 1 मिनट रुकोगी तुम मांबेटी… यह अभी तुम किन लड़कों के नाम गिना रही थी, सीमा?’’ मैं ने अचंभित नजर आते हुए उन के वार्त्तालाप में दखल दिया.

‘‘वे सब मनीषा के कालेज के फ्रैंड हैं,’’ सीमा ने लापरवाही से जवाब दिया.

‘‘तुम्हें इन सब के नाम कैसे मालूम हैं?’’

‘‘अरे, मनीषा और मैं रोज कालेज की घटनाओं के बारे में चर्चा करती रहती हैं. आप की तरह मैं हमेशा रुपयों के हिसाबकिताब में नहीं खोई रहती हूं.’’

‘‘मैं हिसाबकिताब न रखूं तो हर महीने किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत आ जाए, पर इस वक्त बात कुछ और चल रही है… जिन लड़कों के तुम ने नाम लिए…’’

‘‘वे सब मनीषा के साथ पढ़ते हैं और इस के अच्छे दोस्त हैं.’’

‘‘मनीषा, तुम कालेज में कुछ पढ़ाई वगैरह भी कर रही हो या सिर्फ अपने सोशल सर्कल को बड़ा करने में ही तुम्हारा सारा वक्त निकल जाता है?’’ मैं ने नकली मुसकान के साथ कटाक्ष किया.

‘‘पापा, इनसान को अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करना चाहिए या नहीं?’’ मनीषा ने तुनक कर पूछा.

‘‘वह बात तो सही है पर यह गुलदस्ता भेजने वाले संभावित युवकों की लिस्ट इतनी लंबी होगी, यह बात मुझे थोड़ा परेशान कर रही है.’’

‘‘पापा, जस्ट रिलैक्स. आजकल फूलों का लेनादेना बस आपसी पसंद को दिखाता है. फूल देतेलेते हुए ‘मुझे तुम से प्यार हो गया है और अब सारी जिंदगी साथ गुजारने की तमन्ना है,’ ऐसे घिसेपिटे डायलौग आजकल नहीं बोले जाते हैं.’’

‘‘आजकल तलाक के मामले क्यों इतने ज्यादा बढ़ते जा रहे हैं, इस विषय पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे, पर फिलहाल यह बताओ कि क्या तुम ने यह गुलदस्ता भेजने वाले की सही पहचान कर ली है?’’

‘‘सौरी, पापा. मुझे नहीं लगता कि यह गुलदस्ता मेरे लिए है.’’

उस का जवाब सुन कर मैं सीमा की तरफ घूमा और व्यंग्य भरे लहजे में बोला, ‘‘जो तुम्हें पसंद करते हों, उन चाहने वालों के 10-20 नाम तुम भी गिना दो, रानी पद्मावती. ’’

‘‘यह रानी पद्मावती बीच में कहां से आ गई?’’

‘‘अब कुछ देरे तुम चुप रहोगी, मिस इंडिया,’’ मैं ने मनीषा को नाराजगी से घूरा तो उस ने फौरन अपने होंठों पर उंगली रख ली.

‘‘मुझे फालतू के आशिक पालने का शौक नहीं है,’’ सीमा ने नाकभौं चढ़ा कर जवाब दिया.

‘‘पापा, मैं कुछ कहना चाहती हूं,’’ मनीषा की आंखों में शरारत के भाव मुझे साफ नजर आ रहे थे.

‘‘तुम औरतों को ज्यादा देर खामोश रख पाना हम मर्दों के बूते से बाहर की बात है. कहो, क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘पापा, हो सकता है मीना मौसी की बेटी की शादी में मिले आप के कजिन रवि चाचा के दोस्त नीरज ने मौम के लिए यह गुलदस्ता भेजा हो.’’

‘‘तेरे खयाल से उस मुच्छड़ ने तेरी मम्मी पर लाइन मारने की कोशिश की है?’’

‘‘मूंछों को छोड़ दो तो बंदा स्मार्ट है, पापा.’’

‘‘क्या कहना है तुम्हें इस बारे में?’’ मैं ने सीमा को नकली गुस्से के साथ घूरना शुरू कर दिया.

