Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

बहिष्कार : दीपक और महेश की अनोखी दास्तां

‘‘महेश… अब उठ भी जाओ… यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘उठ रहा हूं…’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.

दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है… रातभर क्या करते रहते हो…’’

‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.

आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.

‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’

‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.

दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.

‘‘अच्छा ठीक है… कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.

दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’

‘‘क्या बोल रहा है यार… क्या यह सच है…’’

‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के  झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.

‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.

अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.

‘‘भाई, आप को क्या लगता है? क्या वाकई ऐसा हो रहा है या महज दिखावा है? ये सारे हथकंडे सिर्फ हम लोगों को अपनी तरफ जोड़ने के लिए हो रहे हैं, इन्हें दलितों से कोई हमदर्दी नहीं है. अगर हमदर्दी है तो बस वोट के लिए…’’

दीपक महेश को रोकते हुए बोला, ‘‘यार, हमेशा उलटी बातें ही क्यों सोचते हो? अब वक्त बदल रहा है. समाज अब पहले से ज्यादा पढ़ालिखा हो गया है, इसलिए बड़ेबड़े नेता दलितों के यहां जाते हैं, न कि सिर्फ वोट के लिए, सम झे?’’

‘‘मैं तो समझ ही रहा हूं, आप क्यों ऐसे नेताओं का पक्ष ले रहे हैं. चुनाव खत्म तो दलितों के यहां खाने का रिवाज भी खत्म. फिर जब वोट की भूख होगी, खुद ही थाली में प्रकट हो जाएंगे, बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

दीपक बात को बीच में काटते हुए बोला, ‘‘सुन महेश, मु झे कल सुबह की ट्रेन से गांव जाना है.’’

‘‘क्यों? अचानक से… कौन सा ऐसा काम पड़ गया, जो कल जाने की बात कर रहा है? घर पर सब ठीक तो हैं न?’’ महेश ने सवाल दागे.

‘‘हां, सब ठीक हैं. बात यह है कि गांव के शर्माजी के यहां तेरहवीं है तो जाना जरूरी है.’’

महेश बोला, ‘‘दीपू, ये वही शर्माजी हैं जो नेतागीरी करते हैं.’’

‘‘सही पकड़े महेश बाबू,’’ मजाकिया अंदाज में दीपू ने हंस कर सिर हिलाया.

अगले दिन दीपक अपने गांव पहुंच गया. उसे देखते ही मां ने गले लगाने के लिए अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए.

‘‘मां, पिताजी कहां हैं? वे घर पर दिख नहीं रहे?’’

‘‘अरे, वे तो शर्माजी के यहां काम कराने गए हैं. सुबह के ही निकले हैं. अब तक कोई अतापता नहीं है. क्या पता कुछ खाने को मिला भी है कि नहीं.’’

‘‘अरे अम्मां, क्यों परेशान हो रही हो? पिताजी कोई छोटे बच्चे थोड़ी हैं, जो अभी भूखे होंगे. फिर शर्माजी तो पिताजी को बहुत मानते हैं. अब उन की टैंशन छोड़ो और मेरी फिक्र करो. सुबह से मैं ने कुछ नहीं खाया है.’’

थोड़ी देर बाद मां ने बड़े ही प्यार से दीपक को खाना खिलाया.

खाना खा कर थोड़ी देर आराम करने के बाद दीपक भी शर्माजी के यहां पिताजी का हाथ बंटाने के लिए चल पड़ा.

तकरीबन 15 मिनट चलने के बाद गांव के किनारे मैदान में बड़ा सा पंडाल दिख गया, जहां पर तेजी के साथ काम चल रहा था. पास जा कर देखा तो पिताजी मजदूरों को जल्दीजल्दी काम करने का निर्देश दे रहे थे.

तभी पिताजी की नजर दीपक पर पड़ी. दीपक ने जल्दी से पिताजी के पैर छू लिए.

पिताजी ने दीपक से हालचाल पूछा, ‘‘बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हें रहनेखाने की कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘बाबूजी, मेरी फिक्र छोडि़ए, यह बताइए कि आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

दीपक ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘सारा काम हो ही गया है, बस एकडेढ़ घंटे का काम बचा है,’’ इस पर पिता ओमप्रकाश ने हामी भरी. इस के बाद दोनों घर की तरफ चल पड़े.

रात को 8 बजे के बाद दीपक घर आया तो मां ने पूछा, ‘‘दीपू अभी तक कहां था, कब से तेरे बाबूजी इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘अरे मां, अब क्या बताऊं… गोलू के घर की तरफ चला गया था. वहां रमेश, जीतू, राजू भी आ गए तो बातों के आगे वक्त का पता ही नहीं चला.’’

मां बोलीं, ‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब जल्दी से शर्माजी के यहां जा कर भोजन कर आ.’’

कुछ ही देर में गोलू के घर पहुंच कर दीपक ने उसे आवाज लगाई.

गोलू जोर से चिल्लाया, ‘‘रुकना भैया, अभी आया. बस, एक मिनट.’’

5 मिनट बाद गोलू हांफता हुआ आया तो दीपक ने कहा, ‘‘क्या यार, मेकअप कर रहा था क्या, जो इतना समय लगा दिया?’’

गोलू सांस छोड़ते हुए बोला, ‘‘दीपू भाई, वह क्या है कि छोटी कटोरी नहीं मिल रही थी. तू तो जानता है कि मु झे रायता कितना पसंद है तो…’’

‘‘पसंद है तो कटोरी का क्या काम है?’’ दीपक ने अचरज से पूछा.

गोलू थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दीपक, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोग हमेशा से ही ऊंची जाति वालों के यहां घर से ही अपने बरतन ले कर जाते हैं, तभी खाने को मिलता है.’’

‘‘हां पता है, लेकिन अब ये पुरानी बातें हो गई हैं. अब तो हर पार्टी के बड़ेबड़े नेता भी दलितों के यहां जा कर खाना खाते हैं.’’

गोलू ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के लोगों के लिए पूजा और भोजन का इंतजाम बड़े पंडाल में है, ताकि छोटी जाति वालों को पूजापाठ की जगह से दूर बैठा कर खाना खिलाया जा सके, जिस से भगवान और ऊंची जाति वालों का धर्म खराब न हो.

‘‘दलितों को खाना अलग दूर बैठा कर खिलाया ही जाता है, इस पर यह शर्त होती है कि दलित अपने बरतन घरों से लाएं, जिस से उन के जूठे बरतन धोने का पाप ऊंची जाति वालों को न लगे,’’ इतना कहने के बाद गोलू चुप हो गया.

लेकिन दीपक की बांहें फड़कने लगीं, ‘‘आखिर इन लोगों ने हमें सम झ क्या रखा है, क्या हम इनसान नहीं हैं.

‘‘सुन गोलू, मैं तो इस बेइज्जती के साथ खाना नहीं खाऊंगा, चाहे जो हो जाए,’’ दीपक की तेज आवाज सुन कर वहां कई लोग जमा होने लगे.

‘‘क्या बात है? क्यों गुस्सा कर रहे हो?’’ एक ने पूछा.

‘‘अरे चाचा, कोई छोटीमोटी बात नहीं है. आखिर हम लोग कब तक ऊंची जातियों के लोगों के जूते को सिर पर रख कर ढोते रहेंगे, क्या हम इनसान नहीं हैं? आखिर कब तक हम उन की जूठन पर जीते रहेंगे?’’

‘‘यह भीड़ यहां पर क्यों इकट्ठा है? यह सब क्या हो रहा है,’’ पिता ओमप्रकाश ने भीड़ को चीरते हुए दीपक से पूछा.

इस से पहले दीपक कुछ बोल पाता, बगल में खड़े चाचाजी बोल पड़े, ‘‘ओम भैया, तुम ने दीपू को कुछ ज्यादा ही पढ़ालिखा दिया है, जो दुनिया उलटने की बात कर रहा है. इसे जरा भी लाज नहीं आई कि जिन के बारे में यह बुराभला कह रहा है, वही हमारे भाग्य विधाता?हैं. अरे, जो कुछ हमारे वेदों और शास्त्रों में लिखा है, वही तो हम लोग कर रहे हैं.’’

‘‘चाचाजी…’’ दीपक चीखा, ‘‘यही तो सब से बड़ी समस्या है, जो आप लोग सम झना नहीं चाहते. क्या आप को पता है कि ये ऊंची जाति के लोगों ने खुद ही इस तरह की बातें गढ़ ली हैं. जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उस का कोई धर्म या मजहब नहीं होता, वह मां के पेट से कोई मजहब या काम सीख कर नहीं आता.

‘‘सुनिए चाचाजी, जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सब आजाद होते हैं, लेकिन ये हमारी बदकिस्मती है कि धर्म के ठेकेदार अपने फायदे के लिए लोगों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर बांट देते हैं.

‘‘क्या आप लोगों को नहीं पता कि मेरे पिताजी ने मु झे पढ़ाया है. अगर वे भी यह सोच लेते कि दलितशूद्रों का पढ़ना मना है, तो क्या मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा होता?

‘‘इसी छुआछूत को मिटाने के लिए कई पढ़ेलिखे जागरूक दलितों ने कितने कष्ट उठाए, अगर वे पढ़ेलिखे नहीं होते तो क्यों उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी दी जाती?’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे दीपक, तू तो पढ़ालिखा है, मगर हम तो जमाने से यही देखते चले आ रहे हैं कि भोज में बरतन अपने घर से ले कर जाने पड़ते हैं. जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो?’’

‘‘नहीं दादा, हम से यह न होगा, जिसे खाना खिलाना होगा, वह हमें भी अपने साथ इज्जत से खिलाए, वरना हम किसी के खाने के भूखे नहीं हैं. अब बहुत हो गया जुल्म बरदाश्त करतेकरते. मैं इस तरह से खाना नहीं खाऊंगा.’’

दीपक की बातों से गोलू को जोश आ गया. उस ने भी अपने बरतन फेंक दिए. इस से हुआ यह कि गांव के ज्यादातर दलितों ने इस तरह से खाने का बहिष्कार कर दिया.

‘‘शर्माजी, गजब हो गया,’’ एक आदमी बोला.

