रिश्तों की परख: भाग 2

लेखका- शैलेंद्र सिंह परिहार

वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानीजी के पास आ गई. रिजल्ट आया तो मैं फर्स्ट डिवीजन में पास हुई थी. गणित में अच्छे नंबर मिले थे. मैं अपने रिजल्ट से संतुष्ट थी. कुछ दिनों बाद कमल का भी रिजल्ट आया था. उसे मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान मिला था. उसे बधाई देने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. मैं जल्द ही नानी के घर से वापस लौट आई थी. कमल से मिली लेकिन उसे प्रसन्न नहीं देखा. वह दुखी मन से बोला था, ‘नहीं स्नेह, मैं पीछे नहीं रहना चाहता हूं, मुझे पहली पोजीशन चाहिए थी.’

वह कालिज पहुंचा और मैं 11वीं में. मैं ने अपनी सुविधानुसार कामर्स विषय लिया और उस ने आर्ट. अब उसे आई.ए.एस. बनने की धुन सवार थी.

‘आप को इस तरह विषय नहीं बदलना चाहिए था,’  मौका मिलते ही एक दिन मैं ने उसे समझाना चाहा.

‘मैं आई.ए.एस. बनना चाहता हूं और गणित उस के लिए ठीक विषय नहीं है. पिछले सालों के रिजल्ट देख लो, साइंस की तुलना में आर्ट वालों का चयन प्रतिशत ज्यादा है.’

मैं उस का तर्क सुन कर खामोश हो गई थी. मेरी बला से, कुछ भी पढ़ो, मुझे क्या करना है लेकिन मैं ने जल्द ही पाया कि मैं उस की तरफ खिंचती जा रही हूं. धीरेधीरे वह मेरे सपनों में भी आने लगा था, मेरे वजूद का एक हिस्सा सा बनता जा रहा था. अकेले में मिलने, उस से बातें करने को दिल चाहता था. समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उस से प्यार होता जा रहा है या फिर यह उम्र की मांग है.

वह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था और एक शाम तो मेरे सपनों को एक आधार भी मिल गया था. आंटीजी बातों ही बातों में मेरी मम्मी से बोली थीं, ‘मन में एक बात आई थी, आप बुरा न मानें तो कहूं?’

‘कहिए न,’ मम्मी ने उन्हें हरी झंडी दे दी.

‘आप अपनी बेटी मुझे दे दीजिए, सच कहती हूं मैं उसे अपनी बहू नहीं बेटी बना कर रखूंगी,’ यह सुन मम्मी खामोश हो गई थीं. इतना बड़ा फैसला पापा से पूछे बगैर वह कैसे कर लेतीं. उन्हें खामोश देख कर और आगे बोली थीं, ‘नहीं, जल्दी नहीं है, आप सोचसमझ लीजिए, भाई साहब से भी पूछ लीजिएगा, मैं तो कमल के पापा से पूछ कर ही आप से बात कर रही हूं. कमल से भी बात कर ली है, उसे भी स्नेह पसंद है.’

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उस रात मम्मीपापा में इसी बात को ले कर फिर तकरार हुई थी.

‘क्या कमी है कमल में,’ मम्मी पापा को समझाने में लगी हुई थीं, ‘पढ़नेलिखने में होशियार है, कल को आई.ए.एस. बन गया तो अपनी बेटी राज करेगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं हो,’ पापा ने खीजते हुए कहा था, ‘अभी वह पढ़ रहा है, अभी से बात करना उचित नहीं है. वह आई.ए.एस. बन तो नहीं गया न, मान लो कल को बन भी गया और उसे हमारी स्नेह नापसंद हो गई तो?’

‘आप तो बस हर बात में मीनमेख निकालने लगते हैं, कल को उस की शादी तो करनी ही पड़ेगी, दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर सेटल करना होगा, कहां से लाएंगे इतना पैसा? आज जब बेटी का सौभाग्य खुद चल कर उस के पास आया है तो दिखाई नहीं पड़ रहा है.’

पापा हमेशा की तरह मम्मी से हार गए थे और उन का हारना मुझे अच्छा भी लग रहा था. वह बस, इतना ही बोले थे, ‘लेकिन स्नेह से भी तो पूछ लो.’

‘मैं उस की मां हूं. उस की नजर पहचानती हूं, फिर भी आप कहते हैं तो कल पूछ लूंगी.’

दूसरे दिन जब मम्मी ने पूछा तो मैं शर्म से लाल हो गई थी, चाह कर भी हां नहीं कह पा रही थी. मैं ने शरमा कर अपना चेहरा झुका लिया था. वह मेरी मौन स्वीकृति थी. फिर क्या था, मैं एक सपनों की दुनिया में जीने लगी थी. जब भी वह हमारे घर आता तो छोटे भाई मुझे चिढ़ाते, ‘दीदी, तुम्हारा दूल्हा आया है.’

देखते ही देखते 2 साल का समय गुजर गया, मैं ने भी हायर सेकंडरी पास कर उसी कालिज में दाखिला ले लिया था जिस में कमल पढ़ता था. 1 साल तक एक ही कालिज में पढ़ने के बावजूद हम कभी अकेले कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. बस, घर से कालिज और कालिज से सीधे घर. ऐसा नहीं था कि मैं उसे मना कर देती, लेकिन उस ने कभी प्रपोज ही नहीं किया. और मुझे लड़की का एक स्वाभाविक संकोच रोकता था.

ग्रेजुएशन पूरी होने के बाद उसे कंपीटीशन की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना था. सुनते ही मैं सकते में आ गई. उसे रोक भी नहीं सकती थी और जाते हुए भी नहीं देख सकती थी. जिस शाम उसे जाना था उसी दोपहर को मैं उस के घर पहुंची थी. वह जाने की तैयारी कर रहा था. आंटीजी रसोई में थीं. मैं ने पूछा था, ‘मुझे भूल तो न जाओगे?’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया था, जैसे मेरी बात सुनी ही न हो. उस की इस बेरुखी से मेरी आंखें भर आई थीं. उस ने देखा और फिर बोला था, ‘यदि कुछ बन गया तो नहीं भूलूंगा और यदि नहीं बन पाया तो शायद…भूल भी जाऊंगा,’ सुनते ही मैं वहां से भाग आई थी.

लगभग 4 माह बाद वह इलाहाबाद से वापस आया था. बड़ा परिवर्तन देखा. हेयर स्टाइल, बात करने का ढंग, सबकुछ बदल गया था. एक दिन कमल ने कहा था, ‘मेरे साथ फिल्म देखने चलोगी?’

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‘क्या,’ मुझे आश्चर्य हुआ था. मन में एक तरंग सी दौड़ गई थी.

‘लेकिन बिना पापा से पूछे…’

‘ओह यार, पापा से क्या पूछना… आफ्टर आल यू आर माई वाइफ…अच्छा ठीक है, मैं पूछ भी लूंगा.’

कमल ने पापा से क्या कहा मुझे नहीं मालूम पर पापा मान गए थे. वह शाम मेरी जिंदगी की एक यादगार शाम थी. 3 से 6 पिक्चर देखी. ठंड में भी हम दोनों ने आइसक्रीम खाई. लौटते समय मैं ने उस से कहा था, ‘तुम्हें इलाहाबाद पहले ही जाना चाहिए था.’

समय गुजरता गया. मैं भी ग्रेजुएट हो गई. सुनने में आया कि कमल का चयन मध्य प्रदेश पी.सी.एस. में नायब तहसीलदार की पोस्ट के लिए हो गया था, लेकिन उस ने नियुक्ति नहीं ली. उस का तो बस एक ही सपना था आई.ए.एस. बनना है. 2 बार उस ने मुख्य परीक्षा पास भी की लेकिन इंटरव्यू में बाहर हो गया.

मेरे पापा का ग्वालियर तबादला हो गया. एक बार फिर हम लोगों को अपना पुराना शहर छोड़ना पड़ा. अंकल और आंटी दोनों ही स्टेशन तक छोड़ने आए थे.

मेरी पोस्ट गे्रजुएशन भी हो चुकी थी, अब तो पापा को सब से अधिक चिंता मेरी शादी की थी. जब भी यू.पी.एस.सी. का रिजल्ट आता वह पेपर ले कर घंटों देखा करते थे. मम्मी उन्हें समझातीं, ‘जहां इतने दिनों तक सब्र किया वहां एकाध साल और कर लीजिए.’

पापा गुस्से में बोले थे, ‘ये सब तुम्हारी ही करनी का फल है. बड़ी दूरदर्शी बनती थीं न…अब भुगतो.’

‘आप वर्माजी से बात तो कीजिए, कोई अपनी जबान से थोड़े ही फिर जाएगा, शादी कर लें, लड़का अपनी तैयारी करता रहेगा.’

‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो,’ पापा गुस्से से चीखे थे, ‘उस सनकी को अपनी बेटी ब्याह दूं, अच्छीखासी पोस्ट पर सलेक्ट हुआ था, लेकिन नियुक्ति नहीं ली. यदि कल को कुछ नहीं बन पाया तो?’

‘ऐसा नहीं है. वह योग्य है, कुछ न कुछ कर ही लेगा. आप की बेटी भूखी नहीं मरेगी.’

पापा दूसरे दिन आफिस से छुट्टी ले कर जबलपुर चले गए. मैं धड़कते हृदय से उन की प्रतीक्षा कर रही थी. 2 दिन बाद लौट कर आए तो मुंह उतरा हुआ था. आते ही आफिस चले गए. पूरे दिन मां और मैं ने प्रतीक्षा की. पापा शाम को आए तो चुपचाप खाना खा कर अपने बेडरूम में चले गए. उन के पीछेपीछे मम्मी भी. मैं उन की बात सुनने के लिए बेडरूम के दरवाजे के ही पास रुक गई थी.

‘क्या हुआ? क्या उन्होंने मना कर दिया?’

‘नहीं…’  पापा कुछ थकेथके से बोले थे, ‘वर्माजी तो आज भी तैयार हैं, लेकिन लड़का नहीं मान रहा है, कहता है आई.ए.एस. बनने के बाद ही शादी करूंगा. हां, वर्माजी ने थोड़े दिनों की और मोहलत मांगी है, लड़के को समझा कर फोन करेंगे.

हकीकत- भाग 1: क्या रश्मि की मां ने शादी की मंजूरी दी?

