देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा!

नरेंद्र मोदी का नया बड़ा मंत्रिमंडल कोई नया भरोसा दिलाने वाला नहीं है. असल में भारतीय जनता पार्टी के पास काम करने वालों में सिर्फ भक्त बचे हैं. जो योग्य हैं, कुछ नया करना जानते हैं, कुछ देश या समाज के लिए करना चाहते हैं, वे आज दुबकेसिमटे पड़े हैं क्योंकि भीड़ तो उन की है जो जयजय की ललकार कर सकते हैं, यात्राओं में जा सकते हैं, मूर्तियों के आगे पसर सकते हैं, कीमती समय धागों को बांधने में या दीए जलाने में लगा सकते हैं.

आज योग्य वही है जो एक ही बात को दिन में हजार बार दोहरा सके, सिर्फ और सिर्फ एक किताब पढ़े, प्रवचन सुने और सवाल खड़े न करे. नरेंद्र मोदी ने जितनों को नया मंत्री बनाया है या जिन को तरक्की दी है उन की खासीयत यही है कि वे सब लकीर के फकीर हैं.

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आज देश के सामने सेहत का सवाल सब से बड़ा है पर नए स्वास्थ्य मंत्री अभी भी आयुर्वेद की बात करते हैं जिस में जड़ीबूटियों को बिना छाने, छांटे, कितनी खानी है आदि की सलाह दी गई है. अब जैसे वीर्य बढ़ाने के लिए बताया गया है शरशूल, गन्ने की जड़, कांटेड की जड़, सतावरी, क्षीर विदारी, कटेरी, जीवंती, जीवक आदि को छान लें और शहद आदि मिला कर खाएं. अब वीर्य की कमी है, यह कैसे पता चलेगा? यह तो आज स्पर्म काउंट से एलोपैथी से पता चलता है. फिर आयुर्वेद का गुणगान किस काम का जो नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया करते फिरते हैं?

नरेंद्र मोदी सरकार के सारे मंत्रियों के पास हिंदूमुसलिम तनाव, पाकिस्तान, राम मंदिर, टीका, तिलक, कलेवा और अब लंबी दाढ़ी देश को ढंग से चलाने का उपाय?है. इन नए और पहले के बचे पुराने मंत्रियों से कुछ नया होगा यह भूल जाइए.

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हां, इतना जरूर है कि देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा. लोग अपनी जगह काम करेंगे, किसान खेती करेंगे, बसें चलेंगी, दुकानें खुलेंगी, कारखानों में काम होगा ही. सरकार खराब हो या अच्छी फर्क नहीं पड़ता. पेट शायद सब का भर जाए और भुखमरी की नौबत आएगी ऐसा लगता नहीं है. देश की जनता इस मंत्रिमंडल से ज्यादा मेहनती और अपनी फिक्र करने वाली है.

नरेंद्र मोदी के ‘दीदी ओ दीदी’ और ‘2 मई दीदी गई’ जैसे लटके बेकार गए, ताली, थाली और दीया काम के नहीं रहे, किसान कानून किसानों के आंदोलन के कारण पस्त हो रहे हैं, बालाकोट के बावजूद पाकिस्तान वहीं का वहीं और न राफेल से डरा सकता है और न राजपथ पर योगासनों से– या नए बन रहे सरकारी आलीशान भवनों से. उलटे पाकिस्तान का अब फिर चीन के साथ अफगानिस्तान में दखल बढ़ गया है और इसी अफगानिस्तान में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भारत का विमान अपहरण कर के ले जाया गया था. भारत अमेरिका के साथ?है पर अमेरिकी जनता, जिस ने जो बाइडेन को चुना है, भारत सरकार को नहीं चाहती और भारतीय मूल की कमला हैरिस भूल कर भी भारत की बात नहीं करतीं. विदेश मंत्री जिन्हें हटना चाहिए था, वहीं हैं, रक्षा मंत्री वहीं हैं. छोटे मंत्री हटा दिए गए जो महामहिम की चमचमाती मूर्ति पर सही पौलिश नहीं लगवा पा रहे थे.