‘‘क्या हुआ? क्या बात है? सब ठीक तो है?’’

‘‘कुछ ठीक नहीं है. बस्ती के सारे दलित बिना खाना खाए वापस अपने घरों को जा रहे हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं.’’

शर्माजी ने जल्दी से दौड़ लगा दी. दौड़ते हुए ही वे आवाज लगाने लगे, ‘‘अरे क्या हुआ, क्या कोई बात हो गई है, आप लोग रुकिए तो…’’

भीड़ में सन्नाटा छा गया. अब शर्माजी को कोई क्या जवाब दे.

‘‘देखिए शर्माजी…’’ दीपक बोला, ‘‘हम सब आप लोगों की बड़ी इज्जत करते हैं.’’

‘‘अरे दीपक, यह भी कोई कहने की बात है,’’ शर्माजी ने बीच में ही दीपक को टोका.

‘‘बात यह है कि अब से हम लोग इस तरह आप लोगों के यहां किसी भी तरह का भोजन नहीं किया करेंगे, क्योंकि हमारी भी इज्जत है. हम भी आप की तरह इनसान हैं, तो आप हमारे लिए अलग से क्यों कायदेकानून बना रखे हैं?

‘‘जब वोट लेना होता है तो आप लोग ही दलितों के यहां खाने को लेकर होड़ मचाए रहते हैं. जब चुनाव हो जाता है तो दलित फिर से दलित हो जाता है.’’

शर्माजी को कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुपचाप अपना सा मुंह लटकाए वहीं खड़े रहे.

चिराग नहीं बुझा: गोडूं की ताकत

गोंडू लुटेरा उस कसबे के लोगों के लिए खौफ का दूसरा नाम बना हुआ था. भद्दे चेहरे, भारी डीलडौल वाला गोंडू बहुत ही बेरहम था. वह लोफरों के एक दल का सरदार था. अपने दल के साथ वह कालोनियों पर धावा बोलता था. कहीं चोरी करता, कहीं मारपीट करता और जोकुछ लूटते बनता लूट कर चला जाता.

कसबे के सभी लोग गोंडू का नाम सुन कर कांप उठते थे. उसे तरस और दया नाम की चीज का पता नहीं था. वह और उस का दल सारे इलाके पर राज करता था.

पुलिस वाले भी गोंडू लुटेरा से मिले हुए थे. पार्टी का गमछा डाले वह कहीं भी घुस जाता और अपनी मनमानी कर के ही लौटता.

गोंडू का मुकाबला करने की ताकत कसबे वालों में नहीं थी. जैसे ही उन्हें पता चलता कि गोंडू आ रहा है, वे अपनी दुकान व बाजार छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर छिप जाते.

यह इतने लंबे अरसे से हो रहा था कि गोंडू और उस के दल को सूनी गलियां देखने की आदत पड़ गई थी.

बहुत दिनों से उन्होंने कोई दुकान नहीं देखी थी जिस में लाइट जल रही हो. उन्हें सूनी और मातम मनाती गलियों और दुकानों के अलावा और कुछ भी देखने को नहीं मिलता था.

एक अंधेरी रात में गोंडू और उस के साथी लुटेरे जब एक के बाद एक दुकानों को लूटे जा रहे थे तो उन्हें बाजार खाली ही मिला था.

‘‘तुम सब रुको…’’ अचानक गोंडू ने अपने साथियों से कहा, ‘‘क्या तुम्हें वह रोशनी दिखाई दे रही है जो वहां एक दुकान में जल रही?है?

‘‘जब गोंडू लूटपाट पर निकला हो तो यह रोशनी कैसी? जब मैं किसी महल्ले में घुसता हूं तो हमेशा अंधेरा ही मिलता है.

‘‘उस रोशनी से पता चलता है कि कोई ऐसा भी है जो मुझ से जरा भी नहीं डरता. बहुत दिनों के बाद मैं ने ऐसा देखा है कि मेरे आने पर कोई आदमी न भागा हो.’’

‘‘हम सब जा कर उस आदमी को पकड़ लाएं?’’ लुटेरों के दल में से एक ने कहा.

‘‘नहीं…’’ गोंडू ने मजबूती से कहा, ‘‘तुम सब यहीं ठहरो. मैं अकेला ही उस हिम्मती और पागल आदमी से अपनी ताकत आजमाने जाऊंगा.

‘‘उस ने अपनी दुकान में लाइट जला कर मेरी बेइज्जती की है. वह आदमी जरूर कोई जांबाज सैनिक होगा. आज बहुत लंबे समय बाद मुझे किसी से लड़ने का मौका मिला है.’’

जब गोंडू दुकान के पास पहुंचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि एक बूढ़ी औरत के पास दुकान पर केवल 12 साल का एक लड़का बैठा था.

औरत लड़के से कह रही थी, ‘‘सभी लोग बाजार छोड़ कर चले गए हैं. गोंडू के यहां आने से पहले तुम भी भाग जाओ.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुम ने मुझे जन्म  दिया, पालापोसा, मेरी देखभाल की और मेरे लिए इतनी तकलीफें उठाईं. मैं तुम्हें इस हाल में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? तुम्हें यहां छोड़ कर जाना बहुत गलत होगा.

‘‘देखो मां, मैं लड़ाकू तो नहीं??? हूं, एक कमजोर लड़का हूं, पर तुम्हारी हिफाजत के लिए मैं उन से लड़ कर मरमिटूंगा.’’

एक मामूली से लड़के की हिम्मत को देख कर गोंडू हैरान हो उठा. उस समय उसे बहुत खुशी होती थी जब लोग उस से जान की भीख मांगते थे, लेकिन इस लड़के को उस का जरा भी डर नहीं.

‘इस में इतनी हिम्मत और ताकत कहां से आई? जरूर यह मां के प्रति प्यार होगा,’ गोंडू को अपनी मां का खयाल आया जो उसे जन्म देने के बाद मर गई थी. अपनी मां के चेहरे की हलकी सी याद उस के मन में थी.

उसे अभी तक याद है कि वह किस तरह खुद भूखी रह कर उसे खिलाती थी. एक बार जब वह बीमार था तब वह कई रात उसे अपनी बांहों में लिए खड़ी रही थी. वह मर गई और गोंडू को अकेला छोड़ गई. वह लुटेरा बन गया और अंधेरे में भटकने लगा.

गोंडू को ऐसा महसूस हुआ कि मां की याद ने उस के दिल में एक रोशनी जला दी है. उस की जालिम आंखों में आंसू भर आए. उसे लगा कि वह फिर बच्चा बन गया है. उस का दिल पुकार उठा, ‘मां… मां…’

उस औरत ने लड़के से फिर कहा, ‘‘भाग जाओ मेरे बच्चे… किसी भी पल गोंडू इस जलती लाइट को देख कर दुकान लूटने आ सकता है.’’

तभी गोंडू दुकान में घुसा. मां और बेटा दोनों डर गए.

गोंडू ने कहा, ‘‘डरो नहीं, किसी में इस लाइट को बुझाने की ताकत नहीं है. मां के प्यार ने इसे रोशनी दी है और यह सूरज की तरह चमकेगा. दुकान छोड़ कर मत जाओ.

‘‘बदमाश गोंडू मर गया है. तुम लोग यहां शांति से रहो. लुटेरों का कोई दल कभी इस जगह पर हमला नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन… लेकिन, आप कौन हैं?’’ लड़के ने पूछा.

वहां अब खामोशी थी. गोंडू बाहर निकल चुका था.

उस रात के बाद किसी ने गोंडू और उस के लुटेरे साथियों के बारे में कुछ नहीं सुना.

कहीं से उड़ती सी खबर आई कि गोंडू ने कोलकाता जा कर एक फैक्टरी में काम ले लिया था. उस के साथी भी अब उसी के साथ मेहनत का काम करने लगे थे.

चंदू : बाढ़ ने ढाया कहर

‘‘हुजूर, हम को भी अपने साथ ले चलिए. 3 दिनों से कुछ नहीं खाया है. हम को भी बाहर निकालिए… 3 दिनों से बाढ़ के पानी में फंसे हुए हैं… सबकुछ तबाह हो गया है… खानेपीने का सामान था, पर अचानक आई बाढ़ में सबकुछ डूब गया हुजूर… भूख के चलते जान निकल रही है… पैर पकड़ते हैं आप के हुजूर… हम को भी निकाल लीजिए…’’

‘‘ऐसे ही थोड़े ले जाएंगे… 20-20 रुपया हर आदमी का लगेगा… तभी ले जाएंगे. हम लोगों को भी खर्चापानी चाहिए कि नहीं…’’

नाव पर सवार एक नौजवान, जिस के हाथ में स्मार्टफोन और कान में ईयर फोन था, चेहरेमोहरे से तेजतर्रार लग रहा था. उस ने नाव वाले के इस रवैए का विरोध किया और बोला, ‘‘भैया, आप ऐसा नहीं कर सकते हैं. पैसे लेने का नियम नहीं है. बाढ़ आई है. प्रशासन की तरफ से सुविधाएं मुफ्त दी जा रही हैं.

‘‘डीएम साहब ने कहा है कि लोगों को बाढ़ प्रभावित इलाकों से महफूज जगह पहुंचाने के लिए नाव के साथ नाव चालकों की टीम लगाई गई है, फिर आप लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं? लोग यहां मर रहे हैं और आप उन की मजबूरी का फायदा उठाने में लगे हैं.’’

‘‘देखो बाबू, फालतू की बात मत करो… पैसा नहीं है तो बोलो कि नहीं है.अगली ट्रिप में दे देना, ज्यादा नियमकानून मत झड़ो.’’

‘‘हम लोग शिकायत करेंगे. आप ऐसा नहीं कर सकते हैं. अभी मैं ‘हैल्पलाइन’ नंबर पर फोन मिलाता हूं,’’ कहते हुए उस नौजवान ने फोन निकाला और ‘हैल्पलाइन’ का नंबर ढूंढ़ने लगा. कई बार फोन डायल किया, पर फोन लगा ही नहीं.

उस नौजवान ने थकहार कर कहा, ‘‘फोन कनैक्ट ही नहीं हुआ, नहीं तो आज ही आप को पता चल जाता कि 20 रुपए लेना क्या होता है.’’