राइटर- सोनाली करमरकर

मौसम बड़ा खुशनुमा और प्यारा था. रिमझिम बारिश की फुहार, मन को रिझाने वाली ठंडी हवा… आज यों लग रहा था, जैसे मन की सारी मुरादें पूरी होने वाली हों. गोविंद और रश्मि के प्यार को गोविंद की मां ने कुबूल कर लिया था.

गोविंद एक फाइनैंस कंपनी में मैनेजर था और रश्मि उस की जूनियर. साथ काम करतेकरते जाने कब दोनों के दिल के तार जुड़ गए और दोस्ती चाहत में बदल गई, पता ही नहीं चला.

गोविंद के बाबूजी उस के बचपन में ही गुजर गए थे. मां ने ही उसे आंखों में सपने लिए बड़ी मशक्कत से पाला था. उस ने अपनी मां को चिट्ठी लिख कर रश्मि के बारे में सब बता दिया था और उस की तसवीर भी भेजी थी. मां का जवाब उस के पक्ष में आया था. अगले हफ्ते मां खुद आने वाली थीं, अपनी होने वाली बहू से मिलने.

औफिस आने के बाद गोविंद ने जल्दी से रश्मि को अपने केबिन में बुलाया.

“क्या हुआ गोविंद?” रश्मि ने आते ही पूछा.

“रश्मि, तुम्हें तो पता ही था कि मैं ने मां को तुम्हारे बारे में बताया है. कल घर जाने के बाद मुझे उन का खत मिला,” गोविंद ने उदास हो कर कहा.

“क्या लिखा था उस खत में और तुम इतने उदास क्यों हो?” रश्मि ने घबराते हुए पूछा.

“बात ही ऐसी है रश्मि… मां ने हमेशा के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बांधने का फैसला सुनाया है,” गोविंद ने गंभीरता से अपनी बात पूरी की.

गोविंद ने यह बात इतनी ज्यादा गंभीरता से कही थी कि पहले तो रश्मि समझ न सकी, पर जब समझी तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.

“रश्मि, अब तो मां ने भी हां कह दिया है, तो तुम्हें भी अपने घर वालों से बात कर लेनी चाहिए. मैं वापस आने के बाद उन से मिलता हूं. अब तुम जाओ.

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“जानती हो न आज रात मुझे टूर के लिए निकलना है. उस के पहले अपने काम जल्दी से निबटाने हैं,” गोविंद ने वहां से तकरीबन भगाते हुए उस से कहा.

रश्मि भी गोविंद को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने साथ गई. आते समय वह रास्तेभर सोचती रही कि शायद गोविंद ही उस के लिए बना है वरना 3 बार पक्की हुई उस की शादी टूटती नहीं. लेकिन इस बार उसे किसी तरह की अनहोनी का डर नहीं था. उस का प्यार… उस का गोविंद जो उस के साथ था.

पापा और मम्मी से किस तरह बात करे? इस बारे में रश्मि सोचती रही. उस की छोटी बहन की शादी हो चुकी थी. छोटे भाई ने भी अपनी पत्नी के साथ दूसरी जगह बसेरा बसा लिया था. अब अगर उस की शादी भी हो गई तो मम्मीपापा अकेले रहेंगे या भाई के पास रहेंगे, वह समझ नहीं पा रही थी. उसे कुछ पुराने दिन याद आ गए.

उन दिनों रश्मि घर में अकेली कमाने वाली थी. उसे जब कालेज की डिगरी मिली थी, उसी साल पापा की कंपनी बंद हो गई थी. वे सालों से उसी कंपनी में काम कर रहे थे. वे यह सदमा सह नहीं सके. वे दिनभर कमरे की छत को ताकते घर में पड़े रहते.

उस समय रश्मि के दोनों भाईबहन छोटे थे. रश्मि ने आगे बढ़ कर घर की जिम्मेदारी ली. उस ने एक नौकरी पकड़ ली. धीरेधीरे सब ‍ठीक हो गया.

शादी की तारीख भी तय हो गई, पर अचानक एक दिन लड़के वालों ने शादी तोड़ने का संदेशा भेज दिया.

“आखिर बात क्या है? आप उन के पास जा कर मिल आइए न,” मां ने बेचैन हो कर पापा से कहा.

“रिश्ता तोड़ते समय ही उन्होंने मिलने से मना कर दिया था. खैर, जाने दो. हमारी बेटी को इस से भी अच्छा लड़का मिलेगा,” पापा उन दोनों को समझाते रहे.

इस के बाद 2 बार रश्मि का रिश्ता जुड़ा और ‍फिर टूट गया. मन का बोझ बढ़ गया था. उस की जिंदगी जैसे एक ही ढर्रे पर चल रही थी, जिस में कोई रोमांचक मोड़ नहीं था.

सालभर तक तो यही सब चलता रहा और तभी अचानक कंपनी ने रश्मि का उसी शहर की दूसरी ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया. रश्मि भी एक ही जगह काम करकर के ऊब गई थी, सो वह भी खुशीखुशी दूसरी ब्रांच में चली गई.

नई ब्रांच में आना जैसे रश्मि के लिए फायदेमंद साबित हुआ. यहां की आबोहवा उसे अच्छे से रास आई. कंपनी का औफिस घर से दूर था, लेकिन बस सेवा उपलब्ध थी, इसलिए रश्मि को कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन अचानक रश्मि की गोविंद से मुलाकात हो गई जो वहां मैनेजर था. पहले उन दोनों की दोस्ती हुई और फिर दोस्ती चाहत में बदल गई. यह भी इत्तिफाक ही था कि अभी तक गोविंद की शादी भी नहीं हुई थी.

रश्मि अपने ही खयालों में खोई थी कि अचानक ड्राइवर ने बस को जोर से ब्रेक लगाया और वह हकीकत में लौट आई. बस में बैठेबैठे उस के खयालों में पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. आज कितने दिनों के बाद उस का मूड अच्छा था. जिंदगी को ले कर मन में फिर से उम्मीद जागी थी.

रश्मि घर पहुंची तो मम्मी चाय बना रही थीं और पापा टैलीविजन देख रहे थे. रश्मि कपड़े बदल कर आई और मम्मी का हाथ बंटाने लगी. चाह कर भी वह मम्मी से शादी की बात नहीं कर पाई. इसी ऊहापोह में अगला दिन ‍भी निकल गया. गोविंद के आने से पहले उसे घर में बात करना जरूरी था.

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रश्मि जब शाम को औफिस से घर पहुंची, तो पापा तैयार बैठे थे और मां अच्छी सी साड़ी पहने आईने के सामने सिंगार कर रही थीं.

“सुनो, अब बेटी के ‍लिए चाय बनाने मत बैठ जाना. देर हो रही है. जल्दी करो भई,” पापा ने मम्मी को आवाज लगाई.

“सुनो बेटा, मैं और तुम्हारे पापा फिल्म देखने जा रहे हैं. तुम चाय बना कर पी लेना. और हां, रात के लिए रोटी भी सेंक लेना. हम साढ़े 9 बजे तक वापस आ जाएंगे,” कहते हुए मम्मी ने चप्पल पहनीं और बाहर निकल गईं.

रश्मि को लगा कि जब हर कोई अपनी पसंद का खयाल रख रहा है, तो उसे झिझक क्यों? अगली सुबह बड़ी हिम्मत कर के वह मम्मी के सामने खड़ी हो गई और बोली, “मम्मी, मुझे आप से कुछ कहना है. शायद आप को अटपटा लगे सुनने में… पर मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है…”

यह सुन कर मम्मी इस कदर चौंकी कि उन के हाथ का कलछा नीचे गिर गया.

“मम्मी, गोविंद मेरे मैनेजर हैं और उन्होंने मेरे बारे में अपनी मां से बात कर ली है. अगले हफ्ते उन की मां हमारे घर आ रही हैं… आप से मेरा हाथ मांगने,” रश्मि ने छूटते ही सारी बात एक ही सांस में कह डाली. ‍

Family Story in Hindi- खुशियों की दस्तक: भाग 3

कौस्तुभ और प्रिया का शरीर अब जर्जर होता रहा था. कहते हैं न कि आप के शरीर का स्वास्थ्य बहुत हद तक मन के सुकून और खुशी पर निर्भर करता है और जब यही हासिल न हो तो स्थिति खराब होती चली जाती है. यही हालत थी इन दोनों की. मन से एकाकी, दुखी और शरीर से लाचार. बस एकदूसरे की खातिर दोनों जी रहे थे. पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ दे रहे थे. एक दिन दोनों बाहर बालकनी में बैठे थे, तो एक महिला अपने बच्चे के साथ उन के घर की तरफ आती दिखी. कौस्तुभ सहसा ही बोल पड़ा, ‘‘उस बच्चे को देख रही हो प्रिया, हमारा पोता भी अब इतना बड़ा हो गया होगा न? अच्छा है, उसे हमारा चेहरा देखने को नहीं मिला वरना मोहित की तरह वह भी डर जाता,’’ कहतेकहते कौस्तुभ की पलकें भीग गईं. प्रिया क्या कहती वह भी सोच में डूब गई कि काश मोहित पास में होता.

तभी दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों की तंद्रा टूटी. दरवाजा खोला तो सामने वही महिला खड़ी थी, बच्चे की उंगली थामे. ‘‘क्या हुआ बेटी, रास्ता भूल गईं क्या?’’ हैरत से देखते हुए प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मांजी, रास्ता नहीं भूली, बल्कि सही रास्ता ढूंढ़ लिया है,’’ वह महिला बोली. वह चेहरे से विदेशी लग रही थी मगर भाषा, वेशभूषा और अंदाज बिलकुल देशी था. प्रिया ने प्यार से बच्चे का माथा चूम लिया और बोली, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है. हमारा पोता भी इतना ही बड़ा है. इसे देख कर हम उसे ही याद कर रहे थे. लेकिन वह तो इतनी दूर रहता है कि हम आज तक उस से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘इसे भी अपना ही पोता समझिए मांजी,’’ कहती हुई वह महिला अंदर आ गई.

‘‘बेटी, हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि तू ने हमारे लिए कुछ सोचा. कितने दिन गुजर जाते हैं, कोई हमारे घर नहीं आता. बेटी, आज तू हमारे घर आई तो लग रहा है, जैसे हम भी जिंदा हैं.’’