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यह मंत्रिमंडल का हेरफेर भाजपा की मजबूरी हो सकती है पर जनता के लिए किसी तरह से राहत की सांस नहीं है.

खराब सिस्टम और बहकता युवा

गुलामी के दिनों में भी लोग काम करते ही हैं. यह प्रकृति की जरूरत है कि हर जीव किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश करे चाहे उसे आजादी के साथ रहना नसीब हो, मनचाहे लोगों के बीच में रहने को मिले, जुल्म करने वालों की गुलामी सहते हुए रहना पड़े या जंगलों में लगभग अकेले हरदम खतरों के बीच रहना पड़े. यही वजह है कि लाखों नहीं, करोड़ों लड़कियां घरवालों की जबरदस्ती के कारण ऐसों से शादी कर लेती हैं जिन्हें शादी के पहले नापसंद करती थीं, फिर वर्षों उन के साथ निभाती हैं और बच्चे तक पैदा करती हैं.
आज की सरकार हूणों, शकों, तुर्कों, मुगलों, अंगरेजों से बेहतर हो या न हो, लोग काम तो करते ही रहेंगे. चाहे जितनी महंगाई हो, जितने पैट्रोल के दाम बढ़ें, जितनी नौकरियां छूटें या न मिलें, वे कुछ न कुछ जुगाड़ कर पेट भरते और तन ढकने के लायक पैसा जुटा ही लेते हैं. जब देश के 130 करोड़ लोग ऐसा करेंगे तो सरकार के हिसाब से देश में प्रोडक्शन भी होगा और बिजनैस भी चलेगा.

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यह मनचाहा है, इसे जानने का आज कोई तरीका नहीं है पर जब एक सरकारी नौकरी के लिए लाखों एप्लीकेशंस आ रही हों तो साफ है कि देश के युवा जिस तरह की सैलरी वाली नौकरी चाह रहे हैं, वह नहीं लग रही या नहीं मिल रही.
सरकार भले कहती रहे कि उस का जीएसटी का कलैक्शन बढ़ गया और इस का मतलब है कि देश में व्यापार व उत्पादन बढ़ा है.  असल में स्थिति इस के उलट है. 18वीं व 20वीं सदी में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था. एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के दौरान और दूसरी बार सीधे ब्रिटेन के शासन के अधीन. दोनों बार अंगरेज देश से बहुत ज्यादा पैसा ले गए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ज्यादा बोनस अपने शेयरहोल्डरों को दिया जबकि दूसरी बार ब्रिटेन ने हिटलर से लड़ाई में ज्यादा सेना झोंकी और भारत के लोग भूखे मरते रहे.
देश में आज पैसे की किल्लत कैसी है, यह गंगा में बहाए शवों से पता चला है. जब सरकार ज्यादा कर वसूलने के ढोल बजा रही थी तो खांसी और सांस की बीमारी से गांवों में लोग मर रहे थे. वे कोविड से नहीं मर रहे थे क्योंकि गांव में न कोविड टैस्ंिटग सैंटर हैं न औक्सीजन देने वाले अस्पताल.
बड़े अफसोस की बात है कि जैसे तुलसीदास मुगलों के शासन के दौरान रामभजन की वकालत करते रहे, तकरीबन वैसे ही हमारे युवा इन दिनों टिकटौक जैसे शौर्ट वीडियो बना कर फालतू में जंगली पौधों की तरह उग रहे एप्स पर डाल रहे थे. लोगों की सेवा करने के बजाय उन्हें फिक्र अपने लाइक्स और फौलोअर्स की रही. यह एक समाज के सड़ जाने की निशानी है जो सामूहिक परेशानी में भी केवल सैकड़ों रुपए के सुख के लिए कीमती समय, पैसा और तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है.