‘‘बबुआ, कुछ नहीं होने वाला है. तुम्हारे जैसे लौंडों को हम लोग रोजाना देखते हैं. बाढ़ में ‘हैल्पलाइन’ का फोन भी बह गया है. कुछ नहीं होने वाला है. तुम्हारी भलाई इसी में है कि बकबक करना छोड़ दो और वाजिब पैसे दे दो, नहीं है तो उतर जाओ और सड़ते रहो यहीं पर.’’

‘‘भैया, बात पैसे की नहीं है, बेईमानी की है, भ्रष्टाचार की है. आप लोग नाजायज पैसे वसूल रहे हो. यह गलत है. हमारे पास तो पैसे हैं, पर आप लोग मजबूरों से ऐसा बुरा बरताव मत कीजिए. दुख की घड़ी में उन्हें सहारा दीजिए. थोड़ी दया दिखाइए…’’ चंदू की तरफ इशारा करते हुए वह नौजवान बोला, ‘‘देखिए इस बेचारे को, आप से हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा रहा है, पर आप इतने गिर गए हैं कि आप को पैसे के सिवा कुछ नहीं सू?ा रहा है.’’

नाव वाला गुस्से से तमतमाते हुए बोला, ‘‘देखो लड़के, बहुत भाषण सुन चुके हैं तुम्हारा. तुम जहर उगल रहे हो. तुम अपनी सोचो, दूसरे की ठेकेदारी मत लो नहीं तो यहीं फेंक देंगे. लाश का भी पता नहीं चलेगा.’’

नाव पर सवार एक और आदमी, जो पहले से ही चुप था और किसी तरह महफूज जगह पहुंच जाने की उम्मीद के चलते किसी तरह की लफड़ेबाजी में नहीं फंसना चाहता था, नाव वाले की इस बात को सुन कर और भी डर गया.

चंदू बारबार नाव वाले से गुजारिश कर रहा था, पर नाव वाला भी अड़ियल था. वह उसे ले जाने के लिए तैयार नहीं था. वह प्रति आदमी 20 रुपए बाढ़ के पानी से पार कराने के लिए लेता था.

चंदू के पास पैसे नहीं थे. उस की तरफदारी करने वाले नौजवान की भी हेकड़ी नाव खेने वाले बदमाशों के चलते निकल गई थी. मुसीबत की इस घड़ी में बहुतकुछ गंवा चुके लोगों में से कोई भी इस समय दानपुण्य करने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा था ताकि चंदू भी महफूज जगह पहुंच जाए.

नाव वाले की इनसानियत मर चुकी थी. 20 रुपए की खातिर उस ने एक आदमी को मरने के लिए छोड़ दिया और नाव आगे बढ़ा दी.

अभी भी चंदू का गिड़गिड़ाना बंद नहीं हुआ था, ‘‘हुजूर, हम को भी चढ़ा लीजिए. बाद में हम मजदूरी कर के दे देंगे पैसा… रहम कीजिए हुजूर.’’

नाव वाला नाव की रफ्तार को तेज कर चुका था. अब कराहते और मरियल चंदू की आवाज आनी बंद हो गई थी.

कोसी की प्रलयकारी बाढ़ में चंदू का सबकुछ बरबाद हो गया था. हाल ही में उस ने घर बनाया था. भले ही वह घर फूस का था, पर खूनपसीने से बनाया गया घर जब तबाह हो जाता है, तब उस का दर्द पीड़ित ही समझ सकता है. पुरोहिती और मजदूरी कर के कुछ दानापानी भी जमा किया था ताकि अपने बालबच्चों और पत्नी की गुजरबसर ठीक से कर सके, पर वह भी बह चुका था. खाने के लाले पड़ गए थे.

अचानक आई बाढ़ से जिन को जहां मौका मिला उन्होंने अपने लैवल पर जान बचाने की कोशिश की. कई बह भी गए. कई अपनों से बिछुड़ गए.

चंदू भी अपनी पत्नी और बालबच्चों से बिछुड़ चुका था. वे किस हाल में होंगे… यह सोच कर उस की हालत बुरी हो जाती थी. ऊपर से पेट की आग ने उस को परेशान किया हुआ था. उस ने कई बार अपने परिवार को तलाश करने की कोशिश की, पर पानी के दैत्य रूप को देख कर हिम्मत जवाब दे देती.

ऐसे हालात में उन के घर से कुछ ही दूरी पर आम का विशालकाय पेड़ ही था जो उस को जिंदा रहने के लिए सहारा दे रहा था. जिंदा रहने के लिए चंदू किसी तरह आम के पत्तों और बाढ़ के पानी का सेवन कर रहा था.

पेड़ की डाल पर बैठे और हाथ से डाली को पकड़े हुए कई दिन हो चुके थे. समय अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था, पर पानी नहीं घट रहा था.

दोपहर के 4 बज रहे थे. हवाईजहाज चूड़ा और गुड़ के पैकेट गिरा रहा था. चारों ओर फैले इस जलक्षेत्र में इस पेड़ पर भी कोई आदमी है, हवाईजहाज उड़ाने वाले इस बात से अनजान थे. काश, इस पेड़ पर भी पैकेट गिरा दिए जाते.

चंदू ने डाल पर लेटे हुए धीरे से आंख ऊपर कर के हवाईजहाज को देखा कि काश, कहीं से सहारा मिल जाए, पर हवाईजहाज आंख से ओर हाल हो गया.

शाम हो चुकी थी. चंदू की डाल से पकड़ ढीली हो रही थी और धीरेधीरे पकड़ छूट गई. बेजान शरीर पानी में गिर चुका था.

पानी ने चंदू के सारे दुखों को हर लिया था. अब उसे नाव और राहत की जरूरत नहीं थी. वह तो बहुत ही महफूज जगह पहुंच चुका था.

टैलीविजन पर खबर चल रही थी, ‘बाढ़ में फंसे लोगों को महफूज जगह पहुंचा दिया गया है. राहत और बचाव का काम तेजी से चल रहा है.’

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : बाबा की गंदी हरकत

‘‘अरे बावली, कहां रह गई तू?’’ रमा की कड़कती हुई आवाज ने रूपल के पैरों की रफ्तार को बढ़ा दिया.

‘‘बस, आ रही हूं मामी,’’ तेज कदमों से चलते हुए रूपल ने मामी से आगे बढ़ हाथ के दोनों थैले जमीन पर रख दरवाजे का ताला खोला.

‘‘जल्दी से रात के खाने की तैयारी कर ले, तेरे मामा औफिस से आते ही होंगे,’’ रमा ने सोफे पर पसरते हुए कहा.

‘‘जी मामी,’’ कह कर रूपल कपड़े बदल कर चौके में जा घुसी. एक तरफ कुकर में आलू उबलने के लिए गैस पर रखे और दूसरी तरफ जल्दी से परात निकाल कर आटा गूंधने लगी.

आटा गूंधते समय रूपल का ध्यान अचानक अपने हाथों पर चला गया. उसे अपने हाथों से घिन हो आई. आज भी गुरु महाराज उस

के हाथों को देर तक थामे सहलाते रहे और वह कुछ न कह सकी. उन्हें देख कर कितनी नफरत होती है, पर मामी को कैसे मना करे. वे तो हर दूसरेतीसरे दिन ही उसे गुरु कमलाप्रसाद की सेवादारी में भेज देती हैं.

पहली बार जब रूपल वहां गई थी तो बड़ा सा आश्रम देख कर उसे बहुत अच्छा लगा था. खुलीखुली जगह, चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी.

खिचड़ी बालों की लंबी दाढ़ी, कुछ आगे को निकली तोंद, माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए सफेद कपड़े पहने, चांदी से चमकते सिंहासन पर आंखें बंद किए बैठे गुरु महाराज रूपल को पहली नजर में बहुत पहुंचे हुए महात्मा लगे थे जिन के दर्शन से उस की और उस के घर की सारी समस्याओं का जैसे खात्मा हो जाने वाला था.

अपनी बारी आने पर बेखौफ रूपल उन के पास जा पहुंची थी. महाराज उस के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते हुए देर तक उसे देखते रहे.

मामी की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन गुरु महाराज की कृपा उस पर औरों से ज्यादा बरसी थी.

वापसी में महाराज के एक सेवादार ने मामी के कान में कुछ कहा, जिस से उन के चेहरे पर एक चमक आ गई. तब से हर दूसरेतीसरे दिन वे रूपल को महाराज के पास भेज देती हैं.

मामी कहती हैं कि गुरु महाराज की कृपा से उस के घर के हालात सुधर जाएंगे जिस से दोनों छोटी बहनों की पढ़ाईलिखाई आसान हो जाएगी और उन का भविष्य बन जाएगा.

रूपल भी तो यही चाहती है कि मां की मदद कर उन के बोझ को कुछ कम कर सके, तभी तो दोनों छोटी बहनों और उन्हें गांव में छोड़ वह यहां मामामामी के पास रहने आ गई है.

पिछले साल जब मामामामी गांव आए थे तब अपने दुखड़े बताती मां को आंचल से आंखों के गीले कोर पोंछते देख रूपल को बड़ी तकलीफ हुई थी.

14 साल की हो चुकी थी रूपल, पर अभी भी अपने बचपने से बाहर नहीं निकल पाई थी. माली हालत खराब होने से पढ़ाई तो छूट गई थी, पर सखियों के संग मौजमस्ती अभी भी चालू थी.

ठाकुर चाचा के आम के बगीचे से कच्चे आम चुराने हों या फुलवा ताई के दालान से कांटों की परवाह किए बगैर बारबेरी के बेर तोड़ने में उस का कहीं कोई मुकाबला न था.

पर उस दिन किवाड़ के पीछे खड़ी रूपल अपनी मां की तकलीफें जान कर हैरान रह गई थी. 4 साल पहले उस के अध्यापक बाऊजी किसी लाइलाज बीमारी में चल बसे थे.

मां बहुत पढ़ीलिखी न थीं इसलिए स्कूल मैनेजमैंट बाऊजी की जगह पर उन के लिए टीचर की नौकरी का इंतजाम न कर पाया. अलबत्ता, उन्हें चपरासी और बाइयों के सुपरविजन का काम दे कर एक छोटी सी तनख्वाह का जुगाड़ कर दिया था.