‘‘आप सिर्फ जिंदा ही नहीं, आप की जिंदगी बहुत कीमती भी है,’’ कहते हुए वह महिला सोफे पर बैठ गई और वह बच्चा भी प्यार से कौस्तुभ के बगल में बैठ गया. सकुचाते हुए कौस्तुभ ने कहा, ‘‘अरे, आप का बच्चा तो मुझे देख कर बिलकुल भी नहीं घबरा रहा.’’

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‘‘घबराने की बात ही क्या है अंकल? बच्चे प्यार देखते हैं, चेहरा नहीं.’’ ‘‘यह तो तुम सही कह रही हो बेटी पर विश्वास नहीं होता. मेरा अपना बच्चा जब इस की उम्र का था तो बहुत घबराता था मुझे देख कर. इसीलिए मेरे पास आने से डरता था. दादादादी के पास ही उस का सारा बचपन गुजरा था.’’

‘‘मगर अंकल हर कोई ऐसा नहीं होता. और मैं तो बिलकुल नहीं चाहती कि हमारा सागर मोहित जैसा बने.’’ इस बात पर दोनों चौंक कर उस महिला को देखने लगे, तो वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आप सही सोच रहे हैं. मैं दरअसल आप की बहू सारिका हूं और यह आप का पोता है, सागर. मैं आप को साथ ले जाने के लिए आई हूं.’’ उस के बोलने के लहजे में कुछ ऐसा अपनापन था कि प्रिया की आंखें भर आईं. बहू को गले लगाते हुए वह बोली, ‘‘मोहित ने तुझे अकेले क्यों भेज दिया? साथ क्यों नहीं आया?’’ ‘‘नहीं मांजी, मुझे मोहित ने नहीं भेजा मैं तो उन्हें बताए बगैर आई हूं. वे 2 महीने के लिए पैरिस गए हुए हैं. मैं ने सोचा क्यों न इसी बीच आप को घर ले जा कर उन को सरप्राइज दे दूं. ‘‘मोहित ने आज तक मुझे बताया ही नहीं था कि मेरे सासससुर अभी जिंदा हैं. पिछले महीने इंडिया से आए मोहित के दोस्त अनुज ने मुझे आप लोगों के बारे में सारी बातें बताईं. फिर जब मैं ने मोहित से इस संदर्भ में बात करनी चाही तो उस ने मेरी बात बिलकुल ही इग्नोर कर दी. तब मुझे यह समझ में आ गया कि वह आप से दूर रहना क्यों चाहता है और क्यों आप को घर लाना नहीं चाहता.’’

‘‘पर बेटा, हम तो खुद भी वहां जाना नहीं चाहते. हमें तो अब ऐसी ही जिंदगी जीने की आदत हो गई है,’’ कौस्तुभ बोला.

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‘‘मगर डैडी, आज हम जो खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं, सब आप की ही देन है और अब हमारा फर्ज बनता है कि हम भी आप की खुशी का खयाल रखें. जिस वजह से मोहित आप से दूर हुए हैं, मैं वादा करती हूं, वह वजह ही खत्म कर दूंगी.’’ ‘‘मेरे अंकल एक बहुत ही अच्छे कौस्मैटिक सर्जन हैं और वे इस तरह के हजारों केस सफलतापूर्वक डील कर चुके हैं. कितना भी जला हुआ चेहरा हो, उन का हाथ लगते ही उस चेहरे को नई पहचान मिल जाती है. वे मेरे अपने चाचा हैं. जाहिर है कि वे आप से फीस भी नहीं लेंगे और पूरी एहतियात के साथ  इलाज भी करेंगे. आप बस मेरे साथ सिंगापुर चलिए. मैं चाहती हूं कि हमारा बच्चा दादादादी के प्यार से वंचित न रहे. उसे वे खुशियां हासिल हों जिन का वह हकदार है. मैं नहीं चाहती कि वह मोहित जैसा स्वार्थी बने और हमारे बुढ़ापे में वैसा ही सुलूक करे जैसा मोहित कर रहा है’’ प्रिया और कौस्तुभ स्तंभित से सारिका की तरफ देख रहे थे. जिंदगी ने एक बार फिर करवट ली थी और खुशियों की धूप उन के आंगन में सुगबुगाहट लेने लगी थी. बेटे ने नहीं मगर बहू ने उन के दर्द को समझा था और उन्हें उन के हिस्से की खुशियां और हक दिलाने आ गई थी.

Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 3: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

अंजलि को बेटी का सवाल सुन कर तेज झटका लगा. उस ने अपना सिर झुका लिया. शिखा आगे एक भी शब्द न बोल कर अपने कमरे में लौट गई. दोनों मांबेटी ने तबीयत खराब होने का बहाना बना कर रात का खाना नहीं खाया. शिखा के नानानानी को उन दोनों के उखडे़ मूड का कारण जरा भी समझ में नहीं आया.

उस रात अंजलि बहुत देर तक नहीं सो सकी. अपने पति के साथ चल रहे मनमुटाव से जुड़ी बहुत सी यादें उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा रही थीं. शिखा द्वारा लगाए गए आरोप ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था.

राजेश ने कभी स्वीकार नहीं किया था कि अपने दोस्त की विधवा के साथ उस के अनैतिक संबंध थे. दूसरी तरफ आफिस में काम करने वाली 2 लड़कियों और राजेश के दोस्तों की पत्नियों ने इस संबंध को समाप्त करवा देने की चेतावनी कई बार उस के कानों में डाली थी.

राजेश ने उसे प्यार से डांट कर भी खूब समझाया

तब खूबसूरत सीमा को अपने पति के साथ खूब खुल कर हंसतेबोलते देख अंजलि जबरदस्त ईर्ष्या व असुरक्षा की भावना का शिकर रहने लगी.

राजेश ने उसे प्यार से व डांट कर भी खूब समझाया पर अंजलि ने साफ कह दिया, ‘मेरे मन की सुखशांति, मेरे प्यार व खुशियों की खातिर आप को सीमा से हर तरह का संबंध समाप्त कर लेना होगा.’

‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से अपनी नजरों में गिर जाऊं. मैं कुसूरवार हूं ही नहीं, तो सजा क्यों भोगूं? अपने दिवंगत दोस्त की पत्नी को मैं बेसहारा नहीं छोड़ सकता हूं. तुम्हारे बेबुनियाद शक के कारण मैं अपनी नजरों में खुद को गिराने वाला कोई कदम नहीं उठाऊंगा,’ राजेश के इस फैसले को अंजलि किसी भी तरह से नहीं बदलवा सकी.

पहले अपने पति और अब अपनी बेटी के साथ हुए टकरावों में अंजलि को बड़ी समानता नजर आई. उस ने सीमा को ले कर राजेश पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया था और शिखा ने कमल को ले कर खुद उस पर.

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वह अपने को सही मानती थी, जैसे अब शिखा अपने को सही मान रही थी. वहां राजेश अपराधी के कटघरे में खड़ा हो कर सफाई देता था और आज वह अपनी बेटी को सफाई देने के लिए मजबूर थी.

अपने दिल की बात वह अच्छी तरह जानती थी. उस के मन में कमल को ले कर रत्ती भर भी गलत तरह का आकर्षण नहीं था. इस मामले में शिखा पूरी तरह गलत थी.

तब सीमा व राजेश के मामले में क्या वह खुद गलत नहीं हो सकती थी? इस सवाल से जूझते हुए अंजलि ने सारी रात करवटें बदलते हुए गुजार दी.

अगली सुबह शिखा के जागते ही अंजलि ने अपना फैसला उसे सुना दिया, ‘‘अपना सामान बैग में रख लो. नाश्ता करने के बाद हम अपने घर लौट रहे हैं.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया

‘‘ओह, मम्मी. यू आर ग्रेट. मैं बहुत खुश हूं,’’ शिखा भावुक हो कर उस से लिपट गई.

अंजलि ने उस के माथे का चुंबन लिया, पर मुंह से कुछ नहीं बोली. तब शिखा ने धीमे स्वर में उस से कहा, ‘‘गुस्से में आ कर मैं ने जो भी पिछले दिनों आप से उलटासीधा कहा है, उस के लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं. आप का फैसला बता रहा है कि मैं गलत थी. प्लीज मम्मा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया. मांबेटी दोनों की आंखों में आंसू भर आए. पिछले कई दिनों से बनी मानसिक पीड़ा व तनाव से दोनों पल भर में मुक्त हो गई थीं.

उस के बुलावे पर वंदना उस से मिलने घर आ गई. कमल के आफिस चले जाने के कारण अंजलि के लौटने की खबर कमल तक नहीं पहुंची.

वंदना को अंजलि ने अकेले में अपने वापस लौटने का सही कारण बताया, ‘‘पिछले दिनों अपनी बेटी शिखा के कारण राजेश और सीमा को ले कर मुझे अपनी एक गलती…एक तरह की नासमझी का एहसास हुआ है. उसी भूल को सुधारने को मैं राजेश के पास बेशर्त वापस लौट रही हूं.

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‘‘सीमा के साथ उस के अनैतिक संबंध नहीं हैं, मुझे राजेश के इस कथन पर विश्वास करना चाहिए था, पर मैं और लोगों की सुनती रही और हमारे बीच प्रेम व विश्वास का संबंध कमजोर पड़ने लगा.

‘‘अगर राजेश निर्दोष हैं तो मेरा झगड़ालू रवैया उन्हें कितना गलत और दुखदायी लगता होगा. बिना कुछ अपनी आंखों से देखे, पत्नी का पति पर विश्वास न करना क्या एक तरह का विश्वासघात नहीं है?

‘‘मैं राजेश को…उन के पे्रम को खोना नहीं चाहती हूं. हो सकता है कि सीमा और उन के बीच गलत तरह के संबंध बन गए हों, पर इस कारण वह खुद भी मुझे छोड़ना नहीं चाहते. उन के दिल में सिर्फ मैं रहूं, क्या अपने इस लक्ष्य को मैं उन से लड़झगड़ कर कभी पा सकूंगी?

‘‘वापस लौट कर मुझे उन का विश्वास फिर से जीतना है. हमारे बीच प्रेम का मजबूत बंधन फिर से कायम हो कर हम दोनों के दिलों के घावों को भर देगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है.’’

अंजलि की आंखों में दृढ़निश्चय के भावों को पढ़ कर वंदना ने उसे बडे़ प्यार से गले लगा लिया.