‘‘मैं क्यों कुछ कहूं? आप को जो पूछताछ करनी है, वह उस मुच्छड़ से जा कर करो,’’ सीमा ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘अरे, इतना तो बता दो कि क्या तुम ने अपनी तरफ से उसे कुछ बढ़ावा दिया था?’’

‘‘जिन्हें पराई औरतों पर लार टपकाने की आदत होती है, उन्हें किसी स्त्री का साधारण हंसनाबोलना भी बढ़ावा देने जैसा लगता है.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि उस मुच्छड़ ने तेरी मां को ज्यादा प्रभावित किया होगा. किसी और कैंडिडेट के बारे में सोच, मनीषा.’’

‘‘मम्मी के सहयोगी आदित्य साहब इन के औफिस की हर पार्टी में मौम के चारों तरफ मंडराते रहते हैं,’’ कुछ पलों की सोच के बाद मेरी बेटी ने अपनी मम्मी में दिलचस्पी रखने वाले एक नए प्रत्याशी का नाम सुझाया.

‘‘वह इस गुलदस्ते को भेजने वाला आशिक नहीं हो सकता,’’ मैं ने अपनी गरदन दाएंबाएं हिलाई, ‘‘उस की पर्सनैलिटी में ज्यादा जान नहीं है. बोलते हुए वह सामने वाले पर थूक भी फेंकता है.’’

‘‘गली के कोने वाले घर में जो महेशजी रहते हैं, उन के बारे में क्या खयाल है.’’

‘‘उन का नाम लिस्ट में क्यों ला रही है?’’

‘‘पापा, उन का तलाक हो चुका है और मम्मी से सुबह घूमने के समय रोज पार्क में मिलते हैं. क्या पता पार्क में साथसाथ घूमते हुए वे गलतफहमी का शिकार भी हो गए हों?’’

‘‘तेरी इस बात में दम हो सकता है.’’

‘‘खाक दम हो सकता है,’’ सीमा एकदम भड़क उठी, ‘‘पार्क में सारे समय तो वे बलगम थूकते चलते हैं. प्लीज, मेरे साथ किसी ऐरेगैरे का नाम जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. अगर यह गुलदस्ता मेरे लिए है, तो मुझे पता है भेजने वाले का नाम.’’

‘‘क…क… कौन है वह?’’ उसे खुश हो कर मुसकराता देख मैं ऐसा परेशान हुआ कि सवाल पूछते हुए हकला गया.

‘‘नहीं बताऊंगी,’’ सीमा की मुसकराहट रहस्यमयी हो उठी तो मेरा दिल डूबने को हो गया.

‘‘मौम, क्या यह गुलदस्ता पापा के लिए नहीं हो सकता है?’’ मेरी परेशानी से अनजान मनीषा ने मेरी खिंचाई के लिए रास्ता खोलने की कोशिश करी.

‘‘नहीं,’’ सीमा ने टका सा जवाब दे कर मेरी तरफ मेरी खिल्ली उड़ाने वाले भाव में देखा.

‘‘मेरे लिए क्यों नहीं हो सकता?’’ मैं फौरन चिढ़ उठा, ‘‘अभी भी मुझ पर औरतें लाइन मारती हैं.. मैं ने कई बार उन की आंखों में अपने लिए चाहत के भाव पढ़े हैं.’’

‘‘पापा की पर्सनैलिटी इतनी बुरी भी नहीं है…’’

‘‘ऐक्सक्यूज मी… पर्सनैलिटी बुरी नहीं है से तुम्हारा मतलब क्या है?’’ मैं ने अपनी बेटी को गुस्से से घूरा तो उस ने हंस कर जले पर नमक बुरकने जैसा काम किया.

‘‘बात पर्सनैलिटी की नहीं, बल्कि इन के कंजूस स्वभाव की है, गुडिया. जब ये किसी औरत पर पैसा खर्च करेंगे नहीं तो फिर वह औरत इन के साथ इश्क करेगी ही क्यों?’’

‘‘आप को किसी लेडी का भी नाम ध्यान नहीं आ रहा है, जिस ने पापा को यह गुलदस्ता भेजा हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘पापा, आप की मार्केट वैल्यू तो बहुत खराब है,’’ मेरी बेटी ने फौरन मुझ से सहानुभूति दर्शाई.