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इस की दोषी सरकार नहीं, मातापिता हैं जो खुद हिंदूमुसलिम या पूजापाठ में मस्त हो गए हैं और उन की समझ नहीं रह गई कि कल को क्या अच्छा होगा, क्या गलत. युवाओं ने साबित कर दिया है कि देश का कल काला हो सकता है. भारत पहले ही चीन से रेस में पिछड़ चुका है, भूटान और बंगलादेश से भी पीछे है, वियतनाम, इंडोनेशिया, कंबोडिया से गरीब है. बस, अफ्रीका के कुछ देश भारत से पीछे हैं जहां गृहयुद्ध चल रहे हैं. वैसे, यहां भारत में भी गलीगली में गृहयुद्ध की ट्रेनिंग दी जा रही है. शक हो तो कहीं भी खड़े हो कर 4-5 युवाओं को सुन लो वे मरनेमारने की बात करेंगे, चीन की नहीं, अपने किसी पड़ोसी की.

खुले रैस्तराओं का समय

कोरोना के दिनों में वैसे तो रैस्तरां बंद ही रहे पर कईर् देशों में उन्हें खुले में चलाने की इजाजत दी गई और यह प्रयोग सफल रहा क्योंकि खुले में मेजें दूरदूर लगीं और वायरस के हवा से एकदूसरे तक पहुंचने के अवसर काफी कम हो गए. दुनियाभर के बहुत से देश अब गरमी हो या सर्दीईटिंग आउट को ही फैशन बना देना चाह रहे हैं ताकि लोगों को एयरकंडीशंड इलाकों के दमघोटू माहौल से बचाया जा सके.

शहरों में जगह की किल्लत है पर इतनी भी नहीं कि बाहर पटरियों पर हलका सा शेड और हवा का इंतजाम कर बैठने की जगह न बनाई जा सके. घरों में एयरकंडीशनर होने के बावजूद लोग आज भी बाग या नदी के किनारे बैठ कर सुस्ताना चाहते हैं. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने असल में लोगों को बिगाड़ दिया है. बंद जगह में शोर मचाने की छूट भी मिलने लगी और बहुत सी अनचाही हरकतें भी होने लगीं.

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अब जैसेजैसे भारत में लौकडाउन डरतेडरते अनलौक किया जा रहा हैखुले में रैस्तरां का प्रयोग ज्यादा किया जाना चाहिए ताकि युवाओं को ठंडक और गरमी सहने की आदत पड़नी शुरू हो जाए. आजकल कम अमीर देशों में मांबापों की चिंता बिजली के बिलों की ही होती है क्योंकि युवा हीटर और एयरकंडीशनर दोनों साथ चलाने लगें तो भी आश्चर्य की बात न होगी. घर में सुरक्षित टैंपरेचर में रहने की आदत उन्हें निकम्मा बना रही है. वैसेयही युवा ग्लोबल वार्मिंग पर बड़ेबड़े भाषण देते हैं और एनर्जी को बचाने का उपदेश देते हैं.

खुले रैस्तराओं में वर्गभेद व जातिभेद भी कम हो जाता है. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने हाल के सालों में इंटीरियर डैकोरेशन पर बेहद औब्सीन पैसा खर्च करना शुरू किया है. और यदि सब को बैठना बाहर तंबू के नीचे ही है  तो बहुत सा पैसा बचेगा. बाहर का वातावरण युवाओं को असलियत के ज्यादा  पास रखेगा. जो काम असल में छिप कर होने चाहिए वे फिर इन रैस्तराओं में तो नहीं हो पाएंगे. अगर शहर खाने को बाहर ही कंपलसरी कर दें तो बहुत भला होगा. खर्च भी कम होगा और भेदभाव भी कम.

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क्या चिराग पासवान का राजनीतिक करियर समाप्त हो गया है?