उलझे रिश्ते- भाग 3: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

Writer- Ravi

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

रश्मि चाय बना लाई और दोनों सोफे पर बैठ गए. रश्मि ने बताया कि वह राधाकृष्ण की एक बहुत बड़ी पोट्रेट तैयार करने जा रही है. उस में राधाकृष्ण के प्यार को दिखाया गया है. यह बताते हुए रश्मि अपने अतीत में डूब गई. उस की आंखों के सामने सुधीर का चेहरा घूम गया. हिमेश कुछ और समझ बैठा. उस ने एक हिमाकत कर डाली. अचानक रश्मि का हाथ थामा और ‘आई लव यू’ कह डाला. रश्मि को लगा जैसे कोई बम फट गया है. गुस्से से उस का चेहरा लाल हो गया. वह अचानक उठी और क्रोध में बोली, ‘‘आप उठिए और तुरंत यहां से चले जाइए. और दोबारा इस घर में पांव मत रखिएगा वरना बहुत बुरा होगा.’’ हिमेश को तो जैसे सांप सूंघ गया. रश्मि का क्रोध देख उस के हाथ कांपने लगे.

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‘‘आ…आ… आप मुझे गलत समझ रही हैं मैडम,’’ उस ने कांपते स्वर में कहा.

‘‘गलत मैं नहीं समझ रही आप ने मुझे समझा है. एक शिक्षक के नाते मैं आप की इज्जत करती रही और आप ने मुझे क्या समझ लिया?’’ फिर एक पल भी नहीं रुका हिमेश. उस के बाद उस ने कभी रश्मि के घर की तरफ देखा भी नहीं. जब कभी साहिल ने पूछा रश्मि से तो उस से उस ने कहा कि सर बाहर रहने लगे हैं. रश्मि की जिंदगी फिर से दौड़ने लगी. एक दिन एक पांच सितारा होटल में लगी डायमंड ज्वैलरी की प्रदर्शनी में एक संभ्रात परिवार की 30-35 वर्षीय महिला ऊर्जा से रश्मि की मुलाकात हुई. बातों ही बातों में दोनों इतनी घुलमिल गईं कि दोस्त बन गईं. वह सच में ऊर्जा ही थी. गजब की फुरती थी उस में. ऊर्जा ने बताया कि वह अपने घर पर योगा करती है. योगा सिखाने और अभ्यास कराने योगा सर आते हैं. रश्मि को लगा वह भी ऊर्जा की तरह गठीले और आकर्षक फिगर वाली हो जाए तो मजा आ जाए. तब हर कोई उसे देखता ही रह जाएगा.

ऊर्जा ने स्वाति से कहा कि मैं योगा सर को तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दूंगी. वे तुम से संपर्क कर लेंगे. रश्मि ने अपने पति संभव को मना लिया कि वह घर पर योगा सर से योगा सीखेगी. एक दिन रश्मि के मोबाइल घंटी बजी. उस ने देखा तो कोई नया नंबर था. रश्मि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई,  ‘‘हैलो मैडम, मैं योगा सर बोल रहा हूं. ऊर्जा मैडम ने आप का नंबर दिया था. आप योगा सीखना चाहती हैं?’’‘‘जी हां मैं ने कहा था, ऊर्जा से,’’ रश्मि ने कहा.

‘‘तो कहिए कब से आना है?’’

‘‘किस टाइम आ सकते हैं आप?’’

‘‘कल सुबह 6 बजे आ जाता हूं. आप अपना ऐडै्रस नोट करा दें.’’

रश्मि ने अपना ऐड्रैस नोट कराया. सुबह 5.30 बजे का अलार्म बजा तो रश्मि जाग गई. योगा सर 6 बजे आ जाएंगे यही सोच कर वह आधे घंटे में फ्रैश हो कर तैयार रहना चाहती थी. बच्चे और पति संभव सो रहे थे. उन्हें 8 बजे उठने की आदत थी. रश्मि उठते ही बाथरूम में घुस गई. फ्रैश हो कर योगा की ड्रैस पहनी तब तक 6 बजने जा रहे थे कि अचानक डोरबैल बजी. योगा सर ही हैं यह सोच कर उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोला तो सामने खड़े शख्स को देख कर वह स्तब्ध रह गई. उस के सामने सुधीर खड़ा था. वही सुधीर जो उस की यादों में बसा रहता था.

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‘‘तुम योगा सर?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘हां.’’

फिर सुधीर ने, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ कहा तो रश्मि हड़बड़ा गई.

‘‘हांहां आओ, आओ न प्लीज,’’ उस ने कहा. सुधीर अंदर आया तो रश्मि ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने को कहा. दोनों एकदूसरे के सामने बैठे थे. रश्मि को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले, क्या नहीं. सुधीर कहे या योगा सर. रश्मि सहज नहीं हो पा रही थी. उस के मन में सुधीर को ले कर अनेक सवाल चल रहे थे. कुछ देर में वह सामान्य हो गई, तो सुधीर से पूछ लिया, ‘‘इतने साल कहां रहे?’’

सुधीर चुप रहा तो रश्मि फिर बोली, ‘‘प्लीज सुधीर, मुझे ऐसी सजा मत दो. आखिर हम ने प्यार किया था. मुझे इतना तो हक है जानने का. मुझे बताओ, यहां तक कैसे पहुंचे और अंकलआंटी कहां हैं? तुम कैसे हो?’’ रश्मि के आग्रह पर सुधीर को झुकना पड़ा. उस ने बताया कि तुम से अलग हो कर कुछ टाइम मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा रहा. फिर थोड़ा सुधरा तो शादी की, लेकिन पत्नी ज्यादा दिन साथ नहीं दे पाई. घरबार छोड़ कर चली गई और किसी और केसाथ घर बसा लिया. फिर काफी दिनों के इलाज के बाद ठीक हुआ तो योगा सीखतेसीखते योगा सर बन गया. तब किसी योगाचार्य के माध्यम से दिल्ली आ गया. मम्मीपापा आज भी वहीं हैं उसी शहर में. सुधीर की बातें सुन अंदर तक हिल गई रश्मि. यह जिंदगी का कैसा खेल है. जो उस से बेइंतहां प्यार करता था, वह आज किस हाल में है सोचती रह गई रश्मि. अजब धर्मसंकट था उस के सामने. एक तरफ प्यार दूसरी तरफ घरसंसार. क्या करे? सुधीर को घर आने की अनुमति दे या नहीं? अगर बारबार सुधीर घर आया तो क्या असर पड़ेगा गृहस्थी पर? माना कि किसी को पता नहीं चलेगा कि योगा सर के रूप में सुधीर है, लेकिन कहीं वह खुद कमजोर पड़ गई तो? उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. गृहस्थी जैसी भी है बिखर जाएगी. उस ने तय कर लिया कि वह सुधीर को योगा सर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी. कहीं दूर चले जाने को कह देगी इसी वक्त.

‘‘देखो सुधीर मैं तुम से योगा नहीं सीखना चाहती,’’ रश्मि ने अचानक सामान्य बातचीत का क्रम तोड़ते हुए कहा.

‘‘पर क्यों रश्मि?’’

‘‘हमारे लिए यही ठीक रहेगा सुधीर, प्लीज समझो.’’

‘‘अब तुम शादीशुदा हो. अब वह बचपन वाली बात नहीं है रश्मि. क्या हम अच्छे दोस्त बन कर भी नहीं रह सकते?’’ सुधीर ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘नहीं सुधीर, मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मेरी गृहस्थी, मेरे बच्चों पर असर पड़े,’’ रश्मि ने कहा. सुधीर ने लाख समझाया पर रश्मि अपने फैसले पर अडिग रही. सुधीर बेचैन हो गया. सालों बाद उस का प्यार उस के सामने था, लेकिन वह उस की बात स्वीकार नहीं कर रहा था. आखिर रश्मि ने सुधीर को विदा कर दिया. साथ ही कहा कि दोबारा संपर्क की कोशिश न करे. सुधीर रश्मि से अलग होते वक्त बहुत तनावग्रस्त था. पर उस दिन के बाद सुधीर ने रश्मि से संपर्क नहीं किया. रश्मि ने तनावमुक्त होने के लिए कई नई फ्रैंड्स बनाईं और उन के साथ बहुत सी गतिविधियों में व्यस्त हो गई. इस से उस का सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया. उस दिन वह बहुत से बाहर के फिर घर के काम निबटा कर बैडरूम में पहुंची तो न्यूज चैनल पर उस ने वह खबर देखी कि सुधीर ने दिल्ली मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया था. वह देर तक रोती रही. न्यूज उद्घोषक बता रही थी कि उस की जेब में एक सुसाइड नोट मिला है, जिस में अपनी मौत के लिए उस ने किसी को जिम्मेदार नहीं माना परंतु अपनी एक गुमनाम प्रेमिका के नाम पत्र लिखा है. रश्मि का सिर घूम रहा था. उस की रुलाई फूट पड़ी. तभी संभव ने अचानक कमरे में प्रवेश किया और बोला, ‘‘क्या हुआ रश्मि, क्यों रो रही हो? कोई डरावना सपना देखा क्या?’’ प्यार भरे बोल सुन रश्मि की रुलाई और फूट पड़ी. वह काफी देर तक संभव के कंधे से लग कर रोती रही. उस का प्यार खत्म हो गया था. सिर्फ यादें ही शेष रह गई थीं.

कायरता का प्रायश्चित्त: भाग 2

रूपाली के इस आग्रह को मिताली टाल न सकी और उस के साथ चल दी.

रूपाली को उस की दोस्त के घर छोड़ कर मिहिर ने एक रेस्तरां के सामने गाड़ी रोक दी और मिताली से बोला, ‘चलो, कौफी पी कर घर चलेंगे.’

‘मिहिर, देर हो जाएगी और अभी मुझे अपनी फ्रैंड के घर भी जाना है.’

‘मिताली, ज्यादा देर नहीं लगेगी. प्लीज, चलो न.’

मिहिर के इस आग्रह को मिताली मान गई.

दोनों कोने की एक खाली टेबल पर आ कर बैठ गए.

मिहिर यह सोच कर अपने दिल की बात नहीं कह पा रहा था कि यह उन दोनों की दूसरी मुलाकात है और मिताली कहीं उसे सड़क छाप आशिक न समझ ले.

‘मिहिर, आप ने वह ब्रैसलेट रूपाली को नहीं दिया?’ मिताली सहज ही बोली.