‘‘बिटिया, यह घर की मुरगी दाल बराबर समझने की भूल कर रही है,’’ मैं ने शान से कौलर ऊपर कर के छाती फुला ली तो सीमा अपनी हंसी नहीं रोक पाई थी.

‘‘अब तो बिलकुल समझ नहीं आ रहा कि इस गुलदस्ते को भेजा किस ने है और यह है किस के लिए?’’ मनीषा के इन सवालों को सुन कर उस की मां भी जबरदस्त उलझन का शिकार हो गई थी.

उन की खामोशी जब ज्यादा लंबी खिंच कर असहनीय हो गई तो मैं ने शाही मुसकान होंठों पर सजा कर पूछा, ‘‘सीमा, क्या यह प्रेम का इजहार करने वाला उपहार मैं ने तुम्हारे लिए नहीं खरीदा हो सकता है?’’

‘‘इंपौसिबल… आप की इन मामलों में कंजूसी तो विश्वविख्यात है,’’ सीमा ने मेरी भावनाओं को चोट पहुंचाने में 1 पल भी नहीं लगाया.

मेरे चेहरे पर उभरे पीड़ा के भावों को उन दोनों ने अभिनय समझ और अचानक ही दोनों खिलखिला कर हंसने लगीं.

‘‘मेरे हिस्से में ऐसा कहां कि ऐसा खूबसूरत तोहफा मुझे कभी आप से मिले,’’ हंसी का दौरा थम जाने के बाद सीमा ने बड़े नाटकीय अंदाज में उदास गहरी सांस छोड़ी.

‘‘मेरे खयाल से फूल वाला लड़का गलती से यह गुलदस्ता हमारे घर दे गया है और जल्द ही इसे वापस लेने आता होगा,’’ मनीषा ने एक नया तुर्रा छोड़ा.

‘‘इस कागज को देखो. इस पर हमारे घर का पता लिखा है और इस लिखावट को तुम दोनों पहचान सकतीं,’’ मैं ने एक परची जेब से निकाल कर मनीषा को पकड़ा दी.

‘‘यह तो आप ही की लिखावट है,’’ मनीषा हैरान हो उठी.

‘‘आप इस कागज को हमें क्यों दिखा रहे हो?’’ सीमा ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘इसी परची को ले कर गुलदस्ता देने वाला लड़का हमारे घर तक पहुंचा था. लगता है कि तुम दोनों इस बात को भूल चुके हो कि मेरे अंदर भी प्यार करने वाला दिल धड़कता है… मैं जो हमेशा रुपएपैसों का हिसाबकिताब रखने में व्यस्त रहता हूं, मुझे पैसा कम कमाई और ज्यादा खर्च की मजबूरी ने बना दिया है,’’ अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के बाद मैं थकाहारा सा उठ कर शयनकक्ष की तरफ चलने लगा तो वे दोनों फौरन उठ कर मुझ से लिपट गईं.

‘‘आई एम सौरी, पापा. आप तो दुनिया के सब से अच्छे पापा हो,’’ कहते हुए मनीषा की आंखें भर आईं.

‘‘मुझे भी माफ कर दो, स्वीटहार्ट,’’ सीमा की आंखों में भी आंसू छलक आए.

मैं ने उन के सिरों पर प्यार से हाथ रख और भावुक हो कर बोला, ‘‘तुम दोनों के लिए माफी मांगना बिलकुल जरूरी नहीं है. आज वैलेंटाइनडे के दिन की यह घटना हम सब के लिए महत्त्वपूर्ण सबक बननी चाहिए. भविष्य में मैं प्यार का इजहार ज्यादा और जल्दीजल्दी किया करूंगा. मैं नहीं बदला तो मुझे डर है कि किसी वैलेंटाइनडे पर किसी और का भेजा गुलदस्ता मेरी रानी के लिए न आ जाए.’’

‘‘धत्, इस दिल में आप के अलावा किसी और की मूर्ति कभी नहीं सज सकती है, सीमा ने मेरी आंखों में प्यार से झांका और फिर शरमा कर मेरे सीने से लग गई.’’