महाभारत में क्या हुआ था. कौरवों और पांडवों को पहले आपस में लड़वा दिया और फिर सब को मरवा दिया, कुरु वंश को ही समाप्त करा दिया. यह बात दूसरी है कि आज जब तर्क और तथ्य सब को उपलब्ध हैं, अधिकतर हिंदू महाभारत को विशेष धर्मयुद्ध सम झते हैं जिस में कृष्ण ने हिचकिचाते अर्जुन को गीता का पाठ पढ़ा कर परस्पर विरोधी बातें कहते हुए उसे रणक्षेत्र में लड़ने को अंतत: राजी कर ही लिया.

2019 के संसदीय चुनावों में ऐसा सा महाभारत भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ही सहयोगी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के साथ रचा जब लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान को नीतीश कुमार के उम्मीदवारों के सामने खड़ा करवा कर नीतीश कुमार को कमजोर कर दिया और नीतीश कुमार अब भारतीय जनता पार्टी के मोहताज हैं.

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22 जून को चिराग पासवान ने यह माना कि 2019 में उन्होंने जो भी किया वह भाजपा की रजामंदी से किया था. चिराग पासवान को यह रहस्य खोलना पड़ा क्योंकि जैसे पांडवों को हिमालय पर जा कर आत्महत्या करनी पड़ी थी, वैसे ही चिराग पासवान को करनी पड़ रही है क्योंकि उन के सांसद और विधायक छोड़ कर जा रहे हैं पर विपक्ष में नहीं, भारतीय जनता पार्टी या जनता दल (यू) में. चिराग को अनाथ कर के बड़ी चालबाजी से भारतीय जनता पार्टी ने दलित आंदोलन को बिहार में भी कुचल दिया और काफी बड़ी संख्या में होते हुए, वंचित होते हुए भी दलितों को अब किसी ऊंची जाति की जीहुजूरी में फिर से लगना पड़ेगा.

बातें बनाने में तेज और लच्छेदार लुभावने वादों के बलबूतों पर भाजपाई जैसे लोग सदियों से इस देश में राज करते आए हैं. राजनीतिक शासन किसी के हाथ में हो सामाजिक शासन हमेशा इन्हीं के हाथों में रहा है और जन्म से ले कर मृत्यु तक दलितों की तो छोडि़ए, शूद्रों, वैश्यों और क्षत्रियों तक की लगाम इन्हीं लोगों के पास रही. आज थोड़ाबहुत पढ़लिख कर इन्हें गरूर होने लगा था कि हम भी कुछ हैं पर पहले रामविलास पासवान को दलबदलू नंबर एक बना डाला गया और अब उन के पुत्र चिराग पासवान को दलबदल की आग में स्वाहा कर दिया गया है.

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चिराग पासवान अब चाहे जो भी कहते रहें, उन का राजनीतिक कैरियर समाप्त ही है. कोई करिश्मा ही उन का उद्धार कर सकता है.

देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की है भरमार!

देशभर में मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पढ़ेलिखे बेरोजगारों की गिनती हर साल बढ़ती जा रही है. कोराना के चक्कर में लाखों छोटे व्यापार व कारखाने बंद हुए हैं और उन की जगह विशाल कारखानों ने ले ली या बाहरी देशों के सामान ने ले ली है. इन में काम कर रहे औसत समझ के पढ़ेलिखे युवा अब बेकार हो गए हैं. ये ऐसे हैं जो अब खेतों में जा कर काम भी नहीं कर सकते.

खेतों में भी अब काम कम रह गया है. इन युवा बेरोजगारों को लूटने के लिए सैकड़ों वैबसाइटें बन गई हैं और धड़ाधड़ ह्वाट्सएप मैसेज भेजे जाते हैं कि साइट पर आओ, औनलाइन फार्म भरो. बहुत बार तो औनलाइन फार्म भरतेभरते बैंक अकाउंट का नंबर व पिन भी ले लिया जाता है, जो बचेखुचे पैसे होते हैं, वे हड़प लिए जाते हैं.

कुछ मामलों में युवाओं को सिक्योरिटी के नाम पर थोड़ा सा पैसा किसी अकाउंट में भेजने को कहा जाता है. इन को चलाने वाले शातिर कुछ दिन अपना सिम बंद रखते हैं और फिर दूसरे फोन में लगा कर इस्तेमाल करने लगते हैं. पुलिस के पास शिकायत करने वालों की सुनने की फुरसत नहीं होती.