‘मिताली,’ मिहिर बोला, ‘मैं ने वह ब्रैसलेट और ताजमहल उस लड़की के लिए खरीदा है जिसे मैं बहुत प्यार करता हूं और शादी भी करना चाहता हूं. पर…’

‘पर क्या, मिहिर?’

‘पर मिताली, वह मुझे प्यार करती है या नहीं? यह मैं नहीं जानता.’

‘तो क्या अभी तक आप ने अपने दिल की बात उस लड़की से नहीं कही?’ मिताली ने कौफी का आखिरी घूंट भरते हुए पूछा.

‘नहीं, डरता हूं, कहीं वह नाराज न हो जाए. वैसे तुम बताओ मिताली, क्या वह लड़की मेरा प्रेम स्वीकार कर लेगी?’

‘मैं क्या बताऊं मिहिर, पता नहीं उस लड़की के दिल में आप के प्रति क्या है? अच्छा, अब हमें चलना चाहिए,’ मिताली उठ खड़ी हुई.

मिहिर ने मिताली को उस के घर छोड़ दिया और जब तक वह अंदर नहीं चली गई तब तक उसे देखता रहा.

दूसरे दिन मिताली से मिलने मिहिर उस के घर गया तो पता चला कि वह अपनी सहेलियों के साथ सुबह ही एक हफ्ते के लिए शिमला घूमने गई है. मिहिर निराश लौट आया.

मिताली के वापस आने से पहले ही मिहिर की छुट्टियां समाप्त हो गईं और वह वापस होस्टल चला आया. अब मिहिर जब भी खाली होता, उस के कानों में मिताली की खनकती हंसी गूंजती रहती. वह यह सोच कर अपने मन को समझा लेता कि इस बार घर लौटेगा तो अपने दिल की बात मिताली से जरूर कह देगा.

इंतजार की घड़ी कितनी ही लंबी हो खत्म होती ही है. आखिर मिहिर की परीक्षाएं समाप्त हो गईं और उसी दिन वह घर के लिए चल पड़ा.

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मिहिर जब घर पहुंचा तो शाम का धुंधलका छाने लगा था. उसे देख रूपाली खुश होती हुई बोली, ‘भैया, आप बड़े ही ठीक मौके पर आए हैं. मुझे मिताली के घर तक जाना है, आप गाड़ी से छोड़ देंगे क्या?’

मिताली का नाम सुनते ही मिहिर के शरीर में बिजली सी दौड़ गई. वह बोला, ‘हां, मैं थका नहीं हूं. बस, एक कप कौफी पी कर चलता हूं.’

रूपाली को कौफी लाने के लिए बोल कर मिहिर तैयार होने चला गया. तैयार होते समय वह मन ही मन सोच रहा था कि आज वह मिताली से अपने प्यार का इजहार कर ही देगा. चलते वक्त उस ने वह ताजमहल और ब्रैसलेट भी ले लिया जो वह संभाल कर घर में रख गया था.

रास्ते भर रूपाली मिहिर से उस के दोस्तों और होस्टल के बारे में बातें करती रही. मिहिर भी उस के हर सवाल का जवाब दे रहा था.

मिताली का घर बिजली की रंगबिरंगी झालरों से जगमगाता देख कर मिहिर ने छोटी बहन से पूछा, ‘रूपाली, क्या आज मिताली के घर कोई फंक्शन है?’

‘हां, भैया, मैं तो आप को बताना ही भूल गई कि आज मिताली की सगाई है,’ कह कर रूपाली गाड़ी से उतर कर आगे बढ़ गई और जातेजाते कह गई कि गाड़ी पार्क कर आप भी आ जाना.

मिहिर को लगा जैसे उस की आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है. वह वहां ठहर न सका और उसी क्षण वापस लौट आया. उस के तमाम सपने शीशे की तरह टूट गए थे जो लगभग एक साल से मिताली को ले कर देखता आया था.

मिहिर ने अंत में वह शहर छोड़ने का फैसला कर लिया. उस के डैडी ने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मिहिर को वह शहर हर पल शूल की तरह चुभता था. अत: उस ने कानपुर छोड़ कर इस शहर में आ कर अपनी प्रैक्टिस जमाई.

‘‘साहब, खाना तैयार है, लगा दूं?’’ हरिया ने आ कर उस से पूछा तो मिहिर की तंद्रा भंग हुई और वह जैसे सपने से जाग गया.

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो. हां, मेरे लिए बस, एक कप कौफी भर बना देना,’’ इतना कह कर डा. मिहिर उठे और कंप्यूटर खोल कर कुछ काम करने लगे.

अगले दिन रिपोर्ट ले कर मिताली व नवीन उस के क्लीनिक पर आए. रिपोर्ट देख कर उस ने बता दिया कि कोई गंभीर बीमारी नहीं है और दवाइयों का परचा लिख कर उन्हें दे दिया. जाते समय मिताली व नवीन मिहिर को अपने घर आने का निमंत्रण दे गए.

मिहिर के इलाज से नवीन ठीक हो रहा था. पति को ठीक होता देख कर मिताली भी अब पहले की तरह खिलीखिली रहने लगी थी. उसे खुश देख कर मिहिर को एक अजीब सी संतुष्टि का एहसास होता.

मिताली व नवीन कई बार मिहिर से घर आने को कह चुके थे. एक दिन वह उधर से निकल रहा था तो सोचा, चलो आज मिताली से ही मिल लें और बिना किसी पूर्व सूचना के मिताली के घर पहुंच गया. नवीन और मिताली अभी आफिस से नहीं लौटे थे. घर पर आया थी. अत: मिहिर ड्राइंगरूम में बैठ कर उन की प्रतीक्षा करने लगा.

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बैठेबैठे मिहिर बोर होने लगा तो टेबल पर रखी पत्रपत्रिकाएं ही उलटने- पलटने लगा. तभी उस की नजर एक डायरी पर पड़ी और वह उस डायरी  को उठा कर देखने लगा.

डायरी के पहले पन्ने पर ‘मिताली’ लिखा देख कर मिहिर के मन में उत्सुकता जागी और वह अंदर के पन्नों को खोल कर पढ़ने लगा. एक पृष्ठ पर लिखा था :

‘मैं ने मिहिर के बारे में सुना था. आज रानी के जन्मदिन की पार्टी में उस से मुलाकात भी हो गई. मैं ने अपने जीवनसाथी की जो कल्पना की थी उस पर मिहिर बिलकुल खरा उतरता है.’

कुछ पन्नों को छोड़ कर फिर लिखा था :

‘आज मैं मिहिर से दूसरी बार मिली. बातों में पता चला कि वह किसी और लड़की से प्यार करता है जिस के लिए उस ने आज ही प्यारा सा ताजमहल व ब्रैसलेट खरीदा है. कितनी नसीब वाली होगी वह लड़की जिसे मिहिर प्यार करता है…’

मिहिर आश्चर्यचकित रह गया. तो क्या मिताली भी उसे चाहती थी? खैर, इस में अब संदेह ही कहां था? उस की कायरता का नतीजा मिताली को और उसे भी भुगतना पड़ रहा है.

डायरी जहां से उठाई थी वहीं रख कर मिहिर आंखें बंद किए सोचता रहा कि यदि उस दिन रेस्तरां में हिम्मत कर मिताली से प्यार का इजहार कर दिया होता तो आज उसे अकेलेपन का विषाद तो नहीं झेलना पड़ता.

‘‘अरे, मिहिर आप. अचानक बिना पूर्व सूचना दिए?’’ मिताली कमरे में घुसती हुई बोली.

‘‘मिताली, मैं ने सोचा अचानक, बिना पहले से बताए तुम्हारे घर आ कर तुम्हें चौंका दूं. क्यों, कैसा लगा मेरा यह आइडिया?’’

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‘‘बहुत अच्छा डा. साहब,’’ नवीन ने कहा, ‘‘आप हमारे घर आए. यह हमारे लिए गर्व की बात है.’’

मिताली ने आया को चायनाश्ता लाने का निर्देश दिया और खुद नवीन के बगल में आ कर बैठ गई.

Short Story: कोरोना का खौफ

मैं पिछले 2 साल से दिल्ली में अपनी चाची के यहां रह कर पढ़ाई कर रही हूं. चाची का घर इसलिए कहा क्योंकि घर में चाचू की नहीं बल्कि चाची की चलती है.

मेरे अलावा घर में 7 साल का गोलू, 14 साल का मोनू और 47 साल के चाचू हैं. गोलू और मोनू चाचू के बेटे यानी मेरे चचेरे भाई हैं.

मार्च 2020 की शुरुआत में जब कोरोना का खौफ समाचारों की हेडलाइन बनने लगा तो हमारी चाचीजी के भी कान खड़े हो गए. वे ध्यान से समाचार पड़तीं और सुनतीं थीं. कोरोना नाम का वायरस जल्दी ही उन का जानी दुश्मन बन गया जो कभी भी चुपके से उन के हंसतेखेलते घर की चहारदीवारी पार कर हमला बोल सकता था. इस अदृश्य मगर खौफनाक दुश्मन से जंग के लिए चाची धीरेधीरे तैयार होने लगी थीं.

“दुश्मन को कभी भी कमजोर मत समझो. पूरी तैयारी से उस का सामना करो.” अखबार पढ़ती चाची ने अपना ज्ञान बघाड़ना शुरू किया तो चाचू ने टोका, “कौन दुश्मन? कैसा दुश्मन?”

“अजी अदृश्य दुश्मन जो पूरी फौज ले कर भारत में प्रवेश कर चुका है. हमले की तैयारी में है. चौकन्ने हो जाओ. हमें डट कर सामना करना है. उसे एक भी मौका नहीं देना है. कुछ समझे.”

नहीं श्रीमतीजी. मैं कुछ नहीं समझा. स्पष्ट शब्दों में समझाओगी.”

“चाचू कोरोना. कोरोना हमारा दुश्मन है. चाची उसी के साथ युद्ध की बात कर रही हैं.” मुस्कुराते हुए मैं ने कहा तो चाची ने हामी भरी, “देखो जी सब से पहला काम, रसद की आपूर्ति करनी जरूरी है. मैं लिस्ट बना:कर दे रही हूं. सारी चीजें ले आओ.”

“तुम्हारे कहने का मतलब राशन है?”