‘‘मुझे भी दिल में 1 ही मूर्ति से संतोष करने की कला सिखाना, मौम,’’ शरारती मनीषा की इस इच्छा पर हम एकदूसरे के बहुत करीब महसूस करते हुए ठहाका मार कर हंस पडे़.

Social Story: महत्वाकांक्षा – जब मीता ने आया को सौंपी बेटी की परवरिश

Social Story, लेखक- कुंवर प्रेमिल

आजमीता का औफिस में कतई मन नहीं लग रहा था. सिर भारी हो गया था, आंखें सूजी हुई थीं. रात में वह सो जो नहीं पाई थी. पति से काफी नोकझोंक हुई थी. उस की पूरी रात टैंशन में गुजरी थी.

‘‘तुम औफिस से छुट्टी क्यों नहीं ले लेतीं.’’

‘‘आप क्यों नहीं ले लेते? पिछली दफा मैं ने लंबी छुट्टी नहीं ली थी क्या?’’ पति के कहने पर मीता फट पड़ी.

‘‘उस के पहले मैं ने भी तो लंबी छुट्टी ली थी.’’

उस के बाद दोनों के बीच खूब झगड़ा हुआ और फिर दोनों बिना कुछ खाएपीए सो गए.

सुबह उठने पर दोनों के चेहरों पर कई सवालिया निशान थे. बिना एकदूसरे से बोले और कुछ खाएपीए दोनों औफिस चले गए.

‘पूरी जिम्मेदारी औरत के सिर ही क्यों थोप दी जाती है.’ रहरह कर यही सवाल उसे बुरी तरह मथे जा रहा था. हर बार औरत ही समझौता करे? पत्नी की प्रौब्लम से पति को सरोकार क्यों नहीं? क्यों पुरुष इतना खुदगरज, लालची और हठधर्मी बन जाता है?

‘‘अरे, क्या हुआ? यह मुंह क्यों लटका हुआ है?’’ मैडम सारिका ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं मैडम, बेटी को ले कर हम दोनों में रोज झगड़ा होता है. वह बीमार है. मुझे दफ्तर की ओर से विदेश यात्रा पर जाना है. ऐसे में मैं कैसे छुट्टी ले सकती हूं. पति मेरी कोई मदद नहीं करते, उलटे गृहिणी बनने की सलाह दे कर मेरा और मूड खराब कर देते हैं.’’

‘‘बेटी को क्या हुआ है?’’

‘‘उस ने हंसनाखेलना छोड़ दिया है. हमेशा उनींदी सी रहती है. रहरह कर दांत किटकिटाती है. हर समय शून्य में निहारती रहती है.’’

‘‘किसी चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाओ,’’ मैडम सारिका घबरा कर बोलीं.

‘‘मैं छुट्टी नहीं ले सकती… मेरी टेबल पर बहुत काम पड़ा है.’’

‘‘उस की तुम टैंशन मत लो… मैं सब संभाल लूंगी… तुम बेटी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाओ.’’

मीता को यह जान कर अच्छा लगा कि पति ने भी अगले दिन की छुट्टी ले ली है. अगली सुबह आया की राह देखी, उस के न आने पर पड़ोसिन को घर की चाबी दे कर डाक्टर के पास रवाना हो गए.

डिस्पैंसरी में बहुत भीड़ थी. प्राइवेट डिस्पैंसरी में भी सरकारी अस्पतालों जैसी भीड़ देख कर मीता दंग रह गई. उसे अपना नंबर आना नामुमकिन सा लगने लगा, क्योंकि शनिवार होने के कारण डिस्पैंसरी 1 बजे बंद हो जानी थी.

मीता को आज पता चला कि छुट्टी की कितनी अहमियत है. सरकारी और प्राइवेट औफिसों में कितना अंतर है. प्राइवेट औफिस सैलरी तो अच्छी देते हैं पर खून चूस लेते हैं. जरा भी आजादी नहीं… कितना मन मार कर काम करना पड़ता है… इंसान मशीन बन जाता है. अपनी आजादी पर ग्रहण लग जाता है.