इधर बाऊजी के इलाज में काफी जमीन बेचनी पड़ गई थी. घर भी ठाकुर चाचा के पास ही गिरवी पड़ा था. सो, अब नाममात्र की खेतीबारी और मां की छोटी सी नौकरी 4 जनों का खर्चा पूरा करने में नाकाम थी.

रूपल को उस वक्त अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया था कि वह मां के दुखों से कैसे अनजान रही, इसीलिए जब मामी ने अपने साथ चलने के लिए पूछा तो उस ने कुछ भी सोचे समझे बिना एकदम से हां कर दी.

तभी से मामामामी के साथ रह रही रूपल ने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था. शुरुआत में मामी ने उसे यही कहा था, ‘देख रूपल, हमारे तो कोई औलाद है नहीं, इसलिए तुझे हम ने जिज्जी से मांग लिया है. अब से तुझे यहीं रहना है और हमें ही अपने मांबाप समझना है. हम तुझे खूब पढ़ाएंगे, जितना तू चाहे.’

बस, मामी के इन्हीं शब्दों को रूपल ने गांठ से बांध लिया था. लेकिन उन के साथ रहते हुए वह इतना तो समझ गई थी कि मामी अपने किसी निजी फायदे के तहत ही उसे यहां लाई हैं. फिर भी उन की किसी बात का विरोध करे बगैर वह गूंगी गुडि़या बन मामी की सभी बातों को मानती चली जा रही थी ताकि गांव में मां और बहनें कुछ बेहतर जिंदगी जी सकें.

रूपल को यहां आए तकरीबन 6-8 महीने हो चुके थे, लेकिन मामी ने उस का किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं कराया था, बल्कि इस बीच मामी उस से पूरे घर का काम कराने लगी थीं.

मामा काम के सिलसिले में अकसर बाहर रहा करते थे. वैसे तो घर के काम करने में रूपल को कोई तकलीफ नहीं थी और रही उस की पढ़ाई की बात तो वह गांव में भी छूटी हुई थी. उसे तो बस मामी के दकियानूसी विचारों से परेशानी होती थी, क्योंकि वे बड़ी ही अंधविश्वासी थीं और उस से उलटेसीधे काम कराया करती थीं.

वे कभी आधा नीबू काट कर उस पर सिंदूर लगा कर उसे तिराहे पर रख आने को कहतीं तो कभी किसी पोटली में कुछ बांध कर आधी रात को उसे किसी के घर के सामने फेंक कर आने को कहतीं. महल्ले में किसी से उन की ज्यादा पटती नहीं थी.

मामी की बातें रूपल को चिंतित कर देती थीं. वह भले ही गांव की रहने वाली थी, पर उस के बाऊजी बड़े प्रगतिशील विचारों के थे. उन की तीनों बेटियां उन की शान थीं.

गांव के माहौल में 3-3 लड़कियां होने के बाद भी उन्हें कभी इस बात की शर्मिंदगी नहीं हुई कि उन के बेटा नहीं है. उन के ही विचारों से भरी रूपल इन अंधविश्वासों पर बिलकुल यकीन नहीं करती थी. पर न चाहते हुए भी उसे मामी के इन ढकोसलों का न सिर्फ हिस्सा बनना पड़ता, बल्कि उन्हें मानने को भी मजबूर होना पड़ता. क्योंकि अगर वह इस में जरा भी आनाकानी करती तो मामी तुरंत उस की मां को फोन लगा कर उस की बहुत चुगली करतीं और उस के लिए उलटासीधा भिड़ाया करतीं.

पर अभी जो रूपल के साथ हो रहा था, वह तो और भी बुरा था. पिछले कुछ वक्त से उस ने महसूस किया था कि आश्रम के काम के बहाने उसे गुरुजी के साथ जानबूझ कर अकेले छोड़ा जाता है.

रूपल छोटी जरूर थी, पर इतनी भी नहीं कि अपने शरीर पर रेंगते उन हाथों की बदनीयती पहचान न सके. वैसे भी उस ने गुरुदेव को अपने खास कमरे में आश्रम की एक दूसरी सेवादारिन के साथ जिन कपड़ों और हालात में देखा था, वे उसे बहुत गलत लगे थे. गुरुदेव के प्रति उस की भक्ति और आस्था उसी वक्त चूर हो चुकी थी.

मगर उस ने यह बात जब मामी को बताई तो उन्होंने इसे नजर का धोखा कह कर बात वहीं खत्म करने को कह दिया था.

तब से रूपल के मन में एक दहशत सी समा गई थी. वह बिना मामी के उस आश्रम में पैर भी नहीं रखना चाहती थी. सपने में भी वह बाबा अपनी आंखों में लाल डोरे लिए अट्टहास लगाता उस की ओर बढ़ता चला आता और नींद में ही डर से कांपते हुए रूपल की चीख निकल जाती. पर मामी का गुस्सा उसे वहां जाने पर मजबूर कर देता.

‘आखिर इस हालत में कब तक मैं बची रह सकती हूं. काश, मैं मां को बता सकती. वे आ कर मुझे यहां से ले जातीं…’ रूपल का दर्द आंखों से बह निकला.

‘‘बहरी हो गई क्या. कुकर सीटी पर सीटी दिए जा रहा?है, तुझे सुनाई नहीं देता?’’ अचानक मामी के चिल्लाने पर रूपल ने गालों पर ढुलक आए आंसू आहिस्ता से पोंछ डाले, ‘‘जी मामी, यहीं हूं,’’ कह कर उस ने गैस पर से कुकर उतारा.

‘‘सुन, आज गुरुजी का बुलावा है. सब काम निबटा कर वहां चली जाना,’’ सुबह मामा के औफिस जाते ही मामी ने रूपल को फरमान सुनाया.

‘‘मामीजी, एक बात कहनी थी आप से…’’ थोड़ा डरते हुए रूपल के मुंह से निकला, ‘‘दरअसल, मैं उन बाबा के पास नहीं जाना चाहती. वह मुझे अकेले में बुला कर यहांवहां छूने की कोशिश करता है. मुझे बहुत घिन आती है.’’

‘‘पागल हुई है लड़की… इतने बड़े महात्मा पर इतना घिनौना इलजाम लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आती. उस दिन भी तू उन के बारे में अनापशनाप बके जा रही थी. तू बखूबी जानती भी है कि वे कितने चमत्कारी हैं.’’

‘‘मामीजी, मैं आप से सच कह रही हूं. प्लीज, आप मुझ से कोई भी काम करा लो लेकिन उन के पास मत भेजो,’’ रूपल की आंखों में दहशत साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘देख रूपल, अगर तुझे यहां रहना है, तो फिर मेरी बात माननी पड़ेगी, नहीं तो तेरी मां को फोन लगाती हूं और तुझे यहां से ले जाने के लिए कहती हूं.’’

‘‘नहीं मामी, मां पहले ही बहुत परेशान हैं, आप उन्हें फोन मत करना. आप जहां कहेंगी मैं चली जाऊंगी,’’ रूपल ने दुखी हो कर हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मामी के होंठों पर एक राजभरी मुसकान बिखर गई.

पता नहीं पर उस दिन रूपल की मामी भी उस के साथ गुरुजी के आश्रम पहुंचीं. कुछ ही देर में बाबा भक्तों को दर्शन देने वाले थे.

‘‘तू यहीं बैठ, मैं अंदर कुछ जरूरी काम से जा रही हूं,’’ मामी बोलीं.

रूपल को सब से अगली लाइन में बिठा कर मामी ने उसे अपना मोबाइल फोन पकड़ाया.

‘‘बाबा, मैं ने अपना काम पूरा किया. आप को एक कन्या भेंट की है. अब तो मेरी गोदी में नन्हा राजकुमार खेलेगा न?’’ मामी ने बाबा के सामने अपना आंचल फैलाते हुए कहा.

‘‘अभी देवी से प्रभु का मिलन बाकी है. जब तक यह काम नहीं हो जाता, तू कोई उम्मीद लगा कर मत बैठना,’’ बाबा के पास खड़े सेवादार ने जवाब दिया.

‘‘लेकिन, मैं ने तो अपना काम पूरा कर दिया…’’

‘‘हम ने तुझे पहले ही कहा था कि प्रभु और देवी के मिलन में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए. तुझे उसे खुद तैयार करना होगा. इस काम में प्रभु को जबरदस्ती पसंद नहीं.’’

‘‘ठीक है, कल तक यह काम भी हो जाएगा,’’ मामी ने बाबा के पैरों को छूते हुए कहा. उधर तुरंत ही किसी काम से मामा का फोन आने से मामी के पीछे चल पड़ी रूपल ने जैसे ही ये बातें सुनीं, उस के पैरों तले जमीन सरक गई.

मामी को आते देख रूपल थोड़ी सी आड़ में हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’ उसे अपने पीछे से आते देख मामी हैरान हो उठीं.

‘‘बाथरूम गई थी…’’ रूपल ने धीरे से इशारों में बताया.

रूपल बुरी तरह डर चुकी थी. अपनी मामी का खौफनाक चेहरा उस के सामने आ चुका था. अब तक उसे यही लगता था कि मामी भले ही तेज हैं, पर वे अच्छी हैं और बाबा की सचाई से बेखबर हैं, जिस दिन उन्हें गुरुजी की असलियत पता चलेगी वे उसे कभी आश्रम नहीं भेजेंगी. पर अब खुद उस की आंखों पर पड़ा परदा उठ गया था. उसे मामी की हर चाल अब समझ आ चुकी थी.

शादी के 10 साल तक बेऔलाद होने का दुख उन्होंने इस तरह दूर करने की कोशिश की. गांव में आ कर उन की गरीबी पर तरस खा कर उसे यहां एक साजिश के तहत लाना और बाबा के आश्रम में जबरदस्ती भेजना. इन बातों का मतलब अब वह समझ चुकी थी.

लेकिन अब रूपल क्या करे. उसे अपनी मां की बहुत याद आ रही थी. वह बस हमेशा की तरह उन के आंचल के पीछे छिप जाना चाहती थी.