“हां राशन भी है और उस के अलावा भी कुछ जरूरी चीजें ताकि हम खुद को लंबे समय तक मजबूत और सुरक्षित रख सकें.”

इस के कुछ दिन बाद ही अचानक लौकडाउन हो गया. अब तक कोरोना वायरस का खौफ चाची से दिमाग तक चढ़ चुका था. अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज़ चैनल और दूसरे स्रोतों से जानकारियां इकट्ठी कर चाची एक बड़े युद्ध की तैयारी में लग गई थीं.

वे दुश्मन को घुसपैठ का एक भी मौका देना नहीं चाहती थीं. इस के लिए उन्होंने बहुत से रास्ते अपनाए थे. आइए आप को भी बताते हैं कि कितनी तैयारी के साथ वे किसी सदस्य को घर से बाहर भेजती और कितनी आफतों के बाद किसी सदस्य को या बाहरी सामान को घर में प्रवेश करने की इजाजत देती थीं.

सुबहसुबह चाचू को टहलने की आदत थी जिस पर चाची ने बहुत पहले ही कर्फ्यू लगा दिया था. मगर चाचू को सुबह में मदर डेयरी से गोलू के लिए गाय का खुला दूध लेने जरूर जाना पड़ता है.

चाचू दूध दूध लाने के लिए सुबह में निकलते तो चाची उन्हें कुछ ऐसे तैयार होने की ताकीद करती,” पजामे के ऊपर एक और पाजामा पहनो. टीशर्ट के ऊपर कुरता डालो. पैरों में मौजा और चेहरे पर चश्मा लगाना मत भूलना. नाक पर मास्क और बालों को सफेद दुपट्टे से ढको. इस दुपट्टे के दूसरे छोर को मास्क के ऊपर कवर करते हुए ले जाओ.”

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चाची को डर था कि कहीं मास्क के बाद भी चेहरे का जो हिस्सा खुला रह गया है वहां से कोरोना नाम का दुश्मन न घुस जाए. इसलिए डाकू की तरह पूरा चेहरा ढक कर उन्हें बाहर भेजती.

जब चाचू लौटते तो उन्हें सीधा घर में घुसने की अनुमति कतई नहीं थी. पहले चाचू का चीरहरण चाची के हाथों होता. ऊपर पहनाए गए कुरते पजामे और दुपट्टे को उतार कर बरामदे की धरती पर एक कोने में फेंक दिया जाता. अब मोजे को भी उतरवा कर कोने में रखवाए जाते. फिर सर्फ का झाग वाला पानी ले कर उन के पैरों को 20 सेकंड तक धोया जाता. फिर चप्पल उतरवा कर अंदर बुलाया जाता.

इस बीच अगर उन्होंने गलती से परदा टच भी कर दिया तो चाची तुरंत परदा उतार कर उसी कोने में पटक देतीं. अब चाचू के हाथ धुलाए जाते. पहले 20 सेकंड साबुन से रगड़रगड़ कर. फिर 20 सेकंड डिटॉल हैंडवॉश से ताकि कहीं किसी भी कोने में वायरस के छिपे रह जाने की गुंजाइश भी न रह जाए. इस के बाद उन्हें सीधे गुसलखाने में नहाने के लिए भेज दिया जाता.

अगर चाचू बिना पूछे कुछ ला कर कमरे या फ्रिज में रख देते तो वह हल्ला करकर के पूरा घर सिर पर उठा लेतीं.

चाचू जब दुकान से दूध और दही के पैकेट खरीद कर लाते तो चाची उन्हें भी कम से कम दोदो बार 20 -20 सेकंड तक साबुन से रगड़रगड़ कर धोतीं.

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एक बात और बता दूं, घर के सभी सदस्यों के लिए बाहर जाने के चप्पल अलग और घर के अंदर घूमने के लिए अलग चप्पल रखवा दी गई थी. मजाल है कि कोई इस बात को नजरअंदाज कर दे.

सब्जी वाले भैया हमारी गली के छोर पर आ कर सब्जियां दे जाते थे. सब्जी खरीदने का काम चाची ने खुद संभाला था. इस के लिए पूरी तैयारी कर के वह खुद को दुपट्टे से ढक कर निकलतीं.

कुछ समय पहले ही उन्होंने प्लास्टिक के थैलों के 2-3 पैकेट खरीद लिए थे. एक पैकेट में 40- 50 तक प्लास्टिक के थैले होते थे. आजकल यही थैले चाची सब्जियां लाने के काम में ला रही थी.

सब्जी खरीदने जाते वक्त वह प्लास्टिक का एक बड़ा थैला लेती और एक छोटा थैला रखतीं. छोटे थैले में रुपएपैसे होते थे जिन्हें वह टच भी नहीं करती थीं. सब्जी वाले के आगे थैला बढ़ा कर कहतीं कि रुपए निकाल लो और चेंज रख दो.

अब बात करते हैं बड़े थैले की. दरअसल चाची सब्जियों को खुद टच नहीं करती थीं. पहले जहां वह एकएक टमाटर देख कर खरीदा करती थीं अब कोरोना के डर से सब्जी वाले को ही चुन कर देने को कहती और खुद दूर खड़ी रहतीं. सब्जीवाला अपनी प्लास्टिक की पन्नी में भर कर सब्जी पकड़ाता तो वह उस के आगे अपना अपना बड़ा थैला कर देती थीं जिस में सब्जी वाले को बिना छुए सब्जी डालनी होती थी.

सब्जी घर ला कर चाची उसे बरामदे में एक कोने में अछूतों की तरह पटक देतीं. 12 घंटे बाद उसे अंदर लातीं और वाशबेसिन में एक चलनी में डाल कर बारबार धोतीं. यहां तक कि सर्फ का झाग वाला पानी 20 सेकंड से ज्यादा समय तक उन पर उड़ेलतीं रहतीं. काफी मशक्कत के बाद जब उन्हें लगता कि अब कोरोना इन में सटा हुआ नहीं रह गया और ये सब्जियां फ्रिज में रखी जा सकती हैं तो धोना बंद करतीं. सब्जी बनाने से पहले भी हल्के गर्म पानी में नमक डाल कर उन्हें भिगोतीं.

दिन में कम से कम 50 बार वह अपना हाथ धोतीं. अखबार छुआ तो हाथ धोतीं सब्जी छू ली तो हाथ धोतीं. दरवाजे का कुंडा या फ्रिज का हैंडल छुआ तो भी हाथ धोतीं. हाथ धोने के बाद भी कोई वायरस रह न जाए इस के लिए सैनिटाइजर भी लगातीं.

नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उन के हाथों की त्वचा ड्राई और सफेद जैसी हो गई. उन्हें चर्म रोग हो गया था. इधर पूरे दिन कपड़ों और बर्तनों की बरात धोतेधोते उन्हें सर्दी लग गई. नाक बहने लगी छींकें भी आ गईं.

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अब तो चाची ने घर सर पर उठा लिया. कोरोना के खौफ से वह एक कमरे में बंद हो गईं और खुद को ही क्वॉरेंटाइन कर लिया. डर इतना बढ़ गया कि बैठीबैठी रोने लगतीं. 2 दिन वह इसी तरह कमरे में बंद रहीं.

तब मैं ने समझाया कि हर सर्दी-जुकाम कोरोना नहीं होता. मैं ने उन्हें कुछ दवाइयां दीं और चौथे दिन वह बिल्कुल स्वस्थ हो गईं. मगर कोरोना के खौफ की बीमारी से अभी भी वह आजाद नहीं हो पाईं हैं.

साहब- भाग 2: आखिर शादी के बाद दिपाली अपने पति को साहब जी क्यों कहती थी

महरू ने प्रस्ताव रखा कि वह झाड़ूपोंछा करने के साथसाथ खाना भी बना दिया करेगी, ताकि रमेश को अच्छा भोजन मिल सके.

रमेश ने पूछा, ‘‘भोजन बनेगा तो बरतन भी साफ करने होंगे. उन का अलग से कितना देना होगा?’’

हो सकता है, उसे बुरा लगा हो. कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोली. शायद यह सोच रही हो कि इतने अपनेपन के बाद भी पैसों की बात कर रहे हैं.

रमेश ने सुधार कर अपनी बात कही, ‘‘पैसों की जरूरत तो सब को होती है. दुनिया का हर काम पैसे से होता है. फिर तुम्हारी अपनी जरूरतें, तुम्हारी बेटी की पढ़ाईलिखाई. इन सब के लिए पैसों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मैं मुफ्त में कोई काम कराऊं, यह मुझे खुद भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

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‘‘जो आप को देना हो, दे देना.’’

‘‘फिर भी कितना…? मुझे साफसाफ पता रहे ताकि मैं अपना बजट उस हिसाब से बना सकूं.’’

रमेश की बजट वाली बात सुन कर महरू ने कहा, ‘‘साहब, ऐसा करते हैं कि एक की जगह 3 लोगों का खाना बना लेंगे. समय और पैसे की भी बचत होगी. मैं अपने और बेटी के लिए खाना यहीं से ले जाऊंगी.’’

रमेश ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’

इस के बाद जिस दिन महरू न आ पाती, उस की बेटी आ जाती. वह खाना बना कर रमेश को खिलाती और साफसफाई कर के अपने और मां के लिए भोजन ले जाती. रमेश को मांबेटी से लगाव सा हो गया था.

एक दिन महरू की बेटी आई. उस का चेहरा कुछ पीला सा दिख रहा था.

रमेश ने पूछा, ‘‘आज क्या हो गया मां को?’’

‘‘बाहर गई हैं. नानी बीमार हैं.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘दीपाली.’’

दीपाली धीरेधीरे झाड़ूपोंछा करने लगी. बीचबीच में उस के कराहने की आवाज से रमेश चौंक गए.

‘‘क्या बात है? क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं साहब,’’ दीपाली कराहते हुए बोली.

थोड़ी देर में आह के साथ दीपाली के गिरने की आवाज आई. रमेश भाग कर रसोईघर में गए. दीपाली जमीन पर पड़ी थी. वे घबरा गए. उन्होंने उस के माथे पर हाथ रखा. माथा गरम था. वे समझ गए कि इसे तेज बुखार है.

रमेश ने उसे अपने हाथों से उठा कर अपने ही बिस्तर पर लिटा कर अपनी चादर ओढ़ा दी. तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने आ कर दीपाली को एक इंजैक्शन लगाया और कुछ दवाएं दीं.