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आज 20 से 25 साल का हर चौथा युवा यदि पढ़ नहीं रहा तो बेरोजगार है. जो काम कर भी रहे हैं वे आधाअधूराकाम कर रहे हैं. उन की योग्यता का लाभ उठाया नहीं जा रहा. मांबाप पर बोझ बने ये युवा आज की पढ़ाई का कमाल है कि अपने को फिर भी शहंशाह से कम नहीं समझते और स्मार्ट फोन लिए टिकटौक जैसे वीडियो बना कर सफल समझ रहे हैं.

यह समस्या बहुत खतरनाक हो सकती है. आज से पहले युवाओं को कहीं न कहीं कुछ काम मिल जाता था. किसी को सेना में, किसी को ट्रक में क्लीनर का, किसी को खेत पर. पढ़ने के बाद इन सब नौकरियों को अछूत माना जाने लगा है. यह और परेशानी की बात है. घर वालों से लड़झगड़ कर झटके पैसों को खर्च कर के आज काम चल रहा है पर कल जब मांबाप खुद रिटायर होने लगेंगे तब क्या होगा पता नहीं. आज जब बच्चे होते हैं तो पिता की आयु वैसे ही 25-30 की होती है और जब तक बच्चा बड़ा होता है, पिता 50 के आसपास हो जाता है और वह जो भी काम कर रहा होता है उस में आधाअधूरा रह जाता है. वह अपना और बच्चों का बोझ नहीं संभाल सकता.

बहुत मामलों में तो दकियानूसी मांबाप बेरोजगार बेटेबेटी की शादी भी कर देते हैं. कहीं से भी पैसों का जुगाड़ कर मोटा पैसा शादी में खर्च कर दिया जाता है और यदि कोई काम नहीं मिले तो रातदिन रोना ही रोना रहता है. मोदी सरकार ने 2-4 साल इस फौज को भगवा दुपट्टे पहना कर वसूली का अच्छा काम दिया था पर वह भी अब फीका पड़ने लगा है.

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मंदिरों के बंद होने से तो एक बड़े अधपढ़े युवाओं के हिस्से में बेकारी छा गई है. औनलाइन व्यापार ने थोड़ी सी नौकरियां दी हैं पर उस में इतना कंपीटिशन है कि हर रोज आमदनी कम हो रही है और जोखिम बढ़ रहा है. दिक्कत यह है कि देश में ऐसे कारखाने न के बराबर लग रहे हैं जिन में बेरोजगारों की खपत हो. जो भी काम हो रहा है वह विदेशी मशीनों से हो रहा है जहां बेरोजगारी की परेशानी कम है. भारत सरकार जल्दी ही कुंभ जैसे और प्रोग्राम करवाए जहां लोगों को नंगे रह कर जीना सिखाया जाए क्योंकि अब बड़ी गिनती में पढ़ेलिखे नौजवानों और लड़कियों के लिए जानवरों की तरह ही रहना सीखना होगा.

जनता की जान बचाने के लिए डंडाधारी पुलिस होना जरूरी है?

इस देश की पुलिस पूरी तरह से कोरोना से लड़ने को तैयार है जैसे वह हर आपदा में तैयार रहती है. हर आपदा में पुलिस का पहला काम होता है कि निहत्थे, बेगुनाहों, बेचारों और गरीबों को कैसे मारापीटा जाए. चाहे नोटबंदी हो, चाहे जीएसटी हो, चाहे नागरिक कानून हों, हमारी पुलिस ने हमेशा सरकार का पूरा साथ दे कर बेगुनाह गरीबों पर जीभर के डंडे बरसाए हैं. किसान आंदोलन में भी लोगों ने देखा और उस से पहले लौकडाउन के समय सैकड़ों मील पैदल चल रहे गरीब मजदूरों की पिटाई भी देखी.