‘मैं मां से इस बारे में बात करूं क्या… पर मां तो मामी की बातों पर इतना भरोसा करती हैं कि मेरी बात उन्हें हाठी ही लगेगी. और फिर घर के हालात… अगर मां जान भी जाएं तो क्या उस का गांव जाना ठीक होगा. वहां मां अकेली 4-4 जनों का खानाखर्चा कैसे संभालेंगी?’ बेबसी और पीड़ा से उस की आंखें भर आईं.

‘‘रूपल… 2 लिटर दूध ले आना, आज तेरी पसंद की सेवइयां बना दूंगी. तुझे मेरे हाथ की बहुत अच्छी लगती हैं न,’’ बातों में मामी ने उसे भरपूर प्यार परोसा.

खाना खा कर रात को बिस्तर पर लेटी रूपल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. मामी ने आज उसे बहुत लाड़ किया था और मांबहनों के सुखद भविष्य का वास्ता दे कर सच्चे भाव से बाबा की हर बात मान कर उन की भक्ति में डूब जाने को कहा था. पर अब वह बाबा की भक्ति में डूब जाने का मतलब अच्छी तरह समझाती थी.

अगले दिन मामी की योजना के तहत रूपल बाबा के खास कमरे में थी. दूसरी सेवादारिनों ने उसे देवी की तरह कपड़े व गहने वगैरह पहना कर दुलहन की तरह सजा दिया था.

पलपल कांपती रूपल को आज अपनी इज्जत लुट जाने का डर था. लेकिन वह किसी भी तरह से हार नहीं मानना चाहती थी. अभी भी वह अपने बचाव की सारी उम्मीदों पर सोच रही थी कि गुरु कमलाप्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया. आमजन का भगवान एक शैतान की तरह अट्टहास लगाता रूपल की तरफ बढ़ चला.

‘‘बाबा, मैं पैर पड़ती हूं आप के, मुझ पर दया करो. मुझे जाने दो,’’ उस ने दौड़ कर बाबा के चरण पकड़ लिए.

‘‘देख लड़की, सुहाग सेज पर मुझे किसी तरह का दखल पसंद नहीं. क्या तुझे समर्पण का भाव नहीं समझाया गया?’’

बाबा की आंखों में वासना का ज्वार अपनी हद पर था. उस के मुंह से निकला शराब का भभका रूपल की सांसों में पिघलते सीसे जैसा समाने लगा.

‘‘बाबा, छोड़ दीजिए मुझे, हाथ जोड़ती हूं आप के आगे…’’ रूपल ने अपने शरीर पर रेंग रहे उन हाथों को हटाने की पूरी कोशिश की.

‘‘वैसे तो मैं किसी से जबरदस्ती नहीं करता, पर तेरे रूप ने मुझे सम्मोहित कर दिया है. पहले ही मैं बहुत इंतजार कर चुका हूं, अब और नहीं… चिल्लाने की सारी कोशिशें बेकार हैं. तेरी आवाज यहां से बाहर नहीं जा सकती,’’ कह कर बाबा ने रूपल के मुंह पर हाथ रख उसे बिस्तर पर पटक दिया और एक वहशी दरिंदे की तरह उस पर टूट पड़ा.

तभी अचानक ‘धाड़’ की आवाज से कमरे का दरवाजा खुला. अगले ही पल पुलिस कमरे के अंदर थी. बाबा की पकड़ तनिक ढीली पड़ते ही घबराई रूपल झटक कर अलग खड़ी हो गई.

पुलिस के पीछे ही ‘रूपल…’ जोर से आवाज लगाती उस की मां ने कमरे में प्रवेश किया और डर से कांप रही रूपल को अपनी छाती से चिपटा लिया.

इस तरह अचानक रंगे हाथों पकड़े जाने से हवस के पुजारी गुरु कमलाप्रसाद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. फिर भी वह पुलिस वालों को अपने रोब का हवाला दे कर धमकाने लगा.

तभी उस की एक पुरानी सेवादारिन ने आगे बढ़ कर उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद किया. पहले वह भी इसी वहशी की हवस का शिकार हुई थी. वह बाबा के खिलाफ पुलिस की गवाह बनने को तैयार हो गई.

बाबा का मुखौटा लगाए उस ढोंगी का परदाफाश हो चुका था. आखिरकार एक नाबालिग लड़की पर रेप और जबरदस्ती करने के जुर्म में बाबा को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उस के सभी चेलेचपाटे कानून के शिकंजे में पहले ही कसे जा चुके थे.

मां की छाती से लगी रूपल को अभी भी अपने सुरक्षित बच जाने का यकीन नहीं हो रहा था, ‘‘मां… मामी ने मुझे जबरदस्ती यहां…’’

‘‘मैं सब जान चुकी हूं मेरी बच्ची…’’ मां ने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा. ‘‘तू चिंता मत कर, भाभी को भी सजा मिल कर रहेगी. पुलिस उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है.

‘‘मैं अपनी बच्ची की इस बदहाली के लिए उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तू मेरे ही पास रहेगी मेरी बच्ची. तेरी मां गरीब जरूर है, पर लाचार नहीं. मैं तुझ पर कभी कोई आंच नहीं आने दूंगी.

‘‘मेरी मति मारी गई थी कि मैं भाभी की बातों में आ गई और सुनहरे भविष्य के लालच में तुझे अपने से दूर कर दिया.

‘‘भला हो तुम्हारे उस पड़ोसी का, जिस ने तुम्हारे दिए नंबर पर फोन कर के मुझे इस बात की जानकारी दे दी वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ शर्मिंदगी में मां अपनेआप को कोसे जा रही थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मैं रमा की असलियत से अनजान था. गलती तो मुझ से भी हुई है. मैं ने सबकुछ उस के भरोसे छोड़ दिया, यह कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रूपल किस तरह से कैसे हालात में रह रही है,’’ सामने से आ रहे मामा ने अपनी बहन के पैर पकड़ लिए.

बहन ने कोई जवाब न देते हुए भाई पर एक तीखी नजर डाली और बेटी का हाथ पकड़ कर अपने घर की राह पकड़ी.

रूपल मन ही मन उस पड़ोसी का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसे सेवइयों के लिए दूध लाते वक्त उस ने मां का फोन नंबर दिया था और उस ने ही समय रहते मां को मामी की कारगुजारी के बारे में बताया था जिस के चलते ही आज वह अंधविश्वास की बलिवेदी पर भेंट चढ़ने से बच गई थी.

मां का हाथ थामे गांव लौटती रूपल अब खुली हवा में एक बार फिर सुकून की सांसें ले रही थी.

बेईमानी का नतीजा : गड्ढे में नारायण

आधी रात का समय था. घना अंधेरा था. चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. ऐसे में रामा शास्त्री के घर का दरवाजा धीरे से खुला. वे दबे पैर बाहर आए. उन का बेटा कृष्ण भी पीछेपीछे चला आया. उस के हाथ में कुदाली थी.

रामा शास्त्री ने एक बार अंधेरे में चारों ओर देखा. लालटेन की रोशनी जहां तक जा रही थी, वहां तक उन की नजर भी गई थी. उस के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था.

रामा शास्त्री ने थोड़ी देर रुक कर कुछ सुनने की कोशिश की. कुत्तों के भूंकने की आवाज के सिवा कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था.

रामा शास्त्री ने अपने घर से सटे हुए दूसरे घर का दरवाजा खटखटाया और पुकारा, ‘‘नारायण.’’

नारायण इसी इंतजार में था. आवाज सुनते ही वह फौरन बाहर आ गया.

‘‘सबकुछ तैयार है. चलें क्या?’’ रामा शास्त्री बोले.

‘‘हां चलो,’’ कह कर नारायण ने घर में ताला लगा दिया और उन के पीछे हो लिया. उस के हाथ में टोकरी थी. उस की बीवी और बच्चे मायके गए थे.

रामा शास्त्री लालटेन ले कर आगेआगे चलने लगे और कृष्ण व नारायण उन के पीछे चल पड़े.

रामा शास्त्री और उन का छोटा भाई नारायण पहले एक ही घर में रहते थे. छोटे भाई की 2 बेटियां थीं. रामा शास्त्री का बेटा कृष्ण 25 साल का था. उस की शादी अभी नहीं हुई थी. नारायण की बेटियां अभी छोटी थीं.

घर में जेठानी और देवरानी में पटती नहीं थी. उन दोनों में हमेशा किसी न किसी बात को ले कर झगड़ा होता रहता था. अपने मातापिता के जीतेजी नारायण व रामा शास्त्री बंटवारा नहीं करना चाहते थे.

मातापिता की मौत के बाद दोनों भाइयों और उन की बीवियों के बीच मनमुटाव बढ़ गया. अंदर सुलगती आग अब भड़क उठी थी.

नारायण का मिजाज कुछ नरम था पर रामा शास्त्री चालबाज थे. भाई और भाभी की बातों में आ कर नारायण अपनी बीवी को अकसर पीटता रहता था. उस की नासमझ का फायदा उठा कर रामा शास्त्री ने चोरीछिपे कुछ रुपए भी जमा कर रखे थे.

नारायण के साथ जो नाइंसाफी हो रही थी, उसे देख कर गांव के कुछ लोगों को बुरा लगता था. उन्होंने नारायण को बड़े भाई के खिलाफ भड़का दिया.

नतीजतन एक दिन दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ और घर व जमीनजायदाद का बंटवारा हो गया. मातापिता की मौत के बाद 3 महीने के अंदर ही वे अलग हो गए.

सब बंटवारा तो ठीक से हो गया, मगर बाग को ले कर फिर झगड़ा शुरू हो गया. रामा शास्त्री बाग को अपने लिए रखना चाहते थे. इस के बदले में वे सारी जायदाद छोड़ने के लिए तैयार थे. लेकिन 6 एकड़ के बाग में नारायण अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं था.

बाग में 3 सौ नारियल के पेड़ और सौ से ज्यादा सुपारी के पेड़ थे. उस से सटी हुई 6 एकड़ खाली जमीन भी थी. बाकी जमीन भी बहुत उपजाऊ थी.

बाग से जितनी आमदनी होती थी, उतनी बाकी जमीन में भी होती थी. लेकिन नारायण की जिद की वजह से बाग का भी 2 हिस्सों में बंटवारा हो गया.