रमेश के पास डबल बैड का एक ही बैडरूम था. दीपाली तेज बुखार में पड़ी हुई थी. वे दिनभर उस के पास बैठे रहे. उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखते रहे. उस के लिए दलिया बनाया. उस के चेहरे को देखते रहे.

रमेश के मन में मोहमाया के फल खिलने लगे. सालों से बंद दिल के दरवाजे खुलने लगे. रेगिस्तान में बारिश होने लगी. जब उस के प्रति उन का लगाव जयादा होने लगा तो वे वहां से हट गए. लेकिन उस की चिंता उन्हें फिर खींच कर उस के पास ले आती.

रमेश ने अपनेआप को संभाला और डबल बैड के दूसरी ओर चादर ओढ़ कर खुद भी सो गए.

दीपाली तेज बुखार में तपती ‘मांमां’ बड़बड़ाने लगी. उस की आवाज से रमेश की नींद खुल गई. वे उस के पास पहुंचे और उस के माथे पर हाथ रख कर उसे बच्चे की तरह सहलाने लगे.

तभी दीपाली का चेहरा रमेश के सीने में जा धंसा. उस का एक पैर उन के पैर पर था. वह ऐसे निश्चिंत थी, मानो मां से लिपट कर सो रही हो.

रमेश की हालत कुछ खराब थी. आखिर उन की इतनी उम्र भी नहीं हुई थी कि 16 साल की लड़की उन की देह में दौड़ते खून का दौरा न बढ़ाए.

रमेश के शरीर में हवस की चींटियां रेंगने लगीं. अच्छी तो वह उन्हें पहले भी लगती थी, लेकिन प्यार की नजर से कभी नहीं देखा था. लेकिन आज जब इस तनहाई में एक कमरे में एक बिस्तर पर एक 16 साल की सुंदरी रमेश से लिपट कर सो रही थी, तो मन में बुरे विचार आना लाजिमी था.

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रमेश उसे लिपटाए नींद की गोद में समा गए. सुबह जब उन की नींद खुली तो दीपाली बिस्तर पर नहीं थी. रमेश ने आवाज दी तो वह हाथ में झाड़ू लिए सामने आ गई.

‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘झाड़ू लगा रही हूं.’’

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मैं अब ठीक हूं.’’

रमेश ने उसे पास बुला कर उस के माथे पर हाथ रखा. बुखार उतर चुका था.

‘‘अभी 2 दिन की दवा लेनी और बाकी है. अगर दवा पूरी नहीं ली, तो बुखार फिर से आ सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर दीपाली काम में लग गई.

कभी ऐसा होता है कि मरीज पहली खुराक में ही ठीक हो जाता है, फिर इस में स्नेह भी काम करता है.

‘‘साहब, खाना लगा दिया है,’’ जब दीपाली ने यह कहा तो रमेश खाने की टेबल पर पहुंच गए. उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो है नहीं. तुम भी यहीं खाना खा लो.’’

‘‘मैं बाद में खा लूंगी,’’ दीपाली ने शरमाते हुए कहा.

‘‘क्यों… कल तो मुझ से लिपटी थी. अब साथ में खाना खाने में शर्म आ रही है…’’

परख- भाग 1: प्यार व जनून के बीच थी मुग्धा

मुग्धा कैंटीन में कोल्डड्रिंक और सैंडविच लेने के लिए लाइन में खड़ी थी कि अचानक कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर यह चौंक कर पलटी तो पीछे प्रसाद खड़ा मुसकरा रहा था.

‘‘तुम?’’ मुग्धा के मुख से अनायास ही निकला.

‘‘हां मैं, तुम्हारा प्रसाद. पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ प्रसाद ने मुसकराते हुए प्रश्न किया.

‘‘जोर से भूख लगी थी, सोचा एक सैंडविच ले कर कैब में बैठ कर खाऊंगी,’’ मुग्धा हिचकिचाते हुए बोली.

‘‘चलो, मेरे साथ, कहीं बैठ कर चैन से कुछ खाएंगे,’’ प्रसाद ने बड़े अपनेपन से उस का हाथ पकड़ कर खींचा.

‘‘नहीं, मेरी कैब चली जाएगी. फिर कभी,’’ मुग्धा ने पीछा छुड़ाना चाहा.

‘‘कैब चली भी गई तो क्या? मैं छोड़ दूंगा तुम्हें,’’ प्रसाद हंसा.

‘‘नहीं, आज नहीं. मैं जरा जल्दी में हूं. मां के साथ जरूरी काम से जाना है,’’ मुग्धा अपनी बारी आने पर सैंडविच और कोल्डड्रिंक लेते हुए बोली. उसे अचानक ही कुछ याद आ गया था.

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‘‘क्या समझूं मैं? अभी तक नाराज हो?’’ प्रसाद ने उलाहना दिया.

‘‘नाराज? इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हें देख कर कैसा लग रहा है, कह नहीं सकती मैं. वैसे हमारी भावनाएं भी सदा एकजैसी कहां रहती हैं. वे भी तो परिवर्तित होती रहती हैं. ठीक है, फिर मिलेंगे. पर इतने समय बाद तुम से मिल कर अच्छा लगा,’’ मुग्धा पार्किंग में खड़ी कैब की तरफ भागी.

कैब में वह आंखें मूंदे स्तब्ध बैठी रही. समझ में नहीं आया कि यह सच था या सपना. 3 वर्ष बाद प्रसाद कहां से अचानक प्रकट हो गया और ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं. हर एक घटना उस की आंखों के सामने जीवंत हो उठी थी. कितना जीजान से उस ने प्रसाद को चाहा था. उस का पूरा जीवन प्रसादमय हो गया था. उस के जीवन पर मानो प्रसाद का ही अधिकार हो गया था. कोई भी काम करने से पहले उस की अनुमति जरूरी थी. घरबाहर सभी मानते थे कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने थे.

उस ने भी प्रसाद के साथ अपने भावी जीवन की मोहक छवि बना रखी थी. पर एक दिन अचानक उस के सपनों का महल भरभरा कर गिर गया था. उस के कालेज के दिनों का मित्र शुभम उसे एक पार्टी में मिल गया था. दोनों पुरानी बातों को याद कर के आनंदविभोर हुए जा रहे थे. तभी प्रसाद वहां आ पहुंचा था. उस की भावभंगिमा से उस की अप्रसन्नता साफ झलक रही थी. उस की नाराजगी देख कर शुभम भी परेशान हो गया था.

‘‘प्रसाद, यह शुभम है, कालेज में हम दोनों साथ पढ़ते थे,’’ हड़बड़ाहट में उस के मुंह से निकला था.

‘‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था. बड़ी पुरानी घनिष्ठता लगती है,’’ प्रसाद व्यंग्य से बोला था. बात बढ़ते देख कर शुभम ने विदा ली थी पर प्रसाद का क्रोध शांत नहीं हुआ था. ‘‘तुम्हें शुभम से इस तरह पेश नहीं आना चाहिए था. वह न जाने क्या सोचता होगा,’’ मुग्धा ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की थी.

‘‘ओह, उस की बड़ी चिंता है तुम्हें. पर तुम्हारा मंगेतर क्या सोचेगा, इस की चिंता न के बराबर है तुम्हें?’’

‘‘माफ करना अभी मंगनी हुई नहीं है हमारी. और यह भी मत भूलो कि भविष्य में होने वाली हमारी मंगनी टूट भी सकती है.’’

‘‘मंगनी तोड़ने की धमकी देती हो? तुम क्या तोड़ोगी मंगनी, मैं ही तोड़ देता हूं,’’ प्रसाद ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया था.

क्रोध और अपमान से मुग्धा की आंखें छलछला आई थीं. ‘‘मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से दे सकती हूं, पर मैं व्यर्थ ही कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती.’’ मुग्धा पार्टी छोड़ कर चली गई थी.

कुछ दिनों तक दोनों में तनातनी चली थी.दोनों एकदूसरे को देखते ही मुंह फेर लेते. मुग्धा प्रतीक्षा करती रही कि कभी तो प्रसाद उस से क्षमा मांग कर उसे मना लेगा

पर वह दिन कभी नहीं आया. फिर अचानक ही प्रसाद गायब हो गया. मुग्धा ने उसे ढूंढ़ने में दिनरात एक कर दिए पर कुछ पता नहीं चला. दोनों के सांझा मित्र उसे दिलासा देते कि स्वयं ही लौट आएगा. पर मुग्धा को भला कहां चैन था.

धीरेधीरे मुग्धा सब समझ गई थी. प्रसाद केवल प्यार का दिखावा करता था. सच तो यह था कि प्रसाद के लिए अपने अहं के आगे किसी की भावना का कोई महत्त्व था ही नहीं. पर धीरेधीरे परतें खुलने लगी थीं. वह अपनी नौकरी छोड़ गया था. सुना है अपने किसी मित्र के साथ मिल कर उस ने कंपनी बना ली थी. लंबे समय तक वह विक्षिप्त सी रही थी. उसे न खानेपीने का होश था न ही पहननेओढ़ने का. यंत्रवत वह औफिस जाती और लौट कर अपनी ही दुनिया में खो जाती. उस के परिवार ने संभाल लिया था उसे.

‘कब तक उस का नाम ले कर रोती रहेगी बेटे? जीवन के संघर्ष के लिए स्वयं को तैयार कर. यहां कोई किसी का नहीं होता. सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं,’ उस की मां चंदा गहरी सांस ले कर बोली थीं.

‘मैं तो कहता हूं कि अच्छा ही हुआ जो वह स्वयं ही भाग गया वरना तेरा जीवन दुखमय बना देता,’ पापा अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले थे.

‘जी पापा.’ वह केवल स्वीकृति में सिर हिलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं बोल पाई थी.

‘तो ठीक है. तुम ने अपने मन की कर के देख ली. एक बार हमारी बात मान कर तो देख लो. तुम्हारे सपनों का राजकुमार ला कर सामने खड़ा कर देंगे.’

‘उस की आवश्यकता नहीं है, पापा. मुझे शादी की कोई जल्दी भी नहीं है. कोई अपनी पसंद का मिल गया तो ठीक है वरना मैं जैसी हूं, ठीक हूं.’

‘सुना तुम ने? यह है इस का इरादा. अरे, समझाओ इसे. हम सदा नहीं बैठे रहेंगे,’ उस की मां चंदा बदहवास सी बोलीं.