किसी भी बात पर पुलिस सरकार की हठधर्मी के लिए उस के साथ खड़ी होती है और जरूरत से ज्यादा बल दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ती. पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, तमिलनाडु में केंद्र के साथ पार्टियों की पुलिस 5 नहीं 50,000 से 5 लाख तक लोगों के गृह मंत्री या प्रधानमंत्री की चुनावी भीड़ को कोरोना के खिलाफ नहीं मान रही थी पर अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं, हर चौथे दिन एकदो घटनाएं सामने आ ही जाती हैं, जिन में लौकडाउन को लागू कराने के लिए धड़ाधड़ डंडे बरसाए जा रहे थे.

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भारत की जनता अमेरिकी जनता की तरह नहीं जो पुलिस से 2-2 हाथ भी कर सकती है. यह तो वैसे ही डरीसहमी रहती है. बस भीड़ हो तो थोड़ी हिम्मत रहती है पर इस पर जो बेरहमी बरती जाती है वह अमेरिका के जार्ज फ्लायड की हत्या की याद दिलाती है. फर्क इतना है कि अमेरिका में दोषी पुलिसमैन को लंबी जेल की सजा दी गई. यहां 5-7 दिन लाइनहाजिर कर इज्जत से बुला लिया जाएगा.

अदालत में तो मामला चलाना ही बेकार है क्योंकि पुलिस वालों के अत्याचार, डंडों, मामलों में फंसा देने की धमकियों से गवाह आगे आते ही नहीं.  कोविड की तैयारी भी यहां पुलिस कर रही है, अस्पताल, डाक्टर, लैब या दवा कंपनियां नहीं. सरकार को मालूम है कि पुलिस हर मौके का पूरा नाजायज फायदा उठाएगी.  कोविड के लिए लौकडाउन में जो लोग सड़क पर चल रहे हैं या दुकान चला रहे हैं वे अपने लिए खुद जोखिम ले रहे हैं. वे नियम तोड़ रहे हैं पर दूसरों से ज्यादा नुकसान उन्हीं को है. सिर्फ इसलिए उन पर डंडे बरसाना कि आदेश को तोड़ा जा रहा है बेरहमी है. यह सिनेमाघर के आगे टिकट के लिए लगी लंबी लाइन पर आंसू गैस छोड़ने की तरह है क्योंकि इस से किसी और को नुकसान नहीं हो रहा है.

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पुलिस असल में मौका ढूंढ़ती है कि अपनी ताकत आम जनता को दिखा सके ताकि हर समय दहशत का माहौल बना रहे. यहां आमतौर पर शिकायत करने वालों को भी शक की निगाह से देखा जाता है. सिर्फ खेलेखाए लोग ही पुलिस की मिलीभगत से शिकायतें करने की हिम्मत करते हैं. गरीब आदमी तो दूसरों की मार भी खा लेता है पुलिस की भी.  उम्मीद थी कि कोरोना में लोग बाहर न निकलें, इसे समझाने के लिए सत्ता में बैठी पार्टियों के पेशेवर ग्राहक आगे आएंगे. लेकिन उन्हें तो वोट चाहिए, मंदिर चाहिए, सत्ता चाहिए, ठेके चाहिए. जनता की जान बचानी है तो डंडाधारी पुलिस ही है उन के पास. बस, यही इस देश की हालत है.

क्या गर्लफ्रेंड रखना आसान काम है?