रामा शास्त्री ने अपने हिस्से के बाग में जो खाली जगह थी, वहां रहने के लिए मकान बनवाना शुरू कर दिया.

इसी चक्कर में एक दिन शाम को मजदूरों के जाने के बाद कृष्ण नींव के लिए खोदी गई जगह का मुआयना कर रहा था. वह एक जगह पर कुदाली से मिट्टी हटाने लगा, क्योंकि वहां मिट्टी अंदर से खिसक रही थी.

कृष्ण ने 2 फुट गहराई का गड्ढा खोद डाला. नीचे एक बड़ा चौकोर पत्थर था. उस के नीचे एक लोहे का जंग लगा ढक्कन था, मगर वह उसे खोल नहीं सका. उस ने सोचा कि वहां कोई राज छिपा हुआ होगा. वह मिट्टी से गड्ढा भर कर वापस घर लौट गया. उस ने अपने पिता को सबकुछ बताया.

रामा शास्त्री ने बेटे के साथ आ कर अच्छी तरह से गड्ढे की जांच की. देखते ही देखते उन का चेहरा खिल उठा. उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे कुछ पलों तक सुधबुध खो कर बैठ गए.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री ने इधरउधर देखा और कहा, ‘‘कृष्ण, मिल गया… मिल गया.’’

4-5 पीढ़ियों पहले रामा शास्त्री का कोई पुरखा किसी राजा का खजांची रह चुका था. वह अपने एक साथी के साथ राजा के खजाने का बहुत सा धन चुरा कर भाग गया था. राजा को इस बात का पता चल गया था.

राजा ने सैनिकों को चारों ओर भेजा, लेकिन वे चोर तलाशने में नाकाम रहे. राजा ने चोरों के घर वालों को तमाम तकलीफें दीं, मगर कुछ भी नतीजा नहीं निकला.

इस के बाद सभी पीढ़ी के लोग मरते समय अपने बेटों को यह बात बता कर जाते. लेकिन किसी को भी वह छिपाया गया खजाना नहीं मिला था.

रामा शास्त्री ने तय किया था कि अगर उन्हें खजाना मिल गया तो वे एक मंदिर बनवाएंगे. उन का सपना अब पूरा होने वाला था.

बापबेटा दोनों लोहे का ढक्कन हटाने की कोशिश कर रहे थे कि उसी समय नारायण भी वहां आ गया. उस का आना रामा शास्त्री व कृष्ण दोनों को अच्छा नहीं लगा.

उन की बेचैनी देख कर नारायण को कुछ शक हुआ और इस काम में वह भी शामिल हो गया.

तीनों ने मिल कर उस ढक्कन को हटा दिया. उस के नीचे भी मिट्टी ही थी. लेकिन वहां कुछ खोखला था. लकड़ी के तख्त पर मिट्टी बिछी हुई थी. उन को यकीन हो गया कि अंदर कोई खजाना है.

इतने में दूर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी, इसलिए उन्होंने गड्ढे पर पत्थर रख दिया. फिर रात को दोबारा आ कर खजाना निकालने की योजना बनाई गई.

आधी रात को कुदाली ले कर तीनों चल पड़े. वे गांव के मंदिर के पास वाली पगडंडी से होते हुए बाग की ओर चल पड़े. वे चारों ओर सावधानी से देखते हुए चल रहे थे.

दूर से किसी की आहट सुन कर वे लालटेन बुझ कर पास के इमली के पेड़ की आड़ में छिप गए.

पड़ोस के गांव गए 2 लोग बातें करते हुए वापस आ रहे थे. नजदीक आतेआते उन की बातें साफ सुनाई दे रही थीं.

एक ने कहा, ‘‘इधर कहीं आग की लपट दिखाई दी थी न?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘हां, मैं ने भी देखी थी… आग का भूत होगा.’’

पहला आदमी बोला, ‘‘सचमुच भूत ही होगा. उसे परसों रंगप्पा ने यहीं देखा था. इस इमली के पेड़ में मोहिनी भूत है.

‘‘रंगप्पा अकेला आ रहा था. पेड़ के पास कोई औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी. उसे देख कर रंगप्पा डर कर घर भाग गया था. उस के बाद वह 3 दिनों तक बीमार पड़ा रहा.’’

तभी इमली के पेड़ से सरसराहट की आवाज सुनाई दी.

‘भूत… भूत…’ चिल्ला कर वे दोनों तेजी से भागे.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री, नारायण और कृष्ण पेड़ की आड़ से बाहर निकल कर बाग की ओर चल पड़े. बाग के पास पहुंच कर उन्होंने कुछ देर तक आसपास का जायजा लिया. वहां कोई न था. दूर से सियारों की आवाज आ रही थी. फिर तीनों वहां खड़े हो गए, जहां खजाना गड़ा होने की उम्मीद थी.

कृष्ण कुदाली से मिट्टी खोदने लगा, तो नारायण टोकरी में भर कर मिट्टी एक तरफ डालता रहा. रामा शास्त्री आसपास के इलाके पर नजर रखे हुए थे.

लोहे का ढक्कन हटा कर नीचे की मिट्टी निकाल कर एक ओर फेंक दी गई. उस के नीचे मौजूद लकड़ी के तख्त को भी हटा दिया गया, तख्त के नीचे एक गोलाकार मुंह वाला गहरा गड्ढा नजर आया. उस की गहराई करीब 6 फुट थी. लालटेन की रोशनी में अंदर कुछ कड़ाहियां दिखाई पड़ीं.

नारायण गड्ढे के अंदर झांक कर देख रहा था तभी रामा शास्त्री ने कृष्ण को कुछ इशारा किया. अचानक नारायण के सिर पर एक बड़े पत्थर की मार पड़ी. वह बिना आवाज किए वहीं लुढ़क गया.

दोबारा पत्थर की मार से उस का काम तमाम हो गया. उस की लाश को बापबेटे ने घसीट कर एक ओर फेंक दिया.

रामा शास्त्री लालटेन हाथ में ले कर खड़े हो गए. कृष्ण गड्ढे में कूद पड़ा. गड्ढे में जहरीली गैस की बदबू भरी थी. कृष्ण को सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. उस ने लालटेन की रोशनी में अंदर चारों ओर देखा.

दीवार से सटी हुई 6 ढकी हुई कड़ाहियां रखी हुई थीं. कृष्ण ने कुदाली से एक कड़ाही के मुंह पर जोर से मारा, तो उस का ढक्कन खुल गया. उस में चांदी के सिक्के भरे थे. दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे उस सारे खजाने के मालिक थे.

तभी कृष्ण की नजर वहां एक कोने में पड़ी हुई किसी चीज पर पड़ी. वह जोर से चीख उठा. डर से उस का जिस्म कांपने लगा.

रामा शास्त्री ने परेशान हो कर भीतर झांक कर देखा तो वे भी थरथर कांपने लगे. वहां 2 कंकाल पड़े थे. वे शायद खजांची और उस के साथी के रहे होंगे.

रामा शास्त्री ने किसी तरह खुद को संभाला और बेटे को हौसला बंधाते हुए एकएक कर सभी कड़ाहियां ऊपर देने को कहा.

कड़ाहियां भारी होने की वजह से उन्हें उठाना कृष्ण के लिए मुश्किल हो रहा था. जहरीली गैस की वजह से उसे सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी.

कृष्ण ने बहुत कोशिश कर के एक कड़ाही को कमर तक उठाया ही था कि उस का सिर चकरा गया और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह कड़ाही लिए हुए नीचे गिर गया.

रामा शास्त्री घबरा कर कृष्ण को पुकारने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर वह भी गड्ढे में कूद पड़े.

जहरीली गैस की वजह से उन से भी वहां सांस लेना मुश्किल हो गया. उन्होंने कृष्ण को उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा न सके. वह भी बेदम हो कर नीचे गिर पड़े. बाप और बेटे फिर कभी नहीं उठे. वे मर चुके थे.

बदनाम गली : राजू क्यों गया था वेश्या के पास

‘‘हर माल 10 रुपए… हर माल की कीमत 10 रुपए… ले लो… ले लो… बिंदी, काजल, पाउडर, नेल पौलिश, लिपस्टिक…’ जोर से आवाज लगाते हुए राजू अपने ठेले को धकेल कर एक गली में घुमा दिया और आगे बढ़ने लगा. वह एक बदनाम गली थी.

कई लड़कियां व औरतें खिड़की, दरवाजों और बालकनी में सजसंवर कर खड़ी थीं. कुछ लड़कियां खिलखिलाते हुए राजू के पास आईं और ठेले में रखे सामान को उलटपुलट कर देखने लगीं.

‘वह वाली बिंदी निकालो… यह कौन से रंग की लिपस्टिक है… बड़ी डब्बी वाला पाउडर नहीं है क्या…’ एकसाथ कई सवाल होने लगे.

राजू जल्दीजल्दी उन सब की फरमाइशों के मुताबिक सामान दिखाने लगा.

जब राजू कोई सामान निकाल कर उन्हें देता तो वे सब उसे आंख मार देतीं और कहतीं, ‘पैसा भी चाहिए क्या?’

‘‘बिना पैसे के कोई सामान नहीं मिलता,’’ राजू जवाब देता.

‘‘तू पैसा ही ले लेना. और कुछ चाहिए तो वह भी तुझे दे दूंगी,’’ तभी किसी लड़की ने ऐसा कहा तो बाकी सब लड़कियां भी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

राजू ने उन लड़कियों के ग्रुप के पीछे थोड़ी दूरी पर एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की को देखा.

घनी काली जुल्फें, दमकता हुआ गोरा रंग, पतली आकर्षक देह. राजू को लगा कि उस ने कहीं इस लड़की को देखा है.

राजू सामान बेचता रहा, पर लगातार उस लड़की के बारे में सोचता रहा. वह बारबार उसे अच्छी तरह देखने की कोशिश करता रहा, लेकिन सामान खरीदने वाली लड़कियों के सामने रहने की वजह से अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था.

तभी राजू ने देखा कि एक बड़ीबड़ी मूंछों वाला अधेड़ आदमी आया और उस लड़की को ले कर मकान के अंदर चला गया. शायद वह आदमी ग्राहक था.