इस बीच पड़ोसिन का फोन आया कि आया अभी तक नहीं आई है. पता नहीं क्या हो गया था उसे जो बिना बताए छुट्टी कर गई.

बड़ी देर बाद मीता का नंबर आया. बच्ची की हालत देख कर एक बार को डाक्टर भी चौंक गया. उस ने बच्ची की बीमारी से संबंधित बहुत सारे प्रश्न पूछे, जिन के मीता आधेअधूरे उत्तर ही दे पाई. जितना आया जानती थी उतना मीता कहां जानती थी… बच्ची का खानापीना, खेलनाखिलाना सब कुछ उसी के जिम्मे जो था. वह दिन भर आया के पास ही तो रहती थी.

बच्ची का मुआयना कर डाक्टर ने कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी और बच्ची को ज्यादा से ज्यादा अपने पास रखने की ताकीद भी की. साथ ही यह भी कहा कि आया पर पूरी नजर रखें. यह सुन मीता घबरा गई.

अब पतिपत्नी दोनों को एहसास हो रहा था कि उन से बच्ची की उपेक्षा हुई है. उन्होंने अपनी बेटी से ज्यादा नौकरी को अहमियत दी. यह उसी का दुष्परिणाम है, जो बच्ची की हालत बद से बदतर हो गई.

‘‘सुनो जी, मैं 1 सप्ताह की छुट्टी ले लेती हूं… सैलरी कटे तो कटे… बच्ची को इस समय मेरी सख्त जरूरत है,’’ मीता कहतेकहते रो पड़ी.

‘‘मैं भी छुट्टी ले लेता हूं मीता. मेरी भी बराबर की जिम्मेदारी है… कहीं का नहीं छोड़ा इस नौकरी ने हमें, महत्त्वाकांक्षी बन कर रह गए थे हम.’’

‘‘बच्ची को कुछ हो गया तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी. विदेश जाने की धुन ने मुझे एक तरह से अंधा बना दिया था,’’ मीता अपने पति के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

बच्ची की आंखें थोड़ी खुलतीं, फिर बंद हो जातीं. वह अपनी अधखुली आंखों से शून्य में निहारती. अपनी मां को अर्धबेहोशी में देखते रहने का वह पूरा प्रयत्न करती.

‘‘बेटी आंखें खोल… अपनी ममा से बातें कर… देख तो तेरी ममा कितनी दुखी हो रही है… अब तुझे कभी आया के पास नहीं छोड़ेगी तेरी ममा… जरा तो देख..’’ कहतेकहते मीता का कंठ पूरी तरह अवरुद्ध हो गया.

रोतेबिलखते कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. दरवाजे पर आहट से वह जागी. दरवाजा खोला तो सामने पति हाथ में लिफाफा लिए खड़े थे. पति के हाथों से लगभग उसे छीन कर बच्ची की ब्लड रिपोर्ट पढ़ने लगी.

‘‘ड्रग्स,’’ उस ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पति की ओर ताका.

‘‘हां, ड्रग्स. बच्ची को धीमा जहर दिया जा रहा था. जरूर यह आया का काम है. तभी तो वह अब नहीं आ रही है.’’

‘‘बेबी के शरीर ने फंक्शन करना बंद कर दिया है,’’ मीता को डाक्टर का यह कहना याद आ गया और वह चक्कर खा कर बिस्तर पर जा गिरी.

कुछ समय बाद अचानक डाक्टर का फोन आया. बच्ची को ले कर क्लीनिक बुलाया. डाक्टर ने पुलिस को फोन कर आया को गिरफ्तार भी करा दिया था. पुलिस आया को ले कर क्लीनिक आ गई थी. उन के वहां पहुंचने पर आया उन से मुंह छिपाने का प्रयास करने लगी. तब पुलिस ने उन के सामने ही आया से पूछताछ शुरू की.

‘‘क्या आप की आया यही है?’’

‘‘जी, यही है,’’ दोनों ने एकसाथ जवाब दिया.

‘‘बच्ची पूरा दिन आया के पास ही रहती थी क्या?’’

‘‘जी हां, हम दोनों तो अपनेअपने औफिस चले जाते थे.’’