हर जवान की इच्छा होती है कि उस की कोई गर्लफ्रैंड हो. आजकल गांवकसबों में लड़केलड़कियों को मिलने के इतने मौके मिलने लगे हैं कि आसानी से गर्लफ्रैंड बन जाती हैं. पर आज के छोटे शहरों, कसबों और गांवों की लड़कियां भोलीभाली नहीं हैं. वे अपनी कीमत जानती हैं. वे लड़कों से ज्यादा पढ़ रही हैं. वे लड़कों से ज्यादा हुनरमंद हैं. घरों में रहते हुए भी उन्हें पैसे की कीमत मालूम है.
आज गांवों की लड़कियों को भी काम के मौके मिलने लगे हैं. थोड़ी पढ़ाई हो, थोड़ा काम तो उम्मीदों के पंख लग जाते हैं. शहर जा कर मौल में खाना और पिक्चर देखना, स्मार्ट फोन खरीदना, डाटा चार्ज कराना, घरेलू रोटी, शरबत की जगह बर्गर, पिज्जा और कोक लेना वे जानती हैं और इन सब का भुगतान बौयफ्रैंड ही करेगा, वे यह भी जानती हैं.
आज की लड़कियां अपने साथ की कीमत भी जानती हैं और अपने बदन की भी. उन्हें अगर सैक्स पर कोई एतराज न हो तो वे यह भी जानती हैं कि यह चीज कीमती है. वे इस की कीमत लेना शादी तक नहीं टालना चाहतीं. उन्हें आज ही चाहिए और इसीलिए लड़कों को मरखप कर कमा कर, चोरी कर के गर्लफ्रैंड के लिए पैसा जमा करना ही होता है. घरों में लड़की को आज भी कमतर माना जाता है पर लड़कियां फिर भी जुगत भिड़ा कर आसमान में उड़ने के लिए एक साथी को ढूंढ़ने से कतराती नहीं हैं और इस साथी को ही पंखों को हवा देनी होती है.
दिल्ली में अप्रैल के दूसरे सप्ताह में एक लड़के ने अपनी गर्लफ्रैंड के खर्च उठाने के लिए 7 महीने का एक बच्चा ही अगवा कर लिया और 40 लाख रुपयों की मांग कर डाली. इस नौसिखिए अपराधी कोपकड़ लिया गया पर वह बक गया कि इस तरह का जोखिम उस ने क्यों लिया था.

लड़कियों की खातिर गलियों में आएदिन मारपीट होती रहती है. लव जिहाद का शिगूफा इसीलिए उठाया गया है क्योंकि हिंदू लड़कियों को मुसलिम लड़के भाते हैं जो मेहनती हैं, काम करना जानते हैं और हिंदू लड़कों के मुकाबले ज्यादा तहजीब वाले हैं. मुसलमानों में लड़कियों को बहुत आजादी नहीं है. परदा है, बुरका है पर फिर भी धार्मिक कानूनों में वे बराबर की सी हैं. उन के बीच पलेबढ़े हुए लड़के हिंदू निकम्मों से ज्यादा बेहतर हैं.

फिर हिंदू दलित लड़कियां सुंदर हों तो हिंदू लड़के गर्लफ्रैंड नहीं बनाना चाहते, बस उन से सैक्स चाहते हैं, राजीराजी या जबरन. लव जिहाद का शिगूफा हिंदू लड़कों की पोल खोल रहा है कि आखिर क्यों हिंदू लड़कियां मुसलिम लड़कों को मरने तक की हद तक चाहने लगी हैं.

गर्लफ्रैंड चाहे हिंदू हो या मुसलिम पालना आसान नहीं है. आज शादी की उम्र टल रही है. 30-35 साल तक की उम्र के लड़के भी एक छत पा सकने लायक नहीं कमा पा रहे. उन्हें गर्लफ्रैंड ही चाहिए क्योंकि शादी कर नहीं सकते, घर ला नहीं सकते. दोजनी मोदीशाहसरकार को वैसे तो समाज की बड़ी चिंता है पर उस के लठैतों की क्या बुरी हालत समाज में है, उस की कोई फिक्र नहीं. इसलिए गर्लफ्रैंड बनाओ, खर्च करो, रोओ, लड़कोंकेलिए यही बचा है.

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देश की सरकार मजदूरों के लिए हैं या मालिकों के लिए?