थोड़ी देर बाद राजू सामान बेच कर आगे बढ़ गया, लेकिन वह लड़की उस के ध्यान से हट ही नहीं रही थी.

धीरेधीरे शाम होने को आई. जब वह घर के करीब एक दुकान के पास से गुजरा तो उस ने देखा कि दुकान पर रामू चाचा के बजाय उन की 10 साला बेटी काजल बैठी थी और ग्राहकों को सामान दे रही थी. यह देख उसे कुछ याद आया.

आधी रात हो गई थी. राजू अब फिर उस बदनाम गली में था. उस की आंखें उसी लड़की को ढूंढ़ रही थीं. वहां कई लड़कियां सजसंवर कर ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थीं. राजू को देख कर वे उस से नैनमटक्का करने लगीं.

‘‘क्या रे, तू फिर आ गया… रात को भी सामान बेचेगा क्या?’’ एक लड़की मुसकरा कर बोली.

‘‘नहीं, अब मैं ग्राहक बन कर आया हूं,’’ राजू ने कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. फिर बता, तुझे कौन सी वाली पसंद है?’’ एक लड़की ने पूछा.

राजू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे तो सब पसंद हैं, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या…? चल मेरे साथ. मुझे सब रंगीली बुलाते हैं,’’ एक लड़की ने आगे आ कर राजू का हाथ पकड़ लिया.

‘‘आज रहने दे रंगीली. मु झे तो वह पसंद है…’’ राजू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दिन में जिस लड़की को देखा था, उस के बारे में पूछा.

‘‘बहुत पूछ रहा है उसे. नई है न…’’ रंगीली बोली, ‘‘एक आशिक उसे ले कर कमरे में गया है. वह उस का रोज का ग्राहक है. खूब पसंद करता है उसे. तु झे चाहिए तो थोड़ी देर ठहर. वह उसे निबटा कर आ जाएगी यहीं.’’

राजू बेचैनी से उस लड़की के बाहर आने का इंतजार करने लगा.

तकरीबन आधा घंटे बाद एक ग्राहक कमरे से बाहर निकल कर एक तरफ चला गया.

कुछ देर बाद उस कमरे से एक लड़की बाहर आई और दरवाजे पर खड़ी हो गई.

राजू ने उसे देखा तो पहचान गया. वह वही लड़की थी, जिस की तलाश में वह आया था.

‘‘जा मस्ती कर. तेरी महबूबा आ गई,’’ रंगीली ने कहा.

राजू उस लड़की के पास जा कर बोला, ‘‘जब से तुम्हें देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं इसीलिए अभी आया हूं.’’

‘‘तो चलो,’’ वह लड़की राजू का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाने लगी.

‘पुलिस… पुलिस… भागो… भागो…’ तभी जोरदार शोर हुआ और चारों तरफ भगदड़ मच गई. सभी लड़कियां, ग्राहक और दलाल इधरउधर भाग कर छिपने की कोशिश करने लगे.

थोड़ी देर में ही पुलिस ने कोठेवाली, दलाल और कई ग्राहकों को गिरफ्तार कर लिया और थाने ले गई. कई लड़कियों को पुलिस ने आजाद करा कर नारी निकेतन भेज दिया.

राजू को भी पुलिस ने उस लड़की के साथ गिरफ्तार कर लिया था, पर उस लड़की को नारी निकेतन नहीं भेजा गया. वह डर से थरथर कांप रही थी.

‘‘डरो नहीं खुशबू, अब तुम आजाद हो,’’ थाने पहुंच कर राजू ने उस लड़की से कहा.

‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’’ उस लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘खुशबू, मेरी बेटी. कहांथी तू अब तक,’’ राजू के कुछ कहने से पहले वहां एक अधेड़ औरत आई और उस लड़की को अपने गले से लगा कर फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘मां, मुझे बचा लो. मैं उस नरक में अब नहीं जाऊंगी,’’ खुशबू भी उस औरत से लिपट कर रोने लगी और अपनी आपबीती सुनाने लगी कि कैसे 6 महीने पहले कुछ गुंडों ने उस की दुकान के आगे से रात 9 बजे उठा लिया था और कुछ दिन उस की इज्जत से खेलने के बाद चकलाघर में बेच दिया था.

‘‘अब आप के साथ कुछ गलत नहीं होगा. सारे बदमाशों को गिरफ्तार कर मैं ने जेल भेज दिया है…’’ तभी थानेदार ने कहा, ‘‘बस आप लोगों को कोर्ट आना होगा मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए.’’

‘‘मैं कोर्ट जाऊंगी. उन सभी बदमाशों को सजा दिलवा कर रहूंगी जिन्होंने मेरी बेटी की जिंदगी खराब की है…’’ वह औरत आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘अब मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा?’’ खुशबू की मां ने कहा.

‘‘अब आप लोग घर जा सकते हैं. जाने से पहले इन कागजात पर दस्तखत कर दें,’’ थानेदार ने कहा तो खुशबू, उस की मां और राजू ने दस्तखत कर दिए.

‘‘पर, आप लोगों को मेरे बारे में कैसे पता चला?’’ थाने से बाहर निकल कर खुशबू ने पूछा.

‘‘यह सब राजू के चलते मुमकिन हुआ. इसी ने मुझे बताया कि तुम्हें एक कोठे पर देखा है…

‘‘फिर मैं राजू के साथ पुलिस स्टेशन गई. जहां तुझे छुड़ाने की योजना बनी,’’  खुशबू की मां बोली.

‘‘राजू मुझे कैसे जानता है?’’ खुशबू ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारी मां की परचून की दुकान पर मैं अकसर सौदा लेने जाता था वहीं तुम्हें देखा था. तब से ही मैं तुम्हें पहचानता था. जब तुम गायब हो गईं तो तुम्हारी मां दुकान पर हमेशा रोती रहती थीं. कहती थीं कि तुम्हारे बाबा जिंदा होते तो तुम्हें ढूंढ़ लाते. लेकिन वह अकेली कहां ढूंढ़ती फिरेंगी.

‘‘आज जब मैं अपना ठेला ले कर सामान बेचने गया तो कोठे पर तुम्हें देख कर तुम्हारी मां को सब बता दिया,’’ राजू बोल पड़ा.

‘‘आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ खुशबू ने रुंधे गले से शुक्रिया अदा करते हुए कहा.

तभी राजू  झिझकते हुए खुशबू की मां से बोला, ‘‘आप एक एहसान मुझ पर भी कर दीजिए.’’

‘‘कहो बेटा, मैं क्या कर सकती हूं तुम्हारे लिए?’’ खुशबू की मां ने पूछा.

‘‘मुझे खुशबू का हाथ दे दीजिए,’’ राजू अटकअटक कर बोला.

राजू की मांग सुन कर दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू आ गए. खुशबू ने आगे बढ़ कर राजू के पैर छू लिए.

‘‘तेरे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गई. पर यह तो बता कि तुझे जातपांत का वहम तो नहीं.’’

‘‘नहीं जी, हम गरीबों की क्या जाति. हमें तो दूसरों के लिए हड्डी तोड़नी ही है. फिर यह जाति का दंभ क्यों पालें. खुशबू जो भी हो, मुझे पसंद है,’’ राजू तमक कर बोला.

नई सुबह के इंतजार में उन तीनों के कदम घर की ओर तेजी से बढ़ने लगे.

अच्छा अफसर: ढलती उम्र में क्यों बदल गए नारायणदास

‘‘सर, पिताजी को शहर जा कर हार्ट स्पैशलिस्ट को दिखाना है,’’ एक मुलाजिम ने अपने बड़े अफसर नारायणदास को अर्जी दे कर कहा.

‘‘ठीक है जाओ,’’ अर्जी पर मंजूरी देते हुए नारायणदास ने कहा.

‘‘थैंक्स सर,’’ उस मुलाजिम ने दिल से शुक्रिया अदा करते हुए कहा.

‘‘सर, मेरी यह भविष्य निधि से पैसा निकालने की अर्जी है. बेटी का पहला बच्चा हुआ है,’’ चपरासी रामावतार ने नारायणदास से कहा.

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’ नारायणदास ने रामावतार के भविष्य निधि अकाउंट में बैलेंस देखते हुए पूछा.

‘‘10,000 रुपए.’’

‘‘ठीक है, मैं पैसे वापस भरने की शर्त पर मंजूर करता हूं. मैं कैशियर से कह देता हूं, तुम्हें अगले हफ्ते पैसे मिल जाएंगे. हां, बेटी का प्रसूति प्रमाणपत्र दफ्तर में जमा करा देना,’’ नारायणदास ने अर्जी पर दस्तखत करते हुए कहा.

जिला कक्षा के अफसर नारायणदास के पास कोई भी मुलाजिम अपना काम ले कर आता तो वे कर देते या फिर भरोसा देते कि वे कोशिश करेंगे. सारे मुलाजिम उन के काम और बरताव से बहुत ही खुश थे और उन्हें गर्व होता था कि उन के ऐसे अफसर हैं. इस वजह से वे उन्हें दिल से मान देते थे.

पर इन्हीं नारायणदास को किसी ने एक साल पहले देखा होता तो किसी को भी यकीन नहीं होता कि कोई इनसान इस उम्र में भी इतना बदल सकता है.

नारायणदास के इस बदलाव की वजह सिर्फ 2 ही लोग जानते हैं. एक खुद नारायणदास और दूसरे उन के रिटायर्ड दोस्त मोहन राणा.

तकरीबन एक साल पहले की बात है. रिटायर्ड अफसर मोहन राणा अपने बेटे की शादी का कार्ड देने नारायणदास के औफिस आए थे.

मोहन राणा नारायणदास के कालेज के समय के दोस्त थे और उन के ही गांव से थे. हालांकि वे उम्र में नारायणदास से 2 साल बड़े थे, पर उन की दोस्ती अब तक बरकरार रही.

‘‘सर, 3 दिन की छुट्टी चाहिए. मां बीमार हैं,’’ तकरीबन गिड़गिड़ाने की आवाज में नारायणदास के मुलाजिम ने अर्जी देते हुए कहा था.

‘‘अभी पिछले महीने ही तो गए थे. वैसे, यह बहाना कब तक चलेगा?’’ फाइल में ही नजरें गड़ाते हुए नारायणदास ने पूछा था.