‘मां, इतना परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे घर आते ही आप दोनों एक ही राग ले कर बैठ जाते हो. मैं तो सोचती हूं, कहीं और जा कर रहने लगूं.’

‘बस, यही कमी रह गई है. रिश्तेदारी में सब मजाक उड़ाते हैं पर तुम इस की चिंता क्यों करने लगीं,’ मां रो पड़ी थीं.

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‘मां, क्यों बात का बतंगड़ बनाती हो. जीवन में समस्याएं आती रहती हैं. समय आने पर उन का हल भी निकल आता है,’ मुग्धा ने धीरज बंधाया.

पता नहीं हमारी समस्या का हल कब निकलेगा. मुझे तो लगता है तुम्हें उच्चशिक्षा दिला कर ही हम ने गलती की है. तुम्हारी बड़ी बहनों रिंकी और विभा के विवाह इतनी सरलता से हो गए पर तुम्हारे लिए हमें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. विभा कल ही आई थी, तुम औफिस में थीं, इसलिए मुझ से ही बात कर के चली गई. उस का देवर परख इंगलैंड से लौट आया है. अर्थशास्त्र में पीएचडी कर के किसी बैंक में बड़ा अफसर बन गया है. तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रहा था. तुम कहो तो बात चलाएं.’

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 4

वे क्रोध से भनभना उठते. दिलदिमाग सब सुन्न हो जाते. किस मुंह से उन के आरोपों का खंडन करते, जबकि वे स्वयं जानते थे कि इंद्रा के चरित्र को ले कर शहरभर में जो चर्चाएं होती थीं वे नितांत कपोलकल्पित नहीं थीं. अकसर आधीआधी रात को, अनजान अपरिचित लोगों की गाडि़यां इंद्रा को छोड़ने आती थीं. एक से एक खूबसूरत और बढि़या साडि़यां उस के शरीर की शोभा बढ़ातीं, जिन्हें वह लोगों के दिए उपहार बताती. क्यों आते थे वे लोग? क्यों देते थे वे सब कीमती उपहार? किस मुंह से लोगों के व्यंग्य और तानों को काटने का साहस करते?

इंद्रा को वे समझाने का यत्न करते तो पत्थर की तरह झनझनाता स्वर कानों से टकराता, ‘दुनिया के पास काम ही क्या है सिवा बकने के. लोगों की बकवास से डर कर मैं अपना मानवसेवा का काम नहीं छोड़ सकती.’

‘तुम जिसे मानवसेवा कहती हो, इंद्रा, वह तुम्हारी नाम और प्रशंसा की भूख है. जिन के पास करने को कुछ नहीं होता, उन धनी लोगों के ये चोंचले हैं. हमारीतुम्हारी असली मानवसेवा है अपने विनोद, प्रमोद और अचला को पढ़ालिखा कर कर इंसान बनाना, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना, उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बनाना. पहले इंसान को अपना घर संवारना चाहिए. यह नहीं कि अपने घर में आग लगा कर दूसरों के घरों में प्रकाश फैलाओ.’

‘उफ, किस कदर संकीर्ण विचार हैं तुम्हारे, अपना घर, अपने बच्चे, अपना यह, अपना वह…तुम्हें तो सोलहवीं सदी में पैदा होना चाहिए था जब औरतों को सात कोठरियों में बंद कर के रखा जाता था. मुझे तो शर्म आती है किसी को यह बताते हुए कि मैं तुम जैसे मेढक की पत्नी हूं.’

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कुएं का मेढक, संकीर्ण विचार, मानवसेवा…जैसे वे बहरे होते जा रहे थे. उन की इच्छाएं, आकांक्षाएं, स्वाभिमान सब राख के ढेर में बदलते जा रहे थे.

घर, बाहर, दफ्तर कहीं एक पल के लिए चैन नहीं, शांति नहीं. कोई एक प्याला चाय के लिए पूछने वाला नहीं. तनमन से थकेटूटे सुरेंद्र होटलों के चक्कर लगाने लगे. एक प्याला गरम चाय और शांति से बैठ कर दो रोटी खाने की छोटीछोटी अपूर्ण इच्छाओं का दर्द शराब में डूबने लगा.

‘तुम होटल में बैठ कर गंदी शराब मुंह से लगाते हो? शर्म नहीं आती तुम्हें?’

पत्नी का अंगारा सा दहकता चेहरा सुरेंद्र शांतिपूर्वक देखते रहे थे. ‘जब तुम्हें आधीआधी रात तक पराए मर्दों के साथ घूमने में शर्म नहीं आती, तो मुझे ही लालपरी के साथ कुछ क्षण बिताने में क्यों शर्म आए? जिस का घर नहीं, द्वार नहीं, पत्नी नहीं, उस का यह सब से अच्छा साथी है. तुम अपने रास्ते चलो, मैं ने भी अपना रास्ता चुन लिया है. अब कोई किसी की राह का रोड़ा नहीं बनेगा. जब तुम मुझ से बंध कर न रह सकीं तो मैं ही तुम से बंधने को क्यों विवश होऊं?’ उन के चहेरे पर खेलती व्यंग्यात्मक मुसकान इंद्रा को अंदर तक सुलगा गई थी. पांव पटकती हुई वह बाहर निकल गई थी.

फिर एक दिन सुना था कि वे अपनी 17 वर्षीय अविवाहित बेटी अचला के होने वाले शिशु का नाना बनने वाले थे. सुन कर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ था. वे जानते थे इंद्रा ने जिस खुली हवा में बच्चों को छोड़ा था वह एक दिन अवश्य रंग लाएगी. जबजब उन्होंने अचला को विनोद और प्रमोद के आवारा दोस्तों के साथ घूमनेफिरने से टोका था, वह अनसुना कर गई थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उन पर बुरी तरह झल्ला उठी थी, ‘पापा, आप अपनी शिक्षा और उपदेश अपने पास ही रखिए. मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. आप की तरह संकीर्ण विचारों वाली बन कर मैं दुनिया में जीना नहीं चाहती. जब मम्मी हम लोगों को कुछ नहीं कहतीं, फिर आप…’

15-20 दिनों के लिए मांबेटी कोलकाता गई थीं. जब वापस आईं तो अचला अपना लुटा कौमार्य फिर से वापस लौटा लाई थी, खुली हवा में और अधिक आजादी से घूमने के लिए.

कितनी सरलता से इंद्रा ने इतनी बड़ी समस्या से छुटकारा पा लिया था. ‘तुम समझते हो, हमारी अचला ने जैसे कोई अनहोनी बात कर डाली है. आएदिन मेरे पास ऐसे कितने ही मामले आते रहते हैं. मैं इन से निबटना भी अच्छी तरह जानती हूं. बच्चों से गलती हो जाती है. गलती नहीं करेंगे तो सीखेंगे कैसे?’

शराब की मात्रा और अधिक बढ़ गई थी. वे जानते थे, जिस रास्ते पर वे जा रहे थे वह उन्हें विनाश की ओर ले जा रहा था. मदिरा उन्हें कुछ क्षणों के लिए मानसिक तनाव से छुटकारा दिला सकती थी, उन के थके, टूटे तनमन को प्रेम से जोड़ नहीं सकती थी. स्नेह, विश्वास, शांति के अभाव ने आज उन्हें फूल की एकएक पंखुड़ी की तरह मसलकुचल कर 50 वर्ष की आयु में ही मौत के कगार पर ला पटका था.

डाक्टर कहते हैं, कुछ दिनों में ठीक हो कर वे फिर से घर जा सकेंगे. लेकिन वे जानते हैं, अब कभी घर नहीं लौट सकेंगे. लौटना भी नहीं चाहते. कौन है वहां जिस की ममता के बंधन उन्हें वापस लौटा लाने के लिए विवश करें? पत्नी, बेटे, बेटी? कौन?

दिल काबू से बाहर हुआ जा रहा था. सिर से पैर तक वे पसीने में नहा गए थे. ‘‘सिस्टर, सिस्टर,’’ उन्होंने घंटी पर हाथ मारा, ‘‘सिस्टर, पानी…’’

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अस्पताल से निकल कर इंद्रा ने तेजी से गाड़ी घर की ओर मोड़ दी. मन में जितना आक्रोश भरा था, उसी के अनुपात में गाड़ी का ऐक्सीलेटर तेज होता गया. इस व्यक्ति ने उसे कभी नहीं समझा, समझने की कोशिश ही नहीं की. ज्योंज्यों वह यश और प्रशस्ति के पथ पर बढ़ती चली गई, यह उन से कटता चला गया.

आज शहर में उस का कितना मान और आदर है. क्या नहीं है उस के पास? सरकारी गाड़ी, बंगला, महंगे मोबाइल? वह जिधर से गुजर जाती है, लोग उस की एक झलक देखने के लिए ठिठक कर रुक जाते हैं. शहर में कोई ऐसा आयोजन नहीं जहां उसे सम्मानपूर्वक आमंत्रित न किया जाता हो. मान और यश के इस उच्चतम शिखर पर पहुंचने के लिए उस ने कितना त्याग, कितना परिश्रम, कितना कठिन संघर्ष किया है? और यह व्यक्ति है कि घायल शेर की तरह उसे काटने को दौड़ता है.

घर आ गया था. गाड़ी गेट से होती हुई बरामदे के सामने जा कर रुक गई.

‘‘मम्मी, तुम आ गईं,’’ दौड़ती हुई अचला आ कर उस के गले से लिपट गई.

इंद्रा ने सिर से पैर तक सजीधजी बिटिया को देखा. वह पिता की नाजुक हालत की खबर पा कर आई थी.

‘‘कब आई?’’

‘‘यही कोई 4 साढ़े 4 बजे के करीब.’’

‘‘अकेली आई हो?’’

‘‘क्यों, अकेली क्यों आऊंगी? रमेश भी आए हैं साथ. अब कोई पापा का डर थोड़े ही है, जो न आते.’’ पापा के न होने की प्रसन्नता उस के चेहरे पर छलकीछलकी पड़ रही थी.

इंद्रा के गले में बांहें झुलाती हुई वह उसे ड्राइंगरूम में घसीट लाई. सालभर के बच्चे को पेट पर लिटाए रमेश सोफे पर पसरा पड़ा था. ‘‘उठो, रमेश, मम्मी आई हैं.’’

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