दिल्ली के पास बसा गुड़गांव देश का सब से अमीर इलाका है. यहां जाओ तो ऊंचेऊंचे शीशों से चमचमाते भवन हैं जिन में बड़ी गाडि़यों में आते लोग हैं, जो 100 रुपए की बोतल का पानी पीते हैं और एक खाने पर 1,000 रुपए खर्चते हैं. करोड़ों से कम के मकानों में ये लोग नहीं रहते. इन में कुछ मालिक, कुछ मैनेजर, कुछ एक नई किस्म के लोग कंसल्टैंट हैं. इन पर पैसा बरसता है. मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री इन्हें दिखा कर फूले नहीं समाते. हम अमेरिका, चीन से कोई कम थोड़े हैं.

इसी गुड़गांव में अप्रैल के पहले सप्ताह में एक गांव के पास बसी झुग्गियों की बस्ती में आग लग गई. कुछ ही देर में 700 घर जल गए. 1,000 से ज्यादा लोग बेघर हो गए. उन के कपड़े जल गए. घर का खाने का सामान जल गया. बरतन जल गए. जो रुपयापैसा रखा था वह जल गया. उन के सर्टिफिकेट, आधारकार्ड, पैनकार्ड, राशनकार्ड जल गए.

सवाल है कि उस शहर में जहां 30-30 मंजिले भवन हैं जो संगमरमर से चमचमा रहे हैं, वहां मजदूरों के लिए मैले से, बदबूदार ही सही, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह भिनभिनाते ही सही, पर पक्के मकान क्यों नहीं बन सकते? देश की सरकारें मजदूरों के लिए हैं या मालिकों के लिए? मालिकों को, अमीरों को 5,000 गज, 10,000 गज, 20,000 गज के प्लाट दिए जा रहे हैं, मजदूरों को बसाने के लिए 20 गज के प्लाट या बने मकान भी दे नहीं सकती सरकारें. ऐसी सरकार किस काम की.

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राम मंदिर के नाम पर होहल्ला मचाया जा रहा है. अरबों रुपया जमा करा जा रहा है. मजदूरों के लिए क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री हाईवे की बातें करते हैं जिन पर 50 लाख की गाडि़यां दौड़ती हैं, पर मजदूरों के मकानों की नहीं. हर शहर में कच्ची बस्तियां ही बस्तियां दिखती हैं. गांवों में 2000 साल पुरानी तकनीक के बने मकानों के नीचे बसे लोग दिखते हैं. एक फूस के छप्पर और उस पर तनी फटी हुई तिरपाल के नीचे घरौंदे बसे होते हैं.

देश के पास इतनी सीमेंट, ईंट, लोहा है कि दुनिया की सब से ऊंची मूर्ति ऐसे नेता की बनवाई जा सके जिस की पार्टी उस के मरने के 60 साल बाद बदलवा दी गई, पर उन लोगों के लिए 200 फुट के  मकान के लिए सामान नहीं जो 60 साल से इंतजार कर रहे हैं और कांवड़ भी ढोते हैं, विधर्मी का सिर भी फोड़ते हैं कि भगवान खुश हो जाए.

हर देश का फर्ज है कि अपने सब से गरीब का भी खयाल रखे. हरेक को बराबर का सा मिले, यह तो शायद नहीं हो सकता पर हरेक को पक्की छत तो मिले ताकि बारिश, गरमी, रात और आग से तो बच सके. ये सरकारें कैसे चौड़ी सड़कों को बनवा डालने के इश्तिहार सारे देश में लगवा सकती हैं, जबकि आम मजदूर चाहे गांव का हो या शहर का पक्के मकान, पानी और सीवर से जुड़े शौचालय का हकदार नहीं है. यह कमजोरी उन अरब भर मजदूरों की है कि उन्होंने अपना आज और अपने बच्चों का कल ऐसे लोगों के हाथ गिरवी रख दिया है जो कभी संसद में, कभी विधानसभा में, कभी मंदिर में बैठ कर वादे करते हैं पर मलाई हजम कर के डकार भी नहीं लेते.

आम मजदूर तो जल रहा है, कभी आग में, कभी बेकारी में, कभी भूख में और कभी पुलिस के डंडों की मार से.

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