‘‘सर, यह बहाना नहीं हकीकत है. मैं ने मां की बीमारी का मैडिकल सर्टिफिकेट भी दिखाया था. उन्हें पिछले 2 साल से हार्ट की बीमारी है. मैं उन का एकलौता बेटा हूं, इसलिए सारी जवाबदारी मेरी ही बनती है,’’ उस मुलाजिम ने बेबसी से कहा था.

‘‘तो यहां के काम का कौन ध्यान रखेगा? पता है न कि क्वार्टर ऐंडिंग है. और कितनी सारी रिपोर्ट बिना देरी किए हैडक्वार्टर भेजनी होती हैं. इस तरह बारबार छुट्टी लोगे तो तुम्हारी सालाना गुप्त रिपोर्ट में नोटिंग होगी. और तुम्हारी प्रमोशन बाकी ही है,’’ नारायणदास ने उसे सालाना गुप्त रिपोर्ट बिगड़ने की धमकी दी.

वह मुलाजिम मन मसोस कर रह गया. मां की बीमारी के दर्द की बेचैनी उस के चेहरे पर पढ़ी जा सकती थी.

मोहन राणा अपने दोस्त नारायणदास को जानते थे कि उन का अपने नीचे काम करने वाले मुलाजिमों के साथ रिश्ता गुलाम और राजा जैसा था. इस बात को नारायणदास दोस्तों और रिश्तेदारों में गर्व से कहते भी थे.

औफिस का समय पूरा हो चुका था. नारायणदास अपने दोस्त मोहन राणा को इज्जत के साथ सरकारी गाड़ी में सरकारी बंगले में ले कर आए.

‘‘राणा, रिटायरमैंट जिंदगी कैसी चल रही है? बड़े ठसके और आराम से चल रही होगी?’’ नारायणदास ने जैसे जलन के भाव से पूछा.

‘‘सच बताऊं नारायण, बहुत ही बुरी तरह से कट रही है. हम रिटायरमैंट का बेसब्री से इंतजार करते हैं. जैसे हम सोचते हैं कि रिटायरमैंट के बाद कोई जवाबदारी नहीं, कोई भागमभाग नहीं. बस सब से मिलो, पुरानी बातें याद करो और मस्ती से जिंदगी का मजा लो. पर मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ मोहन राणा ने बेहद हताशा, दुख और अफसोसजनक शब्दों से कहा.

‘‘क्या मतलब राणा?’’ नारायणदास ने हैरानी से पूछा. वे तो यही सोच रहे थे कि पैंशन के साथ आराम, कोई जवाबदारी नहीं. जिंदगी में कोई किचकिच नहीं. मैं खुद भी अपनी रिटायरमैंट का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं.’’

‘‘मेरे ही काम मुझ पर भारी पड़ गए. अपने हकों का हद से ज्यादा भोगना और अपनेआप को बहुत बड़ा समझना ही, आज मुझे बहुत छोटा कर रहा है,’’ मोहन राणा ने कचौड़ी का टुकड़ा हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘मैं समझा नहीं…’’ नारायणदास ने उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘नारायण, मैं भी तुम्हारी तरह कड़क और अपने हकों को पूरा भोगने वाला अफसर था. अपने नीचे काम करने वाले किसी भी मुलाजिम की छोटी सी गलती निकालने के लिए बेसब्र रहता था. गलतियां निकाल कर और बाद में सब के सामने उसे बेइज्जत करना मेरा एक तरह से शौक या यों कहो कि जुनून हो गया था.

‘‘वे हमारे नीचे काम करने वाले मुलाजिम थे. उन की छुट्टियां, उन की सालाना गुप्त रिपोर्ट, जिस की वजह से उन की प्रमोशन होती है, हमारे हाथ में था. मतलब कि हमारा एक गलत शब्द भी उन के भविष्य के लिए काला धब्बा बन सकता है. ये सब बातें वे लोग समझते हैं, इसलिए हमारे घटिया बरताव को कड़वा घूंट पी कर चुपचाप सहन कर जाते हैं.

‘‘उन की छुट्टियां, जो सरकार ने दी हुई थीं, जो उन का हक था, उन्हें मैं किसी न किसी वजह से रद्द कर देता था.

‘‘उन की ही पगार से काटी गई भविष्य निधि की रकम उन्हीं को देने से मना कर देता था, जैसे कि वह मेरा पैसा हो और मैं दान देने से मना कर रहा हूं.’’

नारायणदास मन ही मन सोच रहे थे कि वे भी तो पूरी जिंदगी यही करते रहे हैं.

मोहन राणा ने आगे कहा, ‘‘इस वजह से मेरे किसी भी मुलाजिम के साथ अच्छे संबंध नहीं रहे. पर हैरानी तो यह कि मुझे इस बात का गर्व होता था.

‘‘इतना ही नहीं, पूरे दिन औफिस की साहबी घर जा कर भी नहीं मिटती थी. वहां भी मैं जिला अफसर ही था. घर पर सरकारी चपरासी और दूसरे नौकरों के साथसाथ मेरी साहबी अपने घर वालों पर भी निकलती थी.

‘‘बच्चे रविवार की छुट्टी से डरते थे, क्योंकि मैं उस दिन पूरा समय घर पर ही रहता था. मेरी टोकाटोकी और रोब के चलते वे ऐक्स्ट्रा क्लास या ट्यूशन के नाम से घर के बाहर रहना पसंद करते थे. पत्नी के बनाए खाने में मीनमेख निकालना तो जैसे मेरा रोज का नियम हो गया था.

‘‘मैं अपने बड़े पद के घमंड के चलते दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां जाना जैसे अपनी बेइज्जती समझता था, जबकि बड़ा अफसर होने के चलते वे मुझे गर्व से बुलाते थे और अपने पहचान वालों से मिलवाते थे.

‘‘वह तो ठीक है राणा, पर इन सब बातों का हमारी रिटायरमैंट से क्या लेनादेना?’’ नारायणदास को समझ में नहीं आया कि उन का दोस्त क्यों अपनी पर्सनल बातें उन्हें बता रहा है.

‘‘क्योंकि, इन्हीं बातों के चलते मेरी जिंदगी नरक जैसी हो गई है.’’

‘‘मतलब…?’’ नारायणदास चौंके.

‘‘रिटायरमैंट के कुछ समय बाद मैं अपनी पैंशन के सिलसिले में अपने पुराने औफिस गया था, जहां मेरा कभी एकछत्र राज चलता था. जहां मेरी इजाजत के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. वहां गेट पर खड़े चौकीदार न सिर्फ सावधान हो जाते थे, बल्कि जोर से मुझे सैल्यूट भी मारते थे.

‘‘पर, उस दिन उस चौकीदार ने सलामी तो क्या दी, बल्कि वह अपनी कुरसी से उठा तक नहीं. औफिस के अंदर चपरासी और दूसरे मुलाजिमों ने मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया. यह देख कर मैं खुद को बेइज्जत और दुखी महसूस कर रहा था.

‘‘मैं अपना काम पूरा कर के निकल ही रहा था कि गैलरी की खिड़की से किसी की धीरे से आवाज आ रही थी. अपना नाम सुन कर मैं ठिठक गया.

‘‘कोई बोल रहा था, ‘राणा आया है. बहुत परेशान किया था इस ने पूरे 3 साल तक…’

‘‘यह शायद कार्तिक की आवाज थी, जो अकाउंट क्लर्क था. उस के बेटे को पढ़ने के लिए बाहर जाना था, पर मैं ने अड़ंगा लगा दिया था.

‘‘इतने में कोई और बोला, ‘यह तो कुछ भी नहीं है मेरी तकलीफ के सामने. मेरे पिताजी अंतिम समय में थे. इस राणा से खूब गुजारिश की, पर इस ने ‘मंत्रीजी आ रहे हैं’ के नाम पर छुट्टी नहीं दी, तो नहीं ही दी. मैं पिता के अंतिम दर्शन पर ही पहुंच सका था…’

‘‘फिर किसी तीसरे ने कहा, ‘मेरी खुद की भविष्य निधि के पैसे से घर की जरूरी मरम्मत करनी थी, क्योंकि बारिश सिर पर खड़ी थी, पर इस राणा के बच्चे ने आधी रकम ही मंजूर की और मुझे पहली बार किसी से पैसे उधार लेने पड़े थे…’

‘‘फिर किसी की इस बात ने मुझे चौंका दिया, ‘और एक तरफ हमारे नए साहब हैं, जो हमारी समस्या सुन कर उसे हल करते हैं… और नहीं तो कम से कम कोशिश तो करते हैं कि हमारी समस्या को हल कर सकें. मैं ने तो सर को कह दिया कि कभी रविवार या छुट्टी के दिन भी जरूरत पड़े तो हमें बुला लिया करें…’

‘‘उन तकरीबन सभी के पास मेरे दिए कुछ जख्म थे और नए अफसर के लिए अपनापन था. मैं ज्यादा न सुन सका, क्योंकि मैं इतने में ही समझ गया था कि मैं ने अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल किया था.’’

‘‘यही हालत मेरे घर, दोस्तों और समाज में हो गई है. अब मेरा बेटा खुद कमाने लगा है. वह मुझे खुल कर जवाब देता है. अब कोई रिश्तेदार मुझे अपने यहां नहीं बुलाता है. मैं ने हर जगह अपनी इज्जत खो दी है,’’ नारायणदास ने कहा.

‘‘नारायण, मैं तुम्हें यह सब इसलिए कह रहा हूं कि मैं ने आज तुम्हारे औफिस में वही सब देखा, जो मैं करता था. मैं उस वक्त वापस जा कर खुद को अच्छा अफसर साबित नहीं कर सकता, पर तुम्हारे पास अभी भी 2 साल से ज्यादा का समय है,’’ कहते हुए मोहन राणा चाय पीने लगे.

नारायणदास ने अपने दोस्त मोहन राणा के जाने के बाद बहुत सोचा और पाया कि उन की कहानी भी उन के दोस्त मोहन राणा से अलग नहीं है. वे अपनी रिटायर्ड जिंदगी बरबाद नहीं करना चाहते थे. अगले दिन ही वे मीठा बोलने वाले और अच्छा अफसर बनने में लग गए थे.

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