‘‘क्या आप ने इसे नौकरी पर रखते समय पुलिस थाने में जानकारी दी थी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यही आप से बहुत बड़ी गलती हुई है…’’ पुलिस इंस्पैक्टर ने दो टूक शब्दों में कहा और फिर आया की ओर मुखातिब हुए, ‘‘पतिपत्नी के औफिस जाने के बाद तुम बच्ची को कहां ले जाती थी?’’

‘‘जी, कहीं नहीं, मैं पूरा समय घर पर ही रहती थी.’’

‘‘झूठ… इन को जानती हो?’’ पुलिस ने पास के पार्क के माली की ओर इशारा कर के पूछा तो आया का चेहरा उतर गया. पार्क में बीमार बच्ची के नाम पर भीख मांगती थी. बच्ची बीमार सी लगे, इसलिए उसे भूखा रखती, ऊपर से धीमे जहर ने बच्ची पर और कहर ढा दिया था. पर समय रहते डाक्टर के रिपोर्ट करने पर पुलिस ने उसे रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया था.

अब आया जेल में थी और बच्ची अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रही थी. वह अपने मातापिता की महत्त्वाकांक्षा की बलि जो चढ़ गई थी.

Short Story: बिटिया और मैं

Short Story: छठवीं पढ़ रही मेरी बिटिया ने अर्द्ध वार्षिक के परिणाम वाली उत्तर पुस्तिकाएं मुझे बड़े गर्व के साथ दिखाई. मैंने सहज भाव से लिया.देखा! 100 में 98 नंबर, मै चौका. मैंने बिटिया की और आश्चर्य से देखा. उसकी आंखों में गर्व का भाव था.

मैंने सोचा होता…किसी एक विषय में अच्छे नंबर मिल गए होंगे। मैंने दूसरी उत्तर पुस्तिका देखी वह अंग्रेजी की थी उसमें 98 नंबर थे.मैं पुनः चौका और बिटिया के चेहरे पर दृष्टिपात किया. उसकी आंखों में एक विशेष चमक मुझे दिखाई दी.

मैं आश्चर्यचकित था. मैंने तीसरी उत्तर पुस्तिका उठाई उसमें 50 में 50 नंबर थे. अब तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गई . बिटिया बेहद पढ़ती थी. कभी-कभी रोने लगती थी-” पापा मुझे याद ही नहीं हो रहा मैं क्या करूं? मेरा क्या होगा?”

मैं धैर्य पूर्वक कहता-” बेटा! क्यों चिंता करती है. पढ़ने में इतना मन लगना ठीक नहीं है.” बिटिया नहीं मानती और पढ़ती रहती.में अपने काम में लगा रहता मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था मेरी बिटिया जो कि एक साधारण से स्कूल की स्टूडेंट है. इतने नंबर प्राप्त कर मेरी आंखों के आगे अंधकार ही अंधकार फैलाकर मेरी और बड़ी ही सदाशयता से देखेगी.

उसकी आंखों में कहीं यह भाव होगा-” पापा कहो ना, क्या बात है.”

– “मेरी लाडो! मगर मैं भला ऐसा कैसे कह सकता हूं. में यह सब जानता हूं कि हमारे खानदान की रीत बड़ी पुरानी है पढ़ने लिखने में जीरो और फिजूल की बातों में हीरो!” सो मैंने गंभीर स्वर में कहा -“बेटी! तुमने तो हमारा नाम मिट्टी में मिलाने का काम कर दिया. तूने यह क्या किया, बेटी ?”

बिटिया चकित हुई, फिर मुस्कुराई. मैंने कहा-” बेटी हमारे खानदान की लीक को मिटाने का काम तू क्यों कर रही है.अपने भाई की ओर देख, उसने कभी भी हमारी परंपराओं को तोड़ा नहीं.तुझसे बड़ा है मगर उसने बिन बोले ही परिवार की लीक को समझ लिया और मन आत्मा प्रसन्न कर दी है. कम से कम तुमको अपने भाई के पद चिन्हों पर चलने का प्रयत्न तो करना था.”

बिटिया ने मेरी और किसी शेरनी की भांति देखा जो व्याध को सामने देखती है और थक जाती है भागने का रास्ता नहीं मिलता. उसके हाव-भाव को देख मैं खीज उठा मैंने कहा-

“बेटी! क्या यह सब सचमुच तुम्हारी ही उत्तर पुस्तिकाएं है.”
उसने कहा-“हां पापा.”

मैंने कहा- “बेटा! कहीं ऐसा तो नहीं उत्तर पुस्तिका बदल गई हो.”
उसने कहा- “नहीं पापा, यह मेरी ही है.”

मैंने पुनः प्रश्न किया- “क्या यह राइटिंग तुम्हारी ही है.”
उसने कहा-” हां पापा!”

मैंने कहा -” इतनी अच्छी राइटिंग?”
बिटिया शरमायी – “हां पापा!”

मैंने कहा- “हमारे खानदान में इतनी सुंदर राइटिंग किसी की नहीं है और ना ही थी.”
बिटिया के चेहरे पर स्मित मुस्कान बिखर गई. मैंने तड़प कर कहा-” बेटा! तू मेरी राइटिंग देख, अपने भाइयों की देख, कितनी गंदी राइटिंग है, जैसे कीड़े मकोड़े.और तेरी इतनी सुंदर.”

बिटिया पुनः शरमायी .
मैंने कहा बेटा- “अब समझा? इसलिए तुझे इतने नंबर थोक में मिल गए हैं.”

उसने कहा- “नहीं पापा, राइटिंग के साथ-साथ मैंने सभी प्रश्नों के जवाब भी बिल्कुल सही सही लिखे हैं.”
मैंने कहा- “बेटा! ऐसा कैसे हो सकता है? हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ है. और ना होगा! तू फिजूल ही हमारे रिकॉर्ड को तोड़ने में लगी हुई है.”

बिटिया सकुचाई. जरा गंभीर हो गई. चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित भाव तैरने लगा.
मैंने कहा-” मुझे विश्वास नहीं होता. ऐसा लगता है तुम्हारी मैडम जी ने गलत ढंग से उत्तर पुस्तिकाओं को जांचा होगा.”

बिटिया उलझ कर बोली-” देखिए ना! ऐसा कतई नहीं है. मैंने एक – एक प्रश्न का जवाब बड़ी समझदारी से सही सही लिखा है.”

मैंने कहा- ” देख बेटी! तू मेरे हृदय की धड़कन को बढ़ा मत! देख कैसे धड़कन बढ़ गई है. यह उत्तर पुस्तिकाएं देखकर तुझसे बात करके मेरे हृदय की गति अचानक बढ़ गई है.”

बिटिया और थोड़ा गंभीर हो गई और मेरी और गंभीर भाव से देखने लगी… मुझे लगा वह अपनी करनी पर शर्मिंदा होने लगी है. मुझे यह देखकर अच्छा लगा. मैंने उसके सर पर स्नेह से हाथ रखा और शांत भाव से कहा- बेटा! अगर तू इस तरह पढे़गी तो एक दिन डॉक्टर या इंजीनियर बन जाएगी.”

बिटिया के चेहरे पर मुस्कान विद्यमान थी. “बेटा! हमारे खानदान में आज तक कोई डॉक्टर, इंजीनियर तो क्या कोई चपरासी तक नहीं बना है. यह सब पद पाने के लिए पढ़ना लिखना पड़ता है. हमारा खानदान स्कूल तो गया, मगर सिर्फ नाम को गया और आ गया. टीचर पढ़ाता है, हम अपने में मगन में रहने वाले लोग हैं.और तू…तू.”

बिटिया मुस्कुराइ-” पापा! आप मेरे साथ मजाक कर रहे हैं ना .”

मैंने कहा-” बेटा! इतनी गंभीर बात को मजाक मत समझ. मैं विनोद नहीं कर रहा हूं. मगर मुझे तुम्हारे रंग ढंग ठीक नहीं लग रहे हैं.कल से घर का कामकाज करो, स्कूल जाना, पढ़ना लिखना छोड़ो, यह हमारे महान खानदान के अनुरूप बात नहीं है.”

बिटिया मुस्कुराइ -” पापा! मैं तो पढ़ूगी और ऐसे ही नंबर पाती रहूंगी.”
यह सुनकर मैं अपना सर पीट कर रह गया.

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